॥ रामायण ॥
क्रमाङ्क | छन्द | श्लोक |
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1 | 1001001a | तपःस्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम् |
2 | 1001001c | नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुंगवम् |
3 | 1001002a | को न्वस्मिन्साम्प्रतं लोके गुणवान्कश्च वीर्यवान् |
4 | 1001002c | धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः |
5 | 1001003a | चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः |
6 | 1001003c | विद्वान्कः कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः |
7 | 1001004a | आत्मवान्को जितक्रोधो मतिमान्कोऽनसूयकः |
8 | 1001004c | कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे |
9 | 1001005a | एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे |
10 | 1001005c | महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातुमेवंविधं नरम् |
11 | 1001006a | श्रुत्वा चैतत्त्रिलोकज्ञो वाल्मीकेर्नारदो वचः |
12 | 1001006c | श्रूयतामिति चामन्त्र्य प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत् |
13 | 1001007a | बहवो दुर्लभाश्चैव ये त्वया कीर्तिता गुणाः |
14 | 1001007c | मुने वक्ष्याम्यहं बुद्ध्वा तैर्युक्तः श्रूयतां नरः |
15 | 1001008a | इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः |
16 | 1001008c | नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान्धृतिमान्वशी |
17 | 1001009a | बुद्धिमान्नीतिमान्वाग्मी श्रीमाञ्शत्रुनिबर्हणः |
18 | 1001009c | विपुलांसो महाबाहुः कम्बुग्रीवो महाहनुः |
19 | 1001010a | महोरस्को महेष्वासो गूढजत्रुररिंदमः |
20 | 1001010c | आजानुबाहुः सुशिराः सुललाटः सुविक्रमः |
21 | 1001011a | समः समविभक्ताङ्गः स्निग्धवर्णः प्रतापवान् |
22 | 1001011c | पीनवक्षा विशालाक्षो लक्ष्मीवाञ्शुभलक्षणः |
23 | 1001012a | धर्मज्ञः सत्यसंधश्च प्रजानां च हिते रतः |
24 | 1001012c | यशस्वी ज्ञानसंपन्नः शुचिर्वश्यः समाधिमान् |
25 | 1001013a | रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता |
26 | 1001013c | वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः |
27 | 1001014a | सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो स्मृतिमान्प्रतिभानवान् |
28 | 1001014c | सर्वलोकप्रियः साधुरदीनात्मा विचक्षणः |
29 | 1001015a | सर्वदाभिगतः सद्भिः समुद्र इव सिन्धुभिः |
30 | 1001015c | आर्यः सर्वसमश्चैव सदैकप्रियदर्शनः |
31 | 1001016a | स च सर्वगुणोपेतः कौसल्यानन्दवर्धनः |
32 | 1001016c | समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव |
33 | 1001017a | विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शनः |
34 | 1001017c | कालाग्निसदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसमः |
35 | 1001018a | धनदेन समस्त्यागे सत्ये धर्म इवापरः |
36 | 1001018c | तमेवंगुणसंपन्नं रामं सत्यपराक्रमम् |
37 | 1001019a | ज्येष्ठं श्रेष्ठगुणैर्युक्तं प्रियं दशरथः सुतम् |
38 | 1001019c | यौवराज्येन संयोक्तुमैच्छत्प्रीत्या महीपतिः |
39 | 1001020a | तस्याभिषेकसंभारान्दृष्ट्वा भार्याथ कैकयी |
40 | 1001020c | पूर्वं दत्तवरा देवी वरमेनमयाचत |
41 | 1001020e | विवासनं च रामस्य भरतस्याभिषेचनम् |
42 | 1001021a | स सत्यवचनाद्राजा धर्मपाशेन संयतः |
43 | 1001021c | विवासयामास सुतं रामं दशरथः प्रियम् |
44 | 1001022a | स जगाम वनं वीरः प्रतिज्ञामनुपालयन् |
45 | 1001022c | पितुर्वचननिर्देशात्कैकेय्याः प्रियकारणात् |
46 | 1001023a | तं व्रजन्तं प्रियो भ्राता लक्ष्मणोऽनुजगाम ह |
47 | 1001023c | स्नेहाद्विनयसंपन्नः सुमित्रानन्दवर्धनः |
48 | 1001024a | सर्वलक्षणसंपन्ना नारीणामुत्तमा वधूः |
49 | 1001024c | सीताप्यनुगता रामं शशिनं रोहिणी यथा |
50 | 1001025a | पौरैरनुगतो दूरं पित्रा दशरथेन च |
51 | 1001025c | शृङ्गवेरपुरे सूतं गङ्गाकूले व्यसर्जयत् |
52 | 1001026a | ते वनेन वनं गत्वा नदीस्तीर्त्वा बहूदकाः |
53 | 1001026c | चित्रकूटमनुप्राप्य भरद्वाजस्य शासनात् |
54 | 1001027a | रम्यमावसथं कृत्वा रममाणा वने त्रयः |
55 | 1001027c | देवगन्धर्वसंकाशास्तत्र ते न्यवसन्सुखम् |
56 | 1001028a | चित्रकूटं गते रामे पुत्रशोकातुरस्तदा |
57 | 1001028c | राजा दशरथः स्वर्गं जगाम विलपन्सुतम् |
58 | 1001029a | मृते तु तस्मिन्भरतो वसिष्ठप्रमुखैर्द्विजैः |
59 | 1001029c | नियुज्यमानो राज्याय नैच्छद्राज्यं महाबलः |
60 | 1001029e | स जगाम वनं वीरो रामपादप्रसादकः |
61 | 1001030a | पादुके चास्य राज्याय न्यासं दत्त्वा पुनः पुनः |
62 | 1001030c | निवर्तयामास ततो भरतं भरताग्रजः |
63 | 1001031a | स काममनवाप्यैव रामपादावुपस्पृशन् |
64 | 1001031c | नन्दिग्रामेऽकरोद्राज्यं रामागमनकाङ्क्षया |
65 | 1001032a | रामस्तु पुनरालक्ष्य नागरस्य जनस्य च |
66 | 1001032c | तत्रागमनमेकाग्रे दण्डकान्प्रविवेश ह |
67 | 1001033a | विराधं राक्षसं हत्वा शरभङ्गं ददर्श ह |
68 | 1001033c | सुतीक्ष्णं चाप्यगस्त्यं च अगस्त्य भ्रातरं तथा |
69 | 1001034a | अगस्त्यवचनाच्चैव जग्राहैन्द्रं शरासनम् |
70 | 1001034c | खड्गं च परमप्रीतस्तूणी चाक्षयसायकौ |
71 | 1001035a | वसतस्तस्य रामस्य वने वनचरैः सह |
72 | 1001035c | ऋषयोऽभ्यागमन्सर्वे वधायासुररक्षसाम् |
73 | 1001036a | तेन तत्रैव वसता जनस्थाननिवासिनी |
74 | 1001036c | विरूपिता शूर्पणखा राक्षसी कामरूपिणी |
75 | 1001037a | ततः शूर्पणखावाक्यादुद्युक्तान्सर्वराक्षसान् |
76 | 1001037c | खरं त्रिशिरसं चैव दूषणं चैव राक्षसं |
77 | 1001038a | निजघान रणे रामस्तेषां चैव पदानुगान् |
78 | 1001038c | रक्षसां निहतान्यासन्सहस्राणि चतुर्दश |
79 | 1001039a | ततो ज्ञातिवधं श्रुत्वा रावणः क्रोधमूर्छितः |
80 | 1001039c | सहायं वरयामास मारीचं नाम राक्षसं |
81 | 1001040a | वार्यमाणः सुबहुशो मारीचेन स रावणः |
82 | 1001040c | न विरोधो बलवता क्षमो रावण तेन ते |
83 | 1001041a | अनादृत्य तु तद्वाक्यं रावणः कालचोदितः |
84 | 1001041c | जगाम सहमारीचस्तस्याश्रमपदं तदा |
85 | 1001042a | तेन मायाविना दूरमपवाह्य नृपात्मजौ |
86 | 1001042c | जहार भार्यां रामस्य गृध्रं हत्वा जटायुषम् |
87 | 1001043a | गृध्रं च निहतं दृष्ट्वा हृतां श्रुत्वा च मैथिलीम् |
88 | 1001043c | राघवः शोकसंतप्तो विललापाकुलेन्द्रियः |
89 | 1001044a | ततस्तेनैव शोकेन गृध्रं दग्ध्वा जटायुषम् |
90 | 1001044c | मार्गमाणो वने सीतां राक्षसं संददर्श ह |
91 | 1001045a | कबन्धं नाम रूपेण विकृतं घोरदर्शनम् |
92 | 1001045c | तं निहत्य महाबाहुर्ददाह स्वर्गतश्च सः |
93 | 1001046a | स चास्य कथयामास शबरीं धर्मचारिणीम् |
94 | 1001046c | श्रमणीं धर्मनिपुणामभिगच्छेति राघव |
95 | 1001046e | सोऽभ्यगच्छन्महातेजाः शबरीं शत्रुसूदनः |
96 | 1001047a | शबर्या पूजितः सम्यग्रामो दशरथात्मजः |
97 | 1001047c | पम्पातीरे हनुमता संगतो वानरेण ह |
98 | 1001048a | हनुमद्वचनाच्चैव सुग्रीवेण समागतः |
99 | 1001048c | सुग्रीवाय च तत्सर्वं शंसद्रामो महाबलः |
100 | 1001049a | ततो वानरराजेन वैरानुकथनं प्रति |
101 | 1001049c | रामायावेदितं सर्वं प्रणयाद्दुःखितेन च |
102 | 1001049e | वालिनश्च बलं तत्र कथयामास वानरः |
103 | 1001050a | प्रतिज्ञातं च रामेण तदा वालिवधं प्रति |
104 | 1001050c | सुग्रीवः शङ्कितश्चासीन्नित्यं वीर्येण राघवे |
105 | 1001051a | राघवः प्रत्ययार्थं तु दुन्दुभेः कायमुत्तमम् |
106 | 1001051c | पादाङ्गुष्ठेन चिक्षेप संपूर्णं दशयोजनम् |
107 | 1001052a | बिभेद च पुनः सालान्सप्तैकेन महेषुणा |
108 | 1001052c | गिरिं रसातलं चैव जनयन्प्रत्ययं तदा |
109 | 1001053a | ततः प्रीतमनास्तेन विश्वस्तः स महाकपिः |
110 | 1001053c | किष्किन्धां रामसहितो जगाम च गुहां तदा |
111 | 1001054a | ततोऽगर्जद्धरिवरः सुग्रीवो हेमपिङ्गलः |
112 | 1001054c | तेन नादेन महता निर्जगाम हरीश्वरः |
113 | 1001055a | ततः सुग्रीववचनाद्धत्वा वालिनमाहवे |
114 | 1001055c | सुग्रीवमेव तद्राज्ये राघवः प्रत्यपादयत् |
115 | 1001056a | स च सर्वान्समानीय वानरान्वानरर्षभः |
116 | 1001056c | दिशः प्रस्थापयामास दिदृक्षुर्जनकात्मजाम् |
117 | 1001057a | ततो गृध्रस्य वचनात्संपातेर्हनुमान्बली |
118 | 1001057c | शतयोजनविस्तीर्णं पुप्लुवे लवणार्णवम् |
119 | 1001058a | तत्र लङ्कां समासाद्य पुरीं रावणपालिताम् |
120 | 1001058c | ददर्श सीतां ध्यायन्तीमशोकवनिकां गताम् |
121 | 1001059a | निवेदयित्वाभिज्ञानं प्रवृत्तिं च निवेद्य च |
122 | 1001059c | समाश्वास्य च वैदेहीं मर्दयामास तोरणम् |
123 | 1001060a | पञ्च सेनाग्रगान्हत्वा सप्त मन्त्रिसुतानपि |
124 | 1001060c | शूरमक्षं च निष्पिष्य ग्रहणं समुपागमत् |
125 | 1001061a | अस्त्रेणोन्मुहमात्मानं ज्ञात्वा पैतामहाद्वरात् |
126 | 1001061c | मर्षयन्राक्षसान्वीरो यन्त्रिणस्तान्यदृच्छया |
127 | 1001062a | ततो दग्ध्वा पुरीं लङ्कामृते सीतां च मैथिलीम् |
128 | 1001062c | रामाय प्रियमाख्यातुं पुनरायान्महाकपिः |
129 | 1001063a | सोऽभिगम्य महात्मानं कृत्वा रामं प्रदक्षिणम् |
130 | 1001063c | न्यवेदयदमेयात्मा दृष्टा सीतेति तत्त्वतः |
131 | 1001064a | ततः सुग्रीवसहितो गत्वा तीरं महोदधेः |
132 | 1001064c | समुद्रं क्षोभयामास शरैरादित्यसंनिभैः |
133 | 1001065a | दर्शयामास चात्मानं समुद्रः सरितां पतिः |
134 | 1001065c | समुद्रवचनाच्चैव नलं सेतुमकारयत् |
135 | 1001066a | तेन गत्वा पुरीं लङ्कां हत्वा रावणमाहवे |
136 | 1001066c | अभ्यषिञ्चत्स लङ्कायां राक्षसेन्द्रं विभीषणम् |
137 | 1001067a | कर्मणा तेन महता त्रैलोक्यं सचराचरम् |
138 | 1001067c | सदेवर्षिगणं तुष्टं राघवस्य महात्मनः |
139 | 1001068a | तथा परमसंतुष्टैः पूजितः सर्वदैवतैः |
140 | 1001068c | कृतकृत्यस्तदा रामो विज्वरः प्रमुमोद ह |
141 | 1001069a | देवताभ्यो वरान्प्राप्य समुत्थाप्य च वानरान् |
142 | 1001069c | पुष्पकं तत्समारुह्य नन्दिग्रामं ययौ तदा |
143 | 1001070a | नन्दिग्रामे जटां हित्वा भ्रातृभिः सहितोऽनघः |
144 | 1001070c | रामः सीतामनुप्राप्य राज्यं पुनरवाप्तवान् |
145 | 1001071a | प्रहृष्टमुदितो लोकस्तुष्टः पुष्टः सुधार्मिकः |
146 | 1001071c | निरायमो अरोगश्च दुर्भिक्षभयवर्जितः |
147 | 1001072a | न पुत्रमरणं केचिद्द्रक्ष्यन्ति पुरुषाः क्वचित् |
148 | 1001072c | नार्यश्चाविधवा नित्यं भविष्यन्ति पतिव्रताः |
149 | 1001073a | न वातजं भयं किंचिन्नाप्सु मज्जन्ति जन्तवः |
150 | 1001073c | न चाग्रिजं भयं किंचिद्यथा कृतयुगे तथा |
151 | 1001074a | अश्वमेधशतैरिष्ट्वा तथा बहुसुवर्णकैः |
152 | 1001074c | गवां कोट्ययुतं दत्त्वा विद्वद्भ्यो विधिपूर्वकम् |
153 | 1001075a | राजवंशाञ्शतगुणान्स्थापयिष्यति राघवः |
154 | 1001075c | चातुर्वर्ण्यं च लोकेऽस्मिन्स्वे स्वे धर्मे नियोक्ष्यति |
155 | 1001076a | दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च |
156 | 1001076c | रामो राज्यमुपासित्वा ब्रह्मलोकं गमिष्यति |
157 | 1001077a | इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्यं वेदैश्च संमितम् |
158 | 1001077c | यः पठेद्रामचरितं सर्वपापैः प्रमुच्यते |
159 | 1001078a | एतदाख्यानमायुष्यं पठन्रामायणं नरः |
160 | 1001078c | सपुत्रपौत्रः सगणः प्रेत्य स्वर्गे महीयते |
161 | 1001079a | पठन्द्विजो वागृषभत्वमीया;त्स्यात्क्षत्रियो भूमिपतित्वमीयात् |
162 | 1001079c | वणिग्जनः पण्यफलत्वमीया;ज्जनश्च शूद्रोऽपि महत्त्वमीयात् |
163 | 1002001a | नारदस्य तु तद्वाक्यं श्रुत्वा वाक्यविशारदः |
164 | 1002001c | पूजयामास धर्मात्मा सहशिष्यो महामुनिः |
165 | 1002002a | यथावत्पूजितस्तेन देवर्षिर्नारदस्तदा |
166 | 1002002c | आपृष्ट्वैवाभ्यनुज्ञातः स जगाम विहायसं |
167 | 1002003a | स मुहूर्तं गते तस्मिन्देवलोकं मुनिस्तदा |
168 | 1002003c | जगाम तमसातीरं जाह्नव्यास्त्वविदूरतः |
169 | 1002004a | स तु तीरं समासाद्य तमसाया महामुनिः |
170 | 1002004c | शिष्यमाह स्थितं पार्श्वे दृष्ट्वा तीर्थमकर्दमम् |
171 | 1002005a | अकर्दममिदं तीर्थं भरद्वाज निशामय |
172 | 1002005c | रमणीयं प्रसन्नाम्बु सन्मनुष्यमनो यथा |
173 | 1002006a | न्यस्यतां कलशस्तात दीयतां वल्कलं मम |
174 | 1002006c | इदमेवावगाहिष्ये तमसातीर्थमुत्तमम् |
175 | 1002007a | एवमुक्तो भरद्वाजो वाल्मीकेन महात्मना |
176 | 1002007c | प्रायच्छत मुनेस्तस्य वल्कलं नियतो गुरोः |
177 | 1002008a | स शिष्यहस्तादादाय वल्कलं नियतेन्द्रियः |
178 | 1002008c | विचचार ह पश्यंस्तत्सर्वतो विपुलं वनम् |
179 | 1002009a | तस्याभ्याशे तु मिथुनं चरन्तमनपायिनम् |
180 | 1002009c | ददर्श भगवांस्तत्र क्रौञ्चयोश्चारुनिःस्वनम् |
181 | 1002010a | तस्मात्तु मिथुनादेकं पुमांसं पापनिश्चयः |
182 | 1002010c | जघान वैरनिलयो निषादस्तस्य पश्यतः |
183 | 1002011a | तं शोणितपरीताङ्गं वेष्टमानं महीतले |
184 | 1002011c | भार्या तु निहतं दृष्ट्वा रुराव करुणां गिरम् |
185 | 1002012a | तथा तु तं द्विजं दृष्ट्वा निषादेन निपातितम् |
186 | 1002012c | ऋषेर्धर्मात्मनस्तस्य कारुण्यं समपद्यत |
187 | 1002013a | ततः करुणवेदित्वादधर्मोऽयमिति द्विजः |
188 | 1002013c | निशाम्य रुदतीं क्रौञ्चीमिदं वचनमब्रवीत् |
189 | 1002014a | मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः |
190 | 1002014c | यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् |
191 | 1002015a | तस्यैवं ब्रुवतश्चिन्ता बभूव हृदि वीक्षतः |
192 | 1002015c | शोकार्तेनास्य शकुनेः किमिदं व्याहृतं मया |
193 | 1002016a | चिन्तयन्स महाप्राज्ञश्चकार मतिमान्मतिम् |
194 | 1002016c | शिष्यं चैवाब्रवीद्वाक्यमिदं स मुनिपुंगवः |
195 | 1002017a | पादबद्धोऽक्षरसमस्तन्त्रीलयसमन्वितः |
196 | 1002017c | शोकार्तस्य प्रवृत्तो मे श्लोको भवतु नान्यथा |
197 | 1002018a | शिष्यस्तु तस्य ब्रुवतो मुनेर्वाक्यमनुत्तमम् |
198 | 1002018c | प्रतिजग्राह संहृष्टस्तस्य तुष्टोऽभवद्गुरुः |
199 | 1002019a | सोऽभिषेकं ततः कृत्वा तीर्थे तस्मिन्यथाविधि |
200 | 1002019c | तमेव चिन्तयन्नर्थमुपावर्तत वै मुनिः |
201 | 1002020a | भरद्वाजस्ततः शिष्यो विनीतः श्रुतवान्गुरोः |
202 | 1002020c | कलशं पूर्णमादाय पृष्ठतोऽनुजगाम ह |
203 | 1002021a | स प्रविश्याश्रमपदं शिष्येण सह धर्मवित् |
204 | 1002021c | उपविष्टः कथाश्चान्याश्चकार ध्यानमास्थितः |
205 | 1002022a | आजगाम ततो ब्रह्मा लोककर्ता स्वयं प्रभुः |
206 | 1002022c | चतुर्मुखो महातेजा द्रष्टुं तं मुनिपुंगवम् |
207 | 1002023a | वाल्मीकिरथ तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय वाग्यतः |
208 | 1002023c | प्राञ्जलिः प्रयतो भूत्वा तस्थौ परमविस्मितः |
209 | 1002024a | पूजयामास तं देवं पाद्यार्घ्यासनवन्दनैः |
210 | 1002024c | प्रणम्य विधिवच्चैनं पृष्ट्वानामयमव्ययम् |
211 | 1002025a | अथोपविश्य भगवानासने परमार्चिते |
212 | 1002025c | वाल्मीकये महर्षये संदिदेशासनं ततः |
213 | 1002026a | उपविष्टे तदा तस्मिन्साक्षाल्लोकपितामहे |
214 | 1002026c | तद्गतेनैव मनसा वाल्मीकिर्ध्यानमास्थितः |
215 | 1002027a | पापात्मना कृतं कष्टं वैरग्रहणबुद्धिना |
216 | 1002027c | यस्तादृशं चारुरवं क्रौञ्चं हन्यादकारणात् |
217 | 1002028a | शोचन्नेव मुहुः क्रौञ्चीमुपश्लोकमिमं पुनः |
218 | 1002028c | जगावन्तर्गतमना भूत्वा शोकपरायणः |
219 | 1002029a | तमुवाच ततो ब्रह्मा प्रहसन्मुनिपुंगवम् |
220 | 1002029c | श्लोक एव त्वया बद्धो नात्र कार्या विचारणा |
221 | 1002030a | मच्छन्दादेव ते ब्रह्मन्प्रवृत्तेयं सरस्वती |
222 | 1002030c | रामस्य चरितं कृत्स्नं कुरु त्वमृषिसत्तम |
223 | 1002031a | धर्मात्मनो गुणवतो लोके रामस्य धीमतः |
224 | 1002031c | वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छ्रुतम् |
225 | 1002032a | रहस्यं च प्रकाशं च यद्वृत्तं तस्य धीमतः |
226 | 1002032c | रामस्य सह सौमित्रे राक्षसानां च सर्वशः |
227 | 1002033a | वैदेह्याश्चैव यद्वृत्तं प्रकाशं यदि वा रहः |
228 | 1002033c | तच्चाप्यविदितं सर्वं विदितं ते भविष्यति |
229 | 1002034a | न ते वागनृता काव्ये काचिदत्र भविष्यति |
230 | 1002034c | कुरु रामकथां पुण्यां श्लोकबद्धां मनोरमाम् |
231 | 1002035a | यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले |
232 | 1002035c | तावद्रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति |
233 | 1002036a | यावद्रामस्य च कथा त्वत्कृता प्रचरिष्यति |
234 | 1002036c | तावदूर्ध्वमधश्च त्वं मल्लोकेषु निवत्स्यसि |
235 | 1002037a | इत्युक्त्वा भगवान्ब्रह्मा तत्रैवान्तरधीयत |
236 | 1002037c | ततः सशिष्यो वाल्मीकिर्मुनिर्विस्मयमाययौ |
237 | 1002038a | तस्य शिष्यास्ततः सर्वे जगुः श्लोकमिमं पुनः |
238 | 1002038c | मुहुर्मुहुः प्रीयमाणाः प्राहुश्च भृशविस्मिताः |
239 | 1002039a | समाक्षरैश्चतुर्भिर्यः पादैर्गीतो महर्षिणा |
240 | 1002039c | सोऽनुव्याहरणाद्भूयः शोकः श्लोकत्वमागतः |
241 | 1002040a | तस्य बुद्धिरियं जाता वाल्मीकेर्भावितात्मनः |
242 | 1002040c | कृत्स्नं रामायणं काव्यमीदृशैः करवाण्यहम् |
243 | 1002041a | उदारवृत्तार्थपदैर्मनोरमै;स्तदास्य रामस्य चकार कीर्तिमान् |
244 | 1002041c | समाक्षरैः श्लोकशतैर्यशस्विनो; यशस्करं काव्यमुदारधीर्मुनिः |
245 | 1003001a | श्रुत्वा वस्तु समग्रं तद्धर्मात्मा धर्मसंहितम् |
246 | 1003001c | व्यक्तमन्वेषते भूयो यद्वृत्तं तस्य धीमतः |
247 | 1003002a | उपस्पृश्योदकं संयन्मुनिः स्थित्वा कृताञ्जलिः |
248 | 1003002c | प्राचीनाग्रेषु दर्भेषु धर्मेणान्वेषते गतिम् |
249 | 1003003a | जन्म रामस्य सुमहद्वीर्यं सर्वानुकूलताम् |
250 | 1003003c | लोकस्य प्रियतां क्षान्तिं सौम्यतां सत्यशीलताम् |
251 | 1003004a | नानाचित्राः कथाश्चान्या विश्वामित्रसहायने |
252 | 1003004c | जानक्याश्च विवाहं च धनुषश्च विभेदनम् |
253 | 1003005a | रामरामविवादं च गुणान्दाशरथेस्तथा |
254 | 1003005c | तथाभिषेकं रामस्य कैकेय्या दुष्टभावताम् |
255 | 1003006a | व्याघातं चाभिषेकस्य रामस्य च विवासनम् |
256 | 1003006c | राज्ञः शोकं विलापं च परलोकस्य चाश्रयम् |
257 | 1003007a | प्रकृतीनां विषादं च प्रकृतीनां विसर्जनम् |
258 | 1003007c | निषादाधिपसंवादं सूतोपावर्तनं तथा |
259 | 1003008a | गङ्गायाश्चाभिसंतारं भरद्वाजस्य दर्शनम् |
260 | 1003008c | भरद्वाजाभ्यनुज्ञानाच्चित्रकूटस्य दर्शनम् |
261 | 1003009a | वास्तुकर्मनिवेशं च भरतागमनं तथा |
262 | 1003009c | प्रसादनं च रामस्य पितुश्च सलिलक्रियाम् |
263 | 1003010a | पादुकाग्र्याभिषेकं च नन्दिग्राम निवासनम् |
264 | 1003010c | दण्डकारण्यगमनं सुतीक्ष्णेन समागमम् |
265 | 1003011a | अनसूयासमस्यां च अङ्गरागस्य चार्पणम् |
266 | 1003011c | शूर्पणख्याश्च संवादं विरूपकरणं तथा |
267 | 1003012a | वधं खरत्रिशिरसोरुत्थानं रावणस्य च |
268 | 1003012c | मारीचस्य वधं चैव वैदेह्या हरणं तथा |
269 | 1003013a | राघवस्य विलापं च गृध्रराजनिबर्हणम् |
270 | 1003013c | कबन्धदर्शनं चैव पम्पायाश्चापि दर्शनम् |
271 | 1003014a | शर्बर्या दर्शनं चैव हनूमद्दर्शनं तथा |
272 | 1003014c | विलापं चैव पम्पायां राघवस्य महात्मनः |
273 | 1003015a | ऋष्यमूकस्य गमनं सुग्रीवेण समागमम् |
274 | 1003015c | प्रत्ययोत्पादनं सख्यं वालिसुग्रीवविग्रहम् |
275 | 1003016a | वालिप्रमथनं चैव सुग्रीवप्रतिपादनम् |
276 | 1003016c | ताराविलापसमयं वर्षरात्रिनिवासनम् |
277 | 1003017a | कोपं राघवसिंहस्य बलानामुपसंग्रहम् |
278 | 1003017c | दिशः प्रस्थापनं चैव पृथिव्याश्च निवेदनम् |
279 | 1003018a | अङ्गुलीयकदानं च ऋक्षस्य बिलदर्शनम् |
280 | 1003018c | प्रायोपवेशनं चैव संपातेश्चापि दर्शनम् |
281 | 1003019a | पर्वतारोहणं चैव सागरस्य च लङ्घनम् |
282 | 1003019c | रात्रौ लङ्काप्रवेशं च एकस्यापि विचिन्तनम् |
283 | 1003020a | आपानभूमिगमनमवरोधस्य दर्शनम् |
284 | 1003020c | अशोकवनिकायानं सीतायाश्चापि दर्शनम् |
285 | 1003021a | अभिज्ञानप्रदानं च सीतायाश्चापि भाषणम् |
286 | 1003021c | राक्षसीतर्जनं चैव त्रिजटास्वप्नदर्शनम् |
287 | 1003022a | मणिप्रदानं सीताया वृक्षभङ्गं तथैव च |
288 | 1003022c | राक्षसीविद्रवं चैव किंकराणां निबर्हणम् |
289 | 1003023a | ग्रहणं वायुसूनोश्च लङ्कादाहाभिगर्जनम् |
290 | 1003023c | प्रतिप्लवनमेवाथ मधूनां हरणं तथा |
291 | 1003024a | राघवाश्वासनं चैव मणिनिर्यातनं तथा |
292 | 1003024c | संगमं च समुद्रस्य नलसेतोश्च बन्धनम् |
293 | 1003025a | प्रतारं च समुद्रस्य रात्रौ लङ्कावरोधनम् |
294 | 1003025c | विभीषणेन संसर्गं वधोपायनिवेदनम् |
295 | 1003026a | कुम्भकर्णस्य निधनं मेघनादनिबर्हणम् |
296 | 1003026c | रावणस्य विनाशं च सीतावाप्तिमरेः पुरे |
297 | 1003027a | बिभीषणाभिषेकं च पुष्पकस्य च दर्शनम् |
298 | 1003027c | अयोध्यायाश्च गमनं भरतेन समागमम् |
299 | 1003028a | रामाभिषेकाभ्युदयं सर्वसैन्यविसर्जनम् |
300 | 1003028c | स्वराष्ट्ररञ्जनं चैव वैदेह्याश्च विसर्जनम् |
301 | 1003029a | अनागतं च यत्किंचिद्रामस्य वसुधातले |
302 | 1003029c | तच्चकारोत्तरे काव्ये वाल्मीकिर्भगवानृषिः |
303 | 1004001a | प्राप्तराज्यस्य रामस्य वाल्मीकिर्भगवानृषिः |
304 | 1004001c | चकार चरितं कृत्स्नं विचित्रपदमात्मवान् |
305 | 1004002a | कृत्वा तु तन्महाप्राज्ञः सभविष्यं सहोत्तरम् |
306 | 1004002c | चिन्तयामास को न्वेतत्प्रयुञ्जीयादिति प्रभुः |
307 | 1004003a | तस्य चिन्तयमानस्य महर्षेर्भावितात्मनः |
308 | 1004003c | अगृह्णीतां ततः पादौ मुनिवेषौ कुशीलवौ |
309 | 1004004a | कुशीलवौ तु धर्मज्ञौ राजपुत्रौ यशस्विनौ |
310 | 1004004c | भ्रातरौ स्वरसंपन्नौ ददर्शाश्रमवासिनौ |
311 | 1004005a | स तु मेधाविनौ दृष्ट्वा वेदेषु परिनिष्ठितौ |
312 | 1004005c | वेदोपबृह्मणार्थाय तावग्राहयत प्रभुः |
313 | 1004006a | काव्यं रामायणं कृत्स्नं सीतायाश्चरितं महत् |
314 | 1004006c | पौलस्त्य वधमित्येव चकार चरितव्रतः |
315 | 1004007a | पाठ्ये गेये च मधुरं प्रमाणैस्त्रिभिरन्वितम् |
316 | 1004007c | जातिभिः सप्तभिर्युक्तं तन्त्रीलयसमन्वितम् |
317 | 1004008a | हास्यशृङ्गारकारुण्यरौद्रवीरभयानकैः |
318 | 1004008c | बीभत्सादिरसैर्युक्तं काव्यमेतदगायताम् |
319 | 1004009a | तौ तु गान्धर्वतत्त्वज्ञौ स्थानमूर्च्छनकोविदौ |
320 | 1004009c | भ्रातरौ स्वरसंपन्नौ गन्धर्वाविव रूपिणौ |
321 | 1004010a | रूपलक्षणसंपन्नौ मधुरस्वरभाषिणौ |
322 | 1004010c | बिम्बादिवोद्धृतौ बिम्बौ रामदेहात्तथापरौ |
323 | 1004011a | तौ राजपुत्रौ कार्त्स्न्येन धर्म्यमाख्यानमुत्तमम् |
324 | 1004011c | वाचो विधेयं तत्सर्वं कृत्वा काव्यमनिन्दितौ |
325 | 1004012a | ऋषीणां च द्विजातीनां साधूनां च समागमे |
326 | 1004012c | यथोपदेशं तत्त्वज्ञौ जगतुस्तौ समाहितौ |
327 | 1004012e | महात्मानौ महाभागौ सर्वलक्षणलक्षितौ |
328 | 1004013a | तौ कदाचित्समेतानामृषीणां भावितात्मनाम् |
329 | 1004013c | आसीनानां समीपस्थाविदं काव्यमगायताम् |
330 | 1004014a | तच्छ्रुत्वा मुनयः सर्वे बाष्पपर्याकुलेक्षणाः |
331 | 1004014c | साधु साध्वित्य्तावूचतुः परं विस्मयमागताः |
332 | 1004015a | ते प्रीतमनसः सर्वे मुनयो धर्मवत्सलाः |
333 | 1004015c | प्रशशंसुः प्रशस्तव्यौ गायमानौ कुशीलवौ |
334 | 1004016a | अहो गीतस्य माधुर्यं श्लोकानां च विशेषतः |
335 | 1004016c | चिरनिर्वृत्तमप्येतत्प्रत्यक्षमिव दर्शितम् |
336 | 1004017a | प्रविश्य तावुभौ सुष्ठु तदा भावमगायताम् |
337 | 1004017c | सहितौ मधुरं रक्तं संपन्नं स्वरसंपदा |
338 | 1004018a | एवं प्रशस्यमानौ तौ तपःश्लाघ्यैर्महर्षिभिः |
339 | 1004018c | संरक्ततरमत्यर्थं मधुरं तावगायताम् |
340 | 1004019a | प्रीतः कश्चिन्मुनिस्ताभ्यां संस्थितः कलशं ददौ |
341 | 1004019c | प्रसन्नो वल्कलं कश्चिद्ददौ ताभ्यां महायशाः |
342 | 1004020a | आश्चर्यमिदमाख्यानं मुनिना संप्रकीर्तितम् |
343 | 1004020c | परं कवीनामाधारं समाप्तं च यथाक्रमम् |
344 | 1004021a | प्रशस्यमानौ सर्वत्र कदाचित्तत्र गायकौ |
345 | 1004021c | रथ्यासु राजमार्गेषु ददर्श भरताग्रजः |
346 | 1004022a | स्ववेश्म चानीय ततो भ्रातरौ सकुशीलवौ |
347 | 1004022c | पूजयामास पूजार्हौ रामः शत्रुनिबर्हणः |
348 | 1004023a | आसीनः काञ्चने दिव्ये स च सिंहासने प्रभुः |
349 | 1004023c | उपोपविष्टैः सचिवैर्भ्रातृभिश्च परंतपः |
350 | 1004024a | दृष्ट्वा तु रूपसंपन्नौ तावुभौ वीणिनौ ततः |
351 | 1004024c | उवाच लक्ष्मणं रामः शत्रुघ्नं भरतं तथा |
352 | 1004025a | श्रूयतामिदमाख्यानमनयोर्देववर्चसोः |
353 | 1004025c | विचित्रार्थपदं सम्यग्गायतोर्मधुरस्वरम् |
354 | 1004026a | इमौ मुनी पार्थिवलक्ष्मणान्वितौ; कुशीलवौ चैव महातपस्विनौ |
355 | 1004026c | ममापि तद्भूतिकरं प्रचक्षते; महानुभावं चरितं निबोधत |
356 | 1004027a | ततस्तु तौ रामवचः प्रचोदिता;वगायतां मार्गविधानसंपदा |
357 | 1004027c | स चापि रामः परिषद्गतः शनै;र्बुभूषयासक्तमना बभूव |
358 | 1005001a | सर्वापूर्वमियं येषामासीत्कृत्स्ना वसुंधरा |
359 | 1005001c | प्रजापतिमुपादाय नृपाणां जयशालिनाम् |
360 | 1005002a | येषां स सगरो नाम सागरो येन खानितः |
361 | 1005002c | षष्टिः पुत्रसहस्राणि यं यान्तं पर्यवारयन् |
362 | 1005003a | इक्ष्वाकूणामिदं तेषां राज्ञां वंशे महात्मनाम् |
363 | 1005003c | महदुत्पन्नमाख्यानं रामायणमिति श्रुतम् |
364 | 1005004a | तदिदं वर्तयिष्यामि सर्वं निखिलमादितः |
365 | 1005004c | धर्मकामार्थसहितं श्रोतव्यमनसूयया |
366 | 1005005a | कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान् |
367 | 1005005c | निविष्टः सरयूतीरे प्रभूतधनधान्यवान् |
368 | 1005006a | अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोकविश्रुता |
369 | 1005006c | मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् |
370 | 1005007a | आयता दश च द्वे च योजनानि महापुरी |
371 | 1005007c | श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहापथा |
372 | 1005008a | राजमार्गेण महता सुविभक्तेन शोभिता |
373 | 1005008c | मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यशः |
374 | 1005009a | तां तु राजा दशरथो महाराष्ट्रविवर्धनः |
375 | 1005009c | पुरीमावासयामास दिवि देवपतिर्यथा |
376 | 1005010a | कपाटतोरणवतीं सुविभक्तान्तरापणाम् |
377 | 1005010c | सर्वयन्त्रायुधवतीमुपेतां सर्वशिल्पिभिः |
378 | 1005011a | सूतमागधसंबाधां श्रीमतीमतुलप्रभाम् |
379 | 1005011c | उच्चाट्टालध्वजवतीं शतघ्नीशतसंकुलाम् |
380 | 1005012a | वधूनाटकसङ्घैश्च संयुक्तां सर्वतः पुरीम् |
381 | 1005012c | उद्यानाम्रवणोपेतां महतीं सालमेखलाम् |
382 | 1005013a | दुर्गगम्भीरपरिघां दुर्गामन्यैर्दुरासदाम् |
383 | 1005013c | वाजिवारणसंपूर्णां गोभिरुष्ट्रैः खरैस्तथा |
384 | 1005014a | सामन्तराजसङ्घैश्च बलिकर्मभिरावृताम् |
385 | 1005014c | नानादेशनिवासैश्च वणिग्भिरुपशोभिताम् |
386 | 1005015a | प्रसादै रत्नविकृतैः पर्वतैरुपशोभिताम् |
387 | 1005015c | कूटागारैश्च संपूर्णामिन्द्रस्येवामरावतीम् |
388 | 1005016a | चित्रामष्टापदाकारां वरनारीगणैर्युताम् |
389 | 1005016c | सर्वरत्नसमाकीर्णां विमानगृहशोभिताम् |
390 | 1005017a | गृहगाढामविच्छिद्रां समभूमौ निवेशिताम् |
391 | 1005017c | शालितण्डुलसंपूर्णामिक्षुकाण्डरसोदकाम् |
392 | 1005018a | दुन्दुभीभिर्मृदङ्गैश्च वीणाभिः पणवैस्तथा |
393 | 1005018c | नादितां भृशमत्यर्थं पृथिव्यां तामनुत्तमाम् |
394 | 1005019a | विमानमिव सिद्धानां तपसाधिगतं दिवि |
395 | 1005019c | सुनिवेशितवेश्मान्तां नरोत्तमसमावृताम् |
396 | 1005020a | ये च बाणैर्न विध्यन्ति विविक्तमपरापरम् |
397 | 1005020c | शब्दवेध्यं च विततं लघुहस्ता विशारदाः |
398 | 1005021a | सिंहव्याघ्रवराहाणां मत्तानां नदतां वने |
399 | 1005021c | हन्तारो निशितैः शस्त्रैर्बलाद्बाहुबलैरपि |
400 | 1005022a | तादृशानां सहस्रैस्तामभिपूर्णां महारथैः |
401 | 1005022c | पुरीमावासयामास राजा दशरथस्तदा |
402 | 1005023a | तामग्निमद्भिर्गुणवद्भिरावृतां; द्विजोत्तमैर्वेदषडङ्गपारगैः |
403 | 1005023c | सहस्रदैः सत्यरतैर्महात्मभि;र्महर्षिकल्पैरृषिभिश्च केवलैः |
404 | 1006001a | पुर्यां तस्यामयोध्यायां वेदवित्सर्वसंग्रहः |
405 | 1006001c | दीर्घदर्शी महातेजाः पौरजानपदप्रियः |
406 | 1006002a | इक्ष्वाकूणामतिरथो यज्वा धर्मरतो वशी |
407 | 1006002c | महर्षिकल्पो राजर्षिस्त्रिषु लोकृषु विश्रुतः |
408 | 1006003a | बलवान्निहतामित्रो मित्रवान्विजितेन्द्रियः |
409 | 1006003c | धनैश्च संचयैश्चान्यैः शक्रवैश्रवणोपमः |
410 | 1006004a | यथा मनुर्महातेजा लोकस्य परिरक्षिता |
411 | 1006004c | तथा दशरथो राजा वसञ्जगदपालयत् |
412 | 1006005a | तेन सत्याभिसंधेन त्रिवर्गमनुतिष्ठता |
413 | 1006005c | पालिता सा पुरी श्रेष्ठेन्द्रेण इवामरावती |
414 | 1006006a | तस्मिन्पुरवरे हृष्टा धर्मात्मना बहुश्रुताः |
415 | 1006006c | नरास्तुष्टाधनैः स्वैः स्वैरलुब्धाः सत्यवादिनः |
416 | 1006007a | नाल्पसंनिचयः कश्चिदासीत्तस्मिन्पुरोत्तमे |
417 | 1006007c | कुटुम्बी यो ह्यसिद्धार्थोऽगवाश्वधनधान्यवान् |
418 | 1006008a | कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित् |
419 | 1006008c | द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नाविद्वान्न च नास्तिकः |
420 | 1006009a | सर्वे नराश्च नार्यश्च धर्मशीलाः सुसंयताः |
421 | 1006009c | मुदिताः शीलवृत्ताभ्यां महर्षय इवामलाः |
422 | 1006010a | नाकुण्डली नामुकुटी नास्रग्वी नाल्पभोगवान् |
423 | 1006010c | नामृष्टो नानुलिप्ताङ्गो नासुगन्धश्च विद्यते |
424 | 1006011a | नामृष्टभोजी नादाता नाप्यनङ्गदनिष्कधृक् |
425 | 1006011c | नाहस्ताभरणो वापि दृश्यते नाप्यनात्मवान् |
426 | 1006012a | नानाहिताग्निर्नायज्वा विप्रो नाप्यसहस्रदः |
427 | 1006012c | कश्चिदासीदयोध्यायां न च निर्वृत्तसंकरः |
428 | 1006013a | स्वकर्मनिरता नित्यं ब्राह्मणा विजितेन्द्रियाः |
429 | 1006013c | दानाध्ययनशीलाश्च संयताश्च प्रतिग्रहे |
430 | 1006014a | न नास्तिको नानृतको न कश्चिदबहुश्रुतः |
431 | 1006014c | नासूयको न चाशक्तो नाविद्वान्विद्यते तदा |
432 | 1006015a | न दीनः क्षिप्तचित्तो वा व्यथितो वापि कश्चन |
433 | 1006015c | कश्चिन्नरो वा नारी वा नाश्रीमान्नाप्यरूपवान् |
434 | 1006015e | द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नापि राजन्यभक्तिमान् |
435 | 1006016a | वर्णेष्वग्र्यचतुर्थेषु देवतातिथिपूजकाः |
436 | 1006016c | दीर्घायुषो नराः सर्वे धर्मं सत्यं च संश्रिताः |
437 | 1006017a | क्षत्रं ब्रह्ममुखं चासीद्वैश्याः क्षत्रमनुव्रताः |
438 | 1006017c | शूद्राः स्वधर्मनिरतास्त्रीन्वर्णानुपचारिणः |
439 | 1006018a | सा तेनेक्ष्वाकुनाथेन पुरी सुपरिरक्षिता |
440 | 1006018c | यथा पुरस्तान्मनुना मानवेन्द्रेण धीमता |
441 | 1006019a | योधानामग्निकल्पानां पेशलानाममर्षिणाम् |
442 | 1006019c | संपूर्णाकृतविद्यानां गुहाकेसरिणामिव |
443 | 1006020a | काम्बोजविषये जातैर्बाह्लीकैश्च हयोत्तमैः |
444 | 1006020c | वनायुजैर्नदीजैश्च पूर्णाहरिहयोपमैः |
445 | 1006021a | विन्ध्यपर्वतजैर्मत्तैः पूर्णा हैमवतैरपि |
446 | 1006021c | मदान्वितैरतिबलैर्मातङ्गैः पर्वतोपमैः |
447 | 1006022a | अञ्जनादपि निष्क्रान्तैर्वामनादपि च द्विपैः |
448 | 1006022c | भद्रमन्द्रैर्भद्रमृगैर्मृगमन्द्रैश्च सा पुरी |
449 | 1006023a | नित्यमत्तैः सदा पूर्णा नागैरचलसंनिभैः |
450 | 1006023c | सा योजने च द्वे भूयः सत्यनामा प्रकाशते |
451 | 1006024a | तां सत्यनामां दृढतोरणार्गला;म्गृहैर्विचित्रैरुपशोभितां शिवाम् |
452 | 1006024c | पुरीमयोध्यां नृसहस्रसंकुलां; शशास वै शक्रसमो महीपतिः |
453 | 1007001a | अष्टौ बभूवुर्वीरस्य तस्यामात्या यशस्विनः |
454 | 1007001c | शुचयश्चानुरक्ताश्च राजकृत्येषु नित्यशः |
455 | 1007002a | धृष्टिर्जयन्तो विजयः सिद्धार्थो अर्थसाधकः |
456 | 1007002c | अशोको मन्त्रपालश्च सुमन्त्रश्चाष्टमोऽभवत् |
457 | 1007003a | ऋत्विजौ द्वावभिमतौ तस्यास्तामृषिसत्तमौ |
458 | 1007003c | वसिष्ठो वामदेवश्च मन्त्रिणश्च तथापरे |
459 | 1007004a | श्रीमन्तश्च महात्मानः शास्त्रज्ञा दृढविक्रमाः |
460 | 1007004c | कीर्तिमन्तः प्रणिहिता यथावचनकारिणः |
461 | 1007005a | तेजःक्षमायशःप्राप्ताः स्मितपूर्वाभिभाषिणः |
462 | 1007005c | क्रोधात्कामार्थहेतोर्वा न ब्रूयुरनृतं वचः |
463 | 1007006a | तेषामविदितं किंचित्स्वेषु नास्ति परेषु वा |
464 | 1007006c | क्रियमाणं कृतं वापि चारेणापि चिकीर्षितम् |
465 | 1007007a | कुशला व्यवहारेषु सौहृदेषु परीक्षिताः |
466 | 1007007c | प्राप्तकालं यथा दण्डं धारयेयुः सुतेष्वपि |
467 | 1007008a | कोशसंग्रहणे युक्ता बलस्य च परिग्रहे |
468 | 1007008c | अहितं चापि पुरुषं न विहिंस्युरदूषकम् |
469 | 1007009a | वीराश्च नियतोत्साहा राजशास्त्रमनुष्ठिताः |
470 | 1007009c | शुचीनां रक्षितारश्च नित्यं विषयवासिनाम् |
471 | 1007010a | ब्रह्मक्षत्रमहिंसन्तस्ते कोशं समपूरयन् |
472 | 1007010c | सुतीक्ष्णदण्डाः संप्रेक्ष्य पुरुषस्य बलाबलम् |
473 | 1007011a | शुचीनामेकबुद्धीनां सर्वेषां संप्रजानताम् |
474 | 1007011c | नासीत्पुरे वा राष्ट्रे वा मृषावादी नरः क्वचित् |
475 | 1007012a | कश्चिन्न दुष्टस्तत्रासीत्परदाररतिर्नरः |
476 | 1007012c | प्रशान्तं सर्वमेवासीद्राष्ट्रं पुरवरं च तत् |
477 | 1007013a | सुवाससः सुवेशाश्च ते च सर्वे सुशीलिनः |
478 | 1007013c | हितार्थं च नरेन्द्रस्य जाग्रतो नयचक्षुषा |
479 | 1007014a | गुरौ गुणगृहीताश्च प्रख्याताश्च पराक्रमैः |
480 | 1007014c | विदेशेष्वपि विज्ञाताः सर्वतो बुद्धिनिश्चयात् |
481 | 1007015a | ईदृशैस्तैरमात्यैस्तु राजा दशरथोऽनघः |
482 | 1007015c | उपपन्नो गुणोपेतैरन्वशासद्वसुंधराम् |
483 | 1007016a | अवेक्षमाणश्चारेण प्रजा धर्मेण रञ्जयन् |
484 | 1007016c | नाध्यगच्छद्विशिष्टं वा तुल्यं वा शत्रुमात्मनः |
485 | 1007017a | तैर्मन्त्रिभिर्मन्त्रहितैर्निविष्टै;र्वृतोऽनुरक्तैः कुशलैः समर्थैः |
486 | 1007017c | स पार्थिवो दीप्तिमवाप युक्त;स्तेजोमयैर्गोभिरिवोदितोऽर्कः |
487 | 1008001a | तस्य त्वेवं प्रभावस्य धर्मज्ञस्य महात्मनः |
488 | 1008001c | सुतार्थं तप्यमानस्य नासीद्वंशकरः सुतः |
489 | 1008002a | चिन्तयानस्य तस्यैवं बुद्धिरासीन्महात्मनः |
490 | 1008002c | सुतार्थं वाजिमेधेन किमर्थं न यजाम्यहम् |
491 | 1008003a | स निश्चितां मतिं कृत्वा यष्टव्यमिति बुद्धिमान् |
492 | 1008003c | मन्त्रिभिः सह धर्मात्मा सर्वैरेव कृतात्मभिः |
493 | 1008004a | ततोऽब्रवीदिदं राजा सुमन्त्रं मन्त्रिसत्तमम् |
494 | 1008004c | शीघ्रमानय मे सर्वान्गुरूंस्तान्सपुरोहितान् |
495 | 1008005a | एतच्छ्रुत्वा रहः सूतो राजानमिदमब्रवीत् |
496 | 1008005c | ऋत्विग्भिरुपदिष्टोऽयं पुरावृत्तो मया श्रुतः |
497 | 1008006a | सनत्कुमारो भगवान्पूर्वं कथितवान्कथाम् |
498 | 1008006c | ऋषीणां संनिधौ राजंस्तव पुत्रागमं प्रति |
499 | 1008007a | काश्यपस्य तु पुत्रोऽस्ति विभाण्डक इति श्रुतः |
500 | 1008007c | ऋष्यशृङ्ग इति ख्यातस्तस्य पुत्रो भविष्यति |
501 | 1008008a | स वने नित्यसंवृद्धो मुनिर्वनचरः सदा |
502 | 1008008c | नान्यं जानाति विप्रेन्द्रो नित्यं पित्रनुवर्तनात् |
503 | 1008009a | द्वैविध्यं ब्रह्मचर्यस्य भविष्यति महात्मनः |
504 | 1008009c | लोकेषु प्रथितं राजन्विप्रैश्च कथितं सदा |
505 | 1008010a | तस्यैवं वर्तमानस्य कालः समभिवर्तत |
506 | 1008010c | अग्निं शुश्रूषमाणस्य पितरं च यशस्विनम् |
507 | 1008011a | एतस्मिन्नेव काले तु रोमपादः प्रतापवान् |
508 | 1008011c | अङ्गेषु प्रथितो राजा भविष्यति महाबलः |
509 | 1008012a | तस्य व्यतिक्रमाद्राज्ञो भविष्यति सुदारुणा |
510 | 1008012c | अनावृष्टिः सुघोरा वै सर्वभूतभयावहा |
511 | 1008013a | अनावृष्ट्यां तु वृत्तायां राजा दुःखसमन्वितः |
512 | 1008013c | ब्राह्मणाञ्श्रुतवृद्धांश्च समानीय प्रवक्ष्यति |
513 | 1008014a | भवन्तः श्रुतधर्माणो लोके चारित्रवेदिनः |
514 | 1008014c | समादिशन्तु नियमं प्रायश्चित्तं यथा भवेत् |
515 | 1008015a | वक्ष्यन्ति ते महीपालं ब्राह्मणा वेदपारगाः |
516 | 1008015c | विभाण्डकसुतं राजन्सर्वोपायैरिहानय |
517 | 1008016a | आनाय्य च महीपाल ऋष्यशृङ्गं सुसत्कृतम् |
518 | 1008016c | प्रयच्छ कन्यां शान्तां वै विधिना सुसमाहितः |
519 | 1008017a | तेषां तु वचनं श्रुत्वा राजा चिन्तां प्रपत्स्यते |
520 | 1008017c | केनोपायेन वै शक्यमिहानेतुं स वीर्यवान् |
521 | 1008018a | ततो राजा विनिश्चित्य सह मन्त्रिभिरात्मवान् |
522 | 1008018c | पुरोहितममात्यांश्च प्रेषयिष्यति सत्कृतान् |
523 | 1008019a | ते तु राज्ञो वचः श्रुत्वा व्यथिता वनताननाः |
524 | 1008019c | न गच्छेम ऋषेर्भीता अनुनेष्यन्ति तं नृपम् |
525 | 1008020a | वक्ष्यन्ति चिन्तयित्वा ते तस्योपायांश्च तान्क्षमान् |
526 | 1008020c | आनेष्यामो वयं विप्रं न च दोषो भविष्यति |
527 | 1008021a | एवमङ्गाधिपेनैव गणिकाभिरृषेः सुतः |
528 | 1008021c | आनीतोऽवर्षयद्देवः शान्ता चास्मै प्रदीयते |
529 | 1008022a | ऋष्यशृङ्गस्तु जामाता पुत्रांस्तव विधास्यति |
530 | 1008022c | सनत्कुमारकथितमेतावद्व्याहृतं मया |
531 | 1008023a | अथ हृष्टो दशरथः सुमन्त्रं प्रत्यभाषत |
532 | 1008023c | यथर्ष्यशृङ्गस्त्वानीतो विस्तरेण त्वयोच्यताम् |
533 | 1009001a | सुमन्त्रश्चोदितो राज्ञा प्रोवाचेदं वचस्तदा |
534 | 1009001c | यथर्ष्यशृङ्गस्त्वानीतः शृणु मे मन्त्रिभिः सह |
535 | 1009002a | रोमपादमुवाचेदं सहामात्यः पुरोहितः |
536 | 1009002c | उपायो निरपायोऽयमस्माभिरभिचिन्तितः |
537 | 1009003a | ऋष्यशृङ्गो वनचरस्तपःस्वाध्यायने रतः |
538 | 1009003c | अनभिज्ञः स नारीणां विषयाणां सुखस्य च |
539 | 1009004a | इन्द्रियार्थैरभिमतैर्नरचित्तप्रमाथिभिः |
540 | 1009004c | पुरमानाययिष्यामः क्षिप्रं चाध्यवसीयताम् |
541 | 1009005a | गणिकास्तत्र गच्छन्तु रूपवत्यः स्वलंकृताः |
542 | 1009005c | प्रलोभ्य विविधोपायैरानेष्यन्तीह सत्कृताः |
543 | 1009006a | श्रुत्वा तथेति राजा च प्रत्युवाच पुरोहितम् |
544 | 1009006c | पुरोहितो मन्त्रिणश्च तथा चक्रुश्च ते तदा |
545 | 1009007a | वारमुख्यास्तु तच्छ्रुत्वा वनं प्रविविशुर्महत् |
546 | 1009007c | आश्रमस्याविदूरेऽस्मिन्यत्नं कुर्वन्ति दर्शने |
547 | 1009008a | ऋषिपुत्रस्य घोरस्य नित्यमाश्रमवासिनः |
548 | 1009008c | पितुः स नित्यसंतुष्टो नातिचक्राम चाश्रमात् |
549 | 1009009a | न तेन जन्मप्रभृति दृष्टपूर्वं तपस्विना |
550 | 1009009c | स्त्री वा पुमान्वा यच्चान्यत्सत्त्वं नगरराष्ट्रजम् |
551 | 1009010a | ततः कदाचित्तं देशमाजगाम यदृच्छया |
552 | 1009010c | विभाण्डकसुतस्तत्र ताश्चापश्यद्वराङ्गनाः |
553 | 1009011a | ताश्चित्रवेषाः प्रमदा गायन्त्यो मधुरस्वरैः |
554 | 1009011c | ऋषिपुत्रमुपागम्य सर्वा वचनमब्रुवन् |
555 | 1009012a | कस्त्वं किं वर्तसे ब्रह्मञ्ज्ञातुमिच्छामहे वयम् |
556 | 1009012c | एकस्त्वं विजने घोरे वने चरसि शंस नः |
557 | 1009013a | अदृष्टरूपास्तास्तेन काम्यरूपा वने स्त्रियः |
558 | 1009013c | हार्दात्तस्य मतिर्जाता आख्यातुं पितरं स्वकम् |
559 | 1009014a | पिता विभाण्डकोऽस्माकं तस्याहं सुत औरसः |
560 | 1009014c | ऋष्यशृङ्ग इति ख्यातं नाम कर्म च मे भुवि |
561 | 1009015a | इहाश्रमपदोऽस्माकं समीपे शुभदर्शनाः |
562 | 1009015c | करिष्ये वोऽत्र पूजां वै सर्वेषां विधिपूर्वकम् |
563 | 1009016a | ऋषिपुत्रवचः श्रुत्वा सर्वासां मतिरास वै |
564 | 1009016c | तदाश्रमपदं द्रष्टुं जग्मुः सर्वाश्च तेन ह |
565 | 1009017a | गतानां तु ततः पूजामृषिपुत्रश्चकार ह |
566 | 1009017c | इदमर्घ्यमिदं पाद्यमिदं मूलं फलं च नः |
567 | 1009018a | प्रतिगृह्य तु तां पूजां सर्वा एव समुत्सुकाः |
568 | 1009018c | ऋषेर्भीताश्च शीघ्रं तु गमनाय मतिं दधुः |
569 | 1009019a | अस्माकमपि मुख्यानि फलानीमानि वै द्विज |
570 | 1009019c | गृहाण प्रति भद्रं ते भक्षयस्व च मा चिरम् |
571 | 1009020a | ततस्तास्तं समालिङ्ग्य सर्वा हर्षसमन्विताः |
572 | 1009020c | मोदकान्प्रददुस्तस्मै भक्ष्यांश्च विविधाञ्शुभान् |
573 | 1009021a | तानि चास्वाद्य तेजस्वी फलानीति स्म मन्यते |
574 | 1009021c | अनास्वादितपूर्वाणि वने नित्यनिवासिनाम् |
575 | 1009022a | आपृच्छ्य च तदा विप्रं व्रतचर्यां निवेद्य च |
576 | 1009022c | गच्छन्ति स्मापदेशात्ता भीतास्तस्य पितुः स्त्रियः |
577 | 1009023a | गतासु तासु सर्वासु काश्यपस्यात्मजो द्विजः |
578 | 1009023c | अस्वस्थहृदयश्चासीद्दुःखं स्म परिवर्तते |
579 | 1009024a | ततोऽपरेद्युस्तं देशमाजगाम स वीर्यवान् |
580 | 1009024c | मनोज्ञा यत्र ता दृष्टा वारमुख्याः स्वलंकृताः |
581 | 1009025a | दृष्ट्वैव च तदा विप्रमायान्तं हृष्टमानसाः |
582 | 1009025c | उपसृत्य ततः सर्वास्तास्तमूचुरिदं वचः |
583 | 1009026a | एह्याश्रमपदं सौम्य अस्माकमिति चाब्रुवन् |
584 | 1009026c | तत्राप्येष विधिः श्रीमान्विशेषेण भविष्यति |
585 | 1009027a | श्रुत्वा तु वचनं तासां सर्वासां हृदयंगमम् |
586 | 1009027c | गमनाय मतिं चक्रे तं च निन्युस्तदा स्त्रियः |
587 | 1009028a | तत्र चानीयमाने तु विप्रे तस्मिन्महात्मनि |
588 | 1009028c | ववर्ष सहसा देवो जगत्प्रह्लादयंस्तदा |
589 | 1009029a | वर्षेणैवागतं विप्रं विषयं स्वं नराधिपः |
590 | 1009029c | प्रत्युद्गम्य मुनिं प्रह्वः शिरसा च महीं गतः |
591 | 1009030a | अर्घ्यं च प्रददौ तस्मै न्यायतः सुसमाहितः |
592 | 1009030c | वव्रे प्रसादं विप्रेन्द्रान्मा विप्रं मन्युराविशेत् |
593 | 1009031a | अन्तःपुरं प्रविश्यास्मै कन्यां दत्त्वा यथाविधि |
594 | 1009031c | शान्तां शान्तेन मनसा राजा हर्षमवाप सः |
595 | 1009032a | एवं स न्यवसत्तत्र सर्वकामैः सुपूजितः |
596 | 1009032c | ऋष्यशृङ्गो महातेजाः शान्तया सह भार्यया |
597 | 1010001a | भूय एव च राजेन्द्र शृणु मे वचनं हितम् |
598 | 1010001c | यथा स देवप्रवरः कथयामास बुद्धिमान् |
599 | 1010002a | इक्ष्वाकूणां कुले जातो भविष्यति सुधार्मिकः |
600 | 1010002c | राजा दशरथो नाम्ना श्रीमान्सत्यप्रतिश्रवः |
601 | 1010003a | अङ्गराजेन सख्यं च तस्य राज्ञो भविष्यति |
602 | 1010003c | कन्या चास्य महाभागा शान्ता नाम भविष्यति |
603 | 1010004a | पुत्रस्त्वङ्गस्य राज्ञस्तु रोमपाद इति श्रुतः |
604 | 1010004c | तं स राजा दशरथो गमिष्यति महायशाः |
605 | 1010005a | अनपत्योऽस्मि धर्मात्मञ्शान्ताभर्ता मम क्रतुम् |
606 | 1010005c | आहरेत त्वयाज्ञप्तः संतानार्थं कुलस्य च |
607 | 1010006a | श्रुत्वा राज्ञोऽथ तद्वाक्यं मनसा स विचिन्त्य च |
608 | 1010006c | प्रदास्यते पुत्रवन्तं शान्ता भर्तारमात्मवान् |
609 | 1010007a | प्रतिगृह्य च तं विप्रं स राजा विगतज्वरः |
610 | 1010007c | आहरिष्यति तं यज्ञं प्रहृष्टेनान्तरात्मना |
611 | 1010008a | तं च राजा दशरथो यष्टुकामः कृताञ्जलिः |
612 | 1010008c | ऋष्यशृङ्गं द्विजश्रेष्ठं वरयिष्यति धर्मवित् |
613 | 1010009a | यज्ञार्थं प्रसवार्थं च स्वर्गार्थं च नरेश्वरः |
614 | 1010009c | लभते च स तं कामं द्विजमुख्याद्विशां पतिः |
615 | 1010010a | पुत्राश्चास्य भविष्यन्ति चत्वारोऽमितविक्रमाः |
616 | 1010010c | वंशप्रतिष्ठानकराः सर्वलोकेषु विश्रुताः |
617 | 1010011a | एवं स देवप्रवरः पूर्वं कथितवान्कथाम् |
618 | 1010011c | सनत्कुमारो भगवान्पुरा देवयुगे प्रभुः |
619 | 1010012a | स त्वं पुरुषशार्दूल तमानय सुसत्कृतम् |
620 | 1010012c | स्वयमेव महाराज गत्वा सबलवाहनः |
621 | 1010013a | अनुमान्य वसिष्ठं च सूतवाक्यं निशम्य च |
622 | 1010013c | सान्तःपुरः सहामात्यः प्रययौ यत्र स द्विजः |
623 | 1010014a | वनानि सरितश्चैव व्यतिक्रम्य शनैः शनैः |
624 | 1010014c | अभिचक्राम तं देशं यत्र वै मुनिपुंगवः |
625 | 1010015a | आसाद्य तं द्विजश्रेष्ठं रोमपादसमीपगम् |
626 | 1010015c | ऋषिपुत्रं ददर्शादौ दीप्यमानमिवानलम् |
627 | 1010016a | ततो राजा यथान्यायं पूजां चक्रे विशेषतः |
628 | 1010016c | सखित्वात्तस्य वै राज्ञः प्रहृष्टेनान्तरात्मना |
629 | 1010017a | रोमपादेन चाख्यातमृषिपुत्राय धीमते |
630 | 1010017c | सख्यं संबन्धकं चैव तदा तं प्रत्यपूजयत् |
631 | 1010018a | एवं सुसत्कृतस्तेन सहोषित्वा नरर्षभः |
632 | 1010018c | सप्ताष्टदिवसान्राजा राजानमिदमब्रवीत् |
633 | 1010019a | शान्ता तव सुता राजन्सह भर्त्रा विशाम्पते |
634 | 1010019c | मदीयं नगरं यातु कार्यं हि महदुद्यतम् |
635 | 1010020a | तथेति राजा संश्रुत्य गमनं तस्य धीमतः |
636 | 1010020c | उवाच वचनं विप्रं गच्छ त्वं सह भार्यया |
637 | 1010021a | ऋषिपुत्रः प्रतिश्रुत्य तथेत्याह नृपं तदा |
638 | 1010021c | स नृपेणाभ्यनुज्ञातः प्रययौ सह भार्यया |
639 | 1010022a | तावन्योन्याञ्जलिं कृत्वा स्नेहात्संश्लिष्य चोरसा |
640 | 1010022c | ननन्दतुर्दशरथो रोमपादश्च वीर्यवान् |
641 | 1010023a | ततः सुहृदमापृच्छ्य प्रस्थितो रघुनन्दनः |
642 | 1010023c | पौरेभ्यः प्रेषयामास दूतान्वै शीघ्रगामिनः |
643 | 1010023e | क्रियतां नगरं सर्वं क्षिप्रमेव स्वलंकृतम् |
644 | 1010024a | ततः प्रहृष्टाः पौरास्ते श्रुत्वा राजानमागतम् |
645 | 1010024c | तथा प्रचक्रुस्तत्सर्वं राज्ञा यत्प्रेषितं तदा |
646 | 1010025a | ततः स्वलंकृतं राजा नगरं प्रविवेश ह |
647 | 1010025c | शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषैः पुरस्कृत्य द्विजर्षभम् |
648 | 1010026a | ततः प्रमुदिताः सर्वे दृष्ट्वा वै नागरा द्विजम् |
649 | 1010026c | प्रवेश्यमानं सत्कृत्य नरेन्द्रेणेन्द्रकर्मणा |
650 | 1010027a | अन्तःपुरं प्रवेश्यैनं पूजां कृत्वा तु शास्त्रतः |
651 | 1010027c | कृतकृत्यं तदात्मानं मेने तस्योपवाहनात् |
652 | 1010028a | अन्तःपुराणि सर्वाणि शान्तां दृष्ट्वा तथागताम् |
653 | 1010028c | सह भर्त्रा विशालाक्षीं प्रीत्यानन्दमुपागमन् |
654 | 1010029a | पूज्यमाना च ताभिः सा राज्ञा चैव विशेषतः |
655 | 1010029c | उवास तत्र सुखिता कंचित्कालं सह द्विजा |
656 | 1011001a | ततः काले बहुतिथे कस्मिंश्चित्सुमनोहरे |
657 | 1011001c | वसन्ते समनुप्राप्ते राज्ञो यष्टुं मनोऽभवत् |
658 | 1011002a | ततः प्रसाद्य शिरसा तं विप्रं देववर्णिनम् |
659 | 1011002c | यज्ञाय वरयामास संतानार्थं कुलस्य च |
660 | 1011003a | तथेति च स राजानमुवाच च सुसत्कृतः |
661 | 1011003c | संभाराः संभ्रियन्तां ते तुरगश्च विमुच्यताम् |
662 | 1011004a | ततो राजाब्रवीद्वाक्यं सुमन्त्रं मन्त्रिसत्तमम् |
663 | 1011004c | सुमन्त्रावाहय क्षिप्रमृत्विजो ब्रह्मवादिनः |
664 | 1011005a | ततः सुमन्त्रस्त्वरितं गत्वा त्वरितविक्रमः |
665 | 1011005c | समानयत्स तान्विप्रान्समस्तान्वेदपारगान् |
666 | 1011006a | सुयज्ञं वामदेवं च जाबालिमथ काश्यपम् |
667 | 1011006c | पुरोहितं वसिष्ठं च ये चान्ये द्विजसत्तमाः |
668 | 1011007a | तान्पूजयित्वा धर्मात्मा राजा दशरथस्तदा |
669 | 1011007c | इदं धर्मार्थसहितं श्लक्ष्णं वचनमब्रवीत् |
670 | 1011008a | मम लालप्यमानस्य पुत्रार्थं नास्ति वै सुखम् |
671 | 1011008c | तदर्थं हयमेधेन यक्ष्यामीति मतिर्मम |
672 | 1011009a | तदहं यष्टुमिच्छामि शास्त्रदृष्टेन कर्मणा |
673 | 1011009c | ऋषिपुत्रप्रभावेन कामान्प्राप्स्यामि चाप्यहम् |
674 | 1011010a | ततः साध्विति तद्वाक्यं ब्राह्मणाः प्रत्यपूजयन् |
675 | 1011010c | वसिष्ठप्रमुखाः सर्वे पार्थिवस्य मुखाच्च्युतम् |
676 | 1011011a | ऋष्यशृङ्गपुरोगाश्च प्रत्यूचुर्नृपतिं तदा |
677 | 1011011c | संभाराः संभ्रियन्तां ते तुरगश्च विमुच्यताम् |
678 | 1011012a | सर्वथा प्राप्यसे पुत्रांश्चतुरोऽमितविक्रमान् |
679 | 1011012c | यस्य ते धार्मिकी बुद्धिरियं पुत्रार्थमागता |
680 | 1011013a | ततः प्रीतोऽभवद्राजा श्रुत्वा तद्द्विजभाषितम् |
681 | 1011013c | अमात्यांश्चाब्रवीद्राजा हर्षेणेदं शुभाक्षरम् |
682 | 1011014a | गुरूणां वचनाच्छीघ्रं संभाराः संभ्रियन्तु मे |
683 | 1011014c | समर्थाधिष्ठितश्चाश्वः सोपाध्यायो विमुच्यताम् |
684 | 1011015a | सरय्वाश्चोत्तरे तीरे यज्ञभूमिर्विधीयताम् |
685 | 1011015c | शान्तयश्चाभिवर्धन्तां यथाकल्पं यथाविधि |
686 | 1011016a | शक्यः कर्तुमयं यज्ञः सर्वेणापि महीक्षिता |
687 | 1011016c | नापराधो भवेत्कष्टो यद्यस्मिन्क्रतुसत्तमे |
688 | 1011017a | छिद्रं हि मृगयन्तेऽत्र विद्वांसो ब्रह्मराक्षसाः |
689 | 1011017c | विधिहीनस्य यज्ञस्य सद्यः कर्ता विनश्यति |
690 | 1011018a | तद्यथा विधिपूर्वं मे क्रतुरेष समाप्यते |
691 | 1011018c | तथाविधानं क्रियतां समर्थाः करणेष्विह |
692 | 1011019a | तथेति च ततः सर्वे मन्त्रिणः प्रत्यपूजयन् |
693 | 1011019c | पार्थिवेन्द्रस्य तद्वाक्यं यथाज्ञप्तमकुर्वत |
694 | 1011020a | ततो द्विजास्ते धर्मज्ञमस्तुवन्पार्थिवर्षभम् |
695 | 1011020c | अनुज्ञातास्ततः सर्वे पुनर्जग्मुर्यथागतम् |
696 | 1011021a | गतानां तु द्विजातीनां मन्त्रिणस्तान्नराधिपः |
697 | 1011021c | विसर्जयित्वा स्वं वेश्म प्रविवेश महाद्युतिः |
698 | 1012001a | पुनः प्राप्ते वसन्ते तु पूर्णः संवत्सरोऽभवत् |
699 | 1012001c | अभिवाद्य वसिष्ठं च न्यायतः प्रतिपूज्य च |
700 | 1012002a | अब्रवीत्प्रश्रितं वाक्यं प्रसवार्थं द्विजोत्तमम् |
701 | 1012002c | यज्ञो मे क्रियतां विप्र यथोक्तं मुनिपुंगव |
702 | 1012003a | यथा न विघ्नः क्रियते यज्ञाङ्गेषु विधीयताम् |
703 | 1012003c | भवान्स्निग्धः सुहृन्मह्यं गुरुश्च परमो भवान् |
704 | 1012004a | वोढव्यो भवता चैव भारो यज्ञस्य चोद्यतः |
705 | 1012004c | तथेति च स राजानमब्रवीद्द्विजसत्तमः |
706 | 1012005a | करिष्ये सर्वमेवैतद्भवता यत्समर्थितम् |
707 | 1012005c | ततोऽब्रवीद्द्विजान्वृद्धान्यज्ञकर्मसु निष्ठितान् |
708 | 1012006a | स्थापत्ये निष्ठितांश्चैव वृद्धान्परमधार्मिकान् |
709 | 1012006c | कर्मान्तिकाञ्शिल्पकारान्वर्धकीन्खनकानपि |
710 | 1012007a | गणकाञ्शिल्पिनश्चैव तथैव नटनर्तकान् |
711 | 1012007c | तथा शुचीञ्शास्त्रविदः पुरुषान्सुबहुश्रुतान् |
712 | 1012008a | यज्ञकर्म समीहन्तां भवन्तो राजशासनात् |
713 | 1012008c | इष्टका बहुसाहस्री शीघ्रमानीयतामिति |
714 | 1012009a | औपकार्याः क्रियन्तां च राज्ञां बहुगुणान्विताः |
715 | 1012009c | ब्राह्मणावसथाश्चैव कर्तव्याः शतशः शुभाः |
716 | 1012010a | भक्ष्यान्नपानैर्बहुभिः समुपेताः सुनिष्ठिताः |
717 | 1012010c | तथा पौरजनस्यापि कर्तव्या बहुविस्तराः |
718 | 1012011a | आवासा बहुभक्ष्या वै सर्वकामैरुपस्थिताः |
719 | 1012011c | तथा जानपदस्यापि जनस्य बहुशोभनम् |
720 | 1012012a | दातव्यमन्नं विधिवत्सत्कृत्य न तु लीलया |
721 | 1012012c | सर्ववर्णा यथा पूजां प्राप्नुवन्ति सुसत्कृताः |
722 | 1012013a | न चावज्ञा प्रयोक्तव्या कामक्रोधवशादपि |
723 | 1012013c | यज्ञकर्मसु येऽव्यग्राः पुरुषाः शिल्पिनस्तथा |
724 | 1012014a | तेषामपि विशेषेण पूजा कार्या यथाक्रमम् |
725 | 1012014c | यथा सर्वं सुविहितं न किंचित्परिहीयते |
726 | 1012015a | तथा भवन्तः कुर्वन्तु प्रीतिस्निग्धेन चेतसा |
727 | 1012015c | ततः सर्वे समागम्य वसिष्ठमिदमब्रुवन् |
728 | 1012016a | यथोक्तं तत्करिष्यामो न किंचित्परिहास्यते |
729 | 1012016c | ततः सुमन्त्रमाहूय वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत् |
730 | 1012017a | निमन्त्रयस्य नृपतीन्पृथिव्यां ये च धार्मिकाः |
731 | 1012017c | ब्राह्मणान्क्षत्रियान्वैश्याञ्शूद्रांश्चैव सहस्रशः |
732 | 1012018a | समानयस्व सत्कृत्य सर्वदेशेषु मानवान् |
733 | 1012018c | मिथिलाधिपतिं शूरं जनकं सत्यविक्रमम् |
734 | 1012019a | निष्ठितं सर्वशास्त्रेषु तथा वेदेषु निष्ठितम् |
735 | 1012019c | तमानय महाभागं स्वयमेव सुसत्कृतम् |
736 | 1012019e | पूर्वसंबन्धिनं ज्ञात्वा ततः पूर्वं ब्रवीमि ते |
737 | 1012020a | तथा काशिपतिं स्निग्धं सततं प्रियवादिनम् |
738 | 1012020c | सद्वृत्तं देवसंकाशं स्वयमेवानयस्व ह |
739 | 1012021a | तथा केकयराजानं वृद्धं परमधार्मिकम् |
740 | 1012021c | श्वशुरं राजसिंहस्य सपुत्रं तमिहानय |
741 | 1012022a | अङ्गेश्वरं महाभागं रोमपादं सुसत्कृतम् |
742 | 1012022c | वयस्यं राजसिंहस्य तमानय यशस्विनम् |
743 | 1012023a | प्राचीनान्सिन्धुसौवीरान्सौराष्ठ्रेयांश्च पार्थिवान् |
744 | 1012023c | दाक्षिणात्यान्नरेन्द्रांश्च समस्तानानयस्व ह |
745 | 1012024a | सन्ति स्निग्धाश्च ये चान्ये राजानः पृथिवीतले |
746 | 1012024c | तानानय यथाक्षिप्रं सानुगान्सहबान्धवान् |
747 | 1012025a | वसिष्ठवाक्यं तच्छ्रुत्वा सुमन्त्रस्त्वरितस्तदा |
748 | 1012025c | व्यादिशत्पुरुषांस्तत्र राज्ञामानयने शुभान् |
749 | 1012026a | स्वयमेव हि धर्मात्मा प्रययौ मुनिशासनात् |
750 | 1012026c | सुमन्त्रस्त्वरितो भूत्वा समानेतुं महीक्षितः |
751 | 1012027a | ते च कर्मान्तिकाः सर्वे वसिष्ठाय च धीमते |
752 | 1012027c | सर्वं निवेदयन्ति स्म यज्ञे यदुपकल्पितम् |
753 | 1012028a | ततः प्रीतो द्विजश्रेष्ठस्तान्सर्वान्पुनरब्रवीत् |
754 | 1012028c | अवज्ञया न दातव्यं कस्यचिल्लीलयापि वा |
755 | 1012028e | अवज्ञया कृतं हन्याद्दातारं नात्र संशयः |
756 | 1012029a | ततः कैश्चिदहोरात्रैरुपयाता महीक्षितः |
757 | 1012029c | बहूनि रत्नान्यादाय राज्ञो दशरथस्य ह |
758 | 1012030a | ततो वसिष्ठः सुप्रीतो राजानमिदमब्रवीत् |
759 | 1012030c | उपयाता नरव्याघ्र राजानस्तव शासनात् |
760 | 1012031a | मयापि सत्कृताः सर्वे यथार्हं राजसत्तमाः |
761 | 1012031c | यज्ञियं च कृतं राजन्पुरुषैः सुसमाहितैः |
762 | 1012032a | निर्यातु च भवान्यष्टुं यज्ञायतनमन्तिकात् |
763 | 1012032c | सर्वकामैरुपहृतैरुपेतं वै समन्ततः |
764 | 1012033a | तथा वसिष्ठवचनादृष्यशृङ्गस्य चोभयोः |
765 | 1012033c | शुभे दिवस नक्षत्रे निर्यातो जगतीपतिः |
766 | 1012034a | ततो वसिष्ठप्रमुखाः सर्व एव द्विजोत्तमाः |
767 | 1012034c | ऋष्यशृङ्गं पुरस्कृत्य यज्ञकर्मारभंस्तदा |
768 | 1013001a | अथ संवत्सरे पूर्णे तस्मिन्प्राप्ते तुरङ्गमे |
769 | 1013001c | सरय्वाश्चोत्तरे तीरे राज्ञो यज्ञोऽभ्यवर्तत |
770 | 1013002a | ऋष्यशृङ्गं पुरस्कृत्य कर्म चक्रुर्द्विजर्षभाः |
771 | 1013002c | अश्वमेधे महायज्ञे राज्ञोऽस्य सुमहात्मनः |
772 | 1013003a | कर्म कुर्वन्ति विधिवद्याजका वेदपारगाः |
773 | 1013003c | यथाविधि यथान्यायं परिक्रामन्ति शास्त्रतः |
774 | 1013004a | प्रवर्ग्यं शास्त्रतः कृत्वा तथैवोपसदं द्विजाः |
775 | 1013004c | चक्रुश्च विधिवत्सर्वमधिकं कर्म शास्त्रतः |
776 | 1013005a | अभिपूज्य ततो हृष्टाः सर्वे चक्रुर्यथाविधि |
777 | 1013005c | प्रातःसवनपूर्वाणि कर्माणि मुनिपुंगवाः |
778 | 1013006a | न चाहुतमभूत्तत्र स्खलितं वापि किंचन |
779 | 1013006c | दृश्यते ब्रह्मवत्सर्वं क्षेमयुक्तं हि चक्रिरे |
780 | 1013007a | न तेष्वहःसु श्रान्तो वा क्षुधितो वापि दृश्यते |
781 | 1013007c | नाविद्वान्ब्राह्मणस्तत्र नाशतानुचरस्तथा |
782 | 1013008a | ब्राह्मणा भुञ्जते नित्यं नाथवन्तश्च भुञ्जते |
783 | 1013008c | तापसा भुञ्जते चापि श्रमणा भुञ्जते तथा |
784 | 1013009a | वृद्धाश्च व्याधिताश्चैव स्त्रियो बालास्तथैव च |
785 | 1013009c | अनिशं भुञ्जमानानां न तृप्तिरुपलभ्यते |
786 | 1013010a | दीयतां दीयतामन्नं वासांसि विविधानि च |
787 | 1013010c | इति संचोदितास्तत्र तथा चक्रुरनेकशः |
788 | 1013011a | अन्नकूटाश्च बहवो दृश्यन्ते पर्वतोपमाः |
789 | 1013011c | दिवसे दिवसे तत्र सिद्धस्य विधिवत्तदा |
790 | 1013012a | अन्नं हि विधिवत्स्वादु प्रशंसन्ति द्विजर्षभाः |
791 | 1013012c | अहो तृप्ताः स्म भद्रं ते इति शुश्राव राघवः |
792 | 1013013a | स्वलंकृताश्च पुरुषा ब्राह्मणान्पर्यवेषयन् |
793 | 1013013c | उपासते च तानन्ये सुमृष्टमणिकुण्डलाः |
794 | 1013014a | कर्मान्तरे तदा विप्रा हेतुवादान्बहूनपि |
795 | 1013014c | प्राहुः सुवाग्मिनो धीराः परस्परजिगीषया |
796 | 1013015a | दिवसे दिवसे तत्र संस्तरे कुशला द्विजाः |
797 | 1013015c | सर्वकर्माणि चक्रुस्ते यथाशास्त्रं प्रचोदिताः |
798 | 1013016a | नाषडङ्गविदत्रासीन्नाव्रतो नाबहुश्रुतः |
799 | 1013016c | सदस्यस्तस्य वै राज्ञो नावादकुशलो द्विजः |
800 | 1013017a | प्राप्ते यूपोच्छ्रये तस्मिन्षड्बैल्वाः खादिरास्तथा |
801 | 1013017c | तावन्तो बिल्वसहिताः पर्णिनश्च तथापरे |
802 | 1013018a | श्लेष्मातकमयो दिष्टो देवदारुमयस्तथा |
803 | 1013018c | द्वावेव तत्र विहितौ बाहुव्यस्तपरिग्रहौ |
804 | 1013019a | कारिताः सर्व एवैते शास्त्रज्ञैर्यज्ञकोविदैः |
805 | 1013019c | शोभार्थं तस्य यज्ञस्य काञ्चनालंकृता भवन् |
806 | 1013020a | विन्यस्ता विधिवत्सर्वे शिल्पिभिः सुकृता दृढाः |
807 | 1013020c | अष्टाश्रयः सर्व एव श्लक्ष्णरूपसमन्विताः |
808 | 1013021a | आच्छादितास्ते वासोभिः पुष्पैर्गन्धैश्च भूषिताः |
809 | 1013021c | सप्तर्षयो दीप्तिमन्तो विराजन्ते यथा दिवि |
810 | 1013022a | इष्टकाश्च यथान्यायं कारिताश्च प्रमाणतः |
811 | 1013022c | चितोऽग्निर्ब्राह्मणैस्तत्र कुशलैः शुल्बकर्मणि |
812 | 1013022e | स चित्यो राजसिंहस्य संचितः कुशलैर्द्विजैः |
813 | 1013023a | गरुडो रुक्मपक्षो वै त्रिगुणोऽष्टादशात्मकः |
814 | 1013023c | नियुक्तास्तत्र पशवस्तत्तदुद्दिश्य दैवतम् |
815 | 1013024a | उरगाः पक्षिणश्चैव यथाशास्त्रं प्रचोदिताः |
816 | 1013024c | शामित्रे तु हयस्तत्र तथा जल चराश्च ये |
817 | 1013025a | ऋत्विग्भिः सर्वमेवैतन्नियुक्तं शास्त्रतस्तदा |
818 | 1013025c | पशूनां त्रिशतं तत्र यूपेषु नियतं तदा |
819 | 1013025e | अश्वरत्नोत्तमं तस्य राज्ञो दशरथस्य ह |
820 | 1013026a | कौसल्या तं हयं तत्र परिचर्य समन्ततः |
821 | 1013026c | कृपाणैर्विशशासैनं त्रिभिः परमया मुदा |
822 | 1013027a | पतत्रिणा तदा सार्धं सुस्थितेन च चेतसा |
823 | 1013027c | अवसद्रजनीमेकां कौसल्या धर्मकाम्यया |
824 | 1013028a | होताध्वर्युस्तथोद्गाता हयेन समयोजयन् |
825 | 1013028c | महिष्या परिवृत्थ्याथ वावातामपरां तथा |
826 | 1013029a | पतत्रिणस्तस्य वपामुद्धृत्य नियतेन्द्रियः |
827 | 1013029c | ऋत्विक्परम संपन्नः श्रपयामास शास्त्रतः |
828 | 1013030a | धूमगन्धं वपायास्तु जिघ्रति स्म नराधिपः |
829 | 1013030c | यथाकालं यथान्यायं निर्णुदन्पापमात्मनः |
830 | 1013031a | हयस्य यानि चाङ्गानि तानि सर्वाणि ब्राह्मणाः |
831 | 1013031c | अग्नौ प्रास्यन्ति विधिवत्समस्ताः षोडशर्त्विजः |
832 | 1013032a | प्लक्षशाखासु यज्ञानामन्येषां क्रियते हविः |
833 | 1013032c | अश्वमेधस्य चैकस्य वैतसो भाग इष्यते |
834 | 1013033a | त्र्यहोऽश्वमेधः संख्यातः कल्पसूत्रेण ब्राह्मणैः |
835 | 1013033c | चतुष्टोममहस्तस्य प्रथमं परिकल्पितम् |
836 | 1013034a | उक्थ्यं द्वितीयं संख्यातमतिरात्रं तथोत्तरम् |
837 | 1013034c | कारितास्तत्र बहवो विहिताः शास्त्रदर्शनात् |
838 | 1013035a | ज्योतिष्टोमायुषी चैव अतिरात्रौ च निर्मितौ |
839 | 1013035c | अभिजिद्विश्वजिच्चैव अप्तोर्यामो महाक्रतुः |
840 | 1013036a | प्राचीं होत्रे ददौ राजा दिशं स्वकुलवर्धनः |
841 | 1013036c | अध्वर्यवे प्रतीचीं तु ब्रह्मणे दक्षिणां दिशम् |
842 | 1013037a | उद्गात्रे तु तथोदीचीं दक्षिणैषा विनिर्मिता |
843 | 1013037c | अश्वमेधे महायज्ञे स्वयम्भुविहिते पुरा |
844 | 1013038a | क्रतुं समाप्य तु तदा न्यायतः पुरुषर्षभः |
845 | 1013038c | ऋत्विग्भ्यो हि ददौ राजा धरां तां क्रतुवर्धनः |
846 | 1013039a | ऋत्विजस्त्वब्रुवन्सर्वे राजानं गतकल्मषम् |
847 | 1013039c | भवानेव महीं कृत्स्नामेको रक्षितुमर्हति |
848 | 1013040a | न भूम्या कार्यमस्माकं न हि शक्ताः स्म पालने |
849 | 1013040c | रताः स्वाध्यायकरणे वयं नित्यं हि भूमिप |
850 | 1013040e | निष्क्रयं किंचिदेवेह प्रयच्छतु भवानिति |
851 | 1013041a | गवां शतसहस्राणि दश तेभ्यो ददौ नृपः |
852 | 1013041c | दशकोटिं सुवर्णस्य रजतस्य चतुर्गुणम् |
853 | 1013042a | ऋत्विजस्तु ततः सर्वे प्रददुः सहिता वसु |
854 | 1013042c | ऋष्यशृङ्गाय मुनये वसिष्ठाय च धीमते |
855 | 1013043a | ततस्ते न्यायतः कृत्वा प्रविभागं द्विजोत्तमाः |
856 | 1013043c | सुप्रीतमनसः सर्वे प्रत्यूचुर्मुदिता भृशम् |
857 | 1013044a | ततः प्रीतमना राजा प्राप्य यज्ञमनुत्तमम् |
858 | 1013044c | पापापहं स्वर्नयनं दुस्तरं पार्थिवर्षभैः |
859 | 1013045a | ततोऽब्रवीदृष्यशृङ्गं राजा दशरथस्तदा |
860 | 1013045c | कुलस्य वर्धनं तत्तु कर्तुमर्हसि सुव्रत |
861 | 1013046a | तथेति च स राजानमुवाच द्विजसत्तमः |
862 | 1013046c | भविष्यन्ति सुता राजंश्चत्वारस्ते कुलोद्वहाः |
863 | 1014001a | मेधावी तु ततो ध्यात्वा स किंचिदिदमुत्तमम् |
864 | 1014001c | लब्धसंज्ञस्ततस्तं तु वेदज्ञो नृपमब्रवीत् |
865 | 1014002a | इष्टिं तेऽहं करिष्यामि पुत्रीयां पुत्रकारणात् |
866 | 1014002c | अथर्वशिरसि प्रोक्तैर्मन्त्रैः सिद्धां विधानतः |
867 | 1014003a | ततः प्राक्रमदिष्टिं तां पुत्रीयां पुत्र कारणात् |
868 | 1014003c | जुहाव चाग्नौ तेजस्वी मन्त्रदृष्टेन कर्मणा |
869 | 1014004a | ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः |
870 | 1014004c | भागप्रतिग्रहार्थं वै समवेता यथाविधि |
871 | 1014005a | ताः समेत्य यथान्यायं तस्मिन्सदसि देवताः |
872 | 1014005c | अब्रुवँल्लोककर्तारं ब्रह्माणं वचनं महत् |
873 | 1014006a | भगवंस्त्वत्प्रसादेन रावणो नाम राक्षसः |
874 | 1014006c | सर्वान्नो बाधते वीर्याच्छासितुं तं न शक्नुमः |
875 | 1014007a | त्वया तस्मै वरो दत्तः प्रीतेन भगवन्पुरा |
876 | 1014007c | मानयन्तश्च तं नित्यं सर्वं तस्य क्षमामहे |
877 | 1014008a | उद्वेजयति लोकांस्त्रीनुच्छ्रितान्द्वेष्टि दुर्मतिः |
878 | 1014008c | शक्रं त्रिदशराजानं प्रधर्षयितुमिच्छति |
879 | 1014009a | ऋषीन्यक्षान्सगन्धर्वानसुरान्ब्राह्मणांस्तथा |
880 | 1014009c | अतिक्रामति दुर्धर्षो वरदानेन मोहितः |
881 | 1014010a | नैनं सूर्यः प्रतपति पार्श्वे वाति न मारुतः |
882 | 1014010c | चलोर्मिमाली तं दृष्ट्वा समुद्रोऽपि न कम्पते |
883 | 1014011a | तन्मनन्नो भयं तस्माद्राक्षसाद्घोरदर्शनात् |
884 | 1014011c | वधार्थं तस्य भगवन्नुपायं कर्तुमर्हसि |
885 | 1014012a | एवमुक्तः सुरैः सर्वैश्चिन्तयित्वा ततोऽब्रवीत् |
886 | 1014012c | हन्तायं विहितस्तस्य वधोपायो दुरात्मनः |
887 | 1014013a | तेन गन्धर्वयक्षाणां देवदानवरक्षसाम् |
888 | 1014013c | अवध्योऽस्मीति वागुक्ता तथेत्युक्तं च तन्मया |
889 | 1014014a | नाकीर्तयदवज्ञानात्तद्रक्षो मानुषांस्तदा |
890 | 1014014c | तस्मात्स मानुषाद्वध्यो मृतुर्नान्योऽस्य विद्यते |
891 | 1014015a | एतच्छ्रुत्वा प्रियं वाक्यं ब्रह्मणा समुदाहृतम् |
892 | 1014015c | देवा महर्षयः सर्वे प्रहृष्टास्तेऽभवंस्तदा |
893 | 1014016a | एतस्मिन्नन्तरे विष्णुरुपयातो महाद्युतिः |
894 | 1014016c | ब्रह्मणा च समागम्य तत्र तस्थौ समाहितः |
895 | 1014017a | तमब्रुवन्सुराः सर्वे समभिष्टूय संनताः |
896 | 1014017c | त्वां नियोक्ष्यामहे विष्णो लोकानां हितकाम्यया |
897 | 1014018a | राज्ञो दशरथस्य त्वमयोध्याधिपतेर्विभो |
898 | 1014018c | धर्मज्ञस्य वदान्यस्य महर्षिसमतेजसः |
899 | 1014018e | तस्य भार्यासु तिसृषु ह्रीश्रीकीर्त्युपमासु च |
900 | 1014018g | विष्णो पुत्रत्वमागच्छ कृत्वात्मानं चतुर्विधम् |
901 | 1014019a | तत्र त्वं मानुषो भूत्वा प्रवृद्धं लोककण्टकम् |
902 | 1014019c | अवध्यं दैवतैर्विष्णो समरे जहि रावणम् |
903 | 1014020a | स हि देवान्सगन्धर्वान्सिद्धांश्च ऋषिसत्तमान् |
904 | 1014020c | राक्षसो रावणो मूर्खो वीर्योत्सेकेन बाधते |
905 | 1014021a | तदुद्धतं रावणमृद्धतेजसं; प्रवृद्धदर्पं त्रिदशेश्वरद्विषम् |
906 | 1014021c | विरावणं साधु तपस्विकण्टकं; तपस्विनामुद्धर तं भयावहम् |
907 | 1015001a | ततो नारायणो विष्णुर्नियुक्तः सुरसत्तमैः |
908 | 1015001c | जानन्नपि सुरानेवं श्लक्ष्णं वचनमब्रवीत् |
909 | 1015002a | उपायः को वधे तस्य राक्षसाधिपतेः सुराः |
910 | 1015002c | यमहं तं समास्थाय निहन्यामृषिकण्टकम् |
911 | 1015003a | एवमुक्ताः सुराः सर्वे प्रत्यूचुर्विष्णुमव्ययम् |
912 | 1015003c | मानुषीं तनुमास्थाय रावणं जहि संयुगे |
913 | 1015004a | स हि तेपे तपस्तीव्रं दीर्घकालमरिंदम |
914 | 1015004c | येन तुष्टोऽभवद्ब्रह्मा लोककृल्लोकपूजितः |
915 | 1015005a | संतुष्टः प्रददौ तस्मै राक्षसाय वरं प्रभुः |
916 | 1015005c | नानाविधेभ्यो भूतेभ्यो भयं नान्यत्र मानुषात् |
917 | 1015006a | अवज्ञाताः पुरा तेन वरदानेन मानवाः |
918 | 1015006c | तस्मात्तस्य वधो दृष्टो मानुषेभ्यः परंतप |
919 | 1015007a | इत्येतद्वचनं श्रुत्वा सुराणां विष्णुरात्मवान् |
920 | 1015007c | पितरं रोचयामास तदा दशरथं नृपम् |
921 | 1015008a | स चाप्यपुत्रो नृपतिस्तस्मिन्काले महाद्युतिः |
922 | 1015008c | अयजत्पुत्रियामिष्टिं पुत्रेप्सुररिसूदनः |
923 | 1015009a | ततो वै यजमानस्य पावकादतुलप्रभम् |
924 | 1015009c | प्रादुर्भूतं महद्भूतं महावीर्यं महाबलम् |
925 | 1015010a | कृष्णं रक्ताम्बरधरं रक्तास्यं दुन्दुभिस्वनम् |
926 | 1015010c | स्निग्धहर्यक्षतनुजश्मश्रुप्रवरमूर्धजम् |
927 | 1015011a | शुभलक्षणसंपन्नं दिव्याभरणभूषितम् |
928 | 1015011c | शैलशृङ्गसमुत्सेधं दृप्तशार्दूलविक्रमम् |
929 | 1015012a | दिवाकरसमाकारं दीप्तानलशिखोपमम् |
930 | 1015012c | तप्तजाम्बूनदमयीं राजतान्तपरिच्छदाम् |
931 | 1015013a | दिव्यपायससंपूर्णां पात्रीं पत्नीमिव प्रियाम् |
932 | 1015013c | प्रगृह्य विपुलां दोर्भ्यां स्वयं मायामयीमिव |
933 | 1015014a | समवेक्ष्याब्रवीद्वाक्यमिदं दशरथं नृपम् |
934 | 1015014c | प्राजापत्यं नरं विद्धि मामिहाभ्यागतं नृप |
935 | 1015015a | ततः परं तदा राजा प्रत्युवाच कृताञ्जलिः |
936 | 1015015c | भगवन्स्वागतं तेऽस्तु किमहं करवाणि ते |
937 | 1015016a | अथो पुनरिदं वाक्यं प्राजापत्यो नरोऽब्रवीत् |
938 | 1015016c | राजन्नर्चयता देवानद्य प्राप्तमिदं त्वया |
939 | 1015017a | इदं तु नरशार्दूल पायसं देवनिर्मितम् |
940 | 1015017c | प्रजाकरं गृहाण त्वं धन्यमारोग्यवर्धनम् |
941 | 1015018a | भार्याणामनुरूपाणामश्नीतेति प्रयच्छ वै |
942 | 1015018c | तासु त्वं लप्स्यसे पुत्रान्यदर्थं यजसे नृप |
943 | 1015019a | तथेति नृपतिः प्रीतः शिरसा प्रतिगृह्यताम् |
944 | 1015019c | पात्रीं देवान्नसंपूर्णां देवदत्तां हिरण्मयीम् |
945 | 1015020a | अभिवाद्य च तद्भूतमद्भुतं प्रियदर्शनम् |
946 | 1015020c | मुदा परमया युक्तश्चकाराभिप्रदक्षिणम् |
947 | 1015021a | ततो दशरथः प्राप्य पायसं देवनिर्मितम् |
948 | 1015021c | बभूव परमप्रीतः प्राप्य वित्तमिवाधनः |
949 | 1015022a | ततस्तदद्भुतप्रख्यं भूतं परमभास्वरम् |
950 | 1015022c | संवर्तयित्वा तत्कर्म तत्रैवान्तरधीयत |
951 | 1015023a | हर्षरश्मिभिरुद्योतं तस्यान्तःपुरमाबभौ |
952 | 1015023c | शारदस्याभिरामस्य चन्द्रस्येव नभोंऽशुभिः |
953 | 1015024a | सोऽन्तःपुरं प्रविश्यैव कौसल्यामिदमब्रवीत् |
954 | 1015024c | पायसं प्रतिगृह्णीष्व पुत्रीयं त्विदमात्मनः |
955 | 1015025a | कौसल्यायै नरपतिः पायसार्धं ददौ तदा |
956 | 1015025c | अर्धादर्धं ददौ चापि सुमित्रायै नराधिपः |
957 | 1015026a | कैकेय्यै चावशिष्टार्धं ददौ पुत्रार्थकारणात् |
958 | 1015026c | प्रददौ चावशिष्टार्धं पायसस्यामृतोपमम् |
959 | 1015027a | अनुचिन्त्य सुमित्रायै पुनरेव महीपतिः |
960 | 1015027c | एवं तासां ददौ राजा भार्याणां पायसं पृथक् |
961 | 1015028a | तास्त्वेतत्पायसं प्राप्य नरेन्द्रस्योत्तमाः स्त्रियः |
962 | 1015028c | संमानं मेनिरे सर्वाः प्रहर्षोदितचेतसः |
963 | 1016001a | पुत्रत्वं तु गते विष्णौ राज्ञस्तस्य महात्मनः |
964 | 1016001c | उवाच देवताः सर्वाः स्वयम्भूर्भगवानिदम् |
965 | 1016002a | सत्यसंधस्य वीरस्य सर्वेषां नो हितैषिणः |
966 | 1016002c | विष्णोः सहायान्बलिनः सृजध्वं कामरूपिणः |
967 | 1016003a | मायाविदश्च शूरांश्च वायुवेगसमाञ्जवे |
968 | 1016003c | नयज्ञान्बुद्धिसंपन्नान्विष्णुतुल्यपराक्रमान् |
969 | 1016004a | असंहार्यानुपायज्ञान्दिव्यसंहननान्वितान् |
970 | 1016004c | सर्वास्त्रगुणसंपन्नानमृतप्राशनानिव |
971 | 1016005a | अप्सरःसु च मुख्यासु गन्धर्वीणां तनूषु च |
972 | 1016005c | यक्षपन्नगकन्यासु ऋष्कविद्याधरीषु च |
973 | 1016006a | किंनरीणां च गात्रेषु वानरीणां तनूषु च |
974 | 1016006c | सृजध्वं हरिरूपेण पुत्रांस्तुल्यपराक्रमान् |
975 | 1016007a | ते तथोक्ता भगवता तत्प्रतिश्रुत्य शासनम् |
976 | 1016007c | जनयामासुरेवं ते पुत्रान्वानररूपिणः |
977 | 1016008a | ऋषयश्च महात्मानः सिद्धविद्याधरोरगाः |
978 | 1016008c | चारणाश्च सुतान्वीरान्ससृजुर्वनचारिणः |
979 | 1016009a | ते सृष्टा बहुसाहस्रा दशग्रीववधोद्यताः |
980 | 1016009c | अप्रमेयबला वीरा विक्रान्ताः कामरूपिणः |
981 | 1016010a | ते गजाचलसंकाशा वपुष्मन्तो महाबलाः |
982 | 1016010c | ऋक्षवानरगोपुच्छाः क्षिप्रमेवाभिजज्ञिरे |
983 | 1016011a | यस्य देवस्य यद्रूपं वेषो यश्च पराक्रमः |
984 | 1016011c | अजायत समस्तेन तस्य तस्य सुतः पृथक् |
985 | 1016012a | गोलाङ्गूलीषु चोत्पन्नाः केचित्संमतविक्रमाः |
986 | 1016012c | ऋक्षीषु च तथा जाता वानराः किंनरीषु च |
987 | 1016013a | शिलाप्रहरणाः सर्वे सर्वे पादपयोधिनः |
988 | 1016013c | नखदंष्ट्रायुधाः सर्वे सर्वे सर्वास्त्रकोविदाः |
989 | 1016014a | विचालयेयुः शैलेन्द्रान्भेदयेयुः स्थिरान्द्रुमान् |
990 | 1016014c | क्षोभयेयुश्च वेगेन समुद्रं सरितां पतिम् |
991 | 1016015a | दारयेयुः क्षितिं पद्भ्यामाप्लवेयुर्महार्णवम् |
992 | 1016015c | नभस्तलं विशेयुश्च गृह्णीयुरपि तोयदान् |
993 | 1016016a | गृह्णीयुरपि मातङ्गान्मत्तान्प्रव्रजतो वने |
994 | 1016016c | नर्दमानांश्च नादेन पातयेयुर्विहंगमान् |
995 | 1016017a | ईदृशानां प्रसूतानि हरीणां कामरूपिणाम् |
996 | 1016017c | शतं शतसहस्राणि यूथपानां महात्मनाम् |
997 | 1016017e | बभूवुर्यूथपश्रेष्ठा वीरांश्चाजनयन्हरीन् |
998 | 1016018a | अन्ये ऋक्षवतः प्रस्थानुपतस्थुः सहस्रशः |
999 | 1016018c | अन्ये नानाविधाञ्शैलान्काननानि च भेजिरे |
1000 | 1016019a | सूर्यपुत्रं च सुग्रीवं शक्रपुत्रं च वालिनम् |
1001 | 1016019c | भ्रातरावुपतस्थुस्ते सर्व एव हरीश्वराः |
1002 | 1016020a | तैर्मेघवृन्दाचलतुल्यकायै;र्महाबलैर्वानरयूथपालैः |
1003 | 1016020c | बभूव भूर्भीमशरीररूपैः; समावृता रामसहायहेतोः |
1004 | 1017001a | निर्वृत्ते तु क्रतौ तस्मिन्हयमेधे महात्मनः |
1005 | 1017001c | प्रतिगृह्य सुरा भागान्प्रतिजग्मुर्यथागतम् |
1006 | 1017002a | समाप्तदीक्षानियमः पत्नीगणसमन्वितः |
1007 | 1017002c | प्रविवेश पुरीं राजा सभृत्यबलवाहनः |
1008 | 1017003a | यथार्हं पूजितास्तेन राज्ञा वै पृथिवीश्वराः |
1009 | 1017003c | मुदिताः प्रययुर्देशान्प्रणम्य मुनिपुंगवम् |
1010 | 1017004a | गतेषु पृथिवीशेषु राजा दशरथः पुनः |
1011 | 1017004c | प्रविवेश पुरीं श्रीमान्पुरस्कृत्य द्विजोत्तमान् |
1012 | 1017005a | शान्तया प्रययौ सार्धमृष्यशृङ्गः सुपूजितः |
1013 | 1017005c | अन्वीयमानो राज्ञाथ सानुयात्रेण धीमता |
1014 | 1017006a | कौसल्याजनयद्रामं दिव्यलक्षणसंयुतम् |
1015 | 1017006c | विष्णोरर्धं महाभागं पुत्रमिक्ष्वाकुनन्दनम् |
1016 | 1017007a | कौसल्या शुशुभे तेन पुत्रेणामिततेजसा |
1017 | 1017007c | यथा वरेण देवानामदितिर्वज्रपाणिना |
1018 | 1017008a | भरतो नाम कैकेय्यां जज्ञे सत्यपराक्रमः |
1019 | 1017008c | साक्षाद्विष्णोश्चतुर्भागः सर्वैः समुदितो गुणैः |
1020 | 1017009a | अथ लक्ष्मणशत्रुघ्नौ सुमित्राजनयत्सुतौ |
1021 | 1017009c | वीरौ सर्वास्त्रकुशलौ विष्णोरर्धसमन्वितौ |
1022 | 1017010a | राज्ञः पुत्रा महात्मानश्चत्वारो जज्ञिरे पृथक् |
1023 | 1017010c | गुणवन्तोऽनुरूपाश्च रुच्या प्रोष्ठपदोपमाः |
1024 | 1017011a | अतीत्यैकादशाहं तु नाम कर्म तथाकरोत् |
1025 | 1017011c | ज्येष्ठं रामं महात्मानं भरतं कैकयीसुतम् |
1026 | 1017012a | सौमित्रिं लक्ष्मणमिति शत्रुघ्नमपरं तथा |
1027 | 1017012c | वसिष्ठः परमप्रीतो नामानि कृतवांस्तदा |
1028 | 1017012e | तेषां जन्मक्रियादीनि सर्वकर्माण्यकारयत् |
1029 | 1017013a | तेषां केतुरिव ज्येष्ठो रामो रतिकरः पितुः |
1030 | 1017013c | बभूव भूयो भूतानां स्वयम्भूरिव संमतः |
1031 | 1017014a | सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे लोकहिते रताः |
1032 | 1017014c | सर्वे ज्ञानोपसंपन्नाः सर्वे समुदिता गुणैः |
1033 | 1017015a | तेषामपि महातेजा रामः सत्यपराक्रमः |
1034 | 1017015c | बाल्यात्प्रभृति सुस्निग्धो लक्ष्मणो लक्ष्मिवर्धनः |
1035 | 1017016a | रामस्य लोकरामस्य भ्रातुर्ज्येष्ठस्य नित्यशः |
1036 | 1017016c | सर्वप्रियकरस्तस्य रामस्यापि शरीरतः |
1037 | 1017017a | लक्ष्मणो लक्ष्मिसंपन्नो बहिःप्राण इवापरः |
1038 | 1017017c | न च तेन विना निद्रां लभते पुरुषोत्तमः |
1039 | 1017017e | मृष्टमन्नमुपानीतमश्नाति न हि तं विना |
1040 | 1017018a | यदा हि हयमारूढो मृगयां याति राघवः |
1041 | 1017018c | तदैनं पृष्ठतोऽभ्येति सधनुः परिपालयन् |
1042 | 1017019a | भरतस्यापि शत्रुघ्नो लक्ष्मणावरजो हि सः |
1043 | 1017019c | प्राणैः प्रियतरो नित्यं तस्य चासीत्तथा प्रियः |
1044 | 1017020a | स चतुर्भिर्महाभागैः पुत्रैर्दशरथः प्रियैः |
1045 | 1017020c | बभूव परमप्रीतो देवैरिव पितामहः |
1046 | 1017021a | ते यदा ज्ञानसंपन्नाः सर्वे समुदिता गुणैः |
1047 | 1017021c | ह्रीमन्तः कीर्तिमन्तश्च सर्वज्ञा दीर्घदर्शिनः |
1048 | 1017022a | अथ राजा दशरथस्तेषां दारक्रियां प्रति |
1049 | 1017022c | चिन्तयामास धर्मात्मा सोपाध्यायः सबान्धवः |
1050 | 1017023a | तस्य चिन्तयमानस्य मन्त्रिमध्ये महात्मनः |
1051 | 1017023c | अभ्यागच्छन्महातेजो विश्वामित्रो महामुनिः |
1052 | 1017024a | स राज्ञो दर्शनाकाङ्क्षी द्वाराध्यक्षानुवाच ह |
1053 | 1017024c | शीघ्रमाख्यात मां प्राप्तं कौशिकं गाधिनः सुतम् |
1054 | 1017025a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य राजवेश्म प्रदुद्रुवुः |
1055 | 1017025c | संभ्रान्तमनसः सर्वे तेन वाक्येन चोदिताः |
1056 | 1017026a | ते गत्वा राजभवनं विश्वामित्रमृषिं तदा |
1057 | 1017026c | प्राप्तमावेदयामासुर्नृपायेक्ष्वाकवे तदा |
1058 | 1017027a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा सपुरोधाः समाहितः |
1059 | 1017027c | प्रत्युज्जगाम संहृष्टो ब्रह्माणमिव वासवः |
1060 | 1017028a | स दृष्ट्वा ज्वलितं दीप्त्या तापसं संशितव्रतम् |
1061 | 1017028c | प्रहृष्टवदनो राजा ततोऽर्घ्यमुपहारयत् |
1062 | 1017029a | स राज्ञः प्रतिगृह्यार्घ्यं शास्त्रदृष्ट्तेन कर्मणा |
1063 | 1017029c | कुशलं चाव्ययं चैव पर्यपृच्छन्नराधिपम् |
1064 | 1017030a | वसिष्ठं च समागम्य कुशलं मुनिपुंगवः |
1065 | 1017030c | ऋषींश्च तान्यथा न्यायं महाभागानुवाच ह |
1066 | 1017031a | ते सर्वे हृष्टमनसस्तस्य राज्ञो निवेशनम् |
1067 | 1017031c | विविशुः पूजितास्तत्र निषेदुश्च यथार्थतः |
1068 | 1017032a | अथ हृष्टमना राजा विश्वामित्रं महामुनिम् |
1069 | 1017032c | उवाच परमोदारो हृष्टस्तमभिपूजयन् |
1070 | 1017033a | यथामृतस्य संप्राप्तिर्यथा वर्षमनूदके |
1071 | 1017033c | यथा सदृशदारेषु पुत्रजन्माप्रजस्य च |
1072 | 1017033e | प्रनष्टस्य यथा लाभो यथा हर्षो महोदये |
1073 | 1017033g | तथैवागमनं मन्ये स्वागतं ते महामुने |
1074 | 1017034a | कं च ते परमं कामं करोमि किमु हर्षितः |
1075 | 1017034c | पात्रभूतोऽसि मे विप्र दिष्ट्या प्राप्तोऽसि धार्मिक |
1076 | 1017034e | अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम् |
1077 | 1017035a | पूर्वं राजर्षिशब्देन तपसा द्योतितप्रभः |
1078 | 1017035c | ब्रह्मर्षित्वमनुप्राप्तः पूज्योऽसि बहुधा मया |
1079 | 1017036a | तदद्भुतमिदं विप्र पवित्रं परमं मम |
1080 | 1017036c | शुभक्षेत्रगतश्चाहं तव संदर्शनात्प्रभो |
1081 | 1017037a | ब्रूहि यत्प्रार्थितं तुभ्यं कार्यमागमनं प्रति |
1082 | 1017037c | इच्छाम्यनुगृहीतोऽहं त्वदर्थपरिवृद्धये |
1083 | 1017038a | कार्यस्य न विमर्शं च गन्तुमर्हसि कौशिक |
1084 | 1017038c | कर्ता चाहमशेषेण दैवतं हि भवान्मम |
1085 | 1017039a | इति हृदयसुखं निशम्य वाक्यं; श्रुतिसुखमात्मवता विनीतमुक्तम् |
1086 | 1017039c | प्रथितगुणयशा गुणैर्विशिष्टः; परम ऋषिः परमं जगाम हर्षम् |
1087 | 1018001a | तच्छ्रुत्वा राजसिंहस्य वाक्यमद्भुतविस्तरम् |
1088 | 1018001c | हृष्टरोमा महातेजा विश्वामित्रोऽभ्यभाषत |
1089 | 1018002a | सदृशं राजशार्दूल तवैतद्भुवि नान्यतः |
1090 | 1018002c | महावंशप्रसूतस्य वसिष्ठव्यपदेशिनः |
1091 | 1018003a | यत्तु मे हृद्गतं वाक्यं तस्य कार्यस्य निश्चयम् |
1092 | 1018003c | कुरुष्व राजशार्दूल भव सत्यप्रतिश्रवः |
1093 | 1018004a | अहं नियममातिष्ठ सिद्ध्यर्थं पुरुषर्षभ |
1094 | 1018004c | तस्य विघ्नकरौ द्वौ तु राक्षसौ कामरूपिणौ |
1095 | 1018005a | व्रते मे बहुशश्चीर्णे समाप्त्यां राक्षसाविमौ |
1096 | 1018005c | मारीचश्च सुबाहुश्च वीर्यवन्तौ सुशिक्षितौ |
1097 | 1018005e | तौ मांसरुधिरौघेण वेदिं तामभ्यवर्षताम् |
1098 | 1018006a | अवधूते तथा भूते तस्मिन्नियमनिश्चये |
1099 | 1018006c | कृतश्रमो निरुत्साहस्तस्माद्देशादपाक्रमे |
1100 | 1018007a | न च मे क्रोधमुत्स्रष्टुं बुद्धिर्भवति पार्थिव |
1101 | 1018007c | तथाभूता हि सा चर्या न शापस्तत्र मुच्यते |
1102 | 1018008a | स्वपुत्रं राजशार्दूल रामं सत्यपराक्रमम् |
1103 | 1018008c | काकपक्षधरं शूरं ज्येष्ठं मे दातुमर्हसि |
1104 | 1018009a | शक्तो ह्येष मया गुप्तो दिव्येन स्वेन तेजसा |
1105 | 1018009c | राक्षसा ये विकर्तारस्तेषामपि विनाशने |
1106 | 1018010a | श्रेयश्चास्मै प्रदास्यामि बहुरूपं न संशयः |
1107 | 1018010c | त्रयाणामपि लोकानां येन ख्यातिं गमिष्यति |
1108 | 1018011a | न च तौ राममासाद्य शक्तौ स्थातुं कथंचन |
1109 | 1018011c | न च तौ राघवादन्यो हन्तुमुत्सहते पुमान् |
1110 | 1018012a | वीर्योत्सिक्तौ हि तौ पापौ कालपाशवशं गतौ |
1111 | 1018012c | रामस्य राजशार्दूल न पर्याप्तौ महात्मनः |
1112 | 1018013a | न च पुत्रकृतं स्नेहं कर्तुमर्हसि पार्थिव |
1113 | 1018013c | अहं ते प्रतिजानामि हतौ तौ विद्धि राक्षसौ |
1114 | 1018014a | अहं वेद्मि महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम् |
1115 | 1018014c | वसिष्ठोऽपि महातेजा ये चेमे तपसि स्थिताः |
1116 | 1018015a | यदि ते धर्मलाभं च यशश्च परमं भुवि |
1117 | 1018015c | स्थिरमिच्छसि राजेन्द्र रामं मे दातुमर्हसि |
1118 | 1018016a | यद्यभ्यनुज्ञां काकुत्स्थ ददते तव मन्त्रिणः |
1119 | 1018016c | वसिष्ठ प्रमुखाः सर्वे ततो रामं विसर्जय |
1120 | 1018017a | अभिप्रेतमसंसक्तमात्मजं दातुमर्हसि |
1121 | 1018017c | दशरात्रं हि यज्ञस्य रामं राजीवलोचनम् |
1122 | 1018018a | नात्येति कालो यज्ञस्य यथायं मम राघव |
1123 | 1018018c | तथा कुरुष्व भद्रं ते मा च शोके मनः कृथाः |
1124 | 1018019a | इत्येवमुक्त्वा धर्मात्मा धर्मार्थसहितं वचः |
1125 | 1018019c | विरराम महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः |
1126 | 1018020a | इति हृदयमनोविदारणं; मुनिवचनं तदतीव शुश्रुवान् |
1127 | 1018020c | नरपतिरगमद्भयं मह;द्व्यथितमनाः प्रचचाल चासनात् |
1128 | 1019001a | तच्छ्रुत्वा राजशार्दूल विश्वामित्रस्य भाषितम् |
1129 | 1019001c | मुहूर्तमिव निःसंज्ञः संज्ञावानिदमब्रवीत् |
1130 | 1019002a | ऊनषोडशवर्षो मे रामो राजीवलोचनः |
1131 | 1019002c | न युद्धयोग्यतामस्य पश्यामि सह राक्षसैः |
1132 | 1019003a | इयमक्षौहिणी पूर्णा यस्याहं पतिरीश्वरः |
1133 | 1019003c | अनया संवृतो गत्वा योधाहं तैर्निशाचरैः |
1134 | 1019004a | इमे शूराश्च विक्रान्ता भृत्या मेऽस्त्रविशारदाः |
1135 | 1019004c | योग्या रक्षोगणैर्योद्धुं न रामं नेतुमर्हसि |
1136 | 1019005a | अहमेव धनुष्पाणिर्गोप्ता समरमूर्धनि |
1137 | 1019005c | यावत्प्राणान्धरिष्यामि तावद्योत्स्ये निशाचरैः |
1138 | 1019006a | निर्विघ्ना व्रतचर्या सा भविष्यति सुरक्षिता |
1139 | 1019006c | अहं तत्र गमिष्यामि न राम नेतुमर्हसि |
1140 | 1019007a | बालो ह्यकृतविद्यश्च न च वेत्ति बलाबलम् |
1141 | 1019007c | न चास्त्रबलसंयुक्तो न च युद्धविशारदः |
1142 | 1019007e | न चासौ रक्षसां योग्यः कूटयुद्धा हि ते ध्रुवम् |
1143 | 1019008a | विप्रयुक्तो हि रामेण मुहूर्तमपि नोत्सहे |
1144 | 1019008c | जीवितुं मुनिशार्दूल न रामं नेतुमर्हसि |
1145 | 1019009a | यदि वा राघवं ब्रह्मन्नेतुमिच्छसि सुव्रत |
1146 | 1019009c | चतुरङ्गसमायुक्तं मया सह च तं नय |
1147 | 1019010a | षष्टिर्वर्षसहस्राणि जातस्य मम कौशिक |
1148 | 1019010c | दुःखेनोत्पादितश्चायं न रामं नेतुमर्हसि |
1149 | 1019011a | चतुर्णामात्मजानां हि प्रीतिः परमिका मम |
1150 | 1019011c | ज्येष्ठं धर्मप्रधानं च न रामं नेतुमर्हसि |
1151 | 1019012a | किं वीर्या राक्षसास्ते च कस्य पुत्राश्च के च ते |
1152 | 1019012c | कथं प्रमाणाः के चैतान्रक्षन्ति मुनिपुंगव |
1153 | 1019013a | कथं च प्रतिकर्तव्यं तेषां रामेण रक्षसाम् |
1154 | 1019013c | मामकैर्वा बलैर्ब्रह्मन्मया वा कूटयोधिनाम् |
1155 | 1019014a | सर्वं मे शंस भगवन्कथं तेषां मया रणे |
1156 | 1019014c | स्थातव्यं दुष्टभावानां वीर्योत्सिक्ता हि राक्षसाः |
1157 | 1019015a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रोऽभ्यभाषत |
1158 | 1019015c | पौलस्त्यवंशप्रभवो रावणो नाम राक्षसः |
1159 | 1019016a | स ब्रह्मणा दत्तवरस्त्रैलोक्यं बाधते भृशम् |
1160 | 1019016c | महाबलो महावीर्यो राक्षसैर्बहुभिर्वृतः |
1161 | 1019017a | श्रूयते हि महावीर्यो रावणो राक्षसाधिपः |
1162 | 1019017c | साक्षाद्वैश्रवणभ्राता पुत्रो विश्रवसो मुनेः |
1163 | 1019018a | यदा स्वयं न यज्ञस्य विघ्नकर्ता महाबलः |
1164 | 1019018c | तेन संचोदितौ तौ तु राक्षसौ सुमहा बलौ |
1165 | 1019018e | मारीचश्च सुबाहुश्च यज्ञविघ्नं करिष्यतः |
1166 | 1019019a | इत्युक्तो मुनिना तेन राजोवाच मुनिं तदा |
1167 | 1019019c | न हि शक्तोऽस्मि संग्रामे स्थातुं तस्य दुरात्मनः |
1168 | 1019020a | स त्वं प्रसादं धर्मज्ञ कुरुष्व मम पुत्रके |
1169 | 1019020c | देवदानवगन्धर्वा यक्षाः पतग पन्नगाः |
1170 | 1019021a | न शक्ता रावणं सोढुं किं पुनर्मानवा युधि |
1171 | 1019021c | स हि वीर्यवतां वीर्यमादत्ते युधि राक्षसः |
1172 | 1019022a | तेन चाहं न शक्तोऽस्मि संयोद्धुं तस्य वा बलैः |
1173 | 1019022c | सबलो वा मुनिश्रेष्ठ सहितो वा ममात्मजैः |
1174 | 1019023a | कथमप्यमरप्रख्यं संग्रामाणामकोविदम् |
1175 | 1019023c | बालं मे तनयं ब्रह्मन्नैव दास्यामि पुत्रकम् |
1176 | 1019024a | अथ कालोपमौ युद्धे सुतौ सुन्दोपसुन्दयोः |
1177 | 1019024c | यज्ञविघ्नकरौ तौ ते नैव दास्यामि पुत्रकम् |
1178 | 1019025a | मारीचश्च सुबाहुश्च वीर्यवन्तौ सुशिक्षितौ |
1179 | 1019025c | तयोरन्यतरेणाहं योद्धा स्यां ससुहृद्गणः |
1180 | 1020001a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य स्नेहपर्याकुलाक्षरम् |
1181 | 1020001c | समन्युः कौशिको वाक्यं प्रत्युवच महीपतिम् |
1182 | 1020002a | पूर्वमर्थं प्रतिश्रुत्य प्रतिज्ञां हातुमिच्छसि |
1183 | 1020002c | रागवाणामयुक्तोऽयं कुलस्यास्य विपर्ययः |
1184 | 1020003a | यदिदं ते क्षमं राजन्गमिष्यामि यथागतम् |
1185 | 1020003c | मिथ्याप्रतिज्ञः काकुत्स्थ सुखी भव सबान्धवः |
1186 | 1020004a | तस्य रोषपरीतस्य विश्वामित्रस्य धीमतः |
1187 | 1020004c | चचाल वसुधा कृत्स्ना विवेश च भयं सुरान् |
1188 | 1020005a | त्रस्तरूपं तु विज्ञाय जगत्सर्वं महानृषिः |
1189 | 1020005c | नृपतिं सुव्रतो धीरो वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत् |
1190 | 1020006a | इक्ष्वाकूणां कुले जातः साक्षाद्धर्म इवापरः |
1191 | 1020006c | धृतिमान्सुव्रतः श्रीमान्न धर्मं हातुमर्हसि |
1192 | 1020007a | त्रिषु लोकेषु विख्यातो धर्मात्मा इति राघवः |
1193 | 1020007c | स्वधर्मं प्रतिपद्यस्व नाधर्मं वोढुमर्हसि |
1194 | 1020008a | संश्रुत्यैवं करिष्यामीत्यकुर्वाणस्य राघव |
1195 | 1020008c | इष्टापूर्तवधो भूयात्तस्माद्रामं विसर्जय |
1196 | 1020009a | कृतास्त्रमकृतास्त्रं वा नैनं शक्ष्यन्ति राक्षसाः |
1197 | 1020009c | गुप्तं कुशिकपुत्रेण ज्वलनेनामृतं यथा |
1198 | 1020010a | एष विग्रहवान्धर्म एष वीर्यवतां वरः |
1199 | 1020010c | एष बुद्ध्याधिको लोके तपसश्च परायणम् |
1200 | 1020011a | एषोऽस्त्रान्विविधान्वेत्ति त्रैलोक्ये सचराचरे |
1201 | 1020011c | नैनमन्यः पुमान्वेत्ति न च वेत्स्यन्ति केचन |
1202 | 1020012a | न देवा नर्षयः केचिन्नासुरा न च राक्षसाः |
1203 | 1020012c | गन्धर्वयक्षप्रवराः सकिंनरमहोरगाः |
1204 | 1020013a | सर्वास्त्राणि कृशाश्वस्य पुत्राः परमधार्मिकाः |
1205 | 1020013c | कौशिकाय पुरा दत्ता यदा राज्यं प्रशासति |
1206 | 1020014a | तेऽपि पुत्राः कृशाश्वस्य प्रजापतिसुतासुताः |
1207 | 1020014c | नकरूपा महावीर्या दीप्तिमन्तो जयावहाः |
1208 | 1020015a | जया च सुप्रभा चैव दक्षकन्ये सुमध्यमे |
1209 | 1020015c | ते सुवातेऽस्त्रशस्त्राणि शतं परम भास्वरम् |
1210 | 1020016a | पञ्चाशतं सुताँल्लेभे जया नाम वरान्पुरा |
1211 | 1020016c | वधायासुरसैन्यानाममेयान्कामरूपिणः |
1212 | 1020017a | सुप्रभाजनयच्चापि पुत्रान्पञ्चाशतं पुनः |
1213 | 1020017c | संहारान्नाम दुर्धर्षान्दुराक्रामान्बलीयसः |
1214 | 1020018a | तानि चास्त्राणि वेत्त्येष यथावत्कुशिकात्मजः |
1215 | 1020018c | अपूर्वाणां च जनने शक्तो भूयश्च धर्मवित् |
1216 | 1020019a | एवं वीर्यो महातेजा विश्वामित्रो महातपाः |
1217 | 1020019c | न रामगमने राजन्संशयं गन्तुमर्हसि |
1218 | 1021001a | तथा वसिष्ठे ब्रुवति राजा दशरथः सुतम् |
1219 | 1021001c | प्रहृष्टवदनो राममाजुहाव सलक्ष्मणम् |
1220 | 1021002a | कृतस्वस्त्ययनं मात्रा पित्रा दशरथेन च |
1221 | 1021002c | पुरोधसा वसिष्ठेन मङ्गलैरभिमन्त्रितम् |
1222 | 1021003a | स पुत्रं मूर्ध्न्युपाघ्राय राजा दशरथः प्रियम् |
1223 | 1021003c | ददौ कुशिकपुत्राय सुप्रीतेनान्तरात्मना |
1224 | 1021004a | ततो वायुः सुखस्पर्शो विरजस्को ववौ तदा |
1225 | 1021004c | विश्वामित्रगतं रामं दृष्ट्वा राजीवलोचनम् |
1226 | 1021005a | पुष्पवृष्टिर्महत्यासीद्देवदुन्दुभिनिस्वनः |
1227 | 1021005c | शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषः प्रयाते तु महात्मनि |
1228 | 1021006a | विश्वामित्रो ययावग्रे ततो रामो महायशाः |
1229 | 1021006c | काकपक्षधरो धन्वी तं च सौमित्रिरन्वगात् |
1230 | 1021007a | कलापिनौ धनुष्पाणी शोभयानौ दिशो दश |
1231 | 1021007c | विश्वामित्रं महात्मानं त्रिशीर्षाविव पन्नगौ |
1232 | 1021007e | अनुजग्मतुरक्षुद्रौ पितामहमिवाश्विनौ |
1233 | 1021008a | बद्धगोधाङ्गुलित्राणौ खड्गवन्तौ महाद्युती |
1234 | 1021008c | स्थाणुं देवमिवाचिन्त्यं कुमाराविव पावकी |
1235 | 1021009a | अध्यर्धयोजनं गत्वा सरय्वा दक्षिणे तटे |
1236 | 1021009c | रामेति मधुरा वाणीं विश्वामित्रोऽभ्यभाषत |
1237 | 1021010a | गृहाण वत्स सलिलं मा भूत्कालस्य पर्ययः |
1238 | 1021010c | मन्त्रग्रामं गृहाण त्वं बलामतिबलां तथा |
1239 | 1021011a | न श्रमो न ज्वरो वा ते न रूपस्य विपर्ययः |
1240 | 1021011c | न च सुप्तं प्रमत्तं वा धर्षयिष्यन्ति नैरृताः |
1241 | 1021012a | न बाह्वोः सदृशो वीर्ये पृथिव्यामस्ति कश्चन |
1242 | 1021012c | त्रिषु लोकेषु वा राम न भवेत्सदृशस्तव |
1243 | 1021013a | न सौभाग्ये न दाक्षिण्ये न ज्ञाने बुद्धिनिश्चये |
1244 | 1021013c | नोत्तरे प्रतिपत्तव्यो समो लोके तवानघ |
1245 | 1021014a | एतद्विद्याद्वये लब्धे भविता नास्ति ते समः |
1246 | 1021014c | बला चातिबला चैव सर्वज्ञानस्य मातरौ |
1247 | 1021015a | क्षुत्पिपासे न ते राम भविष्येते नरोत्तम |
1248 | 1021015c | बलामतिबलां चैव पठतः पथि राघव |
1249 | 1021015e | विद्याद्वयमधीयाने यशश्चाप्यतुलं भुवि |
1250 | 1021016a | पितामहसुते ह्येते विद्ये तेजःसमन्विते |
1251 | 1021016c | प्रदातुं तव काकुत्स्थ सदृशस्त्वं हि धार्मिक |
1252 | 1021017a | कामं बहुगुणाः सर्वे त्वय्येते नात्र संशयः |
1253 | 1021017c | तपसा संभृते चैते बहुरूपे भविष्यतः |
1254 | 1021018a | ततो रामो जलं स्पृष्ट्वा प्रहृष्टवदनः शुचिः |
1255 | 1021018c | प्रतिजग्राह ते विद्ये महर्षेर्भावितात्मनः |
1256 | 1021018e | विद्यासमुदितो रामः शुशुभे भूरिविक्रमः |
1257 | 1021019a | गुरुकार्याणि सर्वाणि नियुज्य कुशिकात्मजे |
1258 | 1021019c | ऊषुस्तां रजनीं तत्र सरय्वां सुसुखं त्रयः |
1259 | 1022001a | प्रभातायां तु शर्वर्यां विश्वामित्रो महामुनिः |
1260 | 1022001c | अभ्यभाषत काकुत्स्थं शयानं पर्णसंस्तरे |
1261 | 1022002a | कौसल्या सुप्रजा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते |
1262 | 1022002c | उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्तव्यं दैवमाह्निकम् |
1263 | 1022003a | तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नृपात्मजौ |
1264 | 1022003c | स्नात्वा कृतोदकौ वीरौ जेपतुः परमं जपम् |
1265 | 1022004a | कृताह्निकौ महावीर्यौ विश्वामित्रं तपोधनम् |
1266 | 1022004c | अभिवाद्याभिसंहृष्टौ गमनायोपतस्थतुः |
1267 | 1022005a | तौ प्रयाते महावीर्यौ दिव्यं त्रिपथगां नदीम् |
1268 | 1022005c | ददृशाते ततस्तत्र सरय्वाः संगमे शुभे |
1269 | 1022006a | तत्राश्रमपदं पुण्यमृषीणामुग्रतेजसाम् |
1270 | 1022006c | बहुवर्षसहस्राणि तप्यतां परमं तपः |
1271 | 1022007a | तं दृष्ट्वा परमप्रीतौ राघवौ पुण्यमाश्रमम् |
1272 | 1022007c | ऊचतुस्तं महात्मानं विश्वामित्रमिदं वचः |
1273 | 1022008a | कस्यायमाश्रमः पुण्यः को न्वस्मिन्वसते पुमान् |
1274 | 1022008c | भगवञ्श्रोतुमिच्छावः परं कौतूहलं हि नौ |
1275 | 1022009a | तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा प्रहस्य मुनिपुंगवः |
1276 | 1022009c | अब्रवीच्छ्रूयतां राम यस्यायं पूर्व आश्रमः |
1277 | 1022010a | कन्दर्पो मूर्तिमानासीत्काम इत्युच्यते बुधैः |
1278 | 1022011a | तपस्यन्तमिह स्थाणुं नियमेन समाहितम् |
1279 | 1022011c | कृतोद्वाहं तु देवेशं गच्छन्तं समरुद्गणम् |
1280 | 1022011e | धर्षयामास दुर्मेधा हुंकृतश्च महात्मना |
1281 | 1022012a | दग्धस्य तस्य रौद्रेण चक्षुषा रघुनन्दन |
1282 | 1022012c | व्यशीर्यन्त शरीरात्स्वात्सर्वगात्राणि दुर्मतेः |
1283 | 1022013a | तस्य गात्रं हतं तत्र निर्दग्धस्य महात्मना |
1284 | 1022013c | अशरीरः कृतः कामः क्रोधाद्देवेश्वरेण ह |
1285 | 1022014a | अनङ्ग इति विख्यातस्तदा प्रभृति राघव |
1286 | 1022014c | स चाङ्गविषयः श्रीमान्यत्राङ्गं स मुमोच ह |
1287 | 1022015a | तस्यायमाश्रमः पुण्यस्तस्येमे मुनयः पुरा |
1288 | 1022015c | शिष्या धर्मपरा वीर तेषां पापं न विद्यते |
1289 | 1022016a | इहाद्य रजनीं राम वसेम शुभदर्शन |
1290 | 1022016c | पुण्ययोः सरितोर्मध्ये श्वस्तरिष्यामहे वयम् |
1291 | 1022017a | तेषां संवदतां तत्र तपो दीर्घेण चक्षुषा |
1292 | 1022017c | विज्ञाय परमप्रीता मुनयो हर्षमागमन् |
1293 | 1022018a | अर्घ्यं पाद्यं तथातिथ्यं निवेद्यकुशिकात्मजे |
1294 | 1022018c | रामलक्ष्मणयोः पश्चादकुर्वन्नतिथिक्रियाम् |
1295 | 1022019a | सत्कारं समनुप्राप्य कथाभिरभिरञ्जयन् |
1296 | 1022019c | न्यवसन्सुसुखं तत्र कामाश्रमपदे तदा |
1297 | 1023001a | ततः प्रभाते विमले कृताह्निकमरिंदमौ |
1298 | 1023001c | विश्वामित्रं पुरस्कृत्य नद्यास्तीरमुपागतौ |
1299 | 1023002a | ते च सर्वे महात्मानो मुनयः संशितव्रताः |
1300 | 1023002c | उपस्थाप्य शुभां नावं विश्वामित्रमथाब्रुवन् |
1301 | 1023003a | आरोहतु भवान्नावं राजपुत्रपुरस्कृतः |
1302 | 1023003c | अरिष्टं गच्छ पन्थानं मा भूत्कालस्य पर्ययः |
1303 | 1023004a | विश्वामित्रस्तथेत्युक्त्वा तानृषीनभिपूज्य च |
1304 | 1023004c | ततार सहितस्ताभ्यां सरितं सागरं गमाम् |
1305 | 1023005a | अथ रामः सरिन्मध्ये पप्रच्छ मुनिपुङ्गवम् |
1306 | 1023005c | वारिणो भिद्यमानस्य किमयं तुमुलो ध्वनिः |
1307 | 1023006a | राघवस्य वचः श्रुत्वा कौतूहल समन्वितम् |
1308 | 1023006c | कथयामास धर्मात्मा तस्य शब्दस्य निश्चयम् |
1309 | 1023007a | कैलासपर्वते राम मनसा निर्मितं सरः |
1310 | 1023007c | ब्रह्मणा नरशार्दूल तेनेदं मानसं सरः |
1311 | 1023008a | तस्मात्सुस्राव सरसः सायोध्यामुपगूहते |
1312 | 1023008c | सरःप्रवृत्ता सरयूः पुण्या ब्रह्मसरश्च्युता |
1313 | 1023009a | तस्यायमतुलः शब्दो जाह्नवीमभिवर्तते |
1314 | 1023009c | वारिसंक्षोभजो राम प्रणामं नियतः कुरु |
1315 | 1023010a | ताभ्यां तु तावुभौ कृत्वा प्रणाममतिधार्मिकौ |
1316 | 1023010c | तीरं दक्षिणमासाद्य जग्मतुर्लघुविक्रमौ |
1317 | 1023011a | स वनं घोरसंकाशं दृष्ट्वा नृपवरात्मजः |
1318 | 1023011c | अविप्रहतमैक्ष्वाकः पप्रच्छ मुनिपुंगवम् |
1319 | 1023012a | अहो वनमिदं दुर्गं झिल्लिकागणनादितम् |
1320 | 1023012c | भैरवैः श्वापदैः कीर्णं शकुन्तैर्दारुणारवैः |
1321 | 1023013a | नानाप्रकारैः शकुनैर्वाश्यद्भिर्भैरवस्वनैः |
1322 | 1023013c | सिंहव्याघ्रवराहैश्च वारणैश्चापि शोभितम् |
1323 | 1023014a | धवाश्वकर्णककुभैर्बिल्वतिन्दुकपाटलैः |
1324 | 1023014c | संकीर्णं बदरीभिश्च किं न्विदं दारुणं वनम् |
1325 | 1023015a | तमुवाच महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः |
1326 | 1023015c | श्रूयतां वत्स काकुत्स्थ यस्यैतद्दारुणं वनम् |
1327 | 1023016a | एतौ जनपदौ स्फीतौ पूर्वमास्तां नरोत्तम |
1328 | 1023016c | मलदाश्च करूषाश्च देवनिर्माण निर्मितौ |
1329 | 1023017a | पुरा वृत्रवधे राम मलेन समभिप्लुतम् |
1330 | 1023017c | क्षुधा चैव सहस्राक्षं ब्रह्महत्या यदाविशत् |
1331 | 1023018a | तमिन्द्रं स्नापयन्देवा ऋषयश्च तपोधनाः |
1332 | 1023018c | कलशैः स्नापयामासुर्मलं चास्य प्रमोचयन् |
1333 | 1023019a | इह भूम्यां मलं दत्त्वा दत्त्वा कारुषमेव च |
1334 | 1023019c | शरीरजं महेन्द्रस्य ततो हर्षं प्रपेदिरे |
1335 | 1023020a | निर्मलो निष्करूषश्च शुचिरिन्द्रो यदाभवत् |
1336 | 1023020c | ददौ देशस्य सुप्रीतो वरं प्रभुरनुत्तमम् |
1337 | 1023021a | इमौ जनपदौ स्थीतौ ख्यातिं लोके गमिष्यतः |
1338 | 1023021c | मलदाश्च करूषाश्च ममाङ्गमलधारिणौ |
1339 | 1023022a | साधु साध्विति तं देवाः पाकशासनमब्रुवन् |
1340 | 1023022c | देशस्य पूजां तां दृष्ट्वा कृतां शक्रेण धीमता |
1341 | 1023023a | एतौ जनपदौ स्थीतौ दीर्घकालमरिंदम |
1342 | 1023023c | मलदाश्च करूषाश्च मुदितौ धनधान्यतः |
1343 | 1023024a | कस्यचित्त्वथ कालस्य यक्षी वै कामरूपिणी |
1344 | 1023024c | बलं नागसहस्रस्य धारयन्ती तदा ह्यभूत् |
1345 | 1023025a | ताटका नाम भद्रं ते भार्या सुन्दस्य धीमतः |
1346 | 1023025c | मारीचो राक्षसः पुत्रो यस्याः शक्रपराक्रमः |
1347 | 1023026a | इमौ जनपदौ नित्यं विनाशयति राघव |
1348 | 1023026c | मलदांश्च करूषांश्च ताटका दुष्टचारिणी |
1349 | 1023027a | सेयं पन्थानमावार्य वसत्यत्यर्धयोजने |
1350 | 1023027c | अत एव च गन्तव्यं ताटकाया वनं यतः |
1351 | 1023028a | स्वबाहुबलमाश्रित्य जहीमां दुष्टचारिणीम् |
1352 | 1023028c | मन्नियोगादिमं देशं कुरु निष्कण्टकं पुनः |
1353 | 1023029a | न हि कश्चिदिमं देशं शक्रोत्यागन्तुमीदृशम् |
1354 | 1023029c | यक्षिण्या घोरया राम उत्सादितमसह्यया |
1355 | 1023030a | एतत्ते सर्वमाख्यातं यथैतद्दरुणं वनम् |
1356 | 1023030c | यक्ष्या चोत्सादितं सर्वमद्यापि न निवर्तते |
1357 | 1024001a | अथ तस्याप्रमेयस्य मुनेर्वचनमुत्तमम् |
1358 | 1024001c | श्रुत्वा पुरुषशार्दूलः प्रत्युवाच शुभां गिरम् |
1359 | 1024002a | अल्पवीर्या यदा यक्षाः श्रूयन्ते मुनिपुंगव |
1360 | 1024002c | कथं नागसहस्रस्य धारयत्यबला बलम् |
1361 | 1024003a | विश्वामित्रोऽब्रवीद्वाक्यं शृणु येन बलोत्तरा |
1362 | 1024003c | वरदानकृतं वीर्यं धारयत्यबला बलम् |
1363 | 1024004a | पूर्वमासीन्महायक्षः सुकेतुर्नाम वीर्यवान् |
1364 | 1024004c | अनपत्यः शुभाचारः स च तेपे महत्तपः |
1365 | 1024005a | पितामहस्तु सुप्रीतस्तस्य यक्षपतेस्तदा |
1366 | 1024005c | कन्यारत्नं ददौ राम ताटकां नाम नामतः |
1367 | 1024006a | ददौ नागसहस्रस्य बलं चास्याः पितामहः |
1368 | 1024006c | न त्वेव पुत्रं यक्षाय ददौ ब्रह्मा महायशाः |
1369 | 1024007a | तां तु जातां विवर्धन्तीं रूपयौवनशालिनीम् |
1370 | 1024007c | जम्भपुत्राय सुन्दाय ददौ भार्यां यशस्विनीम् |
1371 | 1024008a | कस्यचित्त्वथ कालल्स्य यक्षी पुत्रं व्यजायत |
1372 | 1024008c | मारीचं नाम दुर्धर्षं यः शापाद्राक्षसोऽभवत् |
1373 | 1024009a | सुन्दे तु निहते राम अगस्त्यमृषिसत्तमम् |
1374 | 1024009c | ताटका सह पुत्रेण प्रधर्षयितुमिच्छति |
1375 | 1024010a | राक्षसत्वं भजस्वेति मारीचं व्याजहार सः |
1376 | 1024010c | अगस्त्यः परमक्रुद्धस्ताटकामपि शप्तवान् |
1377 | 1024011a | पुरुषादी महायक्षी विरूपा विकृतानना |
1378 | 1024011c | इदं रूपमपहाय दारुणं रूपमस्तु ते |
1379 | 1024012a | सैषा शापकृतामर्षा ताटका क्रोधमूर्छिता |
1380 | 1024012c | देशमुत्सादयत्येनमगस्त्यचरितं शुभम् |
1381 | 1024013a | एनां राघव दुर्वृत्तां यक्षीं परमदारुणाम् |
1382 | 1024013c | गोब्राह्मणहितार्थाय जहि दुष्टपराक्रमाम् |
1383 | 1024014a | न ह्येनां शापसंसृष्टां कश्चिदुत्सहते पुमान् |
1384 | 1024014c | निहन्तुं त्रिषु लोकेषु त्वामृते रघुनन्दन |
1385 | 1024015a | न हि ते स्त्रीवधकृते घृणा कार्या नरोत्तम |
1386 | 1024015c | चातुर्वर्ण्यहितार्थाय कर्तव्यं राजसूनुना |
1387 | 1024016a | राज्यभारनियुक्तानामेष धर्मः सनातनः |
1388 | 1024016c | अधर्म्यां जहि काकुत्स्ह धर्मो ह्यस्या न विद्यते |
1389 | 1024017a | श्रूयते हि पुरा शक्रो विरोचनसुतां नृप |
1390 | 1024017c | पृथिवीं हन्तुमिच्छन्तीं मन्थरामभ्यसूदयत् |
1391 | 1024018a | विष्णुना च पुरा राम भृगुपत्नी दृढव्रता |
1392 | 1024018c | अनिन्द्रं लोकमिच्छन्ती काव्यमाता निषूदिता |
1393 | 1024019a | एतैश्चान्यैश्च बहुभी राजपुत्रमहात्मभिः |
1394 | 1024019c | अधर्मनिरता नार्यो हताः पुरुषसत्तमैः |
1395 | 1025001a | मुनेर्वचनमक्लीबं श्रुत्वा नरवरात्मजः |
1396 | 1025001c | राघवः प्राञ्जलिर्भूत्वा प्रत्युवाच दृढव्रतः |
1397 | 1025002a | पितुर्वचननिर्देशात्पितुर्वचनगौरवात् |
1398 | 1025002c | वचनं कौशिकस्येति कर्तव्यमविशङ्कया |
1399 | 1025003a | अनुशिष्टोऽस्म्ययोध्यायां गुरुमध्ये महात्मना |
1400 | 1025003c | पित्रा दशरथेनाहं नावज्ञेयं च तद्वचः |
1401 | 1025004a | सोऽहं पितुर्वचः श्रुत्वा शासनाद्ब्रह्म वादिनः |
1402 | 1025004c | करिष्यामि न संदेहस्ताटकावधमुत्तमम् |
1403 | 1025005a | गोब्राह्मणहितार्थाय देशस्यास्य सुखाय च |
1404 | 1025005c | तव चैवाप्रमेयस्य वचनं कर्तुमुद्यतः |
1405 | 1025006a | एवमुक्त्वा धनुर्मध्ये बद्ध्वा मुष्टिमरिंदमः |
1406 | 1025006c | ज्याशब्दमकरोत्तीव्रं दिशः शब्देन पूरयन् |
1407 | 1025007a | तेन शब्देन वित्रस्तास्ताटका वनवासिनः |
1408 | 1025007c | ताटका च सुसंक्रुद्धा तेन शब्देन मोहिता |
1409 | 1025008a | तं शब्दमभिनिध्याय राक्षसी क्रोधमूर्छिता |
1410 | 1025008c | श्रुत्वा चाभ्यद्रवद्वेगाद्यतः शब्दो विनिःसृतः |
1411 | 1025009a | तां दृष्ट्वा राघवः क्रुद्धां विकृतां विकृताननाम् |
1412 | 1025009c | प्रमाणेनातिवृद्धां च लक्ष्मणं सोऽभ्यभाषत |
1413 | 1025010a | पश्य लक्ष्मण यक्षिण्या भैरवं दारुणं वपुः |
1414 | 1025010c | भिद्येरन्दर्शनादस्या भीरूणां हृदयानि च |
1415 | 1025011a | एनां पश्य दुराधर्षां माया बलसमन्विताम् |
1416 | 1025011c | विनिवृत्तां करोम्यद्य हृतकर्णाग्रनासिकाम् |
1417 | 1025012a | न ह्येनामुत्सहे हन्तुं स्त्रीस्वभावेन रक्षिताम् |
1418 | 1025012c | वीर्यं चास्या गतिं चापि हनिष्यामीति मे मतिः |
1419 | 1025013a | एवं ब्रुवाणे रामे तु ताटका क्रोधमूर्छिता |
1420 | 1025013c | उद्यम्य बाहू गर्जन्ती राममेवाभ्यधावत |
1421 | 1025014a | तामापतन्तीं वेगेन विक्रान्तामशनीमिव |
1422 | 1025014c | शरेणोरसि विव्याध सा पपात ममार च |
1423 | 1025015a | तां हतां भीमसंकाशां दृष्ट्वा सुरपतिस्तदा |
1424 | 1025015c | साधु साध्विति काकुत्स्थं सुराश्च समपूजयन् |
1425 | 1025016a | उवाच परमप्रीतः सहस्राक्षः पुरंदरः |
1426 | 1025016c | सुराश्च सर्वे संहृष्टा विश्वामित्रमथाब्रुवन् |
1427 | 1025017a | मुने कौशिके भद्रं ते सेन्द्राः सर्वे मरुद्गणाः |
1428 | 1025017c | तोषिताः कर्मणानेन स्नेहं दर्शय राघवे |
1429 | 1025018a | प्रजापतेर्भृशाश्वस्य पुत्रान्सत्यपराक्रमान् |
1430 | 1025018c | तपोबलभृतान्ब्रह्मन्राघवाय निवेदय |
1431 | 1025019a | पात्रभूतश्च ते ब्रह्मंस्तवानुगमने धृतः |
1432 | 1025019c | कर्तव्यं च महत्कर्म सुराणां राजसूनुना |
1433 | 1025020a | एवमुक्त्वा सुराः सर्वे हृष्टा जग्मुर्यथागतम् |
1434 | 1025020c | विश्वामित्रं पूजयित्वा ततः संध्या प्रवर्तते |
1435 | 1025021a | ततो मुनिवरः प्रीतिस्ताटका वधतोषितः |
1436 | 1025021c | मूर्ध्नि राममुपाघ्राय इदं वचनमब्रवीत् |
1437 | 1025022a | इहाद्य रजनीं राम वसेम शुभदर्शन |
1438 | 1025022c | श्वः प्रभाते गमिष्यामस्तदाश्रमपदं मम |
1439 | 1026001a | अथ तां रजनीमुष्य विश्वामिरो महायशाः |
1440 | 1026001c | प्रहस्य राघवं वाक्यमुवाच मधुराक्षरम् |
1441 | 1026002a | पतितुष्टोऽस्मि भद्रं ते राजपुत्र महायशः |
1442 | 1026002c | प्रीत्या परमया युक्तो ददाम्यस्त्राणि सर्वशः |
1443 | 1026003a | देवासुरगणान्वापि सगन्धर्वोरगानपि |
1444 | 1026003c | यैरमित्रान्प्रसह्याजौ वशीकृत्य जयिष्यसि |
1445 | 1026004a | तानि दिव्यानि भद्रं ते ददाम्यस्त्राणि सर्वशः |
1446 | 1026004c | दण्डचक्रं महद्दिव्यं तव दास्यामि राघव |
1447 | 1026005a | धर्मचक्रं ततो वीर कालचक्रं तथैव च |
1448 | 1026005c | विष्णुचक्रं तथात्युग्रमैन्द्रं चक्रं तथैव च |
1449 | 1026006a | वज्रमस्त्रं नरश्रेष्ठ शैवं शूलवरं तथा |
1450 | 1026006c | अस्त्रं ब्रह्मशिरश्चैव ऐषीकमपि राघव |
1451 | 1026007a | ददामि ते महाबाहो ब्राह्ममस्त्रमनुत्तमम् |
1452 | 1026007c | गदे द्वे चैव काकुत्स्थ मोदकी शिखरी उभे |
1453 | 1026008a | प्रदीप्ते नरशार्दूल प्रयच्छामि नृपात्मज |
1454 | 1026008c | धर्मपाशमहं राम कालपाशं तथैव च |
1455 | 1026009a | वारुणं पाशमस्त्रं च ददान्यहमनुत्तमम् |
1456 | 1026009c | अशनी द्वे प्रयच्छामि शुष्कार्द्रे रघुनन्दन |
1457 | 1026010a | ददामि चास्त्रं पैनाकमस्त्रं नारायणं तथा |
1458 | 1026010c | आग्नेयमस्त्र दयितं शिखरं नाम नामतः |
1459 | 1026011a | वायव्यं प्रथमं नाम ददामि तव राघव |
1460 | 1026011c | अस्त्रं हयशिरो नाम क्रौञ्चमस्त्रं तथैव च |
1461 | 1026012a | शक्ति द्वयं च काकुत्स्थ ददामि तव चानघ |
1462 | 1026012c | कङ्कालं मुसलं घोरं कापालमथ कङ्कणम् |
1463 | 1026013a | धारयन्त्यसुरा यानि ददाम्येतानि सर्वशः |
1464 | 1026013c | वैद्याधरं महास्त्रं च नन्दनं नाम नामतः |
1465 | 1026014a | असिरत्नं महाबाहो ददामि नृवरात्मज |
1466 | 1026014c | गान्धर्वमस्त्रं दयितं मानवं नाम नामतः |
1467 | 1026015a | प्रस्वापनप्रशमने दद्मि सौरं च राघव |
1468 | 1026015c | दर्पणं शोषणं चैव संतापनविलापने |
1469 | 1026016a | मदनं चैव दुर्धर्षं कन्दर्पदयितं तथा |
1470 | 1026016c | पैशाचमस्त्रं दयितं मोहनं नाम नामतः |
1471 | 1026016e | प्रतीच्छ नरशार्दूल राजपुत्र महायशः |
1472 | 1026017a | तामसं नरशार्दूल सौमनं च महाबलम् |
1473 | 1026017c | संवर्तं चैव दुर्धर्षं मौसलं च नृपात्मज |
1474 | 1026018a | सत्यमस्त्रं महाबाहो तथा मायाधरं परम् |
1475 | 1026018c | घोरं तेजःप्रभं नाम परतेजोऽपकर्षणम् |
1476 | 1026019a | सोमास्त्रं शिशिरं नाम त्वाष्ट्रमस्त्रं सुदामनम् |
1477 | 1026019c | दारुणं च भगस्यापि शीतेषुमथ मानवम् |
1478 | 1026020a | एतान्नाम महाबाहो कामरूपान्महाबलान् |
1479 | 1026020c | गृहाण परमोदारान्क्षिप्रमेव नृपात्मज |
1480 | 1026021a | स्थितस्तु प्राङ्मुखो भूत्वा शुचिर्निवरतस्तदा |
1481 | 1026021c | ददौ रामाय सुप्रीतो मन्त्रग्राममनुत्तमम् |
1482 | 1026022a | जपतस्तु मुनेस्तस्य विश्वामित्रस्य धीमतः |
1483 | 1026022c | उपतस्थुर्महार्हाणि सर्वाण्यस्त्राणि राघवम् |
1484 | 1026023a | ऊचुश्च मुदिता रामं सर्वे प्राञ्जलयस्तदा |
1485 | 1026023c | इमे स्म परमोदार किंकरास्तव राघव |
1486 | 1026024a | प्रतिगृह्य च काकुत्स्थः समालभ्य च पाणिना |
1487 | 1026024c | मनसा मे भविष्यध्वमिति तान्यभ्यचोदयत् |
1488 | 1026025a | ततः प्रीतमना रामो विश्वामित्रं महामुनिम् |
1489 | 1026025c | अभिवाद्य महातेजा गमनायोपचक्रमे |
1490 | 1027001a | प्रतिगृह्य ततोऽस्त्राणि प्रहृष्टवदनः शुचिः |
1491 | 1027001c | गच्छन्नेव च काकुत्स्थो विश्वामित्रमथाब्रवीत् |
1492 | 1027002a | गृहीतास्त्रोऽस्मि भगवन्दुराधर्षः सुरैरपि |
1493 | 1027002c | अस्त्राणां त्वहमिच्छामि संहारं मुनिपुंगव |
1494 | 1027003a | एवं ब्रुवति काकुत्स्थे विश्वामित्रो महामुनिः |
1495 | 1027003c | संहारं व्याजहाराथ धृतिमान्सुव्रतः शुचिः |
1496 | 1027004a | सत्यवन्तं सत्यकीर्तिं धृष्टं रभसमेव च |
1497 | 1027004c | प्रतिहारतरं नाम पराङ्मुखमवाङ्मुखम् |
1498 | 1027005a | लक्षाक्षविषमौ चैव दृढनाभसुनाभकौ |
1499 | 1027005c | दशाक्षशतवक्त्रौ च दशशीर्षशतोदरौ |
1500 | 1027006a | पद्मनाभमहानाभौ दुन्दुनाभसुनाभकौ |
1501 | 1027006c | ज्योतिषं कृशनं चैव नैराश्य विमलावुभौ |
1502 | 1027007a | यौगन्धरहरिद्रौ च दैत्यप्रमथनौ तथा |
1503 | 1027007c | पित्र्यं सौमनसं चैव विधूतमकरावुभौ |
1504 | 1027008a | करवीरकरं चैव धनधान्यौ च राघव |
1505 | 1027008c | कामरूपं कामरुचिं मोहमावरणं तथा |
1506 | 1027009a | जृम्भकं सर्वनाभं च सन्तानवरणौ तथा |
1507 | 1027009c | भृशाश्वतनयान्राम भास्वरान्कामरूपिणः |
1508 | 1027010a | प्रतीच्छ मम भद्रं ते पात्रभूतोऽसि राघव |
1509 | 1027010c | दिव्यभास्वरदेहाश्च मूर्तिमन्तः सुखप्रदाः |
1510 | 1027011a | रामं प्राञ्जलयो भूत्वाब्रुवन्मधुरभाषिणः |
1511 | 1027011c | इमे स्म नरशार्दूल शाधि किं करवाम ते |
1512 | 1027012a | गम्यतामिति तानाह यथेष्टं रघुनन्दनः |
1513 | 1027012c | मानसाः कार्यकालेषु साहाय्यं मे करिष्यथ |
1514 | 1027013a | अथ ते राममामन्त्र्य कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् |
1515 | 1027013c | एवमस्त्विति काकुत्स्थमुक्त्वा जग्मुर्यथागतम् |
1516 | 1027014a | स च तान्राघवो ज्ञात्वा विश्वामित्रं महामुनिम् |
1517 | 1027014c | गच्छन्नेवाथ मधुरं श्लक्ष्णं वचनमब्रवीत् |
1518 | 1027015a | किं न्वेतन्मेघसंकाशं पर्वतस्याविदूरतः |
1519 | 1027015c | वृक्षषण्डमितो भाति परं कौतूहलं हि मे |
1520 | 1027016a | दर्शनीयं मृगाकीर्णं मनोहरमतीव च |
1521 | 1027016c | नानाप्रकारैः शकुनैर्वल्गुभाषैरलंकृतम् |
1522 | 1027017a | निःसृताः स्म मुनिश्रेष्ठ कान्ताराद्रोमहर्षणात् |
1523 | 1027017c | अनया त्ववगच्छामि देशस्य सुखवत्तया |
1524 | 1027018a | सर्वं मे शंस भगवन्कस्याश्रमपदं त्विदम् |
1525 | 1027018c | संप्राप्ता यत्र ते पापा ब्रह्मघ्ना दुष्टचारिणः |
1526 | 1028001a | अथ तस्याप्रमेयस्य तद्वनं परिपृच्छतः |
1527 | 1028001c | विश्वामित्रो महातेजा व्याख्यातुमुपचक्रमे |
1528 | 1028002a | एष पूर्वाश्रमो राम वामनस्य महात्मनः |
1529 | 1028002c | सिद्धाश्रम इति ख्यातः सिद्धो ह्यत्र महातपाः |
1530 | 1028003a | एतस्मिन्नेव काले तु राजा वैरोचनिर्बलिः |
1531 | 1028003c | निर्जित्य दैवतगणान्सेन्द्रांश्च समरुद्गणान् |
1532 | 1028003e | कारयामास तद्राज्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतः |
1533 | 1028004a | बलेस्तु यजमानस्य देवाः साग्निपुरोगमाः |
1534 | 1028004c | समागम्य स्वयं चैव विष्णुमूचुरिहाश्रमे |
1535 | 1028005a | बलिर्वैरोचनिर्विष्णो यजते यज्ञमुत्तमम् |
1536 | 1028005c | असमाप्ते क्रतौ तस्मिन्स्वकार्यमभिपद्यताम् |
1537 | 1028006a | ये चैनमभिवर्तन्ते याचितार इतस्ततः |
1538 | 1028006c | यच्च यत्र यथावच्च सर्वं तेभ्यः प्रयच्छति |
1539 | 1028007a | स त्वं सुरहितार्थाय मायायोगमुपाश्रितः |
1540 | 1028007c | वामनत्वं गतो विष्णो कुरु कल्याणमुत्तमम् |
1541 | 1028008a | अयं सिद्धाश्रमो नाम प्रसादात्ते भविष्यति |
1542 | 1028008c | सिद्धे कर्मणि देवेश उत्तिष्ठ भगवन्नितः |
1543 | 1028009a | अथ विष्णुर्महातेजा अदित्यां समजायत |
1544 | 1028009c | वामनं रूपमास्थाय वैरोचनिमुपागमत् |
1545 | 1028010a | त्रीन्क्रमानथ भिक्षित्वा प्रतिगृह्य च मानतः |
1546 | 1028010c | आक्रम्य लोकाँल्लोकात्मा सर्वभूतहिते रतः |
1547 | 1028011a | महेन्द्राय पुनः प्रादान्नियम्य बलिमोजसा |
1548 | 1028011c | त्रैलोक्यं स महातेजाश्चक्रे शक्रवशं पुनः |
1549 | 1028012a | तेनैष पूर्वमाक्रान्त आश्रमः श्रमनाशनः |
1550 | 1028012c | मयापि भक्त्या तस्यैष वामनस्योपभुज्यते |
1551 | 1028013a | एतमाश्रममायान्ति राक्षसा विघ्नकारिणः |
1552 | 1028013c | अत्र ते पुरुषव्याघ्र हन्तव्या दुष्टचारिणः |
1553 | 1028014a | अद्य गच्छामहे राम सिद्धाश्रममनुत्तमम् |
1554 | 1028014c | तदाश्रमपदं तात तवाप्येतद्यथा मम |
1555 | 1028015a | तं दृष्ट्वा मुनयः सर्वे सिद्धाश्रमनिवासिनः |
1556 | 1028015c | उत्पत्योत्पत्य सहसा विश्वामित्रमपूजयन् |
1557 | 1028016a | यथार्हं चक्रिरे पूजां विश्वामित्राय धीमते |
1558 | 1028016c | तथैव राजपुत्राभ्यामकुर्वन्नतिथिक्रियाम् |
1559 | 1028017a | मुहूर्तमथ विश्रान्तौ राजपुत्रावरिंदमौ |
1560 | 1028017c | प्राञ्जली मुनिशार्दूलमूचतू रघुनन्दनौ |
1561 | 1028018a | अद्यैव दीक्षां प्रविश भद्रं ते मुनिपुंगव |
1562 | 1028018c | सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धः स्यात्सत्यमस्तु वचस्तव |
1563 | 1028019a | एवमुक्तो महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः |
1564 | 1028019c | प्रविवेश तदा दीक्षां नियतो नियतेन्द्रियः |
1565 | 1028020a | कुमारावपि तां रात्रिमुषित्वा सुसमाहितौ |
1566 | 1028020c | प्रभातकाले चोत्थाय विश्वामित्रमवन्दताम् |
1567 | 1029001a | अथ तौ देशकालज्ञौ राजपुत्रावरिंदमौ |
1568 | 1029001c | देशे काले च वाक्यज्ञावब्रूतां कौशिकं वचः |
1569 | 1029002a | भगवञ्श्रोतुमिच्छावो यस्मिन्काले निशाचरौ |
1570 | 1029002c | संरक्षणीयौ तौ ब्रह्मन्नातिवर्तेत तत्क्षणम् |
1571 | 1029003a | एवं ब्रुवाणौ काकुत्स्थौ त्वरमाणौ युयुत्सया |
1572 | 1029003c | सर्वे ते मुनयः प्रीताः प्रशशंसुर्नृपात्मजौ |
1573 | 1029004a | अद्य प्रभृति षड्रात्रं रक्षतं राघवौ युवाम् |
1574 | 1029004c | दीक्षां गतो ह्येष मुनिर्मौनित्वं च गमिष्यति |
1575 | 1029005a | तौ तु तद्वचनं श्रुत्वा राजपुत्रौ यशस्विनौ |
1576 | 1029005c | अनिद्रौ षडहोरात्रं तपोवनमरक्षताम् |
1577 | 1029006a | उपासां चक्रतुर्वीरौ यत्तौ परमधन्विनौ |
1578 | 1029006c | ररक्षतुर्मुनिवरं विश्वामित्रमरिंदमौ |
1579 | 1029007a | अथ काले गते तस्मिन्षष्ठेऽहनि समागते |
1580 | 1029007c | सौमित्रमब्रवीद्रामो यत्तो भव समाहितः |
1581 | 1029008a | रामस्यैवं ब्रुवाणस्य त्वरितस्य युयुत्सया |
1582 | 1029008c | प्रजज्वाल ततो वेदिः सोपाध्यायपुरोहिता |
1583 | 1029009a | मन्त्रवच्च यथान्यायं यज्ञोऽसौ संप्रवर्तते |
1584 | 1029009c | आकाशे च महाञ्शब्दः प्रादुरासीद्भयानकः |
1585 | 1029010a | आवार्य गगनं मेघो यथा प्रावृषि निर्गतः |
1586 | 1029010c | तथा मायां विकुर्वाणौ राक्षसावभ्यधावताम् |
1587 | 1029011a | मारीचश्च सुबाहुश्च तयोरनुचरास्तथा |
1588 | 1029011c | आगम्य भीमसंकाशा रुधिरौघानवासृजन् |
1589 | 1029012a | तावापतन्तौ सहसा दृष्ट्वा राजीवलोचनः |
1590 | 1029012c | लक्ष्मणं त्वभिसंप्रेक्ष्य रामो वचनमब्रवीत् |
1591 | 1029013a | पश्य लक्ष्मण दुर्वृत्तान्राक्षसान्पिशिताशनान् |
1592 | 1029013c | मानवास्त्रसमाधूताननिलेन यथाघनान् |
1593 | 1029014a | मानवं परमोदारमस्त्रं परमभास्वरम् |
1594 | 1029014c | चिक्षेप परमक्रुद्धो मारीचोरसि राघवः |
1595 | 1029015a | स तेन परमास्त्रेण मानवेन समाहितः |
1596 | 1029015c | संपूर्णं योजनशतं क्षिप्तः सागरसंप्लवे |
1597 | 1029016a | विचेतनं विघूर्णन्तं शीतेषुबलपीडितम् |
1598 | 1029016c | निरस्तं दृश्य मारीचं रामो लक्ष्मणमब्रवीत् |
1599 | 1029017a | पश्य लक्ष्मण शीतेषुं मानवं धर्मसंहितम् |
1600 | 1029017c | मोहयित्वा नयत्येनं न च प्राणैर्वियुज्यते |
1601 | 1029018a | इमानपि वधिष्यामि निर्घृणान्दुष्टचारिणः |
1602 | 1029018c | राक्षसान्पापकर्मस्थान्यज्ञघ्नान्रुधिराशनान् |
1603 | 1029019a | विगृह्य सुमहच्चास्त्रमाग्नेयं रघुनन्दनः |
1604 | 1029019c | सुबाहुरसि चिक्षेप स विद्धः प्रापतद्भुवि |
1605 | 1029020a | शेषान्वायव्यमादाय निजघान महायशाः |
1606 | 1029020c | राघवः परमोदारो मुनीनां मुदमावहन् |
1607 | 1029021a | स हत्वा राक्षसान्सर्वान्यज्ञघ्नान्रघुनन्दनः |
1608 | 1029021c | ऋषिभिः पूजितस्तत्र यथेन्द्रो विजये पुरा |
1609 | 1029022a | अथ यज्ञे समाप्ते तु विश्वामित्रो महामुनिः |
1610 | 1029022c | निरीतिका दिशो दृष्ट्वा काकुत्स्थमिदमब्रवीत् |
1611 | 1029023a | कृतार्थोऽस्मि महाबाहो कृतं गुरुवचस्त्वया |
1612 | 1029023c | सिद्धाश्रममिदं सत्यं कृतं राम महायशः |
1613 | 1030001a | अथ तां रजनीं तत्र कृतार्थौ रामलक्षणौ |
1614 | 1030001c | ऊषतुर्मुदितौ वीरौ प्रहृष्टेनान्तरात्मना |
1615 | 1030002a | प्रभातायां तु शर्वर्यां कृतपौर्वाह्णिकक्रियौ |
1616 | 1030002c | विश्वामित्रमृषींश्चान्यान्सहितावभिजग्मतुः |
1617 | 1030003a | अभिवाद्य मुनिश्रेष्ठं ज्वलन्तमिव पावकम् |
1618 | 1030003c | ऊचतुर्मधुरोदारं वाक्यं मधुरभाषिणौ |
1619 | 1030004a | इमौ स्वो मुनिशार्दूल किंकरौ समुपस्थितौ |
1620 | 1030004c | आज्ञापय यथेष्टं वै शासनं करवाव किम् |
1621 | 1030005a | एवमुक्ते ततस्ताभ्यां सर्व एव महर्षयः |
1622 | 1030005c | विश्वामित्रं पुरस्कृत्य रामं वचनमब्रुवन् |
1623 | 1030006a | मैथिलस्य नरश्रेष्ठ जनकस्य भविष्यति |
1624 | 1030006c | यज्ञः परमधर्मिष्ठस्तत्र यास्यामहे वयम् |
1625 | 1030007a | त्वं चैव नरशार्दूल सहास्माभिर्गमिष्यसि |
1626 | 1030007c | अद्भुतं च धनूरत्नं तत्र त्वं द्रष्टुमर्हसि |
1627 | 1030008a | तद्धि पूर्वं नरश्रेष्ठ दत्तं सदसि दैवतैः |
1628 | 1030008c | अप्रमेयबलं घोरं मखे परमभास्वरम् |
1629 | 1030009a | नास्य देवा न गन्धर्वा नासुरा न च राक्षसाः |
1630 | 1030009c | कर्तुमारोपणं शक्ता न कथंचन मानुषाः |
1631 | 1030010a | धनुषस्तस्य वीर्यं हि जिज्ञासन्तो महीक्षितः |
1632 | 1030010c | न शेकुरारोपयितुं राजपुत्रा महाबलाः |
1633 | 1030011a | तद्धनुर्नरशार्दूल मैथिलस्य महात्मनः |
1634 | 1030011c | तत्र द्रक्ष्यसि काकुत्स्थ यज्ञं चाद्भुतदर्शनम् |
1635 | 1030012a | तद्धि यज्ञफलं तेन मैथिलेनोत्तमं धनुः |
1636 | 1030012c | याचितं नरशार्दूल सुनाभं सर्वदैवतैः |
1637 | 1030013a | एवमुक्त्वा मुनिवरः प्रस्थानमकरोत्तदा |
1638 | 1030013c | सर्षिसंघः सकाकुत्स्थ आमन्त्र्य वनदेवताः |
1639 | 1030014a | स्वस्ति वोऽस्तु गमिष्यामि सिद्धः सिद्धाश्रमादहम् |
1640 | 1030014c | उत्तरे जाह्नवीतीरे हिमवन्तं शिलोच्चयम् |
1641 | 1030015a | प्रदक्षिणं ततः कृत्वा सिद्धाश्रममनुत्तमम् |
1642 | 1030015c | उत्तरां दिशमुद्दिश्य प्रस्थातुमुपचक्रमे |
1643 | 1030016a | तं व्रजन्तं मुनिवरमन्वगादनुसारिणाम् |
1644 | 1030016c | शकटी शतमात्रं तु प्रयाणे ब्रह्मवादिनाम् |
1645 | 1030017a | मृगपक्षिगणाश्चैव सिद्धाश्रमनिवासिनः |
1646 | 1030017c | अनुजग्मुर्महात्मानं विश्वामित्रं महामुनिम् |
1647 | 1030018a | ते गत्वा दूरमध्वानं लम्बमाने दिवाकरे |
1648 | 1030018c | वासं चक्रुर्मुनिगणाः शोणाकूले समाहिताः |
1649 | 1030019a | तेऽस्तं गते दिनकरे स्नात्वा हुतहुताशनाः |
1650 | 1030019c | विश्वामित्रं पुरस्कृत्य निषेदुरमितौजसः |
1651 | 1030020a | रामोऽपि सहसौमित्रिर्मुनींस्तानभिपूज्य च |
1652 | 1030020c | अग्रतो निषसादाथ विश्वामित्रस्य धीमतः |
1653 | 1030021a | अथ रामो महातेजा विश्वामित्रं महामुनिम् |
1654 | 1030021c | पप्रच्छ मुनिशार्दूलं कौतूहलसमन्वितः |
1655 | 1030022a | भगवन्को न्वयं देशः समृद्धवनशोभितः |
1656 | 1030022c | श्रोतुमिच्छामि भद्रं ते वक्तुमर्हसि तत्त्वतः |
1657 | 1030023a | चोदितो रामवाक्येन कथयामास सुव्रतः |
1658 | 1030023c | तस्य देशस्य निखिलमृषिमध्ये महातपाः |
1659 | 1031001a | ब्रह्मयोनिर्महानासीत्कुशो नाम महातपाः |
1660 | 1031001c | वैदर्भ्यां जनयामास चतुरः सदृशान्सुतान् |
1661 | 1031002a | कुशाम्बं कुशनाभं च आधूर्त रजसं वसुम् |
1662 | 1031002c | दीप्तियुक्तान्महोत्साहान्क्षत्रधर्मचिकीर्षया |
1663 | 1031002e | तानुवाच कुशः पुत्रान्धर्मिष्ठान्सत्यवादिनः |
1664 | 1031003a | कुशस्य वचनं श्रुत्वा चत्वारो लोकसंमताः |
1665 | 1031003c | निवेशं चक्रिरे सर्वे पुराणां नृवरास्तदा |
1666 | 1031004a | कुशाम्बस्तु महातेजाः कौशाम्बीमकरोत्पुरीम् |
1667 | 1031004c | कुशनाभस्तु धर्मात्मा परं चक्रे महोदयम् |
1668 | 1031005a | आधूर्तरजसो राम धर्मारण्यं महीपतिः |
1669 | 1031005c | चक्रे पुरवरं राजा वसुश्चक्रे गिरिव्रजम् |
1670 | 1031006a | एषा वसुमती राम वसोस्तस्य महात्मनः |
1671 | 1031006c | एते शैलवराः पञ्च प्रकाशन्ते समन्ततः |
1672 | 1031007a | सुमागधी नदी रम्या मागधान्विश्रुताययौ |
1673 | 1031007c | पञ्चानां शैलमुख्यानां मध्ये मालेव शोभते |
1674 | 1031008a | सैषा हि मागधी राम वसोस्तस्य महात्मनः |
1675 | 1031008c | पूर्वाभिचरिता राम सुक्षेत्रा सस्यमालिनी |
1676 | 1031009a | कुशनाभस्तु राजर्षिः कन्याशतमनुत्तमम् |
1677 | 1031009c | जनयामास धर्मात्मा घृताच्यां रघुनन्दन |
1678 | 1031010a | तास्तु यौवनशालिन्यो रूपवत्यः स्वलंकृताः |
1679 | 1031010c | उद्यानभूमिमागम्य प्रावृषीव शतह्रदाः |
1680 | 1031011a | गायन्त्यो नृत्यमानाश्च वादयन्त्यश्च राघव |
1681 | 1031011c | आमोदं परमं जग्मुर्वराभरणभूषिताः |
1682 | 1031012a | अथ ताश्चारुसर्वाङ्ग्यो रूपेणाप्रतिमा भुवि |
1683 | 1031012c | उद्यानभूमिमागम्य तारा इव घनान्तरे |
1684 | 1031013a | ताः सर्वगुणसंपन्ना रूपयौवनसंयुताः |
1685 | 1031013c | दृष्ट्वा सर्वात्मको वायुरिदं वचनमब्रवीत् |
1686 | 1031014a | अहं वः कामये सर्वा भार्या मम भविष्यथ |
1687 | 1031014c | मानुषस्त्यज्यतां भावो दीर्घमायुरवाप्स्यथ |
1688 | 1031015a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा वायोरक्लिष्टकर्मणः |
1689 | 1031015c | अपहास्य ततो वाक्यं कन्याशतमथाब्रवीत् |
1690 | 1031016a | अन्तश्चरसि भूतानां सर्वेषां त्वं सुरोत्तम |
1691 | 1031016c | प्रभावज्ञाश्च ते सर्वाः किमस्मानवमन्यसे |
1692 | 1031017a | कुशनाभसुताः सर्वाः समर्थास्त्वां सुरोत्तम |
1693 | 1031017c | स्थानाच्च्यावयितुं देवं रक्षामस्तु तपो वयम् |
1694 | 1031018a | मा भूत्स कालो दुर्मेधः पितरं सत्यवादिनम् |
1695 | 1031018c | नावमन्यस्व धर्मेण स्वयंवरमुपास्महे |
1696 | 1031019a | पिता हि प्रभुरस्माकं दैवतं परमं हि सः |
1697 | 1031019c | यस्य नो दास्यति पिता स नो भर्ता भविष्यति |
1698 | 1031020a | तासां तद्वचनं श्रुत्वा वायुः परमकोपनः |
1699 | 1031020c | प्रविश्य सर्वगात्राणि बभञ्ज भगवान्प्रभुः |
1700 | 1031021a | ताः कन्या वायुना भग्ना विविशुर्नृपतेर्गृहम् |
1701 | 1031021c | दृष्ट्वा भग्नास्तदा राजा संभ्रान्त इदमब्रवीत् |
1702 | 1031022a | किमिदं कथ्यतां पुत्र्यः को धर्ममवमन्यते |
1703 | 1031022c | कुब्जाः केन कृताः सर्वा वेष्टन्त्यो नाभिभाषथ |
1704 | 1032001a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा कुशनाभस्य धीमतः |
1705 | 1032001c | शिरोभिश्चरणौ स्पृष्ट्वा कन्याशतमभाषत |
1706 | 1032002a | वायुः सर्वात्मको राजन्प्रधर्षयितुमिच्छति |
1707 | 1032002c | अशुभं मार्गमास्थाय न धर्मं प्रत्यवेक्षते |
1708 | 1032003a | पितृमत्यः स्म भद्रं ते स्वच्छन्दे न वयं स्थिताः |
1709 | 1032003c | पितरं नो वृणीष्व त्वं यदि नो दास्यते तव |
1710 | 1032004a | तेन पापानुबन्धेन वचनं न प्रतीच्छता |
1711 | 1032004c | एवं ब्रुवन्त्यः सर्वाः स्म वायुना निहता भृषम् |
1712 | 1032005a | तासां तद्वचनं श्रुत्वा राजा परमधार्मिकः |
1713 | 1032005c | प्रत्युवाच महातेजाः कन्याशतमनुत्तमम् |
1714 | 1032006a | क्षान्तं क्षमावतां पुत्र्यः कर्तव्यं सुमहत्कृतम् |
1715 | 1032006c | ऐकमत्यमुपागम्य कुलं चावेक्षितं मम |
1716 | 1032007a | अलंकारो हि नारीणां क्षमा तु पुरुषस्य वा |
1717 | 1032007c | दुष्करं तच्च वः क्षान्तं त्रिदशेषु विशेषतः |
1718 | 1032008a | यादृशीर्वः क्षमा पुत्र्यः सर्वासामविशेषतः |
1719 | 1032008c | क्षमा दानं क्षमा यज्ञः क्षमा सत्यं च पुत्रिकाः |
1720 | 1032009a | क्षमा यशः क्षमा धर्मः क्षमायां विष्ठितं जगत् |
1721 | 1032009c | विसृज्य कन्याः काकुत्स्थ राजा त्रिदशविक्रमः |
1722 | 1032010a | मन्त्रज्ञो मन्त्रयामास प्रदानं सह मन्त्रिभिः |
1723 | 1032010c | देशे काले प्रदानस्य सदृशे प्रतिपादनम् |
1724 | 1032011a | एतस्मिन्नेव काले तु चूली नाम महामुनिः |
1725 | 1032011c | ऊर्ध्वरेताः शुभाचारो ब्राह्मं तप उपागमत् |
1726 | 1032012a | तप्यन्तं तमृषिं तत्र गन्धर्वी पर्युपासते |
1727 | 1032012c | सोमदा नाम भद्रं ते ऊर्मिला तनया तदा |
1728 | 1032013a | सा च तं प्रणता भूत्वा शुश्रूषणपरायणा |
1729 | 1032013c | उवास काले धर्मिष्ठा तस्यास्तुष्टोऽभवद्गुरुः |
1730 | 1032014a | स च तां कालयोगेन प्रोवाच रघुनन्दन |
1731 | 1032014c | परितुष्टोऽस्मि भद्रं ते किं करोमि तव प्रियम् |
1732 | 1032015a | परितुष्टं मुनिं ज्ञात्वा गन्धर्वी मधुरस्वरम् |
1733 | 1032015c | उवाच परमप्रीता वाक्यज्ञा वाक्यकोविदम् |
1734 | 1032016a | लक्ष्म्या समुदितो ब्राह्म्या ब्रह्मभूतो महातपाः |
1735 | 1032016c | ब्राह्मेण तपसा युक्तं पुत्रमिच्छामि धार्मिकम् |
1736 | 1032017a | अपतिश्चास्मि भद्रं ते भार्या चास्मि न कस्यचित् |
1737 | 1032017c | ब्राह्मेणोपगतायाश्च दातुमर्हसि मे सुतम् |
1738 | 1032018a | तस्याः प्रसन्नो ब्रह्मर्षिर्ददौ पुत्रमनुत्तमम् |
1739 | 1032018c | ब्रह्मदत्त इति ख्यातं मानसं चूलिनः सुतम् |
1740 | 1032019a | स राजा ब्रह्मदत्तस्तु पुरीमध्यवसत्तदा |
1741 | 1032019c | काम्पिल्यां परया लक्ष्म्या देवराजो यथा दिवम् |
1742 | 1032020a | स बुद्धिं कृतवान्राजा कुशनाभः सुधार्मिकः |
1743 | 1032020c | ब्रह्मदत्ताय काकुत्स्थ दातुं कन्याशतं तदा |
1744 | 1032021a | तमाहूय महातेजा ब्रह्मदत्तं महीपतिः |
1745 | 1032021c | ददौ कन्याशतं राजा सुप्रीतेनान्तरात्मना |
1746 | 1032022a | यथाक्रमं ततः पाणिं जग्राह रघुनन्दन |
1747 | 1032022c | ब्रह्मदत्तो मही पालस्तासां देवपतिर्यथा |
1748 | 1032023a | स्पृष्टमात्रे ततः पाणौ विकुब्जा विगतज्वराः |
1749 | 1032023c | युक्ताः परमया लक्ष्म्या बभुः कन्याशतं तदा |
1750 | 1032024a | स दृष्ट्वा वायुना मुक्ताः कुशनाभो महीपतिः |
1751 | 1032024c | बभूव परमप्रीतो हर्षं लेभे पुनः पुनः |
1752 | 1032025a | कृतोद्वाहं तु राजानं ब्रह्मदत्तं महीपतिः |
1753 | 1032025c | सदारं प्रेषयामास सोपाध्याय गणं तदा |
1754 | 1032026a | सोमदापि सुसंहृष्टा पुत्रस्य सदृशीं क्रियाम् |
1755 | 1032026c | यथान्यायं च गन्धर्वी स्नुषास्ताः प्रत्यनन्दत |
1756 | 1033001a | कृतोद्वाहे गते तस्मिन्ब्रह्मदत्ते च राघव |
1757 | 1033001c | अपुत्रः पुत्रलाभाय पौत्रीमिष्टिमकल्पयत् |
1758 | 1033002a | इष्ट्यां तु वर्तमानायां कुशनाभं महीपतिम् |
1759 | 1033002c | उवाच परमप्रीतः कुशो ब्रह्मसुतस्तदा |
1760 | 1033003a | पुत्रस्ते सदृशः पुत्र भविष्यति सुधार्मिकः |
1761 | 1033003c | गाधिं प्राप्स्यसि तेन त्वं कीर्तिं लोके च शाश्वतीम् |
1762 | 1033004a | एवमुक्त्वा कुशो राम कुशनाभं महीपतिम् |
1763 | 1033004c | जगामाकाशमाविश्य ब्रह्मलोकं सनातनम् |
1764 | 1033005a | कस्यचित्त्वथ कालस्य कुशनाभस्य धीमतः |
1765 | 1033005c | जज्ञे परमधर्मिष्ठो गाधिरित्येव नामतः |
1766 | 1033006a | स पिता मम काकुत्स्थ गाधिः परमधार्मिकः |
1767 | 1033006c | कुशवंशप्रसूतोऽस्मि कौशिको रघुनन्दन |
1768 | 1033007a | पूर्वजा भगिनी चापि मम राघव सुव्रता |
1769 | 1033007c | नाम्ना सत्यवती नाम ऋचीके प्रतिपादिता |
1770 | 1033008a | सशरीरा गता स्वर्गं भर्तारमनुवर्तिनी |
1771 | 1033008c | कौशिकी परमोदारा सा प्रवृत्ता महानदी |
1772 | 1033009a | दिव्या पुण्योदका रम्या हिमवन्तमुपाश्रिता |
1773 | 1033009c | लोकस्य हितकामार्थं प्रवृत्ता भगिनी मम |
1774 | 1033010a | ततोऽहं हिमवत्पार्श्वे वसामि नियतः सुखम् |
1775 | 1033010c | भगिन्याः स्नेहसंयुक्तः कौशिक्या रघुनन्दन |
1776 | 1033011a | सा तु सत्यवती पुण्या सत्ये धर्मे प्रतिष्ठिता |
1777 | 1033011c | पतिव्रता महाभागा कौशिकी सरितां वरा |
1778 | 1033012a | अहं हि नियमाद्राम हित्वा तां समुपागतः |
1779 | 1033012c | सिद्धाश्रममनुप्राप्य सिद्धोऽस्मि तव तेजसा |
1780 | 1033013a | एषा राम ममोत्पत्तिः स्वस्य वंशस्य कीर्तिता |
1781 | 1033013c | देशस्य च महाबाहो यन्मां त्वं परिपृच्छसि |
1782 | 1033014a | गतोऽर्धरात्रः काकुत्स्थ कथाः कथयतो मम |
1783 | 1033014c | निद्रामभ्येहि भद्रं ते मा भूद्विघ्नोऽध्वनीह नः |
1784 | 1033015a | निष्पन्दास्तरवः सर्वे निलीना मृगपक्षिणः |
1785 | 1033015c | नैशेन तमसा व्याप्ता दिशश्च रघुनन्दन |
1786 | 1033016a | शनैर्वियुज्यते संध्या नभो नेत्रैरिवावृतम् |
1787 | 1033016c | नक्षत्रतारागहनं ज्योतिर्भिरवभासते |
1788 | 1033017a | उत्तिष्ठति च शीतांशुः शशी लोकतमोनुदः |
1789 | 1033017c | ह्लादयन्प्राणिनां लोके मनांसि प्रभया विभो |
1790 | 1033018a | नैशानि सर्वभूतानि प्रचरन्ति ततस्ततः |
1791 | 1033018c | यक्षराक्षससंघाश्च रौद्राश्च पिशिताशनाः |
1792 | 1033019a | एवमुक्त्वा महातेजा विरराम महामुनिः |
1793 | 1033019c | साधु साध्विति तं सर्वे मुनयो ह्यभ्यपूजयन् |
1794 | 1033020a | रामोऽपि सह सौमित्रिः किंचिदागतविस्मयः |
1795 | 1033020c | प्रशस्य मुनिशार्दूलं निद्रां समुपसेवते |
1796 | 1034001a | उपास्य रात्रिशेषं तु शोणाकूले महर्षिभिः |
1797 | 1034001c | निशायां सुप्रभातायां विश्वामित्रोऽभ्यभाषत |
1798 | 1034002a | सुप्रभाता निशा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते |
1799 | 1034002c | उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते गमनायाभिरोचय |
1800 | 1034003a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कृत्वा पौर्वाह्णिकीं क्रियाम् |
1801 | 1034003c | गमनं रोचयामास वाक्यं चेदमुवाच ह |
1802 | 1034004a | अयं शोणः शुभजलो गाधः पुलिनमण्डितः |
1803 | 1034004c | कतरेण पथा ब्रह्मन्संतरिष्यामहे वयम् |
1804 | 1034005a | एवमुक्तस्तु रामेण विश्वामित्रोऽब्रवीदिदम् |
1805 | 1034005c | एष पन्था मयोद्दिष्टो येन यान्ति महर्षयः |
1806 | 1034006a | ते गत्वा दूरमध्वानं गतेऽर्धदिवसे तदा |
1807 | 1034006c | जाह्नवीं सरितां श्रेष्ठां ददृशुर्मुनिसेविताम् |
1808 | 1034007a | तां दृष्ट्वा पुण्यसलिलां हंससारससेविताम् |
1809 | 1034007c | बभूवुर्मुदिताः सर्वे मुनयः सहराघवाः |
1810 | 1034007e | तस्यास्तीरे ततश्चक्रुस्ते आवासपरिग्रहम् |
1811 | 1034008a | ततः स्नात्वा यथान्यायं संतर्प्य पितृदेवताः |
1812 | 1034008c | हुत्वा चैवाग्निहोत्राणि प्राश्य चामृतवद्धविः |
1813 | 1034009a | विविशुर्जाह्नवीतीरे शुचौ मुदितमानसाः |
1814 | 1034009c | विश्वामित्रं महात्मानं परिवार्य समन्ततः |
1815 | 1034010a | संप्रहृष्टमना रामो विश्वामित्रमथाब्रवीत् |
1816 | 1034010c | भगवञ्श्रोतुमिच्छामि गङ्गां त्रिपथगां नदीम् |
1817 | 1034010e | त्रैलोक्यं कथमाक्रम्य गता नदनदीपतिम् |
1818 | 1034011a | चोदितो राम वाक्येन विश्वामित्रो महामुनिः |
1819 | 1034011c | वृद्धिं जन्म च गङ्गाया वक्तुमेवोपचक्रमे |
1820 | 1034012a | शैलेन्द्रो हिमवान्नाम धातूनामाकरो महान् |
1821 | 1034012c | तस्य कन्या द्वयं राम रूपेणाप्रतिमं भुवि |
1822 | 1034013a | या मेरुदुहिता राम तयोर्माता सुमध्यमा |
1823 | 1034013c | नाम्ना मेना मनोज्ञा वै पत्नी हिमवतः प्रिया |
1824 | 1034014a | तस्यां गङ्गेयमभवज्ज्येष्ठा हिमवतः सुता |
1825 | 1034014c | उमा नाम द्वितीयाभूत्कन्या तस्यैव राघव |
1826 | 1034015a | अथ ज्येष्ठां सुराः सर्वे देवतार्थचिकीर्षया |
1827 | 1034015c | शैलेन्द्रं वरयामासुर्गङ्गां त्रिपथगां नदीम् |
1828 | 1034016a | ददौ धर्मेण हिमवांस्तनयां लोकपावनीम् |
1829 | 1034016c | स्वच्छन्दपथगां गङ्गां त्रैलोक्यहितकाम्यया |
1830 | 1034017a | प्रतिगृह्य त्रिलोकार्थं त्रिलोकहितकारिणः |
1831 | 1034017c | गङ्गामादाय तेऽगच्छन्कृतार्थेनान्तरात्मना |
1832 | 1034018a | या चान्या शैलदुहिता कन्यासीद्रघुनन्दन |
1833 | 1034018c | उग्रं सा व्रतमास्थाय तपस्तेपे तपोधना |
1834 | 1034019a | उग्रेण तपसा युक्तां ददौ शैलवरः सुताम् |
1835 | 1034019c | रुद्रायाप्रतिरूपाय उमां लोकनमस्कृताम् |
1836 | 1034020a | एते ते शैल राजस्य सुते लोकनमस्कृते |
1837 | 1034020c | गङ्गा च सरितां श्रेष्ठा उमा देवी च राघव |
1838 | 1034021a | एतत्ते धर्ममाख्यातं यथा त्रिपथगा नदी |
1839 | 1034021c | खं गता प्रथमं तात गतिं गतिमतां वर |
1840 | 1035001a | उक्त वाक्ये मुनौ तस्मिन्नुभौ राघवलक्ष्मणौ |
1841 | 1035001c | प्रतिनन्द्य कथां वीरावूचतुर्मुनिपुंगवम् |
1842 | 1035002a | धर्मयुक्तमिदं ब्रह्मन्कथितं परमं त्वया |
1843 | 1035002c | दुहितुः शैलराजस्य ज्येष्ठाय वक्तुमर्हसि |
1844 | 1035003a | विस्तरं विस्तरज्ञोऽसि दिव्यमानुषसंभवम् |
1845 | 1035003c | त्रीन्पथो हेतुना केन पावयेल्लोकपावनी |
1846 | 1035004a | कथं गङ्गां त्रिपथगा विश्रुता सरिदुत्तमा |
1847 | 1035004c | त्रिषु लोकेषु धर्मज्ञ कर्मभिः कैः समन्विता |
1848 | 1035005a | तथा ब्रुवति काकुत्स्थे विश्वामित्रस्तपोधनः |
1849 | 1035005c | निखिलेन कथां सर्वामृषिमध्ये न्यवेदयत् |
1850 | 1035006a | पुरा राम कृतोद्वाहः शितिकण्ठो महातपाः |
1851 | 1035006c | दृष्ट्वा च स्पृहया देवीं मैथुनायोपचक्रमे |
1852 | 1035007a | शितिकण्ठस्य देवस्य दिव्यं वर्षशतं गतम् |
1853 | 1035007c | न चापि तनयो राम तस्यामासीत्परंतप |
1854 | 1035008a | ततो देवाः समुद्विग्नाः पितामहपुरोगमाः |
1855 | 1035008c | यदिहोत्पद्यते भूतं कस्तत्प्रतिसहिष्यते |
1856 | 1035009a | अभिगम्य सुराः सर्वे प्रणिपत्येदमब्रुवन् |
1857 | 1035009c | देवदेव महादेव लोकस्यास्य हिते रत |
1858 | 1035009e | सुराणां प्रणिपातेन प्रसादं कर्तुमर्हसि |
1859 | 1035010a | न लोका धारयिष्यन्ति तव तेजः सुरोत्तम |
1860 | 1035010c | ब्राह्मेण तपसा युक्तो देव्या सह तपश्चर |
1861 | 1035011a | त्रैलोक्यहितकामार्थं तेजस्तेजसि धारय |
1862 | 1035011c | रक्ष सर्वानिमाँल्लोकान्नालोकं कर्तुमर्हसि |
1863 | 1035012a | देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकमहेश्वरः |
1864 | 1035012c | बाढमित्यब्रवीत्सर्वान्पुनश्चेदमुवाच ह |
1865 | 1035013a | धारयिष्याम्यहं तेजस्तेजस्येव सहोमया |
1866 | 1035013c | त्रिदशाः पृथिवी चैव निर्वाणमधिगच्छतु |
1867 | 1035014a | यदिदं क्षुभितं स्थानान्मम तेजो ह्यनुत्तमम् |
1868 | 1035014c | धारयिष्यति कस्तन्मे ब्रुवन्तु सुरसत्तमाः |
1869 | 1035015a | एवमुक्तास्ततो देवाः प्रत्यूचुर्वृषभध्वजम् |
1870 | 1035015c | यत्तेजः क्षुभितं ह्येतत्तद्धरा धारयिष्यति |
1871 | 1035016a | एवमुक्तः सुरपतिः प्रमुमोच महीतले |
1872 | 1035016c | तेजसा पृथिवी येन व्याप्ता सगिरिकानना |
1873 | 1035017a | ततो देवाः पुनरिदमूचुश्चाथ हुताशनम् |
1874 | 1035017c | प्रविश त्वं महातेजो रौद्रं वायुसमन्वितः |
1875 | 1035018a | तदग्निना पुनर्व्याप्तं संजातः श्वेतपर्वतः |
1876 | 1035018c | दिव्यं शरवणं चैव पावकादित्यसंनिभम् |
1877 | 1035018e | यत्र जातो महातेजाः कार्तिकेयोऽग्निसंभवः |
1878 | 1035019a | अथोमां च शिवं चैव देवाः सर्षि गणास्तदा |
1879 | 1035019c | पूजयामासुरत्यर्थं सुप्रीतमनसस्ततः |
1880 | 1035020a | अथ शैल सुता राम त्रिदशानिदमब्रवीत् |
1881 | 1035020c | समन्युरशपत्सर्वान्क्रोधसंरक्तलोचना |
1882 | 1035021a | यस्मान्निवारिता चैव संगता पुत्रकाम्यया |
1883 | 1035021c | अपत्यं स्वेषु दारेषु नोत्पादयितुमर्हथ |
1884 | 1035021e | अद्य प्रभृति युष्माकमप्रजाः सन्तु पत्नयः |
1885 | 1035022a | एवमुक्त्वा सुरान्सर्वाञ्शशाप पृथिवीमपि |
1886 | 1035022c | अवने नैकरूपा त्वं बहुभार्या भविष्यसि |
1887 | 1035023a | न च पुत्रकृतां प्रीतिं मत्क्रोधकलुषी कृता |
1888 | 1035023c | प्राप्स्यसि त्वं सुदुर्मेधे मम पुत्रमनिच्छती |
1889 | 1035024a | तान्सर्वान्व्रीडितान्दृष्ट्वा सुरान्सुरपतिस्तदा |
1890 | 1035024c | गमनायोपचक्राम दिशं वरुणपालिताम् |
1891 | 1035025a | स गत्वा तप आतिष्ठत्पार्श्वे तस्योत्तरे गिरेः |
1892 | 1035025c | हिमवत्प्रभवे शृङ्गे सह देव्या महेश्वरः |
1893 | 1035026a | एष ते विस्तरो राम शैलपुत्र्या निवेदितः |
1894 | 1035026c | गङ्गायाः प्रभवं चैव शृणु मे सहलक्ष्मणः |
1895 | 1036001a | तप्यमाने तपो देवे देवाः सर्षिगणाः पुरा |
1896 | 1036001c | सेनापतिमभीप्सन्तः पितामहमुपागमन् |
1897 | 1036002a | ततोऽब्रुवन्सुराः सर्वे भगवन्तं पितामहम् |
1898 | 1036002c | प्रणिपत्य शुभं वाक्यं सेन्द्राः साग्निपुरोगमाः |
1899 | 1036003a | यो नः सेनापतिर्देव दत्तो भगवता पुरा |
1900 | 1036003c | स तपः परमास्थाय तप्यते स्म सहोमया |
1901 | 1036004a | यदत्रानन्तरं कार्यं लोकानां हितकाम्यया |
1902 | 1036004c | संविधत्स्व विधानज्ञ त्वं हि नः परमा गतिः |
1903 | 1036005a | देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकपितामहः |
1904 | 1036005c | सान्त्वयन्मधुरैर्वाक्यैस्त्रिदशानिदमब्रवीत् |
1905 | 1036006a | शैलपुत्र्या यदुक्तं तन्न प्रजास्यथ पत्निषु |
1906 | 1036006c | तस्या वचनमक्लिष्टं सत्यमेव न संशयः |
1907 | 1036007a | इयमाकाशगा गङ्गा यस्यां पुत्रं हुताशनः |
1908 | 1036007c | जनयिष्यति देवानां सेनापतिमरिंदमम् |
1909 | 1036008a | ज्येष्ठा शैलेन्द्रदुहिता मानयिष्यति तं सुतम् |
1910 | 1036008c | उमायास्तद्बहुमतं भविष्यति न संशयः |
1911 | 1036009a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कृतार्था रघुनन्दन |
1912 | 1036009c | प्रणिपत्य सुराः सर्वे पितामहमपूजयन् |
1913 | 1036010a | ते गत्वा पर्वतं राम कैलासं धातुमण्डितम् |
1914 | 1036010c | अग्निं नियोजयामासुः पुत्रार्थं सर्वदेवताः |
1915 | 1036011a | देवकार्यमिदं देव समाधत्स्व हुताशन |
1916 | 1036011c | शैलपुत्र्यां महातेजो गङ्गायां तेज उत्सृज |
1917 | 1036012a | देवतानां प्रतिज्ञाय गङ्गामभ्येत्य पावकः |
1918 | 1036012c | गर्भं धारय वै देवि देवतानामिदं प्रियम् |
1919 | 1036013a | इत्येतद्वचनं श्रुत्वा दिव्यं रूपमधारयत् |
1920 | 1036013c | स तस्या महिमां दृष्ट्वा समन्तादवकीर्यत |
1921 | 1036014a | समन्ततस्तदा देवीमभ्यषिञ्चत पावकः |
1922 | 1036014c | सर्वस्रोतांसि पूर्णानि गङ्गाया रघुनन्दन |
1923 | 1036015a | तमुवाच ततो गङ्गा सर्वदेवपुरोहितम् |
1924 | 1036015c | अशक्ता धारणे देव तव तेजः समुद्धतम् |
1925 | 1036015e | दह्यमानाग्निना तेन संप्रव्यथितचेतना |
1926 | 1036016a | अथाब्रवीदिदं गङ्गां सर्वदेवहुताशनः |
1927 | 1036016c | इह हैमवते पादे गर्भोऽयं संनिवेश्यताम् |
1928 | 1036017a | श्रुत्वा त्वग्निवचो गङ्गा तं गर्भमतिभास्वरम् |
1929 | 1036017c | उत्ससर्ज महातेजाः स्रोतोभ्यो हि तदानघ |
1930 | 1036018a | यदस्या निर्गतं तस्मात्तप्तजाम्बूनदप्रभम् |
1931 | 1036018c | काञ्चनं धरणीं प्राप्तं हिरण्यममलं शुभम् |
1932 | 1036019a | ताम्रं कार्ष्णायसं चैव तैक्ष्ण्यादेवाभिजायत |
1933 | 1036019c | मलं तस्याभवत्तत्र त्रपुसीसकमेव च |
1934 | 1036020a | तदेतद्धरणीं प्राप्य नानाधातुरवर्धत |
1935 | 1036021a | निक्षिप्तमात्रे गर्भे तु तेजोभिरभिरञ्जितम् |
1936 | 1036021c | सर्वं पर्वतसंनद्धं सौवर्णमभवद्वनम् |
1937 | 1036022a | जातरूपमिति ख्यातं तदा प्रभृति राघव |
1938 | 1036022c | सुवर्णं पुरुषव्याघ्र हुताशनसमप्रभम् |
1939 | 1036023a | तं कुमारं ततो जातं सेन्द्राः सहमरुद्गणाः |
1940 | 1036023c | क्षीरसंभावनार्थाय कृत्तिकाः समयोजयन् |
1941 | 1036024a | ताः क्षीरं जातमात्रस्य कृत्वा समयमुत्तमम् |
1942 | 1036024c | ददुः पुत्रोऽयमस्माकं सर्वासामिति निश्चिताः |
1943 | 1036025a | ततस्तु देवताः सर्वाः कार्तिकेय इति ब्रुवन् |
1944 | 1036025c | पुत्रस्त्रैलोक्य विख्यातो भविष्यति न संशयः |
1945 | 1036026a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा स्कन्नं गर्भपरिस्रवे |
1946 | 1036026c | स्नापयन्परया लक्ष्म्या दीप्यमानमिवानलम् |
1947 | 1036027a | स्कन्द इत्यब्रुवन्देवाः स्कन्नं गर्भपरिस्रवात् |
1948 | 1036027c | कार्तिकेयं महाभागं काकुत्स्थज्वलनोपमम् |
1949 | 1036028a | प्रादुर्भूतं ततः क्षीरं कृत्तिकानामनुत्तमम् |
1950 | 1036028c | षण्णां षडाननो भूत्वा जग्राह स्तनजं पयः |
1951 | 1036029a | गृहीत्वा क्षीरमेकाह्ना सुकुमार वपुस्तदा |
1952 | 1036029c | अजयत्स्वेन वीर्येण दैत्यसैन्यगणान्विभुः |
1953 | 1036030a | सुरसेनागणपतिं ततस्तममलद्युतिम् |
1954 | 1036030c | अभ्यषिञ्चन्सुरगणाः समेत्याग्निपुरोगमाः |
1955 | 1036031a | एष ते राम गङ्गाया विस्तरोऽभिहितो मया |
1956 | 1036031c | कुमारसंभवश्चैव धन्यः पुण्यस्तथैव च |
1957 | 1037001a | तां कथां कौशिको रामे निवेद्य मधुराक्षरम् |
1958 | 1037001c | पुनरेवापरं वाक्यं काकुत्स्थमिदमब्रवीत् |
1959 | 1037002a | अयोध्याधिपतिः शूरः पूर्वमासीन्नराधिपः |
1960 | 1037002c | सगरो नाम धर्मात्मा प्रजाकामः स चाप्रजः |
1961 | 1037003a | वैदर्भदुहिता राम केशिनी नाम नामतः |
1962 | 1037003c | ज्येष्ठा सगरपत्नी सा धर्मिष्ठा सत्यवादिनी |
1963 | 1037004a | अरिष्टनेमिदुहिता रूपेणाप्रतिमा भुवि |
1964 | 1037004c | द्वितीया सगरस्यासीत्पत्नी सुमतिसंज्ञिता |
1965 | 1037005a | ताभ्यां सह तदा राजा पत्नीभ्यां तप्तवांस्तपः |
1966 | 1037005c | हिमवन्तं समासाद्य भृगुप्रस्रवणे गिरौ |
1967 | 1037006a | अथ वर्ष शते पूर्णे तपसाराधितो मुनिः |
1968 | 1037006c | सगराय वरं प्रादाद्भृगुः सत्यवतां वरः |
1969 | 1037007a | अपत्यलाभः सुमहान्भविष्यति तवानघ |
1970 | 1037007c | कीर्तिं चाप्रतिमां लोके प्राप्स्यसे पुरुषर्षभ |
1971 | 1037008a | एका जनयिता तात पुत्रं वंशकरं तव |
1972 | 1037008c | षष्टिं पुत्रसहस्राणि अपरा जनयिष्यति |
1973 | 1037009a | भाषमाणं नरव्याघ्रं राजपत्न्यौ प्रसाद्य तम् |
1974 | 1037009c | ऊचतुः परमप्रीते कृताञ्जलिपुटे तदा |
1975 | 1037010a | एकः कस्याः सुतो ब्रह्मन्का बहूञ्जनयिष्यति |
1976 | 1037010c | श्रोतुमिच्छावहे ब्रह्मन्सत्यमस्तु वचस्तव |
1977 | 1037011a | तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा भृगुः परम धार्मिकः |
1978 | 1037011c | उवाच परमां वाणीं स्वच्छन्दोऽत्र विधीयताम् |
1979 | 1037012a | एको वंशकरो वास्तु बहवो वा महाबलाः |
1980 | 1037012c | कीर्तिमन्तो महोत्साहाः का वा कं वरमिच्छति |
1981 | 1037013a | मुनेस्तु वचनं श्रुत्वा केशिनी रघुनन्दन |
1982 | 1037013c | पुत्रं वंशकरं राम जग्राह नृपसंनिधौ |
1983 | 1037014a | षष्टिं पुत्रसहस्राणि सुपर्णभगिनी तदा |
1984 | 1037014c | महोत्साहान्कीर्तिमतो जग्राह सुमतिः सुतान् |
1985 | 1037015a | प्रदक्षिणमृषिं कृत्वा शिरसाभिप्रणम्य च |
1986 | 1037015c | जगाम स्वपुरं राजा सभार्या रघुनन्दन |
1987 | 1037016a | अथ काले गते तस्मिञ्ज्येष्ठा पुत्रं व्यजायत |
1988 | 1037016c | असमञ्ज इति ख्यातं केशिनी सगरात्मजम् |
1989 | 1037017a | सुमतिस्तु नरव्याघ्र गर्भतुम्बं व्यजायत |
1990 | 1037017c | षष्टिः पुत्रसहस्राणि तुम्बभेदाद्विनिःसृताः |
1991 | 1037018a | घृतपूर्णेषु कुम्भेषु धात्र्यस्तान्समवर्धयन् |
1992 | 1037018c | कालेन महता सर्वे यौवनं प्रतिपेदिरे |
1993 | 1037019a | अथ दीर्घेण कालेन रूपयौवनशालिनः |
1994 | 1037019c | षष्टिः पुत्रसहस्राणि सगरस्याभवंस्तदा |
1995 | 1037020a | स च ज्येष्ठो नरश्रेष्ठ सगरस्यात्मसंभवः |
1996 | 1037020c | बालान्गृहीत्वा तु जले सरय्वा रघुनन्दन |
1997 | 1037020e | प्रक्षिप्य प्रहसन्नित्यं मज्जतस्तान्निरीक्ष्य वै |
1998 | 1037021a | पौराणामहिते युक्तः पित्रा निर्वासितः पुरात् |
1999 | 1037022a | तस्य पुत्रोंऽशुमान्नाम असमञ्जस्य वीर्यवान् |
2000 | 1037022c | संमतः सर्वलोकस्य सर्वस्यापि प्रियंवदः |
2001 | 1037023a | ततः कालेन महता मतिः समभिजायत |
2002 | 1037023c | सगरस्य नरश्रेष्ठ यजेयमिति निश्चिता |
2003 | 1037024a | स कृत्वा निश्चयं राजा सोपाध्यायगणस्तदा |
2004 | 1037024c | यज्ञकर्मणि वेदज्ञो यष्टुं समुपचक्रमे |
2005 | 1038001a | विश्वामित्रवचः श्रुत्वा कथान्ते रघुनन्दन |
2006 | 1038001c | उवाच परमप्रीतो मुनिं दीप्तमिवानलम् |
2007 | 1038002a | श्रोतुमिछामि भद्रं ते विस्तरेण कथामिमाम् |
2008 | 1038002c | पूर्वको मे कथं ब्रह्मन्यज्ञं वै समुपाहरत् |
2009 | 1038003a | विश्वामित्रस्तु काकुत्स्थमुवाच प्रहसन्निव |
2010 | 1038003c | श्रूयतां विस्तरो राम सगरस्य महात्मनः |
2011 | 1038004a | शंकरश्वशुरो नाम हिमवानचलोत्तमः |
2012 | 1038004c | विन्ध्यपर्वतमासाद्य निरीक्षेते परस्परम् |
2013 | 1038005a | तयोर्मध्ये प्रवृत्तोऽभूद्यज्ञः स पुरुषोत्तम |
2014 | 1038005c | स हि देशो नरव्याघ्र प्रशस्तो यज्ञकर्मणि |
2015 | 1038006a | तस्याश्वचर्यां काकुत्स्थ दृढधन्वा महारथः |
2016 | 1038006c | अंशुमानकरोत्तात सगरस्य मते स्थितः |
2017 | 1038007a | तस्य पर्वणि तं यज्ञं यजमानस्य वासवः |
2018 | 1038007c | राक्षसीं तनुमास्थाय यज्ञियाश्वमपाहरत् |
2019 | 1038008a | ह्रियमाणे तु काकुत्स्थ तस्मिन्नश्वे महात्मनः |
2020 | 1038008c | उपाध्याय गणाः सर्वे यजमानमथाब्रुवन् |
2021 | 1038009a | अयं पर्वणि वेगेन यज्ञियाश्वोऽपनीयते |
2022 | 1038009c | हर्तारं जहि काकुत्स्थ हयश्चैवोपनीयताम् |
2023 | 1038010a | यज्ञच्छिद्रं भवत्येतत्सर्वेषामशिवाय नः |
2024 | 1038010c | तत्तथा क्रियतां राजन्यथाछिद्रः क्रतुर्भवेत् |
2025 | 1038011a | उपाध्याय वचः श्रुत्वा तस्मिन्सदसि पार्थिवः |
2026 | 1038011c | षष्टिं पुत्रसहस्राणि वाक्यमेतदुवाच ह |
2027 | 1038012a | गतिं पुत्रा न पश्यामि रक्षसां पुरुषर्षभाः |
2028 | 1038012c | मन्त्रपूतैर्महाभागैरास्थितो हि महाक्रतुः |
2029 | 1038013a | तद्गच्छत विचिन्वध्वं पुत्रका भद्रमस्तु वः |
2030 | 1038013c | समुद्रमालिनीं सर्वां पृथिवीमनुगच्छत |
2031 | 1038014a | एकैकं योजनं पुत्रा विस्तारमभिगच्छत |
2032 | 1038015a | यावत्तुरगसंदर्शस्तावत्खनत मेदिनीम् |
2033 | 1038015c | तमेव हयहर्तारं मार्गमाणा ममाज्ञया |
2034 | 1038016a | दीक्षितः पौत्रसहितः सोपाध्यायगणो ह्यहम् |
2035 | 1038016c | इह स्थास्यामि भद्रं वो यावत्तुरगदर्शनम् |
2036 | 1038017a | इत्युक्त्वा हृष्टमनसो राजपुत्रा महाबलाः |
2037 | 1038017c | जग्मुर्महीतलं राम पितुर्वचनयन्त्रिताः |
2038 | 1038018a | योजनायामविस्तारमेकैको धरणीतलम् |
2039 | 1038018c | बिभिदुः पुरुषव्याघ्र वज्रस्पर्शसमैर्भुजैः |
2040 | 1038019a | शूलैरशनिकल्पैश्च हलैश्चापि सुदारुणैः |
2041 | 1038019c | भिद्यमाना वसुमती ननाद रघुनन्दन |
2042 | 1038020a | नागानां वध्यमानानामसुराणां च राघव |
2043 | 1038020c | राक्षसानां च दुर्धर्षः सत्त्वानां निनदोऽभवत् |
2044 | 1038021a | योजनानां सहस्राणि षष्टिं तु रघुनन्दन |
2045 | 1038021c | बिभिदुर्धरणीं वीरा रसातलमनुत्तमम् |
2046 | 1038022a | एवं पर्वतसंबाधं जम्बूद्वीपं नृपात्मजाः |
2047 | 1038022c | खनन्तो नृपशार्दूल सर्वतः परिचक्रमुः |
2048 | 1038023a | ततो देवाः सगन्धर्वाः सासुराः सहपन्नगाः |
2049 | 1038023c | संभ्रान्तमनसः सर्वे पितामहमुपागमन् |
2050 | 1038024a | ते प्रसाद्य महात्मानं विषण्णवदनास्तदा |
2051 | 1038024c | ऊचुः परमसंत्रस्ताः पितामहमिदं वचः |
2052 | 1038025a | भगवन्पृथिवी सर्वा खन्यते सगरात्मजैः |
2053 | 1038025c | बहवश्च महात्मानो वध्यन्ते जलचारिणः |
2054 | 1038026a | अयं यज्ञहनोऽस्माकमनेनाश्वोऽपनीयते |
2055 | 1038026c | इति ते सर्वभूतानि निघ्नन्ति सगरात्मजः |
2056 | 1039001a | देवतानां वचः श्रुत्वा भगवान्वै पितामहः |
2057 | 1039001c | प्रत्युवाच सुसंत्रस्तान्कृतान्तबलमोहितान् |
2058 | 1039002a | यस्येयं वसुधा कृत्स्ना वासुदेवस्य धीमतः |
2059 | 1039002c | कापिलं रूपमास्थाय धारयत्यनिशं धराम् |
2060 | 1039003a | पृथिव्याश्चापि निर्भेदो दृष्ट एव सनातनः |
2061 | 1039003c | सगरस्य च पुत्राणां विनाशोऽदीर्घजीविनाम् |
2062 | 1039004a | पितामहवचः श्रुत्वा त्रयस्त्रिंशदरिंदमः |
2063 | 1039004c | देवाः परमसंहृष्टाः पुनर्जग्मुर्यथागतम् |
2064 | 1039005a | सगरस्य च पुत्राणां प्रादुरासीन्महात्मनाम् |
2065 | 1039005c | पृथिव्यां भिद्यमानायां निर्घात सम निःस्वनः |
2066 | 1039006a | ततो भित्त्वा महीं सर्वां कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् |
2067 | 1039006c | सहिताः सगराः सर्वे पितरं वाक्यमब्रुवन् |
2068 | 1039007a | परिक्रान्ता मही सर्वा सत्त्ववन्तश्च सूदिताः |
2069 | 1039007c | देवदानवरक्षांसि पिशाचोरगकिंनराः |
2070 | 1039008a | न च पश्यामहेऽश्वं तमश्वहर्तारमेव च |
2071 | 1039008c | किं करिष्याम भद्रं ते बुद्धिरत्र विचार्यताम् |
2072 | 1039009a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा पुत्राणां राजसत्तमः |
2073 | 1039009c | समन्युरब्रवीद्वाक्यं सगरो रघुनन्दन |
2074 | 1039010a | भूयः खनत भद्रं वो निर्भिद्य वसुधातलम् |
2075 | 1039010c | अश्वहर्तारमासाद्य कृतार्थाश्च निवर्तथ |
2076 | 1039011a | पितुर्वचनमास्थाय सगरस्य महात्मनः |
2077 | 1039011c | षष्टिः पुत्रसहस्राणि रसातलमभिद्रवन् |
2078 | 1039012a | खन्यमाने ततस्तस्मिन्ददृशुः पर्वतोपमम् |
2079 | 1039012c | दिशागजं विरूपाक्षं धारयन्तं महीतलम् |
2080 | 1039013a | सपर्वतवनां कृत्स्नां पृथिवीं रघुनन्दन |
2081 | 1039013c | शिरसा धारयामास विरूपाक्षो महागजः |
2082 | 1039014a | यदा पर्वणि काकुत्स्थ विश्रमार्थं महागजः |
2083 | 1039014c | खेदाच्चालयते शीर्षं भूमिकम्पस्तधा भवेत् |
2084 | 1039015a | तं ते प्रदक्षिणं कृत्वा दिशापालं महागजम् |
2085 | 1039015c | मानयन्तो हि ते राम जग्मुर्भित्त्वा रसातलम् |
2086 | 1039016a | ततः पूर्वां दिशं भित्त्वा दक्षिणां बिभिदुः पुनः |
2087 | 1039016c | दक्षिणस्यामपि दिशि ददृशुस्ते महागजम् |
2088 | 1039017a | महापद्मं महात्मानं सुमहापर्वतोपमम् |
2089 | 1039017c | शिरसा धारयन्तं ते विस्मयं जग्मुरुत्तमम् |
2090 | 1039018a | ततः प्रदक्षिणं कृत्वा सगरस्य महात्मनः |
2091 | 1039018c | षष्टिः पुत्रसहस्राणि पश्चिमां बिभिदुर्दिशम् |
2092 | 1039019a | पश्चिमायामपि दिशि महान्तमचलोपमम् |
2093 | 1039019c | दिशागजं सौमनसं ददृशुस्ते महाबलाः |
2094 | 1039020a | तं ते प्रदक्षिणं कृत्वा पृष्ट्वा चापि निरामयम् |
2095 | 1039020c | खनन्तः समुपक्रान्ता दिशं सोमवतीं तदा |
2096 | 1039021a | उत्तरस्यां रघुश्रेष्ठ ददृशुर्हिमपाण्डुरम् |
2097 | 1039021c | भद्रं भद्रेण वपुषा धारयन्तं महीमिमाम् |
2098 | 1039022a | समालभ्य ततः सर्वे कृत्वा चैनं प्रदक्षिणम् |
2099 | 1039022c | षष्टिः पुत्रसहस्राणि बिभिदुर्वसुधातलम् |
2100 | 1039023a | ततः प्रागुत्तरां गत्वा सागराः प्रथितां दिशम् |
2101 | 1039023c | रोषादभ्यखनन्सर्वे पृथिवीं सगरात्मजाः |
2102 | 1039024a | ददृशुः कपिलं तत्र वासुदेवं सनातनम् |
2103 | 1039024c | हयं च तस्य देवस्य चरन्तमविदूरतः |
2104 | 1039025a | ते तं यज्ञहनं ज्ञात्वा क्रोधपर्याकुलेक्षणाः |
2105 | 1039025c | अभ्यधावन्त संक्रुद्धास्तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रुवन् |
2106 | 1039026a | अस्माकं त्वं हि तुरगं यज्ञियं हृतवानसि |
2107 | 1039026c | दुर्मेधस्त्वं हि संप्राप्तान्विद्धि नः सगरात्मजान् |
2108 | 1039027a | श्रुत्वा तद्वचनं तेषां कपिलो रघुनन्दन |
2109 | 1039027c | रोषेण महताविष्टो हुंकारमकरोत्तदा |
2110 | 1039028a | ततस्तेनाप्रमेयेन कपिलेन महात्मना |
2111 | 1039028c | भस्मराशीकृताः सर्वे काकुत्स्थ सगरात्मजाः |
2112 | 1040001a | पुत्रांश्चिरगताञ्ज्ञात्वा सगरो रघुनन्दन |
2113 | 1040001c | नप्तारमब्रवीद्राजा दीप्यमानं स्वतेजसा |
2114 | 1040002a | शूरश्च कृतविद्यश्च पूर्वैस्तुल्योऽसि तेजसा |
2115 | 1040002c | पितॄणां गतिमन्विच्छ येन चाश्वोऽपहारितः |
2116 | 1040003a | अन्तर्भौमानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च |
2117 | 1040003c | तेषां त्वं प्रतिघातार्थं सासिं गृह्णीष्व कार्मुकम् |
2118 | 1040004a | अभिवाद्याभिवाद्यांस्त्वं हत्वा विघ्नकरानपि |
2119 | 1040004c | सिद्धार्थः संनिवर्तस्व मम यज्ञस्य पारगः |
2120 | 1040005a | एवमुक्तोंऽशुमान्सम्यक्सगरेण महात्मना |
2121 | 1040005c | धनुरादाय खड्गं च जगाम लघुविक्रमः |
2122 | 1040006a | स खातं पितृभिर्मार्गमन्तर्भौमं महात्मभिः |
2123 | 1040006c | प्रापद्यत नरश्रेष्ठ तेन राज्ञाभिचोदितः |
2124 | 1040007a | दैत्यदानवरक्षोभिः पिशाचपतगोरगैः |
2125 | 1040007c | पूज्यमानं महातेजा दिशागजमपश्यत |
2126 | 1040008a | स तं प्रदक्षिणं कृत्वा पृष्ट्वा चैव निरामयम् |
2127 | 1040008c | पितॄन्स परिपप्रच्छ वाजिहर्तारमेव च |
2128 | 1040009a | दिशागजस्तु तच्छ्रुत्वा प्रीत्याहांशुमतो वचः |
2129 | 1040009c | आसमञ्जकृतार्थस्त्वं सहाश्वः शीघ्रमेष्यसि |
2130 | 1040010a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सर्वानेव दिशागजान् |
2131 | 1040010c | यथाक्रमं यथान्यायं प्रष्टुं समुपचक्रमे |
2132 | 1040011a | तैश्च सर्वैर्दिशापालैर्वाक्यज्ञैर्वाक्यकोविदैः |
2133 | 1040011c | पूजितः सहयश्चैव गन्तासीत्यभिचोदितः |
2134 | 1040012a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा जगाम लघुविक्रमः |
2135 | 1040012c | भस्मराशीकृता यत्र पितरस्तस्य सागराः |
2136 | 1040013a | स दुःखवशमापन्नस्त्वसमञ्जसुतस्तदा |
2137 | 1040013c | चुक्रोश परमार्तस्तु वधात्तेषां सुदुःखितः |
2138 | 1040014a | यज्ञियं च हयं तत्र चरन्तमविदूरतः |
2139 | 1040014c | ददर्श पुरुषव्याघ्रो दुःखशोकसमन्वितः |
2140 | 1040015a | ददर्श पुरुषव्याघ्रो कर्तुकामो जलक्रियाम् |
2141 | 1040015c | सलिलार्थी महातेजा न चापश्यज्जलाशयम् |
2142 | 1040016a | विसार्य निपुणां दृष्टिं ततोऽपश्यत्खगाधिपम् |
2143 | 1040016c | पितॄणां मातुलं राम सुपर्णमनिलोपमम् |
2144 | 1040017a | स चैनमब्रवीद्वाक्यं वैनतेयो महाबलः |
2145 | 1040017c | मा शुचः पुरुषव्याघ्र वधोऽयं लोकसंमतः |
2146 | 1040018a | कपिलेनाप्रमेयेन दग्धा हीमे महाबलाः |
2147 | 1040018c | सलिलं नार्हसि प्राज्ञ दातुमेषां हि लौकिकम् |
2148 | 1040019a | गङ्गा हिमवतो ज्येष्ठा दुहिता पुरुषर्षभ |
2149 | 1040019c | भस्मराशीकृतानेतान्पावयेल्लोकपावनी |
2150 | 1040020a | तया क्लिन्नमिदं भस्म गङ्गया लोककान्तया |
2151 | 1040020c | षष्टिं पुत्रसहस्राणि स्वर्गलोकं नयिष्यति |
2152 | 1040021a | गच्छ चाश्वं महाभाग संगृह्य पुरुषर्षभ |
2153 | 1040021c | यज्ञं पैतामहं वीर निर्वर्तयितुमर्हसि |
2154 | 1040022a | सुपर्णवचनं श्रुत्वा सोंऽशुमानतिवीर्यवान् |
2155 | 1040022c | त्वरितं हयमादाय पुनरायान्महायशाः |
2156 | 1040023a | ततो राजानमासाद्य दीक्षितं रघुनन्दन |
2157 | 1040023c | न्यवेदयद्यथावृत्तं सुपर्णवचनं तथा |
2158 | 1040024a | तच्छ्रुत्वा घोरसंकाशं वाक्यमंशुमतो नृपः |
2159 | 1040024c | यज्ञं निर्वर्तयामास यथाकल्पं यथाविधि |
2160 | 1040025a | स्वपुरं चागमच्छ्रीमानिष्टयज्ञो महीपतिः |
2161 | 1040025c | गङ्गायाश्चागमे राजा निश्चयं नाध्यगच्छत |
2162 | 1040026a | अगत्वा निश्चयं राजा कालेन महता महान् |
2163 | 1040026c | त्रिंशद्वर्षसहस्राणि राज्यं कृत्वा दिवं गतः |
2164 | 1041001a | कालधर्मं गते राम सगरे प्रकृतीजनाः |
2165 | 1041001c | राजानं रोचयामासुरंशुमन्तं सुधार्मिकम् |
2166 | 1041002a | स राजा सुमहानासीदंशुमान्रघुनन्दन |
2167 | 1041002c | तस्य पुत्रो महानासीद्दिलीप इति विश्रुतः |
2168 | 1041003a | तस्मिन्राज्यं समावेश्य दिलीपे रघुनन्दन |
2169 | 1041003c | हिमवच्छिखरे रम्ये तपस्तेपे सुदारुणम् |
2170 | 1041004a | द्वाद्त्रिंशच्च सहस्राणि वर्षाणि सुमहायशाः |
2171 | 1041004c | तपोवनगतो राजा स्वर्गं लेभे तपोधनः |
2172 | 1041005a | दिलीपस्तु महातेजाः श्रुत्वा पैतामहं वधम् |
2173 | 1041005c | दुःखोपहतया बुद्ध्या निश्चयं नाध्यगच्छत |
2174 | 1041006a | कथं गङ्गावतरणं कथं तेषां जलक्रिया |
2175 | 1041006c | तारयेयं कथं चैतानिति चिन्ता परोऽभवत् |
2176 | 1041007a | तस्य चिन्तयतो नित्यं धर्मेण विदितात्मनः |
2177 | 1041007c | पुत्रो भगीरथो नाम जज्ञे परमधार्मिकः |
2178 | 1041008a | दिलीपस्तु महातेजा यज्ञैर्बहुभिरिष्टवान् |
2179 | 1041008c | त्रिंशद्वर्षसहस्राणि राजा राज्यमकारयत् |
2180 | 1041009a | अगत्वा निश्चयं राजा तेषामुद्धरणं प्रति |
2181 | 1041009c | व्याधिना नरशार्दूल कालधर्ममुपेयिवान् |
2182 | 1041010a | इन्द्रलोकं गतो राजा स्वार्जितेनैव कर्मणा |
2183 | 1041010c | रम्ये भगीरथं पुत्रमभिषिच्य नरर्षभः |
2184 | 1041011a | भगीरथस्तु राजर्षिर्धार्मिको रघुनन्दन |
2185 | 1041011c | अनपत्यो महातेजाः प्रजाकामः स चाप्रजः |
2186 | 1041012a | स तपो दीर्घमातिष्ठद्गोकर्णे रघुनन्दन |
2187 | 1041012c | ऊर्ध्वबाहुः पञ्चतपा मासाहारो जितेन्द्रियः |
2188 | 1041013a | तस्य वर्षसहस्राणि घोरे तपसि तिष्ठतः |
2189 | 1041013c | सुप्रीतो भगवान्ब्रह्मा प्रजानां पतिरीश्वरः |
2190 | 1041014a | ततः सुरगणैः सार्धमुपागम्य पितामहः |
2191 | 1041014c | भगीरथं महात्मानं तप्यमानमथाब्रवीत् |
2192 | 1041015a | भगीरथ महाभाग प्रीतस्तेऽहं जनेश्वर |
2193 | 1041015c | तपसा च सुतप्तेन वरं वरय सुव्रत |
2194 | 1041016a | तमुवाच महातेजाः सर्वलोकपितामहम् |
2195 | 1041016c | भगीरथो महाभागः कृताञ्जलिरवस्थितः |
2196 | 1041017a | यदि मे भगवान्प्रीतो यद्यस्ति तपसः फलम् |
2197 | 1041017c | सगरस्यात्मजाः सर्वे मत्तः सलिलमाप्नुयुः |
2198 | 1041018a | गङ्गायाः सलिलक्लिन्ने भस्मन्येषां महात्मनाम् |
2199 | 1041018c | स्वर्गं गच्छेयुरत्यन्तं सर्वे मे प्रपितामहाः |
2200 | 1041019a | देया च संततोर्देव नावसीदेत्कुलं च नः |
2201 | 1041019c | इक्ष्वाकूणां कुले देव एष मेऽस्तु वरः परः |
2202 | 1041020a | उक्तवाक्यं तु राजानं सर्वलोकपितामहः |
2203 | 1041020c | प्रत्युवाच शुभां वाणीं मधुरां मधुराक्षराम् |
2204 | 1041021a | मनोरथो महानेष भगीरथ महारथ |
2205 | 1041021c | एवं भवतु भद्रं ते इक्ष्वाकुकुलवर्धन |
2206 | 1041022a | इयं हैमवती गङ्गा ज्येष्ठा हिमवतः सुता |
2207 | 1041022c | तां वै धारयितुं राजन्हरस्तत्र नियुज्यताम् |
2208 | 1041023a | गङ्गायाः पतनं राजन्पृथिवी न सहिष्यते |
2209 | 1041023c | तौ वै धारयितुं वीर नान्यं पश्यामि शूलिनः |
2210 | 1041024a | तमेवमुक्त्वा राजानं गङ्गां चाभाष्य लोककृत् |
2211 | 1041024c | जगाम त्रिदिवं देवः सह सर्वैर्मरुद्गणैः |
2212 | 1042001a | देवदेवे गते तस्मिन्सोऽङ्गुष्ठाग्रनिपीडिताम् |
2213 | 1042001c | कृत्वा वसुमतीं राम संवत्सरमुपासत |
2214 | 1042002a | अथ संवत्सरे पूर्णे सर्वलोकनमस्कृतः |
2215 | 1042002c | उमापतिः पशुपती राजानमिदमब्रवीत् |
2216 | 1042003a | प्रीतस्तेऽहं नरश्रेष्ठ करिष्यामि तव प्रियम् |
2217 | 1042003c | शिरसा धारयिष्यामि शैलराजसुतामहम् |
2218 | 1042004a | ततो हैमवती ज्येष्ठा सर्वलोकनमस्कृता |
2219 | 1042004c | तदा सातिमहद्रूपं कृत्वा वेगं च दुःसहम् |
2220 | 1042004e | आकाशादपतद्राम शिवे शिवशिरस्युत |
2221 | 1042005a | नैव सा निर्गमं लेखे जटामण्डलमोहिता |
2222 | 1042005c | तत्रैवाबभ्रमद्देवी संवत्सरगणान्बहून् |
2223 | 1042006a | अनेन तोषितश्चासीदत्यर्थं रघुनन्दन |
2224 | 1042006c | विससर्ज ततो गङ्गां हरो बिन्दुसरः प्रति |
2225 | 1042007a | गगनाच्छंकरशिरस्ततो धरणिमागता |
2226 | 1042007c | व्यसर्पत जलं तत्र तीव्रशब्दपुरस्कृतम् |
2227 | 1042008a | ततो देवर्षिगन्धर्वा यक्षाः सिद्धगणास्तथा |
2228 | 1042008c | व्यलोकयन्त ते तत्र गगनाद्गां गतां तदा |
2229 | 1042009a | विमानैर्नगराकारैर्हयैर्गजवरैस्तथा |
2230 | 1042009c | पारिप्लवगताश्चापि देवतास्तत्र विष्ठिताः |
2231 | 1042010a | तदद्भुततमं लोके गङ्गा पतनमुत्तमम् |
2232 | 1042010c | दिदृक्षवो देवगणाः समेयुरमितौजसः |
2233 | 1042011a | संपतद्भिः सुरगणैस्तेषां चाभरणौजसा |
2234 | 1042011c | शतादित्यमिवाभाति गगनं गततोयदम् |
2235 | 1042012a | शिंशुमारोरगगणैर्मीनैरपि च चञ्चलैः |
2236 | 1042012c | विद्युद्भिरिव विक्षिप्तैराकाशमभवत्तदा |
2237 | 1042013a | पाण्डुरैः सलिलोत्पीडैः कीर्यमाणैः सहस्रधा |
2238 | 1042013c | शारदाभ्रैरिवाक्रीत्णं गगनं हंससंप्लवैः |
2239 | 1042014a | क्वचिद्द्रुततरं याति कुटिलं क्वचिदायतम् |
2240 | 1042014c | विनतं क्वचिदुद्धूतं क्वचिद्याति शनैः शनैः |
2241 | 1042015a | सलिलेनैव सलिलं क्वचिदभ्याहतं पुनः |
2242 | 1042015c | मुहुरूर्ध्वपथं गत्वा पपात वसुधां पुनः |
2243 | 1042016a | तच्छंकरशिरोभ्रष्टं भ्रष्टं भूमितले पुनः |
2244 | 1042016c | व्यरोचत तदा तोयं निर्मलं गतकल्मषम् |
2245 | 1042017a | तत्रर्षिगणगन्धर्वा वसुधातलवासिनः |
2246 | 1042017c | भवाङ्गपतितं तोयं पवित्रमिति पस्पृशुः |
2247 | 1042018a | शापात्प्रपतिता ये च गगनाद्वसुधातलम् |
2248 | 1042018c | कृत्वा तत्राभिषेकं ते बभूवुर्गतकल्मषाः |
2249 | 1042019a | धूपपापाः पुनस्तेन तोयेनाथ सुभास्वता |
2250 | 1042019c | पुनराकाशमाविश्य स्वाँल्लोकान्प्रतिपेदिरे |
2251 | 1042020a | मुमुदे मुदितो लोकस्तेन तोयेन भास्वता |
2252 | 1042020c | कृताभिषेको गङ्गायां बभूव विगतक्लमः |
2253 | 1042021a | भगीरथोऽपि राजर्षिर्दिव्यं स्यन्दनमास्थितः |
2254 | 1042021c | प्रायादग्रे महातेजास्तं गङ्गा पृष्ठतोऽन्वगात् |
2255 | 1042022a | देवाः सर्षिगणाः सर्वे दैत्यदानवराक्षसाः |
2256 | 1042022c | गन्धर्वयक्षप्रवराः सकिंनरमहोरगाः |
2257 | 1042023a | सर्वाश्चाप्सरसो राम भगीरथरथानुगाः |
2258 | 1042023c | गङ्गामन्वगमन्प्रीताः सर्वे जलचराश्च ये |
2259 | 1042024a | यतो भगीरथो राजा ततो गङ्गा यशस्विनी |
2260 | 1042024c | जगाम सरितां श्रेष्ठा सर्वपापविनाशिनी |
2261 | 1043001a | स गत्वा सागरं राजा गङ्गयानुगतस्तदा |
2262 | 1043001c | प्रविवेश तलं भूमेर्यत्र ते भस्मसात्कृताः |
2263 | 1043002a | भस्मन्यथाप्लुते राम गङ्गायाः सलिलेन वै |
2264 | 1043002c | सर्व लोकप्रभुर्ब्रह्मा राजानमिदमब्रवीत् |
2265 | 1043003a | तारिता नरशार्दूल दिवं याताश्च देववत् |
2266 | 1043003c | षष्टिः पुत्रसहस्राणि सगरस्य महात्मनः |
2267 | 1043004a | सागरस्य जलं लोके यावत्स्थास्यति पार्थिव |
2268 | 1043004c | सगरस्यात्मजास्तावत्स्वर्गे स्थास्यन्ति देववत् |
2269 | 1043005a | इयं च दुहिता ज्येष्ठा तव गङ्गा भविष्यति |
2270 | 1043005c | त्वत्कृतेन च नाम्ना वै लोके स्थास्यति विश्रुता |
2271 | 1043006a | गङ्गा त्रिपथगा नाम दिव्या भागीरथीति च |
2272 | 1043006c | त्रिपथो भावयन्तीति ततस्त्रिपथगा स्मृता |
2273 | 1043007a | पितामहानां सर्वेषां त्वमत्र मनुजाधिप |
2274 | 1043007c | कुरुष्व सलिलं राजन्प्रतिज्ञामपवर्जय |
2275 | 1043008a | पूर्वकेण हि ते राजंस्तेनातियशसा तदा |
2276 | 1043008c | धर्मिणां प्रवरेणाथ नैष प्राप्तो मनोरथः |
2277 | 1043009a | तथैवांशुमता तात लोकेऽप्रतिमतेजसा |
2278 | 1043009c | गङ्गां प्रार्थयता नेतुं प्रतिज्ञा नापवर्जिता |
2279 | 1043010a | राजर्षिणा गुणवता महर्षिसमतेजसा |
2280 | 1043010c | मत्तुल्यतपसा चैव क्षत्रधर्मस्थितेन च |
2281 | 1043011a | दिलीपेन महाभाग तव पित्रातितेजसा |
2282 | 1043011c | पुनर्न शङ्किता नेतुं गङ्गां प्रार्थयतानघ |
2283 | 1043012a | सा त्वया समतिक्रान्ता प्रतिज्ञा पुरुषर्षभ |
2284 | 1043012c | प्राप्तोऽसि परमं लोके यशः परमसंमतम् |
2285 | 1043013a | यच्च गङ्गावतरणं त्वया कृतमरिंदम |
2286 | 1043013c | अनेन च भवान्प्राप्तो धर्मस्यायतनं महत् |
2287 | 1043014a | प्लावयस्व त्वमात्मानं नरोत्तम सदोचिते |
2288 | 1043014c | सलिले पुरुषव्याघ्र शुचिः पुण्यफलो भव |
2289 | 1043015a | पितामहानां सर्वेषां कुरुष्व सलिलक्रियाम् |
2290 | 1043015c | स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि स्वं लोकं गम्यतां नृप |
2291 | 1043016a | इत्येवमुक्त्वा देवेशः सर्वलोकपितामहः |
2292 | 1043016c | यथागतं तथागच्छद्देवलोकं महायशाः |
2293 | 1043017a | भगीरथोऽपि राजर्षिः कृत्वा सलिलमुत्तमम् |
2294 | 1043017c | यथाक्रमं यथान्यायं सागराणां महायशाः |
2295 | 1043017e | कृतोदकः शुची राजा स्वपुरं प्रविवेश ह |
2296 | 1043018a | समृद्धार्थो नरश्रेष्ठ स्वराज्यं प्रशशास ह |
2297 | 1043018c | प्रमुमोद च लोकस्तं नृपमासाद्य राघव |
2298 | 1043018e | नष्टशोकः समृद्धार्थो बभूव विगतज्वरः |
2299 | 1043019a | एष ते राम गङ्गाया विस्तरोऽभिहितो मया |
2300 | 1043019c | स्वस्ति प्राप्नुहि भद्रं ते संध्याकालोऽतिवर्तते |
2301 | 1043020a | धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं पुत्र्यमथापि च |
2302 | 1043020c | इदमाख्यानमाख्यातं गङ्गावतरणं मया |
2303 | 1044001a | विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राघवः सहलक्ष्मणः |
2304 | 1044001c | विस्मयं परमं गत्वा विश्वामित्रमथाब्रवीत् |
2305 | 1044002a | अत्यद्भुतमिदं ब्रह्मन्कथितं परमं त्वया |
2306 | 1044002c | गङ्गावतरणं पुण्यं सागरस्य च पूरणम् |
2307 | 1044003a | तस्य सा शर्वरी सर्वा सह सौमित्रिणा तदा |
2308 | 1044003c | जगाम चिन्तयानस्य विश्वामित्रकथां शुभाम् |
2309 | 1044004a | ततः प्रभाते विमले विश्वामित्रं महामुनिम् |
2310 | 1044004c | उवाच राघवो वाक्यं कृताह्निकमरिंदमः |
2311 | 1044005a | गता भगवती रात्रिः श्रोतव्यं परमं श्रुतम् |
2312 | 1044005c | क्षणभूतेव सा रात्रिः संवृत्तेयं महातपः |
2313 | 1044005e | इमां चिन्तयतः सर्वां निखिलेन कथां तव |
2314 | 1044006a | तराम सरितां श्रेष्ठां पुण्यां त्रिपथगां नदीम् |
2315 | 1044006c | नौरेषा हि सुखास्तीर्णा ऋषीणां पुण्यकर्मणाम् |
2316 | 1044006e | भगवन्तमिह प्राप्तं ज्ञात्वा त्वरितमागता |
2317 | 1044007a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राघवस्य महात्मनः |
2318 | 1044007c | संतारं कारयामास सर्षिसंघः सराघवः |
2319 | 1044008a | उत्तरं तीरमासाद्य संपूज्यर्षिगणं तथ |
2320 | 1044008c | गङ्गाकूले निविष्टास्ते विशालां ददृशुः पुरीम् |
2321 | 1044009a | ततो मुनिवरस्तूर्णं जगाम सहराघवः |
2322 | 1044009c | विशालां नगरीं रम्यां दिव्यां स्वर्गोपमां तदा |
2323 | 1044010a | अथ रामो महाप्राज्ञो विश्वामित्रं महामुनिम् |
2324 | 1044010c | पप्रच्छ प्राञ्जलिर्भूत्वा विशालामुत्तमां पुरीम् |
2325 | 1044011a | कतरो राजवंशोऽयं विशालायां महामुने |
2326 | 1044011c | श्रोतुमिच्छामि भद्रं ते परं कौतूहलं हि मे |
2327 | 1044012a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा रामस्य मुनिपुंगवः |
2328 | 1044012c | आख्यातुं तत्समारेभे विशालस्य पुरातनम् |
2329 | 1044013a | श्रूयतां राम शक्रस्य कथां कथयतः शुभाम् |
2330 | 1044013c | अस्मिन्देशे हि यद्वृत्तं शृणु तत्त्वेन राघव |
2331 | 1044014a | पूर्वं कृतयुगे राम दितेः पुत्रा महाबलाः |
2332 | 1044014c | अदितेश्च महाभागा वीर्यवन्तः सुधार्मिकाः |
2333 | 1044015a | ततस्तेषां नरश्रेष्ठ बुद्धिरासीन्महात्मनाम् |
2334 | 1044015c | अमरा निर्जराश्चैव कथं स्याम निरामयाः |
2335 | 1044016a | तेषां चिन्तयतां राम बुद्धिरासीद्विपश्चिताम् |
2336 | 1044016c | क्षीरोदमथनं कृत्वा रसं प्राप्स्याम तत्र वै |
2337 | 1044017a | ततो निश्चित्य मथनं योक्त्रं कृत्वा च वासुकिम् |
2338 | 1044017c | मन्थानं मन्दरं कृत्वा ममन्थुरमितौजसः |
2339 | 1044018a | अथ धन्वन्तरिर्नाम अप्सराश्च सुवर्चसः |
2340 | 1044018c | अप्सु निर्मथनादेव रसात्तस्माद्वरस्त्रियः |
2341 | 1044018e | उत्पेतुर्मनुजश्रेष्ठ तस्मादप्सरसोऽभवन् |
2342 | 1044019a | षष्टिः कोट्योऽभवंस्तासामप्सराणां सुवर्चसाम् |
2343 | 1044019c | असंख्येयास्तु काकुत्स्थ यास्तासां परिचारिकाः |
2344 | 1044020a | न ताः स्म प्रतिगृह्णन्ति सर्वे ते देवदानवाः |
2345 | 1044020c | अप्रतिग्रहणाच्चैव तेन साधारणाः स्मृताः |
2346 | 1044021a | वरुणस्य ततः कन्या वारुणी रघुनन्दन |
2347 | 1044021c | उत्पपात महाभागा मार्गमाणा परिग्रहम् |
2348 | 1044022a | दितेः पुत्रा न तां राम जगृहुर्वरुणात्मजाम् |
2349 | 1044022c | अदितेस्तु सुता वीर जगृहुस्तामनिन्दिताम् |
2350 | 1044023a | असुरास्तेन दैतेयाः सुरास्तेनादितेः सुताः |
2351 | 1044023c | हृष्टाः प्रमुदिताश्चासन्वारुणी ग्रहणात्सुराः |
2352 | 1044024a | उच्चैःश्रवा हयश्रेष्ठो मणिरत्नं च कौस्तुभम् |
2353 | 1044024c | उदतिष्ठन्नरश्रेष्ठ तथैवामृतमुत्तमम् |
2354 | 1044025a | अथ तस्य कृते राम महानासीत्कुलक्षयः |
2355 | 1044025c | अदितेस्तु ततः पुत्रा दितेः पुत्राण सूदयन् |
2356 | 1044026a | अदितेरात्मजा वीरा दितेः पुत्रान्निजघ्निरे |
2357 | 1044026c | तस्मिन्घोरे महायुद्धे दैतेयादित्ययोर्भृशम् |
2358 | 1044027a | निहत्य दितिपुत्रांस्तु राज्यं प्राप्य पुरंदरः |
2359 | 1044027c | शशास मुदितो लोकान्सर्षिसंघान्सचारणान् |
2360 | 1045001a | हतेषु तेषु पुत्रेषु दितिः परमदुःखिता |
2361 | 1045001c | मारीचं काश्यपं राम भर्तारमिदमब्रवीत् |
2362 | 1045002a | हतपुत्रास्मि भगवंस्तव पुत्रैर्महाबलैः |
2363 | 1045002c | शक्रहन्तारमिच्छामि पुत्रं दीर्घतपोऽर्जितम् |
2364 | 1045003a | साहं तपश्चरिष्यामि गर्भं मे दातुमर्हसि |
2365 | 1045003c | ईदृशं शक्रहन्तारं त्वमनुज्ञातुमर्हसि |
2366 | 1045004a | तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा मारीचः काश्यपस्तदा |
2367 | 1045004c | प्रत्युवाच महातेजा दितिं परमदुःखिताम् |
2368 | 1045005a | एवं भवतु भद्रं ते शुचिर्भव तपोधने |
2369 | 1045005c | जनयिष्यसि पुत्रं त्वं शक्र हन्तारमाहवे |
2370 | 1045006a | पूर्णे वर्षसहस्रे तु शुचिर्यदि भविष्यसि |
2371 | 1045006c | पुत्रं त्रैलोक्य हन्तारं मत्तस्त्वं जनयिष्यसि |
2372 | 1045007a | एवमुक्त्वा महातेजाः पाणिना स ममार्ज ताम् |
2373 | 1045007c | समालभ्य ततः स्वस्तीत्युक्त्वा स तपसे ययौ |
2374 | 1045008a | गते तस्मिन्नरश्रेष्ठ दितिः परमहर्षिता |
2375 | 1045008c | कुशप्लवनमासाद्य तपस्तेपे सुदारुणम् |
2376 | 1045009a | तपस्तस्यां हि कुर्वत्यां परिचर्यां चकार ह |
2377 | 1045009c | सहस्राक्षो नरश्रेष्ठ परया गुणसंपदा |
2378 | 1045010a | अग्निं कुशान्काष्ठमपः फलं मूलं तथैव च |
2379 | 1045010c | न्यवेदयत्सहस्राक्षो यच्चान्यदपि काङ्क्षितम् |
2380 | 1045011a | गात्रसंवाहनैश्चैव श्रमापनयनैस्तथा |
2381 | 1045011c | शक्रः सर्वेषु कालेषु दितिं परिचचार ह |
2382 | 1045012a | अथ वर्षसहस्रेतु दशोने रघु नन्दन |
2383 | 1045012c | दितिः परमसंप्रीता सहस्राक्षमथाब्रवीत् |
2384 | 1045013a | तपश्चरन्त्या वर्षाणि दश वीर्यवतां वर |
2385 | 1045013c | अवशिष्टानि भद्रं ते भ्रातरं द्रक्ष्यसे ततः |
2386 | 1045014a | तमहं त्वत्कृते पुत्र समाधास्ये जयोत्सुकम् |
2387 | 1045014c | त्रैलोक्यविजयं पुत्र सह भोक्ष्यसि विज्वरः |
2388 | 1045015a | एवमुक्त्वा दितिः शक्रं प्राप्ते मध्यं दिवाकरे |
2389 | 1045015c | निद्रयापहृता देवी पादौ कृत्वाथ शीर्षतः |
2390 | 1045016a | दृष्ट्वा तामशुचिं शक्रः पादतः कृतमूर्धजाम् |
2391 | 1045016c | शिरःस्थाने कृतौ पादौ जहास च मुमोद च |
2392 | 1045017a | तस्याः शरीरविवरं विवेश च पुरंदरः |
2393 | 1045017c | गर्भं च सप्तधा राम बिभेद परमात्मवान् |
2394 | 1045018a | बिध्यमानस्ततो गर्भो वज्रेण शतपर्वणा |
2395 | 1045018c | रुरोद सुस्वरं राम ततो दितिरबुध्यत |
2396 | 1045019a | मा रुदो मा रुदश्चेति गर्भं शक्रोऽभ्यभाषत |
2397 | 1045019c | बिभेद च महातेजा रुदन्तमपि वासवः |
2398 | 1045020a | न हन्तव्यो न हन्तव्य इत्येवं दितिरब्रवीत् |
2399 | 1045020c | निष्पपात ततः शक्रो मातुर्वचनगौरवात् |
2400 | 1045021a | प्राञ्जलिर्वज्रसहितो दितिं शक्रोऽभ्यभाषत |
2401 | 1045021c | अशुचिर्देवि सुप्तासि पादयोः कृतमूर्धजा |
2402 | 1045022a | तदन्तरमहं लब्ध्वा शक्रहन्तारमाहवे |
2403 | 1045022c | अभिन्दं सप्तधा देवि तन्मे त्वं क्षन्तुमर्हसि |
2404 | 1046001a | सप्तधा तु कृते गर्भे दितिः परमदुःखिता |
2405 | 1046001c | सहस्राक्षं दुराधर्षं वाक्यं सानुनयाब्रवीत् |
2406 | 1046002a | ममापराधाद्गर्भोऽयं सप्तधा विफलीकृतः |
2407 | 1046002c | नापराधोऽस्ति देवेश तवात्र बलसूदन |
2408 | 1046003a | प्रियं तु कृतमिच्छामि मम गर्भविपर्यये |
2409 | 1046003c | मरुतां सप्तं सप्तानां स्थानपाला भवन्त्विमे |
2410 | 1046004a | वातस्कन्धा इमे सप्त चरन्तु दिवि पुत्रकाः |
2411 | 1046004c | मारुता इति विख्याता दिव्यरूपा ममात्मजाः |
2412 | 1046005a | ब्रह्मलोकं चरत्वेक इन्द्रलोकं तथापरः |
2413 | 1046005c | दिवि वायुरिति ख्यातस्तृतीयोऽपि महायशाः |
2414 | 1046006a | चत्वारस्तु सुरश्रेष्ठ दिशो वै तव शासनात् |
2415 | 1046006c | संचरिष्यन्ति भद्रं ते देवभूता ममात्मजाः |
2416 | 1046006e | त्वत्कृतेनैव नाम्ना च मारुता इति विश्रुताः |
2417 | 1046007a | तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा सहस्राक्षः पुरंदरः |
2418 | 1046007c | उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यं दितिं बलनिषूदनः |
2419 | 1046008a | सर्वमेतद्यथोक्तं ते भविष्यति न संशयः |
2420 | 1046008c | विचरिष्यन्ति भद्रं ते देवभूतास्तवात्मजाः |
2421 | 1046009a | एवं तौ निश्चयं कृत्वा मातापुत्रौ तपोवने |
2422 | 1046009c | जग्मतुस्त्रिदिवं राम कृतार्थाविति नः श्रुतम् |
2423 | 1046010a | एष देशः स काकुत्स्थ महेन्द्राध्युषितः पुरा |
2424 | 1046010c | दितिं यत्र तपः सिद्धामेवं परिचचार सः |
2425 | 1046011a | इक्ष्वाकोस्तु नरव्याघ्र पुत्रः परमधार्मिकः |
2426 | 1046011c | अलम्बुषायामुत्पन्नो विशाल इति विश्रुतः |
2427 | 1046012a | तेन चासीदिह स्थाने विशालेति पुरी कृता |
2428 | 1046013a | विशालस्य सुतो राम हेमचन्द्रो महाबलः |
2429 | 1046013c | सुचन्द्र इति विख्यातो हेमचन्द्रादनन्तरः |
2430 | 1046014a | सुचन्द्रतनयो राम धूम्राश्व इति विश्रुतः |
2431 | 1046014c | धूम्राश्वतनयश्चापि सृञ्जयः समपद्यत |
2432 | 1046015a | सृञ्जयस्य सुतः श्रीमान्सहदेवः प्रतापवान् |
2433 | 1046015c | कुशाश्वः सहदेवस्य पुत्रः परमधार्मिकः |
2434 | 1046016a | कुशाश्वस्य महातेजाः सोमदत्तः प्रतापवान् |
2435 | 1046016c | सोमदत्तस्य पुत्रस्तु काकुत्स्थ इति विश्रुतः |
2436 | 1046017a | तस्य पुत्रो महातेजाः संप्रत्येष पुरीमिमाम् |
2437 | 1046017c | आवसत्यमरप्रख्यः सुमतिर्नाम दुर्जयः |
2438 | 1046018a | इक्ष्वाकोस्तु प्रसादेन सर्वे वैशालिका नृपाः |
2439 | 1046018c | दीर्घायुषो महात्मानो वीर्यवन्तः सुधार्मिकाः |
2440 | 1046019a | इहाद्य रजनीं राम सुखं वत्स्यामहे वयम् |
2441 | 1046019c | श्वः प्रभाते नरश्रेष्ठ जनकं द्रष्टुमर्हसि |
2442 | 1046020a | सुमतिस्तु महातेजा विश्वामित्रमुपागतम् |
2443 | 1046020c | श्रुत्वा नरवरश्रेष्ठः प्रत्युद्गच्छन्महायशाः |
2444 | 1046021a | पूजां च परमां कृत्वा सोपाध्यायः सबान्धवः |
2445 | 1046021c | प्राञ्जलिः कुशलं पृष्ट्वा विश्वामित्रमथाब्रवीत् |
2446 | 1046022a | धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे विषयं मुने |
2447 | 1046022c | संप्राप्तो दर्शनं चैव नास्ति धन्यतरो मम |
2448 | 1047001a | पृष्ट्वा तु कुशलं तत्र परस्परसमागमे |
2449 | 1047001c | कथान्ते सुमतिर्वाक्यं व्याजहार महामुनिम् |
2450 | 1047002a | इमौ कुमारौ भद्रं ते देवतुल्यपराक्रमौ |
2451 | 1047002c | गजसिंहगती वीरौ शार्दूलवृषभोपमौ |
2452 | 1047003a | पद्मपत्रविशालाक्षौ खड्गतूणीधनुर्धरौ |
2453 | 1047003c | अश्विनाविव रूपेण समुपस्थितयौवनौ |
2454 | 1047004a | यदृच्छयैव गां प्राप्तौ देवलोकादिवामरौ |
2455 | 1047004c | कथं पद्भ्यामिह प्राप्तौ किमर्थं कस्य वा मुने |
2456 | 1047005a | भूषयन्ताविमं देशं चन्द्रसूर्याविवाम्बरम् |
2457 | 1047005c | परस्परस्य सदृशौ प्रमाणेङ्गितचेष्टितैः |
2458 | 1047006a | किमर्थं च नरश्रेष्ठौ संप्राप्तौ दुर्गमे पथि |
2459 | 1047006c | वरायुधधरौ वीरौ श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः |
2460 | 1047007a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा यथावृत्तं न्यवेदयत् |
2461 | 1047007c | सिद्धाश्रमनिवासं च राक्षसानां वधं तथा |
2462 | 1047008a | विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राजा परमहर्षितः |
2463 | 1047008c | अतिथी परमौ प्राप्तौ पुत्रौ दशरथस्य तौ |
2464 | 1047008e | पूजयामास विधिवत्सत्कारार्हौ महाबलौ |
2465 | 1047009a | ततः परमसत्कारं सुमतेः प्राप्य राघवौ |
2466 | 1047009c | उष्य तत्र निशामेकां जग्मतुर्मिथिलां ततः |
2467 | 1047010a | तां दृष्ट्वा मुनयः सर्वे जनकस्य पुरीं शुभाम् |
2468 | 1047010c | साधु साध्विति शंसन्तो मिथिलां समपूजयन् |
2469 | 1047011a | मिथिलोपवने तत्र आश्रमं दृश्य राघवः |
2470 | 1047011c | पुराणं निर्जनं रम्यं पप्रच्छ मुनिपुंगवम् |
2471 | 1047012a | श्रीमदाश्रमसंकाशं किं न्विदं मुनिवर्जितम् |
2472 | 1047012c | श्रोतुमिच्छामि भगवन्कस्यायं पूर्व आश्रमः |
2473 | 1047013a | तच्छ्रुता राघवेणोक्तं वाक्यं वाक्यविशारदः |
2474 | 1047013c | प्रत्युवाच महातेजा विश्वमित्रो महामुनिः |
2475 | 1047014a | हन्त ते कथयिष्यामि शृणु तत्त्वेन राघव |
2476 | 1047014c | यस्यैतदाश्रमपदं शप्तं कोपान्महात्मना |
2477 | 1047015a | गौतमस्य नरश्रेष्ठ पूर्वमासीन्महात्मनः |
2478 | 1047015c | आश्रमो दिव्यसंकाशः सुरैरपि सुपूजितः |
2479 | 1047016a | स चेह तप आतिष्ठदहल्यासहितः पुरा |
2480 | 1047016c | वर्षपूगान्यनेकानि राजपुत्र महायशः |
2481 | 1047017a | तस्यान्तरं विदित्वा तु सहस्राक्षः शचीपतिः |
2482 | 1047017c | मुनिवेषधरोऽहल्यामिदं वचनमब्रवीत् |
2483 | 1047018a | ऋतुकालं प्रतीक्षन्ते नार्थिनः सुसमाहिते |
2484 | 1047018c | संगमं त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे |
2485 | 1047019a | मुनिवेषं सहस्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन |
2486 | 1047019c | मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहलात् |
2487 | 1047020a | अथाब्रवीत्सुरश्रेष्ठं कृतार्थेनान्तरात्मना |
2488 | 1047020c | कृतार्थोऽसि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमितः प्रभो |
2489 | 1047020e | आत्मानं मां च देवेश सर्वदा रक्ष मानदः |
2490 | 1047021a | इन्द्रस्तु प्रहसन्वाक्यमहल्यामिदमब्रवीत् |
2491 | 1047021c | सुश्रोणि परितुष्टोऽस्मि गमिष्यामि यथागतम् |
2492 | 1047022a | एवं संगम्य तु तया निश्चक्रामोटजात्ततः |
2493 | 1047022c | स संभ्रमात्त्वरन्राम शङ्कितो गौतमं प्रति |
2494 | 1047023a | गौतमं स ददर्शाथ प्रविशन्तं महामुनिम् |
2495 | 1047023c | देवदानवदुर्धर्षं तपोबलसमन्वितम् |
2496 | 1047023e | तीर्थोदकपरिक्लिन्नं दीप्यमानमिवानलम् |
2497 | 1047023g | गृहीतसमिधं तत्र सकुशं मुनिपुङ्गवम् |
2498 | 1047024a | दृष्ट्वा सुरपतिस्त्रस्तो विषण्णवदनोऽभवत् |
2499 | 1047025a | अथ दृष्ट्वा सहस्राक्षं मुनिवेषधरं मुनिः |
2500 | 1047025c | दुर्वृत्तं वृत्तसंपन्नो रोषाद्वचनमब्रवीत् |
2501 | 1047026a | मम रूपं समास्थाय कृतवानसि दुर्मते |
2502 | 1047026c | अकर्तव्यमिदं यस्माद्विफलस्त्वं भविष्यति |
2503 | 1047027a | गौतमेनैवमुक्तस्य सरोषेण महात्मना |
2504 | 1047027c | पेततुर्वृषणौ भूमौ सहस्राक्षस्य तत्क्षणात् |
2505 | 1047028a | तथा शप्त्वा स वै शक्रं भार्यामपि च शप्तवान् |
2506 | 1047028c | इह वर्षसहस्राणि बहूनि त्वं निवत्स्यसि |
2507 | 1047029a | वायुभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी |
2508 | 1047029c | अदृश्या सर्वभूतानामाश्रमेऽस्मिन्निवत्स्यसि |
2509 | 1047030a | यदा चैतद्वनं घोरं रामो दशरथात्मजः |
2510 | 1047030c | आगमिष्यति दुर्धर्षस्तदा पूता भविष्यसि |
2511 | 1047031a | तस्यातिथ्येन दुर्वृत्ते लोभमोहविवर्जिता |
2512 | 1047031c | मत्सकाशे मुदा युक्ता स्वं वपुर्धारयिष्यसि |
2513 | 1047032a | एवमुक्त्वा महातेजा गौतमो दुष्टचारिणीम् |
2514 | 1047032c | इममाश्रममुत्सृज्य सिद्धचारणसेविते |
2515 | 1047032e | हिमवच्छिखरे रम्ये तपस्तेपे महातपाः |
2516 | 1048001a | अफलस्तु ततः शक्रो देवानग्निपुरोगमान् |
2517 | 1048001c | अब्रवीत्त्रस्तवदनः सर्षिसंघान्सचारणान् |
2518 | 1048002a | कुर्वता तपसो विघ्नं गौतमस्य महात्मनः |
2519 | 1048002c | क्रोधमुत्पाद्य हि मया सुरकार्यमिदं कृतम् |
2520 | 1048003a | अफलोऽस्मि कृतस्तेन क्रोधात्सा च निराकृता |
2521 | 1048003c | शापमोक्षेण महता तपोऽस्यापहृतं मया |
2522 | 1048004a | तन्मां सुरवराः सर्वे सर्षिसंघाः सचारणाः |
2523 | 1048004c | सुरसाह्यकरं सर्वे सफलं कर्तुमर्हथ |
2524 | 1048005a | शतक्रतोर्वचः श्रुत्वा देवाः साग्निपुरोगमाः |
2525 | 1048005c | पितृदेवानुपेत्याहुः सह सर्वैर्मरुद्गणैः |
2526 | 1048006a | अयं मेषः सवृषणः शक्रो ह्यवृषणः कृतः |
2527 | 1048006c | मेषस्य वृषणौ गृह्य शक्रायाशु प्रयच्छत |
2528 | 1048007a | अफलस्तु कृतो मेषः परां तुष्टिं प्रदास्यति |
2529 | 1048007c | भवतां हर्षणार्थाय ये च दास्यन्ति मानवाः |
2530 | 1048008a | अग्नेस्तु वचनं श्रुत्वा पितृदेवाः समागताः |
2531 | 1048008c | उत्पाट्य मेषवृषणौ सहस्राक्षे न्यवेदयन् |
2532 | 1048009a | तदा प्रभृति काकुत्स्थ पितृदेवाः समागताः |
2533 | 1048009c | अफलान्भुञ्जते मेषान्फलैस्तेषामयोजयन् |
2534 | 1048010a | इन्द्रस्तु मेषवृषणस्तदा प्रभृति राघव |
2535 | 1048010c | गौतमस्य प्रभावेन तपसश्च महात्मनः |
2536 | 1048011a | तदागच्छ महातेज आश्रमं पुण्यकर्मणः |
2537 | 1048011c | तारयैनां महाभागामहल्यां देवरूपिणीम् |
2538 | 1048012a | विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राघवः सहलक्ष्मणः |
2539 | 1048012c | विश्वामित्रं पुरस्कृत्य आश्रमं प्रविवेश ह |
2540 | 1048013a | ददर्श च महाभागां तपसा द्योतितप्रभाम् |
2541 | 1048013c | लोकैरपि समागम्य दुर्निरीक्ष्यां सुरासुरैः |
2542 | 1048014a | प्रयत्नान्निर्मितां धात्रा दिव्यां मायामयीमिव |
2543 | 1048014c | धूमेनाभिपरीताङ्गीं पूर्णचन्द्रप्रभामिव |
2544 | 1048015a | सतुषारावृतां साभ्रां पूर्णचन्द्रप्रभामिव |
2545 | 1048015c | मध्येऽम्भसो दुराधर्षां दीप्तां सूर्यप्रभामिव |
2546 | 1048016a | स हि गौतमवाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह |
2547 | 1048016c | त्रयाणामपि लोकानां यावद्रामस्य दर्शनम् |
2548 | 1048017a | राघवौ तु ततस्तस्याः पादौ जगृहतुस्तदा |
2549 | 1048017c | स्मरन्ती गौतमवचः प्रतिजग्राह सा च तौ |
2550 | 1048018a | पाद्यमर्घ्यं तथातिथ्यं चकार सुसमाहिता |
2551 | 1048018c | प्रतिजग्राह काकुत्स्थो विधिदृष्टेन कर्मणा |
2552 | 1048019a | पुष्पवृष्टिर्महत्यासीद्देवदुन्दुभिनिस्वनैः |
2553 | 1048019c | गन्धर्वाप्सरसां चापि महानासीत्समागमः |
2554 | 1048020a | साधु साध्विति देवास्तामहल्यां समपूजयन् |
2555 | 1048020c | तपोबलविशुद्धाङ्गीं गौतमस्य वशानुगाम् |
2556 | 1048021a | गौतमोऽपि महातेजा अहल्यासहितः सुखी |
2557 | 1048021c | रामं संपूज्य विधिवत्तपस्तेपे महातपाः |
2558 | 1048022a | रामोऽपि परमां पूजां गौतमस्य महामुनेः |
2559 | 1048022c | सकाशाद्विधिवत्प्राप्य जगाम मिथिलां ततः |
2560 | 1049001a | ततः प्रागुत्तरां गत्वा रामः सौमित्रिणा सह |
2561 | 1049001c | विश्वामित्रं पुरस्कृत्य यज्ञवाटमुपागमत् |
2562 | 1049002a | रामस्तु मुनिशार्दूलमुवाच सहलक्ष्मणः |
2563 | 1049002c | साध्वी यज्ञसमृद्धिर्हि जनकस्य महात्मनः |
2564 | 1049003a | बहूनीह सहस्राणि नानादेशनिवासिनाम् |
2565 | 1049003c | ब्राह्मणानां महाभाग वेदाध्ययनशालिनाम् |
2566 | 1049004a | ऋषिवाटाश्च दृश्यन्ते शकटीशतसंकुलाः |
2567 | 1049004c | देशो विधीयतां ब्रह्मन्यत्र वत्स्यामहे वयम् |
2568 | 1049005a | रामस्य वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रो महामुनिः |
2569 | 1049005c | निवेशमकरोद्देशे विविक्ते सलिलायुते |
2570 | 1049006a | विश्वामित्रं मुनिश्रेष्ठं श्रुत्वा स नृपतिस्तदा |
2571 | 1049006c | शतानन्दं पुरस्कृत्य पुरोहितमनिन्दितम् |
2572 | 1049007a | ऋत्विजोऽपि महात्मानस्त्वर्घ्यमादाय सत्वरम् |
2573 | 1049007c | विश्वामित्राय धर्मेण ददुर्मन्त्रपुरस्कृतम् |
2574 | 1049008a | प्रतिगृह्य तु तां पूजां जनकस्य महात्मनः |
2575 | 1049008c | पप्रच्छ कुशलं राज्ञो यज्ञस्य च निरामयम् |
2576 | 1049009a | स तांश्चापि मुनीन्पृष्ट्वा सोपाध्याय पुरोधसः |
2577 | 1049009c | यथान्यायं ततः सर्वैः समागच्छत्प्रहृष्टवान् |
2578 | 1049010a | अथ राजा मुनिश्रेष्ठं कृताञ्जलिरभाषत |
2579 | 1049010c | आसने भगवानास्तां सहैभिर्मुनिसत्तमैः |
2580 | 1049011a | जनकस्य वचः श्रुत्वा निषसाद महामुनिः |
2581 | 1049011c | पुरोधा ऋत्विजश्चैव राजा च सह मन्त्रिभिः |
2582 | 1049012a | आसनेषु यथान्यायमुपविष्टान्समन्ततः |
2583 | 1049012c | दृष्ट्वा स नृपतिस्तत्र विश्वामित्रमथाब्रवीत् |
2584 | 1049013a | अद्य यज्ञसमृद्धिर्मे सफला दैवतैः कृता |
2585 | 1049013c | अद्य यज्ञफलं प्राप्तं भगवद्दर्शनान्मया |
2586 | 1049014a | धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे मुनिपुंगव |
2587 | 1049014c | यज्ञोपसदनं ब्रह्मन्प्राप्तोऽसि मुनिभिः सह |
2588 | 1049015a | द्वादशाहं तु ब्रह्मर्षे शेषमाहुर्मनीषिणः |
2589 | 1049015c | ततो भागार्थिनो देवान्द्रष्टुमर्हसि कौशिक |
2590 | 1049016a | इत्युक्त्वा मुनिशार्दूलं प्रहृष्टवदनस्तदा |
2591 | 1049016c | पुनस्तं परिपप्रच्छ प्राञ्जलिः प्रयतो नृपः |
2592 | 1049017a | इमौ कुमारौ भद्रं ते देवतुल्यपराक्रमौ |
2593 | 1049017c | गजसिंहगती वीरौ शार्दूलवृषभोपमौ |
2594 | 1049018a | पद्मपत्रविशालाक्षौ खड्गतूणीधनुर्धरौ |
2595 | 1049018c | अश्विनाविव रूपेण समुपस्थितयौवनौ |
2596 | 1049019a | यदृच्छयैव गां प्राप्तौ देवलोकादिवामरौ |
2597 | 1049019c | कथं पद्भ्यामिह प्राप्तौ किमर्थं कस्य वा मुने |
2598 | 1049020a | वरायुधधरौ वीरौ कस्य पुत्रौ महामुने |
2599 | 1049020c | भूषयन्ताविमं देशं चन्द्रसूर्याविवाम्बरम् |
2600 | 1049021a | परस्परस्य सदृशौ प्रमाणेङ्गितचेष्टितैः |
2601 | 1049021c | काकपक्षधरौ वीरौ श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः |
2602 | 1049022a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा जनकस्य महात्मनः |
2603 | 1049022c | न्यवेदयन्महात्मानौ पुत्रौ दशरथस्य तौ |
2604 | 1049023a | सिद्धाश्रमनिवासं च राक्षसानां वधं तथा |
2605 | 1049023c | तच्चागमनमव्यग्रं विशालायाश्च दर्शनम् |
2606 | 1049024a | अहल्यादर्शनं चैव गौतमेन समागमम् |
2607 | 1049024c | महाधनुषि जिज्ञासां कर्तुमागमनं तथा |
2608 | 1049025a | एतत्सर्वं महातेजा जनकाय महात्मने |
2609 | 1049025c | निवेद्य विररामाथ विश्वामित्रो महामुनिः |
2610 | 1050001a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रस्य धीमतः |
2611 | 1050001c | हृष्टरोमा महातेजाः शतानन्दो महातपाः |
2612 | 1050002a | गौतमस्य सुतो ज्येष्ठस्तपसा द्योतितप्रभः |
2613 | 1050002c | रामसंदर्शनादेव परं विस्मयमागतः |
2614 | 1050003a | स तौ निषण्णौ संप्रेक्ष्य सुखासीनौ नृपात्मजौ |
2615 | 1050003c | शतानन्दो मुनिश्रेष्ठं विश्वामित्रमथाब्रवीत् |
2616 | 1050004a | अपि ते मुनिशार्दूल मम माता यशस्विनी |
2617 | 1050004c | दर्शिता राजपुत्राय तपो दीर्घमुपागता |
2618 | 1050005a | अपि रामे महातेजो मम माता यशस्विनी |
2619 | 1050005c | वन्यैरुपाहरत्पूजां पूजार्हे सर्वदेहिनाम् |
2620 | 1050006a | अपि रामाय कथितं यथावृत्तं पुरातनम् |
2621 | 1050006c | मम मातुर्महातेजो देवेन दुरनुष्ठितम् |
2622 | 1050007a | अपि कौशिक भद्रं ते गुरुणा मम संगता |
2623 | 1050007c | माता मम मुनिश्रेष्ठ रामसंदर्शनादितः |
2624 | 1050008a | अपि मे गुरुणा रामः पूजितः कुशिकात्मज |
2625 | 1050008c | इहागतो महातेजाः पूजां प्राप्य महात्मनः |
2626 | 1050009a | अपि शान्तेन मनसा गुरुर्मे कुशिकात्मज |
2627 | 1050009c | इहागतेन रामेण प्रयतेनाभिवादितः |
2628 | 1050010a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य विश्वामित्रो महामुनिः |
2629 | 1050010c | प्रत्युवाच शतानन्दं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम् |
2630 | 1050011a | नातिक्रान्तं मुनिश्रेष्ठ यत्कर्तव्यं कृतं मया |
2631 | 1050011c | संगता मुनिना पत्नी भार्गवेणेव रेणुका |
2632 | 1050012a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य विश्वामित्रस्य धीमतः |
2633 | 1050012c | शतानन्दो महातेजा रामं वचनमब्रवीत् |
2634 | 1050013a | स्वागतं ते नरश्रेष्ठ दिष्ट्या प्राप्तोऽसि राघव |
2635 | 1050013c | विश्वामित्रं पुरस्कृत्य महर्षिमपराजितम् |
2636 | 1050014a | अचिन्त्यकर्मा तपसा ब्रह्मर्षिरमितप्रभः |
2637 | 1050014c | विश्वामित्रो महातेजा वेत्स्येनं परमां गतिम् |
2638 | 1050015a | नास्ति धन्यतरो राम त्वत्तोऽन्यो भुवि कश्चन |
2639 | 1050015c | गोप्ता कुशिकपुत्रस्ते येन तप्तं महत्तपः |
2640 | 1050016a | श्रूयतां चाभिदास्यामि कौशिकस्य महात्मनः |
2641 | 1050016c | यथाबलं यथावृत्तं तन्मे निगदतः शृणु |
2642 | 1050017a | राजाभूदेष धर्मात्मा दीर्घ कालमरिंदमः |
2643 | 1050017c | धर्मज्ञः कृतविद्यश्च प्रजानां च हिते रतः |
2644 | 1050018a | प्रजापतिसुतस्त्वासीत्कुशो नाम महीपतिः |
2645 | 1050018c | कुशस्य पुत्रो बलवान्कुशनाभः सुधार्मिकः |
2646 | 1050019a | कुशनाभसुतस्त्वासीद्गाधिरित्येव विश्रुतः |
2647 | 1050019c | गाधेः पुत्रो महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः |
2648 | 1050020a | विश्वमित्रो महातेजाः पालयामास मेदिनीम् |
2649 | 1050020c | बहुवर्षसहस्राणि राजा राज्यमकारयत् |
2650 | 1050021a | कदाचित्तु महातेजा योजयित्वा वरूथिनीम् |
2651 | 1050021c | अक्षौहिणीपरिवृतः परिचक्राम मेदिनीम् |
2652 | 1050022a | नगराणि च राष्ट्राणि सरितश्च तथा गिरीन् |
2653 | 1050022c | आश्रमान्क्रमशो राजा विचरन्नाजगामह |
2654 | 1050023a | वसिष्ठस्याश्रमपदं नानापुष्पफलद्रुमम् |
2655 | 1050023c | नानामृगगणाकीर्णं सिद्धचारणसेवितम् |
2656 | 1050024a | देवदानवगन्धर्वैः किंनरैरुपशोभितम् |
2657 | 1050024c | प्रशान्तहरिणाकीर्णं द्विजसंघनिषेवितम् |
2658 | 1050025a | ब्रह्मर्षिगणसंकीर्णं देवर्षिगणसेवितम् |
2659 | 1050025c | तपश्चरणसंसिद्धैरग्निकल्पैर्महात्मभिः |
2660 | 1050026a | सततं संकुलं श्रीमद्ब्रह्मकल्पैर्महात्मभिः |
2661 | 1050026c | अब्भक्षैर्वायुभक्षैश्च शीर्णपर्णाशनैस्तथा |
2662 | 1050027a | फलमूलाशनैर्दान्तैर्जितरोषैर्जितेन्द्रियैः |
2663 | 1050027c | ऋषिभिर्वालखिल्यैश्च जपहोमपरायणैः |
2664 | 1050028a | वसिष्ठस्याश्रमपदं ब्रह्मलोकमिवापरम् |
2665 | 1050028c | ददर्श जयतां श्रेष्ठ विश्वामित्रो महाबलः |
2666 | 1051001a | स दृष्ट्वा परमप्रीतो विश्वामित्रो महाबलः |
2667 | 1051001c | प्रणतो विनयाद्वीरो वसिष्ठं जपतां वरम् |
2668 | 1051002a | स्वागतं तव चेत्युक्तो वसिष्ठेन महात्मना |
2669 | 1051002c | आसनं चास्य भगवान्वसिष्ठो व्यादिदेश ह |
2670 | 1051003a | उपविष्टाय च तदा विश्वामित्राय धीमते |
2671 | 1051003c | यथान्यायं मुनिवरः फलमूलमुपाहरत् |
2672 | 1051004a | प्रतिगृह्य च तां पूजां वसिष्ठाद्राजसत्तमः |
2673 | 1051004c | तपोऽग्निहोत्रशिष्येषु कुशलं पर्यपृच्छत |
2674 | 1051005a | विश्वामित्रो महातेजा वनस्पतिगणे तथा |
2675 | 1051005c | सर्वत्र कुशलं चाह वसिष्ठो राजसत्तमम् |
2676 | 1051006a | सुखोपविष्टं राजानं विश्वामित्रं महातपाः |
2677 | 1051006c | पप्रच्छ जपतां श्रेष्ठो वसिष्ठो ब्रह्मणः सुतः |
2678 | 1051007a | कच्चित्ते कुशलं राजन्कच्चिद्धर्मेण रञ्जयन् |
2679 | 1051007c | प्रजाः पालयसे राजन्राजवृत्तेन धार्मिक |
2680 | 1051008a | कच्चित्ते सुभृता भृत्याः कच्चित्तिष्ठन्ति शासने |
2681 | 1051008c | कच्चित्ते विजिताः सर्वे रिपवो रिपुसूदन |
2682 | 1051009a | कच्चिद्बले च कोशे च मित्रेषु च परंतप |
2683 | 1051009c | कुशलं ते नरव्याघ्र पुत्रपौत्रे तथानघ |
2684 | 1051010a | सर्वत्र कुशलं राजा वसिष्ठं प्रत्युदाहरत् |
2685 | 1051010c | विश्वामित्रो महातेजा वसिष्ठं विनयान्वितः |
2686 | 1051011a | कृत्वोभौ सुचिरं कालं धर्मिष्ठौ ताः कथाः शुभाः |
2687 | 1051011c | मुदा परमया युक्तौ प्रीयेतां तौ परस्परम् |
2688 | 1051012a | ततो वसिष्ठो भगवान्कथान्ते रघुनन्दन |
2689 | 1051012c | विश्वामित्रमिदं वाक्यमुवाच प्रहसन्निव |
2690 | 1051013a | आतिथ्यं कर्तुमिच्छामि बलस्यास्य महाबल |
2691 | 1051013c | तव चैवाप्रमेयस्य यथार्हं संप्रतीच्छ मे |
2692 | 1051014a | सत्क्रियां तु भवानेतां प्रतीच्छतु मयोद्यताम् |
2693 | 1051014c | राजंस्त्वमतिथिश्रेष्ठः पूजनीयः प्रयत्नतः |
2694 | 1051015a | एवमुक्तो वसिष्ठेन विश्वामित्रो महामतिः |
2695 | 1051015c | कृतमित्यब्रवीद्राजा पूजावाक्येन मे त्वया |
2696 | 1051016a | फलमूलेन भगवन्विद्यते यत्तवाश्रमे |
2697 | 1051016c | पाद्येनाचमनीयेन भगवद्दर्शनेन च |
2698 | 1051017a | सर्वथा च महाप्राज्ञ पूजार्हेण सुपूजितः |
2699 | 1051017c | गमिष्यामि नमस्तेऽस्तु मैत्रेणेक्षस्व चक्षुषा |
2700 | 1051018a | एवं ब्रुवन्तं राजानं वसिष्ठः पुनरेव हि |
2701 | 1051018c | न्यमन्त्रयत धर्मात्मा पुनः पुनरुदारधीः |
2702 | 1051019a | बाढमित्येव गाधेयो वसिष्ठं प्रत्युवाच ह |
2703 | 1051019c | यथा प्रियं भगवतस्तथास्तु मुनिसत्तम |
2704 | 1051020a | एवमुक्तो महातेजा वसिष्ठो जपतां वरः |
2705 | 1051020c | आजुहाव ततः प्रीतः कल्माषीं धूतकल्मषः |
2706 | 1051021a | एह्येहि शबले क्षिप्रं शृणु चापि वचो मम |
2707 | 1051021c | सबलस्यास्य राजर्षेः कर्तुं व्यवसितोऽस्म्यहम् |
2708 | 1051021e | भोजनेन महार्हेण सत्कारं संविधत्स्व मे |
2709 | 1051022a | यस्य यस्य यथाकामं षड्रसेष्वभिपूजितम् |
2710 | 1051022c | तत्सर्वं कामधुग्दिव्ये अभिवर्षकृते मम |
2711 | 1051023a | रसेनान्नेन पानेन लेह्यचोष्येण संयुतम् |
2712 | 1051023c | अन्नानां निचयं सर्वं सृजस्व शबले त्वर |
2713 | 1052001a | एवमुक्ता वसिष्ठेन शबला शत्रुसूदन |
2714 | 1052001c | विदधे कामधुक्कामान्यस्य यस्य यथेप्सितम् |
2715 | 1052002a | इक्षून्मधूंस्तथा लाजान्मैरेयांश्च वरासवान् |
2716 | 1052002c | पानानि च महार्हाणि भक्ष्यांश्चोच्चावचांस्तथा |
2717 | 1052003a | उष्णाढ्यस्यौदनस्यापि राशयः पर्वतोपमाः |
2718 | 1052003c | मृष्टान्नानि च सूपाश्च दधिकुल्यास्तथैव च |
2719 | 1052004a | नानास्वादुरसानां च षाडवानां तथैव च |
2720 | 1052004c | भाजनानि सुपूर्णानि गौडानि च सहस्रशः |
2721 | 1052005a | सर्वमासीत्सुसंतुष्टं हृष्टपुष्टजनाकुलम् |
2722 | 1052005c | विश्वामित्रबलं राम वसिष्ठेनाभितर्पितम् |
2723 | 1052006a | विश्वामित्रोऽपि राजर्षिर्हृष्टपुष्टस्तदाभवत् |
2724 | 1052006c | सान्तः पुरवरो राजा सब्राह्मणपुरोहितः |
2725 | 1052007a | सामात्यो मन्त्रिसहितः सभृत्यः पूजितस्तदा |
2726 | 1052007c | युक्तः परेण हर्षेण वसिष्ठमिदमब्रवीत् |
2727 | 1052008a | पूजितोऽहं त्वया ब्रह्मन्पूजार्हेण सुसत्कृतः |
2728 | 1052008c | श्रूयतामभिधास्यामि वाक्यं वाक्यविशारद |
2729 | 1052009a | गवां शतसहस्रेण दीयतां शबला मम |
2730 | 1052009c | रत्नं हि भगवन्नेतद्रत्नहारी च पार्थिवः |
2731 | 1052009e | तस्मान्मे शबलां देहि ममैषा धर्मतो द्विज |
2732 | 1052010a | एवमुक्तस्तु भगवान्वसिष्ठो मुनिसत्तमः |
2733 | 1052010c | विश्वामित्रेण धर्मात्मा प्रत्युवाच महीपतिम् |
2734 | 1052011a | नाहं शतसहस्रेण नापि कोटिशतैर्गवाम् |
2735 | 1052011c | राजन्दास्यामि शबलां राशिभी रजतस्य वा |
2736 | 1052012a | न परित्यागमर्हेयं मत्सकाशादरिंदम |
2737 | 1052012c | शाश्वती शबला मह्यं कीर्तिरात्मवतो यथा |
2738 | 1052013a | अस्यां हव्यं च कव्यं च प्राणयात्रा तथैव च |
2739 | 1052013c | आयत्तमग्निहोत्रं च बलिर्होमस्तथैव च |
2740 | 1052014a | स्वाहाकारवषट्कारौ विद्याश्च विविधास्तथा |
2741 | 1052014c | आयत्तमत्र राजर्षे सर्वमेतन्न संशयः |
2742 | 1052015a | सर्व स्वमेतत्सत्येन मम तुष्टिकरी सदा |
2743 | 1052015c | कारणैर्बहुभी राजन्न दास्ये शबलां तव |
2744 | 1052016a | वसिष्ठेनैवमुक्तस्तु विश्वामित्रोऽब्रवीत्ततः |
2745 | 1052016c | संरब्धतरमत्यर्थं वाक्यं वाक्यविशारदः |
2746 | 1052017a | हैरण्यकक्ष्याग्रैवेयान्सुवर्णाङ्कुशभूषितान् |
2747 | 1052017c | ददामि कुञ्जराणां ते सहस्राणि चतुर्दश |
2748 | 1052018a | हैरण्यानां रथानां च श्वेताश्वानां चतुर्युजाम् |
2749 | 1052018c | ददामि ते शतान्यष्टौ किङ्किणीकविभूषितान् |
2750 | 1052019a | हयानां देशजातानां कुलजानां महौजसाम् |
2751 | 1052019c | सहस्रमेकं दश च ददामि तव सुव्रत |
2752 | 1052020a | नानावर्णविभक्तानां वयःस्थानां तथैव च |
2753 | 1052020c | ददाम्येकां गवां कोटिं शबला दीयतां मम |
2754 | 1052021a | एवमुक्तस्तु भगवान्विश्वामित्रेण धीमता |
2755 | 1052021c | न दास्यामीति शबलां प्राह राजन्कथंचन |
2756 | 1052022a | एतदेव हि मे रत्नमेतदेव हि मे धनम् |
2757 | 1052022c | एतदेव हि सर्वस्वमेतदेव हि जीवितम् |
2758 | 1052023a | दर्शश्च पूर्णमासश्च यज्ञाश्चैवाप्तदक्षिणाः |
2759 | 1052023c | एतदेव हि मे राजन्विविधाश्च क्रियास्तथा |
2760 | 1052024a | अदोमूलाः क्रियाः सर्वा मम राजन्न संशयः |
2761 | 1052024c | बहूनां किं प्रलापेन न दास्ये कामदोहिनीम् |
2762 | 1053001a | कामधेनुं वसिष्ठोऽपि यदा न त्यजते मुनिः |
2763 | 1053001c | तदास्य शबलां राम विश्वामित्रोऽन्वकर्षत |
2764 | 1053002a | नीयमाना तु शबला राम राज्ञा महात्मना |
2765 | 1053002c | दुःखिता चिन्तयामास रुदन्ती शोककर्शिता |
2766 | 1053003a | परित्यक्ता वसिष्ठेन किमहं सुमहात्मना |
2767 | 1053003c | याहं राजभृतैर्दीना ह्रियेयं भृशदुःखिता |
2768 | 1053004a | किं मयापकृतं तस्य महर्षेर्भावितात्मनः |
2769 | 1053004c | यन्मामनागसं भक्तामिष्टां त्यजति धार्मिकः |
2770 | 1053005a | इति सा चिन्तयित्वा तु निःश्वस्य च पुनः पुनः |
2771 | 1053005c | जगाम वेगेन तदा वसिष्ठं परमौजसं |
2772 | 1053006a | निर्धूय तांस्तदा भृत्याञ्शतशः शत्रुसूदन |
2773 | 1053006c | जगामानिलवेगेन पादमूलं महात्मनः |
2774 | 1053007a | शबला सा रुदन्ती च क्रोशन्ती चेदमब्रवीत् |
2775 | 1053007c | वसिष्ठस्याग्रतः स्थित्वा मेघदुन्दुभिराविणी |
2776 | 1053008a | भगवन्किं परित्यक्ता त्वयाहं ब्रह्मणः सुत |
2777 | 1053008c | यस्माद्राजभृता मां हि नयन्ते त्वत्सकाशतः |
2778 | 1053009a | एवमुक्तस्तु ब्रह्मर्षिरिदं वचनमब्रवीत् |
2779 | 1053009c | शोकसंतप्तहृदयां स्वसारमिव दुःखिताम् |
2780 | 1053010a | न त्वां त्यजामि शबले नापि मेऽपकृतं त्वया |
2781 | 1053010c | एष त्वां नयते राजा बलान्मत्तो महाबलः |
2782 | 1053011a | न हि तुल्यं बलं मह्यं राजा त्वद्य विशेषतः |
2783 | 1053011c | बली राजा क्षत्रियश्च पृथिव्याः पतिरेव च |
2784 | 1053012a | इयमक्षौहिणीपूर्णा सवाजिरथसंकुला |
2785 | 1053012c | हस्तिध्वजसमाकीर्णा तेनासौ बलवत्तरः |
2786 | 1053013a | एवमुक्ता वसिष्ठेन प्रत्युवाच विनीतवत् |
2787 | 1053013c | वचनं वचनज्ञा सा ब्रह्मर्षिममितप्रभम् |
2788 | 1053014a | न बलं क्षत्रियस्याहुर्ब्राह्मणो बलवत्तरः |
2789 | 1053014c | ब्रह्मन्ब्रह्मबलं दिव्यं क्षत्रात्तु बलवत्तरम् |
2790 | 1053015a | अप्रमेयबलं तुभ्यं न त्वया बलवत्तरः |
2791 | 1053015c | विश्वामित्रो महावीर्यस्तेजस्तव दुरासदम् |
2792 | 1053016a | नियुङ्क्ष्व मां महातेजस्त्वद्ब्रह्मबलसंभृताम् |
2793 | 1053016c | तस्य दर्पं बलं यत्तन्नाशयामि दुरात्मनः |
2794 | 1053017a | इत्युक्तस्तु तया राम वसिष्ठः सुमहायशाः |
2795 | 1053017c | सृजस्वेति तदोवाच बलं परबलारुजम् |
2796 | 1053018a | तस्या हुम्भारवोत्सृष्टाः पह्लवाः शतशो नृप |
2797 | 1053018c | नाशयन्ति बलं सर्वं विश्वामित्रस्य पश्यतः |
2798 | 1053019a | स राजा परमक्रुद्धः क्रोधविस्फारितेक्षणः |
2799 | 1053019c | पह्लवान्नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि |
2800 | 1053020a | विश्वामित्रार्दितान्दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतशस्तदा |
2801 | 1053020c | भूय एवासृजद्घोराञ्शकान्यवनमिश्रितान् |
2802 | 1053021a | तैरासीत्संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः |
2803 | 1053021c | प्रभावद्भिर्महावीर्यैर्हेमकिञ्जल्कसंनिभैः |
2804 | 1053022a | दीर्घासिपट्टिशधरैर्हेमवर्णाम्बरावृतैः |
2805 | 1053022c | निर्दग्धं तद्बलं सर्वं प्रदीप्तैरिव पावकैः |
2806 | 1053023a | ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह |
2807 | 1054001a | ततस्तानाकुलान्दृष्ट्वा विश्वामित्रास्त्रमोहितान् |
2808 | 1054001c | वसिष्ठश्चोदयामास कामधुक्सृज योगतः |
2809 | 1054002a | तस्या हुम्भारवाज्जाताः काम्बोजा रविसंनिभाः |
2810 | 1054002c | ऊधसस्त्वथ संजाताः पह्लवाः शस्त्रपाणयः |
2811 | 1054003a | योनिदेशाच्च यवनः शकृद्देशाच्छकास्तथा |
2812 | 1054003c | रोमकूपेषु मेच्छाश्च हरीताः सकिरातकाः |
2813 | 1054004a | तैस्तन्निषूदितं सैन्यं विश्वमित्रस्य तत्क्षणात् |
2814 | 1054004c | सपदातिगजं साश्वं सरथं रघुनन्दन |
2815 | 1054005a | दृष्ट्वा निषूदितं सैन्यं वसिष्ठेन महात्मना |
2816 | 1054005c | विश्वामित्रसुतानां तु शतं नानाविधायुधम् |
2817 | 1054006a | अभ्यधावत्सुसंक्रुद्धं वसिष्ठं जपतां वरम् |
2818 | 1054006c | हुंकारेणैव तान्सर्वान्निर्ददाह महानृषिः |
2819 | 1054007a | ते साश्वरथपादाता वसिष्ठेन महात्मना |
2820 | 1054007c | भस्मीकृता मुहूर्तेन विश्वामित्रसुतास्तदा |
2821 | 1054008a | दृष्ट्वा विनाशितान्पुत्रान्बलं च सुमहायशाः |
2822 | 1054008c | सव्रीडश्चिन्तयाविष्टो विश्वामित्रोऽभवत्तदा |
2823 | 1054009a | संदुर इव निर्वेगो भग्नदंष्ट्र इवोरगः |
2824 | 1054009c | उपरक्त इवादित्यः सद्यो निष्प्रभतां गतः |
2825 | 1054010a | हतपुत्रबलो दीनो लूनपक्ष इव द्विजः |
2826 | 1054010c | हतदर्पो हतोत्साहो निर्वेदं समपद्यत |
2827 | 1054011a | स पुत्रमेकं राज्याय पालयेति नियुज्य च |
2828 | 1054011c | पृथिवीं क्षत्रधर्मेण वनमेवान्वपद्यत |
2829 | 1054012a | स गत्वा हिमवत्पार्श्वं किंनरोरगसेवितम् |
2830 | 1054012c | महादेवप्रसादार्थं तपस्तेपे महातपाः |
2831 | 1054013a | केनचित्त्वथ कालेन देवेशो वृषभध्वजः |
2832 | 1054013c | दर्शयामास वरदो विश्वामित्रं महामुनिम् |
2833 | 1054014a | किमर्थं तप्यसे राजन्ब्रूहि यत्ते विवक्षितम् |
2834 | 1054014c | वरदोऽस्मि वरो यस्ते काङ्क्षितः सोऽभिधीयताम् |
2835 | 1054015a | एवमुक्तस्तु देवेन विश्वामित्रो महातपाः |
2836 | 1054015c | प्रणिपत्य महादेवमिदं वचनमब्रवीत् |
2837 | 1054016a | यदि तुष्टो महादेव धनुर्वेदो ममानघ |
2838 | 1054016c | साङ्गोपाङ्गोपनिषदः सरहस्यः प्रदीयताम् |
2839 | 1054017a | यानि देवेषु चास्त्राणि दानवेषु महर्षिषु |
2840 | 1054017c | गन्धर्वयक्षरक्षःसु प्रतिभान्तु ममानघ |
2841 | 1054018a | तव प्रसादाद्भवतु देवदेव ममेप्सितम् |
2842 | 1054018c | एवमस्त्विति देवेशो वाक्यमुक्त्वा दिवं गतः |
2843 | 1054019a | प्राप्य चास्त्राणि राजर्षिर्विश्वामित्रो महाबलः |
2844 | 1054019c | दर्पेण महता युक्तो दर्पपूर्णोऽभवत्तदा |
2845 | 1054020a | विवर्धमानो वीर्येण समुद्र इव पर्वणि |
2846 | 1054020c | हतमेव तदा मेने वसिष्ठमृषिसत्तमम् |
2847 | 1054021a | ततो गत्वाश्रमपदं मुमोचास्त्राणि पार्थिवः |
2848 | 1054021c | यैस्तत्तपोवनं सर्वं निर्दग्धं चास्त्रतेजसा |
2849 | 1054022a | उदीर्यमाणमस्त्रं तद्विश्वामित्रस्य धीमतः |
2850 | 1054022c | दृष्ट्वा विप्रद्रुता भीता मुनयः शतशो दिशः |
2851 | 1054023a | वसिष्ठस्य च ये शिष्यास्तथैव मृगपक्षिणः |
2852 | 1054023c | विद्रवन्ति भयाद्भीता नानादिग्भ्यः सहस्रशः |
2853 | 1054024a | वसिष्ठस्याश्रमपदं शून्यमासीन्महात्मनः |
2854 | 1054024c | मुहूर्तमिव निःशब्दमासीदीरिणसंनिभम् |
2855 | 1054025a | वदतो वै वसिष्ठस्य मा भैष्टेति मुहुर्मुहुः |
2856 | 1054025c | नाशयाम्यद्य गाधेयं नीहारमिव भास्करः |
2857 | 1054026a | एवमुक्त्वा महातेजा वसिष्ठो जपतां वरः |
2858 | 1054026c | विश्वामित्रं तदा वाक्यं सरोषमिदमब्रवीत् |
2859 | 1054027a | आश्रमं चिरसंवृद्धं यद्विनाशितवानसि |
2860 | 1054027c | दुराचारोऽसि यन्मूढ तस्मात्त्वं न भविष्यसि |
2861 | 1054028a | इत्युक्त्वा परमक्रुद्धो दण्डमुद्यम्य सत्वरः |
2862 | 1054028c | विधूम इव कालाग्निर्यमदण्डमिवापरम् |
2863 | 1055001a | एवमुक्तो वसिष्ठेन विश्वामित्रो महाबलः |
2864 | 1055001c | आग्नेयमस्त्रमुत्क्षिप्य तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् |
2865 | 1055002a | वसिष्ठो भगवान्क्रोधादिदं वचनमब्रवीत् |
2866 | 1055003a | क्षत्रबन्धो स्थितोऽस्म्येष यद्बलं तद्विदर्शय |
2867 | 1055003c | नाशयाम्येष ते दर्पं शस्त्रस्य तव गाधिज |
2868 | 1055004a | क्व च ते क्षत्रियबलं क्व च ब्रह्मबलं महत् |
2869 | 1055004c | पश्य ब्रह्मबलं दिव्यं मम क्षत्रियपांसन |
2870 | 1055005a | तस्यास्त्रं गाधिपुत्रस्य घोरमाग्नेयमुत्तमम् |
2871 | 1055005c | ब्रह्मदण्डेन तच्छान्तमग्नेर्वेग इवाम्भसा |
2872 | 1055006a | वारुणं चैव रौद्रं च ऐन्द्रं पाशुपतं तथा |
2873 | 1055006c | ऐषीकं चापि चिक्षेप रुषितो गाधिनन्दनः |
2874 | 1055007a | मानवं मोहनं चैव गान्धर्वं स्वापनं तथा |
2875 | 1055007c | जृम्भणं मोहनं चैव संतापनविलापने |
2876 | 1055008a | शोषणं दारणं चैव वज्रमस्त्रं सुदुर्जयम् |
2877 | 1055008c | ब्रह्मपाशं कालपाशं वारुणं पाशमेव च |
2878 | 1055009a | पिनाकास्त्रं च दयितं शुष्कार्द्रे अशनी तथा |
2879 | 1055009c | दण्डास्त्रमथ पैशाचं क्रौञ्चमस्त्रं तथैव च |
2880 | 1055010a | धर्मचक्रं कालचक्रं विष्णुचक्रं तथैव च |
2881 | 1055010c | वायव्यं मथनं चैव अस्त्रं हयशिरस्तथा |
2882 | 1055011a | शक्तिद्वयं च चिक्षेप कङ्कालं मुसलं तथा |
2883 | 1055011c | वैद्याधरं महास्त्रं च कालास्त्रमथ दारुणम् |
2884 | 1055012a | त्रिशूलमस्त्रं घोरं च कापालमथ कङ्कणम् |
2885 | 1055012c | एतान्यस्त्राणि चिक्षेप सर्वाणि रघुनन्दन |
2886 | 1055013a | वसिष्ठे जपतां श्रेष्ठे तदद्भुतमिवाभवत् |
2887 | 1055013c | तानि सर्वाणि दण्डेन ग्रसते ब्रह्मणः सुतः |
2888 | 1055014a | तेषु शान्तेषु ब्रह्मास्त्रं क्षिप्तवान्गाधिनन्दनः |
2889 | 1055014c | तदस्त्रमुद्यतं दृष्ट्वा देवाः साग्निपुरोगमाः |
2890 | 1055015a | देवर्षयश्च संभ्रान्ता गन्धर्वाः समहोरगाः |
2891 | 1055015c | त्रैलोक्यमासीत्संत्रस्तं ब्रह्मास्त्रे समुदीरिते |
2892 | 1055016a | तदप्यस्त्रं महाघोरं ब्राह्मं ब्राह्मेण तेजसा |
2893 | 1055016c | वसिष्ठो ग्रसते सर्वं ब्रह्मदण्डेन राघव |
2894 | 1055017a | ब्रह्मास्त्रं ग्रसमानस्य वसिष्ठस्य महात्मनः |
2895 | 1055017c | त्रैलोक्यमोहनं रौद्रं रूपमासीत्सुदारुणम् |
2896 | 1055018a | रोमकूपेषु सर्वेषु वसिष्ठस्य महात्मनः |
2897 | 1055018c | मरीच्य इव निष्पेतुरग्नेर्धूमाकुलार्चिषः |
2898 | 1055019a | प्राज्वलद्ब्रह्मदण्डश्च वसिष्ठस्य करोद्यतः |
2899 | 1055019c | विधूम इव कालाग्निर्यमदण्ड इवापरः |
2900 | 1055020a | ततोऽस्तुवन्मुनिगणा वसिष्ठं जपतां वरम् |
2901 | 1055020c | अमोघं ते बलं ब्रह्मंस्तेजो धारय तेजसा |
2902 | 1055021a | निगृहीतस्त्वया ब्रह्मन्विश्वामित्रो महातपाः |
2903 | 1055021c | प्रसीद जपतां श्रेष्ठ लोकाः सन्तु गतव्यथाः |
2904 | 1055022a | एवमुक्तो महातेजाः शमं चक्रे महातपाः |
2905 | 1055022c | विश्वामित्रोऽपि निकृतो विनिःश्वस्येदमब्रवीत् |
2906 | 1055023a | धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम् |
2907 | 1055023c | एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे |
2908 | 1055024a | तदेतत्समवेक्ष्याहं प्रसन्नेन्द्रियमानसः |
2909 | 1055024c | तपो महत्समास्थास्ये यद्वै ब्रह्मत्वकारकम् |
2910 | 1056001a | ततः संतप्तहृदयः स्मरन्निग्रहमात्मनः |
2911 | 1056001c | विनिःश्वस्य विनिःश्वस्य कृतवैरो महात्मना |
2912 | 1056002a | स दक्षिणां दिशं गत्वा महिष्या सह राघव |
2913 | 1056002c | तताप परमं घोरं विश्वामित्रो महातपाः |
2914 | 1056002e | फलमूलाशनो दान्तश्चचार परमं तपः |
2915 | 1056003a | अथास्य जज्ञिरे पुत्राः सत्यधर्मपरायणाः |
2916 | 1056003c | हविष्पन्दो मधुष्पन्दो दृढनेत्रो महारथः |
2917 | 1056004a | पूर्णे वर्षसहस्रे तु ब्रह्मा लोकपितामहः |
2918 | 1056004c | अब्रवीन्मधुरं वाक्यं विश्वामित्रं तपोधनम् |
2919 | 1056005a | जिता राजर्षिलोकास्ते तपसा कुशिकात्मज |
2920 | 1056005c | अनेन तपसा त्वां हि राजर्षिरिति विद्महे |
2921 | 1056006a | एवमुक्त्वा महातेजा जगाम सह दैवतैः |
2922 | 1056006c | त्रिविष्टपं ब्रह्मलोकं लोकानां परमेश्वरः |
2923 | 1056007a | विश्वामित्रोऽपि तच्छ्रुत्वा ह्रिया किंचिदवाङ्मुखः |
2924 | 1056007c | दुःखेन महताविष्टः समन्युरिदमब्रवीत् |
2925 | 1056008a | तपश्च सुमहत्तप्तं राजर्षिरिति मां विदुः |
2926 | 1056008c | देवाः सर्षिगणाः सर्वे नास्ति मन्ये तपःफलम् |
2927 | 1056009a | एवं निश्चित्य मनसा भूय एव महातपाः |
2928 | 1056009c | तपश्चचार काकुत्स्थ परमं परमात्मवान् |
2929 | 1056010a | एतस्मिन्नेव काले तु सत्यवादी जितेन्द्रियः |
2930 | 1056010c | त्रिशङ्कुरिति विख्यात इक्ष्वाकु कुलनन्दनः |
2931 | 1056011a | तस्य बुद्धिः समुत्पन्ना यजेयमिति राघव |
2932 | 1056011c | गच्छेयं स्वशरीरेण देवानां परमां गतिम् |
2933 | 1056012a | स वसिष्ठं समाहूय कथयामास चिन्तितम् |
2934 | 1056012c | अशक्यमिति चाप्युक्तो वसिष्ठेन महात्मना |
2935 | 1056013a | प्रत्याख्यातो वसिष्ठेन स ययौ दक्षिणां दिशम् |
2936 | 1056013c | वसिष्ठा दीर्घ तपसस्तपो यत्र हि तेपिरे |
2937 | 1056014a | त्रिशङ्कुः सुमहातेजाः शतं परमभास्वरम् |
2938 | 1056014c | वसिष्ठपुत्रान्ददृशे तप्यमानान्यशस्विनः |
2939 | 1056015a | सोऽभिगम्य महात्मानः सर्वानेव गुरोः सुतान् |
2940 | 1056015c | अभिवाद्यानुपूर्व्येण ह्रिया किंचिदवाङ्मुखः |
2941 | 1056015e | अब्रवीत्सुमहातेजाः सर्वानेव कृताञ्जलिः |
2942 | 1056016a | शरणं वः प्रपद्येऽहं शरण्याञ्शरणागतः |
2943 | 1056016c | प्रत्याख्यातोऽस्मि भद्रं वो वसिष्ठेन महात्मना |
2944 | 1056017a | यष्टुकामो महायज्ञं तदनुज्ञातुमर्थथ |
2945 | 1056017c | गुरुपुत्रानहं सर्वान्नमस्कृत्य प्रसादये |
2946 | 1056018a | शिरसा प्रणतो याचे ब्राह्मणांस्तपसि स्थितान् |
2947 | 1056018c | ते मां भवन्तः सिद्ध्यर्थं याजयन्तु समाहिताः |
2948 | 1056018e | सशरीरो यथाहं हि देवलोकमवाप्नुयाम् |
2949 | 1056019a | प्रत्याख्यातो वसिष्ठेन गतिमन्यां तपोधनाः |
2950 | 1056019c | गुरुपुत्रानृते सर्वान्नाहं पश्यामि कांचन |
2951 | 1056020a | इक्ष्वाकूणां हि सर्वेषां पुरोधाः परमा गतिः |
2952 | 1056020c | तस्मादनन्तरं सर्वे भवन्तो दैवतं मम |
2953 | 1057001a | ततस्त्रिशङ्कोर्वचनं श्रुत्वा क्रोधसमन्वितम् |
2954 | 1057001c | ऋषिपुत्रशतं राम राजानमिदमब्रवीत् |
2955 | 1057002a | प्रत्याख्यातोऽसि दुर्बुद्धे गुरुणा सत्यवादिना |
2956 | 1057002c | तं कथं समतिक्रम्य शाखान्तरमुपेयिवान् |
2957 | 1057003a | इक्ष्वाकूणां हि सर्वेषां पुरोधाः परमा गतिः |
2958 | 1057003c | न चातिक्रमितुं शक्यं वचनं सत्यवादिनः |
2959 | 1057004a | अशक्यमिति चोवाच वसिष्ठो भगवानृषिः |
2960 | 1057004c | तं वयं वै समाहर्तुं क्रतुं शक्ताः कथं तव |
2961 | 1057005a | बालिशस्त्वं नरश्रेष्ठ गम्यतां स्वपुरं पुनः |
2962 | 1057005c | याजने भगवाञ्शक्तस्त्रैलोक्यस्यापि पार्थिव |
2963 | 1057006a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा क्रोधपर्याकुलाक्षरम् |
2964 | 1057006c | स राजा पुनरेवैतानिदं वचनमब्रवीत् |
2965 | 1057007a | प्रत्याख्यातोऽस्मि गुरुणा गुरुपुत्रैस्तथैव च |
2966 | 1057007c | अन्यां गतिं गमिष्यामि स्वस्ति वोऽस्तु तपोधनाः |
2967 | 1057008a | ऋषिपुत्रास्तु तच्छ्रुत्वा वाक्यं घोराभिसंहितम् |
2968 | 1057008c | शेपुः परमसंक्रुद्धाश्चण्डालत्वं गमिष्यसि |
2969 | 1057008e | एवमुक्त्वा महात्मानो विविशुस्ते स्वमाश्रमम् |
2970 | 1057009a | अथ रात्र्यां व्यतीतायां राजा चण्डालतां गतः |
2971 | 1057009c | नीलवस्त्रधरो नीलः परुषो ध्वस्तमूर्धजः |
2972 | 1057009e | चित्यमाल्यानुलेपश्च आयसाभरणोऽभवत् |
2973 | 1057010a | तं दृष्ट्वा मन्त्रिणः सर्वे त्यक्त्वा चण्डालरूपिणम् |
2974 | 1057010c | प्राद्रवन्सहिता राम पौरा येऽस्यानुगामिनः |
2975 | 1057011a | एको हि राजा काकुत्स्थ जगाम परमात्मवान् |
2976 | 1057011c | दह्यमानो दिवारात्रं विश्वामित्रं तपोधनम् |
2977 | 1057012a | विश्वामित्रस्तु तं दृष्ट्वा राजानं विफलीकृतम् |
2978 | 1057012c | चण्डालरूपिणं राम मुनिः कारुण्यमागतः |
2979 | 1057013a | कारुण्यात्स महातेजा वाक्यं परम धार्मिकः |
2980 | 1057013c | इदं जगाद भद्रं ते राजानं घोरदर्शनम् |
2981 | 1057014a | किमागमनकार्यं ते राजपुत्र महाबल |
2982 | 1057014c | अयोध्याधिपते वीर शापाच्चण्डालतां गतः |
2983 | 1057015a | अथ तद्वाक्यमाकर्ण्य राजा चण्डालतां गतः |
2984 | 1057015c | अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम् |
2985 | 1057016a | प्रत्याख्यातोऽस्मि गुरुणा गुरुपुत्रैस्तथैव च |
2986 | 1057016c | अनवाप्यैव तं कामं मया प्राप्तो विपर्ययः |
2987 | 1057017a | सशरीरो दिवं यायामिति मे सौम्यदर्शनम् |
2988 | 1057017c | मया चेष्टं क्रतुशतं तच्च नावाप्यते फलम् |
2989 | 1057018a | अनृतं नोक्त पूर्वं मे न च वक्ष्ये कदाचन |
2990 | 1057018c | कृच्छ्रेष्वपि गतः सौम्य क्षत्रधर्मेण ते शपे |
2991 | 1057019a | यज्ञैर्बहुविधैरिष्टं प्रजा धर्मेण पालिताः |
2992 | 1057019c | गुरवश्च महात्मानः शीलवृत्तेन तोषिताः |
2993 | 1057020a | धर्मे प्रयतमानस्य यज्ञं चाहर्तुमिच्छतः |
2994 | 1057020c | परितोषं न गच्छन्ति गुरवो मुनिपुंगव |
2995 | 1057021a | दैवमेव परं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम् |
2996 | 1057021c | दैवेनाक्रम्यते सर्वं दैवं हि परमा गतिः |
2997 | 1057022a | तस्य मे परमार्तस्य प्रसादमभिकाङ्क्षतः |
2998 | 1057022c | कर्तुमर्हसि भद्रं ते दैवोपहतकर्मणः |
2999 | 1057023a | नान्यां गतिं गमिष्यामि नान्यः शरणमस्ति मे |
3000 | 1057023c | दैवं पुरुषकारेण निवर्तयितुमर्हसि |
3001 | 1058001a | उक्तवाक्यं तु राजानं कृपया कुशिकात्मजः |
3002 | 1058001c | अब्रवीन्मधुरं वाक्यं साक्षाच्चण्डालरूपिणम् |
3003 | 1058002a | इक्ष्वाको स्वागतं वत्स जानामि त्वां सुधार्मिकम् |
3004 | 1058002c | शरणं ते भविष्यामि मा भैषीर्नृपपुंगव |
3005 | 1058003a | अहमामन्त्रये सर्वान्महर्षीन्पुण्यकर्मणः |
3006 | 1058003c | यज्ञसाह्यकरान्राजंस्ततो यक्ष्यसि निर्वृतः |
3007 | 1058004a | गुरुशापकृतं रूपं यदिदं त्वयि वर्तते |
3008 | 1058004c | अनेन सह रूपेण सशरीरो गमिष्यसि |
3009 | 1058005a | हस्तप्राप्तमहं मन्ये स्वर्गं तव नरेश्वर |
3010 | 1058005c | यस्त्वं कौशिकमागम्य शरण्यं शरणं गतः |
3011 | 1058006a | एवमुक्त्वा महातेजाः पुत्रान्परमधार्मिकान् |
3012 | 1058006c | व्यादिदेश महाप्राज्ञान्यज्ञसंभारकारणात् |
3013 | 1058007a | सर्वाञ्शिष्यान्समाहूय वाक्यमेतदुवाच ह |
3014 | 1058008a | सर्वानृषिवरान्वत्सा आनयध्वं ममाज्ञया |
3015 | 1058008c | सशिष्यान्सुहृदश्चैव सर्त्विजः सुबहुश्रुतान् |
3016 | 1058009a | यदन्यो वचनं ब्रूयान्मद्वाक्यबलचोदितः |
3017 | 1058009c | तत्सर्वमखिलेनोक्तं ममाख्येयमनादृतम् |
3018 | 1058010a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा दिशो जग्मुस्तदाज्ञया |
3019 | 1058010c | आजग्मुरथ देशेभ्यः सर्वेभ्यो ब्रह्मवादिनः |
3020 | 1058011a | ते च शिष्याः समागम्य मुनिं ज्वलिततेजसं |
3021 | 1058011c | ऊचुश्च वचनं सर्वे सर्वेषां ब्रह्मवादिनाम् |
3022 | 1058012a | श्रुत्वा ते वचनं सर्वे समायान्ति द्विजातयः |
3023 | 1058012c | सर्वदेशेषु चागच्छन्वर्जयित्वा महोदयम् |
3024 | 1058013a | वासिष्ठं तच्छतं सर्वं क्रोधपर्याकुलाक्षरम् |
3025 | 1058013c | यदाह वचनं सर्वं शृणु त्वं मुनिपुंगव |
3026 | 1058014a | क्षत्रियो याजको यस्य चण्डालस्य विशेषतः |
3027 | 1058014c | कथं सदसि भोक्तारो हविस्तस्य सुरर्षयः |
3028 | 1058015a | ब्राह्मणा वा महात्मानो भुक्त्वा चण्डालभोजनम् |
3029 | 1058015c | कथं स्वर्गं गमिष्यन्ति विश्वामित्रेण पालिताः |
3030 | 1058016a | एतद्वचनं नैष्ठुर्यमूचुः संरक्तलोचनाः |
3031 | 1058016c | वासिष्ठा मुनिशार्दूल सर्वे ते समहोदयाः |
3032 | 1058017a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा सर्वेषां मुनिपुंगवः |
3033 | 1058017c | क्रोधसंरक्तनयनः सरोषमिदमब्रवीत् |
3034 | 1058018a | यद्दूषयन्त्यदुष्टं मां तप उग्रं समास्थितम् |
3035 | 1058018c | भस्मीभूता दुरात्मानो भविष्यन्ति न संशयः |
3036 | 1058019a | अद्य ते कालपाशेन नीता वैवस्वतक्षयम् |
3037 | 1058019c | सप्तजातिशतान्येव मृतपाः सन्तु सर्वशः |
3038 | 1058020a | श्वमांसनियताहारा मुष्टिका नाम निर्घृणाः |
3039 | 1058020c | विकृताश्च विरूपाश्च लोकाननुचरन्त्विमान् |
3040 | 1058021a | महोदयश्च दुर्बुद्धिर्मामदूष्यं ह्यदूषयत् |
3041 | 1058021c | दूषिटः सर्वलोकेषु निषादत्वं गमिष्यति |
3042 | 1058022a | प्राणातिपातनिरतो निरनुक्रोशतां गतः |
3043 | 1058022c | दीर्घकालं मम क्रोधाद्दुर्गतिं वर्तयिष्यति |
3044 | 1058023a | एतावदुक्त्वा वचनं विश्वामित्रो महातपाः |
3045 | 1058023c | विरराम महातेजा ऋषिमध्ये महामुनिः |
3046 | 1059001a | तपोबलहतान्कृत्वा वासिष्ठान्समहोदयान् |
3047 | 1059001c | ऋषिमध्ये महातेजा विश्वामित्रोऽभ्यभाषत |
3048 | 1059002a | अयमिक्ष्वाकुदायादस्त्रिशङ्कुरिति विश्रुतः |
3049 | 1059002c | धर्मिष्ठश्च वदान्यश्च मां चैव शरणं गतः |
3050 | 1059002e | स्वेनानेन शरीरेण देवलोकजिगीषया |
3051 | 1059003a | यथायं स्वशरीरेण देवलोकं गमिष्यति |
3052 | 1059003c | तथा प्रवर्त्यतां यज्ञो भवद्भिश्च मया सह |
3053 | 1059004a | विश्वामित्रवचः श्रुत्वा सर्व एव महर्षयः |
3054 | 1059004c | ऊचुः समेत्य सहिता धर्मज्ञा धर्मसंहितम् |
3055 | 1059005a | अयं कुशिकदायादो मुनिः परमकोपनः |
3056 | 1059005c | यदाह वचनं सम्यगेतत्कार्यं न संशयः |
3057 | 1059006a | अग्निकल्पो हि भगवाञ्शापं दास्यति रोषितः |
3058 | 1059006c | तस्मात्प्रवर्त्यतां यज्ञः सशरीरो यथा दिवम् |
3059 | 1059006e | गच्छेदिक्ष्वाकुदायादो विश्वामित्रस्य तेजसा |
3060 | 1059007a | ततः प्रवर्त्यतां यज्ञः सर्वे समधितिष्ठते |
3061 | 1059008a | एवमुक्त्वा महर्षयः संजह्रुस्ताः क्रियास्तदा |
3062 | 1059008c | याजकाश्च महातेजा विश्वामित्रोऽभवत्क्रतौ |
3063 | 1059009a | ऋत्विजश्चानुपूर्व्येण मन्त्रवन्मन्त्रकोविदाः |
3064 | 1059009c | चक्रुः सर्वाणि कर्माणि यथाकल्पं यथाविधि |
3065 | 1059010a | ततः कालेन महता विश्वामित्रो महातपाः |
3066 | 1059010c | चकारावाहनं तत्र भागार्थं सर्वदेवताः |
3067 | 1059011a | नाह्यागमंस्तदाहूता भागार्थं सर्वदेवताः |
3068 | 1059011c | ततः क्रोधसमाविष्टो विश्वमित्रो महामुनिः |
3069 | 1059012a | स्रुवमुद्यम्य सक्रोधस्त्रिशङ्कुमिदमब्रवीत् |
3070 | 1059012c | पश्य मे तपसो वीर्यं स्वार्जितस्य नरेश्वर |
3071 | 1059013a | एष त्वां स्वशरीरेण नयामि स्वर्गमोजसा |
3072 | 1059013c | दुष्प्रापं स्वशरीरेण दिवं गच्छ नराधिप |
3073 | 1059014a | स्वार्जितं किंचिदप्यस्ति मया हि तपसः फलम् |
3074 | 1059014c | राजंस्त्वं तेजसा तस्य सशरीरो दिवं व्रज |
3075 | 1059015a | उक्तवाक्ये मुनौ तस्मिन्सशरीरो नरेश्वरः |
3076 | 1059015c | दिवं जगाम काकुत्स्थ मुनीनां पश्यतां तदा |
3077 | 1059016a | देवलोकगतं दृष्ट्वा त्रिशङ्कुं पाकशासनः |
3078 | 1059016c | सह सर्वैः सुरगणैरिदं वचनमब्रवीत् |
3079 | 1059017a | त्रिशङ्को गच्छ भूयस्त्वं नासि स्वर्गकृतालयः |
3080 | 1059017c | गुरुशापहतो मूढ पत भूमिमवाक्शिराः |
3081 | 1059018a | एवमुक्तो महेन्द्रेण त्रिशङ्कुरपतत्पुनः |
3082 | 1059018c | विक्रोशमानस्त्राहीति विश्वामित्रं तपोधनम् |
3083 | 1059019a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य क्रोशमानस्य कौशिकः |
3084 | 1059019c | रोषमाहारयत्तीव्रं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् |
3085 | 1059020a | ऋषिमध्ये स तेजस्वी प्रजापतिरिवापरः |
3086 | 1059020c | सृजन्दक्षिणमार्गस्थान्सप्तर्षीनपरान्पुनः |
3087 | 1059021a | नक्षत्रमालामपरामसृजत्क्रोधमूर्छितः |
3088 | 1059021c | दक्षिणां दिशमास्थाय मुनिमध्ये महायशाः |
3089 | 1059022a | सृष्ट्वा नक्षत्रवंशं च क्रोधेन कलुषीकृतः |
3090 | 1059022c | अन्यमिन्द्रं करिष्यामि लोको वा स्यादनिन्द्रकः |
3091 | 1059022e | दैवतान्यपि स क्रोधात्स्रष्टुं समुपचक्रमे |
3092 | 1059023a | ततः परमसंभ्रान्ताः सर्षिसंघाः सुरर्षभाः |
3093 | 1059023c | विश्वामित्रं महात्मानमूचुः सानुनयं वचः |
3094 | 1059024a | अयं राजा महाभाग गुरुशापपरिक्षतः |
3095 | 1059024c | सशरीरो दिवं यातुं नार्हत्येव तपोधन |
3096 | 1059025a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा देवानां मुनिपुंगवः |
3097 | 1059025c | अब्रवीत्सुमहद्वाक्यं कौशिकः सर्वदेवताः |
3098 | 1059026a | सशरीरस्य भद्रं वस्त्रिशङ्कोरस्य भूपतेः |
3099 | 1059026c | आरोहणं प्रतिज्ञाय नानृतं कर्तुमुत्सहे |
3100 | 1059027a | सर्गोऽस्तु सशरीरस्य त्रिशङ्कोरस्य शाश्वतः |
3101 | 1059027c | नक्षत्राणि च सर्वाणि मामकानि ध्रुवाण्यथ |
3102 | 1059028a | यावल्लोका धरिष्यन्ति तिष्ठन्त्वेतानि सर्वशः |
3103 | 1059028c | मत्कृतानि सुराः सर्वे तदनुज्ञातुमर्हथ |
3104 | 1059029a | एवमुक्ताः सुराः सर्वे प्रत्यूचुर्मुनिपुंगवम् |
3105 | 1059030a | एवं भवतु भद्रं ते तिष्ठन्त्वेतानि सर्वशः |
3106 | 1059030c | गगने तान्यनेकानि वैश्वानरपथाद्बहिः |
3107 | 1059031a | नक्षत्राणि मुनिश्रेष्ठ तेषु ज्योतिःषु जाज्वलन् |
3108 | 1059031c | अवाक्शिरास्त्रिशङ्कुश्च तिष्ठत्वमरसंनिभः |
3109 | 1059032a | विश्वामित्रस्तु धर्मात्मा सर्वदेवैरभिष्टुतः |
3110 | 1059032c | ऋषिभिश्च महातेजा बाढमित्याह देवताः |
3111 | 1059033a | ततो देवा महात्मानो मुनयश्च तपोधनाः |
3112 | 1059033c | जग्मुर्यथागतं सर्वे यज्ञस्यान्ते नरोत्तम |
3113 | 1060001a | विश्वामित्रो महात्माथ प्रस्थितान्प्रेक्ष्य तानृषीन् |
3114 | 1060001c | अब्रवीन्नरशार्दूल सर्वांस्तान्वनवासिनः |
3115 | 1060002a | महाविघ्नः प्रवृत्तोऽयं दक्षिणामास्थितो दिशम् |
3116 | 1060002c | दिशमन्यां प्रपत्स्यामस्तत्र तप्स्यामहे तपः |
3117 | 1060003a | पश्चिमायां विशालायां पुष्करेषु महात्मनः |
3118 | 1060003c | सुखं तपश्चरिष्यामः परं तद्धि तपोवनम् |
3119 | 1060004a | एवमुक्त्वा महातेजाः पुष्करेषु महामुनिः |
3120 | 1060004c | तप उग्रं दुराधर्षं तेपे मूलफलाशनः |
3121 | 1060005a | एतस्मिन्नेव काले तु अयोध्याधिपतिर्नृपः |
3122 | 1060005c | अम्बरीष इति ख्यातो यष्टुं समुपचक्रमे |
3123 | 1060006a | तस्य वै यजमानस्य पशुमिन्द्रो जहार ह |
3124 | 1060006c | प्रनष्टे तु पशौ विप्रो राजानमिदमब्रवीत् |
3125 | 1060007a | पशुरद्य हृतो राजन्प्रनष्टस्तव दुर्नयात् |
3126 | 1060007c | अरक्षितारं राजानं घ्नन्ति दोषा नरेश्वर |
3127 | 1060008a | प्रायश्चित्तं महद्ध्येतन्नरं वा पुरुषर्षभ |
3128 | 1060008c | आनयस्व पशुं शीघ्रं यावत्कर्म प्रवर्तते |
3129 | 1060009a | उपाध्याय वचः श्रुत्वा स राजा पुरुषर्षभ |
3130 | 1060009c | अन्वियेष महाबुद्धिः पशुं गोभिः सहस्रशः |
3131 | 1060010a | देशाञ्जनपदांस्तांस्तान्नगराणि वनानि च |
3132 | 1060010c | आश्रमाणि च पुण्यानि मार्गमाणो महीपतिः |
3133 | 1060011a | स पुत्रसहितं तात सभार्यं रघुनन्दन |
3134 | 1060011c | भृगुतुन्दे समासीनमृचीकं संददर्श ह |
3135 | 1060012a | तमुवाच महातेजाः प्रणम्याभिप्रसाद्य च |
3136 | 1060012c | ब्रह्मर्षिं तपसा दीप्तं राजर्षिरमितप्रभः |
3137 | 1060012e | पृष्ट्वा सर्वत्र कुशलमृचीकं तमिदं वचः |
3138 | 1060013a | गवां शतसहस्रेण विक्रिणीषे सुतं यदि |
3139 | 1060013c | पशोरर्थे महाभाग कृतकृत्योऽस्मि भार्गव |
3140 | 1060014a | सर्वे परिसृता देशा यज्ञियं न लभे पशुम् |
3141 | 1060014c | दातुमर्हसि मूल्येन सुतमेकमितो मम |
3142 | 1060015a | एवमुक्तो महातेजा ऋचीकस्त्वब्रवीद्वचः |
3143 | 1060015c | नाहं ज्येष्ठं नरश्रेष्ठं विक्रीणीयां कथंचन |
3144 | 1060016a | ऋचीकस्य वचः श्रुत्वा तेषां माता महात्मनाम् |
3145 | 1060016c | उवाच नरशार्दूलमम्बरीषं तपस्विनी |
3146 | 1060017a | ममापि दयितं विद्धि कनिष्ठं शुनकं नृप |
3147 | 1060018a | प्रायेण हि नरश्रेष्ठ ज्येष्ठाः पितृषु वल्लभाः |
3148 | 1060018c | मातॄणां च कनीयांसस्तस्माद्रक्षे कनीयसं |
3149 | 1060019a | उक्तवाक्ये मुनौ तस्मिन्मुनिपत्न्यां तथैव च |
3150 | 1060019c | शुनःशेपः स्वयं राम मध्यमो वाक्यमब्रवीत् |
3151 | 1060020a | पिता ज्येष्ठमविक्रेयं माता चाह कनीयसं |
3152 | 1060020c | विक्रीतं मध्यमं मन्ये राजन्पुत्रं नयस्व माम् |
3153 | 1060021a | गवां शतसहस्रेण शुनःशेपं नरेश्वरः |
3154 | 1060021c | गृहीत्वा परमप्रीतो जगाम रघुनन्दन |
3155 | 1060022a | अम्बरीषस्तु राजर्षी रथमारोप्य सत्वरः |
3156 | 1060022c | शुनःशेपं महातेजा जगामाशु महायशाः |
3157 | 1061001a | शुनःशेपं नरश्रेष्ठ गृहीत्वा तु महायशाः |
3158 | 1061001c | व्यश्राम्यत्पुष्करे राजा मध्याह्ने रघुनन्दन |
3159 | 1061002a | तस्य विश्रममाणस्य शुनःशेपो महायशाः |
3160 | 1061002c | पुष्करं श्रेष्ठमागम्य विश्वामित्रं ददर्श ह |
3161 | 1061003a | विषण्णवदनो दीनस्तृष्णया च श्रमेण च |
3162 | 1061003c | पपाताङ्के मुने राम वाक्यं चेदमुवाच ह |
3163 | 1061004a | न मेऽस्ति माता न पिता ज्ञातयो बान्धवाः कुतः |
3164 | 1061004c | त्रातुमर्हसि मां सौम्य धर्मेण मुनिपुंगव |
3165 | 1061005a | त्राता त्वं हि मुनिश्रेष्ठ सर्वेषां त्वं हि भावनः |
3166 | 1061005c | राजा च कृतकार्यः स्यादहं दीर्घायुरव्ययः |
3167 | 1061006a | स्वर्गलोकमुपाश्नीयां तपस्तप्त्वा ह्यनुत्तमम् |
3168 | 1061006c | स मे नाथो ह्यनाथस्य भव भव्येन चेतसा |
3169 | 1061006e | पितेव पुत्रं धर्मात्मंस्त्रातुमर्हसि किल्बिषात् |
3170 | 1061007a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रो महातपाः |
3171 | 1061007c | सान्त्वयित्वा बहुविधं पुत्रानिदमुवाच ह |
3172 | 1061008a | यत्कृते पितरः पुत्राञ्जनयन्ति शुभार्थिनः |
3173 | 1061008c | परलोकहितार्थाय तस्य कालोऽयमागतः |
3174 | 1061009a | अयं मुनिसुतो बालो मत्तः शरणमिच्छति |
3175 | 1061009c | अस्य जीवितमात्रेण प्रियं कुरुत पुत्रकाः |
3176 | 1061010a | सर्वे सुकृतकर्माणः सर्वे धर्मपरायणाः |
3177 | 1061010c | पशुभूता नरेन्द्रस्य तृप्तिमग्नेः प्रयच्छत |
3178 | 1061011a | नाथवांश्च शुनःशेपो यज्ञश्चाविघ्नतो भवेत् |
3179 | 1061011c | देवतास्तर्पिताश्च स्युर्मम चापि कृतं वचः |
3180 | 1061012a | मुनेस्तु वचनं श्रुत्वा मधुष्यन्दादयः सुताः |
3181 | 1061012c | साभिमानं नरश्रेष्ठ सलीलमिदमब्रुवन् |
3182 | 1061013a | कथमात्मसुतान्हित्वा त्रायसेऽन्यसुतं विभो |
3183 | 1061013c | अकार्यमिव पश्यामः श्वमांसमिव भोजने |
3184 | 1061014a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा पुत्राणां मुनिपुंगवः |
3185 | 1061014c | क्रोधसंरक्तनयनो व्याहर्तुमुपचक्रमे |
3186 | 1061015a | निःसाध्वसमिदं प्रोक्तं धर्मादपि विगर्हितम् |
3187 | 1061015c | अतिक्रम्य तु मद्वाक्यं दारुणं रोमहर्षणम् |
3188 | 1061016a | श्वमांसभोजिनः सर्वे वासिष्ठा इव जातिषु |
3189 | 1061016c | पूर्णं वर्षसहस्रं तु पृथिव्यामनुवत्स्यथ |
3190 | 1061017a | कृत्वा शापसमायुक्तान्पुत्रान्मुनिवरस्तदा |
3191 | 1061017c | शुनःशेपमुवाचार्तं कृत्वा रक्षां निरामयाम् |
3192 | 1061018a | पवित्रपाशैरासक्तो रक्तमाल्यानुलेपनः |
3193 | 1061018c | वैष्णवं यूपमासाद्य वाग्भिरग्निमुदाहर |
3194 | 1061019a | इमे तु गाथे द्वे दिव्ये गायेथा मुनिपुत्रक |
3195 | 1061019c | अम्बरीषस्य यज्ञेऽस्मिंस्ततः सिद्धिमवाप्स्यसि |
3196 | 1061020a | शुनःशेपो गृहीत्वा ते द्वे गाथे सुसमाहितः |
3197 | 1061020c | त्वरया राजसिंहं तमम्बरीषमुवाच ह |
3198 | 1061021a | राजसिंह महासत्त्व शीघ्रं गच्छावहे सदः |
3199 | 1061021c | निवर्तयस्व राजेन्द्र दीक्षां च समुपाहर |
3200 | 1061022a | तद्वाक्यमृषिपुत्रस्य श्रुत्वा हर्षं समुत्सुकः |
3201 | 1061022c | जगाम नृपतिः शीघ्रं यज्ञवाटमतन्द्रितः |
3202 | 1061023a | सदस्यानुमते राजा पवित्रकृतलक्षणम् |
3203 | 1061023c | पशुं रक्ताम्बरं कृत्वा यूपे तं समबन्धयत् |
3204 | 1061024a | स बद्धो वाग्भिरग्र्याभिरभितुष्टाव वै सुरौ |
3205 | 1061024c | इन्द्रमिन्द्रानुजं चैव यथावन्मुनिपुत्रकः |
3206 | 1061025a | ततः प्रीतः सहस्राक्षो रहस्यस्तुतितर्पितः |
3207 | 1061025c | दीर्घमायुस्तदा प्रादाच्छुनःशेपाय राघव |
3208 | 1061026a | स च राजा नरश्रेष्ठ यज्ञस्य च समाप्तवान् |
3209 | 1061026c | फलं बहुगुणं राम सहस्राक्षप्रसादजम् |
3210 | 1061027a | विश्वामित्रोऽपि धर्मात्मा भूयस्तेपे महातपाः |
3211 | 1061027c | पुष्करेषु नरश्रेष्ठ दशवर्षशतानि च |
3212 | 1062001a | पूर्णे वर्षसहस्रे तु व्रतस्नातं महामुनिम् |
3213 | 1062001c | अभ्यागच्छन्सुराः सर्वे तपःफलचिकीर्षवः |
3214 | 1062002a | अब्रवीत्सुमहातेजा ब्रह्मा सुरुचिरं वचः |
3215 | 1062002c | ऋषिस्त्वमसि भद्रं ते स्वार्जितैः कर्मभिः शुभैः |
3216 | 1062003a | तमेवमुक्त्वा देवेशस्त्रिदिवं पुनरभ्यगात् |
3217 | 1062003c | विश्वामित्रो महातेजा भूयस्तेपे महत्तपः |
3218 | 1062004a | ततः कालेन महता मेनका परमाप्सराः |
3219 | 1062004c | पुष्करेषु नरश्रेष्ठ स्नातुं समुपचक्रमे |
3220 | 1062005a | तां ददर्श महातेजा मेनकां कुशिकात्मजः |
3221 | 1062005c | रूपेणाप्रतिमां तत्र विद्युतं जलदे यथा |
3222 | 1062006a | दृष्ट्वा कन्दर्पवशगो मुनिस्तामिदमब्रवीत् |
3223 | 1062006c | अप्सरः स्वागतं तेऽस्तु वस चेह ममाश्रमे |
3224 | 1062006e | अनुगृह्णीष्व भद्रं ते मदनेन सुमोहितम् |
3225 | 1062007a | इत्युक्ता सा वरारोहा तत्रावासमथाकरोत् |
3226 | 1062007c | तपसो हि महाविघ्नो विश्वामित्रमुपागतः |
3227 | 1062008a | तस्यां वसन्त्यां वर्षाणि पञ्च पञ्च च राघव |
3228 | 1062008c | विश्वामित्राश्रमे सौम्य सुखेन व्यतिचक्रमुः |
3229 | 1062009a | अथ काले गते तस्मिन्विश्वामित्रो महामुनिः |
3230 | 1062009c | सव्रीड इव संवृत्तश्चिन्ताशोकपरायणः |
3231 | 1062010a | बुद्धिर्मुनेः समुत्पन्ना सामर्षा रघुनन्दन |
3232 | 1062010c | सर्वं सुराणां कर्मैतत्तपोऽपहरणं महत् |
3233 | 1062011a | अहोरात्रापदेशेन गताः संवत्सरा दश |
3234 | 1062011c | काममोहाभिभूतस्य विघ्नोऽयं प्रत्युपस्थितः |
3235 | 1062012a | विनिःश्वसन्मुनिवरः पश्चात्तापेन दुःखितः |
3236 | 1062013a | भीतामप्सरसं दृष्ट्वा वेपन्तीं प्राञ्जलिं स्थिताम् |
3237 | 1062013c | मेनकां मधुरैर्वाक्यैर्विसृज्य कुशिकात्मजः |
3238 | 1062013e | उत्तरं पर्वतं राम विश्वामित्रो जगाम ह |
3239 | 1062014a | स कृत्वा नैष्ठिकीं बुद्धिं जेतुकामो महायशाः |
3240 | 1062014c | कौशिकीतीरमासाद्य तपस्तेपे सुदारुणम् |
3241 | 1062015a | तस्य वर्षसहस्रं तु घोरं तप उपासतः |
3242 | 1062015c | उत्तरे पर्वते राम देवतानामभूद्भयम् |
3243 | 1062016a | अमन्त्रयन्समागम्य सर्वे सर्षिगणाः सुराः |
3244 | 1062016c | महर्षिशब्दं लभतां साध्वयं कुशिकात्मजः |
3245 | 1062017a | देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकपितामहः |
3246 | 1062017c | अब्रवीन्मधुरं वाक्यं विश्वामित्रं तपोधनम् |
3247 | 1062018a | महर्षे स्वागतं वत्स तपसोग्रेण तोषितः |
3248 | 1062018c | महत्त्वमृषिमुख्यत्वं ददामि तव कौशिक |
3249 | 1062019a | ब्रह्मणः स वचः श्रुत्वा विश्वामित्रस्तपोधनः |
3250 | 1062019c | प्राञ्जलिः प्रणतो भूत्वा प्रत्युवाच पितामहम् |
3251 | 1062020a | ब्रह्मर्षि शब्दमतुलं स्वार्जितैः कर्मभिः शुभैः |
3252 | 1062020c | यदि मे भगवानाह ततोऽहं विजितेन्द्रियः |
3253 | 1062021a | तमुवाच ततो ब्रह्मा न तावत्त्वं जितेन्द्रियः |
3254 | 1062021c | यतस्व मुनिशार्दूल इत्युक्त्वा त्रिदिवं गतः |
3255 | 1062022a | विप्रस्थितेषु देवेषु विश्वामित्रो महामुनिः |
3256 | 1062022c | ऊर्ध्वबाहुर्निरालम्बो वायुभक्षस्तपश्चरन् |
3257 | 1062023a | धर्मे पञ्चतपा भूत्वा वर्षास्वाकाशसंश्रयः |
3258 | 1062023c | शिशिरे सलिलस्थायी रात्र्यहानि तपोधनः |
3259 | 1062024a | एवं वर्षसहस्रं हि तपो घोरमुपागमत् |
3260 | 1062024c | तस्मिन्संतप्यमाने तु विश्वामित्रे महामुनौ |
3261 | 1062025a | संभ्रमः सुमहानासीत्सुराणां वासवस्य च |
3262 | 1062025c | रम्भामप्सरसं शक्रः सह सर्वैर्मरुद्गणैः |
3263 | 1062026a | उवाचात्महितं वाक्यमहितं कौशिकस्य च |
3264 | 1063001a | सुरकार्यमिदं रम्भे कर्तव्यं सुमहत्त्वया |
3265 | 1063001c | लोभनं कौशिकस्येह काममोहसमन्वितम् |
3266 | 1063002a | तथोक्ता साप्सरा राम सहस्राक्षेण धीमता |
3267 | 1063002c | व्रीडिता प्राञ्जलिर्भूत्वा प्रत्युवाच सुरेश्वरम् |
3268 | 1063003a | अयं सुरपते घोरो विश्वामित्रो महामुनिः |
3269 | 1063003c | क्रोधमुत्स्रक्ष्यते घोरं मयि देव न संशयः |
3270 | 1063003e | ततो हि मे भयं देव प्रसादं कर्तुमर्हसि |
3271 | 1063004a | तामुवाच सहस्राक्षो वेपमानां कृताञ्जलिम् |
3272 | 1063004c | मा भैषि रम्भे भद्रं ते कुरुष्व मम शासनम् |
3273 | 1063005a | कोकिलो हृदयग्राही माधवे रुचिरद्रुमे |
3274 | 1063005c | अहं कन्दर्पसहितः स्थास्यामि तव पार्श्वतः |
3275 | 1063006a | त्वं हि रूपं बहुगुणं कृत्वा परमभास्वरम् |
3276 | 1063006c | तमृषिं कौशिकं रम्भे भेदयस्व तपस्विनम् |
3277 | 1063007a | सा श्रुत्वा वचनं तस्य कृत्वा रूपमनुत्तमम् |
3278 | 1063007c | लोभयामास ललिता विश्वामित्रं शुचिस्मिता |
3279 | 1063008a | कोकिलस्य तु शुश्राव वल्गु व्याहरतः स्वनम् |
3280 | 1063008c | संप्रहृष्टेन मनसा तत एनामुदैक्षत |
3281 | 1063009a | अथ तस्य च शब्देन गीतेनाप्रतिमेन च |
3282 | 1063009c | दर्शनेन च रम्भाया मुनिः संदेहमागतः |
3283 | 1063010a | सहस्राक्षस्य तत्कर्म विज्ञाय मुनिपुंगवः |
3284 | 1063010c | रम्भां क्रोधसमाविष्टः शशाप कुशिकात्मजः |
3285 | 1063011a | यन्मां लोभयसे रम्भे कामक्रोधजयैषिणम् |
3286 | 1063011c | दशवर्षसहस्राणि शैली स्थास्यसि दुर्भगे |
3287 | 1063012a | ब्राह्मणः सुमहातेजास्तपोबलसमन्वितः |
3288 | 1063012c | उद्धरिष्यति रम्भे त्वां मत्क्रोधकलुषीकृताम् |
3289 | 1063013a | एवमुक्त्वा महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः |
3290 | 1063013c | अशक्नुवन्धारयितुं कोपं संतापमागतः |
3291 | 1063014a | तस्य शापेन महता रम्भा शैली तदाभवत् |
3292 | 1063014c | वचः श्रुत्वा च कन्दर्पो महर्षेः स च निर्गतः |
3293 | 1063015a | कोपेन स महातेजास्तपोऽपहरणे कृते |
3294 | 1063015c | इन्द्रियैरजितै राम न लेभे शान्तिमात्मनः |
3295 | 1064001a | अथ हैमवतीं राम दिशं त्यक्त्वा महामुनिः |
3296 | 1064001c | पूर्वां दिशमनुप्राप्य तपस्तेपे सुदारुणम् |
3297 | 1064002a | मौनं वर्षसहस्रस्य कृत्वा व्रतमनुत्तमम् |
3298 | 1064002c | चकाराप्रतिमं राम तपः परमदुष्करम् |
3299 | 1064003a | पूर्णे वर्षसहस्रे तु काष्ठभूतं महामुनिम् |
3300 | 1064003c | विघ्नैर्बहुभिराधूतं क्रोधो नान्तरमाविशत् |
3301 | 1064004a | ततो देवाः सगन्धर्वाः पन्नगासुरराक्षसाः |
3302 | 1064004c | मोहितास्तेजसा तस्य तपसा मन्दरश्मयः |
3303 | 1064004e | कश्मलोपहताः सर्वे पितामहमथाब्रुवन् |
3304 | 1064005a | बहुभिः कारणैर्देव विश्वामित्रो महामुनिः |
3305 | 1064005c | लोभितः क्रोधितश्चैव तपसा चाभिवर्धते |
3306 | 1064006a | न ह्यस्य वृजिनं किंचिद्दृश्यते सूक्ष्ममप्यथ |
3307 | 1064006c | न दीयते यदि त्वस्य मनसा यदभीप्सितम् |
3308 | 1064006e | विनाशयति त्रैलोक्यं तपसा सचराचरम् |
3309 | 1064006g | व्याकुलाश्च दिशः सर्वा न च किंचित्प्रकाशते |
3310 | 1064007a | सागराः क्षुभिताः सर्वे विशीर्यन्ते च पर्वताः |
3311 | 1064007c | प्रकम्पते च पृथिवी वायुर्वाति भृशाकुलः |
3312 | 1064008a | बुद्धिं न कुरुते यावन्नाशे देव महामुनिः |
3313 | 1064008c | तावत्प्रसाद्यो भगवानग्निरूपो महाद्युतिः |
3314 | 1064009a | कालाग्निना यथा पूर्वं त्रैलोक्यं दह्यतेऽखिलम् |
3315 | 1064009c | देवराज्ये चिकीर्षेत दीयतामस्य यन्मतम् |
3316 | 1064010a | ततः सुरगणाः सर्वे पितामहपुरोगमाः |
3317 | 1064010c | विश्वामित्रं महात्मानं वाक्यं मधुरमब्रुवन् |
3318 | 1064011a | ब्रह्मर्षे स्वागतं तेऽस्तु तपसा स्म सुतोषिताः |
3319 | 1064011c | ब्राह्मण्यं तपसोग्रेण प्राप्तवानसि कौशिक |
3320 | 1064012a | दीर्घमायुश्च ते ब्रह्मन्ददामि समरुद्गणः |
3321 | 1064012c | स्वस्ति प्राप्नुहि भद्रं ते गच्छ सौम्य यथासुखम् |
3322 | 1064013a | पितामहवचः श्रुत्वा सर्वेषां च दिवौकसाम् |
3323 | 1064013c | कृत्वा प्रणामं मुदितो व्याजहार महामुनिः |
3324 | 1064014a | ब्राह्मण्यं यदि मे प्राप्तं दीर्घमायुस्तथैव च |
3325 | 1064014c | ओंकारोऽथ वषट्कारो वेदाश्च वरयन्तु माम् |
3326 | 1064015a | क्षत्रवेदविदां श्रेष्ठो ब्रह्मवेदविदामपि |
3327 | 1064015c | ब्रह्मपुत्रो वसिष्ठो मामेवं वदतु देवताः |
3328 | 1064015e | यद्ययं परमः कामः कृतो यान्तु सुरर्षभाः |
3329 | 1064016a | ततः प्रसादितो देवैर्वसिष्ठो जपतां वरः |
3330 | 1064016c | सख्यं चकार ब्रह्मर्षिरेवमस्त्विति चाब्रवीत् |
3331 | 1064017a | ब्रह्मर्षित्वं न संदेहः सर्वं संपत्स्यते तव |
3332 | 1064017c | इत्युक्त्वा देवताश्चापि सर्वा जग्मुर्यथागतम् |
3333 | 1064018a | विश्वामित्रोऽपि धर्मात्मा लब्ध्वा ब्राह्मण्यमुत्तमम् |
3334 | 1064018c | पूजयामास ब्रह्मर्षिं वसिष्ठं जपतां वरम् |
3335 | 1064019a | कृतकामो महीं सर्वां चचार तपसि स्थितः |
3336 | 1064019c | एवं त्वनेन ब्राह्मण्यं प्राप्तं राम महात्मना |
3337 | 1064020a | एष राम मुनिश्रेष्ठ एष विग्रहवांस्तपः |
3338 | 1064020c | एष धर्मः परो नित्यं वीर्यस्यैष परायणम् |
3339 | 1064021a | शतानन्दवचः श्रुत्वा रामलक्ष्मणसंनिधौ |
3340 | 1064021c | जनकः प्राञ्जलिर्वाक्यमुवाच कुशिकात्मजम् |
3341 | 1064022a | धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे मुनिपुंगव |
3342 | 1064022c | यज्ञं काकुत्स्थ सहितः प्राप्तवानसि धार्मिक |
3343 | 1064023a | पावितोऽहं त्वया ब्रह्मन्दर्शनेन महामुने |
3344 | 1064023c | गुणा बहुविधाः प्राप्तास्तव संदर्शनान्मया |
3345 | 1064024a | विस्तरेण च ते ब्रह्मन्कीर्त्यमानं महत्तपः |
3346 | 1064024c | श्रुतं मया महातेजो रामेण च महात्मना |
3347 | 1064025a | सदस्यैः प्राप्य च सदः श्रुतास्ते बहवो गुणाः |
3348 | 1064026a | अप्रमेयं तपस्तुभ्यमप्रमेयं च ते बलम् |
3349 | 1064026c | अप्रमेया गुणाश्चैव नित्यं ते कुशिकात्मज |
3350 | 1064027a | तृप्तिराश्चर्यभूतानां कथानां नास्ति मे विभो |
3351 | 1064027c | कर्मकालो मुनिश्रेष्ठ लम्बते रविमण्डलम् |
3352 | 1064028a | श्वः प्रभाते महातेजो द्रष्टुमर्हसि मां पुनः |
3353 | 1064028c | स्वागतं तपसां श्रेष्ठ मामनुज्ञातुमर्हसि |
3354 | 1064029a | एवमुक्त्वा मुनिश्रेष्ठं वैदेहो मिथिलाधिपः |
3355 | 1064029c | प्रदक्षिणं चकाराशु सोपाध्यायः सबान्धवः |
3356 | 1064030a | विश्वामित्रोऽपि धर्मात्मा सहरामः सलक्ष्मणः |
3357 | 1064030c | स्वं वाटमभिचक्राम पूज्यमानो महर्षिभिः |
3358 | 1065001a | ततः प्रभाते विमले कृतकर्मा नराधिपः |
3359 | 1065001c | विश्वामित्रं महात्मानमाजुहाव सराघवम् |
3360 | 1065002a | तमर्चयित्वा धर्मात्मा शास्त्रदृष्ट्तेन कर्मणा |
3361 | 1065002c | राघवौ च महात्मानौ तदा वाक्यमुवाच ह |
3362 | 1065003a | भगवन्स्वागतं तेऽस्तु किं करोमि तवानघ |
3363 | 1065003c | भवानाज्ञापयतु मामाज्ञाप्यो भवता ह्यहम् |
3364 | 1065004a | एवमुक्तः स धर्मात्मा जनकेन महात्मना |
3365 | 1065004c | प्रत्युवाच मुनिर्वीरं वाक्यं वाक्यविशारदः |
3366 | 1065005a | पुत्रौ दशरथस्येमौ क्षत्रियौ लोकविश्रुतौ |
3367 | 1065005c | द्रष्टुकामौ धनुः श्रेष्ठं यदेतत्त्वयि तिष्ठति |
3368 | 1065006a | एतद्दर्शय भद्रं ते कृतकामौ नृपात्मजौ |
3369 | 1065006c | दर्शनादस्य धनुषो यथेष्टं प्रतियास्यतः |
3370 | 1065007a | एवमुक्तस्तु जनकः प्रत्युवाच महामुनिम् |
3371 | 1065007c | श्रूयतामस्य धनुषो यदर्थमिह तिष्ठति |
3372 | 1065008a | देवरात इति ख्यातो निमेः षष्ठो महीपतिः |
3373 | 1065008c | न्यासोऽयं तस्य भगवन्हस्ते दत्तो महात्मना |
3374 | 1065009a | दक्षयज्ञवधे पूर्वं धनुरायम्य वीर्यवान् |
3375 | 1065009c | रुद्रस्तु त्रिदशान्रोषात्सलीलमिदमब्रवीत् |
3376 | 1065010a | यस्माद्भागार्थिनो भागान्नाकल्पयत मे सुराः |
3377 | 1065010c | वराङ्गानि महार्हाणि धनुषा शातयामि वः |
3378 | 1065011a | ततो विमनसः सर्वे देवा वै मुनिपुंगव |
3379 | 1065011c | प्रसादयन्ति देवेशं तेषां प्रीतोऽभवद्भवः |
3380 | 1065012a | प्रीतियुक्तः स सर्वेषां ददौ तेषां महात्मनाम् |
3381 | 1065013a | तदेतद्देवदेवस्य धनूरत्नं महात्मनः |
3382 | 1065013c | न्यासभूतं तदा न्यस्तमस्माकं पूर्वके विभो |
3383 | 1065014a | अथ मे कृषतः क्षेत्रं लाङ्गलादुत्थिता मम |
3384 | 1065014c | क्षेत्रं शोधयता लब्ध्वा नाम्ना सीतेति विश्रुता |
3385 | 1065015a | भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्धत ममात्मजा |
3386 | 1065015c | वीर्यशुल्केति मे कन्या स्थापितेयमयोनिजा |
3387 | 1065016a | भूतलादुत्थितां तां तु वर्धमानां ममात्मजाम् |
3388 | 1065016c | वरयामासुरागम्य राजानो मुनिपुंगव |
3389 | 1065017a | तेषां वरयतां कन्यां सर्वेषां पृथिवीक्षिताम् |
3390 | 1065017c | वीर्यशुल्केति भगवन्न ददामि सुतामहम् |
3391 | 1065018a | ततः सर्वे नृपतयः समेत्य मुनिपुंगव |
3392 | 1065018c | मिथिलामभ्युपागम्य वीर्यं जिज्ञासवस्तदा |
3393 | 1065019a | तेषां जिज्ञासमानानां वीर्यं धनुरुपाहृतम् |
3394 | 1065019c | न शेकुर्ग्रहणे तस्य धनुषस्तोलनेऽपि वा |
3395 | 1065020a | तेषां वीर्यवतां वीर्यमल्पं ज्ञात्वा महामुने |
3396 | 1065020c | प्रत्याख्याता नृपतयस्तन्निबोध तपोधन |
3397 | 1065021a | ततः परमकोपेन राजानो मुनिपुंगव |
3398 | 1065021c | अरुन्धन्मिथिलां सर्वे वीर्यसंदेहमागताः |
3399 | 1065022a | आत्मानमवधूतं ते विज्ञाय मुनिपुंगव |
3400 | 1065022c | रोषेण महताविष्टाः पीडयन्मिथिलां पुरीम् |
3401 | 1065023a | ततः संवत्सरे पूर्णे क्षयं यातानि सर्वशः |
3402 | 1065023c | साधनानि मुनिरेष्ठ ततोऽहं भृशदुःखितः |
3403 | 1065024a | ततो देवगणान्सर्वांस्तपसाहं प्रसादयम् |
3404 | 1065024c | ददुश्च परमप्रीताश्चतुरङ्गबलं सुराः |
3405 | 1065025a | ततो भग्ना नृपतयो हन्यमाना दिशो ययुः |
3406 | 1065025c | अवीर्या वीर्यसंदिग्धा सामात्याः पापकारिणः |
3407 | 1065026a | तदेतन्मुनिशार्दूल धनुः परमभास्वरम् |
3408 | 1065026c | रामलक्ष्मणयोश्चापि दर्शयिष्यामि सुव्रत |
3409 | 1065027a | यद्यस्य धनुषो रामः कुर्यादारोपणं मुने |
3410 | 1065027c | सुतामयोनिजां सीतां दद्यां दाशरथेरहम् |
3411 | 1066001a | जनकस्य वचः श्रुत्वा विश्वामित्रो महामुनिः |
3412 | 1066001c | धनुर्दर्शय रामाय इति होवाच पार्थिवम् |
3413 | 1066002a | ततः स राजा जनकः सचिवान्व्यादिदेश ह |
3414 | 1066002c | धनुरानीयतां दिव्यं गन्धमाल्यविभूषितम् |
3415 | 1066003a | जनकेन समादिष्ठाः सचिवाः प्राविशन्पुरीम् |
3416 | 1066003c | तद्धनुः पुरतः कृत्वा निर्जग्मुः पार्थिवाज्ञया |
3417 | 1066004a | नृपां शतानि पञ्चाशद्व्यायतानां महात्मनाम् |
3418 | 1066004c | मञ्जूषामष्टचक्रां तां समूहुस्ते कथंचन |
3419 | 1066005a | तामादाय तु मञ्जूषामायतीं यत्र तद्धनुः |
3420 | 1066005c | सुरोपमं ते जनकमूचुर्नृपतिमन्त्रिणः |
3421 | 1066006a | इदं धनुर्वरं राजन्पूजितं सर्वराजभिः |
3422 | 1066006c | मिथिलाधिप राजेन्द्र दर्शनीयं यदीच्छसि |
3423 | 1066007a | तेषां नृपो वचः श्रुत्वा कृताञ्जलिरभाषत |
3424 | 1066007c | विश्वामित्रं महात्मानं तौ चोभौ रामलक्ष्मणौ |
3425 | 1066008a | इदं धनुर्वरं ब्रह्मञ्जनकैरभिपूजितम् |
3426 | 1066008c | राजभिश्च महावीर्यैरशक्यं पूरितुं तदा |
3427 | 1066009a | नैतत्सुरगणाः सर्वे नासुरा न च राक्षसाः |
3428 | 1066009c | गन्धर्वयक्षप्रवराः सकिंनरमहोरगाः |
3429 | 1066010a | क्व गतिर्मानुषाणां च धनुषोऽस्य प्रपूरणे |
3430 | 1066010c | आरोपणे समायोगे वेपने तोलनेऽपि वा |
3431 | 1066011a | तदेतद्धनुषां श्रेष्ठमानीतं मुनिपुंगव |
3432 | 1066011c | दर्शयैतन्महाभाग अनयो राजपुत्रयोः |
3433 | 1066012a | विश्वामित्रस्तु धर्मात्मा श्रुत्वा जनकभाषितम् |
3434 | 1066012c | वत्स राम धनुः पश्य इति राघवमब्रवीत् |
3435 | 1066013a | महर्षेर्वचनाद्रामो यत्र तिष्ठति तद्धनुः |
3436 | 1066013c | मञ्जूषां तामपावृत्य दृष्ट्वा धनुरथाब्रवीत् |
3437 | 1066014a | इदं धनुर्वरं ब्रह्मन्संस्पृशामीह पाणिना |
3438 | 1066014c | यत्नवांश्च भविष्यामि तोलने पूरणेऽपि वा |
3439 | 1066015a | बाढमित्येव तं राजा मुनिश्च समभाषत |
3440 | 1066015c | लीलया स धनुर्मध्ये जग्राह वचनान्मुनेः |
3441 | 1066016a | पश्यतां नृषहस्राणां बहूनां रघुनन्दनः |
3442 | 1066016c | आरोपयत्स धर्मात्मा सलीलमिव तद्धनुः |
3443 | 1066017a | आरोपयित्वा मौर्वीं च पूरयामास वीर्यवान् |
3444 | 1066017c | तद्बभञ्ज धनुर्मध्ये नरश्रेष्ठो महायशाः |
3445 | 1066018a | तस्य शब्दो महानासीन्निर्घातसमनिःस्वनः |
3446 | 1066018c | भूमिकम्पश्च सुमहान्पर्वतस्येव दीर्यतः |
3447 | 1066019a | निपेतुश्च नराः सर्वे तेन शब्देन मोहिताः |
3448 | 1066019c | वर्जयित्वा मुनिवरं राजानं तौ च राघवौ |
3449 | 1066020a | प्रत्याश्वस्ते जने तस्मिन्राजा विगतसाध्वसः |
3450 | 1066020c | उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यं वाक्यज्ञो मुनिपुंगवम् |
3451 | 1066021a | भगवन्दृष्टवीर्यो मे रामो दशरथात्मजः |
3452 | 1066021c | अत्यद्भुतमचिन्त्यं च अतर्कितमिदं मया |
3453 | 1066022a | जनकानां कुले कीर्तिमाहरिष्यति मे सुता |
3454 | 1066022c | सीता भर्तारमासाद्य रामं दशरथात्मजम् |
3455 | 1066023a | मम सत्या प्रतिज्ञा च वीर्यशुल्केति कौशिक |
3456 | 1066023c | सीता प्राणैर्बहुमता देया रामाय मे सुता |
3457 | 1066024a | भवतोऽनुमते ब्रह्मञ्शीघ्रं गच्छन्तु मन्त्रिणः |
3458 | 1066024c | मम कौशिक भद्रं ते अयोध्यां त्वरिता रथैः |
3459 | 1066025a | राजानं प्रश्रितैर्वाक्यैरानयन्तु पुरं मम |
3460 | 1066025c | प्रदानं वीर्यशुल्कायाः कथयन्तु च सर्वशः |
3461 | 1066026a | मुनिगुप्तौ च काकुत्स्थौ कथयन्तु नृपाय वै |
3462 | 1066026c | प्रीयमाणं तु राजानमानयन्तु सुशीघ्रगाः |
3463 | 1066027a | कौशिकश्च तथेत्याह राजा चाभाष्य मन्त्रिणः |
3464 | 1066027c | अयोध्यां प्रेषयामास धर्मात्मा कृतशासनात् |
3465 | 1067001a | जनकेन समादिष्टा दूतास्ते क्लान्तवाहनाः |
3466 | 1067001c | त्रिरात्रमुषित्वा मार्गे तेऽयोध्यां प्राविशन्पुरीम् |
3467 | 1067002a | ते राजवचनाद्दूता राजवेश्मप्रवेशिताः |
3468 | 1067002c | ददृशुर्देवसंकाशं वृद्धं दशरथं नृपम् |
3469 | 1067003a | बद्धाञ्जलिपुटाः सर्वे दूता विगतसाध्वसाः |
3470 | 1067003c | राजानं प्रयता वाक्यमब्रुवन्मधुराक्षरम् |
3471 | 1067004a | मैथिलो जनको राजा साग्निहोत्रपुरस्कृतः |
3472 | 1067004c | कुशलं चाव्ययं चैव सोपाध्यायपुरोहितम् |
3473 | 1067005a | मुहुर्मुहुर्मधुरया स्नेहसंयुक्तया गिरा |
3474 | 1067005c | जनकस्त्वां महाराज पृच्छते सपुरःसरम् |
3475 | 1067006a | पृष्ट्वा कुशलमव्यग्रं वैदेहो मिथिलाधिपः |
3476 | 1067006c | कौशिकानुमते वाक्यं भवन्तमिदमब्रवीत् |
3477 | 1067007a | पूर्वं प्रतिज्ञा विदिता वीर्यशुल्का ममात्मजा |
3478 | 1067007c | राजानश्च कृतामर्षा निर्वीर्या विमुखीकृताः |
3479 | 1067008a | सेयं मम सुता राजन्विश्वामित्र पुरःसरैः |
3480 | 1067008c | यदृच्छयागतैर्वीरैर्निर्जिता तव पुत्रकैः |
3481 | 1067009a | तच्च राजन्धनुर्दिव्यं मध्ये भग्नं महात्मना |
3482 | 1067009c | रामेण हि महाराज महत्यां जनसंसदि |
3483 | 1067010a | अस्मै देया मया सीता वीर्यशुल्का महात्मने |
3484 | 1067010c | प्रतिज्ञां तर्तुमिच्छामि तदनुज्ञातुमर्हसि |
3485 | 1067011a | सोपाध्यायो महाराज पुरोहितपुरस्कृतः |
3486 | 1067011c | शीघ्रमागच्छ भद्रं ते द्रष्टुमर्हसि राघवौ |
3487 | 1067012a | प्रीतिं च मम राजेन्द्र निर्वर्तयितुमर्हसि |
3488 | 1067012c | पुत्रयोरुभयोरेव प्रीतिं त्वमपि लप्स्यसे |
3489 | 1067013a | एवं विदेहाधिपतिर्मधुरं वाक्यमब्रवीत् |
3490 | 1067013c | विश्वामित्राभ्यनुज्ञातः शतानन्दमते स्थितः |
3491 | 1067014a | दूतवाक्यं तु तच्छ्रुत्वा राजा परमहर्षितः |
3492 | 1067014c | वसिष्ठं वामदेवं च मन्त्रिणोऽन्यांश्च सोऽब्रवीत् |
3493 | 1067015a | गुप्तः कुशिकपुत्रेण कौसल्यानन्दवर्धनः |
3494 | 1067015c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा विदेहेषु वसत्यसौ |
3495 | 1067016a | दृष्टवीर्यस्तु काकुत्स्थो जनकेन महात्मना |
3496 | 1067016c | संप्रदानं सुतायास्तु राघवे कर्तुमिच्छति |
3497 | 1067017a | यदि वो रोचते वृत्तं जनकस्य महात्मनः |
3498 | 1067017c | पुरीं गच्छामहे शीघ्रं मा भूत्कालस्य पर्ययः |
3499 | 1067018a | मन्त्रिणो बाढमित्याहुः सह सर्वैर्महर्षिभिः |
3500 | 1067018c | सुप्रीतश्चाब्रवीद्राजा श्वो यात्रेति स मन्त्रिणः |
3501 | 1067019a | मन्त्रिणस्तु नरेन्द्रस्य रात्रिं परमसत्कृताः |
3502 | 1067019c | ऊषुः प्रमुदिताः सर्वे गुणैः सर्वैः समन्विताः |
3503 | 1068001a | ततो रात्र्यां व्यतीतायां सोपाध्यायः सबान्धवः |
3504 | 1068001c | राजा दशरथो हृष्टः सुमन्त्रमिदमब्रवीत् |
3505 | 1068002a | अद्य सर्वे धनाध्यक्षा धनमादाय पुष्कलम् |
3506 | 1068002c | व्रजन्त्वग्रे सुविहिता नानारत्नसमन्विताः |
3507 | 1068003a | चतुरङ्गबलं चापि शीघ्रं निर्यातु सर्वशः |
3508 | 1068003c | ममाज्ञासमकालं च यानयुग्यमनुत्तमम् |
3509 | 1068004a | वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिरथ काश्यपः |
3510 | 1068004c | मार्कण्डेयश्च दीर्घायुरृषिः कात्यायनस्तथा |
3511 | 1068005a | एते द्विजाः प्रयान्त्वग्रे स्यन्दनं योजयस्व मे |
3512 | 1068005c | यथा कालात्ययो न स्याद्दूता हि त्वरयन्ति माम् |
3513 | 1068006a | वचनाच्च नरेन्द्रस्य सा सेना चतुरङ्गिणी |
3514 | 1068006c | राजानमृषिभिः सार्धं व्रजन्तं पृष्ठतोऽन्वगात् |
3515 | 1068007a | गत्वा चतुरहं मार्गं विदेहानभ्युपेयिवान् |
3516 | 1068007c | राजा तु जनकः श्रीमाञ्श्रुत्वा पूजामकल्पयत् |
3517 | 1068008a | ततो राजानमासाद्य वृद्धं दशरथं नृपम् |
3518 | 1068008c | जनको मुदितो राजा हर्षं च परमं ययौ |
3519 | 1068008e | उवाच न नरश्रेष्ठो नरश्रेष्ठं मुदान्वितम् |
3520 | 1068009a | स्वागतं ते महाराज दिष्ट्या प्राप्तोऽसि राघव |
3521 | 1068009c | पुत्रयोरुभयोः प्रीतिं लप्स्यसे वीर्यनिर्जिताम् |
3522 | 1068010a | दिष्ट्या प्राप्तो महातेजा वसिष्ठो भगवानृषिः |
3523 | 1068010c | सह सर्वैर्द्विजश्रेष्ठैर्देवैरिव शतक्रतुः |
3524 | 1068011a | दिष्ट्या मे निर्जिता विघ्ना दिष्ट्या मे पूजितं कुलम् |
3525 | 1068011c | राघवैः सह संबन्धाद्वीर्यश्रेष्ठैर्महात्मभिः |
3526 | 1068012a | श्वः प्रभाते नरेन्द्रेन्द्र निर्वर्तयितुमर्हसि |
3527 | 1068012c | यज्ञस्यान्ते नरश्रेष्ठ विवाहमृषिसंमतम् |
3528 | 1068013a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा ऋषिमध्ये नराधिपः |
3529 | 1068013c | वाक्यं वाक्यविदां श्रेष्ठः प्रत्युवाच महीपतिम् |
3530 | 1068014a | प्रतिग्रहो दातृवशः श्रुतमेतन्मया पुरा |
3531 | 1068014c | यथा वक्ष्यसि धर्मज्ञ तत्करिष्यामहे वयम् |
3532 | 1068015a | तद्धर्मिष्ठं यशस्यं च वचनं सत्यवादिनः |
3533 | 1068015c | श्रुत्वा विदेहाधिपतिः परं विस्मयमागतः |
3534 | 1068016a | ततः सर्वे मुनिगणाः परस्परसमागमे |
3535 | 1068016c | हर्षेण महता युक्तास्तां निशामवसन्सुखम् |
3536 | 1068017a | राजा च राघवौ पुत्रौ निशाम्य परिहर्षितः |
3537 | 1068017c | उवास परमप्रीतो जनकेन सुपूजितः |
3538 | 1068018a | जनकोऽपि महातेजाः क्रिया धर्मेण तत्त्ववित् |
3539 | 1068018c | यज्ञस्य च सुताभ्यां च कृत्वा रात्रिमुवास ह |
3540 | 1069001a | ततः प्रभाते जनकः कृतकर्मा महर्षिभिः |
3541 | 1069001c | उवाच वाक्यं वाक्यज्ञः शतानन्दं पुरोहितम् |
3542 | 1069002a | भ्राता मम महातेजा यवीयानतिधार्मिकः |
3543 | 1069002c | कुशध्वज इति ख्यातः पुरीमध्यवसच्छुभाम् |
3544 | 1069003a | वार्याफलकपर्यन्तां पिबन्निक्षुमतीं नदीम् |
3545 | 1069003c | सांकाश्यां पुण्यसंकाशां विमानमिव पुष्पकम् |
3546 | 1069004a | तमहं द्रष्टुमिच्छामि यज्ञगोप्ता स मे मतः |
3547 | 1069004c | प्रीतिं सोऽपि महातेजा इंमां भोक्ता मया सह |
3548 | 1069005a | शासनात्तु नरेन्द्रस्य प्रययुः शीघ्रवाजिभिः |
3549 | 1069005c | समानेतुं नरव्याघ्रं विष्णुमिन्द्राज्ञया यथा |
3550 | 1069006a | आज्ञया तु नरेन्द्रस्य आजगाम कुशध्वजः |
3551 | 1069007a | स ददर्श महात्मानं जनकं धर्मवत्सलम् |
3552 | 1069007c | सोऽभिवाद्य शतानन्दं राजानं चापि धार्मिकम् |
3553 | 1069008a | राजार्हं परमं दिव्यमासनं चाध्यरोहत |
3554 | 1069008c | उपविष्टावुभौ तौ तु भ्रातरावमितौजसौ |
3555 | 1069009a | प्रेषयामासतुर्वीरौ मन्त्रिश्रेष्ठं सुदामनम् |
3556 | 1069009c | गच्छ मन्त्रिपते शीघ्रमैक्ष्वाकममितप्रभम् |
3557 | 1069009e | आत्मजैः सह दुर्धर्षमानयस्व समन्त्रिणम् |
3558 | 1069010a | औपकार्यां स गत्वा तु रघूणां कुलवर्धनम् |
3559 | 1069010c | ददर्श शिरसा चैनमभिवाद्येदमब्रवीत् |
3560 | 1069011a | अयोध्याधिपते वीर वैदेहो मिथिलाधिपः |
3561 | 1069011c | स त्वां द्रष्टुं व्यवसितः सोपाध्यायपुरोहितम् |
3562 | 1069012a | मन्त्रिश्रेष्ठवचः श्रुत्वा राजा सर्षिगणस्तदा |
3563 | 1069012c | सबन्धुरगमत्तत्र जनको यत्र वर्तते |
3564 | 1069013a | स राजा मन्त्रिसहितः सोपाध्यायः सबान्धवः |
3565 | 1069013c | वाक्यं वाक्यविदां श्रेष्ठो वैदेहमिदमब्रवीत् |
3566 | 1069014a | विदितं ते महाराज इक्ष्वाकुकुलदैवतम् |
3567 | 1069014c | वक्ता सर्वेषु कृत्येषु वसिष्ठो भगवानृषिः |
3568 | 1069015a | विश्वामित्राभ्यनुज्ञातः सह सर्वैर्महर्षिभिः |
3569 | 1069015c | एष वक्ष्यति धर्मात्मा वसिष्ठो मे यथाक्रमम् |
3570 | 1069016a | तूष्णींभूते दशरथे वसिष्ठो भगवानृषिः |
3571 | 1069016c | उवाच वाक्यं वाक्यज्ञो वैदेहं सपुरोहितम् |
3572 | 1069017a | अव्यक्तप्रभवो ब्रह्मा शाश्वतो नित्य अव्ययः |
3573 | 1069017c | तस्मान्मरीचिः संजज्ञे मरीचेः कश्यपः सुतः |
3574 | 1069018a | विवस्वान्कश्यपाज्जज्ञे मनुर्वैवैस्वतः स्मृतः |
3575 | 1069018c | मनुः प्रजापतिः पूर्वमिक्ष्वाकुस्तु मनोः सुतः |
3576 | 1069019a | तमिक्ष्वाकुमयोध्यायां राजानं विद्धि पूर्वकम् |
3577 | 1069019c | इक्ष्वाकोस्तु सुतः श्रीमान्विकुक्षिरुदपद्यत |
3578 | 1069020a | विकुक्षेस्तु महातेजा बाणः पुत्रः प्रतापवान् |
3579 | 1069020c | बाणस्य तु महातेजा अनरण्यः प्रतापवान् |
3580 | 1069021a | अनरण्यात्पृथुर्जज्ञे त्रिशङ्कुस्तु पृथोः सुतः |
3581 | 1069021c | त्रिशङ्कोरभवत्पुत्रो धुन्धुमारो महायशाः |
3582 | 1069022a | धुन्धुमारान्महातेजा युवनाश्वो महारथः |
3583 | 1069022c | युवनाश्वसुतः श्रीमान्मान्धाता पृथिवीपतिः |
3584 | 1069023a | मान्धातुस्तु सुतः श्रीमान्सुसंधिरुदपद्यत |
3585 | 1069023c | सुसंधेरपि पुत्रौ द्वौ ध्रुवसंधिः प्रसेनजित् |
3586 | 1069024a | यशस्वी ध्रुवसंधेस्तु भरतो नाम नामतः |
3587 | 1069024c | भरतात्तु महातेजा असितो नाम जायत |
3588 | 1069025a | सह तेन गरेणैव जातः स सगरोऽभवत् |
3589 | 1069025c | सगरस्यासमञ्जस्तु असमञ्जादथांशुमान् |
3590 | 1069026a | दिलीपोंऽशुमतः पुत्रो दिलीपस्य भगीरथः |
3591 | 1069026c | भगीरथात्ककुत्स्थश्च ककुत्स्थस्य रघुस्तथा |
3592 | 1069027a | रघोस्तु पुत्रस्तेजस्वी प्रवृद्धः पुरुषादकः |
3593 | 1069027c | कल्माषपादो ह्यभवत्तस्माज्जातस्तु शङ्खणः |
3594 | 1069028a | सुदर्शनः शङ्खणस्य अग्निवर्णः सुदर्शनात् |
3595 | 1069028c | शीघ्रगस्त्वग्निवर्णस्य शीघ्रगस्य मरुः सुतः |
3596 | 1069029a | मरोः प्रशुश्रुकस्त्वासीदम्बरीषः प्रशुश्रुकात् |
3597 | 1069029c | अम्बरीषस्य पुत्रोऽभून्नहुषः पृथिवीपतिः |
3598 | 1069030a | नहुषस्य ययातिस्तु नाभागस्तु ययातिजः |
3599 | 1069030c | नाभागस्य भभूवाज अजाद्दशरथोऽभवत् |
3600 | 1069030e | तस्माद्दशरथाज्जातौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
3601 | 1069031a | आदिवंशविशुद्धानां राज्ञां परमधर्मिणाम् |
3602 | 1069031c | इक्ष्वाकुकुलजातानां वीराणां सत्यवादिनाम् |
3603 | 1069032a | रामलक्ष्मणयोरर्थे त्वत्सुते वरये नृप |
3604 | 1069032c | सदृशाभ्यां नरश्रेष्ठ सदृशे दातुमर्हसि |
3605 | 1070001a | एवं ब्रुवाणं जनकः प्रत्युवाच कृताञ्जलिः |
3606 | 1070001c | श्रोतुमर्हसि भद्रं ते कुलं नः कीर्तितं परम् |
3607 | 1070002a | प्रदाने हि मुनिश्रेष्ठ कुलं निरवशेषतः |
3608 | 1070002c | वक्तव्यं कुलजातेन तन्निबोध महामुने |
3609 | 1070003a | राजाभूत्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः स्वेन कर्मणा |
3610 | 1070003c | निमिः परमधर्मात्मा सर्वसत्त्ववतां वरः |
3611 | 1070004a | तस्य पुत्रो मिथिर्नाम जनको मिथि पुत्रकः |
3612 | 1070004c | प्रथमो जनको नाम जनकादप्युदावसुः |
3613 | 1070005a | उदावसोस्तु धर्मात्मा जातो वै नन्दिवर्धनः |
3614 | 1070005c | नन्दिवर्धन पुत्रस्तु सुकेतुर्नाम नामतः |
3615 | 1070006a | सुकेतोरपि धर्मात्मा देवरातो महाबलः |
3616 | 1070006c | देवरातस्य राजर्षेर्बृहद्रथ इति श्रुतः |
3617 | 1070007a | बृहद्रथस्य शूरोऽभून्महावीरः प्रतापवान् |
3618 | 1070007c | महावीरस्य धृतिमान्सुधृतिः सत्यविक्रमः |
3619 | 1070008a | सुधृतेरपि धर्मात्मा धृष्टकेतुः सुधार्मिकः |
3620 | 1070008c | धृष्टकेतोस्तु राजर्षेर्हर्यश्व इति विश्रुतः |
3621 | 1070009a | हर्यश्वस्य मरुः पुत्रो मरोः पुत्रः प्रतीन्धकः |
3622 | 1070009c | प्रतीन्धकस्य धर्मात्मा राजा कीर्तिरथः सुतः |
3623 | 1070010a | पुत्रः कीर्तिरथस्यापि देवमीढ इति स्मृतः |
3624 | 1070010c | देवमीढस्य विबुधो विबुधस्य महीध्रकः |
3625 | 1070011a | महीध्रकसुतो राजा कीर्तिरातो महाबलः |
3626 | 1070011c | कीर्तिरातस्य राजर्षेर्महारोमा व्यजायत |
3627 | 1070012a | महारोंणस्तु धर्मात्मा स्वर्णरोमा व्यजायत |
3628 | 1070012c | स्वर्णरोंणस्तु राजर्षेर्ह्रस्वरोमा व्यजायत |
3629 | 1070013a | तस्य पुत्रद्वयं जज्ञे धर्मज्ञस्य महात्मनः |
3630 | 1070013c | ज्येष्ठोऽहमनुजो भ्राता मम वीरः कुशध्वजः |
3631 | 1070014a | मां तु ज्येष्ठं पिता राज्ये सोऽभिषिच्य नराधिपः |
3632 | 1070014c | कुशध्वजं समावेश्य भारं मयि वनं गतः |
3633 | 1070015a | वृद्धे पितरि स्वर्याते धर्मेण धुरमावहम् |
3634 | 1070015c | भ्रातरं देवसंकाशं स्नेहात्पश्यन्कुशध्वजम् |
3635 | 1070016a | कस्यचित्त्वथ कालस्य सांकाश्यादगमत्पुरात् |
3636 | 1070016c | सुधन्वा वीर्यवान्राजा मिथिलामवरोधकः |
3637 | 1070017a | स च मे प्रेषयामास शैवं धनुरनुत्तमम् |
3638 | 1070017c | सीता कन्या च पद्माक्षी मह्यं वै दीयतामिति |
3639 | 1070018a | तस्याप्रदानाद्ब्रह्मर्षे युद्धमासीन्मया सह |
3640 | 1070018c | स हतोऽभिमुखो राजा सुधन्वा तु मया रणे |
3641 | 1070019a | निहत्य तं मुनिश्रेष्ठ सुधन्वानं नराधिपम् |
3642 | 1070019c | सांकाश्ये भ्रातरं शूरमभ्यषिञ्चं कुशध्वजम् |
3643 | 1070020a | कनीयानेष मे भ्राता अहं ज्येष्ठो महामुने |
3644 | 1070020c | ददामि परमप्रीतो वध्वौ ते मुनिपुंगव |
3645 | 1070021a | सीतां रामाय भद्रं ते ऊर्मिलां लक्ष्मणाय च |
3646 | 1070021c | वीर्यशुल्कां मम सुतां सीतां सुरसुतोपमाम् |
3647 | 1070022a | द्वितीयामूर्मिलां चैव त्रिर्वदामि न संशयः |
3648 | 1070022c | ददामि परमप्रीतो वध्वौ ते रघुनन्दन |
3649 | 1070023a | रामलक्ष्मणयो राजन्गोदानं कारयस्व ह |
3650 | 1070023c | पितृकार्यं च भद्रं ते ततो वैवाहिकं कुरु |
3651 | 1070024a | मघा ह्यद्य महाबाहो तृतीये दिवसे प्रभो |
3652 | 1070024c | फल्गुन्यामुत्तरे राजंस्तस्मिन्वैवाहिकं कुरु |
3653 | 1070024e | रामलक्ष्मणयोरर्थे दानं कार्यं सुखोदयम् |
3654 | 1071001a | तमुक्तवन्तं वैदेहं विश्वामित्रो महामुनिः |
3655 | 1071001c | उवाच वचनं वीरं वसिष्ठसहितो नृपम् |
3656 | 1071002a | अचिन्त्यान्यप्रमेयानि कुलानि नरपुंगव |
3657 | 1071002c | इक्ष्वाकूणां विदेहानां नैषां तुल्योऽस्ति कश्चन |
3658 | 1071003a | सदृशो धर्मसंबन्धः सदृशो रूपसंपदा |
3659 | 1071003c | रामलक्ष्मणयो राजन्सीता चोर्मिलया सह |
3660 | 1071004a | वक्तव्यं न नरश्रेष्ठ श्रूयतां वचनं मम |
3661 | 1071005a | भ्राता यवीयान्धर्मज्ञ एष राजा कुशध्वजः |
3662 | 1071005c | अस्य धर्मात्मनो राजन्रूपेणाप्रतिमं भुवि |
3663 | 1071005e | सुता द्वयं नरश्रेष्ठ पत्न्यर्थं वरयामहे |
3664 | 1071006a | भरतस्य कुमारस्य शत्रुघ्नस्य च धीमतः |
3665 | 1071006c | वरयेम सुते राजंस्तयोरर्थे महात्मनोः |
3666 | 1071007a | पुत्रा दशरथस्येमे रूपयौवनशालिनः |
3667 | 1071007c | लोकपालोपमाः सर्वे देवतुल्यपराक्रमाः |
3668 | 1071008a | उभयोरपि राजेन्द्र संबन्धेनानुबध्यताम् |
3669 | 1071008c | इक्ष्वाकुकुलमव्यग्रं भवतः पुण्यकर्मणः |
3670 | 1071009a | विश्वामित्रवचः श्रुत्वा वसिष्ठस्य मते तदा |
3671 | 1071009c | जनकः प्राञ्जलिर्वाक्यमुवाच मुनिपुंगवौ |
3672 | 1071010a | सदृशं कुलसंबन्धं यदाज्ञापयथः स्वयम् |
3673 | 1071010c | एवं भवतु भद्रं वः कुशध्वजसुते इमे |
3674 | 1071010e | पत्न्यौ भजेतां सहितौ शत्रुघ्नभरतावुभौ |
3675 | 1071011a | एकाह्ना राजपुत्रीणां चतसॄणां महामुने |
3676 | 1071011c | पाणीन्गृह्णन्तु चत्वारो राजपुत्रा महाबलाः |
3677 | 1071012a | उत्तरे दिवसे ब्रह्मन्फल्गुनीभ्यां मनीषिणः |
3678 | 1071012c | वैवाहिकं प्रशंसन्ति भगो यत्र प्रजापतिः |
3679 | 1071013a | एवमुक्त्वा वचः सौम्यं प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः |
3680 | 1071013c | उभौ मुनिवरौ राजा जनको वाक्यमब्रवीत् |
3681 | 1071014a | परो धर्मः कृतो मह्यं शिष्योऽस्मि भवतोः सदा |
3682 | 1071014c | इमान्यासनमुख्यानि आसेतां मुनिपुंगवौ |
3683 | 1071015a | यथा दशरथस्येयं तथायोध्या पुरी मम |
3684 | 1071015c | प्रभुत्वे नासित्संदेहो यथार्हं कर्तुमर्हथः |
3685 | 1071016a | तथा ब्रुवति वैदेहे जनके रघुनन्दनः |
3686 | 1071016c | राजा दशरथो हृष्टः प्रत्युवाच महीपतिम् |
3687 | 1071017a | युवामसंख्येय गुणौ भ्रातरौ मिथिलेश्वरौ |
3688 | 1071017c | ऋषयो राजसंघाश्च भवद्भ्यामभिपूजिताः |
3689 | 1071018a | स्वस्ति प्राप्नुहि भद्रं ते गमिष्यामि स्वमालयम् |
3690 | 1071018c | श्राद्धकर्माणि सर्वाणि विधास्य इति चाब्रवीत् |
3691 | 1071019a | तमापृष्ट्वा नरपतिं राजा दशरथस्तदा |
3692 | 1071019c | मुनीन्द्रौ तौ पुरस्कृत्य जगामाशु महायशाः |
3693 | 1071020a | स गत्वा निलयं राजा श्राद्धं कृत्वा विधानतः |
3694 | 1071020c | प्रभाते काल्यमुत्थाय चक्रे गोदानमुत्तमम् |
3695 | 1071021a | गवां शतसहस्राणि ब्राह्मणेभ्यो नराधिपः |
3696 | 1071021c | एकैकशो ददौ राजा पुत्रानुद्धिश्य धर्मतः |
3697 | 1071022a | सुवर्णशृङ्गाः संपन्नाः सवत्साः कांस्यदोहनाः |
3698 | 1071022c | गवां शतसहस्राणि चत्वारि पुरुषर्षभः |
3699 | 1071023a | वित्तमन्यच्च सुबहु द्विजेभ्यो रघुनन्दनः |
3700 | 1071023c | ददौ गोदानमुद्दिश्य पुत्राणां पुत्रवत्सलः |
3701 | 1071024a | स सुतैः कृतगोदानैर्वृतश्च नृपतिस्तदा |
3702 | 1071024c | लोकपालैरिवाभाति वृतः सौम्यः प्रजापतिः |
3703 | 1072001a | यस्मिंस्तु दिवसे राजा चक्रे गोदानमुत्तमम् |
3704 | 1072001c | तस्मिंस्तु दिवसे शूरो युधाजित्समुपेयिवान् |
3705 | 1072002a | पुत्रः केकयराजस्य साक्षाद्भरतमातुलः |
3706 | 1072002c | दृष्ट्वा पृष्ट्वा च कुशलं राजानमिदमब्रवीत् |
3707 | 1072003a | केकयाधिपती राजा स्नेहात्कुशलमब्रवीत् |
3708 | 1072003c | येषां कुशलकामोऽसि तेषां संप्रत्यनामयम् |
3709 | 1072004a | स्वस्रीयं मम राजेन्द्र द्रष्टुकामो महीपते |
3710 | 1072004c | तदर्थमुपयातोऽहमयोध्यां रघुनन्दन |
3711 | 1072005a | श्रुत्वा त्वहमयोध्यायां विवाहार्थं तवात्मजान् |
3712 | 1072005c | मिथिलामुपयातास्तु त्वया सह महीपते |
3713 | 1072006a | त्वरयाभुपयातोऽहं द्रष्टुकामः स्वसुः सुतम् |
3714 | 1072006c | अथ राजा दशरथः प्रियातिथिमुपस्थिम |
3715 | 1072007a | दृष्ट्वा परमसत्कारैः पूजार्हं समपूजयत् |
3716 | 1072007c | ततस्तामुषितो रात्रिं सह पुत्रैर्महात्मभिः |
3717 | 1072008a | ऋषींस्तदा पुरस्कृत्य यज्ञवाटमुपागमत् |
3718 | 1072008c | युक्ते मुहूर्ते विजये सर्वाभरणभूषितैः |
3719 | 1072008e | भ्रातृभिः सहितो रामः कृतकौतुकमङ्गलः |
3720 | 1072009a | वसिष्ठं पुरतः कृत्वा महर्षीनपरानपि |
3721 | 1072010a | राजा रशरथो राजन्कृतकौतुकमङ्गलैः |
3722 | 1072010c | पुत्रैर्नरवरश्रेष्ठ दातारमभिकाङ्क्षते |
3723 | 1072011a | दातृप्रतिग्रहीतृभ्यां सर्वार्थाः प्रभवन्ति हि |
3724 | 1072011c | स्वधर्मं प्रतिपद्यस्व कृत्वा वैवाह्यमुत्तमम् |
3725 | 1072012a | इत्युक्तः परमोदारो वसिष्ठेन महात्मना |
3726 | 1072012c | प्रत्युवाच महातेजा वाक्यं परमधर्मवित् |
3727 | 1072013a | कः स्थितः प्रतिहारो मे कस्याज्ञा संप्रतीक्ष्यते |
3728 | 1072013c | स्वगृहे को विचारोऽस्ति यथा राज्यमिदं तव |
3729 | 1072014a | कृतकौतुकसर्वस्वा वेदिमूलमुपागताः |
3730 | 1072014c | मम कन्या मुनिश्रेष्ठ दीप्ता वह्नेरिवार्चिषः |
3731 | 1072015a | सज्जोऽहं त्वत्प्रतीक्षोऽस्मि वेद्यामस्यां प्रतिष्हितः |
3732 | 1072015c | अविघ्नं कुरुतां राजा किमर्थं हि विलम्ब्यते |
3733 | 1072016a | तद्वाक्यं जनकेनोक्तं श्रुत्वा दशरथस्तदा |
3734 | 1072016c | प्रवेशयामास सुतान्सर्वानृषिगणानपि |
3735 | 1072017a | अब्रवीज्जनको राजा कौसल्यानन्दवर्धनम् |
3736 | 1072017c | इयं सीता मम सुता सहधर्मचरी तव |
3737 | 1072017e | प्रतीच्छ चैनां भद्रं ते पाणिं गृह्णीष्व पाणिना |
3738 | 1072018a | लक्ष्मणागच्छ भद्रं ते ऊर्मिलामुद्यतां मया |
3739 | 1072018c | प्रतीच्छ पाणिं गृह्णीष्व मा भूत्कालस्य पर्ययः |
3740 | 1072019a | तमेवमुक्त्वा जनको भरतं चाभ्यभाषत |
3741 | 1072019c | गृहाण पाणिं माण्डव्याः पाणिना रघुनन्दन |
3742 | 1072020a | शत्रुघ्नं चापि धर्मात्मा अब्रवीज्जनकेश्वरः |
3743 | 1072020c | श्रुतकीर्त्या महाबाहो पाणिं गृह्णीष्व पाणिना |
3744 | 1072021a | सर्वे भवन्तः संयाश्च सर्वे सुचरितव्रताः |
3745 | 1072021c | पत्नीभिः सन्तु काकुत्स्था मा भूत्कालस्य पर्ययः |
3746 | 1072022a | जनकस्य वचः श्रुत्वा पाणीन्पाणिभिरस्पृशन् |
3747 | 1072022c | चत्वारस्ते चतसृणां वसिष्ठस्य मते स्थिताः |
3748 | 1072023a | अग्निं प्रदक्षिणं कृत्वा वेदिं राजानमेव च |
3749 | 1072023c | ऋषींश्चैव महात्मानः सह भार्या रघूत्तमाः |
3750 | 1072023e | यथोक्तेन तथा चक्रुर्विवाहं विधिपूर्वकम् |
3751 | 1072024a | पुष्पवृष्टिर्महत्यासीदन्तरिक्षात्सुभास्वरा |
3752 | 1072024c | दिव्यदुन्दुभिनिर्घोषैर्गीतवादित्रनिस्वनैः |
3753 | 1072025a | ननृतुश्चाप्सरःसंघा गन्धर्वाश्च जगुः कलम् |
3754 | 1072025c | विवाहे रघुमुख्यानां तदद्भुतमिवाभवत् |
3755 | 1072026a | ईदृशे वर्तमाने तु तूर्योद्घुष्टनिनादिते |
3756 | 1072026c | त्रिरग्निं ते परिक्रम्य ऊहुर्भार्या महौजसः |
3757 | 1072027a | अथोपकार्यां जग्मुस्ते सदारा रघुनन्दनः |
3758 | 1072027c | राजाप्यनुययौ पश्यन्सर्षिसंघः सबान्धवः |
3759 | 1073001a | अथ रात्र्यां व्यतीतायां विश्वामित्रो महामुनिः |
3760 | 1073001c | आपृच्छ्य तौ च राजानौ जगामोत्तरपर्वतम् |
3761 | 1073002a | विश्वामित्रो गते राजा वैदेहं मिथिलाधिपम् |
3762 | 1073002c | आपृच्छ्याथ जगामाशु राजा दशरथः पुरीम् |
3763 | 1073003a | अथ राजा विदेहानां ददौ कन्याधनं बहु |
3764 | 1073003c | गवां शतसहस्राणि बहूनि मिथिलेश्वरः |
3765 | 1073004a | कम्बलानां च मुख्यानां क्षौमकोट्यम्बराणि च |
3766 | 1073004c | हस्त्यश्वरथपादातं दिव्यरूपं स्वलंकृतम् |
3767 | 1073005a | ददौ कन्या पिता तासां दासीदासमनुत्तमम् |
3768 | 1073005c | हिरण्यस्य सुवर्णस्य मुक्तानां विद्रुमस्य च |
3769 | 1073006a | ददौ परमसंहृष्टः कन्याधनमनुत्तमम् |
3770 | 1073006c | दत्त्वा बहुधनं राजा समनुज्ञाप्य पार्थिवम् |
3771 | 1073007a | प्रविवेश स्वनिलयं मिथिलां मिथिलेश्वरः |
3772 | 1073007c | राजाप्ययोध्याधिपतिः सह पुत्रैर्महात्मभिः |
3773 | 1073008a | ऋषीन्सर्वान्पुरस्कृत्य जगाम सबलानुगः |
3774 | 1073008c | गच्छन्तं तु नरव्याघ्रं सर्षिसंघं सराघवम् |
3775 | 1073009a | घोराः स्म पक्षिणो वाचो व्याहरन्ति ततस्ततः |
3776 | 1073009c | भौमाश्चैव मृगाः सर्वे गच्छन्ति स्म प्रदक्षिणम् |
3777 | 1073010a | तान्दृष्ट्वा राजशार्दूलो वसिष्ठं पर्यपृच्छत |
3778 | 1073010c | असौम्याः पक्षिणो घोरा मृगाश्चापि प्रदक्षिणाः |
3779 | 1073010e | किमिदं हृदयोत्कम्पि मनो मम विषीदति |
3780 | 1073011a | राज्ञो दशरथस्यैतच्छ्रुत्वा वाक्यं महानृषिः |
3781 | 1073011c | उवाच मधुरां वाणीं श्रूयतामस्य यत्फलम् |
3782 | 1073012a | उपस्थितं भयं घोरं दिव्यं पक्षिमुखाच्च्युतम् |
3783 | 1073012c | मृगाः प्रशमयन्त्येते संतापस्त्यज्यतामयम् |
3784 | 1073013a | तेषां संवदतां तत्र वायुः प्रादुर्बभूव ह |
3785 | 1073013c | कम्पयन्मेदिनीं सर्वां पातयंश्च द्रुमाञ्शुभान् |
3786 | 1073014a | तमसा संवृतः सूर्यः सर्वा न प्रबभुर्दिशः |
3787 | 1073014c | भस्मना चावृतं सर्वं संमूढमिव तद्बलम् |
3788 | 1073015a | वसिष्ठ ऋषयश्चान्ये राजा च ससुतस्तदा |
3789 | 1073015c | ससंज्ञा इव तत्रासन्सर्वमन्यद्विचेतनम् |
3790 | 1073016a | तस्मिंस्तमसि घोरे तु भस्मच्छन्नेव सा चमूः |
3791 | 1073016c | ददर्श भीमसंकाशं जटामण्डलधारिणम् |
3792 | 1073017a | कैलासमिव दुर्धर्षं कालाग्निमिव दुःसहम् |
3793 | 1073017c | ज्वलन्तमिव तेजोभिर्दुर्निरीक्ष्यं पृथग्जनैः |
3794 | 1073018a | स्कन्धे चासज्य परशुं धनुर्विद्युद्गणोपमम् |
3795 | 1073018c | प्रगृह्य शरमुख्यं च त्रिपुरघ्नं यथा हरम् |
3796 | 1073019a | तं दृष्ट्वा भीमसंकाशं ज्वलन्तमिव पावकम् |
3797 | 1073019c | वसिष्ठप्रमुखा विप्रा जपहोमपरायणाः |
3798 | 1073019e | संगता मुनयः सर्वे संजजल्पुरथो मिथः |
3799 | 1073020a | कच्चित्पितृवधामर्षी क्षत्रं नोत्सादयिष्यति |
3800 | 1073020c | पूर्वं क्षत्रवधं कृत्वा गतमन्युर्गतज्वरः |
3801 | 1073020e | क्षत्रस्योत्सादनं भूयो न खल्वस्य चिकीर्षितम् |
3802 | 1073021a | एवमुक्त्वार्घ्यमादाय भार्गवं भीमदर्शनम् |
3803 | 1073021c | ऋषयो राम रामेति मधुरां वाचमब्रुवन् |
3804 | 1073022a | प्रतिगृह्य तु तां पूजामृषिदत्तां प्रतापवान् |
3805 | 1073022c | रामं दाशरथिं रामो जामदग्न्योऽभ्यभाषत |
3806 | 1074001a | राम दाशरथे वीर वीर्यं ते श्रूयतेऽधुतम् |
3807 | 1074001c | धनुषो भेदनं चैव निखिलेन मया श्रुतम् |
3808 | 1074002a | तदद्भुतमचिन्त्यं च भेदनं धनुषस्त्वया |
3809 | 1074002c | तच्छ्रुत्वाहमनुप्राप्तो धनुर्गृह्यापरं शुभम् |
3810 | 1074003a | तदिदं घोरसंकाशं जामदग्न्यं महद्धनुः |
3811 | 1074003c | पूरयस्व शरेणैव स्वबलं दर्शयस्व च |
3812 | 1074004a | तदहं ते बलं दृष्ट्वा धनुषोऽस्य प्रपूरणे |
3813 | 1074004c | द्वन्द्वयुद्धं प्रदास्यामि वीर्यश्लाघ्यमिदं तव |
3814 | 1074005a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राजा दशरतःस्तदा |
3815 | 1074005c | विषण्णवदनो दीनः प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत् |
3816 | 1074006a | क्षत्ररोषात्प्रशान्तस्त्वं ब्राह्मणस्य महायशाः |
3817 | 1074006c | बालानां मम पुत्राणामभयं दातुमर्हसि |
3818 | 1074007a | भार्गवाणां कुले जातः स्वाध्यायव्रतशालिनाम् |
3819 | 1074007c | सहस्राक्षे प्रतिज्ञाय शस्त्रं निक्षिप्तवानसि |
3820 | 1074008a | स त्वं धर्मपरो भूत्वा काश्यपाय वसुंधराम् |
3821 | 1074008c | दत्त्वा वनमुपागम्य महेन्द्रकृतकेतनः |
3822 | 1074009a | मम सर्वविनाशाय संप्राप्तस्त्वं महामुने |
3823 | 1074009c | न चैकस्मिन्हते रामे सर्वे जीवामहे वयम् |
3824 | 1074010a | ब्रुवत्येवं दशरथे जामदग्न्यः प्रतापवान् |
3825 | 1074010c | अनादृत्यैव तद्वाक्यं राममेवाभ्यभाषत |
3826 | 1074011a | इमे द्वे धनुषी श्रेष्ठे दिव्ये लोकाभिविश्रुते |
3827 | 1074011c | दृढे बलवती मुख्ये सुकृते विश्वकर्मणा |
3828 | 1074012a | अतिसृष्टं सुरैरेकं त्र्यम्बकाय युयुत्सवे |
3829 | 1074012c | त्रिपुरघ्नं नरश्रेष्ठ भग्नं काकुत्स्ह यत्त्वया |
3830 | 1074013a | इदं द्वितीयं दुर्धर्षं विष्णोर्दत्तं सुरोत्तमैः |
3831 | 1074013c | समानसारं काकुत्स्थ रौद्रेण धनुषा त्विदम् |
3832 | 1074014a | तदा तु देवताः सर्वाः पृच्छन्ति स्म पितामहम् |
3833 | 1074014c | शितिकण्ठस्य विष्णोश्च बलाबलनिरीक्षया |
3834 | 1074015a | अभिप्रायं तु विज्ञाय देवतानां पितामहः |
3835 | 1074015c | विरोधं जनयामास तयोः सत्यवतां वरः |
3836 | 1074016a | विरोधे च महद्युद्धमभवद्रोमहर्षणम् |
3837 | 1074016c | शितिकण्ठस्य विष्णोश्च परस्परजयैषिणोः |
3838 | 1074017a | तदा तज्जृम्भितं शैवं धनुर्भीमपराक्रमम् |
3839 | 1074017c | हुंकारेण महादेवः स्तम्भितोऽथ त्रिलोचनः |
3840 | 1074018a | देवैस्तदा समागम्य सर्षिसंघैः सचारणैः |
3841 | 1074018c | याचितौ प्रशमं तत्र जग्मतुस्तौ सुरोत्तमौ |
3842 | 1074019a | जृम्भितं तद्धनुर्दृष्ट्वा शैवं विष्णुपराक्रमैः |
3843 | 1074019c | अधिकं मेनिरे विष्णुं देवाः सर्षिगणास्तदा |
3844 | 1074020a | धनू रुद्रस्तु संक्रुद्धो विदेहेषु महायशाः |
3845 | 1074020c | देवरातस्य राजर्षेर्ददौ हस्ते ससायकम् |
3846 | 1074021a | इदं च विष्णवं राम धनुः परपुरंजयम् |
3847 | 1074021c | ऋचीके भार्गवे प्रादाद्विष्णुः स न्यासमुत्तमम् |
3848 | 1074022a | ऋचीकस्तु महातेजाः पुत्रस्याप्रतिकर्मणः |
3849 | 1074022c | पितुर्मम ददौ दिव्यं जमदग्नेर्महात्मनः |
3850 | 1074023a | न्यस्तशस्त्रे पितरि मे तपोबलसमन्विते |
3851 | 1074023c | अर्जुनो विदधे मृत्युं प्राकृतां बुद्धिमास्थितः |
3852 | 1074024a | वधमप्रतिरूपं तु पितुः श्रुत्वा सुदारुणम् |
3853 | 1074024c | क्षत्रमुत्सादयं रोषाज्जातं जातमनेकशः |
3854 | 1074025a | पृथिवीं चाखिलां प्राप्य काश्यपाय महात्मने |
3855 | 1074025c | यज्ञस्यान्ते तदा राम दक्षिणां पुण्यकर्मणे |
3856 | 1074026a | दत्त्वा महेन्द्रनिलयस्तपोबलसमन्वितः |
3857 | 1074026c | श्रुतवान्धनुषो भेदं ततोऽहं द्रुतमागतः |
3858 | 1074027a | तदिदं वैष्णवं राम पितृपैतामहं महत् |
3859 | 1074027c | क्षत्रधर्मं पुरस्कृत्य गृह्णीष्व धनुरुत्तमम् |
3860 | 1074028a | योजयस्व धनुः श्रेष्ठे शरं परपुरंजयम् |
3861 | 1074028c | यदि शक्नोषि काकुत्स्थ द्वन्द्वं दास्यामि ते ततः |
3862 | 1075001a | श्रुत्वा तज्जामदग्न्यस्य वाक्यं दाशरथिस्तदा |
3863 | 1075001c | गौरवाद्यन्त्रितकथः पितू राममथाब्रवीत् |
3864 | 1075002a | श्रुतवानस्मि यत्कर्म कृतवानसि भार्गव |
3865 | 1075002c | अनुरुन्ध्यामहे ब्रह्मन्पितुरानृण्यमास्थितः |
3866 | 1075003a | वीर्यहीनमिवाशक्तं क्षत्रधर्मेण भार्गव |
3867 | 1075003c | अवजानामि मे तेजः पश्य मेऽद्य पराक्रमम् |
3868 | 1075004a | इत्युक्त्वा राघवः क्रुद्धो भार्गवस्य वरायुधम् |
3869 | 1075004c | शरं च प्रतिसंगृह्य हस्ताल्लघुपराक्रमः |
3870 | 1075005a | आरोप्य स धनू रामः शरं सज्यं चकार ह |
3871 | 1075005c | जामदग्न्यं ततो रामं रामः क्रुद्धोऽब्रवीद्वचः |
3872 | 1075006a | ब्राह्मणोऽसीति पूज्यो मे विश्वामित्रकृतेन च |
3873 | 1075006c | तस्माच्छक्तो न ते राम मोक्तुं प्राणहरं शरम् |
3874 | 1075007a | इमां वा त्वद्गतिं राम तपोबलसमार्जितान् |
3875 | 1075007c | लोकानप्रतिमान्वापि हनिष्यामि यदिच्छसि |
3876 | 1075008a | न ह्ययं वैष्णवो दिव्यः शरः परपुरंजयः |
3877 | 1075008c | मोघः पतति वीर्येण बलदर्पविनाशनः |
3878 | 1075009a | वरायुधधरं राम द्रष्टुं सर्षिगणाः सुराः |
3879 | 1075009c | पितामहं पुरस्कृत्य समेतास्तत्र संघशः |
3880 | 1075010a | गन्धर्वाप्सरसश्चैव सिद्धचारणकिंनराः |
3881 | 1075010c | यक्षराक्षसनागाश्च तद्द्रष्टुं महदद्भुतम् |
3882 | 1075011a | जडीकृते तदा लोके रामे वरधनुर्धरे |
3883 | 1075011c | निर्वीर्यो जामदग्न्योऽसौ रमो राममुदैक्षत |
3884 | 1075012a | तेजोभिर्हतवीर्यत्वाज्जामदग्न्यो जडीकृतः |
3885 | 1075012c | रामं कमल पत्राक्षं मन्दं मन्दमुवाच ह |
3886 | 1075013a | काश्यपाय मया दत्ता यदा पूर्वं वसुंधरा |
3887 | 1075013c | विषये मे न वस्तव्यमिति मां काश्यपोऽब्रवीत् |
3888 | 1075014a | सोऽहं गुरुवचः कुर्वन्पृथिव्यां न वसे निशाम् |
3889 | 1075014c | इति प्रतिज्ञा काकुत्स्थ कृता वै काश्यपस्य ह |
3890 | 1075015a | तदिमां त्वं गतिं वीर हन्तुं नार्हसि राघव |
3891 | 1075015c | मनोजवं गमिष्यामि महेन्द्रं पर्वतोत्तमम् |
3892 | 1075016a | लोकास्त्वप्रतिमा राम निर्जितास्तपसा मया |
3893 | 1075016c | जहि ताञ्शरमुख्येन मा भूत्कालस्य पर्ययः |
3894 | 1075017a | अक्षय्यं मधुहन्तारं जानामि त्वां सुरेश्वरम् |
3895 | 1075017c | धनुषोऽस्य परामर्शात्स्वस्ति तेऽस्तु परंतप |
3896 | 1075018a | एते सुरगणाः सर्वे निरीक्षन्ते समागताः |
3897 | 1075018c | त्वामप्रतिमकर्माणमप्रतिद्वन्द्वमाहवे |
3898 | 1075019a | न चेयं मम काकुत्स्थ व्रीडा भवितुमर्हति |
3899 | 1075019c | त्वया त्रैलोक्यनाथेन यदहं विमुखीकृतः |
3900 | 1075020a | शरमप्रतिमं राम मोक्तुमर्हसि सुव्रत |
3901 | 1075020c | शरमोक्षे गमिष्यामि महेन्द्रं पर्वतोत्तमम् |
3902 | 1075021a | तथा ब्रुवति रामे तु जामदग्न्ये प्रतापवान् |
3903 | 1075021c | रामो दाशरथिः श्रीमांश्चिक्षेप शरमुत्तमम् |
3904 | 1075022a | ततो वितिमिराः सर्वा दिशा चोपदिशस्तथा |
3905 | 1075022c | सुराः सर्षिगणा रामं प्रशशंसुरुदायुधम् |
3906 | 1075023a | रामं दाशरथिं रामो जामदग्न्यः प्रशस्य च |
3907 | 1075023c | ततः प्रदक्षिणीकृत्य जगामात्मगतिं प्रभुः |
3908 | 1076001a | गते रामे प्रशान्तात्मा रामो दाशरथिर्धनुः |
3909 | 1076001c | वरुणायाप्रमेयाय ददौ हस्ते ससायकम् |
3910 | 1076002a | अभिवाद्य ततो रामो वसिष्ठ प्रमुखानृषीन् |
3911 | 1076002c | पितरं विह्वलं दृष्ट्वा प्रोवाच रघुनन्दनः |
3912 | 1076003a | जामदग्न्यो गतो रामः प्रयातु चतुरङ्गिणी |
3913 | 1076003c | अयोध्याभिमुखी सेना त्वया नाथेन पालिता |
3914 | 1076004a | रामस्य वचनं श्रुत्वा राजा दशरथः सुतम् |
3915 | 1076004c | बाहुभ्यां संपरिष्वज्य मूर्ध्नि चाघ्राय राघवम् |
3916 | 1076005a | गतो राम इति श्रुत्वा हृष्टः प्रमुदितो नृपः |
3917 | 1076005c | चोदयामास तां सेनां जगामाशु ततः पुरीम् |
3918 | 1076006a | पताकाध्वजिनीं रम्यां तूर्योद्घुष्टनिनादिताम् |
3919 | 1076006c | सिक्तराजपथां रम्यां प्रकीर्णकुसुमोत्कराम् |
3920 | 1076007a | राजप्रवेशसुमुखैः पौरैर्मङ्गलवादिभिः |
3921 | 1076007c | संपूर्णां प्राविशद्राजा जनौघैः समलंकृताम् |
3922 | 1076008a | कौसल्या च सुमित्रा च कैकेयी च सुमध्यमा |
3923 | 1076008c | वधूप्रतिग्रहे युक्ता याश्चान्या राजयोषितः |
3924 | 1076009a | ततः सीतां महाभागामूर्मिलां च यशस्विनीम् |
3925 | 1076009c | कुशध्वजसुते चोभे जगृहुर्नृपपत्नयः |
3926 | 1076010a | मङ्गलालापनैश्चैव शोभिताः क्षौमवाससः |
3927 | 1076010c | देवतायतनान्याशु सर्वास्ताः प्रत्यपूजयन् |
3928 | 1076011a | अभिवाद्याभिवाद्यांश्च सर्वा राजसुतास्तदा |
3929 | 1076011c | रेमिरे मुदिताः सर्वा भर्तृभिः सहिता रहः |
3930 | 1076012a | कृतदाराः कृतास्त्राश्च सधनाः ससुहृज्जनाः |
3931 | 1076012c | शुश्रूषमाणाः पितरं वर्तयन्ति नरर्षभाः |
3932 | 1076013a | तेषामतियशा लोके रामः सत्यपराक्रमः |
3933 | 1076013c | स्वयम्भूरिव भूतानां बभूव गुणवत्तरः |
3934 | 1076014a | रामस्तु सीतया सार्धं विजहार बहूनृतून् |
3935 | 1076014c | मनस्वी तद्गतस्तस्या नित्यं हृदि समर्पितः |
3936 | 1076015a | प्रिया तु सीता रामस्य दाराः पितृकृता इति |
3937 | 1076015c | गुणाद्रूपगुणाच्चापि प्रीतिर्भूयो व्यवर्धत |
3938 | 1076016a | तस्याश्च भर्ता द्विगुणं हृदये परिवर्तते |
3939 | 1076016c | अन्तर्जातमपि व्यक्तमाख्याति हृदयं हृदा |
3940 | 1076017a | तस्य भूयो विशेषेण मैथिली जनकात्मजा |
3941 | 1076017c | देवताभिः समा रूपे सीता श्रीरिव रूपिणी |
3942 | 1076018a | तया स राजर्षिसुतोऽभिरामया; समेयिवानुत्तमराजकन्यया |
3943 | 1076018c | अतीव रामः शुशुभेऽतिकामया; विभुः श्रिया विष्णुरिवामरेश्वरः |
# | Meter | Shloka |
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1 | 1001001a | तपःस्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम् |
2 | 1001001c | नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुंगवम् |
3 | 1001002a | को न्वस्मिन्साम्प्रतं लोके गुणवान्कश्च वीर्यवान् |
4 | 1001002c | धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः |
5 | 1001003a | चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः |
6 | 1001003c | विद्वान्कः कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः |
7 | 1001004a | आत्मवान्को जितक्रोधो मतिमान्कोऽनसूयकः |
8 | 1001004c | कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे |
9 | 1001005a | एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे |
10 | 1001005c | महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातुमेवंविधं नरम् |
11 | 1001006a | श्रुत्वा चैतत्त्रिलोकज्ञो वाल्मीकेर्नारदो वचः |
12 | 1001006c | श्रूयतामिति चामन्त्र्य प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत् |
13 | 1001007a | बहवो दुर्लभाश्चैव ये त्वया कीर्तिता गुणाः |
14 | 1001007c | मुने वक्ष्याम्यहं बुद्ध्वा तैर्युक्तः श्रूयतां नरः |
15 | 1001008a | इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः |
16 | 1001008c | नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान्धृतिमान्वशी |
17 | 1001009a | बुद्धिमान्नीतिमान्वाग्मी श्रीमाञ्शत्रुनिबर्हणः |
18 | 1001009c | विपुलांसो महाबाहुः कम्बुग्रीवो महाहनुः |
19 | 1001010a | महोरस्को महेष्वासो गूढजत्रुररिंदमः |
20 | 1001010c | आजानुबाहुः सुशिराः सुललाटः सुविक्रमः |
21 | 1001011a | समः समविभक्ताङ्गः स्निग्धवर्णः प्रतापवान् |
22 | 1001011c | पीनवक्षा विशालाक्षो लक्ष्मीवाञ्शुभलक्षणः |
23 | 1001012a | धर्मज्ञः सत्यसंधश्च प्रजानां च हिते रतः |
24 | 1001012c | यशस्वी ज्ञानसंपन्नः शुचिर्वश्यः समाधिमान् |
25 | 1001013a | रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता |
26 | 1001013c | वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः |
27 | 1001014a | सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो स्मृतिमान्प्रतिभानवान् |
28 | 1001014c | सर्वलोकप्रियः साधुरदीनात्मा विचक्षणः |
29 | 1001015a | सर्वदाभिगतः सद्भिः समुद्र इव सिन्धुभिः |
30 | 1001015c | आर्यः सर्वसमश्चैव सदैकप्रियदर्शनः |
31 | 1001016a | स च सर्वगुणोपेतः कौसल्यानन्दवर्धनः |
32 | 1001016c | समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव |
33 | 1001017a | विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शनः |
34 | 1001017c | कालाग्निसदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसमः |
35 | 1001018a | धनदेन समस्त्यागे सत्ये धर्म इवापरः |
36 | 1001018c | तमेवंगुणसंपन्नं रामं सत्यपराक्रमम् |
37 | 1001019a | ज्येष्ठं श्रेष्ठगुणैर्युक्तं प्रियं दशरथः सुतम् |
38 | 1001019c | यौवराज्येन संयोक्तुमैच्छत्प्रीत्या महीपतिः |
39 | 1001020a | तस्याभिषेकसंभारान्दृष्ट्वा भार्याथ कैकयी |
40 | 1001020c | पूर्वं दत्तवरा देवी वरमेनमयाचत |
41 | 1001020e | विवासनं च रामस्य भरतस्याभिषेचनम् |
42 | 1001021a | स सत्यवचनाद्राजा धर्मपाशेन संयतः |
43 | 1001021c | विवासयामास सुतं रामं दशरथः प्रियम् |
44 | 1001022a | स जगाम वनं वीरः प्रतिज्ञामनुपालयन् |
45 | 1001022c | पितुर्वचननिर्देशात्कैकेय्याः प्रियकारणात् |
46 | 1001023a | तं व्रजन्तं प्रियो भ्राता लक्ष्मणोऽनुजगाम ह |
47 | 1001023c | स्नेहाद्विनयसंपन्नः सुमित्रानन्दवर्धनः |
48 | 1001024a | सर्वलक्षणसंपन्ना नारीणामुत्तमा वधूः |
49 | 1001024c | सीताप्यनुगता रामं शशिनं रोहिणी यथा |
50 | 1001025a | पौरैरनुगतो दूरं पित्रा दशरथेन च |
51 | 1001025c | शृङ्गवेरपुरे सूतं गङ्गाकूले व्यसर्जयत् |
52 | 1001026a | ते वनेन वनं गत्वा नदीस्तीर्त्वा बहूदकाः |
53 | 1001026c | चित्रकूटमनुप्राप्य भरद्वाजस्य शासनात् |
54 | 1001027a | रम्यमावसथं कृत्वा रममाणा वने त्रयः |
55 | 1001027c | देवगन्धर्वसंकाशास्तत्र ते न्यवसन्सुखम् |
56 | 1001028a | चित्रकूटं गते रामे पुत्रशोकातुरस्तदा |
57 | 1001028c | राजा दशरथः स्वर्गं जगाम विलपन्सुतम् |
58 | 1001029a | मृते तु तस्मिन्भरतो वसिष्ठप्रमुखैर्द्विजैः |
59 | 1001029c | नियुज्यमानो राज्याय नैच्छद्राज्यं महाबलः |
60 | 1001029e | स जगाम वनं वीरो रामपादप्रसादकः |
61 | 1001030a | पादुके चास्य राज्याय न्यासं दत्त्वा पुनः पुनः |
62 | 1001030c | निवर्तयामास ततो भरतं भरताग्रजः |
63 | 1001031a | स काममनवाप्यैव रामपादावुपस्पृशन् |
64 | 1001031c | नन्दिग्रामेऽकरोद्राज्यं रामागमनकाङ्क्षया |
65 | 1001032a | रामस्तु पुनरालक्ष्य नागरस्य जनस्य च |
66 | 1001032c | तत्रागमनमेकाग्रे दण्डकान्प्रविवेश ह |
67 | 1001033a | विराधं राक्षसं हत्वा शरभङ्गं ददर्श ह |
68 | 1001033c | सुतीक्ष्णं चाप्यगस्त्यं च अगस्त्य भ्रातरं तथा |
69 | 1001034a | अगस्त्यवचनाच्चैव जग्राहैन्द्रं शरासनम् |
70 | 1001034c | खड्गं च परमप्रीतस्तूणी चाक्षयसायकौ |
71 | 1001035a | वसतस्तस्य रामस्य वने वनचरैः सह |
72 | 1001035c | ऋषयोऽभ्यागमन्सर्वे वधायासुररक्षसाम् |
73 | 1001036a | तेन तत्रैव वसता जनस्थाननिवासिनी |
74 | 1001036c | विरूपिता शूर्पणखा राक्षसी कामरूपिणी |
75 | 1001037a | ततः शूर्पणखावाक्यादुद्युक्तान्सर्वराक्षसान् |
76 | 1001037c | खरं त्रिशिरसं चैव दूषणं चैव राक्षसं |
77 | 1001038a | निजघान रणे रामस्तेषां चैव पदानुगान् |
78 | 1001038c | रक्षसां निहतान्यासन्सहस्राणि चतुर्दश |
79 | 1001039a | ततो ज्ञातिवधं श्रुत्वा रावणः क्रोधमूर्छितः |
80 | 1001039c | सहायं वरयामास मारीचं नाम राक्षसं |
81 | 1001040a | वार्यमाणः सुबहुशो मारीचेन स रावणः |
82 | 1001040c | न विरोधो बलवता क्षमो रावण तेन ते |
83 | 1001041a | अनादृत्य तु तद्वाक्यं रावणः कालचोदितः |
84 | 1001041c | जगाम सहमारीचस्तस्याश्रमपदं तदा |
85 | 1001042a | तेन मायाविना दूरमपवाह्य नृपात्मजौ |
86 | 1001042c | जहार भार्यां रामस्य गृध्रं हत्वा जटायुषम् |
87 | 1001043a | गृध्रं च निहतं दृष्ट्वा हृतां श्रुत्वा च मैथिलीम् |
88 | 1001043c | राघवः शोकसंतप्तो विललापाकुलेन्द्रियः |
89 | 1001044a | ततस्तेनैव शोकेन गृध्रं दग्ध्वा जटायुषम् |
90 | 1001044c | मार्गमाणो वने सीतां राक्षसं संददर्श ह |
91 | 1001045a | कबन्धं नाम रूपेण विकृतं घोरदर्शनम् |
92 | 1001045c | तं निहत्य महाबाहुर्ददाह स्वर्गतश्च सः |
93 | 1001046a | स चास्य कथयामास शबरीं धर्मचारिणीम् |
94 | 1001046c | श्रमणीं धर्मनिपुणामभिगच्छेति राघव |
95 | 1001046e | सोऽभ्यगच्छन्महातेजाः शबरीं शत्रुसूदनः |
96 | 1001047a | शबर्या पूजितः सम्यग्रामो दशरथात्मजः |
97 | 1001047c | पम्पातीरे हनुमता संगतो वानरेण ह |
98 | 1001048a | हनुमद्वचनाच्चैव सुग्रीवेण समागतः |
99 | 1001048c | सुग्रीवाय च तत्सर्वं शंसद्रामो महाबलः |
100 | 1001049a | ततो वानरराजेन वैरानुकथनं प्रति |
101 | 1001049c | रामायावेदितं सर्वं प्रणयाद्दुःखितेन च |
102 | 1001049e | वालिनश्च बलं तत्र कथयामास वानरः |
103 | 1001050a | प्रतिज्ञातं च रामेण तदा वालिवधं प्रति |
104 | 1001050c | सुग्रीवः शङ्कितश्चासीन्नित्यं वीर्येण राघवे |
105 | 1001051a | राघवः प्रत्ययार्थं तु दुन्दुभेः कायमुत्तमम् |
106 | 1001051c | पादाङ्गुष्ठेन चिक्षेप संपूर्णं दशयोजनम् |
107 | 1001052a | बिभेद च पुनः सालान्सप्तैकेन महेषुणा |
108 | 1001052c | गिरिं रसातलं चैव जनयन्प्रत्ययं तदा |
109 | 1001053a | ततः प्रीतमनास्तेन विश्वस्तः स महाकपिः |
110 | 1001053c | किष्किन्धां रामसहितो जगाम च गुहां तदा |
111 | 1001054a | ततोऽगर्जद्धरिवरः सुग्रीवो हेमपिङ्गलः |
112 | 1001054c | तेन नादेन महता निर्जगाम हरीश्वरः |
113 | 1001055a | ततः सुग्रीववचनाद्धत्वा वालिनमाहवे |
114 | 1001055c | सुग्रीवमेव तद्राज्ये राघवः प्रत्यपादयत् |
115 | 1001056a | स च सर्वान्समानीय वानरान्वानरर्षभः |
116 | 1001056c | दिशः प्रस्थापयामास दिदृक्षुर्जनकात्मजाम् |
117 | 1001057a | ततो गृध्रस्य वचनात्संपातेर्हनुमान्बली |
118 | 1001057c | शतयोजनविस्तीर्णं पुप्लुवे लवणार्णवम् |
119 | 1001058a | तत्र लङ्कां समासाद्य पुरीं रावणपालिताम् |
120 | 1001058c | ददर्श सीतां ध्यायन्तीमशोकवनिकां गताम् |
121 | 1001059a | निवेदयित्वाभिज्ञानं प्रवृत्तिं च निवेद्य च |
122 | 1001059c | समाश्वास्य च वैदेहीं मर्दयामास तोरणम् |
123 | 1001060a | पञ्च सेनाग्रगान्हत्वा सप्त मन्त्रिसुतानपि |
124 | 1001060c | शूरमक्षं च निष्पिष्य ग्रहणं समुपागमत् |
125 | 1001061a | अस्त्रेणोन्मुहमात्मानं ज्ञात्वा पैतामहाद्वरात् |
126 | 1001061c | मर्षयन्राक्षसान्वीरो यन्त्रिणस्तान्यदृच्छया |
127 | 1001062a | ततो दग्ध्वा पुरीं लङ्कामृते सीतां च मैथिलीम् |
128 | 1001062c | रामाय प्रियमाख्यातुं पुनरायान्महाकपिः |
129 | 1001063a | सोऽभिगम्य महात्मानं कृत्वा रामं प्रदक्षिणम् |
130 | 1001063c | न्यवेदयदमेयात्मा दृष्टा सीतेति तत्त्वतः |
131 | 1001064a | ततः सुग्रीवसहितो गत्वा तीरं महोदधेः |
132 | 1001064c | समुद्रं क्षोभयामास शरैरादित्यसंनिभैः |
133 | 1001065a | दर्शयामास चात्मानं समुद्रः सरितां पतिः |
134 | 1001065c | समुद्रवचनाच्चैव नलं सेतुमकारयत् |
135 | 1001066a | तेन गत्वा पुरीं लङ्कां हत्वा रावणमाहवे |
136 | 1001066c | अभ्यषिञ्चत्स लङ्कायां राक्षसेन्द्रं विभीषणम् |
137 | 1001067a | कर्मणा तेन महता त्रैलोक्यं सचराचरम् |
138 | 1001067c | सदेवर्षिगणं तुष्टं राघवस्य महात्मनः |
139 | 1001068a | तथा परमसंतुष्टैः पूजितः सर्वदैवतैः |
140 | 1001068c | कृतकृत्यस्तदा रामो विज्वरः प्रमुमोद ह |
141 | 1001069a | देवताभ्यो वरान्प्राप्य समुत्थाप्य च वानरान् |
142 | 1001069c | पुष्पकं तत्समारुह्य नन्दिग्रामं ययौ तदा |
143 | 1001070a | नन्दिग्रामे जटां हित्वा भ्रातृभिः सहितोऽनघः |
144 | 1001070c | रामः सीतामनुप्राप्य राज्यं पुनरवाप्तवान् |
145 | 1001071a | प्रहृष्टमुदितो लोकस्तुष्टः पुष्टः सुधार्मिकः |
146 | 1001071c | निरायमो अरोगश्च दुर्भिक्षभयवर्जितः |
147 | 1001072a | न पुत्रमरणं केचिद्द्रक्ष्यन्ति पुरुषाः क्वचित् |
148 | 1001072c | नार्यश्चाविधवा नित्यं भविष्यन्ति पतिव्रताः |
149 | 1001073a | न वातजं भयं किंचिन्नाप्सु मज्जन्ति जन्तवः |
150 | 1001073c | न चाग्रिजं भयं किंचिद्यथा कृतयुगे तथा |
151 | 1001074a | अश्वमेधशतैरिष्ट्वा तथा बहुसुवर्णकैः |
152 | 1001074c | गवां कोट्ययुतं दत्त्वा विद्वद्भ्यो विधिपूर्वकम् |
153 | 1001075a | राजवंशाञ्शतगुणान्स्थापयिष्यति राघवः |
154 | 1001075c | चातुर्वर्ण्यं च लोकेऽस्मिन्स्वे स्वे धर्मे नियोक्ष्यति |
155 | 1001076a | दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च |
156 | 1001076c | रामो राज्यमुपासित्वा ब्रह्मलोकं गमिष्यति |
157 | 1001077a | इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्यं वेदैश्च संमितम् |
158 | 1001077c | यः पठेद्रामचरितं सर्वपापैः प्रमुच्यते |
159 | 1001078a | एतदाख्यानमायुष्यं पठन्रामायणं नरः |
160 | 1001078c | सपुत्रपौत्रः सगणः प्रेत्य स्वर्गे महीयते |
161 | 1001079a | पठन्द्विजो वागृषभत्वमीया;त्स्यात्क्षत्रियो भूमिपतित्वमीयात् |
162 | 1001079c | वणिग्जनः पण्यफलत्वमीया;ज्जनश्च शूद्रोऽपि महत्त्वमीयात् |
163 | 1002001a | नारदस्य तु तद्वाक्यं श्रुत्वा वाक्यविशारदः |
164 | 1002001c | पूजयामास धर्मात्मा सहशिष्यो महामुनिः |
165 | 1002002a | यथावत्पूजितस्तेन देवर्षिर्नारदस्तदा |
166 | 1002002c | आपृष्ट्वैवाभ्यनुज्ञातः स जगाम विहायसं |
167 | 1002003a | स मुहूर्तं गते तस्मिन्देवलोकं मुनिस्तदा |
168 | 1002003c | जगाम तमसातीरं जाह्नव्यास्त्वविदूरतः |
169 | 1002004a | स तु तीरं समासाद्य तमसाया महामुनिः |
170 | 1002004c | शिष्यमाह स्थितं पार्श्वे दृष्ट्वा तीर्थमकर्दमम् |
171 | 1002005a | अकर्दममिदं तीर्थं भरद्वाज निशामय |
172 | 1002005c | रमणीयं प्रसन्नाम्बु सन्मनुष्यमनो यथा |
173 | 1002006a | न्यस्यतां कलशस्तात दीयतां वल्कलं मम |
174 | 1002006c | इदमेवावगाहिष्ये तमसातीर्थमुत्तमम् |
175 | 1002007a | एवमुक्तो भरद्वाजो वाल्मीकेन महात्मना |
176 | 1002007c | प्रायच्छत मुनेस्तस्य वल्कलं नियतो गुरोः |
177 | 1002008a | स शिष्यहस्तादादाय वल्कलं नियतेन्द्रियः |
178 | 1002008c | विचचार ह पश्यंस्तत्सर्वतो विपुलं वनम् |
179 | 1002009a | तस्याभ्याशे तु मिथुनं चरन्तमनपायिनम् |
180 | 1002009c | ददर्श भगवांस्तत्र क्रौञ्चयोश्चारुनिःस्वनम् |
181 | 1002010a | तस्मात्तु मिथुनादेकं पुमांसं पापनिश्चयः |
182 | 1002010c | जघान वैरनिलयो निषादस्तस्य पश्यतः |
183 | 1002011a | तं शोणितपरीताङ्गं वेष्टमानं महीतले |
184 | 1002011c | भार्या तु निहतं दृष्ट्वा रुराव करुणां गिरम् |
185 | 1002012a | तथा तु तं द्विजं दृष्ट्वा निषादेन निपातितम् |
186 | 1002012c | ऋषेर्धर्मात्मनस्तस्य कारुण्यं समपद्यत |
187 | 1002013a | ततः करुणवेदित्वादधर्मोऽयमिति द्विजः |
188 | 1002013c | निशाम्य रुदतीं क्रौञ्चीमिदं वचनमब्रवीत् |
189 | 1002014a | मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः |
190 | 1002014c | यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् |
191 | 1002015a | तस्यैवं ब्रुवतश्चिन्ता बभूव हृदि वीक्षतः |
192 | 1002015c | शोकार्तेनास्य शकुनेः किमिदं व्याहृतं मया |
193 | 1002016a | चिन्तयन्स महाप्राज्ञश्चकार मतिमान्मतिम् |
194 | 1002016c | शिष्यं चैवाब्रवीद्वाक्यमिदं स मुनिपुंगवः |
195 | 1002017a | पादबद्धोऽक्षरसमस्तन्त्रीलयसमन्वितः |
196 | 1002017c | शोकार्तस्य प्रवृत्तो मे श्लोको भवतु नान्यथा |
197 | 1002018a | शिष्यस्तु तस्य ब्रुवतो मुनेर्वाक्यमनुत्तमम् |
198 | 1002018c | प्रतिजग्राह संहृष्टस्तस्य तुष्टोऽभवद्गुरुः |
199 | 1002019a | सोऽभिषेकं ततः कृत्वा तीर्थे तस्मिन्यथाविधि |
200 | 1002019c | तमेव चिन्तयन्नर्थमुपावर्तत वै मुनिः |
201 | 1002020a | भरद्वाजस्ततः शिष्यो विनीतः श्रुतवान्गुरोः |
202 | 1002020c | कलशं पूर्णमादाय पृष्ठतोऽनुजगाम ह |
203 | 1002021a | स प्रविश्याश्रमपदं शिष्येण सह धर्मवित् |
204 | 1002021c | उपविष्टः कथाश्चान्याश्चकार ध्यानमास्थितः |
205 | 1002022a | आजगाम ततो ब्रह्मा लोककर्ता स्वयं प्रभुः |
206 | 1002022c | चतुर्मुखो महातेजा द्रष्टुं तं मुनिपुंगवम् |
207 | 1002023a | वाल्मीकिरथ तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय वाग्यतः |
208 | 1002023c | प्राञ्जलिः प्रयतो भूत्वा तस्थौ परमविस्मितः |
209 | 1002024a | पूजयामास तं देवं पाद्यार्घ्यासनवन्दनैः |
210 | 1002024c | प्रणम्य विधिवच्चैनं पृष्ट्वानामयमव्ययम् |
211 | 1002025a | अथोपविश्य भगवानासने परमार्चिते |
212 | 1002025c | वाल्मीकये महर्षये संदिदेशासनं ततः |
213 | 1002026a | उपविष्टे तदा तस्मिन्साक्षाल्लोकपितामहे |
214 | 1002026c | तद्गतेनैव मनसा वाल्मीकिर्ध्यानमास्थितः |
215 | 1002027a | पापात्मना कृतं कष्टं वैरग्रहणबुद्धिना |
216 | 1002027c | यस्तादृशं चारुरवं क्रौञ्चं हन्यादकारणात् |
217 | 1002028a | शोचन्नेव मुहुः क्रौञ्चीमुपश्लोकमिमं पुनः |
218 | 1002028c | जगावन्तर्गतमना भूत्वा शोकपरायणः |
219 | 1002029a | तमुवाच ततो ब्रह्मा प्रहसन्मुनिपुंगवम् |
220 | 1002029c | श्लोक एव त्वया बद्धो नात्र कार्या विचारणा |
221 | 1002030a | मच्छन्दादेव ते ब्रह्मन्प्रवृत्तेयं सरस्वती |
222 | 1002030c | रामस्य चरितं कृत्स्नं कुरु त्वमृषिसत्तम |
223 | 1002031a | धर्मात्मनो गुणवतो लोके रामस्य धीमतः |
224 | 1002031c | वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छ्रुतम् |
225 | 1002032a | रहस्यं च प्रकाशं च यद्वृत्तं तस्य धीमतः |
226 | 1002032c | रामस्य सह सौमित्रे राक्षसानां च सर्वशः |
227 | 1002033a | वैदेह्याश्चैव यद्वृत्तं प्रकाशं यदि वा रहः |
228 | 1002033c | तच्चाप्यविदितं सर्वं विदितं ते भविष्यति |
229 | 1002034a | न ते वागनृता काव्ये काचिदत्र भविष्यति |
230 | 1002034c | कुरु रामकथां पुण्यां श्लोकबद्धां मनोरमाम् |
231 | 1002035a | यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले |
232 | 1002035c | तावद्रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति |
233 | 1002036a | यावद्रामस्य च कथा त्वत्कृता प्रचरिष्यति |
234 | 1002036c | तावदूर्ध्वमधश्च त्वं मल्लोकेषु निवत्स्यसि |
235 | 1002037a | इत्युक्त्वा भगवान्ब्रह्मा तत्रैवान्तरधीयत |
236 | 1002037c | ततः सशिष्यो वाल्मीकिर्मुनिर्विस्मयमाययौ |
237 | 1002038a | तस्य शिष्यास्ततः सर्वे जगुः श्लोकमिमं पुनः |
238 | 1002038c | मुहुर्मुहुः प्रीयमाणाः प्राहुश्च भृशविस्मिताः |
239 | 1002039a | समाक्षरैश्चतुर्भिर्यः पादैर्गीतो महर्षिणा |
240 | 1002039c | सोऽनुव्याहरणाद्भूयः शोकः श्लोकत्वमागतः |
241 | 1002040a | तस्य बुद्धिरियं जाता वाल्मीकेर्भावितात्मनः |
242 | 1002040c | कृत्स्नं रामायणं काव्यमीदृशैः करवाण्यहम् |
243 | 1002041a | उदारवृत्तार्थपदैर्मनोरमै;स्तदास्य रामस्य चकार कीर्तिमान् |
244 | 1002041c | समाक्षरैः श्लोकशतैर्यशस्विनो; यशस्करं काव्यमुदारधीर्मुनिः |
245 | 1003001a | श्रुत्वा वस्तु समग्रं तद्धर्मात्मा धर्मसंहितम् |
246 | 1003001c | व्यक्तमन्वेषते भूयो यद्वृत्तं तस्य धीमतः |
247 | 1003002a | उपस्पृश्योदकं संयन्मुनिः स्थित्वा कृताञ्जलिः |
248 | 1003002c | प्राचीनाग्रेषु दर्भेषु धर्मेणान्वेषते गतिम् |
249 | 1003003a | जन्म रामस्य सुमहद्वीर्यं सर्वानुकूलताम् |
250 | 1003003c | लोकस्य प्रियतां क्षान्तिं सौम्यतां सत्यशीलताम् |
251 | 1003004a | नानाचित्राः कथाश्चान्या विश्वामित्रसहायने |
252 | 1003004c | जानक्याश्च विवाहं च धनुषश्च विभेदनम् |
253 | 1003005a | रामरामविवादं च गुणान्दाशरथेस्तथा |
254 | 1003005c | तथाभिषेकं रामस्य कैकेय्या दुष्टभावताम् |
255 | 1003006a | व्याघातं चाभिषेकस्य रामस्य च विवासनम् |
256 | 1003006c | राज्ञः शोकं विलापं च परलोकस्य चाश्रयम् |
257 | 1003007a | प्रकृतीनां विषादं च प्रकृतीनां विसर्जनम् |
258 | 1003007c | निषादाधिपसंवादं सूतोपावर्तनं तथा |
259 | 1003008a | गङ्गायाश्चाभिसंतारं भरद्वाजस्य दर्शनम् |
260 | 1003008c | भरद्वाजाभ्यनुज्ञानाच्चित्रकूटस्य दर्शनम् |
261 | 1003009a | वास्तुकर्मनिवेशं च भरतागमनं तथा |
262 | 1003009c | प्रसादनं च रामस्य पितुश्च सलिलक्रियाम् |
263 | 1003010a | पादुकाग्र्याभिषेकं च नन्दिग्राम निवासनम् |
264 | 1003010c | दण्डकारण्यगमनं सुतीक्ष्णेन समागमम् |
265 | 1003011a | अनसूयासमस्यां च अङ्गरागस्य चार्पणम् |
266 | 1003011c | शूर्पणख्याश्च संवादं विरूपकरणं तथा |
267 | 1003012a | वधं खरत्रिशिरसोरुत्थानं रावणस्य च |
268 | 1003012c | मारीचस्य वधं चैव वैदेह्या हरणं तथा |
269 | 1003013a | राघवस्य विलापं च गृध्रराजनिबर्हणम् |
270 | 1003013c | कबन्धदर्शनं चैव पम्पायाश्चापि दर्शनम् |
271 | 1003014a | शर्बर्या दर्शनं चैव हनूमद्दर्शनं तथा |
272 | 1003014c | विलापं चैव पम्पायां राघवस्य महात्मनः |
273 | 1003015a | ऋष्यमूकस्य गमनं सुग्रीवेण समागमम् |
274 | 1003015c | प्रत्ययोत्पादनं सख्यं वालिसुग्रीवविग्रहम् |
275 | 1003016a | वालिप्रमथनं चैव सुग्रीवप्रतिपादनम् |
276 | 1003016c | ताराविलापसमयं वर्षरात्रिनिवासनम् |
277 | 1003017a | कोपं राघवसिंहस्य बलानामुपसंग्रहम् |
278 | 1003017c | दिशः प्रस्थापनं चैव पृथिव्याश्च निवेदनम् |
279 | 1003018a | अङ्गुलीयकदानं च ऋक्षस्य बिलदर्शनम् |
280 | 1003018c | प्रायोपवेशनं चैव संपातेश्चापि दर्शनम् |
281 | 1003019a | पर्वतारोहणं चैव सागरस्य च लङ्घनम् |
282 | 1003019c | रात्रौ लङ्काप्रवेशं च एकस्यापि विचिन्तनम् |
283 | 1003020a | आपानभूमिगमनमवरोधस्य दर्शनम् |
284 | 1003020c | अशोकवनिकायानं सीतायाश्चापि दर्शनम् |
285 | 1003021a | अभिज्ञानप्रदानं च सीतायाश्चापि भाषणम् |
286 | 1003021c | राक्षसीतर्जनं चैव त्रिजटास्वप्नदर्शनम् |
287 | 1003022a | मणिप्रदानं सीताया वृक्षभङ्गं तथैव च |
288 | 1003022c | राक्षसीविद्रवं चैव किंकराणां निबर्हणम् |
289 | 1003023a | ग्रहणं वायुसूनोश्च लङ्कादाहाभिगर्जनम् |
290 | 1003023c | प्रतिप्लवनमेवाथ मधूनां हरणं तथा |
291 | 1003024a | राघवाश्वासनं चैव मणिनिर्यातनं तथा |
292 | 1003024c | संगमं च समुद्रस्य नलसेतोश्च बन्धनम् |
293 | 1003025a | प्रतारं च समुद्रस्य रात्रौ लङ्कावरोधनम् |
294 | 1003025c | विभीषणेन संसर्गं वधोपायनिवेदनम् |
295 | 1003026a | कुम्भकर्णस्य निधनं मेघनादनिबर्हणम् |
296 | 1003026c | रावणस्य विनाशं च सीतावाप्तिमरेः पुरे |
297 | 1003027a | बिभीषणाभिषेकं च पुष्पकस्य च दर्शनम् |
298 | 1003027c | अयोध्यायाश्च गमनं भरतेन समागमम् |
299 | 1003028a | रामाभिषेकाभ्युदयं सर्वसैन्यविसर्जनम् |
300 | 1003028c | स्वराष्ट्ररञ्जनं चैव वैदेह्याश्च विसर्जनम् |
301 | 1003029a | अनागतं च यत्किंचिद्रामस्य वसुधातले |
302 | 1003029c | तच्चकारोत्तरे काव्ये वाल्मीकिर्भगवानृषिः |
303 | 1004001a | प्राप्तराज्यस्य रामस्य वाल्मीकिर्भगवानृषिः |
304 | 1004001c | चकार चरितं कृत्स्नं विचित्रपदमात्मवान् |
305 | 1004002a | कृत्वा तु तन्महाप्राज्ञः सभविष्यं सहोत्तरम् |
306 | 1004002c | चिन्तयामास को न्वेतत्प्रयुञ्जीयादिति प्रभुः |
307 | 1004003a | तस्य चिन्तयमानस्य महर्षेर्भावितात्मनः |
308 | 1004003c | अगृह्णीतां ततः पादौ मुनिवेषौ कुशीलवौ |
309 | 1004004a | कुशीलवौ तु धर्मज्ञौ राजपुत्रौ यशस्विनौ |
310 | 1004004c | भ्रातरौ स्वरसंपन्नौ ददर्शाश्रमवासिनौ |
311 | 1004005a | स तु मेधाविनौ दृष्ट्वा वेदेषु परिनिष्ठितौ |
312 | 1004005c | वेदोपबृह्मणार्थाय तावग्राहयत प्रभुः |
313 | 1004006a | काव्यं रामायणं कृत्स्नं सीतायाश्चरितं महत् |
314 | 1004006c | पौलस्त्य वधमित्येव चकार चरितव्रतः |
315 | 1004007a | पाठ्ये गेये च मधुरं प्रमाणैस्त्रिभिरन्वितम् |
316 | 1004007c | जातिभिः सप्तभिर्युक्तं तन्त्रीलयसमन्वितम् |
317 | 1004008a | हास्यशृङ्गारकारुण्यरौद्रवीरभयानकैः |
318 | 1004008c | बीभत्सादिरसैर्युक्तं काव्यमेतदगायताम् |
319 | 1004009a | तौ तु गान्धर्वतत्त्वज्ञौ स्थानमूर्च्छनकोविदौ |
320 | 1004009c | भ्रातरौ स्वरसंपन्नौ गन्धर्वाविव रूपिणौ |
321 | 1004010a | रूपलक्षणसंपन्नौ मधुरस्वरभाषिणौ |
322 | 1004010c | बिम्बादिवोद्धृतौ बिम्बौ रामदेहात्तथापरौ |
323 | 1004011a | तौ राजपुत्रौ कार्त्स्न्येन धर्म्यमाख्यानमुत्तमम् |
324 | 1004011c | वाचो विधेयं तत्सर्वं कृत्वा काव्यमनिन्दितौ |
325 | 1004012a | ऋषीणां च द्विजातीनां साधूनां च समागमे |
326 | 1004012c | यथोपदेशं तत्त्वज्ञौ जगतुस्तौ समाहितौ |
327 | 1004012e | महात्मानौ महाभागौ सर्वलक्षणलक्षितौ |
328 | 1004013a | तौ कदाचित्समेतानामृषीणां भावितात्मनाम् |
329 | 1004013c | आसीनानां समीपस्थाविदं काव्यमगायताम् |
330 | 1004014a | तच्छ्रुत्वा मुनयः सर्वे बाष्पपर्याकुलेक्षणाः |
331 | 1004014c | साधु साध्वित्य्तावूचतुः परं विस्मयमागताः |
332 | 1004015a | ते प्रीतमनसः सर्वे मुनयो धर्मवत्सलाः |
333 | 1004015c | प्रशशंसुः प्रशस्तव्यौ गायमानौ कुशीलवौ |
334 | 1004016a | अहो गीतस्य माधुर्यं श्लोकानां च विशेषतः |
335 | 1004016c | चिरनिर्वृत्तमप्येतत्प्रत्यक्षमिव दर्शितम् |
336 | 1004017a | प्रविश्य तावुभौ सुष्ठु तदा भावमगायताम् |
337 | 1004017c | सहितौ मधुरं रक्तं संपन्नं स्वरसंपदा |
338 | 1004018a | एवं प्रशस्यमानौ तौ तपःश्लाघ्यैर्महर्षिभिः |
339 | 1004018c | संरक्ततरमत्यर्थं मधुरं तावगायताम् |
340 | 1004019a | प्रीतः कश्चिन्मुनिस्ताभ्यां संस्थितः कलशं ददौ |
341 | 1004019c | प्रसन्नो वल्कलं कश्चिद्ददौ ताभ्यां महायशाः |
342 | 1004020a | आश्चर्यमिदमाख्यानं मुनिना संप्रकीर्तितम् |
343 | 1004020c | परं कवीनामाधारं समाप्तं च यथाक्रमम् |
344 | 1004021a | प्रशस्यमानौ सर्वत्र कदाचित्तत्र गायकौ |
345 | 1004021c | रथ्यासु राजमार्गेषु ददर्श भरताग्रजः |
346 | 1004022a | स्ववेश्म चानीय ततो भ्रातरौ सकुशीलवौ |
347 | 1004022c | पूजयामास पूजार्हौ रामः शत्रुनिबर्हणः |
348 | 1004023a | आसीनः काञ्चने दिव्ये स च सिंहासने प्रभुः |
349 | 1004023c | उपोपविष्टैः सचिवैर्भ्रातृभिश्च परंतपः |
350 | 1004024a | दृष्ट्वा तु रूपसंपन्नौ तावुभौ वीणिनौ ततः |
351 | 1004024c | उवाच लक्ष्मणं रामः शत्रुघ्नं भरतं तथा |
352 | 1004025a | श्रूयतामिदमाख्यानमनयोर्देववर्चसोः |
353 | 1004025c | विचित्रार्थपदं सम्यग्गायतोर्मधुरस्वरम् |
354 | 1004026a | इमौ मुनी पार्थिवलक्ष्मणान्वितौ; कुशीलवौ चैव महातपस्विनौ |
355 | 1004026c | ममापि तद्भूतिकरं प्रचक्षते; महानुभावं चरितं निबोधत |
356 | 1004027a | ततस्तु तौ रामवचः प्रचोदिता;वगायतां मार्गविधानसंपदा |
357 | 1004027c | स चापि रामः परिषद्गतः शनै;र्बुभूषयासक्तमना बभूव |
358 | 1005001a | सर्वापूर्वमियं येषामासीत्कृत्स्ना वसुंधरा |
359 | 1005001c | प्रजापतिमुपादाय नृपाणां जयशालिनाम् |
360 | 1005002a | येषां स सगरो नाम सागरो येन खानितः |
361 | 1005002c | षष्टिः पुत्रसहस्राणि यं यान्तं पर्यवारयन् |
362 | 1005003a | इक्ष्वाकूणामिदं तेषां राज्ञां वंशे महात्मनाम् |
363 | 1005003c | महदुत्पन्नमाख्यानं रामायणमिति श्रुतम् |
364 | 1005004a | तदिदं वर्तयिष्यामि सर्वं निखिलमादितः |
365 | 1005004c | धर्मकामार्थसहितं श्रोतव्यमनसूयया |
366 | 1005005a | कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान् |
367 | 1005005c | निविष्टः सरयूतीरे प्रभूतधनधान्यवान् |
368 | 1005006a | अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोकविश्रुता |
369 | 1005006c | मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् |
370 | 1005007a | आयता दश च द्वे च योजनानि महापुरी |
371 | 1005007c | श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहापथा |
372 | 1005008a | राजमार्गेण महता सुविभक्तेन शोभिता |
373 | 1005008c | मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यशः |
374 | 1005009a | तां तु राजा दशरथो महाराष्ट्रविवर्धनः |
375 | 1005009c | पुरीमावासयामास दिवि देवपतिर्यथा |
376 | 1005010a | कपाटतोरणवतीं सुविभक्तान्तरापणाम् |
377 | 1005010c | सर्वयन्त्रायुधवतीमुपेतां सर्वशिल्पिभिः |
378 | 1005011a | सूतमागधसंबाधां श्रीमतीमतुलप्रभाम् |
379 | 1005011c | उच्चाट्टालध्वजवतीं शतघ्नीशतसंकुलाम् |
380 | 1005012a | वधूनाटकसङ्घैश्च संयुक्तां सर्वतः पुरीम् |
381 | 1005012c | उद्यानाम्रवणोपेतां महतीं सालमेखलाम् |
382 | 1005013a | दुर्गगम्भीरपरिघां दुर्गामन्यैर्दुरासदाम् |
383 | 1005013c | वाजिवारणसंपूर्णां गोभिरुष्ट्रैः खरैस्तथा |
384 | 1005014a | सामन्तराजसङ्घैश्च बलिकर्मभिरावृताम् |
385 | 1005014c | नानादेशनिवासैश्च वणिग्भिरुपशोभिताम् |
386 | 1005015a | प्रसादै रत्नविकृतैः पर्वतैरुपशोभिताम् |
387 | 1005015c | कूटागारैश्च संपूर्णामिन्द्रस्येवामरावतीम् |
388 | 1005016a | चित्रामष्टापदाकारां वरनारीगणैर्युताम् |
389 | 1005016c | सर्वरत्नसमाकीर्णां विमानगृहशोभिताम् |
390 | 1005017a | गृहगाढामविच्छिद्रां समभूमौ निवेशिताम् |
391 | 1005017c | शालितण्डुलसंपूर्णामिक्षुकाण्डरसोदकाम् |
392 | 1005018a | दुन्दुभीभिर्मृदङ्गैश्च वीणाभिः पणवैस्तथा |
393 | 1005018c | नादितां भृशमत्यर्थं पृथिव्यां तामनुत्तमाम् |
394 | 1005019a | विमानमिव सिद्धानां तपसाधिगतं दिवि |
395 | 1005019c | सुनिवेशितवेश्मान्तां नरोत्तमसमावृताम् |
396 | 1005020a | ये च बाणैर्न विध्यन्ति विविक्तमपरापरम् |
397 | 1005020c | शब्दवेध्यं च विततं लघुहस्ता विशारदाः |
398 | 1005021a | सिंहव्याघ्रवराहाणां मत्तानां नदतां वने |
399 | 1005021c | हन्तारो निशितैः शस्त्रैर्बलाद्बाहुबलैरपि |
400 | 1005022a | तादृशानां सहस्रैस्तामभिपूर्णां महारथैः |
401 | 1005022c | पुरीमावासयामास राजा दशरथस्तदा |
402 | 1005023a | तामग्निमद्भिर्गुणवद्भिरावृतां; द्विजोत्तमैर्वेदषडङ्गपारगैः |
403 | 1005023c | सहस्रदैः सत्यरतैर्महात्मभि;र्महर्षिकल्पैरृषिभिश्च केवलैः |
404 | 1006001a | पुर्यां तस्यामयोध्यायां वेदवित्सर्वसंग्रहः |
405 | 1006001c | दीर्घदर्शी महातेजाः पौरजानपदप्रियः |
406 | 1006002a | इक्ष्वाकूणामतिरथो यज्वा धर्मरतो वशी |
407 | 1006002c | महर्षिकल्पो राजर्षिस्त्रिषु लोकृषु विश्रुतः |
408 | 1006003a | बलवान्निहतामित्रो मित्रवान्विजितेन्द्रियः |
409 | 1006003c | धनैश्च संचयैश्चान्यैः शक्रवैश्रवणोपमः |
410 | 1006004a | यथा मनुर्महातेजा लोकस्य परिरक्षिता |
411 | 1006004c | तथा दशरथो राजा वसञ्जगदपालयत् |
412 | 1006005a | तेन सत्याभिसंधेन त्रिवर्गमनुतिष्ठता |
413 | 1006005c | पालिता सा पुरी श्रेष्ठेन्द्रेण इवामरावती |
414 | 1006006a | तस्मिन्पुरवरे हृष्टा धर्मात्मना बहुश्रुताः |
415 | 1006006c | नरास्तुष्टाधनैः स्वैः स्वैरलुब्धाः सत्यवादिनः |
416 | 1006007a | नाल्पसंनिचयः कश्चिदासीत्तस्मिन्पुरोत्तमे |
417 | 1006007c | कुटुम्बी यो ह्यसिद्धार्थोऽगवाश्वधनधान्यवान् |
418 | 1006008a | कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित् |
419 | 1006008c | द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नाविद्वान्न च नास्तिकः |
420 | 1006009a | सर्वे नराश्च नार्यश्च धर्मशीलाः सुसंयताः |
421 | 1006009c | मुदिताः शीलवृत्ताभ्यां महर्षय इवामलाः |
422 | 1006010a | नाकुण्डली नामुकुटी नास्रग्वी नाल्पभोगवान् |
423 | 1006010c | नामृष्टो नानुलिप्ताङ्गो नासुगन्धश्च विद्यते |
424 | 1006011a | नामृष्टभोजी नादाता नाप्यनङ्गदनिष्कधृक् |
425 | 1006011c | नाहस्ताभरणो वापि दृश्यते नाप्यनात्मवान् |
426 | 1006012a | नानाहिताग्निर्नायज्वा विप्रो नाप्यसहस्रदः |
427 | 1006012c | कश्चिदासीदयोध्यायां न च निर्वृत्तसंकरः |
428 | 1006013a | स्वकर्मनिरता नित्यं ब्राह्मणा विजितेन्द्रियाः |
429 | 1006013c | दानाध्ययनशीलाश्च संयताश्च प्रतिग्रहे |
430 | 1006014a | न नास्तिको नानृतको न कश्चिदबहुश्रुतः |
431 | 1006014c | नासूयको न चाशक्तो नाविद्वान्विद्यते तदा |
432 | 1006015a | न दीनः क्षिप्तचित्तो वा व्यथितो वापि कश्चन |
433 | 1006015c | कश्चिन्नरो वा नारी वा नाश्रीमान्नाप्यरूपवान् |
434 | 1006015e | द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नापि राजन्यभक्तिमान् |
435 | 1006016a | वर्णेष्वग्र्यचतुर्थेषु देवतातिथिपूजकाः |
436 | 1006016c | दीर्घायुषो नराः सर्वे धर्मं सत्यं च संश्रिताः |
437 | 1006017a | क्षत्रं ब्रह्ममुखं चासीद्वैश्याः क्षत्रमनुव्रताः |
438 | 1006017c | शूद्राः स्वधर्मनिरतास्त्रीन्वर्णानुपचारिणः |
439 | 1006018a | सा तेनेक्ष्वाकुनाथेन पुरी सुपरिरक्षिता |
440 | 1006018c | यथा पुरस्तान्मनुना मानवेन्द्रेण धीमता |
441 | 1006019a | योधानामग्निकल्पानां पेशलानाममर्षिणाम् |
442 | 1006019c | संपूर्णाकृतविद्यानां गुहाकेसरिणामिव |
443 | 1006020a | काम्बोजविषये जातैर्बाह्लीकैश्च हयोत्तमैः |
444 | 1006020c | वनायुजैर्नदीजैश्च पूर्णाहरिहयोपमैः |
445 | 1006021a | विन्ध्यपर्वतजैर्मत्तैः पूर्णा हैमवतैरपि |
446 | 1006021c | मदान्वितैरतिबलैर्मातङ्गैः पर्वतोपमैः |
447 | 1006022a | अञ्जनादपि निष्क्रान्तैर्वामनादपि च द्विपैः |
448 | 1006022c | भद्रमन्द्रैर्भद्रमृगैर्मृगमन्द्रैश्च सा पुरी |
449 | 1006023a | नित्यमत्तैः सदा पूर्णा नागैरचलसंनिभैः |
450 | 1006023c | सा योजने च द्वे भूयः सत्यनामा प्रकाशते |
451 | 1006024a | तां सत्यनामां दृढतोरणार्गला;म्गृहैर्विचित्रैरुपशोभितां शिवाम् |
452 | 1006024c | पुरीमयोध्यां नृसहस्रसंकुलां; शशास वै शक्रसमो महीपतिः |
453 | 1007001a | अष्टौ बभूवुर्वीरस्य तस्यामात्या यशस्विनः |
454 | 1007001c | शुचयश्चानुरक्ताश्च राजकृत्येषु नित्यशः |
455 | 1007002a | धृष्टिर्जयन्तो विजयः सिद्धार्थो अर्थसाधकः |
456 | 1007002c | अशोको मन्त्रपालश्च सुमन्त्रश्चाष्टमोऽभवत् |
457 | 1007003a | ऋत्विजौ द्वावभिमतौ तस्यास्तामृषिसत्तमौ |
458 | 1007003c | वसिष्ठो वामदेवश्च मन्त्रिणश्च तथापरे |
459 | 1007004a | श्रीमन्तश्च महात्मानः शास्त्रज्ञा दृढविक्रमाः |
460 | 1007004c | कीर्तिमन्तः प्रणिहिता यथावचनकारिणः |
461 | 1007005a | तेजःक्षमायशःप्राप्ताः स्मितपूर्वाभिभाषिणः |
462 | 1007005c | क्रोधात्कामार्थहेतोर्वा न ब्रूयुरनृतं वचः |
463 | 1007006a | तेषामविदितं किंचित्स्वेषु नास्ति परेषु वा |
464 | 1007006c | क्रियमाणं कृतं वापि चारेणापि चिकीर्षितम् |
465 | 1007007a | कुशला व्यवहारेषु सौहृदेषु परीक्षिताः |
466 | 1007007c | प्राप्तकालं यथा दण्डं धारयेयुः सुतेष्वपि |
467 | 1007008a | कोशसंग्रहणे युक्ता बलस्य च परिग्रहे |
468 | 1007008c | अहितं चापि पुरुषं न विहिंस्युरदूषकम् |
469 | 1007009a | वीराश्च नियतोत्साहा राजशास्त्रमनुष्ठिताः |
470 | 1007009c | शुचीनां रक्षितारश्च नित्यं विषयवासिनाम् |
471 | 1007010a | ब्रह्मक्षत्रमहिंसन्तस्ते कोशं समपूरयन् |
472 | 1007010c | सुतीक्ष्णदण्डाः संप्रेक्ष्य पुरुषस्य बलाबलम् |
473 | 1007011a | शुचीनामेकबुद्धीनां सर्वेषां संप्रजानताम् |
474 | 1007011c | नासीत्पुरे वा राष्ट्रे वा मृषावादी नरः क्वचित् |
475 | 1007012a | कश्चिन्न दुष्टस्तत्रासीत्परदाररतिर्नरः |
476 | 1007012c | प्रशान्तं सर्वमेवासीद्राष्ट्रं पुरवरं च तत् |
477 | 1007013a | सुवाससः सुवेशाश्च ते च सर्वे सुशीलिनः |
478 | 1007013c | हितार्थं च नरेन्द्रस्य जाग्रतो नयचक्षुषा |
479 | 1007014a | गुरौ गुणगृहीताश्च प्रख्याताश्च पराक्रमैः |
480 | 1007014c | विदेशेष्वपि विज्ञाताः सर्वतो बुद्धिनिश्चयात् |
481 | 1007015a | ईदृशैस्तैरमात्यैस्तु राजा दशरथोऽनघः |
482 | 1007015c | उपपन्नो गुणोपेतैरन्वशासद्वसुंधराम् |
483 | 1007016a | अवेक्षमाणश्चारेण प्रजा धर्मेण रञ्जयन् |
484 | 1007016c | नाध्यगच्छद्विशिष्टं वा तुल्यं वा शत्रुमात्मनः |
485 | 1007017a | तैर्मन्त्रिभिर्मन्त्रहितैर्निविष्टै;र्वृतोऽनुरक्तैः कुशलैः समर्थैः |
486 | 1007017c | स पार्थिवो दीप्तिमवाप युक्त;स्तेजोमयैर्गोभिरिवोदितोऽर्कः |
487 | 1008001a | तस्य त्वेवं प्रभावस्य धर्मज्ञस्य महात्मनः |
488 | 1008001c | सुतार्थं तप्यमानस्य नासीद्वंशकरः सुतः |
489 | 1008002a | चिन्तयानस्य तस्यैवं बुद्धिरासीन्महात्मनः |
490 | 1008002c | सुतार्थं वाजिमेधेन किमर्थं न यजाम्यहम् |
491 | 1008003a | स निश्चितां मतिं कृत्वा यष्टव्यमिति बुद्धिमान् |
492 | 1008003c | मन्त्रिभिः सह धर्मात्मा सर्वैरेव कृतात्मभिः |
493 | 1008004a | ततोऽब्रवीदिदं राजा सुमन्त्रं मन्त्रिसत्तमम् |
494 | 1008004c | शीघ्रमानय मे सर्वान्गुरूंस्तान्सपुरोहितान् |
495 | 1008005a | एतच्छ्रुत्वा रहः सूतो राजानमिदमब्रवीत् |
496 | 1008005c | ऋत्विग्भिरुपदिष्टोऽयं पुरावृत्तो मया श्रुतः |
497 | 1008006a | सनत्कुमारो भगवान्पूर्वं कथितवान्कथाम् |
498 | 1008006c | ऋषीणां संनिधौ राजंस्तव पुत्रागमं प्रति |
499 | 1008007a | काश्यपस्य तु पुत्रोऽस्ति विभाण्डक इति श्रुतः |
500 | 1008007c | ऋष्यशृङ्ग इति ख्यातस्तस्य पुत्रो भविष्यति |
501 | 1008008a | स वने नित्यसंवृद्धो मुनिर्वनचरः सदा |
502 | 1008008c | नान्यं जानाति विप्रेन्द्रो नित्यं पित्रनुवर्तनात् |
503 | 1008009a | द्वैविध्यं ब्रह्मचर्यस्य भविष्यति महात्मनः |
504 | 1008009c | लोकेषु प्रथितं राजन्विप्रैश्च कथितं सदा |
505 | 1008010a | तस्यैवं वर्तमानस्य कालः समभिवर्तत |
506 | 1008010c | अग्निं शुश्रूषमाणस्य पितरं च यशस्विनम् |
507 | 1008011a | एतस्मिन्नेव काले तु रोमपादः प्रतापवान् |
508 | 1008011c | अङ्गेषु प्रथितो राजा भविष्यति महाबलः |
509 | 1008012a | तस्य व्यतिक्रमाद्राज्ञो भविष्यति सुदारुणा |
510 | 1008012c | अनावृष्टिः सुघोरा वै सर्वभूतभयावहा |
511 | 1008013a | अनावृष्ट्यां तु वृत्तायां राजा दुःखसमन्वितः |
512 | 1008013c | ब्राह्मणाञ्श्रुतवृद्धांश्च समानीय प्रवक्ष्यति |
513 | 1008014a | भवन्तः श्रुतधर्माणो लोके चारित्रवेदिनः |
514 | 1008014c | समादिशन्तु नियमं प्रायश्चित्तं यथा भवेत् |
515 | 1008015a | वक्ष्यन्ति ते महीपालं ब्राह्मणा वेदपारगाः |
516 | 1008015c | विभाण्डकसुतं राजन्सर्वोपायैरिहानय |
517 | 1008016a | आनाय्य च महीपाल ऋष्यशृङ्गं सुसत्कृतम् |
518 | 1008016c | प्रयच्छ कन्यां शान्तां वै विधिना सुसमाहितः |
519 | 1008017a | तेषां तु वचनं श्रुत्वा राजा चिन्तां प्रपत्स्यते |
520 | 1008017c | केनोपायेन वै शक्यमिहानेतुं स वीर्यवान् |
521 | 1008018a | ततो राजा विनिश्चित्य सह मन्त्रिभिरात्मवान् |
522 | 1008018c | पुरोहितममात्यांश्च प्रेषयिष्यति सत्कृतान् |
523 | 1008019a | ते तु राज्ञो वचः श्रुत्वा व्यथिता वनताननाः |
524 | 1008019c | न गच्छेम ऋषेर्भीता अनुनेष्यन्ति तं नृपम् |
525 | 1008020a | वक्ष्यन्ति चिन्तयित्वा ते तस्योपायांश्च तान्क्षमान् |
526 | 1008020c | आनेष्यामो वयं विप्रं न च दोषो भविष्यति |
527 | 1008021a | एवमङ्गाधिपेनैव गणिकाभिरृषेः सुतः |
528 | 1008021c | आनीतोऽवर्षयद्देवः शान्ता चास्मै प्रदीयते |
529 | 1008022a | ऋष्यशृङ्गस्तु जामाता पुत्रांस्तव विधास्यति |
530 | 1008022c | सनत्कुमारकथितमेतावद्व्याहृतं मया |
531 | 1008023a | अथ हृष्टो दशरथः सुमन्त्रं प्रत्यभाषत |
532 | 1008023c | यथर्ष्यशृङ्गस्त्वानीतो विस्तरेण त्वयोच्यताम् |
533 | 1009001a | सुमन्त्रश्चोदितो राज्ञा प्रोवाचेदं वचस्तदा |
534 | 1009001c | यथर्ष्यशृङ्गस्त्वानीतः शृणु मे मन्त्रिभिः सह |
535 | 1009002a | रोमपादमुवाचेदं सहामात्यः पुरोहितः |
536 | 1009002c | उपायो निरपायोऽयमस्माभिरभिचिन्तितः |
537 | 1009003a | ऋष्यशृङ्गो वनचरस्तपःस्वाध्यायने रतः |
538 | 1009003c | अनभिज्ञः स नारीणां विषयाणां सुखस्य च |
539 | 1009004a | इन्द्रियार्थैरभिमतैर्नरचित्तप्रमाथिभिः |
540 | 1009004c | पुरमानाययिष्यामः क्षिप्रं चाध्यवसीयताम् |
541 | 1009005a | गणिकास्तत्र गच्छन्तु रूपवत्यः स्वलंकृताः |
542 | 1009005c | प्रलोभ्य विविधोपायैरानेष्यन्तीह सत्कृताः |
543 | 1009006a | श्रुत्वा तथेति राजा च प्रत्युवाच पुरोहितम् |
544 | 1009006c | पुरोहितो मन्त्रिणश्च तथा चक्रुश्च ते तदा |
545 | 1009007a | वारमुख्यास्तु तच्छ्रुत्वा वनं प्रविविशुर्महत् |
546 | 1009007c | आश्रमस्याविदूरेऽस्मिन्यत्नं कुर्वन्ति दर्शने |
547 | 1009008a | ऋषिपुत्रस्य घोरस्य नित्यमाश्रमवासिनः |
548 | 1009008c | पितुः स नित्यसंतुष्टो नातिचक्राम चाश्रमात् |
549 | 1009009a | न तेन जन्मप्रभृति दृष्टपूर्वं तपस्विना |
550 | 1009009c | स्त्री वा पुमान्वा यच्चान्यत्सत्त्वं नगरराष्ट्रजम् |
551 | 1009010a | ततः कदाचित्तं देशमाजगाम यदृच्छया |
552 | 1009010c | विभाण्डकसुतस्तत्र ताश्चापश्यद्वराङ्गनाः |
553 | 1009011a | ताश्चित्रवेषाः प्रमदा गायन्त्यो मधुरस्वरैः |
554 | 1009011c | ऋषिपुत्रमुपागम्य सर्वा वचनमब्रुवन् |
555 | 1009012a | कस्त्वं किं वर्तसे ब्रह्मञ्ज्ञातुमिच्छामहे वयम् |
556 | 1009012c | एकस्त्वं विजने घोरे वने चरसि शंस नः |
557 | 1009013a | अदृष्टरूपास्तास्तेन काम्यरूपा वने स्त्रियः |
558 | 1009013c | हार्दात्तस्य मतिर्जाता आख्यातुं पितरं स्वकम् |
559 | 1009014a | पिता विभाण्डकोऽस्माकं तस्याहं सुत औरसः |
560 | 1009014c | ऋष्यशृङ्ग इति ख्यातं नाम कर्म च मे भुवि |
561 | 1009015a | इहाश्रमपदोऽस्माकं समीपे शुभदर्शनाः |
562 | 1009015c | करिष्ये वोऽत्र पूजां वै सर्वेषां विधिपूर्वकम् |
563 | 1009016a | ऋषिपुत्रवचः श्रुत्वा सर्वासां मतिरास वै |
564 | 1009016c | तदाश्रमपदं द्रष्टुं जग्मुः सर्वाश्च तेन ह |
565 | 1009017a | गतानां तु ततः पूजामृषिपुत्रश्चकार ह |
566 | 1009017c | इदमर्घ्यमिदं पाद्यमिदं मूलं फलं च नः |
567 | 1009018a | प्रतिगृह्य तु तां पूजां सर्वा एव समुत्सुकाः |
568 | 1009018c | ऋषेर्भीताश्च शीघ्रं तु गमनाय मतिं दधुः |
569 | 1009019a | अस्माकमपि मुख्यानि फलानीमानि वै द्विज |
570 | 1009019c | गृहाण प्रति भद्रं ते भक्षयस्व च मा चिरम् |
571 | 1009020a | ततस्तास्तं समालिङ्ग्य सर्वा हर्षसमन्विताः |
572 | 1009020c | मोदकान्प्रददुस्तस्मै भक्ष्यांश्च विविधाञ्शुभान् |
573 | 1009021a | तानि चास्वाद्य तेजस्वी फलानीति स्म मन्यते |
574 | 1009021c | अनास्वादितपूर्वाणि वने नित्यनिवासिनाम् |
575 | 1009022a | आपृच्छ्य च तदा विप्रं व्रतचर्यां निवेद्य च |
576 | 1009022c | गच्छन्ति स्मापदेशात्ता भीतास्तस्य पितुः स्त्रियः |
577 | 1009023a | गतासु तासु सर्वासु काश्यपस्यात्मजो द्विजः |
578 | 1009023c | अस्वस्थहृदयश्चासीद्दुःखं स्म परिवर्तते |
579 | 1009024a | ततोऽपरेद्युस्तं देशमाजगाम स वीर्यवान् |
580 | 1009024c | मनोज्ञा यत्र ता दृष्टा वारमुख्याः स्वलंकृताः |
581 | 1009025a | दृष्ट्वैव च तदा विप्रमायान्तं हृष्टमानसाः |
582 | 1009025c | उपसृत्य ततः सर्वास्तास्तमूचुरिदं वचः |
583 | 1009026a | एह्याश्रमपदं सौम्य अस्माकमिति चाब्रुवन् |
584 | 1009026c | तत्राप्येष विधिः श्रीमान्विशेषेण भविष्यति |
585 | 1009027a | श्रुत्वा तु वचनं तासां सर्वासां हृदयंगमम् |
586 | 1009027c | गमनाय मतिं चक्रे तं च निन्युस्तदा स्त्रियः |
587 | 1009028a | तत्र चानीयमाने तु विप्रे तस्मिन्महात्मनि |
588 | 1009028c | ववर्ष सहसा देवो जगत्प्रह्लादयंस्तदा |
589 | 1009029a | वर्षेणैवागतं विप्रं विषयं स्वं नराधिपः |
590 | 1009029c | प्रत्युद्गम्य मुनिं प्रह्वः शिरसा च महीं गतः |
591 | 1009030a | अर्घ्यं च प्रददौ तस्मै न्यायतः सुसमाहितः |
592 | 1009030c | वव्रे प्रसादं विप्रेन्द्रान्मा विप्रं मन्युराविशेत् |
593 | 1009031a | अन्तःपुरं प्रविश्यास्मै कन्यां दत्त्वा यथाविधि |
594 | 1009031c | शान्तां शान्तेन मनसा राजा हर्षमवाप सः |
595 | 1009032a | एवं स न्यवसत्तत्र सर्वकामैः सुपूजितः |
596 | 1009032c | ऋष्यशृङ्गो महातेजाः शान्तया सह भार्यया |
597 | 1010001a | भूय एव च राजेन्द्र शृणु मे वचनं हितम् |
598 | 1010001c | यथा स देवप्रवरः कथयामास बुद्धिमान् |
599 | 1010002a | इक्ष्वाकूणां कुले जातो भविष्यति सुधार्मिकः |
600 | 1010002c | राजा दशरथो नाम्ना श्रीमान्सत्यप्रतिश्रवः |
601 | 1010003a | अङ्गराजेन सख्यं च तस्य राज्ञो भविष्यति |
602 | 1010003c | कन्या चास्य महाभागा शान्ता नाम भविष्यति |
603 | 1010004a | पुत्रस्त्वङ्गस्य राज्ञस्तु रोमपाद इति श्रुतः |
604 | 1010004c | तं स राजा दशरथो गमिष्यति महायशाः |
605 | 1010005a | अनपत्योऽस्मि धर्मात्मञ्शान्ताभर्ता मम क्रतुम् |
606 | 1010005c | आहरेत त्वयाज्ञप्तः संतानार्थं कुलस्य च |
607 | 1010006a | श्रुत्वा राज्ञोऽथ तद्वाक्यं मनसा स विचिन्त्य च |
608 | 1010006c | प्रदास्यते पुत्रवन्तं शान्ता भर्तारमात्मवान् |
609 | 1010007a | प्रतिगृह्य च तं विप्रं स राजा विगतज्वरः |
610 | 1010007c | आहरिष्यति तं यज्ञं प्रहृष्टेनान्तरात्मना |
611 | 1010008a | तं च राजा दशरथो यष्टुकामः कृताञ्जलिः |
612 | 1010008c | ऋष्यशृङ्गं द्विजश्रेष्ठं वरयिष्यति धर्मवित् |
613 | 1010009a | यज्ञार्थं प्रसवार्थं च स्वर्गार्थं च नरेश्वरः |
614 | 1010009c | लभते च स तं कामं द्विजमुख्याद्विशां पतिः |
615 | 1010010a | पुत्राश्चास्य भविष्यन्ति चत्वारोऽमितविक्रमाः |
616 | 1010010c | वंशप्रतिष्ठानकराः सर्वलोकेषु विश्रुताः |
617 | 1010011a | एवं स देवप्रवरः पूर्वं कथितवान्कथाम् |
618 | 1010011c | सनत्कुमारो भगवान्पुरा देवयुगे प्रभुः |
619 | 1010012a | स त्वं पुरुषशार्दूल तमानय सुसत्कृतम् |
620 | 1010012c | स्वयमेव महाराज गत्वा सबलवाहनः |
621 | 1010013a | अनुमान्य वसिष्ठं च सूतवाक्यं निशम्य च |
622 | 1010013c | सान्तःपुरः सहामात्यः प्रययौ यत्र स द्विजः |
623 | 1010014a | वनानि सरितश्चैव व्यतिक्रम्य शनैः शनैः |
624 | 1010014c | अभिचक्राम तं देशं यत्र वै मुनिपुंगवः |
625 | 1010015a | आसाद्य तं द्विजश्रेष्ठं रोमपादसमीपगम् |
626 | 1010015c | ऋषिपुत्रं ददर्शादौ दीप्यमानमिवानलम् |
627 | 1010016a | ततो राजा यथान्यायं पूजां चक्रे विशेषतः |
628 | 1010016c | सखित्वात्तस्य वै राज्ञः प्रहृष्टेनान्तरात्मना |
629 | 1010017a | रोमपादेन चाख्यातमृषिपुत्राय धीमते |
630 | 1010017c | सख्यं संबन्धकं चैव तदा तं प्रत्यपूजयत् |
631 | 1010018a | एवं सुसत्कृतस्तेन सहोषित्वा नरर्षभः |
632 | 1010018c | सप्ताष्टदिवसान्राजा राजानमिदमब्रवीत् |
633 | 1010019a | शान्ता तव सुता राजन्सह भर्त्रा विशाम्पते |
634 | 1010019c | मदीयं नगरं यातु कार्यं हि महदुद्यतम् |
635 | 1010020a | तथेति राजा संश्रुत्य गमनं तस्य धीमतः |
636 | 1010020c | उवाच वचनं विप्रं गच्छ त्वं सह भार्यया |
637 | 1010021a | ऋषिपुत्रः प्रतिश्रुत्य तथेत्याह नृपं तदा |
638 | 1010021c | स नृपेणाभ्यनुज्ञातः प्रययौ सह भार्यया |
639 | 1010022a | तावन्योन्याञ्जलिं कृत्वा स्नेहात्संश्लिष्य चोरसा |
640 | 1010022c | ननन्दतुर्दशरथो रोमपादश्च वीर्यवान् |
641 | 1010023a | ततः सुहृदमापृच्छ्य प्रस्थितो रघुनन्दनः |
642 | 1010023c | पौरेभ्यः प्रेषयामास दूतान्वै शीघ्रगामिनः |
643 | 1010023e | क्रियतां नगरं सर्वं क्षिप्रमेव स्वलंकृतम् |
644 | 1010024a | ततः प्रहृष्टाः पौरास्ते श्रुत्वा राजानमागतम् |
645 | 1010024c | तथा प्रचक्रुस्तत्सर्वं राज्ञा यत्प्रेषितं तदा |
646 | 1010025a | ततः स्वलंकृतं राजा नगरं प्रविवेश ह |
647 | 1010025c | शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषैः पुरस्कृत्य द्विजर्षभम् |
648 | 1010026a | ततः प्रमुदिताः सर्वे दृष्ट्वा वै नागरा द्विजम् |
649 | 1010026c | प्रवेश्यमानं सत्कृत्य नरेन्द्रेणेन्द्रकर्मणा |
650 | 1010027a | अन्तःपुरं प्रवेश्यैनं पूजां कृत्वा तु शास्त्रतः |
651 | 1010027c | कृतकृत्यं तदात्मानं मेने तस्योपवाहनात् |
652 | 1010028a | अन्तःपुराणि सर्वाणि शान्तां दृष्ट्वा तथागताम् |
653 | 1010028c | सह भर्त्रा विशालाक्षीं प्रीत्यानन्दमुपागमन् |
654 | 1010029a | पूज्यमाना च ताभिः सा राज्ञा चैव विशेषतः |
655 | 1010029c | उवास तत्र सुखिता कंचित्कालं सह द्विजा |
656 | 1011001a | ततः काले बहुतिथे कस्मिंश्चित्सुमनोहरे |
657 | 1011001c | वसन्ते समनुप्राप्ते राज्ञो यष्टुं मनोऽभवत् |
658 | 1011002a | ततः प्रसाद्य शिरसा तं विप्रं देववर्णिनम् |
659 | 1011002c | यज्ञाय वरयामास संतानार्थं कुलस्य च |
660 | 1011003a | तथेति च स राजानमुवाच च सुसत्कृतः |
661 | 1011003c | संभाराः संभ्रियन्तां ते तुरगश्च विमुच्यताम् |
662 | 1011004a | ततो राजाब्रवीद्वाक्यं सुमन्त्रं मन्त्रिसत्तमम् |
663 | 1011004c | सुमन्त्रावाहय क्षिप्रमृत्विजो ब्रह्मवादिनः |
664 | 1011005a | ततः सुमन्त्रस्त्वरितं गत्वा त्वरितविक्रमः |
665 | 1011005c | समानयत्स तान्विप्रान्समस्तान्वेदपारगान् |
666 | 1011006a | सुयज्ञं वामदेवं च जाबालिमथ काश्यपम् |
667 | 1011006c | पुरोहितं वसिष्ठं च ये चान्ये द्विजसत्तमाः |
668 | 1011007a | तान्पूजयित्वा धर्मात्मा राजा दशरथस्तदा |
669 | 1011007c | इदं धर्मार्थसहितं श्लक्ष्णं वचनमब्रवीत् |
670 | 1011008a | मम लालप्यमानस्य पुत्रार्थं नास्ति वै सुखम् |
671 | 1011008c | तदर्थं हयमेधेन यक्ष्यामीति मतिर्मम |
672 | 1011009a | तदहं यष्टुमिच्छामि शास्त्रदृष्टेन कर्मणा |
673 | 1011009c | ऋषिपुत्रप्रभावेन कामान्प्राप्स्यामि चाप्यहम् |
674 | 1011010a | ततः साध्विति तद्वाक्यं ब्राह्मणाः प्रत्यपूजयन् |
675 | 1011010c | वसिष्ठप्रमुखाः सर्वे पार्थिवस्य मुखाच्च्युतम् |
676 | 1011011a | ऋष्यशृङ्गपुरोगाश्च प्रत्यूचुर्नृपतिं तदा |
677 | 1011011c | संभाराः संभ्रियन्तां ते तुरगश्च विमुच्यताम् |
678 | 1011012a | सर्वथा प्राप्यसे पुत्रांश्चतुरोऽमितविक्रमान् |
679 | 1011012c | यस्य ते धार्मिकी बुद्धिरियं पुत्रार्थमागता |
680 | 1011013a | ततः प्रीतोऽभवद्राजा श्रुत्वा तद्द्विजभाषितम् |
681 | 1011013c | अमात्यांश्चाब्रवीद्राजा हर्षेणेदं शुभाक्षरम् |
682 | 1011014a | गुरूणां वचनाच्छीघ्रं संभाराः संभ्रियन्तु मे |
683 | 1011014c | समर्थाधिष्ठितश्चाश्वः सोपाध्यायो विमुच्यताम् |
684 | 1011015a | सरय्वाश्चोत्तरे तीरे यज्ञभूमिर्विधीयताम् |
685 | 1011015c | शान्तयश्चाभिवर्धन्तां यथाकल्पं यथाविधि |
686 | 1011016a | शक्यः कर्तुमयं यज्ञः सर्वेणापि महीक्षिता |
687 | 1011016c | नापराधो भवेत्कष्टो यद्यस्मिन्क्रतुसत्तमे |
688 | 1011017a | छिद्रं हि मृगयन्तेऽत्र विद्वांसो ब्रह्मराक्षसाः |
689 | 1011017c | विधिहीनस्य यज्ञस्य सद्यः कर्ता विनश्यति |
690 | 1011018a | तद्यथा विधिपूर्वं मे क्रतुरेष समाप्यते |
691 | 1011018c | तथाविधानं क्रियतां समर्थाः करणेष्विह |
692 | 1011019a | तथेति च ततः सर्वे मन्त्रिणः प्रत्यपूजयन् |
693 | 1011019c | पार्थिवेन्द्रस्य तद्वाक्यं यथाज्ञप्तमकुर्वत |
694 | 1011020a | ततो द्विजास्ते धर्मज्ञमस्तुवन्पार्थिवर्षभम् |
695 | 1011020c | अनुज्ञातास्ततः सर्वे पुनर्जग्मुर्यथागतम् |
696 | 1011021a | गतानां तु द्विजातीनां मन्त्रिणस्तान्नराधिपः |
697 | 1011021c | विसर्जयित्वा स्वं वेश्म प्रविवेश महाद्युतिः |
698 | 1012001a | पुनः प्राप्ते वसन्ते तु पूर्णः संवत्सरोऽभवत् |
699 | 1012001c | अभिवाद्य वसिष्ठं च न्यायतः प्रतिपूज्य च |
700 | 1012002a | अब्रवीत्प्रश्रितं वाक्यं प्रसवार्थं द्विजोत्तमम् |
701 | 1012002c | यज्ञो मे क्रियतां विप्र यथोक्तं मुनिपुंगव |
702 | 1012003a | यथा न विघ्नः क्रियते यज्ञाङ्गेषु विधीयताम् |
703 | 1012003c | भवान्स्निग्धः सुहृन्मह्यं गुरुश्च परमो भवान् |
704 | 1012004a | वोढव्यो भवता चैव भारो यज्ञस्य चोद्यतः |
705 | 1012004c | तथेति च स राजानमब्रवीद्द्विजसत्तमः |
706 | 1012005a | करिष्ये सर्वमेवैतद्भवता यत्समर्थितम् |
707 | 1012005c | ततोऽब्रवीद्द्विजान्वृद्धान्यज्ञकर्मसु निष्ठितान् |
708 | 1012006a | स्थापत्ये निष्ठितांश्चैव वृद्धान्परमधार्मिकान् |
709 | 1012006c | कर्मान्तिकाञ्शिल्पकारान्वर्धकीन्खनकानपि |
710 | 1012007a | गणकाञ्शिल्पिनश्चैव तथैव नटनर्तकान् |
711 | 1012007c | तथा शुचीञ्शास्त्रविदः पुरुषान्सुबहुश्रुतान् |
712 | 1012008a | यज्ञकर्म समीहन्तां भवन्तो राजशासनात् |
713 | 1012008c | इष्टका बहुसाहस्री शीघ्रमानीयतामिति |
714 | 1012009a | औपकार्याः क्रियन्तां च राज्ञां बहुगुणान्विताः |
715 | 1012009c | ब्राह्मणावसथाश्चैव कर्तव्याः शतशः शुभाः |
716 | 1012010a | भक्ष्यान्नपानैर्बहुभिः समुपेताः सुनिष्ठिताः |
717 | 1012010c | तथा पौरजनस्यापि कर्तव्या बहुविस्तराः |
718 | 1012011a | आवासा बहुभक्ष्या वै सर्वकामैरुपस्थिताः |
719 | 1012011c | तथा जानपदस्यापि जनस्य बहुशोभनम् |
720 | 1012012a | दातव्यमन्नं विधिवत्सत्कृत्य न तु लीलया |
721 | 1012012c | सर्ववर्णा यथा पूजां प्राप्नुवन्ति सुसत्कृताः |
722 | 1012013a | न चावज्ञा प्रयोक्तव्या कामक्रोधवशादपि |
723 | 1012013c | यज्ञकर्मसु येऽव्यग्राः पुरुषाः शिल्पिनस्तथा |
724 | 1012014a | तेषामपि विशेषेण पूजा कार्या यथाक्रमम् |
725 | 1012014c | यथा सर्वं सुविहितं न किंचित्परिहीयते |
726 | 1012015a | तथा भवन्तः कुर्वन्तु प्रीतिस्निग्धेन चेतसा |
727 | 1012015c | ततः सर्वे समागम्य वसिष्ठमिदमब्रुवन् |
728 | 1012016a | यथोक्तं तत्करिष्यामो न किंचित्परिहास्यते |
729 | 1012016c | ततः सुमन्त्रमाहूय वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत् |
730 | 1012017a | निमन्त्रयस्य नृपतीन्पृथिव्यां ये च धार्मिकाः |
731 | 1012017c | ब्राह्मणान्क्षत्रियान्वैश्याञ्शूद्रांश्चैव सहस्रशः |
732 | 1012018a | समानयस्व सत्कृत्य सर्वदेशेषु मानवान् |
733 | 1012018c | मिथिलाधिपतिं शूरं जनकं सत्यविक्रमम् |
734 | 1012019a | निष्ठितं सर्वशास्त्रेषु तथा वेदेषु निष्ठितम् |
735 | 1012019c | तमानय महाभागं स्वयमेव सुसत्कृतम् |
736 | 1012019e | पूर्वसंबन्धिनं ज्ञात्वा ततः पूर्वं ब्रवीमि ते |
737 | 1012020a | तथा काशिपतिं स्निग्धं सततं प्रियवादिनम् |
738 | 1012020c | सद्वृत्तं देवसंकाशं स्वयमेवानयस्व ह |
739 | 1012021a | तथा केकयराजानं वृद्धं परमधार्मिकम् |
740 | 1012021c | श्वशुरं राजसिंहस्य सपुत्रं तमिहानय |
741 | 1012022a | अङ्गेश्वरं महाभागं रोमपादं सुसत्कृतम् |
742 | 1012022c | वयस्यं राजसिंहस्य तमानय यशस्विनम् |
743 | 1012023a | प्राचीनान्सिन्धुसौवीरान्सौराष्ठ्रेयांश्च पार्थिवान् |
744 | 1012023c | दाक्षिणात्यान्नरेन्द्रांश्च समस्तानानयस्व ह |
745 | 1012024a | सन्ति स्निग्धाश्च ये चान्ये राजानः पृथिवीतले |
746 | 1012024c | तानानय यथाक्षिप्रं सानुगान्सहबान्धवान् |
747 | 1012025a | वसिष्ठवाक्यं तच्छ्रुत्वा सुमन्त्रस्त्वरितस्तदा |
748 | 1012025c | व्यादिशत्पुरुषांस्तत्र राज्ञामानयने शुभान् |
749 | 1012026a | स्वयमेव हि धर्मात्मा प्रययौ मुनिशासनात् |
750 | 1012026c | सुमन्त्रस्त्वरितो भूत्वा समानेतुं महीक्षितः |
751 | 1012027a | ते च कर्मान्तिकाः सर्वे वसिष्ठाय च धीमते |
752 | 1012027c | सर्वं निवेदयन्ति स्म यज्ञे यदुपकल्पितम् |
753 | 1012028a | ततः प्रीतो द्विजश्रेष्ठस्तान्सर्वान्पुनरब्रवीत् |
754 | 1012028c | अवज्ञया न दातव्यं कस्यचिल्लीलयापि वा |
755 | 1012028e | अवज्ञया कृतं हन्याद्दातारं नात्र संशयः |
756 | 1012029a | ततः कैश्चिदहोरात्रैरुपयाता महीक्षितः |
757 | 1012029c | बहूनि रत्नान्यादाय राज्ञो दशरथस्य ह |
758 | 1012030a | ततो वसिष्ठः सुप्रीतो राजानमिदमब्रवीत् |
759 | 1012030c | उपयाता नरव्याघ्र राजानस्तव शासनात् |
760 | 1012031a | मयापि सत्कृताः सर्वे यथार्हं राजसत्तमाः |
761 | 1012031c | यज्ञियं च कृतं राजन्पुरुषैः सुसमाहितैः |
762 | 1012032a | निर्यातु च भवान्यष्टुं यज्ञायतनमन्तिकात् |
763 | 1012032c | सर्वकामैरुपहृतैरुपेतं वै समन्ततः |
764 | 1012033a | तथा वसिष्ठवचनादृष्यशृङ्गस्य चोभयोः |
765 | 1012033c | शुभे दिवस नक्षत्रे निर्यातो जगतीपतिः |
766 | 1012034a | ततो वसिष्ठप्रमुखाः सर्व एव द्विजोत्तमाः |
767 | 1012034c | ऋष्यशृङ्गं पुरस्कृत्य यज्ञकर्मारभंस्तदा |
768 | 1013001a | अथ संवत्सरे पूर्णे तस्मिन्प्राप्ते तुरङ्गमे |
769 | 1013001c | सरय्वाश्चोत्तरे तीरे राज्ञो यज्ञोऽभ्यवर्तत |
770 | 1013002a | ऋष्यशृङ्गं पुरस्कृत्य कर्म चक्रुर्द्विजर्षभाः |
771 | 1013002c | अश्वमेधे महायज्ञे राज्ञोऽस्य सुमहात्मनः |
772 | 1013003a | कर्म कुर्वन्ति विधिवद्याजका वेदपारगाः |
773 | 1013003c | यथाविधि यथान्यायं परिक्रामन्ति शास्त्रतः |
774 | 1013004a | प्रवर्ग्यं शास्त्रतः कृत्वा तथैवोपसदं द्विजाः |
775 | 1013004c | चक्रुश्च विधिवत्सर्वमधिकं कर्म शास्त्रतः |
776 | 1013005a | अभिपूज्य ततो हृष्टाः सर्वे चक्रुर्यथाविधि |
777 | 1013005c | प्रातःसवनपूर्वाणि कर्माणि मुनिपुंगवाः |
778 | 1013006a | न चाहुतमभूत्तत्र स्खलितं वापि किंचन |
779 | 1013006c | दृश्यते ब्रह्मवत्सर्वं क्षेमयुक्तं हि चक्रिरे |
780 | 1013007a | न तेष्वहःसु श्रान्तो वा क्षुधितो वापि दृश्यते |
781 | 1013007c | नाविद्वान्ब्राह्मणस्तत्र नाशतानुचरस्तथा |
782 | 1013008a | ब्राह्मणा भुञ्जते नित्यं नाथवन्तश्च भुञ्जते |
783 | 1013008c | तापसा भुञ्जते चापि श्रमणा भुञ्जते तथा |
784 | 1013009a | वृद्धाश्च व्याधिताश्चैव स्त्रियो बालास्तथैव च |
785 | 1013009c | अनिशं भुञ्जमानानां न तृप्तिरुपलभ्यते |
786 | 1013010a | दीयतां दीयतामन्नं वासांसि विविधानि च |
787 | 1013010c | इति संचोदितास्तत्र तथा चक्रुरनेकशः |
788 | 1013011a | अन्नकूटाश्च बहवो दृश्यन्ते पर्वतोपमाः |
789 | 1013011c | दिवसे दिवसे तत्र सिद्धस्य विधिवत्तदा |
790 | 1013012a | अन्नं हि विधिवत्स्वादु प्रशंसन्ति द्विजर्षभाः |
791 | 1013012c | अहो तृप्ताः स्म भद्रं ते इति शुश्राव राघवः |
792 | 1013013a | स्वलंकृताश्च पुरुषा ब्राह्मणान्पर्यवेषयन् |
793 | 1013013c | उपासते च तानन्ये सुमृष्टमणिकुण्डलाः |
794 | 1013014a | कर्मान्तरे तदा विप्रा हेतुवादान्बहूनपि |
795 | 1013014c | प्राहुः सुवाग्मिनो धीराः परस्परजिगीषया |
796 | 1013015a | दिवसे दिवसे तत्र संस्तरे कुशला द्विजाः |
797 | 1013015c | सर्वकर्माणि चक्रुस्ते यथाशास्त्रं प्रचोदिताः |
798 | 1013016a | नाषडङ्गविदत्रासीन्नाव्रतो नाबहुश्रुतः |
799 | 1013016c | सदस्यस्तस्य वै राज्ञो नावादकुशलो द्विजः |
800 | 1013017a | प्राप्ते यूपोच्छ्रये तस्मिन्षड्बैल्वाः खादिरास्तथा |
801 | 1013017c | तावन्तो बिल्वसहिताः पर्णिनश्च तथापरे |
802 | 1013018a | श्लेष्मातकमयो दिष्टो देवदारुमयस्तथा |
803 | 1013018c | द्वावेव तत्र विहितौ बाहुव्यस्तपरिग्रहौ |
804 | 1013019a | कारिताः सर्व एवैते शास्त्रज्ञैर्यज्ञकोविदैः |
805 | 1013019c | शोभार्थं तस्य यज्ञस्य काञ्चनालंकृता भवन् |
806 | 1013020a | विन्यस्ता विधिवत्सर्वे शिल्पिभिः सुकृता दृढाः |
807 | 1013020c | अष्टाश्रयः सर्व एव श्लक्ष्णरूपसमन्विताः |
808 | 1013021a | आच्छादितास्ते वासोभिः पुष्पैर्गन्धैश्च भूषिताः |
809 | 1013021c | सप्तर्षयो दीप्तिमन्तो विराजन्ते यथा दिवि |
810 | 1013022a | इष्टकाश्च यथान्यायं कारिताश्च प्रमाणतः |
811 | 1013022c | चितोऽग्निर्ब्राह्मणैस्तत्र कुशलैः शुल्बकर्मणि |
812 | 1013022e | स चित्यो राजसिंहस्य संचितः कुशलैर्द्विजैः |
813 | 1013023a | गरुडो रुक्मपक्षो वै त्रिगुणोऽष्टादशात्मकः |
814 | 1013023c | नियुक्तास्तत्र पशवस्तत्तदुद्दिश्य दैवतम् |
815 | 1013024a | उरगाः पक्षिणश्चैव यथाशास्त्रं प्रचोदिताः |
816 | 1013024c | शामित्रे तु हयस्तत्र तथा जल चराश्च ये |
817 | 1013025a | ऋत्विग्भिः सर्वमेवैतन्नियुक्तं शास्त्रतस्तदा |
818 | 1013025c | पशूनां त्रिशतं तत्र यूपेषु नियतं तदा |
819 | 1013025e | अश्वरत्नोत्तमं तस्य राज्ञो दशरथस्य ह |
820 | 1013026a | कौसल्या तं हयं तत्र परिचर्य समन्ततः |
821 | 1013026c | कृपाणैर्विशशासैनं त्रिभिः परमया मुदा |
822 | 1013027a | पतत्रिणा तदा सार्धं सुस्थितेन च चेतसा |
823 | 1013027c | अवसद्रजनीमेकां कौसल्या धर्मकाम्यया |
824 | 1013028a | होताध्वर्युस्तथोद्गाता हयेन समयोजयन् |
825 | 1013028c | महिष्या परिवृत्थ्याथ वावातामपरां तथा |
826 | 1013029a | पतत्रिणस्तस्य वपामुद्धृत्य नियतेन्द्रियः |
827 | 1013029c | ऋत्विक्परम संपन्नः श्रपयामास शास्त्रतः |
828 | 1013030a | धूमगन्धं वपायास्तु जिघ्रति स्म नराधिपः |
829 | 1013030c | यथाकालं यथान्यायं निर्णुदन्पापमात्मनः |
830 | 1013031a | हयस्य यानि चाङ्गानि तानि सर्वाणि ब्राह्मणाः |
831 | 1013031c | अग्नौ प्रास्यन्ति विधिवत्समस्ताः षोडशर्त्विजः |
832 | 1013032a | प्लक्षशाखासु यज्ञानामन्येषां क्रियते हविः |
833 | 1013032c | अश्वमेधस्य चैकस्य वैतसो भाग इष्यते |
834 | 1013033a | त्र्यहोऽश्वमेधः संख्यातः कल्पसूत्रेण ब्राह्मणैः |
835 | 1013033c | चतुष्टोममहस्तस्य प्रथमं परिकल्पितम् |
836 | 1013034a | उक्थ्यं द्वितीयं संख्यातमतिरात्रं तथोत्तरम् |
837 | 1013034c | कारितास्तत्र बहवो विहिताः शास्त्रदर्शनात् |
838 | 1013035a | ज्योतिष्टोमायुषी चैव अतिरात्रौ च निर्मितौ |
839 | 1013035c | अभिजिद्विश्वजिच्चैव अप्तोर्यामो महाक्रतुः |
840 | 1013036a | प्राचीं होत्रे ददौ राजा दिशं स्वकुलवर्धनः |
841 | 1013036c | अध्वर्यवे प्रतीचीं तु ब्रह्मणे दक्षिणां दिशम् |
842 | 1013037a | उद्गात्रे तु तथोदीचीं दक्षिणैषा विनिर्मिता |
843 | 1013037c | अश्वमेधे महायज्ञे स्वयम्भुविहिते पुरा |
844 | 1013038a | क्रतुं समाप्य तु तदा न्यायतः पुरुषर्षभः |
845 | 1013038c | ऋत्विग्भ्यो हि ददौ राजा धरां तां क्रतुवर्धनः |
846 | 1013039a | ऋत्विजस्त्वब्रुवन्सर्वे राजानं गतकल्मषम् |
847 | 1013039c | भवानेव महीं कृत्स्नामेको रक्षितुमर्हति |
848 | 1013040a | न भूम्या कार्यमस्माकं न हि शक्ताः स्म पालने |
849 | 1013040c | रताः स्वाध्यायकरणे वयं नित्यं हि भूमिप |
850 | 1013040e | निष्क्रयं किंचिदेवेह प्रयच्छतु भवानिति |
851 | 1013041a | गवां शतसहस्राणि दश तेभ्यो ददौ नृपः |
852 | 1013041c | दशकोटिं सुवर्णस्य रजतस्य चतुर्गुणम् |
853 | 1013042a | ऋत्विजस्तु ततः सर्वे प्रददुः सहिता वसु |
854 | 1013042c | ऋष्यशृङ्गाय मुनये वसिष्ठाय च धीमते |
855 | 1013043a | ततस्ते न्यायतः कृत्वा प्रविभागं द्विजोत्तमाः |
856 | 1013043c | सुप्रीतमनसः सर्वे प्रत्यूचुर्मुदिता भृशम् |
857 | 1013044a | ततः प्रीतमना राजा प्राप्य यज्ञमनुत्तमम् |
858 | 1013044c | पापापहं स्वर्नयनं दुस्तरं पार्थिवर्षभैः |
859 | 1013045a | ततोऽब्रवीदृष्यशृङ्गं राजा दशरथस्तदा |
860 | 1013045c | कुलस्य वर्धनं तत्तु कर्तुमर्हसि सुव्रत |
861 | 1013046a | तथेति च स राजानमुवाच द्विजसत्तमः |
862 | 1013046c | भविष्यन्ति सुता राजंश्चत्वारस्ते कुलोद्वहाः |
863 | 1014001a | मेधावी तु ततो ध्यात्वा स किंचिदिदमुत्तमम् |
864 | 1014001c | लब्धसंज्ञस्ततस्तं तु वेदज्ञो नृपमब्रवीत् |
865 | 1014002a | इष्टिं तेऽहं करिष्यामि पुत्रीयां पुत्रकारणात् |
866 | 1014002c | अथर्वशिरसि प्रोक्तैर्मन्त्रैः सिद्धां विधानतः |
867 | 1014003a | ततः प्राक्रमदिष्टिं तां पुत्रीयां पुत्र कारणात् |
868 | 1014003c | जुहाव चाग्नौ तेजस्वी मन्त्रदृष्टेन कर्मणा |
869 | 1014004a | ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः |
870 | 1014004c | भागप्रतिग्रहार्थं वै समवेता यथाविधि |
871 | 1014005a | ताः समेत्य यथान्यायं तस्मिन्सदसि देवताः |
872 | 1014005c | अब्रुवँल्लोककर्तारं ब्रह्माणं वचनं महत् |
873 | 1014006a | भगवंस्त्वत्प्रसादेन रावणो नाम राक्षसः |
874 | 1014006c | सर्वान्नो बाधते वीर्याच्छासितुं तं न शक्नुमः |
875 | 1014007a | त्वया तस्मै वरो दत्तः प्रीतेन भगवन्पुरा |
876 | 1014007c | मानयन्तश्च तं नित्यं सर्वं तस्य क्षमामहे |
877 | 1014008a | उद्वेजयति लोकांस्त्रीनुच्छ्रितान्द्वेष्टि दुर्मतिः |
878 | 1014008c | शक्रं त्रिदशराजानं प्रधर्षयितुमिच्छति |
879 | 1014009a | ऋषीन्यक्षान्सगन्धर्वानसुरान्ब्राह्मणांस्तथा |
880 | 1014009c | अतिक्रामति दुर्धर्षो वरदानेन मोहितः |
881 | 1014010a | नैनं सूर्यः प्रतपति पार्श्वे वाति न मारुतः |
882 | 1014010c | चलोर्मिमाली तं दृष्ट्वा समुद्रोऽपि न कम्पते |
883 | 1014011a | तन्मनन्नो भयं तस्माद्राक्षसाद्घोरदर्शनात् |
884 | 1014011c | वधार्थं तस्य भगवन्नुपायं कर्तुमर्हसि |
885 | 1014012a | एवमुक्तः सुरैः सर्वैश्चिन्तयित्वा ततोऽब्रवीत् |
886 | 1014012c | हन्तायं विहितस्तस्य वधोपायो दुरात्मनः |
887 | 1014013a | तेन गन्धर्वयक्षाणां देवदानवरक्षसाम् |
888 | 1014013c | अवध्योऽस्मीति वागुक्ता तथेत्युक्तं च तन्मया |
889 | 1014014a | नाकीर्तयदवज्ञानात्तद्रक्षो मानुषांस्तदा |
890 | 1014014c | तस्मात्स मानुषाद्वध्यो मृतुर्नान्योऽस्य विद्यते |
891 | 1014015a | एतच्छ्रुत्वा प्रियं वाक्यं ब्रह्मणा समुदाहृतम् |
892 | 1014015c | देवा महर्षयः सर्वे प्रहृष्टास्तेऽभवंस्तदा |
893 | 1014016a | एतस्मिन्नन्तरे विष्णुरुपयातो महाद्युतिः |
894 | 1014016c | ब्रह्मणा च समागम्य तत्र तस्थौ समाहितः |
895 | 1014017a | तमब्रुवन्सुराः सर्वे समभिष्टूय संनताः |
896 | 1014017c | त्वां नियोक्ष्यामहे विष्णो लोकानां हितकाम्यया |
897 | 1014018a | राज्ञो दशरथस्य त्वमयोध्याधिपतेर्विभो |
898 | 1014018c | धर्मज्ञस्य वदान्यस्य महर्षिसमतेजसः |
899 | 1014018e | तस्य भार्यासु तिसृषु ह्रीश्रीकीर्त्युपमासु च |
900 | 1014018g | विष्णो पुत्रत्वमागच्छ कृत्वात्मानं चतुर्विधम् |
901 | 1014019a | तत्र त्वं मानुषो भूत्वा प्रवृद्धं लोककण्टकम् |
902 | 1014019c | अवध्यं दैवतैर्विष्णो समरे जहि रावणम् |
903 | 1014020a | स हि देवान्सगन्धर्वान्सिद्धांश्च ऋषिसत्तमान् |
904 | 1014020c | राक्षसो रावणो मूर्खो वीर्योत्सेकेन बाधते |
905 | 1014021a | तदुद्धतं रावणमृद्धतेजसं; प्रवृद्धदर्पं त्रिदशेश्वरद्विषम् |
906 | 1014021c | विरावणं साधु तपस्विकण्टकं; तपस्विनामुद्धर तं भयावहम् |
907 | 1015001a | ततो नारायणो विष्णुर्नियुक्तः सुरसत्तमैः |
908 | 1015001c | जानन्नपि सुरानेवं श्लक्ष्णं वचनमब्रवीत् |
909 | 1015002a | उपायः को वधे तस्य राक्षसाधिपतेः सुराः |
910 | 1015002c | यमहं तं समास्थाय निहन्यामृषिकण्टकम् |
911 | 1015003a | एवमुक्ताः सुराः सर्वे प्रत्यूचुर्विष्णुमव्ययम् |
912 | 1015003c | मानुषीं तनुमास्थाय रावणं जहि संयुगे |
913 | 1015004a | स हि तेपे तपस्तीव्रं दीर्घकालमरिंदम |
914 | 1015004c | येन तुष्टोऽभवद्ब्रह्मा लोककृल्लोकपूजितः |
915 | 1015005a | संतुष्टः प्रददौ तस्मै राक्षसाय वरं प्रभुः |
916 | 1015005c | नानाविधेभ्यो भूतेभ्यो भयं नान्यत्र मानुषात् |
917 | 1015006a | अवज्ञाताः पुरा तेन वरदानेन मानवाः |
918 | 1015006c | तस्मात्तस्य वधो दृष्टो मानुषेभ्यः परंतप |
919 | 1015007a | इत्येतद्वचनं श्रुत्वा सुराणां विष्णुरात्मवान् |
920 | 1015007c | पितरं रोचयामास तदा दशरथं नृपम् |
921 | 1015008a | स चाप्यपुत्रो नृपतिस्तस्मिन्काले महाद्युतिः |
922 | 1015008c | अयजत्पुत्रियामिष्टिं पुत्रेप्सुररिसूदनः |
923 | 1015009a | ततो वै यजमानस्य पावकादतुलप्रभम् |
924 | 1015009c | प्रादुर्भूतं महद्भूतं महावीर्यं महाबलम् |
925 | 1015010a | कृष्णं रक्ताम्बरधरं रक्तास्यं दुन्दुभिस्वनम् |
926 | 1015010c | स्निग्धहर्यक्षतनुजश्मश्रुप्रवरमूर्धजम् |
927 | 1015011a | शुभलक्षणसंपन्नं दिव्याभरणभूषितम् |
928 | 1015011c | शैलशृङ्गसमुत्सेधं दृप्तशार्दूलविक्रमम् |
929 | 1015012a | दिवाकरसमाकारं दीप्तानलशिखोपमम् |
930 | 1015012c | तप्तजाम्बूनदमयीं राजतान्तपरिच्छदाम् |
931 | 1015013a | दिव्यपायससंपूर्णां पात्रीं पत्नीमिव प्रियाम् |
932 | 1015013c | प्रगृह्य विपुलां दोर्भ्यां स्वयं मायामयीमिव |
933 | 1015014a | समवेक्ष्याब्रवीद्वाक्यमिदं दशरथं नृपम् |
934 | 1015014c | प्राजापत्यं नरं विद्धि मामिहाभ्यागतं नृप |
935 | 1015015a | ततः परं तदा राजा प्रत्युवाच कृताञ्जलिः |
936 | 1015015c | भगवन्स्वागतं तेऽस्तु किमहं करवाणि ते |
937 | 1015016a | अथो पुनरिदं वाक्यं प्राजापत्यो नरोऽब्रवीत् |
938 | 1015016c | राजन्नर्चयता देवानद्य प्राप्तमिदं त्वया |
939 | 1015017a | इदं तु नरशार्दूल पायसं देवनिर्मितम् |
940 | 1015017c | प्रजाकरं गृहाण त्वं धन्यमारोग्यवर्धनम् |
941 | 1015018a | भार्याणामनुरूपाणामश्नीतेति प्रयच्छ वै |
942 | 1015018c | तासु त्वं लप्स्यसे पुत्रान्यदर्थं यजसे नृप |
943 | 1015019a | तथेति नृपतिः प्रीतः शिरसा प्रतिगृह्यताम् |
944 | 1015019c | पात्रीं देवान्नसंपूर्णां देवदत्तां हिरण्मयीम् |
945 | 1015020a | अभिवाद्य च तद्भूतमद्भुतं प्रियदर्शनम् |
946 | 1015020c | मुदा परमया युक्तश्चकाराभिप्रदक्षिणम् |
947 | 1015021a | ततो दशरथः प्राप्य पायसं देवनिर्मितम् |
948 | 1015021c | बभूव परमप्रीतः प्राप्य वित्तमिवाधनः |
949 | 1015022a | ततस्तदद्भुतप्रख्यं भूतं परमभास्वरम् |
950 | 1015022c | संवर्तयित्वा तत्कर्म तत्रैवान्तरधीयत |
951 | 1015023a | हर्षरश्मिभिरुद्योतं तस्यान्तःपुरमाबभौ |
952 | 1015023c | शारदस्याभिरामस्य चन्द्रस्येव नभोंऽशुभिः |
953 | 1015024a | सोऽन्तःपुरं प्रविश्यैव कौसल्यामिदमब्रवीत् |
954 | 1015024c | पायसं प्रतिगृह्णीष्व पुत्रीयं त्विदमात्मनः |
955 | 1015025a | कौसल्यायै नरपतिः पायसार्धं ददौ तदा |
956 | 1015025c | अर्धादर्धं ददौ चापि सुमित्रायै नराधिपः |
957 | 1015026a | कैकेय्यै चावशिष्टार्धं ददौ पुत्रार्थकारणात् |
958 | 1015026c | प्रददौ चावशिष्टार्धं पायसस्यामृतोपमम् |
959 | 1015027a | अनुचिन्त्य सुमित्रायै पुनरेव महीपतिः |
960 | 1015027c | एवं तासां ददौ राजा भार्याणां पायसं पृथक् |
961 | 1015028a | तास्त्वेतत्पायसं प्राप्य नरेन्द्रस्योत्तमाः स्त्रियः |
962 | 1015028c | संमानं मेनिरे सर्वाः प्रहर्षोदितचेतसः |
963 | 1016001a | पुत्रत्वं तु गते विष्णौ राज्ञस्तस्य महात्मनः |
964 | 1016001c | उवाच देवताः सर्वाः स्वयम्भूर्भगवानिदम् |
965 | 1016002a | सत्यसंधस्य वीरस्य सर्वेषां नो हितैषिणः |
966 | 1016002c | विष्णोः सहायान्बलिनः सृजध्वं कामरूपिणः |
967 | 1016003a | मायाविदश्च शूरांश्च वायुवेगसमाञ्जवे |
968 | 1016003c | नयज्ञान्बुद्धिसंपन्नान्विष्णुतुल्यपराक्रमान् |
969 | 1016004a | असंहार्यानुपायज्ञान्दिव्यसंहननान्वितान् |
970 | 1016004c | सर्वास्त्रगुणसंपन्नानमृतप्राशनानिव |
971 | 1016005a | अप्सरःसु च मुख्यासु गन्धर्वीणां तनूषु च |
972 | 1016005c | यक्षपन्नगकन्यासु ऋष्कविद्याधरीषु च |
973 | 1016006a | किंनरीणां च गात्रेषु वानरीणां तनूषु च |
974 | 1016006c | सृजध्वं हरिरूपेण पुत्रांस्तुल्यपराक्रमान् |
975 | 1016007a | ते तथोक्ता भगवता तत्प्रतिश्रुत्य शासनम् |
976 | 1016007c | जनयामासुरेवं ते पुत्रान्वानररूपिणः |
977 | 1016008a | ऋषयश्च महात्मानः सिद्धविद्याधरोरगाः |
978 | 1016008c | चारणाश्च सुतान्वीरान्ससृजुर्वनचारिणः |
979 | 1016009a | ते सृष्टा बहुसाहस्रा दशग्रीववधोद्यताः |
980 | 1016009c | अप्रमेयबला वीरा विक्रान्ताः कामरूपिणः |
981 | 1016010a | ते गजाचलसंकाशा वपुष्मन्तो महाबलाः |
982 | 1016010c | ऋक्षवानरगोपुच्छाः क्षिप्रमेवाभिजज्ञिरे |
983 | 1016011a | यस्य देवस्य यद्रूपं वेषो यश्च पराक्रमः |
984 | 1016011c | अजायत समस्तेन तस्य तस्य सुतः पृथक् |
985 | 1016012a | गोलाङ्गूलीषु चोत्पन्नाः केचित्संमतविक्रमाः |
986 | 1016012c | ऋक्षीषु च तथा जाता वानराः किंनरीषु च |
987 | 1016013a | शिलाप्रहरणाः सर्वे सर्वे पादपयोधिनः |
988 | 1016013c | नखदंष्ट्रायुधाः सर्वे सर्वे सर्वास्त्रकोविदाः |
989 | 1016014a | विचालयेयुः शैलेन्द्रान्भेदयेयुः स्थिरान्द्रुमान् |
990 | 1016014c | क्षोभयेयुश्च वेगेन समुद्रं सरितां पतिम् |
991 | 1016015a | दारयेयुः क्षितिं पद्भ्यामाप्लवेयुर्महार्णवम् |
992 | 1016015c | नभस्तलं विशेयुश्च गृह्णीयुरपि तोयदान् |
993 | 1016016a | गृह्णीयुरपि मातङ्गान्मत्तान्प्रव्रजतो वने |
994 | 1016016c | नर्दमानांश्च नादेन पातयेयुर्विहंगमान् |
995 | 1016017a | ईदृशानां प्रसूतानि हरीणां कामरूपिणाम् |
996 | 1016017c | शतं शतसहस्राणि यूथपानां महात्मनाम् |
997 | 1016017e | बभूवुर्यूथपश्रेष्ठा वीरांश्चाजनयन्हरीन् |
998 | 1016018a | अन्ये ऋक्षवतः प्रस्थानुपतस्थुः सहस्रशः |
999 | 1016018c | अन्ये नानाविधाञ्शैलान्काननानि च भेजिरे |
1000 | 1016019a | सूर्यपुत्रं च सुग्रीवं शक्रपुत्रं च वालिनम् |
1001 | 1016019c | भ्रातरावुपतस्थुस्ते सर्व एव हरीश्वराः |
1002 | 1016020a | तैर्मेघवृन्दाचलतुल्यकायै;र्महाबलैर्वानरयूथपालैः |
1003 | 1016020c | बभूव भूर्भीमशरीररूपैः; समावृता रामसहायहेतोः |
1004 | 1017001a | निर्वृत्ते तु क्रतौ तस्मिन्हयमेधे महात्मनः |
1005 | 1017001c | प्रतिगृह्य सुरा भागान्प्रतिजग्मुर्यथागतम् |
1006 | 1017002a | समाप्तदीक्षानियमः पत्नीगणसमन्वितः |
1007 | 1017002c | प्रविवेश पुरीं राजा सभृत्यबलवाहनः |
1008 | 1017003a | यथार्हं पूजितास्तेन राज्ञा वै पृथिवीश्वराः |
1009 | 1017003c | मुदिताः प्रययुर्देशान्प्रणम्य मुनिपुंगवम् |
1010 | 1017004a | गतेषु पृथिवीशेषु राजा दशरथः पुनः |
1011 | 1017004c | प्रविवेश पुरीं श्रीमान्पुरस्कृत्य द्विजोत्तमान् |
1012 | 1017005a | शान्तया प्रययौ सार्धमृष्यशृङ्गः सुपूजितः |
1013 | 1017005c | अन्वीयमानो राज्ञाथ सानुयात्रेण धीमता |
1014 | 1017006a | कौसल्याजनयद्रामं दिव्यलक्षणसंयुतम् |
1015 | 1017006c | विष्णोरर्धं महाभागं पुत्रमिक्ष्वाकुनन्दनम् |
1016 | 1017007a | कौसल्या शुशुभे तेन पुत्रेणामिततेजसा |
1017 | 1017007c | यथा वरेण देवानामदितिर्वज्रपाणिना |
1018 | 1017008a | भरतो नाम कैकेय्यां जज्ञे सत्यपराक्रमः |
1019 | 1017008c | साक्षाद्विष्णोश्चतुर्भागः सर्वैः समुदितो गुणैः |
1020 | 1017009a | अथ लक्ष्मणशत्रुघ्नौ सुमित्राजनयत्सुतौ |
1021 | 1017009c | वीरौ सर्वास्त्रकुशलौ विष्णोरर्धसमन्वितौ |
1022 | 1017010a | राज्ञः पुत्रा महात्मानश्चत्वारो जज्ञिरे पृथक् |
1023 | 1017010c | गुणवन्तोऽनुरूपाश्च रुच्या प्रोष्ठपदोपमाः |
1024 | 1017011a | अतीत्यैकादशाहं तु नाम कर्म तथाकरोत् |
1025 | 1017011c | ज्येष्ठं रामं महात्मानं भरतं कैकयीसुतम् |
1026 | 1017012a | सौमित्रिं लक्ष्मणमिति शत्रुघ्नमपरं तथा |
1027 | 1017012c | वसिष्ठः परमप्रीतो नामानि कृतवांस्तदा |
1028 | 1017012e | तेषां जन्मक्रियादीनि सर्वकर्माण्यकारयत् |
1029 | 1017013a | तेषां केतुरिव ज्येष्ठो रामो रतिकरः पितुः |
1030 | 1017013c | बभूव भूयो भूतानां स्वयम्भूरिव संमतः |
1031 | 1017014a | सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे लोकहिते रताः |
1032 | 1017014c | सर्वे ज्ञानोपसंपन्नाः सर्वे समुदिता गुणैः |
1033 | 1017015a | तेषामपि महातेजा रामः सत्यपराक्रमः |
1034 | 1017015c | बाल्यात्प्रभृति सुस्निग्धो लक्ष्मणो लक्ष्मिवर्धनः |
1035 | 1017016a | रामस्य लोकरामस्य भ्रातुर्ज्येष्ठस्य नित्यशः |
1036 | 1017016c | सर्वप्रियकरस्तस्य रामस्यापि शरीरतः |
1037 | 1017017a | लक्ष्मणो लक्ष्मिसंपन्नो बहिःप्राण इवापरः |
1038 | 1017017c | न च तेन विना निद्रां लभते पुरुषोत्तमः |
1039 | 1017017e | मृष्टमन्नमुपानीतमश्नाति न हि तं विना |
1040 | 1017018a | यदा हि हयमारूढो मृगयां याति राघवः |
1041 | 1017018c | तदैनं पृष्ठतोऽभ्येति सधनुः परिपालयन् |
1042 | 1017019a | भरतस्यापि शत्रुघ्नो लक्ष्मणावरजो हि सः |
1043 | 1017019c | प्राणैः प्रियतरो नित्यं तस्य चासीत्तथा प्रियः |
1044 | 1017020a | स चतुर्भिर्महाभागैः पुत्रैर्दशरथः प्रियैः |
1045 | 1017020c | बभूव परमप्रीतो देवैरिव पितामहः |
1046 | 1017021a | ते यदा ज्ञानसंपन्नाः सर्वे समुदिता गुणैः |
1047 | 1017021c | ह्रीमन्तः कीर्तिमन्तश्च सर्वज्ञा दीर्घदर्शिनः |
1048 | 1017022a | अथ राजा दशरथस्तेषां दारक्रियां प्रति |
1049 | 1017022c | चिन्तयामास धर्मात्मा सोपाध्यायः सबान्धवः |
1050 | 1017023a | तस्य चिन्तयमानस्य मन्त्रिमध्ये महात्मनः |
1051 | 1017023c | अभ्यागच्छन्महातेजो विश्वामित्रो महामुनिः |
1052 | 1017024a | स राज्ञो दर्शनाकाङ्क्षी द्वाराध्यक्षानुवाच ह |
1053 | 1017024c | शीघ्रमाख्यात मां प्राप्तं कौशिकं गाधिनः सुतम् |
1054 | 1017025a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य राजवेश्म प्रदुद्रुवुः |
1055 | 1017025c | संभ्रान्तमनसः सर्वे तेन वाक्येन चोदिताः |
1056 | 1017026a | ते गत्वा राजभवनं विश्वामित्रमृषिं तदा |
1057 | 1017026c | प्राप्तमावेदयामासुर्नृपायेक्ष्वाकवे तदा |
1058 | 1017027a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा सपुरोधाः समाहितः |
1059 | 1017027c | प्रत्युज्जगाम संहृष्टो ब्रह्माणमिव वासवः |
1060 | 1017028a | स दृष्ट्वा ज्वलितं दीप्त्या तापसं संशितव्रतम् |
1061 | 1017028c | प्रहृष्टवदनो राजा ततोऽर्घ्यमुपहारयत् |
1062 | 1017029a | स राज्ञः प्रतिगृह्यार्घ्यं शास्त्रदृष्ट्तेन कर्मणा |
1063 | 1017029c | कुशलं चाव्ययं चैव पर्यपृच्छन्नराधिपम् |
1064 | 1017030a | वसिष्ठं च समागम्य कुशलं मुनिपुंगवः |
1065 | 1017030c | ऋषींश्च तान्यथा न्यायं महाभागानुवाच ह |
1066 | 1017031a | ते सर्वे हृष्टमनसस्तस्य राज्ञो निवेशनम् |
1067 | 1017031c | विविशुः पूजितास्तत्र निषेदुश्च यथार्थतः |
1068 | 1017032a | अथ हृष्टमना राजा विश्वामित्रं महामुनिम् |
1069 | 1017032c | उवाच परमोदारो हृष्टस्तमभिपूजयन् |
1070 | 1017033a | यथामृतस्य संप्राप्तिर्यथा वर्षमनूदके |
1071 | 1017033c | यथा सदृशदारेषु पुत्रजन्माप्रजस्य च |
1072 | 1017033e | प्रनष्टस्य यथा लाभो यथा हर्षो महोदये |
1073 | 1017033g | तथैवागमनं मन्ये स्वागतं ते महामुने |
1074 | 1017034a | कं च ते परमं कामं करोमि किमु हर्षितः |
1075 | 1017034c | पात्रभूतोऽसि मे विप्र दिष्ट्या प्राप्तोऽसि धार्मिक |
1076 | 1017034e | अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम् |
1077 | 1017035a | पूर्वं राजर्षिशब्देन तपसा द्योतितप्रभः |
1078 | 1017035c | ब्रह्मर्षित्वमनुप्राप्तः पूज्योऽसि बहुधा मया |
1079 | 1017036a | तदद्भुतमिदं विप्र पवित्रं परमं मम |
1080 | 1017036c | शुभक्षेत्रगतश्चाहं तव संदर्शनात्प्रभो |
1081 | 1017037a | ब्रूहि यत्प्रार्थितं तुभ्यं कार्यमागमनं प्रति |
1082 | 1017037c | इच्छाम्यनुगृहीतोऽहं त्वदर्थपरिवृद्धये |
1083 | 1017038a | कार्यस्य न विमर्शं च गन्तुमर्हसि कौशिक |
1084 | 1017038c | कर्ता चाहमशेषेण दैवतं हि भवान्मम |
1085 | 1017039a | इति हृदयसुखं निशम्य वाक्यं; श्रुतिसुखमात्मवता विनीतमुक्तम् |
1086 | 1017039c | प्रथितगुणयशा गुणैर्विशिष्टः; परम ऋषिः परमं जगाम हर्षम् |
1087 | 1018001a | तच्छ्रुत्वा राजसिंहस्य वाक्यमद्भुतविस्तरम् |
1088 | 1018001c | हृष्टरोमा महातेजा विश्वामित्रोऽभ्यभाषत |
1089 | 1018002a | सदृशं राजशार्दूल तवैतद्भुवि नान्यतः |
1090 | 1018002c | महावंशप्रसूतस्य वसिष्ठव्यपदेशिनः |
1091 | 1018003a | यत्तु मे हृद्गतं वाक्यं तस्य कार्यस्य निश्चयम् |
1092 | 1018003c | कुरुष्व राजशार्दूल भव सत्यप्रतिश्रवः |
1093 | 1018004a | अहं नियममातिष्ठ सिद्ध्यर्थं पुरुषर्षभ |
1094 | 1018004c | तस्य विघ्नकरौ द्वौ तु राक्षसौ कामरूपिणौ |
1095 | 1018005a | व्रते मे बहुशश्चीर्णे समाप्त्यां राक्षसाविमौ |
1096 | 1018005c | मारीचश्च सुबाहुश्च वीर्यवन्तौ सुशिक्षितौ |
1097 | 1018005e | तौ मांसरुधिरौघेण वेदिं तामभ्यवर्षताम् |
1098 | 1018006a | अवधूते तथा भूते तस्मिन्नियमनिश्चये |
1099 | 1018006c | कृतश्रमो निरुत्साहस्तस्माद्देशादपाक्रमे |
1100 | 1018007a | न च मे क्रोधमुत्स्रष्टुं बुद्धिर्भवति पार्थिव |
1101 | 1018007c | तथाभूता हि सा चर्या न शापस्तत्र मुच्यते |
1102 | 1018008a | स्वपुत्रं राजशार्दूल रामं सत्यपराक्रमम् |
1103 | 1018008c | काकपक्षधरं शूरं ज्येष्ठं मे दातुमर्हसि |
1104 | 1018009a | शक्तो ह्येष मया गुप्तो दिव्येन स्वेन तेजसा |
1105 | 1018009c | राक्षसा ये विकर्तारस्तेषामपि विनाशने |
1106 | 1018010a | श्रेयश्चास्मै प्रदास्यामि बहुरूपं न संशयः |
1107 | 1018010c | त्रयाणामपि लोकानां येन ख्यातिं गमिष्यति |
1108 | 1018011a | न च तौ राममासाद्य शक्तौ स्थातुं कथंचन |
1109 | 1018011c | न च तौ राघवादन्यो हन्तुमुत्सहते पुमान् |
1110 | 1018012a | वीर्योत्सिक्तौ हि तौ पापौ कालपाशवशं गतौ |
1111 | 1018012c | रामस्य राजशार्दूल न पर्याप्तौ महात्मनः |
1112 | 1018013a | न च पुत्रकृतं स्नेहं कर्तुमर्हसि पार्थिव |
1113 | 1018013c | अहं ते प्रतिजानामि हतौ तौ विद्धि राक्षसौ |
1114 | 1018014a | अहं वेद्मि महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम् |
1115 | 1018014c | वसिष्ठोऽपि महातेजा ये चेमे तपसि स्थिताः |
1116 | 1018015a | यदि ते धर्मलाभं च यशश्च परमं भुवि |
1117 | 1018015c | स्थिरमिच्छसि राजेन्द्र रामं मे दातुमर्हसि |
1118 | 1018016a | यद्यभ्यनुज्ञां काकुत्स्थ ददते तव मन्त्रिणः |
1119 | 1018016c | वसिष्ठ प्रमुखाः सर्वे ततो रामं विसर्जय |
1120 | 1018017a | अभिप्रेतमसंसक्तमात्मजं दातुमर्हसि |
1121 | 1018017c | दशरात्रं हि यज्ञस्य रामं राजीवलोचनम् |
1122 | 1018018a | नात्येति कालो यज्ञस्य यथायं मम राघव |
1123 | 1018018c | तथा कुरुष्व भद्रं ते मा च शोके मनः कृथाः |
1124 | 1018019a | इत्येवमुक्त्वा धर्मात्मा धर्मार्थसहितं वचः |
1125 | 1018019c | विरराम महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः |
1126 | 1018020a | इति हृदयमनोविदारणं; मुनिवचनं तदतीव शुश्रुवान् |
1127 | 1018020c | नरपतिरगमद्भयं मह;द्व्यथितमनाः प्रचचाल चासनात् |
1128 | 1019001a | तच्छ्रुत्वा राजशार्दूल विश्वामित्रस्य भाषितम् |
1129 | 1019001c | मुहूर्तमिव निःसंज्ञः संज्ञावानिदमब्रवीत् |
1130 | 1019002a | ऊनषोडशवर्षो मे रामो राजीवलोचनः |
1131 | 1019002c | न युद्धयोग्यतामस्य पश्यामि सह राक्षसैः |
1132 | 1019003a | इयमक्षौहिणी पूर्णा यस्याहं पतिरीश्वरः |
1133 | 1019003c | अनया संवृतो गत्वा योधाहं तैर्निशाचरैः |
1134 | 1019004a | इमे शूराश्च विक्रान्ता भृत्या मेऽस्त्रविशारदाः |
1135 | 1019004c | योग्या रक्षोगणैर्योद्धुं न रामं नेतुमर्हसि |
1136 | 1019005a | अहमेव धनुष्पाणिर्गोप्ता समरमूर्धनि |
1137 | 1019005c | यावत्प्राणान्धरिष्यामि तावद्योत्स्ये निशाचरैः |
1138 | 1019006a | निर्विघ्ना व्रतचर्या सा भविष्यति सुरक्षिता |
1139 | 1019006c | अहं तत्र गमिष्यामि न राम नेतुमर्हसि |
1140 | 1019007a | बालो ह्यकृतविद्यश्च न च वेत्ति बलाबलम् |
1141 | 1019007c | न चास्त्रबलसंयुक्तो न च युद्धविशारदः |
1142 | 1019007e | न चासौ रक्षसां योग्यः कूटयुद्धा हि ते ध्रुवम् |
1143 | 1019008a | विप्रयुक्तो हि रामेण मुहूर्तमपि नोत्सहे |
1144 | 1019008c | जीवितुं मुनिशार्दूल न रामं नेतुमर्हसि |
1145 | 1019009a | यदि वा राघवं ब्रह्मन्नेतुमिच्छसि सुव्रत |
1146 | 1019009c | चतुरङ्गसमायुक्तं मया सह च तं नय |
1147 | 1019010a | षष्टिर्वर्षसहस्राणि जातस्य मम कौशिक |
1148 | 1019010c | दुःखेनोत्पादितश्चायं न रामं नेतुमर्हसि |
1149 | 1019011a | चतुर्णामात्मजानां हि प्रीतिः परमिका मम |
1150 | 1019011c | ज्येष्ठं धर्मप्रधानं च न रामं नेतुमर्हसि |
1151 | 1019012a | किं वीर्या राक्षसास्ते च कस्य पुत्राश्च के च ते |
1152 | 1019012c | कथं प्रमाणाः के चैतान्रक्षन्ति मुनिपुंगव |
1153 | 1019013a | कथं च प्रतिकर्तव्यं तेषां रामेण रक्षसाम् |
1154 | 1019013c | मामकैर्वा बलैर्ब्रह्मन्मया वा कूटयोधिनाम् |
1155 | 1019014a | सर्वं मे शंस भगवन्कथं तेषां मया रणे |
1156 | 1019014c | स्थातव्यं दुष्टभावानां वीर्योत्सिक्ता हि राक्षसाः |
1157 | 1019015a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रोऽभ्यभाषत |
1158 | 1019015c | पौलस्त्यवंशप्रभवो रावणो नाम राक्षसः |
1159 | 1019016a | स ब्रह्मणा दत्तवरस्त्रैलोक्यं बाधते भृशम् |
1160 | 1019016c | महाबलो महावीर्यो राक्षसैर्बहुभिर्वृतः |
1161 | 1019017a | श्रूयते हि महावीर्यो रावणो राक्षसाधिपः |
1162 | 1019017c | साक्षाद्वैश्रवणभ्राता पुत्रो विश्रवसो मुनेः |
1163 | 1019018a | यदा स्वयं न यज्ञस्य विघ्नकर्ता महाबलः |
1164 | 1019018c | तेन संचोदितौ तौ तु राक्षसौ सुमहा बलौ |
1165 | 1019018e | मारीचश्च सुबाहुश्च यज्ञविघ्नं करिष्यतः |
1166 | 1019019a | इत्युक्तो मुनिना तेन राजोवाच मुनिं तदा |
1167 | 1019019c | न हि शक्तोऽस्मि संग्रामे स्थातुं तस्य दुरात्मनः |
1168 | 1019020a | स त्वं प्रसादं धर्मज्ञ कुरुष्व मम पुत्रके |
1169 | 1019020c | देवदानवगन्धर्वा यक्षाः पतग पन्नगाः |
1170 | 1019021a | न शक्ता रावणं सोढुं किं पुनर्मानवा युधि |
1171 | 1019021c | स हि वीर्यवतां वीर्यमादत्ते युधि राक्षसः |
1172 | 1019022a | तेन चाहं न शक्तोऽस्मि संयोद्धुं तस्य वा बलैः |
1173 | 1019022c | सबलो वा मुनिश्रेष्ठ सहितो वा ममात्मजैः |
1174 | 1019023a | कथमप्यमरप्रख्यं संग्रामाणामकोविदम् |
1175 | 1019023c | बालं मे तनयं ब्रह्मन्नैव दास्यामि पुत्रकम् |
1176 | 1019024a | अथ कालोपमौ युद्धे सुतौ सुन्दोपसुन्दयोः |
1177 | 1019024c | यज्ञविघ्नकरौ तौ ते नैव दास्यामि पुत्रकम् |
1178 | 1019025a | मारीचश्च सुबाहुश्च वीर्यवन्तौ सुशिक्षितौ |
1179 | 1019025c | तयोरन्यतरेणाहं योद्धा स्यां ससुहृद्गणः |
1180 | 1020001a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य स्नेहपर्याकुलाक्षरम् |
1181 | 1020001c | समन्युः कौशिको वाक्यं प्रत्युवच महीपतिम् |
1182 | 1020002a | पूर्वमर्थं प्रतिश्रुत्य प्रतिज्ञां हातुमिच्छसि |
1183 | 1020002c | रागवाणामयुक्तोऽयं कुलस्यास्य विपर्ययः |
1184 | 1020003a | यदिदं ते क्षमं राजन्गमिष्यामि यथागतम् |
1185 | 1020003c | मिथ्याप्रतिज्ञः काकुत्स्थ सुखी भव सबान्धवः |
1186 | 1020004a | तस्य रोषपरीतस्य विश्वामित्रस्य धीमतः |
1187 | 1020004c | चचाल वसुधा कृत्स्ना विवेश च भयं सुरान् |
1188 | 1020005a | त्रस्तरूपं तु विज्ञाय जगत्सर्वं महानृषिः |
1189 | 1020005c | नृपतिं सुव्रतो धीरो वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत् |
1190 | 1020006a | इक्ष्वाकूणां कुले जातः साक्षाद्धर्म इवापरः |
1191 | 1020006c | धृतिमान्सुव्रतः श्रीमान्न धर्मं हातुमर्हसि |
1192 | 1020007a | त्रिषु लोकेषु विख्यातो धर्मात्मा इति राघवः |
1193 | 1020007c | स्वधर्मं प्रतिपद्यस्व नाधर्मं वोढुमर्हसि |
1194 | 1020008a | संश्रुत्यैवं करिष्यामीत्यकुर्वाणस्य राघव |
1195 | 1020008c | इष्टापूर्तवधो भूयात्तस्माद्रामं विसर्जय |
1196 | 1020009a | कृतास्त्रमकृतास्त्रं वा नैनं शक्ष्यन्ति राक्षसाः |
1197 | 1020009c | गुप्तं कुशिकपुत्रेण ज्वलनेनामृतं यथा |
1198 | 1020010a | एष विग्रहवान्धर्म एष वीर्यवतां वरः |
1199 | 1020010c | एष बुद्ध्याधिको लोके तपसश्च परायणम् |
1200 | 1020011a | एषोऽस्त्रान्विविधान्वेत्ति त्रैलोक्ये सचराचरे |
1201 | 1020011c | नैनमन्यः पुमान्वेत्ति न च वेत्स्यन्ति केचन |
1202 | 1020012a | न देवा नर्षयः केचिन्नासुरा न च राक्षसाः |
1203 | 1020012c | गन्धर्वयक्षप्रवराः सकिंनरमहोरगाः |
1204 | 1020013a | सर्वास्त्राणि कृशाश्वस्य पुत्राः परमधार्मिकाः |
1205 | 1020013c | कौशिकाय पुरा दत्ता यदा राज्यं प्रशासति |
1206 | 1020014a | तेऽपि पुत्राः कृशाश्वस्य प्रजापतिसुतासुताः |
1207 | 1020014c | नकरूपा महावीर्या दीप्तिमन्तो जयावहाः |
1208 | 1020015a | जया च सुप्रभा चैव दक्षकन्ये सुमध्यमे |
1209 | 1020015c | ते सुवातेऽस्त्रशस्त्राणि शतं परम भास्वरम् |
1210 | 1020016a | पञ्चाशतं सुताँल्लेभे जया नाम वरान्पुरा |
1211 | 1020016c | वधायासुरसैन्यानाममेयान्कामरूपिणः |
1212 | 1020017a | सुप्रभाजनयच्चापि पुत्रान्पञ्चाशतं पुनः |
1213 | 1020017c | संहारान्नाम दुर्धर्षान्दुराक्रामान्बलीयसः |
1214 | 1020018a | तानि चास्त्राणि वेत्त्येष यथावत्कुशिकात्मजः |
1215 | 1020018c | अपूर्वाणां च जनने शक्तो भूयश्च धर्मवित् |
1216 | 1020019a | एवं वीर्यो महातेजा विश्वामित्रो महातपाः |
1217 | 1020019c | न रामगमने राजन्संशयं गन्तुमर्हसि |
1218 | 1021001a | तथा वसिष्ठे ब्रुवति राजा दशरथः सुतम् |
1219 | 1021001c | प्रहृष्टवदनो राममाजुहाव सलक्ष्मणम् |
1220 | 1021002a | कृतस्वस्त्ययनं मात्रा पित्रा दशरथेन च |
1221 | 1021002c | पुरोधसा वसिष्ठेन मङ्गलैरभिमन्त्रितम् |
1222 | 1021003a | स पुत्रं मूर्ध्न्युपाघ्राय राजा दशरथः प्रियम् |
1223 | 1021003c | ददौ कुशिकपुत्राय सुप्रीतेनान्तरात्मना |
1224 | 1021004a | ततो वायुः सुखस्पर्शो विरजस्को ववौ तदा |
1225 | 1021004c | विश्वामित्रगतं रामं दृष्ट्वा राजीवलोचनम् |
1226 | 1021005a | पुष्पवृष्टिर्महत्यासीद्देवदुन्दुभिनिस्वनः |
1227 | 1021005c | शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषः प्रयाते तु महात्मनि |
1228 | 1021006a | विश्वामित्रो ययावग्रे ततो रामो महायशाः |
1229 | 1021006c | काकपक्षधरो धन्वी तं च सौमित्रिरन्वगात् |
1230 | 1021007a | कलापिनौ धनुष्पाणी शोभयानौ दिशो दश |
1231 | 1021007c | विश्वामित्रं महात्मानं त्रिशीर्षाविव पन्नगौ |
1232 | 1021007e | अनुजग्मतुरक्षुद्रौ पितामहमिवाश्विनौ |
1233 | 1021008a | बद्धगोधाङ्गुलित्राणौ खड्गवन्तौ महाद्युती |
1234 | 1021008c | स्थाणुं देवमिवाचिन्त्यं कुमाराविव पावकी |
1235 | 1021009a | अध्यर्धयोजनं गत्वा सरय्वा दक्षिणे तटे |
1236 | 1021009c | रामेति मधुरा वाणीं विश्वामित्रोऽभ्यभाषत |
1237 | 1021010a | गृहाण वत्स सलिलं मा भूत्कालस्य पर्ययः |
1238 | 1021010c | मन्त्रग्रामं गृहाण त्वं बलामतिबलां तथा |
1239 | 1021011a | न श्रमो न ज्वरो वा ते न रूपस्य विपर्ययः |
1240 | 1021011c | न च सुप्तं प्रमत्तं वा धर्षयिष्यन्ति नैरृताः |
1241 | 1021012a | न बाह्वोः सदृशो वीर्ये पृथिव्यामस्ति कश्चन |
1242 | 1021012c | त्रिषु लोकेषु वा राम न भवेत्सदृशस्तव |
1243 | 1021013a | न सौभाग्ये न दाक्षिण्ये न ज्ञाने बुद्धिनिश्चये |
1244 | 1021013c | नोत्तरे प्रतिपत्तव्यो समो लोके तवानघ |
1245 | 1021014a | एतद्विद्याद्वये लब्धे भविता नास्ति ते समः |
1246 | 1021014c | बला चातिबला चैव सर्वज्ञानस्य मातरौ |
1247 | 1021015a | क्षुत्पिपासे न ते राम भविष्येते नरोत्तम |
1248 | 1021015c | बलामतिबलां चैव पठतः पथि राघव |
1249 | 1021015e | विद्याद्वयमधीयाने यशश्चाप्यतुलं भुवि |
1250 | 1021016a | पितामहसुते ह्येते विद्ये तेजःसमन्विते |
1251 | 1021016c | प्रदातुं तव काकुत्स्थ सदृशस्त्वं हि धार्मिक |
1252 | 1021017a | कामं बहुगुणाः सर्वे त्वय्येते नात्र संशयः |
1253 | 1021017c | तपसा संभृते चैते बहुरूपे भविष्यतः |
1254 | 1021018a | ततो रामो जलं स्पृष्ट्वा प्रहृष्टवदनः शुचिः |
1255 | 1021018c | प्रतिजग्राह ते विद्ये महर्षेर्भावितात्मनः |
1256 | 1021018e | विद्यासमुदितो रामः शुशुभे भूरिविक्रमः |
1257 | 1021019a | गुरुकार्याणि सर्वाणि नियुज्य कुशिकात्मजे |
1258 | 1021019c | ऊषुस्तां रजनीं तत्र सरय्वां सुसुखं त्रयः |
1259 | 1022001a | प्रभातायां तु शर्वर्यां विश्वामित्रो महामुनिः |
1260 | 1022001c | अभ्यभाषत काकुत्स्थं शयानं पर्णसंस्तरे |
1261 | 1022002a | कौसल्या सुप्रजा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते |
1262 | 1022002c | उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्तव्यं दैवमाह्निकम् |
1263 | 1022003a | तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नृपात्मजौ |
1264 | 1022003c | स्नात्वा कृतोदकौ वीरौ जेपतुः परमं जपम् |
1265 | 1022004a | कृताह्निकौ महावीर्यौ विश्वामित्रं तपोधनम् |
1266 | 1022004c | अभिवाद्याभिसंहृष्टौ गमनायोपतस्थतुः |
1267 | 1022005a | तौ प्रयाते महावीर्यौ दिव्यं त्रिपथगां नदीम् |
1268 | 1022005c | ददृशाते ततस्तत्र सरय्वाः संगमे शुभे |
1269 | 1022006a | तत्राश्रमपदं पुण्यमृषीणामुग्रतेजसाम् |
1270 | 1022006c | बहुवर्षसहस्राणि तप्यतां परमं तपः |
1271 | 1022007a | तं दृष्ट्वा परमप्रीतौ राघवौ पुण्यमाश्रमम् |
1272 | 1022007c | ऊचतुस्तं महात्मानं विश्वामित्रमिदं वचः |
1273 | 1022008a | कस्यायमाश्रमः पुण्यः को न्वस्मिन्वसते पुमान् |
1274 | 1022008c | भगवञ्श्रोतुमिच्छावः परं कौतूहलं हि नौ |
1275 | 1022009a | तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा प्रहस्य मुनिपुंगवः |
1276 | 1022009c | अब्रवीच्छ्रूयतां राम यस्यायं पूर्व आश्रमः |
1277 | 1022010a | कन्दर्पो मूर्तिमानासीत्काम इत्युच्यते बुधैः |
1278 | 1022011a | तपस्यन्तमिह स्थाणुं नियमेन समाहितम् |
1279 | 1022011c | कृतोद्वाहं तु देवेशं गच्छन्तं समरुद्गणम् |
1280 | 1022011e | धर्षयामास दुर्मेधा हुंकृतश्च महात्मना |
1281 | 1022012a | दग्धस्य तस्य रौद्रेण चक्षुषा रघुनन्दन |
1282 | 1022012c | व्यशीर्यन्त शरीरात्स्वात्सर्वगात्राणि दुर्मतेः |
1283 | 1022013a | तस्य गात्रं हतं तत्र निर्दग्धस्य महात्मना |
1284 | 1022013c | अशरीरः कृतः कामः क्रोधाद्देवेश्वरेण ह |
1285 | 1022014a | अनङ्ग इति विख्यातस्तदा प्रभृति राघव |
1286 | 1022014c | स चाङ्गविषयः श्रीमान्यत्राङ्गं स मुमोच ह |
1287 | 1022015a | तस्यायमाश्रमः पुण्यस्तस्येमे मुनयः पुरा |
1288 | 1022015c | शिष्या धर्मपरा वीर तेषां पापं न विद्यते |
1289 | 1022016a | इहाद्य रजनीं राम वसेम शुभदर्शन |
1290 | 1022016c | पुण्ययोः सरितोर्मध्ये श्वस्तरिष्यामहे वयम् |
1291 | 1022017a | तेषां संवदतां तत्र तपो दीर्घेण चक्षुषा |
1292 | 1022017c | विज्ञाय परमप्रीता मुनयो हर्षमागमन् |
1293 | 1022018a | अर्घ्यं पाद्यं तथातिथ्यं निवेद्यकुशिकात्मजे |
1294 | 1022018c | रामलक्ष्मणयोः पश्चादकुर्वन्नतिथिक्रियाम् |
1295 | 1022019a | सत्कारं समनुप्राप्य कथाभिरभिरञ्जयन् |
1296 | 1022019c | न्यवसन्सुसुखं तत्र कामाश्रमपदे तदा |
1297 | 1023001a | ततः प्रभाते विमले कृताह्निकमरिंदमौ |
1298 | 1023001c | विश्वामित्रं पुरस्कृत्य नद्यास्तीरमुपागतौ |
1299 | 1023002a | ते च सर्वे महात्मानो मुनयः संशितव्रताः |
1300 | 1023002c | उपस्थाप्य शुभां नावं विश्वामित्रमथाब्रुवन् |
1301 | 1023003a | आरोहतु भवान्नावं राजपुत्रपुरस्कृतः |
1302 | 1023003c | अरिष्टं गच्छ पन्थानं मा भूत्कालस्य पर्ययः |
1303 | 1023004a | विश्वामित्रस्तथेत्युक्त्वा तानृषीनभिपूज्य च |
1304 | 1023004c | ततार सहितस्ताभ्यां सरितं सागरं गमाम् |
1305 | 1023005a | अथ रामः सरिन्मध्ये पप्रच्छ मुनिपुङ्गवम् |
1306 | 1023005c | वारिणो भिद्यमानस्य किमयं तुमुलो ध्वनिः |
1307 | 1023006a | राघवस्य वचः श्रुत्वा कौतूहल समन्वितम् |
1308 | 1023006c | कथयामास धर्मात्मा तस्य शब्दस्य निश्चयम् |
1309 | 1023007a | कैलासपर्वते राम मनसा निर्मितं सरः |
1310 | 1023007c | ब्रह्मणा नरशार्दूल तेनेदं मानसं सरः |
1311 | 1023008a | तस्मात्सुस्राव सरसः सायोध्यामुपगूहते |
1312 | 1023008c | सरःप्रवृत्ता सरयूः पुण्या ब्रह्मसरश्च्युता |
1313 | 1023009a | तस्यायमतुलः शब्दो जाह्नवीमभिवर्तते |
1314 | 1023009c | वारिसंक्षोभजो राम प्रणामं नियतः कुरु |
1315 | 1023010a | ताभ्यां तु तावुभौ कृत्वा प्रणाममतिधार्मिकौ |
1316 | 1023010c | तीरं दक्षिणमासाद्य जग्मतुर्लघुविक्रमौ |
1317 | 1023011a | स वनं घोरसंकाशं दृष्ट्वा नृपवरात्मजः |
1318 | 1023011c | अविप्रहतमैक्ष्वाकः पप्रच्छ मुनिपुंगवम् |
1319 | 1023012a | अहो वनमिदं दुर्गं झिल्लिकागणनादितम् |
1320 | 1023012c | भैरवैः श्वापदैः कीर्णं शकुन्तैर्दारुणारवैः |
1321 | 1023013a | नानाप्रकारैः शकुनैर्वाश्यद्भिर्भैरवस्वनैः |
1322 | 1023013c | सिंहव्याघ्रवराहैश्च वारणैश्चापि शोभितम् |
1323 | 1023014a | धवाश्वकर्णककुभैर्बिल्वतिन्दुकपाटलैः |
1324 | 1023014c | संकीर्णं बदरीभिश्च किं न्विदं दारुणं वनम् |
1325 | 1023015a | तमुवाच महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः |
1326 | 1023015c | श्रूयतां वत्स काकुत्स्थ यस्यैतद्दारुणं वनम् |
1327 | 1023016a | एतौ जनपदौ स्फीतौ पूर्वमास्तां नरोत्तम |
1328 | 1023016c | मलदाश्च करूषाश्च देवनिर्माण निर्मितौ |
1329 | 1023017a | पुरा वृत्रवधे राम मलेन समभिप्लुतम् |
1330 | 1023017c | क्षुधा चैव सहस्राक्षं ब्रह्महत्या यदाविशत् |
1331 | 1023018a | तमिन्द्रं स्नापयन्देवा ऋषयश्च तपोधनाः |
1332 | 1023018c | कलशैः स्नापयामासुर्मलं चास्य प्रमोचयन् |
1333 | 1023019a | इह भूम्यां मलं दत्त्वा दत्त्वा कारुषमेव च |
1334 | 1023019c | शरीरजं महेन्द्रस्य ततो हर्षं प्रपेदिरे |
1335 | 1023020a | निर्मलो निष्करूषश्च शुचिरिन्द्रो यदाभवत् |
1336 | 1023020c | ददौ देशस्य सुप्रीतो वरं प्रभुरनुत्तमम् |
1337 | 1023021a | इमौ जनपदौ स्थीतौ ख्यातिं लोके गमिष्यतः |
1338 | 1023021c | मलदाश्च करूषाश्च ममाङ्गमलधारिणौ |
1339 | 1023022a | साधु साध्विति तं देवाः पाकशासनमब्रुवन् |
1340 | 1023022c | देशस्य पूजां तां दृष्ट्वा कृतां शक्रेण धीमता |
1341 | 1023023a | एतौ जनपदौ स्थीतौ दीर्घकालमरिंदम |
1342 | 1023023c | मलदाश्च करूषाश्च मुदितौ धनधान्यतः |
1343 | 1023024a | कस्यचित्त्वथ कालस्य यक्षी वै कामरूपिणी |
1344 | 1023024c | बलं नागसहस्रस्य धारयन्ती तदा ह्यभूत् |
1345 | 1023025a | ताटका नाम भद्रं ते भार्या सुन्दस्य धीमतः |
1346 | 1023025c | मारीचो राक्षसः पुत्रो यस्याः शक्रपराक्रमः |
1347 | 1023026a | इमौ जनपदौ नित्यं विनाशयति राघव |
1348 | 1023026c | मलदांश्च करूषांश्च ताटका दुष्टचारिणी |
1349 | 1023027a | सेयं पन्थानमावार्य वसत्यत्यर्धयोजने |
1350 | 1023027c | अत एव च गन्तव्यं ताटकाया वनं यतः |
1351 | 1023028a | स्वबाहुबलमाश्रित्य जहीमां दुष्टचारिणीम् |
1352 | 1023028c | मन्नियोगादिमं देशं कुरु निष्कण्टकं पुनः |
1353 | 1023029a | न हि कश्चिदिमं देशं शक्रोत्यागन्तुमीदृशम् |
1354 | 1023029c | यक्षिण्या घोरया राम उत्सादितमसह्यया |
1355 | 1023030a | एतत्ते सर्वमाख्यातं यथैतद्दरुणं वनम् |
1356 | 1023030c | यक्ष्या चोत्सादितं सर्वमद्यापि न निवर्तते |
1357 | 1024001a | अथ तस्याप्रमेयस्य मुनेर्वचनमुत्तमम् |
1358 | 1024001c | श्रुत्वा पुरुषशार्दूलः प्रत्युवाच शुभां गिरम् |
1359 | 1024002a | अल्पवीर्या यदा यक्षाः श्रूयन्ते मुनिपुंगव |
1360 | 1024002c | कथं नागसहस्रस्य धारयत्यबला बलम् |
1361 | 1024003a | विश्वामित्रोऽब्रवीद्वाक्यं शृणु येन बलोत्तरा |
1362 | 1024003c | वरदानकृतं वीर्यं धारयत्यबला बलम् |
1363 | 1024004a | पूर्वमासीन्महायक्षः सुकेतुर्नाम वीर्यवान् |
1364 | 1024004c | अनपत्यः शुभाचारः स च तेपे महत्तपः |
1365 | 1024005a | पितामहस्तु सुप्रीतस्तस्य यक्षपतेस्तदा |
1366 | 1024005c | कन्यारत्नं ददौ राम ताटकां नाम नामतः |
1367 | 1024006a | ददौ नागसहस्रस्य बलं चास्याः पितामहः |
1368 | 1024006c | न त्वेव पुत्रं यक्षाय ददौ ब्रह्मा महायशाः |
1369 | 1024007a | तां तु जातां विवर्धन्तीं रूपयौवनशालिनीम् |
1370 | 1024007c | जम्भपुत्राय सुन्दाय ददौ भार्यां यशस्विनीम् |
1371 | 1024008a | कस्यचित्त्वथ कालल्स्य यक्षी पुत्रं व्यजायत |
1372 | 1024008c | मारीचं नाम दुर्धर्षं यः शापाद्राक्षसोऽभवत् |
1373 | 1024009a | सुन्दे तु निहते राम अगस्त्यमृषिसत्तमम् |
1374 | 1024009c | ताटका सह पुत्रेण प्रधर्षयितुमिच्छति |
1375 | 1024010a | राक्षसत्वं भजस्वेति मारीचं व्याजहार सः |
1376 | 1024010c | अगस्त्यः परमक्रुद्धस्ताटकामपि शप्तवान् |
1377 | 1024011a | पुरुषादी महायक्षी विरूपा विकृतानना |
1378 | 1024011c | इदं रूपमपहाय दारुणं रूपमस्तु ते |
1379 | 1024012a | सैषा शापकृतामर्षा ताटका क्रोधमूर्छिता |
1380 | 1024012c | देशमुत्सादयत्येनमगस्त्यचरितं शुभम् |
1381 | 1024013a | एनां राघव दुर्वृत्तां यक्षीं परमदारुणाम् |
1382 | 1024013c | गोब्राह्मणहितार्थाय जहि दुष्टपराक्रमाम् |
1383 | 1024014a | न ह्येनां शापसंसृष्टां कश्चिदुत्सहते पुमान् |
1384 | 1024014c | निहन्तुं त्रिषु लोकेषु त्वामृते रघुनन्दन |
1385 | 1024015a | न हि ते स्त्रीवधकृते घृणा कार्या नरोत्तम |
1386 | 1024015c | चातुर्वर्ण्यहितार्थाय कर्तव्यं राजसूनुना |
1387 | 1024016a | राज्यभारनियुक्तानामेष धर्मः सनातनः |
1388 | 1024016c | अधर्म्यां जहि काकुत्स्ह धर्मो ह्यस्या न विद्यते |
1389 | 1024017a | श्रूयते हि पुरा शक्रो विरोचनसुतां नृप |
1390 | 1024017c | पृथिवीं हन्तुमिच्छन्तीं मन्थरामभ्यसूदयत् |
1391 | 1024018a | विष्णुना च पुरा राम भृगुपत्नी दृढव्रता |
1392 | 1024018c | अनिन्द्रं लोकमिच्छन्ती काव्यमाता निषूदिता |
1393 | 1024019a | एतैश्चान्यैश्च बहुभी राजपुत्रमहात्मभिः |
1394 | 1024019c | अधर्मनिरता नार्यो हताः पुरुषसत्तमैः |
1395 | 1025001a | मुनेर्वचनमक्लीबं श्रुत्वा नरवरात्मजः |
1396 | 1025001c | राघवः प्राञ्जलिर्भूत्वा प्रत्युवाच दृढव्रतः |
1397 | 1025002a | पितुर्वचननिर्देशात्पितुर्वचनगौरवात् |
1398 | 1025002c | वचनं कौशिकस्येति कर्तव्यमविशङ्कया |
1399 | 1025003a | अनुशिष्टोऽस्म्ययोध्यायां गुरुमध्ये महात्मना |
1400 | 1025003c | पित्रा दशरथेनाहं नावज्ञेयं च तद्वचः |
1401 | 1025004a | सोऽहं पितुर्वचः श्रुत्वा शासनाद्ब्रह्म वादिनः |
1402 | 1025004c | करिष्यामि न संदेहस्ताटकावधमुत्तमम् |
1403 | 1025005a | गोब्राह्मणहितार्थाय देशस्यास्य सुखाय च |
1404 | 1025005c | तव चैवाप्रमेयस्य वचनं कर्तुमुद्यतः |
1405 | 1025006a | एवमुक्त्वा धनुर्मध्ये बद्ध्वा मुष्टिमरिंदमः |
1406 | 1025006c | ज्याशब्दमकरोत्तीव्रं दिशः शब्देन पूरयन् |
1407 | 1025007a | तेन शब्देन वित्रस्तास्ताटका वनवासिनः |
1408 | 1025007c | ताटका च सुसंक्रुद्धा तेन शब्देन मोहिता |
1409 | 1025008a | तं शब्दमभिनिध्याय राक्षसी क्रोधमूर्छिता |
1410 | 1025008c | श्रुत्वा चाभ्यद्रवद्वेगाद्यतः शब्दो विनिःसृतः |
1411 | 1025009a | तां दृष्ट्वा राघवः क्रुद्धां विकृतां विकृताननाम् |
1412 | 1025009c | प्रमाणेनातिवृद्धां च लक्ष्मणं सोऽभ्यभाषत |
1413 | 1025010a | पश्य लक्ष्मण यक्षिण्या भैरवं दारुणं वपुः |
1414 | 1025010c | भिद्येरन्दर्शनादस्या भीरूणां हृदयानि च |
1415 | 1025011a | एनां पश्य दुराधर्षां माया बलसमन्विताम् |
1416 | 1025011c | विनिवृत्तां करोम्यद्य हृतकर्णाग्रनासिकाम् |
1417 | 1025012a | न ह्येनामुत्सहे हन्तुं स्त्रीस्वभावेन रक्षिताम् |
1418 | 1025012c | वीर्यं चास्या गतिं चापि हनिष्यामीति मे मतिः |
1419 | 1025013a | एवं ब्रुवाणे रामे तु ताटका क्रोधमूर्छिता |
1420 | 1025013c | उद्यम्य बाहू गर्जन्ती राममेवाभ्यधावत |
1421 | 1025014a | तामापतन्तीं वेगेन विक्रान्तामशनीमिव |
1422 | 1025014c | शरेणोरसि विव्याध सा पपात ममार च |
1423 | 1025015a | तां हतां भीमसंकाशां दृष्ट्वा सुरपतिस्तदा |
1424 | 1025015c | साधु साध्विति काकुत्स्थं सुराश्च समपूजयन् |
1425 | 1025016a | उवाच परमप्रीतः सहस्राक्षः पुरंदरः |
1426 | 1025016c | सुराश्च सर्वे संहृष्टा विश्वामित्रमथाब्रुवन् |
1427 | 1025017a | मुने कौशिके भद्रं ते सेन्द्राः सर्वे मरुद्गणाः |
1428 | 1025017c | तोषिताः कर्मणानेन स्नेहं दर्शय राघवे |
1429 | 1025018a | प्रजापतेर्भृशाश्वस्य पुत्रान्सत्यपराक्रमान् |
1430 | 1025018c | तपोबलभृतान्ब्रह्मन्राघवाय निवेदय |
1431 | 1025019a | पात्रभूतश्च ते ब्रह्मंस्तवानुगमने धृतः |
1432 | 1025019c | कर्तव्यं च महत्कर्म सुराणां राजसूनुना |
1433 | 1025020a | एवमुक्त्वा सुराः सर्वे हृष्टा जग्मुर्यथागतम् |
1434 | 1025020c | विश्वामित्रं पूजयित्वा ततः संध्या प्रवर्तते |
1435 | 1025021a | ततो मुनिवरः प्रीतिस्ताटका वधतोषितः |
1436 | 1025021c | मूर्ध्नि राममुपाघ्राय इदं वचनमब्रवीत् |
1437 | 1025022a | इहाद्य रजनीं राम वसेम शुभदर्शन |
1438 | 1025022c | श्वः प्रभाते गमिष्यामस्तदाश्रमपदं मम |
1439 | 1026001a | अथ तां रजनीमुष्य विश्वामिरो महायशाः |
1440 | 1026001c | प्रहस्य राघवं वाक्यमुवाच मधुराक्षरम् |
1441 | 1026002a | पतितुष्टोऽस्मि भद्रं ते राजपुत्र महायशः |
1442 | 1026002c | प्रीत्या परमया युक्तो ददाम्यस्त्राणि सर्वशः |
1443 | 1026003a | देवासुरगणान्वापि सगन्धर्वोरगानपि |
1444 | 1026003c | यैरमित्रान्प्रसह्याजौ वशीकृत्य जयिष्यसि |
1445 | 1026004a | तानि दिव्यानि भद्रं ते ददाम्यस्त्राणि सर्वशः |
1446 | 1026004c | दण्डचक्रं महद्दिव्यं तव दास्यामि राघव |
1447 | 1026005a | धर्मचक्रं ततो वीर कालचक्रं तथैव च |
1448 | 1026005c | विष्णुचक्रं तथात्युग्रमैन्द्रं चक्रं तथैव च |
1449 | 1026006a | वज्रमस्त्रं नरश्रेष्ठ शैवं शूलवरं तथा |
1450 | 1026006c | अस्त्रं ब्रह्मशिरश्चैव ऐषीकमपि राघव |
1451 | 1026007a | ददामि ते महाबाहो ब्राह्ममस्त्रमनुत्तमम् |
1452 | 1026007c | गदे द्वे चैव काकुत्स्थ मोदकी शिखरी उभे |
1453 | 1026008a | प्रदीप्ते नरशार्दूल प्रयच्छामि नृपात्मज |
1454 | 1026008c | धर्मपाशमहं राम कालपाशं तथैव च |
1455 | 1026009a | वारुणं पाशमस्त्रं च ददान्यहमनुत्तमम् |
1456 | 1026009c | अशनी द्वे प्रयच्छामि शुष्कार्द्रे रघुनन्दन |
1457 | 1026010a | ददामि चास्त्रं पैनाकमस्त्रं नारायणं तथा |
1458 | 1026010c | आग्नेयमस्त्र दयितं शिखरं नाम नामतः |
1459 | 1026011a | वायव्यं प्रथमं नाम ददामि तव राघव |
1460 | 1026011c | अस्त्रं हयशिरो नाम क्रौञ्चमस्त्रं तथैव च |
1461 | 1026012a | शक्ति द्वयं च काकुत्स्थ ददामि तव चानघ |
1462 | 1026012c | कङ्कालं मुसलं घोरं कापालमथ कङ्कणम् |
1463 | 1026013a | धारयन्त्यसुरा यानि ददाम्येतानि सर्वशः |
1464 | 1026013c | वैद्याधरं महास्त्रं च नन्दनं नाम नामतः |
1465 | 1026014a | असिरत्नं महाबाहो ददामि नृवरात्मज |
1466 | 1026014c | गान्धर्वमस्त्रं दयितं मानवं नाम नामतः |
1467 | 1026015a | प्रस्वापनप्रशमने दद्मि सौरं च राघव |
1468 | 1026015c | दर्पणं शोषणं चैव संतापनविलापने |
1469 | 1026016a | मदनं चैव दुर्धर्षं कन्दर्पदयितं तथा |
1470 | 1026016c | पैशाचमस्त्रं दयितं मोहनं नाम नामतः |
1471 | 1026016e | प्रतीच्छ नरशार्दूल राजपुत्र महायशः |
1472 | 1026017a | तामसं नरशार्दूल सौमनं च महाबलम् |
1473 | 1026017c | संवर्तं चैव दुर्धर्षं मौसलं च नृपात्मज |
1474 | 1026018a | सत्यमस्त्रं महाबाहो तथा मायाधरं परम् |
1475 | 1026018c | घोरं तेजःप्रभं नाम परतेजोऽपकर्षणम् |
1476 | 1026019a | सोमास्त्रं शिशिरं नाम त्वाष्ट्रमस्त्रं सुदामनम् |
1477 | 1026019c | दारुणं च भगस्यापि शीतेषुमथ मानवम् |
1478 | 1026020a | एतान्नाम महाबाहो कामरूपान्महाबलान् |
1479 | 1026020c | गृहाण परमोदारान्क्षिप्रमेव नृपात्मज |
1480 | 1026021a | स्थितस्तु प्राङ्मुखो भूत्वा शुचिर्निवरतस्तदा |
1481 | 1026021c | ददौ रामाय सुप्रीतो मन्त्रग्राममनुत्तमम् |
1482 | 1026022a | जपतस्तु मुनेस्तस्य विश्वामित्रस्य धीमतः |
1483 | 1026022c | उपतस्थुर्महार्हाणि सर्वाण्यस्त्राणि राघवम् |
1484 | 1026023a | ऊचुश्च मुदिता रामं सर्वे प्राञ्जलयस्तदा |
1485 | 1026023c | इमे स्म परमोदार किंकरास्तव राघव |
1486 | 1026024a | प्रतिगृह्य च काकुत्स्थः समालभ्य च पाणिना |
1487 | 1026024c | मनसा मे भविष्यध्वमिति तान्यभ्यचोदयत् |
1488 | 1026025a | ततः प्रीतमना रामो विश्वामित्रं महामुनिम् |
1489 | 1026025c | अभिवाद्य महातेजा गमनायोपचक्रमे |
1490 | 1027001a | प्रतिगृह्य ततोऽस्त्राणि प्रहृष्टवदनः शुचिः |
1491 | 1027001c | गच्छन्नेव च काकुत्स्थो विश्वामित्रमथाब्रवीत् |
1492 | 1027002a | गृहीतास्त्रोऽस्मि भगवन्दुराधर्षः सुरैरपि |
1493 | 1027002c | अस्त्राणां त्वहमिच्छामि संहारं मुनिपुंगव |
1494 | 1027003a | एवं ब्रुवति काकुत्स्थे विश्वामित्रो महामुनिः |
1495 | 1027003c | संहारं व्याजहाराथ धृतिमान्सुव्रतः शुचिः |
1496 | 1027004a | सत्यवन्तं सत्यकीर्तिं धृष्टं रभसमेव च |
1497 | 1027004c | प्रतिहारतरं नाम पराङ्मुखमवाङ्मुखम् |
1498 | 1027005a | लक्षाक्षविषमौ चैव दृढनाभसुनाभकौ |
1499 | 1027005c | दशाक्षशतवक्त्रौ च दशशीर्षशतोदरौ |
1500 | 1027006a | पद्मनाभमहानाभौ दुन्दुनाभसुनाभकौ |
1501 | 1027006c | ज्योतिषं कृशनं चैव नैराश्य विमलावुभौ |
1502 | 1027007a | यौगन्धरहरिद्रौ च दैत्यप्रमथनौ तथा |
1503 | 1027007c | पित्र्यं सौमनसं चैव विधूतमकरावुभौ |
1504 | 1027008a | करवीरकरं चैव धनधान्यौ च राघव |
1505 | 1027008c | कामरूपं कामरुचिं मोहमावरणं तथा |
1506 | 1027009a | जृम्भकं सर्वनाभं च सन्तानवरणौ तथा |
1507 | 1027009c | भृशाश्वतनयान्राम भास्वरान्कामरूपिणः |
1508 | 1027010a | प्रतीच्छ मम भद्रं ते पात्रभूतोऽसि राघव |
1509 | 1027010c | दिव्यभास्वरदेहाश्च मूर्तिमन्तः सुखप्रदाः |
1510 | 1027011a | रामं प्राञ्जलयो भूत्वाब्रुवन्मधुरभाषिणः |
1511 | 1027011c | इमे स्म नरशार्दूल शाधि किं करवाम ते |
1512 | 1027012a | गम्यतामिति तानाह यथेष्टं रघुनन्दनः |
1513 | 1027012c | मानसाः कार्यकालेषु साहाय्यं मे करिष्यथ |
1514 | 1027013a | अथ ते राममामन्त्र्य कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् |
1515 | 1027013c | एवमस्त्विति काकुत्स्थमुक्त्वा जग्मुर्यथागतम् |
1516 | 1027014a | स च तान्राघवो ज्ञात्वा विश्वामित्रं महामुनिम् |
1517 | 1027014c | गच्छन्नेवाथ मधुरं श्लक्ष्णं वचनमब्रवीत् |
1518 | 1027015a | किं न्वेतन्मेघसंकाशं पर्वतस्याविदूरतः |
1519 | 1027015c | वृक्षषण्डमितो भाति परं कौतूहलं हि मे |
1520 | 1027016a | दर्शनीयं मृगाकीर्णं मनोहरमतीव च |
1521 | 1027016c | नानाप्रकारैः शकुनैर्वल्गुभाषैरलंकृतम् |
1522 | 1027017a | निःसृताः स्म मुनिश्रेष्ठ कान्ताराद्रोमहर्षणात् |
1523 | 1027017c | अनया त्ववगच्छामि देशस्य सुखवत्तया |
1524 | 1027018a | सर्वं मे शंस भगवन्कस्याश्रमपदं त्विदम् |
1525 | 1027018c | संप्राप्ता यत्र ते पापा ब्रह्मघ्ना दुष्टचारिणः |
1526 | 1028001a | अथ तस्याप्रमेयस्य तद्वनं परिपृच्छतः |
1527 | 1028001c | विश्वामित्रो महातेजा व्याख्यातुमुपचक्रमे |
1528 | 1028002a | एष पूर्वाश्रमो राम वामनस्य महात्मनः |
1529 | 1028002c | सिद्धाश्रम इति ख्यातः सिद्धो ह्यत्र महातपाः |
1530 | 1028003a | एतस्मिन्नेव काले तु राजा वैरोचनिर्बलिः |
1531 | 1028003c | निर्जित्य दैवतगणान्सेन्द्रांश्च समरुद्गणान् |
1532 | 1028003e | कारयामास तद्राज्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतः |
1533 | 1028004a | बलेस्तु यजमानस्य देवाः साग्निपुरोगमाः |
1534 | 1028004c | समागम्य स्वयं चैव विष्णुमूचुरिहाश्रमे |
1535 | 1028005a | बलिर्वैरोचनिर्विष्णो यजते यज्ञमुत्तमम् |
1536 | 1028005c | असमाप्ते क्रतौ तस्मिन्स्वकार्यमभिपद्यताम् |
1537 | 1028006a | ये चैनमभिवर्तन्ते याचितार इतस्ततः |
1538 | 1028006c | यच्च यत्र यथावच्च सर्वं तेभ्यः प्रयच्छति |
1539 | 1028007a | स त्वं सुरहितार्थाय मायायोगमुपाश्रितः |
1540 | 1028007c | वामनत्वं गतो विष्णो कुरु कल्याणमुत्तमम् |
1541 | 1028008a | अयं सिद्धाश्रमो नाम प्रसादात्ते भविष्यति |
1542 | 1028008c | सिद्धे कर्मणि देवेश उत्तिष्ठ भगवन्नितः |
1543 | 1028009a | अथ विष्णुर्महातेजा अदित्यां समजायत |
1544 | 1028009c | वामनं रूपमास्थाय वैरोचनिमुपागमत् |
1545 | 1028010a | त्रीन्क्रमानथ भिक्षित्वा प्रतिगृह्य च मानतः |
1546 | 1028010c | आक्रम्य लोकाँल्लोकात्मा सर्वभूतहिते रतः |
1547 | 1028011a | महेन्द्राय पुनः प्रादान्नियम्य बलिमोजसा |
1548 | 1028011c | त्रैलोक्यं स महातेजाश्चक्रे शक्रवशं पुनः |
1549 | 1028012a | तेनैष पूर्वमाक्रान्त आश्रमः श्रमनाशनः |
1550 | 1028012c | मयापि भक्त्या तस्यैष वामनस्योपभुज्यते |
1551 | 1028013a | एतमाश्रममायान्ति राक्षसा विघ्नकारिणः |
1552 | 1028013c | अत्र ते पुरुषव्याघ्र हन्तव्या दुष्टचारिणः |
1553 | 1028014a | अद्य गच्छामहे राम सिद्धाश्रममनुत्तमम् |
1554 | 1028014c | तदाश्रमपदं तात तवाप्येतद्यथा मम |
1555 | 1028015a | तं दृष्ट्वा मुनयः सर्वे सिद्धाश्रमनिवासिनः |
1556 | 1028015c | उत्पत्योत्पत्य सहसा विश्वामित्रमपूजयन् |
1557 | 1028016a | यथार्हं चक्रिरे पूजां विश्वामित्राय धीमते |
1558 | 1028016c | तथैव राजपुत्राभ्यामकुर्वन्नतिथिक्रियाम् |
1559 | 1028017a | मुहूर्तमथ विश्रान्तौ राजपुत्रावरिंदमौ |
1560 | 1028017c | प्राञ्जली मुनिशार्दूलमूचतू रघुनन्दनौ |
1561 | 1028018a | अद्यैव दीक्षां प्रविश भद्रं ते मुनिपुंगव |
1562 | 1028018c | सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धः स्यात्सत्यमस्तु वचस्तव |
1563 | 1028019a | एवमुक्तो महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः |
1564 | 1028019c | प्रविवेश तदा दीक्षां नियतो नियतेन्द्रियः |
1565 | 1028020a | कुमारावपि तां रात्रिमुषित्वा सुसमाहितौ |
1566 | 1028020c | प्रभातकाले चोत्थाय विश्वामित्रमवन्दताम् |
1567 | 1029001a | अथ तौ देशकालज्ञौ राजपुत्रावरिंदमौ |
1568 | 1029001c | देशे काले च वाक्यज्ञावब्रूतां कौशिकं वचः |
1569 | 1029002a | भगवञ्श्रोतुमिच्छावो यस्मिन्काले निशाचरौ |
1570 | 1029002c | संरक्षणीयौ तौ ब्रह्मन्नातिवर्तेत तत्क्षणम् |
1571 | 1029003a | एवं ब्रुवाणौ काकुत्स्थौ त्वरमाणौ युयुत्सया |
1572 | 1029003c | सर्वे ते मुनयः प्रीताः प्रशशंसुर्नृपात्मजौ |
1573 | 1029004a | अद्य प्रभृति षड्रात्रं रक्षतं राघवौ युवाम् |
1574 | 1029004c | दीक्षां गतो ह्येष मुनिर्मौनित्वं च गमिष्यति |
1575 | 1029005a | तौ तु तद्वचनं श्रुत्वा राजपुत्रौ यशस्विनौ |
1576 | 1029005c | अनिद्रौ षडहोरात्रं तपोवनमरक्षताम् |
1577 | 1029006a | उपासां चक्रतुर्वीरौ यत्तौ परमधन्विनौ |
1578 | 1029006c | ररक्षतुर्मुनिवरं विश्वामित्रमरिंदमौ |
1579 | 1029007a | अथ काले गते तस्मिन्षष्ठेऽहनि समागते |
1580 | 1029007c | सौमित्रमब्रवीद्रामो यत्तो भव समाहितः |
1581 | 1029008a | रामस्यैवं ब्रुवाणस्य त्वरितस्य युयुत्सया |
1582 | 1029008c | प्रजज्वाल ततो वेदिः सोपाध्यायपुरोहिता |
1583 | 1029009a | मन्त्रवच्च यथान्यायं यज्ञोऽसौ संप्रवर्तते |
1584 | 1029009c | आकाशे च महाञ्शब्दः प्रादुरासीद्भयानकः |
1585 | 1029010a | आवार्य गगनं मेघो यथा प्रावृषि निर्गतः |
1586 | 1029010c | तथा मायां विकुर्वाणौ राक्षसावभ्यधावताम् |
1587 | 1029011a | मारीचश्च सुबाहुश्च तयोरनुचरास्तथा |
1588 | 1029011c | आगम्य भीमसंकाशा रुधिरौघानवासृजन् |
1589 | 1029012a | तावापतन्तौ सहसा दृष्ट्वा राजीवलोचनः |
1590 | 1029012c | लक्ष्मणं त्वभिसंप्रेक्ष्य रामो वचनमब्रवीत् |
1591 | 1029013a | पश्य लक्ष्मण दुर्वृत्तान्राक्षसान्पिशिताशनान् |
1592 | 1029013c | मानवास्त्रसमाधूताननिलेन यथाघनान् |
1593 | 1029014a | मानवं परमोदारमस्त्रं परमभास्वरम् |
1594 | 1029014c | चिक्षेप परमक्रुद्धो मारीचोरसि राघवः |
1595 | 1029015a | स तेन परमास्त्रेण मानवेन समाहितः |
1596 | 1029015c | संपूर्णं योजनशतं क्षिप्तः सागरसंप्लवे |
1597 | 1029016a | विचेतनं विघूर्णन्तं शीतेषुबलपीडितम् |
1598 | 1029016c | निरस्तं दृश्य मारीचं रामो लक्ष्मणमब्रवीत् |
1599 | 1029017a | पश्य लक्ष्मण शीतेषुं मानवं धर्मसंहितम् |
1600 | 1029017c | मोहयित्वा नयत्येनं न च प्राणैर्वियुज्यते |
1601 | 1029018a | इमानपि वधिष्यामि निर्घृणान्दुष्टचारिणः |
1602 | 1029018c | राक्षसान्पापकर्मस्थान्यज्ञघ्नान्रुधिराशनान् |
1603 | 1029019a | विगृह्य सुमहच्चास्त्रमाग्नेयं रघुनन्दनः |
1604 | 1029019c | सुबाहुरसि चिक्षेप स विद्धः प्रापतद्भुवि |
1605 | 1029020a | शेषान्वायव्यमादाय निजघान महायशाः |
1606 | 1029020c | राघवः परमोदारो मुनीनां मुदमावहन् |
1607 | 1029021a | स हत्वा राक्षसान्सर्वान्यज्ञघ्नान्रघुनन्दनः |
1608 | 1029021c | ऋषिभिः पूजितस्तत्र यथेन्द्रो विजये पुरा |
1609 | 1029022a | अथ यज्ञे समाप्ते तु विश्वामित्रो महामुनिः |
1610 | 1029022c | निरीतिका दिशो दृष्ट्वा काकुत्स्थमिदमब्रवीत् |
1611 | 1029023a | कृतार्थोऽस्मि महाबाहो कृतं गुरुवचस्त्वया |
1612 | 1029023c | सिद्धाश्रममिदं सत्यं कृतं राम महायशः |
1613 | 1030001a | अथ तां रजनीं तत्र कृतार्थौ रामलक्षणौ |
1614 | 1030001c | ऊषतुर्मुदितौ वीरौ प्रहृष्टेनान्तरात्मना |
1615 | 1030002a | प्रभातायां तु शर्वर्यां कृतपौर्वाह्णिकक्रियौ |
1616 | 1030002c | विश्वामित्रमृषींश्चान्यान्सहितावभिजग्मतुः |
1617 | 1030003a | अभिवाद्य मुनिश्रेष्ठं ज्वलन्तमिव पावकम् |
1618 | 1030003c | ऊचतुर्मधुरोदारं वाक्यं मधुरभाषिणौ |
1619 | 1030004a | इमौ स्वो मुनिशार्दूल किंकरौ समुपस्थितौ |
1620 | 1030004c | आज्ञापय यथेष्टं वै शासनं करवाव किम् |
1621 | 1030005a | एवमुक्ते ततस्ताभ्यां सर्व एव महर्षयः |
1622 | 1030005c | विश्वामित्रं पुरस्कृत्य रामं वचनमब्रुवन् |
1623 | 1030006a | मैथिलस्य नरश्रेष्ठ जनकस्य भविष्यति |
1624 | 1030006c | यज्ञः परमधर्मिष्ठस्तत्र यास्यामहे वयम् |
1625 | 1030007a | त्वं चैव नरशार्दूल सहास्माभिर्गमिष्यसि |
1626 | 1030007c | अद्भुतं च धनूरत्नं तत्र त्वं द्रष्टुमर्हसि |
1627 | 1030008a | तद्धि पूर्वं नरश्रेष्ठ दत्तं सदसि दैवतैः |
1628 | 1030008c | अप्रमेयबलं घोरं मखे परमभास्वरम् |
1629 | 1030009a | नास्य देवा न गन्धर्वा नासुरा न च राक्षसाः |
1630 | 1030009c | कर्तुमारोपणं शक्ता न कथंचन मानुषाः |
1631 | 1030010a | धनुषस्तस्य वीर्यं हि जिज्ञासन्तो महीक्षितः |
1632 | 1030010c | न शेकुरारोपयितुं राजपुत्रा महाबलाः |
1633 | 1030011a | तद्धनुर्नरशार्दूल मैथिलस्य महात्मनः |
1634 | 1030011c | तत्र द्रक्ष्यसि काकुत्स्थ यज्ञं चाद्भुतदर्शनम् |
1635 | 1030012a | तद्धि यज्ञफलं तेन मैथिलेनोत्तमं धनुः |
1636 | 1030012c | याचितं नरशार्दूल सुनाभं सर्वदैवतैः |
1637 | 1030013a | एवमुक्त्वा मुनिवरः प्रस्थानमकरोत्तदा |
1638 | 1030013c | सर्षिसंघः सकाकुत्स्थ आमन्त्र्य वनदेवताः |
1639 | 1030014a | स्वस्ति वोऽस्तु गमिष्यामि सिद्धः सिद्धाश्रमादहम् |
1640 | 1030014c | उत्तरे जाह्नवीतीरे हिमवन्तं शिलोच्चयम् |
1641 | 1030015a | प्रदक्षिणं ततः कृत्वा सिद्धाश्रममनुत्तमम् |
1642 | 1030015c | उत्तरां दिशमुद्दिश्य प्रस्थातुमुपचक्रमे |
1643 | 1030016a | तं व्रजन्तं मुनिवरमन्वगादनुसारिणाम् |
1644 | 1030016c | शकटी शतमात्रं तु प्रयाणे ब्रह्मवादिनाम् |
1645 | 1030017a | मृगपक्षिगणाश्चैव सिद्धाश्रमनिवासिनः |
1646 | 1030017c | अनुजग्मुर्महात्मानं विश्वामित्रं महामुनिम् |
1647 | 1030018a | ते गत्वा दूरमध्वानं लम्बमाने दिवाकरे |
1648 | 1030018c | वासं चक्रुर्मुनिगणाः शोणाकूले समाहिताः |
1649 | 1030019a | तेऽस्तं गते दिनकरे स्नात्वा हुतहुताशनाः |
1650 | 1030019c | विश्वामित्रं पुरस्कृत्य निषेदुरमितौजसः |
1651 | 1030020a | रामोऽपि सहसौमित्रिर्मुनींस्तानभिपूज्य च |
1652 | 1030020c | अग्रतो निषसादाथ विश्वामित्रस्य धीमतः |
1653 | 1030021a | अथ रामो महातेजा विश्वामित्रं महामुनिम् |
1654 | 1030021c | पप्रच्छ मुनिशार्दूलं कौतूहलसमन्वितः |
1655 | 1030022a | भगवन्को न्वयं देशः समृद्धवनशोभितः |
1656 | 1030022c | श्रोतुमिच्छामि भद्रं ते वक्तुमर्हसि तत्त्वतः |
1657 | 1030023a | चोदितो रामवाक्येन कथयामास सुव्रतः |
1658 | 1030023c | तस्य देशस्य निखिलमृषिमध्ये महातपाः |
1659 | 1031001a | ब्रह्मयोनिर्महानासीत्कुशो नाम महातपाः |
1660 | 1031001c | वैदर्भ्यां जनयामास चतुरः सदृशान्सुतान् |
1661 | 1031002a | कुशाम्बं कुशनाभं च आधूर्त रजसं वसुम् |
1662 | 1031002c | दीप्तियुक्तान्महोत्साहान्क्षत्रधर्मचिकीर्षया |
1663 | 1031002e | तानुवाच कुशः पुत्रान्धर्मिष्ठान्सत्यवादिनः |
1664 | 1031003a | कुशस्य वचनं श्रुत्वा चत्वारो लोकसंमताः |
1665 | 1031003c | निवेशं चक्रिरे सर्वे पुराणां नृवरास्तदा |
1666 | 1031004a | कुशाम्बस्तु महातेजाः कौशाम्बीमकरोत्पुरीम् |
1667 | 1031004c | कुशनाभस्तु धर्मात्मा परं चक्रे महोदयम् |
1668 | 1031005a | आधूर्तरजसो राम धर्मारण्यं महीपतिः |
1669 | 1031005c | चक्रे पुरवरं राजा वसुश्चक्रे गिरिव्रजम् |
1670 | 1031006a | एषा वसुमती राम वसोस्तस्य महात्मनः |
1671 | 1031006c | एते शैलवराः पञ्च प्रकाशन्ते समन्ततः |
1672 | 1031007a | सुमागधी नदी रम्या मागधान्विश्रुताययौ |
1673 | 1031007c | पञ्चानां शैलमुख्यानां मध्ये मालेव शोभते |
1674 | 1031008a | सैषा हि मागधी राम वसोस्तस्य महात्मनः |
1675 | 1031008c | पूर्वाभिचरिता राम सुक्षेत्रा सस्यमालिनी |
1676 | 1031009a | कुशनाभस्तु राजर्षिः कन्याशतमनुत्तमम् |
1677 | 1031009c | जनयामास धर्मात्मा घृताच्यां रघुनन्दन |
1678 | 1031010a | तास्तु यौवनशालिन्यो रूपवत्यः स्वलंकृताः |
1679 | 1031010c | उद्यानभूमिमागम्य प्रावृषीव शतह्रदाः |
1680 | 1031011a | गायन्त्यो नृत्यमानाश्च वादयन्त्यश्च राघव |
1681 | 1031011c | आमोदं परमं जग्मुर्वराभरणभूषिताः |
1682 | 1031012a | अथ ताश्चारुसर्वाङ्ग्यो रूपेणाप्रतिमा भुवि |
1683 | 1031012c | उद्यानभूमिमागम्य तारा इव घनान्तरे |
1684 | 1031013a | ताः सर्वगुणसंपन्ना रूपयौवनसंयुताः |
1685 | 1031013c | दृष्ट्वा सर्वात्मको वायुरिदं वचनमब्रवीत् |
1686 | 1031014a | अहं वः कामये सर्वा भार्या मम भविष्यथ |
1687 | 1031014c | मानुषस्त्यज्यतां भावो दीर्घमायुरवाप्स्यथ |
1688 | 1031015a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा वायोरक्लिष्टकर्मणः |
1689 | 1031015c | अपहास्य ततो वाक्यं कन्याशतमथाब्रवीत् |
1690 | 1031016a | अन्तश्चरसि भूतानां सर्वेषां त्वं सुरोत्तम |
1691 | 1031016c | प्रभावज्ञाश्च ते सर्वाः किमस्मानवमन्यसे |
1692 | 1031017a | कुशनाभसुताः सर्वाः समर्थास्त्वां सुरोत्तम |
1693 | 1031017c | स्थानाच्च्यावयितुं देवं रक्षामस्तु तपो वयम् |
1694 | 1031018a | मा भूत्स कालो दुर्मेधः पितरं सत्यवादिनम् |
1695 | 1031018c | नावमन्यस्व धर्मेण स्वयंवरमुपास्महे |
1696 | 1031019a | पिता हि प्रभुरस्माकं दैवतं परमं हि सः |
1697 | 1031019c | यस्य नो दास्यति पिता स नो भर्ता भविष्यति |
1698 | 1031020a | तासां तद्वचनं श्रुत्वा वायुः परमकोपनः |
1699 | 1031020c | प्रविश्य सर्वगात्राणि बभञ्ज भगवान्प्रभुः |
1700 | 1031021a | ताः कन्या वायुना भग्ना विविशुर्नृपतेर्गृहम् |
1701 | 1031021c | दृष्ट्वा भग्नास्तदा राजा संभ्रान्त इदमब्रवीत् |
1702 | 1031022a | किमिदं कथ्यतां पुत्र्यः को धर्ममवमन्यते |
1703 | 1031022c | कुब्जाः केन कृताः सर्वा वेष्टन्त्यो नाभिभाषथ |
1704 | 1032001a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा कुशनाभस्य धीमतः |
1705 | 1032001c | शिरोभिश्चरणौ स्पृष्ट्वा कन्याशतमभाषत |
1706 | 1032002a | वायुः सर्वात्मको राजन्प्रधर्षयितुमिच्छति |
1707 | 1032002c | अशुभं मार्गमास्थाय न धर्मं प्रत्यवेक्षते |
1708 | 1032003a | पितृमत्यः स्म भद्रं ते स्वच्छन्दे न वयं स्थिताः |
1709 | 1032003c | पितरं नो वृणीष्व त्वं यदि नो दास्यते तव |
1710 | 1032004a | तेन पापानुबन्धेन वचनं न प्रतीच्छता |
1711 | 1032004c | एवं ब्रुवन्त्यः सर्वाः स्म वायुना निहता भृषम् |
1712 | 1032005a | तासां तद्वचनं श्रुत्वा राजा परमधार्मिकः |
1713 | 1032005c | प्रत्युवाच महातेजाः कन्याशतमनुत्तमम् |
1714 | 1032006a | क्षान्तं क्षमावतां पुत्र्यः कर्तव्यं सुमहत्कृतम् |
1715 | 1032006c | ऐकमत्यमुपागम्य कुलं चावेक्षितं मम |
1716 | 1032007a | अलंकारो हि नारीणां क्षमा तु पुरुषस्य वा |
1717 | 1032007c | दुष्करं तच्च वः क्षान्तं त्रिदशेषु विशेषतः |
1718 | 1032008a | यादृशीर्वः क्षमा पुत्र्यः सर्वासामविशेषतः |
1719 | 1032008c | क्षमा दानं क्षमा यज्ञः क्षमा सत्यं च पुत्रिकाः |
1720 | 1032009a | क्षमा यशः क्षमा धर्मः क्षमायां विष्ठितं जगत् |
1721 | 1032009c | विसृज्य कन्याः काकुत्स्थ राजा त्रिदशविक्रमः |
1722 | 1032010a | मन्त्रज्ञो मन्त्रयामास प्रदानं सह मन्त्रिभिः |
1723 | 1032010c | देशे काले प्रदानस्य सदृशे प्रतिपादनम् |
1724 | 1032011a | एतस्मिन्नेव काले तु चूली नाम महामुनिः |
1725 | 1032011c | ऊर्ध्वरेताः शुभाचारो ब्राह्मं तप उपागमत् |
1726 | 1032012a | तप्यन्तं तमृषिं तत्र गन्धर्वी पर्युपासते |
1727 | 1032012c | सोमदा नाम भद्रं ते ऊर्मिला तनया तदा |
1728 | 1032013a | सा च तं प्रणता भूत्वा शुश्रूषणपरायणा |
1729 | 1032013c | उवास काले धर्मिष्ठा तस्यास्तुष्टोऽभवद्गुरुः |
1730 | 1032014a | स च तां कालयोगेन प्रोवाच रघुनन्दन |
1731 | 1032014c | परितुष्टोऽस्मि भद्रं ते किं करोमि तव प्रियम् |
1732 | 1032015a | परितुष्टं मुनिं ज्ञात्वा गन्धर्वी मधुरस्वरम् |
1733 | 1032015c | उवाच परमप्रीता वाक्यज्ञा वाक्यकोविदम् |
1734 | 1032016a | लक्ष्म्या समुदितो ब्राह्म्या ब्रह्मभूतो महातपाः |
1735 | 1032016c | ब्राह्मेण तपसा युक्तं पुत्रमिच्छामि धार्मिकम् |
1736 | 1032017a | अपतिश्चास्मि भद्रं ते भार्या चास्मि न कस्यचित् |
1737 | 1032017c | ब्राह्मेणोपगतायाश्च दातुमर्हसि मे सुतम् |
1738 | 1032018a | तस्याः प्रसन्नो ब्रह्मर्षिर्ददौ पुत्रमनुत्तमम् |
1739 | 1032018c | ब्रह्मदत्त इति ख्यातं मानसं चूलिनः सुतम् |
1740 | 1032019a | स राजा ब्रह्मदत्तस्तु पुरीमध्यवसत्तदा |
1741 | 1032019c | काम्पिल्यां परया लक्ष्म्या देवराजो यथा दिवम् |
1742 | 1032020a | स बुद्धिं कृतवान्राजा कुशनाभः सुधार्मिकः |
1743 | 1032020c | ब्रह्मदत्ताय काकुत्स्थ दातुं कन्याशतं तदा |
1744 | 1032021a | तमाहूय महातेजा ब्रह्मदत्तं महीपतिः |
1745 | 1032021c | ददौ कन्याशतं राजा सुप्रीतेनान्तरात्मना |
1746 | 1032022a | यथाक्रमं ततः पाणिं जग्राह रघुनन्दन |
1747 | 1032022c | ब्रह्मदत्तो मही पालस्तासां देवपतिर्यथा |
1748 | 1032023a | स्पृष्टमात्रे ततः पाणौ विकुब्जा विगतज्वराः |
1749 | 1032023c | युक्ताः परमया लक्ष्म्या बभुः कन्याशतं तदा |
1750 | 1032024a | स दृष्ट्वा वायुना मुक्ताः कुशनाभो महीपतिः |
1751 | 1032024c | बभूव परमप्रीतो हर्षं लेभे पुनः पुनः |
1752 | 1032025a | कृतोद्वाहं तु राजानं ब्रह्मदत्तं महीपतिः |
1753 | 1032025c | सदारं प्रेषयामास सोपाध्याय गणं तदा |
1754 | 1032026a | सोमदापि सुसंहृष्टा पुत्रस्य सदृशीं क्रियाम् |
1755 | 1032026c | यथान्यायं च गन्धर्वी स्नुषास्ताः प्रत्यनन्दत |
1756 | 1033001a | कृतोद्वाहे गते तस्मिन्ब्रह्मदत्ते च राघव |
1757 | 1033001c | अपुत्रः पुत्रलाभाय पौत्रीमिष्टिमकल्पयत् |
1758 | 1033002a | इष्ट्यां तु वर्तमानायां कुशनाभं महीपतिम् |
1759 | 1033002c | उवाच परमप्रीतः कुशो ब्रह्मसुतस्तदा |
1760 | 1033003a | पुत्रस्ते सदृशः पुत्र भविष्यति सुधार्मिकः |
1761 | 1033003c | गाधिं प्राप्स्यसि तेन त्वं कीर्तिं लोके च शाश्वतीम् |
1762 | 1033004a | एवमुक्त्वा कुशो राम कुशनाभं महीपतिम् |
1763 | 1033004c | जगामाकाशमाविश्य ब्रह्मलोकं सनातनम् |
1764 | 1033005a | कस्यचित्त्वथ कालस्य कुशनाभस्य धीमतः |
1765 | 1033005c | जज्ञे परमधर्मिष्ठो गाधिरित्येव नामतः |
1766 | 1033006a | स पिता मम काकुत्स्थ गाधिः परमधार्मिकः |
1767 | 1033006c | कुशवंशप्रसूतोऽस्मि कौशिको रघुनन्दन |
1768 | 1033007a | पूर्वजा भगिनी चापि मम राघव सुव्रता |
1769 | 1033007c | नाम्ना सत्यवती नाम ऋचीके प्रतिपादिता |
1770 | 1033008a | सशरीरा गता स्वर्गं भर्तारमनुवर्तिनी |
1771 | 1033008c | कौशिकी परमोदारा सा प्रवृत्ता महानदी |
1772 | 1033009a | दिव्या पुण्योदका रम्या हिमवन्तमुपाश्रिता |
1773 | 1033009c | लोकस्य हितकामार्थं प्रवृत्ता भगिनी मम |
1774 | 1033010a | ततोऽहं हिमवत्पार्श्वे वसामि नियतः सुखम् |
1775 | 1033010c | भगिन्याः स्नेहसंयुक्तः कौशिक्या रघुनन्दन |
1776 | 1033011a | सा तु सत्यवती पुण्या सत्ये धर्मे प्रतिष्ठिता |
1777 | 1033011c | पतिव्रता महाभागा कौशिकी सरितां वरा |
1778 | 1033012a | अहं हि नियमाद्राम हित्वा तां समुपागतः |
1779 | 1033012c | सिद्धाश्रममनुप्राप्य सिद्धोऽस्मि तव तेजसा |
1780 | 1033013a | एषा राम ममोत्पत्तिः स्वस्य वंशस्य कीर्तिता |
1781 | 1033013c | देशस्य च महाबाहो यन्मां त्वं परिपृच्छसि |
1782 | 1033014a | गतोऽर्धरात्रः काकुत्स्थ कथाः कथयतो मम |
1783 | 1033014c | निद्रामभ्येहि भद्रं ते मा भूद्विघ्नोऽध्वनीह नः |
1784 | 1033015a | निष्पन्दास्तरवः सर्वे निलीना मृगपक्षिणः |
1785 | 1033015c | नैशेन तमसा व्याप्ता दिशश्च रघुनन्दन |
1786 | 1033016a | शनैर्वियुज्यते संध्या नभो नेत्रैरिवावृतम् |
1787 | 1033016c | नक्षत्रतारागहनं ज्योतिर्भिरवभासते |
1788 | 1033017a | उत्तिष्ठति च शीतांशुः शशी लोकतमोनुदः |
1789 | 1033017c | ह्लादयन्प्राणिनां लोके मनांसि प्रभया विभो |
1790 | 1033018a | नैशानि सर्वभूतानि प्रचरन्ति ततस्ततः |
1791 | 1033018c | यक्षराक्षससंघाश्च रौद्राश्च पिशिताशनाः |
1792 | 1033019a | एवमुक्त्वा महातेजा विरराम महामुनिः |
1793 | 1033019c | साधु साध्विति तं सर्वे मुनयो ह्यभ्यपूजयन् |
1794 | 1033020a | रामोऽपि सह सौमित्रिः किंचिदागतविस्मयः |
1795 | 1033020c | प्रशस्य मुनिशार्दूलं निद्रां समुपसेवते |
1796 | 1034001a | उपास्य रात्रिशेषं तु शोणाकूले महर्षिभिः |
1797 | 1034001c | निशायां सुप्रभातायां विश्वामित्रोऽभ्यभाषत |
1798 | 1034002a | सुप्रभाता निशा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते |
1799 | 1034002c | उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते गमनायाभिरोचय |
1800 | 1034003a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कृत्वा पौर्वाह्णिकीं क्रियाम् |
1801 | 1034003c | गमनं रोचयामास वाक्यं चेदमुवाच ह |
1802 | 1034004a | अयं शोणः शुभजलो गाधः पुलिनमण्डितः |
1803 | 1034004c | कतरेण पथा ब्रह्मन्संतरिष्यामहे वयम् |
1804 | 1034005a | एवमुक्तस्तु रामेण विश्वामित्रोऽब्रवीदिदम् |
1805 | 1034005c | एष पन्था मयोद्दिष्टो येन यान्ति महर्षयः |
1806 | 1034006a | ते गत्वा दूरमध्वानं गतेऽर्धदिवसे तदा |
1807 | 1034006c | जाह्नवीं सरितां श्रेष्ठां ददृशुर्मुनिसेविताम् |
1808 | 1034007a | तां दृष्ट्वा पुण्यसलिलां हंससारससेविताम् |
1809 | 1034007c | बभूवुर्मुदिताः सर्वे मुनयः सहराघवाः |
1810 | 1034007e | तस्यास्तीरे ततश्चक्रुस्ते आवासपरिग्रहम् |
1811 | 1034008a | ततः स्नात्वा यथान्यायं संतर्प्य पितृदेवताः |
1812 | 1034008c | हुत्वा चैवाग्निहोत्राणि प्राश्य चामृतवद्धविः |
1813 | 1034009a | विविशुर्जाह्नवीतीरे शुचौ मुदितमानसाः |
1814 | 1034009c | विश्वामित्रं महात्मानं परिवार्य समन्ततः |
1815 | 1034010a | संप्रहृष्टमना रामो विश्वामित्रमथाब्रवीत् |
1816 | 1034010c | भगवञ्श्रोतुमिच्छामि गङ्गां त्रिपथगां नदीम् |
1817 | 1034010e | त्रैलोक्यं कथमाक्रम्य गता नदनदीपतिम् |
1818 | 1034011a | चोदितो राम वाक्येन विश्वामित्रो महामुनिः |
1819 | 1034011c | वृद्धिं जन्म च गङ्गाया वक्तुमेवोपचक्रमे |
1820 | 1034012a | शैलेन्द्रो हिमवान्नाम धातूनामाकरो महान् |
1821 | 1034012c | तस्य कन्या द्वयं राम रूपेणाप्रतिमं भुवि |
1822 | 1034013a | या मेरुदुहिता राम तयोर्माता सुमध्यमा |
1823 | 1034013c | नाम्ना मेना मनोज्ञा वै पत्नी हिमवतः प्रिया |
1824 | 1034014a | तस्यां गङ्गेयमभवज्ज्येष्ठा हिमवतः सुता |
1825 | 1034014c | उमा नाम द्वितीयाभूत्कन्या तस्यैव राघव |
1826 | 1034015a | अथ ज्येष्ठां सुराः सर्वे देवतार्थचिकीर्षया |
1827 | 1034015c | शैलेन्द्रं वरयामासुर्गङ्गां त्रिपथगां नदीम् |
1828 | 1034016a | ददौ धर्मेण हिमवांस्तनयां लोकपावनीम् |
1829 | 1034016c | स्वच्छन्दपथगां गङ्गां त्रैलोक्यहितकाम्यया |
1830 | 1034017a | प्रतिगृह्य त्रिलोकार्थं त्रिलोकहितकारिणः |
1831 | 1034017c | गङ्गामादाय तेऽगच्छन्कृतार्थेनान्तरात्मना |
1832 | 1034018a | या चान्या शैलदुहिता कन्यासीद्रघुनन्दन |
1833 | 1034018c | उग्रं सा व्रतमास्थाय तपस्तेपे तपोधना |
1834 | 1034019a | उग्रेण तपसा युक्तां ददौ शैलवरः सुताम् |
1835 | 1034019c | रुद्रायाप्रतिरूपाय उमां लोकनमस्कृताम् |
1836 | 1034020a | एते ते शैल राजस्य सुते लोकनमस्कृते |
1837 | 1034020c | गङ्गा च सरितां श्रेष्ठा उमा देवी च राघव |
1838 | 1034021a | एतत्ते धर्ममाख्यातं यथा त्रिपथगा नदी |
1839 | 1034021c | खं गता प्रथमं तात गतिं गतिमतां वर |
1840 | 1035001a | उक्त वाक्ये मुनौ तस्मिन्नुभौ राघवलक्ष्मणौ |
1841 | 1035001c | प्रतिनन्द्य कथां वीरावूचतुर्मुनिपुंगवम् |
1842 | 1035002a | धर्मयुक्तमिदं ब्रह्मन्कथितं परमं त्वया |
1843 | 1035002c | दुहितुः शैलराजस्य ज्येष्ठाय वक्तुमर्हसि |
1844 | 1035003a | विस्तरं विस्तरज्ञोऽसि दिव्यमानुषसंभवम् |
1845 | 1035003c | त्रीन्पथो हेतुना केन पावयेल्लोकपावनी |
1846 | 1035004a | कथं गङ्गां त्रिपथगा विश्रुता सरिदुत्तमा |
1847 | 1035004c | त्रिषु लोकेषु धर्मज्ञ कर्मभिः कैः समन्विता |
1848 | 1035005a | तथा ब्रुवति काकुत्स्थे विश्वामित्रस्तपोधनः |
1849 | 1035005c | निखिलेन कथां सर्वामृषिमध्ये न्यवेदयत् |
1850 | 1035006a | पुरा राम कृतोद्वाहः शितिकण्ठो महातपाः |
1851 | 1035006c | दृष्ट्वा च स्पृहया देवीं मैथुनायोपचक्रमे |
1852 | 1035007a | शितिकण्ठस्य देवस्य दिव्यं वर्षशतं गतम् |
1853 | 1035007c | न चापि तनयो राम तस्यामासीत्परंतप |
1854 | 1035008a | ततो देवाः समुद्विग्नाः पितामहपुरोगमाः |
1855 | 1035008c | यदिहोत्पद्यते भूतं कस्तत्प्रतिसहिष्यते |
1856 | 1035009a | अभिगम्य सुराः सर्वे प्रणिपत्येदमब्रुवन् |
1857 | 1035009c | देवदेव महादेव लोकस्यास्य हिते रत |
1858 | 1035009e | सुराणां प्रणिपातेन प्रसादं कर्तुमर्हसि |
1859 | 1035010a | न लोका धारयिष्यन्ति तव तेजः सुरोत्तम |
1860 | 1035010c | ब्राह्मेण तपसा युक्तो देव्या सह तपश्चर |
1861 | 1035011a | त्रैलोक्यहितकामार्थं तेजस्तेजसि धारय |
1862 | 1035011c | रक्ष सर्वानिमाँल्लोकान्नालोकं कर्तुमर्हसि |
1863 | 1035012a | देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकमहेश्वरः |
1864 | 1035012c | बाढमित्यब्रवीत्सर्वान्पुनश्चेदमुवाच ह |
1865 | 1035013a | धारयिष्याम्यहं तेजस्तेजस्येव सहोमया |
1866 | 1035013c | त्रिदशाः पृथिवी चैव निर्वाणमधिगच्छतु |
1867 | 1035014a | यदिदं क्षुभितं स्थानान्मम तेजो ह्यनुत्तमम् |
1868 | 1035014c | धारयिष्यति कस्तन्मे ब्रुवन्तु सुरसत्तमाः |
1869 | 1035015a | एवमुक्तास्ततो देवाः प्रत्यूचुर्वृषभध्वजम् |
1870 | 1035015c | यत्तेजः क्षुभितं ह्येतत्तद्धरा धारयिष्यति |
1871 | 1035016a | एवमुक्तः सुरपतिः प्रमुमोच महीतले |
1872 | 1035016c | तेजसा पृथिवी येन व्याप्ता सगिरिकानना |
1873 | 1035017a | ततो देवाः पुनरिदमूचुश्चाथ हुताशनम् |
1874 | 1035017c | प्रविश त्वं महातेजो रौद्रं वायुसमन्वितः |
1875 | 1035018a | तदग्निना पुनर्व्याप्तं संजातः श्वेतपर्वतः |
1876 | 1035018c | दिव्यं शरवणं चैव पावकादित्यसंनिभम् |
1877 | 1035018e | यत्र जातो महातेजाः कार्तिकेयोऽग्निसंभवः |
1878 | 1035019a | अथोमां च शिवं चैव देवाः सर्षि गणास्तदा |
1879 | 1035019c | पूजयामासुरत्यर्थं सुप्रीतमनसस्ततः |
1880 | 1035020a | अथ शैल सुता राम त्रिदशानिदमब्रवीत् |
1881 | 1035020c | समन्युरशपत्सर्वान्क्रोधसंरक्तलोचना |
1882 | 1035021a | यस्मान्निवारिता चैव संगता पुत्रकाम्यया |
1883 | 1035021c | अपत्यं स्वेषु दारेषु नोत्पादयितुमर्हथ |
1884 | 1035021e | अद्य प्रभृति युष्माकमप्रजाः सन्तु पत्नयः |
1885 | 1035022a | एवमुक्त्वा सुरान्सर्वाञ्शशाप पृथिवीमपि |
1886 | 1035022c | अवने नैकरूपा त्वं बहुभार्या भविष्यसि |
1887 | 1035023a | न च पुत्रकृतां प्रीतिं मत्क्रोधकलुषी कृता |
1888 | 1035023c | प्राप्स्यसि त्वं सुदुर्मेधे मम पुत्रमनिच्छती |
1889 | 1035024a | तान्सर्वान्व्रीडितान्दृष्ट्वा सुरान्सुरपतिस्तदा |
1890 | 1035024c | गमनायोपचक्राम दिशं वरुणपालिताम् |
1891 | 1035025a | स गत्वा तप आतिष्ठत्पार्श्वे तस्योत्तरे गिरेः |
1892 | 1035025c | हिमवत्प्रभवे शृङ्गे सह देव्या महेश्वरः |
1893 | 1035026a | एष ते विस्तरो राम शैलपुत्र्या निवेदितः |
1894 | 1035026c | गङ्गायाः प्रभवं चैव शृणु मे सहलक्ष्मणः |
1895 | 1036001a | तप्यमाने तपो देवे देवाः सर्षिगणाः पुरा |
1896 | 1036001c | सेनापतिमभीप्सन्तः पितामहमुपागमन् |
1897 | 1036002a | ततोऽब्रुवन्सुराः सर्वे भगवन्तं पितामहम् |
1898 | 1036002c | प्रणिपत्य शुभं वाक्यं सेन्द्राः साग्निपुरोगमाः |
1899 | 1036003a | यो नः सेनापतिर्देव दत्तो भगवता पुरा |
1900 | 1036003c | स तपः परमास्थाय तप्यते स्म सहोमया |
1901 | 1036004a | यदत्रानन्तरं कार्यं लोकानां हितकाम्यया |
1902 | 1036004c | संविधत्स्व विधानज्ञ त्वं हि नः परमा गतिः |
1903 | 1036005a | देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकपितामहः |
1904 | 1036005c | सान्त्वयन्मधुरैर्वाक्यैस्त्रिदशानिदमब्रवीत् |
1905 | 1036006a | शैलपुत्र्या यदुक्तं तन्न प्रजास्यथ पत्निषु |
1906 | 1036006c | तस्या वचनमक्लिष्टं सत्यमेव न संशयः |
1907 | 1036007a | इयमाकाशगा गङ्गा यस्यां पुत्रं हुताशनः |
1908 | 1036007c | जनयिष्यति देवानां सेनापतिमरिंदमम् |
1909 | 1036008a | ज्येष्ठा शैलेन्द्रदुहिता मानयिष्यति तं सुतम् |
1910 | 1036008c | उमायास्तद्बहुमतं भविष्यति न संशयः |
1911 | 1036009a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कृतार्था रघुनन्दन |
1912 | 1036009c | प्रणिपत्य सुराः सर्वे पितामहमपूजयन् |
1913 | 1036010a | ते गत्वा पर्वतं राम कैलासं धातुमण्डितम् |
1914 | 1036010c | अग्निं नियोजयामासुः पुत्रार्थं सर्वदेवताः |
1915 | 1036011a | देवकार्यमिदं देव समाधत्स्व हुताशन |
1916 | 1036011c | शैलपुत्र्यां महातेजो गङ्गायां तेज उत्सृज |
1917 | 1036012a | देवतानां प्रतिज्ञाय गङ्गामभ्येत्य पावकः |
1918 | 1036012c | गर्भं धारय वै देवि देवतानामिदं प्रियम् |
1919 | 1036013a | इत्येतद्वचनं श्रुत्वा दिव्यं रूपमधारयत् |
1920 | 1036013c | स तस्या महिमां दृष्ट्वा समन्तादवकीर्यत |
1921 | 1036014a | समन्ततस्तदा देवीमभ्यषिञ्चत पावकः |
1922 | 1036014c | सर्वस्रोतांसि पूर्णानि गङ्गाया रघुनन्दन |
1923 | 1036015a | तमुवाच ततो गङ्गा सर्वदेवपुरोहितम् |
1924 | 1036015c | अशक्ता धारणे देव तव तेजः समुद्धतम् |
1925 | 1036015e | दह्यमानाग्निना तेन संप्रव्यथितचेतना |
1926 | 1036016a | अथाब्रवीदिदं गङ्गां सर्वदेवहुताशनः |
1927 | 1036016c | इह हैमवते पादे गर्भोऽयं संनिवेश्यताम् |
1928 | 1036017a | श्रुत्वा त्वग्निवचो गङ्गा तं गर्भमतिभास्वरम् |
1929 | 1036017c | उत्ससर्ज महातेजाः स्रोतोभ्यो हि तदानघ |
1930 | 1036018a | यदस्या निर्गतं तस्मात्तप्तजाम्बूनदप्रभम् |
1931 | 1036018c | काञ्चनं धरणीं प्राप्तं हिरण्यममलं शुभम् |
1932 | 1036019a | ताम्रं कार्ष्णायसं चैव तैक्ष्ण्यादेवाभिजायत |
1933 | 1036019c | मलं तस्याभवत्तत्र त्रपुसीसकमेव च |
1934 | 1036020a | तदेतद्धरणीं प्राप्य नानाधातुरवर्धत |
1935 | 1036021a | निक्षिप्तमात्रे गर्भे तु तेजोभिरभिरञ्जितम् |
1936 | 1036021c | सर्वं पर्वतसंनद्धं सौवर्णमभवद्वनम् |
1937 | 1036022a | जातरूपमिति ख्यातं तदा प्रभृति राघव |
1938 | 1036022c | सुवर्णं पुरुषव्याघ्र हुताशनसमप्रभम् |
1939 | 1036023a | तं कुमारं ततो जातं सेन्द्राः सहमरुद्गणाः |
1940 | 1036023c | क्षीरसंभावनार्थाय कृत्तिकाः समयोजयन् |
1941 | 1036024a | ताः क्षीरं जातमात्रस्य कृत्वा समयमुत्तमम् |
1942 | 1036024c | ददुः पुत्रोऽयमस्माकं सर्वासामिति निश्चिताः |
1943 | 1036025a | ततस्तु देवताः सर्वाः कार्तिकेय इति ब्रुवन् |
1944 | 1036025c | पुत्रस्त्रैलोक्य विख्यातो भविष्यति न संशयः |
1945 | 1036026a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा स्कन्नं गर्भपरिस्रवे |
1946 | 1036026c | स्नापयन्परया लक्ष्म्या दीप्यमानमिवानलम् |
1947 | 1036027a | स्कन्द इत्यब्रुवन्देवाः स्कन्नं गर्भपरिस्रवात् |
1948 | 1036027c | कार्तिकेयं महाभागं काकुत्स्थज्वलनोपमम् |
1949 | 1036028a | प्रादुर्भूतं ततः क्षीरं कृत्तिकानामनुत्तमम् |
1950 | 1036028c | षण्णां षडाननो भूत्वा जग्राह स्तनजं पयः |
1951 | 1036029a | गृहीत्वा क्षीरमेकाह्ना सुकुमार वपुस्तदा |
1952 | 1036029c | अजयत्स्वेन वीर्येण दैत्यसैन्यगणान्विभुः |
1953 | 1036030a | सुरसेनागणपतिं ततस्तममलद्युतिम् |
1954 | 1036030c | अभ्यषिञ्चन्सुरगणाः समेत्याग्निपुरोगमाः |
1955 | 1036031a | एष ते राम गङ्गाया विस्तरोऽभिहितो मया |
1956 | 1036031c | कुमारसंभवश्चैव धन्यः पुण्यस्तथैव च |
1957 | 1037001a | तां कथां कौशिको रामे निवेद्य मधुराक्षरम् |
1958 | 1037001c | पुनरेवापरं वाक्यं काकुत्स्थमिदमब्रवीत् |
1959 | 1037002a | अयोध्याधिपतिः शूरः पूर्वमासीन्नराधिपः |
1960 | 1037002c | सगरो नाम धर्मात्मा प्रजाकामः स चाप्रजः |
1961 | 1037003a | वैदर्भदुहिता राम केशिनी नाम नामतः |
1962 | 1037003c | ज्येष्ठा सगरपत्नी सा धर्मिष्ठा सत्यवादिनी |
1963 | 1037004a | अरिष्टनेमिदुहिता रूपेणाप्रतिमा भुवि |
1964 | 1037004c | द्वितीया सगरस्यासीत्पत्नी सुमतिसंज्ञिता |
1965 | 1037005a | ताभ्यां सह तदा राजा पत्नीभ्यां तप्तवांस्तपः |
1966 | 1037005c | हिमवन्तं समासाद्य भृगुप्रस्रवणे गिरौ |
1967 | 1037006a | अथ वर्ष शते पूर्णे तपसाराधितो मुनिः |
1968 | 1037006c | सगराय वरं प्रादाद्भृगुः सत्यवतां वरः |
1969 | 1037007a | अपत्यलाभः सुमहान्भविष्यति तवानघ |
1970 | 1037007c | कीर्तिं चाप्रतिमां लोके प्राप्स्यसे पुरुषर्षभ |
1971 | 1037008a | एका जनयिता तात पुत्रं वंशकरं तव |
1972 | 1037008c | षष्टिं पुत्रसहस्राणि अपरा जनयिष्यति |
1973 | 1037009a | भाषमाणं नरव्याघ्रं राजपत्न्यौ प्रसाद्य तम् |
1974 | 1037009c | ऊचतुः परमप्रीते कृताञ्जलिपुटे तदा |
1975 | 1037010a | एकः कस्याः सुतो ब्रह्मन्का बहूञ्जनयिष्यति |
1976 | 1037010c | श्रोतुमिच्छावहे ब्रह्मन्सत्यमस्तु वचस्तव |
1977 | 1037011a | तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा भृगुः परम धार्मिकः |
1978 | 1037011c | उवाच परमां वाणीं स्वच्छन्दोऽत्र विधीयताम् |
1979 | 1037012a | एको वंशकरो वास्तु बहवो वा महाबलाः |
1980 | 1037012c | कीर्तिमन्तो महोत्साहाः का वा कं वरमिच्छति |
1981 | 1037013a | मुनेस्तु वचनं श्रुत्वा केशिनी रघुनन्दन |
1982 | 1037013c | पुत्रं वंशकरं राम जग्राह नृपसंनिधौ |
1983 | 1037014a | षष्टिं पुत्रसहस्राणि सुपर्णभगिनी तदा |
1984 | 1037014c | महोत्साहान्कीर्तिमतो जग्राह सुमतिः सुतान् |
1985 | 1037015a | प्रदक्षिणमृषिं कृत्वा शिरसाभिप्रणम्य च |
1986 | 1037015c | जगाम स्वपुरं राजा सभार्या रघुनन्दन |
1987 | 1037016a | अथ काले गते तस्मिञ्ज्येष्ठा पुत्रं व्यजायत |
1988 | 1037016c | असमञ्ज इति ख्यातं केशिनी सगरात्मजम् |
1989 | 1037017a | सुमतिस्तु नरव्याघ्र गर्भतुम्बं व्यजायत |
1990 | 1037017c | षष्टिः पुत्रसहस्राणि तुम्बभेदाद्विनिःसृताः |
1991 | 1037018a | घृतपूर्णेषु कुम्भेषु धात्र्यस्तान्समवर्धयन् |
1992 | 1037018c | कालेन महता सर्वे यौवनं प्रतिपेदिरे |
1993 | 1037019a | अथ दीर्घेण कालेन रूपयौवनशालिनः |
1994 | 1037019c | षष्टिः पुत्रसहस्राणि सगरस्याभवंस्तदा |
1995 | 1037020a | स च ज्येष्ठो नरश्रेष्ठ सगरस्यात्मसंभवः |
1996 | 1037020c | बालान्गृहीत्वा तु जले सरय्वा रघुनन्दन |
1997 | 1037020e | प्रक्षिप्य प्रहसन्नित्यं मज्जतस्तान्निरीक्ष्य वै |
1998 | 1037021a | पौराणामहिते युक्तः पित्रा निर्वासितः पुरात् |
1999 | 1037022a | तस्य पुत्रोंऽशुमान्नाम असमञ्जस्य वीर्यवान् |
2000 | 1037022c | संमतः सर्वलोकस्य सर्वस्यापि प्रियंवदः |
2001 | 1037023a | ततः कालेन महता मतिः समभिजायत |
2002 | 1037023c | सगरस्य नरश्रेष्ठ यजेयमिति निश्चिता |
2003 | 1037024a | स कृत्वा निश्चयं राजा सोपाध्यायगणस्तदा |
2004 | 1037024c | यज्ञकर्मणि वेदज्ञो यष्टुं समुपचक्रमे |
2005 | 1038001a | विश्वामित्रवचः श्रुत्वा कथान्ते रघुनन्दन |
2006 | 1038001c | उवाच परमप्रीतो मुनिं दीप्तमिवानलम् |
2007 | 1038002a | श्रोतुमिछामि भद्रं ते विस्तरेण कथामिमाम् |
2008 | 1038002c | पूर्वको मे कथं ब्रह्मन्यज्ञं वै समुपाहरत् |
2009 | 1038003a | विश्वामित्रस्तु काकुत्स्थमुवाच प्रहसन्निव |
2010 | 1038003c | श्रूयतां विस्तरो राम सगरस्य महात्मनः |
2011 | 1038004a | शंकरश्वशुरो नाम हिमवानचलोत्तमः |
2012 | 1038004c | विन्ध्यपर्वतमासाद्य निरीक्षेते परस्परम् |
2013 | 1038005a | तयोर्मध्ये प्रवृत्तोऽभूद्यज्ञः स पुरुषोत्तम |
2014 | 1038005c | स हि देशो नरव्याघ्र प्रशस्तो यज्ञकर्मणि |
2015 | 1038006a | तस्याश्वचर्यां काकुत्स्थ दृढधन्वा महारथः |
2016 | 1038006c | अंशुमानकरोत्तात सगरस्य मते स्थितः |
2017 | 1038007a | तस्य पर्वणि तं यज्ञं यजमानस्य वासवः |
2018 | 1038007c | राक्षसीं तनुमास्थाय यज्ञियाश्वमपाहरत् |
2019 | 1038008a | ह्रियमाणे तु काकुत्स्थ तस्मिन्नश्वे महात्मनः |
2020 | 1038008c | उपाध्याय गणाः सर्वे यजमानमथाब्रुवन् |
2021 | 1038009a | अयं पर्वणि वेगेन यज्ञियाश्वोऽपनीयते |
2022 | 1038009c | हर्तारं जहि काकुत्स्थ हयश्चैवोपनीयताम् |
2023 | 1038010a | यज्ञच्छिद्रं भवत्येतत्सर्वेषामशिवाय नः |
2024 | 1038010c | तत्तथा क्रियतां राजन्यथाछिद्रः क्रतुर्भवेत् |
2025 | 1038011a | उपाध्याय वचः श्रुत्वा तस्मिन्सदसि पार्थिवः |
2026 | 1038011c | षष्टिं पुत्रसहस्राणि वाक्यमेतदुवाच ह |
2027 | 1038012a | गतिं पुत्रा न पश्यामि रक्षसां पुरुषर्षभाः |
2028 | 1038012c | मन्त्रपूतैर्महाभागैरास्थितो हि महाक्रतुः |
2029 | 1038013a | तद्गच्छत विचिन्वध्वं पुत्रका भद्रमस्तु वः |
2030 | 1038013c | समुद्रमालिनीं सर्वां पृथिवीमनुगच्छत |
2031 | 1038014a | एकैकं योजनं पुत्रा विस्तारमभिगच्छत |
2032 | 1038015a | यावत्तुरगसंदर्शस्तावत्खनत मेदिनीम् |
2033 | 1038015c | तमेव हयहर्तारं मार्गमाणा ममाज्ञया |
2034 | 1038016a | दीक्षितः पौत्रसहितः सोपाध्यायगणो ह्यहम् |
2035 | 1038016c | इह स्थास्यामि भद्रं वो यावत्तुरगदर्शनम् |
2036 | 1038017a | इत्युक्त्वा हृष्टमनसो राजपुत्रा महाबलाः |
2037 | 1038017c | जग्मुर्महीतलं राम पितुर्वचनयन्त्रिताः |
2038 | 1038018a | योजनायामविस्तारमेकैको धरणीतलम् |
2039 | 1038018c | बिभिदुः पुरुषव्याघ्र वज्रस्पर्शसमैर्भुजैः |
2040 | 1038019a | शूलैरशनिकल्पैश्च हलैश्चापि सुदारुणैः |
2041 | 1038019c | भिद्यमाना वसुमती ननाद रघुनन्दन |
2042 | 1038020a | नागानां वध्यमानानामसुराणां च राघव |
2043 | 1038020c | राक्षसानां च दुर्धर्षः सत्त्वानां निनदोऽभवत् |
2044 | 1038021a | योजनानां सहस्राणि षष्टिं तु रघुनन्दन |
2045 | 1038021c | बिभिदुर्धरणीं वीरा रसातलमनुत्तमम् |
2046 | 1038022a | एवं पर्वतसंबाधं जम्बूद्वीपं नृपात्मजाः |
2047 | 1038022c | खनन्तो नृपशार्दूल सर्वतः परिचक्रमुः |
2048 | 1038023a | ततो देवाः सगन्धर्वाः सासुराः सहपन्नगाः |
2049 | 1038023c | संभ्रान्तमनसः सर्वे पितामहमुपागमन् |
2050 | 1038024a | ते प्रसाद्य महात्मानं विषण्णवदनास्तदा |
2051 | 1038024c | ऊचुः परमसंत्रस्ताः पितामहमिदं वचः |
2052 | 1038025a | भगवन्पृथिवी सर्वा खन्यते सगरात्मजैः |
2053 | 1038025c | बहवश्च महात्मानो वध्यन्ते जलचारिणः |
2054 | 1038026a | अयं यज्ञहनोऽस्माकमनेनाश्वोऽपनीयते |
2055 | 1038026c | इति ते सर्वभूतानि निघ्नन्ति सगरात्मजः |
2056 | 1039001a | देवतानां वचः श्रुत्वा भगवान्वै पितामहः |
2057 | 1039001c | प्रत्युवाच सुसंत्रस्तान्कृतान्तबलमोहितान् |
2058 | 1039002a | यस्येयं वसुधा कृत्स्ना वासुदेवस्य धीमतः |
2059 | 1039002c | कापिलं रूपमास्थाय धारयत्यनिशं धराम् |
2060 | 1039003a | पृथिव्याश्चापि निर्भेदो दृष्ट एव सनातनः |
2061 | 1039003c | सगरस्य च पुत्राणां विनाशोऽदीर्घजीविनाम् |
2062 | 1039004a | पितामहवचः श्रुत्वा त्रयस्त्रिंशदरिंदमः |
2063 | 1039004c | देवाः परमसंहृष्टाः पुनर्जग्मुर्यथागतम् |
2064 | 1039005a | सगरस्य च पुत्राणां प्रादुरासीन्महात्मनाम् |
2065 | 1039005c | पृथिव्यां भिद्यमानायां निर्घात सम निःस्वनः |
2066 | 1039006a | ततो भित्त्वा महीं सर्वां कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् |
2067 | 1039006c | सहिताः सगराः सर्वे पितरं वाक्यमब्रुवन् |
2068 | 1039007a | परिक्रान्ता मही सर्वा सत्त्ववन्तश्च सूदिताः |
2069 | 1039007c | देवदानवरक्षांसि पिशाचोरगकिंनराः |
2070 | 1039008a | न च पश्यामहेऽश्वं तमश्वहर्तारमेव च |
2071 | 1039008c | किं करिष्याम भद्रं ते बुद्धिरत्र विचार्यताम् |
2072 | 1039009a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा पुत्राणां राजसत्तमः |
2073 | 1039009c | समन्युरब्रवीद्वाक्यं सगरो रघुनन्दन |
2074 | 1039010a | भूयः खनत भद्रं वो निर्भिद्य वसुधातलम् |
2075 | 1039010c | अश्वहर्तारमासाद्य कृतार्थाश्च निवर्तथ |
2076 | 1039011a | पितुर्वचनमास्थाय सगरस्य महात्मनः |
2077 | 1039011c | षष्टिः पुत्रसहस्राणि रसातलमभिद्रवन् |
2078 | 1039012a | खन्यमाने ततस्तस्मिन्ददृशुः पर्वतोपमम् |
2079 | 1039012c | दिशागजं विरूपाक्षं धारयन्तं महीतलम् |
2080 | 1039013a | सपर्वतवनां कृत्स्नां पृथिवीं रघुनन्दन |
2081 | 1039013c | शिरसा धारयामास विरूपाक्षो महागजः |
2082 | 1039014a | यदा पर्वणि काकुत्स्थ विश्रमार्थं महागजः |
2083 | 1039014c | खेदाच्चालयते शीर्षं भूमिकम्पस्तधा भवेत् |
2084 | 1039015a | तं ते प्रदक्षिणं कृत्वा दिशापालं महागजम् |
2085 | 1039015c | मानयन्तो हि ते राम जग्मुर्भित्त्वा रसातलम् |
2086 | 1039016a | ततः पूर्वां दिशं भित्त्वा दक्षिणां बिभिदुः पुनः |
2087 | 1039016c | दक्षिणस्यामपि दिशि ददृशुस्ते महागजम् |
2088 | 1039017a | महापद्मं महात्मानं सुमहापर्वतोपमम् |
2089 | 1039017c | शिरसा धारयन्तं ते विस्मयं जग्मुरुत्तमम् |
2090 | 1039018a | ततः प्रदक्षिणं कृत्वा सगरस्य महात्मनः |
2091 | 1039018c | षष्टिः पुत्रसहस्राणि पश्चिमां बिभिदुर्दिशम् |
2092 | 1039019a | पश्चिमायामपि दिशि महान्तमचलोपमम् |
2093 | 1039019c | दिशागजं सौमनसं ददृशुस्ते महाबलाः |
2094 | 1039020a | तं ते प्रदक्षिणं कृत्वा पृष्ट्वा चापि निरामयम् |
2095 | 1039020c | खनन्तः समुपक्रान्ता दिशं सोमवतीं तदा |
2096 | 1039021a | उत्तरस्यां रघुश्रेष्ठ ददृशुर्हिमपाण्डुरम् |
2097 | 1039021c | भद्रं भद्रेण वपुषा धारयन्तं महीमिमाम् |
2098 | 1039022a | समालभ्य ततः सर्वे कृत्वा चैनं प्रदक्षिणम् |
2099 | 1039022c | षष्टिः पुत्रसहस्राणि बिभिदुर्वसुधातलम् |
2100 | 1039023a | ततः प्रागुत्तरां गत्वा सागराः प्रथितां दिशम् |
2101 | 1039023c | रोषादभ्यखनन्सर्वे पृथिवीं सगरात्मजाः |
2102 | 1039024a | ददृशुः कपिलं तत्र वासुदेवं सनातनम् |
2103 | 1039024c | हयं च तस्य देवस्य चरन्तमविदूरतः |
2104 | 1039025a | ते तं यज्ञहनं ज्ञात्वा क्रोधपर्याकुलेक्षणाः |
2105 | 1039025c | अभ्यधावन्त संक्रुद्धास्तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रुवन् |
2106 | 1039026a | अस्माकं त्वं हि तुरगं यज्ञियं हृतवानसि |
2107 | 1039026c | दुर्मेधस्त्वं हि संप्राप्तान्विद्धि नः सगरात्मजान् |
2108 | 1039027a | श्रुत्वा तद्वचनं तेषां कपिलो रघुनन्दन |
2109 | 1039027c | रोषेण महताविष्टो हुंकारमकरोत्तदा |
2110 | 1039028a | ततस्तेनाप्रमेयेन कपिलेन महात्मना |
2111 | 1039028c | भस्मराशीकृताः सर्वे काकुत्स्थ सगरात्मजाः |
2112 | 1040001a | पुत्रांश्चिरगताञ्ज्ञात्वा सगरो रघुनन्दन |
2113 | 1040001c | नप्तारमब्रवीद्राजा दीप्यमानं स्वतेजसा |
2114 | 1040002a | शूरश्च कृतविद्यश्च पूर्वैस्तुल्योऽसि तेजसा |
2115 | 1040002c | पितॄणां गतिमन्विच्छ येन चाश्वोऽपहारितः |
2116 | 1040003a | अन्तर्भौमानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च |
2117 | 1040003c | तेषां त्वं प्रतिघातार्थं सासिं गृह्णीष्व कार्मुकम् |
2118 | 1040004a | अभिवाद्याभिवाद्यांस्त्वं हत्वा विघ्नकरानपि |
2119 | 1040004c | सिद्धार्थः संनिवर्तस्व मम यज्ञस्य पारगः |
2120 | 1040005a | एवमुक्तोंऽशुमान्सम्यक्सगरेण महात्मना |
2121 | 1040005c | धनुरादाय खड्गं च जगाम लघुविक्रमः |
2122 | 1040006a | स खातं पितृभिर्मार्गमन्तर्भौमं महात्मभिः |
2123 | 1040006c | प्रापद्यत नरश्रेष्ठ तेन राज्ञाभिचोदितः |
2124 | 1040007a | दैत्यदानवरक्षोभिः पिशाचपतगोरगैः |
2125 | 1040007c | पूज्यमानं महातेजा दिशागजमपश्यत |
2126 | 1040008a | स तं प्रदक्षिणं कृत्वा पृष्ट्वा चैव निरामयम् |
2127 | 1040008c | पितॄन्स परिपप्रच्छ वाजिहर्तारमेव च |
2128 | 1040009a | दिशागजस्तु तच्छ्रुत्वा प्रीत्याहांशुमतो वचः |
2129 | 1040009c | आसमञ्जकृतार्थस्त्वं सहाश्वः शीघ्रमेष्यसि |
2130 | 1040010a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सर्वानेव दिशागजान् |
2131 | 1040010c | यथाक्रमं यथान्यायं प्रष्टुं समुपचक्रमे |
2132 | 1040011a | तैश्च सर्वैर्दिशापालैर्वाक्यज्ञैर्वाक्यकोविदैः |
2133 | 1040011c | पूजितः सहयश्चैव गन्तासीत्यभिचोदितः |
2134 | 1040012a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा जगाम लघुविक्रमः |
2135 | 1040012c | भस्मराशीकृता यत्र पितरस्तस्य सागराः |
2136 | 1040013a | स दुःखवशमापन्नस्त्वसमञ्जसुतस्तदा |
2137 | 1040013c | चुक्रोश परमार्तस्तु वधात्तेषां सुदुःखितः |
2138 | 1040014a | यज्ञियं च हयं तत्र चरन्तमविदूरतः |
2139 | 1040014c | ददर्श पुरुषव्याघ्रो दुःखशोकसमन्वितः |
2140 | 1040015a | ददर्श पुरुषव्याघ्रो कर्तुकामो जलक्रियाम् |
2141 | 1040015c | सलिलार्थी महातेजा न चापश्यज्जलाशयम् |
2142 | 1040016a | विसार्य निपुणां दृष्टिं ततोऽपश्यत्खगाधिपम् |
2143 | 1040016c | पितॄणां मातुलं राम सुपर्णमनिलोपमम् |
2144 | 1040017a | स चैनमब्रवीद्वाक्यं वैनतेयो महाबलः |
2145 | 1040017c | मा शुचः पुरुषव्याघ्र वधोऽयं लोकसंमतः |
2146 | 1040018a | कपिलेनाप्रमेयेन दग्धा हीमे महाबलाः |
2147 | 1040018c | सलिलं नार्हसि प्राज्ञ दातुमेषां हि लौकिकम् |
2148 | 1040019a | गङ्गा हिमवतो ज्येष्ठा दुहिता पुरुषर्षभ |
2149 | 1040019c | भस्मराशीकृतानेतान्पावयेल्लोकपावनी |
2150 | 1040020a | तया क्लिन्नमिदं भस्म गङ्गया लोककान्तया |
2151 | 1040020c | षष्टिं पुत्रसहस्राणि स्वर्गलोकं नयिष्यति |
2152 | 1040021a | गच्छ चाश्वं महाभाग संगृह्य पुरुषर्षभ |
2153 | 1040021c | यज्ञं पैतामहं वीर निर्वर्तयितुमर्हसि |
2154 | 1040022a | सुपर्णवचनं श्रुत्वा सोंऽशुमानतिवीर्यवान् |
2155 | 1040022c | त्वरितं हयमादाय पुनरायान्महायशाः |
2156 | 1040023a | ततो राजानमासाद्य दीक्षितं रघुनन्दन |
2157 | 1040023c | न्यवेदयद्यथावृत्तं सुपर्णवचनं तथा |
2158 | 1040024a | तच्छ्रुत्वा घोरसंकाशं वाक्यमंशुमतो नृपः |
2159 | 1040024c | यज्ञं निर्वर्तयामास यथाकल्पं यथाविधि |
2160 | 1040025a | स्वपुरं चागमच्छ्रीमानिष्टयज्ञो महीपतिः |
2161 | 1040025c | गङ्गायाश्चागमे राजा निश्चयं नाध्यगच्छत |
2162 | 1040026a | अगत्वा निश्चयं राजा कालेन महता महान् |
2163 | 1040026c | त्रिंशद्वर्षसहस्राणि राज्यं कृत्वा दिवं गतः |
2164 | 1041001a | कालधर्मं गते राम सगरे प्रकृतीजनाः |
2165 | 1041001c | राजानं रोचयामासुरंशुमन्तं सुधार्मिकम् |
2166 | 1041002a | स राजा सुमहानासीदंशुमान्रघुनन्दन |
2167 | 1041002c | तस्य पुत्रो महानासीद्दिलीप इति विश्रुतः |
2168 | 1041003a | तस्मिन्राज्यं समावेश्य दिलीपे रघुनन्दन |
2169 | 1041003c | हिमवच्छिखरे रम्ये तपस्तेपे सुदारुणम् |
2170 | 1041004a | द्वाद्त्रिंशच्च सहस्राणि वर्षाणि सुमहायशाः |
2171 | 1041004c | तपोवनगतो राजा स्वर्गं लेभे तपोधनः |
2172 | 1041005a | दिलीपस्तु महातेजाः श्रुत्वा पैतामहं वधम् |
2173 | 1041005c | दुःखोपहतया बुद्ध्या निश्चयं नाध्यगच्छत |
2174 | 1041006a | कथं गङ्गावतरणं कथं तेषां जलक्रिया |
2175 | 1041006c | तारयेयं कथं चैतानिति चिन्ता परोऽभवत् |
2176 | 1041007a | तस्य चिन्तयतो नित्यं धर्मेण विदितात्मनः |
2177 | 1041007c | पुत्रो भगीरथो नाम जज्ञे परमधार्मिकः |
2178 | 1041008a | दिलीपस्तु महातेजा यज्ञैर्बहुभिरिष्टवान् |
2179 | 1041008c | त्रिंशद्वर्षसहस्राणि राजा राज्यमकारयत् |
2180 | 1041009a | अगत्वा निश्चयं राजा तेषामुद्धरणं प्रति |
2181 | 1041009c | व्याधिना नरशार्दूल कालधर्ममुपेयिवान् |
2182 | 1041010a | इन्द्रलोकं गतो राजा स्वार्जितेनैव कर्मणा |
2183 | 1041010c | रम्ये भगीरथं पुत्रमभिषिच्य नरर्षभः |
2184 | 1041011a | भगीरथस्तु राजर्षिर्धार्मिको रघुनन्दन |
2185 | 1041011c | अनपत्यो महातेजाः प्रजाकामः स चाप्रजः |
2186 | 1041012a | स तपो दीर्घमातिष्ठद्गोकर्णे रघुनन्दन |
2187 | 1041012c | ऊर्ध्वबाहुः पञ्चतपा मासाहारो जितेन्द्रियः |
2188 | 1041013a | तस्य वर्षसहस्राणि घोरे तपसि तिष्ठतः |
2189 | 1041013c | सुप्रीतो भगवान्ब्रह्मा प्रजानां पतिरीश्वरः |
2190 | 1041014a | ततः सुरगणैः सार्धमुपागम्य पितामहः |
2191 | 1041014c | भगीरथं महात्मानं तप्यमानमथाब्रवीत् |
2192 | 1041015a | भगीरथ महाभाग प्रीतस्तेऽहं जनेश्वर |
2193 | 1041015c | तपसा च सुतप्तेन वरं वरय सुव्रत |
2194 | 1041016a | तमुवाच महातेजाः सर्वलोकपितामहम् |
2195 | 1041016c | भगीरथो महाभागः कृताञ्जलिरवस्थितः |
2196 | 1041017a | यदि मे भगवान्प्रीतो यद्यस्ति तपसः फलम् |
2197 | 1041017c | सगरस्यात्मजाः सर्वे मत्तः सलिलमाप्नुयुः |
2198 | 1041018a | गङ्गायाः सलिलक्लिन्ने भस्मन्येषां महात्मनाम् |
2199 | 1041018c | स्वर्गं गच्छेयुरत्यन्तं सर्वे मे प्रपितामहाः |
2200 | 1041019a | देया च संततोर्देव नावसीदेत्कुलं च नः |
2201 | 1041019c | इक्ष्वाकूणां कुले देव एष मेऽस्तु वरः परः |
2202 | 1041020a | उक्तवाक्यं तु राजानं सर्वलोकपितामहः |
2203 | 1041020c | प्रत्युवाच शुभां वाणीं मधुरां मधुराक्षराम् |
2204 | 1041021a | मनोरथो महानेष भगीरथ महारथ |
2205 | 1041021c | एवं भवतु भद्रं ते इक्ष्वाकुकुलवर्धन |
2206 | 1041022a | इयं हैमवती गङ्गा ज्येष्ठा हिमवतः सुता |
2207 | 1041022c | तां वै धारयितुं राजन्हरस्तत्र नियुज्यताम् |
2208 | 1041023a | गङ्गायाः पतनं राजन्पृथिवी न सहिष्यते |
2209 | 1041023c | तौ वै धारयितुं वीर नान्यं पश्यामि शूलिनः |
2210 | 1041024a | तमेवमुक्त्वा राजानं गङ्गां चाभाष्य लोककृत् |
2211 | 1041024c | जगाम त्रिदिवं देवः सह सर्वैर्मरुद्गणैः |
2212 | 1042001a | देवदेवे गते तस्मिन्सोऽङ्गुष्ठाग्रनिपीडिताम् |
2213 | 1042001c | कृत्वा वसुमतीं राम संवत्सरमुपासत |
2214 | 1042002a | अथ संवत्सरे पूर्णे सर्वलोकनमस्कृतः |
2215 | 1042002c | उमापतिः पशुपती राजानमिदमब्रवीत् |
2216 | 1042003a | प्रीतस्तेऽहं नरश्रेष्ठ करिष्यामि तव प्रियम् |
2217 | 1042003c | शिरसा धारयिष्यामि शैलराजसुतामहम् |
2218 | 1042004a | ततो हैमवती ज्येष्ठा सर्वलोकनमस्कृता |
2219 | 1042004c | तदा सातिमहद्रूपं कृत्वा वेगं च दुःसहम् |
2220 | 1042004e | आकाशादपतद्राम शिवे शिवशिरस्युत |
2221 | 1042005a | नैव सा निर्गमं लेखे जटामण्डलमोहिता |
2222 | 1042005c | तत्रैवाबभ्रमद्देवी संवत्सरगणान्बहून् |
2223 | 1042006a | अनेन तोषितश्चासीदत्यर्थं रघुनन्दन |
2224 | 1042006c | विससर्ज ततो गङ्गां हरो बिन्दुसरः प्रति |
2225 | 1042007a | गगनाच्छंकरशिरस्ततो धरणिमागता |
2226 | 1042007c | व्यसर्पत जलं तत्र तीव्रशब्दपुरस्कृतम् |
2227 | 1042008a | ततो देवर्षिगन्धर्वा यक्षाः सिद्धगणास्तथा |
2228 | 1042008c | व्यलोकयन्त ते तत्र गगनाद्गां गतां तदा |
2229 | 1042009a | विमानैर्नगराकारैर्हयैर्गजवरैस्तथा |
2230 | 1042009c | पारिप्लवगताश्चापि देवतास्तत्र विष्ठिताः |
2231 | 1042010a | तदद्भुततमं लोके गङ्गा पतनमुत्तमम् |
2232 | 1042010c | दिदृक्षवो देवगणाः समेयुरमितौजसः |
2233 | 1042011a | संपतद्भिः सुरगणैस्तेषां चाभरणौजसा |
2234 | 1042011c | शतादित्यमिवाभाति गगनं गततोयदम् |
2235 | 1042012a | शिंशुमारोरगगणैर्मीनैरपि च चञ्चलैः |
2236 | 1042012c | विद्युद्भिरिव विक्षिप्तैराकाशमभवत्तदा |
2237 | 1042013a | पाण्डुरैः सलिलोत्पीडैः कीर्यमाणैः सहस्रधा |
2238 | 1042013c | शारदाभ्रैरिवाक्रीत्णं गगनं हंससंप्लवैः |
2239 | 1042014a | क्वचिद्द्रुततरं याति कुटिलं क्वचिदायतम् |
2240 | 1042014c | विनतं क्वचिदुद्धूतं क्वचिद्याति शनैः शनैः |
2241 | 1042015a | सलिलेनैव सलिलं क्वचिदभ्याहतं पुनः |
2242 | 1042015c | मुहुरूर्ध्वपथं गत्वा पपात वसुधां पुनः |
2243 | 1042016a | तच्छंकरशिरोभ्रष्टं भ्रष्टं भूमितले पुनः |
2244 | 1042016c | व्यरोचत तदा तोयं निर्मलं गतकल्मषम् |
2245 | 1042017a | तत्रर्षिगणगन्धर्वा वसुधातलवासिनः |
2246 | 1042017c | भवाङ्गपतितं तोयं पवित्रमिति पस्पृशुः |
2247 | 1042018a | शापात्प्रपतिता ये च गगनाद्वसुधातलम् |
2248 | 1042018c | कृत्वा तत्राभिषेकं ते बभूवुर्गतकल्मषाः |
2249 | 1042019a | धूपपापाः पुनस्तेन तोयेनाथ सुभास्वता |
2250 | 1042019c | पुनराकाशमाविश्य स्वाँल्लोकान्प्रतिपेदिरे |
2251 | 1042020a | मुमुदे मुदितो लोकस्तेन तोयेन भास्वता |
2252 | 1042020c | कृताभिषेको गङ्गायां बभूव विगतक्लमः |
2253 | 1042021a | भगीरथोऽपि राजर्षिर्दिव्यं स्यन्दनमास्थितः |
2254 | 1042021c | प्रायादग्रे महातेजास्तं गङ्गा पृष्ठतोऽन्वगात् |
2255 | 1042022a | देवाः सर्षिगणाः सर्वे दैत्यदानवराक्षसाः |
2256 | 1042022c | गन्धर्वयक्षप्रवराः सकिंनरमहोरगाः |
2257 | 1042023a | सर्वाश्चाप्सरसो राम भगीरथरथानुगाः |
2258 | 1042023c | गङ्गामन्वगमन्प्रीताः सर्वे जलचराश्च ये |
2259 | 1042024a | यतो भगीरथो राजा ततो गङ्गा यशस्विनी |
2260 | 1042024c | जगाम सरितां श्रेष्ठा सर्वपापविनाशिनी |
2261 | 1043001a | स गत्वा सागरं राजा गङ्गयानुगतस्तदा |
2262 | 1043001c | प्रविवेश तलं भूमेर्यत्र ते भस्मसात्कृताः |
2263 | 1043002a | भस्मन्यथाप्लुते राम गङ्गायाः सलिलेन वै |
2264 | 1043002c | सर्व लोकप्रभुर्ब्रह्मा राजानमिदमब्रवीत् |
2265 | 1043003a | तारिता नरशार्दूल दिवं याताश्च देववत् |
2266 | 1043003c | षष्टिः पुत्रसहस्राणि सगरस्य महात्मनः |
2267 | 1043004a | सागरस्य जलं लोके यावत्स्थास्यति पार्थिव |
2268 | 1043004c | सगरस्यात्मजास्तावत्स्वर्गे स्थास्यन्ति देववत् |
2269 | 1043005a | इयं च दुहिता ज्येष्ठा तव गङ्गा भविष्यति |
2270 | 1043005c | त्वत्कृतेन च नाम्ना वै लोके स्थास्यति विश्रुता |
2271 | 1043006a | गङ्गा त्रिपथगा नाम दिव्या भागीरथीति च |
2272 | 1043006c | त्रिपथो भावयन्तीति ततस्त्रिपथगा स्मृता |
2273 | 1043007a | पितामहानां सर्वेषां त्वमत्र मनुजाधिप |
2274 | 1043007c | कुरुष्व सलिलं राजन्प्रतिज्ञामपवर्जय |
2275 | 1043008a | पूर्वकेण हि ते राजंस्तेनातियशसा तदा |
2276 | 1043008c | धर्मिणां प्रवरेणाथ नैष प्राप्तो मनोरथः |
2277 | 1043009a | तथैवांशुमता तात लोकेऽप्रतिमतेजसा |
2278 | 1043009c | गङ्गां प्रार्थयता नेतुं प्रतिज्ञा नापवर्जिता |
2279 | 1043010a | राजर्षिणा गुणवता महर्षिसमतेजसा |
2280 | 1043010c | मत्तुल्यतपसा चैव क्षत्रधर्मस्थितेन च |
2281 | 1043011a | दिलीपेन महाभाग तव पित्रातितेजसा |
2282 | 1043011c | पुनर्न शङ्किता नेतुं गङ्गां प्रार्थयतानघ |
2283 | 1043012a | सा त्वया समतिक्रान्ता प्रतिज्ञा पुरुषर्षभ |
2284 | 1043012c | प्राप्तोऽसि परमं लोके यशः परमसंमतम् |
2285 | 1043013a | यच्च गङ्गावतरणं त्वया कृतमरिंदम |
2286 | 1043013c | अनेन च भवान्प्राप्तो धर्मस्यायतनं महत् |
2287 | 1043014a | प्लावयस्व त्वमात्मानं नरोत्तम सदोचिते |
2288 | 1043014c | सलिले पुरुषव्याघ्र शुचिः पुण्यफलो भव |
2289 | 1043015a | पितामहानां सर्वेषां कुरुष्व सलिलक्रियाम् |
2290 | 1043015c | स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि स्वं लोकं गम्यतां नृप |
2291 | 1043016a | इत्येवमुक्त्वा देवेशः सर्वलोकपितामहः |
2292 | 1043016c | यथागतं तथागच्छद्देवलोकं महायशाः |
2293 | 1043017a | भगीरथोऽपि राजर्षिः कृत्वा सलिलमुत्तमम् |
2294 | 1043017c | यथाक्रमं यथान्यायं सागराणां महायशाः |
2295 | 1043017e | कृतोदकः शुची राजा स्वपुरं प्रविवेश ह |
2296 | 1043018a | समृद्धार्थो नरश्रेष्ठ स्वराज्यं प्रशशास ह |
2297 | 1043018c | प्रमुमोद च लोकस्तं नृपमासाद्य राघव |
2298 | 1043018e | नष्टशोकः समृद्धार्थो बभूव विगतज्वरः |
2299 | 1043019a | एष ते राम गङ्गाया विस्तरोऽभिहितो मया |
2300 | 1043019c | स्वस्ति प्राप्नुहि भद्रं ते संध्याकालोऽतिवर्तते |
2301 | 1043020a | धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं पुत्र्यमथापि च |
2302 | 1043020c | इदमाख्यानमाख्यातं गङ्गावतरणं मया |
2303 | 1044001a | विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राघवः सहलक्ष्मणः |
2304 | 1044001c | विस्मयं परमं गत्वा विश्वामित्रमथाब्रवीत् |
2305 | 1044002a | अत्यद्भुतमिदं ब्रह्मन्कथितं परमं त्वया |
2306 | 1044002c | गङ्गावतरणं पुण्यं सागरस्य च पूरणम् |
2307 | 1044003a | तस्य सा शर्वरी सर्वा सह सौमित्रिणा तदा |
2308 | 1044003c | जगाम चिन्तयानस्य विश्वामित्रकथां शुभाम् |
2309 | 1044004a | ततः प्रभाते विमले विश्वामित्रं महामुनिम् |
2310 | 1044004c | उवाच राघवो वाक्यं कृताह्निकमरिंदमः |
2311 | 1044005a | गता भगवती रात्रिः श्रोतव्यं परमं श्रुतम् |
2312 | 1044005c | क्षणभूतेव सा रात्रिः संवृत्तेयं महातपः |
2313 | 1044005e | इमां चिन्तयतः सर्वां निखिलेन कथां तव |
2314 | 1044006a | तराम सरितां श्रेष्ठां पुण्यां त्रिपथगां नदीम् |
2315 | 1044006c | नौरेषा हि सुखास्तीर्णा ऋषीणां पुण्यकर्मणाम् |
2316 | 1044006e | भगवन्तमिह प्राप्तं ज्ञात्वा त्वरितमागता |
2317 | 1044007a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राघवस्य महात्मनः |
2318 | 1044007c | संतारं कारयामास सर्षिसंघः सराघवः |
2319 | 1044008a | उत्तरं तीरमासाद्य संपूज्यर्षिगणं तथ |
2320 | 1044008c | गङ्गाकूले निविष्टास्ते विशालां ददृशुः पुरीम् |
2321 | 1044009a | ततो मुनिवरस्तूर्णं जगाम सहराघवः |
2322 | 1044009c | विशालां नगरीं रम्यां दिव्यां स्वर्गोपमां तदा |
2323 | 1044010a | अथ रामो महाप्राज्ञो विश्वामित्रं महामुनिम् |
2324 | 1044010c | पप्रच्छ प्राञ्जलिर्भूत्वा विशालामुत्तमां पुरीम् |
2325 | 1044011a | कतरो राजवंशोऽयं विशालायां महामुने |
2326 | 1044011c | श्रोतुमिच्छामि भद्रं ते परं कौतूहलं हि मे |
2327 | 1044012a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा रामस्य मुनिपुंगवः |
2328 | 1044012c | आख्यातुं तत्समारेभे विशालस्य पुरातनम् |
2329 | 1044013a | श्रूयतां राम शक्रस्य कथां कथयतः शुभाम् |
2330 | 1044013c | अस्मिन्देशे हि यद्वृत्तं शृणु तत्त्वेन राघव |
2331 | 1044014a | पूर्वं कृतयुगे राम दितेः पुत्रा महाबलाः |
2332 | 1044014c | अदितेश्च महाभागा वीर्यवन्तः सुधार्मिकाः |
2333 | 1044015a | ततस्तेषां नरश्रेष्ठ बुद्धिरासीन्महात्मनाम् |
2334 | 1044015c | अमरा निर्जराश्चैव कथं स्याम निरामयाः |
2335 | 1044016a | तेषां चिन्तयतां राम बुद्धिरासीद्विपश्चिताम् |
2336 | 1044016c | क्षीरोदमथनं कृत्वा रसं प्राप्स्याम तत्र वै |
2337 | 1044017a | ततो निश्चित्य मथनं योक्त्रं कृत्वा च वासुकिम् |
2338 | 1044017c | मन्थानं मन्दरं कृत्वा ममन्थुरमितौजसः |
2339 | 1044018a | अथ धन्वन्तरिर्नाम अप्सराश्च सुवर्चसः |
2340 | 1044018c | अप्सु निर्मथनादेव रसात्तस्माद्वरस्त्रियः |
2341 | 1044018e | उत्पेतुर्मनुजश्रेष्ठ तस्मादप्सरसोऽभवन् |
2342 | 1044019a | षष्टिः कोट्योऽभवंस्तासामप्सराणां सुवर्चसाम् |
2343 | 1044019c | असंख्येयास्तु काकुत्स्थ यास्तासां परिचारिकाः |
2344 | 1044020a | न ताः स्म प्रतिगृह्णन्ति सर्वे ते देवदानवाः |
2345 | 1044020c | अप्रतिग्रहणाच्चैव तेन साधारणाः स्मृताः |
2346 | 1044021a | वरुणस्य ततः कन्या वारुणी रघुनन्दन |
2347 | 1044021c | उत्पपात महाभागा मार्गमाणा परिग्रहम् |
2348 | 1044022a | दितेः पुत्रा न तां राम जगृहुर्वरुणात्मजाम् |
2349 | 1044022c | अदितेस्तु सुता वीर जगृहुस्तामनिन्दिताम् |
2350 | 1044023a | असुरास्तेन दैतेयाः सुरास्तेनादितेः सुताः |
2351 | 1044023c | हृष्टाः प्रमुदिताश्चासन्वारुणी ग्रहणात्सुराः |
2352 | 1044024a | उच्चैःश्रवा हयश्रेष्ठो मणिरत्नं च कौस्तुभम् |
2353 | 1044024c | उदतिष्ठन्नरश्रेष्ठ तथैवामृतमुत्तमम् |
2354 | 1044025a | अथ तस्य कृते राम महानासीत्कुलक्षयः |
2355 | 1044025c | अदितेस्तु ततः पुत्रा दितेः पुत्राण सूदयन् |
2356 | 1044026a | अदितेरात्मजा वीरा दितेः पुत्रान्निजघ्निरे |
2357 | 1044026c | तस्मिन्घोरे महायुद्धे दैतेयादित्ययोर्भृशम् |
2358 | 1044027a | निहत्य दितिपुत्रांस्तु राज्यं प्राप्य पुरंदरः |
2359 | 1044027c | शशास मुदितो लोकान्सर्षिसंघान्सचारणान् |
2360 | 1045001a | हतेषु तेषु पुत्रेषु दितिः परमदुःखिता |
2361 | 1045001c | मारीचं काश्यपं राम भर्तारमिदमब्रवीत् |
2362 | 1045002a | हतपुत्रास्मि भगवंस्तव पुत्रैर्महाबलैः |
2363 | 1045002c | शक्रहन्तारमिच्छामि पुत्रं दीर्घतपोऽर्जितम् |
2364 | 1045003a | साहं तपश्चरिष्यामि गर्भं मे दातुमर्हसि |
2365 | 1045003c | ईदृशं शक्रहन्तारं त्वमनुज्ञातुमर्हसि |
2366 | 1045004a | तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा मारीचः काश्यपस्तदा |
2367 | 1045004c | प्रत्युवाच महातेजा दितिं परमदुःखिताम् |
2368 | 1045005a | एवं भवतु भद्रं ते शुचिर्भव तपोधने |
2369 | 1045005c | जनयिष्यसि पुत्रं त्वं शक्र हन्तारमाहवे |
2370 | 1045006a | पूर्णे वर्षसहस्रे तु शुचिर्यदि भविष्यसि |
2371 | 1045006c | पुत्रं त्रैलोक्य हन्तारं मत्तस्त्वं जनयिष्यसि |
2372 | 1045007a | एवमुक्त्वा महातेजाः पाणिना स ममार्ज ताम् |
2373 | 1045007c | समालभ्य ततः स्वस्तीत्युक्त्वा स तपसे ययौ |
2374 | 1045008a | गते तस्मिन्नरश्रेष्ठ दितिः परमहर्षिता |
2375 | 1045008c | कुशप्लवनमासाद्य तपस्तेपे सुदारुणम् |
2376 | 1045009a | तपस्तस्यां हि कुर्वत्यां परिचर्यां चकार ह |
2377 | 1045009c | सहस्राक्षो नरश्रेष्ठ परया गुणसंपदा |
2378 | 1045010a | अग्निं कुशान्काष्ठमपः फलं मूलं तथैव च |
2379 | 1045010c | न्यवेदयत्सहस्राक्षो यच्चान्यदपि काङ्क्षितम् |
2380 | 1045011a | गात्रसंवाहनैश्चैव श्रमापनयनैस्तथा |
2381 | 1045011c | शक्रः सर्वेषु कालेषु दितिं परिचचार ह |
2382 | 1045012a | अथ वर्षसहस्रेतु दशोने रघु नन्दन |
2383 | 1045012c | दितिः परमसंप्रीता सहस्राक्षमथाब्रवीत् |
2384 | 1045013a | तपश्चरन्त्या वर्षाणि दश वीर्यवतां वर |
2385 | 1045013c | अवशिष्टानि भद्रं ते भ्रातरं द्रक्ष्यसे ततः |
2386 | 1045014a | तमहं त्वत्कृते पुत्र समाधास्ये जयोत्सुकम् |
2387 | 1045014c | त्रैलोक्यविजयं पुत्र सह भोक्ष्यसि विज्वरः |
2388 | 1045015a | एवमुक्त्वा दितिः शक्रं प्राप्ते मध्यं दिवाकरे |
2389 | 1045015c | निद्रयापहृता देवी पादौ कृत्वाथ शीर्षतः |
2390 | 1045016a | दृष्ट्वा तामशुचिं शक्रः पादतः कृतमूर्धजाम् |
2391 | 1045016c | शिरःस्थाने कृतौ पादौ जहास च मुमोद च |
2392 | 1045017a | तस्याः शरीरविवरं विवेश च पुरंदरः |
2393 | 1045017c | गर्भं च सप्तधा राम बिभेद परमात्मवान् |
2394 | 1045018a | बिध्यमानस्ततो गर्भो वज्रेण शतपर्वणा |
2395 | 1045018c | रुरोद सुस्वरं राम ततो दितिरबुध्यत |
2396 | 1045019a | मा रुदो मा रुदश्चेति गर्भं शक्रोऽभ्यभाषत |
2397 | 1045019c | बिभेद च महातेजा रुदन्तमपि वासवः |
2398 | 1045020a | न हन्तव्यो न हन्तव्य इत्येवं दितिरब्रवीत् |
2399 | 1045020c | निष्पपात ततः शक्रो मातुर्वचनगौरवात् |
2400 | 1045021a | प्राञ्जलिर्वज्रसहितो दितिं शक्रोऽभ्यभाषत |
2401 | 1045021c | अशुचिर्देवि सुप्तासि पादयोः कृतमूर्धजा |
2402 | 1045022a | तदन्तरमहं लब्ध्वा शक्रहन्तारमाहवे |
2403 | 1045022c | अभिन्दं सप्तधा देवि तन्मे त्वं क्षन्तुमर्हसि |
2404 | 1046001a | सप्तधा तु कृते गर्भे दितिः परमदुःखिता |
2405 | 1046001c | सहस्राक्षं दुराधर्षं वाक्यं सानुनयाब्रवीत् |
2406 | 1046002a | ममापराधाद्गर्भोऽयं सप्तधा विफलीकृतः |
2407 | 1046002c | नापराधोऽस्ति देवेश तवात्र बलसूदन |
2408 | 1046003a | प्रियं तु कृतमिच्छामि मम गर्भविपर्यये |
2409 | 1046003c | मरुतां सप्तं सप्तानां स्थानपाला भवन्त्विमे |
2410 | 1046004a | वातस्कन्धा इमे सप्त चरन्तु दिवि पुत्रकाः |
2411 | 1046004c | मारुता इति विख्याता दिव्यरूपा ममात्मजाः |
2412 | 1046005a | ब्रह्मलोकं चरत्वेक इन्द्रलोकं तथापरः |
2413 | 1046005c | दिवि वायुरिति ख्यातस्तृतीयोऽपि महायशाः |
2414 | 1046006a | चत्वारस्तु सुरश्रेष्ठ दिशो वै तव शासनात् |
2415 | 1046006c | संचरिष्यन्ति भद्रं ते देवभूता ममात्मजाः |
2416 | 1046006e | त्वत्कृतेनैव नाम्ना च मारुता इति विश्रुताः |
2417 | 1046007a | तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा सहस्राक्षः पुरंदरः |
2418 | 1046007c | उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यं दितिं बलनिषूदनः |
2419 | 1046008a | सर्वमेतद्यथोक्तं ते भविष्यति न संशयः |
2420 | 1046008c | विचरिष्यन्ति भद्रं ते देवभूतास्तवात्मजाः |
2421 | 1046009a | एवं तौ निश्चयं कृत्वा मातापुत्रौ तपोवने |
2422 | 1046009c | जग्मतुस्त्रिदिवं राम कृतार्थाविति नः श्रुतम् |
2423 | 1046010a | एष देशः स काकुत्स्थ महेन्द्राध्युषितः पुरा |
2424 | 1046010c | दितिं यत्र तपः सिद्धामेवं परिचचार सः |
2425 | 1046011a | इक्ष्वाकोस्तु नरव्याघ्र पुत्रः परमधार्मिकः |
2426 | 1046011c | अलम्बुषायामुत्पन्नो विशाल इति विश्रुतः |
2427 | 1046012a | तेन चासीदिह स्थाने विशालेति पुरी कृता |
2428 | 1046013a | विशालस्य सुतो राम हेमचन्द्रो महाबलः |
2429 | 1046013c | सुचन्द्र इति विख्यातो हेमचन्द्रादनन्तरः |
2430 | 1046014a | सुचन्द्रतनयो राम धूम्राश्व इति विश्रुतः |
2431 | 1046014c | धूम्राश्वतनयश्चापि सृञ्जयः समपद्यत |
2432 | 1046015a | सृञ्जयस्य सुतः श्रीमान्सहदेवः प्रतापवान् |
2433 | 1046015c | कुशाश्वः सहदेवस्य पुत्रः परमधार्मिकः |
2434 | 1046016a | कुशाश्वस्य महातेजाः सोमदत्तः प्रतापवान् |
2435 | 1046016c | सोमदत्तस्य पुत्रस्तु काकुत्स्थ इति विश्रुतः |
2436 | 1046017a | तस्य पुत्रो महातेजाः संप्रत्येष पुरीमिमाम् |
2437 | 1046017c | आवसत्यमरप्रख्यः सुमतिर्नाम दुर्जयः |
2438 | 1046018a | इक्ष्वाकोस्तु प्रसादेन सर्वे वैशालिका नृपाः |
2439 | 1046018c | दीर्घायुषो महात्मानो वीर्यवन्तः सुधार्मिकाः |
2440 | 1046019a | इहाद्य रजनीं राम सुखं वत्स्यामहे वयम् |
2441 | 1046019c | श्वः प्रभाते नरश्रेष्ठ जनकं द्रष्टुमर्हसि |
2442 | 1046020a | सुमतिस्तु महातेजा विश्वामित्रमुपागतम् |
2443 | 1046020c | श्रुत्वा नरवरश्रेष्ठः प्रत्युद्गच्छन्महायशाः |
2444 | 1046021a | पूजां च परमां कृत्वा सोपाध्यायः सबान्धवः |
2445 | 1046021c | प्राञ्जलिः कुशलं पृष्ट्वा विश्वामित्रमथाब्रवीत् |
2446 | 1046022a | धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे विषयं मुने |
2447 | 1046022c | संप्राप्तो दर्शनं चैव नास्ति धन्यतरो मम |
2448 | 1047001a | पृष्ट्वा तु कुशलं तत्र परस्परसमागमे |
2449 | 1047001c | कथान्ते सुमतिर्वाक्यं व्याजहार महामुनिम् |
2450 | 1047002a | इमौ कुमारौ भद्रं ते देवतुल्यपराक्रमौ |
2451 | 1047002c | गजसिंहगती वीरौ शार्दूलवृषभोपमौ |
2452 | 1047003a | पद्मपत्रविशालाक्षौ खड्गतूणीधनुर्धरौ |
2453 | 1047003c | अश्विनाविव रूपेण समुपस्थितयौवनौ |
2454 | 1047004a | यदृच्छयैव गां प्राप्तौ देवलोकादिवामरौ |
2455 | 1047004c | कथं पद्भ्यामिह प्राप्तौ किमर्थं कस्य वा मुने |
2456 | 1047005a | भूषयन्ताविमं देशं चन्द्रसूर्याविवाम्बरम् |
2457 | 1047005c | परस्परस्य सदृशौ प्रमाणेङ्गितचेष्टितैः |
2458 | 1047006a | किमर्थं च नरश्रेष्ठौ संप्राप्तौ दुर्गमे पथि |
2459 | 1047006c | वरायुधधरौ वीरौ श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः |
2460 | 1047007a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा यथावृत्तं न्यवेदयत् |
2461 | 1047007c | सिद्धाश्रमनिवासं च राक्षसानां वधं तथा |
2462 | 1047008a | विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राजा परमहर्षितः |
2463 | 1047008c | अतिथी परमौ प्राप्तौ पुत्रौ दशरथस्य तौ |
2464 | 1047008e | पूजयामास विधिवत्सत्कारार्हौ महाबलौ |
2465 | 1047009a | ततः परमसत्कारं सुमतेः प्राप्य राघवौ |
2466 | 1047009c | उष्य तत्र निशामेकां जग्मतुर्मिथिलां ततः |
2467 | 1047010a | तां दृष्ट्वा मुनयः सर्वे जनकस्य पुरीं शुभाम् |
2468 | 1047010c | साधु साध्विति शंसन्तो मिथिलां समपूजयन् |
2469 | 1047011a | मिथिलोपवने तत्र आश्रमं दृश्य राघवः |
2470 | 1047011c | पुराणं निर्जनं रम्यं पप्रच्छ मुनिपुंगवम् |
2471 | 1047012a | श्रीमदाश्रमसंकाशं किं न्विदं मुनिवर्जितम् |
2472 | 1047012c | श्रोतुमिच्छामि भगवन्कस्यायं पूर्व आश्रमः |
2473 | 1047013a | तच्छ्रुता राघवेणोक्तं वाक्यं वाक्यविशारदः |
2474 | 1047013c | प्रत्युवाच महातेजा विश्वमित्रो महामुनिः |
2475 | 1047014a | हन्त ते कथयिष्यामि शृणु तत्त्वेन राघव |
2476 | 1047014c | यस्यैतदाश्रमपदं शप्तं कोपान्महात्मना |
2477 | 1047015a | गौतमस्य नरश्रेष्ठ पूर्वमासीन्महात्मनः |
2478 | 1047015c | आश्रमो दिव्यसंकाशः सुरैरपि सुपूजितः |
2479 | 1047016a | स चेह तप आतिष्ठदहल्यासहितः पुरा |
2480 | 1047016c | वर्षपूगान्यनेकानि राजपुत्र महायशः |
2481 | 1047017a | तस्यान्तरं विदित्वा तु सहस्राक्षः शचीपतिः |
2482 | 1047017c | मुनिवेषधरोऽहल्यामिदं वचनमब्रवीत् |
2483 | 1047018a | ऋतुकालं प्रतीक्षन्ते नार्थिनः सुसमाहिते |
2484 | 1047018c | संगमं त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे |
2485 | 1047019a | मुनिवेषं सहस्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन |
2486 | 1047019c | मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहलात् |
2487 | 1047020a | अथाब्रवीत्सुरश्रेष्ठं कृतार्थेनान्तरात्मना |
2488 | 1047020c | कृतार्थोऽसि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमितः प्रभो |
2489 | 1047020e | आत्मानं मां च देवेश सर्वदा रक्ष मानदः |
2490 | 1047021a | इन्द्रस्तु प्रहसन्वाक्यमहल्यामिदमब्रवीत् |
2491 | 1047021c | सुश्रोणि परितुष्टोऽस्मि गमिष्यामि यथागतम् |
2492 | 1047022a | एवं संगम्य तु तया निश्चक्रामोटजात्ततः |
2493 | 1047022c | स संभ्रमात्त्वरन्राम शङ्कितो गौतमं प्रति |
2494 | 1047023a | गौतमं स ददर्शाथ प्रविशन्तं महामुनिम् |
2495 | 1047023c | देवदानवदुर्धर्षं तपोबलसमन्वितम् |
2496 | 1047023e | तीर्थोदकपरिक्लिन्नं दीप्यमानमिवानलम् |
2497 | 1047023g | गृहीतसमिधं तत्र सकुशं मुनिपुङ्गवम् |
2498 | 1047024a | दृष्ट्वा सुरपतिस्त्रस्तो विषण्णवदनोऽभवत् |
2499 | 1047025a | अथ दृष्ट्वा सहस्राक्षं मुनिवेषधरं मुनिः |
2500 | 1047025c | दुर्वृत्तं वृत्तसंपन्नो रोषाद्वचनमब्रवीत् |
2501 | 1047026a | मम रूपं समास्थाय कृतवानसि दुर्मते |
2502 | 1047026c | अकर्तव्यमिदं यस्माद्विफलस्त्वं भविष्यति |
2503 | 1047027a | गौतमेनैवमुक्तस्य सरोषेण महात्मना |
2504 | 1047027c | पेततुर्वृषणौ भूमौ सहस्राक्षस्य तत्क्षणात् |
2505 | 1047028a | तथा शप्त्वा स वै शक्रं भार्यामपि च शप्तवान् |
2506 | 1047028c | इह वर्षसहस्राणि बहूनि त्वं निवत्स्यसि |
2507 | 1047029a | वायुभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी |
2508 | 1047029c | अदृश्या सर्वभूतानामाश्रमेऽस्मिन्निवत्स्यसि |
2509 | 1047030a | यदा चैतद्वनं घोरं रामो दशरथात्मजः |
2510 | 1047030c | आगमिष्यति दुर्धर्षस्तदा पूता भविष्यसि |
2511 | 1047031a | तस्यातिथ्येन दुर्वृत्ते लोभमोहविवर्जिता |
2512 | 1047031c | मत्सकाशे मुदा युक्ता स्वं वपुर्धारयिष्यसि |
2513 | 1047032a | एवमुक्त्वा महातेजा गौतमो दुष्टचारिणीम् |
2514 | 1047032c | इममाश्रममुत्सृज्य सिद्धचारणसेविते |
2515 | 1047032e | हिमवच्छिखरे रम्ये तपस्तेपे महातपाः |
2516 | 1048001a | अफलस्तु ततः शक्रो देवानग्निपुरोगमान् |
2517 | 1048001c | अब्रवीत्त्रस्तवदनः सर्षिसंघान्सचारणान् |
2518 | 1048002a | कुर्वता तपसो विघ्नं गौतमस्य महात्मनः |
2519 | 1048002c | क्रोधमुत्पाद्य हि मया सुरकार्यमिदं कृतम् |
2520 | 1048003a | अफलोऽस्मि कृतस्तेन क्रोधात्सा च निराकृता |
2521 | 1048003c | शापमोक्षेण महता तपोऽस्यापहृतं मया |
2522 | 1048004a | तन्मां सुरवराः सर्वे सर्षिसंघाः सचारणाः |
2523 | 1048004c | सुरसाह्यकरं सर्वे सफलं कर्तुमर्हथ |
2524 | 1048005a | शतक्रतोर्वचः श्रुत्वा देवाः साग्निपुरोगमाः |
2525 | 1048005c | पितृदेवानुपेत्याहुः सह सर्वैर्मरुद्गणैः |
2526 | 1048006a | अयं मेषः सवृषणः शक्रो ह्यवृषणः कृतः |
2527 | 1048006c | मेषस्य वृषणौ गृह्य शक्रायाशु प्रयच्छत |
2528 | 1048007a | अफलस्तु कृतो मेषः परां तुष्टिं प्रदास्यति |
2529 | 1048007c | भवतां हर्षणार्थाय ये च दास्यन्ति मानवाः |
2530 | 1048008a | अग्नेस्तु वचनं श्रुत्वा पितृदेवाः समागताः |
2531 | 1048008c | उत्पाट्य मेषवृषणौ सहस्राक्षे न्यवेदयन् |
2532 | 1048009a | तदा प्रभृति काकुत्स्थ पितृदेवाः समागताः |
2533 | 1048009c | अफलान्भुञ्जते मेषान्फलैस्तेषामयोजयन् |
2534 | 1048010a | इन्द्रस्तु मेषवृषणस्तदा प्रभृति राघव |
2535 | 1048010c | गौतमस्य प्रभावेन तपसश्च महात्मनः |
2536 | 1048011a | तदागच्छ महातेज आश्रमं पुण्यकर्मणः |
2537 | 1048011c | तारयैनां महाभागामहल्यां देवरूपिणीम् |
2538 | 1048012a | विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राघवः सहलक्ष्मणः |
2539 | 1048012c | विश्वामित्रं पुरस्कृत्य आश्रमं प्रविवेश ह |
2540 | 1048013a | ददर्श च महाभागां तपसा द्योतितप्रभाम् |
2541 | 1048013c | लोकैरपि समागम्य दुर्निरीक्ष्यां सुरासुरैः |
2542 | 1048014a | प्रयत्नान्निर्मितां धात्रा दिव्यां मायामयीमिव |
2543 | 1048014c | धूमेनाभिपरीताङ्गीं पूर्णचन्द्रप्रभामिव |
2544 | 1048015a | सतुषारावृतां साभ्रां पूर्णचन्द्रप्रभामिव |
2545 | 1048015c | मध्येऽम्भसो दुराधर्षां दीप्तां सूर्यप्रभामिव |
2546 | 1048016a | स हि गौतमवाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह |
2547 | 1048016c | त्रयाणामपि लोकानां यावद्रामस्य दर्शनम् |
2548 | 1048017a | राघवौ तु ततस्तस्याः पादौ जगृहतुस्तदा |
2549 | 1048017c | स्मरन्ती गौतमवचः प्रतिजग्राह सा च तौ |
2550 | 1048018a | पाद्यमर्घ्यं तथातिथ्यं चकार सुसमाहिता |
2551 | 1048018c | प्रतिजग्राह काकुत्स्थो विधिदृष्टेन कर्मणा |
2552 | 1048019a | पुष्पवृष्टिर्महत्यासीद्देवदुन्दुभिनिस्वनैः |
2553 | 1048019c | गन्धर्वाप्सरसां चापि महानासीत्समागमः |
2554 | 1048020a | साधु साध्विति देवास्तामहल्यां समपूजयन् |
2555 | 1048020c | तपोबलविशुद्धाङ्गीं गौतमस्य वशानुगाम् |
2556 | 1048021a | गौतमोऽपि महातेजा अहल्यासहितः सुखी |
2557 | 1048021c | रामं संपूज्य विधिवत्तपस्तेपे महातपाः |
2558 | 1048022a | रामोऽपि परमां पूजां गौतमस्य महामुनेः |
2559 | 1048022c | सकाशाद्विधिवत्प्राप्य जगाम मिथिलां ततः |
2560 | 1049001a | ततः प्रागुत्तरां गत्वा रामः सौमित्रिणा सह |
2561 | 1049001c | विश्वामित्रं पुरस्कृत्य यज्ञवाटमुपागमत् |
2562 | 1049002a | रामस्तु मुनिशार्दूलमुवाच सहलक्ष्मणः |
2563 | 1049002c | साध्वी यज्ञसमृद्धिर्हि जनकस्य महात्मनः |
2564 | 1049003a | बहूनीह सहस्राणि नानादेशनिवासिनाम् |
2565 | 1049003c | ब्राह्मणानां महाभाग वेदाध्ययनशालिनाम् |
2566 | 1049004a | ऋषिवाटाश्च दृश्यन्ते शकटीशतसंकुलाः |
2567 | 1049004c | देशो विधीयतां ब्रह्मन्यत्र वत्स्यामहे वयम् |
2568 | 1049005a | रामस्य वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रो महामुनिः |
2569 | 1049005c | निवेशमकरोद्देशे विविक्ते सलिलायुते |
2570 | 1049006a | विश्वामित्रं मुनिश्रेष्ठं श्रुत्वा स नृपतिस्तदा |
2571 | 1049006c | शतानन्दं पुरस्कृत्य पुरोहितमनिन्दितम् |
2572 | 1049007a | ऋत्विजोऽपि महात्मानस्त्वर्घ्यमादाय सत्वरम् |
2573 | 1049007c | विश्वामित्राय धर्मेण ददुर्मन्त्रपुरस्कृतम् |
2574 | 1049008a | प्रतिगृह्य तु तां पूजां जनकस्य महात्मनः |
2575 | 1049008c | पप्रच्छ कुशलं राज्ञो यज्ञस्य च निरामयम् |
2576 | 1049009a | स तांश्चापि मुनीन्पृष्ट्वा सोपाध्याय पुरोधसः |
2577 | 1049009c | यथान्यायं ततः सर्वैः समागच्छत्प्रहृष्टवान् |
2578 | 1049010a | अथ राजा मुनिश्रेष्ठं कृताञ्जलिरभाषत |
2579 | 1049010c | आसने भगवानास्तां सहैभिर्मुनिसत्तमैः |
2580 | 1049011a | जनकस्य वचः श्रुत्वा निषसाद महामुनिः |
2581 | 1049011c | पुरोधा ऋत्विजश्चैव राजा च सह मन्त्रिभिः |
2582 | 1049012a | आसनेषु यथान्यायमुपविष्टान्समन्ततः |
2583 | 1049012c | दृष्ट्वा स नृपतिस्तत्र विश्वामित्रमथाब्रवीत् |
2584 | 1049013a | अद्य यज्ञसमृद्धिर्मे सफला दैवतैः कृता |
2585 | 1049013c | अद्य यज्ञफलं प्राप्तं भगवद्दर्शनान्मया |
2586 | 1049014a | धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे मुनिपुंगव |
2587 | 1049014c | यज्ञोपसदनं ब्रह्मन्प्राप्तोऽसि मुनिभिः सह |
2588 | 1049015a | द्वादशाहं तु ब्रह्मर्षे शेषमाहुर्मनीषिणः |
2589 | 1049015c | ततो भागार्थिनो देवान्द्रष्टुमर्हसि कौशिक |
2590 | 1049016a | इत्युक्त्वा मुनिशार्दूलं प्रहृष्टवदनस्तदा |
2591 | 1049016c | पुनस्तं परिपप्रच्छ प्राञ्जलिः प्रयतो नृपः |
2592 | 1049017a | इमौ कुमारौ भद्रं ते देवतुल्यपराक्रमौ |
2593 | 1049017c | गजसिंहगती वीरौ शार्दूलवृषभोपमौ |
2594 | 1049018a | पद्मपत्रविशालाक्षौ खड्गतूणीधनुर्धरौ |
2595 | 1049018c | अश्विनाविव रूपेण समुपस्थितयौवनौ |
2596 | 1049019a | यदृच्छयैव गां प्राप्तौ देवलोकादिवामरौ |
2597 | 1049019c | कथं पद्भ्यामिह प्राप्तौ किमर्थं कस्य वा मुने |
2598 | 1049020a | वरायुधधरौ वीरौ कस्य पुत्रौ महामुने |
2599 | 1049020c | भूषयन्ताविमं देशं चन्द्रसूर्याविवाम्बरम् |
2600 | 1049021a | परस्परस्य सदृशौ प्रमाणेङ्गितचेष्टितैः |
2601 | 1049021c | काकपक्षधरौ वीरौ श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः |
2602 | 1049022a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा जनकस्य महात्मनः |
2603 | 1049022c | न्यवेदयन्महात्मानौ पुत्रौ दशरथस्य तौ |
2604 | 1049023a | सिद्धाश्रमनिवासं च राक्षसानां वधं तथा |
2605 | 1049023c | तच्चागमनमव्यग्रं विशालायाश्च दर्शनम् |
2606 | 1049024a | अहल्यादर्शनं चैव गौतमेन समागमम् |
2607 | 1049024c | महाधनुषि जिज्ञासां कर्तुमागमनं तथा |
2608 | 1049025a | एतत्सर्वं महातेजा जनकाय महात्मने |
2609 | 1049025c | निवेद्य विररामाथ विश्वामित्रो महामुनिः |
2610 | 1050001a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रस्य धीमतः |
2611 | 1050001c | हृष्टरोमा महातेजाः शतानन्दो महातपाः |
2612 | 1050002a | गौतमस्य सुतो ज्येष्ठस्तपसा द्योतितप्रभः |
2613 | 1050002c | रामसंदर्शनादेव परं विस्मयमागतः |
2614 | 1050003a | स तौ निषण्णौ संप्रेक्ष्य सुखासीनौ नृपात्मजौ |
2615 | 1050003c | शतानन्दो मुनिश्रेष्ठं विश्वामित्रमथाब्रवीत् |
2616 | 1050004a | अपि ते मुनिशार्दूल मम माता यशस्विनी |
2617 | 1050004c | दर्शिता राजपुत्राय तपो दीर्घमुपागता |
2618 | 1050005a | अपि रामे महातेजो मम माता यशस्विनी |
2619 | 1050005c | वन्यैरुपाहरत्पूजां पूजार्हे सर्वदेहिनाम् |
2620 | 1050006a | अपि रामाय कथितं यथावृत्तं पुरातनम् |
2621 | 1050006c | मम मातुर्महातेजो देवेन दुरनुष्ठितम् |
2622 | 1050007a | अपि कौशिक भद्रं ते गुरुणा मम संगता |
2623 | 1050007c | माता मम मुनिश्रेष्ठ रामसंदर्शनादितः |
2624 | 1050008a | अपि मे गुरुणा रामः पूजितः कुशिकात्मज |
2625 | 1050008c | इहागतो महातेजाः पूजां प्राप्य महात्मनः |
2626 | 1050009a | अपि शान्तेन मनसा गुरुर्मे कुशिकात्मज |
2627 | 1050009c | इहागतेन रामेण प्रयतेनाभिवादितः |
2628 | 1050010a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य विश्वामित्रो महामुनिः |
2629 | 1050010c | प्रत्युवाच शतानन्दं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम् |
2630 | 1050011a | नातिक्रान्तं मुनिश्रेष्ठ यत्कर्तव्यं कृतं मया |
2631 | 1050011c | संगता मुनिना पत्नी भार्गवेणेव रेणुका |
2632 | 1050012a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य विश्वामित्रस्य धीमतः |
2633 | 1050012c | शतानन्दो महातेजा रामं वचनमब्रवीत् |
2634 | 1050013a | स्वागतं ते नरश्रेष्ठ दिष्ट्या प्राप्तोऽसि राघव |
2635 | 1050013c | विश्वामित्रं पुरस्कृत्य महर्षिमपराजितम् |
2636 | 1050014a | अचिन्त्यकर्मा तपसा ब्रह्मर्षिरमितप्रभः |
2637 | 1050014c | विश्वामित्रो महातेजा वेत्स्येनं परमां गतिम् |
2638 | 1050015a | नास्ति धन्यतरो राम त्वत्तोऽन्यो भुवि कश्चन |
2639 | 1050015c | गोप्ता कुशिकपुत्रस्ते येन तप्तं महत्तपः |
2640 | 1050016a | श्रूयतां चाभिदास्यामि कौशिकस्य महात्मनः |
2641 | 1050016c | यथाबलं यथावृत्तं तन्मे निगदतः शृणु |
2642 | 1050017a | राजाभूदेष धर्मात्मा दीर्घ कालमरिंदमः |
2643 | 1050017c | धर्मज्ञः कृतविद्यश्च प्रजानां च हिते रतः |
2644 | 1050018a | प्रजापतिसुतस्त्वासीत्कुशो नाम महीपतिः |
2645 | 1050018c | कुशस्य पुत्रो बलवान्कुशनाभः सुधार्मिकः |
2646 | 1050019a | कुशनाभसुतस्त्वासीद्गाधिरित्येव विश्रुतः |
2647 | 1050019c | गाधेः पुत्रो महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः |
2648 | 1050020a | विश्वमित्रो महातेजाः पालयामास मेदिनीम् |
2649 | 1050020c | बहुवर्षसहस्राणि राजा राज्यमकारयत् |
2650 | 1050021a | कदाचित्तु महातेजा योजयित्वा वरूथिनीम् |
2651 | 1050021c | अक्षौहिणीपरिवृतः परिचक्राम मेदिनीम् |
2652 | 1050022a | नगराणि च राष्ट्राणि सरितश्च तथा गिरीन् |
2653 | 1050022c | आश्रमान्क्रमशो राजा विचरन्नाजगामह |
2654 | 1050023a | वसिष्ठस्याश्रमपदं नानापुष्पफलद्रुमम् |
2655 | 1050023c | नानामृगगणाकीर्णं सिद्धचारणसेवितम् |
2656 | 1050024a | देवदानवगन्धर्वैः किंनरैरुपशोभितम् |
2657 | 1050024c | प्रशान्तहरिणाकीर्णं द्विजसंघनिषेवितम् |
2658 | 1050025a | ब्रह्मर्षिगणसंकीर्णं देवर्षिगणसेवितम् |
2659 | 1050025c | तपश्चरणसंसिद्धैरग्निकल्पैर्महात्मभिः |
2660 | 1050026a | सततं संकुलं श्रीमद्ब्रह्मकल्पैर्महात्मभिः |
2661 | 1050026c | अब्भक्षैर्वायुभक्षैश्च शीर्णपर्णाशनैस्तथा |
2662 | 1050027a | फलमूलाशनैर्दान्तैर्जितरोषैर्जितेन्द्रियैः |
2663 | 1050027c | ऋषिभिर्वालखिल्यैश्च जपहोमपरायणैः |
2664 | 1050028a | वसिष्ठस्याश्रमपदं ब्रह्मलोकमिवापरम् |
2665 | 1050028c | ददर्श जयतां श्रेष्ठ विश्वामित्रो महाबलः |
2666 | 1051001a | स दृष्ट्वा परमप्रीतो विश्वामित्रो महाबलः |
2667 | 1051001c | प्रणतो विनयाद्वीरो वसिष्ठं जपतां वरम् |
2668 | 1051002a | स्वागतं तव चेत्युक्तो वसिष्ठेन महात्मना |
2669 | 1051002c | आसनं चास्य भगवान्वसिष्ठो व्यादिदेश ह |
2670 | 1051003a | उपविष्टाय च तदा विश्वामित्राय धीमते |
2671 | 1051003c | यथान्यायं मुनिवरः फलमूलमुपाहरत् |
2672 | 1051004a | प्रतिगृह्य च तां पूजां वसिष्ठाद्राजसत्तमः |
2673 | 1051004c | तपोऽग्निहोत्रशिष्येषु कुशलं पर्यपृच्छत |
2674 | 1051005a | विश्वामित्रो महातेजा वनस्पतिगणे तथा |
2675 | 1051005c | सर्वत्र कुशलं चाह वसिष्ठो राजसत्तमम् |
2676 | 1051006a | सुखोपविष्टं राजानं विश्वामित्रं महातपाः |
2677 | 1051006c | पप्रच्छ जपतां श्रेष्ठो वसिष्ठो ब्रह्मणः सुतः |
2678 | 1051007a | कच्चित्ते कुशलं राजन्कच्चिद्धर्मेण रञ्जयन् |
2679 | 1051007c | प्रजाः पालयसे राजन्राजवृत्तेन धार्मिक |
2680 | 1051008a | कच्चित्ते सुभृता भृत्याः कच्चित्तिष्ठन्ति शासने |
2681 | 1051008c | कच्चित्ते विजिताः सर्वे रिपवो रिपुसूदन |
2682 | 1051009a | कच्चिद्बले च कोशे च मित्रेषु च परंतप |
2683 | 1051009c | कुशलं ते नरव्याघ्र पुत्रपौत्रे तथानघ |
2684 | 1051010a | सर्वत्र कुशलं राजा वसिष्ठं प्रत्युदाहरत् |
2685 | 1051010c | विश्वामित्रो महातेजा वसिष्ठं विनयान्वितः |
2686 | 1051011a | कृत्वोभौ सुचिरं कालं धर्मिष्ठौ ताः कथाः शुभाः |
2687 | 1051011c | मुदा परमया युक्तौ प्रीयेतां तौ परस्परम् |
2688 | 1051012a | ततो वसिष्ठो भगवान्कथान्ते रघुनन्दन |
2689 | 1051012c | विश्वामित्रमिदं वाक्यमुवाच प्रहसन्निव |
2690 | 1051013a | आतिथ्यं कर्तुमिच्छामि बलस्यास्य महाबल |
2691 | 1051013c | तव चैवाप्रमेयस्य यथार्हं संप्रतीच्छ मे |
2692 | 1051014a | सत्क्रियां तु भवानेतां प्रतीच्छतु मयोद्यताम् |
2693 | 1051014c | राजंस्त्वमतिथिश्रेष्ठः पूजनीयः प्रयत्नतः |
2694 | 1051015a | एवमुक्तो वसिष्ठेन विश्वामित्रो महामतिः |
2695 | 1051015c | कृतमित्यब्रवीद्राजा पूजावाक्येन मे त्वया |
2696 | 1051016a | फलमूलेन भगवन्विद्यते यत्तवाश्रमे |
2697 | 1051016c | पाद्येनाचमनीयेन भगवद्दर्शनेन च |
2698 | 1051017a | सर्वथा च महाप्राज्ञ पूजार्हेण सुपूजितः |
2699 | 1051017c | गमिष्यामि नमस्तेऽस्तु मैत्रेणेक्षस्व चक्षुषा |
2700 | 1051018a | एवं ब्रुवन्तं राजानं वसिष्ठः पुनरेव हि |
2701 | 1051018c | न्यमन्त्रयत धर्मात्मा पुनः पुनरुदारधीः |
2702 | 1051019a | बाढमित्येव गाधेयो वसिष्ठं प्रत्युवाच ह |
2703 | 1051019c | यथा प्रियं भगवतस्तथास्तु मुनिसत्तम |
2704 | 1051020a | एवमुक्तो महातेजा वसिष्ठो जपतां वरः |
2705 | 1051020c | आजुहाव ततः प्रीतः कल्माषीं धूतकल्मषः |
2706 | 1051021a | एह्येहि शबले क्षिप्रं शृणु चापि वचो मम |
2707 | 1051021c | सबलस्यास्य राजर्षेः कर्तुं व्यवसितोऽस्म्यहम् |
2708 | 1051021e | भोजनेन महार्हेण सत्कारं संविधत्स्व मे |
2709 | 1051022a | यस्य यस्य यथाकामं षड्रसेष्वभिपूजितम् |
2710 | 1051022c | तत्सर्वं कामधुग्दिव्ये अभिवर्षकृते मम |
2711 | 1051023a | रसेनान्नेन पानेन लेह्यचोष्येण संयुतम् |
2712 | 1051023c | अन्नानां निचयं सर्वं सृजस्व शबले त्वर |
2713 | 1052001a | एवमुक्ता वसिष्ठेन शबला शत्रुसूदन |
2714 | 1052001c | विदधे कामधुक्कामान्यस्य यस्य यथेप्सितम् |
2715 | 1052002a | इक्षून्मधूंस्तथा लाजान्मैरेयांश्च वरासवान् |
2716 | 1052002c | पानानि च महार्हाणि भक्ष्यांश्चोच्चावचांस्तथा |
2717 | 1052003a | उष्णाढ्यस्यौदनस्यापि राशयः पर्वतोपमाः |
2718 | 1052003c | मृष्टान्नानि च सूपाश्च दधिकुल्यास्तथैव च |
2719 | 1052004a | नानास्वादुरसानां च षाडवानां तथैव च |
2720 | 1052004c | भाजनानि सुपूर्णानि गौडानि च सहस्रशः |
2721 | 1052005a | सर्वमासीत्सुसंतुष्टं हृष्टपुष्टजनाकुलम् |
2722 | 1052005c | विश्वामित्रबलं राम वसिष्ठेनाभितर्पितम् |
2723 | 1052006a | विश्वामित्रोऽपि राजर्षिर्हृष्टपुष्टस्तदाभवत् |
2724 | 1052006c | सान्तः पुरवरो राजा सब्राह्मणपुरोहितः |
2725 | 1052007a | सामात्यो मन्त्रिसहितः सभृत्यः पूजितस्तदा |
2726 | 1052007c | युक्तः परेण हर्षेण वसिष्ठमिदमब्रवीत् |
2727 | 1052008a | पूजितोऽहं त्वया ब्रह्मन्पूजार्हेण सुसत्कृतः |
2728 | 1052008c | श्रूयतामभिधास्यामि वाक्यं वाक्यविशारद |
2729 | 1052009a | गवां शतसहस्रेण दीयतां शबला मम |
2730 | 1052009c | रत्नं हि भगवन्नेतद्रत्नहारी च पार्थिवः |
2731 | 1052009e | तस्मान्मे शबलां देहि ममैषा धर्मतो द्विज |
2732 | 1052010a | एवमुक्तस्तु भगवान्वसिष्ठो मुनिसत्तमः |
2733 | 1052010c | विश्वामित्रेण धर्मात्मा प्रत्युवाच महीपतिम् |
2734 | 1052011a | नाहं शतसहस्रेण नापि कोटिशतैर्गवाम् |
2735 | 1052011c | राजन्दास्यामि शबलां राशिभी रजतस्य वा |
2736 | 1052012a | न परित्यागमर्हेयं मत्सकाशादरिंदम |
2737 | 1052012c | शाश्वती शबला मह्यं कीर्तिरात्मवतो यथा |
2738 | 1052013a | अस्यां हव्यं च कव्यं च प्राणयात्रा तथैव च |
2739 | 1052013c | आयत्तमग्निहोत्रं च बलिर्होमस्तथैव च |
2740 | 1052014a | स्वाहाकारवषट्कारौ विद्याश्च विविधास्तथा |
2741 | 1052014c | आयत्तमत्र राजर्षे सर्वमेतन्न संशयः |
2742 | 1052015a | सर्व स्वमेतत्सत्येन मम तुष्टिकरी सदा |
2743 | 1052015c | कारणैर्बहुभी राजन्न दास्ये शबलां तव |
2744 | 1052016a | वसिष्ठेनैवमुक्तस्तु विश्वामित्रोऽब्रवीत्ततः |
2745 | 1052016c | संरब्धतरमत्यर्थं वाक्यं वाक्यविशारदः |
2746 | 1052017a | हैरण्यकक्ष्याग्रैवेयान्सुवर्णाङ्कुशभूषितान् |
2747 | 1052017c | ददामि कुञ्जराणां ते सहस्राणि चतुर्दश |
2748 | 1052018a | हैरण्यानां रथानां च श्वेताश्वानां चतुर्युजाम् |
2749 | 1052018c | ददामि ते शतान्यष्टौ किङ्किणीकविभूषितान् |
2750 | 1052019a | हयानां देशजातानां कुलजानां महौजसाम् |
2751 | 1052019c | सहस्रमेकं दश च ददामि तव सुव्रत |
2752 | 1052020a | नानावर्णविभक्तानां वयःस्थानां तथैव च |
2753 | 1052020c | ददाम्येकां गवां कोटिं शबला दीयतां मम |
2754 | 1052021a | एवमुक्तस्तु भगवान्विश्वामित्रेण धीमता |
2755 | 1052021c | न दास्यामीति शबलां प्राह राजन्कथंचन |
2756 | 1052022a | एतदेव हि मे रत्नमेतदेव हि मे धनम् |
2757 | 1052022c | एतदेव हि सर्वस्वमेतदेव हि जीवितम् |
2758 | 1052023a | दर्शश्च पूर्णमासश्च यज्ञाश्चैवाप्तदक्षिणाः |
2759 | 1052023c | एतदेव हि मे राजन्विविधाश्च क्रियास्तथा |
2760 | 1052024a | अदोमूलाः क्रियाः सर्वा मम राजन्न संशयः |
2761 | 1052024c | बहूनां किं प्रलापेन न दास्ये कामदोहिनीम् |
2762 | 1053001a | कामधेनुं वसिष्ठोऽपि यदा न त्यजते मुनिः |
2763 | 1053001c | तदास्य शबलां राम विश्वामित्रोऽन्वकर्षत |
2764 | 1053002a | नीयमाना तु शबला राम राज्ञा महात्मना |
2765 | 1053002c | दुःखिता चिन्तयामास रुदन्ती शोककर्शिता |
2766 | 1053003a | परित्यक्ता वसिष्ठेन किमहं सुमहात्मना |
2767 | 1053003c | याहं राजभृतैर्दीना ह्रियेयं भृशदुःखिता |
2768 | 1053004a | किं मयापकृतं तस्य महर्षेर्भावितात्मनः |
2769 | 1053004c | यन्मामनागसं भक्तामिष्टां त्यजति धार्मिकः |
2770 | 1053005a | इति सा चिन्तयित्वा तु निःश्वस्य च पुनः पुनः |
2771 | 1053005c | जगाम वेगेन तदा वसिष्ठं परमौजसं |
2772 | 1053006a | निर्धूय तांस्तदा भृत्याञ्शतशः शत्रुसूदन |
2773 | 1053006c | जगामानिलवेगेन पादमूलं महात्मनः |
2774 | 1053007a | शबला सा रुदन्ती च क्रोशन्ती चेदमब्रवीत् |
2775 | 1053007c | वसिष्ठस्याग्रतः स्थित्वा मेघदुन्दुभिराविणी |
2776 | 1053008a | भगवन्किं परित्यक्ता त्वयाहं ब्रह्मणः सुत |
2777 | 1053008c | यस्माद्राजभृता मां हि नयन्ते त्वत्सकाशतः |
2778 | 1053009a | एवमुक्तस्तु ब्रह्मर्षिरिदं वचनमब्रवीत् |
2779 | 1053009c | शोकसंतप्तहृदयां स्वसारमिव दुःखिताम् |
2780 | 1053010a | न त्वां त्यजामि शबले नापि मेऽपकृतं त्वया |
2781 | 1053010c | एष त्वां नयते राजा बलान्मत्तो महाबलः |
2782 | 1053011a | न हि तुल्यं बलं मह्यं राजा त्वद्य विशेषतः |
2783 | 1053011c | बली राजा क्षत्रियश्च पृथिव्याः पतिरेव च |
2784 | 1053012a | इयमक्षौहिणीपूर्णा सवाजिरथसंकुला |
2785 | 1053012c | हस्तिध्वजसमाकीर्णा तेनासौ बलवत्तरः |
2786 | 1053013a | एवमुक्ता वसिष्ठेन प्रत्युवाच विनीतवत् |
2787 | 1053013c | वचनं वचनज्ञा सा ब्रह्मर्षिममितप्रभम् |
2788 | 1053014a | न बलं क्षत्रियस्याहुर्ब्राह्मणो बलवत्तरः |
2789 | 1053014c | ब्रह्मन्ब्रह्मबलं दिव्यं क्षत्रात्तु बलवत्तरम् |
2790 | 1053015a | अप्रमेयबलं तुभ्यं न त्वया बलवत्तरः |
2791 | 1053015c | विश्वामित्रो महावीर्यस्तेजस्तव दुरासदम् |
2792 | 1053016a | नियुङ्क्ष्व मां महातेजस्त्वद्ब्रह्मबलसंभृताम् |
2793 | 1053016c | तस्य दर्पं बलं यत्तन्नाशयामि दुरात्मनः |
2794 | 1053017a | इत्युक्तस्तु तया राम वसिष्ठः सुमहायशाः |
2795 | 1053017c | सृजस्वेति तदोवाच बलं परबलारुजम् |
2796 | 1053018a | तस्या हुम्भारवोत्सृष्टाः पह्लवाः शतशो नृप |
2797 | 1053018c | नाशयन्ति बलं सर्वं विश्वामित्रस्य पश्यतः |
2798 | 1053019a | स राजा परमक्रुद्धः क्रोधविस्फारितेक्षणः |
2799 | 1053019c | पह्लवान्नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि |
2800 | 1053020a | विश्वामित्रार्दितान्दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतशस्तदा |
2801 | 1053020c | भूय एवासृजद्घोराञ्शकान्यवनमिश्रितान् |
2802 | 1053021a | तैरासीत्संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः |
2803 | 1053021c | प्रभावद्भिर्महावीर्यैर्हेमकिञ्जल्कसंनिभैः |
2804 | 1053022a | दीर्घासिपट्टिशधरैर्हेमवर्णाम्बरावृतैः |
2805 | 1053022c | निर्दग्धं तद्बलं सर्वं प्रदीप्तैरिव पावकैः |
2806 | 1053023a | ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह |
2807 | 1054001a | ततस्तानाकुलान्दृष्ट्वा विश्वामित्रास्त्रमोहितान् |
2808 | 1054001c | वसिष्ठश्चोदयामास कामधुक्सृज योगतः |
2809 | 1054002a | तस्या हुम्भारवाज्जाताः काम्बोजा रविसंनिभाः |
2810 | 1054002c | ऊधसस्त्वथ संजाताः पह्लवाः शस्त्रपाणयः |
2811 | 1054003a | योनिदेशाच्च यवनः शकृद्देशाच्छकास्तथा |
2812 | 1054003c | रोमकूपेषु मेच्छाश्च हरीताः सकिरातकाः |
2813 | 1054004a | तैस्तन्निषूदितं सैन्यं विश्वमित्रस्य तत्क्षणात् |
2814 | 1054004c | सपदातिगजं साश्वं सरथं रघुनन्दन |
2815 | 1054005a | दृष्ट्वा निषूदितं सैन्यं वसिष्ठेन महात्मना |
2816 | 1054005c | विश्वामित्रसुतानां तु शतं नानाविधायुधम् |
2817 | 1054006a | अभ्यधावत्सुसंक्रुद्धं वसिष्ठं जपतां वरम् |
2818 | 1054006c | हुंकारेणैव तान्सर्वान्निर्ददाह महानृषिः |
2819 | 1054007a | ते साश्वरथपादाता वसिष्ठेन महात्मना |
2820 | 1054007c | भस्मीकृता मुहूर्तेन विश्वामित्रसुतास्तदा |
2821 | 1054008a | दृष्ट्वा विनाशितान्पुत्रान्बलं च सुमहायशाः |
2822 | 1054008c | सव्रीडश्चिन्तयाविष्टो विश्वामित्रोऽभवत्तदा |
2823 | 1054009a | संदुर इव निर्वेगो भग्नदंष्ट्र इवोरगः |
2824 | 1054009c | उपरक्त इवादित्यः सद्यो निष्प्रभतां गतः |
2825 | 1054010a | हतपुत्रबलो दीनो लूनपक्ष इव द्विजः |
2826 | 1054010c | हतदर्पो हतोत्साहो निर्वेदं समपद्यत |
2827 | 1054011a | स पुत्रमेकं राज्याय पालयेति नियुज्य च |
2828 | 1054011c | पृथिवीं क्षत्रधर्मेण वनमेवान्वपद्यत |
2829 | 1054012a | स गत्वा हिमवत्पार्श्वं किंनरोरगसेवितम् |
2830 | 1054012c | महादेवप्रसादार्थं तपस्तेपे महातपाः |
2831 | 1054013a | केनचित्त्वथ कालेन देवेशो वृषभध्वजः |
2832 | 1054013c | दर्शयामास वरदो विश्वामित्रं महामुनिम् |
2833 | 1054014a | किमर्थं तप्यसे राजन्ब्रूहि यत्ते विवक्षितम् |
2834 | 1054014c | वरदोऽस्मि वरो यस्ते काङ्क्षितः सोऽभिधीयताम् |
2835 | 1054015a | एवमुक्तस्तु देवेन विश्वामित्रो महातपाः |
2836 | 1054015c | प्रणिपत्य महादेवमिदं वचनमब्रवीत् |
2837 | 1054016a | यदि तुष्टो महादेव धनुर्वेदो ममानघ |
2838 | 1054016c | साङ्गोपाङ्गोपनिषदः सरहस्यः प्रदीयताम् |
2839 | 1054017a | यानि देवेषु चास्त्राणि दानवेषु महर्षिषु |
2840 | 1054017c | गन्धर्वयक्षरक्षःसु प्रतिभान्तु ममानघ |
2841 | 1054018a | तव प्रसादाद्भवतु देवदेव ममेप्सितम् |
2842 | 1054018c | एवमस्त्विति देवेशो वाक्यमुक्त्वा दिवं गतः |
2843 | 1054019a | प्राप्य चास्त्राणि राजर्षिर्विश्वामित्रो महाबलः |
2844 | 1054019c | दर्पेण महता युक्तो दर्पपूर्णोऽभवत्तदा |
2845 | 1054020a | विवर्धमानो वीर्येण समुद्र इव पर्वणि |
2846 | 1054020c | हतमेव तदा मेने वसिष्ठमृषिसत्तमम् |
2847 | 1054021a | ततो गत्वाश्रमपदं मुमोचास्त्राणि पार्थिवः |
2848 | 1054021c | यैस्तत्तपोवनं सर्वं निर्दग्धं चास्त्रतेजसा |
2849 | 1054022a | उदीर्यमाणमस्त्रं तद्विश्वामित्रस्य धीमतः |
2850 | 1054022c | दृष्ट्वा विप्रद्रुता भीता मुनयः शतशो दिशः |
2851 | 1054023a | वसिष्ठस्य च ये शिष्यास्तथैव मृगपक्षिणः |
2852 | 1054023c | विद्रवन्ति भयाद्भीता नानादिग्भ्यः सहस्रशः |
2853 | 1054024a | वसिष्ठस्याश्रमपदं शून्यमासीन्महात्मनः |
2854 | 1054024c | मुहूर्तमिव निःशब्दमासीदीरिणसंनिभम् |
2855 | 1054025a | वदतो वै वसिष्ठस्य मा भैष्टेति मुहुर्मुहुः |
2856 | 1054025c | नाशयाम्यद्य गाधेयं नीहारमिव भास्करः |
2857 | 1054026a | एवमुक्त्वा महातेजा वसिष्ठो जपतां वरः |
2858 | 1054026c | विश्वामित्रं तदा वाक्यं सरोषमिदमब्रवीत् |
2859 | 1054027a | आश्रमं चिरसंवृद्धं यद्विनाशितवानसि |
2860 | 1054027c | दुराचारोऽसि यन्मूढ तस्मात्त्वं न भविष्यसि |
2861 | 1054028a | इत्युक्त्वा परमक्रुद्धो दण्डमुद्यम्य सत्वरः |
2862 | 1054028c | विधूम इव कालाग्निर्यमदण्डमिवापरम् |
2863 | 1055001a | एवमुक्तो वसिष्ठेन विश्वामित्रो महाबलः |
2864 | 1055001c | आग्नेयमस्त्रमुत्क्षिप्य तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् |
2865 | 1055002a | वसिष्ठो भगवान्क्रोधादिदं वचनमब्रवीत् |
2866 | 1055003a | क्षत्रबन्धो स्थितोऽस्म्येष यद्बलं तद्विदर्शय |
2867 | 1055003c | नाशयाम्येष ते दर्पं शस्त्रस्य तव गाधिज |
2868 | 1055004a | क्व च ते क्षत्रियबलं क्व च ब्रह्मबलं महत् |
2869 | 1055004c | पश्य ब्रह्मबलं दिव्यं मम क्षत्रियपांसन |
2870 | 1055005a | तस्यास्त्रं गाधिपुत्रस्य घोरमाग्नेयमुत्तमम् |
2871 | 1055005c | ब्रह्मदण्डेन तच्छान्तमग्नेर्वेग इवाम्भसा |
2872 | 1055006a | वारुणं चैव रौद्रं च ऐन्द्रं पाशुपतं तथा |
2873 | 1055006c | ऐषीकं चापि चिक्षेप रुषितो गाधिनन्दनः |
2874 | 1055007a | मानवं मोहनं चैव गान्धर्वं स्वापनं तथा |
2875 | 1055007c | जृम्भणं मोहनं चैव संतापनविलापने |
2876 | 1055008a | शोषणं दारणं चैव वज्रमस्त्रं सुदुर्जयम् |
2877 | 1055008c | ब्रह्मपाशं कालपाशं वारुणं पाशमेव च |
2878 | 1055009a | पिनाकास्त्रं च दयितं शुष्कार्द्रे अशनी तथा |
2879 | 1055009c | दण्डास्त्रमथ पैशाचं क्रौञ्चमस्त्रं तथैव च |
2880 | 1055010a | धर्मचक्रं कालचक्रं विष्णुचक्रं तथैव च |
2881 | 1055010c | वायव्यं मथनं चैव अस्त्रं हयशिरस्तथा |
2882 | 1055011a | शक्तिद्वयं च चिक्षेप कङ्कालं मुसलं तथा |
2883 | 1055011c | वैद्याधरं महास्त्रं च कालास्त्रमथ दारुणम् |
2884 | 1055012a | त्रिशूलमस्त्रं घोरं च कापालमथ कङ्कणम् |
2885 | 1055012c | एतान्यस्त्राणि चिक्षेप सर्वाणि रघुनन्दन |
2886 | 1055013a | वसिष्ठे जपतां श्रेष्ठे तदद्भुतमिवाभवत् |
2887 | 1055013c | तानि सर्वाणि दण्डेन ग्रसते ब्रह्मणः सुतः |
2888 | 1055014a | तेषु शान्तेषु ब्रह्मास्त्रं क्षिप्तवान्गाधिनन्दनः |
2889 | 1055014c | तदस्त्रमुद्यतं दृष्ट्वा देवाः साग्निपुरोगमाः |
2890 | 1055015a | देवर्षयश्च संभ्रान्ता गन्धर्वाः समहोरगाः |
2891 | 1055015c | त्रैलोक्यमासीत्संत्रस्तं ब्रह्मास्त्रे समुदीरिते |
2892 | 1055016a | तदप्यस्त्रं महाघोरं ब्राह्मं ब्राह्मेण तेजसा |
2893 | 1055016c | वसिष्ठो ग्रसते सर्वं ब्रह्मदण्डेन राघव |
2894 | 1055017a | ब्रह्मास्त्रं ग्रसमानस्य वसिष्ठस्य महात्मनः |
2895 | 1055017c | त्रैलोक्यमोहनं रौद्रं रूपमासीत्सुदारुणम् |
2896 | 1055018a | रोमकूपेषु सर्वेषु वसिष्ठस्य महात्मनः |
2897 | 1055018c | मरीच्य इव निष्पेतुरग्नेर्धूमाकुलार्चिषः |
2898 | 1055019a | प्राज्वलद्ब्रह्मदण्डश्च वसिष्ठस्य करोद्यतः |
2899 | 1055019c | विधूम इव कालाग्निर्यमदण्ड इवापरः |
2900 | 1055020a | ततोऽस्तुवन्मुनिगणा वसिष्ठं जपतां वरम् |
2901 | 1055020c | अमोघं ते बलं ब्रह्मंस्तेजो धारय तेजसा |
2902 | 1055021a | निगृहीतस्त्वया ब्रह्मन्विश्वामित्रो महातपाः |
2903 | 1055021c | प्रसीद जपतां श्रेष्ठ लोकाः सन्तु गतव्यथाः |
2904 | 1055022a | एवमुक्तो महातेजाः शमं चक्रे महातपाः |
2905 | 1055022c | विश्वामित्रोऽपि निकृतो विनिःश्वस्येदमब्रवीत् |
2906 | 1055023a | धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम् |
2907 | 1055023c | एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे |
2908 | 1055024a | तदेतत्समवेक्ष्याहं प्रसन्नेन्द्रियमानसः |
2909 | 1055024c | तपो महत्समास्थास्ये यद्वै ब्रह्मत्वकारकम् |
2910 | 1056001a | ततः संतप्तहृदयः स्मरन्निग्रहमात्मनः |
2911 | 1056001c | विनिःश्वस्य विनिःश्वस्य कृतवैरो महात्मना |
2912 | 1056002a | स दक्षिणां दिशं गत्वा महिष्या सह राघव |
2913 | 1056002c | तताप परमं घोरं विश्वामित्रो महातपाः |
2914 | 1056002e | फलमूलाशनो दान्तश्चचार परमं तपः |
2915 | 1056003a | अथास्य जज्ञिरे पुत्राः सत्यधर्मपरायणाः |
2916 | 1056003c | हविष्पन्दो मधुष्पन्दो दृढनेत्रो महारथः |
2917 | 1056004a | पूर्णे वर्षसहस्रे तु ब्रह्मा लोकपितामहः |
2918 | 1056004c | अब्रवीन्मधुरं वाक्यं विश्वामित्रं तपोधनम् |
2919 | 1056005a | जिता राजर्षिलोकास्ते तपसा कुशिकात्मज |
2920 | 1056005c | अनेन तपसा त्वां हि राजर्षिरिति विद्महे |
2921 | 1056006a | एवमुक्त्वा महातेजा जगाम सह दैवतैः |
2922 | 1056006c | त्रिविष्टपं ब्रह्मलोकं लोकानां परमेश्वरः |
2923 | 1056007a | विश्वामित्रोऽपि तच्छ्रुत्वा ह्रिया किंचिदवाङ्मुखः |
2924 | 1056007c | दुःखेन महताविष्टः समन्युरिदमब्रवीत् |
2925 | 1056008a | तपश्च सुमहत्तप्तं राजर्षिरिति मां विदुः |
2926 | 1056008c | देवाः सर्षिगणाः सर्वे नास्ति मन्ये तपःफलम् |
2927 | 1056009a | एवं निश्चित्य मनसा भूय एव महातपाः |
2928 | 1056009c | तपश्चचार काकुत्स्थ परमं परमात्मवान् |
2929 | 1056010a | एतस्मिन्नेव काले तु सत्यवादी जितेन्द्रियः |
2930 | 1056010c | त्रिशङ्कुरिति विख्यात इक्ष्वाकु कुलनन्दनः |
2931 | 1056011a | तस्य बुद्धिः समुत्पन्ना यजेयमिति राघव |
2932 | 1056011c | गच्छेयं स्वशरीरेण देवानां परमां गतिम् |
2933 | 1056012a | स वसिष्ठं समाहूय कथयामास चिन्तितम् |
2934 | 1056012c | अशक्यमिति चाप्युक्तो वसिष्ठेन महात्मना |
2935 | 1056013a | प्रत्याख्यातो वसिष्ठेन स ययौ दक्षिणां दिशम् |
2936 | 1056013c | वसिष्ठा दीर्घ तपसस्तपो यत्र हि तेपिरे |
2937 | 1056014a | त्रिशङ्कुः सुमहातेजाः शतं परमभास्वरम् |
2938 | 1056014c | वसिष्ठपुत्रान्ददृशे तप्यमानान्यशस्विनः |
2939 | 1056015a | सोऽभिगम्य महात्मानः सर्वानेव गुरोः सुतान् |
2940 | 1056015c | अभिवाद्यानुपूर्व्येण ह्रिया किंचिदवाङ्मुखः |
2941 | 1056015e | अब्रवीत्सुमहातेजाः सर्वानेव कृताञ्जलिः |
2942 | 1056016a | शरणं वः प्रपद्येऽहं शरण्याञ्शरणागतः |
2943 | 1056016c | प्रत्याख्यातोऽस्मि भद्रं वो वसिष्ठेन महात्मना |
2944 | 1056017a | यष्टुकामो महायज्ञं तदनुज्ञातुमर्थथ |
2945 | 1056017c | गुरुपुत्रानहं सर्वान्नमस्कृत्य प्रसादये |
2946 | 1056018a | शिरसा प्रणतो याचे ब्राह्मणांस्तपसि स्थितान् |
2947 | 1056018c | ते मां भवन्तः सिद्ध्यर्थं याजयन्तु समाहिताः |
2948 | 1056018e | सशरीरो यथाहं हि देवलोकमवाप्नुयाम् |
2949 | 1056019a | प्रत्याख्यातो वसिष्ठेन गतिमन्यां तपोधनाः |
2950 | 1056019c | गुरुपुत्रानृते सर्वान्नाहं पश्यामि कांचन |
2951 | 1056020a | इक्ष्वाकूणां हि सर्वेषां पुरोधाः परमा गतिः |
2952 | 1056020c | तस्मादनन्तरं सर्वे भवन्तो दैवतं मम |
2953 | 1057001a | ततस्त्रिशङ्कोर्वचनं श्रुत्वा क्रोधसमन्वितम् |
2954 | 1057001c | ऋषिपुत्रशतं राम राजानमिदमब्रवीत् |
2955 | 1057002a | प्रत्याख्यातोऽसि दुर्बुद्धे गुरुणा सत्यवादिना |
2956 | 1057002c | तं कथं समतिक्रम्य शाखान्तरमुपेयिवान् |
2957 | 1057003a | इक्ष्वाकूणां हि सर्वेषां पुरोधाः परमा गतिः |
2958 | 1057003c | न चातिक्रमितुं शक्यं वचनं सत्यवादिनः |
2959 | 1057004a | अशक्यमिति चोवाच वसिष्ठो भगवानृषिः |
2960 | 1057004c | तं वयं वै समाहर्तुं क्रतुं शक्ताः कथं तव |
2961 | 1057005a | बालिशस्त्वं नरश्रेष्ठ गम्यतां स्वपुरं पुनः |
2962 | 1057005c | याजने भगवाञ्शक्तस्त्रैलोक्यस्यापि पार्थिव |
2963 | 1057006a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा क्रोधपर्याकुलाक्षरम् |
2964 | 1057006c | स राजा पुनरेवैतानिदं वचनमब्रवीत् |
2965 | 1057007a | प्रत्याख्यातोऽस्मि गुरुणा गुरुपुत्रैस्तथैव च |
2966 | 1057007c | अन्यां गतिं गमिष्यामि स्वस्ति वोऽस्तु तपोधनाः |
2967 | 1057008a | ऋषिपुत्रास्तु तच्छ्रुत्वा वाक्यं घोराभिसंहितम् |
2968 | 1057008c | शेपुः परमसंक्रुद्धाश्चण्डालत्वं गमिष्यसि |
2969 | 1057008e | एवमुक्त्वा महात्मानो विविशुस्ते स्वमाश्रमम् |
2970 | 1057009a | अथ रात्र्यां व्यतीतायां राजा चण्डालतां गतः |
2971 | 1057009c | नीलवस्त्रधरो नीलः परुषो ध्वस्तमूर्धजः |
2972 | 1057009e | चित्यमाल्यानुलेपश्च आयसाभरणोऽभवत् |
2973 | 1057010a | तं दृष्ट्वा मन्त्रिणः सर्वे त्यक्त्वा चण्डालरूपिणम् |
2974 | 1057010c | प्राद्रवन्सहिता राम पौरा येऽस्यानुगामिनः |
2975 | 1057011a | एको हि राजा काकुत्स्थ जगाम परमात्मवान् |
2976 | 1057011c | दह्यमानो दिवारात्रं विश्वामित्रं तपोधनम् |
2977 | 1057012a | विश्वामित्रस्तु तं दृष्ट्वा राजानं विफलीकृतम् |
2978 | 1057012c | चण्डालरूपिणं राम मुनिः कारुण्यमागतः |
2979 | 1057013a | कारुण्यात्स महातेजा वाक्यं परम धार्मिकः |
2980 | 1057013c | इदं जगाद भद्रं ते राजानं घोरदर्शनम् |
2981 | 1057014a | किमागमनकार्यं ते राजपुत्र महाबल |
2982 | 1057014c | अयोध्याधिपते वीर शापाच्चण्डालतां गतः |
2983 | 1057015a | अथ तद्वाक्यमाकर्ण्य राजा चण्डालतां गतः |
2984 | 1057015c | अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम् |
2985 | 1057016a | प्रत्याख्यातोऽस्मि गुरुणा गुरुपुत्रैस्तथैव च |
2986 | 1057016c | अनवाप्यैव तं कामं मया प्राप्तो विपर्ययः |
2987 | 1057017a | सशरीरो दिवं यायामिति मे सौम्यदर्शनम् |
2988 | 1057017c | मया चेष्टं क्रतुशतं तच्च नावाप्यते फलम् |
2989 | 1057018a | अनृतं नोक्त पूर्वं मे न च वक्ष्ये कदाचन |
2990 | 1057018c | कृच्छ्रेष्वपि गतः सौम्य क्षत्रधर्मेण ते शपे |
2991 | 1057019a | यज्ञैर्बहुविधैरिष्टं प्रजा धर्मेण पालिताः |
2992 | 1057019c | गुरवश्च महात्मानः शीलवृत्तेन तोषिताः |
2993 | 1057020a | धर्मे प्रयतमानस्य यज्ञं चाहर्तुमिच्छतः |
2994 | 1057020c | परितोषं न गच्छन्ति गुरवो मुनिपुंगव |
2995 | 1057021a | दैवमेव परं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम् |
2996 | 1057021c | दैवेनाक्रम्यते सर्वं दैवं हि परमा गतिः |
2997 | 1057022a | तस्य मे परमार्तस्य प्रसादमभिकाङ्क्षतः |
2998 | 1057022c | कर्तुमर्हसि भद्रं ते दैवोपहतकर्मणः |
2999 | 1057023a | नान्यां गतिं गमिष्यामि नान्यः शरणमस्ति मे |
3000 | 1057023c | दैवं पुरुषकारेण निवर्तयितुमर्हसि |
3001 | 1058001a | उक्तवाक्यं तु राजानं कृपया कुशिकात्मजः |
3002 | 1058001c | अब्रवीन्मधुरं वाक्यं साक्षाच्चण्डालरूपिणम् |
3003 | 1058002a | इक्ष्वाको स्वागतं वत्स जानामि त्वां सुधार्मिकम् |
3004 | 1058002c | शरणं ते भविष्यामि मा भैषीर्नृपपुंगव |
3005 | 1058003a | अहमामन्त्रये सर्वान्महर्षीन्पुण्यकर्मणः |
3006 | 1058003c | यज्ञसाह्यकरान्राजंस्ततो यक्ष्यसि निर्वृतः |
3007 | 1058004a | गुरुशापकृतं रूपं यदिदं त्वयि वर्तते |
3008 | 1058004c | अनेन सह रूपेण सशरीरो गमिष्यसि |
3009 | 1058005a | हस्तप्राप्तमहं मन्ये स्वर्गं तव नरेश्वर |
3010 | 1058005c | यस्त्वं कौशिकमागम्य शरण्यं शरणं गतः |
3011 | 1058006a | एवमुक्त्वा महातेजाः पुत्रान्परमधार्मिकान् |
3012 | 1058006c | व्यादिदेश महाप्राज्ञान्यज्ञसंभारकारणात् |
3013 | 1058007a | सर्वाञ्शिष्यान्समाहूय वाक्यमेतदुवाच ह |
3014 | 1058008a | सर्वानृषिवरान्वत्सा आनयध्वं ममाज्ञया |
3015 | 1058008c | सशिष्यान्सुहृदश्चैव सर्त्विजः सुबहुश्रुतान् |
3016 | 1058009a | यदन्यो वचनं ब्रूयान्मद्वाक्यबलचोदितः |
3017 | 1058009c | तत्सर्वमखिलेनोक्तं ममाख्येयमनादृतम् |
3018 | 1058010a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा दिशो जग्मुस्तदाज्ञया |
3019 | 1058010c | आजग्मुरथ देशेभ्यः सर्वेभ्यो ब्रह्मवादिनः |
3020 | 1058011a | ते च शिष्याः समागम्य मुनिं ज्वलिततेजसं |
3021 | 1058011c | ऊचुश्च वचनं सर्वे सर्वेषां ब्रह्मवादिनाम् |
3022 | 1058012a | श्रुत्वा ते वचनं सर्वे समायान्ति द्विजातयः |
3023 | 1058012c | सर्वदेशेषु चागच्छन्वर्जयित्वा महोदयम् |
3024 | 1058013a | वासिष्ठं तच्छतं सर्वं क्रोधपर्याकुलाक्षरम् |
3025 | 1058013c | यदाह वचनं सर्वं शृणु त्वं मुनिपुंगव |
3026 | 1058014a | क्षत्रियो याजको यस्य चण्डालस्य विशेषतः |
3027 | 1058014c | कथं सदसि भोक्तारो हविस्तस्य सुरर्षयः |
3028 | 1058015a | ब्राह्मणा वा महात्मानो भुक्त्वा चण्डालभोजनम् |
3029 | 1058015c | कथं स्वर्गं गमिष्यन्ति विश्वामित्रेण पालिताः |
3030 | 1058016a | एतद्वचनं नैष्ठुर्यमूचुः संरक्तलोचनाः |
3031 | 1058016c | वासिष्ठा मुनिशार्दूल सर्वे ते समहोदयाः |
3032 | 1058017a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा सर्वेषां मुनिपुंगवः |
3033 | 1058017c | क्रोधसंरक्तनयनः सरोषमिदमब्रवीत् |
3034 | 1058018a | यद्दूषयन्त्यदुष्टं मां तप उग्रं समास्थितम् |
3035 | 1058018c | भस्मीभूता दुरात्मानो भविष्यन्ति न संशयः |
3036 | 1058019a | अद्य ते कालपाशेन नीता वैवस्वतक्षयम् |
3037 | 1058019c | सप्तजातिशतान्येव मृतपाः सन्तु सर्वशः |
3038 | 1058020a | श्वमांसनियताहारा मुष्टिका नाम निर्घृणाः |
3039 | 1058020c | विकृताश्च विरूपाश्च लोकाननुचरन्त्विमान् |
3040 | 1058021a | महोदयश्च दुर्बुद्धिर्मामदूष्यं ह्यदूषयत् |
3041 | 1058021c | दूषिटः सर्वलोकेषु निषादत्वं गमिष्यति |
3042 | 1058022a | प्राणातिपातनिरतो निरनुक्रोशतां गतः |
3043 | 1058022c | दीर्घकालं मम क्रोधाद्दुर्गतिं वर्तयिष्यति |
3044 | 1058023a | एतावदुक्त्वा वचनं विश्वामित्रो महातपाः |
3045 | 1058023c | विरराम महातेजा ऋषिमध्ये महामुनिः |
3046 | 1059001a | तपोबलहतान्कृत्वा वासिष्ठान्समहोदयान् |
3047 | 1059001c | ऋषिमध्ये महातेजा विश्वामित्रोऽभ्यभाषत |
3048 | 1059002a | अयमिक्ष्वाकुदायादस्त्रिशङ्कुरिति विश्रुतः |
3049 | 1059002c | धर्मिष्ठश्च वदान्यश्च मां चैव शरणं गतः |
3050 | 1059002e | स्वेनानेन शरीरेण देवलोकजिगीषया |
3051 | 1059003a | यथायं स्वशरीरेण देवलोकं गमिष्यति |
3052 | 1059003c | तथा प्रवर्त्यतां यज्ञो भवद्भिश्च मया सह |
3053 | 1059004a | विश्वामित्रवचः श्रुत्वा सर्व एव महर्षयः |
3054 | 1059004c | ऊचुः समेत्य सहिता धर्मज्ञा धर्मसंहितम् |
3055 | 1059005a | अयं कुशिकदायादो मुनिः परमकोपनः |
3056 | 1059005c | यदाह वचनं सम्यगेतत्कार्यं न संशयः |
3057 | 1059006a | अग्निकल्पो हि भगवाञ्शापं दास्यति रोषितः |
3058 | 1059006c | तस्मात्प्रवर्त्यतां यज्ञः सशरीरो यथा दिवम् |
3059 | 1059006e | गच्छेदिक्ष्वाकुदायादो विश्वामित्रस्य तेजसा |
3060 | 1059007a | ततः प्रवर्त्यतां यज्ञः सर्वे समधितिष्ठते |
3061 | 1059008a | एवमुक्त्वा महर्षयः संजह्रुस्ताः क्रियास्तदा |
3062 | 1059008c | याजकाश्च महातेजा विश्वामित्रोऽभवत्क्रतौ |
3063 | 1059009a | ऋत्विजश्चानुपूर्व्येण मन्त्रवन्मन्त्रकोविदाः |
3064 | 1059009c | चक्रुः सर्वाणि कर्माणि यथाकल्पं यथाविधि |
3065 | 1059010a | ततः कालेन महता विश्वामित्रो महातपाः |
3066 | 1059010c | चकारावाहनं तत्र भागार्थं सर्वदेवताः |
3067 | 1059011a | नाह्यागमंस्तदाहूता भागार्थं सर्वदेवताः |
3068 | 1059011c | ततः क्रोधसमाविष्टो विश्वमित्रो महामुनिः |
3069 | 1059012a | स्रुवमुद्यम्य सक्रोधस्त्रिशङ्कुमिदमब्रवीत् |
3070 | 1059012c | पश्य मे तपसो वीर्यं स्वार्जितस्य नरेश्वर |
3071 | 1059013a | एष त्वां स्वशरीरेण नयामि स्वर्गमोजसा |
3072 | 1059013c | दुष्प्रापं स्वशरीरेण दिवं गच्छ नराधिप |
3073 | 1059014a | स्वार्जितं किंचिदप्यस्ति मया हि तपसः फलम् |
3074 | 1059014c | राजंस्त्वं तेजसा तस्य सशरीरो दिवं व्रज |
3075 | 1059015a | उक्तवाक्ये मुनौ तस्मिन्सशरीरो नरेश्वरः |
3076 | 1059015c | दिवं जगाम काकुत्स्थ मुनीनां पश्यतां तदा |
3077 | 1059016a | देवलोकगतं दृष्ट्वा त्रिशङ्कुं पाकशासनः |
3078 | 1059016c | सह सर्वैः सुरगणैरिदं वचनमब्रवीत् |
3079 | 1059017a | त्रिशङ्को गच्छ भूयस्त्वं नासि स्वर्गकृतालयः |
3080 | 1059017c | गुरुशापहतो मूढ पत भूमिमवाक्शिराः |
3081 | 1059018a | एवमुक्तो महेन्द्रेण त्रिशङ्कुरपतत्पुनः |
3082 | 1059018c | विक्रोशमानस्त्राहीति विश्वामित्रं तपोधनम् |
3083 | 1059019a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य क्रोशमानस्य कौशिकः |
3084 | 1059019c | रोषमाहारयत्तीव्रं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् |
3085 | 1059020a | ऋषिमध्ये स तेजस्वी प्रजापतिरिवापरः |
3086 | 1059020c | सृजन्दक्षिणमार्गस्थान्सप्तर्षीनपरान्पुनः |
3087 | 1059021a | नक्षत्रमालामपरामसृजत्क्रोधमूर्छितः |
3088 | 1059021c | दक्षिणां दिशमास्थाय मुनिमध्ये महायशाः |
3089 | 1059022a | सृष्ट्वा नक्षत्रवंशं च क्रोधेन कलुषीकृतः |
3090 | 1059022c | अन्यमिन्द्रं करिष्यामि लोको वा स्यादनिन्द्रकः |
3091 | 1059022e | दैवतान्यपि स क्रोधात्स्रष्टुं समुपचक्रमे |
3092 | 1059023a | ततः परमसंभ्रान्ताः सर्षिसंघाः सुरर्षभाः |
3093 | 1059023c | विश्वामित्रं महात्मानमूचुः सानुनयं वचः |
3094 | 1059024a | अयं राजा महाभाग गुरुशापपरिक्षतः |
3095 | 1059024c | सशरीरो दिवं यातुं नार्हत्येव तपोधन |
3096 | 1059025a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा देवानां मुनिपुंगवः |
3097 | 1059025c | अब्रवीत्सुमहद्वाक्यं कौशिकः सर्वदेवताः |
3098 | 1059026a | सशरीरस्य भद्रं वस्त्रिशङ्कोरस्य भूपतेः |
3099 | 1059026c | आरोहणं प्रतिज्ञाय नानृतं कर्तुमुत्सहे |
3100 | 1059027a | सर्गोऽस्तु सशरीरस्य त्रिशङ्कोरस्य शाश्वतः |
3101 | 1059027c | नक्षत्राणि च सर्वाणि मामकानि ध्रुवाण्यथ |
3102 | 1059028a | यावल्लोका धरिष्यन्ति तिष्ठन्त्वेतानि सर्वशः |
3103 | 1059028c | मत्कृतानि सुराः सर्वे तदनुज्ञातुमर्हथ |
3104 | 1059029a | एवमुक्ताः सुराः सर्वे प्रत्यूचुर्मुनिपुंगवम् |
3105 | 1059030a | एवं भवतु भद्रं ते तिष्ठन्त्वेतानि सर्वशः |
3106 | 1059030c | गगने तान्यनेकानि वैश्वानरपथाद्बहिः |
3107 | 1059031a | नक्षत्राणि मुनिश्रेष्ठ तेषु ज्योतिःषु जाज्वलन् |
3108 | 1059031c | अवाक्शिरास्त्रिशङ्कुश्च तिष्ठत्वमरसंनिभः |
3109 | 1059032a | विश्वामित्रस्तु धर्मात्मा सर्वदेवैरभिष्टुतः |
3110 | 1059032c | ऋषिभिश्च महातेजा बाढमित्याह देवताः |
3111 | 1059033a | ततो देवा महात्मानो मुनयश्च तपोधनाः |
3112 | 1059033c | जग्मुर्यथागतं सर्वे यज्ञस्यान्ते नरोत्तम |
3113 | 1060001a | विश्वामित्रो महात्माथ प्रस्थितान्प्रेक्ष्य तानृषीन् |
3114 | 1060001c | अब्रवीन्नरशार्दूल सर्वांस्तान्वनवासिनः |
3115 | 1060002a | महाविघ्नः प्रवृत्तोऽयं दक्षिणामास्थितो दिशम् |
3116 | 1060002c | दिशमन्यां प्रपत्स्यामस्तत्र तप्स्यामहे तपः |
3117 | 1060003a | पश्चिमायां विशालायां पुष्करेषु महात्मनः |
3118 | 1060003c | सुखं तपश्चरिष्यामः परं तद्धि तपोवनम् |
3119 | 1060004a | एवमुक्त्वा महातेजाः पुष्करेषु महामुनिः |
3120 | 1060004c | तप उग्रं दुराधर्षं तेपे मूलफलाशनः |
3121 | 1060005a | एतस्मिन्नेव काले तु अयोध्याधिपतिर्नृपः |
3122 | 1060005c | अम्बरीष इति ख्यातो यष्टुं समुपचक्रमे |
3123 | 1060006a | तस्य वै यजमानस्य पशुमिन्द्रो जहार ह |
3124 | 1060006c | प्रनष्टे तु पशौ विप्रो राजानमिदमब्रवीत् |
3125 | 1060007a | पशुरद्य हृतो राजन्प्रनष्टस्तव दुर्नयात् |
3126 | 1060007c | अरक्षितारं राजानं घ्नन्ति दोषा नरेश्वर |
3127 | 1060008a | प्रायश्चित्तं महद्ध्येतन्नरं वा पुरुषर्षभ |
3128 | 1060008c | आनयस्व पशुं शीघ्रं यावत्कर्म प्रवर्तते |
3129 | 1060009a | उपाध्याय वचः श्रुत्वा स राजा पुरुषर्षभ |
3130 | 1060009c | अन्वियेष महाबुद्धिः पशुं गोभिः सहस्रशः |
3131 | 1060010a | देशाञ्जनपदांस्तांस्तान्नगराणि वनानि च |
3132 | 1060010c | आश्रमाणि च पुण्यानि मार्गमाणो महीपतिः |
3133 | 1060011a | स पुत्रसहितं तात सभार्यं रघुनन्दन |
3134 | 1060011c | भृगुतुन्दे समासीनमृचीकं संददर्श ह |
3135 | 1060012a | तमुवाच महातेजाः प्रणम्याभिप्रसाद्य च |
3136 | 1060012c | ब्रह्मर्षिं तपसा दीप्तं राजर्षिरमितप्रभः |
3137 | 1060012e | पृष्ट्वा सर्वत्र कुशलमृचीकं तमिदं वचः |
3138 | 1060013a | गवां शतसहस्रेण विक्रिणीषे सुतं यदि |
3139 | 1060013c | पशोरर्थे महाभाग कृतकृत्योऽस्मि भार्गव |
3140 | 1060014a | सर्वे परिसृता देशा यज्ञियं न लभे पशुम् |
3141 | 1060014c | दातुमर्हसि मूल्येन सुतमेकमितो मम |
3142 | 1060015a | एवमुक्तो महातेजा ऋचीकस्त्वब्रवीद्वचः |
3143 | 1060015c | नाहं ज्येष्ठं नरश्रेष्ठं विक्रीणीयां कथंचन |
3144 | 1060016a | ऋचीकस्य वचः श्रुत्वा तेषां माता महात्मनाम् |
3145 | 1060016c | उवाच नरशार्दूलमम्बरीषं तपस्विनी |
3146 | 1060017a | ममापि दयितं विद्धि कनिष्ठं शुनकं नृप |
3147 | 1060018a | प्रायेण हि नरश्रेष्ठ ज्येष्ठाः पितृषु वल्लभाः |
3148 | 1060018c | मातॄणां च कनीयांसस्तस्माद्रक्षे कनीयसं |
3149 | 1060019a | उक्तवाक्ये मुनौ तस्मिन्मुनिपत्न्यां तथैव च |
3150 | 1060019c | शुनःशेपः स्वयं राम मध्यमो वाक्यमब्रवीत् |
3151 | 1060020a | पिता ज्येष्ठमविक्रेयं माता चाह कनीयसं |
3152 | 1060020c | विक्रीतं मध्यमं मन्ये राजन्पुत्रं नयस्व माम् |
3153 | 1060021a | गवां शतसहस्रेण शुनःशेपं नरेश्वरः |
3154 | 1060021c | गृहीत्वा परमप्रीतो जगाम रघुनन्दन |
3155 | 1060022a | अम्बरीषस्तु राजर्षी रथमारोप्य सत्वरः |
3156 | 1060022c | शुनःशेपं महातेजा जगामाशु महायशाः |
3157 | 1061001a | शुनःशेपं नरश्रेष्ठ गृहीत्वा तु महायशाः |
3158 | 1061001c | व्यश्राम्यत्पुष्करे राजा मध्याह्ने रघुनन्दन |
3159 | 1061002a | तस्य विश्रममाणस्य शुनःशेपो महायशाः |
3160 | 1061002c | पुष्करं श्रेष्ठमागम्य विश्वामित्रं ददर्श ह |
3161 | 1061003a | विषण्णवदनो दीनस्तृष्णया च श्रमेण च |
3162 | 1061003c | पपाताङ्के मुने राम वाक्यं चेदमुवाच ह |
3163 | 1061004a | न मेऽस्ति माता न पिता ज्ञातयो बान्धवाः कुतः |
3164 | 1061004c | त्रातुमर्हसि मां सौम्य धर्मेण मुनिपुंगव |
3165 | 1061005a | त्राता त्वं हि मुनिश्रेष्ठ सर्वेषां त्वं हि भावनः |
3166 | 1061005c | राजा च कृतकार्यः स्यादहं दीर्घायुरव्ययः |
3167 | 1061006a | स्वर्गलोकमुपाश्नीयां तपस्तप्त्वा ह्यनुत्तमम् |
3168 | 1061006c | स मे नाथो ह्यनाथस्य भव भव्येन चेतसा |
3169 | 1061006e | पितेव पुत्रं धर्मात्मंस्त्रातुमर्हसि किल्बिषात् |
3170 | 1061007a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रो महातपाः |
3171 | 1061007c | सान्त्वयित्वा बहुविधं पुत्रानिदमुवाच ह |
3172 | 1061008a | यत्कृते पितरः पुत्राञ्जनयन्ति शुभार्थिनः |
3173 | 1061008c | परलोकहितार्थाय तस्य कालोऽयमागतः |
3174 | 1061009a | अयं मुनिसुतो बालो मत्तः शरणमिच्छति |
3175 | 1061009c | अस्य जीवितमात्रेण प्रियं कुरुत पुत्रकाः |
3176 | 1061010a | सर्वे सुकृतकर्माणः सर्वे धर्मपरायणाः |
3177 | 1061010c | पशुभूता नरेन्द्रस्य तृप्तिमग्नेः प्रयच्छत |
3178 | 1061011a | नाथवांश्च शुनःशेपो यज्ञश्चाविघ्नतो भवेत् |
3179 | 1061011c | देवतास्तर्पिताश्च स्युर्मम चापि कृतं वचः |
3180 | 1061012a | मुनेस्तु वचनं श्रुत्वा मधुष्यन्दादयः सुताः |
3181 | 1061012c | साभिमानं नरश्रेष्ठ सलीलमिदमब्रुवन् |
3182 | 1061013a | कथमात्मसुतान्हित्वा त्रायसेऽन्यसुतं विभो |
3183 | 1061013c | अकार्यमिव पश्यामः श्वमांसमिव भोजने |
3184 | 1061014a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा पुत्राणां मुनिपुंगवः |
3185 | 1061014c | क्रोधसंरक्तनयनो व्याहर्तुमुपचक्रमे |
3186 | 1061015a | निःसाध्वसमिदं प्रोक्तं धर्मादपि विगर्हितम् |
3187 | 1061015c | अतिक्रम्य तु मद्वाक्यं दारुणं रोमहर्षणम् |
3188 | 1061016a | श्वमांसभोजिनः सर्वे वासिष्ठा इव जातिषु |
3189 | 1061016c | पूर्णं वर्षसहस्रं तु पृथिव्यामनुवत्स्यथ |
3190 | 1061017a | कृत्वा शापसमायुक्तान्पुत्रान्मुनिवरस्तदा |
3191 | 1061017c | शुनःशेपमुवाचार्तं कृत्वा रक्षां निरामयाम् |
3192 | 1061018a | पवित्रपाशैरासक्तो रक्तमाल्यानुलेपनः |
3193 | 1061018c | वैष्णवं यूपमासाद्य वाग्भिरग्निमुदाहर |
3194 | 1061019a | इमे तु गाथे द्वे दिव्ये गायेथा मुनिपुत्रक |
3195 | 1061019c | अम्बरीषस्य यज्ञेऽस्मिंस्ततः सिद्धिमवाप्स्यसि |
3196 | 1061020a | शुनःशेपो गृहीत्वा ते द्वे गाथे सुसमाहितः |
3197 | 1061020c | त्वरया राजसिंहं तमम्बरीषमुवाच ह |
3198 | 1061021a | राजसिंह महासत्त्व शीघ्रं गच्छावहे सदः |
3199 | 1061021c | निवर्तयस्व राजेन्द्र दीक्षां च समुपाहर |
3200 | 1061022a | तद्वाक्यमृषिपुत्रस्य श्रुत्वा हर्षं समुत्सुकः |
3201 | 1061022c | जगाम नृपतिः शीघ्रं यज्ञवाटमतन्द्रितः |
3202 | 1061023a | सदस्यानुमते राजा पवित्रकृतलक्षणम् |
3203 | 1061023c | पशुं रक्ताम्बरं कृत्वा यूपे तं समबन्धयत् |
3204 | 1061024a | स बद्धो वाग्भिरग्र्याभिरभितुष्टाव वै सुरौ |
3205 | 1061024c | इन्द्रमिन्द्रानुजं चैव यथावन्मुनिपुत्रकः |
3206 | 1061025a | ततः प्रीतः सहस्राक्षो रहस्यस्तुतितर्पितः |
3207 | 1061025c | दीर्घमायुस्तदा प्रादाच्छुनःशेपाय राघव |
3208 | 1061026a | स च राजा नरश्रेष्ठ यज्ञस्य च समाप्तवान् |
3209 | 1061026c | फलं बहुगुणं राम सहस्राक्षप्रसादजम् |
3210 | 1061027a | विश्वामित्रोऽपि धर्मात्मा भूयस्तेपे महातपाः |
3211 | 1061027c | पुष्करेषु नरश्रेष्ठ दशवर्षशतानि च |
3212 | 1062001a | पूर्णे वर्षसहस्रे तु व्रतस्नातं महामुनिम् |
3213 | 1062001c | अभ्यागच्छन्सुराः सर्वे तपःफलचिकीर्षवः |
3214 | 1062002a | अब्रवीत्सुमहातेजा ब्रह्मा सुरुचिरं वचः |
3215 | 1062002c | ऋषिस्त्वमसि भद्रं ते स्वार्जितैः कर्मभिः शुभैः |
3216 | 1062003a | तमेवमुक्त्वा देवेशस्त्रिदिवं पुनरभ्यगात् |
3217 | 1062003c | विश्वामित्रो महातेजा भूयस्तेपे महत्तपः |
3218 | 1062004a | ततः कालेन महता मेनका परमाप्सराः |
3219 | 1062004c | पुष्करेषु नरश्रेष्ठ स्नातुं समुपचक्रमे |
3220 | 1062005a | तां ददर्श महातेजा मेनकां कुशिकात्मजः |
3221 | 1062005c | रूपेणाप्रतिमां तत्र विद्युतं जलदे यथा |
3222 | 1062006a | दृष्ट्वा कन्दर्पवशगो मुनिस्तामिदमब्रवीत् |
3223 | 1062006c | अप्सरः स्वागतं तेऽस्तु वस चेह ममाश्रमे |
3224 | 1062006e | अनुगृह्णीष्व भद्रं ते मदनेन सुमोहितम् |
3225 | 1062007a | इत्युक्ता सा वरारोहा तत्रावासमथाकरोत् |
3226 | 1062007c | तपसो हि महाविघ्नो विश्वामित्रमुपागतः |
3227 | 1062008a | तस्यां वसन्त्यां वर्षाणि पञ्च पञ्च च राघव |
3228 | 1062008c | विश्वामित्राश्रमे सौम्य सुखेन व्यतिचक्रमुः |
3229 | 1062009a | अथ काले गते तस्मिन्विश्वामित्रो महामुनिः |
3230 | 1062009c | सव्रीड इव संवृत्तश्चिन्ताशोकपरायणः |
3231 | 1062010a | बुद्धिर्मुनेः समुत्पन्ना सामर्षा रघुनन्दन |
3232 | 1062010c | सर्वं सुराणां कर्मैतत्तपोऽपहरणं महत् |
3233 | 1062011a | अहोरात्रापदेशेन गताः संवत्सरा दश |
3234 | 1062011c | काममोहाभिभूतस्य विघ्नोऽयं प्रत्युपस्थितः |
3235 | 1062012a | विनिःश्वसन्मुनिवरः पश्चात्तापेन दुःखितः |
3236 | 1062013a | भीतामप्सरसं दृष्ट्वा वेपन्तीं प्राञ्जलिं स्थिताम् |
3237 | 1062013c | मेनकां मधुरैर्वाक्यैर्विसृज्य कुशिकात्मजः |
3238 | 1062013e | उत्तरं पर्वतं राम विश्वामित्रो जगाम ह |
3239 | 1062014a | स कृत्वा नैष्ठिकीं बुद्धिं जेतुकामो महायशाः |
3240 | 1062014c | कौशिकीतीरमासाद्य तपस्तेपे सुदारुणम् |
3241 | 1062015a | तस्य वर्षसहस्रं तु घोरं तप उपासतः |
3242 | 1062015c | उत्तरे पर्वते राम देवतानामभूद्भयम् |
3243 | 1062016a | अमन्त्रयन्समागम्य सर्वे सर्षिगणाः सुराः |
3244 | 1062016c | महर्षिशब्दं लभतां साध्वयं कुशिकात्मजः |
3245 | 1062017a | देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकपितामहः |
3246 | 1062017c | अब्रवीन्मधुरं वाक्यं विश्वामित्रं तपोधनम् |
3247 | 1062018a | महर्षे स्वागतं वत्स तपसोग्रेण तोषितः |
3248 | 1062018c | महत्त्वमृषिमुख्यत्वं ददामि तव कौशिक |
3249 | 1062019a | ब्रह्मणः स वचः श्रुत्वा विश्वामित्रस्तपोधनः |
3250 | 1062019c | प्राञ्जलिः प्रणतो भूत्वा प्रत्युवाच पितामहम् |
3251 | 1062020a | ब्रह्मर्षि शब्दमतुलं स्वार्जितैः कर्मभिः शुभैः |
3252 | 1062020c | यदि मे भगवानाह ततोऽहं विजितेन्द्रियः |
3253 | 1062021a | तमुवाच ततो ब्रह्मा न तावत्त्वं जितेन्द्रियः |
3254 | 1062021c | यतस्व मुनिशार्दूल इत्युक्त्वा त्रिदिवं गतः |
3255 | 1062022a | विप्रस्थितेषु देवेषु विश्वामित्रो महामुनिः |
3256 | 1062022c | ऊर्ध्वबाहुर्निरालम्बो वायुभक्षस्तपश्चरन् |
3257 | 1062023a | धर्मे पञ्चतपा भूत्वा वर्षास्वाकाशसंश्रयः |
3258 | 1062023c | शिशिरे सलिलस्थायी रात्र्यहानि तपोधनः |
3259 | 1062024a | एवं वर्षसहस्रं हि तपो घोरमुपागमत् |
3260 | 1062024c | तस्मिन्संतप्यमाने तु विश्वामित्रे महामुनौ |
3261 | 1062025a | संभ्रमः सुमहानासीत्सुराणां वासवस्य च |
3262 | 1062025c | रम्भामप्सरसं शक्रः सह सर्वैर्मरुद्गणैः |
3263 | 1062026a | उवाचात्महितं वाक्यमहितं कौशिकस्य च |
3264 | 1063001a | सुरकार्यमिदं रम्भे कर्तव्यं सुमहत्त्वया |
3265 | 1063001c | लोभनं कौशिकस्येह काममोहसमन्वितम् |
3266 | 1063002a | तथोक्ता साप्सरा राम सहस्राक्षेण धीमता |
3267 | 1063002c | व्रीडिता प्राञ्जलिर्भूत्वा प्रत्युवाच सुरेश्वरम् |
3268 | 1063003a | अयं सुरपते घोरो विश्वामित्रो महामुनिः |
3269 | 1063003c | क्रोधमुत्स्रक्ष्यते घोरं मयि देव न संशयः |
3270 | 1063003e | ततो हि मे भयं देव प्रसादं कर्तुमर्हसि |
3271 | 1063004a | तामुवाच सहस्राक्षो वेपमानां कृताञ्जलिम् |
3272 | 1063004c | मा भैषि रम्भे भद्रं ते कुरुष्व मम शासनम् |
3273 | 1063005a | कोकिलो हृदयग्राही माधवे रुचिरद्रुमे |
3274 | 1063005c | अहं कन्दर्पसहितः स्थास्यामि तव पार्श्वतः |
3275 | 1063006a | त्वं हि रूपं बहुगुणं कृत्वा परमभास्वरम् |
3276 | 1063006c | तमृषिं कौशिकं रम्भे भेदयस्व तपस्विनम् |
3277 | 1063007a | सा श्रुत्वा वचनं तस्य कृत्वा रूपमनुत्तमम् |
3278 | 1063007c | लोभयामास ललिता विश्वामित्रं शुचिस्मिता |
3279 | 1063008a | कोकिलस्य तु शुश्राव वल्गु व्याहरतः स्वनम् |
3280 | 1063008c | संप्रहृष्टेन मनसा तत एनामुदैक्षत |
3281 | 1063009a | अथ तस्य च शब्देन गीतेनाप्रतिमेन च |
3282 | 1063009c | दर्शनेन च रम्भाया मुनिः संदेहमागतः |
3283 | 1063010a | सहस्राक्षस्य तत्कर्म विज्ञाय मुनिपुंगवः |
3284 | 1063010c | रम्भां क्रोधसमाविष्टः शशाप कुशिकात्मजः |
3285 | 1063011a | यन्मां लोभयसे रम्भे कामक्रोधजयैषिणम् |
3286 | 1063011c | दशवर्षसहस्राणि शैली स्थास्यसि दुर्भगे |
3287 | 1063012a | ब्राह्मणः सुमहातेजास्तपोबलसमन्वितः |
3288 | 1063012c | उद्धरिष्यति रम्भे त्वां मत्क्रोधकलुषीकृताम् |
3289 | 1063013a | एवमुक्त्वा महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः |
3290 | 1063013c | अशक्नुवन्धारयितुं कोपं संतापमागतः |
3291 | 1063014a | तस्य शापेन महता रम्भा शैली तदाभवत् |
3292 | 1063014c | वचः श्रुत्वा च कन्दर्पो महर्षेः स च निर्गतः |
3293 | 1063015a | कोपेन स महातेजास्तपोऽपहरणे कृते |
3294 | 1063015c | इन्द्रियैरजितै राम न लेभे शान्तिमात्मनः |
3295 | 1064001a | अथ हैमवतीं राम दिशं त्यक्त्वा महामुनिः |
3296 | 1064001c | पूर्वां दिशमनुप्राप्य तपस्तेपे सुदारुणम् |
3297 | 1064002a | मौनं वर्षसहस्रस्य कृत्वा व्रतमनुत्तमम् |
3298 | 1064002c | चकाराप्रतिमं राम तपः परमदुष्करम् |
3299 | 1064003a | पूर्णे वर्षसहस्रे तु काष्ठभूतं महामुनिम् |
3300 | 1064003c | विघ्नैर्बहुभिराधूतं क्रोधो नान्तरमाविशत् |
3301 | 1064004a | ततो देवाः सगन्धर्वाः पन्नगासुरराक्षसाः |
3302 | 1064004c | मोहितास्तेजसा तस्य तपसा मन्दरश्मयः |
3303 | 1064004e | कश्मलोपहताः सर्वे पितामहमथाब्रुवन् |
3304 | 1064005a | बहुभिः कारणैर्देव विश्वामित्रो महामुनिः |
3305 | 1064005c | लोभितः क्रोधितश्चैव तपसा चाभिवर्धते |
3306 | 1064006a | न ह्यस्य वृजिनं किंचिद्दृश्यते सूक्ष्ममप्यथ |
3307 | 1064006c | न दीयते यदि त्वस्य मनसा यदभीप्सितम् |
3308 | 1064006e | विनाशयति त्रैलोक्यं तपसा सचराचरम् |
3309 | 1064006g | व्याकुलाश्च दिशः सर्वा न च किंचित्प्रकाशते |
3310 | 1064007a | सागराः क्षुभिताः सर्वे विशीर्यन्ते च पर्वताः |
3311 | 1064007c | प्रकम्पते च पृथिवी वायुर्वाति भृशाकुलः |
3312 | 1064008a | बुद्धिं न कुरुते यावन्नाशे देव महामुनिः |
3313 | 1064008c | तावत्प्रसाद्यो भगवानग्निरूपो महाद्युतिः |
3314 | 1064009a | कालाग्निना यथा पूर्वं त्रैलोक्यं दह्यतेऽखिलम् |
3315 | 1064009c | देवराज्ये चिकीर्षेत दीयतामस्य यन्मतम् |
3316 | 1064010a | ततः सुरगणाः सर्वे पितामहपुरोगमाः |
3317 | 1064010c | विश्वामित्रं महात्मानं वाक्यं मधुरमब्रुवन् |
3318 | 1064011a | ब्रह्मर्षे स्वागतं तेऽस्तु तपसा स्म सुतोषिताः |
3319 | 1064011c | ब्राह्मण्यं तपसोग्रेण प्राप्तवानसि कौशिक |
3320 | 1064012a | दीर्घमायुश्च ते ब्रह्मन्ददामि समरुद्गणः |
3321 | 1064012c | स्वस्ति प्राप्नुहि भद्रं ते गच्छ सौम्य यथासुखम् |
3322 | 1064013a | पितामहवचः श्रुत्वा सर्वेषां च दिवौकसाम् |
3323 | 1064013c | कृत्वा प्रणामं मुदितो व्याजहार महामुनिः |
3324 | 1064014a | ब्राह्मण्यं यदि मे प्राप्तं दीर्घमायुस्तथैव च |
3325 | 1064014c | ओंकारोऽथ वषट्कारो वेदाश्च वरयन्तु माम् |
3326 | 1064015a | क्षत्रवेदविदां श्रेष्ठो ब्रह्मवेदविदामपि |
3327 | 1064015c | ब्रह्मपुत्रो वसिष्ठो मामेवं वदतु देवताः |
3328 | 1064015e | यद्ययं परमः कामः कृतो यान्तु सुरर्षभाः |
3329 | 1064016a | ततः प्रसादितो देवैर्वसिष्ठो जपतां वरः |
3330 | 1064016c | सख्यं चकार ब्रह्मर्षिरेवमस्त्विति चाब्रवीत् |
3331 | 1064017a | ब्रह्मर्षित्वं न संदेहः सर्वं संपत्स्यते तव |
3332 | 1064017c | इत्युक्त्वा देवताश्चापि सर्वा जग्मुर्यथागतम् |
3333 | 1064018a | विश्वामित्रोऽपि धर्मात्मा लब्ध्वा ब्राह्मण्यमुत्तमम् |
3334 | 1064018c | पूजयामास ब्रह्मर्षिं वसिष्ठं जपतां वरम् |
3335 | 1064019a | कृतकामो महीं सर्वां चचार तपसि स्थितः |
3336 | 1064019c | एवं त्वनेन ब्राह्मण्यं प्राप्तं राम महात्मना |
3337 | 1064020a | एष राम मुनिश्रेष्ठ एष विग्रहवांस्तपः |
3338 | 1064020c | एष धर्मः परो नित्यं वीर्यस्यैष परायणम् |
3339 | 1064021a | शतानन्दवचः श्रुत्वा रामलक्ष्मणसंनिधौ |
3340 | 1064021c | जनकः प्राञ्जलिर्वाक्यमुवाच कुशिकात्मजम् |
3341 | 1064022a | धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे मुनिपुंगव |
3342 | 1064022c | यज्ञं काकुत्स्थ सहितः प्राप्तवानसि धार्मिक |
3343 | 1064023a | पावितोऽहं त्वया ब्रह्मन्दर्शनेन महामुने |
3344 | 1064023c | गुणा बहुविधाः प्राप्तास्तव संदर्शनान्मया |
3345 | 1064024a | विस्तरेण च ते ब्रह्मन्कीर्त्यमानं महत्तपः |
3346 | 1064024c | श्रुतं मया महातेजो रामेण च महात्मना |
3347 | 1064025a | सदस्यैः प्राप्य च सदः श्रुतास्ते बहवो गुणाः |
3348 | 1064026a | अप्रमेयं तपस्तुभ्यमप्रमेयं च ते बलम् |
3349 | 1064026c | अप्रमेया गुणाश्चैव नित्यं ते कुशिकात्मज |
3350 | 1064027a | तृप्तिराश्चर्यभूतानां कथानां नास्ति मे विभो |
3351 | 1064027c | कर्मकालो मुनिश्रेष्ठ लम्बते रविमण्डलम् |
3352 | 1064028a | श्वः प्रभाते महातेजो द्रष्टुमर्हसि मां पुनः |
3353 | 1064028c | स्वागतं तपसां श्रेष्ठ मामनुज्ञातुमर्हसि |
3354 | 1064029a | एवमुक्त्वा मुनिश्रेष्ठं वैदेहो मिथिलाधिपः |
3355 | 1064029c | प्रदक्षिणं चकाराशु सोपाध्यायः सबान्धवः |
3356 | 1064030a | विश्वामित्रोऽपि धर्मात्मा सहरामः सलक्ष्मणः |
3357 | 1064030c | स्वं वाटमभिचक्राम पूज्यमानो महर्षिभिः |
3358 | 1065001a | ततः प्रभाते विमले कृतकर्मा नराधिपः |
3359 | 1065001c | विश्वामित्रं महात्मानमाजुहाव सराघवम् |
3360 | 1065002a | तमर्चयित्वा धर्मात्मा शास्त्रदृष्ट्तेन कर्मणा |
3361 | 1065002c | राघवौ च महात्मानौ तदा वाक्यमुवाच ह |
3362 | 1065003a | भगवन्स्वागतं तेऽस्तु किं करोमि तवानघ |
3363 | 1065003c | भवानाज्ञापयतु मामाज्ञाप्यो भवता ह्यहम् |
3364 | 1065004a | एवमुक्तः स धर्मात्मा जनकेन महात्मना |
3365 | 1065004c | प्रत्युवाच मुनिर्वीरं वाक्यं वाक्यविशारदः |
3366 | 1065005a | पुत्रौ दशरथस्येमौ क्षत्रियौ लोकविश्रुतौ |
3367 | 1065005c | द्रष्टुकामौ धनुः श्रेष्ठं यदेतत्त्वयि तिष्ठति |
3368 | 1065006a | एतद्दर्शय भद्रं ते कृतकामौ नृपात्मजौ |
3369 | 1065006c | दर्शनादस्य धनुषो यथेष्टं प्रतियास्यतः |
3370 | 1065007a | एवमुक्तस्तु जनकः प्रत्युवाच महामुनिम् |
3371 | 1065007c | श्रूयतामस्य धनुषो यदर्थमिह तिष्ठति |
3372 | 1065008a | देवरात इति ख्यातो निमेः षष्ठो महीपतिः |
3373 | 1065008c | न्यासोऽयं तस्य भगवन्हस्ते दत्तो महात्मना |
3374 | 1065009a | दक्षयज्ञवधे पूर्वं धनुरायम्य वीर्यवान् |
3375 | 1065009c | रुद्रस्तु त्रिदशान्रोषात्सलीलमिदमब्रवीत् |
3376 | 1065010a | यस्माद्भागार्थिनो भागान्नाकल्पयत मे सुराः |
3377 | 1065010c | वराङ्गानि महार्हाणि धनुषा शातयामि वः |
3378 | 1065011a | ततो विमनसः सर्वे देवा वै मुनिपुंगव |
3379 | 1065011c | प्रसादयन्ति देवेशं तेषां प्रीतोऽभवद्भवः |
3380 | 1065012a | प्रीतियुक्तः स सर्वेषां ददौ तेषां महात्मनाम् |
3381 | 1065013a | तदेतद्देवदेवस्य धनूरत्नं महात्मनः |
3382 | 1065013c | न्यासभूतं तदा न्यस्तमस्माकं पूर्वके विभो |
3383 | 1065014a | अथ मे कृषतः क्षेत्रं लाङ्गलादुत्थिता मम |
3384 | 1065014c | क्षेत्रं शोधयता लब्ध्वा नाम्ना सीतेति विश्रुता |
3385 | 1065015a | भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्धत ममात्मजा |
3386 | 1065015c | वीर्यशुल्केति मे कन्या स्थापितेयमयोनिजा |
3387 | 1065016a | भूतलादुत्थितां तां तु वर्धमानां ममात्मजाम् |
3388 | 1065016c | वरयामासुरागम्य राजानो मुनिपुंगव |
3389 | 1065017a | तेषां वरयतां कन्यां सर्वेषां पृथिवीक्षिताम् |
3390 | 1065017c | वीर्यशुल्केति भगवन्न ददामि सुतामहम् |
3391 | 1065018a | ततः सर्वे नृपतयः समेत्य मुनिपुंगव |
3392 | 1065018c | मिथिलामभ्युपागम्य वीर्यं जिज्ञासवस्तदा |
3393 | 1065019a | तेषां जिज्ञासमानानां वीर्यं धनुरुपाहृतम् |
3394 | 1065019c | न शेकुर्ग्रहणे तस्य धनुषस्तोलनेऽपि वा |
3395 | 1065020a | तेषां वीर्यवतां वीर्यमल्पं ज्ञात्वा महामुने |
3396 | 1065020c | प्रत्याख्याता नृपतयस्तन्निबोध तपोधन |
3397 | 1065021a | ततः परमकोपेन राजानो मुनिपुंगव |
3398 | 1065021c | अरुन्धन्मिथिलां सर्वे वीर्यसंदेहमागताः |
3399 | 1065022a | आत्मानमवधूतं ते विज्ञाय मुनिपुंगव |
3400 | 1065022c | रोषेण महताविष्टाः पीडयन्मिथिलां पुरीम् |
3401 | 1065023a | ततः संवत्सरे पूर्णे क्षयं यातानि सर्वशः |
3402 | 1065023c | साधनानि मुनिरेष्ठ ततोऽहं भृशदुःखितः |
3403 | 1065024a | ततो देवगणान्सर्वांस्तपसाहं प्रसादयम् |
3404 | 1065024c | ददुश्च परमप्रीताश्चतुरङ्गबलं सुराः |
3405 | 1065025a | ततो भग्ना नृपतयो हन्यमाना दिशो ययुः |
3406 | 1065025c | अवीर्या वीर्यसंदिग्धा सामात्याः पापकारिणः |
3407 | 1065026a | तदेतन्मुनिशार्दूल धनुः परमभास्वरम् |
3408 | 1065026c | रामलक्ष्मणयोश्चापि दर्शयिष्यामि सुव्रत |
3409 | 1065027a | यद्यस्य धनुषो रामः कुर्यादारोपणं मुने |
3410 | 1065027c | सुतामयोनिजां सीतां दद्यां दाशरथेरहम् |
3411 | 1066001a | जनकस्य वचः श्रुत्वा विश्वामित्रो महामुनिः |
3412 | 1066001c | धनुर्दर्शय रामाय इति होवाच पार्थिवम् |
3413 | 1066002a | ततः स राजा जनकः सचिवान्व्यादिदेश ह |
3414 | 1066002c | धनुरानीयतां दिव्यं गन्धमाल्यविभूषितम् |
3415 | 1066003a | जनकेन समादिष्ठाः सचिवाः प्राविशन्पुरीम् |
3416 | 1066003c | तद्धनुः पुरतः कृत्वा निर्जग्मुः पार्थिवाज्ञया |
3417 | 1066004a | नृपां शतानि पञ्चाशद्व्यायतानां महात्मनाम् |
3418 | 1066004c | मञ्जूषामष्टचक्रां तां समूहुस्ते कथंचन |
3419 | 1066005a | तामादाय तु मञ्जूषामायतीं यत्र तद्धनुः |
3420 | 1066005c | सुरोपमं ते जनकमूचुर्नृपतिमन्त्रिणः |
3421 | 1066006a | इदं धनुर्वरं राजन्पूजितं सर्वराजभिः |
3422 | 1066006c | मिथिलाधिप राजेन्द्र दर्शनीयं यदीच्छसि |
3423 | 1066007a | तेषां नृपो वचः श्रुत्वा कृताञ्जलिरभाषत |
3424 | 1066007c | विश्वामित्रं महात्मानं तौ चोभौ रामलक्ष्मणौ |
3425 | 1066008a | इदं धनुर्वरं ब्रह्मञ्जनकैरभिपूजितम् |
3426 | 1066008c | राजभिश्च महावीर्यैरशक्यं पूरितुं तदा |
3427 | 1066009a | नैतत्सुरगणाः सर्वे नासुरा न च राक्षसाः |
3428 | 1066009c | गन्धर्वयक्षप्रवराः सकिंनरमहोरगाः |
3429 | 1066010a | क्व गतिर्मानुषाणां च धनुषोऽस्य प्रपूरणे |
3430 | 1066010c | आरोपणे समायोगे वेपने तोलनेऽपि वा |
3431 | 1066011a | तदेतद्धनुषां श्रेष्ठमानीतं मुनिपुंगव |
3432 | 1066011c | दर्शयैतन्महाभाग अनयो राजपुत्रयोः |
3433 | 1066012a | विश्वामित्रस्तु धर्मात्मा श्रुत्वा जनकभाषितम् |
3434 | 1066012c | वत्स राम धनुः पश्य इति राघवमब्रवीत् |
3435 | 1066013a | महर्षेर्वचनाद्रामो यत्र तिष्ठति तद्धनुः |
3436 | 1066013c | मञ्जूषां तामपावृत्य दृष्ट्वा धनुरथाब्रवीत् |
3437 | 1066014a | इदं धनुर्वरं ब्रह्मन्संस्पृशामीह पाणिना |
3438 | 1066014c | यत्नवांश्च भविष्यामि तोलने पूरणेऽपि वा |
3439 | 1066015a | बाढमित्येव तं राजा मुनिश्च समभाषत |
3440 | 1066015c | लीलया स धनुर्मध्ये जग्राह वचनान्मुनेः |
3441 | 1066016a | पश्यतां नृषहस्राणां बहूनां रघुनन्दनः |
3442 | 1066016c | आरोपयत्स धर्मात्मा सलीलमिव तद्धनुः |
3443 | 1066017a | आरोपयित्वा मौर्वीं च पूरयामास वीर्यवान् |
3444 | 1066017c | तद्बभञ्ज धनुर्मध्ये नरश्रेष्ठो महायशाः |
3445 | 1066018a | तस्य शब्दो महानासीन्निर्घातसमनिःस्वनः |
3446 | 1066018c | भूमिकम्पश्च सुमहान्पर्वतस्येव दीर्यतः |
3447 | 1066019a | निपेतुश्च नराः सर्वे तेन शब्देन मोहिताः |
3448 | 1066019c | वर्जयित्वा मुनिवरं राजानं तौ च राघवौ |
3449 | 1066020a | प्रत्याश्वस्ते जने तस्मिन्राजा विगतसाध्वसः |
3450 | 1066020c | उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यं वाक्यज्ञो मुनिपुंगवम् |
3451 | 1066021a | भगवन्दृष्टवीर्यो मे रामो दशरथात्मजः |
3452 | 1066021c | अत्यद्भुतमचिन्त्यं च अतर्कितमिदं मया |
3453 | 1066022a | जनकानां कुले कीर्तिमाहरिष्यति मे सुता |
3454 | 1066022c | सीता भर्तारमासाद्य रामं दशरथात्मजम् |
3455 | 1066023a | मम सत्या प्रतिज्ञा च वीर्यशुल्केति कौशिक |
3456 | 1066023c | सीता प्राणैर्बहुमता देया रामाय मे सुता |
3457 | 1066024a | भवतोऽनुमते ब्रह्मञ्शीघ्रं गच्छन्तु मन्त्रिणः |
3458 | 1066024c | मम कौशिक भद्रं ते अयोध्यां त्वरिता रथैः |
3459 | 1066025a | राजानं प्रश्रितैर्वाक्यैरानयन्तु पुरं मम |
3460 | 1066025c | प्रदानं वीर्यशुल्कायाः कथयन्तु च सर्वशः |
3461 | 1066026a | मुनिगुप्तौ च काकुत्स्थौ कथयन्तु नृपाय वै |
3462 | 1066026c | प्रीयमाणं तु राजानमानयन्तु सुशीघ्रगाः |
3463 | 1066027a | कौशिकश्च तथेत्याह राजा चाभाष्य मन्त्रिणः |
3464 | 1066027c | अयोध्यां प्रेषयामास धर्मात्मा कृतशासनात् |
3465 | 1067001a | जनकेन समादिष्टा दूतास्ते क्लान्तवाहनाः |
3466 | 1067001c | त्रिरात्रमुषित्वा मार्गे तेऽयोध्यां प्राविशन्पुरीम् |
3467 | 1067002a | ते राजवचनाद्दूता राजवेश्मप्रवेशिताः |
3468 | 1067002c | ददृशुर्देवसंकाशं वृद्धं दशरथं नृपम् |
3469 | 1067003a | बद्धाञ्जलिपुटाः सर्वे दूता विगतसाध्वसाः |
3470 | 1067003c | राजानं प्रयता वाक्यमब्रुवन्मधुराक्षरम् |
3471 | 1067004a | मैथिलो जनको राजा साग्निहोत्रपुरस्कृतः |
3472 | 1067004c | कुशलं चाव्ययं चैव सोपाध्यायपुरोहितम् |
3473 | 1067005a | मुहुर्मुहुर्मधुरया स्नेहसंयुक्तया गिरा |
3474 | 1067005c | जनकस्त्वां महाराज पृच्छते सपुरःसरम् |
3475 | 1067006a | पृष्ट्वा कुशलमव्यग्रं वैदेहो मिथिलाधिपः |
3476 | 1067006c | कौशिकानुमते वाक्यं भवन्तमिदमब्रवीत् |
3477 | 1067007a | पूर्वं प्रतिज्ञा विदिता वीर्यशुल्का ममात्मजा |
3478 | 1067007c | राजानश्च कृतामर्षा निर्वीर्या विमुखीकृताः |
3479 | 1067008a | सेयं मम सुता राजन्विश्वामित्र पुरःसरैः |
3480 | 1067008c | यदृच्छयागतैर्वीरैर्निर्जिता तव पुत्रकैः |
3481 | 1067009a | तच्च राजन्धनुर्दिव्यं मध्ये भग्नं महात्मना |
3482 | 1067009c | रामेण हि महाराज महत्यां जनसंसदि |
3483 | 1067010a | अस्मै देया मया सीता वीर्यशुल्का महात्मने |
3484 | 1067010c | प्रतिज्ञां तर्तुमिच्छामि तदनुज्ञातुमर्हसि |
3485 | 1067011a | सोपाध्यायो महाराज पुरोहितपुरस्कृतः |
3486 | 1067011c | शीघ्रमागच्छ भद्रं ते द्रष्टुमर्हसि राघवौ |
3487 | 1067012a | प्रीतिं च मम राजेन्द्र निर्वर्तयितुमर्हसि |
3488 | 1067012c | पुत्रयोरुभयोरेव प्रीतिं त्वमपि लप्स्यसे |
3489 | 1067013a | एवं विदेहाधिपतिर्मधुरं वाक्यमब्रवीत् |
3490 | 1067013c | विश्वामित्राभ्यनुज्ञातः शतानन्दमते स्थितः |
3491 | 1067014a | दूतवाक्यं तु तच्छ्रुत्वा राजा परमहर्षितः |
3492 | 1067014c | वसिष्ठं वामदेवं च मन्त्रिणोऽन्यांश्च सोऽब्रवीत् |
3493 | 1067015a | गुप्तः कुशिकपुत्रेण कौसल्यानन्दवर्धनः |
3494 | 1067015c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा विदेहेषु वसत्यसौ |
3495 | 1067016a | दृष्टवीर्यस्तु काकुत्स्थो जनकेन महात्मना |
3496 | 1067016c | संप्रदानं सुतायास्तु राघवे कर्तुमिच्छति |
3497 | 1067017a | यदि वो रोचते वृत्तं जनकस्य महात्मनः |
3498 | 1067017c | पुरीं गच्छामहे शीघ्रं मा भूत्कालस्य पर्ययः |
3499 | 1067018a | मन्त्रिणो बाढमित्याहुः सह सर्वैर्महर्षिभिः |
3500 | 1067018c | सुप्रीतश्चाब्रवीद्राजा श्वो यात्रेति स मन्त्रिणः |
3501 | 1067019a | मन्त्रिणस्तु नरेन्द्रस्य रात्रिं परमसत्कृताः |
3502 | 1067019c | ऊषुः प्रमुदिताः सर्वे गुणैः सर्वैः समन्विताः |
3503 | 1068001a | ततो रात्र्यां व्यतीतायां सोपाध्यायः सबान्धवः |
3504 | 1068001c | राजा दशरथो हृष्टः सुमन्त्रमिदमब्रवीत् |
3505 | 1068002a | अद्य सर्वे धनाध्यक्षा धनमादाय पुष्कलम् |
3506 | 1068002c | व्रजन्त्वग्रे सुविहिता नानारत्नसमन्विताः |
3507 | 1068003a | चतुरङ्गबलं चापि शीघ्रं निर्यातु सर्वशः |
3508 | 1068003c | ममाज्ञासमकालं च यानयुग्यमनुत्तमम् |
3509 | 1068004a | वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिरथ काश्यपः |
3510 | 1068004c | मार्कण्डेयश्च दीर्घायुरृषिः कात्यायनस्तथा |
3511 | 1068005a | एते द्विजाः प्रयान्त्वग्रे स्यन्दनं योजयस्व मे |
3512 | 1068005c | यथा कालात्ययो न स्याद्दूता हि त्वरयन्ति माम् |
3513 | 1068006a | वचनाच्च नरेन्द्रस्य सा सेना चतुरङ्गिणी |
3514 | 1068006c | राजानमृषिभिः सार्धं व्रजन्तं पृष्ठतोऽन्वगात् |
3515 | 1068007a | गत्वा चतुरहं मार्गं विदेहानभ्युपेयिवान् |
3516 | 1068007c | राजा तु जनकः श्रीमाञ्श्रुत्वा पूजामकल्पयत् |
3517 | 1068008a | ततो राजानमासाद्य वृद्धं दशरथं नृपम् |
3518 | 1068008c | जनको मुदितो राजा हर्षं च परमं ययौ |
3519 | 1068008e | उवाच न नरश्रेष्ठो नरश्रेष्ठं मुदान्वितम् |
3520 | 1068009a | स्वागतं ते महाराज दिष्ट्या प्राप्तोऽसि राघव |
3521 | 1068009c | पुत्रयोरुभयोः प्रीतिं लप्स्यसे वीर्यनिर्जिताम् |
3522 | 1068010a | दिष्ट्या प्राप्तो महातेजा वसिष्ठो भगवानृषिः |
3523 | 1068010c | सह सर्वैर्द्विजश्रेष्ठैर्देवैरिव शतक्रतुः |
3524 | 1068011a | दिष्ट्या मे निर्जिता विघ्ना दिष्ट्या मे पूजितं कुलम् |
3525 | 1068011c | राघवैः सह संबन्धाद्वीर्यश्रेष्ठैर्महात्मभिः |
3526 | 1068012a | श्वः प्रभाते नरेन्द्रेन्द्र निर्वर्तयितुमर्हसि |
3527 | 1068012c | यज्ञस्यान्ते नरश्रेष्ठ विवाहमृषिसंमतम् |
3528 | 1068013a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा ऋषिमध्ये नराधिपः |
3529 | 1068013c | वाक्यं वाक्यविदां श्रेष्ठः प्रत्युवाच महीपतिम् |
3530 | 1068014a | प्रतिग्रहो दातृवशः श्रुतमेतन्मया पुरा |
3531 | 1068014c | यथा वक्ष्यसि धर्मज्ञ तत्करिष्यामहे वयम् |
3532 | 1068015a | तद्धर्मिष्ठं यशस्यं च वचनं सत्यवादिनः |
3533 | 1068015c | श्रुत्वा विदेहाधिपतिः परं विस्मयमागतः |
3534 | 1068016a | ततः सर्वे मुनिगणाः परस्परसमागमे |
3535 | 1068016c | हर्षेण महता युक्तास्तां निशामवसन्सुखम् |
3536 | 1068017a | राजा च राघवौ पुत्रौ निशाम्य परिहर्षितः |
3537 | 1068017c | उवास परमप्रीतो जनकेन सुपूजितः |
3538 | 1068018a | जनकोऽपि महातेजाः क्रिया धर्मेण तत्त्ववित् |
3539 | 1068018c | यज्ञस्य च सुताभ्यां च कृत्वा रात्रिमुवास ह |
3540 | 1069001a | ततः प्रभाते जनकः कृतकर्मा महर्षिभिः |
3541 | 1069001c | उवाच वाक्यं वाक्यज्ञः शतानन्दं पुरोहितम् |
3542 | 1069002a | भ्राता मम महातेजा यवीयानतिधार्मिकः |
3543 | 1069002c | कुशध्वज इति ख्यातः पुरीमध्यवसच्छुभाम् |
3544 | 1069003a | वार्याफलकपर्यन्तां पिबन्निक्षुमतीं नदीम् |
3545 | 1069003c | सांकाश्यां पुण्यसंकाशां विमानमिव पुष्पकम् |
3546 | 1069004a | तमहं द्रष्टुमिच्छामि यज्ञगोप्ता स मे मतः |
3547 | 1069004c | प्रीतिं सोऽपि महातेजा इंमां भोक्ता मया सह |
3548 | 1069005a | शासनात्तु नरेन्द्रस्य प्रययुः शीघ्रवाजिभिः |
3549 | 1069005c | समानेतुं नरव्याघ्रं विष्णुमिन्द्राज्ञया यथा |
3550 | 1069006a | आज्ञया तु नरेन्द्रस्य आजगाम कुशध्वजः |
3551 | 1069007a | स ददर्श महात्मानं जनकं धर्मवत्सलम् |
3552 | 1069007c | सोऽभिवाद्य शतानन्दं राजानं चापि धार्मिकम् |
3553 | 1069008a | राजार्हं परमं दिव्यमासनं चाध्यरोहत |
3554 | 1069008c | उपविष्टावुभौ तौ तु भ्रातरावमितौजसौ |
3555 | 1069009a | प्रेषयामासतुर्वीरौ मन्त्रिश्रेष्ठं सुदामनम् |
3556 | 1069009c | गच्छ मन्त्रिपते शीघ्रमैक्ष्वाकममितप्रभम् |
3557 | 1069009e | आत्मजैः सह दुर्धर्षमानयस्व समन्त्रिणम् |
3558 | 1069010a | औपकार्यां स गत्वा तु रघूणां कुलवर्धनम् |
3559 | 1069010c | ददर्श शिरसा चैनमभिवाद्येदमब्रवीत् |
3560 | 1069011a | अयोध्याधिपते वीर वैदेहो मिथिलाधिपः |
3561 | 1069011c | स त्वां द्रष्टुं व्यवसितः सोपाध्यायपुरोहितम् |
3562 | 1069012a | मन्त्रिश्रेष्ठवचः श्रुत्वा राजा सर्षिगणस्तदा |
3563 | 1069012c | सबन्धुरगमत्तत्र जनको यत्र वर्तते |
3564 | 1069013a | स राजा मन्त्रिसहितः सोपाध्यायः सबान्धवः |
3565 | 1069013c | वाक्यं वाक्यविदां श्रेष्ठो वैदेहमिदमब्रवीत् |
3566 | 1069014a | विदितं ते महाराज इक्ष्वाकुकुलदैवतम् |
3567 | 1069014c | वक्ता सर्वेषु कृत्येषु वसिष्ठो भगवानृषिः |
3568 | 1069015a | विश्वामित्राभ्यनुज्ञातः सह सर्वैर्महर्षिभिः |
3569 | 1069015c | एष वक्ष्यति धर्मात्मा वसिष्ठो मे यथाक्रमम् |
3570 | 1069016a | तूष्णींभूते दशरथे वसिष्ठो भगवानृषिः |
3571 | 1069016c | उवाच वाक्यं वाक्यज्ञो वैदेहं सपुरोहितम् |
3572 | 1069017a | अव्यक्तप्रभवो ब्रह्मा शाश्वतो नित्य अव्ययः |
3573 | 1069017c | तस्मान्मरीचिः संजज्ञे मरीचेः कश्यपः सुतः |
3574 | 1069018a | विवस्वान्कश्यपाज्जज्ञे मनुर्वैवैस्वतः स्मृतः |
3575 | 1069018c | मनुः प्रजापतिः पूर्वमिक्ष्वाकुस्तु मनोः सुतः |
3576 | 1069019a | तमिक्ष्वाकुमयोध्यायां राजानं विद्धि पूर्वकम् |
3577 | 1069019c | इक्ष्वाकोस्तु सुतः श्रीमान्विकुक्षिरुदपद्यत |
3578 | 1069020a | विकुक्षेस्तु महातेजा बाणः पुत्रः प्रतापवान् |
3579 | 1069020c | बाणस्य तु महातेजा अनरण्यः प्रतापवान् |
3580 | 1069021a | अनरण्यात्पृथुर्जज्ञे त्रिशङ्कुस्तु पृथोः सुतः |
3581 | 1069021c | त्रिशङ्कोरभवत्पुत्रो धुन्धुमारो महायशाः |
3582 | 1069022a | धुन्धुमारान्महातेजा युवनाश्वो महारथः |
3583 | 1069022c | युवनाश्वसुतः श्रीमान्मान्धाता पृथिवीपतिः |
3584 | 1069023a | मान्धातुस्तु सुतः श्रीमान्सुसंधिरुदपद्यत |
3585 | 1069023c | सुसंधेरपि पुत्रौ द्वौ ध्रुवसंधिः प्रसेनजित् |
3586 | 1069024a | यशस्वी ध्रुवसंधेस्तु भरतो नाम नामतः |
3587 | 1069024c | भरतात्तु महातेजा असितो नाम जायत |
3588 | 1069025a | सह तेन गरेणैव जातः स सगरोऽभवत् |
3589 | 1069025c | सगरस्यासमञ्जस्तु असमञ्जादथांशुमान् |
3590 | 1069026a | दिलीपोंऽशुमतः पुत्रो दिलीपस्य भगीरथः |
3591 | 1069026c | भगीरथात्ककुत्स्थश्च ककुत्स्थस्य रघुस्तथा |
3592 | 1069027a | रघोस्तु पुत्रस्तेजस्वी प्रवृद्धः पुरुषादकः |
3593 | 1069027c | कल्माषपादो ह्यभवत्तस्माज्जातस्तु शङ्खणः |
3594 | 1069028a | सुदर्शनः शङ्खणस्य अग्निवर्णः सुदर्शनात् |
3595 | 1069028c | शीघ्रगस्त्वग्निवर्णस्य शीघ्रगस्य मरुः सुतः |
3596 | 1069029a | मरोः प्रशुश्रुकस्त्वासीदम्बरीषः प्रशुश्रुकात् |
3597 | 1069029c | अम्बरीषस्य पुत्रोऽभून्नहुषः पृथिवीपतिः |
3598 | 1069030a | नहुषस्य ययातिस्तु नाभागस्तु ययातिजः |
3599 | 1069030c | नाभागस्य भभूवाज अजाद्दशरथोऽभवत् |
3600 | 1069030e | तस्माद्दशरथाज्जातौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
3601 | 1069031a | आदिवंशविशुद्धानां राज्ञां परमधर्मिणाम् |
3602 | 1069031c | इक्ष्वाकुकुलजातानां वीराणां सत्यवादिनाम् |
3603 | 1069032a | रामलक्ष्मणयोरर्थे त्वत्सुते वरये नृप |
3604 | 1069032c | सदृशाभ्यां नरश्रेष्ठ सदृशे दातुमर्हसि |
3605 | 1070001a | एवं ब्रुवाणं जनकः प्रत्युवाच कृताञ्जलिः |
3606 | 1070001c | श्रोतुमर्हसि भद्रं ते कुलं नः कीर्तितं परम् |
3607 | 1070002a | प्रदाने हि मुनिश्रेष्ठ कुलं निरवशेषतः |
3608 | 1070002c | वक्तव्यं कुलजातेन तन्निबोध महामुने |
3609 | 1070003a | राजाभूत्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः स्वेन कर्मणा |
3610 | 1070003c | निमिः परमधर्मात्मा सर्वसत्त्ववतां वरः |
3611 | 1070004a | तस्य पुत्रो मिथिर्नाम जनको मिथि पुत्रकः |
3612 | 1070004c | प्रथमो जनको नाम जनकादप्युदावसुः |
3613 | 1070005a | उदावसोस्तु धर्मात्मा जातो वै नन्दिवर्धनः |
3614 | 1070005c | नन्दिवर्धन पुत्रस्तु सुकेतुर्नाम नामतः |
3615 | 1070006a | सुकेतोरपि धर्मात्मा देवरातो महाबलः |
3616 | 1070006c | देवरातस्य राजर्षेर्बृहद्रथ इति श्रुतः |
3617 | 1070007a | बृहद्रथस्य शूरोऽभून्महावीरः प्रतापवान् |
3618 | 1070007c | महावीरस्य धृतिमान्सुधृतिः सत्यविक्रमः |
3619 | 1070008a | सुधृतेरपि धर्मात्मा धृष्टकेतुः सुधार्मिकः |
3620 | 1070008c | धृष्टकेतोस्तु राजर्षेर्हर्यश्व इति विश्रुतः |
3621 | 1070009a | हर्यश्वस्य मरुः पुत्रो मरोः पुत्रः प्रतीन्धकः |
3622 | 1070009c | प्रतीन्धकस्य धर्मात्मा राजा कीर्तिरथः सुतः |
3623 | 1070010a | पुत्रः कीर्तिरथस्यापि देवमीढ इति स्मृतः |
3624 | 1070010c | देवमीढस्य विबुधो विबुधस्य महीध्रकः |
3625 | 1070011a | महीध्रकसुतो राजा कीर्तिरातो महाबलः |
3626 | 1070011c | कीर्तिरातस्य राजर्षेर्महारोमा व्यजायत |
3627 | 1070012a | महारोंणस्तु धर्मात्मा स्वर्णरोमा व्यजायत |
3628 | 1070012c | स्वर्णरोंणस्तु राजर्षेर्ह्रस्वरोमा व्यजायत |
3629 | 1070013a | तस्य पुत्रद्वयं जज्ञे धर्मज्ञस्य महात्मनः |
3630 | 1070013c | ज्येष्ठोऽहमनुजो भ्राता मम वीरः कुशध्वजः |
3631 | 1070014a | मां तु ज्येष्ठं पिता राज्ये सोऽभिषिच्य नराधिपः |
3632 | 1070014c | कुशध्वजं समावेश्य भारं मयि वनं गतः |
3633 | 1070015a | वृद्धे पितरि स्वर्याते धर्मेण धुरमावहम् |
3634 | 1070015c | भ्रातरं देवसंकाशं स्नेहात्पश्यन्कुशध्वजम् |
3635 | 1070016a | कस्यचित्त्वथ कालस्य सांकाश्यादगमत्पुरात् |
3636 | 1070016c | सुधन्वा वीर्यवान्राजा मिथिलामवरोधकः |
3637 | 1070017a | स च मे प्रेषयामास शैवं धनुरनुत्तमम् |
3638 | 1070017c | सीता कन्या च पद्माक्षी मह्यं वै दीयतामिति |
3639 | 1070018a | तस्याप्रदानाद्ब्रह्मर्षे युद्धमासीन्मया सह |
3640 | 1070018c | स हतोऽभिमुखो राजा सुधन्वा तु मया रणे |
3641 | 1070019a | निहत्य तं मुनिश्रेष्ठ सुधन्वानं नराधिपम् |
3642 | 1070019c | सांकाश्ये भ्रातरं शूरमभ्यषिञ्चं कुशध्वजम् |
3643 | 1070020a | कनीयानेष मे भ्राता अहं ज्येष्ठो महामुने |
3644 | 1070020c | ददामि परमप्रीतो वध्वौ ते मुनिपुंगव |
3645 | 1070021a | सीतां रामाय भद्रं ते ऊर्मिलां लक्ष्मणाय च |
3646 | 1070021c | वीर्यशुल्कां मम सुतां सीतां सुरसुतोपमाम् |
3647 | 1070022a | द्वितीयामूर्मिलां चैव त्रिर्वदामि न संशयः |
3648 | 1070022c | ददामि परमप्रीतो वध्वौ ते रघुनन्दन |
3649 | 1070023a | रामलक्ष्मणयो राजन्गोदानं कारयस्व ह |
3650 | 1070023c | पितृकार्यं च भद्रं ते ततो वैवाहिकं कुरु |
3651 | 1070024a | मघा ह्यद्य महाबाहो तृतीये दिवसे प्रभो |
3652 | 1070024c | फल्गुन्यामुत्तरे राजंस्तस्मिन्वैवाहिकं कुरु |
3653 | 1070024e | रामलक्ष्मणयोरर्थे दानं कार्यं सुखोदयम् |
3654 | 1071001a | तमुक्तवन्तं वैदेहं विश्वामित्रो महामुनिः |
3655 | 1071001c | उवाच वचनं वीरं वसिष्ठसहितो नृपम् |
3656 | 1071002a | अचिन्त्यान्यप्रमेयानि कुलानि नरपुंगव |
3657 | 1071002c | इक्ष्वाकूणां विदेहानां नैषां तुल्योऽस्ति कश्चन |
3658 | 1071003a | सदृशो धर्मसंबन्धः सदृशो रूपसंपदा |
3659 | 1071003c | रामलक्ष्मणयो राजन्सीता चोर्मिलया सह |
3660 | 1071004a | वक्तव्यं न नरश्रेष्ठ श्रूयतां वचनं मम |
3661 | 1071005a | भ्राता यवीयान्धर्मज्ञ एष राजा कुशध्वजः |
3662 | 1071005c | अस्य धर्मात्मनो राजन्रूपेणाप्रतिमं भुवि |
3663 | 1071005e | सुता द्वयं नरश्रेष्ठ पत्न्यर्थं वरयामहे |
3664 | 1071006a | भरतस्य कुमारस्य शत्रुघ्नस्य च धीमतः |
3665 | 1071006c | वरयेम सुते राजंस्तयोरर्थे महात्मनोः |
3666 | 1071007a | पुत्रा दशरथस्येमे रूपयौवनशालिनः |
3667 | 1071007c | लोकपालोपमाः सर्वे देवतुल्यपराक्रमाः |
3668 | 1071008a | उभयोरपि राजेन्द्र संबन्धेनानुबध्यताम् |
3669 | 1071008c | इक्ष्वाकुकुलमव्यग्रं भवतः पुण्यकर्मणः |
3670 | 1071009a | विश्वामित्रवचः श्रुत्वा वसिष्ठस्य मते तदा |
3671 | 1071009c | जनकः प्राञ्जलिर्वाक्यमुवाच मुनिपुंगवौ |
3672 | 1071010a | सदृशं कुलसंबन्धं यदाज्ञापयथः स्वयम् |
3673 | 1071010c | एवं भवतु भद्रं वः कुशध्वजसुते इमे |
3674 | 1071010e | पत्न्यौ भजेतां सहितौ शत्रुघ्नभरतावुभौ |
3675 | 1071011a | एकाह्ना राजपुत्रीणां चतसॄणां महामुने |
3676 | 1071011c | पाणीन्गृह्णन्तु चत्वारो राजपुत्रा महाबलाः |
3677 | 1071012a | उत्तरे दिवसे ब्रह्मन्फल्गुनीभ्यां मनीषिणः |
3678 | 1071012c | वैवाहिकं प्रशंसन्ति भगो यत्र प्रजापतिः |
3679 | 1071013a | एवमुक्त्वा वचः सौम्यं प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः |
3680 | 1071013c | उभौ मुनिवरौ राजा जनको वाक्यमब्रवीत् |
3681 | 1071014a | परो धर्मः कृतो मह्यं शिष्योऽस्मि भवतोः सदा |
3682 | 1071014c | इमान्यासनमुख्यानि आसेतां मुनिपुंगवौ |
3683 | 1071015a | यथा दशरथस्येयं तथायोध्या पुरी मम |
3684 | 1071015c | प्रभुत्वे नासित्संदेहो यथार्हं कर्तुमर्हथः |
3685 | 1071016a | तथा ब्रुवति वैदेहे जनके रघुनन्दनः |
3686 | 1071016c | राजा दशरथो हृष्टः प्रत्युवाच महीपतिम् |
3687 | 1071017a | युवामसंख्येय गुणौ भ्रातरौ मिथिलेश्वरौ |
3688 | 1071017c | ऋषयो राजसंघाश्च भवद्भ्यामभिपूजिताः |
3689 | 1071018a | स्वस्ति प्राप्नुहि भद्रं ते गमिष्यामि स्वमालयम् |
3690 | 1071018c | श्राद्धकर्माणि सर्वाणि विधास्य इति चाब्रवीत् |
3691 | 1071019a | तमापृष्ट्वा नरपतिं राजा दशरथस्तदा |
3692 | 1071019c | मुनीन्द्रौ तौ पुरस्कृत्य जगामाशु महायशाः |
3693 | 1071020a | स गत्वा निलयं राजा श्राद्धं कृत्वा विधानतः |
3694 | 1071020c | प्रभाते काल्यमुत्थाय चक्रे गोदानमुत्तमम् |
3695 | 1071021a | गवां शतसहस्राणि ब्राह्मणेभ्यो नराधिपः |
3696 | 1071021c | एकैकशो ददौ राजा पुत्रानुद्धिश्य धर्मतः |
3697 | 1071022a | सुवर्णशृङ्गाः संपन्नाः सवत्साः कांस्यदोहनाः |
3698 | 1071022c | गवां शतसहस्राणि चत्वारि पुरुषर्षभः |
3699 | 1071023a | वित्तमन्यच्च सुबहु द्विजेभ्यो रघुनन्दनः |
3700 | 1071023c | ददौ गोदानमुद्दिश्य पुत्राणां पुत्रवत्सलः |
3701 | 1071024a | स सुतैः कृतगोदानैर्वृतश्च नृपतिस्तदा |
3702 | 1071024c | लोकपालैरिवाभाति वृतः सौम्यः प्रजापतिः |
3703 | 1072001a | यस्मिंस्तु दिवसे राजा चक्रे गोदानमुत्तमम् |
3704 | 1072001c | तस्मिंस्तु दिवसे शूरो युधाजित्समुपेयिवान् |
3705 | 1072002a | पुत्रः केकयराजस्य साक्षाद्भरतमातुलः |
3706 | 1072002c | दृष्ट्वा पृष्ट्वा च कुशलं राजानमिदमब्रवीत् |
3707 | 1072003a | केकयाधिपती राजा स्नेहात्कुशलमब्रवीत् |
3708 | 1072003c | येषां कुशलकामोऽसि तेषां संप्रत्यनामयम् |
3709 | 1072004a | स्वस्रीयं मम राजेन्द्र द्रष्टुकामो महीपते |
3710 | 1072004c | तदर्थमुपयातोऽहमयोध्यां रघुनन्दन |
3711 | 1072005a | श्रुत्वा त्वहमयोध्यायां विवाहार्थं तवात्मजान् |
3712 | 1072005c | मिथिलामुपयातास्तु त्वया सह महीपते |
3713 | 1072006a | त्वरयाभुपयातोऽहं द्रष्टुकामः स्वसुः सुतम् |
3714 | 1072006c | अथ राजा दशरथः प्रियातिथिमुपस्थिम |
3715 | 1072007a | दृष्ट्वा परमसत्कारैः पूजार्हं समपूजयत् |
3716 | 1072007c | ततस्तामुषितो रात्रिं सह पुत्रैर्महात्मभिः |
3717 | 1072008a | ऋषींस्तदा पुरस्कृत्य यज्ञवाटमुपागमत् |
3718 | 1072008c | युक्ते मुहूर्ते विजये सर्वाभरणभूषितैः |
3719 | 1072008e | भ्रातृभिः सहितो रामः कृतकौतुकमङ्गलः |
3720 | 1072009a | वसिष्ठं पुरतः कृत्वा महर्षीनपरानपि |
3721 | 1072010a | राजा रशरथो राजन्कृतकौतुकमङ्गलैः |
3722 | 1072010c | पुत्रैर्नरवरश्रेष्ठ दातारमभिकाङ्क्षते |
3723 | 1072011a | दातृप्रतिग्रहीतृभ्यां सर्वार्थाः प्रभवन्ति हि |
3724 | 1072011c | स्वधर्मं प्रतिपद्यस्व कृत्वा वैवाह्यमुत्तमम् |
3725 | 1072012a | इत्युक्तः परमोदारो वसिष्ठेन महात्मना |
3726 | 1072012c | प्रत्युवाच महातेजा वाक्यं परमधर्मवित् |
3727 | 1072013a | कः स्थितः प्रतिहारो मे कस्याज्ञा संप्रतीक्ष्यते |
3728 | 1072013c | स्वगृहे को विचारोऽस्ति यथा राज्यमिदं तव |
3729 | 1072014a | कृतकौतुकसर्वस्वा वेदिमूलमुपागताः |
3730 | 1072014c | मम कन्या मुनिश्रेष्ठ दीप्ता वह्नेरिवार्चिषः |
3731 | 1072015a | सज्जोऽहं त्वत्प्रतीक्षोऽस्मि वेद्यामस्यां प्रतिष्हितः |
3732 | 1072015c | अविघ्नं कुरुतां राजा किमर्थं हि विलम्ब्यते |
3733 | 1072016a | तद्वाक्यं जनकेनोक्तं श्रुत्वा दशरथस्तदा |
3734 | 1072016c | प्रवेशयामास सुतान्सर्वानृषिगणानपि |
3735 | 1072017a | अब्रवीज्जनको राजा कौसल्यानन्दवर्धनम् |
3736 | 1072017c | इयं सीता मम सुता सहधर्मचरी तव |
3737 | 1072017e | प्रतीच्छ चैनां भद्रं ते पाणिं गृह्णीष्व पाणिना |
3738 | 1072018a | लक्ष्मणागच्छ भद्रं ते ऊर्मिलामुद्यतां मया |
3739 | 1072018c | प्रतीच्छ पाणिं गृह्णीष्व मा भूत्कालस्य पर्ययः |
3740 | 1072019a | तमेवमुक्त्वा जनको भरतं चाभ्यभाषत |
3741 | 1072019c | गृहाण पाणिं माण्डव्याः पाणिना रघुनन्दन |
3742 | 1072020a | शत्रुघ्नं चापि धर्मात्मा अब्रवीज्जनकेश्वरः |
3743 | 1072020c | श्रुतकीर्त्या महाबाहो पाणिं गृह्णीष्व पाणिना |
3744 | 1072021a | सर्वे भवन्तः संयाश्च सर्वे सुचरितव्रताः |
3745 | 1072021c | पत्नीभिः सन्तु काकुत्स्था मा भूत्कालस्य पर्ययः |
3746 | 1072022a | जनकस्य वचः श्रुत्वा पाणीन्पाणिभिरस्पृशन् |
3747 | 1072022c | चत्वारस्ते चतसृणां वसिष्ठस्य मते स्थिताः |
3748 | 1072023a | अग्निं प्रदक्षिणं कृत्वा वेदिं राजानमेव च |
3749 | 1072023c | ऋषींश्चैव महात्मानः सह भार्या रघूत्तमाः |
3750 | 1072023e | यथोक्तेन तथा चक्रुर्विवाहं विधिपूर्वकम् |
3751 | 1072024a | पुष्पवृष्टिर्महत्यासीदन्तरिक्षात्सुभास्वरा |
3752 | 1072024c | दिव्यदुन्दुभिनिर्घोषैर्गीतवादित्रनिस्वनैः |
3753 | 1072025a | ननृतुश्चाप्सरःसंघा गन्धर्वाश्च जगुः कलम् |
3754 | 1072025c | विवाहे रघुमुख्यानां तदद्भुतमिवाभवत् |
3755 | 1072026a | ईदृशे वर्तमाने तु तूर्योद्घुष्टनिनादिते |
3756 | 1072026c | त्रिरग्निं ते परिक्रम्य ऊहुर्भार्या महौजसः |
3757 | 1072027a | अथोपकार्यां जग्मुस्ते सदारा रघुनन्दनः |
3758 | 1072027c | राजाप्यनुययौ पश्यन्सर्षिसंघः सबान्धवः |
3759 | 1073001a | अथ रात्र्यां व्यतीतायां विश्वामित्रो महामुनिः |
3760 | 1073001c | आपृच्छ्य तौ च राजानौ जगामोत्तरपर्वतम् |
3761 | 1073002a | विश्वामित्रो गते राजा वैदेहं मिथिलाधिपम् |
3762 | 1073002c | आपृच्छ्याथ जगामाशु राजा दशरथः पुरीम् |
3763 | 1073003a | अथ राजा विदेहानां ददौ कन्याधनं बहु |
3764 | 1073003c | गवां शतसहस्राणि बहूनि मिथिलेश्वरः |
3765 | 1073004a | कम्बलानां च मुख्यानां क्षौमकोट्यम्बराणि च |
3766 | 1073004c | हस्त्यश्वरथपादातं दिव्यरूपं स्वलंकृतम् |
3767 | 1073005a | ददौ कन्या पिता तासां दासीदासमनुत्तमम् |
3768 | 1073005c | हिरण्यस्य सुवर्णस्य मुक्तानां विद्रुमस्य च |
3769 | 1073006a | ददौ परमसंहृष्टः कन्याधनमनुत्तमम् |
3770 | 1073006c | दत्त्वा बहुधनं राजा समनुज्ञाप्य पार्थिवम् |
3771 | 1073007a | प्रविवेश स्वनिलयं मिथिलां मिथिलेश्वरः |
3772 | 1073007c | राजाप्ययोध्याधिपतिः सह पुत्रैर्महात्मभिः |
3773 | 1073008a | ऋषीन्सर्वान्पुरस्कृत्य जगाम सबलानुगः |
3774 | 1073008c | गच्छन्तं तु नरव्याघ्रं सर्षिसंघं सराघवम् |
3775 | 1073009a | घोराः स्म पक्षिणो वाचो व्याहरन्ति ततस्ततः |
3776 | 1073009c | भौमाश्चैव मृगाः सर्वे गच्छन्ति स्म प्रदक्षिणम् |
3777 | 1073010a | तान्दृष्ट्वा राजशार्दूलो वसिष्ठं पर्यपृच्छत |
3778 | 1073010c | असौम्याः पक्षिणो घोरा मृगाश्चापि प्रदक्षिणाः |
3779 | 1073010e | किमिदं हृदयोत्कम्पि मनो मम विषीदति |
3780 | 1073011a | राज्ञो दशरथस्यैतच्छ्रुत्वा वाक्यं महानृषिः |
3781 | 1073011c | उवाच मधुरां वाणीं श्रूयतामस्य यत्फलम् |
3782 | 1073012a | उपस्थितं भयं घोरं दिव्यं पक्षिमुखाच्च्युतम् |
3783 | 1073012c | मृगाः प्रशमयन्त्येते संतापस्त्यज्यतामयम् |
3784 | 1073013a | तेषां संवदतां तत्र वायुः प्रादुर्बभूव ह |
3785 | 1073013c | कम्पयन्मेदिनीं सर्वां पातयंश्च द्रुमाञ्शुभान् |
3786 | 1073014a | तमसा संवृतः सूर्यः सर्वा न प्रबभुर्दिशः |
3787 | 1073014c | भस्मना चावृतं सर्वं संमूढमिव तद्बलम् |
3788 | 1073015a | वसिष्ठ ऋषयश्चान्ये राजा च ससुतस्तदा |
3789 | 1073015c | ससंज्ञा इव तत्रासन्सर्वमन्यद्विचेतनम् |
3790 | 1073016a | तस्मिंस्तमसि घोरे तु भस्मच्छन्नेव सा चमूः |
3791 | 1073016c | ददर्श भीमसंकाशं जटामण्डलधारिणम् |
3792 | 1073017a | कैलासमिव दुर्धर्षं कालाग्निमिव दुःसहम् |
3793 | 1073017c | ज्वलन्तमिव तेजोभिर्दुर्निरीक्ष्यं पृथग्जनैः |
3794 | 1073018a | स्कन्धे चासज्य परशुं धनुर्विद्युद्गणोपमम् |
3795 | 1073018c | प्रगृह्य शरमुख्यं च त्रिपुरघ्नं यथा हरम् |
3796 | 1073019a | तं दृष्ट्वा भीमसंकाशं ज्वलन्तमिव पावकम् |
3797 | 1073019c | वसिष्ठप्रमुखा विप्रा जपहोमपरायणाः |
3798 | 1073019e | संगता मुनयः सर्वे संजजल्पुरथो मिथः |
3799 | 1073020a | कच्चित्पितृवधामर्षी क्षत्रं नोत्सादयिष्यति |
3800 | 1073020c | पूर्वं क्षत्रवधं कृत्वा गतमन्युर्गतज्वरः |
3801 | 1073020e | क्षत्रस्योत्सादनं भूयो न खल्वस्य चिकीर्षितम् |
3802 | 1073021a | एवमुक्त्वार्घ्यमादाय भार्गवं भीमदर्शनम् |
3803 | 1073021c | ऋषयो राम रामेति मधुरां वाचमब्रुवन् |
3804 | 1073022a | प्रतिगृह्य तु तां पूजामृषिदत्तां प्रतापवान् |
3805 | 1073022c | रामं दाशरथिं रामो जामदग्न्योऽभ्यभाषत |
3806 | 1074001a | राम दाशरथे वीर वीर्यं ते श्रूयतेऽधुतम् |
3807 | 1074001c | धनुषो भेदनं चैव निखिलेन मया श्रुतम् |
3808 | 1074002a | तदद्भुतमचिन्त्यं च भेदनं धनुषस्त्वया |
3809 | 1074002c | तच्छ्रुत्वाहमनुप्राप्तो धनुर्गृह्यापरं शुभम् |
3810 | 1074003a | तदिदं घोरसंकाशं जामदग्न्यं महद्धनुः |
3811 | 1074003c | पूरयस्व शरेणैव स्वबलं दर्शयस्व च |
3812 | 1074004a | तदहं ते बलं दृष्ट्वा धनुषोऽस्य प्रपूरणे |
3813 | 1074004c | द्वन्द्वयुद्धं प्रदास्यामि वीर्यश्लाघ्यमिदं तव |
3814 | 1074005a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राजा दशरतःस्तदा |
3815 | 1074005c | विषण्णवदनो दीनः प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत् |
3816 | 1074006a | क्षत्ररोषात्प्रशान्तस्त्वं ब्राह्मणस्य महायशाः |
3817 | 1074006c | बालानां मम पुत्राणामभयं दातुमर्हसि |
3818 | 1074007a | भार्गवाणां कुले जातः स्वाध्यायव्रतशालिनाम् |
3819 | 1074007c | सहस्राक्षे प्रतिज्ञाय शस्त्रं निक्षिप्तवानसि |
3820 | 1074008a | स त्वं धर्मपरो भूत्वा काश्यपाय वसुंधराम् |
3821 | 1074008c | दत्त्वा वनमुपागम्य महेन्द्रकृतकेतनः |
3822 | 1074009a | मम सर्वविनाशाय संप्राप्तस्त्वं महामुने |
3823 | 1074009c | न चैकस्मिन्हते रामे सर्वे जीवामहे वयम् |
3824 | 1074010a | ब्रुवत्येवं दशरथे जामदग्न्यः प्रतापवान् |
3825 | 1074010c | अनादृत्यैव तद्वाक्यं राममेवाभ्यभाषत |
3826 | 1074011a | इमे द्वे धनुषी श्रेष्ठे दिव्ये लोकाभिविश्रुते |
3827 | 1074011c | दृढे बलवती मुख्ये सुकृते विश्वकर्मणा |
3828 | 1074012a | अतिसृष्टं सुरैरेकं त्र्यम्बकाय युयुत्सवे |
3829 | 1074012c | त्रिपुरघ्नं नरश्रेष्ठ भग्नं काकुत्स्ह यत्त्वया |
3830 | 1074013a | इदं द्वितीयं दुर्धर्षं विष्णोर्दत्तं सुरोत्तमैः |
3831 | 1074013c | समानसारं काकुत्स्थ रौद्रेण धनुषा त्विदम् |
3832 | 1074014a | तदा तु देवताः सर्वाः पृच्छन्ति स्म पितामहम् |
3833 | 1074014c | शितिकण्ठस्य विष्णोश्च बलाबलनिरीक्षया |
3834 | 1074015a | अभिप्रायं तु विज्ञाय देवतानां पितामहः |
3835 | 1074015c | विरोधं जनयामास तयोः सत्यवतां वरः |
3836 | 1074016a | विरोधे च महद्युद्धमभवद्रोमहर्षणम् |
3837 | 1074016c | शितिकण्ठस्य विष्णोश्च परस्परजयैषिणोः |
3838 | 1074017a | तदा तज्जृम्भितं शैवं धनुर्भीमपराक्रमम् |
3839 | 1074017c | हुंकारेण महादेवः स्तम्भितोऽथ त्रिलोचनः |
3840 | 1074018a | देवैस्तदा समागम्य सर्षिसंघैः सचारणैः |
3841 | 1074018c | याचितौ प्रशमं तत्र जग्मतुस्तौ सुरोत्तमौ |
3842 | 1074019a | जृम्भितं तद्धनुर्दृष्ट्वा शैवं विष्णुपराक्रमैः |
3843 | 1074019c | अधिकं मेनिरे विष्णुं देवाः सर्षिगणास्तदा |
3844 | 1074020a | धनू रुद्रस्तु संक्रुद्धो विदेहेषु महायशाः |
3845 | 1074020c | देवरातस्य राजर्षेर्ददौ हस्ते ससायकम् |
3846 | 1074021a | इदं च विष्णवं राम धनुः परपुरंजयम् |
3847 | 1074021c | ऋचीके भार्गवे प्रादाद्विष्णुः स न्यासमुत्तमम् |
3848 | 1074022a | ऋचीकस्तु महातेजाः पुत्रस्याप्रतिकर्मणः |
3849 | 1074022c | पितुर्मम ददौ दिव्यं जमदग्नेर्महात्मनः |
3850 | 1074023a | न्यस्तशस्त्रे पितरि मे तपोबलसमन्विते |
3851 | 1074023c | अर्जुनो विदधे मृत्युं प्राकृतां बुद्धिमास्थितः |
3852 | 1074024a | वधमप्रतिरूपं तु पितुः श्रुत्वा सुदारुणम् |
3853 | 1074024c | क्षत्रमुत्सादयं रोषाज्जातं जातमनेकशः |
3854 | 1074025a | पृथिवीं चाखिलां प्राप्य काश्यपाय महात्मने |
3855 | 1074025c | यज्ञस्यान्ते तदा राम दक्षिणां पुण्यकर्मणे |
3856 | 1074026a | दत्त्वा महेन्द्रनिलयस्तपोबलसमन्वितः |
3857 | 1074026c | श्रुतवान्धनुषो भेदं ततोऽहं द्रुतमागतः |
3858 | 1074027a | तदिदं वैष्णवं राम पितृपैतामहं महत् |
3859 | 1074027c | क्षत्रधर्मं पुरस्कृत्य गृह्णीष्व धनुरुत्तमम् |
3860 | 1074028a | योजयस्व धनुः श्रेष्ठे शरं परपुरंजयम् |
3861 | 1074028c | यदि शक्नोषि काकुत्स्थ द्वन्द्वं दास्यामि ते ततः |
3862 | 1075001a | श्रुत्वा तज्जामदग्न्यस्य वाक्यं दाशरथिस्तदा |
3863 | 1075001c | गौरवाद्यन्त्रितकथः पितू राममथाब्रवीत् |
3864 | 1075002a | श्रुतवानस्मि यत्कर्म कृतवानसि भार्गव |
3865 | 1075002c | अनुरुन्ध्यामहे ब्रह्मन्पितुरानृण्यमास्थितः |
3866 | 1075003a | वीर्यहीनमिवाशक्तं क्षत्रधर्मेण भार्गव |
3867 | 1075003c | अवजानामि मे तेजः पश्य मेऽद्य पराक्रमम् |
3868 | 1075004a | इत्युक्त्वा राघवः क्रुद्धो भार्गवस्य वरायुधम् |
3869 | 1075004c | शरं च प्रतिसंगृह्य हस्ताल्लघुपराक्रमः |
3870 | 1075005a | आरोप्य स धनू रामः शरं सज्यं चकार ह |
3871 | 1075005c | जामदग्न्यं ततो रामं रामः क्रुद्धोऽब्रवीद्वचः |
3872 | 1075006a | ब्राह्मणोऽसीति पूज्यो मे विश्वामित्रकृतेन च |
3873 | 1075006c | तस्माच्छक्तो न ते राम मोक्तुं प्राणहरं शरम् |
3874 | 1075007a | इमां वा त्वद्गतिं राम तपोबलसमार्जितान् |
3875 | 1075007c | लोकानप्रतिमान्वापि हनिष्यामि यदिच्छसि |
3876 | 1075008a | न ह्ययं वैष्णवो दिव्यः शरः परपुरंजयः |
3877 | 1075008c | मोघः पतति वीर्येण बलदर्पविनाशनः |
3878 | 1075009a | वरायुधधरं राम द्रष्टुं सर्षिगणाः सुराः |
3879 | 1075009c | पितामहं पुरस्कृत्य समेतास्तत्र संघशः |
3880 | 1075010a | गन्धर्वाप्सरसश्चैव सिद्धचारणकिंनराः |
3881 | 1075010c | यक्षराक्षसनागाश्च तद्द्रष्टुं महदद्भुतम् |
3882 | 1075011a | जडीकृते तदा लोके रामे वरधनुर्धरे |
3883 | 1075011c | निर्वीर्यो जामदग्न्योऽसौ रमो राममुदैक्षत |
3884 | 1075012a | तेजोभिर्हतवीर्यत्वाज्जामदग्न्यो जडीकृतः |
3885 | 1075012c | रामं कमल पत्राक्षं मन्दं मन्दमुवाच ह |
3886 | 1075013a | काश्यपाय मया दत्ता यदा पूर्वं वसुंधरा |
3887 | 1075013c | विषये मे न वस्तव्यमिति मां काश्यपोऽब्रवीत् |
3888 | 1075014a | सोऽहं गुरुवचः कुर्वन्पृथिव्यां न वसे निशाम् |
3889 | 1075014c | इति प्रतिज्ञा काकुत्स्थ कृता वै काश्यपस्य ह |
3890 | 1075015a | तदिमां त्वं गतिं वीर हन्तुं नार्हसि राघव |
3891 | 1075015c | मनोजवं गमिष्यामि महेन्द्रं पर्वतोत्तमम् |
3892 | 1075016a | लोकास्त्वप्रतिमा राम निर्जितास्तपसा मया |
3893 | 1075016c | जहि ताञ्शरमुख्येन मा भूत्कालस्य पर्ययः |
3894 | 1075017a | अक्षय्यं मधुहन्तारं जानामि त्वां सुरेश्वरम् |
3895 | 1075017c | धनुषोऽस्य परामर्शात्स्वस्ति तेऽस्तु परंतप |
3896 | 1075018a | एते सुरगणाः सर्वे निरीक्षन्ते समागताः |
3897 | 1075018c | त्वामप्रतिमकर्माणमप्रतिद्वन्द्वमाहवे |
3898 | 1075019a | न चेयं मम काकुत्स्थ व्रीडा भवितुमर्हति |
3899 | 1075019c | त्वया त्रैलोक्यनाथेन यदहं विमुखीकृतः |
3900 | 1075020a | शरमप्रतिमं राम मोक्तुमर्हसि सुव्रत |
3901 | 1075020c | शरमोक्षे गमिष्यामि महेन्द्रं पर्वतोत्तमम् |
3902 | 1075021a | तथा ब्रुवति रामे तु जामदग्न्ये प्रतापवान् |
3903 | 1075021c | रामो दाशरथिः श्रीमांश्चिक्षेप शरमुत्तमम् |
3904 | 1075022a | ततो वितिमिराः सर्वा दिशा चोपदिशस्तथा |
3905 | 1075022c | सुराः सर्षिगणा रामं प्रशशंसुरुदायुधम् |
3906 | 1075023a | रामं दाशरथिं रामो जामदग्न्यः प्रशस्य च |
3907 | 1075023c | ततः प्रदक्षिणीकृत्य जगामात्मगतिं प्रभुः |
3908 | 1076001a | गते रामे प्रशान्तात्मा रामो दाशरथिर्धनुः |
3909 | 1076001c | वरुणायाप्रमेयाय ददौ हस्ते ससायकम् |
3910 | 1076002a | अभिवाद्य ततो रामो वसिष्ठ प्रमुखानृषीन् |
3911 | 1076002c | पितरं विह्वलं दृष्ट्वा प्रोवाच रघुनन्दनः |
3912 | 1076003a | जामदग्न्यो गतो रामः प्रयातु चतुरङ्गिणी |
3913 | 1076003c | अयोध्याभिमुखी सेना त्वया नाथेन पालिता |
3914 | 1076004a | रामस्य वचनं श्रुत्वा राजा दशरथः सुतम् |
3915 | 1076004c | बाहुभ्यां संपरिष्वज्य मूर्ध्नि चाघ्राय राघवम् |
3916 | 1076005a | गतो राम इति श्रुत्वा हृष्टः प्रमुदितो नृपः |
3917 | 1076005c | चोदयामास तां सेनां जगामाशु ततः पुरीम् |
3918 | 1076006a | पताकाध्वजिनीं रम्यां तूर्योद्घुष्टनिनादिताम् |
3919 | 1076006c | सिक्तराजपथां रम्यां प्रकीर्णकुसुमोत्कराम् |
3920 | 1076007a | राजप्रवेशसुमुखैः पौरैर्मङ्गलवादिभिः |
3921 | 1076007c | संपूर्णां प्राविशद्राजा जनौघैः समलंकृताम् |
3922 | 1076008a | कौसल्या च सुमित्रा च कैकेयी च सुमध्यमा |
3923 | 1076008c | वधूप्रतिग्रहे युक्ता याश्चान्या राजयोषितः |
3924 | 1076009a | ततः सीतां महाभागामूर्मिलां च यशस्विनीम् |
3925 | 1076009c | कुशध्वजसुते चोभे जगृहुर्नृपपत्नयः |
3926 | 1076010a | मङ्गलालापनैश्चैव शोभिताः क्षौमवाससः |
3927 | 1076010c | देवतायतनान्याशु सर्वास्ताः प्रत्यपूजयन् |
3928 | 1076011a | अभिवाद्याभिवाद्यांश्च सर्वा राजसुतास्तदा |
3929 | 1076011c | रेमिरे मुदिताः सर्वा भर्तृभिः सहिता रहः |
3930 | 1076012a | कृतदाराः कृतास्त्राश्च सधनाः ससुहृज्जनाः |
3931 | 1076012c | शुश्रूषमाणाः पितरं वर्तयन्ति नरर्षभाः |
3932 | 1076013a | तेषामतियशा लोके रामः सत्यपराक्रमः |
3933 | 1076013c | स्वयम्भूरिव भूतानां बभूव गुणवत्तरः |
3934 | 1076014a | रामस्तु सीतया सार्धं विजहार बहूनृतून् |
3935 | 1076014c | मनस्वी तद्गतस्तस्या नित्यं हृदि समर्पितः |
3936 | 1076015a | प्रिया तु सीता रामस्य दाराः पितृकृता इति |
3937 | 1076015c | गुणाद्रूपगुणाच्चापि प्रीतिर्भूयो व्यवर्धत |
3938 | 1076016a | तस्याश्च भर्ता द्विगुणं हृदये परिवर्तते |
3939 | 1076016c | अन्तर्जातमपि व्यक्तमाख्याति हृदयं हृदा |
3940 | 1076017a | तस्य भूयो विशेषेण मैथिली जनकात्मजा |
3941 | 1076017c | देवताभिः समा रूपे सीता श्रीरिव रूपिणी |
3942 | 1076018a | तया स राजर्षिसुतोऽभिरामया; समेयिवानुत्तमराजकन्यया |
3943 | 1076018c | अतीव रामः शुशुभेऽतिकामया; विभुः श्रिया विष्णुरिवामरेश्वरः |
क्रमाङ्क | छन्द | श्लोक |
---|---|---|
1 | 2001001a | कस्यचित्त्वथ कालस्य राजा दशरथः सुतम् |
2 | 2001001c | भरतं केकयीपुत्रमब्रवीद्रघुनन्दनः |
3 | 2001002a | अयं केकयराजस्य पुत्रो वसति पुत्रक |
4 | 2001002c | त्वां नेतुमागतो वीर युधाजिन्मातुलस्तव |
5 | 2001003a | श्रुत्वा दशरथस्यैतद्भरतः केकयीसुतः |
6 | 2001003c | गमनायाभिचक्राम शत्रुघ्नसहितस्तदा |
7 | 2001004a | आपृच्छ्य पितरं शूरो रामं चाक्लिष्टकारिणम् |
8 | 2001004c | मातॄंश्चापि नरश्रेष्ठः शत्रुघ्नसहितो ययौ |
9 | 2001005a | युधाजित्प्राप्य भरतं सशत्रुघ्नं प्रहर्षितः |
10 | 2001005c | स्वपुरं प्राविशद्वीरः पिता तस्य तुतोष ह |
11 | 2001006a | स तत्र न्यवसद्भ्रात्रा सह सत्कारसत्कृतः |
12 | 2001006c | मातुलेनाश्वपतिना पुत्रस्नेहेन लालितः |
13 | 2001007a | तत्रापि निवसन्तौ तौ तर्प्यमाणौ च कामतः |
14 | 2001007c | भ्रातरौ स्मरतां वीरौ वृद्धं दशरथं नृपम् |
15 | 2001008a | राजापि तौ महातेजाः सस्मार प्रोषितौ सुतौ |
16 | 2001008c | उभौ भरतशत्रुघ्नौ महेन्द्रवरुणोपमौ |
17 | 2001009a | सर्व एव तु तस्येष्टाश्चत्वारः पुरुषर्षभाः |
18 | 2001009c | स्वशरीराद्विनिर्वृत्ताश्चत्वार इव बाहवः |
19 | 2001010a | तेषामपि महातेजा रामो रतिकरः पितुः |
20 | 2001010c | स्वयम्भूरिव भूतानां बभूव गुणवत्तरः |
21 | 2001011a | गते च भरते रामो लक्ष्मणश्च महाबलः |
22 | 2001011c | पितरं देवसंकाशं पूजयामासतुस्तदा |
23 | 2001012a | पितुराज्ञां पुरस्कृत्य पौरकार्याणि सर्वशः |
24 | 2001012c | चकार रामो धर्मात्मा प्रियाणि च हितानि च |
25 | 2001013a | मातृभ्यो मातृकार्याणि कृत्वा परमयन्त्रितः |
26 | 2001013c | गुरूणां गुरुकार्याणि काले कालेऽन्ववैक्षत |
27 | 2001014a | एवं दशरथः प्रीतो ब्राह्मणा नैगमास्तथा |
28 | 2001014c | रामस्य शीलवृत्तेन सर्वे विषयवासिनः |
29 | 2001015a | स हि नित्यं प्रशान्तात्मा मृदुपूर्वं च भाषते |
30 | 2001015c | उच्यमानोऽपि परुषं नोत्तरं प्रतिपद्यते |
31 | 2001016a | कथंचिदुपकारेण कृतेनैकेन तुष्यति |
32 | 2001016c | न स्मरत्यपकाराणां शतमप्यात्मवत्तया |
33 | 2001017a | शीलवृद्धैर्ज्ञानवृद्धैर्वयोवृद्धैश्च सज्जनैः |
34 | 2001017c | कथयन्नास्त वै नित्यमस्त्रयोग्यान्तरेष्वपि |
35 | 2001018a | कल्याणाभिजनः साधुरदीनः सत्यवागृजुः |
36 | 2001018c | वृद्धैरभिविनीतश्च द्विजैर्धर्मार्थदर्शिभिः |
37 | 2001019a | धर्मार्थकामतत्त्वज्ञः स्मृतिमान्प्रतिभावनान् |
38 | 2001019c | लौकिके समयाचरे कृतकल्पो विशारदः |
39 | 2001020a | शास्त्रज्ञश्च कृतज्ञश्च पुरुषान्तरकोविदः |
40 | 2001020c | यः प्रग्रहानुग्रहयोर्यथान्यायं विचक्षणः |
41 | 2001021a | आयकर्मण्युपायज्ञः संदृष्टव्ययकर्मवित् |
42 | 2001021c | श्रैष्ठ्यं शास्त्रसमूहेषु प्राप्तो व्यामिश्रकेष्वपि |
43 | 2001022a | अर्थधर्मौ च संगृह्य सुखतन्त्रो न चालसः |
44 | 2001022c | वैहारिकाणां शिल्पानां विज्ञातार्थविभागवित् |
45 | 2001023a | आरोहे विनये चैव युक्तो वारणवाजिनाम् |
46 | 2001023c | धनुर्वेदविदां श्रेष्ठो लोकेऽतिरथसंमतः |
47 | 2001024a | अभियाता प्रहर्ता च सेनानयविशारदः |
48 | 2001024c | अप्रधृष्यश्च संग्रामे क्रुद्धैरपि सुरासुरैः |
49 | 2001025a | अनसूयो जितक्रोधो न दृप्तो न च मत्सरी |
50 | 2001025c | न चावमन्ता भूतानां न च कालवशानुगः |
51 | 2001026a | एवं श्रैष्ठैर्गुणैर्युक्तः प्रजानां पार्थिवात्मजः |
52 | 2001026c | संमतस्त्रिषु लोकेषु वसुधायाः क्षमागुणैः |
53 | 2001026e | बुद्ध्या बृहस्पतेस्तुल्यो वीर्येणापि शचीपतेः |
54 | 2001027a | तथा सर्वप्रजाकान्तैः प्रीतिसंजननैः पितुः |
55 | 2001027c | गुणैर्विरुरुचे रामो दीप्तः सूर्य इवांशुभिः |
56 | 2001028a | तमेवंवृत्तसंपन्नमप्रधृष्य पराक्रमम् |
57 | 2001028c | लोकपालोपमं नाथमकामयत मेदिनी |
58 | 2001029a | एतैस्तु बहुभिर्युक्तं गुणैरनुपमैः सुतम् |
59 | 2001029c | दृष्ट्वा दशरथो राजा चक्रे चिन्तां परंतपः |
60 | 2001030a | एषा ह्यस्य परा प्रीतिर्हृदि संपरिवर्तते |
61 | 2001030c | कदा नाम सुतं द्रक्ष्याम्यभिषिक्तमहं प्रियम् |
62 | 2001031a | वृद्धिकामो हि लोकस्य सर्वभूतानुकम्पनः |
63 | 2001031c | मत्तः प्रियतरो लोके पर्जन्य इव वृष्टिमान् |
64 | 2001032a | यमशक्रसमो वीर्ये बृहस्पतिसमो मतौ |
65 | 2001032c | महीधरसमो धृत्यां मत्तश्च गुणवत्तरः |
66 | 2001033a | महीमहमिमां कृत्स्नामधितिष्ठन्तमात्मजम् |
67 | 2001033c | अनेन वयसा दृष्ट्वा यथा स्वर्गमवाप्नुयाम् |
68 | 2001034a | तं समीक्ष्य महाराजो युक्तं समुदितैर्गुणैः |
69 | 2001034c | निश्चित्य सचिवैः सार्धं युवराजममन्यत |
70 | 2001035a | नानानगरवास्तव्यान्पृथग्जानपदानपि |
71 | 2001035c | समानिनाय मेदिन्याः प्रधानान्पृथिवीपतिः |
72 | 2001036a | अथ राजवितीर्णेषु विविधेष्वासनेषु च |
73 | 2001036c | राजानमेवाभिमुखा निषेदुर्नियता नृपाः |
74 | 2001037a | स लब्धमानैर्विनयान्वितैर्नृपैः; पुरालयैर्जानपदैश्च मानवैः |
75 | 2001037c | उपोपविष्टैर्नृपतिर्वृतो बभौ; सहस्रचक्षुर्भगवानिवामरैः |
76 | 2002001a | ततः परिषदं सर्वामामन्त्र्य वसुधाधिपः |
77 | 2002001c | हितमुद्धर्षणं चेदमुवाचाप्रतिमं वचः |
78 | 2002002a | दुन्दुभिस्वनकल्पेन गम्भीरेणानुनादिना |
79 | 2002002c | स्वरेण महता राजा जीग्मूत इव नादयन् |
80 | 2002003a | सोऽहमिक्ष्वाकुभिः पूर्वैर्नरेन्द्रैः परिपालितम् |
81 | 2002003c | श्रेयसा योक्तुकामोऽस्मि सुखार्हमखिलं जगत् |
82 | 2002004a | मयाप्याचरितं पूर्वैः पन्थानमनुगच्छता |
83 | 2002004c | प्रजा नित्यमतन्द्रेण यथाशक्त्यभिरक्षता |
84 | 2002005a | इदं शरीरं कृत्स्नस्य लोकस्य चरता हितम् |
85 | 2002005c | पाण्डुरस्यातपत्रस्यच्छायायां जरितं मया |
86 | 2002006a | प्राप्य वर्षसहस्राणि बहून्यायूंषि जीवितः |
87 | 2002006c | जीर्णस्यास्य शरीरस्य विश्रान्तिमभिरोचये |
88 | 2002007a | राजप्रभावजुष्टां हि दुर्वहामजितेन्द्रियैः |
89 | 2002007c | परिश्रान्तोऽस्मि लोकस्य गुर्वीं धर्मधुरं वहन् |
90 | 2002008a | सोऽहं विश्रममिच्छामि पुत्रं कृत्वा प्रजाहिते |
91 | 2002008c | संनिकृष्टानिमान्सर्वाननुमान्य द्विजर्षभान् |
92 | 2002009a | अनुजातो हि मे सर्वैर्गुणैर्ज्येष्ठो ममात्मजः |
93 | 2002009c | पुरंदरसमो वीर्ये रामः परपुरंजयः |
94 | 2002010a | तं चन्द्रमिव पुष्येण युक्तं धर्मभृतां वरम् |
95 | 2002010c | यौवराज्येन योक्तास्मि प्रीतः पुरुषपुंगवम् |
96 | 2002011a | अनुरूपः स वो नाथो लक्ष्मीवाँल्लक्ष्मणाग्रजः |
97 | 2002011c | त्रैलोक्यमपि नाथेन येन स्यान्नाथवत्तरम् |
98 | 2002012a | अनेन श्रेयसा सद्यः संयोज्याहमिमां महीम् |
99 | 2002012c | गतक्लेशो भविष्यामि सुते तस्मिन्निवेश्य वै |
100 | 2002013a | इति ब्रुवन्तं मुदिताः प्रत्यनन्दन्नृपा नृपम् |
101 | 2002013c | वृष्टिमन्तं महामेघं नर्दन्तमिव बर्हिणः |
102 | 2002014a | तस्य धर्मार्थविदुषो भावमाज्ञाय सर्वशः |
103 | 2002014c | ऊचुश्च मनसा ज्ञात्वा वृद्धं दशरथं नृपम् |
104 | 2002015a | अनेकवर्षसाहस्रो वृद्धस्त्वमसि पार्थिव |
105 | 2002015c | स रामं युवराजानमभिषिञ्चस्व पार्थिवम् |
106 | 2002016a | इति तद्वचनं श्रुत्वा राजा तेषां मनःप्रियम् |
107 | 2002016c | अजानन्निव जिज्ञासुरिदं वचनमब्रवीत् |
108 | 2002017a | कथं नु मयि धर्मेण पृथिवीमनुशासति |
109 | 2002017c | भवन्तो द्रष्टुमिच्छन्ति युवराजं ममात्मजम् |
110 | 2002018a | ते तमूचुर्महात्मानं पौरजानपदैः सह |
111 | 2002018c | बहवो नृप कल्याणा गुणाः पुत्रस्य सन्ति ते |
112 | 2002019a | दिव्यैर्गुणैः शक्रसमो रामः सत्यपराक्रमः |
113 | 2002019c | इक्ष्वाकुभ्यो हि सर्वेभ्योऽप्यतिरक्तो विशाम्पते |
114 | 2002020a | रामः सत्पुरुषो लोके सत्यधर्मपरायणः |
115 | 2002020c | धर्मज्ञः सत्यसंधश्च शीलवाननसूयकः |
116 | 2002021a | क्षान्तः सान्त्वयिता श्लक्ष्णः कृतज्ञो विजितेन्द्रियः |
117 | 2002021c | मृदुश्च स्थिरचित्तश्च सदा भव्योऽनसूयकः |
118 | 2002022a | प्रियवादी च भूतानां सत्यवादी च राघवः |
119 | 2002022c | बहुश्रुतानां वृद्धानां ब्राह्मणानामुपासिता |
120 | 2002023a | तेनास्येहातुला कीर्तिर्यशस्तेजश्च वर्धते |
121 | 2002023c | देवासुरमनुष्याणां सर्वास्त्रेषु विशारदः |
122 | 2002024a | यदा व्रजति संग्रामं ग्रामार्थे नगरस्य वा |
123 | 2002024c | गत्वा सौमित्रिसहितो नाविजित्य निवर्तते |
124 | 2002025a | संग्रामात्पुनरागम्य कुञ्जरेण रथेन वा |
125 | 2002025c | पौरान्स्वजनवन्नित्यं कुशलं परिपृच्छति |
126 | 2002026a | पुत्रेष्वग्निषु दारेषु प्रेष्यशिष्यगणेषु च |
127 | 2002026c | निखिलेनानुपूर्व्या च पिता पुत्रानिवौरसान् |
128 | 2002027a | शुश्रूषन्ते च वः शिष्याः कच्चित्कर्मसु दंशिताः |
129 | 2002027c | इति नः पुरुषव्याघ्रः सदा रामोऽभिभाषते |
130 | 2002028a | व्यसनेषु मनुष्याणां भृशं भवति दुःखितः |
131 | 2002028c | उत्सवेषु च सर्वेषु पितेव परितुष्यति |
132 | 2002029a | सत्यवादी महेष्वासो वृद्धसेवी जितेन्द्रियः |
133 | 2002029c | वत्सः श्रेयसि जातस्ते दिष्ट्यासौ तव राघवः |
134 | 2002029e | दिष्ट्या पुत्रगुणैर्युक्तो मारीच इव कश्यपः |
135 | 2002030a | बलमारोग्यमायुश्च रामस्य विदितात्मनः |
136 | 2002030c | आशंसते जनः सर्वो राष्ट्रे पुरवरे तथा |
137 | 2002031a | अभ्यन्तरश्च बाह्यश्च पौरजानपदो जनः |
138 | 2002031c | स्त्रियो वृद्धास्तरुण्यश्च सायंप्रातः समाहिताः |
139 | 2002032a | सर्वान्देवान्नमस्यन्ति रामस्यार्थे यशस्विनः |
140 | 2002032c | तेषामायाचितं देव त्वत्प्रसादात्समृध्यताम् |
141 | 2002033a | राममिन्दीवरश्यामं सर्वशत्रुनिबर्हणम् |
142 | 2002033c | पश्यामो यौवराज्यस्थं तव राजोत्तमात्मजम् |
143 | 2002034a | तं देवदेवोपममात्मजं ते; सर्वस्य लोकस्य हिते निविष्टम् |
144 | 2002034c | हिताय नः क्षिप्रमुदारजुष्टं; मुदाभिषेक्तुं वरद त्वमर्हसि |
145 | 2003001a | तेषामज्ञलिपद्मानि प्रगृहीतानि सर्वशः |
146 | 2003001c | प्रतिगृह्याब्रवीद्राजा तेभ्यः प्रियहितं वचः |
147 | 2003002a | अहोऽस्मि परमप्रीतः प्रभावश्चातुलो मम |
148 | 2003002c | यन्मे ज्येष्ठं प्रियं पुत्रं यौवराज्यस्थमिच्छथ |
149 | 2003003a | इति प्रत्यर्च्य तान्राजा ब्राह्मणानिदमब्रवीत् |
150 | 2003003c | वसिष्ठं वामदेवं च तेषामेवोपशृण्वताम् |
151 | 2003004a | चैत्रः श्रीमानयं मासः पुण्यः पुष्पितकाननः |
152 | 2003004c | यौवराज्याय रामस्य सर्वमेवोपकल्प्यताम् |
153 | 2003005a | कृतमित्येव चाब्रूतामभिगम्य जगत्पतिम् |
154 | 2003005c | यथोक्तवचनं प्रीतौ हर्षयुक्तौ द्विजर्षभौ |
155 | 2003006a | ततः सुमन्त्रं द्युतिमान्राजा वचनमब्रवीत् |
156 | 2003006c | रामः कृतात्मा भवता शीघ्रमानीयतामिति |
157 | 2003007a | स तथेति प्रतिज्ञाय सुमन्त्रो राजशासनात् |
158 | 2003007c | रामं तत्रानयां चक्रे रथेन रथिनां वरम् |
159 | 2003008a | अथ तत्र समासीनास्तदा दशरथं नृपम् |
160 | 2003008c | प्राच्योदीच्याः प्रतीच्याश्च दाक्षिणात्याश्च भूमिपाः |
161 | 2003009a | म्लेच्छाश्चार्याश्च ये चान्ये वनशैलान्तवासिनः |
162 | 2003009c | उपासां चक्रिरे सर्वे तं देवा इव वासवम् |
163 | 2003010a | तेषां मध्ये स राजर्षिर्मरुतामिव वासवः |
164 | 2003010c | प्रासादस्थो रथगतं ददर्शायान्तमात्मजम् |
165 | 2003011a | गन्धर्वराजप्रतिमं लोके विख्यातपौरुषम् |
166 | 2003011c | दीर्घबाहुं महासत्त्वं मत्तमातङ्गगामिनम् |
167 | 2003012a | चन्द्रकान्ताननं राममतीव प्रियदर्शनम् |
168 | 2003012c | रूपौदार्यगुणैः पुंसां दृष्टिचित्तापहारिणम् |
169 | 2003013a | घर्माभितप्ताः पर्जन्यं ह्लादयन्तमिव प्रजाः |
170 | 2003013c | न ततर्प समायान्तं पश्यमानो नराधिपः |
171 | 2003014a | अवतार्य सुमन्त्रस्तं राघवं स्यन्दनोत्तमात् |
172 | 2003014c | पितुः समीपं गच्छन्तं प्राञ्जलिः पृष्ठतोऽन्वगात् |
173 | 2003015a | स तं कैलासशृङ्गाभं प्रासादं नरपुंगवः |
174 | 2003015c | आरुरोह नृपं द्रष्टुं सह सूतेन राघवः |
175 | 2003016a | स प्राञ्जलिरभिप्रेत्य प्रणतः पितुरन्तिके |
176 | 2003016c | नाम स्वं श्रावयन्रामो ववन्दे चरणौ पितुः |
177 | 2003017a | तं दृष्ट्वा प्रणतं पार्श्वे कृताञ्जलिपुटं नृपः |
178 | 2003017c | गृह्याञ्जलौ समाकृष्य सस्वजे प्रियमात्मजम् |
179 | 2003018a | तस्मै चाभ्युद्यतं श्रीमान्मणिकाञ्चनभूषितम् |
180 | 2003018c | दिदेश राजा रुचिरं रामाय परमासनम् |
181 | 2003019a | तदासनवरं प्राप्य व्यदीपयत राघवः |
182 | 2003019c | स्वयेव प्रभया मेरुमुदये विमलो रविः |
183 | 2003020a | तेन विभ्राजिता तत्र सा सभाभिव्यरोचत |
184 | 2003020c | विमलग्रहनक्षत्रा शारदी द्यौरिवेन्दुना |
185 | 2003021a | तं पश्यमानो नृपतिस्तुतोष प्रियमात्मजम् |
186 | 2003021c | अलंकृतमिवात्मानमादर्शतलसंस्थितम् |
187 | 2003022a | स तं सस्मितमाभाष्य पुत्रं पुत्रवतां वरः |
188 | 2003022c | उवाचेदं वचो राजा देवेन्द्रमिव कश्यपः |
189 | 2003023a | ज्येष्ठायामसि मे पत्न्यां सदृश्यां सदृशः सुतः |
190 | 2003023c | उत्पन्नस्त्वं गुणश्रेष्ठो मम रामात्मजः प्रियः |
191 | 2003024a | त्वया यतः प्रजाश्चेमाः स्वगुणैरनुरञ्जिताः |
192 | 2003024c | तस्मात्त्वं पुष्ययोगेन यौवराज्यमवाप्नुहि |
193 | 2003025a | कामतस्त्वं प्रकृत्यैव विनीतो गुणवानसि |
194 | 2003025c | गुणवत्यपि तु स्नेहात्पुत्र वक्ष्यामि ते हितम् |
195 | 2003026a | भूयो विनयमास्थाय भव नित्यं जितेन्द्रियः |
196 | 2003026c | कामक्रोधसमुत्थानि त्यजेथा व्यसनानि च |
197 | 2003027a | परोक्षया वर्तमानो वृत्त्या प्रत्यक्षया तथा |
198 | 2003027c | अमात्यप्रभृतीः सर्वाः प्रकृतीश्चानुरञ्जय |
199 | 2003028a | तुष्टानुरक्तप्रकृतिर्यः पालयति मेदिनीम् |
200 | 2003028c | तस्य नन्दन्ति मित्राणि लब्ध्वामृतमिवामराः |
201 | 2003028e | तस्मात्पुत्र त्वमात्मानं नियम्यैव समाचर |
202 | 2003029a | तच्छ्रुत्वा सुहृदस्तस्य रामस्य प्रियकारिणः |
203 | 2003029c | त्वरिताः शीघ्रमभ्येत्य कौसल्यायै न्यवेदयन् |
204 | 2003030a | सा हिरण्यं च गाश्चैव रत्नानि विविधानि च |
205 | 2003030c | व्यादिदेश प्रियाख्येभ्यः कौसल्या प्रमदोत्तमा |
206 | 2003031a | अथाभिवाद्य राजानं रथमारुह्य राघवः |
207 | 2003031c | ययौ स्वं द्युतिमद्वेश्म जनौघैः प्रतिपूजितः |
208 | 2003032a | ते चापि पौरा नृपतेर्वचस्त;च्छ्रुत्वा तदा लाभमिवेष्टमाप्य |
209 | 2003032c | नरेन्द्रमामन्त्य गृहाणि गत्वा; देवान्समानर्चुरतीव हृष्टाः |
210 | 2004001a | गतेष्वथ नृपो भूयः पौरेषु सह मन्त्रिभिः |
211 | 2004001c | मन्त्रयित्वा ततश्चक्रे निश्चयज्ञः स निश्चयम् |
212 | 2004002a | श्व एव पुष्यो भविता श्वोऽभिषेच्येत मे सुतः |
213 | 2004002c | रामो राजीवताम्राक्षो यौवराज्य इति प्रभुः |
214 | 2004003a | अथान्तर्गृहमाविश्य राजा दशरथस्तदा |
215 | 2004003c | सूतमाज्ञापयामास रामं पुनरिहानय |
216 | 2004004a | प्रतिगृह्य स तद्वाक्यं सूतः पुनरुपाययौ |
217 | 2004004c | रामस्य भवनं शीघ्रं राममानयितुं पुनः |
218 | 2004005a | द्वाःस्थैरावेदितं तस्य रामायागमनं पुनः |
219 | 2004005c | श्रुत्वैव चापि रामस्तं प्राप्तं शङ्कान्वितोऽभवत् |
220 | 2004006a | प्रवेश्य चैनं त्वरितं रामो वचनमब्रवीत् |
221 | 2004006c | यदागमनकृत्यं ते भूयस्तद्ब्रूह्यशेषतः |
222 | 2004007a | तमुवाच ततः सूतो राजा त्वां द्रष्टुमिच्छति |
223 | 2004007c | श्रुत्वा प्रमाणमत्र त्वं गमनायेतराय वा |
224 | 2004008a | इति सूतवचः श्रुत्वा रामोऽथ त्वरयान्वितः |
225 | 2004008c | प्रययौ राजभवनं पुनर्द्रष्टुं नरेश्वरम् |
226 | 2004009a | तं श्रुत्वा समनुप्राप्तं रामं दशरथो नृपः |
227 | 2004009c | प्रवेशयामास गृहं विविक्षुः प्रियमुत्तमम् |
228 | 2004010a | प्रविशन्नेव च श्रीमान्राघवो भवनं पितुः |
229 | 2004010c | ददर्श पितरं दूरात्प्रणिपत्य कृताञ्जलिः |
230 | 2004011a | प्रणमन्तं समुत्थाप्य तं परिष्वज्य भूमिपः |
231 | 2004011c | प्रदिश्य चास्मै रुचिरमासनं पुनरब्रवीत् |
232 | 2004012a | राम वृद्धोऽस्मि दीर्घायुर्भुक्ता भोगा मयेप्सिताः |
233 | 2004012c | अन्नवद्भिः क्रतुशतैस्तथेष्टं भूरिदक्षिणैः |
234 | 2004013a | जातमिष्टमपत्यं मे त्वमद्यानुपमं भुवि |
235 | 2004013c | दत्तमिष्टमधीतं च मया पुरुषसत्तम |
236 | 2004014a | अनुभूतानि चेष्टानि मया वीर सुखानि च |
237 | 2004014c | देवर्षि पितृविप्राणामनृणोऽस्मि तथात्मनः |
238 | 2004015a | न किंचिन्मम कर्तव्यं तवान्यत्राभिषेचनात् |
239 | 2004015c | अतो यत्त्वामहं ब्रूयां तन्मे त्वं कर्तुमर्हसि |
240 | 2004016a | अद्य प्रकृतयः सर्वास्त्वामिच्छन्ति नराधिपम् |
241 | 2004016c | अतस्त्वां युवराजानमभिषेक्ष्यामि पुत्रक |
242 | 2004017a | अपि चाद्याशुभान्राम स्वप्नान्पश्यामि दारुणान् |
243 | 2004017c | सनिर्घाता महोल्काश्च पतन्तीह महास्वनाः |
244 | 2004018a | अवष्टब्धं च मे राम नक्षत्रं दारुणैर्ग्रहैः |
245 | 2004018c | आवेदयन्ति दैवज्ञाः सूर्याङ्गारकराहुभिः |
246 | 2004019a | प्रायेण हि निमित्तानामीदृशानां समुद्भवे |
247 | 2004019c | राजा वा मृत्युमाप्नोति घोरां वापदमृच्छति |
248 | 2004020a | तद्यावदेव मे चेतो न विमुह्यति राघव |
249 | 2004020c | तावदेवाभिषिञ्चस्व चला हि प्राणिनां मतिः |
250 | 2004021a | अद्य चन्द्रोऽभ्युपगतः पुष्यात्पूर्वं पुनर्वसुम् |
251 | 2004021c | श्वः पुष्य योगं नियतं वक्ष्यन्ते दैवचिन्तकाः |
252 | 2004022a | तत्र पुष्येऽभिषिञ्चस्व मनस्त्वरयतीव माम् |
253 | 2004022c | श्वस्त्वाहमभिषेक्ष्यामि यौवराज्ये परंतप |
254 | 2004023a | तस्मात्त्वयाद्य व्रतिना निशेयं नियतात्मना |
255 | 2004023c | सह वध्वोपवस्तव्या दर्भप्रस्तरशायिना |
256 | 2004024a | सुहृदश्चाप्रमत्तास्त्वां रक्षन्त्वद्य समन्ततः |
257 | 2004024c | भवन्ति बहुविघ्नानि कार्याण्येवंविधानि हि |
258 | 2004025a | विप्रोषितश्च भरतो यावदेव पुरादितः |
259 | 2004025c | तावदेवाभिषेकस्ते प्राप्तकालो मतो मम |
260 | 2004026a | कामं खलु सतां वृत्ते भ्राता ते भरतः स्थितः |
261 | 2004026c | ज्येष्ठानुवर्ती धर्मात्मा सानुक्रोशो जितेन्द्रियः |
262 | 2004027a | किं तु चित्तं मनुष्याणामनित्यमिति मे मतिः |
263 | 2004027c | सतां च धर्मनित्यानां कृतशोभि च राघव |
264 | 2004028a | इत्युक्तः सोऽभ्यनुज्ञातः श्वोभाविन्यभिषेचने |
265 | 2004028c | व्रजेति रामः पितरमभिवाद्याभ्ययाद्गृहम् |
266 | 2004029a | प्रविश्य चात्मनो वेश्म राज्ञोद्दिष्टेऽभिषेचने |
267 | 2004029c | तस्मिन्क्षणे विनिर्गत्य मातुरन्तःपुरं ययौ |
268 | 2004030a | तत्र तां प्रवणामेव मातरं क्षौमवासिनीम् |
269 | 2004030c | वाग्यतां देवतागारे ददर्श याचतीं श्रियम् |
270 | 2004031a | प्रागेव चागता तत्र सुमित्रा लक्ष्मणस्तथा |
271 | 2004031c | सीता चानायिता श्रुत्वा प्रियं रामाभिषेचनम् |
272 | 2004032a | तस्मिन्काले हि कौसल्या तस्थावामीलितेक्षणा |
273 | 2004032c | सुमित्रयान्वास्यमाना सीतया लक्ष्मणेन च |
274 | 2004033a | श्रुत्वा पुष्येण पुत्रस्य यौवराज्याभिषेचनम् |
275 | 2004033c | प्राणायामेन पुरुषं ध्यायमाना जनार्दनम् |
276 | 2004034a | तथा सनियमामेव सोऽभिगम्याभिवाद्य च |
277 | 2004034c | उवाच वचनं रामो हर्षयंस्तामिदं तदा |
278 | 2004035a | अम्ब पित्रा नियुक्तोऽस्मि प्रजापालनकर्मणि |
279 | 2004035c | भविता श्वोऽभिषेको मे यथा मे शासनं पितुः |
280 | 2004036a | सीतयाप्युपवस्तव्या रजनीयं मया सह |
281 | 2004036c | एवमृत्विगुपाध्यायैः सह मामुक्तवान्पिता |
282 | 2004037a | यानि यान्यत्र योग्यानि श्वोभाविन्यभिषेचने |
283 | 2004037c | तानि मे मङ्गलान्यद्य वैदेह्याश्चैव कारय |
284 | 2004038a | एतच्छ्रुत्वा तु कौसल्या चिरकालाभिकाङ्क्षितम् |
285 | 2004038c | हर्षबाष्पकलं वाक्यमिदं राममभाषत |
286 | 2004039a | वत्स राम चिरं जीव हतास्ते परिपन्थिनः |
287 | 2004039c | ज्ञातीन्मे त्वं श्रिया युक्तः सुमित्रायाश्च नन्दय |
288 | 2004040a | कल्याणे बत नक्षत्रे मयि जातोऽसि पुत्रक |
289 | 2004040c | येन त्वया दशरथो गुणैराराधितः पिता |
290 | 2004041a | अमोघं बत मे क्षान्तं पुरुषे पुष्करेक्षणे |
291 | 2004041c | येयमिक्ष्वाकुराज्यश्रीः पुत्र त्वां संश्रयिष्यति |
292 | 2004042a | इत्येवमुक्तो मात्रेदं रामो भारतमब्रवीत् |
293 | 2004042c | प्राञ्जलिं प्रह्वमासीनमभिवीक्ष्य स्मयन्निव |
294 | 2004043a | लक्ष्मणेमां मया सार्धं प्रशाधि त्वं वसुंधराम् |
295 | 2004043c | द्वितीयं मेऽन्तरात्मानं त्वामियं श्रीरुपस्थिता |
296 | 2004044a | सौमित्रे भुङ्क्ष्व भोगांस्त्वमिष्टान्राज्यफलानि च |
297 | 2004044c | जीवितं च हि राज्यं च त्वदर्थमभिकामये |
298 | 2004045a | इत्युक्त्वा लक्ष्मणं रामो मातरावभिवाद्य च |
299 | 2004045c | अभ्यनुज्ञाप्य सीतां च जगाम स्वं निवेशनम् |
300 | 2005001a | संदिश्य रामं नृपतिः श्वोभाविन्यभिषेचने |
301 | 2005001c | पुरोहितं समाहूय वसिष्ठमिदमब्रवीत् |
302 | 2005002a | गच्छोपवासं काकुत्स्थं कारयाद्य तपोधन |
303 | 2005002c | श्रीयशोराज्यलाभाय वध्वा सह यतव्रतम् |
304 | 2005003a | तथेति च स राजानमुक्त्वा वेदविदां वरः |
305 | 2005003c | स्वयं वसिष्ठो भगवान्ययौ रामनिवेशनम् |
306 | 2005004a | स रामभवनं प्राप्य पाण्डुराभ्रघनप्रभम् |
307 | 2005004c | तिस्रः कक्ष्या रथेनैव विवेश मुनिसत्तमः |
308 | 2005005a | तमागतमृषिं रामस्त्वरन्निव ससंभ्रमः |
309 | 2005005c | मानयिष्यन्स मानार्हं निश्चक्राम निवेशनात् |
310 | 2005006a | अभ्येत्य त्वरमाणश्च रथाभ्याशं मनीषिणः |
311 | 2005006c | ततोऽवतारयामास परिगृह्य रथात्स्वयम् |
312 | 2005007a | स चैनं प्रश्रितं दृष्ट्वा संभाष्याभिप्रसाद्य च |
313 | 2005007c | प्रियार्हं हर्षयन्राममित्युवाच पुरोहितः |
314 | 2005008a | प्रसन्नस्ते पिता राम यौवराज्यमवाप्स्यसि |
315 | 2005008c | उपवासं भवानद्य करोतु सह सीतया |
316 | 2005009a | प्रातस्त्वामभिषेक्ता हि यौवराज्ये नराधिपः |
317 | 2005009c | पिता दशरथः प्रीत्या ययातिं नहुषो यथा |
318 | 2005010a | इत्युक्त्वा स तदा राममुपवासं यतव्रतम् |
319 | 2005010c | मन्त्रवत्कारयामास वैदेह्या सहितं मुनिः |
320 | 2005011a | ततो यथावद्रामेण स राज्ञो गुरुरर्चितः |
321 | 2005011c | अभ्यनुज्ञाप्य काकुत्स्थं ययौ रामनिवेशनात् |
322 | 2005012a | सुहृद्भिस्तत्र रामोऽपि ताननुज्ञाप्य सर्वशः |
323 | 2005012c | सभाजितो विवेशाथ ताननुज्ञाप्य सर्वशः |
324 | 2005013a | हृष्टनारी नरयुतं रामवेश्म तदा बभौ |
325 | 2005013c | यथा मत्तद्विजगणं प्रफुल्लनलिनं सरः |
326 | 2005014a | स राजभवनप्रख्यात्तस्माद्रामनिवेशनात् |
327 | 2005014c | निर्गत्य ददृशे मार्गं वसिष्ठो जनसंवृतम् |
328 | 2005015a | वृन्दवृन्दैरयोध्यायां राजमार्गाः समन्ततः |
329 | 2005015c | बभूवुरभिसंबाधाः कुतूहलजनैर्वृताः |
330 | 2005016a | जनवृन्दोर्मिसंघर्षहर्षस्वनवतस्तदा |
331 | 2005016c | बभूव राजमार्गस्य सागरस्येव निस्वनः |
332 | 2005017a | सिक्तसंमृष्टरथ्या हि तदहर्वनमालिनी |
333 | 2005017c | आसीदयोध्या नगरी समुच्छ्रितगृहध्वजा |
334 | 2005018a | तदा ह्ययोध्या निलयः सस्त्रीबालाबलो जनः |
335 | 2005018c | रामाभिषेकमाकाङ्क्षन्नाकाङ्क्षन्नुदयं रवेः |
336 | 2005019a | प्रजालंकारभूतं च जनस्यानन्दवर्धनम् |
337 | 2005019c | उत्सुकोऽभूज्जनो द्रष्टुं तमयोध्या महोत्सवम् |
338 | 2005020a | एवं तं जनसंबाधं राजमार्गं पुरोहितः |
339 | 2005020c | व्यूहन्निव जनौघं तं शनै राज कुलं ययौ |
340 | 2005021a | सिताभ्रशिखरप्रख्यं प्रासदमधिरुह्य सः |
341 | 2005021c | समियाय नरेन्द्रेण शक्रेणेव बृहस्पतिः |
342 | 2005022a | तमागतमभिप्रेक्ष्य हित्वा राजासनं नृपः |
343 | 2005022c | पप्रच्छ स च तस्मै तत्कृतमित्यभ्यवेदयत् |
344 | 2005023a | गुरुणा त्वभ्यनुज्ञातो मनुजौघं विसृज्य तम् |
345 | 2005023c | विवेशान्तःपुरं राजा सिंहो गिरिगुहामिव |
346 | 2005024a | तदग्र्यवेषप्रमदाजनाकुलं; महेन्द्रवेश्मप्रतिमं निवेशनम् |
347 | 2005024c | व्यदीपयंश्चारु विवेश पार्थिवः; शशीव तारागणसंकुलं नभः |
348 | 2006001a | गते पुरोहिते रामः स्नातो नियतमानसः |
349 | 2006001c | सह पत्न्या विशालाक्ष्या नारायणमुपागमत् |
350 | 2006002a | प्रगृह्य शिरसा पात्रीं हविषो विधिवत्तदा |
351 | 2006002c | महते दैवतायाज्यं जुहाव ज्वलितेऽनले |
352 | 2006003a | शेषं च हविषस्तस्य प्राश्याशास्यात्मनः प्रियम् |
353 | 2006003c | ध्यायन्नारायणं देवं स्वास्तीर्णे कुशसंस्तरे |
354 | 2006004a | वाग्यतः सह वैदेह्या भूत्वा नियतमानसः |
355 | 2006004c | श्रीमत्यायतने विष्णोः शिश्ये नरवरात्मजः |
356 | 2006005a | एकयामावशिष्टायां रात्र्यां प्रतिविबुध्य सः |
357 | 2006005c | अलंकारविधिं कृत्स्नं कारयामास वेश्मनः |
358 | 2006006a | तत्र शृण्वन्सुखा वाचः सूतमागधबन्दिनाम् |
359 | 2006006c | पूर्वां संध्यामुपासीनो जजाप यतमानसः |
360 | 2006007a | तुष्टाव प्रणतश्चैव शिरसा मधुसूदनम् |
361 | 2006007c | विमलक्षौमसंवीतो वाचयामास च द्विजान् |
362 | 2006008a | तेषां पुण्याहघोषोऽथ गम्भीरमधुरस्तदा |
363 | 2006008c | अयोध्यां पूरयामास तूर्यघोषानुनादितः |
364 | 2006009a | कृतोपवासं तु तदा वैदेह्या सह राघवम् |
365 | 2006009c | अयोध्या निलयः श्रुत्वा सर्वः प्रमुदितो जनः |
366 | 2006010a | ततः पौरजनः सर्वः श्रुत्वा रामाभिषेचनम् |
367 | 2006010c | प्रभातां रजनीं दृष्ट्वा चक्रे शोभां परां पुनः |
368 | 2006011a | सिताभ्रशिखराभेषु देवतायतनेषु च |
369 | 2006011c | चतुष्पथेषु रथ्यासु चैत्येष्वट्टालकेषु च |
370 | 2006012a | नानापण्यसमृद्धेषु वणिजामापणेषु च |
371 | 2006012c | कुटुम्बिनां समृद्धेषु श्रीमत्सु भवनेषु च |
372 | 2006013a | सभासु चैव सर्वासु वृक्षेष्वालक्षितेषु च |
373 | 2006013c | ध्वजाः समुच्छ्रिताश्चित्राः पताकाश्चाभवंस्तदा |
374 | 2006014a | नटनर्तकसंघानां गायकानां च गायताम् |
375 | 2006014c | मनःकर्णसुखा वाचः शुश्रुवुश्च ततस्ततः |
376 | 2006015a | रामाभिषेकयुक्ताश्च कथाश्चक्रुर्मिथो जनाः |
377 | 2006015c | रामाभिषेके संप्राप्ते चत्वरेषु गृहेषु च |
378 | 2006016a | बाला अपि क्रीडमाना गृहद्वारेषु संघशः |
379 | 2006016c | रामाभिषेकसंयुक्ताश्चक्रुरेव मिथः कथाः |
380 | 2006017a | कृतपुष्पोपहारश्च धूपगन्धाधिवासितः |
381 | 2006017c | राजमार्गः कृतः श्रीमान्पौरै रामाभिषेचने |
382 | 2006018a | प्रकाशीकरणार्थं च निशागमनशङ्कया |
383 | 2006018c | दीपवृक्षांस्तथा चक्रुरनु रथ्यासु सर्वशः |
384 | 2006019a | अलंकारं पुरस्यैवं कृत्वा तत्पुरवासिनः |
385 | 2006019c | आकाङ्क्षमाणा रामस्य यौवराज्याभिषेचनम् |
386 | 2006020a | समेत्य संघशः सर्वे चत्वरेषु सभासु च |
387 | 2006020c | कथयन्तो मिथस्तत्र प्रशशंसुर्जनाधिपम् |
388 | 2006021a | अहो महात्मा राजायमिक्ष्वाकुकुलनन्दनः |
389 | 2006021c | ज्ञात्वा यो वृद्धमात्मानं रामं राज्येऽह्बिषेक्ष्यति |
390 | 2006022a | सर्वे ह्यनुगृहीताः स्म यन्नो रामो महीपतिः |
391 | 2006022c | चिराय भविता गोप्ता दृष्टलोकपरावरः |
392 | 2006023a | अनुद्धतमना विद्वान्धर्मात्मा भ्रातृवत्सलः |
393 | 2006023c | यथा च भ्रातृषु स्निग्धस्तथास्मास्वपि राघवः |
394 | 2006024a | चिरं जीवतु धर्मात्मा राजा दशरथोऽनघः |
395 | 2006024c | यत्प्रसादेनाभिषिक्तं रामं द्रक्ष्यामहे वयम् |
396 | 2006025a | एवंविधं कथयतां पौराणां शुश्रुवुस्तदा |
397 | 2006025c | दिग्भ्योऽपि श्रुतवृत्तान्ताः प्राप्ता जानपदा जनाः |
398 | 2006026a | ते तु दिग्भ्यः पुरीं प्राप्ता द्रष्टुं रामाभिषेचनम् |
399 | 2006026c | रामस्य पूरयामासुः पुरीं जानपदा जनाः |
400 | 2006027a | जनौघैस्तैर्विसर्पद्भिः शुश्रुवे तत्र निस्वनः |
401 | 2006027c | पर्वसूदीर्णवेगस्य सागरस्येव निस्वनः |
402 | 2006028a | ततस्तदिन्द्रक्षयसंनिभं पुरं; दिदृक्षुभिर्जानपदैरुपागतैः |
403 | 2006028c | समन्ततः सस्वनमाकुलं बभौ; समुद्रयादोभिरिवार्णवोदकम् |
404 | 2007001a | ज्ञातिदासी यतो जाता कैकेय्यास्तु सहोषिता |
405 | 2007001c | प्रासादं चन्द्रसंकाशमारुरोह यदृच्छया |
406 | 2007002a | सिक्तराजपथां कृत्स्नां प्रकीर्णकमलोत्पलाम् |
407 | 2007002c | अयोध्यां मन्थरा तस्मात्प्रासादादन्ववैक्षत |
408 | 2007003a | पताकाभिर्वरार्हाभिर्ध्वजैश्च समलंकृताम् |
409 | 2007003c | सिक्तां चन्दनतोयैश्च शिरःस्नातजनैर्वृताम् |
410 | 2007004a | अविदूरे स्थितां दृष्ट्वा धात्रीं पप्रच्छ मन्थरा |
411 | 2007004c | उत्तमेनाभिसंयुक्ता हर्षेणार्थपरा सती |
412 | 2007005a | राममाता धनं किं नु जनेभ्यः संप्रयच्छति |
413 | 2007005c | अतिमात्रं प्रहर्षोऽयं किं जनस्य च शंस मे |
414 | 2007005e | कारयिष्यति किं वापि संप्रहृष्टो महीपतिः |
415 | 2007006a | विदीर्यमाणा हर्षेण धात्री परमया मुदा |
416 | 2007006c | आचचक्षेऽथ कुब्जायै भूयसीं राघवे श्रियम् |
417 | 2007007a | श्वः पुष्येण जितक्रोधं यौवराज्येन राघवम् |
418 | 2007007c | राजा दशरथो राममभिषेचयितानघम् |
419 | 2007008a | धात्र्यास्तु वचनं श्रुत्वा कुब्जा क्षिप्रममर्षिता |
420 | 2007008c | कैलास शिखराकारात्प्रासादादवरोहत |
421 | 2007009a | सा दह्यमाना कोपेन मन्थरा पापदर्शिनी |
422 | 2007009c | शयानामेत्य कैकेयीमिदं वचनमब्रवीत् |
423 | 2007010a | उत्तिष्ठ मूढे किं शेषे भयं त्वामभिवर्तते |
424 | 2007010c | उपप्लुतमहौघेन किमात्मानं न बुध्यसे |
425 | 2007011a | अनिष्टे सुभगाकारे सौभाग्येन विकत्थसे |
426 | 2007011c | चलं हि तव सौभाग्यं नद्यः स्रोत इवोष्णगे |
427 | 2007012a | एवमुक्ता तु कैकेयी रुष्टया परुषं वचः |
428 | 2007012c | कुब्जया पापदर्शिन्या विषादमगमत्परम् |
429 | 2007013a | कैकेयी त्वब्रवीत्कुब्जां कच्चित्क्षेमं न मन्थरे |
430 | 2007013c | विषण्णवदनां हि त्वां लक्षये भृशदुःखिताम् |
431 | 2007014a | मन्थरा तु वचः श्रुत्वा कैकेय्या मधुराक्षरम् |
432 | 2007014c | उवाच क्रोधसंयुक्ता वाक्यं वाक्यविशारदा |
433 | 2007015a | सा विषण्णतरा भूत्वा कुब्जा तस्या हितैषिणी |
434 | 2007015c | विषादयन्ती प्रोवाच भेदयन्ती च राघवम् |
435 | 2007016a | अक्षेमं सुमहद्देवि प्रवृत्तं त्वद्विनाशनम् |
436 | 2007016c | रामं दशरथो राजा यौवराज्येऽभिषेक्ष्यति |
437 | 2007017a | सास्म्यगाधे भये मग्ना दुःखशोकसमन्विता |
438 | 2007017c | दह्यमानानलेनेव त्वद्धितार्थमिहागता |
439 | 2007018a | तव दुःखेन कैकेयि मम दुःखं महद्भवेत् |
440 | 2007018c | त्वद्वृद्धौ मम वृद्धिश्च भवेदत्र न संशयः |
441 | 2007019a | नराधिपकुले जाता महिषी त्वं महीपतेः |
442 | 2007019c | उग्रत्वं राजधर्माणां कथं देवि न बुध्यसे |
443 | 2007020a | धर्मवादी शठो भर्ता श्लक्ष्णवादी च दारुणः |
444 | 2007020c | शुद्धभावे न जानीषे तेनैवमतिसंधिता |
445 | 2007021a | उपस्थितं पयुञ्जानस्त्वयि सान्त्वमनर्थकम् |
446 | 2007021c | अर्थेनैवाद्य ते भर्ता कौसल्यां योजयिष्यति |
447 | 2007022a | अपवाह्य स दुष्टात्मा भरतं तव बन्धुषु |
448 | 2007022c | काल्यं स्थापयिता रामं राज्ये निहतकण्टके |
449 | 2007023a | शत्रुः पतिप्रवादेन मात्रेव हितकाम्यया |
450 | 2007023c | आशीविष इवाङ्केन बाले परिधृतस्त्वया |
451 | 2007024a | यथा हि कुर्यात्सर्पो वा शत्रुर्वा प्रत्युपेक्षितः |
452 | 2007024c | राज्ञा दशरथेनाद्य सपुत्रा त्वं तथा कृता |
453 | 2007025a | पापेनानृतसन्त्वेन बाले नित्यं सुखोचिते |
454 | 2007025c | रामं स्थापयता राज्ये सानुबन्धा हता ह्यसि |
455 | 2007026a | सा प्राप्तकालं कैकेयि क्षिप्रं कुरु हितं तव |
456 | 2007026c | त्रायस्व पुत्रमात्मानं मां च विस्मयदर्शने |
457 | 2007027a | मन्थराया वचः श्रुत्वा शयनात्स शुभानना |
458 | 2007027c | एवमाभरणं तस्यै कुब्जायै प्रददौ शुभम् |
459 | 2007028a | दत्त्वा त्वाभरणं तस्यै कुब्जायै प्रमदोत्तमा |
460 | 2007028c | कैकेयी मन्थरां हृष्टा पुनरेवाब्रवीदिदम् |
461 | 2007029a | इदं तु मन्थरे मह्यमाख्यासि परमं प्रियम् |
462 | 2007029c | एतन्मे प्रियमाख्यातुः किं वा भूयः करोमि ते |
463 | 2007030a | रामे वा भरते वाहं विशेषं नोपलक्षये |
464 | 2007030c | तस्मात्तुष्टास्मि यद्राजा रामं राज्येऽभिषेक्ष्यति |
465 | 2007031a | न मे परं किंचिदितस्त्वया पुनः; प्रियं प्रियार्हे सुवचं वचो वरम् |
466 | 2007031c | तथा ह्यवोचस्त्वमतः प्रियोत्तरं; वरं परं ते प्रददामि तं वृणु |
467 | 2008001a | मन्थरा त्वभ्यसूय्यैनामुत्सृज्याभरणं च तत् |
468 | 2008001c | उवाचेदं ततो वाक्यं कोपदुःखसमन्विता |
469 | 2008002a | हर्षं किमिदमस्थाने कृतवत्यसि बालिशे |
470 | 2008002c | शोकसागरमध्यस्थमात्मानं नावबुध्यसे |
471 | 2008003a | सुभगा खलु कौसल्या यस्याः पुत्रोऽभिषेक्ष्यते |
472 | 2008003c | यौवराज्येन महता श्वः पुष्येण द्विजोत्तमैः |
473 | 2008004a | प्राप्तां सुमहतीं प्रीतिं प्रतीतां तां हतद्विषम् |
474 | 2008004c | उपस्थास्यसि कौसल्यां दासीव त्वं कृताञ्जलिः |
475 | 2008005a | हृष्टाः खलु भविष्यन्ति रामस्य परमाः स्त्रियः |
476 | 2008005c | अप्रहृष्टा भविष्यन्ति स्नुषास्ते भरतक्षये |
477 | 2008006a | तां दृष्ट्वा परमप्रीतां ब्रुवन्तीं मन्थरां ततः |
478 | 2008006c | रामस्यैव गुणान्देवी कैकेयी प्रशशंस ह |
479 | 2008007a | धर्मज्ञो गुरुभिर्दान्तः कृतज्ञः सत्यवाक्शुचिः |
480 | 2008007c | रामो राज्ञः सुतो ज्येष्ठो यौवराज्यमतोऽर्हति |
481 | 2008008a | भ्रातॄन्भृत्यांश्च दीर्घायुः पितृवत्पालयिष्यति |
482 | 2008008c | संतप्यसे कथं कुब्जे श्रुत्वा रामाभिषेचनम् |
483 | 2008009a | भरतश्चापि रामस्य ध्रुवं वर्षशतात्परम् |
484 | 2008009c | पितृपैतामहं राज्यमवाप्स्यति नरर्षभः |
485 | 2008010a | सा त्वमभ्युदये प्राप्ते वर्तमाने च मन्थरे |
486 | 2008010c | भविष्यति च कल्याणे किमर्थं परितप्यसे |
487 | 2008010e | कौसल्यातोऽतिरिक्तं च स तु शुश्रूषते हि माम् |
488 | 2008011a | कैकेय्या वचनं श्रुत्वा मन्थरा भृशदुःखिता |
489 | 2008011c | दीर्घमुष्णं विनिःश्वस्य कैकेयीमिदमब्रवीत् |
490 | 2008012a | अनर्थदर्शिनी मौर्ख्यान्नात्मानमवबुध्यसे |
491 | 2008012c | शोकव्यसनविस्तीर्णे मज्जन्ती दुःखसागरे |
492 | 2008013a | भविता राघवो राजा राघवस्य च यः सुतः |
493 | 2008013c | राजवंशात्तु भरतः कैकेयि परिहास्यते |
494 | 2008014a | न हि राज्ञः सुताः सर्वे राज्ये तिष्ठन्ति भामिनि |
495 | 2008014c | स्थाप्यमानेषु सर्वेषु सुमहाननयो भवेत् |
496 | 2008015a | तस्माज्ज्येष्ठे हि कैकेयि राज्यतन्त्राणि पार्थिवाः |
497 | 2008015c | स्थापयन्त्यनवद्याङ्गि गुणवत्स्वितरेष्वपि |
498 | 2008016a | असावत्यन्तनिर्भग्नस्तव पुत्रो भविष्यति |
499 | 2008016c | अनाथवत्सुखेभ्यश्च राजवंशाच्च वत्सले |
500 | 2008017a | साहं त्वदर्थे संप्राप्ता त्वं तु मां नावबुध्यसे |
501 | 2008017c | सपत्निवृद्धौ या मे त्वं प्रदेयं दातुमिच्छसि |
502 | 2008018a | ध्रुवं तु भरतं रामः प्राप्य राज्यमकण्टकम् |
503 | 2008018c | देशान्तरं नाययित्वा लोकान्तरमथापि वा |
504 | 2008019a | बाल एव हि मातुल्यं भरतो नायितस्त्वया |
505 | 2008019c | संनिकर्षाच्च सौहार्दं जायते स्थावरेष्वपि |
506 | 2008020a | गोप्ता हि रामं सौमित्रिर्लक्ष्मणं चापि राघवः |
507 | 2008020c | अश्विनोरिव सौभ्रात्रं तयोर्लोकेषु विश्रुतम् |
508 | 2008021a | तस्मान्न लक्ष्मणे रामः पापं किंचित्करिष्यति |
509 | 2008021c | रामस्तु भरते पापं कुर्यादिति न संशयः |
510 | 2008022a | तस्माद्राजगृहादेव वनं गच्छतु ते सुतः |
511 | 2008022c | एतद्धि रोचते मह्यं भृशं चापि हितं तव |
512 | 2008023a | एवं ते ज्ञातिपक्षस्य श्रेयश्चैव भविष्यति |
513 | 2008023c | यदि चेद्भरतो धर्मात्पित्र्यं राज्यमवाप्स्यति |
514 | 2008024a | स ते सुखोचितो बालो रामस्य सहजो रिपुः |
515 | 2008024c | समृधार्थस्य नष्टार्थो जीविष्यति कथं वशे |
516 | 2008025a | अभिद्रुतमिवारण्ये सिंहेन गजयूथपम् |
517 | 2008025c | प्रच्छाद्यमानं रामेण भरतं त्रातुमर्हसि |
518 | 2008026a | दर्पान्निराकृता पूर्वं त्वया सौभाग्यवत्तया |
519 | 2008026c | राममाता सपत्नी ते कथं वैरं न यातयेत् |
520 | 2008027a | यदा हि रामः पृथिवीमवाप्स्यति; ध्रुवं प्रनष्टो भरतो भविष्यति |
521 | 2008027c | अतो हि संचिन्तय राज्यमात्मजे; परस्य चाद्यैव विवास कारणम् |
522 | 2009001a | एवमुक्ता तु कैकेयी क्रोधेन ज्वलितानना |
523 | 2009001c | दीर्घमुष्णं विनिःश्वस्य मन्थरामिदमब्रवीत् |
524 | 2009002a | अद्य राममितः क्षिप्रं वनं प्रस्थापयाम्यहम् |
525 | 2009002c | यौवराज्येन भरतं क्षिप्रमेवाभिषेचये |
526 | 2009003a | इदं त्विदानीं संपश्य केनोपायेन मन्थरे |
527 | 2009003c | भरतः प्राप्नुयाद्राज्यं न तु रामः कथंचन |
528 | 2009004a | एवमुक्ता तया देव्या मन्थरा पापदर्शिनी |
529 | 2009004c | रामार्थमुपहिंसन्ती कैकेयीमिदमब्रवीत् |
530 | 2009005a | हन्तेदानीं प्रवक्ष्यामि कैकेयि श्रूयतां च मे |
531 | 2009005c | यथा ते भरतो राज्यं पुत्रः प्राप्स्यति केवलम् |
532 | 2009006a | श्रुत्वैवं वचनं तस्या मन्थरायास्तु कैकयी |
533 | 2009006c | किंचिदुत्थाय शयनात्स्वास्तीर्णादिदमब्रवीत् |
534 | 2009007a | कथय त्वं ममोपायं केनोपायेन मन्थरे |
535 | 2009007c | भरतः प्राप्नुयाद्राज्यं न तु रामः कथंचन |
536 | 2009008a | एवमुक्ता तया देव्या मन्थरा पापदर्शिनी |
537 | 2009008c | रामार्थमुपहिंसन्ती कुब्जा वचनमब्रवीत् |
538 | 2009009a | तव देवासुरे युद्धे सह राजर्षिभिः पतिः |
539 | 2009009c | अगच्छत्त्वामुपादाय देवराजस्य साह्यकृत् |
540 | 2009010a | दिशमास्थाय कैकेयि दक्षिणां दण्डकान्प्रति |
541 | 2009010c | वैजयन्तमिति ख्यातं पुरं यत्र तिमिध्वजः |
542 | 2009011a | स शम्बर इति ख्यातः शतमायो महासुरः |
543 | 2009011c | ददौ शक्रस्य संग्रामं देवसंघैरनिर्जितः |
544 | 2009012a | तस्मिन्महति संग्रामे राजा दशरथस्तदा |
545 | 2009012c | अपवाह्य त्वया देवि संग्रामान्नष्टचेतनः |
546 | 2009013a | तत्रापि विक्षतः शस्त्रैः पतिस्ते रक्षितस्त्वया |
547 | 2009013c | तुष्टेन तेन दत्तौ ते द्वौ वरौ शुभदर्शने |
548 | 2009014a | स त्वयोक्तः पतिर्देवि यदेच्छेयं तदा वरौ |
549 | 2009014c | गृह्णीयामिति तत्तेन तथेत्युक्तं महात्मना |
550 | 2009014e | अनभिज्ञा ह्यहं देवि त्वयैव कथितं पुरा |
551 | 2009015a | तौ वरौ याच भर्तारं भरतस्याभिषेचनम् |
552 | 2009015c | प्रव्राजनं च रामस्य त्वं वर्षाणि चतुर्दश |
553 | 2009016a | क्रोधागारं प्रविश्याद्य क्रुद्धेवाश्वपतेः सुते |
554 | 2009016c | शेष्वानन्तर्हितायां त्वं भूमौ मलिनवासिनी |
555 | 2009016e | मा स्मैनं प्रत्युदीक्षेथा मा चैनमभिभाषथाः |
556 | 2009017a | दयिता त्वं सदा भर्तुरत्र मे नास्ति संशयः |
557 | 2009017c | त्वत्कृते च महाराजो विशेदपि हुताशनम् |
558 | 2009018a | न त्वां क्रोधयितुं शक्तो न क्रुद्धां प्रत्युदीक्षितुम् |
559 | 2009018c | तव प्रियार्थं राजा हि प्राणानपि परित्यजेत् |
560 | 2009019a | न ह्यतिक्रमितुं शक्तस्तव वाक्यं महीपतिः |
561 | 2009019c | मन्दस्वभावे बुध्यस्व सौभाग्यबलमात्मनः |
562 | 2009020a | मणिमुक्तासुवर्णानि रत्नानि विविधानि च |
563 | 2009020c | दद्याद्दशरथो राजा मा स्म तेषु मनः कृथाः |
564 | 2009021a | यौ तौ देवासुरे युद्धे वरौ दशरथोऽददात् |
565 | 2009021c | तौ स्मारय महाभागे सोऽर्थो मा त्वामतिक्रमेत् |
566 | 2009022a | यदा तु ते वरं दद्यात्स्वयमुत्थाप्य राघवः |
567 | 2009022c | व्यवस्थाप्य महाराजं त्वमिमं वृणुया वरम् |
568 | 2009023a | रामं प्रव्राजयारण्ये नव वर्षाणि पञ्च च |
569 | 2009023c | भरतः क्रियतां राजा पृथिव्यां पार्थिवर्षभः |
570 | 2009024a | एवं प्रव्राजितश्चैव रामोऽरामो भविष्यति |
571 | 2009024c | भरतश्च हतामित्रस्तव राजा भविष्यति |
572 | 2009025a | येन कालेन रामश्च वनात्प्रत्यागमिष्यति |
573 | 2009025c | तेन कालेन पुत्रस्ते कृतमूलो भविष्यति |
574 | 2009025e | संगृहीतमनुष्यश्च सुहृद्भिः सार्धमात्मवान् |
575 | 2009026a | प्राप्तकालं तु ते मन्ये राजानं वीतसाध्वसा |
576 | 2009026c | रामाभिषेकसंकल्पान्निगृह्य विनिवर्तय |
577 | 2009027a | अनर्थमर्थरूपेण ग्राहिता सा ततस्तया |
578 | 2009027c | हृष्टा प्रतीता कैकेयी मन्थरामिदमब्रवीत् |
579 | 2009028a | कुब्जे त्वां नाभिजानामि श्रेष्ठां श्रेष्ठाभिधायिनीम् |
580 | 2009028c | पृथिव्यामसि कुब्जानामुत्तमा बुद्धिनिश्चये |
581 | 2009029a | त्वमेव तु ममार्थेषु नित्ययुक्ता हितैषिणी |
582 | 2009029c | नाहं समवबुध्येयं कुब्जे राज्ञश्चिकीर्षितम् |
583 | 2009030a | सन्ति दुःसंस्थिताः कुब्जा वक्राः परमपापिकाः |
584 | 2009030c | त्वं पद्ममिव वातेन संनता प्रियदर्शना |
585 | 2009031a | उरस्तेऽभिनिविष्टं वै यावत्स्कन्धात्समुन्नतम् |
586 | 2009031c | अधस्ताच्चोदरं शान्तं सुनाभमिव लज्जितम् |
587 | 2009032a | जघनं तव निर्घुष्टं रशनादामशोभितम् |
588 | 2009032c | जङ्घे भृशमुपन्यस्ते पादौ चाप्यायतावुभौ |
589 | 2009033a | त्वमायताभ्यां सक्थिभ्यां मन्थरे क्षौमवासिनि |
590 | 2009033c | अग्रतो मम गच्छन्ती राजहंसीव राजसे |
591 | 2009034a | तवेदं स्थगु यद्दीर्घं रथघोणमिवायतम् |
592 | 2009034c | मतयः क्षत्रविद्याश्च मायाश्चात्र वसन्ति ते |
593 | 2009035a | अत्र ते प्रतिमोक्ष्यामि मालां कुब्जे हिरण्मयीम् |
594 | 2009035c | अभिषिक्ते च भरते राघवे च वनं गते |
595 | 2009036a | जात्येन च सुवर्णेन सुनिष्टप्तेन सुन्दरि |
596 | 2009036c | लब्धार्था च प्रतीता च लेपयिष्यामि ते स्थगु |
597 | 2009037a | मुखे च तिलकं चित्रं जातरूपमयं शुभम् |
598 | 2009037c | कारयिष्यामि ते कुब्जे शुभान्याभरणानि च |
599 | 2009038a | परिधाय शुभे वस्त्रे देवदेव चरिष्यसि |
600 | 2009038c | चन्द्रमाह्वयमानेन मुखेनाप्रतिमानना |
601 | 2009038e | गमिष्यसि गतिं मुख्यां गर्वयन्ती द्विषज्जनम् |
602 | 2009039a | तवापि कुब्जाः कुब्जायाः सर्वाभरणभूषिताः |
603 | 2009039c | पादौ परिचरिष्यन्ति यथैव त्वं सदा मम |
604 | 2009040a | इति प्रशस्यमाना सा कैकेयीमिदमब्रवीत् |
605 | 2009040c | शयानां शयने शुभ्रे वेद्यामग्निशिखामिव |
606 | 2009041a | गतोदके सेतुबन्धो न कल्याणि विधीयते |
607 | 2009041c | उत्तिष्ठ कुरु कल्याणं राजानमनुदर्शय |
608 | 2009042a | तथा प्रोत्साहिता देवी गत्वा मन्थरया सह |
609 | 2009042c | क्रोधागारं विशालाक्षी सौभाग्यमदगर्विता |
610 | 2009043a | अनेकशतसाहस्रं मुक्ताहारं वराङ्गना |
611 | 2009043c | अवमुच्य वरार्हाणि शुभान्याभरणानि च |
612 | 2009044a | ततो हेमोपमा तत्र कुब्जा वाक्यं वशं गता |
613 | 2009044c | संविश्य भूमौ कैकेयी मन्थरामिदमब्रवीत् |
614 | 2009045a | इह वा मां मृतां कुब्जे नृपायावेदयिष्यसि |
615 | 2009045c | वनं तु राघवे प्राप्ते भरतः प्राप्स्यति क्षितिम् |
616 | 2009046a | अथैतदुक्त्वा वचनं सुदारुणं; निधाय सर्वाभरणानि भामिनी |
617 | 2009046c | असंवृतामास्तरणेन मेदिनीं; तदाधिशिश्ये पतितेव किन्नरी |
618 | 2009047a | उदीर्णसंरम्भतमोवृतानना; तथावमुक्तोत्तममाल्यभूषणा |
619 | 2009047c | नरेन्द्रपत्नी विमना बभूव सा; तमोवृता द्यौरिव मग्नतारका |
620 | 2010001a | आज्ञाप्य तु महाराजो राघवस्याभिषेचनम् |
621 | 2010001c | प्रियार्हां प्रियमाख्यातुं विवेशान्तःपुरं वशी |
622 | 2010002a | तां तत्र पतितां भूमौ शयानामतथोचिताम् |
623 | 2010002c | प्रतप्त इव दुःखेन सोऽपश्यज्जगतीपतिः |
624 | 2010003a | स वृद्धस्तरुणीं भार्यां प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम् |
625 | 2010003c | अपापः पापसंकल्पां ददर्श धरणीतले |
626 | 2010004a | करेणुमिव दिग्धेन विद्धां मृगयुणा वने |
627 | 2010004c | महागज इवारण्ये स्नेहात्परिममर्श ताम् |
628 | 2010005a | परिमृश्य च पाणिभ्यामभिसंत्रस्तचेतनः |
629 | 2010005c | कामी कमलपत्राक्षीमुवाच वनितामिदम् |
630 | 2010006a | न तेऽहमभिजानामि क्रोधमात्मनि संश्रितम् |
631 | 2010006c | देवि केनाभियुक्तासि केन वासि विमानिता |
632 | 2010007a | यदिदं मम दुःखाय शेषे कल्याणि पांसुषु |
633 | 2010007c | भूमौ शेषे किमर्थं त्वं मयि कल्याण चेतसि |
634 | 2010007e | भूतोपहतचित्तेव मम चित्तप्रमाथिनी |
635 | 2010008a | सन्ति मे कुशला वैद्या अभितुष्टाश्च सर्वशः |
636 | 2010008c | सुखितां त्वां करिष्यन्ति व्याधिमाचक्ष्व भामिनि |
637 | 2010009a | कस्य वा ते प्रियं कार्यं केन वा विप्रियं कृतम् |
638 | 2010009c | कः प्रियं लभतामद्य को वा सुमहदप्रियम् |
639 | 2010010a | अवध्यो वध्यतां को वा वध्यः को वा विमुच्यताम् |
640 | 2010010c | दरिद्रः को भवत्वाढ्यो द्रव्यवान्वाप्यकिंचनः |
641 | 2010011a | अहं चैव मदीयाश्च सर्वे तव वशानुगाः |
642 | 2010011c | न ते कंचिदभिप्रायं व्याहन्तुमहमुत्सहे |
643 | 2010012a | आत्मनो जीवितेनापि ब्रूहि यन्मनसेच्छसि |
644 | 2010012c | यावदावर्तते चक्रं तावती मे वसुंधरा |
645 | 2010013a | तथोक्ता सा समाश्वस्ता वक्तुकामा तदप्रियम् |
646 | 2010013c | परिपीडयितुं भूयो भर्तारमुपचक्रमे |
647 | 2010014a | नास्मि विप्रकृता देव केनचिन्न विमानिता |
648 | 2010014c | अभिप्रायस्तु मे कश्चित्तमिच्छामि त्वया कृतम् |
649 | 2010015a | प्रतिज्ञां प्रतिजानीष्व यदि त्वं कर्तुमिच्छसि |
650 | 2010015c | अथ तद्व्याहरिष्यामि यदभिप्रार्थितं मया |
651 | 2010016a | एवमुक्तस्तया राजा प्रियया स्त्रीवशं गतः |
652 | 2010016c | तामुवाच महातेजाः कैकेयीमीषदुत्स्मितः |
653 | 2010017a | अवलिप्ते न जानासि त्वत्तः प्रियतरो मम |
654 | 2010017c | मनुजो मनुजव्याघ्राद्रामादन्यो न विद्यते |
655 | 2010018a | भद्रे हृदयमप्येतदनुमृश्श्योद्धरस्व मे |
656 | 2010018c | एतत्समीक्ष्य कैकेयि ब्रूहि यत्साधु मन्यसे |
657 | 2010019a | बलमात्मनि पश्यन्ती न मां शङ्कितुमर्हसि |
658 | 2010019c | करिष्यामि तव प्रीतिं सुकृतेनापि ते शपे |
659 | 2010020a | तेन वाक्येन संहृष्टा तमभिप्रायमात्मनः |
660 | 2010020c | व्याजहार महाघोरमभ्यागतमिवान्तकम् |
661 | 2010021a | यथाक्रमेण शपसि वरं मम ददासि च |
662 | 2010021c | तच्छृण्वन्तु त्रयस्त्रिंशद्देवाः सेन्द्रपुरोगमाः |
663 | 2010022a | चन्द्रादित्यौ नभश्चैव ग्रहा रात्र्यहनी दिशः |
664 | 2010022c | जगच्च पृथिवी चैव सगन्धर्वा सराक्षसा |
665 | 2010023a | निशाचराणि भूतानि गृहेषु गृहदेवताः |
666 | 2010023c | यानि चान्यानि भूतानि जानीयुर्भाषितं तव |
667 | 2010024a | सत्यसंधो महातेजा धर्मज्ञः सुसमाहितः |
668 | 2010024c | वरं मम ददात्येष तन्मे शृण्वन्तु देवताः |
669 | 2010025a | इति देवी महेष्वासं परिगृह्याभिशस्य च |
670 | 2010025c | ततः परमुवाचेदं वरदं काममोहितम् |
671 | 2010026a | वरौ यौ मे त्वया देव तदा दत्तौ महीपते |
672 | 2010026c | तौ तावदहमद्यैव वक्ष्यामि शृणु मे वचः |
673 | 2010027a | अभिषेक समारम्भो राघवस्योपकल्पितः |
674 | 2010027c | अनेनैवाभिषेकेण भरतो मेऽभिषिच्यताम् |
675 | 2010028a | नव पञ्च च वर्षाणि दण्डकारण्यमाश्रितः |
676 | 2010028c | चीराजिनजटाधारी रामो भवतु तापसः |
677 | 2010029a | भरतो भजतामद्य यौवराज्यमकण्टकम् |
678 | 2010029c | अद्य चैव हि पश्येयं प्रयान्तं राघवं वने |
679 | 2010030a | ततः श्रुत्वा महाराज कैकेय्या दारुणं वचः |
680 | 2010030c | व्यथितो विलवश्चैव व्याघ्रीं दृष्ट्वा यथा मृगः |
681 | 2010031a | असंवृतायामासीनो जगत्यां दीर्घमुच्छ्वसन् |
682 | 2010031c | अहो धिगिति सामर्षो वाचमुक्त्वा नराधिपः |
683 | 2010031e | मोहमापेदिवान्भूयः शोकोपहतचेतनः |
684 | 2010032a | चिरेण तु नृपः संज्ञां प्रतिलभ्य सुदुःखितः |
685 | 2010032c | कैकेयीमब्रवीत्क्रुद्धः प्रदहन्निव चक्षुषा |
686 | 2010033a | नृशंसे दुष्टचारित्रे कुलस्यास्य विनाशिनि |
687 | 2010033c | किं कृतं तव रामेण पापे पापं मयापि वा |
688 | 2010034a | सदा ते जननी तुल्यां वृत्तिं वहति राघवः |
689 | 2010034c | तस्यैव त्वमनर्थाय किंनिमित्तमिहोद्यता |
690 | 2010035a | त्वं मयात्मविनाशाय भवनं स्वं प्रवेशिता |
691 | 2010035c | अविज्ञानान्नृपसुता व्याली तीक्ष्णविषा यथा |
692 | 2010036a | जीवलोको यदा सर्वो रामस्येह गुणस्तवम् |
693 | 2010036c | अपराधं कमुद्दिश्य त्यक्ष्यामीष्टमहं सुतम् |
694 | 2010037a | कौसल्यां वा सुमित्रां वा त्यजेयमपि वा श्रियम् |
695 | 2010037c | जीवितं वात्मनो रामं न त्वेव पितृवत्सलम् |
696 | 2010038a | परा भवति मे प्रीतिर्दृष्ट्वा तनयमग्रजम् |
697 | 2010038c | अपश्यतस्तु मे रामं नष्टा भवति चेतना |
698 | 2010039a | तिष्ठेल्लोको विना सूर्यं सस्यं वा सलिलं विना |
699 | 2010039c | न तु रामं विना देहे तिष्ठेत्तु मम जीवितम् |
700 | 2010040a | तदलं त्यज्यतामेष निश्चयः पापनिश्चये |
701 | 2010040c | अपि ते चरणौ मूर्ध्ना स्पृशाम्येष प्रसीद मे |
702 | 2010041a | स भूमिपालो विलपन्ननाथव;त्स्त्रिया गृहीतो दृहयेऽतिमात्रता |
703 | 2010041c | पपात देव्याश्चरणौ प्रसारिता;वुभावसंस्पृश्य यथातुरस्तथा |
704 | 2011001a | अतदर्हं महाराजं शयानमतथोचितम् |
705 | 2011001c | ययातिमिव पुण्यान्ते देवलोकात्परिच्युतम् |
706 | 2011002a | अनर्थरूपा सिद्धार्था अभीता भयदर्शिनी |
707 | 2011002c | पुनराकारयामास तमेव वरमङ्गना |
708 | 2011003a | त्वं कत्थसे महाराज सत्यवादी दृढव्रतः |
709 | 2011003c | मम चेमं वरं कस्माद्विधारयितुमिच्छसि |
710 | 2011004a | एवमुक्तस्तु कैकेय्या राजा दशरथस्तदा |
711 | 2011004c | प्रत्युवाच ततः क्रुद्धो मुहूर्तं विह्वलन्निव |
712 | 2011005a | मृते मयि गते रामे वनं मनुजपुंगवे |
713 | 2011005c | हन्तानार्ये ममामित्रे रामः प्रव्राजितो वनम् |
714 | 2011006a | यदि सत्यं ब्रवीम्येतत्तदसत्यं भविष्यति |
715 | 2011006c | अकीर्तिरतुला लोके ध्रुवं परिभवश्च मे |
716 | 2011007a | तथा विलपतस्तस्य परिभ्रमितचेतसः |
717 | 2011007c | अस्तमभ्यगमत्सूर्यो रजनी चाभ्यवर्तत |
718 | 2011008a | स त्रियामा तथार्तस्य चन्द्रमण्डलमण्डिता |
719 | 2011008c | राज्ञो विलपमानस्य न व्यभासत शर्वरी |
720 | 2011009a | तथैवोष्णं विनिःश्वस्य वृद्धो दशरथो नृपः |
721 | 2011009c | विललापार्तवद्दुःखं गगनासक्तलोचनः |
722 | 2011010a | न प्रभातं त्वयेच्छामि मयायं रचितोऽञ्जलिः |
723 | 2011010c | अथ वा गम्यतां शीघ्रं नाहमिच्छामि निर्घृणाम् |
724 | 2011010e | नृशंसां कैकेयीं द्रष्टुं यत्कृते व्यसनं महत् |
725 | 2011011a | एवमुक्त्वा ततो राजा कैकेयीं संयताञ्जलिः |
726 | 2011011c | प्रसादयामास पुनः कैकेयीं चेदमब्रवीत् |
727 | 2011012a | साधुवृत्तस्य दीनस्य त्वद्गतस्य गतायुषः |
728 | 2011012c | प्रसादः क्रियतां देवि भद्रे राज्ञो विशेषतः |
729 | 2011013a | शून्येन खलु सुश्रोणि मयेदं समुदाहृतम् |
730 | 2011013c | कुरु साधु प्रसादं मे बाले सहृदया ह्यसि |
731 | 2011014a | विशुद्धभावस्य हि दुष्टभावा; ताम्रेक्षणस्याश्रुकलस्य राज्ञः |
732 | 2011014c | श्रुत्वा विचित्रं करुणं विलापं; भर्तुर्नृशंसा न चकार वाक्यम् |
733 | 2011015a | ततः स राजा पुनरेव मूर्छितः; प्रियामतुष्टां प्रतिकूलभाषिणीम् |
734 | 2011015c | समीक्ष्य पुत्रस्य विवासनं प्रति; क्षितौ विसंज्ञो निपपात दुःखितः |
735 | 2012001a | पुत्रशोकार्दितं पापा विसंज्ञं पतितं भुवि |
736 | 2012001c | विवेष्टमानमुदीक्ष्य सैक्ष्वाकमिदमब्रवीत् |
737 | 2012002a | पापं कृत्वेव किमिदं मम संश्रुत्य संश्रवम् |
738 | 2012002c | शेषे क्षितितले सन्नः स्थित्यां स्थातुं त्वमर्हसि |
739 | 2012003a | आहुः सत्यं हि परमं धर्मं धर्मविदो जनाः |
740 | 2012003c | सत्यमाश्रित्य हि मया त्वं च धर्मं प्रचोदितः |
741 | 2012004a | संश्रुत्य शैब्यः श्येनाय स्वां तनुं जगतीपतिः |
742 | 2012004c | प्रदाय पक्षिणो राजञ्जगाम गतिमुत्तमाम् |
743 | 2012005a | तथ ह्यलर्कस्तेजस्वी ब्राह्मणे वेदपारगे |
744 | 2012005c | याचमाने स्वके नेत्रे उद्धृत्याविमना ददौ |
745 | 2012006a | सरितां तु पतिः स्वल्पां मर्यादां सत्यमन्वितः |
746 | 2012006c | सत्यानुरोधात्समये वेलां खां नातिवर्तते |
747 | 2012007a | समयं च ममार्येमं यदि त्वं न करिष्यसि |
748 | 2012007c | अग्रतस्ते परित्यक्ता परित्यक्ष्यामि जीवितम् |
749 | 2012008a | एवं प्रचोदितो राजा कैकेय्या निर्विशङ्कया |
750 | 2012008c | नाशकत्पाशमुन्मोक्तुं बलिरिन्द्रकृतं यथा |
751 | 2012009a | उद्भ्रान्तहृदयश्चापि विवर्णवनदोऽभवत् |
752 | 2012009c | स धुर्यो वै परिस्पन्दन्युगचक्रान्तरं यथा |
753 | 2012010a | विह्वलाभ्यां च नेत्राभ्यामपश्यन्निव भूमिपः |
754 | 2012010c | कृच्छ्राद्धैर्येण संस्तभ्य कैकेयीमिदमब्रवीत् |
755 | 2012011a | यस्ते मन्त्रकृतः पाणिरग्नौ पापे मया धृतः |
756 | 2012011c | तं त्यजामि स्वजं चैव तव पुत्रं सह त्वया |
757 | 2012012a | ततः पापसमाचारा कैकेयी पार्थिवं पुनः |
758 | 2012012c | उवाच परुषं वाक्यं वाक्यज्ञा रोषमूर्छिता |
759 | 2012013a | किमिदं भाषसे राजन्वाक्यं गररुजोपमम् |
760 | 2012013c | आनाययितुमक्लिष्टं पुत्रं राममिहार्हसि |
761 | 2012014a | स्थाप्य राज्ये मम सुतं कृत्वा रामं वनेचरम् |
762 | 2012014c | निःसपत्नां च मां कृत्वा कृतकृत्यो भविष्यसि |
763 | 2012015a | स नुन्न इव तीक्षेण प्रतोदेन हयोत्तमः |
764 | 2012015c | राजा प्रदोचितोऽभीक्ष्णं कैकेयीमिदमब्रवीत् |
765 | 2012016a | धर्मबन्धेन बद्धोऽस्मि नष्टा च मम चेतना |
766 | 2012016c | ज्येष्ठं पुत्रं प्रियं रामं द्रष्टुमिच्छामि धार्मिकम् |
767 | 2012017a | इति राज्ञो वचः श्रुत्वा कैकेयी तदनन्तरम् |
768 | 2012017c | स्वयमेवाब्रवीत्सूतं गच्छ त्वं राममानय |
769 | 2012018a | ततः स राजा तं सूतं सन्नहर्षः सुतं प्रति |
770 | 2012018c | शोकारक्तेक्षणः श्रीमानुद्वीक्ष्योवाच धार्मिकः |
771 | 2012019a | सुमन्त्रः करुणं श्रुत्वा दृष्ट्वा दीनं च पार्थिवम् |
772 | 2012019c | प्रगृहीताञ्जलिः किंचित्तस्माद्देशादपाक्रमन् |
773 | 2012020a | यदा वक्तुं स्वयं दैन्यान्न शशाक महीपतिः |
774 | 2012020c | तदा सुमन्त्रं मन्त्रज्ञा कैकेयी प्रत्युवाच ह |
775 | 2012021a | सुमन्त्र रामं द्रक्ष्यामि शीघ्रमानय सुन्दरम् |
776 | 2012021c | स मन्यमानः कल्याणं हृदयेन ननन्द च |
777 | 2012022a | सुमन्त्रश्चिन्तयामास त्वरितं चोदितस्तया |
778 | 2012022c | व्यक्तं रामोऽभिषेकार्थमिहायास्यति धर्मवित् |
779 | 2012023a | इति सूतो मतिं कृत्वा हर्षेण महता पुनः |
780 | 2012023c | निर्जगाम महातेजा राघवस्य दिदृक्षया |
781 | 2012024a | ततः पुरस्तात्सहसा विनिर्गतो; महीपतीन्द्वारगतान्विलोकयन् |
782 | 2012024c | ददर्श पौरान्विविधान्महाधना;नुपस्थितान्द्वारमुपेत्य विष्ठितान् |
783 | 2013001a | ते तु तां रजनीमुष्य ब्राह्मणा वेदपारगाः |
784 | 2013001c | उपतस्थुरुपस्थानं सहराजपुरोहिताः |
785 | 2013002a | अमात्या बलमुख्याश्च मुख्या ये निगमस्य च |
786 | 2013002c | राघवस्याभिषेकार्थे प्रीयमाणास्तु संगताः |
787 | 2013003a | उदिते विमले सूर्ये पुष्ये चाभ्यागतेऽहनि |
788 | 2013003c | अभिषेकाय रामस्य द्विजेन्द्रैरुपकल्पितम् |
789 | 2013004a | काञ्चना जलकुम्भाश्च भद्रपीठं स्वलंकृतम् |
790 | 2013004c | रामश्च सम्यगास्तीर्णो भास्वरा व्याघ्रचर्मणा |
791 | 2013005a | गङ्गायमुनयोः पुण्यात्संगमादाहृतं जलम् |
792 | 2013005c | याश्चान्याः सरितः पुण्या ह्रदाः कूपाः सरांसि च |
793 | 2013006a | प्राग्वाहाश्चोर्ध्ववाहाश्च तिर्यग्वाहाः समाहिताः |
794 | 2013006c | ताभ्यश्चैवाहृतं तोयं समुद्रेभ्यश्च सर्वशः |
795 | 2013007a | क्षौद्रं दधिघृतं लाजा धर्भाः सुमनसः पयः |
796 | 2013007c | सलाजाः क्षीरिभिश्छन्ना घटाः काञ्चनराजताः |
797 | 2013007e | पद्मोत्पलयुता भान्ति पूर्णाः परमवारिणा |
798 | 2013008a | चन्द्रांशुविकचप्रख्यं पाण्डुरं रत्नभूषितम् |
799 | 2013008c | सज्जं तिष्ठति रामस्य वालव्यजनमुत्तमम् |
800 | 2013009a | चन्द्रमण्डलसंकाशमातपत्रं च पाण्डुरम् |
801 | 2013009c | सज्जं द्युतिकरं श्रीमदभिषेकपुरस्कृतम् |
802 | 2013010a | पाण्डुरश्च वृषः सज्जः पाण्डुराश्वश्च सुस्थितः |
803 | 2013010c | प्रस्रुतश्च गजः श्रीमानौपवाह्यः प्रतीक्षते |
804 | 2013011a | अष्टौ कन्याश्च मङ्गल्याः सर्वाभरणभूषिताः |
805 | 2013011c | वादित्राणि च सर्वाणि बन्दिनश्च तथापरे |
806 | 2013012a | इक्ष्वाकूणां यथा राज्ये संभ्रियेताभिषेचनम् |
807 | 2013012c | तथा जातीयामादाय राजपुत्राभिषेचनम् |
808 | 2013013a | ते राजवचनात्तत्र समवेता महीपतिम् |
809 | 2013013c | अपश्यन्तोऽब्रुवन्को नु राज्ञो नः प्रतिवेदयेत् |
810 | 2013014a | न पश्यामश्च राजानमुदितश्च दिवाकरः |
811 | 2013014c | यौवराज्याभिषेकश्च सज्जो रामस्य धीमतः |
812 | 2013015a | इति तेषु ब्रुवाणेषु सार्वभौमान्महीपतीन् |
813 | 2013015c | अब्रवीत्तानिदं सर्वान्सुमन्त्रो राजसत्कृतः |
814 | 2013016a | अयं पृच्छामि वचनात्सुखमायुष्मतामहम् |
815 | 2013016c | राज्ञः संप्रतिबुद्धस्य यच्चागमनकारणम् |
816 | 2013017a | इत्युक्त्वान्तःपुरद्वारमाजगाम पुराणवित् |
817 | 2013017c | आशीर्भिर्गुणयुक्ताभिरभितुष्टाव राघवम् |
818 | 2013018a | गता भगवती रात्रिरहः शिवमुपस्थितम् |
819 | 2013018c | बुध्यस्व नृपशार्दूल कुरु कार्यमनन्तरम् |
820 | 2013019a | ब्राह्मणा बलमुख्याश्च नैगमाश्चागता नृप |
821 | 2013019c | दर्शनं प्रतिकाङ्क्षन्ते प्रतिबुध्यस्व राघव |
822 | 2013020a | स्तुवन्तं तं तदा सूतं सुमन्त्रं मन्त्रकोविदम् |
823 | 2013020c | प्रतिबुध्य ततो राजा इदं वचनमब्रवीत् |
824 | 2013021a | न चैव संप्रसुतोऽहमानयेदाशु राघवम् |
825 | 2013021c | इति राजा दशरथः सूतं तत्रान्वशात्पुनः |
826 | 2013022a | स राजवचनं श्रुत्वा शिरसा प्रतिपूज्य तम् |
827 | 2013022c | निर्जगाम नृपावासान्मन्यमानः प्रियं महत् |
828 | 2013023a | प्रपन्नो राजमार्गं च पताका ध्वजशोभितम् |
829 | 2013023c | स सूतस्तत्र शुश्राव रामाधिकरणाः कथाः |
830 | 2013024a | ततो ददर्श रुचिरं कैलाससदृशप्रभम् |
831 | 2013024c | रामवेश्म सुमन्त्रस्तु शक्रवेश्मसमप्रभम् |
832 | 2013025a | महाकपाटपिहितं वितर्दिशतशोभितम् |
833 | 2013025c | काञ्चनप्रतिमैकाग्रं मणिविद्रुमतोरणम् |
834 | 2013026a | शारदाभ्रघनप्रख्यं दीप्तं मेरुगुहोपमम् |
835 | 2013026c | दामभिर्वरमाल्यानां सुमहद्भिरलंकृतम् |
836 | 2013027a | स वाजियुक्तेन रथेन सारथि;र्नराकुलं राजकुलं विलोकयन् |
837 | 2013027c | ततः समासाद्य महाधनं मह;त्प्रहृष्टरोमा स बभूव सारथिः |
838 | 2013028a | तदद्रिकूटाचलमेघसंनिभं; महाविमानोत्तमवेश्मसंघवत् |
839 | 2013028c | अवार्यमाणः प्रविवेश सारथिः; प्रभूतरत्नं मकरो यथार्णवम् |
840 | 2014001a | स तदन्तःपुरद्वारं समतीत्य जनाकुलम् |
841 | 2014001c | प्रविविक्तां ततः कक्ष्यामाससाद पुराणवित् |
842 | 2014002a | प्रासकार्मुकबिभ्रद्भिर्युवभिर्मृष्टकुण्डलैः |
843 | 2014002c | अप्रमादिभिरेकाग्रैः स्वनुरक्तैरधिष्ठिताम् |
844 | 2014003a | तत्र काषायिणो वृद्धान्वेत्रपाणीन्स्वलंकृतान् |
845 | 2014003c | ददर्श विष्ठितान्द्वारि स्त्र्यध्यक्षान्सुसमाहितान् |
846 | 2014004a | ते समीक्ष्य समायान्तं रामप्रियचिकीर्षवः |
847 | 2014004c | सहभार्याय रामाय क्षिप्रमेवाचचक्षिरे |
848 | 2014005a | प्रतिवेदितमाज्ञाय सूतमभ्यन्तरं पितुः |
849 | 2014005c | तत्रैवानाययामास राघवः प्रियकाम्यया |
850 | 2014006a | तं वैश्रवणसंकाशमुपविष्टं स्वलंकृतम् |
851 | 2014006c | दादर्श सूतः पर्यङ्के सौवणो सोत्तरच्छदे |
852 | 2014007a | वराहरुधिराभेण शुचिना च सुगन्धिना |
853 | 2014007c | अनुलिप्तं परार्ध्येन चन्दनेन परंतपम् |
854 | 2014008a | स्थितया पार्श्वतश्चापि वालव्यजनहस्तया |
855 | 2014008c | उपेतं सीतया भूयश्चित्रया शशिनं यथा |
856 | 2014009a | तं तपन्तमिवादित्यमुपपन्नं स्वतेजसा |
857 | 2014009c | ववन्दे वरदं बन्दी नियमज्ञो विनीतवत् |
858 | 2014010a | प्राञ्जलिस्तु सुखं पृष्ट्वा विहारशयनासने |
859 | 2014010c | राजपुत्रमुवाचेदं सुमन्त्रो राजसत्कृतः |
860 | 2014011a | कौसल्या सुप्रभा देव पिता त्वं द्रष्टुमिच्छति |
861 | 2014011c | महिष्या सह कैकेय्या गम्यतां तत्र माचिरम् |
862 | 2014012a | एवमुक्तस्तु संहृष्टो नरसिंहो महाद्युतिः |
863 | 2014012c | ततः संमानयामास सीतामिदमुवाच ह |
864 | 2014013a | देवि देवश्च देवी च समागम्य मदन्तरे |
865 | 2014013c | मन्त्रेयेते ध्रुवं किंचिदभिषेचनसंहितम् |
866 | 2014014a | लक्षयित्वा ह्यभिप्रायं प्रियकामा सुदक्षिणा |
867 | 2014014c | संचोदयति राजानं मदर्थं मदिरेक्षणा |
868 | 2014015a | यादृशी परिषत्तत्र तादृशो दूत आगतः |
869 | 2014015c | ध्रुवमद्यैव मां राजा यौवराज्येऽभिषेक्ष्यति |
870 | 2014016a | हन्त शीघ्रमितो गत्वा द्रक्ष्यामि च महीपतिः |
871 | 2014016c | सह त्वं परिवारेण सुखमास्स्व रमस्य च |
872 | 2014017a | पतिसंमानिता सीता भर्तारमसितेक्षणा |
873 | 2014017c | आद्वारमनुवव्राज मङ्गलान्यभिदध्युषी |
874 | 2014018a | स सर्वानर्थिनो दृष्ट्वा समेत्य प्रतिनन्द्य च |
875 | 2014018c | ततः पावकसंकाशमारुरोह रथोत्तमम् |
876 | 2014019a | मुष्णन्तमिव चक्षूंषि प्रभया हेमवर्चसं |
877 | 2014019c | करेणुशिशुकल्पैश्च युक्तं परमवाजिभिः |
878 | 2014020a | हरियुक्तं सहस्राक्षो रथमिन्द्र इवाशुगम् |
879 | 2014020c | प्रययौ तूर्णमास्थाय राघवो ज्वलितः श्रिया |
880 | 2014021a | स पर्जन्य इवाकाशे स्वनवानभिनादयन् |
881 | 2014021c | निकेतान्निर्ययौ श्रीमान्महाभ्रादिव चन्द्रमाः |
882 | 2014022a | छत्रचामरपाणिस्तु लक्ष्मणो राघवानुजः |
883 | 2014022c | जुगोप भ्रातरं भ्राता रथमास्थाय पृष्ठतः |
884 | 2014023a | ततो हलहलाशब्दस्तुमुलः समजायत |
885 | 2014023c | तस्य निष्क्रममाणस्य जनौघस्य समन्ततः |
886 | 2014024a | स राघवस्तत्र कथाप्रलापं; शुश्राव लोकस्य समागतस्य |
887 | 2014024c | आत्माधिकारा विविधाश्च वाचः; प्रहृष्टरूपस्य पुरे जनस्य |
888 | 2014025a | एष श्रियं गच्छति राघवोऽद्य; राजप्रसादाद्विपुलां गमिष्यन् |
889 | 2014025c | एते वयं सर्वसमृद्धकामा; येषामयं नो भविता प्रशास्ता |
890 | 2014025e | लाभो जनस्यास्य यदेष सर्वं; प्रपत्स्यते राष्ट्रमिदं चिराय |
891 | 2014026a | स घोषवद्भिश्च हयैः सनागैः; पुरःसरैः स्वस्तिकसूतमागधैः |
892 | 2014026c | महीयमानः प्रवरैश्च वादकै;रभिष्टुतो वैश्रवणो यथा ययौ |
893 | 2014027a | करेणुमातङ्गरथाश्वसंकुलं; महाजनौघैः परिपूर्णचत्वरम् |
894 | 2014027c | प्रभूतरत्नं बहुपण्यसंचयं; ददर्श रामो रुचिरं महापथम् |
895 | 2015001a | स रामो रथमास्थाय संप्रहृष्टसुहृज्जनः |
896 | 2015001c | अपश्यन्नगरं श्रीमान्नानाजनसमाकुलम् |
897 | 2015002a | स गृहैरभ्रसंकाशैः पाण्डुरैरुपशोभितम् |
898 | 2015002c | राजमार्गं ययौ रामो मध्येनागरुधूपितम् |
899 | 2015003a | शोभमानमसंबाधं तं राजपथमुत्तमम् |
900 | 2015003c | संवृतं विविधैः पण्यैर्भक्ष्यैरुच्चावचैरपि |
901 | 2015004a | आशीर्वादान्बहूञ्शृण्वन्सुहृद्भिः समुदीरितान् |
902 | 2015004c | यथार्हं चापि संपूज्य सर्वानेव नरान्ययौ |
903 | 2015005a | पितामहैराचरितं तथैव प्रपितामहैः |
904 | 2015005c | अद्योपादाय तं मार्गमभिषिक्तोऽनुपालय |
905 | 2015006a | यथा स्म लालिताः पित्रा यथा पूर्वैः पितामहैः |
906 | 2015006c | ततः सुखतरं सर्वे रामे वत्स्याम राजनि |
907 | 2015007a | अलमद्य हि भुक्तेन परमार्थैरलं च नः |
908 | 2015007c | यथा पश्याम निर्यान्तं रामं राज्ये प्रतिष्ठितम् |
909 | 2015008a | अतो हि न प्रियतरं नान्यत्किंचिद्भविष्यति |
910 | 2015008c | यथाभिषेको रामस्य राज्येनामिततेजसः |
911 | 2015009a | एताश्चान्याश्च सुहृदामुदासीनः कथाः शुभाः |
912 | 2015009c | आत्मसंपूजनीः शृण्वन्ययौ रामो महापथम् |
913 | 2015010a | न हि तस्मान्मनः कश्चिच्चक्षुषी वा नरोत्तमात् |
914 | 2015010c | नरः शक्नोत्यपाक्रष्टुमतिक्रान्तेऽपि राघवे |
915 | 2015011a | सर्वेषां स हि धर्मात्मा वर्णानां कुरुते दयाम् |
916 | 2015011c | चतुर्णां हि वयःस्थानां तेन ते तमनुव्रताः |
917 | 2015012a | स राजकुलमासाद्य महेन्द्रभवनोपमम् |
918 | 2015012c | राजपुत्रः पितुर्वेश्म प्रविवेश श्रिया ज्वलन् |
919 | 2015013a | स सर्वाः समतिक्रम्य कक्ष्या दशरथात्मजः |
920 | 2015013c | संनिवर्त्य जनं सर्वं शुद्धान्तःपुरमभ्यगात् |
921 | 2015014a | ततः प्रविष्टे पितुरन्तिकं तदा; जनः स सर्वो मुदितो नृपात्मजे |
922 | 2015014c | प्रतीक्षते तस्य पुनः स्म निर्गमं; यथोदयं चन्द्रमसः सरित्पतिः |
923 | 2016001a | स ददर्शासने रामो निषण्णं पितरं शुभे |
924 | 2016001c | कैकेयीसहितं दीनं मुखेन परिशुष्यता |
925 | 2016002a | स पितुश्चरणौ पूर्वमभिवाद्य विनीतवत् |
926 | 2016002c | ततो ववन्दे चरणौ कैकेय्याः सुसमाहितः |
927 | 2016003a | रामेत्युक्त्वा च वचनं वाष्पपर्याकुलेक्षणः |
928 | 2016003c | शशाक नृपतिर्दीनो नेक्षितुं नाभिभाषितुम् |
929 | 2016004a | तदपूर्वं नरपतेर्दृष्ट्वा रूपं भयावहम् |
930 | 2016004c | रामोऽपि भयमापन्नः पदा स्पृष्ट्वेव पन्नगम् |
931 | 2016005a | इन्द्रियैरप्रहृष्टैस्तं शोकसंतापकर्शितम् |
932 | 2016005c | निःश्वसन्तं महाराजं व्यथिताकुलचेतसं |
933 | 2016006a | ऊर्मि मालिनमक्षोभ्यं क्षुभ्यन्तमिव सागरम् |
934 | 2016006c | उपप्लुतमिवादित्यमुक्तानृतमृषिं यथा |
935 | 2016007a | अचिन्त्यकल्पं हि पितुस्तं शोकमुपधारयन् |
936 | 2016007c | बभूव संरब्धतरः समुद्र इव पर्वणि |
937 | 2016008a | चिन्तयामास च तदा रामः पितृहिते रतः |
938 | 2016008c | किंस्विदद्यैव नृपतिर्न मां प्रत्यभिनन्दति |
939 | 2016009a | अन्यदा मां पिता दृष्ट्वा कुपितोऽपि प्रसीदति |
940 | 2016009c | तस्य मामद्य संप्रेक्ष्य किमायासः प्रवर्तते |
941 | 2016010a | स दीन इव शोकार्तो विषण्णवदनद्युतिः |
942 | 2016010c | कैकेयीमभिवाद्यैव रामो वचनमब्रवीत् |
943 | 2016011a | कच्चिन्मया नापराधमज्ञानाद्येन मे पिता |
944 | 2016011c | कुपितस्तन्ममाचक्ष्व त्वं चैवैनं प्रसादय |
945 | 2016012a | विवर्णवदनो दीनो न हि मामभिभाषते |
946 | 2016012c | शारीरो मानसो वापि कच्चिदेनं न बाधते |
947 | 2016012e | संतापो वाभितापो वा दुर्लभं हि सदा सुखम् |
948 | 2016013a | कच्चिन्न किंचिद्भरते कुमारे प्रियदर्शने |
949 | 2016013c | शत्रुघ्ने वा महासत्त्वे मातॄणां वा ममाशुभम् |
950 | 2016014a | अतोषयन्महाराजमकुर्वन्वा पितुर्वचः |
951 | 2016014c | मुहूर्तमपि नेच्छेयं जीवितुं कुपिते नृपे |
952 | 2016015a | यतोमूलं नरः पश्येत्प्रादुर्भावमिहात्मनः |
953 | 2016015c | कथं तस्मिन्न वर्तेत प्रत्यक्षे सति दैवते |
954 | 2016016a | कच्चित्ते परुषं किंचिदभिमानात्पिता मम |
955 | 2016016c | उक्तो भवत्या कोपेन यत्रास्य लुलितं मनः |
956 | 2016017a | एतदाचक्ष्व मे देवि तत्त्वेन परिपृच्छतः |
957 | 2016017c | किंनिमित्तमपूर्वोऽयं विकारो मनुजाधिपे |
958 | 2016018a | अहं हि वचनाद्राज्ञः पतेयमपि पावके |
959 | 2016018c | भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं मज्जेयमपि चार्णवे |
960 | 2016018e | नियुक्तो गुरुणा पित्रा नृपेण च हितेन च |
961 | 2016019a | तद्ब्रूहि वचनं देवि राज्ञो यदभिकाङ्क्षितम् |
962 | 2016019c | करिष्ये प्रतिजाने च रामो द्विर्नाभिभाषते |
963 | 2016020a | तमार्जवसमायुक्तमनार्या सत्यवादिनम् |
964 | 2016020c | उवाच रामं कैकेयी वचनं भृशदारुणम् |
965 | 2016021a | पुरा देवासुरे युद्धे पित्रा ते मम राघव |
966 | 2016021c | रक्षितेन वरौ दत्तौ सशल्येन महारणे |
967 | 2016022a | तत्र मे याचितो राजा भरतस्याभिषेचनम् |
968 | 2016022c | गमनं दण्डकारण्ये तव चाद्यैव राघव |
969 | 2016023a | यदि सत्यप्रतिज्ञं त्वं पितरं कर्तुमिच्छसि |
970 | 2016023c | आत्मानं च नररेष्ठ मम वाक्यमिदं शृणु |
971 | 2016024a | स निदेशे पितुस्तिष्ठ यथा तेन प्रतिश्रुतम् |
972 | 2016024c | त्वयारण्यं प्रवेष्टव्यं नव वर्षाणि पञ्च च |
973 | 2016025a | सप्त सप्त च वर्षाणि दण्डकारण्यमाश्रितः |
974 | 2016025c | अभिषेकमिमं त्यक्त्वा जटाचीरधरो वस |
975 | 2016026a | भरतः कोसलपुरे प्रशास्तु वसुधामिमाम् |
976 | 2016026c | नानारत्नसमाकीर्णां सवाजिरथकुञ्जराम् |
977 | 2016027a | तदप्रियममित्रघ्नो वचनं मरणोपमम् |
978 | 2016027c | श्रुत्वा न विव्यथे रामः कैकेयीं चेदमब्रवीत् |
979 | 2016028a | एवमस्तु गमिष्यामि वनं वस्तुमहं त्वतः |
980 | 2016028c | जटाचीरधरो राज्ञः प्रतिज्ञामनुपालयन् |
981 | 2016029a | इदं तु ज्ञातुमिच्छामि किमर्थं मां महीपतिः |
982 | 2016029c | नाभिनन्दति दुर्धर्षो यथापुरमरिंदमः |
983 | 2016030a | मन्युर्न च त्वया कार्यो देवि ब्रूहि तवाग्रतः |
984 | 2016030c | यास्यामि भव सुप्रीता वनं चीरजटाधरः |
985 | 2016031a | हितेन गुरुणा पित्रा कृतज्ञेन नृपेण च |
986 | 2016031c | नियुज्यमानो विश्रब्धं किं न कुर्यादहं प्रियम् |
987 | 2016032a | अलीकं मानसं त्वेकं हृदयं दहतीव मे |
988 | 2016032c | स्वयं यन्नाह मां राजा भरतस्याभिषेचनम् |
989 | 2016033a | अहं हि सीतां राज्यं च प्राणानिष्टान्धनानि च |
990 | 2016033c | हृष्टो भ्रात्रे स्वयं दद्यां भरतायाप्रचोदितः |
991 | 2016034a | किं पुनर्मनुजेन्द्रेण स्वयं पित्रा प्रचोदितः |
992 | 2016034c | तव च प्रियकामार्थं प्रतिज्ञामनुपालयन् |
993 | 2016035a | तदाश्वासय हीमं त्वं किं न्विदं यन्महीपतिः |
994 | 2016035c | वसुधासक्तनयनो मन्दमश्रूणि मुञ्चति |
995 | 2016036a | गच्छन्तु चैवानयितुं दूताः शीघ्रजवैर्हयैः |
996 | 2016036c | भरतं मातुलकुलादद्यैव नृपशासनात् |
997 | 2016037a | दण्डकारण्यमेषोऽहमितो गच्छामि सत्वरः |
998 | 2016037c | अविचार्य पितुर्वाक्यं समावस्तुं चतुर्दश |
999 | 2016038a | सा हृष्टा तस्य तद्वाक्यं श्रुत्वा रामस्य कैकयी |
1000 | 2016038c | प्रस्थानं श्रद्दधाना हि त्वरयामास राघवम् |
1001 | 2016039a | एवं भवतु यास्यन्ति दूताः शीघ्रजवैर्हयैः |
1002 | 2016039c | भरतं मातुलकुलादुपावर्तयितुं नराः |
1003 | 2016040a | तव त्वहं क्षमं मन्ये नोत्सुकस्य विलम्बनम् |
1004 | 2016040c | राम तस्मादितः शीघ्रं वनं त्वं गन्तुमर्हसि |
1005 | 2016041a | व्रीडान्वितः स्वयं यच्च नृपस्त्वां नाभिभाषते |
1006 | 2016041c | नैतत्किंचिन्नरश्रेष्ठ मन्युरेषोऽपनीयताम् |
1007 | 2016042a | यावत्त्वं न वनं यातः पुरादस्मादभित्वरन् |
1008 | 2016042c | पिता तावन्न ते राम स्नास्यते भोक्ष्यतेऽपि वा |
1009 | 2016043a | धिक्कष्टमिति निःश्वस्य राजा शोकपरिप्लुतः |
1010 | 2016043c | मूर्छितो न्यपतत्तस्मिन्पर्यङ्के हेमभूषिते |
1011 | 2016044a | रामोऽप्युत्थाप्य राजानं कैकेय्याभिप्रचोदितः |
1012 | 2016044c | कशयेवाहतो वाजी वनं गन्तुं कृतत्वरः |
1013 | 2016045a | तदप्रियमनार्याया वचनं दारुणोदरम् |
1014 | 2016045c | श्रुत्वा गतव्यथो रामः कैकेयीं वाक्यमब्रवीत् |
1015 | 2016046a | नाहमर्थपरो देवि लोकमावस्तुमुत्सहे |
1016 | 2016046c | विद्धि मामृषिभिस्तुल्यं केवलं धर्ममास्थितम् |
1017 | 2016047a | यदत्रभवतः किंचिच्छक्यं कर्तुं प्रियं मया |
1018 | 2016047c | प्राणानपि परित्यज्य सर्वथा कृतमेव तत् |
1019 | 2016048a | न ह्यतो धर्मचरणं किंचिदस्ति महत्तरम् |
1020 | 2016048c | यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिया |
1021 | 2016049a | अनुक्तोऽप्यत्रभवता भवत्या वचनादहम् |
1022 | 2016049c | वने वत्स्यामि विजने वर्षाणीह चतुर्दश |
1023 | 2016050a | न नूनं मयि कैकेयि किंचिदाशंससे गुणम् |
1024 | 2016050c | यद्राजानमवोचस्त्वं ममेश्वरतरा सती |
1025 | 2016051a | यावन्मातरमापृच्छे सीतां चानुनयाम्यहम् |
1026 | 2016051c | ततोऽद्यैव गमिष्यामि दण्डकानां महद्वनम् |
1027 | 2016052a | भरतः पालयेद्राज्यं शुश्रूषेच्च पितुर्यथा |
1028 | 2016052c | तथा भवत्या कर्तव्यं स हि धर्मः सनातनः |
1029 | 2016053a | स रामस्य वचः श्रुत्वा भृशं दुःखहतः पिता |
1030 | 2016053c | शोकादशक्नुवन्बाष्पं प्ररुरोद महास्वनम् |
1031 | 2016054a | वन्दित्वा चरणौ रामो विसंज्ञस्य पितुस्तदा |
1032 | 2016054c | कैकेय्याश्चाप्यनार्याया निष्पपात महाद्युतिः |
1033 | 2016055a | स रामः पितरं कृत्वा कैकेयीं च प्रदक्षिणम् |
1034 | 2016055c | निष्क्रम्यान्तःपुरात्तस्मात्स्वं ददर्श सुहृज्जनम् |
1035 | 2016056a | तं बाष्पपरिपूर्णाक्षः पृष्ठतोऽनुजगाम ह |
1036 | 2016056c | लक्ष्मणः परमक्रुद्धः सुमित्रानन्दवर्धनः |
1037 | 2016057a | आभिषेचनिकं भाण्डं कृत्वा रामः प्रदक्षिणम् |
1038 | 2016057c | शनैर्जगाम सापेक्षो दृष्टिं तत्राविचालयन् |
1039 | 2016058a | न चास्य महतीं लक्ष्मीं राज्यनाशोऽपकर्षति |
1040 | 2016058c | लोककान्तस्य कान्तत्वं शीतरश्मेरिव क्षपा |
1041 | 2016059a | न वनं गन्तुकामस्य त्यजतश्च वसुंधराम् |
1042 | 2016059c | सर्वलोकातिगस्येव लक्ष्यते चित्तविक्रिया |
1043 | 2016060a | धारयन्मनसा दुःखमिन्द्रियाणि निगृह्य च |
1044 | 2016060c | प्रविवेशात्मवान्वेश्म मातुरप्रियशंसिवान् |
1045 | 2016061a | प्रविश्य वेश्मातिभृशं मुदान्वितं; समीक्ष्य तां चार्थविपत्तिमागताम् |
1046 | 2016061c | न चैव रामोऽत्र जगाम विक्रियां; सुहृज्जनस्यात्मविपत्तिशङ्कया |
1047 | 2017001a | रामस्तु भृशमायस्तो निःश्वसन्निव कुञ्जरः |
1048 | 2017001c | जगाम सहितो भ्रात्रा मातुरन्तःपुरं वशी |
1049 | 2017002a | सोऽपश्यत्पुरुषं तत्र वृद्धं परमपूजितम् |
1050 | 2017002c | उपविष्टं गृहद्वारि तिष्ठतश्चापरान्बहून् |
1051 | 2017003a | प्रविश्य प्रथमां कक्ष्यां द्वितीयायां ददर्श सः |
1052 | 2017003c | ब्राह्मणान्वेदसंपन्नान्वृद्धान्राज्ञाभिसत्कृतान् |
1053 | 2017004a | प्रणम्य रामस्तान्वृद्धांस्तृतीयायां ददर्श सः |
1054 | 2017004c | स्त्रियो वृद्धाश्च बालाश्च द्वाररक्षणतत्पराः |
1055 | 2017005a | वर्धयित्वा प्रहृष्टास्ताः प्रविश्य च गृहं स्त्रियः |
1056 | 2017005c | न्यवेदयन्त त्वरिता राम मातुः प्रियं तदा |
1057 | 2017006a | कौसल्यापि तदा देवी रात्रिं स्थित्वा समाहिता |
1058 | 2017006c | प्रभाते त्वकरोत्पूजां विष्णोः पुत्रहितैषिणी |
1059 | 2017007a | सा क्षौमवसना हृष्टा नित्यं व्रतपरायणा |
1060 | 2017007c | अग्निं जुहोति स्म तदा मन्त्रवत्कृतमङ्गला |
1061 | 2017008a | प्रविश्य च तदा रामो मातुरन्तःपुरं शुभम् |
1062 | 2017008c | ददर्श मातरं तत्र हावयन्तीं हुताशनम् |
1063 | 2017009a | सा चिरस्यात्मजं दृष्ट्वा मातृनन्दनमागतम् |
1064 | 2017009c | अभिचक्राम संहृष्टा किशोरं वडवा यथा |
1065 | 2017010a | तमुवाच दुराधर्षं राघवं सुतमात्मनः |
1066 | 2017010c | कौसल्या पुत्रवात्सल्यादिदं प्रियहितं वचः |
1067 | 2017011a | वृद्धानां धर्मशीलानां राजर्षीणां महात्मनाम् |
1068 | 2017011c | प्राप्नुह्यायुश्च कीर्तिं च धर्मं चोपहितं कुले |
1069 | 2017012a | सत्यप्रतिज्ञं पितरं राजानं पश्य राघव |
1070 | 2017012c | अद्यैव हि त्वां धर्मात्मा यौवराज्येऽभिषेक्ष्यति |
1071 | 2017013a | मातरं राघवः किंचित्प्रसार्याञ्जलिमब्रवीत् |
1072 | 2017013c | स स्वभावविनीतश्च गौरवाच्च तदानतः |
1073 | 2017014a | देवि नूनं न जानीषे महद्भयमुपस्थितम् |
1074 | 2017014c | इदं तव च दुःखाय वैदेह्या लक्ष्मणस्य च |
1075 | 2017015a | चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने |
1076 | 2017015c | मधुमूलफलैर्जीवन्हित्वा मुनिवदामिषम् |
1077 | 2017016a | भरताय महाराजो यौवराज्यं प्रयच्छति |
1078 | 2017016c | मां पुनर्दण्डकारण्यं विवासयति तापसं |
1079 | 2017017a | तामदुःखोचितां दृष्ट्वा पतितां कदलीमिव |
1080 | 2017017c | रामस्तूत्थापयामास मातरं गतचेतसं |
1081 | 2017018a | उपावृत्योत्थितां दीनां वडवामिव वाहिताम् |
1082 | 2017018c | पांशुगुण्ठितसर्वाग्नीं विममर्श च पाणिना |
1083 | 2017019a | सा राघवमुपासीनमसुखार्ता सुखोचिता |
1084 | 2017019c | उवाच पुरुषव्याघ्रमुपशृण्वति लक्ष्मणे |
1085 | 2017020a | यदि पुत्र न जायेथा मम शोकाय राघव |
1086 | 2017020c | न स्म दुःखमतो भूयः पश्येयमहमप्रजा |
1087 | 2017021a | एक एव हि वन्ध्यायाः शोको भवति मानवः |
1088 | 2017021c | अप्रजास्मीति संतापो न ह्यन्यः पुत्र विद्यते |
1089 | 2017022a | न दृष्टपूर्वं कल्याणं सुखं वा पतिपौरुषे |
1090 | 2017022c | अपि पुत्रे विपश्येयमिति रामास्थितं मया |
1091 | 2017023a | सा बहून्यमनोज्ञानि वाक्यानि हृदयच्छिदाम् |
1092 | 2017023c | अहं श्रोष्ये सपत्नीनामवराणां वरा सती |
1093 | 2017023e | अतो दुःखतरं किं नु प्रमदानां भविष्यति |
1094 | 2017024a | त्वयि संनिहितेऽप्येवमहमासं निराकृता |
1095 | 2017024c | किं पुनः प्रोषिते तात ध्रुवं मरणमेव मे |
1096 | 2017025a | यो हि मां सेवते कश्चिदथ वाप्यनुवर्तते |
1097 | 2017025c | कैकेय्याः पुत्रमन्वीक्ष्य स जनो नाभिभाषते |
1098 | 2017026a | दश सप्त च वर्षाणि तव जातस्य राघव |
1099 | 2017026c | अतीतानि प्रकाङ्क्षन्त्या मया दुःखपरिक्षयम् |
1100 | 2017027a | उपवासैश्च योगैश्च बहुभिश्च परिश्रमैः |
1101 | 2017027c | दुःखं संवर्धितो मोघं त्वं हि दुर्गतया मया |
1102 | 2017028a | स्थिरं तु हृदयं मन्ये ममेदं यन्न दीर्यते |
1103 | 2017028c | प्रावृषीव महानद्याः स्पृष्टं कूलं नवाम्भसा |
1104 | 2017029a | ममैव नूनं मरणं न विद्यते; न चावकाशोऽस्ति यमक्षये मम |
1105 | 2017029c | यदन्तकोऽद्यैव न मां जिहीर्षति; प्रसह्य सिंहो रुदतीं मृगीमिव |
1106 | 2017030a | स्थिरं हि नूनं हृदयं ममायसं; न भिद्यते यद्भुवि नावदीर्यते |
1107 | 2017030c | अनेन दुःखेन च देहमर्पितं; ध्रुवं ह्यकाले मरणं न विद्यते |
1108 | 2017031a | इदं तु दुःखं यदनर्थकानि मे; व्रतानि दानानि च संयमाश्च हि |
1109 | 2017031c | तपश्च तप्तं यदपत्यकारणा;त्सुनिष्फलं बीजमिवोप्तमूषरे |
1110 | 2017032a | यदि ह्यकाले मरणं स्वयेच्छया; लभेत कश्चिद्गुरु दुःख कर्शितः |
1111 | 2017032c | गताहमद्यैव परेत संसदं; विना त्वया धेनुरिवात्मजेन वै |
1112 | 2017033a | भृशमसुखममर्षिता तदा; बहु विललाप समीक्ष्य राघवम् |
1113 | 2017033c | व्यसनमुपनिशाम्य सा मह;त्सुतमिव बद्धमवेक्ष्य किंनरी |
1114 | 2018001a | तथा तु विलपन्तीं तां कौसल्यां राममातरम् |
1115 | 2018001c | उवाच लक्ष्मणो दीनस्तत्कालसदृशं वचः |
1116 | 2018002a | न रोचते ममाप्येतदार्ये यद्राघवो वनम् |
1117 | 2018002c | त्यक्त्वा राज्यश्रियं गच्छेत्स्त्रिया वाक्यवशं गतः |
1118 | 2018003a | विपरीतश्च वृद्धश्च विषयैश्च प्रधर्षितः |
1119 | 2018003c | नृपः किमिव न ब्रूयाच्चोद्यमानः समन्मथः |
1120 | 2018004a | नास्यापराधं पश्यामि नापि दोषं तथा विधम् |
1121 | 2018004c | येन निर्वास्यते राष्ट्राद्वनवासाय राघवः |
1122 | 2018005a | न तं पश्याम्यहं लोके परोक्षमपि यो नरः |
1123 | 2018005c | अमित्रोऽपि निरस्तोऽपि योऽस्य दोषमुदाहरेत् |
1124 | 2018006a | देवकल्पमृजुं दान्तं रिपूणामपि वत्सलम् |
1125 | 2018006c | अवेक्षमाणः को धर्मं त्यजेत्पुत्रमकारणात् |
1126 | 2018007a | तदिदं वचनं राज्ञः पुनर्बाल्यमुपेयुषः |
1127 | 2018007c | पुत्रः को हृदये कुर्याद्राजवृत्तमनुस्मरन् |
1128 | 2018008a | यावदेव न जानाति कश्चिदर्थमिमं नरः |
1129 | 2018008c | तावदेव मया सार्धमात्मस्थं कुरु शासनम् |
1130 | 2018009a | मया पार्श्वे सधनुषा तव गुप्तस्य राघव |
1131 | 2018009c | कः समर्थोऽधिकं कर्तुं कृतान्तस्येव तिष्ठतः |
1132 | 2018010a | निर्मनुष्यामिमां सर्वामयोध्यां मनुजर्षभ |
1133 | 2018010c | करिष्यामि शरैस्तीक्ष्णैर्यदि स्थास्यति विप्रिये |
1134 | 2018011a | भरतस्याथ पक्ष्यो वा यो वास्य हितमिच्छति |
1135 | 2018011c | सर्वानेतान्वधिष्यामि मृदुर्हि परिभूयते |
1136 | 2018012a | त्वया चैव मया चैव कृत्वा वैरमनुत्तमम् |
1137 | 2018012c | कस्य शक्तिः श्रियं दातुं भरतायारिशासन |
1138 | 2018013a | अनुरक्तोऽस्मि भावेन भ्रातरं देवि तत्त्वतः |
1139 | 2018013c | सत्येन धनुषा चैव दत्तेनेष्टेन ते शपे |
1140 | 2018014a | दीप्तमग्निमरण्यं वा यदि रामः प्रवेक्ष्यते |
1141 | 2018014c | प्रविष्टं तत्र मां देवि त्वं पूर्वमवधारय |
1142 | 2018015a | हरामि वीर्याद्दुःखं ते तमः सूर्य इवोदितः |
1143 | 2018015c | देवी पश्यतु मे वीर्यं राघवश्चैव पश्यतु |
1144 | 2018016a | एतत्तु वचनं श्रुत्वा लक्ष्मणस्य महात्मनः |
1145 | 2018016c | उवाच रामं कौसल्या रुदन्ती शोकलालसा |
1146 | 2018017a | भ्रातुस्ते वदतः पुत्र लक्ष्मणस्य श्रुतं त्वया |
1147 | 2018017c | यदत्रानन्तरं तत्त्वं कुरुष्व यदि रोचते |
1148 | 2018018a | न चाधर्म्यं वचः श्रुत्वा सपत्न्या मम भाषितम् |
1149 | 2018018c | विहाय शोकसंतप्तां गन्तुमर्हसि मामितः |
1150 | 2018019a | धर्मज्ञ यदि धर्मिष्ठो धर्मं चरितुमिच्छसि |
1151 | 2018019c | शुश्रूष मामिहस्थस्त्वं चर धर्ममनुत्तमम् |
1152 | 2018020a | शुश्रूषुर्जननीं पुत्र स्वगृहे नियतो वसन् |
1153 | 2018020c | परेण तपसा युक्तः काश्यपस्त्रिदिवं गतः |
1154 | 2018021a | यथैव राजा पूज्यस्ते गौरवेण तथा ह्यहम् |
1155 | 2018021c | त्वां नाहमनुजानामि न गन्तव्यमितो वनम् |
1156 | 2018022a | त्वद्वियोगान्न मे कार्यं जीवितेन सुखेन वा |
1157 | 2018022c | त्वया सह मम श्रेयस्तृणानामपि भक्षणम् |
1158 | 2018023a | यदि त्वं यास्यसि वनं त्यक्त्वा मां शोकलालसाम् |
1159 | 2018023c | अहं प्रायमिहासिष्ये न हि शक्ष्यामि जीवितुम् |
1160 | 2018024a | ततस्त्वं प्राप्स्यसे पुत्र निरयं लोकविश्रुतम् |
1161 | 2018024c | ब्रह्महत्यामिवाधर्मात्समुद्रः सरितां पतिः |
1162 | 2018025a | विलपन्तीं तथा दीनां कौसल्यां जननीं ततः |
1163 | 2018025c | उवाच रामो धर्मात्मा वचनं धर्मसंहितम् |
1164 | 2018026a | नास्ति शक्तिः पितुर्वाक्यं समतिक्रमितुं मम |
1165 | 2018026c | प्रसादये त्वां शिरसा गन्तुमिच्छाम्यहं वनम् |
1166 | 2018027a | ऋषिणा च पितुर्वाक्यं कुर्वता व्रतचारिणा |
1167 | 2018027c | गौर्हता जानता धर्मं कण्डुनापि विपश्चिता |
1168 | 2018028a | अस्माकं च कुले पूर्वं सगरस्याज्ञया पितुः |
1169 | 2018028c | खनद्भिः सागरैर्भूतिमवाप्तः सुमहान्वधः |
1170 | 2018029a | जामदग्न्येन रामेण रेणुका जननी स्वयम् |
1171 | 2018029c | कृत्ता परशुनारण्ये पितुर्वचनकारिणा |
1172 | 2018030a | न खल्वेतन्मयैकेन क्रियते पितृशासनम् |
1173 | 2018030c | पूर्वैरयमभिप्रेतो गतो मार्गोऽनुगम्यते |
1174 | 2018031a | तदेतत्तु मया कार्यं क्रियते भुवि नान्यथा |
1175 | 2018031c | पितुर्हि वचनं कुर्वन्न कश्चिन्नाम हीयते |
1176 | 2018032a | तामेवमुक्त्वा जननीं लक्ष्मणं पुनरब्रवीत् |
1177 | 2018032c | तव लक्ष्मण जानामि मयि स्नेहमनुत्तमम् |
1178 | 2018032e | अभिप्रायमविज्ञाय सत्यस्य च शमस्य च |
1179 | 2018033a | धर्मो हि परमो लोके धर्मे सत्यं प्रतिष्ठितम् |
1180 | 2018033c | धर्मसंश्रितमेतच्च पितुर्वचनमुत्तमम् |
1181 | 2018034a | संश्रुत्य च पितुर्वाक्यं मातुर्वा ब्राह्मणस्य वा |
1182 | 2018034c | न कर्तव्यं वृथा वीर धर्ममाश्रित्य तिष्ठता |
1183 | 2018035a | सोऽहं न शक्ष्यामि पितुर्नियोगमतिवर्तितुम् |
1184 | 2018035c | पितुर्हि वचनाद्वीर कैकेय्याहं प्रचोदितः |
1185 | 2018036a | तदेनां विसृजानार्यां क्षत्रधर्माश्रितां मतिम् |
1186 | 2018036c | धर्ममाश्रय मा तैक्ष्ण्यं मद्बुद्धिरनुगम्यताम् |
1187 | 2018037a | तमेवमुक्त्वा सौहार्दाद्भ्रातरं लक्ष्मणाग्रजः |
1188 | 2018037c | उवाच भूयः कौसल्यां प्राञ्जलिः शिरसानतः |
1189 | 2018038a | अनुमन्यस्व मां देवि गमिष्यन्तमितो वनम् |
1190 | 2018038c | शापितासि मम प्राणैः कुरु स्वस्त्ययनानि मे |
1191 | 2018038e | तीर्णप्रतिज्ञश्च वनात्पुनरेष्याम्यहं पुरीम् |
1192 | 2018039a | यशो ह्यहं केवलराज्यकारणा;न्न पृष्ठतः कर्तुमलं महोदयम् |
1193 | 2018039c | अदीर्घकाले न तु देवि जीविते; वृणेऽवरामद्य महीमधर्मतः |
1194 | 2018040a | प्रसादयन्नरवृषभः स मातरं; पराक्रमाज्जिगमिषुरेव दण्डकान् |
1195 | 2018040c | अथानुजं भृशमनुशास्य दर्शनं; चकार तां हृदि जननीं प्रदक्षिणम् |
1196 | 2019001a | अथ तं व्यथया दीनं सविशेषममर्षितम् |
1197 | 2019001c | श्वसन्तमिव नागेन्द्रं रोषविस्फारितेक्षणम् |
1198 | 2019002a | आसाद्य रामः सौमित्रिं सुहृदं भ्रातरं प्रियम् |
1199 | 2019002c | उवाचेदं स धैर्येण धारयन्सत्त्वमात्मवान् |
1200 | 2019003a | सौमित्रे योऽभिषेकार्थे मम संभारसंभ्रमः |
1201 | 2019003c | अभिषेकनिवृत्त्यर्थे सोऽस्तु संभारसंभ्रमः |
1202 | 2019004a | यस्या मदभिषेकार्थं मानसं परितप्यते |
1203 | 2019004c | माता नः सा यथा न स्यात्सविशङ्का तथा कुरु |
1204 | 2019005a | तस्याः शङ्कामयं दुःखं मुहूर्तमपि नोत्सहे |
1205 | 2019005c | मनसि प्रतिसंजातं सौमित्रेऽहमुपेक्षितुम् |
1206 | 2019006a | न बुद्धिपूर्वं नाबुद्धं स्मरामीह कदाचन |
1207 | 2019006c | मातॄणां वा पितुर्वाहं कृतमल्पं च विप्रियम् |
1208 | 2019007a | सत्यः सत्याभिसंधश्च नित्यं सत्यपराक्रमः |
1209 | 2019007c | परलोकभयाद्भीतो निर्भयोऽस्तु पिता मम |
1210 | 2019008a | तस्यापि हि भवेदस्मिन्कर्मण्यप्रतिसंहृते |
1211 | 2019008c | सत्यं नेति मनस्तापस्तस्य तापस्तपेच्च माम् |
1212 | 2019009a | अभिषेकविधानं तु तस्मात्संहृत्य लक्ष्मण |
1213 | 2019009c | अन्वगेवाहमिच्छामि वनं गन्तुमितः पुनः |
1214 | 2019010a | मम प्रव्राजनादद्य कृतकृत्या नृपात्मजा |
1215 | 2019010c | सुतं भरतमव्यग्रमभिषेचयिता ततः |
1216 | 2019011a | मयि चीराजिनधरे जटामण्डलधारिणि |
1217 | 2019011c | गतेऽरण्यं च कैकेय्या भविष्यति मनःसुखम् |
1218 | 2019012a | बुद्धिः प्रणीता येनेयं मनश्च सुसमाहितम् |
1219 | 2019012c | तत्तु नार्हामि संक्लेष्टुं प्रव्रजिष्यामि माचिरम् |
1220 | 2019013a | कृतान्तस्त्वेव सौमित्रे द्रष्टव्यो मत्प्रवासने |
1221 | 2019013c | राज्यस्य च वितीर्णस्य पुनरेव निवर्तने |
1222 | 2019014a | कैकेय्याः प्रतिपत्तिर्हि कथं स्यान्मम पीडने |
1223 | 2019014c | यदि भावो न दैवोऽयं कृतान्तविहितो भवेत् |
1224 | 2019015a | जानासि हि यथा सौम्य न मातृषु ममान्तरम् |
1225 | 2019015c | भूतपूर्वं विशेषो वा तस्या मयि सुतेऽपि वा |
1226 | 2019016a | सोऽभिषेकनिवृत्त्यर्थैः प्रवासार्थैश्च दुर्वचैः |
1227 | 2019016c | उग्रैर्वाक्यैरहं तस्या नान्यद्दैवात्समर्थये |
1228 | 2019017a | कथं प्रकृतिसंपन्ना राजपुत्री तथागुणा |
1229 | 2019017c | ब्रूयात्सा प्राकृतेव स्त्री मत्पीडां भर्तृसंनिधौ |
1230 | 2019018a | यदचिन्त्यं तु तद्दैवं भूतेष्वपि न हन्यते |
1231 | 2019018c | व्यक्तं मयि च तस्यां च पतितो हि विपर्ययः |
1232 | 2019019a | कश्चिद्दैवेन सौमित्रे योद्धुमुत्सहते पुमान् |
1233 | 2019019c | यस्य न ग्रहणं किंचित्कर्मणोऽन्यत्र दृश्यते |
1234 | 2019020a | सुखदुःखे भयक्रोधौ लाभालाभौ भवाभवौ |
1235 | 2019020c | यस्य किंचित्तथाभूतं ननु दैवस्य कर्म तत् |
1236 | 2019021a | व्याहतेऽप्यभिषेके मे परितापो न विद्यते |
1237 | 2019021c | तस्मादपरितापः संस्त्वमप्यनुविधाय माम् |
1238 | 2019021e | प्रतिसंहारय क्षिप्रमाभिषेचनिकीं क्रियाम् |
1239 | 2019022a | न लक्ष्मणास्मिन्मम राज्यविघ्ने; माता यवीयस्यतिशङ्कनीया |
1240 | 2019022c | दैवाभिपन्ना हि वदन्त्यनिष्टं; जानासि दैवं च तथाप्रभावम् |
1241 | 2020001a | इति ब्रुवति रामे तु लक्ष्मणोऽधःशिरा मुहुः |
1242 | 2020001c | श्रुत्वा मध्यं जगामेव मनसा दुःखहर्षयोः |
1243 | 2020002a | तदा तु बद्ध्वा भ्रुकुटीं भ्रुवोर्मध्ये नरर्षभ |
1244 | 2020002c | निशश्वास महासर्पो बिलस्थ इव रोषितः |
1245 | 2020003a | तस्य दुष्प्रतिवीक्ष्यं तद्भ्रुकुटीसहितं तदा |
1246 | 2020003c | बभौ क्रुद्धस्य सिंहस्य मुखस्य सदृशं मुखम् |
1247 | 2020004a | अग्रहस्तं विधुन्वंस्तु हस्ती हस्तमिवात्मनः |
1248 | 2020004c | तिर्यगूर्ध्वं शरीरे च पातयित्वा शिरोधराम् |
1249 | 2020005a | अग्राक्ष्णा वीक्षमाणस्तु तिर्यग्भ्रातरमब्रवीत् |
1250 | 2020005c | अस्थाने संभ्रमो यस्य जातो वै सुमहानयम् |
1251 | 2020006a | धर्मदोषप्रसङ्गेन लोकस्यानतिशङ्कया |
1252 | 2020006c | कथं ह्येतदसंभ्रान्तस्त्वद्विधो वक्तुमर्हति |
1253 | 2020007a | यथा दैवमशौण्डीरं शौण्डीरः क्षत्रियर्षभः |
1254 | 2020007c | किं नाम कृपणं दैवमशक्तमभिशंससि |
1255 | 2020008a | पापयोस्ते कथं नाम तयोः शङ्का न विद्यते |
1256 | 2020008c | सन्ति धर्मोपधाः श्लक्ष्णा धर्मात्मन्किं न बुध्यसे |
1257 | 2020009a | लोकविद्विष्टमारब्धं त्वदन्यस्याभिषेचनम् |
1258 | 2020009c | येनेयमागता द्वैधं तव बुद्धिर्महीपते |
1259 | 2020009e | स हि धर्मो मम द्वेष्यः प्रसङ्गाद्यस्य मुह्यसि |
1260 | 2020010a | यद्यपि प्रतिपत्तिस्ते दैवी चापि तयोर्मतम् |
1261 | 2020010c | तथाप्युपेक्षणीयं ते न मे तदपि रोचते |
1262 | 2020011a | विक्लवो वीर्यहीनो यः स दैवमनुवर्तते |
1263 | 2020011c | वीराः संभावितात्मानो न दैवं पर्युपासते |
1264 | 2020012a | दैवं पुरुषकारेण यः समर्थः प्रबाधितुम् |
1265 | 2020012c | न दैवेन विपन्नार्थः पुरुषः सोऽवसीदति |
1266 | 2020013a | द्रक्ष्यन्ति त्वद्य दैवस्य पौरुषं पुरुषस्य च |
1267 | 2020013c | दैवमानुषयोरद्य व्यक्ता व्यक्तिर्भविष्यति |
1268 | 2020014a | अद्य मत्पौरुषहतं दैवं द्रक्ष्यन्ति वै जनाः |
1269 | 2020014c | यद्दैवादाहतं तेऽद्य दृष्टं राज्याभिषेचनम् |
1270 | 2020015a | अत्यङ्कुशमिवोद्दामं गजं मदबलोद्धतम् |
1271 | 2020015c | प्रधावितमहं दैवं पौरुषेण निवर्तये |
1272 | 2020016a | लोकपालाः समस्तास्ते नाद्य रामाभिषेचनम् |
1273 | 2020016c | न च कृत्स्नास्त्रयो लोका विहन्युः किं पुनः पिता |
1274 | 2020017a | यैर्विवासस्तवारण्ये मिथो राजन्समर्थितः |
1275 | 2020017c | अरण्ये ते विवत्स्यन्ति चतुर्दश समास्तथा |
1276 | 2020018a | अहं तदाशां छेत्स्यामि पितुस्तस्याश्च या तव |
1277 | 2020018c | अभिषेकविघातेन पुत्रराज्याय वर्तते |
1278 | 2020019a | मद्बलेन विरुद्धाय न स्याद्दैवबलं तथा |
1279 | 2020019c | प्रभविष्यति दुःखाय यथोग्रं पौरुषं मम |
1280 | 2020020a | ऊर्ध्वं वर्षसहस्रान्ते प्रजापाल्यमनन्तरम् |
1281 | 2020020c | आर्यपुत्राः करिष्यन्ति वनवासं गते त्वयि |
1282 | 2020021a | पूर्वराजर्षिवृत्त्या हि वनवासो विधीयते |
1283 | 2020021c | प्रजा निक्षिप्य पुत्रेषु पुत्रवत्परिपालने |
1284 | 2020022a | स चेद्राजन्यनेकाग्रे राज्यविभ्रमशङ्कया |
1285 | 2020022c | नैवमिच्छसि धर्मात्मन्राज्यं राम त्वमात्मनि |
1286 | 2020023a | प्रतिजाने च ते वीर मा भूवं वीरलोकभाक् |
1287 | 2020023c | राज्यं च तव रक्षेयमहं वेलेव सागरम् |
1288 | 2020024a | मङ्गलैरभिषिञ्चस्व तत्र त्वं व्यापृतो भव |
1289 | 2020024c | अहमेको महीपालानलं वारयितुं बलात् |
1290 | 2020025a | न शोभार्थाविमौ बाहू न धनुर्भूषणाय मे |
1291 | 2020025c | नासिराबन्धनार्थाय न शराः स्तम्भहेतवः |
1292 | 2020026a | अमित्रदमनार्थं मे सर्वमेतच्चतुष्टयम् |
1293 | 2020026c | न चाहं कामयेऽत्यर्थं यः स्याच्छत्रुर्मतो मम |
1294 | 2020027a | असिना तीक्ष्णधारेण विद्युच्चलितवर्चसा |
1295 | 2020027c | प्रगृहीतेन वै शत्रुं वज्रिणं वा न कल्पये |
1296 | 2020028a | खड्गनिष्पेषनिष्पिष्टैर्गहना दुश्चरा च मे |
1297 | 2020028c | हस्त्यश्वनरहस्तोरुशिरोभिर्भविता मही |
1298 | 2020029a | खड्गधाराहता मेऽद्य दीप्यमाना इवाद्रयः |
1299 | 2020029c | पतिष्यन्ति द्विपा भूमौ मेघा इव सविद्युतः |
1300 | 2020030a | बद्धगोधाङ्गुलित्राणे प्रगृहीतशरासने |
1301 | 2020030c | कथं पुरुषमानी स्यात्पुरुषाणां मयि स्थिते |
1302 | 2020031a | बहुभिश्चैकमत्यस्यन्नेकेन च बहूञ्जनान् |
1303 | 2020031c | विनियोक्ष्याम्यहं बाणान्नृवाजिगजमर्मसु |
1304 | 2020032a | अद्य मेऽस्त्रप्रभावस्य प्रभावः प्रभविष्यति |
1305 | 2020032c | राज्ञश्चाप्रभुतां कर्तुं प्रभुत्वं च तव प्रभो |
1306 | 2020033a | अद्य चन्दनसारस्य केयूरामोक्षणस्य च |
1307 | 2020033c | वसूनां च विमोक्षस्य सुहृदां पालनस्य च |
1308 | 2020034a | अनुरूपाविमौ बाहू राम कर्म करिष्यतः |
1309 | 2020034c | अभिषेचनविघ्नस्य कर्तॄणां ते निवारणे |
1310 | 2020035a | ब्रवीहि कोऽद्यैव मया वियुज्यतां; तवासुहृत्प्राणयशः सुहृज्जनैः |
1311 | 2020035c | यथा तवेयं वसुधा वशे भवे;त्तथैव मां शाधि तवास्मि किंकरः |
1312 | 2020036a | विमृज्य बाष्पं परिसान्त्व्य चासकृ;त्स लक्ष्मणं राघववंशवर्धनः |
1313 | 2020036c | उवाच पित्र्ये वचने व्यवस्थितं; निबोध मामेष हि सौम्य सत्पथः |
1314 | 2021001a | तं समीक्ष्य त्ववहितं पितुर्निर्देशपालने |
1315 | 2021001c | कौसल्या बाष्पसंरुद्धा वचो धर्मिष्ठमब्रवीत् |
1316 | 2021002a | अदृष्टदुःखो धर्मात्मा सर्वभूतप्रियंवदः |
1317 | 2021002c | मयि जातो दशरथात्कथमुञ्छेन वर्तयेत् |
1318 | 2021003a | यस्य भृत्याश्च दासाश्च मृष्टान्यन्नानि भुञ्जते |
1319 | 2021003c | कथं स भोक्ष्यते नाथो वने मूलफलान्ययम् |
1320 | 2021004a | क एतच्छ्रद्दधेच्छ्रुत्वा कस्य वा न भवेद्भयम् |
1321 | 2021004c | गुणवान्दयितो राज्ञो राघवो यद्विवास्यते |
1322 | 2021005a | त्वया विहीनामिह मां शोकाग्निरतुलो महान् |
1323 | 2021005c | प्रधक्ष्यति यथा कक्षं चित्रभानुर्हिमात्यये |
1324 | 2021006a | कथं हि धेनुः स्वं वत्सं गच्छन्तं नानुगच्छति |
1325 | 2021006c | अहं त्वानुगमिष्यामि यत्र पुत्र गमिष्यसि |
1326 | 2021007a | तथा निगदितं मात्रा तद्वाक्यं पुरुषर्षभः |
1327 | 2021007c | श्रुत्वा रामोऽब्रवीद्वाक्यं मातरं भृशदुःखिताम् |
1328 | 2021008a | कैकेय्या वञ्चितो राजा मयि चारण्यमाश्रिते |
1329 | 2021008c | भवत्या च परित्यक्तो न नूनं वर्तयिष्यति |
1330 | 2021009a | भर्तुः किल परित्यागो नृशंसः केवलं स्त्रियाः |
1331 | 2021009c | स भवत्या न कर्तव्यो मनसापि विगर्हितः |
1332 | 2021010a | यावज्जीवति काकुत्स्थः पिता मे जगतीपतिः |
1333 | 2021010c | शुश्रूषा क्रियतां तावत्स हि धर्मः सनातनः |
1334 | 2021011a | एवमुक्ता तु रामेण कौसल्या शुभ दर्शना |
1335 | 2021011c | तथेत्युवाच सुप्रीता राममक्लिष्टकारिणम् |
1336 | 2021012a | एवमुक्तस्तु वचनं रामो धर्मभृतां वरः |
1337 | 2021012c | भूयस्तामब्रवीद्वाक्यं मातरं भृशदुःखिताम् |
1338 | 2021013a | मया चैव भवत्या च कर्तव्यं वचनं पितुः |
1339 | 2021013c | राजा भर्ता गुरुः श्रेष्ठः सर्वेषामीश्वरः प्रभुः |
1340 | 2021014a | इमानि तु महारण्ये विहृत्य नव पञ्च च |
1341 | 2021014c | वर्षाणि परमप्रीतः स्थास्यामि वचने तव |
1342 | 2021015a | एवमुक्ता प्रियं पुत्रं बाष्पपूर्णानना तदा |
1343 | 2021015c | उवाच परमार्ता तु कौसल्या पुत्रवत्सला |
1344 | 2021016a | आसां राम सपत्नीनां वस्तुं मध्ये न मे क्षमम् |
1345 | 2021016c | नय मामपि काकुत्स्थ वनं वन्यं मृगीं यथा |
1346 | 2021016e | यदि ते गमने बुद्धिः कृता पितुरपेक्षया |
1347 | 2021017a | तां तथा रुदतीं रामो रुदन्वचनमब्रवीत् |
1348 | 2021017c | जीवन्त्या हि स्त्रिया भर्ता दैवतं प्रभुरेव च |
1349 | 2021017e | भवत्या मम चैवाद्य राजा प्रभवति प्रभुः |
1350 | 2021018a | भरतश्चापि धर्मात्मा सर्वभूतप्रियंवदः |
1351 | 2021018c | भवतीमनुवर्तेत स हि धर्मरतः सदा |
1352 | 2021019a | यथा मयि तु निष्क्रान्ते पुत्रशोकेन पार्थिवः |
1353 | 2021019c | श्रमं नावाप्नुयात्किंचिदप्रमत्ता तथा कुरु |
1354 | 2021020a | व्रतोपवासनिरता या नारी परमोत्तमा |
1355 | 2021020c | भर्तारं नानुवर्तेत सा च पापगतिर्भवेत् |
1356 | 2021021a | शुश्रूषमेव कुर्वीत भर्तुः प्रियहिते रता |
1357 | 2021021c | एष धर्मः पुरा दृष्टो लोके वेदे श्रुतः स्मृतः |
1358 | 2021022a | पूज्यास्ते मत्कृते देवि ब्राह्मणाश्चैव सुव्रताः |
1359 | 2021022c | एवं कालं प्रतीक्षस्व ममागमनकाङ्क्षिणी |
1360 | 2021023a | प्राप्स्यसे परमं कामं मयि प्रत्यागते सति |
1361 | 2021023c | यदि धर्मभृतां श्रेष्ठो धारयिष्यति जीवितम् |
1362 | 2021024a | एवमुक्ता तु रामेण बाष्पपर्याकुलेक्षणा |
1363 | 2021024c | कौसल्या पुत्रशोकार्ता रामं वचनमब्रवीत् |
1364 | 2021024e | गच्छ पुत्र त्वमेकाग्रो भद्रं तेऽस्तु सदा विभो |
1365 | 2021025a | तथा हि रामं वनवासनिश्चितं; समीक्ष्य देवी परमेण चेतसा |
1366 | 2021025c | उवाच रामं शुभलक्षणं वचो; बभूव च स्वस्त्ययनाभिकाङ्क्षिणी |
1367 | 2022001a | सापनीय तमायासमुपस्पृश्य जलं शुचि |
1368 | 2022001c | चकार माता रामस्य मङ्गलानि मनस्विनी |
1369 | 2022002a | स्वस्ति साध्याश्च विश्वे च मरुतश्च महर्षयः |
1370 | 2022002c | स्वस्ति धाता विधाता च स्वस्ति पूषा भगोऽर्यमा |
1371 | 2022003a | ऋतवश्चैव पक्षाश्च मासाः संवत्सराः क्षपाः |
1372 | 2022003c | दिनानि च मुहूर्ताश्च स्वस्ति कुर्वन्तु ते सदा |
1373 | 2022004a | स्मृतिर्धृतिश्च धर्मश्च पान्तु त्वां पुत्र सर्वतः |
1374 | 2022004c | स्कन्दश्च भगवान्देवः सोमश्च सबृहस्पतिः |
1375 | 2022005a | सप्तर्षयो नारदश्च ते त्वां रक्षन्तु सर्वतः |
1376 | 2022005c | नक्षत्राणि च सर्वाणि ग्रहाश्च सहदेवताः |
1377 | 2022005e | महावनानि चरतो मुनिवेषस्य धीमतः |
1378 | 2022006a | प्लवगा वृश्चिका दंशा मशकाश्चैव कानने |
1379 | 2022006c | सरीसृपाश्च कीटाश्च मा भूवन्गहने तव |
1380 | 2022007a | महाद्विपाश्च सिंहाश्च व्याघ्रा ऋक्षाश्च दंष्ट्रिणः |
1381 | 2022007c | महिषाः शृङ्गिणो रौद्रा न ते द्रुह्यन्तु पुत्रक |
1382 | 2022008a | नृमांसभोजना रौद्रा ये चान्ये सत्त्वजातयः |
1383 | 2022008c | मा च त्वां हिंसिषुः पुत्र मया संपूजितास्त्विह |
1384 | 2022009a | आगमास्ते शिवाः सन्तु सिध्यन्तु च पराक्रमाः |
1385 | 2022009c | सर्वसंपत्तयो राम स्वस्तिमान्गच्छ पुत्रक |
1386 | 2022010a | स्वस्ति तेऽस्त्वान्तरिक्षेभ्यः पार्थिवेभ्यः पुनः पुनः |
1387 | 2022010c | सर्वेभ्यश्चैव देवेभ्यो ये च ते परिपन्थिनः |
1388 | 2022011a | सर्वलोकप्रभुर्ब्रह्मा भूतभर्ता तथर्षयः |
1389 | 2022011c | ये च शेषाः सुरास्ते त्वां रक्षन्तु वनवासिनम् |
1390 | 2022012a | इति माल्यैः सुरगणान्गन्धैश्चापि यशस्विनी |
1391 | 2022012c | स्तुतिभिश्चानुरूपाभिरानर्चायतलोचना |
1392 | 2022013a | यन्मङ्गलं सहस्राक्षे सर्वदेवनमस्कृते |
1393 | 2022013c | वृत्रनाशे समभवत्तत्ते भवतु मङ्गलम् |
1394 | 2022014a | यन्मङ्गलं सुपर्णस्य विनताकल्पयत्पुरा |
1395 | 2022014c | अमृतं प्रार्थयानस्य तत्ते भवतु मङ्गलम् |
1396 | 2022015a | ओषधीं चापि सिद्धार्थां विशल्यकरणीं शुभाम् |
1397 | 2022015c | चकार रक्षां कौसल्या मन्त्रैरभिजजाप च |
1398 | 2022016a | आनम्य मूर्ध्नि चाघ्राय परिष्वज्य यशस्विनी |
1399 | 2022016c | अवदत्पुत्र सिद्धार्थो गच्छ राम यथासुखम् |
1400 | 2022017a | अरोगं सर्वसिद्धार्थमयोध्यां पुनरागतम् |
1401 | 2022017c | पश्यामि त्वां सुखं वत्स सुस्थितं राजवेश्मनि |
1402 | 2022018a | मयार्चिता देवगणाः शिवादयो; महर्षयो भूतमहासुरोरगाः |
1403 | 2022018c | अभिप्रयातस्य वनं चिराय ते; हितानि काङ्क्षन्तु दिशश्च राघव |
1404 | 2022019a | इतीव चाश्रुप्रतिपूर्णलोचना; समाप्य च स्वस्त्ययनं यथाविधि |
1405 | 2022019c | प्रदक्षिणं चैव चकार राघवं; पुनः पुनश्चापि निपीड्य सस्वजे |
1406 | 2022020a | तथा तु देव्या स कृतप्रदक्षिणो; निपीड्य मातुश्चरणौ पुनः पुनः |
1407 | 2022020c | जगाम सीतानिलयं महायशाः; स राघवः प्रज्वलितः स्वया श्रिया |
1408 | 2023001a | अभिवाद्य तु कौसल्यां रामः संप्रस्थितो वनम् |
1409 | 2023001c | कृतस्वस्त्ययनो मात्रा धर्मिष्ठे वर्त्मनि स्थितः |
1410 | 2023002a | विराजयन्राजसुतो राजमार्गं नरैर्वृतम् |
1411 | 2023002c | हृदयान्याममन्थेव जनस्य गुणवत्तया |
1412 | 2023003a | वैदेही चापि तत्सर्वं न शुश्राव तपस्विनी |
1413 | 2023003c | तदेव हृदि तस्याश्च यौवराज्याभिषेचनम् |
1414 | 2023004a | देवकार्यं स्म सा कृत्वा कृतज्ञा हृष्टचेतना |
1415 | 2023004c | अभिज्ञा राजधर्माणां राजपुत्रं प्रतीक्षते |
1416 | 2023005a | प्रविवेशाथ रामस्तु स्ववेश्म सुविभूषितम् |
1417 | 2023005c | प्रहृष्टजनसंपूर्णं ह्रिया किंचिदवाङ्मुखः |
1418 | 2023006a | अथ सीता समुत्पत्य वेपमाना च तं पतिम् |
1419 | 2023006c | अपश्यच्छोकसंतप्तं चिन्ताव्याकुलिलेन्द्रियम् |
1420 | 2023007a | विवर्णवदनं दृष्ट्वा तं प्रस्विन्नममर्षणम् |
1421 | 2023007c | आह दुःखाभिसंतप्ता किमिदानीमिदं प्रभो |
1422 | 2023008a | अद्य बार्हस्पतः श्रीमान्युक्तः पुष्यो न राघव |
1423 | 2023008c | प्रोच्यते ब्राह्मणैः प्राज्ञैः केन त्वमसि दुर्मनाः |
1424 | 2023009a | न ते शतशलाकेन जलफेननिभेन च |
1425 | 2023009c | आवृतं वदनं वल्गु छत्रेणाभिविराजते |
1426 | 2023010a | व्यजनाभ्यां च मुख्याभ्यां शतपत्रनिभेक्षणम् |
1427 | 2023010c | चन्द्रहंसप्रकाशाभ्यां वीज्यते न तवाननम् |
1428 | 2023011a | वाग्मिनो बन्दिनश्चापि प्रहृष्टास्त्वं नरर्षभ |
1429 | 2023011c | स्तुवन्तो नाद्य दृश्यन्ते मङ्गलैः सूतमागधाः |
1430 | 2023012a | न ते क्षौद्रं च दधि च ब्राह्मणा वेदपारगाः |
1431 | 2023012c | मूर्ध्नि मूर्धावसिक्तस्य दधति स्म विधानतः |
1432 | 2023013a | न त्वां प्रकृतयः सर्वा श्रेणीमुख्याश्च भूषिताः |
1433 | 2023013c | अनुव्रजितुमिच्छन्ति पौरजापपदास्तथा |
1434 | 2023014a | चतुर्भिर्वेगसंपन्नैर्हयैः काञ्चनभूषणैः |
1435 | 2023014c | मुख्यः पुष्यरथो युक्तः किं न गच्छति तेऽग्रतः |
1436 | 2023015a | न हस्ती चाग्रतः श्रीमांस्तव लक्षणपूजितः |
1437 | 2023015c | प्रयाणे लक्ष्यते वीर कृष्णमेघगिरि प्रभः |
1438 | 2023016a | न च काञ्चनचित्रं ते पश्यामि प्रियदर्शन |
1439 | 2023016c | भद्रासनं पुरस्कृत्य यान्तं वीरपुरःसरम् |
1440 | 2023017a | अभिषेको यदा सज्जः किमिदानीमिदं तव |
1441 | 2023017c | अपूर्वो मुखवर्णश्च न प्रहर्षश्च लक्ष्यते |
1442 | 2023018a | इतीव विलपन्तीं तां प्रोवाच रघुनन्दनः |
1443 | 2023018c | सीते तत्रभवांस्तात प्रव्राजयति मां वनम् |
1444 | 2023019a | कुले महति संभूते धर्मज्ञे धर्मचारिणि |
1445 | 2023019c | शृणु जानकि येनेदं क्रमेणाभ्यागतं मम |
1446 | 2023020a | राज्ञा सत्यप्रतिज्ञेन पित्रा दशरथेन मे |
1447 | 2023020c | कैकेय्यै प्रीतमनसा पुरा दत्तौ महावरौ |
1448 | 2023021a | तयाद्य मम सज्जेऽस्मिन्नभिषेके नृपोद्यते |
1449 | 2023021c | प्रचोदितः स समयो धर्मेण प्रतिनिर्जितः |
1450 | 2023022a | चतुर्दश हि वर्षाणि वस्तव्यं दण्डके मया |
1451 | 2023022c | पित्रा मे भरतश्चापि यौवराज्ये नियोजितः |
1452 | 2023022e | सोऽहं त्वामागतो द्रष्टुं प्रस्थितो विजनं वनम् |
1453 | 2023023a | भरतस्य समीपे ते नाहं कथ्यः कदाचन |
1454 | 2023023c | ऋद्धियुक्ता हि पुरुषा न सहन्ते परस्तवम् |
1455 | 2023023e | तस्मान्न ते गुणाः कथ्या भरतस्याग्रतो मम |
1456 | 2023024a | नापि त्वं तेन भर्तव्या विशेषेण कदाचन |
1457 | 2023024c | अनुकूलतया शक्यं समीपे तस्य वर्तितुम् |
1458 | 2023025a | अहं चापि प्रतिज्ञां तां गुरोः समनुपालयन् |
1459 | 2023025c | वनमद्यैव यास्यामि स्थिरा भव मनस्विनि |
1460 | 2023026a | याते च मयि कल्याणि वनं मुनिनिषेवितम् |
1461 | 2023026c | व्रतोपवासरतया भवितव्यं त्वयानघे |
1462 | 2023027a | काल्यमुत्थाय देवानां कृत्वा पूजां यथाविधि |
1463 | 2023027c | वन्दितव्यो दशरथः पिता मम नरेश्वरः |
1464 | 2023028a | माता च मम कौसल्या वृद्धा संतापकर्शिता |
1465 | 2023028c | धर्ममेवाग्रतः कृत्वा त्वत्तः संमानमर्हति |
1466 | 2023029a | वन्दितव्याश्च ते नित्यं याः शेषा मम मातरः |
1467 | 2023029c | स्नेहप्रणयसंभोगैः समा हि मम मातरः |
1468 | 2023030a | भ्रातृपुत्रसमौ चापि द्रष्टव्यौ च विशेषतः |
1469 | 2023030c | त्वया लक्ष्मणशत्रुघ्नौ प्राणैः प्रियतरौ मम |
1470 | 2023031a | विप्रियं न च कर्तव्यं भरतस्य कदाचन |
1471 | 2023031c | स हि राजा प्रभुश्चैव देशस्य च कुलस्य च |
1472 | 2023032a | आराधिता हि शीलेन प्रयत्नैश्चोपसेविताः |
1473 | 2023032c | राजानः संप्रसीदन्ति प्रकुप्यन्ति विपर्यये |
1474 | 2023033a | औरसानपि पुत्रान्हि त्यजन्त्यहितकारिणः |
1475 | 2023033c | समर्थान्संप्रगृह्णन्ति जनानपि नराधिपाः |
1476 | 2023034a | अहं गमिष्यामि महावनं प्रिये; त्वया हि वस्तव्यमिहैव भामिनि |
1477 | 2023034c | यथा व्यलीकं कुरुषे न कस्य चि;त्तथा त्वया कार्यमिदं वचो मम |
1478 | 2024001a | एवमुक्ता तु वैदेही प्रियार्हा प्रियवादिनी |
1479 | 2024001c | प्रणयादेव संक्रुद्धा भर्तारमिदमब्रवीत् |
1480 | 2024002a | आर्यपुत्र पिता माता भ्राता पुत्रस्तथा स्नुषा |
1481 | 2024002c | स्वानि पुण्यानि भुञ्जानाः स्वं स्वं भाग्यमुपासते |
1482 | 2024003a | भर्तुर्भाग्यं तु भार्यैका प्राप्नोति पुरुषर्षभ |
1483 | 2024003c | अतश्चैवाहमादिष्टा वने वस्तव्यमित्यपि |
1484 | 2024004a | न पिता नात्मजो नात्मा न माता न सखीजनः |
1485 | 2024004c | इह प्रेत्य च नारीणां पतिरेको गतिः सदा |
1486 | 2024005a | यदि त्वं प्रस्थितो दुर्गं वनमद्यैव राघव |
1487 | 2024005c | अग्रतस्ते गमिष्यामि मृद्नन्ती कुशकण्टकान् |
1488 | 2024006a | ईर्ष्या रोषौ बहिष्कृत्य भुक्तशेषमिवोदकम् |
1489 | 2024006c | नय मां वीर विश्रब्धः पापं मयि न विद्यते |
1490 | 2024007a | प्रासादाग्रैर्विमानैर्वा वैहायसगतेन वा |
1491 | 2024007c | सर्वावस्थागता भर्तुः पादच्छाया विशिष्यते |
1492 | 2024008a | अनुशिष्टास्मि मात्रा च पित्रा च विविधाश्रयम् |
1493 | 2024008c | नास्मि संप्रति वक्तव्या वर्तितव्यं यथा मया |
1494 | 2024009a | सुखं वने निवत्स्यामि यथैव भवने पितुः |
1495 | 2024009c | अचिन्तयन्ती त्रीँल्लोकांश्चिन्तयन्ती पतिव्रतम् |
1496 | 2024010a | शुश्रूषमाणा ते नित्यं नियता ब्रह्मचारिणी |
1497 | 2024010c | सह रंस्ये त्वया वीर वनेषु मधुगन्धिषु |
1498 | 2024011a | त्वं हि कर्तुं वने शक्तो राम संपरिपालनम् |
1499 | 2024011c | अन्यस्य पै जनस्येह किं पुनर्मम मानद |
1500 | 2024012a | फलमूलाशना नित्यं भविष्यामि न संशयः |
1501 | 2024012c | न ते दुःखं करिष्यामि निवसन्ती सह त्वया |
1502 | 2024013a | इच्छामि सरितः शैलान्पल्वलानि वनानि च |
1503 | 2024013c | द्रष्टुं सर्वत्र निर्भीता त्वया नाथेन धीमता |
1504 | 2024014a | हंसकारण्डवाकीर्णाः पद्मिनीः साधुपुष्पिताः |
1505 | 2024014c | इच्छेयं सुखिनी द्रष्टुं त्वया वीरेण संगता |
1506 | 2024015a | सह त्वया विशालाक्ष रंस्ये परमनन्दिनी |
1507 | 2024015c | एवं वर्षसहस्राणां शतं वाहं त्वया सह |
1508 | 2024016a | स्वर्गेऽपि च विना वासो भविता यदि राघव |
1509 | 2024016c | त्वया मम नरव्याघ्र नाहं तमपि रोचये |
1510 | 2024017a | अहं गमिष्यामि वनं सुदुर्गमं; मृगायुतं वानरवारणैर्युतम् |
1511 | 2024017c | वने निवत्स्यामि यथा पितुर्गृहे; तवैव पादावुपगृह्य संमता |
1512 | 2024018a | अनन्यभावामनुरक्तचेतसं; त्वया वियुक्तां मरणाय निश्चिताम् |
1513 | 2024018c | नयस्व मां साधु कुरुष्व याचनां; न ते मयातो गुरुता भविष्यति |
1514 | 2024019a | तथा ब्रुवाणामपि धर्मवत्सलो; न च स्म सीतां नृवरो निनीषति |
1515 | 2024019c | उवाच चैनां बहु संनिवर्तने; वने निवासस्य च दुःखितां प्रति |
1516 | 2025001a | स एवं ब्रुवतीं सीतां धर्मज्ञो धर्मवत्सलः |
1517 | 2025001c | निवर्तनार्थे धर्मात्मा वाक्यमेतदुवाच ह |
1518 | 2025002a | सीते महाकुलीनासि धर्मे च निरता सदा |
1519 | 2025002c | इहाचर स्वधर्मं त्वं मा यथा मनसः सुखम् |
1520 | 2025003a | सीते यथा त्वां वक्ष्यामि तथा कार्यं त्वयाबले |
1521 | 2025003c | वने दोषा हि बहवो वदतस्तान्निबोध मे |
1522 | 2025004a | सीते विमुच्यतामेषा वनवासकृता मतिः |
1523 | 2025004c | बहुदोषं हि कान्तारं वनमित्यभिधीयते |
1524 | 2025005a | हितबुद्ध्या खलु वचो मयैतदभिधीयते |
1525 | 2025005c | सदा सुखं न जानामि दुःखमेव सदा वनम् |
1526 | 2025006a | गिरिनिर्झरसंभूता गिरिकन्दरवासिनाम् |
1527 | 2025006c | सिंहानां निनदा दुःखाः श्रोतुं दुःखमतो वनम् |
1528 | 2025007a | सुप्यते पर्णशय्यासु स्वयं भग्नासु भूतले |
1529 | 2025007c | रात्रिषु श्रमखिन्नेन तस्माद्दुःखतरं वनम् |
1530 | 2025008a | उपवासश्च कर्तव्या यथाप्राणेन मैथिलि |
1531 | 2025008c | जटाभारश्च कर्तव्यो वल्कलाम्बरधारिणा |
1532 | 2025009a | अतीव वातस्तिमिरं बुभुक्षा चात्र नित्यशः |
1533 | 2025009c | भयानि च महान्त्यत्र ततो दुःखतरं वनम् |
1534 | 2025010a | सरीसृपाश्च बहवो बहुरूपाश्च भामिनि |
1535 | 2025010c | चरन्ति पृथिवीं दर्पादतो दुखतरं वनम् |
1536 | 2025011a | नदीनिलयनाः सर्पा नदीकुटिलगामिनः |
1537 | 2025011c | तिष्ठन्त्यावृत्य पन्थानमतो दुःखतरं वनम् |
1538 | 2025012a | पतंगा वृश्चिकाः कीटा दंशाश्च मशकैः सह |
1539 | 2025012c | बाधन्ते नित्यमबले सर्वं दुःखमतो वनम् |
1540 | 2025013a | द्रुमाः कण्टकिनश्चैव कुशकाशाश्च भामिनि |
1541 | 2025013c | वने व्याकुलशाखाग्रास्तेन दुःखतरं वनम् |
1542 | 2025014a | तदलं ते वनं गत्वा क्षमं न हि वनं तव |
1543 | 2025014c | विमृशन्निह पश्यामि बहुदोषतरं वनम् |
1544 | 2025015a | वनं तु नेतुं न कृता मतिस्तदा; बभूव रामेण यदा महात्मना |
1545 | 2025015c | न तस्य सीता वचनं चकार त;त्ततोऽब्रवीद्राममिदं सुदुःखिता |
1546 | 2026001a | एतत्तु वचनं श्रुत्वा सीता रामस्य दुःखिता |
1547 | 2026001c | प्रसक्ताश्रुमुखी मन्दमिदं वचनमब्रवीत् |
1548 | 2026002a | ये त्वया कीर्तिता दोषा वने वस्तव्यतां प्रति |
1549 | 2026002c | गुणानित्येव तान्विद्धि तव स्नेहपुरस्कृतान् |
1550 | 2026003a | त्वया च सह गन्तव्यं मया गुरुजनाज्ञया |
1551 | 2026003c | त्वद्वियोगेन मे राम त्यक्तव्यमिह जीवितम् |
1552 | 2026004a | न च मां त्वत्समीपस्थमपि शक्नोति राघव |
1553 | 2026004c | सुराणामीश्वरः शक्रः प्रधर्षयितुमोजसा |
1554 | 2026005a | पतिहीना तु या नारी न सा शक्ष्यति जीवितुम् |
1555 | 2026005c | काममेवंविधं राम त्वया मम विदर्शितम् |
1556 | 2026006a | अथ चापि महाप्राज्ञ ब्राह्मणानां मया श्रुतम् |
1557 | 2026006c | पुरा पितृगृहे सत्यं वस्तव्यं किल मे वने |
1558 | 2026007a | लक्षणिभ्यो द्विजातिभ्यः श्रुत्वाहं वचनं गृहे |
1559 | 2026007c | वनवासकृतोत्साहा नित्यमेव महाबल |
1560 | 2026008a | आदेशो वनवासस्य प्राप्तव्यः स मया किल |
1561 | 2026008c | सा त्वया सह तत्राहं यास्यामि प्रिय नान्यथा |
1562 | 2026009a | कृतादेशा भविष्यामि गमिष्यामि सह त्वया |
1563 | 2026009c | कालश्चायं समुत्पन्नः सत्यवाग्भवतु द्विजः |
1564 | 2026010a | वनवासे हि जानामि दुःखानि बहुधा किल |
1565 | 2026010c | प्राप्यन्ते नियतं वीर पुरुषैरकृतात्मभिः |
1566 | 2026011a | कन्यया च पितुर्गेहे वनवासः श्रुतो मया |
1567 | 2026011c | भिक्षिण्याः साधुवृत्ताया मम मातुरिहाग्रतः |
1568 | 2026012a | प्रसादितश्च वै पूर्वं त्वं वै बहुविधं प्रभो |
1569 | 2026012c | गमनं वनवासस्य काङ्क्षितं हि सह त्वया |
1570 | 2026013a | कृतक्षणाहं भद्रं ते गमनं प्रति राघव |
1571 | 2026013c | वनवासस्य शूरस्य चर्या हि मम रोचते |
1572 | 2026014a | शुद्धात्मन्प्रेमभावाद्धि भविष्यामि विकल्मषा |
1573 | 2026014c | भर्तारमनुगच्छन्ती भर्ता हि मम दैवतम् |
1574 | 2026015a | प्रेत्यभावेऽपि कल्याणः संगमो मे सह त्वया |
1575 | 2026015c | श्रुतिर्हि श्रूयते पुण्या ब्राह्मणानां यशस्विनाम् |
1576 | 2026016a | इह लोके च पितृभिर्या स्त्री यस्य महामते |
1577 | 2026016c | अद्भिर्दत्ता स्वधर्मेण प्रेत्यभावेऽपि तस्य सा |
1578 | 2026017a | एवमस्मात्स्वकां नारीं सुवृत्तां हि पतिव्रताम् |
1579 | 2026017c | नाभिरोचयसे नेतुं त्वं मां केनेह हेतुना |
1580 | 2026018a | भक्तां पतिव्रतां दीनां मां समां सुखदुःखयोः |
1581 | 2026018c | नेतुमर्हसि काकुत्स्थ समानसुखदुःखिनीम् |
1582 | 2026019a | यदि मां दुःखितामेवं वनं नेतुं न चेच्छसि |
1583 | 2026019c | विषमग्निं जलं वाहमास्थास्ये मृत्युकारणात् |
1584 | 2026020a | एवं बहुविधं तं सा याचते गमनं प्रति |
1585 | 2026020c | नानुमेने महाबाहुस्तां नेतुं विजनं वनम् |
1586 | 2026021a | एवमुक्ता तु सा चिन्तां मैथिली समुपागता |
1587 | 2026021c | स्नापयन्तीव गामुष्णैरश्रुभिर्नयनच्युतैः |
1588 | 2026022a | चिन्तयन्तीं तथा तां तु निवर्तयितुमात्मवान् |
1589 | 2026022c | क्रोधाविष्टां तु वैदेहीं काकुत्स्थो बह्वसान्त्वयत् |
1590 | 2027001a | सान्त्व्यमाना तु रामेण मैथिली जनकात्मजा |
1591 | 2027001c | वनवासनिमित्ताय भर्तारमिदमब्रवीत् |
1592 | 2027002a | सा तमुत्तमसंविग्ना सीता विपुलवक्षसं |
1593 | 2027002c | प्रणयाच्चाभिमानाच्च परिचिक्षेप राघवम् |
1594 | 2027003a | किं त्वामन्यत वैदेहः पिता मे मिथिलाधिपः |
1595 | 2027003c | राम जामातरं प्राप्य स्त्रियं पुरुषविग्रहम् |
1596 | 2027004a | अनृतं बललोकोऽयमज्ञानाद्यद्धि वक्ष्यति |
1597 | 2027004c | तेजो नास्ति परं रामे तपतीव दिवाकरे |
1598 | 2027005a | किं हि कृत्वा विषण्णस्त्वं कुतो वा भयमस्ति ते |
1599 | 2027005c | यत्परित्यक्तुकामस्त्वं मामनन्यपरायणाम् |
1600 | 2027006a | द्युमत्सेनसुतं वीर सत्यवन्तमनुव्रताम् |
1601 | 2027006c | सावित्रीमिव मां विद्धि त्वमात्मवशवर्तिनीम् |
1602 | 2027007a | न त्वहं मनसाप्यन्यं द्रष्टास्मि त्वदृतेऽनघ |
1603 | 2027007c | त्वया राघव गच्छेयं यथान्या कुलपांसनी |
1604 | 2027008a | स्वयं तु भार्यां कौमारीं चिरमध्युषितां सतीम् |
1605 | 2027008c | शैलूष इव मां राम परेभ्यो दातुमिच्छसि |
1606 | 2027009a | स मामनादाय वनं न त्वं प्रस्थातुमर्हसि |
1607 | 2027009c | तपो वा यदि वारण्यं स्वर्गो वा स्यात्सह त्वया |
1608 | 2027010a | न च मे भविता तत्र कश्चित्पथि परिश्रमः |
1609 | 2027010c | पृष्ठतस्तव गच्छन्त्या विहारशयनेष्वपि |
1610 | 2027011a | कुशकाशशरेषीका ये च कण्टकिनो द्रुमाः |
1611 | 2027011c | तूलाजिनसमस्पर्शा मार्गे मम सह त्वया |
1612 | 2027012a | महावात समुद्धूतं यन्मामवकरिष्यति |
1613 | 2027012c | रजो रमण तन्मन्ये परार्ध्यमिव चन्दनम् |
1614 | 2027013a | शाद्वलेषु यदासिष्ये वनान्ते वनगोरचा |
1615 | 2027013c | कुथास्तरणतल्पेषु किं स्यात्सुखतरं ततः |
1616 | 2027014a | पत्रं मूलं फलं यत्त्वमल्पं वा यदि वा बहु |
1617 | 2027014c | दास्यसि स्वयमाहृत्य तन्मेऽमृतरसोपमम् |
1618 | 2027015a | न मातुर्न पितुस्तत्र स्मरिष्यामि न वेश्मनः |
1619 | 2027015c | आर्तवान्युपभुञ्जाना पुष्पाणि च फलानि च |
1620 | 2027016a | न च तत्र गतः किंचिद्द्रष्टुमर्हसि विप्रियम् |
1621 | 2027016c | मत्कृते न च ते शोको न भविष्यामि दुर्भरा |
1622 | 2027017a | यस्त्वया सह स स्वर्गो निरयो यस्त्वया विना |
1623 | 2027017c | इति जानन्परां प्रीतिं गच्छ राम मया सह |
1624 | 2027018a | अथ मामेवमव्यग्रां वनं नैव नयिष्यसि |
1625 | 2027018c | विषमद्यैव पास्यामि मा विशं द्विषतां वशम् |
1626 | 2027019a | पश्चादपि हि दुःखेन मम नैवास्ति जीवितम् |
1627 | 2027019c | उज्झितायास्त्वया नाथ तदैव मरणं वरम् |
1628 | 2027020a | इदं हि सहितुं शोकं मुहूर्तमपि नोत्सहे |
1629 | 2027020c | किं पुनर्दशवर्षाणि त्रीणि चैकं च दुःखिता |
1630 | 2027021a | इति सा शोकसंतप्ता विलप्य करुणं बहु |
1631 | 2027021c | चुक्रोश पतिमायस्ता भृशमालिङ्ग्य सस्वरम् |
1632 | 2027022a | सा विद्धा बहुभिर्वाक्यैर्दिग्धैरिव गजाङ्गना |
1633 | 2027022c | चिर संनियतं बाष्पं मुमोचाग्निमिवारणिः |
1634 | 2027023a | तस्याः स्फटिकसंकाशं वारि संतापसंभवम् |
1635 | 2027023c | नेत्राभ्यां परिसुस्राव पङ्कजाभ्यामिवोदकम् |
1636 | 2027024a | तां परिष्वज्य बाहुभ्यां विसंज्ञामिव दुःखिताम् |
1637 | 2027024c | उवाच वचनं रामः परिविश्वासयंस्तदा |
1638 | 2027025a | न देवि तव दुःखेन स्वर्गमप्यभिरोचये |
1639 | 2027025c | न हि मेऽस्ति भयं किंचित्स्वयम्भोरिव सर्वतः |
1640 | 2027026a | तव सर्वमभिप्रायमविज्ञाय शुभानने |
1641 | 2027026c | वासं न रोचयेऽरण्ये शक्तिमानपि रक्षणे |
1642 | 2027027a | यत्सृष्टासि मया सार्धं वनवासाय मैथिलि |
1643 | 2027027c | न विहातुं मया शक्या कीर्तिरात्मवता यथा |
1644 | 2027028a | धर्मस्तु गजनासोरु सद्भिराचरितः पुरा |
1645 | 2027028c | तं चाहमनुवर्तेऽद्य यथा सूर्यं सुवर्चला |
1646 | 2027029a | एष धर्मस्तु सुश्रोणि पितुर्मातुश्च वश्यता |
1647 | 2027029c | अतश्चाज्ञां व्यतिक्रम्य नाहं जीवितुमुत्सहे |
1648 | 2027030a | स मां पिता यथा शास्ति सत्यधर्मपथे स्थितः |
1649 | 2027030c | तथा वर्तितुमिच्छामि स हि धर्मः सनातनः |
1650 | 2027030e | अनुगच्छस्व मां भीरु सहधर्मचरी भव |
1651 | 2027031a | ब्राह्मणेभ्यश्च रत्नानि भिक्षुकेभ्यश्च भोजनम् |
1652 | 2027031c | देहि चाशंसमानेभ्यः संत्वरस्व च माचिरम् |
1653 | 2027032a | अनुकूलं तु सा भर्तुर्ज्ञात्वा गमनमात्मनः |
1654 | 2027032c | क्षिप्रं प्रमुदिता देवी दातुमेवोपचक्रमे |
1655 | 2027033a | ततः प्रहृष्टा परिपूर्णमानसा; यशस्विनी भर्तुरवेक्ष्य भाषितम् |
1656 | 2027033c | धनानि रत्नानि च दातुमङ्गना; प्रचक्रमे धर्मभृतां मनस्विनी |
1657 | 2028001a | ततोऽब्रवीन्महातेजा रामो लक्ष्मणमग्रतः |
1658 | 2028001c | स्थितं प्राग्गामिनं वीरं याचमानं कृताञ्जलिम् |
1659 | 2028002a | मयाद्य सह सौमित्रे त्वयि गच्छति तद्वनम् |
1660 | 2028002c | को भरिष्यति कौसल्यां सुमित्रां वा यशस्विनीम् |
1661 | 2028003a | अभिवर्षति कामैर्यः पर्जन्यः पृथिवीमिव |
1662 | 2028003c | स कामपाशपर्यस्तो महातेजा महीपतिः |
1663 | 2028004a | सा हि राज्यमिदं प्राप्य नृपस्याश्वपतेः सुता |
1664 | 2028004c | दुःखितानां सपत्नीनां न करिष्यति शोभनम् |
1665 | 2028005a | एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मणः श्लक्ष्णया गिरा |
1666 | 2028005c | प्रत्युवाच तदा रामं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम् |
1667 | 2028006a | तवैव तेजसा वीर भरतः पूजयिष्यति |
1668 | 2028006c | कौसल्यां च सुमित्रां च प्रयतो नात्र संशयः |
1669 | 2028007a | कौसल्या बिभृयादार्या सहस्रमपि मद्विधान् |
1670 | 2028007c | यस्याः सहस्रं ग्रामाणां संप्राप्तमुपजीवनम् |
1671 | 2028008a | धनुरादाय सशरं खनित्रपिटकाधरः |
1672 | 2028008c | अग्रतस्ते गमिष्यामि पन्थानमनुदर्शयन् |
1673 | 2028009a | आहरिष्यामि ते नित्यं मूलानि च फलानि च |
1674 | 2028009c | वन्यानि यानि चान्यानि स्वाहाराणि तपस्विनाम् |
1675 | 2028010a | भवांस्तु सह वैदेह्या गिरिसानुषु रंस्यते |
1676 | 2028010c | अहं सर्वं करिष्यामि जाग्रतः स्वपतश्च ते |
1677 | 2028011a | रामस्त्वनेन वाक्येन सुप्रीतः प्रत्युवाच तम् |
1678 | 2028011c | व्रजापृच्छस्व सौमित्रे सर्वमेव सुहृज्जनम् |
1679 | 2028012a | ये च राज्ञो ददौ दिव्ये महात्मा वरुणः स्वयम् |
1680 | 2028012c | जनकस्य महायज्ञे धनुषी रौद्रदर्शने |
1681 | 2028013a | अभेद्यकवचे दिव्ये तूणी चाक्षयसायकौ |
1682 | 2028013c | आदित्यविमलौ चोभौ खड्गौ हेमपरिष्कृतौ |
1683 | 2028014a | सत्कृत्य निहितं सर्वमेतदाचार्यसद्मनि |
1684 | 2028014c | स त्वमायुधमादाय क्षिप्रमाव्रज लक्ष्मण |
1685 | 2028015a | स सुहृज्जनमामन्त्र्य वनवासाय निश्चितः |
1686 | 2028015c | इक्ष्वाकुगुरुमामन्त्र्य जग्राहायुधमुत्तमम् |
1687 | 2028016a | तद्दिव्यं राजशार्दूलः सत्कृतं माल्यभूषितम् |
1688 | 2028016c | रामाय दर्शयामास सौमित्रिः सर्वमायुधम् |
1689 | 2028017a | तमुवाचात्मवान्रामः प्रीत्या लक्ष्मणमागतम् |
1690 | 2028017c | काले त्वमागतः सौम्य काङ्क्षिते मम लक्ष्मण |
1691 | 2028018a | अहं प्रदातुमिच्छामि यदिदं मामकं धनम् |
1692 | 2028018c | ब्राह्मणेभ्यस्तपस्विभ्यस्त्वया सह परंतप |
1693 | 2028019a | वसन्तीह दृढं भक्त्या गुरुषु द्विजसत्तमाः |
1694 | 2028019c | तेषामपि च मे भूयः सर्वेषां चोपजीविनाम् |
1695 | 2028020a | वसिष्ठपुत्रं तु सुयज्ञमार्यं; त्वमानयाशु प्रवरं द्विजानाम् |
1696 | 2028020c | अभिप्रयास्यामि वनं समस्ता;नभ्यर्च्य शिष्टानपरान्द्विजातीन् |
1697 | 2029001a | ततः शासनमाज्ञाय भ्रातुः शुभतरं प्रियम् |
1698 | 2029001c | गत्वा स प्रविवेशाशु सुयज्ञस्य निवेशनम् |
1699 | 2029002a | तं विप्रमग्न्यगारस्थं वन्दित्वा लक्ष्मणोऽब्रवीत् |
1700 | 2029002c | सखेऽभ्यागच्छ पश्य त्वं वेश्म दुष्करकारिणः |
1701 | 2029003a | ततः संध्यामुपास्याशु गत्वा सौमित्रिणा सह |
1702 | 2029003c | जुष्टं तत्प्राविशल्लक्ष्म्या रम्यं रामनिवेशनम् |
1703 | 2029004a | तमागतं वेदविदं प्राञ्जलिः सीतया सह |
1704 | 2029004c | सुयज्ञमभिचक्राम राघवोऽग्निमिवार्चितम् |
1705 | 2029005a | जातरूपमयैर्मुख्यैरङ्गदैः कुण्डलैः शुभैः |
1706 | 2029005c | सहेम सूत्रैर्मणिभिः केयूरैर्वलयैरपि |
1707 | 2029006a | अन्यैश्च रत्नैर्बहुभिः काकुत्स्थः प्रत्यपूजयत् |
1708 | 2029006c | सुयज्ञं स तदोवाच रामः सीताप्रचोदितः |
1709 | 2029007a | हारं च हेमसूत्रं च भार्यायै सौम्य हारय |
1710 | 2029007c | रशनां चाधुना सीता दातुमिच्छति ते सखे |
1711 | 2029008a | पर्यङ्कमग्र्यास्तरणं नानारत्नविभूषितम् |
1712 | 2029008c | तमपीच्छति वैदेही प्रतिष्ठापयितुं त्वयि |
1713 | 2029009a | नागः शत्रुं जयो नाम मातुलो यं ददौ मम |
1714 | 2029009c | तं ते गजसहस्रेण ददामि द्विजपुंगव |
1715 | 2029010a | इत्युक्तः स हि रामेण सुयज्ञः प्रतिगृह्य तत् |
1716 | 2029010c | रामलक्ष्मणसीतानां प्रयुयोजाशिषः शिवाः |
1717 | 2029011a | अथ भ्रातरमव्यग्रं प्रियं रामः प्रियंवदः |
1718 | 2029011c | सौमित्रिं तमुवाचेदं ब्रह्मेव त्रिदशेश्वरम् |
1719 | 2029012a | अगस्त्यं कौशिकं चैव तावुभौ ब्राह्मणोत्तमौ |
1720 | 2029012c | अर्चयाहूय सौमित्रे रत्नैः सस्यमिवाम्बुभिः |
1721 | 2029013a | कौसल्यां च य आशीर्भिर्भक्तः पर्युपतिष्ठति |
1722 | 2029013c | आचार्यस्तैत्तिरीयाणामभिरूपश्च वेदवित् |
1723 | 2029014a | तस्य यानं च दासीश्च सौमित्रे संप्रदापय |
1724 | 2029014c | कौशेयानि च वस्त्राणि यावत्तुष्यति स द्विजः |
1725 | 2029015a | सूतश्चित्ररथश्चार्यः सचिवः सुचिरोषितः |
1726 | 2029015c | तोषयैनं महार्हैश्च रत्नैर्वस्त्रैर्धनैस्तथा |
1727 | 2029016a | शालिवाहसहस्रं च द्वे शते भद्रकांस्तथा |
1728 | 2029016c | व्यञ्जनार्थं च सौमित्रे गोसहस्रमुपाकुरु |
1729 | 2029017a | ततः स पुरुषव्याघ्रस्तद्धनं लक्ष्मणः स्वयम् |
1730 | 2029017c | यथोक्तं ब्राह्मणेन्द्राणामददाद्धनदो यथा |
1731 | 2029018a | अथाब्रवीद्बाष्पकलांस्तिष्ठतश्चोपजीविनः |
1732 | 2029018c | संप्रदाय बहु द्रव्यमेकैकस्योपजीविनः |
1733 | 2029019a | लक्ष्मणस्य च यद्वेश्म गृहं च यदिदं मम |
1734 | 2029019c | अशून्यं कार्यमेकैकं यावदागमनं मम |
1735 | 2029020a | इत्युक्त्वा दुःखितं सर्वं जनं तमुपजीविनम् |
1736 | 2029020c | उवाचेदं धनध्यक्षं धनमानीयतामिति |
1737 | 2029020e | ततोऽस्य धनमाजह्रुः सर्वमेवोपजीविनः |
1738 | 2029021a | ततः स पुरुषव्याघ्रस्तद्धनं सहलक्ष्मणः |
1739 | 2029021c | द्विजेभ्यो बालवृद्धेभ्यः कृपणेभ्योऽभ्यदापयत् |
1740 | 2029022a | तत्रासीत्पिङ्गलो गार्ग्यस्त्रिजटो नाम वै द्विजः |
1741 | 2029022c | आ पञ्चमायाः कक्ष्याया नैनं कश्चिदवारयत् |
1742 | 2029023a | स राजपुत्रमासाद्य त्रिजटो वाक्यमब्रवीत् |
1743 | 2029023c | निर्धनो बहुपुत्रोऽस्मि राजपुत्र महायशः |
1744 | 2029023e | उञ्छवृत्तिर्वने नित्यं प्रत्यवेक्षस्व मामिति |
1745 | 2029024a | तमुवाच ततो रामः परिहाससमन्वितम् |
1746 | 2029024c | गवां सहस्रमप्येकं न तु विश्राणितं मया |
1747 | 2029024e | परिक्षिपसि दण्डेन यावत्तावदवाप्स्यसि |
1748 | 2029025a | स शाटीं त्वरितः कट्यां संभ्रान्तः परिवेष्ट्य ताम् |
1749 | 2029025c | आविध्य दण्डं चिक्षेप सर्वप्राणेन वेगितः |
1750 | 2029026a | उवाच च ततो रामस्तं गार्ग्यमभिसान्त्वयन् |
1751 | 2029026c | मन्युर्न खलु कर्तव्यः परिहासो ह्ययं मम |
1752 | 2029027a | ततः सभार्यस्त्रिजटो महामुनि;र्गवामनीकं प्रतिगृह्य मोदितः |
1753 | 2029027c | यशोबलप्रीतिसुखोपबृंहिणी;स्तदाशिषः प्रत्यवदन्महात्मनः |
1754 | 2030001a | दत्त्वा तु सह वैदेह्या ब्राह्मणेभ्यो धनं बहु |
1755 | 2030001c | जग्मतुः पितरं द्रष्टुं सीतया सह राघवौ |
1756 | 2030002a | ततो गृहीते दुष्प्रेक्ष्ये अशोभेतां तदायुधे |
1757 | 2030002c | मालादामभिरासक्ते सीतया समलंकृते |
1758 | 2030003a | ततः प्रासादहर्म्याणि विमानशिखराणि च |
1759 | 2030003c | अधिरुह्य जनः श्रीमानुदासीनो व्यलोकयत् |
1760 | 2030004a | न हि रथ्याः स्म शक्यन्ते गन्तुं बहुजनाकुलाः |
1761 | 2030004c | आरुह्य तस्मात्प्रासादान्दीनाः पश्यन्ति राघवम् |
1762 | 2030005a | पदातिं वर्जितच्छत्रं रामं दृष्ट्वा तदा जनाः |
1763 | 2030005c | ऊचुर्बहुविधा वाचः शोकोपहतचेतसः |
1764 | 2030006a | यं यान्तमनुयाति स्म चतुरङ्गबलं महत् |
1765 | 2030006c | तमेकं सीतया सार्धमनुयाति स्म लक्ष्मणः |
1766 | 2030007a | ऐश्वर्यस्य रसज्ञः सन्कामिनां चैव कामदः |
1767 | 2030007c | नेच्छत्येवानृतं कर्तुं पितरं धर्मगौरवात् |
1768 | 2030008a | या न शक्या पुरा द्रष्टुं भूतैराकाशगैरपि |
1769 | 2030008c | तामद्य सीतां पश्यन्ति राजमार्गगता जनाः |
1770 | 2030009a | अङ्गरागोचितां सीतां रक्तचन्दन सेविनीम् |
1771 | 2030009c | वर्षमुष्णं च शीतं च नेष्यत्याशु विवर्णताम् |
1772 | 2030010a | अद्य नूनं दशरथः सत्त्वमाविश्य भाषते |
1773 | 2030010c | न हि राजा प्रियं पुत्रं विवासयितुमर्हति |
1774 | 2030011a | निर्गुणस्यापि पुत्रस्या काथं स्याद्विप्रवासनम् |
1775 | 2030011c | किं पुनर्यस्य लोकोऽयं जितो वृत्तेन केवलम् |
1776 | 2030012a | आनृशंस्यमनुक्रोशः श्रुतं शीलं दमः शमः |
1777 | 2030012c | राघवं शोभयन्त्येते षड्गुणाः पुरुषोत्तमम् |
1778 | 2030013a | तस्मात्तस्योपघातेन प्रजाः परमपीडिताः |
1779 | 2030013c | औदकानीव सत्त्वानि ग्रीष्मे सलिलसंक्षयात् |
1780 | 2030014a | पीडया पीडितं सर्वं जगदस्य जगत्पतेः |
1781 | 2030014c | मूलस्येवोपघातेन वृक्षः पुष्पफलोपगः |
1782 | 2030015a | ते लक्ष्मण इव क्षिप्रं सपत्न्यः सहबान्धवाः |
1783 | 2030015c | गच्छन्तमनुगच्छामो येन गच्छति राघवः |
1784 | 2030016a | उद्यानानि परित्यज्य क्षेत्राणि च गृहाणि च |
1785 | 2030016c | एकदुःखसुखा राममनुगच्छाम धार्मिकम् |
1786 | 2030017a | समुद्धृतनिधानानि परिध्वस्ताजिराणि च |
1787 | 2030017c | उपात्तधनधान्यानि हृतसाराणि सर्वशः |
1788 | 2030018a | रजसाभ्यवकीर्णानि परित्यक्तानि दैवतैः |
1789 | 2030018c | अस्मत्त्यक्तानि वेश्मानि कैकेयी प्रतिपद्यताम् |
1790 | 2030019a | वनं नगरमेवास्तु येन गच्छति राघवः |
1791 | 2030019c | अस्माभिश्च परित्यक्तं पुरं संपद्यतां वनम् |
1792 | 2030020a | बिलानि दंष्ट्रिणः सर्वे सानूनि मृगपक्षिणः |
1793 | 2030020c | अस्मत्त्यक्तं प्रपद्यन्तां सेव्यमानं त्यजन्तु च |
1794 | 2030021a | इत्येवं विविधा वाचो नानाजनसमीरिताः |
1795 | 2030021c | शुश्राव रामः श्रुत्वा च न विचक्रेऽस्य मानसं |
1796 | 2030022a | प्रतीक्षमाणोऽभिजनं तदार्त;मनार्तरूपः प्रहसन्निवाथ |
1797 | 2030022c | जगाम रामः पितरं दिदृक्षुः; पितुर्निदेशं विधिवच्चिकीर्षुः |
1798 | 2030023a | तत्पूर्वमैक्ष्वाकसुतो महात्मा; रामो गमिष्यन्वनमार्तरूपम् |
1799 | 2030023c | व्यतिष्ठत प्रेक्ष्य तदा सुमन्त्रं; पितुर्महात्मा प्रतिहारणार्थम् |
1800 | 2030024a | पितुर्निदेशेन तु धर्मवत्सलो; वनप्रवेशे कृतबुद्धिनिश्चयः |
1801 | 2030024c | स राघवः प्रेक्ष्य सुमन्त्रमब्रवी;न्निवेदयस्वागमनं नृपाय मे |
1802 | 2031001a | स रामप्रेषितः क्षिप्रं संतापकलुषेन्द्रियः |
1803 | 2031001c | प्रविश्य नृपतिं सूतो निःश्वसन्तं ददर्श ह |
1804 | 2031002a | आलोक्य तु महाप्राज्ञः परमाकुल चेतसं |
1805 | 2031002c | राममेवानुशोचन्तं सूतः प्राञ्जलिरासदत् |
1806 | 2031003a | अयं स पुरुषव्याघ्र द्वारि तिष्ठति ते सुतः |
1807 | 2031003c | ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा सर्वं चैवोपजीविनाम् |
1808 | 2031004a | स त्वा पश्यतु भद्रं ते रामः सत्यपराक्रमः |
1809 | 2031004c | सर्वान्सुहृद आपृच्छ्य त्वामिदानीं दिदृक्षते |
1810 | 2031005a | गमिष्यति महारण्यं तं पश्य जगतीपते |
1811 | 2031005c | वृतं राजगुणैः सर्वैरादित्यमिव रश्मिभिः |
1812 | 2031006a | स सत्यवादी धर्मात्मा गाम्भीर्यात्सागरोपमः |
1813 | 2031006c | आकाश इव निष्पङ्को नरेन्द्रः प्रत्युवाच तम् |
1814 | 2031007a | सुमन्त्रानय मे दारान्ये केचिदिह मामकाः |
1815 | 2031007c | दारैः परिवृतः सर्वैर्द्रष्टुमिच्छामि राघवम् |
1816 | 2031008a | सोऽन्तःपुरमतीत्यैव स्त्रियस्ता वाक्यमब्रवीत् |
1817 | 2031008c | आर्यो ह्वयति वो राजा गम्यतां तत्र माचिरम् |
1818 | 2031009a | एवमुक्ताः स्त्रियः सर्वाः सुमन्त्रेण नृपाज्ञया |
1819 | 2031009c | प्रचक्रमुस्तद्भवनं भर्तुराज्ञाय शासनम् |
1820 | 2031010a | अर्धसप्तशतास्तास्तु प्रमदास्ताम्रलोचनाः |
1821 | 2031010c | कौसल्यां परिवार्याथ शनैर्जग्मुर्धृतव्रताः |
1822 | 2031011a | आगतेषु च दारेषु समवेक्ष्य महीपतिः |
1823 | 2031011c | उवाच राजा तं सूतं सुमन्त्रानय मे सुतम् |
1824 | 2031012a | स सूतो राममादाय लक्ष्मणं मैथिलीं तदा |
1825 | 2031012c | जगामाभिमुखस्तूर्णं सकाशं जगतीपतेः |
1826 | 2031013a | स राजा पुत्रमायान्तं दृष्ट्वा दूरात्कृताञ्जलिम् |
1827 | 2031013c | उत्पपातासनात्तूर्णमार्तः स्त्रीजनसंवृतः |
1828 | 2031014a | सोऽभिदुद्राव वेगेन रामं दृष्ट्वा विशां पतिः |
1829 | 2031014c | तमसंप्राप्य दुःखार्तः पपात भुवि मूर्छितः |
1830 | 2031015a | तं रामोऽभ्यपातत्क्षिप्रं लक्ष्मणश्च महारथः |
1831 | 2031015c | विसंज्ञमिव दुःखेन सशोकं नृपतिं तदा |
1832 | 2031016a | स्त्रीसहस्रनिनादश्च संजज्ञे राजवेश्मनि |
1833 | 2031016c | हाहा रामेति सहसा भूषणध्वनिमूर्छितः |
1834 | 2031017a | तं परिष्वज्य बाहुभ्यां तावुभौ रामलक्ष्मणौ |
1835 | 2031017c | पर्यङ्के सीतया सार्धं रुदन्तः समवेशयन् |
1836 | 2031018a | अथ रामो मुहूर्तेन लब्धसंज्ञं महीपतिम् |
1837 | 2031018c | उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा शोकार्णवपरिप्लुतम् |
1838 | 2031019a | आपृच्छे त्वां महाराज सर्वेषामीश्वरोऽसि नः |
1839 | 2031019c | प्रस्थितं दण्डकारण्यं पश्य त्वं कुशलेन माम् |
1840 | 2031020a | लक्ष्मणं चानुजानीहि सीता चान्वेति मां वनम् |
1841 | 2031020c | कारणैर्बहुभिस्तथ्यैर्वार्यमाणौ न चेच्छतः |
1842 | 2031021a | अनुजानीहि सर्वान्नः शोकमुत्सृज्य मानद |
1843 | 2031021c | लक्ष्मणं मां च सीतां च प्रजापतिरिव प्रजाः |
1844 | 2031022a | प्रतीक्षमाणमव्यग्रमनुज्ञां जगतीपतेः |
1845 | 2031022c | उवाच रर्जा संप्रेक्ष्य वनवासाय राघवम् |
1846 | 2031023a | अहं राघव कैकेय्या वरदानेन मोहितः |
1847 | 2031023c | अयोध्यायास्त्वमेवाद्य भव राजा निगृह्य माम् |
1848 | 2031024a | एवमुक्तो नृपतिना रामो धर्मभृतां वरः |
1849 | 2031024c | प्रत्युवाचाञ्जलिं कृत्वा पितरं वाक्यकोविदः |
1850 | 2031025a | भवान्वर्षसहस्राय पृथिव्या नृपते पतिः |
1851 | 2031025c | अहं त्वरण्ये वत्स्यामि न मे कार्यं त्वयानृतम् |
1852 | 2031026a | श्रेयसे वृद्धये तात पुनरागमनाय च |
1853 | 2031026c | गच्छस्वारिष्टमव्यग्रः पन्थानमकुतोभयम् |
1854 | 2031027a | अद्य त्विदानीं रजनीं पुत्र मा गच्छ सर्वथा |
1855 | 2031027c | मातरं मां च संपश्यन्वसेमामद्य शर्वरीम् |
1856 | 2031027e | तर्पितः सर्वकामैस्त्वं श्वःकाले साधयिष्यसि |
1857 | 2031028a | अथ रामस्तथा श्रुत्वा पितुरार्तस्य भाषितम् |
1858 | 2031028c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा दीनो वचनमब्रवीत् |
1859 | 2031029a | प्राप्स्यामि यानद्य गुणान्को मे श्वस्तान्प्रदास्यति |
1860 | 2031029c | अपक्रमणमेवातः सर्वकामैरहं वृणे |
1861 | 2031030a | इयं सराष्ट्रा सजना धनधान्यसमाकुला |
1862 | 2031030c | मया विसृष्टा वसुधा भरताय प्रदीयताम् |
1863 | 2031031a | अपगच्छतु ते दुःखं मा भूर्बाष्पपरिप्लुतः |
1864 | 2031031c | न हि क्षुभ्यति दुर्धर्षः समुद्रः सरितां पतिः |
1865 | 2031032a | नैवाहं राज्यमिच्छामि न सुखं न च मैथिलीम् |
1866 | 2031032c | त्वामहं सत्यमिच्छामि नानृतं पुरुषर्षभ |
1867 | 2031033a | पुरं च राष्ट्रं च मही च केवला; मया निसृष्टा भरताय दीयताम् |
1868 | 2031033c | अहं निदेशं भवतोऽनुपालय;न्वनं गमिष्यामि चिराय सेवितुम् |
1869 | 2031034a | मया निसृष्टां भरतो महीमिमां; सशैलखण्डां सपुरां सकाननाम् |
1870 | 2031034c | शिवां सुसीमामनुशास्तु केवलं; त्वया यदुक्तं नृपते यथास्तु तत् |
1871 | 2031035a | न मे तथा पार्थिव धीयते मनो; महत्सु कामेषु न चात्मनः प्रिये |
1872 | 2031035c | यथा निदेशे तव शिष्टसंमते; व्यपैतु दुःखं तव मत्कृतेऽनघ |
1873 | 2031036a | तदद्य नैवानघ राज्यमव्ययं; न सर्वकामान्न सुखं न मैथिलीम् |
1874 | 2031036c | न जीवितं त्वामनृतेन योजय;न्वृणीय सत्यं व्रतमस्तु ते तथा |
1875 | 2031037a | फलानि मूलानि च भक्षयन्वने; गिरींश्च पश्यन्सरितः सरांसि च |
1876 | 2031037c | वनं प्रविश्यैव विचित्रपादपं; सुखी भविष्यामि तवास्तु निर्वृतिः |
1877 | 2032001a | ततः सुमन्त्रमैक्ष्वाकः पीडितोऽत्र प्रतिज्ञया |
1878 | 2032001c | सबाष्पमतिनिःश्वस्य जगादेदं पुनः पुनः |
1879 | 2032002a | सूत रत्नसुसंपूर्णा चतुर्विधबला चमूः |
1880 | 2032002c | रागवस्यानुयात्रार्थं क्षिप्रं प्रतिविधीयताम् |
1881 | 2032003a | रूपाजीवा च शालिन्यो वणिजश्च महाधनाः |
1882 | 2032003c | शोभयन्तु कुमारस्य वाहिनीं सुप्रसारिताः |
1883 | 2032004a | ये चैनमुपजीवन्ति रमते यैश्च वीर्यतः |
1884 | 2032004c | तेषां बहुविधं दत्त्वा तानप्यत्र नियोजय |
1885 | 2032005a | निघ्नन्मृगान्कुञ्जरांश्च पिबंश्चारण्यकं मधु |
1886 | 2032005c | नदीश्च विविधाः पश्यन्न राज्यं संस्मरिष्यति |
1887 | 2032006a | धान्यकोशश्च यः कश्चिद्धनकोशश्च मामकः |
1888 | 2032006c | तौ राममनुगच्छेतां वसन्तं निर्जने वने |
1889 | 2032007a | यजन्पुण्येषु देशेषु विसृजंश्चाप्तदक्षिणाः |
1890 | 2032007c | ऋषिभिश्च समागम्य प्रवत्स्यति सुखं वने |
1891 | 2032008a | भरतश्च महाबाहुरयोध्यां पालयिष्यति |
1892 | 2032008c | सर्वकामैः पुनः श्रीमान्रामः संसाध्यतामिति |
1893 | 2032009a | एवं ब्रुवति काकुत्स्थे कैकेय्या भयमागतम् |
1894 | 2032009c | मुखं चाप्यगमाच्छेषं स्वरश्चापि न्यरुध्यत |
1895 | 2032010a | सा विषण्णा च संत्रस्ता कैकेयी वाक्यमब्रवीत् |
1896 | 2032010c | राज्यं गतजनं साधो पीतमण्डां सुरामिव |
1897 | 2032010e | निरास्वाद्यतमं शून्यं भरतो नाभिपत्स्यते |
1898 | 2032011a | कैकेय्यां मुक्तलज्जायां वदन्त्यामतिदारुणम् |
1899 | 2032011c | राजा दशरथो वाक्यमुवाचायतलोचनाम् |
1900 | 2032011e | वहन्तं किं तुदसि मां नियुज्य धुरि माहिते |
1901 | 2032012a | कैकेयी द्विगुणं क्रुद्धा राजानमिदमब्रवीत् |
1902 | 2032012c | तवैव वंशे सगरो ज्येष्ठं पुत्रमुपारुधत् |
1903 | 2032012e | असमञ्ज इति ख्यातं तथायं गन्तुमर्हति |
1904 | 2032013a | एवमुक्तो धिगित्येव राजा दशरथोऽब्रवीत् |
1905 | 2032013c | व्रीडितश्च जनः सर्वः सा च तन्नावबुध्यत |
1906 | 2032014a | तत्र वृद्धो महामात्रः सिद्धार्थो नाम नामतः |
1907 | 2032014c | शुचिर्बहुमतो राज्ञः कैकेयीमिदमब्रवीत् |
1908 | 2032015a | असमञ्जो गृहीत्वा तु क्रीडितः पथि दारकान् |
1909 | 2032015c | सरय्वाः प्रक्षिपन्नप्सु रमते तेन दुर्मतिः |
1910 | 2032016a | तं दृष्ट्वा नागरः सर्वे क्रुद्धा राजानमब्रुवन् |
1911 | 2032016c | असमञ्जं वृषीण्वैकमस्मान्वा राष्ट्रवर्धन |
1912 | 2032017a | तानुवाच ततो राजा किंनिमित्तमिदं भयम् |
1913 | 2032017c | ताश्चापि राज्ञा संपृष्टा वाक्यं प्रकृतयोऽब्रुवन् |
1914 | 2032018a | क्रीडितस्त्वेष नः पुत्रान्बालानुद्भ्रान्तचेतनः |
1915 | 2032018c | सरय्वां प्रक्षिपन्मौर्ख्यादतुलां प्रीतिमश्नुते |
1916 | 2032019a | स तासां वचनं श्रुत्वा प्रकृतीनां नराधिप |
1917 | 2032019c | तं तत्याजाहितं पुत्रं तासां प्रियचिकीर्षया |
1918 | 2032020a | इत्येवमत्यजद्राजा सगरो वै सुधार्मिकः |
1919 | 2032020c | रामः किमकरोत्पापं येनैवमुपरुध्यते |
1920 | 2032021a | श्रुत्वा तु सिद्धार्थवचो राजा श्रान्ततरस्वनः |
1921 | 2032021c | शोकोपहतया वाचा कैकेयीमिदमब्रवीत् |
1922 | 2032022a | अनुव्रजिष्याम्यहमद्य रामं; राज्यं परित्यज्य सुखं धनं च |
1923 | 2032022c | सहैव राज्ञा भरतेन च त्वं; यथा सुखं भुङ्क्ष्व चिराय राज्यम् |
1924 | 2033001a | महामात्रवचः श्रुत्वा रामो दशरथं तदा |
1925 | 2033001c | अन्वभाषत वाक्यं तु विनयज्ञो विनीतवत् |
1926 | 2033002a | त्यक्तभोगस्य मे राजन्वने वन्येन जीवतः |
1927 | 2033002c | किं कार्यमनुयात्रेण त्यक्तसङ्गस्य सर्वतः |
1928 | 2033003a | यो हि दत्त्वा द्विपश्रेष्ठं कक्ष्यायां कुरुते मनः |
1929 | 2033003c | रज्जुस्नेहेन किं तस्य त्यजतः कुञ्जरोत्तमम् |
1930 | 2033004a | तथा मम सतां श्रेष्ठ किं ध्वजिन्या जगत्पते |
1931 | 2033004c | सर्वाण्येवानुजानामि चीराण्येवानयन्तु मे |
1932 | 2033005a | खनित्रपिटके चोभे ममानयत गच्छतः |
1933 | 2033005c | चतुर्दश वने वासं वर्षाणि वसतो मम |
1934 | 2033006a | अथ चीराणि कैकेयी स्वयमाहृत्य राघवम् |
1935 | 2033006c | उवाच परिधत्स्वेति जनौघे निरपत्रपा |
1936 | 2033007a | स चीरे पुरुषव्याघ्रः कैकेय्याः प्रतिगृह्य ते |
1937 | 2033007c | सूक्ष्मवस्त्रमवक्षिप्य मुनिवस्त्राण्यवस्त ह |
1938 | 2033008a | लक्ष्मणश्चापि तत्रैव विहाय वसने शुभे |
1939 | 2033008c | तापसाच्छादने चैव जग्राह पितुरग्रतः |
1940 | 2033009a | अथात्मपरिधानार्थं सीता कौशेयवासिनी |
1941 | 2033009c | समीक्ष्य चीरं संत्रस्ता पृषती वागुरामिव |
1942 | 2033010a | सा व्यपत्रपमाणेव प्रतिगृह्य च दुर्मनाः |
1943 | 2033010c | गन्धर्वराजप्रतिमं भर्तारमिदमब्रवीत् |
1944 | 2033010e | कथं नु चीरं बध्नन्ति मुनयो वनवासिनः |
1945 | 2033011a | कृत्वा कण्ठे च सा चीरमेकमादाय पाणिना |
1946 | 2033011c | तस्थौ ह्यकुषला तत्र व्रीडिता जनकात्मज |
1947 | 2033012a | तस्यास्तत्क्षिप्रमागम्य रामो धर्मभृतां वरः |
1948 | 2033012c | चीरं बबन्ध सीतायाः कौशेयस्योपरि स्वयम् |
1949 | 2033013a | तस्यां चीरं वसानायां नाथवत्यामनाथवत् |
1950 | 2033013c | प्रचुक्रोश जनः सर्वो धिक्त्वां दशरथं त्विति |
1951 | 2033014a | स निःश्वस्योष्णमैक्ष्वाकस्तां भार्यामिदमब्रवीत् |
1952 | 2033014c | कैकेयि कुशचीरेण न सीता गन्तुमर्हति |
1953 | 2033015a | ननु पर्याप्तमेतत्ते पापे रामविवासनम् |
1954 | 2033015c | किमेभिः कृपणैर्भूयः पातकैरपि ते कृतैः |
1955 | 2033016a | एवं ब्रुवन्तं पितरं रामः संप्रस्थितो वनम् |
1956 | 2033016c | अवाक्शिरसमासीनमिदं वचनमब्रवीत् |
1957 | 2033017a | इयं धार्मिक कौसल्या मम माता यशस्विनी |
1958 | 2033017c | वृद्धा चाक्षुद्रशीला च न च त्वां देवगर्हिते |
1959 | 2033018a | मया विहीनां वरद प्रपन्नां शोकसागरम् |
1960 | 2033018c | अदृष्टपूर्वव्यसनां भूयः संमन्तुमर्हसि |
1961 | 2033019a | इमां महेन्द्रोपमजातगर्भिणीं; तथा विधातुं जनमीं ममार्हसि |
1962 | 2033019c | यथा वनस्थे मयि शोककर्शिता; न जीवितं न्यस्य यमक्षयं व्रजेत् |
1963 | 2034001a | रामस्य तु वचः श्रुत्वा मुनिवेषधरं च तम् |
1964 | 2034001c | समीक्ष्य सह भार्याभी राजा विगतचेतनः |
1965 | 2034002a | नैनं दुःखेन संतप्तः प्रत्यवैक्षत राघवम् |
1966 | 2034002c | न चैनमभिसंप्रेक्ष्य प्रत्यभाषत दुर्मनाः |
1967 | 2034003a | स मुहूर्तमिवासंज्ञो दुःखितश्च महीपतिः |
1968 | 2034003c | विललाप महाबाहू राममेवानुचिन्तयन् |
1969 | 2034004a | मन्ये खलु मया पूर्वं विवत्सा बहवः कृताः |
1970 | 2034004c | प्राणिनो हिंसिता वापि तस्मादिदमुपस्थितम् |
1971 | 2034005a | न त्वेवानागते काले देहाच्च्यवति जीवितम् |
1972 | 2034005c | कैकेय्या क्लिश्यमानस्य मृत्युर्मम न विद्यते |
1973 | 2034006a | योऽहं पावकसंकाशं पश्यामि पुरतः स्थितम् |
1974 | 2034006c | विहाय वसने सूक्ष्मे तापसाच्छादमात्मजम् |
1975 | 2034007a | एकस्याः खलु कैकेय्याः कृतेऽयं क्लिश्यते जनः |
1976 | 2034007c | स्वार्थे प्रयतमानायाः संश्रित्य निकृतिं त्विमाम् |
1977 | 2034008a | एवमुक्त्वा तु वचनं बाष्पेण पिहितेक्ष्णह |
1978 | 2034008c | रामेति सकृदेवोक्त्वा व्याहर्तुं न शशाक ह |
1979 | 2034009a | संज्ञां तु प्रतिलभ्यैव मुहूर्तात्स महीपतिः |
1980 | 2034009c | नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां सुमन्त्रमिदमब्रवीत् |
1981 | 2034010a | औपवाह्यं रथं युक्त्वा त्वमायाहि हयोत्तमैः |
1982 | 2034010c | प्रापयैनं महाभागमितो जनपदात्परम् |
1983 | 2034011a | एवं मन्ये गुणवतां गुणानां फलमुच्यते |
1984 | 2034011c | पित्रा मात्रा च यत्साधुर्वीरो निर्वास्यते वनम् |
1985 | 2034012a | राज्ञो वचनमाज्ञाय सुमन्त्रः शीघ्रविक्रमः |
1986 | 2034012c | योजयित्वाययौ तत्र रथमश्वैरलंकृतम् |
1987 | 2034013a | तं रथं राजपुत्राय सूतः कनकभूषितम् |
1988 | 2034013c | आचचक्षेऽञ्जलिं कृत्वा युक्तं परमवाजिभिः |
1989 | 2034014a | राजा सत्वरमाहूय व्यापृतं वित्तसंचये |
1990 | 2034014c | उवाच देशकालज्ञो निश्चितं सर्वतः शुचि |
1991 | 2034015a | वासांसि च महार्हाणि भूषणानि वराणि च |
1992 | 2034015c | वर्षाण्येतानि संख्याय वैदेह्याः क्षिप्रमानय |
1993 | 2034016a | नरेन्द्रेणैवमुक्तस्तु गत्वा कोशगृहं ततः |
1994 | 2034016c | प्रायच्छत्सर्वमाहृत्य सीतायै क्षिप्रमेव तत् |
1995 | 2034017a | सा सुजाता सुजातानि वैदेही प्रस्थिता वनम् |
1996 | 2034017c | भूषयामास गात्राणि तैर्विचित्रैर्विभूषणैः |
1997 | 2034018a | व्यराजयत वैदेही वेश्म तत्सुविभूषिता |
1998 | 2034018c | उद्यतोंऽशुमतः काले खं प्रभेव विवस्वतः |
1999 | 2034019a | तां भुजाभ्यां परिष्वज्य श्वश्रूर्वचनमब्रवीत् |
2000 | 2034019c | अनाचरन्तीं कृपणं मूध्न्युपाघ्राय मैथिलीम् |
2001 | 2034020a | असत्यः सर्वलोकेऽस्मिन्सततं सत्कृताः प्रियैः |
2002 | 2034020c | भर्तारं नानुमन्यन्ते विनिपातगतं स्त्रियः |
2003 | 2034021a | स त्वया नावमन्तव्यः पुत्रः प्रव्राजितो मम |
2004 | 2034021c | तव दैवतमस्त्वेष निर्धनः सधनोऽपि वा |
2005 | 2034022a | विज्ञाय वचनं सीता तस्या धर्मार्थसंहितम् |
2006 | 2034022c | कृताञ्जलिरुवाचेदं श्वश्रूमभिमुखे स्थिता |
2007 | 2034023a | करिष्ये सर्वमेवाहमार्या यदनुशास्ति माम् |
2008 | 2034023c | अभिज्ञास्मि यथा भर्तुर्वर्तितव्यं श्रुतं च मे |
2009 | 2034024a | न मामसज्जनेनार्या समानयितुमर्हति |
2010 | 2034024c | धर्माद्विचलितुं नाहमलं चन्द्रादिव प्रभा |
2011 | 2034025a | नातन्त्री वाद्यते वीणा नाचक्रो वर्तते रथः |
2012 | 2034025c | नापतिः सुखमेधते या स्यादपि शतात्मजा |
2013 | 2034026a | मितं ददाति हि पिता मितं माता मितं सुतः |
2014 | 2034026c | अमितस्य हि दातारं भर्तारं का न पूजयेत् |
2015 | 2034027a | साहमेवंगता श्रेष्ठा श्रुतधर्मपरावरा |
2016 | 2034027c | आर्ये किमवमन्येयं स्त्रीणां भर्ता हि दैवतम् |
2017 | 2034028a | सीताया वचनं श्रुत्वा कौसल्या हृदयंगमम् |
2018 | 2034028c | शुद्धसत्त्वा मुमोचाश्रु सहसा दुःखहर्षजम् |
2019 | 2034029a | तां प्राञ्जलिरभिक्रम्य मातृमध्येऽतिसत्कृताम् |
2020 | 2034029c | रामः परमधर्मज्ञो मातरं वाक्यमब्रवीत् |
2021 | 2034030a | अम्ब मा दुःखिता भूस्त्वं पश्य त्वं पितरं मम |
2022 | 2034030c | क्षयो हि वनवासस्य क्षिप्रमेव भविष्यति |
2023 | 2034031a | सुप्तायास्ते गमिष्यन्ति नववर्षाणि पञ्च च |
2024 | 2034031c | सा समग्रमिह प्राप्तं मां द्रक्ष्यसि सुहृद्वृतम् |
2025 | 2034032a | एतावदभिनीतार्थमुक्त्वा स जननीं वचः |
2026 | 2034032c | त्रयः शतशतार्धा हि ददर्शावेक्ष्य मातरः |
2027 | 2034033a | ताश्चापि स तथैवार्ता मातॄर्दशरथात्मजः |
2028 | 2034033c | धर्मयुक्तमिदं वाक्यं निजगाद कृताञ्जलिः |
2029 | 2034034a | संवासात्परुषं किंचिदज्ञानाद्वापि यत्कृतम् |
2030 | 2034034c | तन्मे समनुजानीत सर्वाश्चामन्त्रयामि वः |
2031 | 2034035a | जज्ञेऽथ तासां संनादः क्रौञ्चीनामिव निःस्वनः |
2032 | 2034035c | मानवेन्द्रस्य भार्याणामेवं वदति राघवे |
2033 | 2034036a | मुरजपणवमेघघोषव;द्दशरथवेश्म बभूव यत्पुरा |
2034 | 2034036c | विलपित परिदेवनाकुलं; व्यसनगतं तदभूत्सुदुःखितम् |
2035 | 2035001a | अथ रामश्च सीता च लक्ष्मणश्च कृताञ्जलिः |
2036 | 2035001c | उपसंगृह्य राजानं चक्रुर्दीनाः प्रदक्षिणम् |
2037 | 2035002a | तं चापि समनुज्ञाप्य धर्मज्ञः सीतया सह |
2038 | 2035002c | राघवः शोकसंमूढो जननीमभ्यवादयत् |
2039 | 2035003a | अन्वक्षं लक्ष्मणो भ्रातुः कौसल्यामभ्यवादयत् |
2040 | 2035003c | अथ मातुः सुमित्राया जग्राह चरणौ पुनः |
2041 | 2035004a | तं वन्दमानं रुदती माता सौमित्रिमब्रवीत् |
2042 | 2035004c | हितकामा महाबाहुं मूर्ध्न्युपाघ्राय लक्ष्मणम् |
2043 | 2035005a | सृष्टस्त्वं वनवासाय स्वनुरक्तः सुहृज्जने |
2044 | 2035005c | रामे प्रमादं मा कार्षीः पुत्र भ्रातरि गच्छति |
2045 | 2035006a | व्यसनी वा समृद्धो वा गतिरेष तवानघ |
2046 | 2035006c | एष लोके सतां धर्मो यज्ज्येष्ठवशगो भवेत् |
2047 | 2035007a | इदं हि वृत्तमुचितं कुलस्यास्य सनातनम् |
2048 | 2035007c | दानं दीक्षा च यज्ञेषु तनुत्यागो मृधेषु च |
2049 | 2035008a | रामं दशरथं विद्धि मां विद्धि जनकात्मजाम् |
2050 | 2035008c | अयोध्यामटवीं विद्धि गच्छ तात यथासुखम् |
2051 | 2035009a | ततः सुमन्त्रः काकुत्स्थं प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत् |
2052 | 2035009c | विनीतो विनयज्ञश्च मातलिर्वासवं यथा |
2053 | 2035010a | रथमारोह भद्रं ते राजपुत्र महायशः |
2054 | 2035010c | क्षिप्रं त्वां प्रापयिष्यामि यत्र मां राम वक्ष्यसि |
2055 | 2035011a | चतुर्दश हि वर्षाणि वस्तव्यानि वने त्वया |
2056 | 2035011c | तान्युपक्रमितव्यानि यानि देव्यासि चोदितः |
2057 | 2035012a | तं रथं सूर्यसंकाशं सीता हृष्टेन चेतसा |
2058 | 2035012c | आरुरोह वरारोहा कृत्वालंकारमात्मनः |
2059 | 2035013a | तथैवायुधजातानि भ्रातृभ्यां कवचानि च |
2060 | 2035013c | रथोपस्थे प्रतिन्यस्य सचर्मकठिनं च तत् |
2061 | 2035014a | सीतातृतीयानारूढान्दृष्ट्वा धृष्टमचोदयत् |
2062 | 2035014c | सुमन्त्रः संमतानश्वान्वायुवेगसमाञ्जवे |
2063 | 2035015a | प्रयाते तु महारण्यं चिररात्राय राघवे |
2064 | 2035015c | बभूव नगरे मूर्च्छा बलमूर्च्छा जनस्य च |
2065 | 2035016a | तत्समाकुलसंभ्रान्तं मत्तसंकुपित द्विपम् |
2066 | 2035016c | हयशिञ्जितनिर्घोषं पुरमासीन्महास्वनम् |
2067 | 2035017a | ततः सबालवृद्धा सा पुरी परमपीडिता |
2068 | 2035017c | राममेवाभिदुद्राव घर्मार्तः सलिलं यथा |
2069 | 2035018a | पार्श्वतः पृष्ठतश्चापि लम्बमानास्तदुन्मुखाः |
2070 | 2035018c | बाष्पपूर्णमुखाः सर्वे तमूचुर्भृशदुःखिताः |
2071 | 2035019a | संयच्छ वाजिनां रश्मीन्सूत याहि शनैः शनैः |
2072 | 2035019c | मुखं द्रक्ष्यामि रामस्य दुर्दर्शं नो भविष्यति |
2073 | 2035020a | आयसं हृदयं नूनं राममातुरसंशयम् |
2074 | 2035020c | यद्देवगर्भप्रतिमे वनं याति न भिद्यते |
2075 | 2035021a | कृतकृत्या हि वैदेही छायेवानुगता पतिम् |
2076 | 2035021c | न जहाति रता धर्मे मेरुमर्कप्रभा यथा |
2077 | 2035022a | अहो लक्ष्मण सिद्धार्थः सततां प्रियवादिनम् |
2078 | 2035022c | भ्रातरं देवसंकाशं यस्त्वं परिचरिष्यसि |
2079 | 2035023a | महत्येषा हि ते सिद्धिरेष चाभ्युदयो महान् |
2080 | 2035023c | एष स्वर्गस्य मार्गश्च यदेनमनुगच्छसि |
2081 | 2035023e | एवं वदन्तस्ते सोढुं न शेकुर्बाष्पमागतम् |
2082 | 2035024a | अथ राजा वृतः स्त्रीभिर्दीनाभिर्दीनचेतनः |
2083 | 2035024c | निर्जगाम प्रियं पुत्रं द्रक्ष्यामीति ब्रुवन्गृहात् |
2084 | 2035025a | शुश्रुवे चाग्रतः स्त्रीणां रुदन्तीनां महास्वनः |
2085 | 2035025c | यथा नादः करेणूनां बद्धे महति कुञ्जरे |
2086 | 2035026a | पिता च राजा काकुत्स्थः श्रीमान्सन्नस्तदा बभौ |
2087 | 2035026c | परिपूर्णः शशी काले ग्रहेणोपप्लुतो यथा |
2088 | 2035027a | ततो हलहलाशब्दो जज्ञे रामस्य पृष्ठतः |
2089 | 2035027c | नराणां प्रेक्ष्य राजानं सीदन्तं भृशदुःखितम् |
2090 | 2035028a | हा रामेति जनाः केचिद्राममातेति चापरे |
2091 | 2035028c | अन्तःपुरं समृद्धं च क्रोशन्तं पर्यदेवयन् |
2092 | 2035029a | अन्वीक्षमाणो रामस्तु विषण्णं भ्रान्तचेतसं |
2093 | 2035029c | राजानं मातरं चैव ददर्शानुगतौ पथि |
2094 | 2035029e | धर्मपाशेन संक्षिप्तः प्रकाशं नाभ्युदैक्षत |
2095 | 2035030a | पदातिनौ च यानार्हावदुःखार्हौ सुखोचितौ |
2096 | 2035030c | दृष्ट्वा संचोदयामास शीघ्रं याहीति सारथिम् |
2097 | 2035031a | न हि तत्पुरुषव्याघ्रो दुःखदं दर्शनं पितुः |
2098 | 2035031c | मातुश्च सहितुं शक्तस्तोत्रार्दित इव द्विपः |
2099 | 2035032a | तथा रुदन्तीं कौसल्यां रथं तमनुधावतीम् |
2100 | 2035032c | क्रोशन्तीं राम रामेति हा सीते लक्ष्मणेति च |
2101 | 2035032e | असकृत्प्रैक्षत तदा नृत्यन्तीमिव मातरम् |
2102 | 2035033a | तिष्ठेति राजा चुक्रोष याहि याहीति राघवः |
2103 | 2035033c | सुमन्त्रस्य बभूवात्मा चक्रयोरिव चान्तरा |
2104 | 2035034a | नाश्रौषमिति राजानमुपालब्धोऽपि वक्ष्यसि |
2105 | 2035034c | चिरं दुःखस्य पापिष्ठमिति रामस्तमब्रवीत् |
2106 | 2035035a | रामस्य स वचः कुर्वन्ननुज्ञाप्य च तं जनम् |
2107 | 2035035c | व्रजतोऽपि हयाञ्शीघ्रं चोदयामास सारथिः |
2108 | 2035036a | न्यवर्तत जनो राज्ञो रामं कृत्वा प्रदक्षिणम् |
2109 | 2035036c | मनसाप्यश्रुवेगैश्च न न्यवर्तत मानुषम् |
2110 | 2035037a | यमिच्छेत्पुनरायान्तं नैनं दूरमनुव्रजेत् |
2111 | 2035037c | इत्यमात्या महाराजमूचुर्दशरथं वचः |
2112 | 2035038a | तेषां वचः सर्वगुणोपपन्नं; प्रस्विन्नगात्रः प्रविषण्णरूपः |
2113 | 2035038c | निशम्य राजा कृपणः सभार्यो; व्यवस्थितस्तं सुतमीक्षमाणः |
2114 | 2036001a | तस्मिंस्तु पुरुषव्याघ्रे निष्क्रामति कृताञ्जलौ |
2115 | 2036001c | आर्तशब्दो हि संजज्ञे स्त्रीणामन्तःपुरे महान् |
2116 | 2036002a | अनाथस्य जनस्यास्य दुर्बलस्य तपस्विनः |
2117 | 2036002c | यो गतिं शरणं चासीत्स नाथः क्व नु गच्छति |
2118 | 2036003a | न क्रुध्यत्यभिशस्तोऽपि क्रोधनीयानि वर्जयन् |
2119 | 2036003c | क्रुद्धान्प्रसादयन्सर्वान्समदुःखः क्व गच्छति |
2120 | 2036004a | कौसल्यायां महातेजा यथा मातरि वर्तते |
2121 | 2036004c | तथा यो वर्ततेऽस्मासु महात्मा क्व नु गच्छति |
2122 | 2036005a | कैकेय्या क्लिश्यमानेन राज्ञा संचोदितो वनम् |
2123 | 2036005c | परित्राता जनस्यास्य जगतः क्व नु गच्छति |
2124 | 2036006a | अहो निश्चेतनो राजा जीवलोकस्य संप्रियम् |
2125 | 2036006c | धर्म्यं सत्यव्रतं रामं वनवासो प्रवत्स्यति |
2126 | 2036007a | इति सर्वा महिष्यस्ता विवत्सा इव धेनवः |
2127 | 2036007c | रुरुदुश्चैव दुःखार्ताः सस्वरं च विचुक्रुशुः |
2128 | 2036008a | स तमन्तःपुरे घोरमार्तशब्दं महीपतिः |
2129 | 2036008c | पुत्रशोकाभिसंतप्तः श्रुत्वा चासीत्सुदुःखितः |
2130 | 2036009a | नाग्निहोत्राण्यहूयन्त सूर्यश्चान्तरधीयत |
2131 | 2036009c | व्यसृजन्कवलान्नागा गावो वत्सान्न पाययन् |
2132 | 2036010a | त्रिशङ्कुर्लोहिताङ्गश्च बृहस्पतिबुधावपि |
2133 | 2036010c | दारुणाः सोममभ्येत्य ग्रहाः सर्वे व्यवस्थिताः |
2134 | 2036011a | नक्षत्राणि गतार्चींषि ग्रहाश्च गततेजसः |
2135 | 2036011c | विशाखाश्च सधूमाश्च नभसि प्रचकाशिरे |
2136 | 2036012a | अकस्मान्नागरः सर्वो जनो दैन्यमुपागमत् |
2137 | 2036012c | आहारे वा विहारे वा न कश्चिदकरोन्मनः |
2138 | 2036013a | बाष्पपर्याकुलमुखो राजमार्गगतो जनः |
2139 | 2036013c | न हृष्टो लक्ष्यते कश्चित्सर्वः शोकपरायणः |
2140 | 2036014a | न वाति पवनः शीतो न शशी सौम्यदर्शनः |
2141 | 2036014c | न सूर्यस्तपते लोकं सर्वं पर्याकुलं जगत् |
2142 | 2036015a | अनर्थिनः सुताः स्त्रीणां भर्तारो भ्रातरस्तथा |
2143 | 2036015c | सर्वे सर्वं परित्यज्य राममेवान्वचिन्तयन् |
2144 | 2036016a | ये तु रामस्य सुहृदः सर्वे ते मूढचेतसः |
2145 | 2036016c | शोकभारेण चाक्रान्ताः शयनं न जुहुस्तदा |
2146 | 2036017a | ततस्त्वयोध्या रहिता महात्मना; पुरंदरेणेव मही सपर्वता |
2147 | 2036017c | चचाल घोरं भयभारपीडिता; सनागयोधाश्वगणा ननाद च |
2148 | 2037001a | यावत्तु निर्यतस्तस्य रजोरूपमदृश्यत |
2149 | 2037001c | नैवेक्ष्वाकुवरस्तावत्संजहारात्मचक्षुषी |
2150 | 2037002a | यावद्राजा प्रियं पुत्रं पश्यत्यत्यन्तधार्मिकम् |
2151 | 2037002c | तावद्व्यवर्धतेवास्य धरण्यां पुत्रदर्शने |
2152 | 2037003a | न पश्यति रजोऽप्यस्य यदा रामस्य भूमिपः |
2153 | 2037003c | तदार्तश्च विषण्णश्च पपात धरणीतले |
2154 | 2037004a | तस्य दक्षिणमन्वगात्कौसल्या बाहुमङ्गना |
2155 | 2037004c | वामं चास्यान्वगात्पार्श्वं कैकेयी भरतप्रिया |
2156 | 2037005a | तां नयेन च संपन्नो धर्मेण निवयेन च |
2157 | 2037005c | उवाच राजा कैकेयीं समीक्ष्य व्यथितेन्द्रियः |
2158 | 2037006a | कैकेयि मा ममाङ्गानि स्प्राक्षीस्त्वं दुष्टचारिणी |
2159 | 2037006c | न हि त्वां द्रष्टुमिच्छामि न भार्या न च बान्धवी |
2160 | 2037007a | ये च त्वामुपजीवन्ति नाहं तेषां न ते मम |
2161 | 2037007c | केवलार्थपरां हि त्वां त्यक्तधर्मां त्यजाम्यहम् |
2162 | 2037008a | अगृह्णां यच्च ते पाणिमग्निं पर्यणयं च यत् |
2163 | 2037008c | अनुजानामि तत्सर्वमस्मिँल्लोके परत्र च |
2164 | 2037009a | भरतश्चेत्प्रतीतः स्याद्राज्यं प्राप्येदमव्ययम् |
2165 | 2037009c | यन्मे स दद्यात्पित्रर्थं मा मा तद्दत्तमागमत् |
2166 | 2037010a | अथ रेणुसमुध्वस्तं तमुत्थाप्य नराधिपम् |
2167 | 2037010c | न्यवर्तत तदा देवी कौसल्या शोककर्शिता |
2168 | 2037011a | हत्वेव ब्राह्मणं कामात्स्पृष्ट्वाग्निमिव पाणिना |
2169 | 2037011c | अन्वतप्यत धर्मात्मा पुत्रं संचिन्त्य तापसं |
2170 | 2037012a | निवृत्यैव निवृत्यैव सीदतो रथवर्त्मसु |
2171 | 2037012c | राज्ञो नातिबभौ रूपं ग्रस्तस्यांशुमतो यथा |
2172 | 2037013a | विललाप च दुःखार्तः प्रियं पुत्रमनुस्मरन् |
2173 | 2037013c | नगरान्तमनुप्राप्तं बुद्ध्वा पुत्रमथाब्रवीत् |
2174 | 2037014a | वाहनानां च मुख्यानां वहतां तं ममात्मजम् |
2175 | 2037014c | पदानि पथि दृश्यन्ते स महात्मा न दृश्यते |
2176 | 2037015a | स नूनं क्वचिदेवाद्य वृक्षमूलमुपाश्रितः |
2177 | 2037015c | काष्ठं वा यदि वाश्मानमुपधाय शयिष्यते |
2178 | 2037016a | उत्थास्यति च मेदिन्याः कृपणः पांशुगुण्ठितः |
2179 | 2037016c | विनिःश्वसन्प्रस्रवणात्करेणूनामिवर्षभः |
2180 | 2037017a | द्रक्ष्यन्ति नूनं पुरुषा दीर्घबाहुं वनेचराः |
2181 | 2037017c | राममुत्थाय गच्छन्तं लोकनाथमनाथवत् |
2182 | 2037018a | सकामा भव कैकेयि विधवा राज्यमावस |
2183 | 2037018c | न हि तं पुरुषव्याघ्रं विना जीवितुमुत्सहे |
2184 | 2037019a | इत्येवं विलपन्राजा जनौघेनाभिसंवृतः |
2185 | 2037019c | अपस्नात इवारिष्टं प्रविवेश पुरोत्तमम् |
2186 | 2037020a | शून्यचत्वरवेश्मान्तां संवृतापणदेवताम् |
2187 | 2037020c | क्लान्तदुर्बलदुःखार्तां नात्याकीर्णमहापथाम् |
2188 | 2037021a | तामवेक्ष्य पुरीं सर्वां राममेवानुचिन्तयन् |
2189 | 2037021c | विलपन्प्राविशद्राजा गृहं सूर्य इवाम्बुदम् |
2190 | 2037022a | महाह्रदमिवाक्षोभ्यं सुपर्णेन हृतोरगम् |
2191 | 2037022c | रामेण रहितं वेश्म वैदेह्या लक्ष्मणेन च |
2192 | 2037023a | कौसल्याया गृहं शीघ्रं राम मातुर्नयन्तु माम् |
2193 | 2037023c | इति ब्रुवन्तं राजानमनयन्द्वारदर्शितः |
2194 | 2037024a | ततस्तत्र प्रविष्टस्य कौसल्याया निवेशनम् |
2195 | 2037024c | अधिरुह्यापि शयनं बभूव लुलितं मनः |
2196 | 2037025a | तच्च दृष्ट्वा महाराजो भुजमुद्यम्य वीर्यवान् |
2197 | 2037025c | उच्चैः स्वरेण चुक्रोश हा राघव जहासि माम् |
2198 | 2037026a | सुखिता बत तं कालं जीविष्यन्ति नरोत्तमाः |
2199 | 2037026c | परिष्वजन्तो ये रामं द्रक्ष्यन्ति पुनरागतम् |
2200 | 2037027a | न त्वां पश्यामि कौसल्ये साधु मां पाणिना स्पृश |
2201 | 2037027c | रामं मेऽनुगता दृष्टिरद्यापि न निवर्तते |
2202 | 2037028a | तं राममेवानुविचिन्तयन्तं; समीक्ष्य देवी शयने नरेन्द्रम् |
2203 | 2037028c | उपोपविश्याधिकमार्तरूपा; विनिःश्वसन्ती विललाप कृच्छ्रं |
2204 | 2038001a | ततः समीक्ष्य शयने सन्नं शोकेन पार्थिवम् |
2205 | 2038001c | कौसल्या पुत्रशोकार्ता तमुवाच महीपतिम् |
2206 | 2038002a | राघवो नरशार्दूल विषमुप्त्वा द्विजिह्ववत् |
2207 | 2038002c | विचरिष्यति कैकेयी निर्मुक्तेव हि पन्नगी |
2208 | 2038003a | विवास्य रामं सुभगा लब्धकामा समाहिता |
2209 | 2038003c | त्रासयिष्यति मां भूयो दुष्टाहिरिव वेश्मनि |
2210 | 2038004a | अथ स्म नगरे रामश्चरन्भैक्षं गृहे वसेत् |
2211 | 2038004c | कामकारो वरं दातुमपि दासं ममात्मजम् |
2212 | 2038005a | पातयित्वा तु कैकेय्या रामं स्थानाद्यथेष्टतः |
2213 | 2038005c | प्रदिष्टो रक्षसां भागः पर्वणीवाहिताग्निना |
2214 | 2038006a | गजराजगतिर्वीरो महाबाहुर्धनुर्धरः |
2215 | 2038006c | वनमाविशते नूनं सभार्यः सहलक्ष्मणः |
2216 | 2038007a | वने त्वदृष्टदुःखानां कैकेय्यानुमते त्वया |
2217 | 2038007c | त्यक्तानां वनवासाय का न्ववस्था भविष्यति |
2218 | 2038008a | ते रत्नहीनास्तरुणाः फलकाले विवासिताः |
2219 | 2038008c | कथं वत्स्यन्ति कृपणाः फलमूलैः कृताशनाः |
2220 | 2038009a | अपीदानीं स कालः स्यान्मम शोकक्षयः शिवः |
2221 | 2038009c | सभार्यं यत्सह भ्रात्रा पश्येयमिह राघवम् |
2222 | 2038010a | श्रुत्वैवोपस्थितौ वीरौ कदायोध्या भविष्यति |
2223 | 2038010c | यशस्विनी हृष्टजना सूच्छ्रितध्वजमालिनी |
2224 | 2038011a | कदा प्रेक्ष्य नरव्याघ्रावरण्यात्पुनरागतौ |
2225 | 2038011c | नन्दिष्यति पुरी हृष्टा समुद्र इव पर्वणि |
2226 | 2038012a | कदायोध्यां महाबाहुः पुरीं वीरः प्रवेक्ष्यति |
2227 | 2038012c | पुरस्कृत्य रथे सीतां वृषभो गोवधूमिव |
2228 | 2038013a | कदा प्राणिसहस्राणि राजमार्गे ममात्मजौ |
2229 | 2038013c | लाजैरवकरिष्यन्ति प्रविशन्तावरिंदमौ |
2230 | 2038014a | कदा सुमनसः कन्या द्विजातीनां फलानि च |
2231 | 2038014c | प्रदिशन्त्यः पुरीं हृष्टाः करिष्यन्ति प्रदक्षिणम् |
2232 | 2038015a | कदा परिणतो बुद्ध्या वयसा चामरप्रभः |
2233 | 2038015c | अभ्युपैष्यति धर्मज्ञस्त्रिवर्ष इव मां ललन् |
2234 | 2038016a | निःसंशयं मया मन्ये पुरा वीर कदर्यया |
2235 | 2038016c | पातु कामेषु वत्सेषु मातॄणां शातिताः स्तनाः |
2236 | 2038017a | साहं गौरिव सिंहेन विवत्सा वत्सला कृता |
2237 | 2038017c | कैकेय्या पुरुषव्याघ्र बालवत्सेव गौर्बलात् |
2238 | 2038018a | न हि तावद्गुणैर्जुष्टं सर्वशास्त्रविशारदम् |
2239 | 2038018c | एकपुत्रा विना पुत्रमहं जीवितुमुत्सहे |
2240 | 2038019a | न हि मे जीविते किंचित्सामर्थमिह कल्प्यते |
2241 | 2038019c | अपश्यन्त्याः प्रियं पुत्रं महाबाहुं महाबलम् |
2242 | 2038020a | अयं हि मां दीपयते समुत्थित;स्तनूजशोकप्रभवो हुताशनः |
2243 | 2038020c | महीमिमां रश्मिभिरुत्तमप्रभो; यथा निदाघे भगवान्दिवाकरः |
2244 | 2039001a | विलपन्तीं तथा तां तु कौसल्यां प्रमदोत्तमाम् |
2245 | 2039001c | इदं धर्मे स्थिता धर्म्यं सुमित्रा वाक्यमब्रवीत् |
2246 | 2039002a | तवार्ये सद्गुणैर्युक्तः पुत्रः स पुरुषोत्तमः |
2247 | 2039002c | किं ते विलपितेनैवं कृपणं रुदितेन वा |
2248 | 2039003a | यस्तवार्ये गतः पुत्रस्त्यक्त्वा राज्यं महाबलः |
2249 | 2039003c | साधु कुर्वन्महात्मानं पितरं सत्यवादिनाम् |
2250 | 2039004a | शिष्टैराचरिते सम्यक्शश्वत्प्रेत्य फलोदये |
2251 | 2039004c | रामो धर्मे स्थितः श्रेष्ठो न स शोच्यः कदाचन |
2252 | 2039005a | वर्तते चोत्तमां वृत्तिं लक्ष्मणोऽस्मिन्सदानघः |
2253 | 2039005c | दयावान्सर्वभूतेषु लाभस्तस्य महात्मनः |
2254 | 2039006a | अरण्यवासे यद्दुःखं जानती वै सुखोचिता |
2255 | 2039006c | अनुगच्छति वैदेही धर्मात्मानं तवात्मजम् |
2256 | 2039007a | कीर्तिभूतां पताकां यो लोके भ्रामयति प्रभुः |
2257 | 2039007c | दमसत्यव्रतपरः किं न प्राप्तस्तवात्मजः |
2258 | 2039008a | व्यक्तं रामस्य विज्ञाय शौचं माहात्म्यमुत्तमम् |
2259 | 2039008c | न गात्रमंशुभिः सूर्यः संतापयितुमर्हति |
2260 | 2039009a | शिवः सर्वेषु कालेषु काननेभ्यो विनिःसृतः |
2261 | 2039009c | राघवं युक्तशीतोष्णः सेविष्यति सुखोऽनिलः |
2262 | 2039010a | शयानमनघं रात्रौ पितेवाभिपरिष्वजन् |
2263 | 2039010c | रश्मिभिः संस्पृशञ्शीतैश्चन्द्रमा ह्लादयिष्यति |
2264 | 2039011a | ददौ चास्त्राणि दिव्यानि यस्मै ब्रह्मा महौजसे |
2265 | 2039011c | दानवेन्द्रं हतं दृष्ट्वा तिमिध्वजसुतं रणे |
2266 | 2039012a | पृथिव्या सह वैदेह्या श्रिया च पुरुषर्षभः |
2267 | 2039012c | क्षिप्रं तिसृभिरेताभिः सह रामोऽभिषेक्ष्यते |
2268 | 2039013a | दुःखजं विसृजन्त्यस्रं निष्क्रामन्तमुदीक्ष्य यम् |
2269 | 2039013c | समुत्स्रक्ष्यसि नेत्राभ्यां क्षिप्रमानन्दजं पयः |
2270 | 2039014a | अभिवादयमानं तं दृष्ट्वा ससुहृदं सुतम् |
2271 | 2039014c | मुदाश्रु मोक्ष्यसे क्षिप्रं मेघलेकेव वार्षिकी |
2272 | 2039015a | पुत्रस्ते वरदः क्षिप्रमयोध्यां पुनरागतः |
2273 | 2039015c | कराभ्यां मृदुपीनाभ्यां चरणौ पीडयिष्यति |
2274 | 2039016a | निशम्य तल्लक्ष्मणमातृवाक्यं; रामस्य मातुर्नरदेवपत्न्याः |
2275 | 2039016c | सद्यः शरीरे विननाश शोकः; शरद्गतो मेघ इवाल्पतोयः |
2276 | 2040001a | अनुरक्ता महात्मानं रामं सत्यपरक्रमम् |
2277 | 2040001c | अनुजग्मुः प्रयान्तं तं वनवासाय मानवाः |
2278 | 2040002a | निवर्तितेऽपि च बलात्सुहृद्वर्गे च राजिनि |
2279 | 2040002c | नैव ते संन्यवर्तन्त रामस्यानुगता रथम् |
2280 | 2040003a | अयोध्यानिलयानां हि पुरुषाणां महायशाः |
2281 | 2040003c | बभूव गुणसंपन्नः पूर्णचन्द्र इव प्रियः |
2282 | 2040004a | स याच्यमानः काकुत्स्थः स्वाभिः प्रकृतिभिस्तदा |
2283 | 2040004c | कुर्वाणः पितरं सत्यं वनमेवान्वपद्यत |
2284 | 2040005a | अवेक्षमाणः सस्नेहं चक्षुषा प्रपिबन्निव |
2285 | 2040005c | उवाच रामः स्नेहेन ताः प्रजाः स्वाः प्रजा इव |
2286 | 2040006a | या प्रीतिर्बहुमानश्च मय्ययोध्यानिवासिनाम् |
2287 | 2040006c | मत्प्रियार्थं विशेषेण भरते सा निवेश्यताम् |
2288 | 2040007a | स हि कल्याण चारित्रः कैकेय्यानन्दवर्धनः |
2289 | 2040007c | करिष्यति यथावद्वः प्रियाणि च हितानि च |
2290 | 2040008a | ज्ञानवृद्धो वयोबालो मृदुर्वीर्यगुणान्वितः |
2291 | 2040008c | अनुरूपः स वो भर्ता भविष्यति भयापहः |
2292 | 2040009a | स हि राजगुणैर्युक्तो युवराजः समीक्षितः |
2293 | 2040009c | अपि चापि मया शिष्टैः कार्यं वो भर्तृशासनम् |
2294 | 2040010a | न च तप्येद्यथा चासौ वनवासं गते मयि |
2295 | 2040010c | महाराजस्तथा कार्यो मम प्रियचिकीर्षया |
2296 | 2040011a | यथा यथा दाशरथिर्धर्ममेवास्थितोऽभवत् |
2297 | 2040011c | तथा तथा प्रकृतयो रामं पतिमकामयन् |
2298 | 2040012a | बाष्पेण पिहितं दीनं रामः सौमित्रिणा सह |
2299 | 2040012c | चकर्षेव गुणैर्बद्ध्वा जनं पुनरिवासनम् |
2300 | 2040013a | ते द्विजास्त्रिविधं वृद्धा ज्ञानेन वयसौजसा |
2301 | 2040013c | वयःप्रकम्पशिरसो दूरादूचुरिदं वचः |
2302 | 2040014a | वहन्तो जवना रामं भो भो जात्यास्तुरंगमाः |
2303 | 2040014c | निवर्तध्वं न गन्तव्यं हिता भवत भर्तरि |
2304 | 2040014e | उपवाह्यस्तु वो भर्ता नापवाह्यः पुराद्वनम् |
2305 | 2040015a | एवमार्तप्रलापांस्तान्वृद्धान्प्रलपतो द्विजान् |
2306 | 2040015c | अवेक्ष्य सहसा रामो रथादवततार ह |
2307 | 2040016a | पद्भ्यामेव जगामाथ ससीतः सहलक्ष्मणः |
2308 | 2040016c | संनिकृष्टपदन्यासो रामो वनपरायणः |
2309 | 2040017a | द्विजातींस्तु पदातींस्तान्रामश्चारित्रवत्सलः |
2310 | 2040017c | न शशाक घृणाचक्षुः परिमोक्तुं रथेन सः |
2311 | 2040018a | गच्छन्तमेव तं दृष्ट्वा रामं संभ्रान्तमानसाः |
2312 | 2040018c | ऊचुः परमसंतप्ता रामं वाक्यमिदं द्विजाः |
2313 | 2040019a | ब्राह्मण्यं कृत्स्नमेतत्त्वां ब्रह्मण्यमनुगच्छति |
2314 | 2040019c | द्विजस्कन्धाधिरूढास्त्वामग्नयोऽप्यनुयान्त्यमी |
2315 | 2040020a | वाजपेयसमुत्थानि छत्राण्येतानि पश्य नः |
2316 | 2040020c | पृष्ठतोऽनुप्रयातानि हंसानिव जलात्यये |
2317 | 2040021a | अनवाप्तातपत्रस्य रश्मिसंतापितस्य ते |
2318 | 2040021c | एभिश्छायां करिष्यामः स्वैश्छत्रैर्वाजपेयिकैः |
2319 | 2040022a | या हि नः सततं बुद्धिर्वेदमन्त्रानुसारिणी |
2320 | 2040022c | त्वत्कृते सा कृता वत्स वनवासानुसारिणी |
2321 | 2040023a | हृदयेष्ववतिष्ठन्ते वेदा ये नः परं धनम् |
2322 | 2040023c | वत्स्यन्त्यपि गृहेष्वेव दाराश्चारित्ररक्षिताः |
2323 | 2040024a | न पुनर्निश्चयः कार्यस्त्वद्गतौ सुकृता मतिः |
2324 | 2040024c | त्वयि धर्मव्यपेक्षे तु किं स्याद्धर्ममवेक्षितुम् |
2325 | 2040025a | याचितो नो निवर्तस्व हंसशुक्लशिरोरुहैः |
2326 | 2040025c | शिरोभिर्निभृताचार महीपतनपांशुलैः |
2327 | 2040026a | बहूनां वितता यज्ञा द्विजानां य इहागताः |
2328 | 2040026c | तेषां समाप्तिरायत्ता तव वत्स निवर्तने |
2329 | 2040027a | भक्तिमन्ति हि भूतानि जंगमाजंगमानि च |
2330 | 2040027c | याचमानेषु तेषु त्वं भक्तिं भक्तेषु दर्शय |
2331 | 2040028a | अनुगंतुमशक्तास्त्वां मूलैरुद्धृतवेगिभिः |
2332 | 2040028c | उन्नता वायुवेगेन विक्रोशन्तीव पादपाः |
2333 | 2040029a | निश्चेष्टाहारसंचारा वृक्षैकस्थानविष्ठिताः |
2334 | 2040029c | पक्षिणोऽपि प्रयाचन्ते सर्वभूतानुकम्पिनम् |
2335 | 2040030a | एवं विक्रोशतां तेषां द्विजातीनां निवर्तने |
2336 | 2040030c | ददृशे तमसा तत्र वारयन्तीव राघवम् |
2337 | 2041001a | ततस्तु तमसा तीरं रम्यमाश्रित्य राघवः |
2338 | 2041001c | सीतामुद्वीक्ष्य सौमित्रिमिदं वचनमब्रवीत् |
2339 | 2041002a | इयमद्य निशा पूर्वा सौमित्रे प्रस्थिता वनम् |
2340 | 2041002c | वनवासस्य भद्रं ते स नोत्कण्ठितुमर्हसि |
2341 | 2041003a | पश्य शून्यान्यरण्यानि रुदन्तीव समन्ततः |
2342 | 2041003c | यथानिलयमायद्भिर्निलीनानि मृगद्विजैः |
2343 | 2041004a | अद्यायोध्या तु नगरी राजधानी पितुर्मम |
2344 | 2041004c | सस्त्रीपुंसा गतानस्माञ्शोचिष्यति न संशयः |
2345 | 2041005a | भरतः खलु धर्मात्मा पितरं मातरं च मे |
2346 | 2041005c | धर्मार्थकामसहितैर्वाक्यैराश्वासयिष्यति |
2347 | 2041006a | भरतस्यानृशंसत्वं संचिन्त्याहं पुनः पुनः |
2348 | 2041006c | नानुशोचामि पितरं मातरं चापि लक्ष्मण |
2349 | 2041007a | त्वया कार्यं नरव्याघ्र मामनुव्रजता कृतम् |
2350 | 2041007c | अन्वेष्टव्या हि वैदेह्या रक्षणार्थे सहायता |
2351 | 2041008a | अद्भिरेव तु सौमित्रे वत्स्याम्यद्य निशामिमाम् |
2352 | 2041008c | एतद्धि रोचते मह्यं वन्येऽपि विविधे सति |
2353 | 2041009a | एवमुक्त्वा तु सौमित्रं सुमन्त्रमपि राघवः |
2354 | 2041009c | अप्रमत्तस्त्वमश्वेषु भव सौम्येत्युवाच ह |
2355 | 2041010a | सोऽश्वान्सुमन्त्रः संयम्य सूर्येऽस्तं समुपागते |
2356 | 2041010c | प्रभूतयवसान्कृत्वा बभूव प्रत्यनन्तरः |
2357 | 2041011a | उपास्यतु शिवां संध्यां दृष्ट्वा रात्रिमुपस्थिताम् |
2358 | 2041011c | रामस्य शयनं चक्रे सूतः सौमित्रिणा सह |
2359 | 2041012a | तां शय्यां तमसातीरे वीक्ष्य वृक्षदलैः कृताम् |
2360 | 2041012c | रामः सौमित्रिणां सार्धं सभार्यः संविवेश ह |
2361 | 2041013a | सभार्यं संप्रसुप्तं तं भ्रातरं वीक्ष्य लक्ष्मणः |
2362 | 2041013c | कथयामास सूताय रामस्य विविधान्गुणान् |
2363 | 2041014a | जाग्रतो ह्येव तां रात्रिं सौमित्रेरुदितो रविः |
2364 | 2041014c | सूतस्य तमसातीरे रामस्य ब्रुवतो गुणान् |
2365 | 2041015a | गोकुलाकुलतीरायास्तमसाया विदूरतः |
2366 | 2041015c | अवसत्तत्र तां रात्रिं रामः प्रकृतिभिः सह |
2367 | 2041016a | उत्थाय तु महातेजाः प्रकृतीस्ता निशाम्य च |
2368 | 2041016c | अब्रवीद्भ्रातरं रामो लक्ष्मणं पुण्यलक्षणम् |
2369 | 2041017a | अस्मद्व्यपेक्षान्सौमित्रे निरपेक्षान्गृहेष्वपि |
2370 | 2041017c | वृक्षमूलेषु संसुप्तान्पश्य लक्ष्मण साम्प्रतम् |
2371 | 2041018a | यथैते नियमं पौराः कुर्वन्त्यस्मन्निवर्तने |
2372 | 2041018c | अपि प्राणानसिष्यन्ति न तु त्यक्ष्यन्ति निश्चयम् |
2373 | 2041019a | यावदेव तु संसुप्तास्तावदेव वयं लघु |
2374 | 2041019c | रथमारुह्य गच्छामः पन्थानमकुतोभयम् |
2375 | 2041020a | अतो भूयोऽपि नेदानीमिक्ष्वाकुपुरवासिनः |
2376 | 2041020c | स्वपेयुरनुरक्ता मां वृक्षमूलानि संश्रिताः |
2377 | 2041021a | पौरा ह्यात्मकृताद्दुःखाद्विप्रमोच्या नृपात्मजैः |
2378 | 2041021c | न तु खल्वात्मना योज्या दुःखेन पुरवासिनः |
2379 | 2041022a | अब्रवील्लक्ष्मणो रामं साक्षाद्धर्ममिव स्थितम् |
2380 | 2041022c | रोचते मे महाप्राज्ञ क्षिप्रमारुह्यतामिति |
2381 | 2041023a | सूतस्ततः संत्वरितः स्यन्दनं तैर्हयोत्तमैः |
2382 | 2041023c | योजयित्वाथ रामाय प्राञ्जलिः प्रत्यवेदयत् |
2383 | 2041024a | मोहनार्थं तु पौराणां सूतं रामोऽब्रवीद्वचः |
2384 | 2041024c | उदङ्मुखः प्रयाहि त्वं रथमास्थाय सारथे |
2385 | 2041025a | मुहूर्तं त्वरितं गत्वा निर्गतय रथं पुनः |
2386 | 2041025c | यथा न विद्युः पौरा मां तथा कुरु समाहितः |
2387 | 2041026a | रामस्य वचनं श्रुत्वा तथा चक्रे स सारथिः |
2388 | 2041026c | प्रत्यागम्य च रामस्य स्यन्दनं प्रत्यवेदयत् |
2389 | 2041027a | तं स्यन्दनमधिष्ठाय राघवः सपरिच्छदः |
2390 | 2041027c | शीघ्रगामाकुलावर्तां तमसामतरन्नदीम् |
2391 | 2041028a | स संतीर्य महाबाहुः श्रीमाञ्शिवमकण्टकम् |
2392 | 2041028c | प्रापद्यत महामार्गमभयं भयदर्शिनाम् |
2393 | 2041029a | प्रभातायां तु शर्वर्यां पौरास्ते राघवो विना |
2394 | 2041029c | शोकोपहतनिश्चेष्टा बभूवुर्हतचेतसः |
2395 | 2041030a | शोकजाश्रुपरिद्यूना वीक्षमाणास्ततस्ततः |
2396 | 2041030c | आलोकमपि रामस्य न पश्यन्ति स्म दुःखिताः |
2397 | 2041031a | ततो मार्गानुसारेण गत्वा किंचित्क्षणं पुनः |
2398 | 2041031c | मार्गनाशाद्विषादेन महता समभिप्लुतः |
2399 | 2041032a | रथस्य मार्गनाशेन न्यवर्तन्त मनस्विनः |
2400 | 2041032c | किमिदं किं करिष्यामो दैवेनोपहता इति |
2401 | 2041033a | ततो यथागतेनैव मार्गेण क्लान्तचेतसः |
2402 | 2041033c | अयोध्यामगमन्सर्वे पुरीं व्यथितसज्जनाम् |
2403 | 2042001a | अनुगम्य निवृत्तानां रामं नगरवासिनाम् |
2404 | 2042001c | उद्गतानीव सत्त्वानि बभूवुरमनस्विनाम् |
2405 | 2042002a | स्वं स्वं निलयमागम्य पुत्रदारैः समावृताः |
2406 | 2042002c | अश्रूणि मुमुचुः सर्वे बाष्पेण पिहिताननाः |
2407 | 2042003a | न चाहृष्यन्न चामोदन्वणिजो न प्रसारयन् |
2408 | 2042003c | न चाशोभन्त पण्यानि नापचन्गृहमेधिनः |
2409 | 2042004a | नष्टं दृष्ट्वा नाभ्यनन्दन्विपुलं वा धनागमम् |
2410 | 2042004c | पुत्रं प्रथमजं लब्ध्वा जननी नाभ्यनन्दत |
2411 | 2042005a | गृहे गृहे रुदन्त्यश्च भर्तारं गृहमागतम् |
2412 | 2042005c | व्यगर्हयन्तो दुःखार्ता वाग्भिस्तोत्रैरिव द्विपान् |
2413 | 2042006a | किं नु तेषां गृहैः कार्यं किं दारैः किं धनेन वा |
2414 | 2042006c | पुत्रैर्वा किं सुखैर्वापि ये न पश्यन्ति राघवम् |
2415 | 2042007a | एकः सत्पुरुषो लोके लक्ष्मणः सह सीतया |
2416 | 2042007c | योऽनुगच्छति काकुत्स्थं रामं परिचरन्वने |
2417 | 2042008a | आपगाः कृतपुण्यास्ताः पद्मिन्यश्च सरांसि च |
2418 | 2042008c | येषु स्नास्यति काकुत्स्थो विगाह्य सलिलं शुचि |
2419 | 2042009a | शोभयिष्यन्ति काकुत्स्थमटव्यो रम्यकाननाः |
2420 | 2042009c | आपगाश्च महानूपाः सानुमन्तश्च पर्वताः |
2421 | 2042010a | काननं वापि शैलं वा यं रामोऽभिगमिष्यति |
2422 | 2042010c | प्रियातिथिमिव प्राप्तं नैनं शक्ष्यन्त्यनर्चितुम् |
2423 | 2042011a | विचित्रकुसुमापीडा बहुमञ्जरिधारिणः |
2424 | 2042011c | अकाले चापि मुख्यानि पुष्पाणि च फलानि च |
2425 | 2042011e | दर्शयिष्यन्त्यनुक्रोशाद्गिरयो राममागतम् |
2426 | 2042012a | विदर्शयन्तो विविधान्भूयश्चित्रांश्च निर्झरान् |
2427 | 2042012c | पादपाः पर्वताग्रेषु रमयिष्यन्ति राघवम् |
2428 | 2042013a | यत्र रामो भयं नात्र नास्ति तत्र पराभवः |
2429 | 2042013c | स हि शूरो महाबाहुः पुत्रो दशरथस्य च |
2430 | 2042014a | पुरा भवति नो दूरादनुगच्छाम राघवम् |
2431 | 2042014c | पादच्छाया सुखा भर्तुस्तादृशस्य महात्मनः |
2432 | 2042014e | स हि नाथो जनस्यास्य स गतिः स परायणम् |
2433 | 2042015a | वयं परिचरिष्यामः सीतां यूयं तु राघवम् |
2434 | 2042015c | इति पौरस्त्रियो भर्तॄन्दुःखार्तास्तत्तदब्रुवन् |
2435 | 2042016a | युष्माकं राघवोऽरण्ये योगक्षेमं विधास्यति |
2436 | 2042016c | सीता नारीजनस्यास्य योगक्षेमं करिष्यति |
2437 | 2042017a | को न्वनेनाप्रतीतेन सोत्कण्ठितजनेन च |
2438 | 2042017c | संप्रीयेतामनोज्ञेन वासेन हृतचेतसा |
2439 | 2042018a | कैकेय्या यदि चेद्राज्यं स्यादधर्म्यमनाथवत् |
2440 | 2042018c | न हि नो जीवितेनार्थः कुतः पुत्रैः कुतो धनैः |
2441 | 2042019a | यया पुत्रश्च भर्ता च त्यक्तावैश्वर्यकारणात् |
2442 | 2042019c | कं सा परिहरेदन्यं कैकेयी कुलपांसनी |
2443 | 2042020a | कैकेय्या न वयं राज्ये भृतका निवसेमहि |
2444 | 2042020c | जीवन्त्या जातु जीवन्त्यः पुत्रैरपि शपामहे |
2445 | 2042021a | या पुत्रं पार्थिवेन्द्रस्य प्रवासयति निर्घृणा |
2446 | 2042021c | कस्तां प्राप्य सुखं जीवेदधर्म्यां दुष्टचारिणीम् |
2447 | 2042022a | न हि प्रव्रजिते रामे जीविष्यति महीपतिः |
2448 | 2042022c | मृते दशरथे व्यक्तं विलोपस्तदनन्तरम् |
2449 | 2042023a | ते विषं पिबतालोड्य क्षीणपुण्याः सुदुर्गताः |
2450 | 2042023c | राघवं वानुगच्छध्वमश्रुतिं वापि गच्छत |
2451 | 2042024a | मिथ्या प्रव्राजितो रामः सभार्यः सहलक्ष्मणः |
2452 | 2042024c | भरते संनिषृष्टाः स्मः सौनिके पशवो यथा |
2453 | 2042025a | तास्तथा विलपन्त्यस्तु नगरे नागरस्त्रियः |
2454 | 2042025c | चुक्रुशुर्भृशसंतप्ता मृत्योरिव भयागमे |
2455 | 2042026a | तथा स्त्रियो रामनिमित्तमातुरा; यथा सुते भ्रातरि वा विवासिते |
2456 | 2042026c | विलप्य दीना रुरुदुर्विचेतसः; सुतैर्हि तासामधिको हि सोऽभवत् |
2457 | 2043001a | रामोऽपि रात्रिशेषेण तेनैव महदन्तरम् |
2458 | 2043001c | जगाम पुरुषव्याघ्रः पितुराज्ञामनुस्मरन् |
2459 | 2043002a | तथैव गच्छतस्तस्य व्यपायाद्रजनी शिवा |
2460 | 2043002c | उपास्य स शिवां संध्यां विषयान्तं व्यगाहत |
2461 | 2043003a | ग्रामान्विकृष्टसीमांस्तान्पुष्पितानि वनानि च |
2462 | 2043003c | पश्यन्नतिययौ शीघ्रं शरैरिव हयोत्तमैः |
2463 | 2043004a | शृण्वन्वाचो मनुष्याणां ग्रामसंवासवासिनाम् |
2464 | 2043004c | राजानं धिग्दशरथं कामस्य वशमागतम् |
2465 | 2043005a | हा नृशंसाद्य कैकेयी पापा पापानुबन्धिनी |
2466 | 2043005c | तीक्ष्णा संभिन्नमर्यादा तीक्ष्णे कर्मणि वर्तते |
2467 | 2043006a | या पुत्रमीदृशं राज्ञः प्रवासयति धार्मिकम् |
2468 | 2043006c | वन वासे महाप्राज्ञं सानुक्रोशमतन्द्रितम् |
2469 | 2043007a | एता वाचो मनुष्याणां ग्रामसंवासवासिनाम् |
2470 | 2043007c | शृण्वन्नतिययौ वीरः कोसलान्कोसलेश्वरः |
2471 | 2043008a | ततो वेदश्रुतिं नाम शिववारिवहां नदीम् |
2472 | 2043008c | उत्तीर्याभिमुखः प्रायादगस्त्याध्युषितां दिशम् |
2473 | 2043009a | गत्वा तु सुचिरं कालं ततः शीतजलां नदीम् |
2474 | 2043009c | गोमतीं गोयुतानूपामतरत्सागरंगमाम् |
2475 | 2043010a | गोमतीं चाप्यतिक्रम्य राघवः शीघ्रगैर्हयैः |
2476 | 2043010c | मयूरहंसाभिरुतां ततार स्यन्दिकां नदीम् |
2477 | 2043011a | स महीं मनुना राज्ञा दत्तामिक्ष्वाकवे पुरा |
2478 | 2043011c | स्फीतां राष्ट्रावृतां रामो वैदेहीमन्वदर्शयत् |
2479 | 2043012a | सूत इत्येव चाभाष्य सारथिं तमभीक्ष्णशः |
2480 | 2043012c | हंसमत्तस्वरः श्रीमानुवाच पुरुषर्षभः |
2481 | 2043013a | कदाहं पुनरागम्य सरय्वाः पुष्पिते वने |
2482 | 2043013c | मृगयां पर्याटष्यामि मात्रा पित्रा च संगतः |
2483 | 2043014a | नात्यर्थमभिकाङ्क्षामि मृगयां सरयूवने |
2484 | 2043014c | रतिर्ह्येषातुला लोके राजर्षिगणसंमता |
2485 | 2043015a | स तमध्वानमैक्ष्वाकः सूतं मधुरया गिरा |
2486 | 2043015c | तं तमर्थमभिप्रेत्य ययौवाक्यमुदीरयन् |
2487 | 2044001a | विशालान्कोसलान्रम्यान्यात्वा लक्ष्मणपूर्वजः |
2488 | 2044001c | आससाद महाबाहुः शृङ्गवेरपुरं प्रति |
2489 | 2044002a | तत्र त्रिपथगां दिव्यां शिवतोयामशैवलाम् |
2490 | 2044002c | ददर्श राघवो गङ्गां पुण्यामृषिनिसेविताम् |
2491 | 2044003a | हंससारससंघुष्टां चक्रवाकोपकूजिताम् |
2492 | 2044003c | शिंशुमरैश्च नक्रैश्च भुजंगैश्च निषेविताम् |
2493 | 2044004a | तामूर्मिकलिलावर्तामन्ववेक्ष्य महारथः |
2494 | 2044004c | सुमन्त्रमब्रवीत्सूतमिहैवाद्य वसामहे |
2495 | 2044005a | अविदूरादयं नद्या बहुपुष्पप्रवालवान् |
2496 | 2044005c | सुमहानिङ्गुदीवृक्षो वसामोऽत्रैव सारथे |
2497 | 2044006a | लक्षणश्च सुमन्त्रश्च बाढमित्येव राघवम् |
2498 | 2044006c | उक्त्वा तमिङ्गुदीवृक्षं तदोपययतुर्हयैः |
2499 | 2044007a | रामोऽभियाय तं रम्यं वृक्षमिक्ष्वाकुनन्दनः |
2500 | 2044007c | रथादवातरत्तस्मात्सभार्यः सहलक्ष्मणः |
2501 | 2044008a | सुमन्त्रोऽप्यवतीर्यैव मोचयित्वा हयोत्तमान् |
2502 | 2044008c | वृक्षमूलगतं राममुपतस्थे कृताञ्जलिः |
2503 | 2044009a | तत्र राजा गुहो नाम रामस्यात्मसमः सखा |
2504 | 2044009c | निषादजात्यो बलवान्स्थपतिश्चेति विश्रुतः |
2505 | 2044010a | स श्रुत्वा पुरुषव्याघ्रं रामं विषयमागतम् |
2506 | 2044010c | वृद्धैः परिवृतोऽमात्यैर्ज्ञातिभिश्चाप्युपागतः |
2507 | 2044011a | ततो निषादाधिपतिं दृष्ट्वा दूरादवस्थितम् |
2508 | 2044011c | सह सौमित्रिणा रामः समागच्छद्गुहेन सः |
2509 | 2044012a | तमार्तः संपरिष्वज्य गुहो राघवमब्रवीत् |
2510 | 2044012c | यथायोध्या तथेदं ते राम किं करवाणि ते |
2511 | 2044013a | ततो गुणवदन्नाद्यमुपादाय पृथग्विधम् |
2512 | 2044013c | अर्घ्यं चोपानयत्क्षिप्रं वाक्यं चेदमुवाच ह |
2513 | 2044014a | स्वागतं ते महाबाहो तवेयमखिला मही |
2514 | 2044014c | वयं प्रेष्या भवान्भर्ता साधु राज्यं प्रशाधि नः |
2515 | 2044015a | भक्ष्यं भोज्यं च पेयं च लेह्यं चेदमुपस्थितम् |
2516 | 2044015c | शयनानि च मुख्यानि वाजिनां खादनं च ते |
2517 | 2044016a | गुहमेव ब्रुवाणं तं राघवः प्रत्युवाच ह |
2518 | 2044016c | अर्चिताश्चैव हृष्टाश्च भवता सर्वथा वयम् |
2519 | 2044017a | पद्भ्यामभिगमाच्चैव स्नेहसंदर्शनेन च |
2520 | 2044017c | भुजाभ्यां साधुवृत्ताभ्यां पीडयन्वाक्यमब्रवीत् |
2521 | 2044018a | दिष्ट्या त्वां गुह पश्यामि अरोगं सह बान्धवैः |
2522 | 2044018c | अपि ते कूशलं राष्ट्रे मित्रेषु च धनेषु च |
2523 | 2044019a | यत्त्विदं भवता किंचित्प्रीत्या समुपकल्पितम् |
2524 | 2044019c | सर्वं तदनुजानामि न हि वर्ते प्रतिग्रहे |
2525 | 2044020a | कुशचीराजिनधरं फलमूलाशनं च माम् |
2526 | 2044020c | विद्धि प्रणिहितं धर्मे तापसं वनगोचरम् |
2527 | 2044021a | अश्वानां खादनेनाहमर्थी नान्येन केनचित् |
2528 | 2044021c | एतावतात्रभवता भविष्यामि सुपूजितः |
2529 | 2044022a | एते हि दयिता राज्ञः पितुर्दशरथस्य मे |
2530 | 2044022c | एतैः सुविहितैरश्वैर्भविष्याम्यहमर्चितः |
2531 | 2044023a | अश्वानां प्रतिपानं च खादनं चैव सोऽन्वशात् |
2532 | 2044023c | गुहस्तत्रैव पुरुषांस्त्वरितं दीयतामिति |
2533 | 2044024a | ततश्चीरोत्तरासङ्गः संध्यामन्वास्य पश्चिमाम् |
2534 | 2044024c | जलमेवाददे भोज्यं लक्ष्मणेनाहृतं स्वयम् |
2535 | 2044025a | तस्य भूमौ शयानस्य पादौ प्रक्षाल्य लक्ष्मणः |
2536 | 2044025c | सभार्यस्य ततोऽभ्येत्य तस्थौ वृक्षमुपाश्रितः |
2537 | 2044026a | गुहोऽपि सह सूतेन सौमित्रिमनुभाषयन् |
2538 | 2044026c | अन्वजाग्रत्ततो राममप्रमत्तो धनुर्धरः |
2539 | 2044027a | तथा शयानस्य ततोऽस्य धीमतो; यशस्विनो दाशरथेर्महात्मनः |
2540 | 2044027c | अदृष्टदुःखस्य सुखोचितस्य सा; तदा व्यतीयाय चिरेण शर्वरी |
2541 | 2045001a | तं जाग्रतमदम्भेन भ्रातुरर्थाय लक्ष्मणम् |
2542 | 2045001c | गुहः संतापसंतप्तो राघवं वाक्यमब्रवीत् |
2543 | 2045002a | इयं तात सुखा शय्या त्वदर्थमुपकल्पिता |
2544 | 2045002c | प्रत्याश्वसिहि साध्वस्यां राजपुत्र यथासुखम् |
2545 | 2045003a | उचितोऽयं जनः सर्वः क्लेशानां त्वं सुखोचितः |
2546 | 2045003c | गुप्त्यर्थं जागरिष्यामः काकुत्स्थस्य वयं निशाम् |
2547 | 2045004a | न हि रामात्प्रियतरो ममास्ति भुवि कश्चन |
2548 | 2045004c | ब्रवीम्येतदहं सत्यं सत्येनैव च ते शपे |
2549 | 2045005a | अस्य प्रसादादाशंसे लोकेऽस्मिन्सुमहद्यशः |
2550 | 2045005c | धर्मावाप्तिं च विपुलामर्थावाप्तिं च केवलाम् |
2551 | 2045006a | सोऽहं प्रियसखं रामं शयानं सह सीतया |
2552 | 2045006c | रक्षिष्यामि धनुष्पाणिः सर्वतो ज्ञातिभिः सह |
2553 | 2045007a | न हि मेऽविदितं किंचिद्वनेऽस्मिंश्चरतः सदा |
2554 | 2045007c | चतुरङ्गं ह्यपि बलं सुमहत्प्रसहेमहि |
2555 | 2045008a | लक्ष्मणस्तं तदोवाच रक्ष्यमाणास्त्वयानघ |
2556 | 2045008c | नात्र भीता वयं सर्वे धर्ममेवानुपश्यता |
2557 | 2045009a | कथं दाशरथौ भूमौ शयाने सह सीतया |
2558 | 2045009c | शक्या निद्रा मया लब्धुं जीवितं वा सुखानि वा |
2559 | 2045010a | यो न देवासुरैः सर्वैः शक्यः प्रसहितुं युधि |
2560 | 2045010c | तं पश्य सुखसंविष्टं तृणेषु सह सीतया |
2561 | 2045011a | यो मन्त्र तपसा लब्धो विविधैश्च परिश्रमैः |
2562 | 2045011c | एको दशरथस्यैष पुत्रः सदृशलक्षणः |
2563 | 2045012a | अस्मिन्प्रव्रजितो राजा न चिरं वर्तयिष्यति |
2564 | 2045012c | विधवा मेदिनी नूनं क्षिप्रमेव भविष्यति |
2565 | 2045013a | विनद्य सुमहानादं श्रमेणोपरताः स्त्रियः |
2566 | 2045013c | निर्घोषोपरतं तात मन्ये राजनिवेशनम् |
2567 | 2045014a | कौसल्या चैव राजा च तथैव जननी मम |
2568 | 2045014c | नाशंसे यदि जीवन्ति सर्वे ते शर्वरीमिमाम् |
2569 | 2045015a | जीवेदपि हि मे माता शत्रुघ्नस्यान्ववेक्षया |
2570 | 2045015c | तद्दुःखं यत्तु कौसल्या वीरसूर्विनशिष्यति |
2571 | 2045016a | अनुरक्तजनाकीर्णा सुखालोकप्रियावहा |
2572 | 2045016c | राजव्यसनसंसृष्टा सा पुरी विनशिष्यति |
2573 | 2045017a | अतिक्रान्तमतिक्रान्तमनवाप्य मनोरथम् |
2574 | 2045017c | राज्ये राममनिक्षिप्य पिता मे विनशिष्यति |
2575 | 2045018a | सिद्धार्थाः पितरं वृत्तं तस्मिन्काले ह्युपस्थिते |
2576 | 2045018c | प्रेतकार्येषु सर्वेषु संस्करिष्यन्ति भूमिपम् |
2577 | 2045019a | रम्यचत्वरसंस्थानां सुविभक्तमहापथाम् |
2578 | 2045019c | हर्म्यप्रासादसंपन्नां गणिकावरशोभिताम् |
2579 | 2045020a | रथाश्वगजसंबाधां तूर्यनादविनादिताम् |
2580 | 2045020c | सर्वकल्याणसंपूर्णां हृष्टपुष्टजनाकुलाम् |
2581 | 2045021a | आरामोद्यानसंपन्नां समाजोत्सवशालिनीम् |
2582 | 2045021c | सुखिता विचरिष्यन्ति राजधानीं पितुर्मम |
2583 | 2045022a | अपि सत्यप्रतिज्ञेन सार्धं कुशलिना वयम् |
2584 | 2045022c | निवृत्ते वनवासेऽस्मिन्नयोध्यां प्रविशेमहि |
2585 | 2045023a | परिदेवयमानस्य दुःखार्तस्य महात्मनः |
2586 | 2045023c | तिष्ठतो राजपुत्रस्य शर्वरी सात्यवर्तत |
2587 | 2045024a | तथा हि सत्यं ब्रुवति प्रजाहिते; नरेन्द्रपुत्रे गुरुसौहृदाद्गुहः |
2588 | 2045024c | मुमोच बाष्पं व्यसनाभिपीडितो; ज्वरातुरो नाग इव व्यथातुरः |
2589 | 2046001a | प्रभातायां तु शर्वर्यां पृथु वृक्षा महायशाः |
2590 | 2046001c | उवाच रामः सौमित्रिं लक्ष्मणं शुभलक्षणम् |
2591 | 2046002a | भास्करोदयकालोऽयं गता भगवती निशा |
2592 | 2046002c | असौ सुकृष्णो विहगः कोकिलस्तात कूजति |
2593 | 2046003a | बर्हिणानां च निर्घोषः श्रूयते नदतां वने |
2594 | 2046003c | तराम जाह्नवीं सौम्य शीघ्रगां सागरंगमाम् |
2595 | 2046004a | विज्ञाय रामस्य वचः सौमित्रिर्मित्रनन्दनः |
2596 | 2046004c | गुहमामन्त्र्य सूतं च सोऽतिष्ठद्भ्रातुरग्रतः |
2597 | 2046005a | ततः कलापान्संनह्य खड्गौ बद्ध्वा च धन्विनौ |
2598 | 2046005c | जग्मतुर्येन तौ गङ्गां सीतया सह राघवौ |
2599 | 2046006a | राममेव तु धर्मज्ञमुपगम्य विनीतवत् |
2600 | 2046006c | किमहं करवाणीति सूतः प्राञ्जलिरब्रवीत् |
2601 | 2046007a | निवर्तस्वेत्युवाचैनमेतावद्धि कृतं मम |
2602 | 2046007c | यानं विहाय पद्भ्यां तु गमिष्यामो महावनम् |
2603 | 2046008a | आत्मानं त्वभ्यनुज्ञातमवेक्ष्यार्तः स सारथिः |
2604 | 2046008c | सुमन्त्रः पुरुषव्याघ्रमैक्ष्वाकमिदमब्रवीत् |
2605 | 2046009a | नातिक्रान्तमिदं लोके पुरुषेणेह केनचित् |
2606 | 2046009c | तव सभ्रातृभार्यस्य वासः प्राकृतवद्वने |
2607 | 2046010a | न मन्ये ब्रह्मचर्येऽस्ति स्वधीते वा फलोदयः |
2608 | 2046010c | मार्दवार्जवयोर्वापि त्वां चेद्व्यसनमागतम् |
2609 | 2046011a | सह राघव वैदेह्या भ्रात्रा चैव वने वसन् |
2610 | 2046011c | त्वं गतिं प्राप्स्यसे वीर त्रीँल्लोकांस्तु जयन्निव |
2611 | 2046012a | वयं खलु हता राम ये तयाप्युपवञ्चिताः |
2612 | 2046012c | कैकेय्या वशमेष्यामः पापाया दुःखभागिनः |
2613 | 2046013a | इति ब्रुवन्नात्म समं सुमन्त्रः सारथिस्तदा |
2614 | 2046013c | दृष्ट्वा दुर गतं रामं दुःखार्तो रुरुदे चिरम् |
2615 | 2046014a | ततस्तु विगते बाष्पे सूतं स्पृष्टोदकं शुचिम् |
2616 | 2046014c | रामस्तु मधुरं वाक्यं पुनः पुनरुवाच तम् |
2617 | 2046015a | इक्ष्वाकूणां त्वया तुल्यं सुहृदं नोपलक्षये |
2618 | 2046015c | यथा दशरथो राजा मां न शोचेत्तथा कुरु |
2619 | 2046016a | शोकोपहत चेताश्च वृद्धश्च जगतीपतिः |
2620 | 2046016c | काम भारावसन्नश्च तस्मादेतद्ब्रवीमि ते |
2621 | 2046017a | यद्यदाज्ञापयेत्किंचित्स महात्मा महीपतिः |
2622 | 2046017c | कैकेय्याः प्रियकामार्थं कार्यं तदविकाङ्क्षया |
2623 | 2046018a | एतदर्थं हि राज्यानि प्रशासति नरेश्वराः |
2624 | 2046018c | यदेषां सर्वकृत्येषु मनो न प्रतिहन्यते |
2625 | 2046019a | तद्यथा स महाराजो नालीकमधिगच्छति |
2626 | 2046019c | न च ताम्यति दुःखेन सुमन्त्र कुरु तत्तथा |
2627 | 2046020a | अदृष्टदुःखं राजानं वृद्धमार्यं जितेन्द्रियम् |
2628 | 2046020c | ब्रूयास्त्वमभिवाद्यैव मम हेतोरिदं वचः |
2629 | 2046021a | नैवाहमनुशोचामि लक्ष्मणो न च मैथिली |
2630 | 2046021c | अयोध्यायाश्च्युताश्चेति वने वत्स्यामहेति वा |
2631 | 2046022a | चतुर्दशसु वर्षेषु निवृत्तेषु पुनः पुनः |
2632 | 2046022c | लक्ष्मणं मां च सीतां च द्रक्ष्यसि क्षिप्रमागतान् |
2633 | 2046023a | एवमुक्त्वा तु राजानं मातरं च सुमन्त्र मे |
2634 | 2046023c | अन्याश्च देवीः सहिताः कैकेयीं च पुनः पुनः |
2635 | 2046024a | आरोग्यं ब्रूहि कौसल्यामथ पादाभिवन्दनम् |
2636 | 2046024c | सीताया मम चार्यस्य वचनाल्लक्ष्मणस्य च |
2637 | 2046025a | ब्रूयाश्च हि महाराजं भरतं क्षिप्रमानय |
2638 | 2046025c | आगतश्चापि भरतः स्थाप्यो नृपमते पदे |
2639 | 2046026a | भरतं च परिष्वज्य यौवराज्येऽभिषिच्य च |
2640 | 2046026c | अस्मत्संतापजं दुःखं न त्वामभिभविष्यति |
2641 | 2046027a | भरतश्चापि वक्तव्यो यथा राजनि वर्तसे |
2642 | 2046027c | तथा मातृषु वर्तेथाः सर्वास्वेवाविशेषतः |
2643 | 2046028a | यथा च तव कैकेयी सुमित्रा चाविशेषतः |
2644 | 2046028c | तथैव देवी कौसल्या मम माता विशेषतः |
2645 | 2046029a | निवर्त्यमानो रामेण सुमन्त्रः शोककर्शितः |
2646 | 2046029c | तत्सर्वं वचनं श्रुत्वा स्नेहात्काकुत्स्थमब्रवीत् |
2647 | 2046030a | यदहं नोपचारेण ब्रूयां स्नेहादविक्लवः |
2648 | 2046030c | भक्तिमानिति तत्तावद्वाक्यं त्वं क्षन्तुमर्हसि |
2649 | 2046031a | कथं हि त्वद्विहीनोऽहं प्रतियास्यामि तां पुरीम् |
2650 | 2046031c | तव तात वियोगेन पुत्रशोकाकुलामिव |
2651 | 2046032a | सराममपि तावन्मे रथं दृष्ट्वा तदा जनः |
2652 | 2046032c | विना रामं रथं दृष्ट्वा विदीर्येतापि सा पुरी |
2653 | 2046033a | दैन्यं हि नगरी गच्छेद्दृष्ट्वा शून्यमिमं रथम् |
2654 | 2046033c | सूतावशेषं स्वं सैन्यं हतवीरमिवाहवे |
2655 | 2046034a | दूरेऽपि निवसन्तं त्वां मानसेनाग्रतः स्थितम् |
2656 | 2046034c | चिन्तयन्त्योऽद्य नूनं त्वां निराहाराः कृताः प्रजाः |
2657 | 2046035a | आर्तनादो हि यः पौरैर्मुक्तस्तद्विप्रवासने |
2658 | 2046035c | रथस्थं मां निशाम्यैव कुर्युः शतगुणं ततः |
2659 | 2046036a | अहं किं चापि वक्ष्यामि देवीं तव सुतो मया |
2660 | 2046036c | नीतोऽसौ मातुलकुलं संतापं मा कृथा इति |
2661 | 2046037a | असत्यमपि नैवाहं ब्रूयां वचनमीदृशम् |
2662 | 2046037c | कथमप्रियमेवाहं ब्रूयां सत्यमिदं वचः |
2663 | 2046038a | मम तावन्नियोगस्थास्त्वद्बन्धुजनवाहिनः |
2664 | 2046038c | कथं रथं त्वया हीनं प्रवक्ष्यन्ति हयोत्तमाः |
2665 | 2046039a | यदि मे याचमानस्य त्यागमेव करिष्यसि |
2666 | 2046039c | सरथोऽग्निं प्रवेक्ष्यामि त्यक्त मात्र इह त्वया |
2667 | 2046040a | भविष्यन्ति वने यानि तपोविघ्नकराणि ते |
2668 | 2046040c | रथेन प्रतिबाधिष्ये तानि सत्त्वानि राघव |
2669 | 2046041a | तत्कृतेन मया प्राप्तं रथ चर्या कृतं सुखम् |
2670 | 2046041c | आशंसे त्वत्कृतेनाहं वनवासकृतं सुखम् |
2671 | 2046042a | प्रसीदेच्छामि तेऽरण्ये भवितुं प्रत्यनन्तरः |
2672 | 2046042c | प्रीत्याभिहितमिच्छामि भव मे पत्यनन्तरः |
2673 | 2046043a | तव शुश्रूषणं मूर्ध्ना करिष्यामि वने वसन् |
2674 | 2046043c | अयोध्यां देवलोकं वा सर्वथा प्रजहाम्यहम् |
2675 | 2046044a | न हि शक्या प्रवेष्टुं सा मयायोध्या त्वया विना |
2676 | 2046044c | राजधानी महेन्द्रस्य यथा दुष्कृतकर्मणा |
2677 | 2046045a | इमे चापि हया वीर यदि ते वनवासिनः |
2678 | 2046045c | परिचर्यां करिष्यन्ति प्राप्स्यन्ति परमां गतिम् |
2679 | 2046046a | वनवासे क्षयं प्राप्ते ममैष हि मनोरथः |
2680 | 2046046c | यदनेन रथेनैव त्वां वहेयं पुरीं पुनः |
2681 | 2046047a | चतुर्दश हि वर्षाणि सहितस्य त्वया वने |
2682 | 2046047c | क्षणभूतानि यास्यन्ति शतशस्तु ततोऽन्यथा |
2683 | 2046048a | भृत्यवत्सल तिष्ठन्तं भर्तृपुत्रगते पथि |
2684 | 2046048c | भक्तं भृत्यं स्थितं स्थित्यां त्वं न मां हातुमर्हसि |
2685 | 2046049a | एवं बहुविधं दीनं याचमानं पुनः पुनः |
2686 | 2046049c | रामो भृत्यानुकम्पी तु सुमन्त्रमिदमब्रवीत् |
2687 | 2046050a | जानामि परमां भक्तिं मयि ते भर्तृवत्सल |
2688 | 2046050c | शृणु चापि यदर्थं त्वां प्रेषयामि पुरीमितः |
2689 | 2046051a | नगरीं त्वां गतं दृष्ट्वा जननी मे यवीयसी |
2690 | 2046051c | कैकेयी प्रत्ययं गच्छेदिति रामो वनं गतः |
2691 | 2046052a | परितुष्टा हि सा देवि वनवासं गते मयि |
2692 | 2046052c | राजानं नातिशङ्केत मिथ्यावादीति धार्मिकम् |
2693 | 2046053a | एष मे प्रथमः कल्पो यदम्बा मे यवीयसी |
2694 | 2046053c | भरतारक्षितं स्फीतं पुत्रराज्यमवाप्नुयात् |
2695 | 2046054a | मम प्रियार्थं राज्ञश्च सरथस्त्वं पुरीं व्रज |
2696 | 2046054c | संदिष्टश्चासि यानर्थांस्तांस्तान्ब्रूयास्तथातथा |
2697 | 2046055a | इत्युक्त्वा वचनं सूतं सान्त्वयित्वा पुनः पुनः |
2698 | 2046055c | गुहं वचनमक्लीबं रामो हेतुमदब्रवीत् |
2699 | 2046055e | जटाः कृत्वा गमिष्यामि न्यग्रोधक्षीरमानय |
2700 | 2046056a | तत्क्षीरं राजपुत्राय गुहः क्षिप्रमुपाहरत् |
2701 | 2046056c | लक्ष्मणस्यात्मनश्चैव रामस्तेनाकरोज्जटाः |
2702 | 2046057a | तौ तदा चीरवसनौ जटामण्डलधारिणौ |
2703 | 2046057c | अशोभेतामृषिसमौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
2704 | 2046058a | ततो वैखानसं मार्गमास्थितः सहलक्ष्मणः |
2705 | 2046058c | व्रतमादिष्टवान्रामः सहायं गुहमब्रवीत् |
2706 | 2046059a | अप्रमत्तो बले कोशे दुर्गे जनपदे तथा |
2707 | 2046059c | भवेथा गुह राज्यं हि दुरारक्षतमं मतम् |
2708 | 2046060a | ततस्तं समनुज्ञाय गुहमिक्ष्वाकुनन्दनः |
2709 | 2046060c | जगाम तूर्णमव्यग्रः सभार्यः सहलक्ष्मणः |
2710 | 2046061a | स तु दृष्ट्वा नदीतीरे नावमिक्ष्वाकुनन्दनः |
2711 | 2046061c | तितीर्षुः शीघ्रगां गङ्गामिदं लक्ष्मणमब्रवीत् |
2712 | 2046062a | आरोह त्वं नर व्याघ्र स्थितां नावमिमां शनैः |
2713 | 2046062c | सीतां चारोपयान्वक्षं परिगृह्य मनस्विनीम् |
2714 | 2046063a | स भ्रातुः शासनं श्रुत्वा सर्वमप्रतिकूलयन् |
2715 | 2046063c | आरोप्य मैथिलीं पूर्वमारुरोहात्मवांस्ततः |
2716 | 2046064a | अथारुरोह तेजस्वी स्वयं लक्ष्मणपूर्वजः |
2717 | 2046064c | ततो निषादाधिपतिर्गुहो ज्ञातीनचोदयत् |
2718 | 2046065a | अनुज्ञाय सुमन्त्रं च सबलं चैव तं गुहम् |
2719 | 2046065c | आस्थाय नावं रामस्तु चोदयामास नाविकान् |
2720 | 2046066a | ततस्तैश्चोदिता सा नौः कर्णधारसमाहिता |
2721 | 2046066c | शुभस्फ्यवेगाभिहता शीघ्रं सलिलमत्यगात् |
2722 | 2046067a | मध्यं तु समनुप्राप्य भागीरथ्यास्त्वनिन्दिता |
2723 | 2046067c | वैदेही प्राञ्जलिर्भूत्वा तां नदीमिदमब्रवीत् |
2724 | 2046068a | पुत्रो दशरथस्यायं महाराजस्य धीमतः |
2725 | 2046068c | निदेशं पालयत्वेनं गङ्गे त्वदभिरक्षितः |
2726 | 2046069a | चतुर्दश हि वर्षाणि समग्राण्युष्य कानने |
2727 | 2046069c | भ्रात्रा सह मया चैव पुनः प्रत्यागमिष्यति |
2728 | 2046070a | ततस्त्वां देवि सुभगे क्षेमेण पुनरागता |
2729 | 2046070c | यक्ष्ये प्रमुदिता गङ्गे सर्वकामसमृद्धये |
2730 | 2046071a | त्वं हि त्रिपथगा देवि ब्रह्म लोकं समीक्षसे |
2731 | 2046071c | भार्या चोदधिराजस्य लोकेऽस्मिन्संप्रदृश्यसे |
2732 | 2046072a | सा त्वां देवि नमस्यामि प्रशंसामि च शोभने |
2733 | 2046072c | प्राप्त राज्ये नरव्याघ्र शिवेन पुनरागते |
2734 | 2046073a | गवां शतसहस्राणि वस्त्राण्यन्नं च पेशलम् |
2735 | 2046073c | ब्राह्मणेभ्यः प्रदास्यामि तव प्रियचिकीर्षया |
2736 | 2046074a | तथा संभाषमाणा सा सीता गङ्गामनिन्दिता |
2737 | 2046074c | दक्षिणा दक्षिणं तीरं क्षिप्रमेवाभ्युपागमत् |
2738 | 2046075a | तीरं तु समनुप्राप्य नावं हित्वा नरर्षभः |
2739 | 2046075c | प्रातिष्ठत सह भ्रात्रा वैदेह्या च परंतपः |
2740 | 2046076a | अथाब्रवीन्महाबाहुः सुमित्रानन्दवर्धनम् |
2741 | 2046076c | अग्रतो गच्छ सौमित्रे सीता त्वामनुगच्छतु |
2742 | 2046077a | पृष्ठतोऽहं गमिष्यामि त्वां च सीतां च पालयन् |
2743 | 2046077c | अद्य दुःखं तु वैदेही वनवासस्य वेत्स्यति |
2744 | 2046078a | गतं तु गङ्गापरपारमाशु; रामं सुमन्त्रः प्रततं निरीक्ष्य |
2745 | 2046078c | अध्वप्रकर्षाद्विनिवृत्तदृष्टि;र्मुमोच बाष्पं व्यथितस्तपस्वी |
2746 | 2046079a | तौ तत्र हत्वा चतुरो महामृगा;न्वराहमृश्यं पृषतं महारुरुम् |
2747 | 2046079c | आदाय मेध्यं त्वरितं बुभुक्षितौ; वासाय काले ययतुर्वनस्पतिम् |
2748 | 2047001a | स तं वृक्षं समासाद्य संध्यामन्वास्य पश्चिमाम् |
2749 | 2047001c | रामो रमयतां श्रेष्ठ इति होवाच लक्ष्मणम् |
2750 | 2047002a | अद्येयं प्रथमा रात्रिर्याता जनपदाद्बहिः |
2751 | 2047002c | या सुमन्त्रेण रहिता तां नोत्कण्ठितुमर्हसि |
2752 | 2047003a | जागर्तव्यमतन्द्रिभ्यामद्य प्रभृति रात्रिषु |
2753 | 2047003c | योगक्षेमो हि सीताया वर्तते लक्ष्मणावयोः |
2754 | 2047004a | रात्रिं कथंचिदेवेमां सौमित्रे वर्तयामहे |
2755 | 2047004c | उपावर्तामहे भूमावास्तीर्य स्वयमार्जितैः |
2756 | 2047005a | स तु संविश्य मेदिन्यां महार्हशयनोचितः |
2757 | 2047005c | इमाः सौमित्रये रामो व्याजहार कथाः शुभाः |
2758 | 2047006a | ध्रुवमद्य महाराजो दुःखं स्वपिति लक्ष्मण |
2759 | 2047006c | कृतकामा तु कैकेयी तुष्टा भवितुमर्हति |
2760 | 2047007a | सा हि देवी महाराजं कैकेयी राज्यकारणात् |
2761 | 2047007c | अपि न च्यावयेत्प्राणान्दृष्ट्वा भरतमागतम् |
2762 | 2047008a | अनाथश्चैव वृद्धश्च मया चैव विनाकृतः |
2763 | 2047008c | किं करिष्यति कामात्मा कैकेय्या वशमागतः |
2764 | 2047009a | इदं व्यसनमालोक्य राज्ञश्च मतिविभ्रमम् |
2765 | 2047009c | काम एवार्धधर्माभ्यां गरीयानिति मे मतिः |
2766 | 2047010a | को ह्यविद्वानपि पुमान्प्रमदायाः कृते त्यजेत् |
2767 | 2047010c | छन्दानुवर्तिनं पुत्रं तातो मामिव लक्ष्मण |
2768 | 2047011a | सुखी बत सभार्यश्च भरतः केकयीसुतः |
2769 | 2047011c | मुदितान्कोसलानेको यो भोक्ष्यत्यधिराजवत् |
2770 | 2047012a | स हि सर्वस्य राज्यस्य मुखमेकं भविष्यति |
2771 | 2047012c | ताते च वयसातीते मयि चारण्यमाश्रिते |
2772 | 2047013a | अर्थधर्मौ परित्यज्य यः काममनुवर्तते |
2773 | 2047013c | एवमापद्यते क्षिप्रं राजा दशरथो यथा |
2774 | 2047014a | मन्ये दशरथान्ताय मम प्रव्राजनाय च |
2775 | 2047014c | कैकेयी सौम्य संप्राप्ता राज्याय भरतस्य च |
2776 | 2047015a | अपीदानीं न कैकेयी सौभाग्यमदमोहिता |
2777 | 2047015c | कौसल्यां च सुमित्रां च संप्रबाधेत मत्कृते |
2778 | 2047016a | मा स्म मत्कारणाद्देवी सुमित्रा दुःखमावसेत् |
2779 | 2047016c | अयोध्यामित एव त्वं काले प्रविश लक्ष्मण |
2780 | 2047017a | अहमेको गमिष्यामि सीतया सह दण्डकान् |
2781 | 2047017c | अनाथाया हि नाथस्त्वं कौसल्याया भविष्यसि |
2782 | 2047018a | क्षुद्रकर्मा हि कैकेयी द्वेषादन्याय्यमाचरेत् |
2783 | 2047018c | परिदद्या हि धर्मज्ञे भरते मम मातरम् |
2784 | 2047019a | नूनं जात्यन्तरे कस्मिं स्त्रियः पुत्रैर्वियोजिताः |
2785 | 2047019c | जनन्या मम सौमित्रे तदप्येतदुपस्थितम् |
2786 | 2047020a | मया हि चिरपुष्टेन दुःखसंवर्धितेन च |
2787 | 2047020c | विप्रायुज्यत कौसल्या फलकाले धिगस्तु माम् |
2788 | 2047021a | मा स्म सीमन्तिनी काचिज्जनयेत्पुत्रमीदृशम् |
2789 | 2047021c | सौमित्रे योऽहमम्बाया दद्मि शोकमनन्तकम् |
2790 | 2047022a | मन्ये प्रीतिविशिष्टा सा मत्तो लक्ष्मणसारिका |
2791 | 2047022c | यस्यास्तच्छ्रूयते वाक्यं शुक पादमरेर्दश |
2792 | 2047023a | शोचन्त्याश्चाल्पभाग्याया न किंचिदुपकुर्वता |
2793 | 2047023c | पुर्त्रेण किमपुत्राया मया कार्यमरिंदम |
2794 | 2047024a | अल्पभाग्या हि मे माता कौसल्या रहिता मया |
2795 | 2047024c | शेते परमदुःखार्ता पतिता शोकसागरे |
2796 | 2047025a | एको ह्यहमयोध्यां च पृथिवीं चापि लक्ष्मण |
2797 | 2047025c | तरेयमिषुभिः क्रुद्धो ननु वीर्यमकारणम् |
2798 | 2047026a | अधर्मभय भीतश्च परलोकस्य चानघ |
2799 | 2047026c | तेन लक्ष्मण नाद्याहमात्मानमभिषेचये |
2800 | 2047027a | एतदन्यच्च करुणं विलप्य विजने बहु |
2801 | 2047027c | अश्रुपूर्णमुखो रामो निशि तूष्णीमुपाविशत् |
2802 | 2047028a | विलप्योपरतं रामं गतार्चिषमिवानलम् |
2803 | 2047028c | समुद्रमिव निर्वेगमाश्वासयत लक्ष्मणः |
2804 | 2047029a | ध्रुवमद्य पुरी राम अयोध्या युधिनां वर |
2805 | 2047029c | निष्प्रभा त्वयि निष्क्रान्ते गतचन्द्रेव शर्वरी |
2806 | 2047030a | नैतदौपयिकं राम यदिदं परितप्यसे |
2807 | 2047030c | विषादयसि सीतां च मां चैव पुरुषर्षभ |
2808 | 2047031a | न च सीता त्वया हीना न चाहमपि राघव |
2809 | 2047031c | मुहूर्तमपि जीवावो जलान्मत्स्याविवोद्धृतौ |
2810 | 2047032a | न हि तातं न शत्रुघ्नं न सुमित्रां परंतप |
2811 | 2047032c | द्रष्टुमिच्छेयमद्याहं स्वर्गं वापि त्वया विना |
2812 | 2047033a | स लक्ष्मणस्योत्तम पुष्कलं वचो; निशम्य चैवं वनवासमादरात् |
2813 | 2047033c | समाः समस्ता विदधे परंतपः; प्रपद्य धर्मं सुचिराय राघवः |
2814 | 2048001a | ते तु तस्मिन्महावृक्ष उषित्वा रजनीं शिवाम् |
2815 | 2048001c | विमलेऽभ्युदिते सूर्ये तस्माद्देशात्प्रतस्थिरे |
2816 | 2048002a | यत्र भागीरथी गङ्गा यमुनामभिवर्तते |
2817 | 2048002c | जग्मुस्तं देशमुद्दिश्य विगाह्य सुमहद्वनम् |
2818 | 2048003a | ते भूमिमागान्विविधान्देशांश्चापि मनोरमान् |
2819 | 2048003c | अदृष्टपूर्वान्पश्यन्तस्तत्र तत्र यशस्विनः |
2820 | 2048004a | यथाक्षेमेण गच्छन्स पश्यंश्च विविधान्द्रुमान् |
2821 | 2048004c | निवृत्तमात्रे दिवसे रामः सौमित्रिमब्रवीत् |
2822 | 2048005a | प्रयागमभितः पश्य सौमित्रे धूममुन्नतम् |
2823 | 2048005c | अग्नेर्भगवतः केतुं मन्ये संनिहितो मुनिः |
2824 | 2048006a | नूनं प्राप्ताः स्म संभेदं गङ्गायमुनयोर्वयम् |
2825 | 2048006c | तथा हि श्रूयते शम्ब्दो वारिणा वारिघट्टितः |
2826 | 2048007a | दारूणि परिभिन्नानि वनजैरुपजीविभिः |
2827 | 2048007c | भरद्वाजाश्रमे चैते दृश्यन्ते विविधा द्रुमाः |
2828 | 2048008a | धन्विनौ तौ सुखं गत्वा लम्बमाने दिवाकरे |
2829 | 2048008c | गङ्गायमुनयोः संधौ प्रापतुर्निलयं मुनेः |
2830 | 2048009a | रामस्त्वाश्रममासाद्य त्रासयन्मृगपक्षिणः |
2831 | 2048009c | गत्वा मुहूर्तमध्वानं भरद्वाजमुपागमत् |
2832 | 2048010a | ततस्त्वाश्रममासाद्य मुनेर्दर्शनकाङ्क्षिणौ |
2833 | 2048010c | सीतयानुगतौ वीरौ दूरादेवावतस्थतुः |
2834 | 2048011a | हुताग्निहोत्रं दृष्ट्वैव महाभागं कृताञ्जलिः |
2835 | 2048011c | रामः सौमित्रिणा सार्धं सीतया चाभ्यवादयत् |
2836 | 2048012a | न्यवेदयत चात्मानं तस्मै लक्ष्मणपूर्वजः |
2837 | 2048012c | पुत्रौ दशरथस्यावां भगवन्रामलक्ष्मणौ |
2838 | 2048013a | भार्या ममेयं वैदेही कल्याणी जनकात्मजा |
2839 | 2048013c | मां चानुयाता विजनं तपोवनमनिन्दिता |
2840 | 2048014a | पित्रा प्रव्राज्यमानं मां सौमित्रिरनुजः प्रियः |
2841 | 2048014c | अयमन्वगमद्भ्राता वनमेव दृढव्रतः |
2842 | 2048015a | पित्रा नियुक्ता भगवन्प्रवेष्यामस्तपोवनम् |
2843 | 2048015c | धर्ममेवाचरिष्यामस्तत्र मूलफलाशनाः |
2844 | 2048016a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राजपुत्रस्य धीमतः |
2845 | 2048016c | उपानयत धर्मात्मा गामर्घ्यमुदकं ततः |
2846 | 2048017a | मृगपक्षिभिरासीनो मुनिभिश्च समन्ततः |
2847 | 2048017c | राममागतमभ्यर्च्य स्वागतेनाह तं मुनिः |
2848 | 2048018a | प्रतिगृह्य च तामर्चामुपविष्टं सराघवम् |
2849 | 2048018c | भरद्वाजोऽब्रवीद्वाक्यं धर्मयुक्तमिदं तदा |
2850 | 2048019a | चिरस्य खलु काकुत्स्थ पश्यामि त्वामिहागतम् |
2851 | 2048019c | श्रुतं तव मया चेदं विवासनमकारणम् |
2852 | 2048020a | अवकाशो विविक्तोऽयं महानद्योः समागमे |
2853 | 2048020c | पुण्यश्च रमणीयश्च वसत्विह भगान्सुखम् |
2854 | 2048021a | एवमुक्तस्तु वचनं भरद्वाजेन राघवः |
2855 | 2048021c | प्रत्युवाच शुभं वाक्यं रामः सर्वहिते रतः |
2856 | 2048022a | भगवन्नित आसन्नः पौरजानपदो जनः |
2857 | 2048022c | आगमिष्यति वैदेहीं मां चापि प्रेक्षको जनः |
2858 | 2048022e | अनेन कारणेनाहमिह वासं न रोचये |
2859 | 2048023a | एकान्ते पश्य भगवन्नाश्रमस्थानमुत्तमम् |
2860 | 2048023c | रमते यत्र वैदेही सुखार्हा जनकात्मजा |
2861 | 2048024a | एतच्छ्रुत्वा शुभं वाक्यं भरद्वाजो महामुनिः |
2862 | 2048024c | राघवस्य ततो वाक्यमर्थ ग्राहकमब्रवीत् |
2863 | 2048025a | दशक्रोश इतस्तात गिरिर्यस्मिन्निवत्स्यसि |
2864 | 2048025c | महर्षिसेवितः पुण्यः सर्वतः सुख दर्शनः |
2865 | 2048026a | गोलाङ्गूलानुचरितो वानरर्क्षनिषेवितः |
2866 | 2048026c | चित्रकूट इति ख्यातो गन्धमादनसंनिभः |
2867 | 2048027a | यावता चित्र कूटस्य नरः शृङ्गाण्यवेक्षते |
2868 | 2048027c | कल्याणानि समाधत्ते न पापे कुरुते मनः |
2869 | 2048028a | ऋषयस्तत्र बहवो विहृत्य शरदां शतम् |
2870 | 2048028c | तपसा दिवमारूढाः कपालशिरसा सह |
2871 | 2048029a | प्रविविक्तमहं मन्ये तं वासं भवतः सुखम् |
2872 | 2048029c | इह वा वनवासाय वस राम मया सह |
2873 | 2048030a | स रामं सर्वकामैस्तं भरद्वाजः प्रियातिथिम् |
2874 | 2048030c | सभार्यं सह च भ्रात्रा प्रतिजग्राह धर्मवित् |
2875 | 2048031a | तस्य प्रयागे रामस्य तं महर्षिमुपेयुषः |
2876 | 2048031c | प्रपन्ना रजनी पुण्या चित्राः कथयतः कथाः |
2877 | 2048032a | प्रभातायां रजन्यां तु भरद्वाजमुपागमत् |
2878 | 2048032c | उवाच नरशार्दूलो मुनिं ज्वलिततेजसं |
2879 | 2048033a | शर्वरीं भवनन्नद्य सत्यशील तवाश्रमे |
2880 | 2048033c | उषिताः स्मेह वसतिमनुजानातु नो भवान् |
2881 | 2048034a | रात्र्यां तु तस्यां व्युष्टायां भरद्वाजोऽब्रवीदिदम् |
2882 | 2048034c | मधुमूलफलोपेतं चित्रकूटं व्रजेति ह |
2883 | 2048035a | तत्र कुञ्जरयूथानि मृगयूथानि चाभितः |
2884 | 2048035c | विचरन्ति वनान्तेषु तानि द्रक्ष्यसि राघव |
2885 | 2048036a | प्रहृष्टकोयष्टिककोकिलस्वनै;र्विनादितं तं वसुधाधरं शिवम् |
2886 | 2048036c | मृगैश्च मत्तैर्बहुभिश्च कुञ्जरैः; सुरम्यमासाद्य समावसाश्रमम् |
2887 | 2049001a | उषित्वा रजनीं तत्र राजपुत्रावरिंदमौ |
2888 | 2049001c | महर्षिमभिवाद्याथ जग्मतुस्तं गिरिं प्रति |
2889 | 2049002a | प्रस्थितांश्चैव तान्प्रेक्ष्य पिता पुत्रानिवान्वगात् |
2890 | 2049002c | ततः प्रचक्रमे वक्तुं वचनं स महामुनिः |
2891 | 2049003a | अथासाद्य तु कालिन्दीं शीघ्रस्रोतसमापगाम् |
2892 | 2049003c | तत्र यूयं प्लवं कृत्वा तरतांशुमतीं नदीम् |
2893 | 2049004a | ततो न्यग्रोधमासाद्य महान्तं हरितच्छदम् |
2894 | 2049004c | विवृद्धं बहुभिर्वृक्षैः श्यामं सिद्धोपसेवितम् |
2895 | 2049005a | क्रोशमात्रं ततो गत्वा नीलं द्रक्ष्यथ काननम् |
2896 | 2049005c | पलाशबदरीमिश्रं राम वंशैश्च यामुनैः |
2897 | 2049006a | स पन्थाश्चित्रकूटस्य गतः सुबहुशो मया |
2898 | 2049006c | रम्यो मार्दवयुक्तश्च वनदावैर्विवर्जितः |
2899 | 2049006e | इति पन्थानमावेद्य महर्षिः स न्यवर्तत |
2900 | 2049007a | उपावृत्ते मुनौ तस्मिन्रामो लक्ष्मणमब्रवीत् |
2901 | 2049007c | कृतपुण्याः स्म सौमित्रे मुनिर्यन्नोऽनुकम्पते |
2902 | 2049008a | इति तौ पुरुषव्याघ्रौ मन्त्रयित्वा मनस्विनौ |
2903 | 2049008c | सीतामेवाग्रतः कृत्वा कालिन्दीं जग्मतुर्नदीम् |
2904 | 2049009a | तौ काष्ठसंघाटमथो चक्रतुः सुमहाप्लवम् |
2905 | 2049009c | चकार लक्ष्मणश्छित्त्वा सीतायाः सुखमानसं |
2906 | 2049010a | तत्र श्रियमिवाचिन्त्यां रामो दाशरथिः प्रियाम् |
2907 | 2049010c | ईषत्संलज्जमानां तामध्यारोपयत प्लवम् |
2908 | 2049011a | ततः प्लवेनांशुमतीं शीघ्रगामूर्मिमालिनीम् |
2909 | 2049011c | तीरजैर्बहुभिर्वृक्षैः संतेरुर्यमुनां नदीम् |
2910 | 2049012a | ते तीर्णाः प्लवमुत्सृज्य प्रस्थाय यमुनावनात् |
2911 | 2049012c | श्यामं न्यग्रोधमासेदुः शीतलं हरितच्छदम् |
2912 | 2049013a | कौसल्यां चैव पश्येयं सुमित्रां च यशस्विनीम् |
2913 | 2049013c | इति सीताञ्जलिं कृत्वा पर्यगछद्वनस्पतिम् |
2914 | 2049014a | क्रोशमात्रं ततो गत्वा भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
2915 | 2049014c | बहून्मेध्यान्मृगान्हत्वा चेरतुर्यमुनावने |
2916 | 2049015a | विहृत्य ते बर्हिणपूगनादिते; शुभे वने वारणवानरायुते |
2917 | 2049015c | समं नदीवप्रमुपेत्य संमतं; निवासमाजग्मुरदीनदर्शनः |
2918 | 2050001a | अथ रात्र्यां व्यतीतायामवसुप्तमनन्तरम् |
2919 | 2050001c | प्रबोधयामास शनैर्लक्ष्मणं रघुनन्दनः |
2920 | 2050002a | सौमित्रे शृणु वन्यानां वल्गु व्याहरतां स्वनम् |
2921 | 2050002c | संप्रतिष्ठामहे कालः प्रस्थानस्य परंतप |
2922 | 2050003a | स सुप्तः समये भ्रात्रा लक्ष्मणः प्रतिबोधितः |
2923 | 2050003c | जहौ निद्रां च तन्द्रीं च प्रसक्तं च पथि श्रमम् |
2924 | 2050004a | तत उत्थाय ते सर्वे स्पृष्ट्वा नद्याः शिवं जलम् |
2925 | 2050004c | पन्थानमृषिणोद्दिष्टं चित्रकूटस्य तं ययुः |
2926 | 2050005a | ततः संप्रस्थितः काले रामः सौमित्रिणा सह |
2927 | 2050005c | सीतां कमलपत्राक्षीमिदं वचनमब्रवीत् |
2928 | 2050006a | आदीप्तानिव वैदेहि सर्वतः पुष्पितान्नगान् |
2929 | 2050006c | स्वैः पुष्पैः किंशुकान्पश्य मालिनः शिशिरात्यये |
2930 | 2050007a | पश्य भल्लातकान्फुल्लान्नरैरनुपसेवितान् |
2931 | 2050007c | फलपत्रैरवनतान्नूनं शक्ष्यामि जीवितुम् |
2932 | 2050008a | पश्य द्रोणप्रमाणानि लम्बमानानि लक्ष्मण |
2933 | 2050008c | मधूनि मधुकारीभिः संभृतानि नगे नगे |
2934 | 2050009a | एष क्रोशति नत्यूहस्तं शिखी प्रतिकूजति |
2935 | 2050009c | रमणीये वनोद्देशे पुष्पसंस्तरसंकटे |
2936 | 2050010a | मातंगयूथानुसृतं पक्षिसंघानुनादितम् |
2937 | 2050010c | चित्रकूटमिमं पश्य प्रवृद्धशिखरं गिरिम् |
2938 | 2050011a | ततस्तौ पादचारेण गच्छन्तौ सह सीतया |
2939 | 2050011c | रम्यमासेदतुः शैलं चित्रकूटं मनोरमम् |
2940 | 2050012a | तं तु पर्वतमासाद्य नानापक्षिगणायुतम् |
2941 | 2050012c | अयं वासो भवेत्तावदत्र सौम्य रमेमहि |
2942 | 2050013a | लक्ष्मणानय दारूणि दृढानि च वराणि च |
2943 | 2050013c | कुरुष्वावसथं सौम्य वासे मेऽभिरतं मनः |
2944 | 2050014a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सौमित्रिर्विविधान्द्रुमान् |
2945 | 2050014c | आजहार ततश्चक्रे पर्ण शालामरिं दम |
2946 | 2050015a | शुश्रूषमाणमेकाग्रमिदं वचनमब्रवीत् |
2947 | 2050015c | ऐणेयं मांसमाहृत्य शालां यक्ष्यामहे वयम् |
2948 | 2050016a | स लक्ष्मणः कृष्णमृगं हत्वा मेध्यं पतापवान् |
2949 | 2050016c | अथ चिक्षेप सौमित्रिः समिद्धे जातवेदसि |
2950 | 2050017a | तं तु पक्वं समाज्ञाय निष्टप्तं छिन्नशोणितम् |
2951 | 2050017c | लक्ष्मणः पुरुषव्याघ्रमथ राघवमब्रवीत् |
2952 | 2050018a | अयं कृष्णः समाप्ताङ्गः शृतः कृष्ण मृगो यथा |
2953 | 2050018c | देवता देवसंकाश यजस्व कुशलो ह्यसि |
2954 | 2050019a | रामः स्नात्वा तु नियतो गुणवाञ्जप्यकोविदः |
2955 | 2050019c | पापसंशमनं रामश्चकार बलिमुत्तमम् |
2956 | 2050020a | तां वृक्षपर्णच्छदनां मनोज्ञां; यथाप्रदेशं सुकृतां निवाताम् |
2957 | 2050020c | वासाय सर्वे विविशुः समेताः; सभां यथा देव गणाः सुधर्माम् |
2958 | 2050021a | अनेकनानामृगपक्षिसंकुले; विचित्रपुष्पस्तबलैर्द्रुमैर्युते |
2959 | 2050021c | वनोत्तमे व्यालमृगानुनादिते; तथा विजह्रुः सुसुखं जितेन्द्रियाः |
2960 | 2050022a | सुरम्यमासाद्य तु चित्रकूटं; नदीं च तां माल्यवतीं सुतीर्थाम् |
2961 | 2050022c | ननन्द हृष्टो मृगपक्षिजुष्टां; जहौ च दुःखं पुरविप्रवासात् |
2962 | 2051001a | कथयित्वा सुदुःखार्तः सुमन्त्रेण चिरं सह |
2963 | 2051001c | रामे दक्षिण कूलस्थे जगाम स्वगृहं गुहः |
2964 | 2051002a | अनुज्ञातः सुमन्त्रोऽथ योजयित्वा हयोत्तमान् |
2965 | 2051002c | अयोध्यामेव नगरीं प्रययौ गाढदुर्मनाः |
2966 | 2051003a | स वनानि सुगन्धीनि सरितश्च सरांसि च |
2967 | 2051003c | पश्यन्नतिययौ शीघ्रं ग्रामाणि नगराणि च |
2968 | 2051004a | ततः सायाह्नसमये तृतीयेऽहनि सारथिः |
2969 | 2051004c | अयोध्यां समनुप्राप्य निरानन्दां ददर्श ह |
2970 | 2051005a | स शून्यामिव निःशब्दां दृष्ट्वा परमदुर्मनाः |
2971 | 2051005c | सुमन्त्रश्चिन्तयामास शोकवेगसमाहतः |
2972 | 2051006a | कच्चिन्न सगजा साश्वा सजना सजनाधिपा |
2973 | 2051006c | राम संतापदुःखेन दग्धा शोकाग्निना पुरी |
2974 | 2051006e | इति चिन्तापरः सूतस्त्वरितः प्रविवेश ह |
2975 | 2051007a | सुमन्त्रमभियान्तं तं शतशोऽथ सहस्रशः |
2976 | 2051007c | क्व राम इति पृच्छन्तः सूतमभ्यद्रवन्नराः |
2977 | 2051008a | तेषां शशंस गङ्गायामहमापृच्छ्य राघवम् |
2978 | 2051008c | अनुज्ञातो निवृत्तोऽस्मि धार्मिकेण महात्मना |
2979 | 2051009a | ते तीर्णा इति विज्ञाय बाष्पपूर्णमुखा जनाः |
2980 | 2051009c | अहो धिगिति निःश्वस्य हा रामेति च चुक्रुशुः |
2981 | 2051010a | शुश्राव च वचस्तेषां वृन्दं वृन्दं च तिष्ठताम् |
2982 | 2051010c | हताः स्म खलु ये नेह पश्याम इति राघवम् |
2983 | 2051011a | दानयज्ञविवाहेषु समाजेषु महत्सु च |
2984 | 2051011c | न द्रक्ष्यामः पुनर्जातु धार्मिकं राममन्तरा |
2985 | 2051012a | किं समर्थं जनस्यास्य किं प्रियं किं सुखावहम् |
2986 | 2051012c | इति रामेण नगरं पितृवत्परिपालितम् |
2987 | 2051013a | वातायनगतानां च स्त्रीणामन्वन्तरापणम् |
2988 | 2051013c | रामशोकाभितप्तानां शुश्राव परिदेवनम् |
2989 | 2051014a | स राजमार्गमध्येन सुमन्त्रः पिहिताननः |
2990 | 2051014c | यत्र राजा दशरथस्तदेवोपययौ गृहम् |
2991 | 2051015a | सोऽवतीर्य रथाच्छीघ्रं राजवेश्म प्रविश्य च |
2992 | 2051015c | कक्ष्याः सप्ताभिचक्राम महाजनसमाकुलाः |
2993 | 2051016a | ततो दशरथस्त्रीणां प्रासादेभ्यस्ततस्ततः |
2994 | 2051016c | रामशोकाभितप्तानां मन्दं शुश्राव जल्पितम् |
2995 | 2051017a | सह रामेण निर्यातो विना राममिहागतः |
2996 | 2051017c | सूतः किं नाम कौसल्यां शोचन्तीं प्रतिवक्ष्यति |
2997 | 2051018a | यथा च मन्ये दुर्जीवमेवं न सुकरं ध्रुवम् |
2998 | 2051018c | आच्छिद्य पुत्रे निर्याते कौसल्या यत्र जीवति |
2999 | 2051019a | सत्य रूपं तु तद्वाक्यं राज्ञः स्त्रीणां निशामयन् |
3000 | 2051019c | प्रदीप्तमिव शोकेन विवेश सहसा गृहम् |
3001 | 2051020a | स प्रविश्याष्टमीं कक्ष्यां राजानं दीनमातुलम् |
3002 | 2051020c | पुत्रशोकपरिद्यूनमपश्यत्पाण्डरे गृहे |
3003 | 2051021a | अभिगम्य तमासीनं नरेन्द्रमभिवाद्य च |
3004 | 2051021c | सुमन्त्रो रामवचनं यथोक्तं प्रत्यवेदयत् |
3005 | 2051022a | स तूष्णीमेव तच्छ्रुत्वा राजा विभ्रान्त चेतनः |
3006 | 2051022c | मूर्छितो न्यपतद्भूमौ रामशोकाभिपीडितः |
3007 | 2051023a | ततोऽन्तःपुरमाविद्धं मूर्छिते पृथिवीपतौ |
3008 | 2051023c | उद्धृत्य बाहू चुक्रोश नृपतौ पतिते क्षितौ |
3009 | 2051024a | सुमित्रया तु सहिता कौसल्या पतितं पतिम् |
3010 | 2051024c | उत्थापयामास तदा वचनं चेदमब्रवीत् |
3011 | 2051025a | इमं तस्य महाभाग दूतं दुष्करकारिणः |
3012 | 2051025c | वनवासादनुप्राप्तं कस्मान्न प्रतिभाषसे |
3013 | 2051026a | अद्येममनयं कृत्वा व्यपत्रपसि राघव |
3014 | 2051026c | उत्तिष्ठ सुकृतं तेऽस्तु शोके न स्यात्सहायता |
3015 | 2051027a | देव यस्या भयाद्रामं नानुपृच्छसि सारथिम् |
3016 | 2051027c | नेह तिष्ठति कैकेयी विश्रब्धं प्रतिभाष्यताम् |
3017 | 2051028a | सा तथोक्त्वा महाराजं कौसल्या शोकलालसा |
3018 | 2051028c | धरण्यां निपपाताशु बाष्पविप्लुतभाषिणी |
3019 | 2051029a | एवं विलपतीं दृष्ट्वा कौसल्यां पतितां भुवि |
3020 | 2051029c | पतिं चावेक्ष्य ताः सर्वाः सस्वरं रुरुदुः स्त्रियः |
3021 | 2051030a | ततस्तमन्तःपुरनादमुत्थितं; समीक्ष्य वृद्धास्तरुणाश्च मानवाः |
3022 | 2051030c | स्त्रियश्च सर्वा रुरुदुः समन्ततः; पुरं तदासीत्पुनरेव संकुलम् |
3023 | 2052001a | प्रत्याश्वस्तो यदा राजा मोहात्प्रत्यागतः पुनः |
3024 | 2052001c | अथाजुहाव तं सूतं रामवृत्तान्तकारणात् |
3025 | 2052002a | वृद्धं परमसंतप्तं नवग्रहमिव द्विपम् |
3026 | 2052002c | विनिःश्वसन्तं ध्यायन्तमस्वस्थमिव कुञ्जरम् |
3027 | 2052003a | राजा तु रजसा सूतं ध्वस्ताङ्गं समुपस्थितम् |
3028 | 2052003c | अश्रु पूर्णमुखं दीनमुवाच परमार्तवत् |
3029 | 2052004a | क्व नु वत्स्यति धर्मात्मा वृक्षमूलमुपाश्रितः |
3030 | 2052004c | सोऽत्यन्तसुखितः सूत किमशिष्यति राघवः |
3031 | 2052004e | भूमिपालात्मजो भूमौ शेते कथमनाथवत् |
3032 | 2052005a | यं यान्तमनुयान्ति स्म पदाति रथकुञ्जराः |
3033 | 2052005c | स वत्स्यति कथं रामो विजनं वनमाश्रितः |
3034 | 2052006a | व्यालैर्मृगैराचरितं कृष्णसर्पनिषेवितम् |
3035 | 2052006c | कथं कुमारौ वैदेह्या सार्धं वनमुपस्थितौ |
3036 | 2052007a | सुकुमार्या तपस्विन्या सुमन्त्र सह सीतया |
3037 | 2052007c | राजपुत्रौ कथं पादैरवरुह्य रथाद्गतौ |
3038 | 2052008a | सिद्धार्थः खलु सूत त्वं येन दृष्टौ ममात्मजौ |
3039 | 2052008c | वनान्तं प्रविशन्तौ तावश्विनाविव मन्दरम् |
3040 | 2052009a | किमुवाच वचो रामः किमुवाच च लक्ष्मणः |
3041 | 2052009c | सुमन्त्र वनमासाद्य किमुवाच च मैथिली |
3042 | 2052009e | आसितं शयितं भुक्तं सूत रामस्य कीर्तय |
3043 | 2052010a | इति सूतो नरेन्द्रेण चोदितः सज्जमानया |
3044 | 2052010c | उवाच वाचा राजानं सबाष्पपरिरब्धया |
3045 | 2052011a | अब्रवीन्मां महाराज धर्ममेवानुपालयन् |
3046 | 2052011c | अञ्जलिं राघवः कृत्वा शिरसाभिप्रणम्य च |
3047 | 2052012a | सूत मद्वचनात्तस्य तातस्य विदितात्मनः |
3048 | 2052012c | शिरसा वन्दनीयस्य वन्द्यौ पादौ महात्मनः |
3049 | 2052013a | सर्वमन्तःपुरं वाच्यं सूत मद्वचनात्त्वया |
3050 | 2052013c | आरोग्यमविशेषेण यथार्हं चाभिवादनम् |
3051 | 2052014a | माता च मम कौसल्या कुशलं चाभिवादनम् |
3052 | 2052014c | देवि देवस्य पादौ च देववत्परिपालय |
3053 | 2052015a | भरतः कुशलं वाच्यो वाच्यो मद्वचनेन च |
3054 | 2052015c | सर्वास्वेव यथान्यायं वृत्तिं वर्तस्व मातृषु |
3055 | 2052016a | वक्तव्यश्च महाबाहुरिक्ष्वाकुकुलनन्दनः |
3056 | 2052016c | पितरं यौवराज्यस्थो राज्यस्थमनुपालय |
3057 | 2052017a | इत्येवं मां महाराज ब्रुवन्नेव महायशाः |
3058 | 2052017c | रामो राजीवताम्राक्षो भृशमश्रूण्यवर्तयत् |
3059 | 2052018a | लक्ष्मणस्तु सुसंक्रुद्धो निःश्वसन्वाक्यमब्रवीत् |
3060 | 2052018c | केनायमपराधेन राजपुत्रो विवासितः |
3061 | 2052019a | यदि प्रव्राजितो रामो लोभकारणकारितम् |
3062 | 2052019c | वरदाननिमित्तं वा सर्वथा दुष्कृतं कृतम् |
3063 | 2052019e | रामस्य तु परित्यागे न हेतुमुपलक्षये |
3064 | 2052020a | असमीक्ष्य समारब्धं विरुद्धं बुद्धिलाघवात् |
3065 | 2052020c | जनयिष्यति संक्रोशं राघवस्य विवासनम् |
3066 | 2052021a | अहं तावन्महाराजे पितृत्वं नोपलक्षये |
3067 | 2052021c | भ्राता भर्ता च बन्धुश्च पिता च मम राघवः |
3068 | 2052022a | सर्वलोकप्रियं त्यक्त्वा सर्वलोकहिते रतम् |
3069 | 2052022c | सर्वलोकोऽनुरज्येत कथं त्वानेन कर्मणा |
3070 | 2052023a | जानकी तु महाराज निःश्वसन्ती तपस्विनी |
3071 | 2052023c | भूतोपहतचित्तेव विष्ठिता वृष्मृता स्थिता |
3072 | 2052024a | अदृष्टपूर्वव्यसना राजपुत्री यशस्विनी |
3073 | 2052024c | तेन दुःखेन रुदती नैव मां किंचिदब्रवीत् |
3074 | 2052025a | उद्वीक्षमाणा भर्तारं मुखेन परिशुष्यता |
3075 | 2052025c | मुमोच सहसा बाष्पं मां प्रयान्तमुदीक्ष्य सा |
3076 | 2052026a | तथैव रामोऽश्रुमुखः कृताञ्जलिः; स्थितोऽभवल्लक्ष्मणबाहुपालितः |
3077 | 2052026c | तथैव सीता रुदती तपस्विनी; निरीक्षते राजरथं तथैव माम् |
3078 | 2053001a | मम त्वश्वा निवृत्तस्य न प्रावर्तन्त वर्त्मनि |
3079 | 2053001c | उष्णमश्रु विमुञ्चन्तो रामे संप्रस्थिते वनम् |
3080 | 2053002a | उभाभ्यां राजपुत्राभ्यामथ कृत्वाहमज्ञलिम् |
3081 | 2053002c | प्रस्थितो रथमास्थाय तद्दुःखमपि धारयन् |
3082 | 2053003a | गुहेव सार्धं तत्रैव स्थितोऽस्मि दिवसान्बहून् |
3083 | 2053003c | आशया यदि मां रामः पुनः शब्दापयेदिति |
3084 | 2053004a | विषये ते महाराज रामव्यसनकर्शिताः |
3085 | 2053004c | अपि वृक्षाः परिम्लानः सपुष्पाङ्कुरकोरकाः |
3086 | 2053005a | न च सर्पन्ति सत्त्वानि व्याला न प्रसरन्ति च |
3087 | 2053005c | रामशोकाभिभूतं तन्निष्कूजमभवद्वनम् |
3088 | 2053006a | लीनपुष्करपत्राश्च नरेन्द्र कलुषोदकाः |
3089 | 2053006c | संतप्तपद्माः पद्मिन्यो लीनमीनविहंगमाः |
3090 | 2053007a | जलजानि च पुष्पाणि माल्यानि स्थलजानि च |
3091 | 2053007c | नाद्य भान्त्यल्पगन्धीनि फलानि च यथा पुरम् |
3092 | 2053008a | प्रविशन्तमयोध्यां मां न कश्चिदभिनन्दति |
3093 | 2053008c | नरा राममपश्यन्तो निःश्वसन्ति मुहुर्मुहुः |
3094 | 2053009a | हर्म्यैर्विमानैः प्रासादैरवेक्ष्य रथमागतम् |
3095 | 2053009c | हाहाकारकृता नार्यो रामादर्शनकर्शिताः |
3096 | 2053010a | आयतैर्विमलैर्नेत्रैरश्रुवेगपरिप्लुतैः |
3097 | 2053010c | अन्योन्यमभिवीक्षन्ते व्यक्तमार्ततराः स्त्रियः |
3098 | 2053011a | नामित्राणां न मित्राणामुदासीनजनस्य च |
3099 | 2053011c | अहमार्ततया कंचिद्विशेषं नोपलक्षये |
3100 | 2053012a | अप्रहृष्टमनुष्या च दीननागतुरंगमा |
3101 | 2053012c | आर्तस्वरपरिम्लाना विनिःश्वसितनिःस्वना |
3102 | 2053013a | निरानन्दा महाराज रामप्रव्राजनातुला |
3103 | 2053013c | कौसल्या पुत्र हीनेव अयोध्या प्रतिभाति मा |
3104 | 2053014a | सूतस्य वचनं श्रुत्वा वाचा परमदीनया |
3105 | 2053014c | बाष्पोपहतया राजा तं सूतमिदमब्रवीत् |
3106 | 2053015a | कैकेय्या विनियुक्तेन पापाभिजनभावया |
3107 | 2053015c | मया न मन्त्रकुशलैर्वृद्धैः सह समर्थितम् |
3108 | 2053016a | न सुहृद्भिर्न चामात्यैर्मन्त्रयित्वा न नैगमैः |
3109 | 2053016c | मयायमर्थः संमोहात्स्त्रीहेतोः सहसा कृतः |
3110 | 2053017a | भवितव्यतया नूनमिदं वा व्यसनं महत् |
3111 | 2053017c | कुलस्यास्य विनाशाय प्राप्तं सूत यदृच्छया |
3112 | 2053018a | सूत यद्यस्ति ते किंचिन्मयापि सुकृतं कृतम् |
3113 | 2053018c | त्वं प्रापयाशु मां रामं प्राणाः संत्वरयन्ति माम् |
3114 | 2053019a | यद्यद्यापि ममैवाज्ञा निवर्तयतु राघवम् |
3115 | 2053019c | न शक्ष्यामि विना राम मुहूर्तमपि जीवितुम् |
3116 | 2053020a | अथ वापि महाबाहुर्गतो दूरं भविष्यति |
3117 | 2053020c | मामेव रथमारोप्य शीघ्रं रामाय दर्शय |
3118 | 2053021a | वृत्तदंष्ट्रो महेष्वासः क्वासौ लक्ष्मणपूर्वजः |
3119 | 2053021c | यदि जीवामि साध्वेनं पश्येयं सह सीतया |
3120 | 2053022a | लोहिताक्षं महाबाहुमामुक्तमणिकुण्डलम् |
3121 | 2053022c | रामं यदि न पश्यामि गमिष्यामि यमक्षयम् |
3122 | 2053023a | अतो नु किं दुःखतरं योऽहमिक्ष्वाकुनन्दनम् |
3123 | 2053023c | इमामवस्थामापन्नो नेह पश्यामि राघवम् |
3124 | 2053024a | हा राम रामानुज हा हा वैदेहि तपस्विनी |
3125 | 2053024c | न मां जानीत दुःखेन म्रियमाणमनाथवत् |
3126 | 2053024e | दुस्तरो जीवता देवि मयायं शोकसागरः |
3127 | 2053025a | अशोभनं योऽहमिहाद्य राघवं; दिदृक्षमाणो न लभे सलक्ष्मणम् |
3128 | 2053025c | इतीव राजा विलपन्महायशाः; पपात तूर्णं शयने स मूर्छितः |
3129 | 2053026a | इति विलपति पार्थिवे प्रनष्टे; करुणतरं द्विगुणं च रामहेतोः |
3130 | 2053026c | वचनमनुनिशम्य तस्य देवी; भयमगमत्पुनरेव राममाता |
3131 | 2054001a | ततो भूतोपसृष्टेव वेपमाना पुनः पुनः |
3132 | 2054001c | धरण्यां गतसत्त्वेव कौसल्या सूतमब्रवीत् |
3133 | 2054002a | नय मां यत्र काकुत्स्थः सीता यत्र च लक्ष्मणः |
3134 | 2054002c | तान्विना क्षणमप्यत्र जीवितुं नोत्सहे ह्यहम् |
3135 | 2054003a | निवर्तय रथं शीघ्रं दण्डकान्नय मामपि |
3136 | 2054003c | अथ तान्नानुगच्छामि गमिष्यामि यमक्षयम् |
3137 | 2054004a | बाष्पवेगौपहतया स वाचा सज्जमानया |
3138 | 2054004c | इदमाश्वासयन्देवीं सूतः प्राञ्जलिरब्रवीत् |
3139 | 2054005a | त्यज शोकं च मोहं च संभ्रमं दुःखजं तथा |
3140 | 2054005c | व्यवधूय च संतापं वने वत्स्यति राघवः |
3141 | 2054006a | लक्ष्मणश्चापि रामस्य पादौ परिचरन्वने |
3142 | 2054006c | आराधयति धर्मज्ञः परलोकं जितेन्द्रियः |
3143 | 2054007a | विजनेऽपि वने सीता वासं प्राप्य गृहेष्विव |
3144 | 2054007c | विस्रम्भं लभतेऽभीता रामे संन्यस्त मानसा |
3145 | 2054008a | नास्या दैन्यं कृतं किंचित्सुसूक्ष्ममपि लक्षये |
3146 | 2054008c | उचितेव प्रवासानां वैदेही प्रतिभाति मा |
3147 | 2054009a | नगरोपवनं गत्वा यथा स्म रमते पुरा |
3148 | 2054009c | तथैव रमते सीता निर्जनेषु वनेष्वपि |
3149 | 2054010a | बालेव रमते सीता बालचन्द्रनिभानना |
3150 | 2054010c | रामा रामे ह्यदीनात्मा विजनेऽपि वने सती |
3151 | 2054011a | तद्गतं हृदयं ह्यस्यास्तदधीनं च जीवितम् |
3152 | 2054011c | अयोध्यापि भवेत्तस्या राम हीना तथा वनम् |
3153 | 2054012a | पथि पृच्छति वैदेही ग्रामांश्च नगराणि च |
3154 | 2054012c | गतिं दृष्ट्वा नदीनां च पादपान्विविधानपि |
3155 | 2054013a | अध्वना वात वेगेन संभ्रमेणातपेन च |
3156 | 2054013c | न हि गच्छति वैदेह्याश्चन्द्रांशुसदृशी प्रभा |
3157 | 2054014a | सदृशं शतपत्रस्य पूर्णचन्द्रोपमप्रभम् |
3158 | 2054014c | वदनं तद्वदान्याया वैदेह्या न विकम्पते |
3159 | 2054015a | अलक्तरसरक्ताभावलक्तरसवर्जितौ |
3160 | 2054015c | अद्यापि चरणौ तस्याः पद्मकोशसमप्रभौ |
3161 | 2054016a | नूपुरोद्घुष्टहेलेव खेलं गच्छति भामिनी |
3162 | 2054016c | इदानीमपि वैदेही तद्रागा न्यस्तभूषणा |
3163 | 2054017a | गजं वा वीक्ष्य सिंहं वा व्याघ्रं वा वनमाश्रिता |
3164 | 2054017c | नाहारयति संत्रासं बाहू रामस्य संश्रिता |
3165 | 2054018a | न शोच्यास्ते न चात्मा ते शोच्यो नापि जनाधिपः |
3166 | 2054018c | इदं हि चरितं लोके प्रतिष्ठास्यति शाश्वतम् |
3167 | 2054019a | विधूय शोकं परिहृष्टमानसा; महर्षियाते पथि सुव्यवस्थिताः |
3168 | 2054019c | वने रता वन्यफलाशनाः पितुः; शुभां प्रतिज्ञां परिपालयन्ति ते |
3169 | 2054020a | तथापि सूतेन सुयुक्तवादिना; निवार्यमाणा सुतशोककर्शिता |
3170 | 2054020c | न चैव देवी विरराम कूजिता;त्प्रियेति पुत्रेति च राघवेति च |
3171 | 2055001a | वनं गते धर्मपरे रामे रमयतां वरे |
3172 | 2055001c | कौसल्या रुदती स्वार्ता भर्तारमिदमब्रवीत् |
3173 | 2055002a | यद्यपित्रिषु लोकेषु प्रथितं ते मयद्यशः |
3174 | 2055002c | सानुक्रोशो वदान्यश्च प्रियवादी च राघवः |
3175 | 2055003a | कथं नरवरश्रेष्ठ पुत्रौ तौ सह सीतया |
3176 | 2055003c | दुःखितौ सुखसंवृद्धौ वने दुःखं सहिष्यतः |
3177 | 2055004a | सा नूनं तरुणी श्यामा सुकुमारी सुखोचिता |
3178 | 2055004c | कथमुष्णं च शीतं च मैथिली प्रसहिष्यते |
3179 | 2055005a | भुक्त्वाशनं विशालाक्षी सूपदंशान्वितं शुभम् |
3180 | 2055005c | वन्यं नैवारमाहारं कथं सीतोपभोक्ष्यते |
3181 | 2055006a | गीतवादित्रनिर्घोषं श्रुत्वा शुभमनिन्दिता |
3182 | 2055006c | कथं क्रव्यादसिंहानां शब्दं श्रोष्यत्यशोभनम् |
3183 | 2055007a | महेन्द्रध्वजसंकाशः क्व नु शेते महाभुजः |
3184 | 2055007c | भुजं परिघसंकाशमुपधाय महाबलः |
3185 | 2055008a | पद्मवर्णं सुकेशान्तं पद्मनिःश्वासमुत्तमम् |
3186 | 2055008c | कदा द्रक्ष्यामि रामस्य वदनं पुष्करेक्षणम् |
3187 | 2055009a | वज्रसारमयं नूनं हृदयं मे न संशयः |
3188 | 2055009c | अपश्यन्त्या न तं यद्वै फलतीदं सहस्रधा |
3189 | 2055010a | यदि पञ्चदशे वर्षे राघवः पुनरेष्यति |
3190 | 2055010c | जह्याद्राज्यं च कोशं च भरतेनोपभोक्ष्यते |
3191 | 2055011a | एवं कनीयसा भ्रात्रा भुक्तं राज्यं विशां पते |
3192 | 2055011c | भ्राता ज्येष्ठा वरिष्ठाश्च किमर्थं नावमंस्यते |
3193 | 2055012a | न परेणाहृतं भक्ष्यं व्याघ्रः खादितुमिच्छति |
3194 | 2055012c | एवमेव नरव्याघ्रः परलीढं न मंस्यते |
3195 | 2055013a | हविराज्यं पुरोडाशाः कुशा यूपाश्च खादिराः |
3196 | 2055013c | नैतानि यातयामानि कुर्वन्ति पुनरध्वरे |
3197 | 2055014a | तथा ह्यात्तमिदं राज्यं हृतसारां सुरामिव |
3198 | 2055014c | नाभिमन्तुमलं रामो नष्टसोममिवाध्वरम् |
3199 | 2055015a | नैवंविधमसत्कारं राघवो मर्षयिष्यति |
3200 | 2055015c | बलवानिव शार्दूलो बालधेरभिमर्शनम् |
3201 | 2055016a | स तादृशः सिंहबलो वृषभाक्षो नरर्षभः |
3202 | 2055016c | स्वयमेव हतः पित्रा जलजेनात्मजो यथा |
3203 | 2055017a | द्विजाति चरितो धर्मः शास्त्रदृष्टः सनातनः |
3204 | 2055017c | यदि ते धर्मनिरते त्वया पुत्रे विवासिते |
3205 | 2055018a | गतिरेवाक्पतिर्नार्या द्वितीया गतिरात्मजः |
3206 | 2055018c | तृतीया ज्ञातयो राजंश्चतुर्थी नेह विद्यते |
3207 | 2055019a | तत्र त्वं चैव मे नास्ति रामश्च वनमाश्रितः |
3208 | 2055019c | न वनं गन्तुमिच्छामि सर्वथा हि हता त्वया |
3209 | 2055020a | हतं त्वया राज्यमिदं सराष्ट्रं; हतस्तथात्मा सह मन्त्रिभिश्च |
3210 | 2055020c | हता सपुत्रास्मि हताश्च पौराः; सुतश्च भार्या च तव प्रहृष्टौ |
3211 | 2055021a | इमां गिरं दारुणशब्दसंश्रितां; निशम्य राजापि मुमोह दुःखितः |
3212 | 2055021c | ततः स शोकं प्रविवेश पार्थिवः; स्वदुष्कृतं चापि पुनस्तदास्मरत् |
3213 | 2056001a | एवं तु क्रुद्धया राजा राममात्रा सशोकया |
3214 | 2056001c | श्रावितः परुषं वाक्यं चिन्तयामास दुःखितः |
3215 | 2056002a | तस्य चिन्तयमानस्य प्रत्यभात्कर्म दुष्कृतम् |
3216 | 2056002c | यदनेन कृतं पूर्वमज्ञानाच्छब्दवेधिना |
3217 | 2056003a | अमनास्तेन शोकेन रामशोकेन च प्रभुः |
3218 | 2056003c | दह्यमानस्तु शोकाभ्यां कौसल्यामाह भूपतिः |
3219 | 2056004a | प्रसादये त्वां कौसल्ये रचितोऽयं मयाञ्जलिः |
3220 | 2056004c | वत्सला चानृशंसा च त्वं हि नित्यं परेष्वपि |
3221 | 2056005a | भर्ता तु खलु नारीणां गुणवान्निर्गुणोऽपि वा |
3222 | 2056005c | धर्मं विमृशमानानां प्रत्यक्षं देवि दैवतम् |
3223 | 2056006a | सा त्वं धर्मपरा नित्यं दृष्टलोकपरावर |
3224 | 2056006c | नार्हसे विप्रियं वक्तुं दुःखितापि सुदुःखितम् |
3225 | 2056007a | तद्वाक्यं करुणं राज्ञः श्रुत्वा दीनस्य भाषितम् |
3226 | 2056007c | कौसल्या व्यसृजद्बाष्पं प्रणालीव नवोदकम् |
3227 | 2056008a | स मूद्र्ह्णि बद्ध्वा रुदती राज्ञः पद्ममिवाञ्जलिम् |
3228 | 2056008c | संभ्रमादब्रवीत्त्रस्ता त्वरमाणाक्षरं वचः |
3229 | 2056009a | प्रसीद शिरसा याचे भूमौ निततितास्मि ते |
3230 | 2056009c | याचितास्मि हता देव हन्तव्याहं न हि त्वया |
3231 | 2056010a | नैषा हि सा स्त्री भवति श्लाघनीयेन धीमता |
3232 | 2056010c | उभयोर्लोकयोर्वीर पत्या या संप्रसाद्यते |
3233 | 2056011a | जानामि धर्मं धर्मज्ञ त्वां जाने सत्यवादिनम् |
3234 | 2056011c | पुत्रशोकार्तया तत्तु मया किमपि भाषितम् |
3235 | 2056012a | शोको नाशयते धैर्यं शोको नाशयते श्रुतम् |
3236 | 2056012c | शोको नाशयते सर्वं नास्ति शोकसमो रिपुः |
3237 | 2056013a | शयमापतितः सोढुं प्रहरो रिपुहस्ततः |
3238 | 2056013c | सोढुमापतितः शोकः सुसूक्ष्मोऽपि न शक्यते |
3239 | 2056014a | वनवासाय रामस्य पञ्चरात्रोऽद्य गण्यते |
3240 | 2056014c | यः शोकहतहर्षायाः पञ्चवर्षोपमो मम |
3241 | 2056015a | तं हि चिन्तयमानायाः शोकोऽयं हृदि वर्धते |
3242 | 2056015c | अदीनामिव वेगेन समुद्रसलिलं महत् |
3243 | 2056016a | एवं हि कथयन्त्यास्तु कौसल्यायाः शुभं वचः |
3244 | 2056016c | मन्दरश्मिरभूत्सुर्यो रजनी चाभ्यवर्तत |
3245 | 2056017a | अथ प्रह्लादितो वाक्यैर्देव्या कौसल्यया नृपः |
3246 | 2056017c | शोकेन च समाक्रान्तो निद्राया वशमेयिवान् |
3247 | 2057001a | प्रतिबुद्धो मुहुर्तेन शोकोपहतचेतनः |
3248 | 2057001c | अथ राजा दशरथः स चिन्तामभ्यपद्यत |
3249 | 2057002a | रामलक्ष्मणयोश्चैव विवासाद्वासवोपमम् |
3250 | 2057002c | आविवेशोपसर्गस्तं तमः सूर्यमिवासुरम् |
3251 | 2057003a | स राजा रजनीं षष्ठीं रामे प्रव्रजिते वनम् |
3252 | 2057003c | अर्धरात्रे दशरथः संस्मरन्दुष्कृतं कृतम् |
3253 | 2057003e | कौसल्यां पुत्रशोकार्तामिदं वचनमब्रवीत् |
3254 | 2057004a | यदाचरति कल्याणि शुभं वा यदि वाशुभम् |
3255 | 2057004c | तदेव लभते भद्रे कर्ता कर्मजमात्मनः |
3256 | 2057005a | गुरु लाघवमर्थानामारम्भे कर्मणां फलम् |
3257 | 2057005c | दोषं वा यो न जानाति स बाल इति होच्यते |
3258 | 2057006a | कश्चिदाम्रवणं छित्त्वा पलाशांश्च निषिञ्चति |
3259 | 2057006c | पुष्पं दृष्ट्वा फले गृध्नुः स शोचति फलागमे |
3260 | 2057007a | सोऽहमाम्रवणं छित्त्वा पलाशांश्च न्यषेचयम् |
3261 | 2057007c | रामं फलागमे त्यक्त्वा पश्चाच्छोचामि दुर्मतिः |
3262 | 2057008a | लब्धशब्देन कौसल्ये कुमारेण धनुष्मता |
3263 | 2057008c | कुमारः शब्दवेधीति मया पापमिदं कृतम् |
3264 | 2057008e | तदिदं मेऽनुसंप्राप्तं देवि दुःखं स्वयं कृतम् |
3265 | 2057009a | संमोहादिह बालेन यथा स्याद्भक्षितं विषम् |
3266 | 2057009c | एवं ममाप्यविज्ञातं शब्दवेध्यमयं फलम् |
3267 | 2057010a | देव्यनूढा त्वमभवो युवराजो भवाम्यहम् |
3268 | 2057010c | ततः प्रावृडनुप्राप्ता मदकामविवर्धिनी |
3269 | 2057011a | उपास्यहि रसान्भौमांस्तप्त्वा च जगदंशुभिः |
3270 | 2057011c | परेताचरितां भीमां रविराविशते दिशम् |
3271 | 2057012a | उष्णमन्तर्दधे सद्यः स्निग्धा ददृशिरे घनाः |
3272 | 2057012c | ततो जहृषिरे सर्वे भेकसारङ्गबर्हिणः |
3273 | 2057013a | पतितेनाम्भसा छन्नः पतमानेन चासकृत् |
3274 | 2057013c | आबभौ मत्तसारङ्गस्तोयराशिरिवाचलः |
3275 | 2057014a | तस्मिन्नतिसुखे काले धनुष्मानिषुमान्रथी |
3276 | 2057014c | व्यायाम कृतसंकल्पः सरयूमन्वगां नदीम् |
3277 | 2057015a | निपाने महिषं रात्रौ गजं वाभ्यागतं नदीम् |
3278 | 2057015c | अन्यं वा श्वापदं कंचिज्जिघांसुरजितेन्द्रियः |
3279 | 2057016a | अथान्धकारे त्वश्रौषं जले कुम्भस्य पर्यतः |
3280 | 2057016c | अचक्षुर्विषये घोषं वारणस्येव नर्दतः |
3281 | 2057017a | ततोऽहं शरमुद्धृत्य दीप्तमाशीविषोपमम् |
3282 | 2057017c | अमुञ्चं निशितं बाणमहमाशीविषोपमम् |
3283 | 2057018a | तत्र वागुषसि व्यक्ता प्रादुरासीद्वनौकसः |
3284 | 2057018c | हा हेति पततस्तोये वागभूत्तत्र मानुषी |
3285 | 2057018e | कथमस्मद्विधे शस्त्रं निपतेत्तु तपस्विनि |
3286 | 2057019a | प्रविविक्तां नदीं रात्रावुदाहारोऽहमागतः |
3287 | 2057019c | इषुणाभिहतः केन कस्य वा किं कृतं मया |
3288 | 2057020a | ऋषेर्हि न्यस्त दण्डस्य वने वन्येन जीवतः |
3289 | 2057020c | कथं नु शस्त्रेण वधो मद्विधस्य विधीयते |
3290 | 2057021a | जटाभारधरस्यैव वल्कलाजिनवाससः |
3291 | 2057021c | को वधेन ममार्थी स्यात्किं वास्यापकृतं मया |
3292 | 2057022a | एवं निष्फलमारब्धं केवलानर्थसंहितम् |
3293 | 2057022c | न कश्चित्साधु मन्येत यथैव गुरुतल्पगम् |
3294 | 2057023a | नेमं तथानुशोचामि जीवितक्षयमात्मनः |
3295 | 2057023c | मातरं पितरं चोभावनुशोचामि मद्विधे |
3296 | 2057024a | तदेतान्मिथुनं वृद्धं चिरकालभृतं मया |
3297 | 2057024c | मयि पञ्चत्वमापन्ने कां वृत्तिं वर्तयिष्यति |
3298 | 2057025a | वृद्धौ च मातापितरावहं चैकेषुणा हतः |
3299 | 2057025c | केन स्म निहताः सर्वे सुबालेनाकृतात्मना |
3300 | 2057026a | तं गिरं करुणां श्रुत्वा मम धर्मानुकाङ्क्षिणः |
3301 | 2057026c | कराभ्यां सशरं चापं व्यथितस्यापतद्भुवि |
3302 | 2057027a | तं देशमहमागम्य दीनसत्त्वः सुदुर्मनाः |
3303 | 2057027c | अपश्यमिषुणा तीरे सरय्वास्तापसं हतम् |
3304 | 2057028a | स मामुद्वीक्ष्य नेत्राभ्यां त्रस्तमस्वस्थचेतसं |
3305 | 2057028c | इत्युवाच वचः क्रूरं दिधक्षन्निव तेजसा |
3306 | 2057029a | किं तवापकृतं राजन्वने निवसता मया |
3307 | 2057029c | जिहीर्षुरम्भो गुर्वर्थं यदहं ताडितस्त्वया |
3308 | 2057030a | एकेन खलु बाणेन मर्मण्यभिहते मयि |
3309 | 2057030c | द्वावन्धौ निहतौ वृद्धौ माता जनयिता च मे |
3310 | 2057031a | तौ नूनं दुर्बलावन्धौ मत्प्रतीक्षौ पिपासितौ |
3311 | 2057031c | चिरमाशाकृतां तृष्णां कष्टां संधारयिष्यतः |
3312 | 2057032a | न नूनं तपसो वास्ति फलयोगः श्रुतस्य वा |
3313 | 2057032c | पिता यन्मां न जानाति शयानं पतितं भुवि |
3314 | 2057033a | जानन्नपि च किं कुर्यादशक्तिरपरिक्रमः |
3315 | 2057033c | भिद्यमानमिवाशक्तस्त्रातुमन्यो नगो नगम् |
3316 | 2057034a | पितुस्त्वमेव मे गत्वा शीघ्रमाचक्ष्व राघव |
3317 | 2057034c | न त्वामनुदहेत्क्रुद्धो वनं वह्निरिवैधितः |
3318 | 2057035a | इयमेकपदी राजन्यतो मे पितुराश्रमः |
3319 | 2057035c | तं प्रसादय गत्वा त्वं न त्वां स कुपितः शपेत् |
3320 | 2057036a | विशल्यं कुरु मां राजन्मर्म मे निशितः शरः |
3321 | 2057036c | रुणद्धि मृदु सोत्सेधं तीरमम्बुरयो यथा |
3322 | 2057037a | न द्विजातिरहं राजन्मा भूत्ते मनसो व्यथा |
3323 | 2057037c | शूद्रायामस्मि वैश्येन जातो जनपदाधिप |
3324 | 2057038a | इतीव वदतः कृच्छ्राद्बाणाभिहतमर्मणः |
3325 | 2057038c | तस्य त्वानम्यमानस्य तं बाणमहमुद्धरम् |
3326 | 2057039a | जलार्द्रगात्रं तु विलप्य कृच्छा;न्मर्मव्रणं संततमुच्छसन्तम् |
3327 | 2057039c | ततः सरय्वां तमहं शयानं; समीक्ष्य भद्रे सुभृशं विषण्णः |
3328 | 2058001a | तदज्ञानान्महत्पापं कृत्वा संकुलितेन्द्रियः |
3329 | 2058001c | एकस्त्वचिन्तयं बुद्ध्या कथं नु सुकृतं भवेत् |
3330 | 2058002a | ततस्तं घटमादय पूर्णं परमवारिणा |
3331 | 2058002c | आश्रमं तमहं प्राप्य यथाख्यातपथं गतः |
3332 | 2058003a | तत्राहं दुर्बलावन्धौ वृद्धावपरिणायकौ |
3333 | 2058003c | अपश्यं तस्य पितरौ लूनपक्षाविव द्विजौ |
3334 | 2058004a | तन्निमित्ताभिरासीनौ कथाभिरपरिक्रमौ |
3335 | 2058004c | तामाशां मत्कृते हीनावुदासीनावनाथवत् |
3336 | 2058005a | पदशब्दं तु मे श्रुत्वा मुनिर्वाक्यमभाषत |
3337 | 2058005c | किं चिरायसि मे पुत्र पानीयं क्षिप्रमानय |
3338 | 2058006a | यन्निमित्तमिदं तात सलिले क्रीडितं त्वया |
3339 | 2058006c | उत्कण्ठिता ते मातेयं प्रविश क्षिप्रमाश्रमम् |
3340 | 2058007a | यद्व्यलीकं कृतं पुत्र मात्रा ते यदि वा मया |
3341 | 2058007c | न तन्मनसि कर्तव्यं त्वया तात तपस्विना |
3342 | 2058008a | त्वं गतिस्त्वगतीनां च चक्षुस्त्वं हीनचक्षुषाम् |
3343 | 2058008c | समासक्तास्त्वयि प्राणाः किंचिन्नौ नाभिभाषसे |
3344 | 2058009a | मुनिमव्यक्तया वाचा तमहं सज्जमानया |
3345 | 2058009c | हीनव्यञ्जनया प्रेक्ष्य भीतो भीत इवाब्रुवम् |
3346 | 2058010a | मनसः कर्म चेष्टाभिरभिसंस्तभ्य वाग्बलम् |
3347 | 2058010c | आचचक्षे त्वहं तस्मै पुत्रव्यसनजं भयम् |
3348 | 2058011a | क्षत्रियोऽहं दशरथो नाहं पुत्रो महात्मनः |
3349 | 2058011c | सज्जनावमतं दुःखमिदं प्राप्तं स्वकर्मजम् |
3350 | 2058012a | भगवंश्चापहस्तोऽहं सरयूतीरमागतः |
3351 | 2058012c | जिघांसुः श्वापदं किंचिन्निपाने वागतं गजम् |
3352 | 2058013a | तत्र श्रुतो मया शब्दो जले कुम्भस्य पूर्यतः |
3353 | 2058013c | द्विपोऽयमिति मत्वा हि बाणेनाभिहतो मया |
3354 | 2058014a | गत्वा नद्यास्ततस्तीरमपश्यमिषुणा हृदि |
3355 | 2058014c | विनिर्भिन्नं गतप्राणं शयानं भुवि तापसं |
3356 | 2058015a | भगवञ्शब्दमालक्ष्य मया गजजिघांसुना |
3357 | 2058015c | विसृष्टोऽम्भसि नाराचस्तेन ते निहतः सुतः |
3358 | 2058016a | स चोद्धृतेन बाणेन तत्रैव स्वर्गमास्थितः |
3359 | 2058016c | भगवन्तावुभौ शोचन्नन्धाविति विलप्य च |
3360 | 2058017a | अज्ञानाद्भवतः पुत्रः सहसाभिहतो मया |
3361 | 2058017c | शेषमेवंगते यत्स्यात्तत्प्रसीदतु मे मुनिः |
3362 | 2058018a | स तच्छ्रुत्वा वचः क्रूरं निःश्वसञ्शोककर्शितः |
3363 | 2058018c | मामुवाच महातेजाः कृताञ्जलिमुपस्थितम् |
3364 | 2058019a | यद्येतदशुभं कर्म न स्म मे कथयेः स्वयम् |
3365 | 2058019c | फलेन्मूर्धा स्म ते राजन्सद्यः शतसहस्रधा |
3366 | 2058020a | क्षत्रियेण वधो राजन्वानप्रस्थे विशेषतः |
3367 | 2058020c | ज्ञानपूर्वं कृतः स्थानाच्च्यावयेदपि वज्रिणम् |
3368 | 2058021a | अज्ञानाद्धि कृतं यस्मादिदं तेनैव जीवसि |
3369 | 2058021c | अपि ह्यद्य कुलं नस्याद्राघवाणां कुतो भवान् |
3370 | 2058022a | नय नौ नृप तं देशमिति मां चाभ्यभाषत |
3371 | 2058022c | अद्य तं द्रष्टुमिच्छावः पुत्रं पश्चिमदर्शनम् |
3372 | 2058023a | रुधिरेणावसिताङ्गं प्रकीर्णाजिनवाससं |
3373 | 2058023c | शयानं भुवि निःसंज्ञं धर्मराजवशं गतम् |
3374 | 2058024a | अथाहमेकस्तं देशं नीत्वा तौ भृशदुःखितौ |
3375 | 2058024c | अस्पर्शयमहं पुत्रं तं मुनिं सह भार्यया |
3376 | 2058025a | तौ पुत्रमात्मनः स्पृष्ट्वा तमासाद्य तपस्विनौ |
3377 | 2058025c | निपेततुः शरीरेऽस्य पिता चास्येदमब्रवीत् |
3378 | 2058026a | न न्वहं ते प्रियः पुत्र मातरं पश्य धार्मिक |
3379 | 2058026c | किं नु नालिङ्गसे पुत्र सुकुमार वचो वद |
3380 | 2058027a | कस्य वापररात्रेऽहं श्रोष्यामि हृदयंगमम् |
3381 | 2058027c | अधीयानस्य मधुरं शास्त्रं वान्यद्विशेषतः |
3382 | 2058028a | को मां संध्यामुपास्यैव स्नात्वा हुतहुताशनः |
3383 | 2058028c | श्लाघयिष्यत्युपासीनः पुत्रशोकभयार्दितम् |
3384 | 2058029a | कन्दमूलफलं हृत्वा को मां प्रियमिवातिथिम् |
3385 | 2058029c | भोजयिष्यत्यकर्मण्यमप्रग्रहमनायकम् |
3386 | 2058030a | इमामन्धां च वृद्धां च मातरं ते तपस्विनीम् |
3387 | 2058030c | कथं पुत्र भरिष्यामि कृपणां पुत्रगर्धिनीम् |
3388 | 2058031a | तिष्ठ मा मा गमः पुत्र यमस्य सदनं प्रति |
3389 | 2058031c | श्वो मया सह गन्तासि जनन्या च समेधितः |
3390 | 2058032a | उभावपि च शोकार्तावनाथौ कृपणौ वने |
3391 | 2058032c | क्षिप्रमेव गमिष्यावस्त्वया हीनौ यमक्षयम् |
3392 | 2058033a | ततो वैवस्वतं दृष्ट्वा तं प्रवक्ष्यामि भारतीम् |
3393 | 2058033c | क्षमतां धर्मराजो मे बिभृयात्पितरावयम् |
3394 | 2058034a | अपापोऽसि यथा पुत्र निहतः पापकर्मणा |
3395 | 2058034c | तेन सत्येन गच्छाशु ये लोकाः शस्त्रयोधिनाम् |
3396 | 2058035a | यान्ति शूरा गतिं यां च संग्रामेष्वनिवर्तिनः |
3397 | 2058035c | हतास्त्वभिमुखाः पुत्र गतिं तां परमां व्रज |
3398 | 2058036a | यां गतिं सगरः शैब्यो दिलीपो जनमेजयः |
3399 | 2058036c | नहुषो धुन्धुमारश्च प्राप्तास्तां गच्छ पुत्रक |
3400 | 2058037a | या गतिः सर्वसाधूनां स्वाध्यायात्पतसश्च या |
3401 | 2058037c | भूमिदस्याहिताग्नेश्च एकपत्नीव्रतस्य च |
3402 | 2058038a | गोसहस्रप्रदातॄणां या या गुरुभृतामपि |
3403 | 2058038c | देहन्यासकृतां या च तां गतिं गच्छ पुत्रक |
3404 | 2058038e | न हि त्वस्मिन्कुले जातो गच्छत्यकुशलां गतिम् |
3405 | 2058039a | एवं स कृपणं तत्र पर्यदेवयतासकृत् |
3406 | 2058039c | ततोऽस्मै कर्तुमुदकं प्रवृत्तः सह भार्यया |
3407 | 2058040a | स तु दिव्येन रूपेण मुनिपुत्रः स्वकर्मभिः |
3408 | 2058040c | आश्वास्य च मुहूर्तं तु पितरौ वाक्यमब्रवीत् |
3409 | 2058041a | स्थानमस्मि महत्प्राप्तो भवतोः परिचारणात् |
3410 | 2058041c | भवन्तावपि च क्षिप्रं मम मूलमुपैष्यतः |
3411 | 2058042a | एवमुक्त्वा तु दिव्येन विमानेन वपुष्मता |
3412 | 2058042c | आरुरोह दिवं क्षिप्रं मुनिपुत्रो जितेन्द्रियः |
3413 | 2058043a | स कृत्वा तूदकं तूर्णं तापसः सह भार्यया |
3414 | 2058043c | मामुवाच महातेजाः कृताञ्जलिमुपस्थितम् |
3415 | 2058044a | अद्यैव जहि मां राजन्मरणे नास्ति मे व्यथा |
3416 | 2058044c | यच्छरेणैकपुत्रं मां त्वमकार्षीरपुत्रकम् |
3417 | 2058045a | त्वया तु यदविज्ञानान्निहतो मे सुतः शुचिः |
3418 | 2058045c | तेन त्वामभिशप्स्यामि सुदुःखमतिदारुणम् |
3419 | 2058046a | पुत्रव्यसनजं दुःखं यदेतन्मम साम्प्रतम् |
3420 | 2058046c | एवं त्वं पुत्रशोकेन राजन्कालं करिष्यसि |
3421 | 2058047a | तस्मान्मामागतं भद्रे तस्योदारस्य तद्वचः |
3422 | 2058047c | यदहं पुत्रशोकेन संत्यक्ष्याम्यद्य जीवितम् |
3423 | 2058048a | यदि मां संस्पृशेद्रामः सकृदद्यालभेत वा |
3424 | 2058048c | न तन्मे सदृशं देवि यन्मया राघवे कृतम् |
3425 | 2058049a | चक्षुषा त्वां न पश्यामि स्मृतिर्मम विलुप्यते |
3426 | 2058049c | दूता वैवस्वतस्यैते कौसल्ये त्वरयन्ति माम् |
3427 | 2058050a | अतस्तु किं दुःखतरं यदहं जीवितक्षये |
3428 | 2058050c | न हि पश्यामि धर्मज्ञं रामं सत्यपराक्यमम् |
3429 | 2058051a | न ते मनुष्या देवास्ते ये चारुशुभकुण्डलम् |
3430 | 2058051c | मुखं द्रक्ष्यन्ति रामस्य वर्षे पञ्चदशे पुनः |
3431 | 2058052a | पद्मपत्रेक्षणं सुभ्रु सुदंष्ट्रं चारुनासिकम् |
3432 | 2058052c | धन्या द्रक्ष्यन्ति रामस्य ताराधिपनिभं मुखम् |
3433 | 2058053a | सदृशं शारदस्येन्दोः फुल्लस्य कमलस्य च |
3434 | 2058053c | सुगन्धि मम नाथस्य धन्या द्रक्ष्यन्ति तन्मुखम् |
3435 | 2058054a | निवृत्तवनवासं तमयोध्यां पुनरागतम् |
3436 | 2058054c | द्रक्ष्यन्ति सुखिनो रामं शुक्रं मार्गगतं यथा |
3437 | 2058055a | अयमात्मभवः शोको मामनाथमचेतनम् |
3438 | 2058055c | संसादयति वेगेन यथा कूलं नदीरयः |
3439 | 2058056a | हा राघव महाबाहो हा ममायास नाशन |
3440 | 2058056c | राजा दशरथः शोचञ्जीवितान्तमुपागमत् |
3441 | 2058057a | तथा तु दीनं कथयन्नराधिपः; प्रियस्य पुत्रस्य विवासनातुरः |
3442 | 2058057c | गतेऽर्धरात्रे भृशदुःखपीडित;स्तदा जहौ प्राणमुदारदर्शनः |
3443 | 2059001a | अथ रात्र्यां व्यतीतायां प्रातरेवापरेऽहनि |
3444 | 2059001c | बन्दिनः पर्युपातिष्ठंस्तत्पार्थिवनिवेशनम् |
3445 | 2059002a | ततः शुचिसमाचाराः पर्युपस्थान कोविदः |
3446 | 2059002c | स्त्रीवर्षवरभूयिष्ठा उपतस्थुर्यथापुरम् |
3447 | 2059003a | हरिचन्दनसंपृक्तमुदकं काञ्चनैर्घटैः |
3448 | 2059003c | आनिन्युः स्नानशिक्षाज्ञा यथाकालं यथाविधि |
3449 | 2059004a | मङ्गलालम्भनीयानि प्राशनीयानुपस्करान् |
3450 | 2059004c | उपनिन्युस्तथाप्यन्याः कुमारी बहुलाः स्त्रियः |
3451 | 2059005a | अथ याः कोसलेन्द्रस्य शयनं प्रत्यनन्तराः |
3452 | 2059005c | ताः स्त्रियस्तु समागम्य भर्तारं प्रत्यबोधयन् |
3453 | 2059006a | ता वेपथुपरीताश्च राज्ञः प्राणेषु शङ्किताः |
3454 | 2059006c | प्रतिस्रोतस्तृणाग्राणां सदृशं संचकम्पिरे |
3455 | 2059007a | अथ संवेपमनानां स्त्रीणां दृष्ट्वा च पार्थिवम् |
3456 | 2059007c | यत्तदाशङ्कितं पापं तस्य जज्ञे विनिश्चयः |
3457 | 2059008a | ततः प्रचुक्रुशुर्दीनाः सस्वरं ता वराङ्गनाः |
3458 | 2059008c | करेणव इवारण्ये स्थानप्रच्युतयूथपाः |
3459 | 2059009a | तासामाक्रन्द शब्देन सहसोद्गतचेतने |
3460 | 2059009c | कौसल्या च सुमित्राच त्यक्तनिद्रे बभूवतुः |
3461 | 2059010a | कौसल्या च सुमित्रा च दृष्ट्वा स्पृष्ट्वा च पार्थिवम् |
3462 | 2059010c | हा नाथेति परिक्रुश्य पेततुर्धरणीतले |
3463 | 2059011a | सा कोसलेन्द्रदुहिता वेष्टमाना महीतले |
3464 | 2059011c | न बभ्राज रजोध्वस्ता तारेव गगनच्युता |
3465 | 2059012a | तत्समुत्त्रस्तसंभ्रान्तं पर्युत्सुकजनाकुलम् |
3466 | 2059012c | सर्वतस्तुमुलाक्रन्दं परितापार्तबान्धवम् |
3467 | 2059013a | सद्यो निपतितानन्दं दीनविक्लवदर्शनम् |
3468 | 2059013c | बभूव नरदेवस्य सद्म दिष्टान्तमीयुषः |
3469 | 2059014a | अतीतमाज्ञाय तु पार्थिवर्षभं; यशस्विनं संपरिवार्य पत्नयः |
3470 | 2059014c | भृशं रुदन्त्यः करुणं सुदुःखिताः; प्रगृह्य बाहू व्यलपन्ननाथवत् |
3471 | 2060001a | तमग्निमिव संशान्तमम्बुहीनमिवार्णवम् |
3472 | 2060001c | हतप्रभमिवादित्यं स्वर्गथं प्रेक्ष्य भूमिपम् |
3473 | 2060002a | कौसल्या बाष्पपूर्णाक्षी विविधं शोककर्शिता |
3474 | 2060002c | उपगृह्य शिरो राज्ञः कैकेयीं प्रत्यभाषत |
3475 | 2060003a | सकामा भव कैकेयि भुङ्क्ष्व राज्यमकण्टकम् |
3476 | 2060003c | त्यक्त्वा राजानमेकाग्रा नृशंसे दुष्टचारिणि |
3477 | 2060004a | विहाय मां गतो रामो भर्ता च स्वर्गतो मम |
3478 | 2060004c | विपथे सार्थहीनेव नाहं जीवितुमुत्सहे |
3479 | 2060005a | भर्तारं तं परित्यज्य का स्त्री दैवतमात्मनः |
3480 | 2060005c | इच्छेज्जीवितुमन्यत्र कैकेय्यास्त्यक्तधर्मणः |
3481 | 2060006a | न लुब्धो बुध्यते दोषान्किं पाकमिव भक्षयन् |
3482 | 2060006c | कुब्जानिमित्तं कैकेय्या राघवाणान्कुलं हतम् |
3483 | 2060007a | अनियोगे नियुक्तेन राज्ञा रामं विवासितम् |
3484 | 2060007c | सभार्यं जनकः श्रुत्वा पतितप्स्यत्यहं यथा |
3485 | 2060008a | रामः कमलपत्राक्षो जीवनाशमितो गतः |
3486 | 2060008c | विदेहराजस्य सुता तहा सीता तपस्विनी |
3487 | 2060008e | दुःखस्यानुचिता दुःखं वने पर्युद्विजिष्यति |
3488 | 2060009a | नदतां भीमघोषाणां निशासु मृगपक्षिणाम् |
3489 | 2060009c | निशम्य नूनं संस्त्रस्ता राघवं संश्रयिष्यति |
3490 | 2060010a | वृद्धश्चैवाल्पपुत्रश्च वैदेहीमनिचिन्तयन् |
3491 | 2060010c | सोऽपि शोकसमाविष्टो ननु त्यक्ष्यति जीवितम् |
3492 | 2060011a | तां ततः संपरिष्वज्य विलपन्तीं तपस्विनीम् |
3493 | 2060011c | व्यपनिन्युः सुदुःखार्तां कौसल्यां व्यावहारिकाः |
3494 | 2060012a | तैलद्रोण्यामथामात्याः संवेश्य जगतीपतिम् |
3495 | 2060012c | राज्ञः सर्वाण्यथादिष्टाश्चक्रुः कर्माण्यनन्तरम् |
3496 | 2060013a | न तु संकलनं राज्ञो विना पुत्रेण मन्त्रिणः |
3497 | 2060013c | सर्वज्ञाः कर्तुमीषुस्ते ततो रक्षन्ति भूमिपम् |
3498 | 2060014a | तैलद्रोण्यां तु सचिवैः शायितं तं नराधिपम् |
3499 | 2060014c | हा मृतोऽयमिति ज्ञात्वा स्त्रियस्ताः पर्यदेवयन् |
3500 | 2060015a | बाहूनुद्यम्य कृपणा नेत्रप्रस्रवणैर्मुखैः |
3501 | 2060015c | रुदन्त्यः शोकसंतप्ताः कृपणं पर्यदेवयन् |
3502 | 2060016a | निशानक्षत्रहीनेव स्त्रीव भर्तृविवर्जिता |
3503 | 2060016c | पुरी नाराजतायोध्या हीना राज्ञा महात्मना |
3504 | 2060017a | बाष्पपर्याकुलजना हाहाभूतकुलाङ्गना |
3505 | 2060017c | शून्यचत्वरवेश्मान्ता न बभ्राज यथापुरम् |
3506 | 2060018a | गतप्रभा द्यौरिव भास्करं विना; व्यपेतनक्षत्रगणेव शर्वरी |
3507 | 2060018c | पुरी बभासे रहिता महात्मना; न चास्रकण्ठाकुलमार्गचत्वरा |
3508 | 2060019a | नराश्च नार्यश्च समेत्य संघशो; विगर्हमाणा भरतस्य मातरम् |
3509 | 2060019c | तदा नगर्यां नरदेवसंक्षये; बभूवुरार्ता न च शर्म लेभिरे |
3510 | 2061001a | व्यतीतायां तु शर्वर्यामादित्यस्योदये ततः |
3511 | 2061001c | समेत्य राजकर्तारः सभामीयुर्द्विजातयः |
3512 | 2061002a | मार्कण्डेयोऽथ मौद्गल्यो वामदेवश्च काश्यपः |
3513 | 2061002c | कात्ययनो गौतमश्च जाबालिश्च महायशाः |
3514 | 2061003a | एते द्विजाः सहामात्यैः पृथग्वाचमुदीरयन् |
3515 | 2061003c | वसिष्ठमेवाभिमुखाः श्रेष्ठो राजपुरोहितम् |
3516 | 2061004a | अतीता शर्वरी दुःखं या नो वर्षशतोपमा |
3517 | 2061004c | अस्मिन्पञ्चत्वमापन्ने पुत्रशोकेन पार्थिवे |
3518 | 2061005a | स्वर्गतश्च महाराजो रामश्चारण्यमाश्रितः |
3519 | 2061005c | लक्ष्मणश्चापि तेजस्वी रामेणैव गतः सह |
3520 | 2061006a | उभौ भरतशत्रुघ्नौ क्केकयेषु परंतपौ |
3521 | 2061006c | पुरे राजगृहे रम्ये मातामहनिवेशने |
3522 | 2061007a | इक्ष्वाकूणामिहाद्यैव कश्चिद्राजा विधीयताम् |
3523 | 2061007c | अराजकं हि नो राष्ट्रं न विनाशमवाप्नुयात् |
3524 | 2061008a | नाराजले जनपदे विद्युन्माली महास्वनः |
3525 | 2061008c | अभिवर्षति पर्जन्यो महीं दिव्येन वारिणा |
3526 | 2061009a | नाराजके जनपदे बीजमुष्टिः प्रकीर्यते |
3527 | 2061009c | नाराकके पितुः पुत्रो भार्या वा वर्तते वशे |
3528 | 2061010a | अराजके धनं नास्ति नास्ति भार्याप्यराजके |
3529 | 2061010c | इदमत्याहितं चान्यत्कुतः सत्यमराजके |
3530 | 2061011a | नाराजके जनपदे कारयन्ति सभां नराः |
3531 | 2061011c | उद्यानानि च रम्याणि हृष्टाः पुण्यगृहाणि च |
3532 | 2061012a | नाराजके जनपदे यज्ञशीला द्विजातयः |
3533 | 2061012c | सत्राण्यन्वासते दान्ता ब्राह्मणाः संशितव्रताः |
3534 | 2061013a | नाराजके जनपदे प्रभूतनटनर्तकाः |
3535 | 2061013c | उत्सवाश्च समाजाश्च वर्धन्ते राष्ट्रवर्धनाः |
3536 | 2061014a | नारजके जनपदे सिद्धार्था व्यवहारिणः |
3537 | 2061014c | कथाभिरनुरज्यन्ते कथाशीलाः कथाप्रियैः |
3538 | 2061015a | नाराजके जनपदे वाहनैः शीघ्रगामिभिः |
3539 | 2061015c | नरा निर्यान्त्यरण्यानि नारीभिः सह कामिनः |
3540 | 2061016a | नाराकजे जनपदे धनवन्तः सुरक्षिताः |
3541 | 2061016c | शेरते विवृत द्वाराः कृषिगोरक्षजीविनः |
3542 | 2061017a | नाराजके जनपदे वणिजो दूरगामिनः |
3543 | 2061017c | गच्छन्ति क्षेममध्वानं बहुपुण्यसमाचिताः |
3544 | 2061018a | नाराजके जनपदे चरत्येकचरो वशी |
3545 | 2061018c | भावयन्नात्मनात्मानं यत्रसायंगृहो मुनिः |
3546 | 2061019a | नाराजके जनपदे योगक्षेमं प्रवर्तते |
3547 | 2061019c | न चाप्यराजके सेना शत्रून्विषहते युधि |
3548 | 2061020a | यथा ह्यनुदका नद्यो यथा वाप्यतृणं वनम् |
3549 | 2061020c | अगोपाला यथा गावस्तथा राष्ट्रमराजकम् |
3550 | 2061021a | नाराजके जनपदे स्वकं भवति कस्यचित् |
3551 | 2061021c | मत्स्या इव नरा नित्यं भक्षयन्ति परस्परम् |
3552 | 2061022a | येहि संभिन्नमर्यादा नास्तिकाश्छिन्नसंशयाः |
3553 | 2061022c | तेऽपि भावाय कल्पन्ते राजदण्डनिपीडिताः |
3554 | 2061023a | अहो तम इवेदं स्यान्न प्रज्ञायेत किंचन |
3555 | 2061023c | राजा चेन्न भवेँल्लोके विभजन्साध्वसाधुनी |
3556 | 2061024a | जीवत्यपि महाराजे तवैव वचनं वयम् |
3557 | 2061024c | नातिक्रमामहे सर्वे वेलां प्राप्येव सागरः |
3558 | 2061025a | स नः समीक्ष्य द्विजवर्यवृत्तं; नृपं विना राज्यमरण्यभूतम् |
3559 | 2061025c | कुमारमिक्ष्वाकुसुतं वदान्यं; त्वमेव राजानमिहाभिषिञ्चय |
3560 | 2062001a | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा वसिष्ठः प्रत्युवाच ह |
3561 | 2062001c | मित्रामात्यगणान्सर्वान्ब्राह्मणांस्तानिदं वचः |
3562 | 2062002a | यदसौ मातुलकुले पुरे राजगृहे सुखी |
3563 | 2062002c | भरतो वसति भ्रात्रा शत्रुघ्नेन समन्वितः |
3564 | 2062003a | तच्छीघ्रं जवना दूता गच्छन्तु त्वरितैर्हयैः |
3565 | 2062003c | आनेतुं भ्रातरौ वीरौ किं समीक्षामहे वयम् |
3566 | 2062004a | गच्छन्त्विति ततः सर्वे वसिष्ठं वाक्यमब्रुवन् |
3567 | 2062004c | तेषां तद्वचनं श्रुत्वा वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत् |
3568 | 2062005a | एहि सिद्धार्थ विजय जयन्ताशोकनन्दन |
3569 | 2062005c | श्रूयतामितिकर्तव्यं सर्वानेव ब्रवीमि वः |
3570 | 2062006a | पुरं राजगृहं गत्वा शीघ्रं शीघ्रजवैर्हयैः |
3571 | 2062006c | त्यक्तशोकैरिदं वाच्यः शासनाद्भरतो मम |
3572 | 2062007a | पुरोहितस्त्वां कुशलं प्राह सर्वे च मन्त्रिणः |
3573 | 2062007c | त्वरमाणश्च निर्याहि कृत्यमात्ययिकं त्वया |
3574 | 2062008a | मा चास्मै प्रोषितं रामं मा चास्मै पितरं मृतम् |
3575 | 2062008c | भवन्तः शंसिषुर्गत्वा राघवाणामिमं क्षयम् |
3576 | 2062009a | कौशेयानि च वस्त्राणि भूषणानि वराणि च |
3577 | 2062009c | क्षिप्रमादाय राज्ञश्च भरतस्य च गच्छत |
3578 | 2062009e | वसिष्ठेनाभ्यनुज्ञाता दूताः संत्वरिता ययुः |
3579 | 2062010a | ते हस्तिन पुरे गङ्गां तीर्त्वा प्रत्यङ्मुखा ययुः |
3580 | 2062010c | पाञ्चालदेशमासाद्य मध्येन कुरुजाङ्गलम् |
3581 | 2062011a | ते प्रसन्नोदकां दिव्यां नानाविहगसेविताम् |
3582 | 2062011c | उपातिजग्मुर्वेगेन शरदण्डां जनाकुलाम् |
3583 | 2062012a | निकूलवृक्षमासाद्य दिव्यं सत्योपयाचनम् |
3584 | 2062012c | अभिगम्याभिवाद्यं तं कुलिङ्गां प्राविशन्पुरीम् |
3585 | 2062013a | अभिकालं ततः प्राप्य तेजोऽभिभवनाच्च्युताः |
3586 | 2062013c | ययुर्मध्येन बाह्लीकान्सुदामानं च पर्वतम् |
3587 | 2062013e | विष्णोः पदं प्रेक्षमाणा विपाशां चापि शाल्मलीम् |
3588 | 2062014a | ते श्रान्तवाहना दूता विकृष्टेन सता पथा |
3589 | 2062014c | गिरि व्रजं पुर वरं शीघ्रमासेदुरञ्जसा |
3590 | 2062015a | भर्तुः प्रियार्थं कुलरक्षणार्थं; भर्तुश्च वंशस्य परिग्रहार्थम् |
3591 | 2062015c | अहेडमानास्त्वरया स्म दूता; रात्र्यां तु ते तत्पुरमेव याताः |
3592 | 2063001a | यामेव रात्रिं ते दूताः प्रविशन्ति स्म तां पुरीम् |
3593 | 2063001c | भरतेनापि तां रात्रिं स्वप्नो दृष्टोऽयमप्रियः |
3594 | 2063002a | व्युष्टामेव तु तां रात्रिं दृष्ट्वा तं स्वप्नमप्रियम् |
3595 | 2063002c | पुत्रो राजाधिराजस्य सुभृशं पर्यतप्यत |
3596 | 2063003a | तप्यमानं समाज्ञाय वयस्याः प्रियवादिनः |
3597 | 2063003c | आयासं हि विनेष्यन्तः सभायां चक्रिरे कथाः |
3598 | 2063004a | वादयन्ति तथा शान्तिं लासयन्त्यपि चापरे |
3599 | 2063004c | नाटकान्यपरे प्राहुर्हास्यानि विविधानि च |
3600 | 2063005a | स तैर्महात्मा भरतः सखिभिः प्रिय वादिभिः |
3601 | 2063005c | गोष्ठीहास्यानि कुर्वद्भिर्न प्राहृष्यत राघवः |
3602 | 2063006a | तमब्रवीत्प्रियसखो भरतं सखिभिर्वृतम् |
3603 | 2063006c | सुहृद्भिः पर्युपासीनः किं सखे नानुमोदसे |
3604 | 2063007a | एवं ब्रुवाणं सुहृदं भरतः प्रत्युवाच ह |
3605 | 2063007c | शृणु त्वं यन्निमित्तंमे दैन्यमेतदुपागतम् |
3606 | 2063008a | स्वप्ने पितरमद्राक्षं मलिनं मुक्तमूर्धजम् |
3607 | 2063008c | पतन्तमद्रिशिखरात्कलुषे गोमये ह्रदे |
3608 | 2063009a | प्लवमानश्च मे दृष्टः स तस्मिन्गोमयह्रदे |
3609 | 2063009c | पिबन्नञ्जलिना तैलं हसन्निव मुहुर्मुहुः |
3610 | 2063010a | ततस्तिलोदनं भुक्त्वा पुनः पुनरधःशिराः |
3611 | 2063010c | तैलेनाभ्यक्तसर्वाङ्गस्तैलमेवावगाहत |
3612 | 2063011a | स्वप्नेऽपि सागरं शुष्कं चन्द्रं च पतितं भुवि |
3613 | 2063011c | सहसा चापि संशन्तं ज्वलितं जातवेदसं |
3614 | 2063012a | अवदीर्णां च पृथिवीं शुष्कांश्च विविधान्द्रुमान् |
3615 | 2063012c | अहं पश्यामि विध्वस्तान्सधूमांश्चैव पार्वतान् |
3616 | 2063013a | पीठे कार्ष्णायसे चैनं निषण्णं कृष्णवाससं |
3617 | 2063013c | प्रहसन्ति स्म राजानं प्रमदाः कृष्णपिङ्गलाः |
3618 | 2063014a | त्वरमाणश्च धर्मात्मा रक्तमाल्यानुलेपनः |
3619 | 2063014c | रथेन खरयुक्तेन प्रयातो दक्षिणामुखः |
3620 | 2063015a | एवमेतन्मया दृष्टमिमां रात्रिं भयावहाम् |
3621 | 2063015c | अहं रामोऽथ वा राजा लक्ष्मणो वा मरिष्यति |
3622 | 2063016a | नरो यानेन यः स्वप्ने खरयुक्तेन याति हि |
3623 | 2063016c | अचिरात्तस्य धूमाग्रं चितायां संप्रदृश्यते |
3624 | 2063016e | एतन्निमित्तं दीनोऽहं तन्न वः प्रतिपूजये |
3625 | 2063017a | शुष्यतीव च मे कण्ठो न स्वस्थमिव मे मनः |
3626 | 2063017c | जुगुप्सन्निव चात्मानं न च पश्यामि कारणम् |
3627 | 2063018a | इमां हि दुःस्वप्नगतिं निशाम्य ता;मनेकरूपामवितर्कितां पुरा |
3628 | 2063018c | भयं महत्तद्धृदयान्न याति मे; विचिन्त्य राजानमचिन्त्यदर्शनम् |
3629 | 2064001a | भरते ब्रुवति स्वप्नं दूतास्ते क्लान्तवाहनाः |
3630 | 2064001c | प्रविश्यासह्यपरिखं रम्यं राजगृहं पुरम् |
3631 | 2064002a | समागम्य तु राज्ञा च राजपुत्रेण चार्चिताः |
3632 | 2064002c | राज्ञः पादौ गृहीत्वा तु तमूचुर्भरतं वचः |
3633 | 2064003a | पुरोहितस्त्वा कुशलं प्राह सर्वे च मन्त्रिणः |
3634 | 2064003c | त्वरमाणश्च निर्याहि कृत्यमात्ययिकं त्वया |
3635 | 2064004a | अत्र विंशतिकोट्यस्तु नृपतेर्मातुलस्य ते |
3636 | 2064004c | दशकोट्यस्तु संपूर्णास्तथैव च नृपात्मज |
3637 | 2064005a | प्रतिगृह्य च तत्सर्वं स्वनुरक्तः सुहृज्जने |
3638 | 2064005c | दूतानुवाच भरतः कामैः संप्रतिपूज्य तान् |
3639 | 2064006a | कच्चित्सुकुशली राजा पिता दशरथो मम |
3640 | 2064006c | कच्चिच्चारागता रामे लक्ष्मणे वा महात्मनि |
3641 | 2064007a | आर्या च धर्मनिरता धर्मज्ञा धर्मदर्शिनी |
3642 | 2064007c | अरोगा चापि कौसल्या माता रामस्य धीमतः |
3643 | 2064008a | कच्चित्सुमित्रा धर्मज्ञा जननी लक्ष्मणस्य या |
3644 | 2064008c | शत्रुघ्नस्य च वीरस्य सारोगा चापि मध्यमा |
3645 | 2064009a | आत्मकामा सदा चण्डी क्रोधना प्राज्ञमानिनी |
3646 | 2064009c | अरोगा चापि कैकेयी माता मे किमुवाच ह |
3647 | 2064010a | एवमुक्तास्तु ते दूता भरतेन महात्मना |
3648 | 2064010c | ऊचुः संप्रश्रितं वाक्यमिदं तं भरतं तदा |
3649 | 2064010e | कुशलास्ते नरव्याघ्र येषां कुशलमिच्छसि |
3650 | 2064011a | भरतश्चापि तान्दूतानेवमुक्तोऽभ्यभाषत |
3651 | 2064011c | आपृच्छेऽहं महाराजं दूताः संत्वरयन्ति माम् |
3652 | 2064012a | एवमुक्त्वा तु तान्दूतान्भरतः पार्थिवात्मजः |
3653 | 2064012c | दूतैः संचोदितो वाक्यं मातामहमुवाच ह |
3654 | 2064013a | राजन्पितुर्गमिष्यामि सकाशं दूतचोदितः |
3655 | 2064013c | पुनरप्यहमेष्यामि यदा मे त्वं स्मरिष्यसि |
3656 | 2064014a | भरतेनैवमुक्तस्तु नृपो मातामहस्तदा |
3657 | 2064014c | तमुवाच शुभं वाक्यं शिरस्याघ्राय राघवम् |
3658 | 2064015a | गच्छ तातानुजाने त्वां कैकेयी सुप्रजास्त्वया |
3659 | 2064015c | मातरं कुशलं ब्रूयाः पितरं च परंतप |
3660 | 2064016a | पुरोहितं च कुशलं ये चान्ये द्विजसत्तमाः |
3661 | 2064016c | तौ च तात महेष्वासौ भ्रातरु रामलक्ष्मणौ |
3662 | 2064017a | तस्मै हस्त्युत्तमांश्चित्रान्कम्बलानजिनानि च |
3663 | 2064017c | अभिसत्कृत्य कैकेयो भरताय धनं ददौ |
3664 | 2064018a | रुक्म निष्कसहस्रे द्वे षोडशाश्वशतानि च |
3665 | 2064018c | सत्कृत्य कैकेयी पुत्रं केकयो धनमादिशत् |
3666 | 2064019a | तथामात्यानभिप्रेतान्विश्वास्यांश्च गुणान्वितान् |
3667 | 2064019c | ददावश्वपतिः शीघ्रं भरतायानुयायिनः |
3668 | 2064020a | ऐरावतानैन्द्रशिरान्नागान्वै प्रियदर्शनान् |
3669 | 2064020c | खराञ्शीघ्रान्सुसंयुक्तान्मातुलोऽस्मै धनं ददौ |
3670 | 2064021a | अन्तःपुरेऽतिसंवृद्धान्व्याघ्रवीर्यबलान्वितान् |
3671 | 2064021c | दंष्ट्रायुधान्महाकायाञ्शुनश्चोपायनं ददौ |
3672 | 2064022a | स मातामहमापृच्छ्य मातुलं च युधाजितम् |
3673 | 2064022c | रथमारुह्य भरतः शत्रुघ्नसहितो ययौ |
3674 | 2064023a | रथान्मण्डलचक्रांश्च योजयित्वा परःशतम् |
3675 | 2064023c | उष्ट्रगोऽश्वखरैर्भृत्या भरतं यान्तमन्वयुः |
3676 | 2064024a | बलेन गुप्तो भरतो महात्मा; सहार्यकस्यात्मसमैरमात्यैः |
3677 | 2064024c | आदाय शत्रुघ्नमपेतशत्रु;र्गृहाद्ययौ सिद्ध इवेन्द्रलोकात् |
3678 | 2065001a | स प्राङ्मुखो राजगृहादभिनिर्याय वीर्यवान् |
3679 | 2065001c | ह्रादिनीं दूरपारां च प्रत्यक्स्रोतस्तरङ्गिणीम् |
3680 | 2065001e | शतद्रूमतरच्छ्रीमान्नदीमिक्ष्वाकुनन्दनः |
3681 | 2065002a | एलधाने नदीं तीर्त्वा प्राप्य चापरपर्पटान् |
3682 | 2065002c | शिलामाकुर्वतीं तीर्त्वा आग्नेयं शल्यकर्तनम् |
3683 | 2065003a | सत्यसंधः शुचिः श्रीमान्प्रेक्षमाणः शिलावहाम् |
3684 | 2065003c | अत्ययात्स महाशैलान्वनं चैत्ररथं प्रति |
3685 | 2065004a | वेगिनीं च कुलिङ्गाख्यां ह्रादिनीं पर्वतावृताम् |
3686 | 2065004c | यमुनां प्राप्य संतीर्णो बलमाश्वासयत्तदा |
3687 | 2065005a | शीतीकृत्य तु गात्राणि क्लान्तानाश्वास्य वाजिनः |
3688 | 2065005c | तत्र स्नात्वा च पीत्वा च प्रायादादाय चोदकम् |
3689 | 2065006a | राजपुत्रो महारण्यमनभीक्ष्णोपसेवितम् |
3690 | 2065006c | भद्रो भद्रेण यानेन मारुतः खमिवात्ययात् |
3691 | 2065007a | तोरणं दक्षिणार्धेन जम्बूप्रस्थमुपागमत् |
3692 | 2065007c | वरूथं च ययौ रम्यं ग्रामं दशरथात्मजः |
3693 | 2065008a | तत्र रम्ये वने वासं कृत्वासौ प्राङ्मुखो ययौ |
3694 | 2065008c | उद्यानमुज्जिहानायाः प्रियका यत्र पादपाः |
3695 | 2065009a | सालांस्तु प्रियकान्प्राप्य शीघ्रानास्थाय वाजिनः |
3696 | 2065009c | अनुज्ञाप्याथ भरतो वाहिनीं त्वरितो ययौ |
3697 | 2065010a | वासं कृत्वा सर्वतीर्थे तीर्त्वा चोत्तानकां नदीम् |
3698 | 2065010c | अन्या नदीश्च विविधाः पार्वतीयैस्तुरंगमैः |
3699 | 2065011a | हस्तिपृष्ठकमासाद्य कुटिकामत्यवर्तत |
3700 | 2065011c | ततार च नरव्याघ्रो लौहित्ये स कपीवतीम् |
3701 | 2065011e | एकसाले स्थाणुमतीं विनते गोमतीं नदीम् |
3702 | 2065012a | कलिङ्ग नगरे चापि प्राप्य सालवनं तदा |
3703 | 2065012c | भरतः क्षिप्रमागच्छत्सुपरिश्रान्तवाहनः |
3704 | 2065013a | वनं च समतीत्याशु शर्वर्यामरुणोदये |
3705 | 2065013c | अयोध्यां मनुना राज्ञा निर्मितां स ददर्श ह |
3706 | 2065014a | तां पुरीं पुरुषव्याघ्रः सप्तरात्रोषिटः पथि |
3707 | 2065014c | अयोध्यामग्रतो दृष्ट्वा रथे सारथिमब्रवीत् |
3708 | 2065015a | एषा नातिप्रतीता मे पुण्योद्याना यशस्विनी |
3709 | 2065015c | अयोध्या दृश्यते दूरात्सारथे पाण्डुमृत्तिका |
3710 | 2065016a | यज्वभिर्गुणसंपन्नैर्ब्राह्मणैर्वेदपारगैः |
3711 | 2065016c | भूयिष्ठमृष्हैराकीर्णा राजर्षिवरपालिता |
3712 | 2065017a | अयोध्यायां पुराशब्दः श्रूयते तुमुलो महान् |
3713 | 2065017c | समन्तान्नरनारीणां तमद्य न शृणोम्यहम् |
3714 | 2065018a | उद्यानानि हि सायाह्ने क्रीडित्वोपरतैर्नरैः |
3715 | 2065018c | समन्ताद्विप्रधावद्भिः प्रकाशन्ते ममान्यदा |
3716 | 2065019a | तान्यद्यानुरुदन्तीव परित्यक्तानि कामिभिः |
3717 | 2065019c | अरण्यभूतेव पुरी सारथे प्रतिभाति मे |
3718 | 2065020a | न ह्यत्र यानैर्दृश्यन्ते न गजैर्न च वाजिभिः |
3719 | 2065020c | निर्यान्तो वाभियान्तो वा नरमुख्या यथापुरम् |
3720 | 2065021a | अनिष्टानि च पापानि पश्यामि विविधानि च |
3721 | 2065021c | निमित्तान्यमनोज्ञानि तेन सीदति ते मनः |
3722 | 2065022a | द्वारेण वैजयन्तेन प्राविशच्छ्रान्तवाहनः |
3723 | 2065022c | द्वाःस्थैरुत्थाय विजयं पृष्टस्तैः सहितो ययौ |
3724 | 2065023a | स त्वनेकाग्रहृदयो द्वाःस्थं प्रत्यर्च्य तं जनम् |
3725 | 2065023c | सूतमश्वपतेः क्लान्तमब्रवीत्तत्र राघवः |
3726 | 2065024a | श्रुता नो यादृशाः पूर्वं नृपतीनां विनाशने |
3727 | 2065024c | आकारास्तानहं सर्वानिह पश्यामि सारथे |
3728 | 2065025a | मलिनं चाश्रुपूर्णाक्षं दीनं ध्यानपरं कृशम् |
3729 | 2065025c | सस्त्री पुंसं च पश्यामि जनमुत्कण्ठितं पुरे |
3730 | 2065026a | इत्येवमुक्त्वा भरतः सूतं तं दीनमानसः |
3731 | 2065026c | तान्यनिष्टान्ययोध्यायां प्रेक्ष्य राजगृहं ययौ |
3732 | 2065027a | तां शून्यशृङ्गाटकवेश्मरथ्यां; रजोऽरुणद्वारकपाटयन्त्राम् |
3733 | 2065027c | दृष्ट्वा पुरीमिन्द्रपुरी प्रकाशां; दुःखेन संपूर्णतरो बभूव |
3734 | 2065028a | बहूनि पश्यन्मनसोऽप्रियाणि; यान्यन्न्यदा नास्य पुरे बभूवुः |
3735 | 2065028c | अवाक्शिरा दीनमना नहृष्टः; पितुर्महात्मा प्रविवेश वेश्म |
3736 | 2066001a | अपश्यंस्तु ततस्तत्र पितरं पितुरालये |
3737 | 2066001c | जगाम भरतो द्रष्टुं मातरं मातुरालये |
3738 | 2066002a | अनुप्राप्तं तु तं दृष्ट्वा कैकेयी प्रोषितं सुतम् |
3739 | 2066002c | उत्पपात तदा हृष्टा त्यक्त्वा सौवर्णमानसं |
3740 | 2066003a | स प्रविश्यैव धर्मात्मा स्वगृहं श्रीविवर्जितम् |
3741 | 2066003c | भरतः प्रेक्ष्य जग्राह जनन्याश्चरणौ शुभौ |
3742 | 2066004a | तं मूर्ध्नि समुपाघ्राय परिष्वज्य यशस्विनम् |
3743 | 2066004c | अङ्के भरतमारोप्य प्रष्टुं समुपचक्रमे |
3744 | 2066005a | अद्य ते कतिचिद्रात्र्यश्च्युतस्यार्यकवेश्मनः |
3745 | 2066005c | अपि नाध्वश्रमः शीघ्रं रथेनापततस्तव |
3746 | 2066006a | आर्यकस्ते सुकुशलो युधाजिन्मातुलस्तव |
3747 | 2066006c | प्रवासाच्च सुखं पुत्र सर्वं मे वक्तुमर्हसि |
3748 | 2066007a | एवं पृष्ठस्तु कैकेय्या प्रियं पार्थिवनन्दनः |
3749 | 2066007c | आचष्ट भरतः सर्वं मात्रे राजीवलोचनः |
3750 | 2066008a | अद्य मे सप्तमी रात्रिश्च्युतस्यार्यकवेश्मनः |
3751 | 2066008c | अम्बायाः कुशली तातो युधाजिन्मातुलश्च मे |
3752 | 2066009a | यन्मे धनं च रत्नं च ददौ राजा परंतपः |
3753 | 2066009c | परिश्रान्तं पथ्यभवत्ततोऽहं पूर्वमागतः |
3754 | 2066010a | राजवाक्यहरैर्दूतैस्त्वर्यमाणोऽहमागतः |
3755 | 2066010c | यदहं प्रष्टुमिच्छामि तदम्बा वक्तुमर्हसि |
3756 | 2066011a | शून्योऽयं शयनीयस्ते पर्यङ्को हेमभूषितः |
3757 | 2066011c | न चायमिक्ष्वाकुजनः प्रहृष्टः प्रतिभाति मे |
3758 | 2066012a | राजा भवति भूयिष्ठ्गमिहाम्बाया निवेशने |
3759 | 2066012c | तमहं नाद्य पश्यामि द्रष्टुमिच्छन्निहागतः |
3760 | 2066013a | पितुर्ग्रहीष्ये चरणौ तं ममाख्याहि पृच्छतः |
3761 | 2066013c | आहोस्विदम्ब ज्येष्ठायाः कौसल्याया निवेशने |
3762 | 2066014a | तं प्रत्युवाच कैकेयी प्रियवद्घोरमप्रियम् |
3763 | 2066014c | अजानन्तं प्रजानन्ती राज्यलोभेन मोहिता |
3764 | 2066014e | या गतिः सर्वभूतानां तां गतिं ते पिता गतः |
3765 | 2066015a | तच्छ्रुत्वा भरतो वाक्यं धर्माभिजनवाञ्शुचिः |
3766 | 2066015c | पपात सहसा भूमौ पितृशोकबलार्दितः |
3767 | 2066016a | ततः शोकेन संवीतः पितुर्मरणदुःखितः |
3768 | 2066016c | विललाप महातेजा भ्रान्ताकुलितचेतनः |
3769 | 2066017a | एतत्सुरुचिरं भाति पितुर्मे शयनं पुरा |
3770 | 2066017c | तदिदं न विभात्यद्य विहीनं तेन धीमता |
3771 | 2066018a | तमार्तं देवसंकाशं समीक्ष्य पतितं भुवि |
3772 | 2066018c | उत्थापयित्वा शोकार्तं वचनं चेदमब्रवीत् |
3773 | 2066019a | उत्तिष्ठोत्तिष्ठ किं शेषे राजपुत्र महायशः |
3774 | 2066019c | त्वद्विधा न हि शोचन्ति सन्तः सदसि संमताः |
3775 | 2066020a | स रुदत्या चिरं कालं भूमौ विपरिवृत्य च |
3776 | 2066020c | जननीं प्रत्युवाचेदं शोकैर्बहुभिरावृतः |
3777 | 2066021a | अभिषेक्ष्यति रामं तु राजा यज्ञं नु यक्ष्यति |
3778 | 2066021c | इत्यहं कृतसंकल्पो हृष्टो यात्रामयासिषम् |
3779 | 2066022a | तदिदं ह्यन्यथा भूतं व्यवदीर्णं मनो मम |
3780 | 2066022c | पितरं यो न पश्यामि नित्यं प्रियहिते रतम् |
3781 | 2066023a | अम्ब केनात्यगाद्राजा व्याधिना मय्यनागते |
3782 | 2066023c | धन्या रामादयः सर्वे यैः पिता संस्कृतः स्वयम् |
3783 | 2066024a | न नूनं मां महाराजः प्राप्तं जानाति कीर्तिमान् |
3784 | 2066024c | उपजिघ्रेद्धि मां मूर्ध्नि तातः संनम्य सत्वरम् |
3785 | 2066025a | क्व स पाणिः सुखस्पर्शस्तातस्याक्लिष्टकर्मणः |
3786 | 2066025c | येन मां रजसा ध्वस्तमभीक्ष्णं परिमार्जति |
3787 | 2066026a | यो मे भ्राता पिता बन्धुर्यस्य दासोऽस्मि धीमतः |
3788 | 2066026c | तस्य मां शीघ्रमाख्याहि रामस्याक्लिष्ट कर्मणः |
3789 | 2066027a | पिता हि भवति ज्येष्ठो धर्ममार्यस्य जानतः |
3790 | 2066027c | तस्य पादौ ग्रहीष्यामि स हीदानीं गतिर्मम |
3791 | 2066028a | आर्ये किमब्रवीद्राजा पिता मे सत्यविक्रमः |
3792 | 2066028c | पश्चिमं साधुसंदेशमिच्छामि श्रोतुमात्मनः |
3793 | 2066029a | इति पृष्टा यथातत्त्वं कैकेयी वाक्यमब्रवीत् |
3794 | 2066029c | रामेति राजा विलपन्हा सीते लक्ष्मणेति च |
3795 | 2066029e | स महात्मा परं लोकं गतो गतिमतां वरः |
3796 | 2066030a | इमां तु पश्चिमां वाचं व्याजहार पिता तव |
3797 | 2066030c | काल धर्मपरिक्षिप्तः पाशैरिव महागजः |
3798 | 2066031a | सिद्धार्थास्तु नरा राममागतं सीतया सह |
3799 | 2066031c | लक्ष्मणं च महाबाहुं द्रक्ष्यन्ति पुनरागतम् |
3800 | 2066032a | तच्छ्रुत्वा विषसादैव द्वितीया प्रियशंसनात् |
3801 | 2066032c | विषण्णवदनो भूत्वा भूयः पप्रच्छ मातरम् |
3802 | 2066033a | क्व चेदानीं स धर्मात्मा कौसल्यानन्दवर्धनः |
3803 | 2066033c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया च समं गतः |
3804 | 2066034a | तथा पृष्टा यथातत्त्वमाख्यातुमुपचक्रमे |
3805 | 2066034c | मातास्य युगपद्वाक्यं विप्रियं प्रियशङ्कया |
3806 | 2066035a | स हि राजसुतः पुत्र चीरवासा महावनम् |
3807 | 2066035c | दण्डकान्सह वैदेह्या लक्ष्मणानुचरो गतः |
3808 | 2066036a | तच्छ्रुत्वा भरतस्त्रस्तो भ्रातुश्चारित्रशङ्कया |
3809 | 2066036c | स्वस्य वंशस्य माहात्म्यात्प्रष्टुं समुपचक्रमे |
3810 | 2066037a | कच्चिन्न ब्राह्मणवधं हृतं रामेण कस्यचित् |
3811 | 2066037c | कच्चिन्नाढ्यो दरिद्रो वा तेनापापो विहिंसितः |
3812 | 2066038a | कच्चिन्न परदारान्वा राजपुत्रोऽभिमन्यते |
3813 | 2066038c | कस्मात्स दण्डकारण्ये भ्रूणहेव विवासितः |
3814 | 2066039a | अथास्य चपला माता तत्स्वकर्म यथातथम् |
3815 | 2066039c | तेनैव स्त्रीस्वभावेन व्याहर्तुमुपचक्रमे |
3816 | 2066040a | न ब्राह्मण धनं किंचिद्धृतं रामेण कस्यचित् |
3817 | 2066040c | कश्चिन्नाढ्यो दरिद्रो वा तेनापापो विहिंसितः |
3818 | 2066040e | न रामः परदारांश्च चक्षुर्भ्यामपि पश्यति |
3819 | 2066041a | मया तु पुत्र श्रुत्वैव रामस्यैवाभिषेचनम् |
3820 | 2066041c | याचितस्ते पिता राज्यं रामस्य च विवासनम् |
3821 | 2066042a | स स्ववृत्तिं समास्थाय पिता ते तत्तथाकरोत् |
3822 | 2066042c | रामश्च सहसौमित्रिः प्रेषितः सह सीतया |
3823 | 2066043a | तमपश्यन्प्रियं पुत्रं महीपालो महायशाः |
3824 | 2066043c | पुत्रशोकपरिद्यूनः पञ्चत्वमुपपेदिवान् |
3825 | 2066044a | त्वया त्विदानीं धर्मज्ञ राजत्वमवलम्ब्यताम् |
3826 | 2066044c | त्वत्कृते हि मया सर्वमिदमेवंविधं कृतम् |
3827 | 2066045a | तत्पुत्र शीघ्रं विधिना विधिज्ञै;र्वसिष्ठमुख्यैः सहितो द्विजेन्द्रैः |
3828 | 2066045c | संकाल्य राजानमदीनसत्त्व;मात्मानमुर्व्यामभिषेचयस्व |
3829 | 2067001a | श्रुत्वा तु पितरं वृत्तं भ्रातरु च विवासितौ |
3830 | 2067001c | भरतो दुःखसंतप्त इदं वचनमब्रवीत् |
3831 | 2067002a | किं नुण्कार्यं हतस्येह मम राज्येन शोचतः |
3832 | 2067002c | विहीनस्याथ पित्रा च भ्रात्रा पितृसमेन च |
3833 | 2067003a | दुःखे मे दुःखमकरोर्व्रणे क्षारमिवादधाः |
3834 | 2067003c | राजानं प्रेतभावस्थं कृत्वा रामं च तापसं |
3835 | 2067004a | कुलस्य त्वमभावाय कालरात्रिरिवागता |
3836 | 2067004c | अङ्गारमुपगूह्य स्म पिता मे नावबुद्धवान् |
3837 | 2067005a | कौसल्या च सुमित्रा च पुत्रशोकाभिपीडिते |
3838 | 2067005c | दुष्करं यदि जीवेतां प्राप्य त्वां जननीं मम |
3839 | 2067006a | ननु त्वार्योऽपि धर्मात्मा त्वयि वृत्तिमनुत्तमाम् |
3840 | 2067006c | वर्तते गुरुवृत्तिज्ञो यथा मातरि वर्तते |
3841 | 2067007a | तथा ज्येष्ठा हि मे माता कौसल्या दीर्घदर्शिनी |
3842 | 2067007c | त्वयि धर्मं समास्थाय भगिन्यामिव वर्तते |
3843 | 2067008a | तस्याः पुत्रं कृतात्मानं चीरवल्कलवाससं |
3844 | 2067008c | प्रस्थाप्य वनवासाय कथं पापे न शोचसि |
3845 | 2067009a | अपापदर्शिनं शूरं कृतात्मानं यशस्विनम् |
3846 | 2067009c | प्रव्राज्य चीरवसनं किं नु पश्यसि कारणम् |
3847 | 2067010a | लुब्धाया विदितो मन्ये न तेऽहं राघवं प्रति |
3848 | 2067010c | तथा ह्यनर्थो राज्यार्थं त्वया नीतो महानयम् |
3849 | 2067011a | अहं हि पुरुषव्याघ्रावपश्यन्रामलक्ष्मणौ |
3850 | 2067011c | केन शक्तिप्रभावेन राज्यं रक्षितुमुत्सहे |
3851 | 2067012a | तं हि नित्यं महाराजो बलवन्तं महाबलः |
3852 | 2067012c | अपाश्रितोऽभूद्धर्मात्मा मेरुर्मेरुवनं यथा |
3853 | 2067013a | सोऽहं कथमिमं भारं महाधुर्यसमुद्यतम् |
3854 | 2067013c | दम्यो धुरमिवासाद्य सहेयं केन चौजसा |
3855 | 2067014a | अथ वा मे भवेच्छक्तिर्योगैर्बुद्धिबलेन वा |
3856 | 2067014c | सकामां न करिष्यामि त्वामहं पुत्रगर्धिनीम् |
3857 | 2067014e | निवर्तयिष्यामि वनाद्भ्रातरं स्वजनप्रियम् |
3858 | 2067015a | इत्येवमुक्त्वा भरतो महात्मा; प्रियेतरैर्वाक्यगणैस्तुदंस्ताम् |
3859 | 2067015c | शोकातुरश्चापि ननाद भूयः; सिंहो यथा पर्वतगह्वरस्थः |
3860 | 2068001a | तां तथा गर्हयित्वा तु मातरं भरतस्तदा |
3861 | 2068001c | रोषेण महताविष्टः पुनरेवाब्रवीद्वचः |
3862 | 2068002a | राज्याद्भ्रंशस्व कैकेयि नृशंसे दुष्टचारिणि |
3863 | 2068002c | परित्यक्ता च धर्मेण मा मृतं रुदती भव |
3864 | 2068003a | किं नु तेऽदूषयद्राजा रामो वा भृशधार्मिकः |
3865 | 2068003c | ययोर्मृत्युर्विवासश्च त्वत्कृते तुल्यमागतौ |
3866 | 2068004a | भ्रूणहत्यामसि प्राप्ता कुलस्यास्य विनाशनात् |
3867 | 2068004c | कैकेयि नरकं गच्छ मा च भर्तुः सलोकताम् |
3868 | 2068005a | यत्त्वया हीदृशं पापं कृतं घोरेण कर्मणा |
3869 | 2068005c | सर्वलोकप्रियं हित्वा ममाप्यापादितं भयम् |
3870 | 2068006a | त्वत्कृते मे पिता वृत्तो रामश्चारण्यमाश्रितः |
3871 | 2068006c | अयशो जीवलोके च त्वयाहं प्रतिपादितः |
3872 | 2068007a | मातृरूपे ममामित्रे नृशंसे राज्यकामुके |
3873 | 2068007c | न तेऽहमभिभाष्योऽस्मि दुर्वृत्ते पतिघातिनि |
3874 | 2068008a | कौसल्या च सुमित्रा च याश्चान्या मम मातरः |
3875 | 2068008c | दुःखेन महताविष्टास्त्वां प्राप्य कुलदूषिणीम् |
3876 | 2068009a | न त्वमश्वपतेः कन्या धर्मराजस्य धीमतः |
3877 | 2068009c | राक्षसी तत्र जातासि कुलप्रध्वंसिनी पितुः |
3878 | 2068010a | यत्त्वया धार्मिको रामो नित्यं सत्यपरायणः |
3879 | 2068010c | वनं प्रस्थापितो दुःखात्पिता च त्रिदिवं गतः |
3880 | 2068011a | यत्प्रधानासि तत्पापं मयि पित्रा विनाकृते |
3881 | 2068011c | भ्रातृभ्यां च परित्यक्ते सर्वलोकस्य चाप्रिये |
3882 | 2068012a | कौसल्यां धर्मसंयुक्तां वियुक्तां पापनिश्चये |
3883 | 2068012c | कृत्वा कं प्राप्स्यसे त्वद्य लोकं निरयगामिनी |
3884 | 2068013a | किं नावबुध्यसे क्रूरे नियतं बन्धुसंश्रयम् |
3885 | 2068013c | ज्येष्ठं पितृसमं रामं कौसल्यायात्मसंभवम् |
3886 | 2068014a | अङ्गप्रत्यङ्गजः पुत्रो हृदयाच्चापि जायते |
3887 | 2068014c | तस्मात्प्रियतरो मातुः प्रियत्वान्न तु बान्धवः |
3888 | 2068015a | अन्यदा किल धर्मज्ञा सुरभिः सुरसंमता |
3889 | 2068015c | वहमानौ ददर्शोर्व्यां पुत्रौ विगतचेतसौ |
3890 | 2068016a | तावर्धदिवसे श्रान्तौ दृष्ट्वा पुत्रौ महीतले |
3891 | 2068016c | रुरोद पुत्र शोकेन बाष्पपर्याकुलेक्षणा |
3892 | 2068017a | अधस्ताद्व्रजतस्तस्याः सुरराज्ञो महात्मनः |
3893 | 2068017c | बिन्दवः पतिता गात्रे सूक्ष्माः सुरभिगन्धिनः |
3894 | 2068018a | तां दृष्ट्वा शोकसंतप्तां वज्रपाणिर्यशस्विनीम् |
3895 | 2068018c | इन्द्रः प्राञ्जलिरुद्विग्नः सुरराजोऽब्रवीद्वचः |
3896 | 2068019a | भयं कच्चिन्न चास्मासु कुतश्चिद्विद्यते महत् |
3897 | 2068019c | कुतो निमित्तः शोकस्ते ब्रूहि सर्वहितैषिणि |
3898 | 2068020a | एवमुक्ता तु सुरभिः सुरराजेन धीमता |
3899 | 2068020c | पत्युवाच ततो धीरा वाक्यं वाक्यविशारदा |
3900 | 2068021a | शान्तं पातं न वः किंचित्कुतश्चिदमराधिप |
3901 | 2068021c | अहं तु मग्नौ शोचामि स्वपुत्रौ विषमे स्थितौ |
3902 | 2068022a | एतौ दृष्ट्वा कृषौ दीनौ सूर्यरश्मिप्रतापिनौ |
3903 | 2068022c | वध्यमानौ बलीवर्दौ कर्षकेण सुराधिप |
3904 | 2068023a | मम कायात्प्रसूतौ हि दुःखितौ भार पीडितौ |
3905 | 2068023c | यौ दृष्ट्वा परितप्येऽहं नास्ति पुत्रसमः प्रियः |
3906 | 2068024a | यस्याः पुत्र सहस्राणि सापि शोचति कामधुक् |
3907 | 2068024c | किं पुनर्या विना रामं कौसल्या वर्तयिष्यति |
3908 | 2068025a | एकपुत्रा च साध्वी च विवत्सेयं त्वया कृता |
3909 | 2068025c | तस्मात्त्वं सततं दुःखं प्रेत्य चेह च लप्स्यसे |
3910 | 2068026a | अहं ह्यपचितिं भ्रातुः पितुश्च सकलामिमाम् |
3911 | 2068026c | वर्धनं यशसश्चापि करिष्यामि न संशयः |
3912 | 2068027a | आनाययित्वा तनयं कौसल्याया महाद्युतिम् |
3913 | 2068027c | स्वयमेव प्रवेक्ष्यामि वनं मुनिनिषेवितम् |
3914 | 2068028a | इति नाग इवारण्ये तोमराङ्कुशचोदितः |
3915 | 2068028c | पपात भुवि संक्रुद्धो निःश्वसन्निव पन्नगः |
3916 | 2068029a | संरक्तनेत्रः शिथिलाम्बरस्तदा; विधूतसर्वाभरणः परंतपः |
3917 | 2068029c | बभूव भूमौ पतितो नृपात्मजः; शचीपतेः केतुरिवोत्सवक्षये |
3918 | 2069001a | तथैव क्रोशतस्तस्य भरतस्य महात्मनः |
3919 | 2069001c | कौसल्या शब्दमाज्ञाय सुमित्रामिदमब्रवीत् |
3920 | 2069002a | आगतः क्रूरकार्यायाः कैकेय्या भरतः सुतः |
3921 | 2069002c | तमहं द्रष्टुमिच्छामि भरतं दीर्घदर्शिनम् |
3922 | 2069003a | एवमुक्त्वा सुमित्रां सा विवर्णा मलिनाम्बरा |
3923 | 2069003c | प्रतस्थे भरतो यत्र वेपमाना विचेतना |
3924 | 2069004a | स तु रामानुजश्चापि शत्रुघ्नसहितस्तदा |
3925 | 2069004c | प्रतस्थे भरतो यत्र कौसल्याया निवेशनम् |
3926 | 2069005a | ततः शत्रुघ्न भरतौ कौसल्यां प्रेक्ष्य दुःखितौ |
3927 | 2069005c | पर्यष्वजेतां दुःखार्तां पतितां नष्टचेतनाम् |
3928 | 2069006a | भरतं प्रत्युवाचेदं कौसल्या भृशदुःखिता |
3929 | 2069006c | इदं ते राज्यकामस्य राज्यं प्राप्तमकण्टकम् |
3930 | 2069006e | संप्राप्तं बत कैकेय्या शीघ्रं क्रूरेण कर्मणा |
3931 | 2069007a | प्रस्थाप्य चीरवसनं पुत्रं मे वनवासिनम् |
3932 | 2069007c | कैकेयी कं गुणं तत्र पश्यति क्रूरदर्शिनी |
3933 | 2069008a | क्षिप्रं मामपि कैकेयी प्रस्थापयितुमर्हति |
3934 | 2069008c | हिरण्यनाभो यत्रास्ते सुतो मे सुमहायशाः |
3935 | 2069009a | अथ वा स्वयमेवाहं सुमित्रानुचरा सुखम् |
3936 | 2069009c | अग्निहोत्रं पुरस्कृत्य प्रस्थास्ये यत्र राघवः |
3937 | 2069010a | कामं वा स्वयमेवाद्य तत्र मां नेतुमर्हसि |
3938 | 2069010c | यत्रासौ पुरुषव्याघ्रस्तप्यते मे तपः सुतः |
3939 | 2069011a | इदं हि तव विस्तीर्णं धनधान्यसमाचितम् |
3940 | 2069011c | हस्त्यश्वरथसंपूर्णं राज्यं निर्यातितं तया |
3941 | 2069012a | एवं विलपमानां तां भरतः प्राञ्जलिस्तदा |
3942 | 2069012c | कौसल्यां प्रत्युवाचेदं शोकैर्बहुभिरावृताम् |
3943 | 2069013a | आर्ये कस्मादजानन्तं गर्हसे मामकिल्बिषम् |
3944 | 2069013c | विपुलां च मम प्रीतिं स्थिरां जानासि राघवे |
3945 | 2069014a | कृता शास्त्रानुगा बुद्धिर्मा भूत्तस्य कदाचन |
3946 | 2069014c | सत्यसंधः सतां श्रेष्ठो यस्यार्योऽनुमते गतः |
3947 | 2069015a | प्रैष्यं पापीयसां यातु सूर्यं च प्रति मेहतु |
3948 | 2069015c | हन्तु पादेन गां सुप्तां यस्यार्योऽनुमते गतः |
3949 | 2069016a | कारयित्वा महत्कर्म भर्ता भृत्यमनर्थकम् |
3950 | 2069016c | अधर्मो योऽस्य सोऽस्यास्तु यस्यार्योऽनुमते गतः |
3951 | 2069017a | परिपालयमानस्य राज्ञो भूतानि पुत्रवत् |
3952 | 2069017c | ततस्तु द्रुह्यतां पापं यस्यार्योऽनुमते गतः |
3953 | 2069018a | बलिषड्भागमुद्धृत्य नृपस्यारक्षतः प्रजाः |
3954 | 2069018c | अधर्मो योऽस्य सोऽस्यास्तु यस्यार्योऽनुमते गतः |
3955 | 2069019a | संश्रुत्य च तपस्विभ्यः सत्रे वै यज्ञदक्षिणाम् |
3956 | 2069019c | तां विप्रलपतां पापं यस्यार्योऽनुमते गतः |
3957 | 2069020a | हस्त्यश्वरथसंबाधे युद्धे शस्त्रसमाकुले |
3958 | 2069020c | मा स्म कार्षीत्सतां धर्मं यस्यार्योऽनुमते गतः |
3959 | 2069021a | उपदिष्टं सुसूक्ष्मार्थं शास्त्रं यत्नेन धीमता |
3960 | 2069021c | स नाशयतु दुष्टात्मा यस्यार्योऽनुमते गतः |
3961 | 2069022a | पायसं कृसरं छागं वृथा सोऽश्नातु निर्घृणः |
3962 | 2069022c | गुरूंश्चाप्यवजानातु यस्यार्योऽनुमते गतः |
3963 | 2069023a | पुत्रैर्दारैश्च भृत्यैश्च स्वगृहे परिवारितः |
3964 | 2069023c | स एको मृष्टमश्नातु यस्यार्योऽनुमते गतः |
3965 | 2069024a | राजस्त्रीबालवृद्धानां वधे यत्पापमुच्यते |
3966 | 2069024c | भृत्यत्यागे च यत्पापं तत्पापं प्रतिपद्यताम् |
3967 | 2069025a | उभे संध्ये शयानस्य यत्पापं परिकल्प्यते |
3968 | 2069025c | तच्च पापं भवेत्तस्य यस्यार्योऽनुमते गतः |
3969 | 2069026a | यदग्निदायके पापं यत्पापं गुरुतल्पगे |
3970 | 2069026c | मित्रद्रोहे च यत्पापं तत्पापं प्रतिपद्यताम् |
3971 | 2069027a | देवतानां पितॄणां च माता पित्रोस्तथैव च |
3972 | 2069027c | मा स्म कार्षीत्स शुश्रूषां यस्यार्योऽनुमते गतः |
3973 | 2069028a | सतां लोकात्सतां कीर्त्याः सज्जुष्टात्कर्मणस्तथा |
3974 | 2069028c | भ्रश्यतु क्षिप्रमद्यैव यस्यार्योऽनुमते गतः |
3975 | 2069029a | विहीनां पतिपुत्राभ्यां कौसल्यां पार्थिवात्मजः |
3976 | 2069029c | एवमाश्वसयन्नेव दुःखार्तो निपपात ह |
3977 | 2069030a | तथा तु शपथैः कष्टैः शपमानमचेतनम् |
3978 | 2069030c | भरतं शोकसंतप्तं कौसल्या वाक्यमब्रवीत् |
3979 | 2069031a | मम दुःखमिदं पुत्र भूयः समुपजायते |
3980 | 2069031c | शपथैः शपमानो हि प्राणानुपरुणत्सि मे |
3981 | 2069032a | दिष्ट्या न चलितो धर्मादात्मा ते सहलक्ष्मणः |
3982 | 2069032c | वत्स सत्यप्रतिज्ञो मे सतां लोकानवाप्स्यसि |
3983 | 2069033a | एवं विलपमानस्य दुःखार्तस्य महात्मनः |
3984 | 2069033c | मोहाच्च शोकसंरोधाद्बभूव लुलितं मनः |
3985 | 2069034a | लालप्यमानस्य विचेतनस्य; प्रनष्टबुद्धेः पतितस्य भूमौ |
3986 | 2069034c | मुहुर्मुहुर्निःश्वसतश्च दीर्घं; सा तस्य शोकेन जगाम रात्रिः |
3987 | 2070001a | तमेवं शोकसंतप्तं भरतं केकयीसुतम् |
3988 | 2070001c | उवाच वदतां श्रेष्ठो वसिष्ठः श्रेष्ठवागृषिः |
3989 | 2070002a | अलं शोकेन भद्रं ते राजपुत्र महायशः |
3990 | 2070002c | प्राप्तकालं नरपतेः कुरु संयानमुत्तरम् |
3991 | 2070003a | वसिष्ठस्य वचः श्रुत्वा भरतो धारणां गतः |
3992 | 2070003c | प्रेतकार्याणि सर्वाणि कारयामास धर्मवित् |
3993 | 2070004a | उद्धृतं तैलसंक्लेदात्स तु भूमौ निवेशितम् |
3994 | 2070004c | आपीतवर्णवदनं प्रसुप्तमिव भूमिपम् |
3995 | 2070005a | निवेश्य शयने चाग्र्ये नानारत्नपरिष्कृते |
3996 | 2070005c | ततो दशरथं पुत्रो विललाप सुदुःखितः |
3997 | 2070006a | किं ते व्यवसितं राजन्प्रोषिते मय्यनागते |
3998 | 2070006c | विवास्य रामं धर्मज्ञं लक्ष्मणं च महाबलम् |
3999 | 2070007a | क्व यास्यसि महाराज हित्वेमं दुःखितं जनम् |
4000 | 2070007c | हीनं पुरुषसिंहेन रामेणाक्लिष्टकर्मणा |
4001 | 2070008a | योगक्षेमं तु ते राजन्कोऽस्मिन्कल्पयिता पुरे |
4002 | 2070008c | त्वयि प्रयाते स्वस्तात रामे च वनमाश्रिते |
4003 | 2070009a | विधवा पृथिवी राजंस्त्वया हीना न राजते |
4004 | 2070009c | हीनचन्द्रेव रजनी नगरी प्रतिभाति माम् |
4005 | 2070010a | एवं विलपमानं तं भरतं दीनमानसं |
4006 | 2070010c | अब्रवीद्वचनं भूयो वसिष्ठस्तु महानृषिः |
4007 | 2070011a | प्रेतकार्याणि यान्यस्य कर्तव्यानि विशाम्पतेः |
4008 | 2070011c | तान्यव्यग्रं महाबाहो क्रियतामविचारितम् |
4009 | 2070012a | तथेति भरतो वाक्यं वसिष्ठस्याभिपूज्य तत् |
4010 | 2070012c | ऋत्विक्पुरोहिताचार्यांस्त्वरयामास सर्वशः |
4011 | 2070013a | ये त्वग्रतो नरेन्द्रस्य अग्न्यगाराद्बहिष्कृताः |
4012 | 2070013c | ऋत्विग्भिर्याजकैश्चैव ते ह्रियन्ते यथाविधि |
4013 | 2070014a | शिबिलायामथारोप्य राजानं गतचेतनम् |
4014 | 2070014c | बाष्पकण्ठा विमनसस्तमूहुः परिचारकाः |
4015 | 2070015a | हिरण्यं च सुवर्णं च वासांसि विविधानि च |
4016 | 2070015c | प्रकिरन्तो जना मार्गं नृपतेरग्रतो ययुः |
4017 | 2070016a | चन्दनागुरुनिर्यासान्सरलं पद्मकं तथा |
4018 | 2070016c | देवदारूणि चाहृत्य चितां चक्रुस्तथापरे |
4019 | 2070017a | गन्धानुच्चावचांश्चान्यांस्तत्र दत्त्वाथ भूमिपम् |
4020 | 2070017c | ततः संवेशयामासुश्चितामध्ये तमृत्विजः |
4021 | 2070018a | तथा हुताशनं हुत्वा जेपुस्तस्य तदर्त्विजः |
4022 | 2070018c | जगुश्च ते यथाशास्त्रं तत्र सामानि सामगाः |
4023 | 2070019a | शिबिकाभिश्च यानैश्च यथार्हं तस्य योषितः |
4024 | 2070019c | नगरान्निर्ययुस्तत्र वृद्धैः परिवृतास्तदा |
4025 | 2070020a | प्रसव्यं चापि तं चक्रुरृत्विजोऽग्निचितं नृपम् |
4026 | 2070020c | स्त्रियश्च शोकसंतप्ताः कौसल्या प्रमुखास्तदा |
4027 | 2070021a | क्रौञ्चीनामिव नारीणां निनादस्तत्र शुश्रुवे |
4028 | 2070021c | आर्तानां करुणं काले क्रोशन्तीनां सहस्रशः |
4029 | 2070022a | ततो रुदन्त्यो विवशा विलप्य च पुनः पुनः |
4030 | 2070022c | यानेभ्यः सरयूतीरमवतेरुर्वराङ्गनाः |
4031 | 2070023a | कृतोदकं ते भरतेन सार्धं; नृपाङ्गना मन्त्रिपुरोहिताश्च |
4032 | 2070023c | पुरं प्रविश्याश्रुपरीतनेत्रा; भूमौ दशाहं व्यनयन्त दुःखम् |
4033 | 2071001a | ततो दशाहेऽतिगते कृतशौचो नृपात्मजः |
4034 | 2071001c | द्वादशेऽहनि संप्राप्ते श्राद्धकर्माण्यकारयत् |
4035 | 2071002a | ब्राह्मणेभ्यो ददौ रत्नं धनमन्नं च पुष्कलम् |
4036 | 2071002c | बास्तिकं बहुशुक्लं च गाश्चापि शतशस्तथा |
4037 | 2071003a | दासीदासं च यानं च वेश्मानि सुमहान्ति च |
4038 | 2071003c | ब्राह्मणेभ्यो ददौ पुत्रो राज्ञस्तस्यौर्ध्वदैहिकम् |
4039 | 2071004a | ततः प्रभातसमये दिवसेऽथ त्रयोदशे |
4040 | 2071004c | विललाप महाबाहुर्भरतः शोकमूर्छितः |
4041 | 2071005a | शब्दापिहितकण्ठश्च शोधनार्थमुपागतः |
4042 | 2071005c | चितामूले पितुर्वाक्यमिदमाह सुदुःखितः |
4043 | 2071006a | तात यस्मिन्निषृष्टोऽहं त्वया भ्रातरि राघवे |
4044 | 2071006c | तस्मिन्वनं प्रव्रजिते शून्ये त्यक्तोऽस्म्यहं त्वया |
4045 | 2071007a | यथागतिरनाथायाः पुत्रः प्रव्राजितो वनम् |
4046 | 2071007c | तामम्बां तात कौसल्यां त्यक्त्वा त्वं क्व गतो नृप |
4047 | 2071008a | दृष्ट्वा भस्मारुणं तच्च दग्धास्थिस्थानमण्डलम् |
4048 | 2071008c | पितुः शरीर निर्वाणं निष्टनन्विषसाद ह |
4049 | 2071009a | स तु दृष्ट्वा रुदन्दीनः पपात धरणीतले |
4050 | 2071009c | उत्थाप्यमानः शक्रस्य यन्त्र ध्वज इव च्युतः |
4051 | 2071010a | अभिपेतुस्ततः सर्वे तस्यामात्याः शुचिव्रतम् |
4052 | 2071010c | अन्तकाले निपतितं ययातिमृषयो यथा |
4053 | 2071011a | शत्रुघ्नश्चापि भरतं दृष्ट्वा शोकपरिप्लुतम् |
4054 | 2071011c | विसंज्ञो न्यपतद्भूमौ भूमिपालमनुस्मरन् |
4055 | 2071012a | उन्मत्त इव निश्चेता विललाप सुदुःखितः |
4056 | 2071012c | स्मृत्वा पितुर्गुणाङ्गानि तानि तानि तदा तदा |
4057 | 2071013a | मन्थरा प्रभवस्तीव्रः कैकेयीग्राहसंकुलः |
4058 | 2071013c | वरदानमयोऽक्षोभ्योऽमज्जयच्छोकसागरः |
4059 | 2071014a | सुकुमारं च बालं च सततं लालितं त्वया |
4060 | 2071014c | क्व तात भरतं हित्वा विलपन्तं गतो भवान् |
4061 | 2071015a | ननु भोज्येषु पानेषु वस्त्रेष्वाभरणेषु च |
4062 | 2071015c | प्रवारयसि नः सर्वांस्तन्नः कोऽद्य करिष्यति |
4063 | 2071016a | अवदारण काले तु पृथिवी नावदीर्यते |
4064 | 2071016c | विहीना या त्वया राज्ञा धर्मज्ञेन महात्मना |
4065 | 2071017a | पितरि स्वर्गमापन्ने रामे चारण्यमाश्रिते |
4066 | 2071017c | किं मे जीवित सामर्थ्यं प्रवेक्ष्यामि हुताशनम् |
4067 | 2071018a | हीनो भ्रात्रा च पित्रा च शून्यामिक्ष्वाकुपालिताम् |
4068 | 2071018c | अयोध्यां न प्रवेक्ष्यामि प्रवेक्ष्यामि तपोवनम् |
4069 | 2071019a | तयोर्विलपितं श्रुत्वा व्यसनं चान्ववेक्ष्य तत् |
4070 | 2071019c | भृशमार्ततरा भूयः सर्व एवानुगामिनः |
4071 | 2071020a | ततो विषण्णौ श्रान्तौ च शत्रुघ्न भरतावुभौ |
4072 | 2071020c | धरण्यां संव्यचेष्टेतां भग्नशृङ्गाविवर्षभौ |
4073 | 2071021a | ततः प्रकृतिमान्वैद्यः पितुरेषां पुरोहितः |
4074 | 2071021c | वसिष्ठो भरतं वाक्यमुत्थाप्य तमुवाच ह |
4075 | 2071022a | त्रीणि द्वन्द्वानि भूतेषु प्रवृत्तान्यविशेषतः |
4076 | 2071022c | तेषु चापरिहार्येषु नैवं भवितुमर्हति |
4077 | 2071023a | सुमन्त्रश्चापि शत्रुघ्नमुत्थाप्याभिप्रसाद्य च |
4078 | 2071023c | श्रावयामास तत्त्वज्ञः सर्वभूतभवाभवौ |
4079 | 2071024a | उत्थितौ तौ नरव्याघ्रौ प्रकाशेते यशस्विनौ |
4080 | 2071024c | वर्षातपपरिक्लिन्नौ पृथगिन्द्रध्वजाविव |
4081 | 2071025a | अश्रूणि परिमृद्नन्तौ रक्ताक्षौ दीनभाषिणौ |
4082 | 2071025c | अमात्यास्त्वरयन्ति स्म तनयौ चापराः क्रियाः |
4083 | 2072001a | अत्र यात्रां समीहन्तं शत्रुघ्नो लक्ष्मणानुजः |
4084 | 2072001c | भरतं शोकसंतप्तमिदं वचनमब्रवीत् |
4085 | 2072002a | गतिर्यः सर्वभूतानां दुःखे किं पुनरात्मनः |
4086 | 2072002c | स रामः सत्त्व संपन्नः स्त्रिया प्रव्राजितो वनम् |
4087 | 2072003a | बलवान्वीर्य संपन्नो लक्ष्मणो नाम योऽप्यसौ |
4088 | 2072003c | किं न मोचयते रामं कृत्वापि पितृनिग्रहम् |
4089 | 2072004a | पूर्वमेव तु निग्राह्यः समवेक्ष्य नयानयौ |
4090 | 2072004c | उत्पथं यः समारूढो नार्या राजा वशं गतः |
4091 | 2072005a | इति संभाषमाणे तु शत्रुघ्ने लक्ष्मणानुजे |
4092 | 2072005c | प्राग्द्वारेऽभूत्तदा कुब्जा सर्वाभरणभूषिता |
4093 | 2072006a | लिप्ता चन्दनसारेण राजवस्त्राणि बिभ्रती |
4094 | 2072006c | मेखला दामभिश्चित्रै रज्जुबद्धेव वानरी |
4095 | 2072007a | तां समीक्ष्य तदा द्वाःस्थो भृशं पापस्य कारिणीम् |
4096 | 2072007c | गृहीत्वाकरुणं कुब्जां शत्रुघ्नाय न्यवेदयत् |
4097 | 2072008a | यस्याः कृते वने रामो न्यस्तदेहश्च वः पिता |
4098 | 2072008c | सेयं पापा नृशंसा च तस्याः कुरु यथामति |
4099 | 2072009a | शत्रुघ्नश्च तदाज्ञाय वचनं भृशदुःखितः |
4100 | 2072009c | अन्तःपुरचरान्सर्वानित्युवाच धृतव्रतः |
4101 | 2072010a | तीव्रमुत्पादितं दुःखं भ्रातॄणां मे तथा पितुः |
4102 | 2072010c | यया सेयं नृशंसस्य कर्मणः फलमश्नुताम् |
4103 | 2072011a | एवमुक्ता च तेनाशु सखी जनसमावृता |
4104 | 2072011c | गृहीता बलवत्कुब्जा सा तद्गृहमनादयत् |
4105 | 2072012a | ततः सुभृश संतप्तस्तस्याः सर्वः सखीजनः |
4106 | 2072012c | क्रुद्धमाज्ञाय शत्रुघ्नं व्यपलायत सर्वशः |
4107 | 2072013a | अमन्त्रयत कृत्स्नश्च तस्याः सर्वसखीजनः |
4108 | 2072013c | यथायं समुपक्रान्तो निःशेषं नः करिष्यति |
4109 | 2072014a | सानुक्रोशां वदान्यां च धर्मज्ञां च यशस्विनीम् |
4110 | 2072014c | कौसल्यां शरणं यामः सा हि नोऽस्तु ध्रुवा गतिः |
4111 | 2072015a | स च रोषेण ताम्राक्षः शत्रुघ्नः शत्रुतापनः |
4112 | 2072015c | विचकर्ष तदा कुब्जां क्रोशन्तीं पृथिवीतले |
4113 | 2072016a | तस्या ह्याकृष्यमाणाया मन्थरायास्ततस्ततः |
4114 | 2072016c | चित्रं बहुविधं भाण्डं पृथिव्यां तद्व्यशीर्यत |
4115 | 2072017a | तेन भाण्डेन संकीर्णं श्रीमद्राजनिवेशनम् |
4116 | 2072017c | अशोभत तदा भूयः शारदं गगनं यथा |
4117 | 2072018a | स बली बलवत्क्रोधाद्गृहीत्वा पुरुषर्षभः |
4118 | 2072018c | कैकेयीमभिनिर्भर्त्स्य बभाषे परुषं वचः |
4119 | 2072019a | तैर्वाक्यैः परुषैर्दुःखैः कैकेयी भृशदुःखिता |
4120 | 2072019c | शत्रुघ्न भयसंत्रस्ता पुत्रं शरणमागता |
4121 | 2072020a | तां प्रेक्ष्य भरतः क्रुद्धं शत्रुघ्नमिदमब्रवीत् |
4122 | 2072020c | अवध्याः सर्वभूतानां प्रमदाः क्षम्यतामिति |
4123 | 2072021a | हन्यामहमिमां पापां कैकेयीं दुष्टचारिणीम् |
4124 | 2072021c | यदि मां धार्मिको रामो नासूयेन्मातृघातकम् |
4125 | 2072022a | इमामपि हतां कुब्जां यदि जानाति राघवः |
4126 | 2072022c | त्वां च मां चैव धर्मात्मा नाभिभाषिष्यते ध्रुवम् |
4127 | 2072023a | भरतस्य वचः श्रुत्वा शत्रुघ्नो लक्ष्मणानुजः |
4128 | 2072023c | न्यवर्तत ततो रोषात्तां मुमोच च मन्थराम् |
4129 | 2072024a | सा पादमूले कैकेय्या मन्थरा निपपात ह |
4130 | 2072024c | निःश्वसन्ती सुदुःखार्ता कृपणं विललाप च |
4131 | 2072025a | शत्रुघ्नविक्षेपविमूढसंज्ञां; समीक्ष्य कुब्जां भरतस्य माता |
4132 | 2072025c | शनैः समाश्वासयदार्तरूपां; क्रौञ्चीं विलग्नामिव वीक्षमाणाम् |
4133 | 2073001a | ततः प्रभातसमये दिवसेऽथ चतुर्दशे |
4134 | 2073001c | समेत्य राजकर्तारो भरतं वाक्यमब्रुवन् |
4135 | 2073002a | गतो दशरथः स्वर्गं यो नो गुरुतरो गुरुः |
4136 | 2073002c | रामं प्रव्राज्य वै ज्येष्ठं लक्ष्मणं च महाबलम् |
4137 | 2073003a | त्वमद्य भव नो राजा राजपुत्र महायशः |
4138 | 2073003c | संगत्या नापराध्नोति राज्यमेतदनायकम् |
4139 | 2073004a | आभिषेचनिकं सर्वमिदमादाय राघव |
4140 | 2073004c | प्रतीक्षते त्वां स्वजनः श्रेणयश्च नृपात्मज |
4141 | 2073005a | राज्यं गृहाण भरत पितृपैतामहं महत् |
4142 | 2073005c | अभिषेचय चात्मानं पाहि चास्मान्नरर्षभ |
4143 | 2073006a | आभिषेचनिकं भाण्डं कृत्वा सर्वं प्रदक्षिणम् |
4144 | 2073006c | भरतस्तं जनं सर्वं प्रत्युवाच धृतव्रतः |
4145 | 2073007a | ज्येष्ठस्य राजता नित्यमुचिता हि कुलस्य नः |
4146 | 2073007c | नैवं भवन्तो मां वक्तुमर्हन्ति कुशला जनाः |
4147 | 2073008a | रामः पूर्वो हि नो भ्राता भविष्यति महीपतिः |
4148 | 2073008c | अहं त्वरण्ये वत्स्यामि वर्षाणि नव पञ्च च |
4149 | 2073009a | युज्यतां महती सेना चतुरङ्गमहाबला |
4150 | 2073009c | आनयिष्याम्यहं ज्येष्ठं भ्रातरं राघवं वनात् |
4151 | 2073010a | आभिषेचनिकं चैव सर्वमेतदुपस्कृतम् |
4152 | 2073010c | पुरस्कृत्य गमिष्यामि रामहेतोर्वनं प्रति |
4153 | 2073011a | तत्रैव तं नरव्याघ्रमभिषिच्य पुरस्कृतम् |
4154 | 2073011c | आनेष्यामि तु वै रामं हव्यवाहमिवाध्वरात् |
4155 | 2073012a | न सकामा करिष्यामि स्वमिमां मातृगन्धिनीम् |
4156 | 2073012c | वने वत्स्याम्यहं दुर्गे रामो राजा भविष्यति |
4157 | 2073013a | क्रियतां शिल्पिभिः पन्थाः समानि विषमाणि च |
4158 | 2073013c | रक्षिणश्चानुसंयान्तु पथि दुर्गविचारकाः |
4159 | 2073014a | एवं संभाषमाणं तं रामहेतोर्नृपात्मजम् |
4160 | 2073014c | प्रत्युवाच जनः सर्वः श्रीमद्वाक्यमनुत्तमम् |
4161 | 2073015a | एवं ते भाषमाणस्य पद्मा श्रीरुपतिष्ठताम् |
4162 | 2073015c | यस्त्वं ज्येष्ठे नृपसुते पृथिवीं दातुमिच्छसि |
4163 | 2073016a | अनुत्तमं तद्वचनं नृपात्मज; प्रभाषितं संश्रवणे निशम्य च |
4164 | 2073016c | प्रहर्षजास्तं प्रति बाष्पबिन्दवो; निपेतुरार्यानननेत्रसंभवाः |
4165 | 2073017a | ऊचुस्ते वचनमिदं निशम्य हृष्टाः; सामात्याः सपरिषदो वियातशोकाः |
4166 | 2073017c | पन्थानं नरवरभक्तिमाञ्जनश्च; व्यादिष्टस्तव वचनाच्च शिल्पिवर्गः |
4167 | 2074001a | अथ भूमिप्रदेशज्ञाः सूत्रकर्मविशारदाः |
4168 | 2074001c | स्वकर्माभिरताः शूराः खनका यन्त्रकास्तथा |
4169 | 2074002a | कर्मान्तिकाः स्थपतयः पुरुषा यन्त्रकोविदाः |
4170 | 2074002c | तथा वर्धकयश्चैव मार्गिणो वृक्षतक्षकाः |
4171 | 2074003a | कूपकाराः सुधाकारा वंशकर्मकृतस्तथा |
4172 | 2074003c | समर्था ये च द्रष्टारः पुरतस्ते प्रतस्थिरे |
4173 | 2074004a | स तु हर्षात्तमुद्देशं जनौघो विपुलः प्रयान् |
4174 | 2074004c | अशोभत महावेगः सागरस्येव पर्वणि |
4175 | 2074005a | ते स्ववारं समास्थाय वर्त्मकर्माणि कोविदाः |
4176 | 2074005c | करणैर्विविधोपेतैः पुरस्तात्संप्रतस्थिरे |
4177 | 2074006a | लतावल्लीश्च गुल्मांश्च स्थाणूनश्मन एव च |
4178 | 2074006c | जनास्ते चक्रिरे मार्गं छिन्दन्तो विविधान्द्रुमान् |
4179 | 2074007a | अवृक्षेषु च देशेषु केचिद्वृक्षानरोपयन् |
4180 | 2074007c | केचित्कुठारैष्टङ्कैश्च दात्रैश्छिन्दन्क्वचित्क्वचित् |
4181 | 2074008a | अपरे वीरणस्तम्बान्बलिनो बलवत्तराः |
4182 | 2074008c | विधमन्ति स्म दुर्गाणि स्थलानि च ततस्ततः |
4183 | 2074009a | अपरेऽपूरयन्कूपान्पांसुभिः श्वभ्रमायतम् |
4184 | 2074009c | निम्नभागांस्तथा केचित्समांश्चक्रुः समन्ततः |
4185 | 2074010a | बबन्धुर्बन्धनीयांश्च क्षोद्यान्संचुक्षुदुस्तदा |
4186 | 2074010c | बिभिदुर्भेदनीयांश्च तांस्तान्देशान्नरास्तदा |
4187 | 2074011a | अचिरेणैव कालेन परिवाहान्बहूदकान् |
4188 | 2074011c | चक्रुर्बहुविधाकारान्सागरप्रतिमान्बहून् |
4189 | 2074011e | उदपानान्बहुविधान्वेदिका परिमण्डितान् |
4190 | 2074012a | ससुधाकुट्टिमतलः प्रपुष्पितमहीरुहः |
4191 | 2074012c | मत्तोद्घुष्टद्विजगणः पताकाभिरलंकृतः |
4192 | 2074013a | चन्दनोदकसंसिक्तो नानाकुसुमभूषितः |
4193 | 2074013c | बह्वशोभत सेनायाः पन्थाः स्वर्गपथोपमः |
4194 | 2074014a | आज्ञाप्याथ यथाज्ञप्ति युक्तास्तेऽधिकृता नराः |
4195 | 2074014c | रमणीयेषु देशेषु बहुस्वादुफलेषु च |
4196 | 2074015a | यो निवेशस्त्वभिप्रेतो भरतस्य महात्मनः |
4197 | 2074015c | भूयस्तं शोभयामासुर्भूषाभिर्भूषणोपमम् |
4198 | 2074016a | नक्षत्रेषु प्रशस्तेषु मुहूर्तेषु च तद्विदः |
4199 | 2074016c | निवेशं स्थापयामासुर्भरतस्य महात्मनः |
4200 | 2074017a | बहुपांसुचयाश्चापि परिखापरिवारिताः |
4201 | 2074017c | तत्रेन्द्रकीलप्रतिमाः प्रतोलीवरशोभिताः |
4202 | 2074018a | प्रासादमालासंयुक्ताः सौधप्राकारसंवृताः |
4203 | 2074018c | पताका शोभिताः सर्वे सुनिर्मितमहापथाः |
4204 | 2074019a | विसर्पत्भिरिवाकाशे विटङ्काग्रविमानकैः |
4205 | 2074019c | समुच्छ्रितैर्निवेशास्ते बभुः शक्रपुरोपमाः |
4206 | 2074020a | जाह्नवीं तु समासाद्य विविधद्रुम काननाम् |
4207 | 2074020c | शीतलामलपानीयां महामीनसमाकुलाम् |
4208 | 2074021a | सचन्द्रतारागणमण्डितं यथा; नभःक्षपायाममलं विराजते |
4209 | 2074021c | नरेन्द्रमार्गः स तथा व्यराजत; क्रमेण रम्यः शुभशिल्पिनिर्मितः |
4210 | 2075001a | ततो नान्दीमुखीं रात्रिं भरतं सूतमागधाः |
4211 | 2075001c | तुष्टुवुर्वाग्विशेषज्ञाः स्तवैर्मङ्गलसंहितैः |
4212 | 2075002a | सुवर्णकोणाभिहतः प्राणदद्यामदुन्दुभिः |
4213 | 2075002c | दध्मुः शङ्खांश्च शतशो वाद्यांश्चोच्चावचस्वरान् |
4214 | 2075003a | स तूर्य घोषः सुमहान्दिवमापूरयन्निव |
4215 | 2075003c | भरतं शोकसंतप्तं भूयः शोकैररन्ध्रयत् |
4216 | 2075004a | ततो प्रबुद्धो भरतस्तं घोषं संनिवर्त्य च |
4217 | 2075004c | नाहं राजेति चाप्युक्त्वा शत्रुघ्नमिदमब्रवीत् |
4218 | 2075005a | पश्य शत्रुघ्न कैकेय्या लोकस्यापकृतं महत् |
4219 | 2075005c | विसृज्य मयि दुःखानि राजा दशरथो गतः |
4220 | 2075006a | तस्यैषा धर्मराजस्य धर्ममूला महात्मनः |
4221 | 2075006c | परिभ्रमति राजश्रीर्नौरिवाकर्णिका जले |
4222 | 2075007a | इत्येवं भरतं प्रेक्ष्य विलपन्तं विचेतनम् |
4223 | 2075007c | कृपणं रुरुदुः सर्वाः सस्वरं योषितस्तदा |
4224 | 2075008a | तथा तस्मिन्विलपति वसिष्ठो राजधर्मवित् |
4225 | 2075008c | सभामिक्ष्वाकुनाथस्य प्रविवेश महायशाः |
4226 | 2075009a | शात कुम्भमयीं रम्यां मणिरत्नसमाकुलाम् |
4227 | 2075009c | सुधर्मामिव धर्मात्मा सगणः प्रत्यपद्यत |
4228 | 2075010a | स काञ्चनमयं पीठं परार्ध्यास्तरणावृतम् |
4229 | 2075010c | अध्यास्त सर्ववेदज्ञो दूताननुशशास च |
4230 | 2075011a | ब्राह्मणान्क्षत्रियान्योधानमात्यान्गणबल्लभान् |
4231 | 2075011c | क्षिप्रमानयताव्यग्राः कृत्यमात्ययिकं हि नः |
4232 | 2075012a | ततो हलहलाशब्दो महान्समुदपद्यत |
4233 | 2075012c | रथैरश्वैर्गजैश्चापि जनानामुपगच्छताम् |
4234 | 2075013a | ततो भरतमायान्तं शतक्रतुमिवामराः |
4235 | 2075013c | प्रत्यनन्दन्प्रकृतयो यथा दशरथं तथा |
4236 | 2075014a | ह्रद इव तिमिनागसंवृतः; स्तिमितजलो मणिशङ्खशर्करः |
4237 | 2075014c | दशरथसुतशोभिता सभा; सदशरथेव बभौ यथा पुरा |
4238 | 2076001a | तामार्यगणसंपूर्णां भरतः प्रग्रहां सभाम् |
4239 | 2076001c | ददर्श बुद्धिसंपन्नः पूर्णचन्द्रां निशामिव |
4240 | 2076002a | आसनानि यथान्यायमार्याणां विशतां तदा |
4241 | 2076002c | अदृश्यत घनापाये पूर्णचन्द्रेव शर्वरी |
4242 | 2076003a | राज्ञस्तु प्रकृतीः सर्वाः समग्राः प्रेक्ष्य धर्मवित् |
4243 | 2076003c | इदं पुरोहितो वाक्यं भरतं मृदु चाब्रवीत् |
4244 | 2076004a | तात राजा दशरथः स्वर्गतो धर्ममाचरन् |
4245 | 2076004c | धन धान्यवतीं स्फीतां प्रदाय पृथिवीं तव |
4246 | 2076005a | रामस्तथा सत्यधृतिः सतां धर्ममनुस्मरन् |
4247 | 2076005c | नाजहात्पितुरादेशं शशी ज्योत्स्नामिवोदितः |
4248 | 2076006a | पित्रा भ्रात्रा च ते दत्तं राज्यं निहतकण्टकम् |
4249 | 2076006c | तद्भुङ्क्ष्व मुदितामात्यः क्षिप्रमेवाभिषेचय |
4250 | 2076007a | उदीच्याश्च प्रतीच्याश्च दाक्षिणात्याश्च केवलाः |
4251 | 2076007c | कोट्यापरान्ताः सामुद्रा रत्नान्यभिहरन्तु ते |
4252 | 2076008a | तच्छ्रुत्वा भरतो वाक्यं शोकेनाभिपरिप्लुतः |
4253 | 2076008c | जगाम मनसा रामं धर्मज्ञो धर्मकाङ्क्षया |
4254 | 2076009a | स बाष्पकलया वाचा कलहंसस्वरो युवा |
4255 | 2076009c | विललाप सभामध्ये जगर्हे च पुरोहितम् |
4256 | 2076010a | चरितब्रह्मचर्यस्य विद्या स्नातस्य धीमतः |
4257 | 2076010c | धर्मे प्रयतमानस्य को राज्यं मद्विधो हरेत् |
4258 | 2076011a | कथं दशरथाज्जातो भवेद्राज्यापहारकः |
4259 | 2076011c | राज्यं चाहं च रामस्य धर्मं वक्तुमिहार्हसि |
4260 | 2076012a | ज्येष्ठः श्रेष्ठश्च धर्मात्मा दिलीपनहुषोपमः |
4261 | 2076012c | लब्धुमर्हति काकुत्स्थो राज्यं दशरथो यथा |
4262 | 2076013a | अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यं कुर्यां पापमहं यदि |
4263 | 2076013c | इक्ष्वाकूणामहं लोके भवेयं कुलपांसनः |
4264 | 2076014a | यद्धि मात्रा कृतं पापं नाहं तदभिरोचये |
4265 | 2076014c | इहस्थो वनदुर्गस्थं नमस्यामि कृताञ्जलिः |
4266 | 2076015a | राममेवानुगच्छामि स राजा द्विपदां वरः |
4267 | 2076015c | त्रयाणामपि लोकानां राघवो राज्यमर्हति |
4268 | 2076016a | तद्वाक्यं धर्मसंयुक्तं श्रुत्वा सर्वे सभासदः |
4269 | 2076016c | हर्षान्मुमुचुरश्रूणि रामे निहितचेतसः |
4270 | 2076017a | यदि त्वार्यं न शक्ष्यामि विनिवर्तयितुं वनात् |
4271 | 2076017c | वने तत्रैव वत्स्यामि यथार्यो लक्ष्मणस्तथा |
4272 | 2076018a | सर्वोपायं तु वर्तिष्ये विनिवर्तयितुं बलात् |
4273 | 2076018c | समक्षमार्य मिश्राणां साधूनां गुणवर्तिनाम् |
4274 | 2076019a | एवमुक्त्वा तु धर्मात्मा भरतो भ्रातृवत्सलः |
4275 | 2076019c | समीपस्थमुवाचेदं सुमन्त्रं मन्त्रकोविदम् |
4276 | 2076020a | तूर्णमुत्थाय गच्छ त्वं सुमन्त्र मम शासनात् |
4277 | 2076020c | यात्रामाज्ञापय क्षिप्रं बलं चैव समानय |
4278 | 2076021a | एवमुक्तः सुमन्त्रस्तु भरतेन महात्मना |
4279 | 2076021c | प्रहृष्टः सोऽदिशत्सर्वं यथा संदिष्टमिष्टवत् |
4280 | 2076022a | ताः प्रहृष्टाः प्रकृतयो बलाध्यक्षा बलस्य च |
4281 | 2076022c | श्रुत्वा यात्रां समाज्ञप्तां राघवस्य निवर्तने |
4282 | 2076023a | ततो योधाङ्गनाः सर्वा भर्तॄन्सर्वान्गृहेगृहे |
4283 | 2076023c | यात्रा गमनमाज्ञाय त्वरयन्ति स्म हर्षिताः |
4284 | 2076024a | ते हयैर्गोरथैः शीघ्रैः स्यन्दनैश्च मनोजवैः |
4285 | 2076024c | सह योधैर्बलाध्यक्षा बलं सर्वमचोदयन् |
4286 | 2076025a | सज्जं तु तद्बलं दृष्ट्वा भरतो गुरुसंनिधौ |
4287 | 2076025c | रथं मे त्वरयस्वेति सुमन्त्रं पार्श्वतोऽब्रवीत् |
4288 | 2076026a | भरतस्य तु तस्याज्ञां प्रतिगृह्य प्रहर्षितः |
4289 | 2076026c | रथं गृहीत्वा प्रययौ युक्तं परमवाजिभिः |
4290 | 2076027a | स राघवः सत्यधृतिः प्रतापवा;न्ब्रुवन्सुयुक्तं दृढसत्यविक्रमः |
4291 | 2076027c | गुरुं महारण्यगतं यशस्विनं; प्रसादयिष्यन्भरतोऽब्रवीत्तदा |
4292 | 2076028a | तूण समुत्थाय सुमन्त्र गच्छ; बलस्य योगाय बलप्रधानान् |
4293 | 2076028c | आनेतुमिच्छामि हि तं वनस्थं; प्रसाद्य रामं जगतो हिताय |
4294 | 2076029a | स सूतपुत्रो भरतेन सम्य;गाज्ञापितः संपरिपूर्णकामः |
4295 | 2076029c | शशास सर्वान्प्रकृतिप्रधाना;न्बलस्य मुख्यांश्च सुहृज्जनं च |
4296 | 2076030a | ततः समुत्थाय कुले कुले ते; राजन्यवैश्या वृषलाश्च विप्राः |
4297 | 2076030c | अयूयुजन्नुष्ट्ररथान्खरांश्च; नागान्हयांश्चैव कुलप्रसूतान् |
4298 | 2077001a | ततः समुत्थितः काल्यमास्थाय स्यन्दनोत्तमम् |
4299 | 2077001c | प्रययौ भरतः शीघ्रं रामदर्शनकाङ्क्षया |
4300 | 2077002a | अग्रतः प्रययुस्तस्य सर्वे मन्त्रिपुरोधसः |
4301 | 2077002c | अधिरुह्य हयैर्युक्तान्रथान्सूर्यरथोपमान् |
4302 | 2077003a | नवनागसहस्राणि कल्पितानि यथाविधि |
4303 | 2077003c | अन्वयुर्भरतं यान्तमिक्ष्वाकु कुलनन्दनम् |
4304 | 2077004a | षष्ठी रथसहस्राणि धन्विनो विविधायुधाः |
4305 | 2077004c | अन्वयुर्भरतं यान्तं राजपुत्रं यशस्विनम् |
4306 | 2077005a | शतं सहस्राण्यश्वानां समारूढानि राघवम् |
4307 | 2077005c | अन्वयुर्भरतं यान्तं राजपुत्रं यशस्विनम् |
4308 | 2077006a | कैकेयी च सुमित्रा च कौसल्या च यशस्विनी |
4309 | 2077006c | रामानयनसंहृष्टा ययुर्यानेन भास्वता |
4310 | 2077007a | प्रयाताश्चार्यसंघाता रामं द्रष्टुं सलक्ष्मणम् |
4311 | 2077007c | तस्यैव च कथाश्चित्राः कुर्वाणा हृष्टमानसाः |
4312 | 2077008a | मेघश्यामं महाबाहुं स्थिरसत्त्वं दृढव्रतम् |
4313 | 2077008c | कदा द्रक्ष्यामहे रामं जगतः शोकनाशनम् |
4314 | 2077009a | दृष्ट एव हि नः शोकमपनेष्यति राघवः |
4315 | 2077009c | तमः सर्वस्य लोकस्य समुद्यन्निव भास्करः |
4316 | 2077010a | इत्येवं कथयन्तस्ते संप्रहृष्टाः कथाः शुभाः |
4317 | 2077010c | परिष्वजानाश्चान्योन्यं ययुर्नागरिकास्तदा |
4318 | 2077011a | ये च तत्रापरे सर्वे संमता ये च नैगमाः |
4319 | 2077011c | रामं प्रति ययुर्हृष्टाः सर्वाः प्रकृतयस्तदा |
4320 | 2077012a | मणि काराश्च ये केचित्कुम्भकाराश्च शोभनाः |
4321 | 2077012c | सूत्रकर्मकृतश्चैव ये च शस्त्रोपजीविनः |
4322 | 2077013a | मायूरकाः क्राकचिका रोचका वेधकास्तथा |
4323 | 2077013c | दन्तकाराः सुधाकारास्तथा गन्धोपजीविनः |
4324 | 2077014a | सुवर्णकाराः प्रख्यातास्तथा कम्बलधावकाः |
4325 | 2077014c | स्नापकाच्छादका वैद्या धूपकाः शौण्डिकास्तथा |
4326 | 2077015a | रजकास्तुन्नवायाश्च ग्रामघोषमहत्तराः |
4327 | 2077015c | शैलूषाश्च सह स्त्रीभिर्यान्ति कैवर्तकास्तथा |
4328 | 2077016a | समाहिता वेदविदो ब्राह्मणा वृत्तसंमताः |
4329 | 2077016c | गोरथैर्भरतं यान्तमनुजग्मुः सहस्रशः |
4330 | 2077017a | सुवेषाः शुद्धवसनास्ताम्रमृष्टानुलेपनाः |
4331 | 2077017c | सर्वे ते विविधैर्यानैः शनैर्भरतमन्वयुः |
4332 | 2077018a | प्रहृष्टमुदिता सेना सान्वयात्कैकयीसुतम् |
4333 | 2077018c | व्यवतिष्ठत सा सेना भरतस्यानुयायिनी |
4334 | 2077019a | निरीक्ष्यानुगतां सेनां तां च गङ्गां शिवोदकाम् |
4335 | 2077019c | भरतः सचिवान्सर्वानब्रवीद्वाक्यकोविदः |
4336 | 2077020a | निवेशयत मे सैन्यमभिप्रायेण सर्वशः |
4337 | 2077020c | विश्रान्तः प्रतरिष्यामः श्व इदानीं महानदीम् |
4338 | 2077021a | दातुं च तावदिच्छामि स्वर्गतस्य महीपतेः |
4339 | 2077021c | और्ध्वदेह निमित्तार्थमवतीर्योदकं नदीम् |
4340 | 2077022a | तस्यैवं ब्रुवतोऽमात्यास्तथेत्युक्त्वा समाहिताः |
4341 | 2077022c | न्यवेशयंस्तांश्छन्देन स्वेन स्वेन पृथक्पृथक् |
4342 | 2077023a | निवेश्य गङ्गामनु तां महानदीं; चमूं विधानैः परिबर्ह शोभिनीम् |
4343 | 2077023c | उवास रामस्य तदा महात्मनो; विचिन्तयानो भरतो निवर्तनम् |
4344 | 2078001a | ततो निविष्टां ध्वजिनीं गङ्गामन्वाश्रितां नदीम् |
4345 | 2078001c | निषादराजो दृष्ट्वैव ज्ञातीन्संत्वरितोऽब्रवीत् |
4346 | 2078002a | महतीयमतः सेना सागराभा प्रदृश्यते |
4347 | 2078002c | नास्यान्तमवगच्छामि मनसापि विचिन्तयन् |
4348 | 2078003a | स एष हि महाकायः कोविदारध्वजो रथे |
4349 | 2078003c | बन्धयिष्यति वा दाशानथ वास्मान्वधिष्यति |
4350 | 2078004a | अथ दाशरथिं रामं पित्रा राज्याद्विवासितम् |
4351 | 2078004c | भरतः कैकेयीपुत्रो हन्तुं समधिगच्छति |
4352 | 2078005a | भर्ता चैव सखा चैव रामो दाशरथिर्मम |
4353 | 2078005c | तस्यार्थकामाः संनद्धा गङ्गानूपेऽत्र तिष्ठत |
4354 | 2078006a | तिष्ठन्तु सर्वदाशाश्च गङ्गामन्वाश्रिता नदीम् |
4355 | 2078006c | बलयुक्ता नदीरक्षा मांसमूलफलाशनाः |
4356 | 2078007a | नावां शतानां पञ्चानां कैवर्तानां शतं शतम् |
4357 | 2078007c | संनद्धानां तथा यूनां तिष्ठन्त्वत्यभ्यचोदयत् |
4358 | 2078008a | यदा तुष्टस्तु भरतो रामस्येह भविष्यति |
4359 | 2078008c | सेयं स्वस्तिमयी सेना गङ्गामद्य तरिष्यति |
4360 | 2078009a | इत्युक्त्वोपायनं गृह्य मत्स्यमांसमधूनि च |
4361 | 2078009c | अभिचक्राम भरतं निषादाधिपतिर्गुहः |
4362 | 2078010a | तमायान्तं तु संप्रेक्ष्य सूतपुत्रः प्रतापवान् |
4363 | 2078010c | भरतायाचचक्षेऽथ विनयज्ञो विनीतवत् |
4364 | 2078011a | एष ज्ञातिसहस्रेण स्थपतिः परिवारितः |
4365 | 2078011c | कुशलो दण्डकारण्ये वृद्धो भ्रातुश्च ते सखा |
4366 | 2078012a | तस्मात्पश्यतु काकुत्स्थ त्वां निषादाधिपो गुहः |
4367 | 2078012c | असंशयं विजानीते यत्र तौ रामलक्ष्मणौ |
4368 | 2078013a | एतत्तु वचनं श्रुत्वा सुमन्त्राद्भरतः शुभम् |
4369 | 2078013c | उवाच वचनं शीघ्रं गुहः पश्यतु मामिति |
4370 | 2078014a | लब्ध्वाभ्यनुज्ञां संहृष्टो ज्ञातिभिः परिवारितः |
4371 | 2078014c | आगम्य भरतं प्रह्वो गुहो वचनमब्रवीत् |
4372 | 2078015a | निष्कुटश्चैव देशोऽयं वञ्चिताश्चापि ते वयम् |
4373 | 2078015c | निवेदयामस्ते सर्वे स्वके दाशकुले वस |
4374 | 2078016a | अस्ति मूलं फलं चैव निषादैः समुपाहृतम् |
4375 | 2078016c | आर्द्रं च मांसं शुष्कं च वन्यं चोच्चावचं महत् |
4376 | 2078017a | आशंसे स्वाशिता सेना वत्स्यतीमां विभावरीम् |
4377 | 2078017c | अर्चितो विविधैः कामैः श्वः ससैन्यो गमिष्यसि |
4378 | 2079001a | एवमुक्तस्तु भरतो निषादाधिपतिं गुहम् |
4379 | 2079001c | प्रत्युवाच महाप्राज्ञो वाक्यं हेत्वर्थसंहितम् |
4380 | 2079002a | ऊर्जितः खलु ते कामः कृतो मम गुरोः सखे |
4381 | 2079002c | यो मे त्वमीदृशीं सेनामेकोऽभ्यर्चितुमिच्छसि |
4382 | 2079003a | इत्युक्त्वा तु महातेजा गुहं वचनमुत्तमम् |
4383 | 2079003c | अब्रवीद्भरतः श्रीमान्निषादाधिपतिं पुनः |
4384 | 2079004a | कतरेण गमिष्यामि भरद्वाजाश्रमं गुह |
4385 | 2079004c | गहनोऽयं भृशं देशो गङ्गानूपो दुरत्ययः |
4386 | 2079005a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राजपुत्रस्य धीमतः |
4387 | 2079005c | अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं गुहो गहनगोचरः |
4388 | 2079006a | दाशास्त्वनुगमिष्यन्ति धन्विनः सुसमाहिताः |
4389 | 2079006c | अहं चानुगमिष्यामि राजपुत्र महायशः |
4390 | 2079007a | कच्चिन्न दुष्टो व्रजसि रामस्याक्लिष्टकर्मणः |
4391 | 2079007c | इयं ते महती सेना शङ्कां जनयतीव मे |
4392 | 2079008a | तमेवमभिभाषन्तमाकाश इव निर्मलः |
4393 | 2079008c | भरतः श्लक्ष्णया वाचा गुहं वचनमब्रवीत् |
4394 | 2079009a | मा भूत्स कालो यत्कष्टं न मां शङ्कितुमर्हसि |
4395 | 2079009c | राघवः स हि मे भ्राता ज्येष्ठः पितृसमो मम |
4396 | 2079010a | तं निवर्तयितुं यामि काकुत्स्थं वनवासिनम् |
4397 | 2079010c | बुद्धिरन्या न ते कार्या गुह सत्यं ब्रवीमि ते |
4398 | 2079011a | स तु संहृष्टवदनः श्रुत्वा भरतभाषितम् |
4399 | 2079011c | पुनरेवाब्रवीद्वाक्यं भरतं प्रति हर्षितः |
4400 | 2079012a | धन्यस्त्वं न त्वया तुल्यं पश्यामि जगतीतले |
4401 | 2079012c | अयत्नादागतं राज्यं यस्त्वं त्यक्तुमिहेच्छसि |
4402 | 2079013a | शाश्वती खलु ते कीर्तिर्लोकाननुचरिष्यति |
4403 | 2079013c | यस्त्वं कृच्छ्रगतं रामं प्रत्यानयितुमिच्छसि |
4404 | 2079014a | एवं संभाषमाणस्य गुहस्य भरतं तदा |
4405 | 2079014c | बभौ नष्टप्रभः सूर्यो रजनी चाभ्यवर्तत |
4406 | 2079015a | संनिवेश्य स तां सेनां गुहेन परितोषितः |
4407 | 2079015c | शत्रुघ्नेन सह श्रीमाञ्शयनं पुनरागमत् |
4408 | 2079016a | रामचिन्तामयः शोको भरतस्य महात्मनः |
4409 | 2079016c | उपस्थितो ह्यनर्हस्य धर्मप्रेक्षस्य तादृशः |
4410 | 2079017a | अन्तर्दाहेन दहनः संतापयति राघवम् |
4411 | 2079017c | वनदाहाभिसंतप्तं गूढोऽग्निरिव पादपम् |
4412 | 2079018a | प्रस्रुतः सर्वगात्रेभ्यः स्वेदः शोकाग्निसंभवः |
4413 | 2079018c | यथा सूर्यांशुसंतप्तो हिमवान्प्रस्रुतो हिमम् |
4414 | 2079019a | ध्याननिर्दरशैलेन विनिःश्वसितधातुना |
4415 | 2079019c | दैन्यपादपसंघेन शोकायासाधिशृङ्गिणा |
4416 | 2079020a | प्रमोहानन्तसत्त्वेन संतापौषधिवेणुना |
4417 | 2079020c | आक्रान्तो दुःखशैलेन महता कैकयीसुतः |
4418 | 2079021a | गुहेन सार्धं भरतः समागतो; महानुभावः सजनः समाहितः |
4419 | 2079021c | सुदुर्मनास्तं भरतं तदा पुन;र्गुहः समाश्वासयदग्रजं प्रति |
4420 | 2080001a | आचचक्षेऽथ सद्भावं लक्ष्मणस्य महात्मनः |
4421 | 2080001c | भरतायाप्रमेयाय गुहो गहनगोचरः |
4422 | 2080002a | तं जाग्रतं गुणैर्युक्तं वरचापेषुधारिणम् |
4423 | 2080002c | भ्रातृ गुप्त्यर्थमत्यन्तमहं लक्ष्मणमब्रवम् |
4424 | 2080003a | इयं तात सुखा शय्या त्वदर्थमुपकल्पिता |
4425 | 2080003c | प्रत्याश्वसिहि शेष्वास्यां सुखं राघवनन्दन |
4426 | 2080004a | उचितोऽयं जनः सर्वे दुःखानां त्वं सुखोचितः |
4427 | 2080004c | धर्मात्मंस्तस्य गुप्त्यर्थं जागरिष्यामहे वयम् |
4428 | 2080005a | न हि रामात्प्रियतरो ममास्ति भुवि कश्चन |
4429 | 2080005c | मोत्सुको भूर्ब्रवीम्येतदप्यसत्यं तवाग्रतः |
4430 | 2080006a | अस्य प्रसादादाशंसे लोकेऽस्मिन्सुमहद्यशः |
4431 | 2080006c | धर्मावाप्तिं च विपुलामर्थावाप्तिं च केवलाम् |
4432 | 2080007a | सोऽहं प्रियसखं रामं शयानं सह सीतया |
4433 | 2080007c | रक्षिष्यामि धनुष्पाणिः सर्वैः स्वैर्ज्ञातिभिः सह |
4434 | 2080008a | न हि मेऽविदितं किंचिद्वनेऽस्मिंश्चरतः सदा |
4435 | 2080008c | चतुरङ्गं ह्यपि बलं प्रसहेम वयं युधि |
4436 | 2080009a | एवमस्माभिरुक्तेन लक्ष्मणेन महात्मना |
4437 | 2080009c | अनुनीता वयं सर्वे धर्ममेवानुपश्यता |
4438 | 2080010a | कथं दाशरथौ भूमौ शयाने सह सीतया |
4439 | 2080010c | शक्या निद्रामया लब्धुं जीवितं वा सुखानि वा |
4440 | 2080011a | यो न देवासुरैः सर्वैः शक्यः प्रसहितुं युधि |
4441 | 2080011c | तं पश्य गुह संविष्टं तृणेषु सह सीतया |
4442 | 2080012a | महता तपसा लब्धो विविधैश्च परिश्रमैः |
4443 | 2080012c | एको दशरथस्यैष पुत्रः सदृशलक्षणः |
4444 | 2080013a | अस्मिन्प्रव्राजिते राजा न चिरं वर्तयिष्यति |
4445 | 2080013c | विधवा मेदिनी नूनं क्षिप्रमेव भविष्यति |
4446 | 2080014a | विनद्य सुमहानादं श्रमेणोपरताः स्त्रियः |
4447 | 2080014c | निर्घोषोपरतं नूनमद्य राजनिवेशनम् |
4448 | 2080015a | कौसल्या चैव राजा च तथैव जननी मम |
4449 | 2080015c | नाशंसे यदि ते सर्वे जीवेयुः शर्वरीमिमाम् |
4450 | 2080016a | जीवेदपि हि मे माता शत्रुघ्नस्यान्ववेक्षया |
4451 | 2080016c | दुःखिता या तु कौसल्या वीरसूर्विनशिष्यति |
4452 | 2080017a | अतिक्रान्तमतिक्रान्तमनवाप्य मनोरथम् |
4453 | 2080017c | राज्ये राममनिक्षिप्य पिता मे विनशिष्यति |
4454 | 2080018a | सिद्धार्थाः पितरं वृत्तं तस्मिन्काले ह्युपस्थिते |
4455 | 2080018c | प्रेतकार्येषु सर्वेषु संस्करिष्यन्ति भूमिपम् |
4456 | 2080019a | रम्यचत्वरसंस्थानां सुविभक्तमहापथाम् |
4457 | 2080019c | हर्म्यप्रासादसंपन्नां सर्वरत्नविभूषिताम् |
4458 | 2080020a | गजाश्वरथसंबाधां तूर्यनादविनादिताम् |
4459 | 2080020c | सर्वकल्याणसंपूर्णां हृष्टपुष्टजनाकुलाम् |
4460 | 2080021a | आरामोद्यानसंपूर्णां समाजोत्सवशालिनीम् |
4461 | 2080021c | सुखिता विचरिष्यन्ति राजधानीं पितुर्मम |
4462 | 2080022a | अपि सत्यप्रतिज्ञेन सार्धं कुशलिना वयम् |
4463 | 2080022c | निवृत्ते समये ह्यस्मिन्सुखिताः प्रविशेमहि |
4464 | 2080023a | परिदेवयमानस्य तस्यैवं सुमहात्मनः |
4465 | 2080023c | तिष्ठतो राजपुत्रस्य शर्वरी सात्यवर्तत |
4466 | 2080024a | प्रभाते विमले सूर्ये कारयित्वा जटा उभौ |
4467 | 2080024c | अस्मिन्भागीरथी तीरे सुखं संतारितौ मया |
4468 | 2080025a | जटाधरौ तौ द्रुमचीरवाससौ; महाबलौ कुञ्जरयूथपोपमौ |
4469 | 2080025c | वरेषुचापासिधरौ परंतपौ; व्यवेक्षमाणौ सह सीतया गतौ |
4470 | 2081001a | गुहस्य वचनं श्रुत्वा भरतो भृशमप्रियम् |
4471 | 2081001c | ध्यानं जगाम तत्रैव यत्र तच्छ्रुतमप्रियम् |
4472 | 2081002a | सुकुमारो महासत्त्वः सिंहस्कन्धो महाभुजः |
4473 | 2081002c | पुण्डरीक विशालाक्षस्तरुणः प्रियदर्शनः |
4474 | 2081003a | प्रत्याश्वस्य मुहूर्तं तु कालं परमदुर्मनाः |
4475 | 2081003c | पपात सहसा तोत्रैर्हृदि विद्ध इव द्विपः |
4476 | 2081004a | तदवस्थं तु भरतं शत्रुघ्नोऽनन्तर स्थितः |
4477 | 2081004c | परिष्वज्य रुरोदोच्चैर्विसंज्ञः शोककर्शितः |
4478 | 2081005a | ततः सर्वाः समापेतुर्मातरो भरतस्य ताः |
4479 | 2081005c | उपवास कृशा दीना भर्तृव्यसनकर्शिताः |
4480 | 2081006a | ताश्च तं पतितं भूमौ रुदन्त्यः पर्यवारयन् |
4481 | 2081006c | कौसल्या त्वनुसृत्यैनं दुर्मनाः परिषस्वजे |
4482 | 2081007a | वत्सला स्वं यथा वत्समुपगूह्य तपस्विनी |
4483 | 2081007c | परिपप्रच्छ भरतं रुदन्ती शोकलालसा |
4484 | 2081008a | पुत्रव्याधिर्न ते कच्चिच्छरीरं परिबाधते |
4485 | 2081008c | अद्य राजकुलस्यास्य त्वदधीनं हि जीवितम् |
4486 | 2081009a | त्वां दृष्ट्वा पुत्र जीवामि रामे सभ्रातृके गते |
4487 | 2081009c | वृत्ते दशरथे राज्ञि नाथ एकस्त्वमद्य नः |
4488 | 2081010a | कच्चिन्न लक्ष्मणे पुत्र श्रुतं ते किंचिदप्रियम् |
4489 | 2081010c | पुत्र वा ह्येकपुत्रायाः सहभार्ये वनं गते |
4490 | 2081011a | स मुहूर्तं समाश्वस्य रुदन्नेव महायशाः |
4491 | 2081011c | कौसल्यां परिसान्त्व्येदं गुहं वचनमब्रवीत् |
4492 | 2081012a | भ्राता मे क्वावसद्रात्रिं क्व सीता क्व च लक्ष्मणः |
4493 | 2081012c | अस्वपच्छयने कस्मिन्किं भुक्त्वा गुह शंस मे |
4494 | 2081013a | सोऽब्रवीद्भरतं पृष्टो निषादाधिपतिर्गुहः |
4495 | 2081013c | यद्विधं प्रतिपेदे च रामे प्रियहितेऽतिथौ |
4496 | 2081014a | अन्नमुच्चावचं भक्ष्याः फलानि विविधानि च |
4497 | 2081014c | रामायाभ्यवहारार्थं बहुचोपहृतं मया |
4498 | 2081015a | तत्सर्वं प्रत्यनुज्ञासीद्रामः सत्यपराक्रमः |
4499 | 2081015c | न हि तत्प्रत्यगृह्णात्स क्षत्रधर्ममनुस्मरन् |
4500 | 2081016a | न ह्यस्माभिः प्रतिग्राह्यं सखे देयं तु सर्वदा |
4501 | 2081016c | इति तेन वयं राजन्ननुनीता महात्मना |
4502 | 2081017a | लक्ष्मणेन समानीतं पीत्वा वारि महायशाः |
4503 | 2081017c | औपवास्यं तदाकार्षीद्राघवः सह सीतया |
4504 | 2081018a | ततस्तु जलशेषेण लक्ष्मणोऽप्यकरोत्तदा |
4505 | 2081018c | वाग्यतास्ते त्रयः संध्यामुपासत समाहिताः |
4506 | 2081019a | सौमित्रिस्तु ततः पश्चादकरोत्स्वास्तरं शुभम् |
4507 | 2081019c | स्वयमानीय बर्हींषि क्षिप्रं राघव कारणात् |
4508 | 2081020a | तस्मिन्समाविशद्रामः स्वास्तरे सह सीतया |
4509 | 2081020c | प्रक्षाल्य च तयोः पादावपचक्राम लक्ष्मणः |
4510 | 2081021a | एतत्तदिङ्गुदीमूलमिदमेव च तत्तृणम् |
4511 | 2081021c | यस्मिन्रामश्च सीता च रात्रिं तां शयितावुभौ |
4512 | 2081022a | नियम्य पृष्ठे तु तलाङ्गुलित्रवा;ञ्शरैः सुपूर्णाविषुधी परंतपः |
4513 | 2081022c | महद्धनुः सज्यमुपोह्य लक्ष्मणो; निशामतिष्ठत्परितोऽस्य केवलम् |
4514 | 2081023a | ततस्त्वहं चोत्तमबाणचापधृ;क्स्थितोऽभवं तत्र स यत्र लक्ष्मणः |
4515 | 2081023c | अतन्द्रिभिर्ज्ञातिभिरात्तकार्मुकै;र्महेन्द्रकल्पं परिपालयंस्तदा |
4516 | 2082001a | तच्छ्रुत्वा निपुणं सर्वं भरतः सह मन्त्रिभिः |
4517 | 2082001c | इङ्गुदीमूलमागम्य रामशय्यामवेक्ष्य ताम् |
4518 | 2082002a | अब्रवीज्जननीः सर्वा इह तेन महात्मना |
4519 | 2082002c | शर्वरी शयिता भूमाविदमस्य विमर्दितम् |
4520 | 2082003a | महाभागकुलीनेन महाभागेन धीमता |
4521 | 2082003c | जातो दशरथेनोर्व्यां न रामः स्वप्तुमर्हति |
4522 | 2082004a | अजिनोत्तरसंस्तीर्णे वरास्तरणसंचये |
4523 | 2082004c | शयित्वा पुरुषव्याघ्रः कथं शेते महीतले |
4524 | 2082005a | प्रासादाग्र विमानेषु वलभीषु च सर्वदा |
4525 | 2082005c | हैमराजतभौमेषु वरास्तरणशालिषु |
4526 | 2082006a | पुष्पसंचयचित्रेषु चन्दनागरुगन्धिषु |
4527 | 2082006c | पाण्डुराभ्रप्रकाशेषु शुकसंघरुतेषु च |
4528 | 2082007a | गीतवादित्रनिर्घोषैर्वराभरणनिःस्वनैः |
4529 | 2082007c | मृदङ्गवरशब्दैश्च सततं प्रतिबोधितः |
4530 | 2082008a | बन्दिभिर्वन्दितः काले बहुभिः सूतमागधैः |
4531 | 2082008c | गाथाभिरनुरूपाभिः स्तुतिभिश्च परंतपः |
4532 | 2082009a | अश्रद्धेयमिदं लोके न सत्यं प्रतिभाति मा |
4533 | 2082009c | मुह्यते खलु मे भावः स्वप्नोऽयमिति मे मतिः |
4534 | 2082010a | न नूनं दैवतं किंचित्कालेन बलवत्तरम् |
4535 | 2082010c | यत्र दाशरथी रामो भूमावेवं शयीत सः |
4536 | 2082011a | विदेहराजस्य सुता सीता च प्रियदर्शना |
4537 | 2082011c | दयिता शयिता भूमौ स्नुषा दशरथस्य च |
4538 | 2082012a | इयं शय्या मम भ्रातुरिदं हि परिवर्तितम् |
4539 | 2082012c | स्थण्डिले कठिने सर्वं गात्रैर्विमृदितं तृणम् |
4540 | 2082013a | मन्ये साभरणा सुप्ता सीतास्मिञ्शयने तदा |
4541 | 2082013c | तत्र तत्र हि दृश्यन्ते सक्ताः कनकबिन्दवः |
4542 | 2082014a | उत्तरीयमिहासक्तं सुव्यक्तं सीतया तदा |
4543 | 2082014c | तथा ह्येते प्रकाशन्ते सक्ताः कौशेयतन्तवः |
4544 | 2082015a | मन्ये भर्तुः सुखा शय्या येन बाला तपस्विनी |
4545 | 2082015c | सुकुमारी सती दुःखं न विजानाति मैथिली |
4546 | 2082016a | सार्वभौम कुले जातः सर्वलोकसुखावहः |
4547 | 2082016c | सर्वलोकप्रियस्त्यक्त्वा राज्यं प्रियमनुत्तमम् |
4548 | 2082017a | कथमिन्दीवरश्यामो रक्ताक्षः प्रियदर्शनः |
4549 | 2082017c | सुखभागी च दुःखार्हः शयितो भुवि राघवः |
4550 | 2082018a | सिद्धार्था खलु वैदेही पतिं यानुगता वनम् |
4551 | 2082018c | वयं संशयिताः सर्वे हीनास्तेन महात्मना |
4552 | 2082019a | अकर्णधारा पृथिवी शून्येव प्रतिभाति मा |
4553 | 2082019c | गते दशरथे स्वर्गे रामे चारण्यमाश्रिते |
4554 | 2082020a | न च प्रार्थयते कश्चिन्मनसापि वसुंधराम् |
4555 | 2082020c | वनेऽपि वसतस्तस्य बाहुवीर्याभिरक्षिताम् |
4556 | 2082021a | शून्यसंवरणारक्षामयन्त्रितहयद्विपाम् |
4557 | 2082021c | अपावृतपुरद्वारां राजधानीमरक्षिताम् |
4558 | 2082022a | अप्रहृष्टबलां न्यूनां विषमस्थामनावृताम् |
4559 | 2082022c | शत्रवो नाभिमन्यन्ते भक्ष्यान्विषकृतानिव |
4560 | 2082023a | अद्य प्रभृति भूमौ तु शयिष्येऽहं तृणेषु वा |
4561 | 2082023c | फलमूलाशनो नित्यं जटाचीराणि धारयन् |
4562 | 2082024a | तस्यार्थमुत्तरं कालं निवत्स्यामि सुखं वने |
4563 | 2082024c | तं प्रतिश्रवमामुच्य नास्य मिथ्या भविष्यति |
4564 | 2082025a | वसन्तं भ्रातुरर्थाय शत्रुघ्नो मानुवत्स्यति |
4565 | 2082025c | लक्ष्मणेन सह त्वार्यो अयोध्यां पालयिष्यति |
4566 | 2082026a | अभिषेक्ष्यन्ति काकुत्स्थमयोध्यायां द्विजातयः |
4567 | 2082026c | अपि मे देवताः कुर्युरिमं सत्यं मनोरथम् |
4568 | 2082027a | प्रसाद्यमानः शिरसा मया स्वयं; बहुप्रकारं यदि न प्रपत्स्यते |
4569 | 2082027c | ततोऽनुवत्स्यामि चिराय राघवं; वने वसन्नार्हति मामुपेक्षितुम् |
4570 | 2083001a | व्युष्य रात्रिं तु तत्रैव गङ्गाकूले स राघवः |
4571 | 2083001c | भरतः काल्यमुत्थाय शत्रुघ्नमिदमब्रवीत् |
4572 | 2083002a | शत्रुघोत्तिष्ठ किं शेषे निषादाधिपतिं गुहम् |
4573 | 2083002c | शीघ्रमानय भद्रं ते तारयिष्यति वाहिनीम् |
4574 | 2083003a | जागर्मि नाहं स्वपिमि तथैवार्यं विचिन्तयन् |
4575 | 2083003c | इत्येवमब्रवीद्भ्रात्रा शत्रुघ्नोऽपि प्रचोदितः |
4576 | 2083004a | इति संवदतोरेवमन्योन्यं नरसिंहयोः |
4577 | 2083004c | आगम्य प्राञ्जलिः काले गुहो भरतमब्रवीत् |
4578 | 2083005a | कच्चित्सुखं नदीतीरेऽवात्सीः काकुत्स्थ शर्वरीम् |
4579 | 2083005c | कच्चिच्च सह सैन्यस्य तव सर्वमनामयम् |
4580 | 2083006a | गुहस्य तत्तु वचनं श्रुत्वा स्नेहादुदीरितम् |
4581 | 2083006c | रामस्यानुवशो वाक्यं भरतोऽपीदमब्रवीत् |
4582 | 2083007a | सुखा नः शर्वरी राजन्पूजिताश्चापि ते वयम् |
4583 | 2083007c | गङ्गां तु नौभिर्बह्वीभिर्दाशाः संतारयन्तु नः |
4584 | 2083008a | ततो गुहः संत्वरितः श्रुत्वा भरतशासनम् |
4585 | 2083008c | प्रतिप्रविश्य नगरं तं ज्ञातिजनमब्रवीत् |
4586 | 2083009a | उत्तिष्ठत प्रबुध्यध्वं भद्रमस्तु हि वः सदा |
4587 | 2083009c | नावः समनुकर्षध्वं तारयिष्याम वाहिनीम् |
4588 | 2083010a | ते तथोक्ताः समुत्थाय त्वरिता राजशासनात् |
4589 | 2083010c | पञ्च नावां शतान्येव समानिन्युः समन्ततः |
4590 | 2083011a | अन्याः स्वस्तिकविज्ञेया महाघण्डा धरा वराः |
4591 | 2083011c | शोभमानाः पताकिन्यो युक्तवाताः सुसंहताः |
4592 | 2083012a | ततः स्वस्तिकविज्ञेयां पाण्डुकम्बलसंवृताम् |
4593 | 2083012c | सनन्दिघोषां कल्याणीं गुहो नावमुपाहरत् |
4594 | 2083013a | तामारुरोह भरतः शत्रुघ्नश्च महाबलः |
4595 | 2083013c | कौसल्या च सुमित्रा च याश्चान्या राजयोषितः |
4596 | 2083014a | पुरोहितश्च तत्पूर्वं गुरवे ब्राह्मणाश्च ये |
4597 | 2083014c | अनन्तरं राजदारास्तथैव शकटापणाः |
4598 | 2083015a | आवासमादीपयतां तीर्थं चाप्यवगाहताम् |
4599 | 2083015c | भाण्डानि चाददानानां घोषस्त्रिदिवमस्पृशत् |
4600 | 2083016a | पताकिन्यस्तु ता नावः स्वयं दाशैरधिष्ठिताः |
4601 | 2083016c | वहन्त्यो जनमारूढं तदा संपेतुराशुगाः |
4602 | 2083017a | नारीणामभिपूर्णास्तु काश्चित्काश्चित्तु वाजिनाम् |
4603 | 2083017c | कश्चित्तत्र वहन्ति स्म यानयुग्यं महाधनम् |
4604 | 2083018a | ताः स्म गत्वा परं तीरमवरोप्य च तं जनम् |
4605 | 2083018c | निवृत्ताः काण्डचित्राणि क्रियन्ते दाशबन्धुभिः |
4606 | 2083019a | सवैजयन्तास्तु गजा गजारोहैः प्रचोदिताः |
4607 | 2083019c | तरन्तः स्म प्रकाशन्ते सध्वजा इव पर्वताः |
4608 | 2083020a | नावश्चारुरुहुस्त्वन्ये प्लवैस्तेरुस्तथापरे |
4609 | 2083020c | अन्ये कुम्भघटैस्तेरुरन्ये तेरुश्च बाहुभिः |
4610 | 2083021a | सा पुण्या ध्वजिनी गङ्गां दाशैः संतारिता स्वयम् |
4611 | 2083021c | मैत्रे मुहूर्ते प्रययौ प्रयागवनमुत्तमम् |
4612 | 2083022a | आश्वासयित्वा च चमूं महात्मा; निवेशयित्वा च यथोपजोषम् |
4613 | 2083022c | द्रष्टुं भरद्वाजमृषिप्रवर्य;मृत्विग्वृतः सन्भरतः प्रतस्थे |
4614 | 2084001a | भरद्वाजाश्रमं दृष्ट्वा क्रोशादेव नरर्षभः |
4615 | 2084001c | बलं सर्वमवस्थाप्य जगाम सह मन्त्रिभिः |
4616 | 2084002a | पद्भ्यामेव हि धर्मज्ञो न्यस्तशस्त्रपरिच्छदः |
4617 | 2084002c | वसानो वाससी क्षौमे पुरोधाय पुरोहितम् |
4618 | 2084003a | ततः संदर्शने तस्य भरद्वाजस्य राघवः |
4619 | 2084003c | मन्त्रिणस्तानवस्थाप्य जगामानु पुरोहितम् |
4620 | 2084004a | वसिष्ठमथ दृष्ट्वैव भरद्वाजो महातपाः |
4621 | 2084004c | संचचालासनात्तूर्णं शिष्यानर्घ्यमिति ब्रुवन् |
4622 | 2084005a | समागम्य वसिष्ठेन भरतेनाभिवादितः |
4623 | 2084005c | अबुध्यत महातेजाः सुतं दशरथस्य तम् |
4624 | 2084006a | ताभ्यामर्घ्यं च पाद्यं च दत्त्वा पश्चात्फलानि च |
4625 | 2084006c | आनुपूर्व्याच्च धर्मज्ञः पप्रच्छ कुशलं कुले |
4626 | 2084007a | अयोध्यायां बले कोशे मित्रेष्वपि च मन्त्रिषु |
4627 | 2084007c | जानन्दशरथं वृत्तं न राजानमुदाहरत् |
4628 | 2084008a | वसिष्ठो भरतश्चैनं पप्रच्छतुरनामयम् |
4629 | 2084008c | शरीरेऽग्निषु वृक्षेषु शिष्येषु मृगपक्षिषु |
4630 | 2084009a | तथेति च प्रतिज्ञाय भरद्वाजो महातपाः |
4631 | 2084009c | भरतं प्रत्युवाचेदं राघवस्नेहबन्धनात् |
4632 | 2084010a | किमिहागमने कार्यं तव राज्यं प्रशासतः |
4633 | 2084010c | एतदाचक्ष्व मे सर्वं न हि मे शुध्यते मनः |
4634 | 2084011a | सुषुवे यम मित्रघ्नं कौसल्यानन्दवर्धनम् |
4635 | 2084011c | भ्रात्रा सह सभार्यो यश्चिरं प्रव्राजितो वनम् |
4636 | 2084012a | नियुक्तः स्त्रीनियुक्तेन पित्रा योऽसौ महायशाः |
4637 | 2084012c | वनवासी भवेतीह समाः किल चतुर्दश |
4638 | 2084013a | कच्चिन्न तस्यापापस्य पापं कर्तुमिहेच्छसि |
4639 | 2084013c | अकण्टकं भोक्तुमना राज्यं तस्यानुजस्य च |
4640 | 2084014a | एवमुक्तो भरद्वाजं भरतः प्रत्युवाच ह |
4641 | 2084014c | पर्यश्रु नयनो दुःखाद्वाचा संसज्जमानया |
4642 | 2084015a | हतोऽस्मि यदि मामेवं भगवानपि मन्यते |
4643 | 2084015c | मत्तो न दोषमाशङ्केर्नैवं मामनुशाधि हि |
4644 | 2084016a | न चैतदिष्टं माता मे यदवोचन्मदन्तरे |
4645 | 2084016c | नाहमेतेन तुष्टश्च न तद्वचनमाददे |
4646 | 2084017a | अहं तु तं नरव्याघ्रमुपयातः प्रसादकः |
4647 | 2084017c | प्रतिनेतुमयोध्यां च पादौ तस्याभिवन्दितुम् |
4648 | 2084018a | त्वं मामेवं गतं मत्वा प्रसादं कर्तुमर्हसि |
4649 | 2084018c | शंस मे भगवन्रामः क्व संप्रति महीपतिः |
4650 | 2084019a | उवाच तं भरद्वाजः प्रसादाद्भरतं वचः |
4651 | 2084019c | त्वय्येतत्पुरुषव्याघ्रं युक्तं राघववंशजे |
4652 | 2084019e | गुरुवृत्तिर्दमश्चैव साधूनां चानुयायिता |
4653 | 2084020a | जाने चैतन्मनःस्थं ते दृढीकरणमस्त्विति |
4654 | 2084020c | अपृच्छं त्वां तवात्यर्थं कीर्तिं समभिवर्धयन् |
4655 | 2084021a | असौ वसति ते भ्राता चित्रकूटे महागिरौ |
4656 | 2084021c | श्वस्तु गन्तासि तं देशं वसाद्य सह मन्त्रिभिः |
4657 | 2084021e | एतं मे कुरु सुप्राज्ञ कामं कामार्थकोविद |
4658 | 2084022a | ततस्तथेत्येवमुदारदर्शनः; प्रतीतरूपो भरतोऽब्रवीद्वचः |
4659 | 2084022c | चकार बुद्धिं च तदा महाश्रमे; निशानिवासाय नराधिपात्मजः |
4660 | 2085001a | कृतबुद्धिं निवासाय तथैव स मुनिस्तदा |
4661 | 2085001c | भरतं कैकयी पुत्रमातिथ्येन न्यमन्त्रयत् |
4662 | 2085002a | अब्रवीद्भरतस्त्वेनं नन्विदं भवता कृतम् |
4663 | 2085002c | पाद्यमर्घ्यं तथातिथ्यं वने यदूपपद्यते |
4664 | 2085003a | अथोवाच भरद्वाजो भरतं प्रहसन्निव |
4665 | 2085003c | जाने त्वां प्रीति संयुक्तं तुष्येस्त्वं येन केनचित् |
4666 | 2085004a | सेनायास्तु तवैतस्याः कर्तुमिच्छामि भोजनम् |
4667 | 2085004c | मम प्रितिर्यथा रूपा त्वमर्हो मनुजर्षभ |
4668 | 2085005a | किमर्थं चापि निक्षिप्य दूरे बलमिहागतः |
4669 | 2085005c | कस्मान्नेहोपयातोऽसि सबलः पुरुषर्षभ |
4670 | 2085006a | भरतः प्रत्युवाचेदं प्राञ्जलिस्तं तपोधनम् |
4671 | 2085006c | ससैन्यो नोपयातोऽस्मि भगवन्भगवद्भयात् |
4672 | 2085007a | वाजि मुख्या मनुष्याश्च मत्ताश्च वर वारणाः |
4673 | 2085007c | प्रच्छाद्य महतीं भूमिं भगवन्ननुयान्ति माम् |
4674 | 2085008a | ते वृक्षानुदकं भूमिमाश्रमेषूटजांस्तथा |
4675 | 2085008c | न हिंस्युरिति तेनाहमेक एवागतस्ततः |
4676 | 2085009a | आनीयतामितः सेनेत्याज्ञप्तः परमर्षिणा |
4677 | 2085009c | तथा तु चक्रे भरतः सेनायाः समुपागमम् |
4678 | 2085010a | अग्निशालां प्रविश्याथ पीत्वापः परिमृज्य च |
4679 | 2085010c | आतिथ्यस्य क्रियाहेतोर्विश्वकर्माणमाह्वयत् |
4680 | 2085011a | आह्वये विश्वकर्माणमहं त्वष्टारमेव च |
4681 | 2085011c | आतिथ्यं कर्तुमिच्छामि तत्र मे संविधीयताम् |
4682 | 2085012a | प्राक्स्रोतसश्च या नद्यः प्रत्यक्स्रोतस एव च |
4683 | 2085012c | पृथिव्यामन्तरिक्षे च समायान्त्वद्य सर्वशः |
4684 | 2085013a | अन्याः स्रवन्तु मैरेयं सुरामन्याः सुनिष्ठिताम् |
4685 | 2085013c | अपराश्चोदकं शीतमिक्षुकाण्डरसोपमम् |
4686 | 2085014a | आह्वये देवगन्धर्वान्विश्वावसुहहाहुहून् |
4687 | 2085014c | तथैवाप्सरसो देवीर्गन्धर्वीश्चापि सर्वशः |
4688 | 2085015a | घृताचीमथ विश्वाचीं मिश्रकेशीमलम्बुसाम् |
4689 | 2085015c | शक्रं याश्चोपतिष्ठन्ति ब्रह्माणं याश्च भामिनीः |
4690 | 2085015e | सर्वास्तुम्बुरुणा सार्धमाह्वये सपरिच्छदाः |
4691 | 2085016a | वनं कुरुषु यद्दिव्यं वासो भूषणपत्रवत् |
4692 | 2085016c | दिव्यनारीफलं शश्वत्तत्कौबेरमिहैव तु |
4693 | 2085017a | इह मे भगवान्सोमो विधत्तामन्नमुत्तमम् |
4694 | 2085017c | भक्ष्यं भोज्यं च चोष्यं च लेह्यं च विविधं बहु |
4695 | 2085018a | विचित्राणि च माल्यानि पादपप्रच्युतानि च |
4696 | 2085018c | सुरादीनि च पेयानि मांसानि विविधानि च |
4697 | 2085019a | एवं समाधिना युक्तस्तेजसाप्रतिमेन च |
4698 | 2085019c | शिक्षास्वरसमायुक्तं तपसा चाब्रवीन्मुनिः |
4699 | 2085020a | मनसा ध्यायतस्तस्य प्राङ्मुखस्य कृताञ्जलेः |
4700 | 2085020c | आजग्मुस्तानि सर्वाणि दैवतानि पृथक्पृथक् |
4701 | 2085021a | मलयं दुर्दुरं चैव ततः स्वेदनुदोऽनिलः |
4702 | 2085021c | उपस्पृश्य ववौ युक्त्या सुप्रियात्मा सुखः शिवः |
4703 | 2085022a | ततोऽभ्यवर्तन्त घना दिव्याः कुसुमवृष्टयः |
4704 | 2085022c | देवदुन्दुभिघोषश्च दिक्षु सर्वासु शुश्रुवे |
4705 | 2085023a | प्रववुश्चोत्तमा वाता ननृतुश्चाप्सरोगणाः |
4706 | 2085023c | प्रजगुर्देवगन्धर्वा वीणा प्रमुमुचुः स्वरान् |
4707 | 2085024a | स शब्दो द्यां च भूमिं च प्राणिनां श्रवणानि च |
4708 | 2085024c | विवेशोच्चारितः श्लक्ष्णः समो लयगुणान्वितः |
4709 | 2085025a | तस्मिन्नुपरते शब्दे दिव्ये श्रोत्रसुखे नृणाम् |
4710 | 2085025c | ददर्श भारतं सैन्यं विधानं विश्वकर्मणः |
4711 | 2085026a | बभूव हि समा भूमिः समन्तात्पञ्चयोजनम् |
4712 | 2085026c | शाद्वलैर्बहुभिश्छन्ना नीलवैदूर्यसंनिभैः |
4713 | 2085027a | तस्मिन्बिल्वाः कपित्थाश्च पनसा बीजपूरकाः |
4714 | 2085027c | आमलक्यो बभूवुश्च चूताश्च फलभूषणाः |
4715 | 2085028a | उत्तरेभ्यः कुरुभ्यश्च वनं दिव्योपभोगवत् |
4716 | 2085028c | आजगाम नदी दिव्या तीरजैर्बहुभिर्वृता |
4717 | 2085029a | चतुःशालानि शुभ्राणि शालाश्च गजवाजिनाम् |
4718 | 2085029c | हर्म्यप्रासादसंघातास्तोरणानि शुभानि च |
4719 | 2085030a | सितमेघनिभं चापि राजवेश्म सुतोरणम् |
4720 | 2085030c | शुक्लमाल्यकृताकारं दिव्यगन्धसमुक्षितम् |
4721 | 2085031a | चतुरस्रमसंबाधं शयनासनयानवत् |
4722 | 2085031c | दिव्यैः सर्वरसैर्युक्तं दिव्यभोजनवस्त्रवत् |
4723 | 2085032a | उपकल्पित सर्वान्नं धौतनिर्मलभाजनम् |
4724 | 2085032c | कॢप्तसर्वासनं श्रीमत्स्वास्तीर्णशयनोत्तमम् |
4725 | 2085033a | प्रविवेश महाबाहुरनुज्ञातो महर्षिणा |
4726 | 2085033c | वेश्म तद्रत्नसंपूर्णं भरतः कैकयीसुतः |
4727 | 2085034a | अनुजग्मुश्च तं सर्वे मन्त्रिणः सपुरोहिताः |
4728 | 2085034c | बभूवुश्च मुदा युक्ता तं दृष्ट्वा वेश्म संविधिम् |
4729 | 2085035a | तत्र राजासनं दिव्यं व्यजनं छत्रमेव च |
4730 | 2085035c | भरतो मन्त्रिभिः सार्धमभ्यवर्तत राजवत् |
4731 | 2085036a | आसनं पूजयामास रामायाभिप्रणम्य च |
4732 | 2085036c | वालव्यजनमादाय न्यषीदत्सचिवासने |
4733 | 2085037a | आनुपूर्व्यान्निषेदुश्च सर्वे मन्त्रपुरोहिताः |
4734 | 2085037c | ततः सेनापतिः पश्चात्प्रशास्ता च निषेदतुः |
4735 | 2085038a | ततस्तत्र मुहूर्तेन नद्यः पायसकर्दमाः |
4736 | 2085038c | उपातिष्ठन्त भरतं भरद्वाजस्य शासनत् |
4737 | 2085039a | तासामुभयतः कूलं पाण्डुमृत्तिकलेपनाः |
4738 | 2085039c | रम्याश्चावसथा दिव्या ब्रह्मणस्तु प्रसादजाः |
4739 | 2085040a | तेनैव च मुहूर्तेन दिव्याभरणभूषिताः |
4740 | 2085040c | आगुर्विंशतिसाहस्रा ब्राह्मणा प्रहिताः स्त्रियः |
4741 | 2085041a | सुवर्णमणिमुक्तेन प्रवालेन च शोभिताः |
4742 | 2085041c | आगुर्विंशतिसाहस्राः कुबेरप्रहिताः स्त्रियः |
4743 | 2085042a | याभिर्गृहीतः पुरुषः सोन्माद इव लक्ष्यते |
4744 | 2085042c | आगुर्विंशतिसाहस्रा नन्दनादप्सरोगणाः |
4745 | 2085043a | नारदस्तुम्बुरुर्गोपः पर्वतः सूर्यवर्चसः |
4746 | 2085043c | एते गन्धर्वराजानो भरतस्याग्रतो जगुः |
4747 | 2085044a | अलम्बुसा मिश्रकेशी पुण्डरीकाथ वामना |
4748 | 2085044c | उपानृत्यंस्तु भरतं भरद्वाजस्य शासनात् |
4749 | 2085045a | यानि माल्यानि देवेषु यानि चैत्ररथे वने |
4750 | 2085045c | प्रयागे तान्यदृश्यन्त भरद्वाजस्य शासनात् |
4751 | 2085046a | बिल्वा मार्दङ्गिका आसञ्शम्या ग्राहा बिभीतकाः |
4752 | 2085046c | अश्वत्था नर्तकाश्चासन्भरद्वाजस्य तेजसा |
4753 | 2085047a | ततः सरलतालाश्च तिलका नक्तमालकाः |
4754 | 2085047c | प्रहृष्टास्तत्र संपेतुः कुब्जाभूताथ वामनाः |
4755 | 2085048a | शिंशपामलकी जम्बूर्याश्चान्याः कानने लताः |
4756 | 2085048c | प्रमदा विग्रहं कृत्वा भरद्वाजाश्रमेऽवसन् |
4757 | 2085049a | सुरां सुरापाः पिबत पायसं च बुभुक्शिताः |
4758 | 2085049c | मांसनि च सुमेध्यानि भक्ष्यन्तां यावदिच्छथ |
4759 | 2085050a | उत्साद्य स्नापयन्ति स्म नदीतीरेषु वल्गुषु |
4760 | 2085050c | अप्येकमेकं पुरुषं प्रमदाः सत्प चाष्ट च |
4761 | 2085051a | संवहन्त्यः समापेतुर्नार्यो रुचिरलोचनाः |
4762 | 2085051c | परिमृज्य तथा न्यायं पाययन्ति वराङ्गनाः |
4763 | 2085052a | हयान्गजान्खरानुष्ट्रांस्तथैव सुरभेः सुतान् |
4764 | 2085052c | इक्षूंश्च मधुजालांश्च भोजयन्ति स्म वाहनान् |
4765 | 2085052e | इक्ष्वाकुवरयोधानां चोदयन्तो महाबलाः |
4766 | 2085053a | नाश्वबन्धोऽश्वमाजानान्न गजं कुञ्जरग्रहः |
4767 | 2085053c | मत्तप्रमत्तमुदिता चमूः सा तत्र संबभौ |
4768 | 2085054a | तर्पिता सर्वकामैस्ते रक्तचन्दनरूषिताः |
4769 | 2085054c | अप्सरोगणसंयुक्ताः सैन्या वाचमुदैरयन् |
4770 | 2085055a | नैवायोध्यां गमिष्यामो न गमिष्याम दण्डकान् |
4771 | 2085055c | कुशलं भरतस्यास्तु रामस्यास्तु तथा सुखम् |
4772 | 2085056a | इति पादातयोधाश्च हस्त्यश्वारोहबन्धकाः |
4773 | 2085056c | अनाथास्तं विधिं लब्ध्वा वाचमेतामुदैरयन् |
4774 | 2085057a | संप्रहृष्टा विनेदुस्ते नरास्तत्र सहस्रशः |
4775 | 2085057c | भरतस्यानुयातारः स्वर्गेऽयमिति चाब्रुवन् |
4776 | 2085058a | ततो भुक्तवतां तेषां तदन्नममृतोपमम् |
4777 | 2085058c | दिव्यानुद्वीक्ष्य भक्ष्यांस्तानभवद्भक्षणे मतिः |
4778 | 2085059a | प्रेष्याश्चेट्यश्च वध्वश्च बलस्थाश्चापि सर्वशः |
4779 | 2085059c | बभूवुस्ते भृशं तृप्ताः सर्वे चाहतवाससः |
4780 | 2085060a | कुञ्जराश्च खरोष्ट्रश्च गोऽश्वाश्च मृगपक्षिणः |
4781 | 2085060c | बभूवुः सुभृतास्तत्र नान्यो ह्यन्यमकल्पयत् |
4782 | 2085061a | नाशुक्लवासास्तत्रासीत्क्षुधितो मलिनोऽपि वा |
4783 | 2085061c | रजसा ध्वस्तकेशो वा नरः कश्चिददृश्यत |
4784 | 2085062a | आजैश्चापि च वाराहैर्निष्ठानवरसंचयैः |
4785 | 2085062c | फलनिर्यूहसंसिद्धैः सूपैर्गन्धरसान्वितैः |
4786 | 2085063a | पुष्पध्वजवतीः पूर्णाः शुक्लस्यान्नस्य चाभितः |
4787 | 2085063c | ददृशुर्विस्मितास्तत्र नरा लौहीः सहस्रशः |
4788 | 2085064a | बभूवुर्वनपार्श्वेषु कूपाः पायसकर्दमाः |
4789 | 2085064c | ताश्च कामदुघा गावो द्रुमाश्चासन्मधुश्च्युतः |
4790 | 2085065a | वाप्यो मैरेय पूर्णाश्च मृष्टमांसचयैर्वृताः |
4791 | 2085065c | प्रतप्त पिठरैश्चापि मार्गमायूरकौक्कुटैः |
4792 | 2085066a | पात्रीणां च सहस्राणि शातकुम्भमयानि च |
4793 | 2085066c | स्थाल्यः कुम्भ्यः करम्भ्यश्च दधिपूर्णाः सुसंस्कृताः |
4794 | 2085066e | यौवनस्थस्य गौरस्य कपित्थस्य सुगन्धिनः |
4795 | 2085067a | ह्रदाः पूर्णा रसालस्य दध्नः श्वेतस्य चापरे |
4796 | 2085067c | बभूवुः पायसस्यान्ते शर्करायाश्च संचयाः |
4797 | 2085068a | कल्कांश्चूर्णकषायांश्च स्नानानि विविधानि च |
4798 | 2085068c | ददृशुर्भाजनस्थानि तीर्थेषु सरितां नराः |
4799 | 2085069a | शुक्लानंशुमतश्चापि दन्तधावनसंचयान् |
4800 | 2085069c | शुक्लांश्चन्दनकल्कांश्च समुद्गेष्ववतिष्ठतः |
4801 | 2085070a | दर्पणान्परिमृष्टांश्च वाससां चापि संचयान् |
4802 | 2085070c | पादुकोपानहां चैव युग्मान्यत्र सहस्रशः |
4803 | 2085071a | आञ्जनीः कङ्कतान्कूर्चांश्छत्राणि च धनूंषि च |
4804 | 2085071c | मर्मत्राणानि चित्राणि शयनान्यासनानि च |
4805 | 2085072a | प्रतिपानह्रदान्पूर्णान्खरोष्ट्रगजवाजिनाम् |
4806 | 2085072c | अवगाह्य सुतीर्थांश्च ह्रदान्सोत्पल पुष्करान् |
4807 | 2085073a | नीलवैदूर्यवर्णांश्च मृदून्यवससंचयान् |
4808 | 2085073c | निर्वापार्थं पशूनां ते ददृशुस्तत्र सर्वशः |
4809 | 2085074a | व्यस्मयन्त मनुष्यास्ते स्वप्नकल्पं तदद्भुतम् |
4810 | 2085074c | दृष्ट्वातिथ्यं कृतं तादृग्भरतस्य महर्षिणा |
4811 | 2085075a | इत्येवं रममाणानां देवानामिव नन्दने |
4812 | 2085075c | भरद्वाजाश्रमे रम्ये सा रात्रिर्व्यत्यवर्तत |
4813 | 2085076a | प्रतिजग्मुश्च ता नद्यो गन्धर्वाश्च यथागतम् |
4814 | 2085076c | भरद्वाजमनुज्ञाप्य ताश्च सर्वा वराङ्गनाः |
4815 | 2085077a | तथैव मत्ता मदिरोत्कटा नरा;स्तथैव दिव्यागुरुचन्दनोक्षिताः |
4816 | 2085077c | तथैव दिव्या विविधाः स्रगुत्तमाः; पृथक्प्रकीर्णा मनुजैः प्रमर्दिताः |
4817 | 2086001a | ततस्तां रजनीमुष्य भरतः सपरिच्छदः |
4818 | 2086001c | कृतातिथ्यो भरद्वाजं कामादभिजगाम ह |
4819 | 2086002a | तमृषिः पुरुषव्याघ्रं प्रेक्ष्य प्राञ्जलिमागतम् |
4820 | 2086002c | हुताग्निहोत्रो भरतं भरद्वाजोऽभ्यभाषत |
4821 | 2086003a | कच्चिदत्र सुखा रात्रिस्तवास्मद्विषये गता |
4822 | 2086003c | समग्रस्ते जनः कच्चिदातिथ्ये शंस मेऽनघ |
4823 | 2086004a | तमुवाचाञ्जलिं कृत्वा भरतोऽभिप्रणम्य च |
4824 | 2086004c | आश्रमादभिनिष्क्रन्तमृषिमुत्तम तेजसं |
4825 | 2086005a | सुखोषितोऽस्मि भगवन्समग्रबलवाहनः |
4826 | 2086005c | तर्पितः सर्वकामैश्च सामात्यो बलवत्त्वया |
4827 | 2086006a | अपेतक्लमसंतापाः सुभक्ष्याः सुप्रतिश्रयाः |
4828 | 2086006c | अपि प्रेष्यानुपादाय सर्वे स्म सुसुखोषिताः |
4829 | 2086007a | आमन्त्रयेऽहं भगवन्कामं त्वामृषिसत्तम |
4830 | 2086007c | समीपं प्रस्थितं भ्रातुर्मैरेणेक्षस्व चक्षुषा |
4831 | 2086008a | आश्रमं तस्य धर्मज्ञ धार्मिकस्य महात्मनः |
4832 | 2086008c | आचक्ष्व कतमो मार्गः कियानिति च शंस मे |
4833 | 2086009a | इति पृष्टस्तु भरतं भ्रातृदर्शनलालसं |
4834 | 2086009c | प्रत्युवाच महातेजा भरद्वाजो महातपाः |
4835 | 2086010a | भरतार्धतृतीयेषु योजनेष्वजने वने |
4836 | 2086010c | चित्रकूटो गिरिस्तत्र रम्यनिर्दरकाननः |
4837 | 2086011a | उत्तरं पार्श्वमासाद्य तस्य मन्दाकिनी नदी |
4838 | 2086011c | पुष्पितद्रुमसंछन्ना रम्यपुष्पितकानना |
4839 | 2086012a | अनन्तरं तत्सरितश्चित्रकूटश्च पर्वतः |
4840 | 2086012c | ततो पर्णकुटी तात तत्र तौ वसतो ध्रुवम् |
4841 | 2086013a | दक्षिणेनैव मार्गेण सव्यदक्षिणमेव च |
4842 | 2086013c | गजवाजिरथाकीर्णां वाहिनीं वाहिनीपते |
4843 | 2086013e | वाहयस्व महाभाग ततो द्रक्ष्यसि राघवम् |
4844 | 2086014a | प्रयाणमिति च श्रुत्वा राजराजस्य योषितः |
4845 | 2086014c | हित्वा यानानि यानार्हा ब्राह्मणं पर्यवारयन् |
4846 | 2086015a | वेपमाना कृशा दीना सह देव्या सुमन्त्रिया |
4847 | 2086015c | कौसल्या तत्र जग्राह कराभ्यां चरणौ मुनेः |
4848 | 2086016a | असमृद्धेन कामेन सर्वलोकस्य गर्हिता |
4849 | 2086016c | कैकेयी तस्य जग्राह चरणौ सव्यपत्रपा |
4850 | 2086017a | तं प्रदक्षिणमागम्य भगवन्तं महामुनिम् |
4851 | 2086017c | अदूराद्भरतस्यैव तस्थौ दीनमनास्तदा |
4852 | 2086018a | ततः पप्रच्छ भरतं भरद्वाजो दृढव्रतः |
4853 | 2086018c | विशेषं ज्ञातुमिच्छामि मातॄणां तव राघव |
4854 | 2086019a | एवमुक्तस्तु भरतो भरद्वाजेन धार्मिकः |
4855 | 2086019c | उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा वाक्यं वचनकोविदः |
4856 | 2086020a | यामिमां भगवन्दीनां शोकानशनकर्शिताम् |
4857 | 2086020c | पितुर्हि महिषीं देवीं देवतामिव पश्यसि |
4858 | 2086021a | एषा तं पुरुषव्याघ्रं सिंहविक्रान्तगामिनम् |
4859 | 2086021c | कौसल्या सुषुवे रामं धातारमदितिर्यथा |
4860 | 2086022a | अस्या वामभुजं श्लिष्टा यैषा तिष्ठति दुर्मनाः |
4861 | 2086022c | कर्णिकारस्य शाखेव शीर्णपुष्पा वनान्तरे |
4862 | 2086023a | एतस्यास्तौ सुतौ देव्याः कुमारौ देववर्णिनौ |
4863 | 2086023c | उभौ लक्ष्मणशत्रुघ्नौ वीरौ सत्यपराक्रमौ |
4864 | 2086024a | यस्याः कृते नरयाघ्रौ जीवनाशमितो गतौ |
4865 | 2086024c | राजा पुत्रविहीनश्च स्वर्गं दशरथो गतः |
4866 | 2086025a | ऐश्वर्यकामां कैकेयीमनार्यामार्यरूपिणीम् |
4867 | 2086025c | ममैतां मातरं विद्धि नृशंसां पापनिश्चयाम् |
4868 | 2086025e | यतोमूलं हि पश्यामि व्यसनं महदात्मनः |
4869 | 2086026a | इत्युक्त्वा नरशार्दूलो बाष्पगद्गदया गिरा |
4870 | 2086026c | स निशश्वास ताम्राक्षो क्रुद्धो नाग इवासकृत् |
4871 | 2086027a | भरद्वाजो महर्षिस्तं ब्रुवन्तं भरतं तदा |
4872 | 2086027c | प्रत्युवाच महाबुद्धिरिदं वचनमर्थवत् |
4873 | 2086028a | न दोषेणावगन्तव्या कैकेयी भरत त्वया |
4874 | 2086028c | रामप्रव्राजनं ह्येतत्सुखोदर्कं भविष्यति |
4875 | 2086029a | अभिवाद्य तु संसिद्धः कृत्वा चैनं प्रदक्षिणम् |
4876 | 2086029c | आमन्त्र्य भरतः सैन्यं युज्यतामित्यचोदयत् |
4877 | 2086030a | ततो वाजिरथान्युक्त्वा दिव्यान्हेमपरिष्क्रितान् |
4878 | 2086030c | अध्यारोहत्प्रयाणार्थी बहून्बहुविधो जनः |
4879 | 2086031a | गजकन्यागजाश्चैव हेमकक्ष्याः पताकिनः |
4880 | 2086031c | जीमूता इव घर्मान्ते सघोषाः संप्रतस्थिरे |
4881 | 2086032a | विविधान्यपि यानानि महानि च लघूनि च |
4882 | 2086032c | प्रययुः सुमहार्हाणि पादैरेव पदातयः |
4883 | 2086033a | अथ यानप्रवेकैस्तु कौसल्याप्रमुखाः स्त्रियः |
4884 | 2086033c | रामदर्शनकाङ्क्षिण्यः प्रययुर्मुदितास्तदा |
4885 | 2086034a | स चार्कतरुणाभासां नियुक्तां शिबिकां शुभाम् |
4886 | 2086034c | आस्थाय प्रययौ श्रीमान्भरतः सपरिच्छदः |
4887 | 2086035a | सा प्रयाता महासेना गजवाजिरथाकुला |
4888 | 2086035c | दक्षिणां दिशमावृत्य महामेघ इवोत्थितः |
4889 | 2086035e | वनानि तु व्यतिक्रम्य जुष्टानि मृगपक्षिभिः |
4890 | 2086036a | सा संप्रहृष्टद्विपवाजियोधा; वित्रासयन्ती मृगपक्षिसंघान् |
4891 | 2086036c | महद्वनं तत्प्रविगाहमाना; रराज सेना भरतस्य तत्र |
4892 | 2087001a | तया महत्या यायिन्या ध्वजिन्या वनवासिनः |
4893 | 2087001c | अर्दिता यूथपा मत्ताः सयूथाः संप्रदुद्रुवुः |
4894 | 2087002a | ऋक्षाः पृषतसंघाश्च रुरवश्च समन्ततः |
4895 | 2087002c | दृश्यन्ते वनराजीषु गिरिष्वपि नदीषु च |
4896 | 2087003a | स संप्रतस्थे धर्मात्मा प्रीतो दशरथात्मजः |
4897 | 2087003c | वृतो महत्या नादिन्या सेनया चतुरङ्गया |
4898 | 2087004a | सागरौघनिभा सेना भरतस्य महात्मनः |
4899 | 2087004c | महीं संछादयामास प्रावृषि द्यामिवाम्बुदः |
4900 | 2087005a | तुरंगौघैरवतता वारणैश्च महाजवैः |
4901 | 2087005c | अनालक्ष्या चिरं कालं तस्मिन्काले बभूव भूः |
4902 | 2087006a | स यात्वा दूरमध्वानं सुपरिश्रान्त वाहनः |
4903 | 2087006c | उवाच भरतः श्रीमान्वसिष्ठं मन्त्रिणां वरम् |
4904 | 2087007a | यादृशं लक्ष्यते रूपं यथा चैव श्रुतं मया |
4905 | 2087007c | व्यक्तं प्राप्ताः स्म तं देशं भरद्वाजो यमब्रवीत् |
4906 | 2087008a | अयं गिरिश्चित्रकूटस्तथा मन्दाकिनी नदी |
4907 | 2087008c | एतत्प्रकाशते दूरान्नीलमेघनिभं वनम् |
4908 | 2087009a | गिरेः सानूनि रम्याणि चित्रकूटस्य संप्रति |
4909 | 2087009c | वारणैरवमृद्यन्ते मामकैः पर्वतोपमैः |
4910 | 2087010a | मुञ्चन्ति कुसुमान्येते नगाः पर्वतसानुषु |
4911 | 2087010c | नीला इवातपापाये तोयं तोयधरा घनाः |
4912 | 2087011a | किन्नराचरितोद्देशं पश्य शत्रुघ्न पर्वतम् |
4913 | 2087011c | हयैः समन्तादाकीर्णं मकरैरिव सागरम् |
4914 | 2087012a | एते मृगगणा भान्ति शीघ्रवेगाः प्रचोदिताः |
4915 | 2087012c | वायुप्रविद्धाः शरदि मेघराज्य इवाम्बरे |
4916 | 2087013a | कुर्वन्ति कुसुमापीडाञ्शिरःसु सुरभीनमी |
4917 | 2087013c | मेघप्रकाशैः फलकैर्दाक्षिणात्या यथा नराः |
4918 | 2087014a | निष्कूजमिव भूत्वेदं वनं घोरप्रदर्शनम् |
4919 | 2087014c | अयोध्येव जनाकीर्णा संप्रति प्रतिभाति मा |
4920 | 2087015a | खुरैरुदीरितो रेणुर्दिवं प्रच्छाद्य तिष्ठति |
4921 | 2087015c | तं वहत्यनिलः शीघ्रं कुर्वन्निव मम प्रियम् |
4922 | 2087016a | स्यन्दनांस्तुरगोपेतान्सूतमुख्यैरधिष्ठितान् |
4923 | 2087016c | एतान्संपततः शीघ्रं पश्य शत्रुघ्न कानने |
4924 | 2087017a | एतान्वित्रासितान्पश्य बर्हिणः प्रियदर्शनान् |
4925 | 2087017c | एतमाविशतः शैलमधिवासं पतत्रिणाम् |
4926 | 2087018a | अतिमात्रमयं देशो मनोज्ञः प्रतिभाति मा |
4927 | 2087018c | तापसानां निवासोऽयं व्यक्तं स्वर्गपथो यथा |
4928 | 2087019a | मृगा मृगीभिः सहिता बहवः पृषता वने |
4929 | 2087019c | मनोज्ञ रूपा लक्ष्यन्ते कुसुमैरिव चित्रितः |
4930 | 2087020a | साधु सैन्याः प्रतिष्ठन्तां विचिन्वन्तु च काननम् |
4931 | 2087020c | यथा तौ पुरुषव्याघ्रौ दृश्येते रामलक्ष्मणौ |
4932 | 2087021a | भरतस्य वचः श्रुत्वा पुरुषाः शस्त्रपाणयः |
4933 | 2087021c | विविशुस्तद्वनं शूरा धूमं च ददृशुस्ततः |
4934 | 2087022a | ते समालोक्य धूमाग्रमूचुर्भरतमागताः |
4935 | 2087022c | नामनुष्ये भवत्यग्निर्व्यक्तमत्रैव राघवौ |
4936 | 2087023a | अथ नात्र नरव्याघ्रौ राजपुत्रौ परंतपौ |
4937 | 2087023c | अन्ये रामोपमाः सन्ति व्यक्तमत्र तपस्विनः |
4938 | 2087024a | तच्छ्रुत्वा भरतस्तेषां वचनं साधु संमतम् |
4939 | 2087024c | सैन्यानुवाच सर्वांस्तानमित्रबलमर्दनः |
4940 | 2087025a | यत्ता भवन्तस्तिष्ठन्तु नेतो गन्तव्यमग्रतः |
4941 | 2087025c | अहमेव गमिष्यामि सुमन्त्रो गुरुरेव च |
4942 | 2087026a | एवमुक्तास्ततः सर्वे तत्र तस्थुः समन्ततः |
4943 | 2087026c | भरतो यत्र धूमाग्रं तत्र दृष्टिं समादधत् |
4944 | 2087027a | व्यवस्थिता या भरतेन सा चमू;र्निरीक्षमाणापि च धूममग्रतः |
4945 | 2087027c | बभूव हृष्टा नचिरेण जानती; प्रियस्य रामस्य समागमं तदा |
4946 | 2088001a | दीर्घकालोषितस्तस्मिन्गिरौ गिरिवनप्रियः |
4947 | 2088001c | विदेह्याः प्रियमाकाङ्क्षन्स्वं च चित्तं विलोभयन् |
4948 | 2088002a | अथ दाशरथिश्चित्रं चित्रकूटमदर्शयत् |
4949 | 2088002c | भार्याममरसंकाशः शचीमिव पुरंदरः |
4950 | 2088003a | न राज्याद्भ्रंशनं भद्रे न सुहृद्भिर्विनाभवः |
4951 | 2088003c | मनो मे बाधते दृष्ट्वा रमणीयमिमं गिरिम् |
4952 | 2088004a | पश्येममचलं भद्रे नानाद्विजगणायुतम् |
4953 | 2088004c | शिखरैः खमिवोद्विद्धैर्धातुमद्भिर्विभूषितम् |
4954 | 2088005a | केचिद्रजतसंकाशाः केचित्क्षतजसंनिभाः |
4955 | 2088005c | पीतमाञ्जिष्ठवर्णाश्च केचिन्मणिवरप्रभाः |
4956 | 2088006a | पुष्यार्ककेतुकाभाश्च केचिज्ज्योती रसप्रभाः |
4957 | 2088006c | विराजन्तेऽचलेन्द्रस्य देशा धातुविभूषिताः |
4958 | 2088007a | नानामृगगणद्वीपितरक्ष्वृक्षगणैर्वृतः |
4959 | 2088007c | अदुष्टैर्भात्ययं शैलो बहुपक्षिसमाकुलः |
4960 | 2088008a | आम्रजम्ब्वसनैर्लोध्रैः प्रियालैः पनसैर्धवैः |
4961 | 2088008c | अङ्कोलैर्भव्यतिनिशैर्बिल्वतिन्दुकवेणुभिः |
4962 | 2088009a | काश्मर्यरिष्टवरणैर्मधूकैस्तिलकैस्तथा |
4963 | 2088009c | बदर्यामलकैर्नीपैर्वेत्रधन्वनबीजकैः |
4964 | 2088010a | पुष्पवद्भिः फलोपेतैश्छायावद्भिर्मनोरमैः |
4965 | 2088010c | एवमादिभिराकीर्णः श्रियं पुष्यत्ययं गिरिः |
4966 | 2088011a | शैलप्रस्थेषु रम्येषु पश्येमान्कामहर्षणान् |
4967 | 2088011c | किन्नरान्द्वंद्वशो भद्रे रममाणान्मनस्विनः |
4968 | 2088012a | शाखावसक्तान्खड्गांश्च प्रवराण्यम्बराणि च |
4969 | 2088012c | पश्य विद्याधरस्त्रीणां क्रीडेद्देशान्मनोरमान् |
4970 | 2088013a | जलप्रपातैरुद्भेदैर्निष्यन्दैश्च क्वचित्क्वचित् |
4971 | 2088013c | स्रवद्भिर्भात्ययं शैलः स्रवन्मद इव द्विपः |
4972 | 2088014a | गुहासमीरणो गन्धान्नानापुष्पभवान्वहन् |
4973 | 2088014c | घ्राणतर्पणमभ्येत्य कं नरं न प्रहर्षयेत् |
4974 | 2088015a | यदीह शरदोऽनेकास्त्वया सार्धमनिन्दिते |
4975 | 2088015c | लक्ष्मणेन च वत्स्यामि न मां शोकः प्रधक्ष्यति |
4976 | 2088016a | बहुपुष्पफले रम्ये नानाद्विजगणायुते |
4977 | 2088016c | विचित्रशिखरे ह्यस्मिन्रतवानस्मि भामिनि |
4978 | 2088017a | अनेन वनवासेन मया प्राप्तं फलद्वयम् |
4979 | 2088017c | पितुश्चानृणता धर्मे भरतस्य प्रियं तथा |
4980 | 2088018a | वैदेहि रमसे कच्चिच्चित्रकूटे मया सह |
4981 | 2088018c | पश्यन्ती विविधान्भावान्मनोवाक्कायसंयतान् |
4982 | 2088019a | इदमेवामृतं प्राहू राज्ञां राजर्षयः परे |
4983 | 2088019c | वनवासं भवार्थाय प्रेत्य मे प्रपितामहाः |
4984 | 2088020a | शिलाः शैलस्य शोभन्ते विशालाः शतशोऽभितः |
4985 | 2088020c | बहुला बहुलैर्वर्णैर्नीलपीतसितारुणैः |
4986 | 2088021a | निशि भान्त्यचलेन्द्रस्य हुताशनशिखा इव |
4987 | 2088021c | ओषध्यः स्वप्रभा लक्ष्म्या भ्राजमानाः सहस्रशः |
4988 | 2088022a | केचित्क्षयनिभा देशाः केचिदुद्यानसंनिभाः |
4989 | 2088022c | केचिदेकशिला भान्ति पर्वतस्यास्य भामिनि |
4990 | 2088023a | भित्त्वेव वसुधां भाति चित्रकूटः समुत्थितः |
4991 | 2088023c | चित्रकूटस्य कूटोऽसौ दृश्यते सर्वतः शिवः |
4992 | 2088024a | कुष्ठपुंनागतगरभूर्जपत्रोत्तरच्छदान् |
4993 | 2088024c | कामिनां स्वास्तरान्पश्य कुशेशयदलायुतान् |
4994 | 2088025a | मृदिताश्चापविद्धाश्च दृश्यन्ते कमलस्रजः |
4995 | 2088025c | कामिभिर्वनिते पश्य फलानि विविधानि च |
4996 | 2088026a | वस्वौकसारां नलिनीमत्येतीवोत्तरान्कुरून् |
4997 | 2088026c | पर्वतश्चित्रकूटोऽसौ बहुमूलफलोदकः |
4998 | 2088027a | इमं तु कालं वनिते विजह्रिवां;स्त्वया च सीते सह लक्ष्मणेन च |
4999 | 2088027c | रतिं प्रपत्स्ये कुलधर्मवर्धिनीं; सतां पथि स्वैर्नियमैः परैः स्थितः |
5000 | 2089001a | अथ शैलाद्विनिष्क्रम्य मैथिलीं कोसलेश्वरः |
5001 | 2089001c | अदर्शयच्छुभजलां रम्यां मन्दाकिनीं नदीम् |
5002 | 2089002a | अब्रवीच्च वरारोहां चारुचन्द्रनिभाननाम् |
5003 | 2089002c | विदेहराजस्य सुतां रामो राजीवलोचनः |
5004 | 2089003a | विचित्रपुलिनां रम्यां हंससारससेविताम् |
5005 | 2089003c | कुसुमैरुपसंपन्नां पश्य मन्दाकिनीं नदीम् |
5006 | 2089004a | नानाविधैस्तीररुहैर्वृतां पुष्पफलद्रुमैः |
5007 | 2089004c | राजन्तीं राजराजस्य नलिनीमिव सर्वतः |
5008 | 2089005a | मृगयूथनिपीतानि कलुषाम्भांसि साम्प्रतम् |
5009 | 2089005c | तीर्थानि रमणीयानि रतिं संजनयन्ति मे |
5010 | 2089006a | जटाजिनधराः काले वल्कलोत्तरवाससः |
5011 | 2089006c | ऋषयस्त्ववगाहन्ते नदीं मन्दाकिनीं प्रिये |
5012 | 2089007a | आदित्यमुपतिष्ठन्ते नियमादूर्ध्वबाहवः |
5013 | 2089007c | एतेऽपरे विशालाक्षि मुनयः संशितव्रताः |
5014 | 2089008a | मारुतोद्धूत शिखरैः प्रनृत्त इव पर्वतः |
5015 | 2089008c | पादपैः पत्रपुष्पाणि सृजद्भिरभितो नदीम् |
5016 | 2089009a | कच्चिन्मणिनिकाशोदां कच्चित्पुलिनशालिनीम् |
5017 | 2089009c | कच्चित्सिद्धजनाकीर्णां पश्य मन्दाकिनीं नदीम् |
5018 | 2089010a | निर्धूतान्वायुना पश्य विततान्पुष्पसंचयान् |
5019 | 2089010c | पोप्लूयमानानपरान्पश्य त्वं जलमध्यगान् |
5020 | 2089011a | तांश्चातिवल्गु वचसो रथाङ्गाह्वयना द्विजाः |
5021 | 2089011c | अधिरोहन्ति कल्याणि निष्कूजन्तः शुभा गिरः |
5022 | 2089012a | दर्शनं चित्रकूटस्य मन्दाकिन्याश्च शोभने |
5023 | 2089012c | अधिकं पुरवासाच्च मन्ये च तव दर्शनात् |
5024 | 2089013a | विधूतकलुषैः सिद्धैस्तपोदमशमान्वितैः |
5025 | 2089013c | नित्यविक्षोभित जलां विहाहस्व मया सह |
5026 | 2089014a | सखीवच्च विगाहस्व सीते मन्दकिनीमिमाम् |
5027 | 2089014c | कमलान्यवमज्जन्ती पुष्कराणि च भामिनि |
5028 | 2089015a | त्वं पौरजनवद्व्यालानयोध्यामिव पर्वतम् |
5029 | 2089015c | मन्यस्व वनिते नित्यं सरयूवदिमां नदीम् |
5030 | 2089016a | लक्ष्मणश्चैव धर्मात्मा मन्निदेशे व्यवस्थितः |
5031 | 2089016c | त्वं चानुकूला वैदेहि प्रीतिं जनयथो मम |
5032 | 2089017a | उपस्पृशंस्त्रिषवणं मधुमूलफलाशनः |
5033 | 2089017c | नायोध्यायै न राज्याय स्पृहयेऽद्य त्वया सह |
5034 | 2089018a | इमां हि रम्यां गजयूथलोलितां; निपीततोयां गजसिंहवानरैः |
5035 | 2089018c | सुपुष्पितैः पुष्पधरैरलंकृतां; न सोऽस्ति यः स्यान्न गतक्रमः सुखी |
5036 | 2089019a | इतीव रामो बहुसंगतं वचः; प्रिया सहायः सरितं प्रति ब्रुवन् |
5037 | 2089019c | चचार रम्यं नयनाञ्जनप्रभं; स चित्रकूटं रघुवंशवर्धनः |
5038 | 2090001a | तथा तत्रासतस्तस्य भरतस्योपयायिनः |
5039 | 2090001c | सैन्य रेणुश्च शब्दश्च प्रादुरास्तां नभः स्पृशौ |
5040 | 2090002a | एतस्मिन्नन्तरे त्रस्ताः शब्देन महता ततः |
5041 | 2090002c | अर्दिता यूथपा मत्ताः सयूथा दुद्रुवुर्दिशः |
5042 | 2090003a | स तं सैन्यसमुद्भूतं शब्दं शुश्रव राघवः |
5043 | 2090003c | तांश्च विप्रद्रुतान्सर्वान्यूथपानन्ववैक्षत |
5044 | 2090004a | तांश्च विद्रवतो दृष्ट्वा तं च श्रुत्वा स निःस्वनम् |
5045 | 2090004c | उवाच रामः सौमित्रिं लक्ष्मणं दीप्ततेजसं |
5046 | 2090005a | हन्त लक्ष्मण पश्येह सुमित्रा सुप्रजास्त्वया |
5047 | 2090005c | भीमस्तनितगम्भीरस्तुमुलः श्रूयते स्वनः |
5048 | 2090006a | राजा वा राजमात्रो वा मृगयामटते वने |
5049 | 2090006c | अन्यद्वा श्वापदं किंचित्सौमित्रे ज्ञातुमर्हसि |
5050 | 2090006e | सर्वमेतद्यथातत्त्वमचिराज्ज्ञातुमर्हसि |
5051 | 2090007a | स लक्ष्मणः संत्वरितः सालमारुह्य पुष्पितम् |
5052 | 2090007c | प्रेक्षमाणो दिशः सर्वाः पूर्वां दिशमवैक्षत |
5053 | 2090008a | उदङ्मुखः प्रेक्षमाणो ददर्श महतीं चमूम् |
5054 | 2090008c | रथाश्वगजसंबाधां यत्तैर्युक्तां पदातिभिः |
5055 | 2090009a | तामश्वगजसंपूर्णां रथध्वजविभूषिताम् |
5056 | 2090009c | शशंस सेनां रामाय वचनं चेदमब्रवीत् |
5057 | 2090010a | अग्निं संशमयत्वार्यः सीता च भजतां गुहाम् |
5058 | 2090010c | सज्यं कुरुष्व चापं च शरांश्च कवचं तथा |
5059 | 2090011a | तं रामः पुरुषव्याघ्रो लक्ष्मणं प्रत्युवाच ह |
5060 | 2090011c | अङ्गावेक्षस्व सौमित्रे कस्यैतां मन्यसे चमूम् |
5061 | 2090012a | एवमुक्क्तस्तु रामेण लक्ष्माणो वाक्यमब्रवीत् |
5062 | 2090012c | दिधक्षन्निव तां सेनां रुषितः पावको यथा |
5063 | 2090013a | संपन्नं राज्यमिच्छंस्तु व्यक्तं प्राप्याभिषेचनम् |
5064 | 2090013c | आवां हन्तुं समभ्येति कैकेय्या भरतः सुतः |
5065 | 2090014a | एष वै सुमहाञ्श्रीमान्विटपी संप्रकाशते |
5066 | 2090014c | विराजत्युद्गतस्कन्धः कोविदार ध्वजो रथे |
5067 | 2090015a | भजन्त्येते यथाकाममश्वानारुह्य शीघ्रगान् |
5068 | 2090015c | एते भ्राजन्ति संहृष्टा जगानारुह्य सादिनः |
5069 | 2090016a | गृहीतधनुषौ चावां गिरिं वीर श्रयावहे |
5070 | 2090016c | अपि नौ वशमागच्छेत्कोविदारध्वजो रणे |
5071 | 2090017a | अपि द्रक्ष्यामि भरतं यत्कृते व्यसनं महत् |
5072 | 2090017c | त्वया राघव संप्राप्तं सीतया च मया तथा |
5073 | 2090018a | यन्निमित्तं भवान्राज्याच्च्युतो राघव शाश्वतीम् |
5074 | 2090018c | संप्राप्तोऽयमरिर्वीर भरतो वध्य एव मे |
5075 | 2090019a | भरतस्य वधे दोषं नाहं पश्यामि राघव |
5076 | 2090019c | पूर्वापकरिणां त्यागे न ह्यधर्मो विधीयते |
5077 | 2090019e | एतस्मिन्निहते कृत्स्नामनुशाधि वसुंधराम् |
5078 | 2090020a | अद्य पुत्रं हतं संख्ये कैकेयी राज्यकामुका |
5079 | 2090020c | मया पश्येत्सुदुःखार्ता हस्तिभग्नमिव द्रुमम् |
5080 | 2090021a | कैकेयीं च वधिष्यामि सानुबन्धां सबान्धवाम् |
5081 | 2090021c | कलुषेणाद्य महता मेदिनी परिमुच्यताम् |
5082 | 2090022a | अद्येमं संयतं क्रोधमसत्कारं च मानद |
5083 | 2090022c | मोक्ष्यामि शत्रुसैन्येषु कक्षेष्विव हुताशनम् |
5084 | 2090023a | अद्यैतच्चित्रकूटस्य काननं निशितैः शरैः |
5085 | 2090023c | भिन्दञ्शत्रुशरीराणि करिष्ये शोणितोक्षितम् |
5086 | 2090024a | शरैर्निर्भिन्नहृदयान्कुञ्जरांस्तुरगांस्तथा |
5087 | 2090024c | श्वापदाः परिकर्षन्तु नराश्च निहतान्मया |
5088 | 2090025a | शराणां धनुषश्चाहमनृणोऽस्मि महावने |
5089 | 2090025c | ससैन्यं भरतं हत्वा भविष्यामि न संशयः |
5090 | 2091001a | सुसंरब्धं तु सौमित्रिं लक्ष्मणं क्रोधमूर्छितम् |
5091 | 2091001c | रामस्तु परिसान्त्व्याथ वचनं चेदमब्रवीत् |
5092 | 2091002a | किमत्र धनुषा कार्यमसिना वा सचर्मणा |
5093 | 2091002c | महेष्वासे महाप्राज्ञे भरते स्वयमागते |
5094 | 2091003a | प्राप्तकालं यदेषोऽस्मान्भरतो द्रष्टुमिच्छति |
5095 | 2091003c | अस्मासु मनसाप्येष नाहितं किंचिदाचरेत् |
5096 | 2091004a | विप्रियं कृतपूर्वं ते भरतेन कदा न किम् |
5097 | 2091004c | ईदृशं वा भयं तेऽद्य भरतं योऽत्र शङ्कसे |
5098 | 2091005a | न हि ते निष्ठुरं वाच्यो भरतो नाप्रियं वचः |
5099 | 2091005c | अहं ह्यप्रियमुक्तः स्यां भरतस्याप्रिये कृते |
5100 | 2091006a | कथं नु पुत्राः पितरं हन्युः कस्यांचिदापदि |
5101 | 2091006c | भ्राता वा भ्रातरं हन्यात्सौमित्रे प्राणमात्मनः |
5102 | 2091007a | यदि राज्यस्य हेतोस्त्वमिमां वाचं प्रभाषसे |
5103 | 2091007c | वक्ष्यामि भरतं दृष्ट्वा राज्यमस्मै प्रदीयताम् |
5104 | 2091008a | उच्यमानो हि भरतो मया लक्ष्मण तत्त्वतः |
5105 | 2091008c | राज्यमस्मै प्रयच्छेति बाढमित्येव वक्ष्यति |
5106 | 2091009a | तथोक्तो धर्मशीलेन भ्रात्रा तस्य हिते रतः |
5107 | 2091009c | लक्ष्मणः प्रविवेशेव स्वानि गात्राणि लज्जया |
5108 | 2091010a | व्रीडितं लक्ष्मणं दृष्ट्वा राघवः प्रत्युवाच ह |
5109 | 2091010c | एष मन्ये महाबाहुरिहास्मान्द्रष्टुमागतः |
5110 | 2091011a | वनवासमनुध्याय गृहाय प्रतिनेष्यति |
5111 | 2091011c | इमां वाप्येश वैदेहीमत्यन्तसुखसेविनीम् |
5112 | 2091012a | एतौ तौ संप्रकाशेते गोत्रवन्तौ मनोरमौ |
5113 | 2091012c | वायुवेगसमौ वीर जवनौ तुरगोत्तमौ |
5114 | 2091013a | स एष सुमहाकायः कम्पते वाहिनीमुखे |
5115 | 2091013c | नागः शत्रुंजयो नाम वृद्धस्तातस्य धीमतः |
5116 | 2091014a | अवतीर्य तु सालाग्रात्तस्मात्स समितिंजयः |
5117 | 2091014c | लक्ष्मणः प्राञ्जलिर्भूत्वा तस्थौ रामस्य पार्श्वतः |
5118 | 2091015a | भरतेनाथ संदिष्टा संमर्दो न भवेदिति |
5119 | 2091015c | समन्तात्तस्य शैलस्य सेनावासमकल्पयत् |
5120 | 2091016a | अध्यर्धमिक्ष्वाकुचमूर्योजनं पर्वतस्य सा |
5121 | 2091016c | पार्श्वे न्यविशदावृत्य गजवाजिरथाकुला |
5122 | 2091017a | सा चित्रकूटे भरतेन सेना; धर्मं पुरस्कृत्य विधूय दर्पम् |
5123 | 2091017c | प्रसादनार्थं रघुनन्दनस्य; विरोचते नीतिमता प्रणीता |
5124 | 2092001a | निवेश्य सेनां तु विभुः पद्भ्यां पादवतां वरः |
5125 | 2092001c | अभिगन्तुं स काकुत्स्थमियेष गुरुवर्तकम् |
5126 | 2092002a | निविष्ट मात्रे सैन्ये तु यथोद्देशं विनीतवत् |
5127 | 2092002c | भरतो भ्रातरं वाक्यं शत्रुघ्नमिदमब्रवीत् |
5128 | 2092003a | क्षिप्रं वनमिदं सौम्य नरसंघैः समन्ततः |
5129 | 2092003c | लुब्धैश्च सहितैरेभिस्त्वमन्वेषितुमर्हसि |
5130 | 2092004a | यावन्न रामं द्रक्ष्यामि लक्ष्मणं वा महाबलम् |
5131 | 2092004c | वैदेहीं वा महाभागां न मे शान्तिर्भविष्यति |
5132 | 2092005a | यावन्न चन्द्रसंकाशं द्रक्ष्यामि शुभमाननम् |
5133 | 2092005c | भ्रातुः पद्मपलाशाक्षं न मे शान्तिर्भविष्यति |
5134 | 2092006a | यावन्न चरणौ भ्रातुः पार्थिव व्यञ्जनान्वितौ |
5135 | 2092006c | शिरसा धारयिष्यामि न मे शान्तिर्भविष्यति |
5136 | 2092007a | यावन्न राज्ये राज्यार्हः पितृपैतामहे स्थितः |
5137 | 2092007c | अभिषेकजलक्लिन्नो न मे शान्तिर्भविष्यति |
5138 | 2092008a | कृतकृत्या महाभागा वैदेही जनकात्मजा |
5139 | 2092008c | भर्तारं सागरान्तायाः पृथिव्या यानुगच्छति |
5140 | 2092009a | सुभगश्चित्रकूटोऽसौ गिरिराजोपमो गिरिः |
5141 | 2092009c | यस्मिन्वसति काकुत्स्थः कुबेर इवनन्दने |
5142 | 2092010a | कृतकार्यमिदं दुर्गं वनं व्यालनिषेवितम् |
5143 | 2092010c | यदध्यास्ते महातेजा रामः शस्त्रभृतां वरः |
5144 | 2092011a | एवमुक्त्वा महातेजा भरतः पुरुषर्षभः |
5145 | 2092011c | पद्भ्यामेव महातेजाः प्रविवेश महद्वनम् |
5146 | 2092012a | स तानि द्रुमजालानि जातानि गिरिसानुषु |
5147 | 2092012c | पुष्पिताग्राणि मध्येन जगाम वदतां वरः |
5148 | 2092013a | स गिरेश्चित्रकूटस्य सालमासाद्य पुष्पितम् |
5149 | 2092013c | रामाश्रमगतस्याग्नेर्ददर्श ध्वजमुच्छ्रितम् |
5150 | 2092014a | तं दृष्ट्वा भरतः श्रीमान्मुमोद सहबान्धवः |
5151 | 2092014c | अत्र राम इति ज्ञात्वा गतः पारमिवाम्भसः |
5152 | 2092015a | स चित्रकूटे तु गिरौ निशाम्य; रामाश्रमं पुण्यजनोपपन्नम् |
5153 | 2092015c | गुहेन सार्धं त्वरितो जगाम; पुनर्निवेश्यैव चमूं महात्मा |
5154 | 2093001a | निविष्टायां तु सेनायामुत्सुको भरतस्तदा |
5155 | 2093001c | जगाम भ्रातरं द्रष्टुं शत्रुघ्नमनुदर्शयन् |
5156 | 2093002a | ऋषिं वसिष्ठं संदिश्य मातॄर्मे शीघ्रमानय |
5157 | 2093002c | इति तरितमग्रे स जागम गुरुवत्सलः |
5158 | 2093003a | सुमन्त्रस्त्वपि शतुघ्नमदूरादन्वपद्यत |
5159 | 2093003c | रामदार्शनजस्तर्षो भरतस्येव तस्य च |
5160 | 2093004a | गच्छन्नेवाथ भरतस्तापसालयसंस्थिताम् |
5161 | 2093004c | भ्रातुः पर्णकुटीं श्रीमानुटजं च ददर्श ह |
5162 | 2093005a | शालायास्त्वग्रतस्तस्या ददर्श भरतस्तदा |
5163 | 2093005c | काष्टानि चावभग्नानि पुष्पाण्यवचितानि च |
5164 | 2093006a | ददर्श च वने तस्मिन्महतः संचयान्कृतान् |
5165 | 2093006c | मृगाणां महिषाणां च करीषैः शीतकारणात् |
5166 | 2093007a | गच्छनेव महाबाहुर्द्युतिमान्भरतस्तदा |
5167 | 2093007c | शत्रुघ्नं चाब्रवीद्धृष्टस्तानमात्यांश्च सर्वशः |
5168 | 2093008a | मन्ये प्राप्ताः स्म तं देशं भरद्वाजो यमब्रवीत् |
5169 | 2093008c | नातिदूरे हि मन्येऽहं नदीं मन्दाकिनीमितः |
5170 | 2093009a | उच्चैर्बद्धानि चीराणि लक्ष्मणेन भवेदयम् |
5171 | 2093009c | अभिज्ञानकृतः पन्था विकाले गन्तुमिच्छता |
5172 | 2093010a | इदं चोदात्तदन्तानां कुञ्जराणां तरस्विनाम् |
5173 | 2093010c | शैलपार्श्वे परिक्रान्तमन्योन्यमभिगर्जताम् |
5174 | 2093011a | यमेवाधातुमिच्छन्ति तापसाः सततं वने |
5175 | 2093011c | तस्यासौ दृश्यते धूमः संकुलः कृष्टवर्त्मनः |
5176 | 2093012a | अत्राहं पुरुषव्याघ्रं गुरुसत्कारकारिणम् |
5177 | 2093012c | आर्यं द्रक्ष्यामि संहृष्टो महर्षिमिव राघवम् |
5178 | 2093013a | अथ गत्वा मुहूर्तं तु चित्रकूटं स राघवः |
5179 | 2093013c | मन्दाकिनीमनुप्राप्तस्तं जनं चेदमब्रवीत् |
5180 | 2093014a | जगत्यां पुरुषव्याघ्र आस्ते वीरासने रतः |
5181 | 2093014c | जनेन्द्रो निर्जनं प्राप्य धिन्मे जन्म सजीवितम् |
5182 | 2093015a | मत्कृते व्यसनं प्राप्तो लोकनाथो महाद्युतिः |
5183 | 2093015c | सरान्कामान्परित्यज्य वने वसति राघवः |
5184 | 2093016a | इति लोकसमाक्रुष्टः पादेष्वद्य प्रसादयन् |
5185 | 2093016c | रामस्य निपतिष्यामि सीतायाश्च पुनः पुनः |
5186 | 2093017a | एवं स विलपंस्तस्मिन्वने दशरथात्मजः |
5187 | 2093017c | ददर्श महतीं पुण्यां पर्णशालां मनोरमाम् |
5188 | 2093018a | सालतालाश्वकर्णानां पर्णैर्बहुभिरावृताम् |
5189 | 2093018c | विशालां मृदुभिस्तीर्णां कुशैर्वेदिमिवाध्वरे |
5190 | 2093019a | शक्रायुध निकाशैश्च कार्मुकैर्भारसाधनैः |
5191 | 2093019c | रुक्मपृष्ठैर्महासारैः शोभितां शत्रुबाधकैः |
5192 | 2093020a | अर्करश्मिप्रतीकाशैर्घोरैस्तूणीगतैः शरैः |
5193 | 2093020c | शोभितां दीप्तवदनैः सर्पैर्भोगवतीमिव |
5194 | 2093021a | महारजतवासोभ्यामसिभ्यां च विराजिताम् |
5195 | 2093021c | रुक्मबिन्दुविचित्राभ्यां चर्मभ्यां चापि शोभिताम् |
5196 | 2093022a | गोधाङ्गुलित्रैरासाक्तैश्चित्रैः काञ्चनभूषितैः |
5197 | 2093022c | अरिसंघैरनाधृष्यां मृगैः सिंहगुहामिव |
5198 | 2093023a | प्रागुदक्स्रवणां वेदिं विशालां दीप्तपावकाम् |
5199 | 2093023c | ददर्श भरतस्तत्र पुण्यां रामनिवेशने |
5200 | 2093024a | निरीक्ष्य स मुहूर्तं तु ददर्श भरतो गुरुम् |
5201 | 2093024c | उटजे राममासीनां जटामण्डलधारिणम् |
5202 | 2093025a | तं तु कृष्णाजिनधरं चीरवल्कलवाससं |
5203 | 2093025c | ददर्श राममासीनमभितः पावकोपमम् |
5204 | 2093026a | सिंहस्कन्धं महाबाहुं पुण्डरीकनिभेक्षणम् |
5205 | 2093026c | पृथिव्याः सगरान्ताया भर्तारं धर्मचारिणम् |
5206 | 2093027a | उपविष्टं महाबाहुं ब्रह्माणमिव शाश्वतम् |
5207 | 2093027c | स्थण्डिले दर्भसस्म्तीर्णे सीतया लक्ष्मणेन च |
5208 | 2093028a | तं दृष्ट्वा भरतः श्रीमान्दुःखमोहपरिप्लुतः |
5209 | 2093028c | अभ्यधावत धर्मात्मा भरतः कैकयीसुतः |
5210 | 2093029a | दृष्ट्वा च विललापार्तो बाष्पसंदिग्धया गिरा |
5211 | 2093029c | अशक्नुवन्धारयितुं धैर्याद्वचनमब्रवीत् |
5212 | 2093030a | यः संसदि प्रकृतिभिर्भवेद्युक्त उपासितुम् |
5213 | 2093030c | वन्यैर्मृगैरुपासीनः सोऽयमास्ते ममाग्रजः |
5214 | 2093031a | वासोभिर्बहुसाहस्रैर्यो महात्मा पुरोचितः |
5215 | 2093031c | मृगाजिने सोऽयमिह प्रवस्ते धर्ममाचरन् |
5216 | 2093032a | अधारयद्यो विविधाश्चित्राः सुमनसस्तदा |
5217 | 2093032c | सोऽयं जटाभारमिमं सहते राघवः कथम् |
5218 | 2093033a | यस्य यज्ञैर्यथादिष्टैर्युक्तो धर्मस्य संचयः |
5219 | 2093033c | शरीर क्लेशसंभूतं स धर्मं परिमार्गते |
5220 | 2093034a | चन्दनेन महार्हेण यस्याङ्गमुपसेवितम् |
5221 | 2093034c | मलेन तस्याङ्गमिदं कथमार्यस्य सेव्यते |
5222 | 2093035a | मन्निमित्तमिदं दुःखं प्राप्तो रामः सुखोचितः |
5223 | 2093035c | धिग्जीवितं नृशंसस्य मम लोकविगर्हितम् |
5224 | 2093036a | इत्येवं विलपन्दीनः प्रस्विन्नमुखपङ्कजः |
5225 | 2093036c | पादावप्राप्य रामस्य पपात भरतो रुदन् |
5226 | 2093037a | दुःखाभितप्तो भरतो राजपुत्रो महाबलः |
5227 | 2093037c | उक्त्वार्येति सकृद्दीनं पुनर्नोवाच किंचन |
5228 | 2093038a | बाष्पापिहित कण्ठश्च प्रेक्ष्य रामं यशस्विनम् |
5229 | 2093038c | आर्येत्येवाभिसंक्रुश्य व्याहर्तुं नाशकत्ततः |
5230 | 2093039a | शत्रुघ्नश्चापि रामस्य ववन्दे चरणौ रुदन् |
5231 | 2093039c | तावुभौ स समालिङ्ग्य रामोऽप्यश्रूण्यवर्तयत् |
5232 | 2093040a | ततः सुमन्त्रेण गुहेन चैव; समीयतू राजसुतावरण्ये |
5233 | 2093040c | दिवाकरश्चैव निशाकरश्च; यथाम्बरे शुक्रबृहस्पतिभ्याम् |
5234 | 2093041a | तान्पार्थिवान्वारणयूथपाभा;न्समागतांस्तत्र महत्यरण्ये |
5235 | 2093041c | वनौकसस्तेऽपि समीक्ष्य सर्वे;ऽप्यश्रूण्यमुञ्चन्प्रविहाय हर्षम् |
5236 | 2094001a | आघ्राय रामस्तं मूर्ध्नि परिष्वज्य च राघवः |
5237 | 2094001c | अङ्के भरतमारोप्य पर्यपृच्छत्समाहितः |
5238 | 2094002a | क्व नु तेऽभूत्पिता तात यदरण्यं त्वमागतः |
5239 | 2094002c | न हि त्वं जीवतस्तस्य वनमागन्तुमर्हसि |
5240 | 2094003a | चिरस्य बत पश्यामि दूराद्भरतमागतम् |
5241 | 2094003c | दुष्प्रतीकमरण्येऽस्मिन्किं तात वनमागतः |
5242 | 2094004a | कच्चिद्दशरथो राजा कुशली सत्यसंगरः |
5243 | 2094004c | राजसूयाश्वमेधानामाहर्ता धर्मनिश्चयः |
5244 | 2094005a | स कच्चिद्ब्राह्मणो विद्वान्धर्मनित्यो महाद्युतिः |
5245 | 2094005c | इक्ष्वाकूणामुपाध्यायो यथावत्तात पूज्यते |
5246 | 2094006a | तात कच्चिच्च कौसल्या सुमित्रा च प्रजावती |
5247 | 2094006c | सुखिनी कच्चिदार्या च देवी नन्दति कैकयी |
5248 | 2094007a | कच्चिद्विनय संपन्नः कुलपुत्रो बहुश्रुतः |
5249 | 2094007c | अनसूयुरनुद्रष्टा सत्कृतस्ते पुरोहितः |
5250 | 2094008a | कच्चिदग्निषु ते युक्तो विधिज्ञो मतिमानृजुः |
5251 | 2094008c | हुतं च होष्यमाणं च काले वेदयते सदा |
5252 | 2094009a | इष्वस्त्रवरसंपन्नमर्थशास्त्रविशारदम् |
5253 | 2094009c | सुधन्वानमुपाध्यायं कच्चित्त्वं तात मन्यसे |
5254 | 2094010a | कच्चिदात्म समाः शूराः श्रुतवन्तो जितेन्द्रियाः |
5255 | 2094010c | कुलीनाश्चेङ्गितज्ञाश्च कृतास्ते तात मन्त्रिणः |
5256 | 2094011a | मन्त्रो विजयमूलं हि राज्ञां भवति राघव |
5257 | 2094011c | सुसंवृतो मन्त्रधरैरमात्यैः शास्त्रकोविदैः |
5258 | 2094012a | कच्चिन्निद्रावशं नैषि कच्चित्काले विबुध्यसे |
5259 | 2094012c | कच्चिंश्चापररात्रिषु चिन्तयस्यर्थनैपुणम् |
5260 | 2094013a | कच्चिन्मन्त्रयसे नैकः कच्चिन्न बहुभिः सह |
5261 | 2094013c | कच्चित्ते मन्त्रितो मन्त्रो राष्ट्रं न परिधावति |
5262 | 2094014a | कच्चिदर्थं विनिश्चित्य लघुमूलं महोदयम् |
5263 | 2094014c | क्षिप्रमारभसे कर्तुं न दीर्घयसि राघव |
5264 | 2094015a | कच्चित्तु सुकृतान्येव कृतरूपाणि वा पुनः |
5265 | 2094015c | विदुस्ते सर्वकार्याणि न कर्तव्यानि पार्थिवाः |
5266 | 2094016a | कच्चिन्न तर्कैर्युक्त्वा वा ये चाप्यपरिकीर्तिताः |
5267 | 2094016c | त्वया वा तव वामात्यैर्बुध्यते तात मन्त्रितम् |
5268 | 2094017a | कच्चित्सहस्रान्मूर्खाणामेकमिच्छसि पण्डितम् |
5269 | 2094017c | पण्डितो ह्यर्थकृच्छ्रेषु कुर्यान्निःश्रेयसं महत् |
5270 | 2094018a | सहस्राण्यपि मूर्खाणां यद्युपास्ते महीपतिः |
5271 | 2094018c | अथ वाप्ययुतान्येव नास्ति तेषु सहायता |
5272 | 2094019a | एकोऽप्यमात्यो मेधावी शूरो दक्षो विचक्षणः |
5273 | 2094019c | राजानं राजमात्रं वा प्रापयेन्महतीं श्रियम् |
5274 | 2094020a | कच्चिन्मुख्या महत्स्वेव मध्यमेषु च मध्यमाः |
5275 | 2094020c | जघन्याश्च जघन्येषु भृत्याः कर्मसु योजिताः |
5276 | 2094021a | अमात्यानुपधातीतान्पितृपैतामहाञ्शुचीन् |
5277 | 2094021c | श्रेष्ठाञ्श्रेष्ठेषु कच्चित्त्वं नियोजयसि कर्मसु |
5278 | 2094022a | कच्चित्त्वां नावजानन्ति याजकाः पतितं यथा |
5279 | 2094022c | उग्रप्रतिग्रहीतारं कामयानमिव स्त्रियः |
5280 | 2094023a | उपायकुशलं वैद्यं भृत्यसंदूषणे रतम् |
5281 | 2094023c | शूरमैश्वर्यकामं च यो न हन्ति स वध्यते |
5282 | 2094024a | कच्चिद्धृष्टश्च शूरश्च धृतिमान्मतिमाञ्शुचिः |
5283 | 2094024c | कुलीनश्चानुरक्तश्च दक्षः सेनापतिः कृतः |
5284 | 2094025a | बलवन्तश्च कच्चित्ते मुख्या युद्धविशारदाः |
5285 | 2094025c | दृष्टापदाना विक्रान्तास्त्वया सत्कृत्य मानिताः |
5286 | 2094026a | कचिद्बलस्य भक्तं च वेतनं च यथोचितम् |
5287 | 2094026c | संप्राप्तकालं दातव्यं ददासि न विलम्बसे |
5288 | 2094027a | कालातिक्रमणे ह्येव भक्त वेतनयोर्भृताः |
5289 | 2094027c | भर्तुः कुप्यन्ति दुष्यन्ति सोऽनर्थः सुमहान्स्मृतः |
5290 | 2094028a | कच्चित्सर्वेऽनुरक्तास्त्वां कुलपुत्राः प्रधानतः |
5291 | 2094028c | कच्चित्प्राणांस्तवार्थेषु संत्यजन्ति समाहिताः |
5292 | 2094029a | कच्चिज्जानपदो विद्वान्दक्षिणः प्रतिभानवान् |
5293 | 2094029c | यथोक्तवादी दूतस्ते कृतो भरत पण्डितः |
5294 | 2094030a | कच्चिदष्टादशान्येषु स्वपक्षे दश पञ्च च |
5295 | 2094030c | त्रिभिस्त्रिभिरविज्ञातैर्वेत्सि तीर्थानि चारकैः |
5296 | 2094031a | कच्चिद्व्यपास्तानहितान्प्रतियातांश्च सर्वदा |
5297 | 2094031c | दुर्बलाननवज्ञाय वर्तसे रिपुसूदन |
5298 | 2094032a | कच्चिन्न लोकायतिकान्ब्राह्मणांस्तात सेवसे |
5299 | 2094032c | अनर्थ कुशला ह्येते बालाः पण्डितमानिनः |
5300 | 2094033a | धर्मशास्त्रेषु मुख्येषु विद्यमानेषु दुर्बुधाः |
5301 | 2094033c | बुद्धिमान्वीक्षिकीं प्राप्य निरर्थं प्रवदन्ति ते |
5302 | 2094034a | वीरैरध्युषितां पूर्वमस्माकं तात पूर्वकैः |
5303 | 2094034c | सत्यनामां दृढद्वारां हस्त्यश्वरथसंकुलाम् |
5304 | 2094035a | ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः स्वकर्मनिरतैः सदा |
5305 | 2094035c | जितेन्द्रियैर्महोत्साहैर्वृतामात्यैः सहस्रशः |
5306 | 2094036a | प्रासादैर्विविधाकारैर्वृतां वैद्यजनाकुलाम् |
5307 | 2094036c | कच्चित्समुदितां स्फीतामयोध्यां परिरक्षसि |
5308 | 2094037a | कच्चिच्चैत्यशतैर्जुष्टः सुनिविष्टजनाकुलः |
5309 | 2094037c | देवस्थानैः प्रपाभिश्च तडागैश्चोपशोभितः |
5310 | 2094038a | प्रहृष्टनरनारीकः समाजोत्सवशोभितः |
5311 | 2094038c | सुकृष्टसीमा पशुमान्हिंसाभिरभिवर्जितः |
5312 | 2094039a | अदेवमातृको रम्यः श्वापदैः परिवर्जितः |
5313 | 2094039c | कच्चिज्जनपदः स्फीतः सुखं वसति राघव |
5314 | 2094040a | कच्चित्ते दयिताः सर्वे कृषिगोरक्षजीविनः |
5315 | 2094040c | वार्तायां संश्रितस्तात लोको हि सुखमेधते |
5316 | 2094041a | तेषां गुप्तिपरीहारैः कच्चित्ते भरणं कृतम् |
5317 | 2094041c | रक्ष्या हि राज्ञा धर्मेण सर्वे विषयवासिनः |
5318 | 2094042a | कच्चित्स्त्रियः सान्त्वयसि कच्चित्ताश्च सुरक्षिताः |
5319 | 2094042c | कच्चिन्न श्रद्दधास्यासां कच्चिद्गुह्यं न भाषसे |
5320 | 2094043a | कच्चिन्नाग वनं गुप्तं कुञ्जराणं च तृप्यसि |
5321 | 2094043c | कच्चिद्दर्शयसे नित्यं मनुष्याणां विभूषितम् |
5322 | 2094043e | उत्थायोत्थाय पूर्वाह्णे राजपुत्रो महापथे |
5323 | 2094044a | कच्चित्सर्वाणि दुर्गाणि धनधान्यायुधोदकैः |
5324 | 2094044c | यन्त्रैश्च परिपूर्णानि तथा शिल्पिधनुर्धरैः |
5325 | 2094045a | आयस्ते विपुलः कच्चित्कच्चिदल्पतरो व्ययः |
5326 | 2094045c | अपात्रेषु न ते कच्चित्कोशो गच्छति राघव |
5327 | 2094046a | देवतार्थे च पित्रर्थे ब्राह्मणाभ्यागतेषु च |
5328 | 2094046c | योधेषु मित्रवर्गेषु कच्चिद्गच्छति ते व्ययः |
5329 | 2094047a | कच्चिदार्यो विशुद्धात्मा क्षारितश्चोरकर्मणा |
5330 | 2094047c | अपृष्टः शास्त्रकुशलैर्न लोभाद्बध्यते शुचिः |
5331 | 2094048a | गृहीतश्चैव पृष्टश्च काले दृष्टः सकारणः |
5332 | 2094048c | कच्चिन्न मुच्यते चोरो धनलोभान्नरर्षभ |
5333 | 2094049a | व्यसने कच्चिदाढ्यस्य दुगतस्य च राघव |
5334 | 2094049c | अर्थं विरागाः पश्यन्ति तवामात्या बहुश्रुताः |
5335 | 2094050a | यानि मिथ्याभिशस्तानां पतन्त्यस्राणि राघव |
5336 | 2094050c | तानि पुत्रपशून्घ्नन्ति प्रीत्यर्थमनुशासतः |
5337 | 2094051a | कच्चिद्वृधांश्च बालांश्च वैद्यमुख्यांश्च राघव |
5338 | 2094051c | दानेन मनसा वाचा त्रिभिरेतैर्बुभूषसे |
5339 | 2094052a | कच्चिद्गुरूंश्च वृद्धांश्च तापसान्देवतातिथीन् |
5340 | 2094052c | चैत्यांश्च सर्वान्सिद्धार्थान्ब्राह्मणांश्च नमस्यसि |
5341 | 2094053a | कच्चिदर्थेन वा धर्मं धर्मं धर्मेण वा पुनः |
5342 | 2094053c | उभौ वा प्रीतिलोभेन कामेन न विबाधसे |
5343 | 2094054a | कच्चिदर्थं च धर्मं च कामं च जयतां वर |
5344 | 2094054c | विभज्य काले कालज्ञ सर्वान्भरत सेवसे |
5345 | 2094055a | कच्चित्ते ब्राह्मणाः शर्म सर्वशास्त्रार्थकोविदः |
5346 | 2094055c | आशंसन्ते महाप्राज्ञ पौरजानपदैः सह |
5347 | 2094056a | नास्तिक्यमनृतं क्रोधं प्रमादं दीर्घसूत्रताम् |
5348 | 2094056c | अदर्शनं ज्ञानवतामालस्यं पञ्चवृत्तिताम् |
5349 | 2094057a | एकचिन्तनमर्थानामनर्थज्ञैश्च मन्त्रणम् |
5350 | 2094057c | निश्चितानामनारम्भं मन्त्रस्यापरिलक्षणम् |
5351 | 2094058a | मङ्गलस्याप्रयोगं च प्रत्युत्थानं च सर्वशः |
5352 | 2094058c | कच्चित्त्वं वर्जयस्येतान्राजदोषांश्चतुर्दश |
5353 | 2094059a | कच्चित्स्वादुकृतं भोज्यमेको नाश्नासि राघव |
5354 | 2094059c | कच्चिदाशंसमानेभ्यो मित्रेभ्यः संप्रयच्छसि |
5355 | 2095001a | रामस्य वचनं श्रुत्वा भरतः प्रत्युवाच ह |
5356 | 2095001c | किं मे धर्माद्विहीनस्य राजधर्मः करिष्यति |
5357 | 2095002a | शाश्वतोऽयं सदा धर्मः स्थितोऽस्मासु नरर्षभ |
5358 | 2095002c | ज्येष्ठ पुत्रे स्थिते राजन्न कनीयान्भवेन्नृपः |
5359 | 2095003a | स समृद्धां मया सार्धमयोध्यां गच्छ राघव |
5360 | 2095003c | अभिषेचय चात्मानं कुलस्यास्य भवाय नः |
5361 | 2095004a | राजानं मानुषं प्राहुर्देवत्वे संमतो मम |
5362 | 2095004c | यस्य धर्मार्थसहितं वृत्तमाहुरमानुषम् |
5363 | 2095005a | केकयस्थे च मयि तु त्वयि चारण्यमाश्रिते |
5364 | 2095005c | दिवमार्य गतो राजा यायजूकः सतां मतः |
5365 | 2095006a | उत्तिष्ठ पुरुषव्याघ्र क्रियतामुदकं पितुः |
5366 | 2095006c | अहं चायं च शत्रुघ्नः पूर्वमेव कृतोदकौ |
5367 | 2095007a | प्रियेण किल दत्तं हि पितृलोकेषु राघव |
5368 | 2095007c | अक्षय्यं भवतीत्याहुर्भवांश्चैव पितुः प्रियः |
5369 | 2095008a | तां श्रुत्वा करुणां वाचं पितुर्मरणसंहिताम् |
5370 | 2095008c | राघवो भरतेनोक्तां बभूव गतचेतनः |
5371 | 2095009a | वाग्वज्रं भरतेनोक्तममनोज्ञं परंतपः |
5372 | 2095009c | प्रगृह्य बाहू रामो वै पुष्पिताग्रो यथा द्रुमः |
5373 | 2095009e | वने परशुना कृत्तस्तथा भुवि पपात ह |
5374 | 2095010a | तथा हि पतितं रामं जगत्यां जगतीपतिम् |
5375 | 2095010c | कूलघातपरिश्रान्तं प्रसुप्तमिव कुञ्जरम् |
5376 | 2095011a | भ्रातरस्ते महेष्वासं सर्वतः शोककर्शितम् |
5377 | 2095011c | रुदन्तः सह वैदेह्या सिषिचुः सलिलेन वै |
5378 | 2095012a | स तु संज्ञां पुनर्लब्ध्वा नेत्राभ्यामास्रमुत्सृजन् |
5379 | 2095012c | उपाक्रामत काकुत्स्थः कृपणं बहुभाषितुम् |
5380 | 2095013a | किं नु तस्य मया कार्यं दुर्जातेन महात्मना |
5381 | 2095013c | यो मृतो मम शोकेन न मया चापि संस्कृतः |
5382 | 2095014a | अहो भरत सिद्धार्थो येन राजा त्वयानघ |
5383 | 2095014c | शत्रुघेण च सर्वेषु प्रेतकृत्येषु सत्कृतः |
5384 | 2095015a | निष्प्रधानामनेकाग्रं नरेन्द्रेण विनाकृताम् |
5385 | 2095015c | निवृत्तवनवासोऽपि नायोध्यां गन्तुमुत्सहे |
5386 | 2095016a | समाप्तवनवासं मामयोध्यायां परंतप |
5387 | 2095016c | को नु शासिष्यति पुनस्ताते लोकान्तरं गते |
5388 | 2095017a | पुरा प्रेक्ष्य सुवृत्तं मां पिता यान्याह सान्त्वयन् |
5389 | 2095017c | वाक्यानि तानि श्रोष्यामि कुतः कर्णसुखान्यहम् |
5390 | 2095018a | एवमुक्त्वा स भरतं भार्यामभ्येत्य राघवः |
5391 | 2095018c | उवाच शोकसंतप्तः पूर्णचन्द्रनिभाननाम् |
5392 | 2095019a | सीते मृतस्ते श्वशुरः पित्रा हीनोऽसि लक्ष्मण |
5393 | 2095019c | भरतो दुःखमाचष्टे स्वर्गतं पृथिवीपतिम् |
5394 | 2095020a | सान्त्वयित्वा तु तां रामो रुदन्तीं जनकात्मजाम् |
5395 | 2095020c | उवाच लक्ष्मणं तत्र दुःखितो दुःखितं वचः |
5396 | 2095021a | आनयेङ्गुदिपिण्याकं चीरमाहर चोत्तरम् |
5397 | 2095021c | जलक्रियार्थं तातस्य गमिष्यामि महात्मनः |
5398 | 2095022a | सीता पुरस्ताद्व्रजतु त्वमेनामभितो व्रज |
5399 | 2095022c | अहं पश्चाद्गमिष्यामि गतिर्ह्येषा सुदारुणा |
5400 | 2095023a | ततो नित्यानुगस्तेषां विदितात्मा महामतिः |
5401 | 2095023c | मृदुर्दान्तश्च शान्तश्च रामे च दृढ भक्तिमान् |
5402 | 2095024a | सुमन्त्रस्तैर्नृपसुतैः सार्धमाश्वास्य राघवम् |
5403 | 2095024c | अवातारयदालम्ब्य नदीं मन्दाकिनीं शिवाम् |
5404 | 2095025a | ते सुतीर्थां ततः कृच्छ्रादुपागम्य यशस्विनः |
5405 | 2095025c | नदीं मन्दाकिनीं रम्यां सदा पुष्पितकाननाम् |
5406 | 2095026a | शीघ्रस्रोतसमासाद्य तीर्थं शिवमकर्दमम् |
5407 | 2095026c | सिषिचुस्तूदकं राज्ञे तत एतद्भवत्विति |
5408 | 2095027a | प्रगृह्य च महीपालो जलपूरितमञ्जलिम् |
5409 | 2095027c | दिशं याम्यामभिमुखो रुदन्वचनमब्रवीत् |
5410 | 2095028a | एतत्ते राजशार्दूल विमलं तोयमक्षयम् |
5411 | 2095028c | पितृलोकगतस्याद्य मद्दत्तमुपतिष्ठतु |
5412 | 2095029a | ततो मन्दाकिनी तीरात्प्रत्युत्तीर्य स राघवः |
5413 | 2095029c | पितुश्चकार तेजस्वी निवापं भ्रातृभिः सह |
5414 | 2095030a | ऐङ्गुदं बदरीमिश्रं पिण्याकं दर्भसंस्तरे |
5415 | 2095030c | न्यस्य रामः सुदुःखार्तो रुदन्वचनमब्रवीत् |
5416 | 2095031a | इदं भुङ्क्ष्व महाराजप्रीतो यदशना वयम् |
5417 | 2095031c | यदन्नः पुरुषो भवति तदन्नास्तस्य देवताः |
5418 | 2095032a | ततस्तेनैव मार्गेण प्रत्युत्तीर्य नदीतटात् |
5419 | 2095032c | आरुरोह नरव्याघ्रो रम्यसानुं महीधरम् |
5420 | 2095033a | ततः पर्णकुटीद्वारमासाद्य जगतीपतिः |
5421 | 2095033c | परिजग्राह पाणिभ्यामुभौ भरतलक्ष्मणौ |
5422 | 2095034a | तेषां तु रुदतां शब्दात्प्रतिश्रुत्काभवद्गिरौ |
5423 | 2095034c | भ्रातॄणां सह वैदेह्या सिंहानां नर्दतामिव |
5424 | 2095035a | विज्ञाय तुमुलं शब्दं त्रस्ता भरतसैनिकाः |
5425 | 2095035c | अब्रुवंश्चापि रामेण भरतः संगतो ध्रुवम् |
5426 | 2095035e | तेषामेव महाञ्शब्दः शोचतां पितरं मृतम् |
5427 | 2095036a | अथ वासान्परित्यज्य तं सर्वेऽभिमुखाः स्वनम् |
5428 | 2095036c | अप्येक मनसो जग्मुर्यथास्थानं प्रधाविताः |
5429 | 2095037a | हयैरन्ये गजैरन्ये रथैरन्ये स्वलंकृतैः |
5430 | 2095037c | सुकुमारास्तथैवान्ये पद्भिरेव नरा ययुः |
5431 | 2095038a | अचिरप्रोषितं रामं चिरविप्रोषितं यथा |
5432 | 2095038c | द्रष्टुकामो जनः सर्वो जगाम सहसाश्रमम् |
5433 | 2095039a | भ्रातॄणां त्वरितास्ते तु द्रष्टुकामाः समागमम् |
5434 | 2095039c | ययुर्बहुविधैर्यानैः खुरनेमिसमाकुलैः |
5435 | 2095040a | सा भूमिर्बहुभिर्यानैः खुरनेमिसमाहता |
5436 | 2095040c | मुमोच तुमुलं शब्दं द्यौरिवाभ्रसमागमे |
5437 | 2095041a | तेन वित्रासिता नागाः करेणुपरिवारिताः |
5438 | 2095041c | आवासयन्तो गन्धेन जग्मुरन्यद्वनं ततः |
5439 | 2095042a | वराहमृगसिंहाश्च महिषाः सर्क्षवानराः |
5440 | 2095042c | व्याघ्र गोकर्णगवया वित्रेषुः पृषतैः सह |
5441 | 2095043a | रथाङ्गसाह्वा नत्यूहा हंसाः कारण्डवाः प्लवाः |
5442 | 2095043c | तथा पुंस्कोकिलाः क्रौञ्चा विसंज्ञा भेजिरे दिशः |
5443 | 2095044a | तेन शब्देन वित्रस्तैराकाशं पक्षिभिर्वृतम् |
5444 | 2095044c | मनुष्यैरावृता भूमिरुभयं प्रबभौ तदा |
5445 | 2095045a | तान्नरान्बाष्पपूर्णाक्षान्समीक्ष्याथ सुदुःखितान् |
5446 | 2095045c | पर्यष्वजत धर्मज्ञः पितृवन्मातृवच्च सः |
5447 | 2095046a | स तत्र कांश्चित्परिषस्वजे नरा;न्नराश्च केचित्तु तमभ्यवादयन् |
5448 | 2095046c | चकार सर्वान्सवयस्यबान्धवा;न्यथार्हमासाद्य तदा नृपात्मजः |
5449 | 2095047a | ततः स तेषां रुदतां महात्मनां; भुवं च खं चानुविनादयन्स्वनः |
5450 | 2095047c | गुहा गिरीणां च दिशश्च संततं; मृदङ्गघोषप्रतिमो विशुश्रुवे |
5451 | 2096001a | वसिष्ठः पुरतः कृत्वा दारान्दशरथस्य च |
5452 | 2096001c | अभिचक्राम तं देशं रामदर्शनतर्षितः |
5453 | 2096002a | राजपत्न्यश्च गच्छन्त्यो मन्दं मन्दाकिनीं प्रति |
5454 | 2096002c | ददृशुस्तत्र तत्तीर्थं रामलक्ष्मणसेवितम् |
5455 | 2096003a | कौसल्या बाष्पपूर्णेन मुखेन परिशुष्यता |
5456 | 2096003c | सुमित्रामब्रवीद्दीना याश्चान्या राजयोषितः |
5457 | 2096004a | इदं तेषामनाथानां क्लिष्टमक्लिष्ट कर्मणाम् |
5458 | 2096004c | वने प्राक्केवलं तीर्थं ये ते निर्विषयी कृताः |
5459 | 2096005a | इतः सुमित्रे पुत्रस्ते सदा जलमतन्द्रितः |
5460 | 2096005c | स्वयं हरति सौमित्रिर्मम पुत्रस्य कारणात् |
5461 | 2096006a | दक्षिणाग्रेषु दर्भेषु सा ददर्श महीतले |
5462 | 2096006c | पितुरिङ्गुदिपिण्याकं न्यस्तमायतलोचना |
5463 | 2096007a | तं भूमौ पितुरार्तेन न्यस्तं रामेण वीक्ष्य सा |
5464 | 2096007c | उवाच देवी कौसल्या सर्वा दशरथस्त्रियः |
5465 | 2096008a | इदमिक्ष्वाकुनाथस्य राघवस्य महात्मनः |
5466 | 2096008c | राघवेण पितुर्दत्तं पश्यतैतद्यथाविधि |
5467 | 2096009a | तस्य देवसमानस्य पार्थिवस्य महात्मनः |
5468 | 2096009c | नैतदौपयिकं मन्ये भुक्तभोगस्य भोजनम् |
5469 | 2096010a | चतुरन्तां महीं भुक्त्वा महेन्द्र सदृशो भुवि |
5470 | 2096010c | कथमिङ्गुदिपिण्याकं स भुङ्क्ते वसुधाधिपः |
5471 | 2096011a | अतो दुःखतरं लोके न किंचित्प्रतिभाति मा |
5472 | 2096011c | यत्र रामः पितुर्दद्यादिङ्गुदीक्षोदमृद्धिमान् |
5473 | 2096012a | रामेणेङ्गुदिपिण्याकं पितुर्दत्तं समीक्ष्य मे |
5474 | 2096012c | कथं दुःखेन हृदयं न स्फोटति सहस्रधा |
5475 | 2096013a | एवमार्तां सपत्न्यस्ता जग्मुराश्वास्य तां तदा |
5476 | 2096013c | ददृशुश्चाश्रमे रामं स्वर्गाच्च्युतमिवामरम् |
5477 | 2096014a | सर्वभोगैः परित्यक्तं राम संप्रेक्ष्य मातरः |
5478 | 2096014c | आर्ता मुमुचुरश्रूणि सस्वरं शोककर्शिताः |
5479 | 2096015a | तासां रामः समुत्थाय जग्राह चरणाञ्शुभान् |
5480 | 2096015c | मातॄणां मनुजव्याघ्रः सर्वासां सत्यसंगरः |
5481 | 2096016a | ताः पाणिभिः सुखस्पर्शैर्मृद्वङ्गुलितलैः शुभैः |
5482 | 2096016c | प्रममार्जू रजः पृष्ठाद्रामस्यायतलोचनाः |
5483 | 2096017a | सौमित्रिरपि ताः सर्वा मातॄह्संप्रेक्ष्य दुःखितः |
5484 | 2096017c | अभ्यवादयतासक्तं शनै रामादनन्तरम् |
5485 | 2096018a | यथा रामे तथा तस्मिन्सर्वा ववृतिरे स्त्रियः |
5486 | 2096018c | वृत्तिं दशरथाज्जाते लक्ष्मणे शुभलक्षणे |
5487 | 2096019a | सीतापि चरणांस्तासामुपसंगृह्य दुःखिता |
5488 | 2096019c | श्वश्रूणामश्रुपूर्णाक्षी सा बभूवाग्रतः स्थिता |
5489 | 2096020a | तां परिष्वज्य दुःखार्तां माता दुहितरं यथा |
5490 | 2096020c | वनवासकृशां दीनां कौसल्या वाक्यमब्रवीत् |
5491 | 2096021a | विदेहराजस्य सुता स्नुषा दशरथस्य च |
5492 | 2096021c | रामपत्नी कथं दुःखं संप्राप्ता निर्जने वने |
5493 | 2096022a | पद्ममातपसंतप्तं परिक्लिष्टमिवोत्पलम् |
5494 | 2096022c | काञ्चनं रजसा ध्वस्तं क्लिष्टं चन्द्रमिवाम्बुदैः |
5495 | 2096023a | मुखं ते प्रेक्ष्य मां शोको दहत्यग्निरिवाश्रयम् |
5496 | 2096023c | भृशं मनसि वैदेहि व्यसनारणिसंभवः |
5497 | 2096024a | ब्रुवन्त्यामेवमार्तायां जनन्यां भरताग्रजः |
5498 | 2096024c | पादावासाद्य जग्राह वसिष्ठस्य स राघवः |
5499 | 2096025a | पुरोहितस्याग्निसमस्य तस्य वै; बृहस्पतेरिन्द्र इवामराधिपः |
5500 | 2096025c | प्रगृह्य पादौ सुसमृद्धतेजसः; सहैव तेनोपविवेश राघवः |
5501 | 2096026a | ततो जघन्यं सहितैः स मन्त्रिभिः; पुरप्रधानैश्च सहैव सैनिकैः |
5502 | 2096026c | जनेन धर्मज्ञतमेन धर्मवा;नुपोपविष्टो भरतस्तदाग्रजम् |
5503 | 2096027a | उपोपविष्टस्तु तदा स वीर्यवां;स्तपस्विवेषेण समीक्ष्य राघवम् |
5504 | 2096027c | श्रिया ज्वलन्तं भरतः कृताञ्जलि;र्यथा महेन्द्रः प्रयतः प्रजापतिम् |
5505 | 2096028a | किमेष वाक्यं भरतोऽद्य राघवं; प्रणम्य सत्कृत्य च साधु वक्ष्यति |
5506 | 2096028c | इतीव तस्यार्यजनस्य तत्त्वतो; बभूव कौतूहलमुत्तमं तदा |
5507 | 2096029a | स राघवः सत्यधृतिश्च लक्ष्मणो; महानुभावो भरतश्च धार्मिकः |
5508 | 2096029c | वृताः सुहृद्भिश्च विरेजुरध्वरे; यथा सदस्यैः सहितास्त्रयोऽग्नयः |
5509 | 2097001a | तं तु रामः समाश्वास्य भ्रातरं गुरुवत्सलम् |
5510 | 2097001c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा प्रष्टुं समुपचक्रमे |
5511 | 2097002a | किमेतदिच्छेयमहं श्रोतुं प्रव्याहृतं त्वया |
5512 | 2097002c | यस्मात्त्वमागतो देशमिमं चीरजटाजिनी |
5513 | 2097003a | यन्निमित्तमिमं देशं कृष्णाजिनजटाधरः |
5514 | 2097003c | हित्वा राज्यं प्रविष्टस्त्वं तत्सर्वं वक्तुमर्हसि |
5515 | 2097004a | इत्युक्तः केकयीपुत्रः काकुत्स्थेन महात्मना |
5516 | 2097004c | प्रगृह्य बलवद्भूयः प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत् |
5517 | 2097005a | आर्यं तातः परित्यज्य कृत्वा कर्म सुदुष्करम् |
5518 | 2097005c | गतः स्वर्गं महाबाहुः पुत्रशोकाभिपीडितः |
5519 | 2097006a | स्त्रिया नियुक्तः कैकेय्या मम मात्रा परंतप |
5520 | 2097006c | चकार सुमहत्पापमिदमात्मयशोहरम् |
5521 | 2097007a | सा राज्यफलमप्राप्य विधवा शोककर्शिता |
5522 | 2097007c | पतिष्यति महाघोरे निरये जननी मम |
5523 | 2097008a | तस्य मे दासभूतस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि |
5524 | 2097008c | अभिषिञ्चस्व चाद्यैव राज्येन मघवानिव |
5525 | 2097009a | इमाः प्रकृतयः सर्वा विधवा मातुरश्च याः |
5526 | 2097009c | त्वत्सकाशमनुप्राप्ताः प्रसादं कर्तुमर्हसि |
5527 | 2097010a | तदानुपूर्व्या युक्तं च युक्तं चात्मनि मानद |
5528 | 2097010c | राज्यं प्राप्नुहि धर्मेण सकामान्सुहृदः कुरु |
5529 | 2097011a | भवत्वविधवा भूमिः समग्रा पतिना त्वया |
5530 | 2097011c | शशिना विमलेनेव शारदी रजनी यथा |
5531 | 2097012a | एभिश्च सचिवैः सार्धं शिरसा याचितो मया |
5532 | 2097012c | भ्रातुः शिष्यस्य दासस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि |
5533 | 2097013a | तदिदं शाश्वतं पित्र्यं सर्वं सचिवमण्डलम् |
5534 | 2097013c | पूजितं पुरुषव्याघ्र नातिक्रमितुमुत्सहे |
5535 | 2097014a | एवमुक्त्वा महाबाहुः सबाष्पः केकयीसुतः |
5536 | 2097014c | रामस्य शिरसा पादौ जग्राह भरतः पुनः |
5537 | 2097015a | तं मत्तमिव मातङ्गं निःश्वसन्तं पुनः पुनः |
5538 | 2097015c | भ्रातरं भरतं रामः परिष्वज्येदमब्रवीत् |
5539 | 2097016a | कुलीनः सत्त्वसंपन्नस्तेजस्वी चरितव्रतः |
5540 | 2097016c | राज्यहेतोः कथं पापमाचरेत्त्वद्विधो जनः |
5541 | 2097017a | न दोषं त्वयि पश्यामि सूक्ष्ममप्यरि सूदन |
5542 | 2097017c | न चापि जननीं बाल्यात्त्वं विगर्हितुमर्हसि |
5543 | 2097018a | यावत्पितरि धर्मज्ञ गौरवं लोकसत्कृते |
5544 | 2097018c | तावद्धर्मभृतां श्रेष्ठ जनन्यामपि गौरवम् |
5545 | 2097019a | एताभ्यां धर्मशीलाभ्यां वनं गच्छेति राघव |
5546 | 2097019c | माता पितृभ्यामुक्तोऽहं कथमन्यत्समाचरे |
5547 | 2097020a | त्वया राज्यमयोध्यायां प्राप्तव्यं लोकसत्कृतम् |
5548 | 2097020c | वस्तव्यं दण्डकारण्ये मया वल्कलवाससा |
5549 | 2097021a | एवं कृत्वा महाराजो विभागं लोकसंनिधौ |
5550 | 2097021c | व्यादिश्य च महातेजा दिवं दशरथो गतः |
5551 | 2097022a | स च प्रमाणं धर्मात्मा राजा लोकगुरुस्तव |
5552 | 2097022c | पित्रा दत्तं यथाभागमुपभोक्तुं त्वमर्हसि |
5553 | 2097023a | चतुर्दश समाः सौम्य दण्डकारण्यमाश्रितः |
5554 | 2097023c | उपभोक्ष्ये त्वहं दत्तं भागं पित्रा महात्मना |
5555 | 2097024a | यदब्रवीन्मां नरलोकसत्कृतः; पिता महात्मा विबुधाधिपोपमः |
5556 | 2097024c | तदेव मन्ये परमात्मनो हितं; न सर्वलोकेश्वरभावमव्ययम् |
5557 | 2098001a | ततः पुरुषसिंहानां वृतानां तैः सुहृद्गणैः |
5558 | 2098001c | शोचतामेव रजनी दुःखेन व्यत्यवर्तत |
5559 | 2098002a | रजन्यां सुप्रभातायां भ्रातरस्ते सुहृद्वृताः |
5560 | 2098002c | मन्दाकिन्यां हुतं जप्यं कृत्वा राममुपागमन् |
5561 | 2098003a | तूष्णीं ते समुपासीना न कश्चित्किंचिदब्रवीत् |
5562 | 2098003c | भरतस्तु सुहृन्मध्ये रामवचनमब्रवीत् |
5563 | 2098004a | सान्त्विता मामिका माता दत्तं राज्यमिदं मम |
5564 | 2098004c | तद्ददामि तवैवाहं भुङ्क्ष्व राज्यमकण्टकम् |
5565 | 2098005a | महतेवाम्बुवेगेन भिन्नः सेतुर्जलागमे |
5566 | 2098005c | दुरावारं त्वदन्येन राज्यखण्डमिदं महत् |
5567 | 2098006a | गतिं खर इवाश्वस्य तार्क्ष्यस्येव पतत्रिणः |
5568 | 2098006c | अनुगन्तुं न शक्तिर्मे गतिं तव महीपते |
5569 | 2098007a | सुजीवं नित्यशस्तस्य यः परैरुपजीव्यते |
5570 | 2098007c | राम तेन तु दुर्जीवं यः परानुपजीवति |
5571 | 2098008a | यथा तु रोपितो वृक्षः पुरुषेण विवर्धितः |
5572 | 2098008c | ह्रस्वकेन दुरारोहो रूढस्कन्धो महाद्रुमः |
5573 | 2098009a | स यदा पुष्पितो भूत्वा फलानि न विदर्शयेत् |
5574 | 2098009c | स तां नानुभवेत्प्रीतिं यस्य हेतोः प्रभावितः |
5575 | 2098010a | एषोपमा महाबाहो त्वमर्थं वेत्तुमर्हसि |
5576 | 2098010c | यदि त्वमस्मानृषभो भर्ता भृत्यान्न शाधि हि |
5577 | 2098011a | श्रेणयस्त्वां महाराज पश्यन्त्वग्र्याश्च सर्वशः |
5578 | 2098011c | प्रतपन्तमिवादित्यं राज्ये स्थितमरिंदमम् |
5579 | 2098012a | तवानुयाने काकुत्ष्ठ मत्ता नर्दन्तु कुञ्जराः |
5580 | 2098012c | अन्तःपुर गता नार्यो नन्दन्तु सुसमाहिताः |
5581 | 2098013a | तस्य साध्वित्यमन्यन्त नागरा विविधा जनाः |
5582 | 2098013c | भरतस्य वचः श्रुत्वा रामं प्रत्यनुयाचतः |
5583 | 2098014a | तमेवं दुःखितं प्रेक्ष्य विलपन्तं यशस्विनम् |
5584 | 2098014c | रामः कृतात्मा भरतं समाश्वासयदात्मवान् |
5585 | 2098015a | नात्मनः कामकारोऽस्ति पुरुषोऽयमनीश्वरः |
5586 | 2098015c | इतश्चेतरतश्चैनं कृतान्तः परिकर्षति |
5587 | 2098016a | सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः |
5588 | 2098016c | संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् |
5589 | 2098017a | यथा फलानं पक्वानां नान्यत्र पतनाद्भयम् |
5590 | 2098017c | एवं नरस्य जातस्य नान्यत्र मरणाद्भयम् |
5591 | 2098018a | यथागारं दृढस्थूणं जीर्णं भूत्वावसीदति |
5592 | 2098018c | तथावसीदन्ति नरा जरामृत्युवशं गताः |
5593 | 2098019a | अहोरात्राणि गच्छन्ति सर्वेषां प्राणिनामिह |
5594 | 2098019c | आयूंषि क्षपयन्त्याशु ग्रीष्मे जलमिवांशवः |
5595 | 2098020a | आत्मानमनुशोच त्वं किमन्यमनुशोचसि |
5596 | 2098020c | आयुस्ते हीयते यस्य स्थितस्य च गतस्य च |
5597 | 2098021a | सहैव मृत्युर्व्रजति सह मृत्युर्निषीदति |
5598 | 2098021c | गत्वा सुदीर्घमध्वानं सह मृत्युर्निवर्तते |
5599 | 2098022a | गात्रेषु वलयः प्राप्ताः श्वेताश्चैव शिरोरुहाः |
5600 | 2098022c | जरया पुरुषो जीर्णः किं हि कृत्वा प्रभावयेत् |
5601 | 2098023a | नन्दन्त्युदित आदित्ये नन्दन्त्यस्तमिते रवौ |
5602 | 2098023c | आत्मनो नावबुध्यन्ते मनुष्या जीवितक्षयम् |
5603 | 2098024a | हृष्यन्त्यृतुमुखं दृष्ट्वा नवं नवमिहागतम् |
5604 | 2098024c | ऋतूनां परिवर्तेन प्राणिनां प्राणसंक्षयः |
5605 | 2098025a | यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महार्णवे |
5606 | 2098025c | समेत्य च व्यपेयातां कालमासाद्य कंचन |
5607 | 2098026a | एवं भार्याश्च पुत्राश्च ज्ञातयश्च वसूनि च |
5608 | 2098026c | समेत्य व्यवधावन्ति ध्रुवो ह्येषां विनाभवः |
5609 | 2098027a | नात्र कश्चिद्यथा भावं प्राणी समभिवर्तते |
5610 | 2098027c | तेन तस्मिन्न सामर्थ्यं प्रेतस्यास्त्यनुशोचतः |
5611 | 2098028a | यथा हि सार्थं गच्छन्तं ब्रूयात्कश्चित्पथि स्थितः |
5612 | 2098028c | अहमप्यागमिष्यामि पृष्ठतो भवतामिति |
5613 | 2098029a | एवं पूर्वैर्गतो मार्गः पितृपैतामहो ध्रुवः |
5614 | 2098029c | तमापन्नः कथं शोचेद्यस्य नास्ति व्यतिक्रमः |
5615 | 2098030a | वयसः पतमानस्य स्रोतसो वानिवर्तिनः |
5616 | 2098030c | आत्मा सुखे नियोक्तव्यः सुखभाजः प्रजाः स्मृताः |
5617 | 2098031a | धर्मात्मा स शुभैः कृत्स्नैः क्रतुभिश्चाप्तदक्षिणैः |
5618 | 2098031c | धूतपापो गतः स्वर्गं पिता नः पृथिवीपतिः |
5619 | 2098032a | भृत्यानां भरणात्सम्यक्प्रजानां परिपालनात् |
5620 | 2098032c | अर्थादानाच्च धार्मेण पिता नस्त्रिदिवं गतः |
5621 | 2098033a | इष्ट्वा बहुविधैर्यज्ञैर्भोगांश्चावाप्य पुष्कलान् |
5622 | 2098033c | उत्तमं चायुरासाद्य स्वर्गतः पृथिवीपतिः |
5623 | 2098034a | स जीर्णं मानुषं देहं परित्यज्य पिता हि नः |
5624 | 2098034c | दैवीमृद्धिमनुप्राप्तो ब्रह्मलोकविहारिणीम् |
5625 | 2098035a | तं तु नैवं विधः कश्चित्प्राज्ञः शोचितुमर्हति |
5626 | 2098035c | त्वद्विधो यद्विधश्चापि श्रुतवान्बुद्धिमत्तरः |
5627 | 2098036a | एते बहुविधाः शोका विलाप रुदिते तथा |
5628 | 2098036c | वर्जनीया हि धीरेण सर्वावस्थासु धीमता |
5629 | 2098037a | स स्वस्थो भव मा शोचो यात्वा चावस तां पुरीम् |
5630 | 2098037c | तथा पित्रा नियुक्तोऽसि वशिना वदताम्व्वर |
5631 | 2098038a | यत्राहमपि तेनैव नियुक्तः पुण्यकर्मणा |
5632 | 2098038c | तत्रैवाहं करिष्यामि पितुरार्यस्य शासनम् |
5633 | 2098039a | न मया शासनं तस्य त्यक्तुं न्याय्यमरिंदम |
5634 | 2098039c | तत्त्वयापि सदा मान्यं स वै बन्धुः स नः पिता |
5635 | 2098040a | एवमुक्त्वा तु विरते रामे वचनमर्थवत् |
5636 | 2098040c | उवाच भरतश्चित्रं धार्मिको धार्मिकं वचः |
5637 | 2098041a | को हि स्यादीदृशो लोके यादृशस्त्वमरिंदम |
5638 | 2098041c | न त्वां प्रव्यथयेद्दुःखं प्रीतिर्वा न प्रहर्षयेत् |
5639 | 2098042a | संमतश्चासि वृद्धानां तांश्च पृच्छसि संशयान् |
5640 | 2098042c | यथा मृतस्तथा जीवन्यथासति तथा सति |
5641 | 2098043a | यस्यैष बुद्धिलाभः स्यात्परितप्येत केन सः |
5642 | 2098043c | स एवं व्यसनं प्राप्य न विषीदितुमर्हति |
5643 | 2098044a | अमरोपमसत्त्वस्त्वं महात्मा सत्यसंगरः |
5644 | 2098044c | सर्वज्ञः सर्वदर्शी च बुद्धिमांश्चासि राघव |
5645 | 2098045a | न त्वामेवं गुणैर्युक्तं प्रभवाभवकोविदम् |
5646 | 2098045c | अविषह्यतमं दुःखमासादयितुमर्हति |
5647 | 2098046a | प्रोषिते मयि यत्पापं मात्रा मत्कारणात्कृतम् |
5648 | 2098046c | क्षुद्रया तदनिष्टं मे प्रसीदतु भवान्मम |
5649 | 2098047a | धर्मबन्धेन बद्धोऽस्मि तेनेमां नेह मातरम् |
5650 | 2098047c | हन्मि तीव्रेण दण्डेन दण्डार्हां पापकारिणीम् |
5651 | 2098048a | कथं दशरथाज्जातः शुद्धाभिजनकर्मणः |
5652 | 2098048c | जानन्धर्ममधर्मिष्ठं कुर्यां कर्म जुगुप्सितम् |
5653 | 2098049a | गुरुः क्रियावान्वृद्धश्च राजा प्रेतः पितेति च |
5654 | 2098049c | तातं न परिगर्हेयं दैवतं चेति संसदि |
5655 | 2098050a | को हि धर्मार्थयोर्हीनमीदृशं कर्म किल्बिषम् |
5656 | 2098050c | स्त्रियाः प्रियचिकीर्षुः सन्कुर्याद्धर्मज्ञ धर्मवित् |
5657 | 2098051a | अन्तकाले हि भूतानि मुह्यन्तीति पुराश्रुतिः |
5658 | 2098051c | राज्ञैवं कुर्वता लोके प्रत्यक्षा सा श्रुतिः कृता |
5659 | 2098052a | साध्वर्थमभिसंधाय क्रोधान्मोहाच्च साहसात् |
5660 | 2098052c | तातस्य यदतिक्रान्तं प्रत्याहरतु तद्भवान् |
5661 | 2098053a | पितुर्हि समतिक्रान्तं पुत्रो यः साधु मन्यते |
5662 | 2098053c | तदपत्यं मतं लोके विपरीतमतोऽन्यथा |
5663 | 2098054a | तदपत्यं भवानस्तु मा भवान्दुष्कृतं पितुः |
5664 | 2098054c | अभिपत्तत्कृतं कर्म लोके धीरविगर्हितम् |
5665 | 2098055a | कैकेयीं मां च तातं च सुहृदो बान्धवांश्च नः |
5666 | 2098055c | पौरजानपदान्सर्वांस्त्रातु सर्वमिदं भवान् |
5667 | 2098056a | क्व चारण्यं क्व च क्षात्रं क्व जटाः क्व च पालनम् |
5668 | 2098056c | ईदृशं व्याहतं कर्म न भवान्कर्तुमर्हति |
5669 | 2098057a | अथ क्लेशजमेव त्वं धर्मं चरितुमिच्छसि |
5670 | 2098057c | धर्मेण चतुरो वर्णान्पालयन्क्लेशमाप्नुहि |
5671 | 2098058a | चतुर्णामाश्रमाणां हि गार्हस्थ्यं श्रेष्ठमाश्रमम् |
5672 | 2098058c | आहुर्धर्मज्ञ धर्मज्ञास्तं कथं त्यक्तुमर्हसि |
5673 | 2098059a | श्रुतेन बालः स्थानेन जन्मना भवतो ह्यहम् |
5674 | 2098059c | स कथं पालयिष्यामि भूमिं भवति तिष्ठति |
5675 | 2098060a | हीनबुद्धिगुणो बालो हीनः स्थानेन चाप्यहम् |
5676 | 2098060c | भवता च विना भूतो न वर्तयितुमुत्सहे |
5677 | 2098061a | इदं निखिलमव्यग्रं पित्र्यं राज्यमकण्टकम् |
5678 | 2098061c | अनुशाधि स्वधर्मेण धर्मज्ञ सह बान्धवैः |
5679 | 2098062a | इहैव त्वाभिषिञ्चन्तु धर्मज्ञ सह बान्धवैः |
5680 | 2098062c | ऋत्विजः सवसिष्ठाश्च मन्त्रवन्मन्त्रकोविदाः |
5681 | 2098063a | अभिषिक्तस्त्वमस्माभिरयोध्यां पालने व्रज |
5682 | 2098063c | विजित्य तरसा लोकान्मरुद्भिरिव वासवः |
5683 | 2098064a | ऋणानि त्रीण्यपाकुर्वन्दुर्हृदः साधु निर्दहन् |
5684 | 2098064c | सुहृदस्तर्पयन्कामैस्त्वमेवात्रानुशाधि माम् |
5685 | 2098065a | अद्यार्य मुदिताः सन्तु सुहृदस्तेऽभिषेचने |
5686 | 2098065c | अद्य भीताः पालयन्तां दुर्हृदस्ते दिशो दश |
5687 | 2098066a | आक्रोशं मम मातुश्च प्रमृज्य पुरुषर्षभ |
5688 | 2098066c | अद्य तत्र भवन्तं च पितरं रक्ष किल्बिषात् |
5689 | 2098067a | शिरसा त्वाभियाचेऽहं कुरुष्व करुणां मयि |
5690 | 2098067c | बान्धवेषु च सर्वेषु भूतेष्विव महेश्वरः |
5691 | 2098068a | अथ वा पृष्ठतः कृत्वा वनमेव भवानितः |
5692 | 2098068c | गमिष्यति गमिष्यामि भवता सार्धमप्यहम् |
5693 | 2098069a | तथापि रामो भरतेन ताम्यत; प्रसाद्यमानः शिरसा महीपतिः |
5694 | 2098069c | न चैव चक्रे गमनाय सत्त्ववा;न्मतिं पितुस्तद्वचने प्रतिष्ठितः |
5695 | 2098070a | तदद्भुतं स्थैर्यमवेक्ष्य राघवे; समं जनो हर्षमवाप दुःखितः |
5696 | 2098070c | न यात्ययोध्यामिति दुःखितोऽभव;त्स्थिरप्रतिज्ञत्वमवेक्ष्य हर्षितः |
5697 | 2098071a | तमृत्विजो नैगमयूथवल्लभा;स्तथा विसंज्ञाश्रुकलाश्च मातरः |
5698 | 2098071c | तथा ब्रुवाणं भरतं प्रतुष्टुवुः; प्रणम्य रामं च ययाचिरे सह |
5699 | 2099001a | पुनरेवं ब्रुवाणं तु भरतं लक्ष्मणाग्रजः |
5700 | 2099001c | प्रत्युवच ततः श्रीमाञ्ज्ञातिमध्येऽतिसत्कृतः |
5701 | 2099002a | उपपन्नमिदं वाक्यं यत्त्वमेवमभाषथाः |
5702 | 2099002c | जातः पुत्रो दशरथात्कैकेय्यां राजसत्तमात् |
5703 | 2099003a | पुरा भ्रातः पिता नः स मातरं ते समुद्वहन् |
5704 | 2099003c | मातामहे समाश्रौषीद्राज्यशुल्कमनुत्तमम् |
5705 | 2099004a | देवासुरे च संग्रामे जनन्यै तव पार्थिवः |
5706 | 2099004c | संप्रहृष्टो ददौ राजा वरमाराधितः प्रभुः |
5707 | 2099005a | ततः सा संप्रतिश्राव्य तव माता यशस्विनी |
5708 | 2099005c | अयाचत नरश्रेष्ठं द्वौ वरौ वरवर्णिनी |
5709 | 2099006a | तव राज्यं नरव्याघ्र मम प्रव्राजनं तथा |
5710 | 2099006c | तच्च राजा तथा तस्यै नियुक्तः प्रददौ वरम् |
5711 | 2099007a | तेन पित्राहमप्यत्र नियुक्तः पुरुषर्षभ |
5712 | 2099007c | चतुर्दश वने वासं वर्षाणि वरदानिकम् |
5713 | 2099008a | सोऽहं वनमिदं प्राप्तो निर्जनं लक्ष्मणान्वितः |
5714 | 2099008c | शीतया चाप्रतिद्वन्द्वः सत्यवादे स्थितः पितुः |
5715 | 2099009a | भवानपि तथेत्येव पितरं सत्यवादिनम् |
5716 | 2099009c | कर्तुमर्हति राजेन्द्रं क्षिप्रमेवाभिषेचनात् |
5717 | 2099010a | ऋणान्मोचय राजानं मत्कृते भरत प्रभुम् |
5718 | 2099010c | पितरं त्राहि धर्मज्ञ मातरं चाभिनन्दय |
5719 | 2099011a | श्रूयते हि पुरा तात श्रुतिर्गीता यशस्विनी |
5720 | 2099011c | गयेन यजमानेन गयेष्वेव पितॄन्प्रति |
5721 | 2099012a | पुं नाम्ना नरकाद्यस्मात्पितरं त्रायते सुतः |
5722 | 2099012c | तस्मात्पुत्र इति प्रोक्तः पितॄन्यत्पाति वा सुतः |
5723 | 2099013a | एष्टव्या बहवः पुत्रा गुणवन्तो बहुश्रुताः |
5724 | 2099013c | तेषां वै समवेतानामपि कश्चिद्गयां व्रजेत् |
5725 | 2099014a | एवं राजर्षयः सर्वे प्रतीता राजनन्दन |
5726 | 2099014c | तस्मात्त्राहि नरश्रेष्ठ पितरं नरकात्प्रभो |
5727 | 2099015a | अयोध्यां गच्छ भरत प्रकृतीरनुरञ्जय |
5728 | 2099015c | शत्रुघ्न सहितो वीर सह सर्वैर्द्विजातिभिः |
5729 | 2099016a | प्रवेक्ष्ये दण्डकारण्यमहमप्यविलम्बयन् |
5730 | 2099016c | आभ्यां तु सहितो राजन्वैदेह्या लक्ष्मणेन च |
5731 | 2099017a | त्वं राजा भव भरत स्वयं नराणां; वन्यानामहमपि राजराण्मृगाणाम् |
5732 | 2099017c | गच्छ त्वं पुरवरमद्य संप्रहृष्टः; संहृष्टस्त्वहमपि दण्डकान्प्रवेक्ष्ये |
5733 | 2099018a | छायां ते दिनकरभाः प्रबाधमानं; वर्षत्रं भरत करोतु मूर्ध्नि शीताम् |
5734 | 2099018c | एतेषामहमपि काननद्रुमाणां; छायां तामतिशयिनीं सुखं श्रयिष्ये |
5735 | 2099019a | शत्रुघ्नः कुशलमतिस्तु ते सहायः; सौमित्रिर्मम विदितः प्रधानमित्रम् |
5736 | 2099019c | चत्वारस्तनयवरा वयं नरेन्द्रं; सत्यस्थं भरत चराम मा विषादम् |
5737 | 2100001a | आश्वासयन्तं भरतं जाबालिर्ब्राह्मणोत्तमः |
5738 | 2100001c | उवाच रामं धर्मज्ञं धर्मापेतमिदं वचः |
5739 | 2100002a | साधु राघव मा भूत्ते बुद्धिरेवं निरर्थका |
5740 | 2100002c | प्राकृतस्य नरस्येव आर्य बुद्धेस्तपस्विनः |
5741 | 2100003a | कः कस्य पुरुषो बन्धुः किमाप्यं कस्य केनचित् |
5742 | 2100003c | यदेको जायते जन्तुरेक एव विनश्यति |
5743 | 2100004a | तस्मान्माता पिता चेति राम सज्जेत यो नरः |
5744 | 2100004c | उन्मत्त इव स ज्ञेयो नास्ति काचिद्धि कस्यचित् |
5745 | 2100005a | यथा ग्रामान्तरं गच्छन्नरः कश्चित्क्वचिद्वसेत् |
5746 | 2100005c | उत्सृज्य च तमावासं प्रतिष्ठेतापरेऽहनि |
5747 | 2100006a | एवमेव मनुष्याणां पिता माता गृहं वसु |
5748 | 2100006c | आवासमात्रं काकुत्स्थ सज्जन्ते नात्र सज्जनाः |
5749 | 2100007a | पित्र्यं राज्यं समुत्सृज्य स नार्हति नरोत्तम |
5750 | 2100007c | आस्थातुं कापथं दुःखं विषमं बहुकण्टकम् |
5751 | 2100008a | समृद्धायामयोध्यायामात्मानमभिषेचय |
5752 | 2100008c | एकवेणीधरा हि त्वां नगरी संप्रतीक्षते |
5753 | 2100009a | राजभोगाननुभवन्महार्हान्पार्थिवात्मज |
5754 | 2100009c | विहर त्वमयोध्यायां यथा शक्रस्त्रिविष्टपे |
5755 | 2100010a | न ते कश्चिद्दशरतःस्त्वं च तस्य न कश्चन |
5756 | 2100010c | अन्यो राजा त्वमन्यश्च तस्मात्कुरु यदुच्यते |
5757 | 2100011a | गतः स नृपतिस्तत्र गन्तव्यं यत्र तेन वै |
5758 | 2100011c | प्रवृत्तिरेषा मर्त्यानां त्वं तु मिथ्या विहन्यसे |
5759 | 2100012a | अर्थधर्मपरा ये ये तांस्ताञ्शोचामि नेतरान् |
5760 | 2100012c | ते हि दुःखमिह प्राप्य विनाशं प्रेत्य भेजिरे |
5761 | 2100013a | अष्टका पितृदैवत्यमित्ययं प्रसृतो जनः |
5762 | 2100013c | अन्नस्योपद्रवं पश्य मृतो हि किमशिष्यति |
5763 | 2100014a | यदि भुक्तमिहान्येन देहमन्यस्य गच्छति |
5764 | 2100014c | दद्यात्प्रवसतः श्राद्धं न तत्पथ्यशनं भवेत् |
5765 | 2100015a | दानसंवनना ह्येते ग्रन्था मेधाविभिः कृताः |
5766 | 2100015c | यजस्व देहि दीक्षस्व तपस्तप्यस्व संत्यज |
5767 | 2100016a | स नास्ति परमित्येव कुरु बुद्धिं महामते |
5768 | 2100016c | प्रत्यक्षं यत्तदातिष्ठ परोक्षं पृष्ठतः कुरु |
5769 | 2100017a | सतां बुद्धिं पुरस्कृत्य सर्वलोकनिदर्शिनीम् |
5770 | 2100017c | राज्यं त्वं प्रतिगृह्णीष्व भरतेन प्रसादितः |
5771 | 2101001a | जाबालेस्तु वचः श्रुत्वा रामः सत्यात्मनां वरः |
5772 | 2101001c | उवाच परया युक्त्या स्वबुद्ध्या चाविपन्नया |
5773 | 2101002a | भवान्मे प्रियकामार्थं वचनं यदिहोक्तवान् |
5774 | 2101002c | अकार्यं कार्यसंकाशमपथ्यं पथ्यसंमितम् |
5775 | 2101003a | निर्मर्यादस्तु पुरुषः पापाचारसमन्वितः |
5776 | 2101003c | मानं न लभते सत्सु भिन्नचारित्रदर्शनः |
5777 | 2101004a | कुलीनमकुलीनं वा वीरं पुरुषमानिनम् |
5778 | 2101004c | चारित्रमेव व्याख्याति शुचिं वा यदि वाशुचिम् |
5779 | 2101005a | अनारय्स्त्वार्य संकाशः शौचाद्धीनस्तथा शुचिः |
5780 | 2101005c | लक्षण्यवदलक्षण्यो दुःशीलः शीलवानिव |
5781 | 2101006a | अधर्मं धर्मवेषेण यदीमं लोकसंकरम् |
5782 | 2101006c | अभिपत्स्ये शुभं हित्वा क्रियाविधिविवर्जितम् |
5783 | 2101007a | कश्चेतयानः पुरुषः कार्याकार्यविचक्षणः |
5784 | 2101007c | बहु मंस्यति मां लोके दुर्वृत्तं लोकदूषणम् |
5785 | 2101008a | कस्य यास्याम्यहं वृत्तं केन वा स्वर्गमाप्नुयाम् |
5786 | 2101008c | अनया वर्तमानोऽहं वृत्त्या हीनप्रतिज्ञया |
5787 | 2101009a | कामवृत्तस्त्वयं लोकः कृत्स्नः समुपवर्तते |
5788 | 2101009c | यद्वृत्ताः सन्ति राजानस्तद्वृत्ताः सन्ति हि प्रजाः |
5789 | 2101010a | सत्यमेवानृशंस्यं च राजवृत्तं सनातनम् |
5790 | 2101010c | तस्मात्सत्यात्मकं राज्यं सत्ये लोकः प्रतिष्ठितः |
5791 | 2101011a | ऋषयश्चैव देवाश्च सत्यमेव हि मेनिरे |
5792 | 2101011c | सत्यवादी हि लोकेऽस्मिन्परमं गच्छति क्षयम् |
5793 | 2101012a | उद्विजन्ते यथा सर्पान्नरादनृतवादिनः |
5794 | 2101012c | धर्मः सत्यं परो लोके मूलं स्वर्गस्य चोच्यते |
5795 | 2101013a | सत्यमेवेश्वरो लोके सत्यं पद्मा समाश्रिता |
5796 | 2101013c | सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् |
5797 | 2101014a | दत्तमिष्टं हुतं चैव तप्तानि च तपांसि च |
5798 | 2101014c | वेदाः सत्यप्रतिष्ठानास्तस्मात्सत्यपरो भवेत् |
5799 | 2101015a | एकः पालयते लोकमेकः पालयते कुलम् |
5800 | 2101015c | मज्जत्येको हि निरय एकः स्वर्गे महीयते |
5801 | 2101016a | सोऽहं पितुर्निदेशं तु किमर्थं नानुपालये |
5802 | 2101016c | सत्यप्रतिश्रवः सत्यं सत्येन समयीकृतः |
5803 | 2101017a | नैव लोभान्न मोहाद्वा न चाज्ञानात्तमोऽन्वितः |
5804 | 2101017c | सेतुं सत्यस्य भेत्स्यामि गुरोः सत्यप्रतिश्रवः |
5805 | 2101018a | असत्यसंधस्य सतश्चलस्यास्थिरचेतसः |
5806 | 2101018c | नैव देवा न पितरः प्रतीच्छन्तीति नः श्रुतम् |
5807 | 2101019a | प्रत्यगात्ममिमं धर्मं सत्यं पश्याम्यहं स्वयम् |
5808 | 2101019c | भारः सत्पुरुषाचीर्णस्तदर्थमभिनन्द्यते |
5809 | 2101020a | क्षात्रं धर्ममहं त्यक्ष्ये ह्यधर्मं धर्मसंहितम् |
5810 | 2101020c | क्षुद्रौर्नृशंसैर्लुब्धैश्च सेवितं पापकर्मभिः |
5811 | 2101021a | कायेन कुरुते पापं मनसा संप्रधार्य च |
5812 | 2101021c | अनृतं जिह्वया चाह त्रिविधं कर्म पातकम् |
5813 | 2101022a | भूमिः कीर्तिर्यशो लक्ष्मीः पुरुषं प्रार्थयन्ति हि |
5814 | 2101022c | स्वर्गस्थं चानुबध्नन्ति सत्यमेव भजेत तत् |
5815 | 2101023a | श्रेष्ठं ह्यनार्यमेव स्याद्यद्भवानवधार्य माम् |
5816 | 2101023c | आह युक्तिकरैर्वाक्यैरिदं भद्रं कुरुष्व ह |
5817 | 2101024a | कथं ह्यहं प्रतिज्ञाय वनवासमिमं गुरोः |
5818 | 2101024c | भरतस्य करिष्यामि वचो हित्वा गुरोर्वचः |
5819 | 2101025a | स्थिरा मया प्रतिज्ञाता प्रतिज्ञा गुरुसंनिधौ |
5820 | 2101025c | प्रहृष्टमानसा देवी कैकेयी चाभवत्तदा |
5821 | 2101026a | वनवासं वसन्नेवं शुचिर्नियतभोजनः |
5822 | 2101026c | मूलैः पुष्पैः फलैः पुण्यैः पितॄन्देवांश्च तर्पयन् |
5823 | 2101027a | संतुष्टपञ्चवर्गोऽहं लोकयात्रां प्रवर्तये |
5824 | 2101027c | अकुहः श्रद्दधानः सन्कार्याकार्यविचक्षणः |
5825 | 2101028a | कर्मभूमिमिमां प्राप्य कर्तव्यं कर्म यच्छुभम् |
5826 | 2101028c | अग्निर्वायुश्च सोमश्च कर्मणां फलभागिनः |
5827 | 2101029a | शतं क्रतूनामाहृत्य देवराट्त्रिदिवं गतः |
5828 | 2101029c | तपांस्युग्राणि चास्थाय दिवं याता महर्षयः |
5829 | 2101030a | सत्यं च धर्मं च पराक्रमं च; भूतानुकम्पां प्रियवादितां च |
5830 | 2101030c | द्विजातिदेवातिथिपूजनं च; पन्थानमाहुस्त्रिदिवस्य सन्तः |
5831 | 2101031a | धर्मे रताः सत्पुरुषैः समेता;स्तेजस्विनो दानगुणप्रधानाः |
5832 | 2101031c | अहिंसका वीतमलाश्च लोके; भवन्ति पूज्या मुनयः प्रधानाः |
5833 | 2102001a | क्रुद्धमाज्ञाय राम तु वसिष्ठः प्रत्युवाच ह |
5834 | 2102001c | जाबालिरपि जानीते लोकस्यास्य गतागतिम् |
5835 | 2102001e | निवर्तयितु कामस्तु त्वामेतद्वाक्यमब्रवीत् |
5836 | 2102002a | इमां लोकसमुत्पत्तिं लोकनाथ निबोध मे |
5837 | 2102002c | सर्वं सलिलमेवासीत्पृथिवी यत्र निर्मिता |
5838 | 2102002e | ततः समभवद्ब्रह्मा स्वयम्भूर्दैवतैः सह |
5839 | 2102003a | स वराहस्ततो भूत्वा प्रोज्जहार वसुंधराम् |
5840 | 2102003c | असृजच्च जगत्सर्वं सह पुत्रैः कृतात्मभिः |
5841 | 2102004a | आकाशप्रभवो ब्रह्मा शाश्वतो नित्य अव्ययः |
5842 | 2102004c | तस्मान्मरीचिः संजज्ञे मरीचेः कश्यपः सुतः |
5843 | 2102005a | विवस्वान्कश्यपाज्जज्ञे मनुर्वैवस्वतः स्मृतः |
5844 | 2102005c | स तु प्रजापतिः पूर्वमिक्ष्वाकुस्तु मनोः सुतः |
5845 | 2102006a | यस्येयं प्रथमं दत्ता समृद्धा मनुना मही |
5846 | 2102006c | तमिक्ष्वाकुमयोध्यायां राजानं विद्धि पूर्वकम् |
5847 | 2102007a | इक्ष्वाकोस्तु सुतः श्रीमान्कुक्षिरेवेति विश्रुतः |
5848 | 2102007c | कुक्षेरथात्मजो वीरो विकुक्षिरुदपद्यत |
5849 | 2102008a | विकुक्षेस्तु महातेजा बाणः पुत्रः प्रतापवान् |
5850 | 2102008c | बाणस्य तु महाबाहुरनरण्यो महायशाः |
5851 | 2102009a | नाना वृष्टिर्बभूवास्मिन्न दुर्भिक्षं सतां वरे |
5852 | 2102009c | अनरण्ये महाराजे तस्करो वापि कश्चन |
5853 | 2102010a | अनरण्यान्महाबाहुः पृथू राजा बभूव ह |
5854 | 2102010c | तस्मात्पृथोर्महाराजस्त्रिशङ्कुरुदपद्यत |
5855 | 2102010e | स सत्यवचनाद्वीरः सशरीरो दिवं गतः |
5856 | 2102011a | त्रिशङ्कोरभवत्सूनुर्धुन्धुमारो महायशाः |
5857 | 2102011c | धुन्धुमारान्महातेजा युवनाश्वो व्यजायत |
5858 | 2102012a | युवनाश्व सुतः श्रीमान्मान्धाता समपद्यत |
5859 | 2102012c | मान्धातुस्तु महातेजाः सुसंधिरुदपद्यत |
5860 | 2102013a | सुसंधेरपि पुत्रौ द्वौ ध्रुवसंधिः प्रसेनजित् |
5861 | 2102013c | यशस्वी ध्रुवसंधेस्तु भरतो रिपुसूदनः |
5862 | 2102014a | भरतात्तु महाबाहोरसितो नाम जायत |
5863 | 2102014c | यस्यैते प्रतिराजान उदपद्यन्त शत्रवः |
5864 | 2102014e | हैहयास्तालजङ्घाश्च शूराश्च शशबिन्दवः |
5865 | 2102015a | तांस्तु सर्वान्प्रतिव्यूह्य युद्धे राजा प्रवासितः |
5866 | 2102015c | स च शैलवरे रम्ये बभूवाभिरतो मुनिः |
5867 | 2102015e | द्वे चास्य भार्ये गर्भिण्यौ बभूवतुरिति श्रुतिः |
5868 | 2102016a | भार्गवश्च्यवनो नाम हिमवन्तमुपाश्रितः |
5869 | 2102016c | तमृषिं समुपागम्य कालिन्दी त्वभ्यवादयत् |
5870 | 2102017a | स तामभ्यवदद्विप्रो वरेप्सुं पुत्रजन्मनि |
5871 | 2102017c | ततः सा गृहमागम्य देवी पुत्रं व्यजायत |
5872 | 2102018a | सपत्न्या तु गरस्तस्यै दत्तो गर्भजिघांसया |
5873 | 2102018c | गरेण सह तेनैव जातः स सगरोऽभवत् |
5874 | 2102019a | स राजा सगरो नाम यः समुद्रमखानयत् |
5875 | 2102019c | इष्ट्वा पर्वणि वेगेन त्रासयन्तमिमाः प्रजाः |
5876 | 2102020a | असमञ्जस्तु पुत्रोऽभूत्सगरस्येति नः श्रुतम् |
5877 | 2102020c | जीवन्नेव स पित्रा तु निरस्तः पापकर्मकृत् |
5878 | 2102021a | अंशुमानिति पुत्रोऽभूदसमञ्जस्य वीर्यवान् |
5879 | 2102021c | दिलीपोंऽशुमतः पुत्रो दिलीपस्य भगीरथः |
5880 | 2102022a | भगीरथात्ककुत्स्थस्तु काकुत्स्था येन तु स्मृताः |
5881 | 2102022c | ककुत्स्थस्य तु पुत्रोऽभूद्रघुर्येन तु राघवः |
5882 | 2102023a | रघोस्तु पुत्रस्तेजस्वी प्रवृद्धः पुरुषादकः |
5883 | 2102023c | कल्माषपादः सौदास इत्येवं प्रथितो भुवि |
5884 | 2102024a | कल्माषपादपुत्रोऽभूच्छङ्खणस्त्विति विश्रुतः |
5885 | 2102024c | यस्तु तद्वीर्यमासाद्य सहसेनो व्यनीनशत् |
5886 | 2102025a | शङ्खणस्य तु पुत्रोऽभूच्छूरः श्रीमान्सुदर्शनः |
5887 | 2102025c | सुदर्शनस्याग्निवर्ण अग्निवर्षस्य शीघ्रगः |
5888 | 2102026a | शीघ्रगस्य मरुः पुत्रो मरोः पुत्रः प्रशुश्रुकः |
5889 | 2102026c | प्रशुश्रुकस्य पुत्रोऽभूदम्बरीषो महाद्युतिः |
5890 | 2102027a | अम्बरीषस्य पुत्रोऽभून्नहुषः सत्यविक्रमः |
5891 | 2102027c | नहुषस्य च नाभागः पुत्रः परमधार्मिकः |
5892 | 2102028a | अजश्च सुव्रतश्चैव नाभागस्य सुतावुभौ |
5893 | 2102028c | अजस्य चैव धर्मात्मा राजा दशरथः सुतः |
5894 | 2102029a | तस्य ज्येष्ठोऽसि दायादो राम इत्यभिविश्रुतः |
5895 | 2102029c | तद्गृहाण स्वकं राज्यमवेक्षस्व जगन्नृप |
5896 | 2102030a | इक्ष्वाकूणां हि सर्वेषां राजा भवति पूर्वजः |
5897 | 2102030c | पूर्वजेनावरः पुत्रो ज्येष्ठो राज्येऽभिषिच्यते |
5898 | 2102031a | स राघवाणां कुलधर्ममात्मनः; सनातनं नाद्य विहातुमर्हसि |
5899 | 2102031c | प्रभूतरत्नामनुशाधि मेदिनीं; प्रभूतराष्ट्रां पितृवन्महायशाः |
5900 | 2103001a | वसिष्ठस्तु तदा राममुक्त्वा राजपुरोहितः |
5901 | 2103001c | अब्रवीद्धर्मसंयुक्तं पुनरेवापरं वचः |
5902 | 2103002a | पुरुषस्येह जातस्य भवन्ति गुरवस्त्रयः |
5903 | 2103002c | आचार्यश्चैव काकुत्स्थ पिता माता च राघव |
5904 | 2103003a | पिता ह्येनं जनयति पुरुषं पुरुषर्षभ |
5905 | 2103003c | प्रज्ञां ददाति चाचार्यस्तस्मात्स गुरुरुच्यते |
5906 | 2103004a | स तेऽहं पितुराचार्यस्तव चैव परंतप |
5907 | 2103004c | मम त्वं वचनं कुर्वन्नातिवर्तेः सतां गतिम् |
5908 | 2103005a | इमा हि ते परिषदः श्रेणयश्च समागताः |
5909 | 2103005c | एषु तात चरन्धर्मं नातिवर्तेः सतां गतिम् |
5910 | 2103006a | वृद्धाया धर्मशीलाया मातुर्नार्हस्यवर्तितुम् |
5911 | 2103006c | अस्यास्तु वचनं कुर्वन्नातिवर्तेः सतां गतिम् |
5912 | 2103007a | भरतस्य वचः कुर्वन्याचमानस्य राघव |
5913 | 2103007c | आत्मानं नातिवर्तेस्त्वं सत्यधर्मपराक्रम |
5914 | 2103008a | एवं मधुरमुक्तस्तु गुरुणा राघवः स्वयम् |
5915 | 2103008c | प्रत्युवाच समासीनं वसिष्ठं पुरुषर्षभः |
5916 | 2103009a | यन्मातापितरौ वृत्तं तनये कुरुतः सदा |
5917 | 2103009c | न सुप्रतिकरं तत्तु मात्रा पित्रा च यत्कृतम् |
5918 | 2103010a | यथाशक्ति प्रदानेन स्नापनाच्छादनेन च |
5919 | 2103010c | नित्यं च प्रियवादेन तथा संवर्धनेन च |
5920 | 2103011a | स हि राजा जनयिता पिता दशरथो मम |
5921 | 2103011c | आज्ञातं यन्मया तस्य न तन्मिथ्या भविष्यति |
5922 | 2103012a | एवमुक्तस्तु रामेण भरतः प्रत्यनन्तरम् |
5923 | 2103012c | उवाच परमोदारः सूतं परमदुर्मनाः |
5924 | 2103013a | इह मे स्थण्डिले शीघ्रं कुशानास्तर सारथे |
5925 | 2103013c | आर्यं प्रत्युपवेक्ष्यामि यावन्मे न प्रसीदति |
5926 | 2103014a | अनाहारो निरालोको धनहीनो यथा द्विजः |
5927 | 2103014c | शेष्ये पुरस्ताच्छालाया यावन्न प्रतियास्यति |
5928 | 2103015a | स तु राममवेक्षन्तं सुमन्त्रं प्रेक्ष्य दुर्मनाः |
5929 | 2103015c | कुशोत्तरमुपस्थाप्य भूमावेवास्तरत्स्वयम् |
5930 | 2103016a | तमुवाच महातेजा रामो राजर्षिसत्तमाः |
5931 | 2103016c | किं मां भरत कुर्वाणं तात प्रत्युपवेक्ष्यसि |
5932 | 2103017a | ब्राह्मणो ह्येकपार्श्वेन नरान्रोद्धुमिहार्हति |
5933 | 2103017c | न तु मूर्धावसिक्तानां विधिः प्रत्युपवेशने |
5934 | 2103018a | उत्तिष्ठ नरशार्दूल हित्वैतद्दारुणं व्रतम् |
5935 | 2103018c | पुरवर्यामितः क्षिप्रमयोध्यां याहि राघव |
5936 | 2103019a | आसीनस्त्वेव भरतः पौरजानपदं जनम् |
5937 | 2103019c | उवाच सर्वतः प्रेक्ष्य किमार्यं नानुशासथ |
5938 | 2103020a | ते तमूचुर्महात्मानं पौरजानपदा जनाः |
5939 | 2103020c | काकुत्स्थमभिजानीमः सम्यग्वदति राघवः |
5940 | 2103021a | एषोऽपि हि महाभागः पितुर्वचसि तिष्ठति |
5941 | 2103021c | अत एव न शक्ताः स्मो व्यावर्तयितुमञ्जसा |
5942 | 2103022a | तेषामाज्ञाय वचनं रामो वचनमब्रवीत् |
5943 | 2103022c | एवं निबोध वचनं सुहृदां धर्मचक्षुषाम् |
5944 | 2103023a | एतच्चैवोभयं श्रुत्वा सम्यक्संपश्य राघव |
5945 | 2103023c | उत्तिष्ठ त्वं महाबाहो मां च स्पृश तथोदकम् |
5946 | 2103024a | अथोत्थाय जलं स्पृष्ट्वा भरतो वाक्यमब्रवीत् |
5947 | 2103024c | शृण्वन्तु मे परिषदो मन्त्रिणः श्रेणयस्तथा |
5948 | 2103025a | न याचे पितरं राज्यं नानुशासामि मातरम् |
5949 | 2103025c | आर्यं परमधर्मज्ञमभिजानामि राघवम् |
5950 | 2103026a | यदि त्ववश्यं वस्तव्यं कर्तव्यं च पितुर्वचः |
5951 | 2103026c | अहमेव निवत्स्यामि चतुर्दश वने समाः |
5952 | 2103027a | धर्मात्मा तस्य तथ्येन भ्रातुर्वाक्येन विस्मितः |
5953 | 2103027c | उवाच रामः संप्रेक्ष्य पौरजानपदं जनम् |
5954 | 2103028a | विक्रीतमाहितं क्रीतं यत्पित्रा जीवता मम |
5955 | 2103028c | न तल्लोपयितुं शक्यं मया वा भरतेन वा |
5956 | 2103029a | उपधिर्न मया कार्यो वनवासे जुगुप्सितः |
5957 | 2103029c | युक्तमुक्तं च कैकेय्या पित्रा मे सुकृतं कृतम् |
5958 | 2103030a | जानामि भरतं क्षान्तं गुरुसत्कारकारिणम् |
5959 | 2103030c | सर्वमेवात्र कल्याणं सत्यसंधे महात्मनि |
5960 | 2103031a | अनेन धर्मशीलेन वनात्प्रत्यागतः पुनः |
5961 | 2103031c | भ्रात्रा सह भविष्यामि पृथिव्याः पतिरुत्तमः |
5962 | 2103032a | वृतो राजा हि कैकेय्या मया तद्वचनं कृतम् |
5963 | 2103032c | अनृतान्मोचयानेन पितरं तं महीपतिम् |
5964 | 2104001a | तमप्रतिमतेजोभ्यां भ्रातृभ्यां रोमहर्षणम् |
5965 | 2104001c | विस्मिताः संगमं प्रेक्ष्य समवेता महर्षयः |
5966 | 2104002a | अन्तर्हितास्त्वृषिगणाः सिद्धाश्च परमर्षयः |
5967 | 2104002c | तौ भ्रातरौ महात्मानौ काकुत्स्थौ प्रशशंसिरे |
5968 | 2104003a | स धन्यो यस्य पुत्रौ द्वौ धर्मज्ञौ धर्मविक्रमौ |
5969 | 2104003c | श्रुत्वा वयं हि संभाषामुभयोः स्पृहयामहे |
5970 | 2104004a | ततस्त्वृषिगणाः क्षिप्रं दशग्रीववधैषिणः |
5971 | 2104004c | भरतं राजशार्दूलमित्यूचुः संगता वचः |
5972 | 2104005a | कुले जात महाप्राज्ञ महावृत्त महायशः |
5973 | 2104005c | ग्राह्यं रामस्य वाक्यं ते पितरं यद्यवेक्षसे |
5974 | 2104006a | सदानृणमिमं रामं वयमिच्छामहे पितुः |
5975 | 2104006c | अनृणत्वाच्च कैकेय्याः स्वर्गं दशरथो गतः |
5976 | 2104007a | एतावदुक्त्वा वचनं गन्धर्वाः समहर्षयः |
5977 | 2104007c | राजर्षयश्चैव तथा सर्वे स्वां स्वां गतिं गताः |
5978 | 2104008a | ह्लादितस्तेन वाक्येन शुभेन शुभदर्शनः |
5979 | 2104008c | रामः संहृष्टवदनस्तानृषीनभ्यपूजयत् |
5980 | 2104009a | स्रस्तगात्रस्तु भरतः स वाचा सज्जमानया |
5981 | 2104009c | कृताञ्जलिरिदं वाक्यं राघवं पुनरब्रवीत् |
5982 | 2104010a | राजधर्ममनुप्रेक्ष्य कुलधर्मानुसंततिम् |
5983 | 2104010c | कर्तुमर्हसि काकुत्स्थ मम मातुश्च याचनाम् |
5984 | 2104011a | रक्षितुं सुमहद्राज्यमहमेकस्तु नोत्सहे |
5985 | 2104011c | पौरजानपदांश्चापि रक्तान्रञ्जयितुं तथा |
5986 | 2104012a | ज्ञातयश्च हि योधाश्च मित्राणि सुहृदश्च नः |
5987 | 2104012c | त्वामेव प्रतिकाङ्क्षन्ते पर्जन्यमिव कर्षकाः |
5988 | 2104013a | इदं राज्यं महाप्राज्ञ स्थापय प्रतिपद्य हि |
5989 | 2104013c | शक्तिमानसि काकुत्स्थ लोकस्य परिपालने |
5990 | 2104014a | इत्युक्त्वा न्यपतद्भ्रातुः पादयोर्भरतस्तदा |
5991 | 2104014c | भृशं संप्रार्थयामास राममेवं प्रियं वदः |
5992 | 2104015a | तमङ्के भ्रातरं कृत्वा रामो वचनमब्रवीत् |
5993 | 2104015c | श्यामं नलिनपत्राक्षं मत्तहंसस्वरः स्वयम् |
5994 | 2104016a | आगता त्वामियं बुद्धिः स्वजा वैनयिकी च या |
5995 | 2104016c | भृशमुत्सहसे तात रक्षितुं पृथिवीमपि |
5996 | 2104017a | अमात्यैश्च सुहृद्भिश्च बुद्धिमद्भिश्च मन्त्रिभिः |
5997 | 2104017c | सर्वकार्याणि संमन्त्र्य सुमहान्त्यपि कारय |
5998 | 2104018a | लक्ष्मीश्चन्द्रादपेयाद्वा हिमवान्वा हिमं त्यजेत् |
5999 | 2104018c | अतीयात्सागरो वेलां न प्रतिज्ञामहं पितुः |
6000 | 2104019a | कामाद्वा तात लोभाद्वा मात्रा तुभ्यमिदं कृतम् |
6001 | 2104019c | न तन्मनसि कर्तव्यं वर्तितव्यं च मातृवत् |
6002 | 2104020a | एवं ब्रुवाणं भरतः कौसल्यासुतमब्रवीत् |
6003 | 2104020c | तेजसादित्यसंकाशं प्रतिपच्चन्द्रदर्शनम् |
6004 | 2104021a | अधिरोहार्य पादाभ्यां पादुके हेमभूषिते |
6005 | 2104021c | एते हि सर्वलोकस्य योगक्षेमं विधास्यतः |
6006 | 2104022a | सोऽधिरुह्य नरव्याघ्रः पादुके ह्यवरुह्य च |
6007 | 2104022c | प्रायच्छत्सुमहातेजा भरताय महात्मने |
6008 | 2104023a | स पादुके ते भरतः प्रतापवा;न्स्वलंकृते संपरिगृह्य धर्मवित् |
6009 | 2104023c | प्रदक्षिणं चैव चकार राघवं; चकार चैवोत्तमनागमूर्धनि |
6010 | 2104024a | अथानुपूर्व्यात्प्रतिपूज्य तं जनं; गुरूंश्च मन्त्रिप्रकृतीस्तथानुजौ |
6011 | 2104024c | व्यसर्जयद्राघववंशवर्धनः; स्थितः स्वधर्मे हिमवानिवाचलः |
6012 | 2104025a | तं मातरो बाष्पगृहीतकण्ठो; दुःखेन नामन्त्रयितुं हि शेकुः |
6013 | 2104025c | स त्वेव मातॄरभिवाद्य सर्वा; रुदन्कुटीं स्वां प्रविवेश रामः |
6014 | 2105001a | ततः शिरसि कृत्वा तु पादुके भरतस्तदा |
6015 | 2105001c | आरुरोह रथं हृष्टः शत्रुघ्नेन समन्वितः |
6016 | 2105002a | वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिश्च दृढव्रतः |
6017 | 2105002c | अग्रतः प्रययुः सर्वे मन्त्रिणो मन्त्रपूजिताः |
6018 | 2105003a | मन्दाकिनीं नदीं रम्यां प्राङ्मुखास्ते ययुस्तदा |
6019 | 2105003c | प्रदक्षिणं च कुर्वाणाश्चित्रकूटं महागिरिम् |
6020 | 2105004a | पश्यन्धातुसहस्राणि रम्याणि विविधानि च |
6021 | 2105004c | प्रययौ तस्य पार्श्वेन ससैन्यो भरतस्तदा |
6022 | 2105005a | अदूराच्चित्रकूटस्य ददर्श भरतस्तदा |
6023 | 2105005c | आश्रमं यत्र स मुनिर्भरद्वाजः कृतालयः |
6024 | 2105006a | स तमाश्रममागम्य भरद्वाजस्य बुद्धिमान् |
6025 | 2105006c | अवतीर्य रथात्पादौ ववन्दे कुलनन्दनः |
6026 | 2105007a | ततो हृष्टो भरद्वाजो भरतं वाक्यमब्रवीत् |
6027 | 2105007c | अपि कृत्यं कृतं तात रामेण च समागतम् |
6028 | 2105008a | एवमुक्तस्तु भरतो भरद्वाजेन धीमता |
6029 | 2105008c | प्रत्युवाच भरद्वाजं भरतो धर्मवत्सलः |
6030 | 2105009a | स याच्यमानो गुरुणा मया च दृढविक्रमः |
6031 | 2105009c | राघवः परमप्रीतो वसिष्ठं वाक्यमब्रवीत् |
6032 | 2105010a | पितुः प्रतिज्ञां तामेव पालयिष्यामि तत्त्वतः |
6033 | 2105010c | चतुर्दश हि वर्षाणि य प्रतिज्ञा पितुर्मम |
6034 | 2105011a | एवमुक्तो महाप्राज्ञो वसिष्ठः प्रत्युवाच ह |
6035 | 2105011c | वाक्यज्ञो वाक्यकुशलं राघवं वचनं महत् |
6036 | 2105012a | एते प्रयच्छ संहृष्टः पादुके हेमभूषिते |
6037 | 2105012c | अयोध्यायां महाप्राज्ञ योगक्षेमकरे तव |
6038 | 2105013a | एवमुक्तो वसिष्ठेन राघवः प्राङ्मुखः स्थितः |
6039 | 2105013c | पादुके हेमविकृते मम राज्याय ते ददौ |
6040 | 2105014a | निवृत्तोऽहमनुज्ञातो रामेण सुमहात्मना |
6041 | 2105014c | अयोध्यामेव गच्छामि गृहीत्वा पादुके शुभे |
6042 | 2105015a | एतच्छ्रुत्वा शुभं वाक्यं भरतस्य महात्मनः |
6043 | 2105015c | भरद्वाजः शुभतरं मुनिर्वाक्यमुदाहरत् |
6044 | 2105016a | नैतच्चित्रं नरव्याघ्र शीलवृत्तवतां वर |
6045 | 2105016c | यदार्यं त्वयि तिष्ठेत्तु निम्ने वृष्टिमिवोदकम् |
6046 | 2105017a | अमृतः स महाबाहुः पिता दशरथस्तव |
6047 | 2105017c | यस्य त्वमीदृशः पुत्रो धर्मात्मा धर्मवत्सलः |
6048 | 2105018a | तमृषिं तु महात्मानमुक्तवाक्यं कृताञ्जलिः |
6049 | 2105018c | आमन्त्रयितुमारेभे चरणावुपगृह्य च |
6050 | 2105019a | ततः प्रदक्षिणं कृत्वा भरद्वाजं पुनः पुनः |
6051 | 2105019c | भरतस्तु ययौ श्रीमानयोध्यां सह मन्त्रिभिः |
6052 | 2105020a | यानैश्च शकटैश्चैव हयैश्नागैश्च सा चमूः |
6053 | 2105020c | पुनर्निवृत्ता विस्तीर्णा भरतस्यानुयायिनी |
6054 | 2105021a | ततस्ते यमुनां दिव्यां नदीं तीर्त्वोर्मिमालिनीम् |
6055 | 2105021c | ददृशुस्तां पुनः सर्वे गङ्गां शिवजलां नदीम् |
6056 | 2105022a | तां रम्यजलसंपूर्णां संतीर्य सह बान्धवः |
6057 | 2105022c | शृङ्गवेरपुरं रम्यं प्रविवेश ससैनिकः |
6058 | 2105023a | शृङ्गवेरपुराद्भूय अयोध्यां संददर्श ह |
6059 | 2105023c | भरतो दुःखसंतप्तः सारथिं चेदमब्रवीत् |
6060 | 2105024a | सारथे पश्य विध्वस्ता अयोध्या न प्रकाशते |
6061 | 2105024c | निराकारा निरानन्दा दीना प्रतिहतस्वना |
6062 | 2106001a | स्निग्धगम्भीरघोषेण स्यन्दनेनोपयान्प्रभुः |
6063 | 2106001c | अयोध्यां भरतः क्षिप्रं प्रविवेश महायशाः |
6064 | 2106002a | बिडालोलूकचरितामालीननरवारणाम् |
6065 | 2106002c | तिमिराभ्याहतां कालीमप्रकाशां निशामिव |
6066 | 2106003a | राहुशत्रोः प्रियां पत्नीं श्रिया प्रज्वलितप्रभाम् |
6067 | 2106003c | ग्रहेणाभ्युत्थितेनैकां रोहिणीमिव पीडिताम् |
6068 | 2106004a | अल्पोष्णक्षुब्धसलिलां घर्मोत्तप्तविहंगमाम् |
6069 | 2106004c | लीनमीनझषग्राहां कृशां गिरिनदीमिव |
6070 | 2106005a | विधूमामिव हेमाभामध्वराग्निसमुत्थिताम् |
6071 | 2106005c | हविरभ्युक्षितां पश्चाच्छिखां विप्रलयं गताम् |
6072 | 2106006a | विध्वस्तकवचां रुग्णगजवाजिरथध्वजाम् |
6073 | 2106006c | हतप्रवीरामापन्नां चमूमिव महाहवे |
6074 | 2106007a | सफेनां सस्वनां भूत्वा सागरस्य समुत्थिताम् |
6075 | 2106007c | प्रशान्तमारुतोद्धूतां जलोर्मिमिव निःस्वनाम् |
6076 | 2106008a | त्यक्तां यज्ञायुधैः सर्वैरभिरूपैश्च याजकैः |
6077 | 2106008c | सुत्याकाले विनिर्वृत्ते वेदिं गतरवामिव |
6078 | 2106009a | गोष्ठमध्ये स्थितामार्तामचरन्तीं नवं तृणम् |
6079 | 2106009c | गोवृषेण परित्यक्तां गवां पत्नीमिवोत्सुकाम् |
6080 | 2106010a | प्रभाकरालैः सुस्निग्धैः प्रज्वलद्भिरिवोत्तमैः |
6081 | 2106010c | वियुक्तां मणिभिर्जात्यैर्नवां मुक्तावलीमिव |
6082 | 2106011a | सहसा चलितां स्थानान्महीं पुण्यक्षयाद्गताम् |
6083 | 2106011c | संहृतद्युतिविस्तारां तारामिव दिवश्च्युताम् |
6084 | 2106012a | पुष्पनद्धां वसन्तान्ते मत्तभ्रमरशालिनीम् |
6085 | 2106012c | द्रुतदावाग्निविप्लुष्टां क्लान्तां वनलतामिव |
6086 | 2106013a | संमूढनिगमां सर्वां संक्षिप्तविपणापणाम् |
6087 | 2106013c | प्रच्छन्नशशिनक्षत्रां द्यामिवाम्बुधरैर्वृताम् |
6088 | 2106014a | क्षीणपानोत्तमैर्भिन्नैः शरावैरभिसंवृताम् |
6089 | 2106014c | हतशौण्डामिवाकाशे पानभूमिमसंस्कृताम् |
6090 | 2106015a | वृक्णभूमितलां निम्नां वृक्णपात्रैः समावृताम् |
6091 | 2106015c | उपयुक्तोदकां भग्नां प्रपां निपतितामिव |
6092 | 2106016a | विपुलां विततां चैव युक्तपाशां तरस्विनाम् |
6093 | 2106016c | भूमौ बाणैर्विनिष्कृत्तां पतितां ज्यामिवायुधात् |
6094 | 2106017a | सहसा युद्धशौण्डेन हयारोहेण वाहिताम् |
6095 | 2106017c | निक्षिप्तभाण्डामुत्सृष्टां किशोरीमिव दुर्बलाम् |
6096 | 2106018a | प्रावृषि प्रविगाढायां प्रविष्टस्याभ्र मण्डलम् |
6097 | 2106018c | प्रच्छन्नां नीलजीमूतैर्भास्करस्य प्रभामिव |
6098 | 2106019a | भरतस्तु रथस्थः सञ्श्रीमान्दशरथात्मजः |
6099 | 2106019c | वाहयन्तं रथश्रेष्ठं सारथिं वाक्यमब्रवीत् |
6100 | 2106020a | किं नु खल्वद्य गम्भीरो मूर्छितो न निशम्यते |
6101 | 2106020c | यथापुरमयोध्यायां गीतवादित्रनिःस्वनः |
6102 | 2106021a | वारुणीमदगन्धाश्च माल्यगन्धश्च मूर्छितः |
6103 | 2106021c | धूपितागरुगन्धश्च न प्रवाति समन्ततः |
6104 | 2106022a | यानप्रवरघोषश्च स्निग्धश्च हयनिःस्वनः |
6105 | 2106022c | प्रमत्तगजनादश्च महांश्च रथनिःस्वनः |
6106 | 2106022e | नेदानीं श्रूयते पुर्यामस्यां रामे विवासिते |
6107 | 2106023a | तरुणैश्चारु वेषैश्च नरैरुन्नतगामिभिः |
6108 | 2106023c | संपतद्भिरयोध्यायां न विभान्ति महापथाः |
6109 | 2106024a | एवं बहुविधं जल्पन्विवेश वसतिं पितुः |
6110 | 2106024c | तेन हीनां नरेन्द्रेण सिंहहीनां गुहामिव |
6111 | 2107001a | ततो निक्षिप्य मातॄह्स अयोध्यायां दृढव्रतः |
6112 | 2107001c | भरतः शोकसंतप्तो गुरूनिदमथाब्रवीत् |
6113 | 2107002a | नन्दिग्रामं गमिष्यामि सर्वानामन्त्रयेऽद्य वः |
6114 | 2107002c | तत्र दुःखमिदं सर्वं सहिष्ये राघवं विना |
6115 | 2107003a | गतश्च हि दिवं राजा वनस्थश्च गुरुर्मम |
6116 | 2107003c | रामं प्रतीक्षे राज्याय स हि राजा महायशाः |
6117 | 2107004a | एतच्छ्रुत्वा शुभं वाक्यं भरतस्य महात्मनः |
6118 | 2107004c | अब्रुवन्मन्त्रिणः सर्वे वसिष्ठश्च पुरोहितः |
6119 | 2107005a | सदृशं श्लाघनीयं च यदुक्तं भरत त्वया |
6120 | 2107005c | वचनं भ्रातृवात्सल्यादनुरूपं तवैव तत् |
6121 | 2107006a | नित्यं ते बन्धुलुब्धस्य तिष्ठतो भ्रातृसौहृदे |
6122 | 2107006c | आर्यमार्गं प्रपन्नस्य नानुमन्येत कः पुमान् |
6123 | 2107007a | मन्त्रिणां वचनं श्रुत्वा यथाभिलषितं प्रियम् |
6124 | 2107007c | अब्रवीत्सारथिं वाक्यं रथो मे युज्यतामिति |
6125 | 2107008a | प्रहृष्टवदनः सर्वा मातॄह्समभिवाद्य सः |
6126 | 2107008c | आरुरोह रथं श्रीमाञ्शत्रुघ्नेन समन्वितः |
6127 | 2107009a | आरुह्य तु रथं शीघ्रं शत्रुघ्नभरतावुभौ |
6128 | 2107009c | ययतुः परमप्रीतौ वृतौ मन्त्रिपुरोहितैः |
6129 | 2107010a | अग्रतो पुरवस्तत्र वसिष्ठ प्रमुखा द्विजाः |
6130 | 2107010c | प्रययुः प्राङ्मुखाः सर्वे नन्दिग्रामो यतोऽभवत् |
6131 | 2107011a | बलं च तदनाहूतं गजाश्वरथसंकुलम् |
6132 | 2107011c | प्रययौ भरते याते सर्वे च पुरवासिनः |
6133 | 2107012a | रथस्थः स तु धर्मात्मा भरतो भ्रातृवत्सलः |
6134 | 2107012c | नन्दिग्रामं ययौ तूर्णं शिरस्याधाय पादुके |
6135 | 2107013a | ततस्तु भरतः क्षिप्रं नन्दिग्रामं प्रविश्य सः |
6136 | 2107013c | अवतीर्य रथात्तूर्णं गुरूनिदमुवाच ह |
6137 | 2107014a | एतद्राज्यं मम भ्रात्रा दत्तं संन्यासवत्स्वयम् |
6138 | 2107014c | योगक्षेमवहे चेमे पादुके हेमभूषिते |
6139 | 2107014e | तमिमं पालयिष्यामि राघवागमनं प्रति |
6140 | 2107015a | क्षिप्रं संयोजयित्वा तु राघवस्य पुनः स्वयम् |
6141 | 2107015c | चरणौ तौ तु रामस्य द्रक्ष्यामि सहपादुकौ |
6142 | 2107016a | ततो निक्षिप्तभारोऽहं राघवेण समागतः |
6143 | 2107016c | निवेद्य गुरवे राज्यं भजिष्ये गुरुवृत्तिताम् |
6144 | 2107017a | राघवाय च संन्यासं दत्त्वेमे वरपादुके |
6145 | 2107017c | राज्यं चेदमयोध्यां च धूतपापो भवामि च |
6146 | 2107018a | अभिषिक्ते तु काकुत्स्थे प्रहृष्टमुदिते जने |
6147 | 2107018c | प्रीतिर्मम यशश्चैव भवेद्राज्याच्चतुर्गुणम् |
6148 | 2107019a | एवं तु विलपन्दीनो भरतः स महायशाः |
6149 | 2107019c | नन्दिग्रामेऽकरोद्राज्यं दुःखितो मन्त्रिभिः सह |
6150 | 2107020a | स वल्कलजटाधारी मुनिवेषधरः प्रभुः |
6151 | 2107020c | नन्दिग्रामेऽवसद्वीरः ससैन्यो भरतस्तदा |
6152 | 2107021a | रामागमनमाकाङ्क्षन्भरतो भ्रातृवत्सलः |
6153 | 2107021c | भ्रातुर्वचनकारी च प्रतिज्ञापारगस्तदा |
6154 | 2107022a | पादुके त्वभिषिच्याथ नन्दिग्रामेऽवसत्तदा |
6155 | 2107022c | भरतः शासनं सर्वं पादुकाभ्यां न्यवेदयत् |
6156 | 2108001a | प्रतिप्रयाते भरते वसन्रामस्तपोवने |
6157 | 2108001c | लक्षयामास सोद्वेगमथौत्सुक्यं तपस्विनाम् |
6158 | 2108002a | ये तत्र चित्रकूटस्य पुरस्तात्तापसाश्रमे |
6159 | 2108002c | राममाश्रित्य निरतास्तानलक्षयदुत्सुकान् |
6160 | 2108003a | नयनैर्भृकुटीभिश्च रामं निर्दिश्य शङ्किताः |
6161 | 2108003c | अन्योन्यमुपजल्पन्तः शनैश्चक्रुर्मिथः कथाः |
6162 | 2108004a | तेषामौत्सुक्यमालक्ष्य रामस्त्वात्मनि शङ्कितः |
6163 | 2108004c | कृताञ्जलिरुवाचेदमृषिं कुलपतिं ततः |
6164 | 2108005a | न कच्चिद्भगवन्किंचित्पूर्ववृत्तमिदं मयि |
6165 | 2108005c | दृश्यते विकृतं येन विक्रियन्ते तपस्विनः |
6166 | 2108006a | प्रमादाच्चरितं कच्चित्किंचिन्नावरजस्य मे |
6167 | 2108006c | लक्ष्मणस्यर्षिभिर्दृष्टं नानुरूपमिवात्मनः |
6168 | 2108007a | कच्चिच्छुश्रूषमाणा वः शुश्रूषणपरा मयि |
6169 | 2108007c | प्रमदाभ्युचितां वृत्तिं सीता युक्तं न वर्तते |
6170 | 2108008a | अथर्षिर्जरया वृद्धस्तपसा च जरां गतः |
6171 | 2108008c | वेपमान इवोवाच रामं भूतदयापरम् |
6172 | 2108009a | कुतः कल्याणसत्त्वायाः कल्याणाभिरतेस्तथा |
6173 | 2108009c | चलनं तात वैदेह्यास्तपस्विषु विशेषतः |
6174 | 2108010a | त्वन्निमित्तमिदं तावत्तापसान्प्रति वर्तते |
6175 | 2108010c | रक्षोभ्यस्तेन संविग्नाः कथयन्ति मिथः कथाः |
6176 | 2108011a | रावणावरजः कश्चित्खरो नामेह राक्षसः |
6177 | 2108011c | उत्पाट्य तापसान्सर्वाञ्जनस्थाननिकेतनान् |
6178 | 2108012a | धृष्टश्च जितकाशी च नृशंसः पुरुषादकः |
6179 | 2108012c | अवलिप्तश्च पापश्च त्वां च तात न मृष्यते |
6180 | 2108013a | त्वं यदा प्रभृति ह्यस्मिन्नाश्रमे तात वर्तसे |
6181 | 2108013c | तदा प्रभृति रक्षांसि विप्रकुर्वन्ति तापसान् |
6182 | 2108014a | दर्शयन्ति हि बीभत्सैः क्रूरैर्भीषणकैरपि |
6183 | 2108014c | नाना रूपैर्विरूपैश्च रूपैरसुखदर्शनैः |
6184 | 2108015a | अप्रशस्तैरशुचिभिः संप्रयोज्य च तापसान् |
6185 | 2108015c | प्रतिघ्नन्त्यपरान्क्षिप्रमनार्याः पुरतः स्थितः |
6186 | 2108016a | तेषु तेष्वाश्रमस्थानेष्वबुद्धमवलीय च |
6187 | 2108016c | रमन्ते तापसांस्तत्र नाशयन्तोऽल्पचेतसः |
6188 | 2108017a | अपक्षिपन्ति स्रुग्भाण्डानग्नीन्सिञ्चन्ति वारिणा |
6189 | 2108017c | कलशांश्च प्रमृद्नन्ति हवने समुपस्थिते |
6190 | 2108018a | तैर्दुरात्मभिराविष्टानाश्रमान्प्रजिहासवः |
6191 | 2108018c | गमनायान्यदेशस्य चोदयन्त्यृषयोऽद्य माम् |
6192 | 2108019a | तत्पुरा राम शारीरामुपहिंसां तपस्विषु |
6193 | 2108019c | दर्शयति हि दुष्टास्ते त्यक्ष्याम इममाश्रमम् |
6194 | 2108020a | बहुमूलफलं चित्रमविदूरादितो वनम् |
6195 | 2108020c | पुराणाश्रममेवाहं श्रयिष्ये सगणः पुनः |
6196 | 2108021a | खरस्त्वय्यपि चायुक्तं पुरा तात प्रवर्तते |
6197 | 2108021c | सहास्माभिरितो गच्छ यदि बुद्धिः प्रवर्तते |
6198 | 2108022a | सकलत्रस्य संदेहो नित्यं यत्तस्य राघव |
6199 | 2108022c | समर्थस्यापि हि सतो वासो दुःख इहाद्य ते |
6200 | 2108023a | इत्युक्तवन्तं रामस्तं राजपुत्रस्तपस्विनम् |
6201 | 2108023c | न शशाकोत्तरैर्वाक्यैरवरोद्धुं समुत्सुकम् |
6202 | 2108024a | अभिनन्द्य समापृच्छ्य समाधाय च राघवम् |
6203 | 2108024c | स जगामाश्रमं त्यक्त्वा कुलैः कुलपतिः सह |
6204 | 2108025a | रामः संसाध्य त्वृषिगणमनुगमना;द्देशात्तस्माच्चित्कुलपतिमभिवाद्यर्षिम् |
6205 | 2108025c | सम्यक्प्रीतैस्तैरनुमत उपदिष्टार्थः; पुण्यं वासाय स्वनिलयमुपसंपेदे |
6206 | 2108026a | आश्रमं त्वृषिविरहितं प्रभुः; क्षणमपि न जहौ स राघवः |
6207 | 2108026c | राघवं हि सततमनुगता;स्तापसाश्चर्षिचरितधृतगुणाः |
6208 | 2109001a | राघवस्त्वपयातेषु तपस्विषु विचिन्तयन् |
6209 | 2109001c | न तत्रारोचयद्वासं कारणैर्बहुभिस्तदा |
6210 | 2109002a | इह मे भरतो दृष्टो मातरश्च सनागराः |
6211 | 2109002c | सा च मे स्मृतिरन्वेति तान्नित्यमनुशोचतः |
6212 | 2109003a | स्कन्धावारनिवेशेन तेन तस्य महात्मनः |
6213 | 2109003c | हयहस्तिकरीषैश्च उपमर्दः कृतो भृशम् |
6214 | 2109004a | तस्मादन्यत्र गच्छाम इति संचिन्त्य राघवः |
6215 | 2109004c | प्रातिष्ठत स वैदेह्या लक्ष्मणेन च संगतः |
6216 | 2109005a | सोऽत्रेराश्रममासाद्य तं ववन्दे महायशाः |
6217 | 2109005c | तं चापि भगवानत्रिः पुत्रवत्प्रत्यपद्यत |
6218 | 2109006a | स्वयमातिथ्यमादिश्य सर्वमस्य सुसत्कृतम् |
6219 | 2109006c | सौमित्रिं च महाभागां सीतां च समसान्त्वयत् |
6220 | 2109007a | पत्नीं च तमनुप्राप्तां वृद्धामामन्त्र्य सत्कृताम् |
6221 | 2109007c | सान्त्वयामास धर्मज्ञः सर्वभूतहिते रतः |
6222 | 2109008a | अनसूयां महाभागां तापसीं धर्मचारिणीम् |
6223 | 2109008c | प्रतिगृह्णीष्व वैदेहीमब्रवीदृषिसत्तमः |
6224 | 2109009a | रामाय चाचचक्षे तां तापसीं धर्मचारिणीम् |
6225 | 2109009c | दश वर्षाण्यनावृष्ट्या दग्धे लोके निरन्तरम् |
6226 | 2109010a | यया मूलफले सृष्टे जाह्नवी च प्रवर्तिता |
6227 | 2109010c | उग्रेण तपसा युक्ता नियमैश्चाप्यलंकृता |
6228 | 2109011a | दशवर्षसहस्राणि यया तप्तं महत्तपः |
6229 | 2109011c | अनसूयाव्रतैस्तात प्रत्यूहाश्च निबर्हिताः |
6230 | 2109012a | देवकार्यनिमित्तं च यया संत्वरमाणया |
6231 | 2109012c | दशरात्रं कृत्वा रात्रिः सेयं मातेव तेऽनघ |
6232 | 2109013a | तामिमां सर्वभूतानां नमस्कार्यां यशस्विनीम् |
6233 | 2109013c | अभिगच्छतु वैदेही वृद्धामक्रोधनां सदा |
6234 | 2109014a | एवं ब्रुवाणं तमृषिं तथेत्युक्त्वा स राघवः |
6235 | 2109014c | सीतामुवाच धर्मज्ञामिदं वचनमुत्तमम् |
6236 | 2109015a | राजपुत्रि श्रुतं त्वेतन्मुनेरस्य समीरितम् |
6237 | 2109015c | श्रेयोऽर्थमात्मनः शीघ्रमभिगच्छ तपस्विनीम् |
6238 | 2109016a | अनसूयेति या लोके कर्मभिः क्यातिमागता |
6239 | 2109016c | तां शीघ्रमभिगच्छ त्वमभिगम्यां तपस्विनीम् |
6240 | 2109017a | सीता त्वेतद्वचः श्रुत्वा राघवस्य हितैषिणी |
6241 | 2109017c | तामत्रिपत्नीं धर्मज्ञामभिचक्राम मैथिली |
6242 | 2109018a | शिथिलां वलितां वृद्धां जरापाण्डुरमूर्धजाम् |
6243 | 2109018c | सततं वेपमानाङ्गीं प्रवाते कदली यथा |
6244 | 2109019a | तां तु सीता महाभागामनसूयां पतिव्रताम् |
6245 | 2109019c | अभ्यवादयदव्यग्रा स्वं नाम समुदाहरत् |
6246 | 2109020a | अभिवाद्य च वैदेही तापसीं तामनिन्दिताम् |
6247 | 2109020c | बद्धाञ्जलिपुटा हृष्टा पर्यपृच्छदनामयम् |
6248 | 2109021a | ततः सीतां महाभागां दृष्ट्वा तां धर्मचारिणीम् |
6249 | 2109021c | सान्त्वयन्त्यब्रवीद्धृष्टा दिष्ट्या धर्ममवेक्षसे |
6250 | 2109022a | त्यक्त्वा ज्ञातिजनं सीते मानमृद्धिं च मानिनि |
6251 | 2109022c | अवरुद्धं वने रामं दिष्ट्या त्वमनुगच्छसि |
6252 | 2109023a | नगरस्थो वनस्थो वा पापो वा यदि वाशुभः |
6253 | 2109023c | यासां स्त्रीणां प्रियो भर्ता तासां लोका महोदयाः |
6254 | 2109024a | दुःशीलः कामवृत्तो वा धनैर्वा परिवर्जितः |
6255 | 2109024c | स्त्रीणामार्य स्वभावानां परमं दैवतं पतिः |
6256 | 2109025a | नातो विशिष्टं पश्यामि बान्धवं विमृशन्त्यहम् |
6257 | 2109025c | सर्वत्र योग्यं वैदेहि तपः कृतमिवाव्ययम् |
6258 | 2109026a | न त्वेवमवगच्छन्ति गुण दोषमसत्स्त्रियः |
6259 | 2109026c | कामवक्तव्यहृदया भर्तृनाथाश्चरन्ति याः |
6260 | 2109027a | प्राप्नुवन्त्ययशश्चैव धर्मभ्रंशं च मैथिलि |
6261 | 2109027c | अकार्य वशमापन्नाः स्त्रियो याः खलु तद्विधाः |
6262 | 2109028a | त्वद्विधास्तु गुणैर्युक्ता दृष्टलोकपरावराः |
6263 | 2109028c | स्त्रियः स्वर्गे चरिष्यन्ति यथा पुण्यकृतस्तथा |
6264 | 2110001a | सा त्वेवमुक्ता वैदेही अनसूयानसूयया |
6265 | 2110001c | प्रतिपूज्य वचो मन्दं प्रवक्तुमुपचक्रमे |
6266 | 2110002a | नैतदाश्चर्यमार्याया यन्मां त्वमनुभाषसे |
6267 | 2110002c | विदितं तु ममाप्येतद्यथा नार्याः पतिर्गुरुः |
6268 | 2110003a | यद्यप्येष भवेद्भर्ता ममार्ये वृत्तवर्जितः |
6269 | 2110003c | अद्वैधमुपवर्तव्यस्तथाप्येष मया भवेत् |
6270 | 2110004a | किं पुनर्यो गुणश्लाघ्यः सानुक्रोशो जितेन्द्रियः |
6271 | 2110004c | स्थिरानुरागो धर्मात्मा मातृवर्ती पितृ प्रियः |
6272 | 2110005a | यां वृत्तिं वर्तते रामः कौसल्यायां महाबलः |
6273 | 2110005c | तामेव नृपनारीणामन्यासामपि वर्तते |
6274 | 2110006a | सकृद्दृष्टास्वपि स्त्रीषु नृपेण नृपवत्सलः |
6275 | 2110006c | मातृवद्वर्तते वीरो मानमुत्सृज्य धर्मवित् |
6276 | 2110007a | आगच्छन्त्याश्च विजनं वनमेवं भयावहम् |
6277 | 2110007c | समाहितं हि मे श्वश्र्वा हृदये यत्स्थितं मम |
6278 | 2110008a | प्राणिप्रदानकाले च यत्पुरा त्वग्निसंनिधौ |
6279 | 2110008c | अनुशिष्टा जनन्यास्मि वाक्यं तदपि मे धृतम् |
6280 | 2110009a | नवीकृतं तु तत्सर्वं वाक्यैस्ते धर्मचारिणि |
6281 | 2110009c | पतिशुश्रूषणान्नार्यास्तपो नान्यद्विधीयते |
6282 | 2110010a | सावित्री पतिशुश्रूषां कृत्वा स्वर्गे महीयते |
6283 | 2110010c | तथा वृत्तिश्च याता त्वं पतिशुश्रूषया दिवम् |
6284 | 2110011a | वरिष्ठा सर्वनारीणामेषा च दिवि देवता |
6285 | 2110011c | रोहिणी च विना चन्द्रं मुहूर्तमपि दृश्यते |
6286 | 2110012a | एवंविधाश्च प्रवराः स्त्रियो भर्तृदृढव्रताः |
6287 | 2110012c | देवलोके महीयन्ते पुण्येन स्वेन कर्मणा |
6288 | 2110013a | ततोऽनसूया संहृष्टा श्रुत्वोक्तं सीतया वचः |
6289 | 2110013c | शिरस्याघ्राय चोवाच मैथिलीं हर्षयन्त्युत |
6290 | 2110014a | नियमैर्विविधैराप्तं तपो हि महदस्ति मे |
6291 | 2110014c | तत्संश्रित्य बलं सीते छन्दये त्वां शुचिव्रते |
6292 | 2110015a | उपपन्नं च युक्तं च वचनं तव मैथिलि |
6293 | 2110015c | प्रीता चास्म्युचितं किं ते करवाणि ब्रवीहि मे |
6294 | 2110015e | कृतमित्यब्रवीत्सीता तपोबलसमन्विताम् |
6295 | 2110016a | सा त्वेवमुक्ता धर्मज्ञा तया प्रीततराभवत् |
6296 | 2110016c | सफलं च प्रहर्षं ते हन्त सीते करोम्यहम् |
6297 | 2110017a | इदं दिव्यं वरं माल्यं वस्त्रमाभरणानि च |
6298 | 2110017c | अङ्गरागं च वैदेहि महार्हमनुलेपनम् |
6299 | 2110018a | मया दत्तमिदं सीते तव गात्राणि शोभयेत् |
6300 | 2110018c | अनुरूपमसंक्लिष्टं नित्यमेव भविष्यति |
6301 | 2110019a | अङ्गरागेण दिव्येन लिप्ताङ्गी जनकात्मजे |
6302 | 2110019c | शोभयिष्यामि भर्तारं यथा श्रीर्विष्णुमव्ययम् |
6303 | 2110020a | सा वस्त्रमङ्गरागं च भूषणानि स्रजस्तथा |
6304 | 2110020c | मैथिली प्रतिजग्राह प्रीतिदानमनुत्तमम् |
6305 | 2110021a | प्रतिगृह्य च तत्सीता प्रीतिदानं यशस्विनी |
6306 | 2110021c | श्लिष्टाञ्जलिपुटा धीरा समुपास्त तपोधनाम् |
6307 | 2110022a | तथा सीतामुपासीनामनसूया दृढव्रता |
6308 | 2110022c | वचनं प्रष्टुमारेभे कथां कांचिदनुप्रियाम् |
6309 | 2110023a | स्वयंवरे किल प्राप्ता त्वमनेन यशस्विना |
6310 | 2110023c | राघवेणेति मे सीते कथा श्रुतिमुपागता |
6311 | 2110024a | तां कथां श्रोतुमिच्छामि विस्तरेण च मैथिलि |
6312 | 2110024c | यथानुभूतं कार्त्स्न्येन तन्मे त्वं वक्तुमर्हसि |
6313 | 2110025a | एवमुक्ता तु सा सीता तां ततो धर्मचारिणीम् |
6314 | 2110025c | श्रूयतामिति चोक्त्वा वै कथयामास तां कथाम् |
6315 | 2110026a | मिथिलाधिपतिर्वीरो जनको नाम धर्मवित् |
6316 | 2110026c | क्षत्रधर्मण्यभिरतो न्यायतः शास्ति मेदिनीम् |
6317 | 2110027a | तस्य लाङ्गलहस्तस्य कर्षतः क्षेत्रमण्डलम् |
6318 | 2110027c | अहं किलोत्थिता भित्त्वा जगतीं नृपतेः सुता |
6319 | 2110028a | स मां दृष्ट्वा नरपतिर्मुष्टिविक्षेपतत्परः |
6320 | 2110028c | पांशु गुण्ठित सर्वाङ्गीं विस्मितो जनकोऽभवत् |
6321 | 2110029a | अनपत्येन च स्नेहादङ्कमारोप्य च स्वयम् |
6322 | 2110029c | ममेयं तनयेत्युक्त्वा स्नेहो मयि निपातितः |
6323 | 2110030a | अन्तरिक्षे च वागुक्ताप्रतिमा मानुषी किल |
6324 | 2110030c | एवमेतन्नरपते धर्मेण तनया तव |
6325 | 2110031a | ततः प्रहृष्टो धर्मात्मा पिता मे मिथिलाधिपः |
6326 | 2110031c | अवाप्तो विपुलामृद्धिं मामवाप्य नराधिपः |
6327 | 2110032a | दत्त्वा चास्मीष्टवद्देव्यै ज्येष्ठायै पुण्यकर्मणा |
6328 | 2110032c | तया संभाविता चास्मि स्निग्धया मातृसौहृदात् |
6329 | 2110033a | पतिसंयोगसुलभं वयो दृष्ट्वा तु मे पिता |
6330 | 2110033c | चिन्तामभ्यगमद्दीनो वित्तनाशादिवाधनः |
6331 | 2110034a | सदृशाच्चापकृष्टाच्च लोके कन्यापिता जनात् |
6332 | 2110034c | प्रधर्षणामवाप्नोति शक्रेणापि समो भुवि |
6333 | 2110035a | तां धर्षणामदूरस्थां संदृश्यात्मनि पार्थिवः |
6334 | 2110035c | चिन्न्तार्णवगतः पारं नाससादाप्लवो यथ |
6335 | 2110036a | अयोनिजां हि मां ज्ञात्वा नाध्यगच्छत्स चिन्तयन् |
6336 | 2110036c | सदृशं चानुरूपं च महीपालः पतिं मम |
6337 | 2110037a | तस्य बुद्धिरियं जाता चिन्तयानस्य संततम् |
6338 | 2110037c | स्वयं वरं तनूजायाः करिष्यामीति धीमतः |
6339 | 2110038a | महायज्ञे तदा तस्य वरुणेन महात्मना |
6340 | 2110038c | दत्तं धनुर्वरं प्रीत्या तूणी चाक्षय्य सायकौ |
6341 | 2110039a | असंचाल्यं मनुष्यैश्च यत्नेनापि च गौरवात् |
6342 | 2110039c | तन्न शक्ता नमयितुं स्वप्नेष्वपि नराधिपाः |
6343 | 2110040a | तद्धनुः प्राप्य मे पित्रा व्याहृतं सत्यवादिना |
6344 | 2110040c | समवाये नरेन्द्राणां पूर्वमामन्त्र्य पार्थिवान् |
6345 | 2110041a | इदं च धनुरुद्यम्य सज्यं यः कुरुते नरः |
6346 | 2110041c | तस्य मे दुहिता भार्या भविष्यति न संशयः |
6347 | 2110042a | तच्च दृष्ट्वा धनुःश्रेष्ठं गौरवाद्गिरिसंनिभम् |
6348 | 2110042c | अभिवाद्य नृपा जग्मुरशक्तास्तस्य तोलने |
6349 | 2110043a | सुदीर्घस्य तु कालस्य राघवोऽयं महाद्युतिः |
6350 | 2110043c | विश्वामित्रेण सहितो यज्ञं द्रष्टुं समागतः |
6351 | 2110044a | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा रामः सत्यपराक्रमः |
6352 | 2110044c | विश्वामित्रस्तु धर्मात्मा मम पित्रा सुपूजितः |
6353 | 2110045a | प्रोवाच पितरं तत्र राघवो रामलक्ष्मणौ |
6354 | 2110045c | सुतौ दशरथस्येमौ धनुर्दर्शनकाङ्क्षिणौ |
6355 | 2110045e | इत्युक्तस्तेन विप्रेण तद्धनुः समुपानयत् |
6356 | 2110046a | निमेषान्तरमात्रेण तदानम्य स वीर्यवान् |
6357 | 2110046c | ज्यां समारोप्य झटिति पूरयामास वीर्यवान् |
6358 | 2110047a | तेन पूरयता वेगान्मध्ये भग्नं द्विधा धनुः |
6359 | 2110047c | तस्य शब्दोऽभवद्भीमः पतितस्याशनेरिव |
6360 | 2110048a | ततोऽहं तत्र रामाय पित्रा सत्याभिसंधिना |
6361 | 2110048c | उद्यता दातुमुद्यम्य जलभाजनमुत्तमम् |
6362 | 2110049a | दीयमानां न तु तदा प्रतिजग्राह राघवः |
6363 | 2110049c | अविज्ञाय पितुश्छन्दमयोध्याधिपतेः प्रभोः |
6364 | 2110050a | ततः श्वशुरमामन्त्र्य वृद्धं दशरथं नृपम् |
6365 | 2110050c | मम पित्रा अहं दत्ता रामाय विदितात्मने |
6366 | 2110051a | मम चैवानुजा साध्वी ऊर्मिला प्रियदर्शना |
6367 | 2110051c | भार्यार्थे लक्ष्मणस्यापि दत्ता पित्रा मम स्वयम् |
6368 | 2110052a | एवं दत्तास्मि रामाय तदा तस्मिन्स्वयं वरे |
6369 | 2110052c | अनुरक्ता च धर्मेण पतिं वीर्यवतां वरम् |
6370 | 2111001a | अनसूया तु धर्मज्ञा श्रुत्वा तां महतीं कथाम् |
6371 | 2111001c | पर्यष्वजत बाहुभ्यां शिरस्याघ्राय मैथिलीम् |
6372 | 2111002a | व्यक्ताक्षरपदं चित्रं भाषितं मधुरं त्वया |
6373 | 2111002c | यथा स्वयंवरं वृत्तं तत्सर्वं हि श्रुतं मया |
6374 | 2111003a | रमेऽहं कथया ते तु दृष्ढं मधुरभाषिणि |
6375 | 2111003c | रविरस्तं गतः श्रीमानुपोह्य रजनीं शिवाम् |
6376 | 2111004a | दिवसं प्रति कीर्णानामाहारार्थं पतत्रिणाम् |
6377 | 2111004c | संध्याकाले निलीनानां निद्रार्थं श्रूयते ध्वनिः |
6378 | 2111005a | एते चाप्यभिषेकार्द्रा मुनयः फलशोधनाः |
6379 | 2111005c | सहिता उपवर्तन्ते सलिलाप्लुतवल्कलाः |
6380 | 2111006a | ऋषीणामग्निहोत्रेषु हुतेषु विधिपुर्वकम् |
6381 | 2111006c | कपोताङ्गारुणो धूमो दृश्यते पवनोद्धतः |
6382 | 2111007a | अल्पपर्णा हि तरवो घनीभूताः समन्ततः |
6383 | 2111007c | विप्रकृष्टेऽपि ये देशे न प्रकाशन्ति वै दिशः |
6384 | 2111008a | रजनी रससत्त्वानि प्रचरन्ति समन्ततः |
6385 | 2111008c | तपोवनमृगा ह्येते वेदितीर्थेषु शेरते |
6386 | 2111009a | संप्रवृत्ता निशा सीते नक्षत्रसमलंकृता |
6387 | 2111009c | ज्योत्स्ना प्रावरणश्चन्द्रो दृश्यतेऽभ्युदितोऽम्बरे |
6388 | 2111010a | गम्यतामनुजानामि रामस्यानुचरी भव |
6389 | 2111010c | कथयन्त्या हि मधुरं त्वयाहं परितोषिता |
6390 | 2111011a | अलंकुरु च तावत्त्वं प्रत्यक्षं मम मैथिलि |
6391 | 2111011c | प्रीतिं जनय मे वत्स दिव्यालंकारशोभिनी |
6392 | 2111012a | सा तदा समलंकृत्य सीता सुरसुतोपमा |
6393 | 2111012c | प्रणम्य शिरसा तस्यै रामं त्वभिमुखी ययौ |
6394 | 2111013a | तथा तु भूषितां सीतां ददर्श वदतां वरः |
6395 | 2111013c | राघवः प्रीतिदानेन तपस्विन्या जहर्ष च |
6396 | 2111014a | न्यवेदयत्ततः सर्वं सीता रामाय मैथिली |
6397 | 2111014c | प्रीतिदानं तपस्विन्या वसनाभरणस्रजाम् |
6398 | 2111015a | प्रहृष्टस्त्वभवद्रामो लक्ष्मणश्च महारथः |
6399 | 2111015c | मैथिल्याः सत्क्रियां दृष्ट्वा मानुषेषु सुदुर्लभाम् |
6400 | 2111016a | ततस्तां सर्वरीं प्रीतः पुण्यां शशिनिभाननः |
6401 | 2111016c | अर्चितस्तापसैः सिद्धैरुवास रघुनन्दनः |
6402 | 2111017a | तस्यां रात्र्यां व्यतीतायामभिषिच्य हुताग्निकान् |
6403 | 2111017c | आपृच्छेतां नरव्याघ्रौ तापसान्वनगोचरान् |
6404 | 2111018a | तावूचुस्ते वनचरास्तापसा धर्मचारिणः |
6405 | 2111018c | वनस्य तस्य संचारं राक्षसैः समभिप्लुतम् |
6406 | 2111019a | एष पन्था महर्षीणां फलान्याहरतां वने |
6407 | 2111019c | अनेन तु वनं दुर्गं गन्तुं राघव ते क्षमम् |
6408 | 2111020a | इतीव तैः प्राञ्जलिभिस्तपस्विभि;र्द्विजैः कृतस्वस्त्ययनः परंतपः |
6409 | 2111020c | वनं सभार्यः प्रविवेश राघवः; सलक्ष्मणः सूर्य इवाभ्रमण्डलम् |
क्रमाङ्क | छन्द | श्लोक |
---|---|---|
1 | 3001001a | प्रविश्य तु महारण्यं दण्डकारण्यमात्मवान् |
2 | 3001001c | ददर्श रामो दुर्धर्षस्तापसाश्रममण्डलम् |
3 | 3001002a | कुशचीरपरिक्षिप्तं ब्राह्म्या लक्ष्म्या समावृतम् |
4 | 3001002c | यथा प्रदीप्तं दुर्धर्शं गगने सूर्यमण्डलम् |
5 | 3001003a | शरण्यं सर्वभूतानां सुसमृष्टाजिरं सदा |
6 | 3001003c | पूजितं चोपनृत्तं च नित्यमप्सरसां गणैः |
7 | 3001004a | विशालैरग्निशरणैः स्रुग्भाण्डैरजिनैः कुशैः |
8 | 3001004c | समिद्भिस्तोयकलशैः फलमूलैश्च शोभितम् |
9 | 3001005a | आरण्यैश्च महावृक्षैः पुण्यैः स्वादुफलैर्वृतम् |
10 | 3001005c | बलिहोमार्चितं पुण्यं ब्रह्मघोषनिनादितम् |
11 | 3001006a | पुष्पैर्वन्यैः परिक्षिप्तं पद्मिन्या च सपद्मया |
12 | 3001006c | फलमूलाशनैर्दान्तैश्चीरकृष्णाजिनाम्बरैः |
13 | 3001007a | सूर्यवैश्वानराभैश्च पुराणैर्मुनिभिर्वृतम् |
14 | 3001007c | पुण्यैश नियताहारैः शोभितं परमर्षिभिः |
15 | 3001008a | तद्ब्रह्मभवनप्रख्यं ब्रह्मघोषनिनादितम् |
16 | 3001008c | ब्रह्मविद्भिर्महाभागैर्ब्राह्मणैरुपशोभितम् |
17 | 3001009a | तद्दृष्ट्वा राघवः श्रीमांस्तापसाश्रममण्डलम् |
18 | 3001009c | अभ्यगच्छन्महातेजा विज्यं कृत्वा महद्धनुः |
19 | 3001010a | दिव्यज्ञानोपपन्नास्ते रामं दृष्ट्वा महर्षयः |
20 | 3001010c | अभ्यगच्छंस्तदा प्रीता वैदेहीं च यशस्विनीम् |
21 | 3001011a | ते तं सोममिवोद्यन्तं दृष्ट्वा वै धर्मचारिणः |
22 | 3001011c | मङ्गलानि प्रयुञ्जानाः प्रत्यगृह्णन्दृढव्रताः |
23 | 3001012a | रूपसंहननं लक्ष्मीं सौकुमार्यं सुवेषताम् |
24 | 3001012c | ददृशुर्विस्मिताकारा रामस्य वनवासिनः |
25 | 3001013a | वैदेहीं लक्ष्मणं रामं नेत्रैरनिमिषैरिव |
26 | 3001013c | आश्चर्यभूतान्ददृशुः सर्वे ते वनचारिणः |
27 | 3001014a | अत्रैनं हि महाभागाः सर्वभूतहिते रताः |
28 | 3001014c | अतिथिं पर्णशालायां राघवं संन्यवेशयन् |
29 | 3001015a | ततो रामस्य सत्कृत्य विधिना पावकोपमाः |
30 | 3001015c | आजह्रुस्ते महाभागाः सलिलं धर्मचारिणः |
31 | 3001016a | मूलं पुष्पं फलं वन्यमाश्रमं च महात्मनः |
32 | 3001016c | निवेदयीत्वा धर्मज्ञास्ततः प्राञ्जलयोऽब्रुवन् |
33 | 3001017a | धर्मपालो जनस्यास्य शरण्यश्च महायशाः |
34 | 3001017c | पूजनीयश्च मान्यश्च राजा दण्डधरो गुरुः |
35 | 3001018a | इन्द्रस्यैव चतुर्भागः प्रजा रक्षति राघव |
36 | 3001018c | राजा तस्माद्वनान्भोगान्भुङ्क्ते लोकनमस्कृतः |
37 | 3001019a | ते वयं भवता रक्ष्या भवद्विषयवासिनः |
38 | 3001019c | नगरस्थो वनस्थो वा त्वं नो राजा जनेश्वरः |
39 | 3001020a | न्यस्तदण्डा वयं राजञ्जितक्रोधा जितेन्द्रियाः |
40 | 3001020c | रक्षितव्यास्त्वया शश्वद्गर्भभूतास्तपोधनाः |
41 | 3001021a | एवमुक्त्वा फलैर्मूलैः पुष्पैर्वन्यैश्च राघवम् |
42 | 3001021c | अन्यैश्च विविधाहारैः सलक्ष्मणमपूजयन् |
43 | 3001022a | तथान्ये तापसाः सिद्धा रामं वैश्वानरोपमाः |
44 | 3001022c | न्यायवृत्ता यथान्यायं तर्पयामासुरीश्वरम् |
45 | 3002001a | कृतातिथ्योऽथ रामस्तु सूर्यस्योदयनं प्रति |
46 | 3002001c | आमन्त्र्य स मुनीन्सर्वान्वनमेवान्वगाहत |
47 | 3002002a | नानामृगगणाकीर्णं शार्दूलवृकसेवितम् |
48 | 3002002c | ध्वस्तवृक्षलतागुल्मं दुर्दर्श सलिलाशयम् |
49 | 3002003a | निष्कूजनानाशकुनि झिल्लिका गणनादितम् |
50 | 3002003c | लक्ष्मणानुगतो रामो वनमध्यं ददर्श ह |
51 | 3002004a | वनमध्ये तु काकुत्स्थस्तस्मिन्घोरमृगायुते |
52 | 3002004c | ददर्श गिरिशृङ्गाभं पुरुषादं महास्वनम् |
53 | 3002005a | गभीराक्षं महावक्त्रं विकटं विषमोदरम् |
54 | 3002005c | बीभत्सं विषमं दीर्घं विकृतं घोरदर्शनम् |
55 | 3002006a | वसानं चर्मवैयाघ्रं वसार्द्रं रुधिरोक्षितम् |
56 | 3002006c | त्रासनं सर्वभूतानां व्यादितास्यमिवान्तकम् |
57 | 3002007a | त्रीन्सिंहांश्चतुरो व्याघ्रान्द्वौ वृकौ पृषतान्दश |
58 | 3002007c | सविषाणं वसादिग्धं गजस्य च शिरो महत् |
59 | 3002008a | अवसज्यायसे शूले विनदन्तं महास्वनम् |
60 | 3002008c | स रामं लक्ष्मणं चैव सीतां दृष्ट्वा च मैथिलीम् |
61 | 3002009a | अभ्यधावत्सुसंक्रुद्धः प्रजाः काल इवान्तकः |
62 | 3002009c | स कृत्वा भैरवं नादं चालयन्निव मेदिनीम् |
63 | 3002010a | अङ्गेनादाय वैदेहीमपक्रम्य ततोऽब्रवीत् |
64 | 3002010c | युवां जटाचीरधरौ सभार्यौ क्षीणजीवितौ |
65 | 3002011a | प्रविष्टौ दण्डकारण्यं शरचापासिधारिणौ |
66 | 3002011c | कथं तापसयोर्वां च वासः प्रमदया सह |
67 | 3002012a | अधर्मचारिणौ पापौ कौ युवां मुनिदूषकौ |
68 | 3002012c | अहं वनमिदं दुर्गं विराघो नाम राक्षसः |
69 | 3002013a | चरामि सायुधो नित्यमृषिमांसानि भक्षयन् |
70 | 3002013c | इयं नारी वरारोहा मम भर्या भविष्यति |
71 | 3002013e | युवयोः पापयोश्चाहं पास्यामि रुधिरं मृधे |
72 | 3002014a | तस्यैवं ब्रुवतो धृष्टं विराधस्य दुरात्मनः |
73 | 3002014c | श्रुत्वा सगर्वितं वाक्यं संभ्रान्ता जनकात्मजा |
74 | 3002014e | सीता प्रावेपतोद्वेगात्प्रवाते कदली यथा |
75 | 3002015a | तां दृष्ट्वा राघवः सीतां विराधाङ्कगतां शुभाम् |
76 | 3002015c | अब्रवील्लक्ष्मणं वाक्यं मुखेन परिशुष्यता |
77 | 3002016a | पश्य सौम्य नरेन्द्रस्य जनकस्यात्मसंभवाम् |
78 | 3002016c | मम भार्यां शुभाचारां विराधाङ्के प्रवेशिताम् |
79 | 3002016e | अत्यन्त सुखसंवृद्धां राजपुत्रीं यशस्विनीम् |
80 | 3002017a | यदभिप्रेतमस्मासु प्रियं वर वृतं च यत् |
81 | 3002017c | कैकेय्यास्तु सुसंवृत्तं क्षिप्रमद्यैव लक्ष्मण |
82 | 3002018a | या न तुष्यति राज्येन पुत्रार्थे दीर्घदर्शिनी |
83 | 3002018c | ययाहं सर्वभूतानां हितः प्रस्थापितो वनम् |
84 | 3002018e | अद्येदानीं सकामा सा या माता मम मध्यमा |
85 | 3002019a | परस्पर्शात्तु वैदेह्या न दुःखतरमस्ति मे |
86 | 3002019c | पितुर्विनाशात्सौमित्रे स्वराज्यहरणात्तथा |
87 | 3002020a | इति ब्रुवति काकुत्स्थे बाष्पशोकपरिप्लुते |
88 | 3002020c | अब्रवील्लक्ष्मणः क्रुद्धो रुद्धो नाग इव श्वसन् |
89 | 3002021a | अनाथ इव भूतानां नाथस्त्वं वासवोपमः |
90 | 3002021c | मया प्रेष्येण काकुत्स्थ किमर्थं परितप्स्यसे |
91 | 3002022a | शरेण निहतस्याद्य मया क्रुद्धेन रक्षसः |
92 | 3002022c | विराधस्य गतासोर्हि मही पास्यति शोणितम् |
93 | 3002023a | राज्यकामे मम क्रोधो भरते यो बभूव ह |
94 | 3002023c | तं विराधे विमोक्ष्यामि वज्री वज्रमिवाचले |
95 | 3002024a | मम भुजबलवेगवेगितः; पततु शरोऽस्य महान्महोरसि |
96 | 3002024c | व्यपनयतु तनोश्च जीवितं; पततु ततश्च महीं विघूर्णितः |
97 | 3003001a | अथोवाच पुनर्वाक्यं विराधः पूरयन्वनम् |
98 | 3003001c | आत्मानं पृच्छते ब्रूतं कौ युवां क्व गमिष्यथः |
99 | 3003002a | तमुवाच ततो रामो राक्षसं ज्वलिताननम् |
100 | 3003002c | पृच्छन्तं सुमहातेजा इक्ष्वाकुकुलमात्मनः |
101 | 3003003a | क्षत्रियो वृत्तसंपन्नौ विद्धि नौ वनगोचरौ |
102 | 3003003c | त्वां तु वेदितुमिच्छावः कस्त्वं चरसि दण्डकान् |
103 | 3003004a | तमुवाच विराधस्तु रामं सत्यपराक्रमम् |
104 | 3003004c | हन्त वक्ष्यामि ते राजन्निबोध मम राघव |
105 | 3003005a | पुत्रः किल जयस्याहं माता मम शतह्रदा |
106 | 3003005c | विराध इति मामाहुः पृथिव्यां सर्वराक्षसाः |
107 | 3003006a | तपसा चापि मे प्राप्ता ब्रह्मणो हि प्रसादजा |
108 | 3003006c | शस्त्रेणावध्यता लोकेऽच्छेद्याभेद्यत्वमेव च |
109 | 3003007a | उत्सृज्य प्रमदामेनामनपेक्षौ यथागतम् |
110 | 3003007c | त्वरमाणौ पालयेथां न वां जीवितमाददे |
111 | 3003008a | तं रामः प्रत्युवाचेदं कोपसंरक्तलोचनः |
112 | 3003008c | राक्षसं विकृताकारं विराधं पापचेतसं |
113 | 3003009a | क्षुद्र धिक्त्वां तु हीनार्थं मृत्युमन्वेषसे ध्रुवम् |
114 | 3003009c | रणे संप्राप्स्यसे तिष्ठ न मे जीवन्गमिष्यसि |
115 | 3003010a | ततः सज्यं धनुः कृत्वा रामः सुनिशिताञ्शरान् |
116 | 3003010c | सुशीघ्रमभिसंधाय राक्षसं निजघान ह |
117 | 3003011a | धनुषा ज्यागुणवता सप्तबाणान्मुमोच ह |
118 | 3003011c | रुक्मपुङ्खान्महावेगान्सुपर्णानिलतुल्यगान् |
119 | 3003012a | ते शरीरं विराधस्य भित्त्वा बर्हिणवाससः |
120 | 3003012c | निपेतुः शोणितादिग्धा धरण्यां पावकोपमाः |
121 | 3003013a | स विनद्य महानादं शूलं शक्रध्वजोपमम् |
122 | 3003013c | प्रगृह्याशोभत तदा व्यात्तानन इवान्तकः |
123 | 3003014a | तच्छूलं वज्रसंकाशं गगने ज्वलनोपमम् |
124 | 3003014c | द्वाभ्यां शराभ्यां चिच्छेद रामः शस्त्रभृतां वरः |
125 | 3003015a | तस्य रौद्रस्य सौमित्रिर्बाहुं सव्यं बभञ्ज ह |
126 | 3003015c | रामस्तु दक्षिणं बाहुं तरसा तस्य रक्षसः |
127 | 3003016a | स भग्नबाहुः संविग्नो निपपाताशु राक्षसः |
128 | 3003016c | धरण्यां मेघसंकाशो वज्रभिन्न इवाचलः |
129 | 3003016e | इदं प्रोवाच काकुत्स्थं विराधः पुरुषर्षभम् |
130 | 3003017a | कौसल्या सुप्रजास्तात रामस्त्वं विदितो मया |
131 | 3003017c | वैदेही च महाभागा लक्ष्मणश्च महायशाः |
132 | 3003018a | अभिशापादहं घोरां प्रविष्टो राक्षसीं तनुम् |
133 | 3003018c | तुम्बुरुर्नाम गन्धर्वः शप्तो वैश्वरणेन हि |
134 | 3003019a | प्रसाद्यमानश्च मया सोऽब्रवीन्मां महायशाः |
135 | 3003019c | यदा दाशरथी रामस्त्वां वधिष्यति संयुगे |
136 | 3003020a | तदा प्रकृतिमापन्नो भवान्स्वर्गं गमिष्यति |
137 | 3003020c | इति वैश्रवणो राजा रम्भासक्तमुवाच ह |
138 | 3003021a | अनुपस्थीयमानो मां संक्रुद्धो व्यजहार ह |
139 | 3003021c | तव प्रसादान्मुक्तोऽहमभिशापात्सुदारुणात् |
140 | 3003021e | भवनं स्वं गमिष्यामि स्वस्ति वोऽस्तु परंतप |
141 | 3003022a | इतो वसति धर्मात्मा शरभङ्गः प्रतापवान् |
142 | 3003022c | अध्यर्धयोजने तात महर्षिः सूर्यसंनिभः |
143 | 3003023a | तं क्षिप्रमभिगच्छ त्वं स ते श्रेयो विधास्यति |
144 | 3003023c | अवटे चापि मां राम निक्षिप्य कुशली व्रज |
145 | 3003024a | रक्षसां गतसत्त्वानामेष धर्मः सनातनः |
146 | 3003024c | अवटे ये निधीयन्ते तेषां लोकाः सनातनाः |
147 | 3003025a | एवमुक्त्वा तु काकुत्स्थं विराधः शरपीडितः |
148 | 3003025c | बभूव स्वर्गसंप्राप्तो न्यस्तदेहो महाबलः |
149 | 3003026a | तं मुक्तकण्ठमुत्क्षिप्य शङ्कुकर्णं महास्वनम् |
150 | 3003026c | विराधं प्राक्षिपच्छ्वभ्रे नदन्तं भैरवस्वनम् |
151 | 3003027a | ततस्तु तौ काञ्चनचित्रकार्मुकौ; निहत्य रक्षः परिगृह्य मैथिलीम् |
152 | 3003027c | विजह्रतुस्तौ मुदितौ महावने; दिवि स्थितौ चन्द्रदिवाकराविव |
153 | 3004001a | हत्वा तु तं भीमबलं विराधं राक्षसं वने |
154 | 3004001c | ततः सीतां परिष्वज्य समाश्वास्य च वीर्यवान् |
155 | 3004001e | अब्रवील्लक्ष्मणां रामो भ्रातरं दीप्ततेजसं |
156 | 3004002a | कष्टं वनमिदं दुर्गं न च स्मो वनगोचराः |
157 | 3004002c | अभिगच्छामहे शीघ्रं शरभङ्गं तपोधनम् |
158 | 3004003a | आश्रमं शरभङ्गस्य राघवोऽभिजगाम ह |
159 | 3004004a | तस्य देवप्रभावस्य तपसा भावितात्मनः |
160 | 3004004c | समीपे शरभङ्गस्य ददर्श महदद्भुतम् |
161 | 3004005a | विभ्राजमानं वपुषा सूर्यवैश्वानरोपमम् |
162 | 3004005c | असंस्पृशन्तं वसुधां ददर्श विबुधेश्वरम् |
163 | 3004006a | सुप्रभाभरणं देवं विरजोऽम्बरधारिणम् |
164 | 3004006c | तद्विधैरेव बहुभिः पूज्यमानं महात्मभिः |
165 | 3004007a | हरिभिर्वाजिभिर्युक्तमन्तरिक्षगतं रथम् |
166 | 3004007c | ददर्शादूरतस्तस्य तरुणादित्यसंनिभम् |
167 | 3004008a | पाण्डुराभ्रघनप्रख्यं चन्द्रमण्डलसंनिभम् |
168 | 3004008c | अपश्यद्विमलं छत्रं चित्रमाल्योपशोभितम् |
169 | 3004009a | चामरव्यजने चाग्र्ये रुक्मदण्डे महाधने |
170 | 3004009c | गृहीते वननारीभ्यां धूयमाने च मूर्धनि |
171 | 3004010a | गन्धर्वामरसिद्धाश्च बहवः परमर्षयः |
172 | 3004010c | अन्तरिक्षगतं देवं वाग्भिरग्र्याभिरीडिरे |
173 | 3004011a | दृष्ट्वा शतक्रतुं तत्र रामो लक्ष्मणमब्रवीत् |
174 | 3004011c | ये हयाः पुरुहूतस्य पुरा शक्रस्य नः श्रुताः |
175 | 3004011e | अन्तरिक्षगता दिव्यास्त इमे हरयो ध्रुवम् |
176 | 3004012a | इमे च पुरुषव्याघ्र ये तिष्ठन्त्यभितो रथम् |
177 | 3004012c | शतं शतं कुण्डलिनो युवानः खड्गपाणयः |
178 | 3004013a | उरोदेशेषु सर्वेषां हारा ज्वलनसंनिभाः |
179 | 3004013c | रूपं बिभ्रति सौमित्रे पञ्चविंशतिवार्षिकम् |
180 | 3004014a | एतद्धि किल देवानां वयो भवति नित्यदा |
181 | 3004014c | यथेमे पुरुषव्याघ्रा दृश्यन्ते प्रियदर्शनाः |
182 | 3004015a | इहैव सह वैदेह्या मुहूर्तं तिष्ठ लक्ष्मण |
183 | 3004015c | यावज्जनाम्यहं व्यक्तं क एष द्युतिमान्रथे |
184 | 3004016a | तमेवमुक्त्वा सौमित्रिमिहैव स्थीयतामिति |
185 | 3004016c | अभिचक्राम काकुत्स्थः शरभङ्गाश्रमं प्रति |
186 | 3004017a | ततः समभिगच्छन्तं प्रेक्ष्य रामं शचीपतिः |
187 | 3004017c | शरभङ्गमनुज्ञाप्य विबुधानिदमब्रवीत् |
188 | 3004018a | इहोपयात्यसौ रामो यावन्मां नाभिभाषते |
189 | 3004018c | निष्ठां नयत तावत्तु ततो मां द्रष्टुमर्हति |
190 | 3004019a | जितवन्तं कृतार्थं च द्रष्टाहमचिरादिमम् |
191 | 3004019c | कर्म ह्यनेन कर्तव्यं महदन्यैः सुदुष्करम् |
192 | 3004020a | इति वज्री तमामन्त्र्य मानयित्वा च तापसं |
193 | 3004020c | रथेन हरियुक्तेन ययौ दिवमरिंदमः |
194 | 3004021a | प्रयाते तु सहस्राक्षे राघवः सपरिच्छदः |
195 | 3004021c | अग्निहोत्रमुपासीनं शरभङ्गमुपागमत् |
196 | 3004022a | तस्य पादौ च संगृह्य रामः सीता च लक्ष्मणः |
197 | 3004022c | निषेदुस्तदनुज्ञाता लब्धवासा निमन्त्रिताः |
198 | 3004023a | ततः शक्रोपयानं तु पर्यपृच्छत्स राघवः |
199 | 3004023c | शरभङ्गश्च तत्सर्वं राघवाय न्यवेदयत् |
200 | 3004024a | मामेष वरदो राम ब्रह्मलोकं निनीषति |
201 | 3004024c | जितमुग्रेण तपसा दुष्प्रापमकृतात्मभिः |
202 | 3004025a | अहं ज्ञात्वा नरव्याघ्र वर्तमानमदूरतः |
203 | 3004025c | ब्रह्मलोकं न गच्छामि त्वामदृष्ट्वा प्रियातिथिम् |
204 | 3004026a | समागम्य गमिष्यामि त्रिदिवं देवसेवितम् |
205 | 3004026c | अक्षया नरशार्दूल जिता लोका मया शुभाः |
206 | 3004026e | ब्राह्म्याश्च नाकपृष्ठ्याश्च प्रतिगृह्णीष्व मामकान् |
207 | 3004027a | एवमुक्तो नरव्याघ्रः सर्वशास्त्रविशारदः |
208 | 3004027c | ऋषिणा शरभङ्गेन राघवो वाक्यमब्रवीत् |
209 | 3004028a | अहमेवाहरिष्यामि सर्वाँल्लोकान्महामुने |
210 | 3004028c | आवासं त्वहमिच्छामि प्रदिष्टमिह कानने |
211 | 3004029a | राघवेणैवमुक्तस्तु शक्रतुल्यबलेन वै |
212 | 3004029c | शरभङ्गो महाप्राज्ञः पुनरेवाब्रवीद्वचः |
213 | 3004030a | सुतीक्ष्णमभिगच्छ त्वं शुचौ देशे तपस्विनम् |
214 | 3004030c | रमणीये वनोद्देशे स ते वासं विधास्यति |
215 | 3004031a | एष पन्था नरव्याघ्र मुहूर्तं पश्य तात माम् |
216 | 3004031c | यावज्जहामि गात्राणि जीर्णं त्वचमिवोरगः |
217 | 3004032a | ततोऽग्निं स समाधाय हुत्वा चाज्येन मन्त्रवित् |
218 | 3004032c | शरभङ्गो महातेजाः प्रविवेश हुताशनम् |
219 | 3004033a | तस्य रोमाणि केशांश्च ददाहाग्निर्महात्मनः |
220 | 3004033c | जीर्णं त्वचं तथास्थीनि यच्च मांसं च शोणितम् |
221 | 3004034a | स च पावकसंकाशः कुमारः समपद्यत |
222 | 3004034c | उत्थायाग्निचयात्तस्माच्छरभङ्गो व्यरोचत |
223 | 3004035a | स लोकानाहिताग्नीनामृषीणां च महात्मनाम् |
224 | 3004035c | देवानां च व्यतिक्रम्य ब्रह्मलोकं व्यरोहत |
225 | 3004036a | स पुण्यकर्मा भुवने द्विजर्षभः; पितामहं सानुचरं ददर्श ह |
226 | 3004036c | पितामहश्चापि समीक्ष्य तं द्विजं; ननन्द सुस्वागतमित्युवाच ह |
227 | 3005001a | शरभङ्गे दिवं प्राप्ते मुनिसंघाः समागताः |
228 | 3005001c | अभ्यगच्छन्त काकुत्स्थं रामं ज्वलिततेजसं |
229 | 3005002a | वैखानसा वालखिल्याः संप्रक्षाला मरीचिपाः |
230 | 3005002c | अश्मकुट्टाश्च बहवः पत्राहाराश्च तापसाः |
231 | 3005003a | दन्तोलूखलिनश्चैव तथैवोन्मज्जकाः परे |
232 | 3005003c | मुनयः सलिलाहारा वायुभक्षास्तथापरे |
233 | 3005004a | आकाशनिलयाश्चैव तथा स्थण्डिलशायिनः |
234 | 3005004c | तथोर्ध्ववासिनो दान्तास्तथार्द्रपटवाससः |
235 | 3005005a | सजपाश्च तपोनित्यास्तथा पञ्चतपोऽन्विताः |
236 | 3005005c | सर्वे ब्राह्म्या श्रिया जुष्टा दृढयोगसमाहिताः |
237 | 3005005e | शरभङ्गाश्रमे राममभिजग्मुश्च तापसाः |
238 | 3005006a | अभिगम्य च धर्मज्ञा रामं धर्मभृतां वरम् |
239 | 3005006c | ऊचुः परमधर्मज्ञमृषिसंघाः समाहिताः |
240 | 3005007a | त्वमिक्ष्वाकुकुलस्यास्य पृथिव्याश्च महारथः |
241 | 3005007c | प्रधानश्चासि नाथश्च देवानां मघवानिव |
242 | 3005008a | विश्रुतस्त्रिषु लोकेषु यशसा विक्रमेण च |
243 | 3005008c | पितृव्रतत्वं सत्यं च त्वयि धर्मश्च पुष्कलः |
244 | 3005009a | त्वामासाद्य महात्मानं धर्मज्ञं धर्मवत्सलम् |
245 | 3005009c | अर्थित्वान्नाथ वक्ष्यामस्तच्च नः क्षन्तुमर्हसि |
246 | 3005010a | अधार्मस्तु महांस्तात भवेत्तस्य महीपतेः |
247 | 3005010c | यो हरेद्बलिषड्भागं न च रक्षति पुत्रवत् |
248 | 3005011a | युञ्जानः स्वानिव प्राणान्प्राणैरिष्टान्सुतानिव |
249 | 3005011c | नित्ययुक्तः सदा रक्षन्सर्वान्विषयवासिनः |
250 | 3005012a | प्राप्नोति शाश्वतीं राम कीर्तिं स बहुवार्षिकीम् |
251 | 3005012c | ब्रह्मणः स्थानमासाद्य तत्र चापि महीयते |
252 | 3005013a | यत्करोति परं धर्मं मुनिर्मूलफलाशनः |
253 | 3005013c | तत्र राज्ञश्चतुर्भागः प्रजा धर्मेण रक्षतः |
254 | 3005014a | सोऽयं ब्राह्मणभूयिष्ठो वानप्रस्थगणो महान् |
255 | 3005014c | त्वन्नाथोऽनाथवद्राम राक्षसैर्वध्यते भृशम् |
256 | 3005015a | एहि पश्य शरीराणि मुनीनां भावितात्मनाम् |
257 | 3005015c | हतानां राक्षसैर्घोरैर्बहूनां बहुधा वने |
258 | 3005016a | पम्पानदीनिवासानामनुमन्दाकिनीमपि |
259 | 3005016c | चित्रकूटालयानां च क्रियते कदनं महत् |
260 | 3005017a | एवं वयं न मृष्यामो विप्रकारं तपस्विनम् |
261 | 3005017c | क्रियमाणं वने घोरं रक्षोभिर्भीमकर्मभिः |
262 | 3005018a | ततस्त्वां शरणार्थं च शरण्यं समुपस्थिताः |
263 | 3005018c | परिपालय नो राम वध्यमानान्निशाचरैः |
264 | 3005019a | एतच्छ्रुत्वा तु काकुत्स्थस्तापसानां तपस्विनाम् |
265 | 3005019c | इदं प्रोवाच धर्मात्मा सर्वानेव तपस्विनः |
266 | 3005019e | नैवमर्हथ मां वक्तुमाज्ञाप्योऽहं तपस्विनम् |
267 | 3005020a | भवतामर्थसिद्ध्यर्थमागतोऽहं यदृच्छया |
268 | 3005020c | तस्य मेऽयं वने वासो भविष्यति महाफलः |
269 | 3005020e | तपस्विनां रणे शत्रून्हन्तुमिच्छामि राक्षसान् |
270 | 3005021a | दत्त्वा वरं चापि तपोधनानां; धर्मे धृतात्मा सहलक्ष्मणेन |
271 | 3005021c | तपोधनैश्चापि सहार्य वृत्तः; सुतीष्क्णमेवाभिजगाम वीरः |
272 | 3006001a | रामस्तु सहितो भ्रात्रा सीतया च परंतपः |
273 | 3006001c | सुतीक्ष्णस्याश्रमपदं जगाम सह तैर्द्विजैः |
274 | 3006002a | स गत्वा दूरमध्वानं नदीस्तीर्त्व बहूदकाः |
275 | 3006002c | ददर्श विपुलं शैलं महामेघमिवोन्नतम् |
276 | 3006003a | ततस्तदिक्ष्वाकुवरौ सततं विविधैर्द्रुमैः |
277 | 3006003c | काननं तौ विविशतुः सीतया सह राघवौ |
278 | 3006004a | प्रविष्टस्तु वनं घोरं बहुपुष्पफलद्रुमम् |
279 | 3006004c | ददर्शाश्रममेकान्ते चीरमालापरिष्कृतम् |
280 | 3006005a | तत्र तापसमासीनं मलपङ्कजटाधरम् |
281 | 3006005c | रामः सुतीक्ष्णं विधिवत्तपोवृद्धमभाषत |
282 | 3006006a | रामोऽहमस्मि भगवन्भवन्तं द्रष्टुमागतः |
283 | 3006006c | तन्माभिवद धर्मज्ञ महर्षे सत्यविक्रम |
284 | 3006007a | स निरीक्ष्य ततो वीरं रामं धर्मभृतां वरम् |
285 | 3006007c | समाश्लिष्य च बाहुभ्यामिदं वचनमब्रवीत् |
286 | 3006008a | स्वागतं खलु ते वीर राम धर्मभृतां वर |
287 | 3006008c | आश्रमोऽयं त्वयाक्रान्तः सनाथ इव साम्प्रतम् |
288 | 3006009a | प्रतीक्षमाणस्त्वामेव नारोहेऽहं महायशः |
289 | 3006009c | देवलोकमितो वीर देहं त्यक्त्वा महीतले |
290 | 3006010a | चित्रकूटमुपादाय राज्यभ्रष्टोऽसि मे श्रुतः |
291 | 3006010c | इहोपयातः काकुत्स्थो देवराजः शतक्रतुः |
292 | 3006010e | सर्वाँल्लोकाञ्जितानाह मम पुण्येन कर्मणा |
293 | 3006011a | तेषु देवर्षिजुष्टेषु जितेषु तपसा मया |
294 | 3006011c | मत्प्रसादात्सभार्यस्त्वं विहरस्व सलक्ष्मणः |
295 | 3006012a | तमुग्रतपसं दीप्तं महर्षिं सत्यवादिनम् |
296 | 3006012c | प्रत्युवाचात्मवान्रामो ब्रह्माणमिव वासवः |
297 | 3006013a | अहमेवाहरिष्यामि स्वयं लोकान्महामुने |
298 | 3006013c | आवासं त्वहमिच्छामि प्रदिष्टमिह कानने |
299 | 3006014a | भवान्सर्वत्र कुशलः सर्वभूतहिते रतः |
300 | 3006014c | आख्यातः शरभङ्गेन गौतमेन महात्मना |
301 | 3006015a | एवमुक्तस्तु रामेण महर्षिर्लोकविश्रुतः |
302 | 3006015c | अब्रवीन्मधुरं वाक्यं हर्षेण महताप्लुतः |
303 | 3006016a | अयमेवाश्रमो राम गुणवान्रम्यतामिह |
304 | 3006016c | ऋषिसंघानुचरितः सदा मूलफलैर्युतः |
305 | 3006017a | इममाश्रममागम्य मृगसंघा महायशाः |
306 | 3006017c | अटित्वा प्रतिगच्छन्ति लोभयित्वाकुतोभयाः |
307 | 3006018a | तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य महर्षेर्लक्ष्मणाग्रजः |
308 | 3006018c | उवाच वचनं धीरो विकृष्य सशरं धनुः |
309 | 3006019a | तानहं सुमहाभाग मृगसंघान्समागतान् |
310 | 3006019c | हन्यां निशितधारेण शरेणाशनिवर्चसा |
311 | 3006020a | भवांस्तत्राभिषज्येत किं स्यात्कृच्छ्रतरं ततः |
312 | 3006020c | एतस्मिन्नाश्रमे वासं चिरं तु न समर्थये |
313 | 3006021a | तमेवमुक्त्वा वरदं रामः संध्यामुपागमत् |
314 | 3006021c | अन्वास्य पश्चिमां संध्यां तत्र वासमकल्पयत् |
315 | 3006022a | ततः शुभं तापसभोज्यमन्नं; स्वयं सुतीक्ष्णः पुरुषर्षभाभ्याम् |
316 | 3006022c | ताभ्यां सुसत्कृत्य ददौ महात्मा; संध्यानिवृत्तौ रजनीं समीक्ष्य |
317 | 3007001a | रामस्तु सहसौमित्रिः सुतीक्ष्णेनाभिपूजितः |
318 | 3007001c | परिणम्य निशां तत्र प्रभाते प्रत्यबुध्यत |
319 | 3007002a | उत्थाय तु यथाकालं राघवः सह सीतया |
320 | 3007002c | उपास्पृशत्सुशीतेन जलेनोत्पलगन्धिना |
321 | 3007003a | अथ तेऽग्निं सुरांश्चैव वैदेही रामलक्ष्मणौ |
322 | 3007003c | काल्यं विधिवदभ्यर्च्य तपस्विशरणे वने |
323 | 3007004a | उदयन्न्तं दिनकरं दृष्ट्वा विगतकल्मषाः |
324 | 3007004c | सुतीक्ष्णमभिगम्येदं श्लक्ष्णं वचनमब्रुवन् |
325 | 3007005a | सुखोषिताः स्म भगवंस्त्वया पूज्येन पूजिताः |
326 | 3007005c | आपृच्छामः प्रयास्यामो मुनयस्त्वरयन्ति नः |
327 | 3007006a | त्वरामहे वयं द्रष्टुं कृत्स्नमाश्रममण्डलम् |
328 | 3007006c | ऋषीणां पुण्यशीलानां दण्डकारण्यवासिनाम् |
329 | 3007007a | अभ्यनुज्ञातुमिच्छामः सहैभिर्मुनिपुङ्गवैः |
330 | 3007007c | धर्मनित्यैस्तपोदान्तैर्विशिखैरिव पावकैः |
331 | 3007008a | अविषह्यातपो यावत्सूर्यो नातिविराजिते |
332 | 3007008c | अमार्गेणागतां लक्ष्मीं प्राप्येवान्वयवर्जितः |
333 | 3007009a | तावदिच्छामहे गन्तुमित्युक्त्वा चरणौ मुनेः |
334 | 3007009c | ववन्दे सहसौमित्रिः सीतया सह राघवः |
335 | 3007010a | तौ संस्पृशन्तौ चरणावुत्थाप्य मुनिपुंगवः |
336 | 3007010c | गाढमालिङ्ग्य सस्नेहमिदं वचनमब्रवीत् |
337 | 3007011a | अरिष्टं गच्छ पन्थानं राम सौमित्रिणा सह |
338 | 3007011c | सीतया चानया सार्धं छाययेवानुवृत्तया |
339 | 3007012a | पश्याश्रमपदं रम्यं दण्डकारण्यवासिनाम् |
340 | 3007012c | एषां तपस्विनां वीर तपसा भावितात्मनाम् |
341 | 3007013a | सुप्राज्यफलमूलानि पुष्पितानि वनानि च |
342 | 3007013c | प्रशान्तमृगयूथानि शान्तपक्षिगणानि च |
343 | 3007014a | फुल्लपङ्कजषडानि प्रसन्नसलिलानि च |
344 | 3007014c | कारण्डवविकीर्णानि तटाकानि सरांसि च |
345 | 3007015a | द्रक्ष्यसे दृष्टिरम्याणि गिरिप्रस्रवणानि च |
346 | 3007015c | रमणीयान्यरण्यानि मयूराभिरुतानि च |
347 | 3007016a | गम्यतां वत्स सौमित्रे भवानपि च गच्छतु |
348 | 3007016c | आगन्तव्यं च ते दृष्ट्वा पुनरेवाश्रमं मम |
349 | 3007017a | एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा काकुत्स्थः सहलक्ष्मणः |
350 | 3007017c | प्रदक्षिणं मुनिं कृता प्रस्थातुमुपचक्रमे |
351 | 3007018a | ततः शुभतरे तूणी धनुषी चायतेक्षणा |
352 | 3007018c | ददौ सीता तयोर्भ्रात्रोः खड्गौ च विमलौ ततः |
353 | 3007019a | आबध्य च शुभे तूणी चापे चादाय सस्वने |
354 | 3007019c | निष्क्रान्तावाश्रमाद्गन्तुमुभौ तौ रामलक्ष्मणौ |
355 | 3008001a | सुतीक्ष्णेनाभ्यनुज्ञातं प्रस्थितं रघुनन्दनम् |
356 | 3008001c | वैदेही स्निग्धया वाचा भर्तारमिदमब्रवीत् |
357 | 3008002a | अयं धर्मः सुसूक्ष्मेण विधिना प्राप्यते महान् |
358 | 3008002c | निवृत्तेन च शक्योऽयं व्यसनात्कामजादिह |
359 | 3008003a | त्रीण्येव व्यसनान्यत्र कामजानि भवन्त्युत |
360 | 3008003c | मिथ्या वाक्यं परमकं तस्माद्गुरुतरावुभौ |
361 | 3008003e | परदाराभिगमनं विना वैरं च रौद्रता |
362 | 3008004a | मिथ्यावाक्यं न ते भूतं न भविष्यति राघव |
363 | 3008004c | कुतोऽभिलषणं स्त्रीणां परेषां धर्मनाशनम् |
364 | 3008005a | तच्च सर्वं महाबाहो शक्यं वोढुं जितेन्द्रियैः |
365 | 3008005c | तव वश्येन्द्रियत्वं च जानामि शुभदर्शन |
366 | 3008006a | तृतीयं यदिदं रौद्रं परप्राणाभिहिंसनम् |
367 | 3008006c | निर्वैरं क्रियते मोहात्तच्च ते समुपस्थितम् |
368 | 3008007a | प्रतिज्ञातस्त्वया वीर दण्डकारण्यवासिनाम् |
369 | 3008007c | ऋषीणां रक्षणार्थाय वधः संयति रक्षसाम् |
370 | 3008008a | एतन्निमित्तं च वनं दण्डका इति विश्रुतम् |
371 | 3008008c | प्रस्थितस्त्वं सह भ्रात्रा धृतबाणशरासनः |
372 | 3008009a | ततस्त्वां प्रस्थितं दृष्ट्वा मम चिन्ताकुलं मनः |
373 | 3008009c | त्वद्वृत्तं चिन्तयन्त्या वै भवेन्निःश्रेयसं हितम् |
374 | 3008010a | न हि मे रोचते वीर गमनं दण्डकान्प्रति |
375 | 3008010c | कारणं तत्र वक्ष्यामि वदन्त्याः श्रूयतां मम |
376 | 3008011a | त्वं हि बाणधनुष्पाणिर्भ्रात्रा सह वनं गतः |
377 | 3008011c | दृष्ट्वा वनचरान्सर्वान्कच्चित्कुर्याः शरव्ययम् |
378 | 3008012a | क्षत्रियाणामिह धनुर्हुताशस्येन्धनानि च |
379 | 3008012c | समीपतः स्थितं तेजोबलमुच्छ्रयते भृशम् |
380 | 3008013a | पुरा किल महाबाहो तपस्वी सत्यवाक्शुचिः |
381 | 3008013c | कस्मिंश्चिदभवत्पुण्ये वने रतमृगद्विजे |
382 | 3008014a | तस्यैव तपसो विघ्नं कर्तुमिन्द्रः शचीपतिः |
383 | 3008014c | खड्गपाणिरथागच्छदाश्रमं भट रूपधृक् |
384 | 3008015a | तस्मिंस्तदाश्रमपदे निहितः खड्ग उत्तमः |
385 | 3008015c | स न्यासविधिना दत्तः पुण्ये तपसि तिष्ठतः |
386 | 3008016a | स तच्छस्त्रमनुप्राप्य न्यासरक्षणतत्परः |
387 | 3008016c | वने तु विचरत्येव रक्षन्प्रत्ययमात्मनः |
388 | 3008017a | यत्र गच्छत्युपादातुं मूलानि च फलानि च |
389 | 3008017c | न विना याति तं खड्गं न्यासरक्षणतत्परः |
390 | 3008018a | नित्यं शस्त्रं परिवहन्क्रमेण स तपोधनः |
391 | 3008018c | चकार रौद्रीं स्वां बुद्धिं त्यक्त्वा तपसि निश्चयम् |
392 | 3008019a | ततः स रौद्राभिरतः प्रमत्तोऽधर्मकर्षितः |
393 | 3008019c | तस्य शस्त्रस्य संवासाज्जगाम नरकं मुनिः |
394 | 3008020a | स्नेहाच्च बहुमानाच्च स्मारये त्वां न शिक्षये |
395 | 3008020c | न कथंचन सा कार्या हृहीतधनुषा त्वया |
396 | 3008021a | बुद्धिर्वैरं विना हन्तुं राक्षसान्दण्डकाश्रितान् |
397 | 3008021c | अपराधं विना हन्तुं लोकान्वीर न कामये |
398 | 3008022a | क्षत्रियाणां तु वीराणां वनेषु नियतात्मनाम् |
399 | 3008022c | धनुषा कार्यमेतावदार्तानामभिरक्षणम् |
400 | 3008023a | क्व च शस्त्रं क्व च वनं क्व च क्षात्रं तपः क्व च |
401 | 3008023c | व्याविद्धमिदमस्माभिर्देशधर्मस्तु पूज्यताम् |
402 | 3008024a | तदार्यकलुषा बुद्धिर्जायते शस्त्रसेवनात् |
403 | 3008024c | पुनर्गत्वा त्वयोध्यायां क्षत्रधर्मं चरिष्यसि |
404 | 3008025a | अक्षया तु भवेत्प्रीतिः श्वश्रू श्वशुरयोर्मम |
405 | 3008025c | यदि राज्यं हि संन्यस्य भवेस्त्वं निरतो मुनिः |
406 | 3008026a | धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् |
407 | 3008026c | धर्मेण लभते सर्वं धर्मसारमिदं जगत् |
408 | 3008027a | आत्मानं नियमैस्तैस्तैः कर्षयित्वा प्रयत्नतः |
409 | 3008027c | प्राप्यते निपुणैर्धर्मो न सुखाल्लभ्यते सुखम् |
410 | 3008028a | नित्यं शुचिमतिः सौम्य चर धर्मं तपोवने |
411 | 3008028c | सर्वं हि विदितं तुभ्यं त्रैलोक्यमपि तत्त्वतः |
412 | 3008029a | स्त्रीचापलादेतदुदाहृतं मे; धर्मं च वक्तुं तव कः समर्थः |
413 | 3008029c | विचार्य बुद्ध्या तु सहानुजेन; यद्रोचते तत्कुरु माचिरेण |
414 | 3009001a | वाक्यमेतत्तु वैदेह्या व्याहृतं भर्तृभक्तया |
415 | 3009001c | श्रुत्वा धर्मे स्थितो रामः प्रत्युवाचाथ मैथिलीम् |
416 | 3009002a | हितमुक्तं त्वया देवि स्निग्धया सदृशं वचः |
417 | 3009002c | कुलं व्यपदिशन्त्या च धर्मज्ञे जनकात्मजे |
418 | 3009003a | किं तु वक्ष्याम्यहं देवि त्वयैवोक्तमिदं वचः |
419 | 3009003c | क्षत्रियैर्धार्यते चापो नार्तशब्दो भवेदिति |
420 | 3009004a | ते चार्ता दण्डकारण्ये मुनयः संशितव्रताः |
421 | 3009004c | मां सीते स्वयमागम्य शरण्याः शरणं गताः |
422 | 3009005a | वसन्तो धर्मनिरता वने मूलफलाशनाः |
423 | 3009005c | न लभन्ते सुखं भीता राक्षसैः क्रूरकर्मभिः |
424 | 3009006a | काले काले च निरता नियमैर्विविधैर्वने |
425 | 3009006c | भक्ष्यन्ते राक्षसैर्भीमैर्नरमांसोपजीविभिः |
426 | 3009007a | ते भक्ष्यमाणा मुनयो दण्डकारण्यवासिनः |
427 | 3009007c | अस्मानभ्यवपद्येति मामूचुर्द्विजसत्तमाः |
428 | 3009008a | मया तु वचनं श्रुत्वा तेषामेवं मुखाच्च्युतम् |
429 | 3009008c | कृत्वा चरणशुश्रूषां वाक्यमेतदुदाहृतम् |
430 | 3009009a | प्रसीदन्तु भवन्तो मे ह्रीरेषा हि ममातुला |
431 | 3009009c | यदीदृशैरहं विप्रैरुपस्थेयैरुपस्थितः |
432 | 3009009e | किं करोमीति च मया व्याहृतं द्विजसंनिधौ |
433 | 3009010a | सर्वैरेव समागम्य वागियं समुदाहृता |
434 | 3009010c | राक्षसैर्दण्डकारण्ये बहुभिः कामरूपिभिः |
435 | 3009010e | अर्दिताः स्म भृशं राम भवान्नस्त्रातुमर्हति |
436 | 3009011a | होमकाले तु संप्राप्ते पर्वकालेषु चानघ |
437 | 3009011c | धर्षयन्ति स्म दुर्धर्षा राक्षसाः पिशिताशनाः |
438 | 3009012a | राक्षसैर्धर्षितानां च तापसानां तपस्विनाम् |
439 | 3009012c | गतिं मृगयमाणानां भवान्नः परमा गतिः |
440 | 3009013a | कामं तपः प्रभावेन शक्ता हन्तुं निशाचरान् |
441 | 3009013c | चिरार्जितं तु नेच्छामस्तपः खण्डयितुं वयम् |
442 | 3009014a | बहुविघ्नं तपोनित्यं दुश्चरं चैव राघव |
443 | 3009014c | तेन शापं न मुञ्चामो भक्ष्यमाणाश्च राक्षसैः |
444 | 3009015a | तदर्द्यमानान्रक्षोभिर्दण्डकारण्यवासिभिः |
445 | 3009015c | रक्षनस्त्वं सह भ्रात्रा त्वन्नाथा हि वयं वने |
446 | 3009016a | मया चैतद्वचः श्रुत्वा कार्त्स्न्येन परिपालनम् |
447 | 3009016c | ऋषीणां दण्डकारण्ये संश्रुतं जनकात्मजे |
448 | 3009017a | संश्रुत्य च न शक्ष्यामि जीवमानः प्रतिश्रवम् |
449 | 3009017c | मुनीनामन्यथा कर्तुं सत्यमिष्टं हि मे सदा |
450 | 3009018a | अप्यहं जीवितं जह्यां त्वां वा सीते सलक्ष्मणाम् |
451 | 3009018c | न तु प्रतिज्ञां संश्रुत्य ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः |
452 | 3009019a | तदवश्यं मया कार्यमृषीणां परिपालनम् |
453 | 3009019c | अनुक्तेनापि वैदेहि प्रतिज्ञाय तु किं पुनः |
454 | 3009020a | मम स्नेहाच्च सौहार्दादिदमुक्तं त्वया वचः |
455 | 3009020c | परितुष्टोऽस्म्यहं सीते न ह्यनिष्टोऽनुशिष्यते |
456 | 3009020e | सदृशं चानुरूपं च कुलस्य तव शोभने |
457 | 3009021a | इत्येवमुक्त्वा वचनं महात्मा; सीतां प्रियां मैथिल राजपुत्रीम् |
458 | 3009021c | रामो धनुष्मान्सहलक्ष्मणेन; जगाम रम्याणि तपोवनानि |
459 | 3010001a | अग्रतः प्रययौ रामः सीता मध्ये सुमध्यमा |
460 | 3010001c | पृष्ठतस्तु धनुष्पाणिर्लक्ष्मणोऽनुजगाम ह |
461 | 3010002a | तौ पश्यमानौ विविधाञ्शैलप्रस्थान्वनानि च |
462 | 3010002c | नदीश्च विविधा रम्या जग्मतुः सह सीतया |
463 | 3010003a | सारसांश्चक्रवाकांश्च नदीपुलिनचारिणः |
464 | 3010003c | सरांसि च सपद्मानि युतानि जलजैः खगैः |
465 | 3010004a | यूथबद्धांश्च पृषतान्मदोन्मत्तान्विषाणिनः |
466 | 3010004c | महिषांश्च वराहांश्च गजांश्च द्रुमवैरिणः |
467 | 3010005a | ते गत्वा दूरमध्वानं लम्बमाने दिवाकरे |
468 | 3010005c | ददृशुः सहिता रम्यं तटाकं योजनायतम् |
469 | 3010006a | पद्मपुष्करसंबाधं गजयूथैरलंकृतम् |
470 | 3010006c | सारसैर्हंसकादम्बैः संकुलं जलचारिभिः |
471 | 3010007a | प्रसन्नसलिले रम्यतस्मिन्सरसि शुश्रुवे |
472 | 3010007c | गीतवादित्रनिर्घोषो न तु कश्चन दृश्यते |
473 | 3010008a | ततः कौतूहलाद्रामो लक्ष्मणश्च महारथः |
474 | 3010008c | मुनिं धर्मभृतं नाम प्रष्टुं समुपचक्रमे |
475 | 3010009a | इदमत्यद्भुतं श्रुत्वा सर्वेषां नो महामुने |
476 | 3010009c | कौतूहलं महज्जातं किमिदं साधु कथ्यताम् |
477 | 3010010a | तेनैवमुक्तो धर्मात्मा राघवेण मुनिस्तदा |
478 | 3010010c | प्रभावं सरसः कृत्स्नमाख्यातुमुपचक्रमे |
479 | 3010011a | इदं पञ्चाप्सरो नाम तटाकं सार्वकालिकम् |
480 | 3010011c | निर्मितं तपसा राम मुनिना माण्डकर्णिना |
481 | 3010012a | स हि तेपे तपस्तीव्रं माण्डकर्णिर्महामुनिः |
482 | 3010012c | दशवर्षसहस्राणि वायुभक्षो जलाश्रय |
483 | 3010013a | ततः प्रव्यथिताः सर्वे देवाः साग्निपुरोगमाः |
484 | 3010013c | अब्रुवन्वचनं सर्वे परस्पर समागताः |
485 | 3010013e | अस्मकं कस्यचित्स्थानमेष प्रार्थयते मुनिः |
486 | 3010014a | ततः कर्तुं तपोविघ्नं सर्वैर्देवैर्नियोजिताः |
487 | 3010014c | प्रधानाप्सरसः पञ्चविद्युच्चलितवर्चसः |
488 | 3010015a | अप्सरोभिस्ततस्ताभिर्मुनिर्दृष्टपरावरः |
489 | 3010015c | नीतो मदनवश्यत्वं सुराणां कार्यसिद्धये |
490 | 3010016a | ताश्चैवाप्सरसः पञ्चमुनेः पत्नीत्वमागताः |
491 | 3010016c | तटाके निर्मितं तासामस्मिन्नन्तर्हितं गृहम् |
492 | 3010017a | तत्रैवाप्सरसः पञ्चनिवसन्त्यो यथासुखम् |
493 | 3010017c | रमयन्ति तपोयोगान्मुनिं यौवनमास्थितम् |
494 | 3010018a | तासां संक्रीडमानानामेष वादित्रनिःस्वनः |
495 | 3010018c | श्रूयते भूषणोन्मिश्रो गीतशब्दो मनोहरः |
496 | 3010019a | आश्चर्यमिति तस्यैतद्वचनं भावितात्मनः |
497 | 3010019c | राघवः प्रतिजग्राह सह भ्रात्रा महायशाः |
498 | 3010020a | एवं कथयमानस्य ददर्शाश्रममण्डलम् |
499 | 3010020c | कुशचीरपरिक्षिप्तं नानावृक्षसमावृतम् |
500 | 3010021a | प्रविश्य सह वैदेह्या लक्ष्मणेन च राघवः |
501 | 3010021c | तदा तस्मिन्स काकुत्स्थः श्रीमत्याश्रममण्डले |
502 | 3010022a | उषित्वा सुसुखं तत्र पूर्ज्यमानो महर्षिभिः |
503 | 3010022c | जगाम चाश्रमांस्तेषां पर्यायेण तपस्विनाम् |
504 | 3010023a | येषामुषितवान्पूर्वं सकाशे स महास्त्रवित् |
505 | 3010023c | क्वचित्परिदशान्मासानेकं संवत्सरं क्वचित् |
506 | 3010024a | क्वचिच्च चतुरो मासान्पञ्चषट्चापरान्क्वचित् |
507 | 3010024c | अपरत्राधिकान्मासानध्यर्धमधिकं क्वचित् |
508 | 3010025a | त्रीन्मासानष्टमासांश्च राघवो न्यवसत्सुखम् |
509 | 3010025c | तथा संवसतस्तस्य मुनीनामाश्रमेषु वै |
510 | 3010025e | रमतश्चानुकुल्येन ययुः संवत्सरा दश |
511 | 3010026a | परिसृत्य च धर्मज्ञो राघवः सह सीतया |
512 | 3010026c | सुतीक्ष्णस्याश्रमं श्रीमान्पुनरेवाजगाम ह |
513 | 3010027a | स तमाश्रममागम्य मुनिभिः प्रतिपूजितः |
514 | 3010027c | तत्रापि न्यवसद्रामः कंचित्कालमरिंदमः |
515 | 3010028a | अथाश्रमस्थो विनयात्कदाचित्तं महामुनिम् |
516 | 3010028c | उपासीनः स काकुत्स्थः सुतीक्ष्णमिदमब्रवीत् |
517 | 3010029a | अस्मिन्नरण्ये भगवन्नगस्त्यो मुनिसत्तमः |
518 | 3010029c | वसतीति मया नित्यं कथाः कथयतां श्रुतम् |
519 | 3010030a | न तु जानामि तं देशं वनस्यास्य महत्तया |
520 | 3010030c | कुत्राश्रमपदं पुण्यं महर्षेस्तस्य धीमतः |
521 | 3010031a | प्रसादात्तत्र भवतः सानुजः सह सीतया |
522 | 3010031c | अगस्त्यमभिगच्छेयमभिवादयितुं मुनिम् |
523 | 3010032a | मनोरथो महानेष हृदि संपरिवर्तते |
524 | 3010032c | यदहं तं मुनिवरं शुश्रूषेयमपि स्वयम् |
525 | 3010033a | इति रामस्य स मुनिः श्रुत्वा धर्मात्मनो वचः |
526 | 3010033c | सुतीक्ष्णः प्रत्युवाचेदं प्रीतो दशरथात्मजम् |
527 | 3010034a | अहमप्येतदेव त्वां वक्तुकामः सलक्ष्मणम् |
528 | 3010034c | अगस्त्यमभिगच्छेति सीतया सह राघव |
529 | 3010035a | दिष्ट्या त्विदानीमर्थेऽस्मिन्स्वयमेव ब्रवीषि माम् |
530 | 3010035c | अहमाख्यामि ते वत्स यत्रागस्त्यो महामुनिः |
531 | 3010036a | योजनान्याश्रमात्तात याहि चत्वारि वै ततः |
532 | 3010036c | दक्षिणेन महाञ्श्रीमानगस्त्यभ्रातुराश्रमः |
533 | 3010037a | स्थलप्राये वनोद्देशे पिप्पलीवनशोभिते |
534 | 3010037c | बहुपुष्पफले रम्ये नानाशकुनिनादिते |
535 | 3010038a | पद्मिन्यो विविधास्तत्र प्रसन्नसलिलाः शिवाः |
536 | 3010038c | हंसकारण्डवाकीर्णाश्चक्रवाकोपशोभिताः |
537 | 3010039a | तत्रैकां रजनीमुष्य प्रभाते राम गम्यताम् |
538 | 3010039c | दक्षिणां दिशमास्थाय वनखण्डस्य पार्श्वतः |
539 | 3010040a | तत्रागस्त्याश्रमपदं गत्वा योजनमन्तरम् |
540 | 3010040c | रमणीये वनोद्देशे बहुपादप संवृते |
541 | 3010040e | रंस्यते तत्र वैदेही लक्ष्मणश्च त्वया सह |
542 | 3010041a | स हि रम्यो वनोद्देशो बहुपादपसंकुलः |
543 | 3010041c | यदि बुद्धिः कृता द्रष्टुमगस्त्यं तं महामुनिम् |
544 | 3010041e | अद्यैव गमने बुद्धिं रोचयस्व महायशः |
545 | 3010042a | इति रामो मुनेः श्रुत्वा सह भ्रात्राभिवाद्य च |
546 | 3010042c | प्रतस्थेऽगस्त्यमुद्दिश्य सानुजः सह सीतया |
547 | 3010043a | पश्यन्वनानि चित्राणि पर्वपांश्चाभ्रसंनिभान् |
548 | 3010043c | सरांसि सरितश्चैव पथि मार्गवशानुगाः |
549 | 3010044a | सुतीक्ष्णेनोपदिष्टेन गत्वा तेन पथा सुखम् |
550 | 3010044c | इदं परमसंहृष्टो वाक्यं लक्ष्मणमब्रवीत् |
551 | 3010045a | एतदेवाश्रमपदं नूनं तस्य महात्मनः |
552 | 3010045c | अगस्त्यस्य मुनेर्भ्रातुर्दृश्यते पुण्यकर्मणः |
553 | 3010046a | यथा हीमे वनस्यास्य ज्ञाताः पथि सहस्रशः |
554 | 3010046c | संनताः फलभरेण पुष्पभारेण च द्रुमाः |
555 | 3010047a | पिप्पलीनां च पक्वानां वनादस्मादुपागतः |
556 | 3010047c | गन्धोऽयं पवनोत्क्षिप्तः सहसा कटुकोदयः |
557 | 3010048a | तत्र तत्र च दृश्यन्ते संक्षिप्ताः काष्ठसंचयाः |
558 | 3010048c | लूनाश्च पथि दृश्यन्ते दर्भा वैदूर्यवर्चसः |
559 | 3010049a | एतच्च वनमध्यस्थं कृष्णाभ्रशिखरोपमम् |
560 | 3010049c | पावकस्याश्रमस्थस्य धूमाग्रं संप्रदृश्यते |
561 | 3010050a | विविक्तेषु च तीर्थेषु कृतस्नाना द्विजातयः |
562 | 3010050c | पुष्पोपहारं कुर्वन्ति कुसुमैः स्वयमार्जितैः |
563 | 3010051a | तत्सुतीक्ष्णस्य वचनं यथा सौम्य मया श्रुतम् |
564 | 3010051c | अगस्त्यस्याश्रमो भ्रातुर्नूनमेष भविष्यति |
565 | 3010052a | निगृह्य तरसा मृत्युं लोकानां हितकाम्यया |
566 | 3010052c | यस्य भ्रात्रा कृतेयं दिक्शरण्या पुण्यकर्मणा |
567 | 3010053a | इहैकदा किल क्रूरो वातापिरपि चेल्वलः |
568 | 3010053c | भ्रातरौ सहितावास्तां ब्राह्मणघ्नौ महासुरौ |
569 | 3010054a | धारयन्ब्राह्मणं रूपमिल्वलः संस्कृतं वदन् |
570 | 3010054c | आमन्त्रयति विप्रान्स श्राद्धमुद्दिश्य निर्घृणः |
571 | 3010055a | भ्रातरं संस्कृतं भ्राता ततस्तं मेषरूपिणम् |
572 | 3010055c | तान्द्विजान्भोजयामास श्राद्धदृष्टेन कर्मणा |
573 | 3010056a | ततो भुक्तवतां तेषां विप्राणामिल्वलोऽब्रवीत् |
574 | 3010056c | वातापे निष्क्रमस्वेति स्वरेण महता वदन् |
575 | 3010057a | ततो भ्रातुर्वचः श्रुत्वा वातापिर्मेषवन्नदन् |
576 | 3010057c | भित्त्वा भित्वा शरीराणि ब्राह्मणानां विनिष्पतत् |
577 | 3010058a | ब्राह्मणानां सहस्राणि तैरेवं कामरूपिभिः |
578 | 3010058c | विनाशितानि संहत्य नित्यशः पिशिताशनैः |
579 | 3010059a | अगस्त्येन तदा देवैः प्रार्थितेन महर्षिणा |
580 | 3010059c | अनुभूय किल श्राद्धे भक्षितः स महासुरः |
581 | 3010060a | ततः संपन्नमित्युक्त्वा दत्त्वा हस्तावसेचनम् |
582 | 3010060c | भ्रातरं निष्क्रमस्वेति इल्वलः सोऽभ्यभाषत |
583 | 3010061a | तं तथा भाषमाणं तु भ्रातरं विप्रघातिनम् |
584 | 3010061c | अब्रवीत्प्रहसन्धीमानगस्त्यो मुनिसत्तमः |
585 | 3010062a | कुतो निष्क्रमितुं शक्तिर्मया जीर्णस्य रक्षसः |
586 | 3010062c | भ्रातुस्ते मेष रूपस्य गतस्य यमसादनम् |
587 | 3010063a | अथ तस्य वचः श्रुत्वा भ्रातुर्निधनसंश्रितम् |
588 | 3010063c | प्रधर्षयितुमारेभे मुनिं क्रोधान्निशाचरः |
589 | 3010064a | सोऽभ्यद्रवद्द्विजेन्द्रं तं मुनिना दीप्ततेजसा |
590 | 3010064c | चक्षुषानलकल्पेन निर्दग्धो निधनं गतः |
591 | 3010065a | तस्यायमाश्रमो भ्रातुस्तटाकवनशोभितः |
592 | 3010065c | विप्रानुकम्पया येन कर्मेदं दुष्करं कृतम् |
593 | 3010066a | एवं कथयमानस्य तस्य सौमित्रिणा सह |
594 | 3010066c | रामस्यास्तं गतः सूर्यः संध्याकालोऽभ्यवर्तत |
595 | 3010067a | उपास्य पश्चिमां संध्यां सह भ्रात्रा यथाविधि |
596 | 3010067c | प्रविवेशाश्रमपदं तमृषिं चाभ्यवादयन् |
597 | 3010068a | सम्यक्प्रतिगृहीतस्तु मुनिना तेन राघवः |
598 | 3010068c | न्यवसत्तां निशामेकां प्राश्य मूलफलानि च |
599 | 3010069a | तस्यां रात्र्यां व्यतीतायां विमले सूर्यमण्डले |
600 | 3010069c | भ्रातरं तमगस्त्यस्य आमन्त्रयत राघवः |
601 | 3010070a | अभिवादये त्वा भगवन्सुखमध्युषितो निशाम् |
602 | 3010070c | आमन्त्रये त्वां गच्छामि गुरुं ते द्रष्टुमग्रजम् |
603 | 3010071a | गम्यतामिति तेनोक्तो जगाम रघुनन्दनः |
604 | 3010071c | यथोद्दिष्टेन मार्गेण वनं तच्चावलोकयन् |
605 | 3010072a | नीवारान्पनसांस्तालांस्तिमिशान्वञ्जुलान्धवान् |
606 | 3010072c | चिरिबिल्वान्मधूकांश्च बिल्वानपि च तिन्दुकान् |
607 | 3010073a | पुष्पितान्पुष्पिताग्राभिर्लताभिरनुवेष्टितान् |
608 | 3010073c | ददर्श रामः शतशस्तत्र कान्तारपादपान् |
609 | 3010074a | हस्तिहस्तैर्विमृदितान्वानरैरुपशोभितान् |
610 | 3010074c | मत्तैः शकुनिसंघैश्च शतशः प्रतिनादितान् |
611 | 3010075a | ततोऽब्रवीत्समीपस्थं रामो राजीवलोचनः |
612 | 3010075c | पृष्ठतोऽनुगतं वीरं लक्ष्मणं लक्ष्मिवर्धनम् |
613 | 3010076a | स्निग्धपत्रा यथा वृक्षा यथा क्षान्ता मृगद्विजाः |
614 | 3010076c | आश्रमो नातिदूरस्थो महर्षेर्भावितात्मनः |
615 | 3010077a | अगस्त्य इति विख्यातो लोके स्वेनैव कर्मणा |
616 | 3010077c | आश्रमो दृश्यते तस्य परिश्रान्त श्रमापहः |
617 | 3010078a | प्राज्यधूमाकुलवनश्चीरमालापरिष्कृतः |
618 | 3010078c | प्रशान्तमृगयूथश्च नानाशकुनिनादितः |
619 | 3010079a | निगृह्य तरसा मृत्युं लोकानां हितकाम्यया |
620 | 3010079c | दक्षिणा दिक्कृता येन शरण्या पुण्यकर्मणा |
621 | 3010080a | तस्येदमाश्रमपदं प्रभावाद्यस्य राक्षसैः |
622 | 3010080c | दिगियं दक्षिणा त्रासाद्दृश्यते नोपभुज्यते |
623 | 3010081a | यदा प्रभृति चाक्रान्ता दिगियं पुण्यकर्मणा |
624 | 3010081c | तदा प्रभृति निर्वैराः प्रशान्ता रजनीचराः |
625 | 3010082a | नाम्ना चेयं भगवतो दक्षिणा दिक्प्रदक्षिणा |
626 | 3010082c | प्रथिता त्रिषु लोकेषु दुर्धर्षा क्रूरकर्मभिः |
627 | 3010083a | मार्गं निरोद्धुं सततं भास्करस्याचलोत्तमः |
628 | 3010083c | संदेशं पालयंस्तस्य विन्ध्यशौलो न वर्धते |
629 | 3010084a | अयं दीर्घायुषस्तस्य लोके विश्रुतकर्मणः |
630 | 3010084c | अगस्त्यस्याश्रमः श्रीमान्विनीतमृगसेवितः |
631 | 3010085a | एष लोकार्चितः साधुर्हिते नित्यं रतः सताम् |
632 | 3010085c | अस्मानधिगतानेष श्रेयसा योजयिष्यति |
633 | 3010086a | आराधयिष्याम्यत्राहमगस्त्यं तं महामुनिम् |
634 | 3010086c | शेषं च वनवासस्य सौम्य वत्स्याम्यहं प्रभो |
635 | 3010087a | अत्र देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः |
636 | 3010087c | अगस्त्यं नियताहारं सततं पर्युपासते |
637 | 3010088a | नात्र जीवेन्मृषावादी क्रूरो वा यदि वा शठः |
638 | 3010088c | नृशंसः कामवृत्तो वा मुनिरेष तथाविधः |
639 | 3010089a | अत्र देवाश्च यक्षाश्च नागाश्च पतगैः सह |
640 | 3010089c | वसन्ति नियताहारा धर्ममाराधयिष्णवः |
641 | 3010090a | अत्र सिद्धा महात्मानो विमानैः सूर्यसंनिभैः |
642 | 3010090c | त्यक्त्वा देहान्नवैर्देहैः स्वर्याताः परमर्षयः |
643 | 3010091a | यक्षत्वममरत्वं च राज्यानि विविधानि च |
644 | 3010091c | अत्र देवाः प्रयच्छन्ति भूतैराराधिताः शुभैः |
645 | 3010092a | आगताः स्माश्रमपदं सौमित्रे प्रविशाग्रतः |
646 | 3010092c | निवेदयेह मां प्राप्तमृषये सह सीतया |
647 | 3011001a | स प्रविश्याश्रमपदं लक्ष्मणो राघवानुजः |
648 | 3011001c | अगस्त्यशिष्यमासाद्य वाक्यमेतदुवाच ह |
649 | 3011002a | राजा दशरथो नाम ज्येष्ठस्तस्य सुतो बली |
650 | 3011002c | रामः प्राप्तो मुनिं द्रष्टुं भार्यया सह सीतया |
651 | 3011003a | लक्ष्मणो नाम तस्याहं भ्राता त्ववरजो हितः |
652 | 3011003c | अनुकूलश्च भक्तश्च यदि ते श्रोत्रमागतः |
653 | 3011004a | ते वयं वनमत्युग्रं प्रविष्टाः पितृशासनात् |
654 | 3011004c | द्रष्टुमिच्छामहे सर्वे भगवन्तं निवेद्यताम् |
655 | 3011005a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा लक्ष्मणस्य तपोधनः |
656 | 3011005c | तथेत्युक्त्वाग्निशरणं प्रविवेश निवेदितुम् |
657 | 3011006a | स प्रविश्य मुनिश्रेष्ठं तपसा दुष्प्रधर्षणम् |
658 | 3011006c | कृताञ्जलिरुवाचेदं रामागमनमञ्जसा |
659 | 3011007a | पुत्रौ दशरथस्येमौ रामो लक्ष्मण एव च |
660 | 3011007c | प्रविष्टावाश्रमपदं सीतया सह भार्यया |
661 | 3011008a | द्रष्टुं भवन्तमायातौ शुश्रूषार्थमरिंदमौ |
662 | 3011008c | यदत्रानन्तरं तत्त्वमाज्ञापयितुमर्हसि |
663 | 3011009a | ततः शिष्यादुपश्रुत्य प्राप्तं रामं सलक्ष्मणम् |
664 | 3011009c | वैदेहीं च महाभागामिदं वचनमब्रवीत् |
665 | 3011010a | दिष्ट्या रामश्चिरस्याद्य द्रष्टुं मां समुपागतः |
666 | 3011010c | मनसा काङ्क्षितं ह्यस्य मयाप्यागमनं प्रति |
667 | 3011011a | गम्यतां सत्कृतो रामः सभार्यः सहलक्ष्मणः |
668 | 3011011c | प्रवेश्यतां समीपं मे किं चासौ न प्रवेशितः |
669 | 3011012a | एवमुक्तस्तु मुनिना धर्मज्ञेन महात्मना |
670 | 3011012c | अभिवाद्याब्रवीच्छिष्यस्तथेति नियताञ्जलिः |
671 | 3011013a | ततो निष्क्रम्य संभ्रान्तः शिष्यो लक्ष्मणमब्रवीत् |
672 | 3011013c | क्वासौ रामो मुनिं द्रष्टुमेतु प्रविशतु स्वयम् |
673 | 3011014a | ततो गत्वाश्रमपदं शिष्येण सह लक्ष्मणः |
674 | 3011014c | दर्शयामास काकुत्स्थं सीतां च जनकात्मजाम् |
675 | 3011015a | तं शिष्यः प्रश्रितं वाक्यमगस्त्यवचनं ब्रुवन् |
676 | 3011015c | प्रावेशयद्यथान्यायं सत्कारार्थं सुसत्कृतम् |
677 | 3011016a | प्रविवेश ततो रामः सीतया सहलक्ष्मणः |
678 | 3011016c | प्रशान्तहरिणाकीर्णमाश्रमं ह्यवलोकयन् |
679 | 3011017a | स तत्र ब्रह्मणः स्थानमग्नेः स्थानं तथैव च |
680 | 3011017c | विष्णोः स्थानं महेन्द्रस्य स्थानं चैव विवस्वतः |
681 | 3011018a | सोमस्थानं भगस्थानं स्थानं कौबेरमेव च |
682 | 3011018c | धातुर्विधातुः स्थानं च वायोः स्थानं तथैव च |
683 | 3011019a | ततः शिष्यैः परिवृतो मुनिरप्यभिनिष्पतत् |
684 | 3011019c | तं ददर्शाग्रतो रामो मुनीनां दीप्ततेजसं |
685 | 3011019e | अब्रवीद्वचनं वीरो लक्ष्मणं लक्ष्मिवर्धनम् |
686 | 3011020a | एष लक्ष्मण निष्क्रामत्यगस्त्यो भगवानृषिः |
687 | 3011020c | औदार्येणावगच्छामि निधानं तपसामिमम् |
688 | 3011021a | एवमुक्त्वा महाबाहुरगस्त्यं सूर्यवर्चसं |
689 | 3011021c | जग्राह परमप्रीतस्तस्य पादौ परंतपः |
690 | 3011022a | अभिवाद्य तु धर्मात्मा तस्थौ रामः कृताञ्जलिः |
691 | 3011022c | सीतया सह वैदेह्या तदा राम सलक्ष्मणः |
692 | 3011023a | प्रतिगृह्य च काकुत्स्थमर्चयित्वासनोदकैः |
693 | 3011023c | कुशलप्रश्नमुक्त्वा च आस्यतामिति सोऽब्रवीत् |
694 | 3011024a | अग्निं हुत्वा प्रदायार्घ्यमतिथिं प्रतिपूज्य च |
695 | 3011024c | वानप्रस्थेन धर्मेण स तेषां भोजनं ददौ |
696 | 3011025a | प्रथमं चोपविश्याथ धर्मज्ञो मुनिपुंगवः |
697 | 3011025c | उवाच राममासीनं प्राञ्जलिं धर्मकोविदम् |
698 | 3011026a | अन्यथा खलु काकुत्स्थ तपस्वी समुदाचरन् |
699 | 3011026c | दुःसाक्षीव परे लोके स्वानि मांसानि भक्षयेत् |
700 | 3011027a | राजा सर्वस्य लोकस्य धर्मचारी महारथः |
701 | 3011027c | पूजनीयश्च मान्यश्च भवान्प्राप्तः प्रियातिथिः |
702 | 3011028a | एवमुक्त्वा फलैर्मूलैः पुष्पैश्चान्यैश्च राघवम् |
703 | 3011028c | पूजयित्वा यथाकामं पुनरेव ततोऽब्रवीत् |
704 | 3011029a | इदं दिव्यं महच्चापं हेमवज्रविभूषितम् |
705 | 3011029c | वैष्णवं पुरुषव्याघ्र निर्मितं विश्वकर्मणा |
706 | 3011030a | अमोघः सूर्यसंकाशो ब्रह्मदत्तः शरोत्तमः |
707 | 3011030c | दत्तो मम महेन्द्रेण तूणी चाक्षयसायकौ |
708 | 3011031a | संपूर्णौ निशितैर्बाणैर्ज्वलद्भिरिव पावकैः |
709 | 3011031c | महाराजत कोशोऽयमसिर्हेमविभूषितः |
710 | 3011032a | अनेन धनुषा राम हत्वा संख्ये महासुरान् |
711 | 3011032c | आजहार श्रियं दीप्तां पुरा विष्णुर्दिवौकसाम् |
712 | 3011033a | तद्धनुस्तौ च तूणीरौ शरं खड्गं च मानद |
713 | 3011033c | जयाय प्रतिगृह्णीष्व वज्रं वज्रधरो यथा |
714 | 3011034a | एवमुक्त्वा महातेजाः समस्तं तद्वरायुधम् |
715 | 3011034c | दत्त्वा रामाय भगवानगस्त्यः पुनरब्रवीत् |
716 | 3012001a | राम प्रीतोऽस्मि भद्रं ते परितुष्टोऽस्मि लक्ष्मण |
717 | 3012001c | अभिवादयितुं यन्मां प्राप्तौ स्थः सह सीतया |
718 | 3012002a | अध्वश्रमेण वां खेदो बाधते प्रचुरश्रमः |
719 | 3012002c | व्यक्तमुत्कण्ठते चापि मैथिली जनकात्मजा |
720 | 3012003a | एषा हि सुकुमारी च दुःखैश्च न विमानिता |
721 | 3012003c | प्राज्यदोषं वनं प्रप्ता भर्तृस्नेहप्रचोदिता |
722 | 3012004a | यथैषा रमते राम इह सीता तथा कुरु |
723 | 3012004c | दुष्करं कृतवत्येषा वने त्वामनुगच्छती |
724 | 3012005a | एषा हि प्रकृतिः स्त्रीणामासृष्टे रघुनन्दन |
725 | 3012005c | समस्थमनुरज्यन्ते विषमस्थं त्यजन्ति च |
726 | 3012006a | शतह्रदानां लोलत्वं शस्त्राणां तीक्ष्णतां तथा |
727 | 3012006c | गरुडानिलयोः शैघ्र्यमनुगच्छन्ति योषितः |
728 | 3012007a | इयं तु भवतो भार्या दोषैरेतैर्विवर्जिताः |
729 | 3012007c | श्लाघ्या च व्यपदेश्या च यथा देवी ह्यरुन्धती |
730 | 3012008a | अलंकृतोऽयं देशश्च यत्र सौमित्रिणा सह |
731 | 3012008c | वैदेह्या चानया राम वत्स्यसि त्वमरिंदम |
732 | 3012009a | एवमुक्तस्तु मुनिना राघवः संयताञ्जलिः |
733 | 3012009c | उवाच प्रश्रितं वाक्यमृषिं दीप्तमिवानलम् |
734 | 3012010a | धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे मुनिपुंगवः |
735 | 3012010c | गुणैः सभ्रातृभार्यस्य वरदः परितुष्यति |
736 | 3012011a | किं तु व्यादिश मे देशं सोदकं बहुकाननम् |
737 | 3012011c | यत्राश्रमपदं कृत्वा वसेयं निरतः सुखम् |
738 | 3012012a | ततोऽब्रवीन्मुनि श्रेष्ठः श्रुत्वा रामस्य भाषितम् |
739 | 3012012c | ध्यात्वा मुहूर्तं धर्मात्मा धीरो धीरतरं वचः |
740 | 3012013a | इतो द्वियोजने तात बहुमूलफलोदकः |
741 | 3012013c | देशो बहुमृगः श्रीमान्पञ्चवट्यभिविश्रुतः |
742 | 3012014a | तत्र गत्वाश्रमपदं कृत्वा सौमित्रिणा सह |
743 | 3012014c | रमस्व त्वं पितुर्वाक्यं यथोक्तमनुपालयन् |
744 | 3012015a | विदितो ह्येष वृत्तान्तो मम सर्वस्तवानघ |
745 | 3012015c | तपसश्च प्रभावेन स्नेहाद्दशरथस्य च |
746 | 3012016a | हृदयस्थश्च ते छन्दो विज्ञातस्तपसा मया |
747 | 3012016c | इह वासं प्रतिज्ञाय मया सह तपोवने |
748 | 3012017a | अतश्च त्वामहं ब्रूमि गच्छ पञ्चवटीमिति |
749 | 3012017c | स हि रम्यो वनोद्देशो मैथिली तत्र रंस्यते |
750 | 3012018a | स देशः श्लाघनीयश्च नातिदूरे च राघव |
751 | 3012018c | गोदावर्याः समीपे च मैथिली तत्र रंस्यते |
752 | 3012019a | प्राज्यमूलफलैश्चैव नानाद्विज गणैर्युतः |
753 | 3012019c | विविक्तश्च महाबाहो पुण्यो रम्यस्तथैव च |
754 | 3012020a | भवानपि सदारश्च शक्तश्च परिरक्षणे |
755 | 3012020c | अपि चात्र वसन्रामस्तापसान्पालयिष्यसि |
756 | 3012021a | एतदालक्ष्यते वीर मधुकानां महद्वनम् |
757 | 3012021c | उत्तरेणास्य गन्तव्यं न्यग्रोधमभिगच्छता |
758 | 3012022a | ततः स्थलमुपारुह्य पर्वतस्याविदूरतः |
759 | 3012022c | ख्यातः पञ्चवटीत्येव नित्यपुष्पितकाननः |
760 | 3012023a | अगस्त्येनैवमुक्तस्तु रामः सौमित्रिणा सह |
761 | 3012023c | सात्कृत्यामन्त्रयामास तमृषिं सत्यवादिनम् |
762 | 3012024a | तौ तु तेनाभ्यनुज्ञातौ कृतपादाभिवन्दनौ |
763 | 3012024c | तदाश्रमात्पञ्चवटीं जग्मतुः सह सीतया |
764 | 3012025a | गृहीतचापौ तु नराधिपात्मजौ; विषक्ततूणी समरेष्वकातरौ |
765 | 3012025c | यथोपदिष्टेन पथा महर्षिणा; प्रजग्मतुः पञ्चवटीं समाहितौ |
766 | 3013001a | अथ पञ्चवटीं गच्छन्नन्तरा रघुनन्दनः |
767 | 3013001c | आससाद महाकायं गृध्रं भीमपराक्रमम् |
768 | 3013002a | तं दृष्ट्वा तौ महाभागौ वनस्थं रामलक्ष्मणौ |
769 | 3013002c | मेनाते राक्षसं पक्षिं ब्रुवाणौ को भवानिति |
770 | 3013003a | स तौ मधुरया वाचा सौम्यया प्रीणयन्निव |
771 | 3013003c | उवाच वत्स मां विद्धि वयस्यं पितुरात्मनः |
772 | 3013004a | स तं पितृसखं बुद्ध्वा पूजयामास राघवः |
773 | 3013004c | स तस्य कुलमव्यग्रमथ पप्रच्छ नाम च |
774 | 3013005a | रामस्य वचनं श्रुत्वा कुलमात्मानमेव च |
775 | 3013005c | आचचक्षे द्विजस्तस्मै सर्वभूतसमुद्भवम् |
776 | 3013006a | पूर्वकाले महाबाहो ये प्रजापतयोऽभवन् |
777 | 3013006c | तान्मे निगदतः सर्वानादितः शृणु राघव |
778 | 3013007a | कर्दमः प्रथमस्तेषां विकृतस्तदनन्तरम् |
779 | 3013007c | शेषश्च संश्रयश्चैव बहुपुत्रश्च वीर्यवान् |
780 | 3013008a | स्थाणुर्मरीचिरत्रिश्च क्रतुश्चैव महाबलः |
781 | 3013008c | पुलस्त्यश्चाङ्गिराश्चैव प्रचेताः पुलहस्तथा |
782 | 3013009a | दक्षो विवस्वानपरोऽरिष्टनेमिश्च राघव |
783 | 3013009c | कश्यपश्च महातेजास्तेषामासीच्च पश्चिमः |
784 | 3013010a | प्रजापतेस्तु दक्षस्य बभूवुरिति नः श्रुतम् |
785 | 3013010c | षष्टिर्दुहितरो राम यशस्विन्यो महायशः |
786 | 3013011a | कश्यपः प्रतिजग्राह तासामष्टौ सुमध्यमाः |
787 | 3013011c | अदितिं च दितिं चैव दनूमपि च कालकाम् |
788 | 3013012a | ताम्रां क्रोधवशां चैव मनुं चाप्यनलामपि |
789 | 3013012c | तास्तु कन्यास्ततः प्रीतः कश्यपः पुनरब्रवीत् |
790 | 3013013a | पुत्रांस्त्रैलोक्यभर्तॄन्वै जनयिष्यथ मत्समान् |
791 | 3013013c | अदितिस्तन्मना राम दितिश्च दनुरेव च |
792 | 3013014a | कालका च महाबाहो शेषास्त्वमनसोऽभवन् |
793 | 3013014c | अदित्यां जज्ञिरे देवास्त्रयस्त्रिंशदरिंदम |
794 | 3013015a | आदित्या वसवो रुद्रा अश्विनौ च परंतप |
795 | 3013015c | दितिस्त्वजनयत्पुत्रान्दैत्यांस्तात यशस्विनः |
796 | 3013016a | तेषामियं वसुमती पुरासीत्सवनार्णवा |
797 | 3013016c | दनुस्त्वजनयत्पुत्रमश्वग्रीवमरिंदम |
798 | 3013017a | नरकं कालकं चैव कालकापि व्यजायत |
799 | 3013017c | क्रौञ्चीं भासीं तथा श्येनीं धृतराष्ट्रीं तथा शुकीम् |
800 | 3013018a | ताम्रापि सुषुवे कन्याः पञ्चैता लोकविश्रुताः |
801 | 3013018c | उलूकाञ्जनयत्क्रौञ्ची भासी भासान्व्यजायत |
802 | 3013019a | श्येनी श्येनांश्च गृध्रांश्च व्यजायत सुतेजसः |
803 | 3013019c | धृतराष्ट्री तु हंसांश्च कलहंसांश्च सर्वशः |
804 | 3013020a | चक्रवाकांश्च भद्रं ते विजज्ञे सापि भामिनी |
805 | 3013020c | शुकी नतां विजज्ञे तु नताया विनता सुता |
806 | 3013021a | दशक्रोधवशा राम विजज्ञेऽप्यात्मसंभवाः |
807 | 3013021c | मृगीं च मृगमन्दां च हरीं भद्रमदामपि |
808 | 3013022a | मातङ्गीमथ शार्दूलीं श्वेतां च सुरभीं तथा |
809 | 3013022c | सर्वलक्षणसंपन्नां सुरसां कद्रुकामपि |
810 | 3013023a | अपत्यं तु मृगाः सर्वे मृग्या नरवरोत्तम |
811 | 3013023c | ऋष्काश्च मृगमन्दायाः सृमराश्चमरास्तथा |
812 | 3013024a | ततस्त्विरावतीं नाम जज्ञे भद्रमदा सुताम् |
813 | 3013024c | तस्यास्त्वैरावतः पुत्रो लोकनाथो महागजः |
814 | 3013025a | हर्याश्च हरयोऽपत्यं वानराश्च तपस्विनः |
815 | 3013025c | गोलाङ्गूलांश्च शार्दूली व्याघ्रांश्चाजनयत्सुतान् |
816 | 3013026a | मातङ्ग्यास्त्वथ मातङ्गा अपत्यं मनुजर्षभ |
817 | 3013026c | दिशागजं तु श्वेताक्षं श्वेता व्यजनयत्सुतम् |
818 | 3013027a | ततो दुहितरौ राम सुरभिर्देव्यजायत |
819 | 3013027c | रोहिणीं नाम भद्रं ते गन्धर्वीं च यशस्विनीम् |
820 | 3013028a | रोहिण्यजनयद्गा वै गन्धर्वी वाजिनः सुतान् |
821 | 3013028c | सुरसाजनयन्नागान्राम कद्रूश्च पन्नगान् |
822 | 3013029a | मनुर्मनुष्याञ्जनयत्कश्यपस्य महात्मनः |
823 | 3013029c | ब्राह्मणान्क्षत्रियान्वैश्याञ्शूद्रांश्च मनुजर्षभ |
824 | 3013030a | मुखतो ब्राह्मणा जाता उरसः क्षत्रियास्तथा |
825 | 3013030c | ऊरुभ्यां जज्ञिरे वैश्याः पद्भ्यां शूद्रा इति श्रुतिः |
826 | 3013031a | सर्वान्पुण्यफलान्वृक्षाननलापि व्यजायत |
827 | 3013031c | विनता च शुकी पौत्री कद्रूश्च सुरसा स्वसा |
828 | 3013032a | कद्रूर्नागसहस्क्रं तु विजज्ञे धरणीधरम् |
829 | 3013032c | द्वौ पुत्रौ विनतायास्तु गरुडोऽरुण एव च |
830 | 3013033a | तस्माज्जातोऽहमरुणात्संपातिश्च ममाग्रजः |
831 | 3013033c | जटायुरिति मां विद्धि श्येनीपुत्रमरिंदम |
832 | 3013034a | सोऽहं वाससहायस्ते भविष्यामि यदीच्छसि |
833 | 3013034c | सीतां च तात रक्षिष्ये त्वयि याते सलक्ष्मणे |
834 | 3013035a | जटायुषं तु प्रतिपूज्य राघवो; मुदा परिष्वज्य च संनतोऽभवत् |
835 | 3013035c | पितुर्हि शुश्राव सखित्वमात्मवा;ञ्जटायुषा संकथितं पुनः पुनः |
836 | 3013036a | स तत्र सीतां परिदाय मैथिलीं; सहैव तेनातिबलेन पक्षिणा |
837 | 3013036c | जगाम तां पञ्चवटीं सलक्ष्मणो; रिपून्दिधक्षञ्शलभानिवानलः |
838 | 3014001a | ततः पञ्चवटीं गत्वा नानाव्यालमृगायुताम् |
839 | 3014001c | उवाच भ्रातरं रामो लक्ष्मणं दीप्ततेजसं |
840 | 3014002a | आगताः स्म यथोद्दिष्टममुं देशं महर्षिणा |
841 | 3014002c | अयं पञ्चवटी देशः सौम्य पुष्पितकाननः |
842 | 3014003a | सर्वतश्चार्यतां दृष्टिः कानने निपुणो ह्यसि |
843 | 3014003c | आश्रमः कतरस्मिन्नो देशे भवति संमतः |
844 | 3014004a | रमते यत्र वैदेही त्वमहं चैव लक्ष्मण |
845 | 3014004c | तादृशो दृश्यतां देशः संनिकृष्टजलाशयः |
846 | 3014005a | वनरामण्यकं यत्र जलरामण्यकं तथा |
847 | 3014005c | संनिकृष्टं च यत्र स्यात्समित्पुष्पकुशोदकम् |
848 | 3014006a | एवमुक्तस्तु रामेण लक्मणः संयताञ्जलिः |
849 | 3014006c | सीता समक्षं काकुत्स्थमिदं वचनमब्रवीत् |
850 | 3014007a | परवानस्मि काकुत्स्थ त्वयि वर्षशतं स्थिते |
851 | 3014007c | स्वयं तु रुचिरे देशे क्रियतामिति मां वद |
852 | 3014008a | सुप्रीतस्तेन वाक्येन लक्ष्मणस्य महाद्युतिः |
853 | 3014008c | विमृशन्रोचयामास देशं सर्वगुणान्वितम् |
854 | 3014009a | स तं रुचिरमाक्रम्य देशमाश्रमकर्मणि |
855 | 3014009c | हस्ते गृहीत्वा हस्तेन रामः सौमित्रिमब्रवीत् |
856 | 3014010a | अयं देशः समः श्रीमान्पुष्पितैर्तरुभिर्वृतः |
857 | 3014010c | इहाश्रमपदं सौम्य यथावत्कर्तुमर्हसि |
858 | 3014011a | इयमादित्यसंकाशैः पद्मैः सुरभिगन्धिभिः |
859 | 3014011c | अदूरे दृश्यते रम्या पद्मिनी पद्मशोभिता |
860 | 3014012a | यथाख्यातमगस्त्येन मुनिना भावितात्मना |
861 | 3014012c | इयं गोदावरी रम्या पुष्पितैस्तरुभिर्वृता |
862 | 3014013a | हंसकारण्डवाकीर्णा चक्रवाकोपशोभिता |
863 | 3014013c | नातिदूरे न चासन्ने मृगयूथनिपीडिता |
864 | 3014014a | मयूरनादिता रम्याः प्रांशवो बहुकन्दराः |
865 | 3014014c | दृश्यन्ते गिरयः सौम्य फुल्लैस्तरुभिरावृताः |
866 | 3014015a | सौवर्णे राजतैस्ताम्रैर्देशे देशे च धातुभिः |
867 | 3014015c | गवाक्षिता इवाभान्ति गजाः परमभक्तिभिः |
868 | 3014016a | सालैस्तालैस्तमालैश्च खर्जूरैः पनसाम्रकैः |
869 | 3014016c | नीवारैस्तिमिशैश्चैव पुंनागैश्चोपशोभिताः |
870 | 3014017a | चूतैरशोकैस्तिलकैश्चम्पकैः केतकैरपि |
871 | 3014017c | पुष्पगुल्मलतोपेतैस्तैस्तैस्तरुभिरावृताः |
872 | 3014018a | चन्दनैः स्यन्दनैर्नीपैः पनसैर्लकुचैरपि |
873 | 3014018c | धवाश्वकर्णखदिरैः शमीकिंशुकपाटलैः |
874 | 3014019a | इदं पुण्यमिदं मेध्यमिदं बहुमृगद्विजम् |
875 | 3014019c | इह वत्स्याम सौमित्रे सार्धमेतेन पक्षिणा |
876 | 3014020a | एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मणः परवीरहा |
877 | 3014020c | अचिरेणाश्रमं भ्रातुश्चकार सुमहाबलः |
878 | 3014021a | पर्णशालां सुविपुलां तत्र संघातमृत्तिकाम् |
879 | 3014021c | सुस्तम्भां मस्करैर्दीर्घैः कृतवंशां सुशोभनाम् |
880 | 3014022a | स गत्वा लक्ष्मणः श्रीमान्नदीं गोदावरीं तदा |
881 | 3014022c | स्नात्वा पद्मानि चादाय सफलः पुनरागतः |
882 | 3014023a | ततः पुष्पबलिं कृत्वा शान्तिं च स यथाविधि |
883 | 3014023c | दर्शयामास रामाय तदाश्रमपदं कृतम् |
884 | 3014024a | स तं दृष्ट्वा कृतं सौम्यमाश्रमं सह सीतया |
885 | 3014024c | राघवः पर्णशालायां हर्षमाहारयत्परम् |
886 | 3014025a | सुसंहृष्टः परिष्वज्य बाहुभ्यां लक्ष्मणं तदा |
887 | 3014025c | अतिस्निग्धं च गाढं च वचनं चेदमब्रवीत् |
888 | 3014026a | प्रीतोऽस्मि ते महत्कर्म त्वया कृतमिदं प्रभो |
889 | 3014026c | प्रदेयो यन्निमित्तं ते परिष्वङ्गो मया कृतः |
890 | 3014027a | भावज्ञेन कृतज्ञेन धर्मज्ञेन च लक्ष्मण |
891 | 3014027c | त्वया पुत्रेण धर्मात्मा न संवृत्तः पिता मम |
892 | 3014028a | एवं लक्ष्मणमुक्त्वा तु राघवो लक्ष्मिवर्धनः |
893 | 3014028c | तस्मिन्देशे बहुफले न्यवसत्स सुखं वशी |
894 | 3014029a | कंचित्कालं स धर्मात्मा सीतया लक्ष्मणेन च |
895 | 3014029c | अन्वास्यमानो न्यवसत्स्वर्गलोके यथामरः |
896 | 3015001a | वसतस्तस्य तु सुखं राघवस्य महात्मनः |
897 | 3015001c | शरद्व्यपाये हेमन्त ऋतुरिष्टः प्रवर्तते |
898 | 3015002a | स कदाचित्प्रभातायां शर्वर्यां रघुनन्दनः |
899 | 3015002c | प्रययावभिषेकार्थं रम्यां गोदावरीं नदीम् |
900 | 3015003a | प्रह्वः कलशहस्तस्तं सीतया सह वीर्यवान् |
901 | 3015003c | पृष्ठतोऽनुव्रजन्भ्राता सौमित्रिरिदमब्रवीत् |
902 | 3015004a | अयं स कालः संप्राप्तः प्रियो यस्ते प्रियंवद |
903 | 3015004c | अलंकृत इवाभाति येन संवत्सरः शुभः |
904 | 3015005a | नीहारपरुषो लोकः पृथिवी सस्यमालिनी |
905 | 3015005c | जलान्यनुपभोग्यानि सुभगो हव्यवाहनः |
906 | 3015006a | नवाग्रयणपूजाभिरभ्यर्च्य पितृदेवताः |
907 | 3015006c | कृताग्रयणकाः काले सन्तो विगतकल्मषाः |
908 | 3015007a | प्राज्यकामा जनपदाः संपन्नतरगोरसाः |
909 | 3015007c | विचरन्ति महीपाला यात्रार्थं विजिगीषवः |
910 | 3015008a | सेवमाने दृढं सूर्ये दिशमन्तकसेविताम् |
911 | 3015008c | विहीनतिलकेव स्त्री नोत्तरा दिक्प्रकाशते |
912 | 3015009a | प्रकृत्या हिमकोशाढ्यो दूरसूर्यश्च साम्प्रतम् |
913 | 3015009c | यथार्थनामा सुव्यक्तं हिमवान्हिमवान्गिरिः |
914 | 3015010a | अत्यन्तसुखसंचारा मध्याह्ने स्पर्शतः सुखाः |
915 | 3015010c | दिवसाः सुभगादित्याश्छायासलिलदुर्भगाः |
916 | 3015011a | मृदुसूर्याः सनीहाराः पटुशीताः समारुताः |
917 | 3015011c | शून्यारण्या हिमध्वस्ता दिवसा भान्ति साम्प्रतम् |
918 | 3015012a | निवृत्ताकाशशयनाः पुष्यनीता हिमारुणाः |
919 | 3015012c | शीता वृद्धतरायामास्त्रियामा यान्ति साम्प्रतम् |
920 | 3015013a | रविसंक्रान्तसौभाग्यस्तुषारारुणमण्डलः |
921 | 3015013c | निःश्वासान्ध इवादर्शश्चन्द्रमा न प्रकाशते |
922 | 3015014a | ज्योत्स्ना तुषारमलिना पौर्णमास्यां न राजते |
923 | 3015014c | सीतेव चातपश्यामा लक्ष्यते न तु शोभते |
924 | 3015015a | प्रकृत्या शीतलस्पर्शो हिमविद्धश्च साम्प्रतम् |
925 | 3015015c | प्रवाति पश्चिमो वायुः काले द्विगुणशीतलः |
926 | 3015016a | बाष्पच्छन्नान्यरण्यानि यवगोधूमवन्ति च |
927 | 3015016c | शोभन्तेऽभ्युदिते सूर्ये नदद्भिः क्रौञ्चसारसैः |
928 | 3015017a | खर्जूरपुष्पाकृतिभिः शिरोभिः पूर्णतण्डुलैः |
929 | 3015017c | शोभन्ते किं चिदालम्बाः शालयः कनकप्रभाः |
930 | 3015018a | मयूखैरुपसर्पद्भिर्हिमनीहारसंवृतैः |
931 | 3015018c | दूरमभ्युदितः सूर्यः शशाङ्क इव लक्ष्यते |
932 | 3015019a | अग्राह्यवीर्यः पूर्वाह्णे मध्याह्ने स्पर्शतः सुखः |
933 | 3015019c | संरक्तः किंचिदापाण्डुरातपः शोभते क्षितौ |
934 | 3015020a | अवश्यायनिपातेन किंचित्प्रक्लिन्नशाद्वला |
935 | 3015020c | वनानां शोभते भूमिर्निविष्टतरुणातपा |
936 | 3015021a | अवश्यायतमोनद्धा नीहारतमसावृताः |
937 | 3015021c | प्रसुप्ता इव लक्ष्यन्ते विपुष्पा वनराजयः |
938 | 3015022a | बाष्पसंछन्नसलिला रुतविज्ञेयसारसाः |
939 | 3015022c | हिमार्द्रवालुकैस्तीरैः सरितो भान्ति साम्प्रतम् |
940 | 3015023a | तुषारपतनाच्चैव मृदुत्वाद्भास्करस्य च |
941 | 3015023c | शैत्यादगाग्रस्थमपि प्रायेण रसवज्जलम् |
942 | 3015024a | जराजर्जरितैः पर्णैः शीर्णकेसरकर्णिकैः |
943 | 3015024c | नालशेषा हिमध्वस्ता न भान्ति कमलाकराः |
944 | 3015025a | अस्मिंस्तु पुरुषव्याघ्र काले दुःखसमन्वितः |
945 | 3015025c | तपश्चरति धर्मात्मा त्वद्भक्त्या भरतः पुरे |
946 | 3015026a | त्यक्त्वा राज्यं च मानं च भोगांश्च विविधान्बहून् |
947 | 3015026c | तपस्वी नियताहारः शेते शीते महीतले |
948 | 3015027a | सोऽपि वेलामिमां नूनमभिषेकार्थमुद्यतः |
949 | 3015027c | वृतः प्रकृतिभिर्नित्यं प्रयाति सरयूं नदीम् |
950 | 3015028a | अत्यन्तसुखसंवृद्धः सुकुमारो हिमार्दितः |
951 | 3015028c | कथं त्वपररात्रेषु सरयूमवगाहते |
952 | 3015029a | पद्मपत्रेक्षणः श्यामः श्रीमान्निरुदरो महान् |
953 | 3015029c | धर्मज्ञः सत्यवादी च ह्रीनिषेधो जितेन्द्रियः |
954 | 3015030a | प्रियाभिभाषी मधुरो दीर्घबाहुररिंदमः |
955 | 3015030c | संत्यज्य विविधान्सौख्यानार्यं सर्वात्मनाश्रितः |
956 | 3015031a | जितः स्वर्गस्तव भ्रात्रा भरतेन महात्मना |
957 | 3015031c | वनस्थमपि तापस्ये यस्त्वामनुविधीयते |
958 | 3015032a | न पित्र्यमनुवर्न्तन्ते मातृकं द्विपदा इति |
959 | 3015032c | ख्यातो लोकप्रवादोऽयं भरतेनान्यथाकृतः |
960 | 3015033a | भर्ता दशरथो यस्याः साधुश्च भरतः सुतः |
961 | 3015033c | कथं नु साम्बा कैकेयी तादृशी क्रूरदर्शिनी |
962 | 3015034a | इत्येवं लक्ष्मणे वाक्यं स्नेहाद्ब्रुवति धार्मिके |
963 | 3015034c | परिवादं जनन्यास्तमसहन्राघवोऽब्रवीत् |
964 | 3015035a | न तेऽम्बा मध्यमा तात गर्हितव्या कथंचन |
965 | 3015035c | तामेवेक्ष्वाकुनाथस्य भरतस्य कथां कुरु |
966 | 3015036a | निश्चितापि हि मे बुद्धिर्वनवासे दृढव्रता |
967 | 3015036c | भरतस्नेहसंतप्ता बालिशीक्रियते पुनः |
968 | 3015037a | इत्येवं विलपंस्तत्र प्राप्य गोदावरीं नदीम् |
969 | 3015037c | चक्रेऽभिषेकं काकुत्स्थः सानुजः सह सीतया |
970 | 3015038a | तर्पयित्वाथ सलिलैस्ते पितॄन्दैवतानि च |
971 | 3015038c | स्तुवन्ति स्मोदितं सूर्यं देवताश्च समाहिताः |
972 | 3015039a | कृताभिषेकः स रराज रामः; सीताद्वितीयः सह लक्ष्मणेन |
973 | 3015039c | कृताभिषेकस्त्वगराजपुत्र्या; रुद्रः सनन्दिर्भगवानिवेशः |
974 | 3016001a | कृताभिषेको रामस्तु सीता सौमित्रिरेव च |
975 | 3016001c | तस्माद्गोदावरीतीरात्ततो जग्मुः स्वमाश्रमम् |
976 | 3016002a | आश्रमं तमुपागम्य राघवः सहलक्ष्मणः |
977 | 3016002c | कृत्वा पौर्वाह्णिकं कर्म पर्णशालामुपागमत् |
978 | 3016003a | स रामः पर्णशालायामासीनः सह सीतया |
979 | 3016003c | विरराज महाबाहुश्चित्रया चन्द्रमा इव |
980 | 3016003e | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा चकार विविधाः कथाः |
981 | 3016004a | तदासीनस्य रामस्य कथासंसक्तचेतसः |
982 | 3016004c | तं देशं राक्षसी काचिदाजगाम यदृच्छया |
983 | 3016005a | सा तु शूर्पणखा नाम दशग्रीवस्य रक्षसः |
984 | 3016005c | भगिनी राममासाद्य ददर्श त्रिदशोपमम् |
985 | 3016006a | सिंहोरस्कं महाबाहुं पद्मपत्रनिभेक्षणम् |
986 | 3016006c | सुकुमारं महासत्त्वं पार्थिवव्यञ्जनान्वितम् |
987 | 3016007a | राममिन्दीवरश्यामं कन्दर्पसदृशप्रभम् |
988 | 3016007c | बभूवेन्द्रोपमं दृष्ट्वा राक्षसी काममोहिता |
989 | 3016008a | सुमुखं दुर्मुखी रामं वृत्तमध्यं महोदरी |
990 | 3016008c | विशालाक्षं विरूपाक्षी सुकेशं ताम्रमूर्धजा |
991 | 3016009a | प्रियरूपं विरूपा सा सुस्वरं भैरवस्वना |
992 | 3016009c | तरुणं दारुणा वृद्धा दक्षिणं वामभाषिणी |
993 | 3016010a | न्यायवृत्तं सुदुर्वृत्ता प्रियमप्रियदर्शना |
994 | 3016010c | शरीरजसमाविष्टा राक्षसी राममब्रवीत् |
995 | 3016011a | जटी तापसरूपेण सभार्यः शरचापधृक् |
996 | 3016011c | आगतस्त्वमिमं देशं कथं राक्षससेवितम् |
997 | 3016012a | एवमुक्तस्तु राक्षस्या शूर्पणख्या परंतपः |
998 | 3016012c | ऋजुबुद्धितया सर्वमाख्यातुमुपचक्रमे |
999 | 3016013a | आसीद्दशरथो नाम राजा त्रिदशविक्रमः |
1000 | 3016013c | तस्याहमग्रजः पुत्रो रामो नाम जनैः श्रुतः |
1001 | 3016014a | भ्रातायं लक्ष्मणो नाम यवीयान्मामनुव्रतः |
1002 | 3016014c | इयं भार्या च वैदेही मम सीतेति विश्रुता |
1003 | 3016015a | नियोगात्तु नरेन्द्रस्य पितुर्मातुश्च यन्त्रितः |
1004 | 3016015c | धर्मार्थं धर्मकाङ्क्षी च वनं वस्तुमिहागतः |
1005 | 3016016a | त्वां तु वेदितुमिच्छामि कथ्यतां कासि कस्य वा |
1006 | 3016016c | इह वा किंनिमित्तं त्वमागता ब्रूहि तत्त्वतः |
1007 | 3016017a | साब्रवीद्वचनं श्रुत्वा राक्षसी मदनार्दिता |
1008 | 3016017c | श्रूयतां राम वक्ष्यामि तत्त्वार्थं वचनं मम |
1009 | 3016018a | अहं शूर्पणखा नाम राक्षसी कामरूपिणी |
1010 | 3016018c | अरण्यं विचरामीदमेका सर्वभयंकरा |
1011 | 3016019a | रावणो नाम मे भ्राता राक्षसो राक्षसेश्वरः |
1012 | 3016019c | प्रवृद्धनिद्रश्च सदा कुम्भकर्णो महाबलः |
1013 | 3016020a | विभीषणस्तु धर्मात्मा न तु राक्षसचेष्टितः |
1014 | 3016020c | प्रख्यातवीर्यौ च रणे भ्रातरौ खरदूषणौ |
1015 | 3016021a | तानहं समतिक्रान्ता राम त्वापूर्वदर्शनात् |
1016 | 3016021c | समुपेतास्मि भावेन भर्तारं पुरुषोत्तमम् |
1017 | 3016021e | चिराय भव भर्ता मे सीतया किं करिष्यसि |
1018 | 3016022a | विकृता च विरूपा च न सेयं सदृशी तव |
1019 | 3016022c | अहमेवानुरूपा ते भार्यारूपेण पश्य माम् |
1020 | 3016023a | इमां विरूपामसतीं करालां निर्णतोदरीम् |
1021 | 3016023c | अनेन सह ते भ्रात्रा भक्षयिष्यामि मानुषीम् |
1022 | 3016024a | ततः पर्वतशृङ्गाणि वनानि विविधानि च |
1023 | 3016024c | पश्यन्सह मया कान्त दण्डकान्विचरिष्यसि |
1024 | 3016025a | इत्येवमुक्तः काकुत्स्थः प्रहस्य मदिरेक्षणाम् |
1025 | 3016025c | इदं वचनमारेभे वक्तुं वाक्यविशारदः |
1026 | 3017001a | तां तु शूर्पणखां रामः कामपाशावपाशिताम् |
1027 | 3017001c | स्वेच्छया श्लक्ष्णया वाचा स्मितपूर्वमथाब्रवीत् |
1028 | 3017002a | कृतदारोऽस्मि भवति भार्येयं दयिता मम |
1029 | 3017002c | त्वद्विधानां तु नारीणां सुदुःखा ससपत्नता |
1030 | 3017003a | अनुजस्त्वेष मे भ्राता शीलवान्प्रियदर्शनः |
1031 | 3017003c | श्रीमानकृतदारश्च लक्ष्मणो नाम वीर्यवान् |
1032 | 3017004a | अपूर्वी भार्यया चार्थी तरुणः प्रियदर्शनः |
1033 | 3017004c | अनुरूपश्च ते भर्ता रूपस्यास्य भविष्यति |
1034 | 3017005a | एनं भज विशालाक्षि भर्तारं भ्रातरं मम |
1035 | 3017005c | असपत्ना वरारोहे मेरुमर्कप्रभा यथा |
1036 | 3017006a | इति रामेण सा प्रोक्ता राक्षसी काममोहिता |
1037 | 3017006c | विसृज्य रामं सहसा ततो लक्ष्मणमब्रवीत् |
1038 | 3017007a | अस्य रूपस्य ते युक्ता भार्याहं वरवर्णिनी |
1039 | 3017007c | मया सह सुखं सर्वान्दण्डकान्विचरिष्यसि |
1040 | 3017008a | एवमुक्तस्तु सौमित्री राक्षस्या वाक्यकोविदः |
1041 | 3017008c | ततः शूर्पणखीं स्मित्वा लक्ष्मणो युक्तमब्रवीत् |
1042 | 3017009a | कथं दासस्य मे दासी भार्या भवितुमिच्छसि |
1043 | 3017009c | सोऽहमार्येण परवान्भ्रात्रा कमलवर्णिनी |
1044 | 3017010a | समृद्धार्थस्य सिद्धार्था मुदितामलवर्णिनी |
1045 | 3017010c | आर्यस्य त्वं विशालाक्षि भार्या भव यवीयसी |
1046 | 3017011a | एतां विरूपामसतीं करालां निर्णतोदरीम् |
1047 | 3017011c | भार्यां वृद्धां परित्यज्य त्वामेवैष भजिष्यति |
1048 | 3017012a | को हि रूपमिदं श्रेष्ठं संत्यज्य वरवर्णिनि |
1049 | 3017012c | मानुषेषु वरारोहे कुर्याद्भावं विचक्षणः |
1050 | 3017013a | इति सा लक्ष्मणेनोक्ता कराला निर्णतोदरी |
1051 | 3017013c | मन्यते तद्वचः सत्यं परिहासाविचक्षणा |
1052 | 3017014a | सा रामं पर्णशालायामुपविष्टं परंतपम् |
1053 | 3017014c | सीतया सह दुर्धर्षमब्रवीत्काममोहिता |
1054 | 3017015a | इमां विरूपामसतीं करालां निर्णतोदरीम् |
1055 | 3017015c | वृद्धां भार्यामवष्टभ्य न मां त्वं बहु मन्यसे |
1056 | 3017016a | अद्येमां भक्षयिष्यामि पश्यतस्तव मानुषीम् |
1057 | 3017016c | त्वया सह चरिष्यामि निःसपत्ना यथासुखम् |
1058 | 3017017a | इत्युक्त्वा मृगशावाक्षीमलातसदृशेक्षणा |
1059 | 3017017c | अभ्यधावत्सुसंक्रुद्धा महोल्का रोहिणीमिव |
1060 | 3017018a | तां मृत्युपाशप्रतिमामापतन्तीं महाबलः |
1061 | 3017018c | निगृह्य रामः कुपितस्ततो लक्ष्मणमब्रवीत् |
1062 | 3017019a | क्रूरैरनार्यैः सौमित्रे परिहासः कथंचन |
1063 | 3017019c | न कार्यः पश्य वैदेहीं कथंचित्सौम्य जीवतीम् |
1064 | 3017020a | इमां विरूपामसतीमतिमत्तां महोदरीम् |
1065 | 3017020c | राक्षसीं पुरुषव्याघ्र विरूपयितुमर्हसि |
1066 | 3017021a | इत्युक्तो लक्ष्मणस्तस्याः क्रुद्धो रामस्य पश्यतः |
1067 | 3017021c | उद्धृत्य खड्गं चिच्छेद कर्णनासं महाबलः |
1068 | 3017022a | निकृत्तकर्णनासा तु विस्वरं सा विनद्य च |
1069 | 3017022c | यथागतं प्रदुद्राव घोरा शूर्पणखा वनम् |
1070 | 3017023a | सा विरूपा महाघोरा राक्षसी शोणितोक्षिता |
1071 | 3017023c | ननाद विविधान्नादान्यथा प्रावृषि तोयदः |
1072 | 3017024a | सा विक्षरन्ती रुधिरं बहुधा घोरदर्शना |
1073 | 3017024c | प्रगृह्य बाहू गर्जन्ती प्रविवेश महावनम् |
1074 | 3017025a | ततस्तु सा राक्षससंघसंवृतं; खरं जनस्थानगतं विरूपिता |
1075 | 3017025c | उपेत्य तं भ्रातरमुग्रतेजसं; पपात भूमौ गगनाद्यथाशनिः |
1076 | 3017026a | ततः सभार्यं भयमोहमूर्छिता; सलक्ष्मणं राघवमागतं वनम् |
1077 | 3017026c | विरूपणं चात्मनि शोणितोक्षिता; शशंस सर्वं भगिनी खरस्य सा |
1078 | 3018001a | तां तथा पतितां दृष्ट्वा विरूपां शोणितोक्षिताम् |
1079 | 3018001c | भगिनीं क्रोधसंतप्तः खरः पप्रच्छ राक्षसः |
1080 | 3018002a | बलविक्रमसंपन्ना कामगा कामरूपिणी |
1081 | 3018002c | इमामवस्थां नीता त्वं केनान्तकसमा गता |
1082 | 3018003a | देवगन्धर्वभूतानामृषीणां च महात्मनाम् |
1083 | 3018003c | कोऽयमेवं महावीर्यस्त्वां विरूपां चकार ह |
1084 | 3018004a | न हि पश्याम्यहं लोके यः कुर्यान्मम विप्रियम् |
1085 | 3018004c | अन्तरेन सहस्राक्षं महेन्द्रं पाकशासनम् |
1086 | 3018005a | अद्याहं मार्गणैः प्राणानादास्ये जीवितान्तकैः |
1087 | 3018005c | सलिले क्षीरमासक्तं निष्पिबन्निव सारसः |
1088 | 3018006a | निहतस्य मया संख्ये शरसंकृत्तमर्मणः |
1089 | 3018006c | सफेनं रुधिरं रक्तं मेदिनी कस्य पास्यति |
1090 | 3018007a | कस्य पत्ररथाः कायान्मांसमुत्कृत्य संगताः |
1091 | 3018007c | प्रहृष्टा भक्षयिष्यन्ति निहतस्य मया रणे |
1092 | 3018008a | तं न देवा न गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः |
1093 | 3018008c | मयापकृष्टं कृपणं शक्तास्त्रातुं महाहवे |
1094 | 3018009a | उपलभ्य शनैः संज्ञां तं मे शंसितुमर्हसि |
1095 | 3018009c | येन त्वं दुर्विनीतेन वने विक्रम्य निर्जिता |
1096 | 3018010a | इति भ्रातुर्वचः श्रुत्वा क्रुद्धस्य च विशेषतः |
1097 | 3018010c | ततः शूर्पणखा वाक्यं सबाष्पमिदमब्रवीत् |
1098 | 3018011a | तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकूमारौ महाबलौ |
1099 | 3018011c | पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ |
1100 | 3018012a | गन्धर्वराजप्रतिमौ पार्थिवव्यञ्जनान्वितौ |
1101 | 3018012c | देवौ वा मानुषौ वा तौ न तर्कयितुमुत्सहे |
1102 | 3018013a | तरुणी रूपसंपन्ना सर्वाभरणभूषिता |
1103 | 3018013c | दृष्टा तत्र मया नारी तयोर्मध्ये सुमध्यमा |
1104 | 3018014a | ताभ्यामुभाभ्यां संभूय प्रमदामधिकृत्य ताम् |
1105 | 3018014c | इमामवस्थां नीताहं यथानाथासती तथा |
1106 | 3018015a | तस्याश्चानृजुवृत्तायास्तयोश्च हतयोरहम् |
1107 | 3018015c | सफेनं पातुमिच्छामि रुधिरं रणमूर्धनि |
1108 | 3018016a | एष मे प्रथमः कामः कृतस्तात त्वया भवेत् |
1109 | 3018016c | तस्यास्तयोश्च रुधिरं पिबेयमहमाहवे |
1110 | 3018017a | इति तस्यां ब्रुवाणायां चतुर्दश महाबलान् |
1111 | 3018017c | व्यादिदेश खरः क्रुद्धो राक्षसानन्तकोपमान् |
1112 | 3018018a | मानुषौ शस्त्रसंपन्नौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ |
1113 | 3018018c | प्रविष्टौ दण्डकारण्यं घोरं प्रमदया सह |
1114 | 3018019a | तौ हत्वा तां च दुर्वृत्तामुपावर्तितुमर्हथ |
1115 | 3018019c | इयं च रुधिरं तेषां भगिनी मम पास्यति |
1116 | 3018020a | मनोरथोऽयमिष्टोऽस्या भगिन्या मम राक्षसाः |
1117 | 3018020c | शीघ्रं संपद्यतां गत्वा तौ प्रमथ्य स्वतेजसा |
1118 | 3018021a | इति प्रतिसमादिष्टा राक्षसास्ते चतुर्दश |
1119 | 3018021c | तत्र जग्मुस्तया सार्धं घना वातेरिता यथा |
1120 | 3019001a | ततः शूर्पणखा घोरा राघवाश्रममागता |
1121 | 3019001c | रक्षसामाचचक्षे तौ भ्रातरौ सह सीतया |
1122 | 3019002a | ते रामं पर्णशालायामुपविष्टं महाबलम् |
1123 | 3019002c | ददृशुः सीतया सार्धं वैदेह्या लक्ष्मणेन च |
1124 | 3019003a | तान्दृष्ट्वा राघवः श्रीमानागतां तां च राक्षसीम् |
1125 | 3019003c | अब्रवीद्भ्रातरं रामो लक्ष्मणं दीप्ततेजसं |
1126 | 3019004a | मुहूर्तं भव सौमित्रे सीतायाः प्रत्यनन्तरः |
1127 | 3019004c | इमानस्या वधिष्यामि पदवीमागतानिह |
1128 | 3019005a | वाक्यमेतत्ततः श्रुत्वा रामस्य विदितात्मनः |
1129 | 3019005c | तथेति लक्ष्मणो वाक्यं रामस्य प्रत्यपूजयत् |
1130 | 3019006a | राघवोऽपि महच्चापं चामीकरविभूषितम् |
1131 | 3019006c | चकार सज्यं धर्मात्मा तानि रक्षांसि चाब्रवीत् |
1132 | 3019007a | पुत्रौ दशरथस्यावां भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
1133 | 3019007c | प्रविष्टौ सीतया सार्धं दुश्चरं दण्डकावनम् |
1134 | 3019008a | फलमूलाशनौ दान्तौ तापसौ धर्मचारिणौ |
1135 | 3019008c | वसन्तौ दण्डकारण्ये किमर्थमुपहिंसथ |
1136 | 3019009a | युष्मान्पापात्मकान्हन्तुं विप्रकारान्महावने |
1137 | 3019009c | ऋषीणां तु नियोगेन प्राप्तोऽहं सशरासनः |
1138 | 3019010a | तिष्ठतैवात्र संतुष्टा नोपसर्पितुमर्हथ |
1139 | 3019010c | यदि प्राणैरिहार्थो वो निवर्तध्वं निशाचराः |
1140 | 3019011a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राक्षसास्ते चतुर्दश |
1141 | 3019011c | ऊचुर्वाचं सुसंक्रुद्धा ब्रह्मघ्नः शूलपाणयः |
1142 | 3019012a | संरक्तनयना घोरा रामं रक्तान्तलोचनम् |
1143 | 3019012c | परुषा मधुराभाषं हृष्टादृष्टपराक्रमम् |
1144 | 3019013a | क्रोधमुत्पाद्य नो भर्तुः खरस्य सुमहात्मनः |
1145 | 3019013c | त्वमेव हास्यसे प्राणानद्यास्माभिर्हतो युधि |
1146 | 3019014a | का हि ते शक्तिरेकस्य बहूनां रणमूर्धनि |
1147 | 3019014c | अस्माकमग्रतः स्थातुं किं पुनर्योद्धुमाहवे |
1148 | 3019015a | एभिर्बाहुप्रयुक्तैर्नः परिघैः शूलपट्टिशैः |
1149 | 3019015c | प्राणांस्त्यक्ष्यसि वीर्यं च धनुश्च करपीडितम् |
1150 | 3019016a | इत्येवमुक्त्वा संरब्धा राक्षसास्ते चतुर्दश |
1151 | 3019016c | उद्यतायुधनिस्त्रिंशा राममेवाभिदुद्रुवुः |
1152 | 3019016e | चिक्षिपुस्तानि शूलानि राघवं प्रति दुर्जयम् |
1153 | 3019017a | तानि शूलानि काकुत्स्थः समस्तानि चतुर्दश |
1154 | 3019017c | तावद्भिरेव चिच्छेद शरैः काञ्चनभूषणैः |
1155 | 3019018a | ततः पश्चान्महातेजा नाराचान्सूर्यसंनिभान् |
1156 | 3019018c | जग्राह परमक्रुद्धश्चतुर्दश शिलाशितान् |
1157 | 3019019a | गृहीत्वा धनुरायम्य लक्ष्यानुद्दिश्य राक्षसान् |
1158 | 3019019c | मुमोच राघवो बाणान्वज्रानिव शतक्रतुः |
1159 | 3019020a | रुक्मपुङ्खाश्च विशिखाः प्रदीप्ता हेमभूषणाः |
1160 | 3019020c | अन्तरिक्षे महोल्कानां बभूवुस्तुल्यवर्चसः |
1161 | 3019021a | ते भित्त्वा रक्षसां वेगाद्वक्षांसि रुधिराप्लुताः |
1162 | 3019021c | विनिष्पेतुस्तदा भूमौ न्यमज्जन्ताशनिस्वनाः |
1163 | 3019022a | ते भिन्नहृदया भूमौ छिन्नमूला इव द्रुमाः |
1164 | 3019022c | निपेतुः शोणितार्द्राङ्गा विकृता विगतासवः |
1165 | 3019023a | तान्भूमौ पतितान्दृष्ट्वा राक्षसी क्रोधमूर्छिता |
1166 | 3019023c | परित्रस्ता पुनस्तत्र व्यसृजद्भैरवं रवम् |
1167 | 3019024a | सा नदन्ती महानादं जवाच्छूर्पणखा पुनः |
1168 | 3019024c | उपगम्य खरं सा तु किंचित्संशुष्क शोणिता |
1169 | 3019024e | पपात पुनरेवार्ता सनिर्यासेव वल्लरी |
1170 | 3019025a | निपातितान्प्रेक्ष्य रणे तु राक्षसा;न्प्रधाविता शूर्पणखा पुनस्ततः |
1171 | 3019025c | वधं च तेषां निखिलेन रक्षसां; शशंस सर्वं भगिनी खरस्य सा |
1172 | 3020001a | स पुनः पतितां दृष्ट्वा क्रोधाच्छूर्पणखां खरः |
1173 | 3020001c | उवाच व्यक्तता वाचा तामनर्थार्थमागताम् |
1174 | 3020002a | मया त्विदानीं शूरास्ते राक्षसा रुधिराशनाः |
1175 | 3020002c | त्वत्प्रियार्थं विनिर्दिष्टाः किमर्थं रुद्यते पुनः |
1176 | 3020003a | भक्ताश्चैवानुरक्ताश्च हिताश्च मम नित्यशः |
1177 | 3020003c | घ्नन्तोऽपि न निहन्तव्या न न कुर्युर्वचो मम |
1178 | 3020004a | किमेतच्छ्रोतुमिच्छामि कारणं यत्कृते पुनः |
1179 | 3020004c | हा नाथेति विनर्दन्ती सर्पवद्वेष्टसे क्षितौ |
1180 | 3020005a | अनाथवद्विलपसि किं नु नाथे मयि स्थिते |
1181 | 3020005c | उत्तिष्ठोत्तिष्ठ मा भैषीर्वैक्लव्यं त्यज्यतामिह |
1182 | 3020006a | इत्येवमुक्ता दुर्धर्षा खरेण परिसान्त्विता |
1183 | 3020006c | विमृज्य नयने सास्रे खरं भ्रातरमब्रवीत् |
1184 | 3020007a | प्रेषिताश्च त्वया शूरा राक्षसास्ते चतुर्दश |
1185 | 3020007c | निहन्तुं राघवं घोरा मत्प्रियार्थं सलक्ष्मणम् |
1186 | 3020008a | ते तु रामेण सामर्षाः शूलपट्टिशपाणयः |
1187 | 3020008c | समरे निहताः सर्वे सायकैर्मर्मभेदिभिः |
1188 | 3020009a | तान्भूमौ पतितान्दृष्ट्वा क्षणेनैव महाबलान् |
1189 | 3020009c | रामस्य च महत्कर्म महांस्त्रासोऽभवन्मम |
1190 | 3020010a | सास्मि भीता समुद्विग्ना विषण्णा च निशाचर |
1191 | 3020010c | शरणं त्वां पुनः प्राप्ता सर्वतो भयदर्शिनी |
1192 | 3020011a | विषादनक्राध्युषिते परित्रासोर्मिमालिनि |
1193 | 3020011c | किं मां न त्रायसे मग्नां विपुले शोकसागरे |
1194 | 3020012a | एते च निहता भूमौ रामेण निशितैः शरैः |
1195 | 3020012c | ये च मे पदवीं प्राप्ता राक्षसाः पिशिताशनाः |
1196 | 3020013a | मयि ते यद्यनुक्रोशो यदि रक्षःसु तेषु च |
1197 | 3020013c | रामेण यदि शक्तिस्ते तेजो वास्ति निशाचर |
1198 | 3020013e | दण्डकारण्यनिलयं जहि राक्षसकण्टकम् |
1199 | 3020014a | यदि रामं ममामित्रमद्य त्वं न वधिष्यसि |
1200 | 3020014c | तव चैवाग्रतः प्राणांस्त्यक्ष्यामि निरपत्रपा |
1201 | 3020015a | बुद्ध्याहमनुपश्यामि न त्वं रामस्य संयुगे |
1202 | 3020015c | स्थातुं प्रतिमुखे शक्तः सचापस्य महारणे |
1203 | 3020016a | शूरमानी न शूरस्त्वं मिथ्यारोपितविक्रमः |
1204 | 3020016c | मानुषौ यन्न शक्नोषि हन्तुं तौ रामलक्ष्मणौ |
1205 | 3020017a | अपयाहि जनस्थानात्त्वरितः सहबान्धवः |
1206 | 3020017c | निःसत्त्वस्याल्पवीर्यस्य वासस्ते कीदृशस्त्विह |
1207 | 3020018a | रामतेजोऽभिभूतो हि त्वं क्षिप्रं विनशिष्यसि |
1208 | 3020018c | स हि तेजःसमायुक्तो रामो दशरथात्मजः |
1209 | 3020018e | भ्राता चास्य महावीर्यो येन चास्मि विरूपिता |
1210 | 3021001a | एवमाधर्षितः शूरः शूर्पणख्या खरस्तदा |
1211 | 3021001c | उवाच रक्षसां मध्ये खरः खरतरं वचः |
1212 | 3021002a | तवापमानप्रभवः क्रोधोऽयमतुलो मम |
1213 | 3021002c | न शक्यते धारयितुं लवणाम्भ इवोत्थितम् |
1214 | 3021003a | न रामं गणये वीर्यान्मानुषं क्षीणजीवितम् |
1215 | 3021003c | आत्मा दुश्चरितैः प्राणान्हतो योऽद्य विमोक्ष्यति |
1216 | 3021004a | बाष्पः संह्रियतामेष संभ्रमश्च विमुच्यताम् |
1217 | 3021004c | अहं रामः सह भ्रात्रा नयामि यमसादनम् |
1218 | 3021005a | परश्वधहतस्याद्य मन्दप्राणस्य भूतले |
1219 | 3021005c | रामस्य रुधिरं रक्तमुष्णं पास्यसि राक्षसि |
1220 | 3021006a | सा प्रहृष्ट्वा वचः श्रुत्वा खरस्य वदनाच्च्युतम् |
1221 | 3021006c | प्रशशंस पुनर्मौर्ख्याद्भ्रातरं रक्षसां वरम् |
1222 | 3021007a | तया परुषितः पूर्वं पुनरेव प्रशंसितः |
1223 | 3021007c | अब्रवीद्दूषणं नाम खरः सेनापतिं तदा |
1224 | 3021008a | चतुर्दश सहस्राणि मम चित्तानुवर्तिनाम् |
1225 | 3021008c | रक्षसीं भीमवेगानां समरेष्वनिवर्तिनाम् |
1226 | 3021009a | नीलजीमूतवर्णानां घोराणां क्रूरकर्मणाम् |
1227 | 3021009c | लोकसिंहाविहाराणां बलिनामुग्रतेजसाम् |
1228 | 3021010a | तेषां शार्दूलदर्पाणां महास्यानां महौजसाम् |
1229 | 3021010c | सर्वोद्योगमुदीर्णानां रक्षसां सौम्य कारय |
1230 | 3021011a | उपस्थापय मे क्षिप्रं रथं सौम्य धनूंषि च |
1231 | 3021011c | शरांश्च चित्रान्खड्गांश्च शक्तीश्च विविधाः शिताः |
1232 | 3021012a | अग्रे निर्यातुमिच्छामि पौलस्त्यानां महात्मनाम् |
1233 | 3021012c | वधार्थं दुर्विनीतस्य रामस्य रणकोविदः |
1234 | 3021013a | इति तस्य ब्रुवाणस्य सूर्यवर्णं महारथम् |
1235 | 3021013c | सदश्वैः शबलैर्युक्तमाचचक्षेऽथ दूषणः |
1236 | 3021014a | तं मेरुशिखराकारं तप्तकाञ्चनभूषणम् |
1237 | 3021014c | हेमचक्रमसंबाधं वैदूर्यमय कूबरम् |
1238 | 3021015a | मत्स्यैः पुष्पैर्द्रुमैः शैलैश्चन्द्रसूर्यैश्च काञ्चनैः |
1239 | 3021015c | माङ्गल्यैः पक्षिसंघैश्च ताराभिश्च समावृतम् |
1240 | 3021016a | ध्वजनिस्त्रिंशसंपन्नं किङ्किणीकविभूषितम् |
1241 | 3021016c | सदश्वयुक्तं सोऽमर्षादारुरोह रथं खरः |
1242 | 3021017a | निशाम्य तं रथगतं राक्षसा भीमविक्रमाः |
1243 | 3021017c | तस्थुः संपरिवार्यैनं दूषणं च महाबलम् |
1244 | 3021018a | खरस्तु तान्महेष्वासान्घोरचर्मायुधध्वजान् |
1245 | 3021018c | निर्यातेत्यब्रवीद्दृष्ट्वा रथस्थः सर्वराक्षसान् |
1246 | 3021019a | ततस्तद्राक्षसं सैन्यं घोरचर्मायुधध्वजम् |
1247 | 3021019c | निर्जगाम जनस्थानान्महानादं महाजवम् |
1248 | 3021020a | मुद्गरैः पट्टिशैः शूलैः सुतीक्ष्णैश्च परश्वधैः |
1249 | 3021020c | खड्गैश्चक्रैश्च हस्तस्थैर्भ्राजमानैश्च तोमरैः |
1250 | 3021021a | शक्तिभिः पतिघैर्घोरैरतिमात्रैश्च कार्मुकैः |
1251 | 3021021c | गदासिमुसलैर्वज्रैर्गृहीतैर्भीमदर्शनैः |
1252 | 3021022a | राक्षसानां सुघोराणां सहस्राणि चतुर्दश |
1253 | 3021022c | निर्यातानि जनस्थानात्खरचित्तानुवर्तिनाम् |
1254 | 3021023a | तांस्त्वभिद्रवतो दृष्ट्वा राक्षसान्भीमविक्रमान् |
1255 | 3021023c | खरस्यापि रथः किंचिज्जगाम तदनन्तरम् |
1256 | 3021024a | ततस्ताञ्शबलानश्वांस्तप्तकाञ्चनभूषितान् |
1257 | 3021024c | खरस्य मतमाज्ञाय सारथिः समचोदयत् |
1258 | 3021025a | स चोदितो रथः शीघ्रं खरस्य रिपुघातिनः |
1259 | 3021025c | शब्देनापूरयामास दिशश्च प्रतिशस्तथा |
1260 | 3021026a | प्रवृद्धमन्युस्तु खरः खरस्वनो; रिपोर्वधार्थं त्वरितो यथान्तकः |
1261 | 3021026c | अचूचुदत्सारथिमुन्नदन्पुन;र्महाबलो मेघ इवाश्मवर्षवान् |
1262 | 3022001a | तत्प्रयातं बलं घोरमशिवं शोणितोदकम् |
1263 | 3022001c | अभ्यवर्षन्महामेघस्तुमुलो गर्दभारुणः |
1264 | 3022002a | निपेतुस्तुरगास्तस्य रथयुक्ता महाजवाः |
1265 | 3022002c | समे पुष्पचिते देशे राजमार्गे यदृच्छया |
1266 | 3022003a | श्यामं रुधिरपर्यन्तं बभूव परिवेषणम् |
1267 | 3022003c | अलातचक्रप्रतिमं प्रतिगृह्य दिवाकरम् |
1268 | 3022004a | ततो ध्वजमुपागम्य हेमदण्डं समुच्छ्रितम् |
1269 | 3022004c | समाक्रम्य महाकायस्तस्थौ गृध्रः सुदारुणः |
1270 | 3022005a | जनस्थानसमीपे च समाक्रम्य खरस्वनाः |
1271 | 3022005c | विस्वरान्विविधांश्चक्रुर्मांसादा मृगपक्षिणः |
1272 | 3022006a | व्याजह्रुश्च पदीप्तायां दिशि वै भैरवस्वनम् |
1273 | 3022006c | अशिवा यातु दाहानां शिवा घोरा महास्वनाः |
1274 | 3022007a | प्रभिन्नगिरिसंकाशास्तोयशोषितधारिणः |
1275 | 3022007c | आकाशं तदनाकाशं चक्रुर्भीमा बलाहकाः |
1276 | 3022008a | बभूव तिमिरं घोरमुद्धतं रोमहर्षणम् |
1277 | 3022008c | दिशो वा विदिशो वापि सुव्यक्तं न चकाशिरे |
1278 | 3022009a | क्षतजार्द्रसवर्णाभा संध्याकालं विना बभौ |
1279 | 3022009c | खरस्याभिमुखं नेदुस्तदा घोरा मृगाः खगाः |
1280 | 3022010a | नित्याशिवकरा युद्धे शिवा घोरनिदर्शनाः |
1281 | 3022010c | नेदुर्बलस्याभिमुखं ज्वालोद्गारिभिराननैः |
1282 | 3022011a | कबन्धः परिघाभासो दृश्यते भास्करान्तिके |
1283 | 3022011c | जग्राह सूर्यं स्वर्भानुरपर्वणि महाग्रहः |
1284 | 3022012a | प्रवाति मारुतः शीघ्रं निष्प्रभोऽभूद्दिवाकरः |
1285 | 3022012c | उत्पेतुश्च विना रात्रिं ताराः खद्योतसप्रभाः |
1286 | 3022013a | संलीनमीनविहगा नलिन्यः पुष्पपङ्कजाः |
1287 | 3022013c | तस्मिन्क्षणे बभूवुश्च विना पुष्पफलैर्द्रुमाः |
1288 | 3022014a | उद्धूतश्च विना वातं रेणुर्जलधरारुणः |
1289 | 3022014c | वीचीकूचीति वाश्यन्तो बभूवुस्तत्र सारिकाः |
1290 | 3022015a | उल्काश्चापि सनिर्घोषा निपेतुर्घोरदर्शनाः |
1291 | 3022015c | प्रचचाल मही चापि सशैलवनकानना |
1292 | 3022016a | खरस्य च रथस्थस्य नर्दमानस्य धीमतः |
1293 | 3022016c | प्राकम्पत भुजः सव्यः खरश्चास्यावसज्जत |
1294 | 3022017a | सास्रा संपद्यते दृष्टिः पश्यमानस्य सर्वतः |
1295 | 3022017c | ललाटे च रुजा जाता न च मोहान्न्यवर्तत |
1296 | 3022018a | तान्समीक्ष्य महोत्पातानुत्थितान्रोमहर्षणान् |
1297 | 3022018c | अब्रवीद्राक्षसान्सर्वान्प्रहसन्स खरस्तदा |
1298 | 3022019a | महोत्पातानिमान्सर्वानुत्थितान्घोरदर्शनान् |
1299 | 3022019c | न चिन्तयाम्यहं वीर्याद्बलवान्दुर्बलानिव |
1300 | 3022020a | तारा अपि शरैस्तीक्ष्णैः पातयेयं नभस्तलात् |
1301 | 3022020c | मृत्युं मरणधर्मेण संक्रुद्धो योजयाम्यहम् |
1302 | 3022021a | राघवं तं बलोत्सिक्तं भ्रातरं चापि लक्ष्मणम् |
1303 | 3022021c | अहत्वा सायकैस्तीक्ष्णैर्नोपावर्तितुमुत्सहे |
1304 | 3022022a | सकामा भगिनी मेऽस्तु पीत्वा तु रुधिरं तयोः |
1305 | 3022022c | यन्निमित्तं तु रामस्य लक्ष्मणस्य विपर्ययः |
1306 | 3022023a | न क्वचित्प्राप्तपूर्वो मे संयुगेषु पराजयः |
1307 | 3022023c | युष्माकमेतत्प्रत्यक्षं नानृतं कथयाम्यहम् |
1308 | 3022024a | देवराजमपि क्रुद्धो मत्तैरावतयायिनम् |
1309 | 3022024c | वज्रहस्तं रणे हन्यां किं पुनस्तौ च मानुषौ |
1310 | 3022025a | सा तस्य गर्जितं श्रुत्वा राक्षसस्य महाचमूः |
1311 | 3022025c | प्रहर्षमतुलं लेभे मृत्युपाशावपाशिता |
1312 | 3022026a | समेयुश्च महात्मानो युद्धदर्शनकाङ्क्षिणः |
1313 | 3022026c | ऋषयो देवगन्धर्वाः सिद्धाश्च सह चारणैः |
1314 | 3022027a | समेत्य चोरुः सहितास्तेऽन्यायं पुण्यकर्मणः |
1315 | 3022027c | स्वस्ति गोब्राह्मणेभ्योऽस्तु लोकानां ये च संमताः |
1316 | 3022028a | जयतां राघवो युद्धे पौलस्त्यान्रजनीचरान् |
1317 | 3022028c | चक्रा हस्तो यथा युद्धे सर्वानसुरपुंगवान् |
1318 | 3022029a | एतच्चान्यच्च बहुशो ब्रुवाणाः परमर्षयः |
1319 | 3022029c | ददृशुर्वाहिनीं तेषां राक्षसानां गतायुषाम् |
1320 | 3022030a | रथेन तु खरो वेगात्सैन्यस्याग्राद्विनिःसृतः |
1321 | 3022030c | तं दृष्ट्वा राक्षसं भूयो राक्षसाश्च विनिःसृताः |
1322 | 3022031a | श्येन गामी पृथुग्रीवो यज्ञशत्रुर्विहंगमः |
1323 | 3022031c | दुर्जयः करवीराक्षः परुषः कालकार्मुकः |
1324 | 3022032a | मेघमाली महामाली सर्पास्यो रुधिराशनः |
1325 | 3022032c | द्वादशैते महावीर्याः प्रतस्थुरभितः खरम् |
1326 | 3022033a | महाकपालः स्थूलाक्षः प्रमाथी त्रिशिरास्तथा |
1327 | 3022033c | चत्वार एते सेनाग्र्या दूषणं पृष्ठतोऽन्वयुः |
1328 | 3022034a | सा भीमवेगा समराभिकामा; सुदारुणा राक्षसवीर सेना |
1329 | 3022034c | तौ राजपुत्रौ सहसाभ्युपेता; मालाग्रहाणामिव चन्द्रसूर्यौ |
1330 | 3023001a | आश्रमं प्रति याते तु खरे खरपराक्रमे |
1331 | 3023001c | तानेवौत्पातिकान्रामः सह भ्रात्रा ददर्श ह |
1332 | 3023002a | तानुत्पातान्महाघोरानुत्थितान्रोमहर्षणान् |
1333 | 3023002c | प्रजानामहितान्दृष्ट्वा वाक्यं लक्ष्मणमब्रवीत् |
1334 | 3023003a | इमान्पश्य महाबाहो सर्वभूतापहारिणः |
1335 | 3023003c | समुत्थितान्महोत्पातान्संहर्तुं सर्वराक्षसान् |
1336 | 3023004a | अमी रुधिरधारास्तु विसृजन्तः खरस्वनान् |
1337 | 3023004c | व्योम्नि मेघा विवर्तन्ते परुषा गर्दभारुणाः |
1338 | 3023005a | सधूमाश्च शराः सर्वे मम युद्धाभिनन्दिनः |
1339 | 3023005c | रुक्मपृष्ठानि चापानि विवेष्टन्ते च लक्ष्मण |
1340 | 3023006a | यादृशा इह कूजन्ति पक्षिणो वनचारिणः |
1341 | 3023006c | अग्रतो नो भयं प्राप्तं संशयो जीवितस्य च |
1342 | 3023007a | संप्रहारस्तु सुमहान्भविष्यति न संशयः |
1343 | 3023007c | अयमाख्याति मे बाहुः स्फुरमाणो मुहुर्मुहुः |
1344 | 3023008a | संनिकर्षे तु नः शूर जयं शत्रोः पराजयम् |
1345 | 3023008c | सुप्रभं च प्रसन्नं च तव वक्त्रं हि लक्ष्यते |
1346 | 3023009a | उद्यतानां हि युद्धार्थं येषां भवति लक्ष्मणः |
1347 | 3023009c | निष्प्रभं वदनं तेषां भवत्यायुः परिक्षयः |
1348 | 3023010a | अनागतविधानं तु कर्तव्यं शुभमिच्छता |
1349 | 3023010c | आपदं शङ्कमानेन पुरुषेण विपश्चिता |
1350 | 3023011a | तस्माद्गृहीत्वा वैदेहीं शरपाणिर्धनुर्धरः |
1351 | 3023011c | गुहामाश्रयशैलस्य दुर्गां पादपसंकुलाम् |
1352 | 3023012a | प्रतिकूलितुमिच्छामि न हि वाक्यमिदं त्वया |
1353 | 3023012c | शापितो मम पादाभ्यां गम्यतां वत्स माचिरम् |
1354 | 3023013a | एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मणः सह सीतया |
1355 | 3023013c | शरानादाय चापं च गुहां दुर्गां समाश्रयत् |
1356 | 3023014a | तस्मिन्प्रविष्टे तु गुहां लक्ष्मणे सह सीतया |
1357 | 3023014c | हन्त निर्युक्तमित्युक्त्वा रामः कवचमाविशत् |
1358 | 3023015a | सा तेनाग्निनिकाशेन कवचेन विभूषितः |
1359 | 3023015c | बभूव रामस्तिमिरे विधूमोऽग्निरिवोत्थितः |
1360 | 3023016a | स चापमुद्यम्य महच्छरानादाय वीर्यवान् |
1361 | 3023016c | बभूवावस्थितस्तत्र ज्यास्वनैः पूरयन्दिशः |
1362 | 3023017a | ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च सह चारणैः |
1363 | 3023017c | ऊचुः परमसंत्रस्ता गुह्यकाश्च परस्परम् |
1364 | 3023018a | चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम् |
1365 | 3023018c | एकश्च रामो धर्मात्मा कथं युद्धं भविष्यति |
1366 | 3023019a | ततो गम्भीरनिर्ह्रादं घोरवर्मायुधध्वजम् |
1367 | 3023019c | अनीकं यातुधानानां समन्तात्प्रत्यदृश्यत |
1368 | 3023020a | सिंहनादं विसृजतामन्योन्यमभिगर्जताम् |
1369 | 3023020c | चापानि विस्फरयतां जृम्भतां चाप्यभीक्ष्णशः |
1370 | 3023021a | विप्रघुष्टस्वनानां च दुन्दुभींश्चापि निघ्नताम् |
1371 | 3023021c | तेषां सुतुमुलः शब्दः पूरयामास तद्वनम् |
1372 | 3023022a | तेन शब्देन वित्रस्ताः श्वापदा वनचारिणः |
1373 | 3023022c | दुद्रुवुर्यत्र निःशब्दं पृष्ठतो नावलोकयन् |
1374 | 3023023a | तत्त्वनीकं महावेगं रामं समुपसर्पत |
1375 | 3023023c | घृतनानाप्रहरणं गम्भीरं सागरोपमम् |
1376 | 3023024a | रामोऽपि चारयंश्चक्षुः सर्वतो रणपण्डितः |
1377 | 3023024c | ददर्श खरसैन्यं तद्युद्धाभिमुखमुद्यतम् |
1378 | 3023025a | वितत्य च धनुर्भीमं तूण्याश्चोद्धृत्य सायकान् |
1379 | 3023025c | क्रोधमाहारयत्तीव्रं वधार्थं सर्वरक्षसाम् |
1380 | 3023026a | दुष्प्रेक्ष्यः सोऽभवत्क्रुद्धो युगान्ताग्निरिव ज्वलन् |
1381 | 3023026c | तं दृष्ट्वा तेजसाविष्टं प्राव्यथन्वनदेवताः |
1382 | 3023027a | तस्य क्रुद्धस्य रूपं तु रामस्य ददृशे तदा |
1383 | 3023027c | दक्षस्येव क्रतुं हन्तुमुद्यतस्य पिनाकिनः |
1384 | 3024001a | अवष्टब्धधनुं रामं क्रुद्धं च रिपुघातिनम् |
1385 | 3024001c | ददर्शाश्रममागम्य खरः सह पुरःसरैः |
1386 | 3024002a | तं दृष्ट्वा सगुणं चापमुद्यम्य खरनिःस्वनम् |
1387 | 3024002c | रामस्याभिमुखं सूतं चोद्यतामित्यचोदयत् |
1388 | 3024003a | स खरस्याज्ञया सूतस्तुरगान्समचोदयत् |
1389 | 3024003c | यत्र रामो महाबाहुरेको धुन्वन्धनुः स्थितः |
1390 | 3024004a | तं तु निष्पतितं दृष्ट्वा सर्वे ते रजनीचराः |
1391 | 3024004c | नर्दमाना महानादं सचिवाः पर्यवारयन् |
1392 | 3024005a | स तेषां यातुधानानां मध्ये रतो गतः खरः |
1393 | 3024005c | बभूव मध्ये ताराणां लोहिताङ्ग इवोदितः |
1394 | 3024006a | ततस्तं भीमधन्वानं क्रुद्धाः सर्वे निशाचराः |
1395 | 3024006c | रामं नानाविधैः शस्त्रैरभ्यवर्षन्त दुर्जयम् |
1396 | 3024007a | मुद्गरैरायसैः शूलैः प्रासैः खड्गैः परश्वधैः |
1397 | 3024007c | राक्षसाः समरे रामं निजघ्नू रोषतत्पराः |
1398 | 3024008a | ते बलाहकसंकाशा महानादा महाबलाः |
1399 | 3024008c | अभ्यधावन्त काकुत्स्थं रामं युद्धे जिघांसवः |
1400 | 3024009a | ते रामे शरवर्षाणि व्यसृजन्रक्षसां गुणाः |
1401 | 3024009c | शैलेन्द्रमिव धाराभिर्वर्षमाणा महाधनाः |
1402 | 3024010a | स तैः परिवृतो घोरै राघवो रक्षसां गणैः |
1403 | 3024010c | तिथिष्विव महादेवो वृतः पारिषदां गणैः |
1404 | 3024011a | तानि मुक्तानि शस्त्राणि यातुधानैः स राघवः |
1405 | 3024011c | प्रतिजग्राह विशिखैर्नद्योघानिव सागरः |
1406 | 3024012a | स तैः प्रहरणैर्घोरैर्भिन्नगात्रो न विव्यथे |
1407 | 3024012c | रामः प्रदीप्तैर्बहुभिर्वज्रैरिव महाचलः |
1408 | 3024013a | स विद्धः क्षतजादिग्धः सर्वगात्रेषु राघवः |
1409 | 3024013c | बभूव रामः संध्याभ्रैर्दिवाकर इवावृतः |
1410 | 3024014a | विषेदुर्देवगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः |
1411 | 3024014c | एकं सहस्त्रैर्बहुभिस्तदा दृष्ट्वा समावृतम् |
1412 | 3024015a | ततो रामः सुसंक्रुद्धो मण्डलीकृतकार्मुकः |
1413 | 3024015c | ससर्ज निशितान्बाणाञ्शतशोऽथ सहस्रशः |
1414 | 3024016a | दुरावारान्दुर्विषहान्कालपाशोपमान्रणे |
1415 | 3024016c | मुमोच लीलया रामः कङ्कपत्रानजिह्मगान् |
1416 | 3024017a | ते शराः शत्रुसैन्येषु मुक्ता रामेण लीलया |
1417 | 3024017c | आददू रक्षसां प्राणान्पाशाः कालकृता इव |
1418 | 3024018a | भित्त्वा राक्षसदेहांस्तांस्ते शरा रुधिराप्लुताः |
1419 | 3024018c | अन्तरिक्षगता रेजुर्दीप्ताग्निसमतेजसः |
1420 | 3024019a | असंख्येयास्तु रामस्य सायकाश्चापमण्डलात् |
1421 | 3024019c | विनिष्पेतुरतीवोग्रा रक्षः प्राणापहारिणः |
1422 | 3024020a | तैर्धनूंषि ध्वजाग्राणि वर्माणि च शिरांसि च |
1423 | 3024020c | बहून्सहस्ताभरणानूरून्करिकरोपमान् |
1424 | 3024021a | ततो नालीकनाराचैस्तीक्ष्णाग्रैश्च विकर्णिभिः |
1425 | 3024021c | भीममार्तस्वरं चक्रुर्भिद्यमाना निशाचराः |
1426 | 3024022a | तत्सैन्यं निशितैर्बाणैरर्दितं मर्मभेदिभिः |
1427 | 3024022c | रामेण न सुखं लेभे शुष्कं वनमिवाग्निना |
1428 | 3024023a | केचिद्भीमबलाः शूराः शूलान्खड्गान्परश्वधान् |
1429 | 3024023c | चिक्षिपुः परमक्रुद्धा रामाय रजनीचराः |
1430 | 3024024a | तानि बाणैर्महाबाहुः शस्त्राण्यावार्य राघवः |
1431 | 3024024c | जहार समरे प्राणांश्चिच्छेद च शिरोधरान् |
1432 | 3024025a | अवशिष्टाश्च ये तत्र विषण्णाश्च निशाचराः |
1433 | 3024025c | खरमेवाभ्यधावन्त शरणार्थं शरार्दिताः |
1434 | 3024026a | तान्सर्वान्पुनरादाय समाश्वास्य च दूषणः |
1435 | 3024026c | अभ्यधावत काकुत्स्थं क्रुद्धो रुद्रमिवान्तकः |
1436 | 3024027a | निवृत्तास्तु पुनः सर्वे दूषणाश्रयनिर्भयाः |
1437 | 3024027c | राममेवाभ्यधावन्त सालतालशिलायुधाः |
1438 | 3024028a | तद्बभूवाद्भुतं युद्धं तुमुलं रोमहर्षणम् |
1439 | 3024028c | रामस्यास्य महाघोरं पुनस्तेषां च रक्षसाम् |
1440 | 3025001a | तद्द्रुमाणां शिलानां च वर्षं प्राणहरं महत् |
1441 | 3025001c | प्रतिजग्राह धर्मात्मा राघवस्तीक्ष्णसायकैः |
1442 | 3025002a | प्रतिगृह्य च तद्वरं निमीलित इवर्षभः |
1443 | 3025002c | रामः क्रोधं परं भेजे वधार्थं सर्वरक्षसाम् |
1444 | 3025003a | ततः क्रोधसमाविष्टः प्रदीप्त इव तेजसा |
1445 | 3025003c | शरैरभ्यकिरत्सैन्यं सर्वतः सहदूषणम् |
1446 | 3025004a | ततः सेनापतिः क्रुद्धो दूषणः शत्रुदूषणः |
1447 | 3025004c | जग्राह गिरिशृङ्गाभं परिघं रोमहर्षणम् |
1448 | 3025005a | वेष्टितं काञ्चनैः पट्टैर्देवसैन्याभिमर्दनम् |
1449 | 3025005c | आयसैः शङ्कुभिस्तीक्ष्णैः कीर्णं परवसोक्षिताम् |
1450 | 3025006a | वज्राशनिसमस्पर्शं परगोपुरदारणम् |
1451 | 3025006c | तं महोरगसंकाशं प्रगृह्य परिघं रणे |
1452 | 3025006e | दूषणोऽभ्यपतद्रामं क्रूरकर्मा निशाचरः |
1453 | 3025007a | तस्याभिपतमानस्य दूषणस्य स राघवः |
1454 | 3025007c | द्वाभ्यां शराभ्यां चिच्छेद सहस्ताभरणौ भुजौ |
1455 | 3025008a | भ्रष्टस्तस्य महाकायः पपात रणमूर्धनि |
1456 | 3025008c | परिघश्छिन्नहस्तस्य शक्रध्वज इवाग्रतः |
1457 | 3025009a | स कराभ्यां विकीर्णाभ्यां पपात भुवि दूषणः |
1458 | 3025009c | विषाणाभ्यां विशीर्णाभ्यां मनस्वीव महागजः |
1459 | 3025010a | दृष्ट्वा तं पतितं भूमौ दूषणं निहतं रणे |
1460 | 3025010c | साधु साध्विति काकुत्स्थं सर्वभूतान्यपूजयन् |
1461 | 3025011a | एतस्मिन्नन्तरे क्रुद्धास्त्रयः सेनाग्रयायिनः |
1462 | 3025011c | संहत्याभ्यद्रवन्रामं मृत्युपाशावपाशिताः |
1463 | 3025011e | महाकपालः स्थूलाक्षः प्रमाथी च महाबलः |
1464 | 3025012a | महाकपालो विपुलं शूलमुद्यम्य राक्षसः |
1465 | 3025012c | स्थूलाक्षः पट्टिशं गृह्य प्रमाथी च परश्वधम् |
1466 | 3025013a | दृष्ट्वैवापततस्तांस्तु राघवः सायकैः शितैः |
1467 | 3025013c | तीक्ष्णाग्रैः प्रतिजग्राह संप्राप्तानतिथीनिव |
1468 | 3025014a | महाकपालस्य शिरश्चिच्छेद रघुनङ्गनः |
1469 | 3025014c | असंख्येयैस्तु बाणौघैः प्रममाथ प्रमाथिनम् |
1470 | 3025015a | स्थूलाक्षस्याक्षिणी तीक्ष्णैः पूरयामास सायकैः |
1471 | 3025015c | स पपात हतो भूमौ विटपीव महाद्रुमः |
1472 | 3025016a | ततः पावकसंकाशैर्हेमवज्रविभूषितैः |
1473 | 3025016c | जघनशेषं तेजस्वी तस्य सैन्यस्य सायकैः |
1474 | 3025017a | ते रुक्मपुङ्खा विशिखाः सधूमा इव पावकाः |
1475 | 3025017c | निजघ्नुस्तानि रक्षांसि वज्रा इव महाद्रुमान् |
1476 | 3025018a | रक्षसां तु शतं रामः शतेनैकेन कर्णिना |
1477 | 3025018c | सहस्रं च सहस्रेण जघान रणमूर्धनि |
1478 | 3025019a | तैर्भिन्नवर्माभरणाश्छिन्नभिन्नशरासनाः |
1479 | 3025019c | निपेतुः शोणितादिग्धा धरण्यां रजनीचराः |
1480 | 3025020a | तैर्मुक्तकेशैः समरे पतितैः शोणितोक्षितैः |
1481 | 3025020c | आस्तीर्णा वसुधा कृत्स्ना महावेदिः कुशैरिव |
1482 | 3025021a | क्षणेन तु महाघोरं वनं निहतराक्षसं |
1483 | 3025021c | बभूव निरय प्रख्यं मांसशोणितकर्दमम् |
1484 | 3025022a | चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम् |
1485 | 3025022c | हतान्येकेन रामेण मानुषेण पदातिना |
1486 | 3025023a | तस्य सैन्यस्य सर्वस्य खरः शेषो महारथः |
1487 | 3025023c | राक्षसस्त्रिशिराश्चैव रामश्च रिपुसूदनः |
1488 | 3025024a | ततस्तु तद्भीमबलं महाहवे; समीक्ष्य रामेण हतं बलीयसा |
1489 | 3025024c | रथेन रामं महता खरस्ततः; समाससादेन्द्र इवोद्यताशनिः |
1490 | 3026001a | खरं तु रामाभिमुखं प्रयान्तं वाहिनीपतिः |
1491 | 3026001c | राक्षसस्त्रिशिरा नाम संनिपत्येदमब्रवीत् |
1492 | 3026002a | मां नियोजय विक्रान्त संनिवर्तस्व साहसात् |
1493 | 3026002c | पश्य रामं महाबाहुं संयुगे विनिपातितम् |
1494 | 3026003a | प्रतिजानामि ते सत्यमायुधं चाहमालभे |
1495 | 3026003c | यथा रामं वधिष्यामि वधार्हं सर्वरक्षसाम् |
1496 | 3026004a | अहं वास्य रणे मृत्युरेष वा समरे मम |
1497 | 3026004c | विनिवर्त्य रणोत्साहं मुहूर्तं प्राश्निको भव |
1498 | 3026005a | प्रहृष्टो वा हते रामे जनस्थानं प्रयास्यसि |
1499 | 3026005c | मयि वा निहते रामं संयुगायोपयास्यसि |
1500 | 3026006a | खरस्त्रिशिरसा तेन मृत्युलोभात्प्रसादितः |
1501 | 3026006c | गच्छ युध्येत्यनुज्ञातो राघवाभिमुखो ययौ |
1502 | 3026007a | त्रिशिराश्च रथेनैव वाजियुक्तेन भास्वता |
1503 | 3026007c | अभ्यद्रवद्रणे रामं त्रिशृङ्ग इव पर्वतः |
1504 | 3026008a | शरधारा समूहान्स महामेघ इवोत्सृजन् |
1505 | 3026008c | व्यसृजत्सदृशं नादं जलार्द्रस्येव दुन्दुभेः |
1506 | 3026009a | आगच्छन्तं त्रिशिरसं राक्षसं प्रेक्ष्य राघवः |
1507 | 3026009c | धनुषा प्रतिजग्राह विधुन्वन्सायकाञ्शितान् |
1508 | 3026010a | स संप्रहारस्तुमुलो राम त्रिशिरसोर्महान् |
1509 | 3026010c | बभूवातीव बलिनोः सिंहकुञ्जरयोरिव |
1510 | 3026011a | ततस्त्रिशिरसा बाणैर्ललाटे ताडितस्त्रिभिः |
1511 | 3026011c | अमर्षी कुपितो रामः संरब्धमिदमब्रवीत् |
1512 | 3026012a | अहो विक्रमशूरस्य राक्षसस्येदृशं बलम् |
1513 | 3026012c | पुष्पैरिव शरैर्यस्य ललाटेऽस्मि परिक्षतः |
1514 | 3026012e | ममापि प्रतिगृह्णीष्व शरांश्चापगुणच्युतान् |
1515 | 3026013a | एवमुक्त्वा तु संरब्धः शरानाशीविषोपमान् |
1516 | 3026013c | त्रिशिरो वक्षसि क्रुद्धो निजघान चतुर्दश |
1517 | 3026014a | चतुर्भिस्तुरगानस्य शरैः संनतपर्वभिः |
1518 | 3026014c | न्यपातयत तेजस्वी चतुरस्तस्य वाजिनः |
1519 | 3026015a | अष्टभिः सायकैः सूतं रथोपस्थे न्यपातयत् |
1520 | 3026015c | रामश्चिच्छेद बाणेन ध्वजं चास्य समुच्छ्रितम् |
1521 | 3026016a | ततो हतरथात्तस्मादुत्पतन्तं निशाचरम् |
1522 | 3026016c | बिभेद रामस्तं बाणैर्हृदये सोऽभवज्जडः |
1523 | 3026017a | सायकैश्चाप्रमेयात्मा सामर्षस्तस्य रक्षसः |
1524 | 3026017c | शिरांस्यपातयत्त्रीणि वेगवद्भिस्त्रिभिः शतैः |
1525 | 3026018a | स भूमौ शोणितोद्गारी रामबाणाभिपीडितः |
1526 | 3026018c | न्यपतत्पतितैः पूर्वं स्वशिरोभिर्निशाचरः |
1527 | 3026019a | हतशेषास्ततो भग्ना राक्षसाः खरसंश्रयाः |
1528 | 3026019c | द्रवन्ति स्म न तिष्ठन्ति व्याघ्रत्रस्ता मृगा इव |
1529 | 3026020a | तान्खरो द्रवतो दृष्ट्वा निवर्त्य रुषितः स्वयम् |
1530 | 3026020c | राममेवाभिदुद्राव राहुश्चन्द्रमसं यथा |
1531 | 3027001a | निहतं दूषणं दृष्ट्वा रणे त्रिशिरसा सह |
1532 | 3027001c | खरस्याप्यभवत्त्रासो दृष्ट्वा रामस्य विक्रमम् |
1533 | 3027002a | स दृष्ट्वा राक्षसं सैन्यमविषह्यं महाबलम् |
1534 | 3027002c | हतमेकेन रामेण दूषणस्त्रिशिरा अपि |
1535 | 3027003a | तद्बलं हतभूयिष्ठं विमनाः प्रेक्ष्य राक्षसः |
1536 | 3027003c | आससाद खरो रामं नमुचिर्वासवं यथा |
1537 | 3027004a | विकृष्य बलवच्चापं नाराचान्रक्तभोजनान् |
1538 | 3027004c | खरश्चिक्षेप रामाय क्रुद्धानाशीविषानिव |
1539 | 3027005a | ज्यां विधुन्वन्सुबहुशः शिक्षयास्त्राणि दर्शयन् |
1540 | 3027005c | चचार समरे मार्गाञ्शरै रथगतः खरः |
1541 | 3027006a | स सर्वाश्च दिशो बाणैः प्रदिशश्च महारथः |
1542 | 3027006c | पूरयामास तं दृष्ट्वा रामोऽपि सुमहद्धनुः |
1543 | 3027007a | स सायकैर्दुर्विषहैः सस्फुलिङ्गैरिवाग्निभिः |
1544 | 3027007c | नभश्चकाराविवरं पर्जन्य इव वृष्टिभिः |
1545 | 3027008a | तद्बभूव शितैर्बाणैः खररामविसर्जितैः |
1546 | 3027008c | पर्याकाशमनाकाशं सर्वतः शरसंकुलम् |
1547 | 3027009a | शरजालावृतः सूर्यो न तदा स्म प्रकाशते |
1548 | 3027009c | अन्योन्यवधसंरम्भादुभयोः संप्रयुध्यतोः |
1549 | 3027010a | ततो नालीकनाराचैस्तीक्ष्णाग्रैश्च विकर्णिभिः |
1550 | 3027010c | आजघान रणे रामं तोत्रैरिव महाद्विपम् |
1551 | 3027011a | तं रथस्थं धनुष्पाणिं राक्षसं पर्यवस्थितम् |
1552 | 3027011c | ददृशुः सर्वभूतानि पाशहस्तमिवान्तकम् |
1553 | 3027012a | तं सिंहमिव विक्रान्तं सिंहविक्रान्तगामिनम् |
1554 | 3027012c | दृष्ट्वा नोद्विजते रामः सिंहः क्षुद्रमृगं यथा |
1555 | 3027013a | ततः सूर्यनिकाशेन रथेन महता खरः |
1556 | 3027013c | आससाद रणे रामं पतङ्ग इव पावकम् |
1557 | 3027014a | ततोऽस्य सशरं चापं मुष्टिदेशे महात्मनः |
1558 | 3027014c | खरश्चिच्छेद रामस्य दर्शयन्पाणिलाघवम् |
1559 | 3027015a | स पुनस्त्वपरान्सप्त शरानादाय वर्मणि |
1560 | 3027015c | निजघान रणे क्रुद्धः शक्राशनिसमप्रभान् |
1561 | 3027016a | ततस्तत्प्रहतं बाणैः खरमुक्तैः सुपर्वभिः |
1562 | 3027016c | पपात कवचं भूमौ रामस्यादित्यवर्चसः |
1563 | 3027017a | स शरैरर्पितः क्रुद्धः सर्वगात्रेषु राघवः |
1564 | 3027017c | रराज समरे रामो विधूमोऽग्निरिव ज्वलन् |
1565 | 3027018a | ततो गम्भीरनिर्ह्रादं रामः शत्रुनिबर्हणः |
1566 | 3027018c | चकारान्ताय स रिपोः सज्यमन्यन्महद्धनुः |
1567 | 3027019a | सुमहद्वैष्णवं यत्तदतिसृष्टं महर्षिणा |
1568 | 3027019c | वरं तद्धनुरुद्यम्य खरं समभिधावत |
1569 | 3027020a | ततः कनकपुङ्खैस्तु शरैः संनतपर्वभिः |
1570 | 3027020c | चिच्छेद रामः संक्रुद्धः खरस्य समरे ध्वजम् |
1571 | 3027021a | स दर्शनीयो बहुधा विच्छिन्नः काञ्चनो ध्वजः |
1572 | 3027021c | जगाम धरणीं सूर्यो देवतानामिवाज्ञया |
1573 | 3027022a | तं चतुर्भिः खरः क्रुद्धो रामं गात्रेषु मार्गणैः |
1574 | 3027022c | विव्याध हृदि मर्मज्ञो मातङ्गमिव तोमरैः |
1575 | 3027023a | स रामो बहुभिर्बाणैः खरकार्मुकनिःसृतैः |
1576 | 3027023c | विद्धो रुधिरसिक्ताङ्गो बभूव रुषितो भृशम् |
1577 | 3027024a | स धनुर्धन्विनां श्रेष्ठः प्रगृह्य परमाहवे |
1578 | 3027024c | मुमोच परमेष्वासः षट्शरानभिलक्षितान् |
1579 | 3027025a | शिरस्येकेन बाणेन द्वाभ्यां बाह्वोरथार्पयत् |
1580 | 3027025c | त्रिभिश्चन्द्रार्धवक्त्रैश्च वक्षस्यभिजघान ह |
1581 | 3027026a | ततः पश्चान्महातेजा नाराचान्भास्करोपमान् |
1582 | 3027026c | जिघांसू राक्षसं क्रुद्धस्त्रयोदश शिलाशितान् |
1583 | 3027027a | ततोऽस्य युगमेकेन चतुर्भिश्चतुरो हयान् |
1584 | 3027027c | षष्ठेन च शिरः संख्ये चिच्छेद खरसारथेः |
1585 | 3027028a | त्रिभिस्त्रिवेणुं बलवान्द्वाभ्यामक्षं महाबलः |
1586 | 3027028c | द्वादशेन तु बाणेन खरस्य सशरं धनुः |
1587 | 3027028e | छित्त्वा वज्रनिकाशेन राघवः प्रहसन्निव |
1588 | 3027028g | त्रयोदशेनेन्द्रसमो बिभेद समरे खरम् |
1589 | 3027029a | प्रभग्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः |
1590 | 3027029c | गदापाणिरवप्लुत्य तस्थौ भूमौ खरस्तदा |
1591 | 3027030a | तत्कर्म रामस्य महारथस्य; समेत्य देवाश्च महर्षयश्च |
1592 | 3027030c | अपूजयन्प्राञ्जलयः प्रहृष्टा;स्तदा विमानाग्रगताः समेताः |
1593 | 3028001a | खरं तु विरथं रामो गदापाणिमवस्थितम् |
1594 | 3028001c | मृदुपूर्वं महातेजाः परुषं वाक्यमब्रवीत् |
1595 | 3028002a | गजाश्वरथसंबाधे बले महति तिष्ठता |
1596 | 3028002c | कृतं सुदारुणं कर्म सर्वलोकजुगुप्सितम् |
1597 | 3028003a | उद्वेजनीयो भूतानां नृशंसः पापकर्मकृत् |
1598 | 3028003c | त्रयाणामपि लोकानामीश्वरोऽपि न तिष्ठति |
1599 | 3028004a | कर्म लोकविरुद्धं तु कुर्वाणं क्षणदाचर |
1600 | 3028004c | तीक्ष्णं सर्वजनो हन्ति सर्पं दुष्टमिवागतम् |
1601 | 3028005a | लोभात्पापानि कुर्वाणः कामाद्वा यो न बुध्यते |
1602 | 3028005c | भ्रष्टः पश्यति तस्यान्तं ब्राह्मणी करकादिव |
1603 | 3028006a | वसतो दण्डकारण्ये तापसान्धर्मचारिणः |
1604 | 3028006c | किं नु हत्वा महाभागान्फलं प्राप्स्यसि राक्षस |
1605 | 3028007a | न चिरं पापकर्माणः क्रूरा लोकजुगुप्सिताः |
1606 | 3028007c | ऐश्वर्यं प्राप्य तिष्ठन्ति शीर्णमूला इव द्रुमाः |
1607 | 3028008a | अवश्यं लभते कर्ता फलं पापस्य कर्मणः |
1608 | 3028008c | घोरं पर्यागते काले द्रुमः पुष्पमिवार्तवम् |
1609 | 3028009a | नचिरात्प्राप्यते लोके पापानां कर्मणां फलम् |
1610 | 3028009c | सविषाणामिवान्नानां भुक्तानां क्षणदाचर |
1611 | 3028010a | पापमाच्चरतां घोरं लोकस्याप्रियमिच्छताम् |
1612 | 3028010c | अहमासादितो राजा प्राणान्हन्तुं निशाचर |
1613 | 3028011a | अद्य हि त्वां मया मुक्ताः शराः काञ्चनभूषणाः |
1614 | 3028011c | विदार्य निपतिष्यन्ति वल्मीकमिव पन्नगाः |
1615 | 3028012a | ये त्वया दण्डकारण्ये भक्षिता धर्मचारिणः |
1616 | 3028012c | तानद्य निहतः संख्ये ससैन्योऽनुगमिष्यसि |
1617 | 3028013a | अद्य त्वां निहतं बाणैः पश्यन्तु परमर्षयः |
1618 | 3028013c | निरयस्थं विमानस्था ये त्वया हिंसिताः पुरा |
1619 | 3028014a | प्रहर त्वं यथाकामं कुरु यत्नं कुलाधम |
1620 | 3028014c | अद्य ते पातयिष्यामि शिरस्तालफलं यथा |
1621 | 3028015a | एवमुक्तस्तु रामेण क्रुद्धः संरक्तलोचनः |
1622 | 3028015c | प्रत्युवाच ततो रामं प्रहसन्क्रोधमूर्छितः |
1623 | 3028016a | प्राकृतान्राक्षसान्हत्वा युद्धे दशरथात्मज |
1624 | 3028016c | आत्मना कथमात्मानमप्रशस्यं प्रशंससि |
1625 | 3028017a | विक्रान्ता बलवन्तो वा ये भवन्ति नरर्षभाः |
1626 | 3028017c | कथयन्ति न ते किंचित्तेजसा स्वेन गर्विताः |
1627 | 3028018a | प्राकृतास्त्वकृतात्मानो लोके क्षत्रियपांसनाः |
1628 | 3028018c | निरर्थकं विकत्थन्ते यथा राम विकत्थसे |
1629 | 3028019a | कुलं व्यपदिशन्वीरः समरे कोऽभिधास्यति |
1630 | 3028019c | मृत्युकाले हि संप्राप्ते स्वयमप्रस्तवे स्तवम् |
1631 | 3028020a | सर्वथा तु लघुत्वं ते कत्थनेन विदर्शितम् |
1632 | 3028020c | सुवर्णप्रतिरूपेण तप्तेनेव कुशाग्निना |
1633 | 3028021a | न तु मामिह तिष्ठन्तं पश्यसि त्वं गदाधरम् |
1634 | 3028021c | धराधरमिवाकम्प्यं पर्वतं धातुभिश्चितम् |
1635 | 3028022a | पर्याप्तोऽहं गदापाणिर्हन्तुं प्राणान्रणे तव |
1636 | 3028022c | त्रयाणामपि लोकानां पाशहस्त इवान्तकः |
1637 | 3028023a | कामं बह्वपि वक्तव्यं त्वयि वक्ष्यामि न त्वहम् |
1638 | 3028023c | अस्तं गच्छेद्धि सविता युद्धविघ्रस्ततो भवेत् |
1639 | 3028024a | चतुर्दश सहस्राणि राक्षसानां हतानि ते |
1640 | 3028024c | त्वद्विनाशात्करोम्यद्य तेषामश्रुप्रमार्जनम् |
1641 | 3028025a | इत्युक्त्वा परमक्रुद्धस्तां गदां परमाङ्गदाम् |
1642 | 3028025c | खरश्चिक्षेप रामाय प्रदीप्तामशनिं यथा |
1643 | 3028026a | खरबाहुप्रमुक्ता सा प्रदीप्ता महती गदा |
1644 | 3028026c | भस्मवृक्षांश्च गुल्मांश्च कृत्वागात्तत्समीपतः |
1645 | 3028027a | तामापतन्तीं ज्वलितां मृत्युपाशोपमां गदा |
1646 | 3028027c | अन्तरिक्षगतां रामश्चिच्छेद बहुधा शरैः |
1647 | 3028028a | सा विशीर्णा शरैर्भिन्ना पपात धरणीतले |
1648 | 3028028c | गदामन्त्रौषधिबलैर्व्यालीव विनिपातिता |
1649 | 3029001a | भित्त्वा तु तां गदां बाणै राघवो धर्मवत्सलः |
1650 | 3029001c | स्मयमानः खरं वाक्यं संरब्धमिदमब्रवीत् |
1651 | 3029002a | एतत्ते बलसर्वस्वं दर्शितं राक्षसाधम |
1652 | 3029002c | शक्तिहीनतरो मत्तो वृथा त्वमुपगर्जितम् |
1653 | 3029003a | एषा बाणविनिर्भिन्ना गदा भूमितलं गता |
1654 | 3029003c | अभिधानप्रगल्भस्य तव प्रत्ययघातिनी |
1655 | 3029004a | यत्त्वयोक्तं विनष्टानामिदमश्रुप्रमार्जनम् |
1656 | 3029004c | राक्षसानां करोमीति मिथ्या तदपि ते वचः |
1657 | 3029005a | नीचस्य क्षुद्रशीलस्य मिथ्यावृत्तस्य रक्षसः |
1658 | 3029005c | प्राणानपहरिष्यामि गरुत्मानमृतं यथा |
1659 | 3029006a | अद्य ते भिन्नकण्ठस्य फेनबुद्बुदभूषितम् |
1660 | 3029006c | विदारितस्य मद्बाणैर्मही पास्यति शोणितम् |
1661 | 3029007a | पांसुरूषितसर्वाङ्गः स्रस्तन्यस्तभुजद्वयः |
1662 | 3029007c | स्वप्स्यसे गां समाश्लिष्य दुर्लभां प्रमदामिव |
1663 | 3029008a | प्रवृद्धनिद्रे शयिते त्वयि राक्षसपांसने |
1664 | 3029008c | भविष्यन्त्यशरण्यानां शरण्या दण्डका इमे |
1665 | 3029009a | जनस्थाने हतस्थाने तव राक्षसमच्छरैः |
1666 | 3029009c | निर्भया विचरिष्यन्ति सर्वतो मुनयो वने |
1667 | 3029010a | अद्य विप्रसरिष्यन्ति राक्षस्यो हतबान्धवाः |
1668 | 3029010c | बाष्पार्द्रवदना दीना भयादन्यभयावहाः |
1669 | 3029011a | अद्य शोकरसज्ञास्ता भविष्यन्ति निशाचर |
1670 | 3029011c | अनुरूपकुलाः पत्न्यो यासां त्वं पतिरीदृशः |
1671 | 3029012a | नृशंसशील क्षुद्रात्मन्नित्यं ब्राह्मणकण्टक |
1672 | 3029012c | त्वत्कृते शङ्कितैरग्नौ मुनिभिः पात्यते हविः |
1673 | 3029013a | तमेवमभिसंरब्धं ब्रुवाणं राघवं रणे |
1674 | 3029013c | खरो निर्भर्त्सयामास रोषात्खरतर स्वनः |
1675 | 3029014a | दृढं खल्ववलिप्तोऽसि भयेष्वपि च निर्भयः |
1676 | 3029014c | वाच्यावाच्यं ततो हि त्वं मृत्युवश्यो न बुध्यसे |
1677 | 3029015a | कालपाशपरिक्षिप्ता भवन्ति पुरुषा हि ये |
1678 | 3029015c | कार्याकार्यं न जानन्ति ते निरस्तषडिन्द्रियाः |
1679 | 3029016a | एवमुक्त्वा ततो रामं संरुध्य भृकुटिं ततः |
1680 | 3029016c | स ददर्श महासालमविदूरे निशाचरः |
1681 | 3029017a | रणे प्रहरणस्यार्थे सर्वतो ह्यवलोकयन् |
1682 | 3029017c | स तमुत्पाटयामास संदृश्य दशनच्छदम् |
1683 | 3029018a | तं समुत्क्षिप्य बाहुभ्यां विनर्दित्वा महाबलः |
1684 | 3029018c | राममुद्दिश्य चिक्षेप हतस्त्वमिति चाब्रवीत् |
1685 | 3029019a | तमापतन्तं बाणौघैश्छित्त्वा रामः प्रतापवान् |
1686 | 3029019c | रोषमाहारयत्तीव्रं निहन्तुं समरे खरम् |
1687 | 3029020a | जातस्वेदस्ततो रामो रोषाद्रक्तान्तलोचनः |
1688 | 3029020c | निर्बिभेद सहस्रेण बाणानां समरे खरम् |
1689 | 3029021a | तस्य बाणान्तराद्रक्तं बहु सुस्राव फेनिलम् |
1690 | 3029021c | गिरेः प्रस्रवणस्येव तोयधारापरिस्रवः |
1691 | 3029022a | विह्वलः स कृतो बाणैः खरो रामेण संयुगे |
1692 | 3029022c | मत्तो रुधिरगन्धेन तमेवाभ्यद्रवद्द्रुतम् |
1693 | 3029023a | तमापतन्तं संरब्धं कृतास्त्रो रुधिराप्लुतम् |
1694 | 3029023c | अपसर्पत्प्रतिपदं किंचित्त्वरितविक्रमः |
1695 | 3029024a | ततः पावकसंकाशं बधाय समरे शरम् |
1696 | 3029024c | खरस्य रामो जग्राह ब्रह्मदण्डमिवापरम् |
1697 | 3029025a | स तद्दत्तं मघवता सुरराजेन धीमता |
1698 | 3029025c | संदधे च स धर्मात्मा मुमोच च खरं प्रति |
1699 | 3029026a | स विमुक्तो महाबाणो निर्घातसमनिःस्वनः |
1700 | 3029026c | रामेण धनुरुद्यम्य खरस्योरसि चापतत् |
1701 | 3029027a | स पपात खरो भूमौ दह्यमानः शराग्निना |
1702 | 3029027c | रुद्रेणैव विनिर्दग्धः श्वेतारण्ये यथान्धकः |
1703 | 3029028a | स वृत्र इव वज्रेण फेनेन नमुचिर्यथा |
1704 | 3029028c | बलो वेन्द्राशनिहतो निपपात हतः खरः |
1705 | 3029029a | ततो राजर्षयः सर्वे संगताः परमर्षयः |
1706 | 3029029c | सभाज्य मुदिता राममिदं वचनमब्रुवन् |
1707 | 3029030a | एतदर्थं महातेजा महेन्द्रः पाकशासनः |
1708 | 3029030c | शरभङ्गाश्रमं पुण्यमाजगाम पुरंदरः |
1709 | 3029031a | आनीतस्त्वमिमं देशमुपायेन महर्षिभिः |
1710 | 3029031c | एषां वधार्थं क्रूराणां रक्षसां पापकर्मणाम् |
1711 | 3029032a | तदिदं नः कृतं कार्यं त्वया दशरथात्मज |
1712 | 3029032c | सुखं धर्मं चरिष्यन्ति दण्डकेषु महर्षयः |
1713 | 3029033a | एतस्मिन्नन्तरे वीरो लक्ष्मणः सह सीतया |
1714 | 3029033c | गिरिदुर्गाद्विनिष्क्रम्य संविवेशाश्रमं सुखी |
1715 | 3029034a | ततो रामस्तु विजयी पूज्यमानो महर्षिभिः |
1716 | 3029034c | प्रविवेशाश्रमं वीरो लक्ष्मणेनाभिवादितः |
1717 | 3029035a | तं दृष्ट्वा शत्रुहन्तारं महर्षीणां सुखावहम् |
1718 | 3029035c | बभूव हृष्टा वैदेही भर्तारं परिषस्वजे |
1719 | 3030001a | ततः शूर्पणखा दृष्ट्वा सहस्राणि चतुर्दश |
1720 | 3030001c | हतान्येकेन रामेण रक्षसां भीमकर्मणाम् |
1721 | 3030002a | दूषणं च खरं चैव हतं त्रिशिरसं रणे |
1722 | 3030002c | दृष्ट्वा पुनर्महानादं ननाद जलदोपमा |
1723 | 3030003a | सा दृष्ट्वा कर्म रामस्य कृतमन्यैः सुदुष्करम् |
1724 | 3030003c | जगाम परमौद्विग्ना लङ्कां रावणपालिताम् |
1725 | 3030004a | स ददर्श विमानाग्रे रावणं दीप्ततेजसं |
1726 | 3030004c | उपोपविष्टं सचिवैर्मरुद्भिरिव वासवम् |
1727 | 3030005a | आसीनं सूर्यसंकाशे काञ्चने परमासने |
1728 | 3030005c | रुक्मवेदिगतं प्राज्यं ज्वलन्तमिव पावकम् |
1729 | 3030006a | देवगन्धर्वभूतानामृषीणां च महात्मनाम् |
1730 | 3030006c | अजेयं समरे शूरं व्यात्ताननमिवान्तकम् |
1731 | 3030007a | देवासुरविमर्देषु वज्राशनिकृतव्रणम् |
1732 | 3030007c | ऐरावतविषाणाग्रैरुत्कृष्टकिणवक्षसं |
1733 | 3030008a | विंशद्भुजं दशग्रीवं दर्शनीयपरिच्छदम् |
1734 | 3030008c | विशालवक्षसं वीरं राजलक्ष्मणलक्षितम् |
1735 | 3030009a | स्निग्धवैदूर्यसंकाशं तप्तकाञ्चनकुण्डलम् |
1736 | 3030009c | सुभुजं शुक्लदशनं महास्यं पर्वतोपमम् |
1737 | 3030010a | विष्णुचक्रनिपातैश्च शतशो देवसंयुगे |
1738 | 3030010c | आहताङ्गं समस्तैश्च देवप्रहरणैस्तथा |
1739 | 3030011a | अक्षोभ्याणां समुद्राणां क्षोभणं क्षिप्रकारिणम् |
1740 | 3030011c | क्षेप्तारं पर्वताग्राणां सुराणां च प्रमर्दनम् |
1741 | 3030012a | उच्छेत्तारं च धर्माणां परदाराभिमर्शनम् |
1742 | 3030012c | सर्वदिव्यास्त्रयोक्तारं यज्ञविघ्नकरं सदा |
1743 | 3030013a | पुरीं भोगवतीं गत्वा पराजित्य च वासुकिम् |
1744 | 3030013c | तक्षकस्य प्रियां भार्यां पराजित्य जहार यः |
1745 | 3030014a | कैलासं पर्वतं गत्वा विजित्य नरवाहनम् |
1746 | 3030014c | विमानं पुष्पकं तस्य कामगं वै जहार यः |
1747 | 3030015a | वनं चैत्ररथं दिव्यं नलिनीं नन्दनं वनम् |
1748 | 3030015c | विनाशयति यः क्रोधाद्देवोद्यानानि वीर्यवान् |
1749 | 3030016a | चन्द्रसूर्यौ महाभागावुत्तिष्ठन्तौ परंतपौ |
1750 | 3030016c | निवारयति बाहुभ्यां यः शैलशिखरोपमः |
1751 | 3030017a | दशवर्षसहस्राणि तपस्तप्त्वा महावने |
1752 | 3030017c | पुरा स्वयम्भुवे धीरः शिरांस्युपजहार यः |
1753 | 3030018a | देवदानवगन्धर्वपिशाचपतगोरगैः |
1754 | 3030018c | अभयं यस्य संग्रामे मृत्युतो मानुषादृते |
1755 | 3030019a | मन्त्ररभितुष्टं पुण्यमध्वरेषु द्विजातिभिः |
1756 | 3030019c | हविर्धानेषु यः सोममुपहन्ति महाबलः |
1757 | 3030020a | आप्तयज्ञहरं क्रूरं ब्रह्मघ्नं दुष्टचारिणम् |
1758 | 3030020c | कर्कशं निरनुक्रोशं प्रजानामहिते रतम् |
1759 | 3030020e | रावणं सर्वभूतानां सर्वलोकभयावहम् |
1760 | 3030021a | राक्षसी भ्रातरं क्रूरं सा ददर्श महाबलम् |
1761 | 3030021c | तं दिव्यवस्त्राभरणं दिव्यमाल्योपशोभितम् |
1762 | 3030021e | राक्षसेन्द्रं महाभागं पौलस्त्य कुलनन्दनम् |
1763 | 3030022a | तमब्रवीद्दीप्तविशाललोचनं; प्रदर्शयित्वा भयमोहमूर्छिता |
1764 | 3030022c | सुदारुणं वाक्यमभीतचारिणी; महात्मना शूर्पणखा विरूपिता |
1765 | 3031001a | ततः शूर्पणखा दीना रावणं लोकरावणम् |
1766 | 3031001c | अमात्यमध्ये संक्रुद्धा परुषं वाक्यमब्रवीत् |
1767 | 3031002a | प्रमत्तः कामभोगेषु स्वैरवृत्तो निरङ्कुशः |
1768 | 3031002c | समुत्पन्नं भयं घोरं बोद्धव्यं नावबुध्यसे |
1769 | 3031003a | सक्तं ग्राम्येषु भोगेषु कामवृत्तं महीपतिम् |
1770 | 3031003c | लुब्धं न बहु मन्यन्ते श्मशानाग्निमिव प्रजाः |
1771 | 3031004a | स्वयं कार्याणि यः काले नानुतिष्ठति पार्थिवः |
1772 | 3031004c | स तु वै सह राज्येन तैश्च कार्यैर्विनश्यति |
1773 | 3031005a | अयुक्तचारं दुर्दर्शमस्वाधीनं नराधिपम् |
1774 | 3031005c | वर्जयन्ति नरा दूरान्नदीपङ्कमिव द्विपाः |
1775 | 3031006a | ये न रक्षन्ति विषयमस्वाधीना नराधिपः |
1776 | 3031006c | ते न वृद्ध्या प्रकाशन्ते गिरयः सागरे यथा |
1777 | 3031007a | आत्मवद्भिर्विगृह्य त्वं देवगन्धर्वदानवैः |
1778 | 3031007c | अयुक्तचारश्चपलः कथं राजा भविष्यसि |
1779 | 3031008a | येषां चारश्च कोशश्च नयश्च जयतां वर |
1780 | 3031008c | अस्वाधीना नरेन्द्राणां प्राकृतैस्ते जनैः समाः |
1781 | 3031009a | यस्मात्पश्यन्ति दूरस्थान्सर्वानर्थान्नराधिपाः |
1782 | 3031009c | चारेण तस्मादुच्यन्ते राजानो दीर्घचक्षुषः |
1783 | 3031010a | अयुक्तचारं मन्ये त्वां प्राकृतैः सचिवैर्वृतम् |
1784 | 3031010c | स्वजनं च जनस्थानं हतं यो नावबुध्यसे |
1785 | 3031011a | चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम् |
1786 | 3031011c | हतान्येकेन रामेण खरश्च सहदूषणः |
1787 | 3031012a | ऋषीणामभयं दत्तं कृतक्षेमाश्च दण्डकाः |
1788 | 3031012c | धर्षितं च जनस्थानं रामेणाक्लिष्टकर्मणा |
1789 | 3031013a | त्वं तु लुब्धः प्रमत्तश्च पराधीनश्च रावण |
1790 | 3031013c | विषये स्वे समुत्पन्नं भयं यो नावबुध्यसे |
1791 | 3031014a | तीक्ष्णमल्पप्रदातारं प्रमत्तं गर्वितं शठम् |
1792 | 3031014c | व्यसने सर्वभूतानि नाभिधावन्ति पार्थिवम् |
1793 | 3031015a | अतिमानिनमग्राह्यमात्मसंभावितं नरम् |
1794 | 3031015c | क्रोधनं व्यसने हन्ति स्वजनोऽपि नराधिपम् |
1795 | 3031016a | नानुतिष्ठति कार्याणि भयेषु न बिभेति च |
1796 | 3031016c | क्षिप्रं राज्याच्च्युतो दीनस्तृणैस्तुल्यो भविष्यति |
1797 | 3031017a | शुष्ककाष्ठैर्भवेत्कार्यं लोष्टैरपि च पांसुभिः |
1798 | 3031017c | न तु स्थानात्परिभ्रष्टैः कार्यं स्याद्वसुधाधिपैः |
1799 | 3031018a | उपभुक्तं यथा वासः स्रजो वा मृदिता यथा |
1800 | 3031018c | एवं राज्यात्परिभ्रष्टः समर्थोऽपि निरर्थकः |
1801 | 3031019a | अप्रमत्तश्च यो राजा सर्वज्ञो विजितेन्द्रियः |
1802 | 3031019c | कृतज्ञो धर्मशीलश्च स राजा तिष्ठते चिरम् |
1803 | 3031020a | नयनाभ्यां प्रसुप्तोऽपि जागर्ति नयचक्षुषा |
1804 | 3031020c | व्यक्तक्रोधप्रसादश्च स राजा पूज्यते जनैः |
1805 | 3031021a | त्वं तु रावणदुर्बुद्धिर्गुणैरेतैर्विवर्जितः |
1806 | 3031021c | यस्य तेऽविदितश्चारै रक्षसां सुमहान्वधः |
1807 | 3031022a | परावमन्ता विषयेषु संगतो; नदेश कालप्रविभाग तत्त्ववित् |
1808 | 3031022c | अयुक्तबुद्धिर्गुणदोषनिश्चये; विपन्नराज्यो न चिराद्विपत्स्यते |
1809 | 3031023a | इति स्वदोषान्परिकीर्तितांस्तया; समीक्ष्य बुद्ध्या क्षणदाचरेश्वरः |
1810 | 3031023c | धनेन दर्पेण बलेन चान्वितो; विचिन्तयामास चिरं स रावणः |
1811 | 3032001a | ततः शूर्पणखां क्रुद्धां ब्रुवतीं परुषं वचः |
1812 | 3032001c | अमात्यमध्ये संक्रुद्धः परिपप्रच्छ रावणः |
1813 | 3032002a | कश्च रामः कथं वीर्यः किं रूपः किं पराक्रमः |
1814 | 3032002c | किमर्थं दण्डकारण्यं प्रविष्टश्च सुदुश्चरम् |
1815 | 3032003a | आयुधं किं च रामस्य निहता येन राक्षसाः |
1816 | 3032003c | खरश्च निहतं संख्ये दूषणस्त्रिशिरास्तथा |
1817 | 3032004a | इत्युक्ता राक्षसेन्द्रेण राक्षसी क्रोधमूर्छिता |
1818 | 3032004c | ततो रामं यथान्यायमाख्यातुमुपचक्रमे |
1819 | 3032005a | दीर्घबाहुर्विशालाक्षश्चीरकृष्णाजिनाम्बरः |
1820 | 3032005c | कन्दर्पसमरूपश्च रामो दशरथात्मजः |
1821 | 3032006a | शक्रचापनिभं चापं विकृष्य कनकाङ्गदम् |
1822 | 3032006c | दीप्तान्क्षिपति नाराचान्सर्पानिव महाविषान् |
1823 | 3032007a | नाददानं शरान्घोरान्न मुञ्चन्तं महाबलम् |
1824 | 3032007c | न कार्मुकं विकर्षन्तं रामं पश्यामि संयुगे |
1825 | 3032008a | हन्यमानं तु तत्सैन्यं पश्यामि शरवृष्टिभिः |
1826 | 3032008c | इन्द्रेणैवोत्तमं सस्यमाहतं त्वश्मवृष्टिभिः |
1827 | 3032009a | रक्षसां भीमवीर्याणां सहस्राणि चतुर्दश |
1828 | 3032009c | निहतानि शरैस्तीक्ष्णैस्तेनैकेन पदातिना |
1829 | 3032010a | अर्धाधिकमुहूर्तेन खरश्च सहदूषणः |
1830 | 3032010c | ऋषीणामभयं दत्तं कृतक्षेमाश्च दण्डकाः |
1831 | 3032011a | एका कथंचिन्मुक्ताहं परिभूय महात्मना |
1832 | 3032011c | स्त्रीवधं शङ्कमानेन रामेण विदितात्मना |
1833 | 3032012a | भ्राता चास्य महातेजा गुणतस्तुल्यविक्रमः |
1834 | 3032012c | अनुरक्तश्च भक्तश्च लक्ष्मणो नाम वीर्यवान् |
1835 | 3032013a | अमर्षी दुर्जयो जेता विक्रान्तो बुद्धिमान्बली |
1836 | 3032013c | रामस्य दक्षिणे बाहुर्नित्यं प्राणो बहिष्चरः |
1837 | 3032014a | रामस्य तु विशालाक्षी धर्मपत्नी यशस्विनी |
1838 | 3032014c | सीता नाम वरारोहा वैदेही तनुमध्यमा |
1839 | 3032015a | नैव देवी न गन्धर्वा न यक्षी न च किंनरी |
1840 | 3032015c | तथारूपा मया नारी दृष्टपूर्वा महीतले |
1841 | 3032016a | यस्य सीता भवेद्भार्या यं च हृष्टा परिष्वजेत् |
1842 | 3032016c | अतिजीवेत्स सर्वेषु लोकेष्वपि पुरंदरात् |
1843 | 3032017a | सा सुशीला वपुःश्लाघ्या रूपेणाप्रतिमा भुवि |
1844 | 3032017c | तवानुरूपा भार्या सा त्वं च तस्यास्तथा पतिः |
1845 | 3032018a | तां तु विस्तीर्णजघनां पीनोत्तुङ्गपयोधराम् |
1846 | 3032018c | भार्यार्थे तु तवानेतुमुद्यताहं वराननाम् |
1847 | 3032019a | तां तु दृष्ट्वाद्य वैदेहीं पूर्णचन्द्रनिभाननाम् |
1848 | 3032019c | मन्मथस्य शराणां च त्वं विधेयो भविष्यसि |
1849 | 3032020a | यदि तस्यामभिप्रायो भार्यार्थे तव जायते |
1850 | 3032020c | शीघ्रमुद्ध्रियतां पादो जयार्थमिह दक्षिणः |
1851 | 3032021a | कुरु प्रियं तथा तेषां रक्षसां राक्षसेश्वर |
1852 | 3032021c | वधात्तस्य नृशंसस्य रामस्याश्रमवासिनः |
1853 | 3032022a | तं शरैर्निशितैर्हत्वा लक्ष्मणं च महारथम् |
1854 | 3032022c | हतनाथां सुखं सीतां यथावदुपभोक्ष्यसे |
1855 | 3032023a | रोचते यदि ते वाक्यं ममैतद्राक्षसेश्वर |
1856 | 3032023c | क्रियतां निर्विशङ्केन वचनं मम राघव |
1857 | 3032024a | निशम्य रामेण शरैरजिह्मगै;र्हताञ्जनस्थानगतान्निशाचरान् |
1858 | 3032024c | खरं च बुद्ध्वा निहतं च दूषणं; त्वमद्य कृत्यं प्रतिपत्तुमर्हसि |
1859 | 3033001a | ततः शूर्पणखा वाक्यं तच्छ्रुत्वा रोमहर्षणम् |
1860 | 3033001c | सचिवानभ्यनुज्ञाय कार्यं बुद्ध्वा जगाम ह |
1861 | 3033002a | तत्कार्यमनुगम्याथ यथावदुपलभ्य च |
1862 | 3033002c | दोषाणां च गुणानां च संप्रधार्य बलाबलम् |
1863 | 3033003a | इति कर्तव्यमित्येव कृत्वा निश्चयमात्मनः |
1864 | 3033003c | स्थिरबुद्धिस्ततो रम्यां यानशालां जगाम ह |
1865 | 3033004a | यानशालां ततो गत्वा प्रच्छन्नं राक्षसाधिपः |
1866 | 3033004c | सूतं संचोदयामास रथः संयुज्यतामिति |
1867 | 3033005a | एवमुक्तः क्षणेनैव सारथिर्लघुविक्रमः |
1868 | 3033005c | रथं संयोजयामास तस्याभिमतमुत्तमम् |
1869 | 3033006a | काञ्चनं रथमास्थाय कामगं रत्नभूषितम् |
1870 | 3033006c | पिशाचवदनैर्युक्तं खरैः कनकभूषणैः |
1871 | 3033007a | मेघप्रतिमनादेन स तेन धनदानुजः |
1872 | 3033007c | राक्षसाधिपतिः श्रीमान्ययौ नदनदीपतिम् |
1873 | 3033008a | स श्वेतबालव्यसनः श्वेतच्छत्रो दशाननः |
1874 | 3033008c | स्निग्धवैदूर्यसंकाशस्तप्तकाञ्चनभूषणः |
1875 | 3033009a | दशास्यो विंशतिभुजो दर्शनीय परिच्छदः |
1876 | 3033009c | त्रिदशारिर्मुनीन्द्रघ्नो दशशीर्ष इवाद्रिराट् |
1877 | 3033010a | कामगं रथमास्थाय शुशुभे राक्षसाधिपः |
1878 | 3033010c | विद्युन्मण्डलवान्मेघः सबलाक इवाम्बरे |
1879 | 3033011a | सशैलं सागरानूपं वीर्यवानवलोकयन् |
1880 | 3033011c | नानापुष्पफलैर्वृक्षैरनुकीर्णं सहस्रशः |
1881 | 3033012a | शीतमङ्गलतोयाभिः पद्मिनीभिः समन्ततः |
1882 | 3033012c | विशालैराश्रमपदैर्वेदिमद्भिः समावृतम् |
1883 | 3033013a | कदल्याढकिसंबाधं नालिकेरोपशोभितम् |
1884 | 3033013c | सालैस्तालैस्तमालैश्च तरुभिश्च सुपुष्पितैः |
1885 | 3033014a | अत्यन्तनियताहारैः शोभितं परमर्षिभिः |
1886 | 3033014c | नागैः सुपर्णैर्गन्धर्वैः किंनरैश्च सहस्रशः |
1887 | 3033015a | जितकामैश्च सिद्धैश्च चामणैश्चोपशोभितम् |
1888 | 3033015c | आजैर्वैखानसैर्माषैर्वालखिल्यैर्मरीचिपैः |
1889 | 3033016a | दिव्याभरणमाल्याभिर्दिव्यरूपाभिरावृतम् |
1890 | 3033016c | क्रीडा रतिविधिज्ञाभिरप्सरोभिः सहस्रशः |
1891 | 3033017a | सेवितं देवपत्नीभिः श्रीमतीभिः श्रिया वृतम् |
1892 | 3033017c | देवदानवसंघैश्च चरितं त्वमृताशिभिः |
1893 | 3033018a | हंसक्रौञ्चप्लवाकीर्णं सारसैः संप्रणादितम् |
1894 | 3033018c | वैदूर्यप्रस्तरं रम्यं स्निग्धं सागरतेजसा |
1895 | 3033019a | पाण्डुराणि विशालानि दिव्यमाल्ययुतानि च |
1896 | 3033019c | तूर्यगीताभिजुष्टानि विमानानि समन्ततः |
1897 | 3033020a | तपसा जितलोकानां कामगान्यभिसंपतन् |
1898 | 3033020c | गन्धर्वाप्सरसश्चैव ददर्श धनदानुजः |
1899 | 3033021a | निर्यासरसमूलानां चन्दनानां सहस्रशः |
1900 | 3033021c | वनानि पश्यन्सौम्यानि घ्राणतृप्तिकराणि च |
1901 | 3033022a | अगरूणां च मुख्यानां वनान्युपवनानि च |
1902 | 3033022c | तक्कोलानां च जात्यानां फलानां च सुगन्धिनाम् |
1903 | 3033023a | पुष्पाणि च तमालस्य गुल्मानि मरिचस्य च |
1904 | 3033023c | मुक्तानां च समूहानि शुष्यमाणानि तीरतः |
1905 | 3033024a | शङ्खानां प्रस्तरं चैव प्रवालनिचयं तथा |
1906 | 3033024c | काञ्चनानि च शैलानि राजतानि च सर्वशः |
1907 | 3033025a | प्रस्रवाणि मनोज्ञानि प्रसन्नानि ह्रदानि च |
1908 | 3033025c | धनधान्योपपन्नानि स्त्रीरत्नैरावृतानि च |
1909 | 3033026a | हस्त्यश्वरथगाढानि नगराण्यवलोकयन् |
1910 | 3033026c | तं समं सर्वतः स्निग्धं मृदुसंस्पर्शमारुतम् |
1911 | 3033027a | अनूपं सिन्धुराजस्य ददर्श त्रिदिवोपमम् |
1912 | 3033027c | तत्रापश्यत्स मेघाभं न्यग्रोधमृषिभिर्वृतम् |
1913 | 3033028a | समन्ताद्यस्य ताः शाखाः शतयोजनमायताः |
1914 | 3033028c | यस्य हस्तिनमादाय महाकायं च कच्चपम् |
1915 | 3033028e | भक्षार्थं गरुडः शाखामाजगाम महाबलः |
1916 | 3033029a | तस्य तां सहसा शाखां भारेण पतगोत्तमः |
1917 | 3033029c | सुपर्णः पर्णबहुलां बभञ्जाथ महाबलः |
1918 | 3033030a | तत्र वैखानसा माषा वालखिल्या मरीचिपाः |
1919 | 3033030c | अजा बभूवुर्धूम्राश्च संगताः परमर्षयः |
1920 | 3033031a | तेषां दयार्थं गरुडस्तां शाखां शतयोजनाम् |
1921 | 3033031c | जगामादाय वेगेन तौ चोभौ गजकच्छपौ |
1922 | 3033032a | एकपादेन धर्मात्मा भक्षयित्वा तदामिषम् |
1923 | 3033032c | निषादविषयं हत्वा शाखया पतगोत्तमः |
1924 | 3033032e | प्रहर्षमतुलं लेभे मोक्षयित्वा महामुनीन् |
1925 | 3033033a | स तेनैव प्रहर्षेण द्विगुणीकृतविक्रमः |
1926 | 3033033c | अमृतानयनार्थं वै चकार मतिमान्मतिम् |
1927 | 3033034a | अयोजालानि निर्मथ्य भित्त्वा रत्नगृहं वरम् |
1928 | 3033034c | महेन्द्रभवनाद्गुप्तमाजहारामृतं ततः |
1929 | 3033035a | तं महर्षिगणैर्जुष्टं सुपर्णकृतलक्षणम् |
1930 | 3033035c | नाम्ना सुभद्रं न्यग्रोधं ददर्श धनदानुजः |
1931 | 3033036a | तं तु गत्वा परं पारं समुद्रस्य नदीपतेः |
1932 | 3033036c | ददर्शाश्रममेकान्ते पुण्ये रम्ये वनान्तरे |
1933 | 3033037a | तत्र कृष्णाजिनधरं जटावल्कलधारिणम् |
1934 | 3033037c | ददर्श नियताहारं मारीचं नाम राक्षसं |
1935 | 3033038a | स रावणः समागम्य विधिवत्तेन रक्षसा |
1936 | 3033038c | ततः पश्चादिदं वाक्यमब्रवीद्वाक्यकोविदः |
1937 | 3034001a | मारीच श्रूयतां तात वचनं मम भाषतः |
1938 | 3034001c | आर्तोऽस्मि मम चार्तस्य भवान्हि परमा गतिः |
1939 | 3034002a | जानीषे त्वं जनस्थानं भ्राता यत्र खरो मम |
1940 | 3034002c | दूषणश्च महाबाहुः स्वसा शूर्पणखा च मे |
1941 | 3034003a | त्रिशिराश्च महातेजा राक्षसः पिशिताशनः |
1942 | 3034003c | अन्ये च बहवः शूरा लब्धलक्षा निशाचराः |
1943 | 3034004a | वसन्ति मन्नियोगेन अधिवासं च राक्षसः |
1944 | 3034004c | बाधमाना महारण्ये मुनीन्ये धर्मचारिणः |
1945 | 3034005a | चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम् |
1946 | 3034005c | शूराणां लब्धलक्षाणां खरचित्तानुवर्तिनाम् |
1947 | 3034006a | ते त्विदानीं जनस्थाने वसमाना महाबलाः |
1948 | 3034006c | संगताः परमायत्ता रामेण सह संयुगे |
1949 | 3034007a | तेन संजातरोषेण रामेण रणमूर्धनि |
1950 | 3034007c | अनुक्त्वा परुषं किंचिच्छरैर्व्यापारितं धनुः |
1951 | 3034008a | चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम् |
1952 | 3034008c | निहतानि शरैस्तीक्ष्णैर्मानुषेण पदातिना |
1953 | 3034009a | खरश्च निहतः संख्ये दूषणश्च निपातितः |
1954 | 3034009c | हत्वा त्रिशिरसं चापि निर्भया दण्डकाः कृताः |
1955 | 3034010a | पित्रा निरस्तः क्रुद्धेन सभार्यः क्षीणजीवितः |
1956 | 3034010c | स हन्ता तस्य सैन्यस्य रामः क्षत्रियपांसनः |
1957 | 3034011a | अशीलः कर्कशस्तीक्ष्णो मूर्खो लुब्धोऽजितेन्द्रियः |
1958 | 3034011c | त्यक्तधर्मस्त्वधर्मात्मा भूतानामहिते रतः |
1959 | 3034012a | येन वैरं विनारण्ये सत्त्वमाश्रित्य केवलम् |
1960 | 3034012c | कर्णनासापहारेण भगिनी मे विरूपिता |
1961 | 3034013a | तस्य भार्यां जनस्थानात्सीतां सुरसुतोपमाम् |
1962 | 3034013c | आनयिष्यामि विक्रम्य सहायस्तत्र मे भव |
1963 | 3034014a | त्वया ह्यहं सहायेन पार्श्वस्थेन महाबल |
1964 | 3034014c | भ्रातृभिश्च सुरान्युद्धे समग्रान्नाभिचिन्तये |
1965 | 3034015a | तत्सहायो भव त्वं मे समर्थो ह्यसि राक्षस |
1966 | 3034015c | वीर्ये युद्धे च दर्पे च न ह्यस्ति सदृशस्तव |
1967 | 3034016a | एतदर्थमहं प्राप्तस्त्वत्समीपं निशाचर |
1968 | 3034016c | शृणु तत्कर्म साहाय्ये यत्कार्यं वचनान्मम |
1969 | 3034017a | सौवर्णस्त्वं मृगो भूत्वा चित्रो रजतबिन्दुभिः |
1970 | 3034017c | आश्रमे तस्य रामस्य सीतायाः प्रमुखे चर |
1971 | 3034018a | त्वां तु निःसंशयं सीता दृष्ट्वा तु मृगरूपिणम् |
1972 | 3034018c | गृह्यतामिति भर्तारं लक्ष्मणं चाभिधास्यति |
1973 | 3034019a | ततस्तयोरपाये तु शून्ये सीतां यथासुखम् |
1974 | 3034019c | निराबाधो हरिष्यामि राहुश्चन्द्रप्रभामिव |
1975 | 3034020a | ततः पश्चात्सुखं रामे भार्याहरणकर्शिते |
1976 | 3034020c | विस्रब्धं प्रहरिष्यामि कृतार्थेनान्तरात्मना |
1977 | 3034021a | तस्य रामकथां श्रुत्वा मारीचस्य महात्मनः |
1978 | 3034021c | शुष्कं समभवद्वक्त्रं परित्रस्तो बभूव च |
1979 | 3034022a | स रावणं त्रस्तविषण्णचेता; महावने रामपराक्रमज्ञः |
1980 | 3034022c | कृताञ्जलिस्तत्त्वमुवाच वाक्यं; हितं च तस्मै हितमात्मनश्च |
1981 | 3035001a | तच्छ्रुत्वा राक्षसेन्द्रस्य वाक्यं वाक्यविशारदः |
1982 | 3035001c | प्रत्युवाच महाप्राज्ञो मारीचो राक्षसेश्वरम् |
1983 | 3035002a | सुलभाः पुरुषा राजन्सततं प्रियवादिनः |
1984 | 3035002c | अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः |
1985 | 3035003a | न नूनं बुध्यसे रामं महावीर्यं गुणोन्नतम् |
1986 | 3035003c | अयुक्तचारश्चपलो महेन्द्रवरुणोपमम् |
1987 | 3035004a | अपि स्वस्ति भवेत्तात सर्वेषां भुवि रक्षसाम् |
1988 | 3035004c | अपि रामो न संक्रुद्धः कुर्याल्लोकमराक्षसं |
1989 | 3035005a | अपि ते जीवितान्ताय नोत्पन्ना जनकात्मजा |
1990 | 3035005c | अपि सीता निमित्तं च न भवेद्व्यसनं महत् |
1991 | 3035006a | अपि त्वामीश्वरं प्राप्य कामवृत्तं निरङ्कुशम् |
1992 | 3035006c | न विनश्येत्पुरी लङ्का त्वया सह सराक्षसा |
1993 | 3035007a | त्वद्विधः कामवृत्तो हि दुःशीलः पापमन्त्रितः |
1994 | 3035007c | आत्मानं स्वजनं राष्ट्रं स राजा हन्ति दुर्मतिः |
1995 | 3035008a | न च पित्रा परित्यक्तो नामर्यादः कथंचन |
1996 | 3035008c | न लुब्धो न च दुःशीलो न च क्षत्रियपांसनः |
1997 | 3035009a | न च धर्मगुणैर्हीनैः कौसल्यानन्दवर्धनः |
1998 | 3035009c | न च तीक्ष्णो हि भूतानां सर्वेषां च हिते रतः |
1999 | 3035010a | वञ्चितं पितरं दृष्ट्वा कैकेय्या सत्यवादिनम् |
2000 | 3035010c | करिष्यामीति धर्मात्मा ततः प्रव्रजितो वनम् |
2001 | 3035011a | कैकेय्याः प्रियकामार्थं पितुर्दशरथस्य च |
2002 | 3035011c | हित्वा राज्यं च भोगांश्च प्रविष्टो दण्डकावनम् |
2003 | 3035012a | न रामः कर्कशस्तात नाविद्वान्नाजितेन्द्रियः |
2004 | 3035012c | अनृतं न श्रुतं चैव नैव त्वं वक्तुमर्हसि |
2005 | 3035013a | रामो विग्रहवान्धर्मः साधुः सत्यपराक्रमः |
2006 | 3035013c | राजा सर्वस्य लोकस्य देवानामिव वासवः |
2007 | 3035014a | कथं त्वं तस्य वैदेहीं रक्षितां स्वेन तेजसा |
2008 | 3035014c | इच्छसि प्रसभं हर्तुं प्रभामिव विवस्वतः |
2009 | 3035015a | शरार्चिषमनाधृष्यं चापखड्गेन्धनं रणे |
2010 | 3035015c | रामाग्निं सहसा दीप्तं न प्रवेष्टुं त्वमर्हसि |
2011 | 3035016a | धनुर्व्यादितदीप्तास्यं शरार्चिषममर्षणम् |
2012 | 3035016c | चापबाणधरं वीरं शत्रुसेनापहारिणम् |
2013 | 3035017a | राज्यं सुखं च संत्यज्य जीवितं चेष्टमात्मनः |
2014 | 3035017c | नात्यासादयितुं तात रामान्तकमिहार्हसि |
2015 | 3035018a | अप्रमेयं हि तत्तेजो यस्य सा जनकात्मजा |
2016 | 3035018c | न त्वं समर्थस्तां हर्तुं रामचापाश्रयां वने |
2017 | 3035019a | प्राणेभ्योऽपि प्रियतरा भार्या नित्यमनुव्रता |
2018 | 3035019c | दीप्तस्येव हुताशस्य शिखा सीता सुमध्यमा |
2019 | 3035020a | किमुद्यमं व्यर्थमिमं कृत्वा ते राक्षसाधिप |
2020 | 3035020c | दृष्टश्चेत्त्वं रणे तेन तदन्तं तव जीवितम् |
2021 | 3035020e | जीवितं च सुखं चैव राज्यं चैव सुदुर्लभम् |
2022 | 3035021a | स सर्वैः सचिवैः सार्धं विभीषणपुरस्कृतैः |
2023 | 3035021c | मन्त्रयित्वा तु धर्मिष्ठैः कृत्वा निश्चयमात्मनः |
2024 | 3035022a | दोषाणां च गुणानां च संप्रधार्य बलाबलम् |
2025 | 3035022c | आत्मनश्च बलं ज्ञात्वा राघवस्य च तत्त्वतः |
2026 | 3035022e | हितं हि तव निश्चित्य क्षमं त्वं कर्तुमर्हसि |
2027 | 3035023a | अहं तु मन्ये तव न क्षमं रणे; समागमं कोसलराजसूनुना |
2028 | 3035023c | इदं हि भूयः शृणु वाक्यमुत्तमं; क्षमं च युक्तं च निशाचराधिप |
2029 | 3036001a | कदाचिदप्यहं वीर्यात्पर्यटन्पृथिवीमिमाम् |
2030 | 3036001c | बलं नागसहस्रस्य धारयन्पर्वतोपमः |
2031 | 3036002a | नीलजीमूतसंकाशस्तप्तकाञ्चनकुण्डलः |
2032 | 3036002c | भयं लोकस्य जनयन्किरीटी परिघायुधः |
2033 | 3036002e | व्यचरं दण्डकारण्यमृषिमांसानि भक्षयन् |
2034 | 3036003a | विश्वामित्रोऽथ धर्मात्मा मद्वित्रस्तो महामुनिः |
2035 | 3036003c | स्वयं गत्वा दशरथं नरेन्द्रमिदमब्रवीत् |
2036 | 3036004a | अयं रक्षतु मां रामः पर्वकाले समाहितः |
2037 | 3036004c | मारीचान्मे भयं घोरं समुत्पन्नं नरेश्वर |
2038 | 3036005a | इत्येवमुक्तो धर्मात्मा राजा दशरथस्तदा |
2039 | 3036005c | प्रत्युवाच महाभागं विश्वामित्रं महामुनिम् |
2040 | 3036006a | ऊन षोडश वर्षोऽयमकृतास्त्रश्च राघवः |
2041 | 3036006c | कामं तु मम यत्सैन्यं मया सह गमिष्यति |
2042 | 3036006e | बधिष्यामि मुनिश्रेष्ठ शत्रुं तव यथेप्सितम् |
2043 | 3036007a | इत्येवमुक्तः स मुनी राजानं पुनरब्रवीत् |
2044 | 3036007c | रामान्नान्यद्बलं लोके पर्याप्तं तस्य रक्षसः |
2045 | 3036008a | बालोऽप्येष महातेजाः समर्थस्तस्य निग्रहे |
2046 | 3036008c | गमिष्ये राममादाय स्वस्ति तेऽस्तु परंतपः |
2047 | 3036009a | इत्येवमुक्त्वा स मुनिस्तमादाय नृपात्मजम् |
2048 | 3036009c | जगाम परमप्रीतो विश्वामित्रः स्वमाश्रमम् |
2049 | 3036010a | तं तदा दण्डकारण्ये यज्ञमुद्दिश्य दीक्षितम् |
2050 | 3036010c | बभूवावस्थितो रामश्चित्रं विस्फारयन्धनुः |
2051 | 3036011a | अजातव्यञ्जनः श्रीमान्बालः श्यामः शुभेक्षणः |
2052 | 3036011c | एकवस्त्रधरो धन्वी शिखी कनकमालया |
2053 | 3036012a | शोभयन्दण्डकारण्यं दीप्तेन स्वेन तेजसा |
2054 | 3036012c | अदृश्यत तदा रामो बालचन्द्र इवोदितः |
2055 | 3036013a | ततोऽहं मेघसंकाशस्तप्तकाञ्चनकुण्डलः |
2056 | 3036013c | बली दत्तवरो दर्पादाजगाम तदाश्रमम् |
2057 | 3036014a | तेन दृष्टः प्रविष्टोऽहं सहसैवोद्यतायुधः |
2058 | 3036014c | मां तु दृष्ट्वा धनुः सज्यमसंभ्रान्तश्चकार ह |
2059 | 3036015a | अवजानन्नहं मोहाद्बालोऽयमिति राघवम् |
2060 | 3036015c | विश्वामित्रस्य तां वेदिमध्यधावं कृतत्वरः |
2061 | 3036016a | तेन मुक्तस्ततो बाणः शितः शत्रुनिबर्हणः |
2062 | 3036016c | तेनाहं ताडितः क्षिप्तः समुद्रे शतयोजने |
2063 | 3036017a | रामस्य शरवेगेन निरस्तो भ्रान्तचेतनः |
2064 | 3036017c | पातितोऽहं तदा तेन गम्भीरे सागराम्भसि |
2065 | 3036017e | प्राप्य संज्ञां चिरात्तात लङ्कां प्रति गतः पुरीम् |
2066 | 3036018a | एवमस्मि तदा मुक्तः सहायास्ते निपातिताः |
2067 | 3036018c | अकृतास्त्रेण रामेण बालेनाक्लिष्टकर्मणा |
2068 | 3036019a | तन्मया वार्यमाणस्त्वं यदि रामेण विग्रहम् |
2069 | 3036019c | करिष्यस्यापदं घोरां क्षिप्रं प्राप्य नशिष्यसि |
2070 | 3036020a | क्रीडा रतिविधिज्ञानां समाजोत्सवशालिनाम् |
2071 | 3036020c | रक्षसां चैव संतापमनर्थं चाहरिष्यसि |
2072 | 3036021a | हर्म्यप्रासादसंबाधां नानारत्नविभूषिताम् |
2073 | 3036021c | द्रक्ष्यसि त्वं पुरीं लङ्कां विनष्टां मैथिलीकृते |
2074 | 3036022a | अकुर्वन्तोऽपि पापानि शुचयः पापसंश्रयात् |
2075 | 3036022c | परपापैर्विनश्यन्ति मत्स्या नागह्रदे यथा |
2076 | 3036023a | दिव्यचन्दनदिग्धाङ्गान्दिव्याभरणभूषितान् |
2077 | 3036023c | द्रक्ष्यस्यभिहतान्भूमौ तव दोषात्तु राक्षसान् |
2078 | 3036024a | हृतदारान्सदारांश्च दशविद्रवतो दिशः |
2079 | 3036024c | हतशेषानशरणान्द्रक्ष्यसि त्वं निशाचरान् |
2080 | 3036025a | शरजालपरिक्षिप्तामग्निज्वालासमावृताम् |
2081 | 3036025c | प्रदग्धभवनां लङ्कां द्रक्ष्यसि त्वमसंशयम् |
2082 | 3036026a | प्रमदानां सहस्राणि तव राजन्परिग्रहः |
2083 | 3036026c | भव स्वदारनिरतः स्वकुलं रक्षराक्षस |
2084 | 3036027a | मानं वृद्धिं च राज्यं च जीवितं चेष्टमात्मनः |
2085 | 3036027c | यदीच्छसि चिरं भोक्तुं मा कृथा राम विप्रियम् |
2086 | 3036028a | निवार्यमाणः सुहृदा मया भृशं; प्रसह्य सीतां यदि धर्षयिष्यसि |
2087 | 3036028c | गमिष्यसि क्षीणबलः सबान्धवो; यमक्षयं रामशरात्तजीवितः |
2088 | 3037001a | एवमस्मि तदा मुक्तः कथंचित्तेन संयुगे |
2089 | 3037001c | इदानीमपि यद्वृत्तं तच्छृणुष्व यदुत्तरम् |
2090 | 3037002a | राक्षसाभ्यामहं द्वाभ्यामनिर्विण्णस्तथा कृतः |
2091 | 3037002c | सहितो मृगरूपाभ्यां प्रविष्टो दण्डकावनम् |
2092 | 3037003a | दीप्तजिह्वो महाकायस्तीक्ष्णशृण्गो महाबलः |
2093 | 3037003c | व्यचरन्दण्डकारण्यं मांसभक्षो महामृगः |
2094 | 3037004a | अग्निहोत्रेषु तीर्थेषु चैत्यवृक्षेषु रावण |
2095 | 3037004c | अत्यन्तघोरो व्यचरंस्तापसांस्तान्प्रधर्षयन् |
2096 | 3037005a | निहत्य दण्डकारण्ये तापसान्धर्मचारिणः |
2097 | 3037005c | रुधिराणि पिबंस्तेषां तथा मांसानि भक्षयन् |
2098 | 3037006a | ऋषिमांसाशनः क्रूरस्त्रासयन्वनगोचरान् |
2099 | 3037006c | तदा रुधिरमत्तोऽहं व्यचरं दण्डकावनम् |
2100 | 3037007a | तदाहं दण्डकारण्ये विचरन्धर्मदूषकः |
2101 | 3037007c | आसादयं तदा रामं तापसं धर्ममाश्रितम् |
2102 | 3037008a | वैदेहीं च महाभागां लक्ष्मणं च महारथम् |
2103 | 3037008c | तापसं नियताहारं सर्वभूतहिते रतम् |
2104 | 3037009a | सोऽहं वनगतं रामं परिभूय महाबलम् |
2105 | 3037009c | तापसोऽयमिति ज्ञात्वा पूर्ववैरमनुस्मरन् |
2106 | 3037010a | अभ्यधावं सुसंक्रुद्धस्तीक्ष्णशृङ्गो मृगाकृतिः |
2107 | 3037010c | जिघांसुरकृतप्रज्ञस्तं प्रहारमनुस्मरन् |
2108 | 3037011a | तेन मुक्तास्त्रयो बाणाः शिताः शत्रुनिबर्हणाः |
2109 | 3037011c | विकृष्य बलवच्चापं सुपर्णानिलतुल्यगाः |
2110 | 3037012a | ते बाणा वज्रसंकाशाः सुघोरा रक्तभोजनाः |
2111 | 3037012c | आजग्मुः सहिताः सर्वे त्रयः संनतपर्वणः |
2112 | 3037013a | पराक्रमज्ञो रामस्य शठो दृष्टभयः पुरा |
2113 | 3037013c | समुत्क्रान्तस्ततो मुक्तस्तावुभौ राक्षसौ हतौ |
2114 | 3037014a | शरेण मुक्तो रामस्य कथंचित्प्राप्य जीवितम् |
2115 | 3037014c | इह प्रव्राजितो युक्तस्तापसोऽहं समाहितः |
2116 | 3037015a | वृक्षे वृक्षे हि पश्यामि चीरकृष्णाजिनाम्बरम् |
2117 | 3037015c | गृहीतधनुषं रामं पाशहस्तमिवान्तकम् |
2118 | 3037016a | अपि रामसहस्राणि भीतः पश्यामि रावण |
2119 | 3037016c | रामभूतमिदं सर्वमरण्यं प्रतिभाति मे |
2120 | 3037017a | राममेव हि पश्यामि रहिते राक्षसेश्वर |
2121 | 3037017c | दृष्ट्वा स्वप्नगतं राममुद्भ्रमामि विचेतनः |
2122 | 3037018a | रकारादीनि नामानि रामत्रस्तस्य रावण |
2123 | 3037018c | रत्नानि च रथाश्चैव त्रासं संजनयन्ति मे |
2124 | 3037019a | अहं तस्य प्रभावज्ञो न युद्धं तेन ते क्षमम् |
2125 | 3037019c | रणे रामेण युध्यस्व क्षमां वा कुरु राक्षस |
2126 | 3037019e | न ते रामकथा कार्या यदि मां द्रष्टुमिच्छसि |
2127 | 3037020a | इदं वचो बन्धुहितार्थिना मया; यथोच्यमानं यदि नाभिपत्स्यसे |
2128 | 3037020c | सबान्धवस्त्यक्ष्यसि जीवितं रणे; हतोऽद्य रामेण शरैरजिह्मगैः |
2129 | 3038001a | मारीचेन तु तद्वाक्यं क्षमं युक्तं च रावणः |
2130 | 3038001c | उक्तो न प्रतिजग्राह मर्तुकाम इवौषधम् |
2131 | 3038002a | तं पथ्यहितवक्तारं मारीचं राक्षसाधिपः |
2132 | 3038002c | अब्रवीत्परुषं वाक्यमयुक्तं कालचोदितः |
2133 | 3038003a | यत्किलैतदयुक्तार्थं मारीच मयि कथ्यते |
2134 | 3038003c | वाक्यं निष्फलमत्यर्थं बीजमुप्तमिवोषरे |
2135 | 3038004a | त्वद्वाक्यैर्न तु मां शक्यं भेत्तुं रामस्य संयुगे |
2136 | 3038004c | पापशीलस्य मूर्खस्य मानुषस्य विशेषतः |
2137 | 3038005a | यस्त्यक्त्वा सुहृदो राज्यं मातरं पितरं तथा |
2138 | 3038005c | स्त्रीवाक्यं प्राकृतं श्रुत्वा वनमेकपदे गतः |
2139 | 3038006a | अवश्यं तु मया तस्य संयुगे खरघातिनः |
2140 | 3038006c | प्राणैः प्रियतरा सीता हर्तव्या तव संनिधौ |
2141 | 3038007a | एवं मे निश्चिता बुद्धिर्हृदि मारीच वर्तते |
2142 | 3038007c | न व्यावर्तयितुं शक्या सेन्द्रैरपि सुरासुरैः |
2143 | 3038008a | दोषं गुणं वा संपृष्टस्त्वमेवं वक्तुमर्हसि |
2144 | 3038008c | अपायं वाप्युपायं वा कार्यस्यास्य विनिश्चये |
2145 | 3038009a | संपृष्टेन तु वक्तव्यं सचिवेन विपश्चिता |
2146 | 3038009c | उद्यताञ्जलिना राज्ञो य इच्छेद्भूतिमात्मनः |
2147 | 3038010a | वाक्यमप्रतिकूलं तु मृदुपूर्वं शुभं हितम् |
2148 | 3038010c | उपचारेण युक्तं च वक्तव्यो वसुधाधिपः |
2149 | 3038011a | सावमर्दं तु यद्वाक्यं मारीच हितमुच्यते |
2150 | 3038011c | नाभिनन्दति तद्राजा मानार्हो मानवर्जितम् |
2151 | 3038012a | पञ्चरूपाणि राजानो धारयन्त्यमितौजसः |
2152 | 3038012c | अग्नेरिन्द्रस्य सोमस्य यमस्य वरुणस्य च |
2153 | 3038012e | औष्ण्यं तथा विक्रमं च सौम्यं दण्डं प्रसन्नताम् |
2154 | 3038013a | तस्मात्सर्वास्ववस्थासु मान्याः पूज्याश्च पार्थिवाः |
2155 | 3038013c | त्वं तु धर्ममविज्ञाय केवलं मोहमास्थितः |
2156 | 3038014a | अभ्यागतं मां दौरात्म्यात्परुषं वदसीदृशम् |
2157 | 3038014c | गुणदोषौ न पृच्छामि क्षमं चात्मनि राक्षस |
2158 | 3038014e | अस्मिंस्तु स भवान्कृत्ये साहाय्यं कर्तुमर्हति |
2159 | 3038015a | सौवर्णस्त्वं मृगो भूत्वा चित्रो रजतबिन्दुभिः |
2160 | 3038015c | प्रलोभयित्वा वैदेहीं यथेष्टं गन्तुमर्हसि |
2161 | 3038016a | त्वां तु मायामृगं दृष्ट्वा काञ्चनं जातविस्मया |
2162 | 3038016c | आनयैनमिति क्षिप्रं रामं वक्ष्यति मैथिली |
2163 | 3038017a | अपक्रान्ते च काकुत्स्थे लक्ष्मणे च यथासुखम् |
2164 | 3038017c | आनयिष्यामि वैदेहीं सहस्राक्षः शचीमिव |
2165 | 3038018a | एवं कृत्वा त्विदं कार्यं यथेष्टं गच्छ राक्षस |
2166 | 3038018c | राज्यस्यार्धं प्रदास्यामि मारीच तव सुव्रत |
2167 | 3038019a | गच्छ सौम्य शिवं मार्गं कार्यस्यास्य विवृद्धये |
2168 | 3038019c | प्राप्य सीतामयुद्धेन वञ्चयित्वा तु राघवम् |
2169 | 3038019e | लङ्कां प्रति गमिष्यामि कृतकार्यः सह त्वया |
2170 | 3038020a | एतत्कार्यमवश्यं मे बलादपि करिष्यसि |
2171 | 3038020c | राज्ञो हि प्रतिकूलस्थो न जातु सुखमेधते |
2172 | 3038021a | आसाद्य तं जीवितसंशयस्ते; मृत्युर्ध्रुवो ह्यद्य मया विरुध्य |
2173 | 3038021c | एतद्यथावत्परिगृह्य बुद्ध्या; यदत्र पथ्यं कुरु तत्तथा त्वम् |
2174 | 3039001a | आज्ञप्तो राजवद्वाक्यं प्रतिकूलं निशाचरः |
2175 | 3039001c | अब्रवीत्परुषं वाक्यं मारीचो राक्षसाधिपम् |
2176 | 3039002a | केनायमुपदिष्टस्ते विनाशः पापकर्मणा |
2177 | 3039002c | सपुत्रस्य सराष्ट्रस्य सामात्यस्य निशाचर |
2178 | 3039003a | कस्त्वया सुखिना राजन्नाभिनन्दति पापकृत् |
2179 | 3039003c | केनेदमुपदिष्टं ते मृत्युद्वारमुपायतः |
2180 | 3039004a | शत्रवस्तव सुव्यक्तं हीनवीर्या निशाचर |
2181 | 3039004c | इच्छन्ति त्वां विनश्यन्तमुपरुद्धं बलीयसा |
2182 | 3039005a | केनेदमुपदिष्टं ते क्षुद्रेणाहितवादिना |
2183 | 3039005c | यस्त्वामिच्छति नश्यन्तं स्वकृतेन निशाचर |
2184 | 3039006a | वध्याः खलु न हन्यन्ते सचिवास्तव रावण |
2185 | 3039006c | ये त्वामुत्पथमारूढं न निगृह्णन्ति सर्वशः |
2186 | 3039007a | अमात्यैः कामवृत्तो हि राजा कापथमाश्रितः |
2187 | 3039007c | निग्राह्यः सर्वथा सद्भिर्न निग्राह्यो निगृह्यसे |
2188 | 3039008a | धर्ममर्थं च कामं च यशश्च जयतां वर |
2189 | 3039008c | स्वामिप्रसादात्सचिवाः प्राप्नुवन्ति निशाचर |
2190 | 3039009a | विपर्यये तु तत्सर्वं व्यर्थं भवति रावण |
2191 | 3039009c | व्यसनं स्वामिवैगुण्यात्प्राप्नुवन्तीतरे जनाः |
2192 | 3039010a | राजमूलो हि धर्मश्च जयश्च जयतां वर |
2193 | 3039010c | तस्मात्सर्वास्ववस्थासु रक्षितव्यो नराधिपः |
2194 | 3039011a | राज्यं पालयितुं शक्यं न तीक्ष्णेन निशाचर |
2195 | 3039011c | न चापि प्रतिकूलेन नाविनीतेन राक्षस |
2196 | 3039012a | ये तीक्ष्णमन्त्राः सचिवा भज्यन्ते सह तेन वै |
2197 | 3039012c | विषमेषु रथाः शीघ्रं मन्दसारथयो यथा |
2198 | 3039013a | बहवः साधवो लोके युक्तधर्ममनुष्ठिताः |
2199 | 3039013c | परेषामपराधेन विनष्टाः सपरिच्छदाः |
2200 | 3039014a | स्वामिना प्रतिकूलेन प्रजास्तीक्ष्णेन रावण |
2201 | 3039014c | रक्ष्यमाणा न वर्धन्ते मेषा गोमायुना यथा |
2202 | 3039015a | अवश्यं विनशिष्यन्ति सर्वे रावण राक्षसाः |
2203 | 3039015c | येषां त्वं कर्कशो राजा दुर्बुद्धिरजितेन्द्रियः |
2204 | 3039016a | तदिदं काकतालीयं घोरमासादितं त्वया |
2205 | 3039016c | अत्र किं शोभनं यत्त्वं ससैन्यो विनशिष्यसि |
2206 | 3039017a | मां निहत्य तु रामोऽसौ नचिरात्त्वां वधिष्यति |
2207 | 3039017c | अनेन कृतकृत्योऽस्मि म्रिये यदरिणा हतः |
2208 | 3039018a | दर्शनादेव रामस्य हतं मामुपधारय |
2209 | 3039018c | आत्मानं च हतं विद्धि हृत्वा सीतां सबान्धवम् |
2210 | 3039019a | आनयिष्यसि चेत्सीतामाश्रमात्सहितो मया |
2211 | 3039019c | नैव त्वमसि नैवाहं नैव लङ्का न राक्षसाः |
2212 | 3039020a | निवार्यमाणस्तु मया हितैषिणा; न मृष्यसे वाक्यमिदं निशाचर |
2213 | 3039020c | परेतकल्पा हि गतायुषो नरा; हितं न गृह्णन्ति सुहृद्भिरीरितम् |
2214 | 3040001a | एवमुक्त्वा तु परुषं मारीचो रावणं ततः |
2215 | 3040001c | गच्छावेत्यब्रवीद्दीनो भयाद्रात्रिंचरप्रभोः |
2216 | 3040002a | दृष्टश्चाहं पुनस्तेन शरचापासिधारिणा |
2217 | 3040002c | मद्वधोद्यतशस्त्रेण विनष्टं जीवितं च मे |
2218 | 3040003a | किं तु कर्तुं मया शक्यमेवं त्वयि दुरात्मनि |
2219 | 3040003c | एष गच्छाम्यहं तात स्वस्ति तेऽस्तु निशाचर |
2220 | 3040004a | प्रहृष्टस्त्वभवत्तेन वचनेन स राक्षसः |
2221 | 3040004c | परिष्वज्य सुसंश्लिष्टमिदं वचनमब्रवीत् |
2222 | 3040005a | एतच्छौण्डीर्ययुक्तं ते मच्छन्दादिव भाषितम् |
2223 | 3040005c | इदानीमसि मारीचः पूर्वमन्यो निशाचरः |
2224 | 3040006a | आरुह्यतामयं शीघ्रं खगो रत्नविभूषितः |
2225 | 3040006c | मया सह रथो युक्तः पिशाचवदनैः खरैः |
2226 | 3040007a | ततो रावणमारीचौ विमानमिव तं रथम् |
2227 | 3040007c | आरुह्य ययतुः शीघ्रं तस्मादाश्रममण्डलात् |
2228 | 3040008a | तथैव तत्र पश्यन्तौ पत्तनानि वनानि च |
2229 | 3040008c | गिरींश्च सरितः सर्वा राष्ट्राणि नगराणि च |
2230 | 3040009a | समेत्य दण्डकारण्यं राघवस्याश्रमं ततः |
2231 | 3040009c | ददर्श सहमरीचो रावणो राक्षसाधिपः |
2232 | 3040010a | अवतीर्य रथात्तस्मात्ततः काञ्चनभूषणात् |
2233 | 3040010c | हस्ते गृहीत्वा मारीचं रावणो वाक्यमब्रवीत् |
2234 | 3040011a | एतद्रामाश्रमपदं दृश्यते कदलीवृतम् |
2235 | 3040011c | क्रियतां तत्सखे शीघ्रं यदर्थं वयमागताः |
2236 | 3040012a | स रावणवचः श्रुत्वा मारीचो राक्षसस्तदा |
2237 | 3040012c | मृगो भूत्वाश्रमद्वारि रामस्य विचचार ह |
2238 | 3040013a | मणिप्रवरशृङ्गाग्रः सितासितमुखाकृतिः |
2239 | 3040013c | रक्तपद्मोत्पलमुख इन्द्रनीलोत्पलश्रवाः |
2240 | 3040014a | किंचिदभ्युन्नत ग्रीव इन्द्रनीलनिभोदरः |
2241 | 3040014c | मधूकनिभपार्श्वश्च कञ्जकिञ्जल्कसंनिभः |
2242 | 3040015a | वैदूर्यसंकाशखुरस्तनुजङ्घः सुसंहतः |
2243 | 3040015c | इन्द्रायुधसवर्णेन पुच्छेनोर्ध्वं विराजितः |
2244 | 3040016a | मनोहरस्निग्धवर्णो रत्नैर्नानाविधैर्वृतः |
2245 | 3040016c | क्षणेन राक्षसो जातो मृगः परमशोभनः |
2246 | 3040017a | वनं प्रज्वलयन्रम्यं रामाश्रमपदं च तत् |
2247 | 3040017c | मनोहरं दर्शनीयं रूपं कृत्वा स राक्षसः |
2248 | 3040018a | प्रलोभनार्थं वैदेह्या नानाधातुविचित्रितम् |
2249 | 3040018c | विचरन्गच्छते सम्यक्शाद्वलानि समन्ततः |
2250 | 3040019a | रूप्यबिन्दुशतैश्चित्रो भूत्वा च प्रियदर्शनः |
2251 | 3040019c | विटपीनां किसलयान्भङ्क्त्वादन्विचचार ह |
2252 | 3040020a | कदलीगृहकं गत्वा कर्णिकारानितस्ततः |
2253 | 3040020c | समाश्रयन्मन्दगतिः सीतासंदर्शनं तदा |
2254 | 3040021a | राजीवचित्रपृष्ठः स विरराज महामृगः |
2255 | 3040021c | रामाश्रमपदाभ्याशे विचचार यथासुखम् |
2256 | 3040022a | पुनर्गत्वा निवृत्तश्च विचचार मृगोत्तमः |
2257 | 3040022c | गत्वा मुहूर्तं त्वरया पुनः प्रतिनिवर्तते |
2258 | 3040023a | विक्रीडंश्च पुनर्भूमौ पुनरेव निषीदति |
2259 | 3040023c | आश्रमद्वारमागम्य मृगयूथानि गच्छति |
2260 | 3040024a | मृगयूथैरनुगतः पुनरेव निवर्तते |
2261 | 3040024c | सीतादर्शनमाकाङ्क्षन्राक्षसो मृगतां गतः |
2262 | 3040025a | परिभ्रमति चित्राणि मण्डलानि विनिष्पतन् |
2263 | 3040025c | समुद्वीक्ष्य च सर्वे तं मृगा येऽन्ये वनेचराः |
2264 | 3040026a | उपगम्य समाघ्राय विद्रवन्ति दिशो दश |
2265 | 3040026c | राक्षसः सोऽपि तान्वन्यान्मृगान्मृगवधे रतः |
2266 | 3040027a | प्रच्छादनार्थं भावस्य न भक्षयति संस्पृशन् |
2267 | 3040027c | तस्मिन्नेव ततः काले वैदेही शुभलोचना |
2268 | 3040028a | कुसुमापचये व्यग्रा पादपानत्यवर्तत |
2269 | 3040028c | कर्णिकारानशोकांश्च चूटांश्च मदिरेक्षणा |
2270 | 3040029a | कुसुमान्यपचिन्वन्ती चचार रुचिरानना |
2271 | 3040029c | अनर्हारण्यवासस्य सा तं रत्नमयं मृगम् |
2272 | 3040029e | मुक्तामणिविचित्राङ्गं ददर्श परमाङ्गना |
2273 | 3040030a | तं वै रुचिरदण्तौष्ठं रूप्यधातुतनूरुहम् |
2274 | 3040030c | विस्मयोत्फुल्लनयना सस्नेहं समुदैक्षत |
2275 | 3040031a | स च तां रामदयितां पश्यन्मायामयो मृगः |
2276 | 3040031c | विचचार ततस्तत्र दीपयन्निव तद्वनम् |
2277 | 3040032a | अदृष्टपूर्वं दृष्ट्वा तं नानारत्नमयं मृगम् |
2278 | 3040032c | विस्मयं परमं सीता जगाम जनकात्मजा |
2279 | 3041001a | सा तं संप्रेक्ष्य सुश्रोणी कुसुमानि विचिन्वती |
2280 | 3041001c | हेमराजतवर्णाभ्यां पार्श्वाभ्यामुपशोभितम् |
2281 | 3041002a | प्रहृष्टा चानवद्याङ्गी मृष्टहाटकवर्णिनी |
2282 | 3041002c | भर्तारमपि चाक्रन्दल्लक्ष्मणं चैव सायुधम् |
2283 | 3041003a | तयाहूतौ नरव्याघ्रौ वैदेह्या रामलक्ष्मणौ |
2284 | 3041003c | वीक्षमाणौ तु तं देशं तदा ददृशतुर्मृगम् |
2285 | 3041004a | शङ्कमानस्तु तं दृष्ट्वा लक्ष्मणो राममब्रवीत् |
2286 | 3041004c | तमेवैनमहं मन्ये मारीचं राक्षसं मृगम् |
2287 | 3041005a | चरन्तो मृगयां हृष्टाः पापेनोपाधिना वने |
2288 | 3041005c | अनेन निहता राम राजानः कामरूपिणा |
2289 | 3041006a | अस्य मायाविदो मायामृगरूपमिदं कृतम् |
2290 | 3041006c | भानुमत्पुरुषव्याघ्र गन्धर्वपुरसंनिभम् |
2291 | 3041007a | मृगो ह्येवंविधो रत्नविचित्रो नास्ति राघव |
2292 | 3041007c | जगत्यां जगतीनाथ मायैषा हि न संशयः |
2293 | 3041008a | एवं ब्रुवाणं काकुत्स्थं प्रतिवार्य शुचिस्मिता |
2294 | 3041008c | उवाच सीता संहृष्टा छद्मना हृतचेतना |
2295 | 3041009a | आर्यपुत्राभिरामोऽसौ मृगो हरति मे मनः |
2296 | 3041009c | आनयैनं महाबाहो क्रीडार्थं नो भविष्यति |
2297 | 3041010a | इहाश्रमपदेऽस्माकं बहवः पुण्यदर्शनाः |
2298 | 3041010c | मृगाश्चरन्ति सहिताश्चमराः सृमरास्तथा |
2299 | 3041011a | ऋक्षाः पृषतसंघाश्च वानराः किंनरास्तथा |
2300 | 3041011c | विचरन्ति महाबाहो रूपश्रेष्ठा महाबलाः |
2301 | 3041012a | न चास्य सदृशो राजन्दृष्टपूर्वो मृगः पुरा |
2302 | 3041012c | तेजसा क्षमया दीप्त्या यथायं मृगसत्तमः |
2303 | 3041013a | नानावर्णविचित्राङ्गो रत्नबिन्दुसमाचितः |
2304 | 3041013c | द्योतयन्वनमव्यग्रं शोभते शशिसंनिभः |
2305 | 3041014a | अहो रूपमहो लक्ष्मीः स्वरसंपच्च शोभना |
2306 | 3041014c | मृगोऽद्भुतो विचित्रोऽसौ हृदयं हरतीव मे |
2307 | 3041015a | यदि ग्रहणमभ्येति जीवन्नेव मृगस्तव |
2308 | 3041015c | आश्चर्यभूतं भवति विस्मयं जनयिष्यति |
2309 | 3041016a | समाप्तवनवासानां राज्यस्थानां च नः पुनः |
2310 | 3041016c | अन्तःपुरविभूषार्थो मृग एष भविष्यति |
2311 | 3041017a | भरतस्यार्यपुत्रस्य श्वश्रूणां मम च प्रभो |
2312 | 3041017c | मृगरूपमिदं दिव्यं विस्मयं जनयिष्यति |
2313 | 3041018a | जीवन्न यदि तेऽभ्येति ग्रहणं मृगसत्तमः |
2314 | 3041018c | अजिनं नरशार्दूल रुचिरं मे भविष्यति |
2315 | 3041019a | निहतस्यास्य सत्त्वस्य जाम्बूनदमयत्वचि |
2316 | 3041019c | शष्पबृस्यां विनीतायामिच्छाम्यहमुपासितुम् |
2317 | 3041020a | कामवृत्तमिदं रौद्रं स्त्रीणामसदृशं मतम् |
2318 | 3041020c | वपुषा त्वस्य सत्त्वस्य विस्मयो जनितो मम |
2319 | 3041021a | तेन काञ्चनरोम्णा तु मणिप्रवरशृङ्गिणा |
2320 | 3041021c | तरुणादित्यवर्णेन नक्षत्रपथवर्चसा |
2321 | 3041021e | बभूव राघवस्यापि मनो विस्मयमागतम् |
2322 | 3041022a | एवं सीतावचः श्रुत्वा दृष्ट्वा च मृगमद्भुतम् |
2323 | 3041022c | उवाच राघवो हृष्टो भ्रातरं लक्ष्मणं वचः |
2324 | 3041023a | पश्य लक्ष्मण वैदेह्याः स्पृहां मृगगतामिमाम् |
2325 | 3041023c | रूपश्रेष्ठतया ह्येष मृगोऽद्य न भविष्यति |
2326 | 3041024a | न वने नन्दनोद्देशे न चैत्ररथसंश्रये |
2327 | 3041024c | कुतः पृथिव्यां सौमित्रे योऽस्य कश्चित्समो मृगः |
2328 | 3041025a | प्रतिलोमानुलोमाश्च रुचिरा रोमराजयः |
2329 | 3041025c | शोभन्ते मृगमाश्रित्य चित्राः कनकबिन्दुभिः |
2330 | 3041026a | पश्यास्य जृम्भमाणस्य दीप्तामग्निशिखोपमाम् |
2331 | 3041026c | जिह्वां मुखान्निःसरन्तीं मेघादिव शतह्रदाम् |
2332 | 3041027a | मसारगल्वर्कमुखः शङ्खमुक्तानिभोदरः |
2333 | 3041027c | कस्य नामानिरूप्योऽसौ न मनो लोभयेन्मृगः |
2334 | 3041028a | कस्य रूपमिदं दृष्ट्वा जाम्बूनदमयप्रभम् |
2335 | 3041028c | नानारत्नमयं दिव्यं न मनो विस्मयं व्रजेत् |
2336 | 3041029a | मांसहेतोरपि मृगान्विहारार्थं च धन्विनः |
2337 | 3041029c | घ्नन्ति लक्ष्मण राजानो मृगयायां महावने |
2338 | 3041030a | धनानि व्यवसायेन विचीयन्ते महावने |
2339 | 3041030c | धातवो विविधाश्चापि मणिरत्नसुवर्णिनः |
2340 | 3041031a | तत्सारमखिलं नॄणां धनं निचयवर्धनम् |
2341 | 3041031c | मनसा चिन्तितं सर्वं यथा शुक्रस्य लक्ष्मण |
2342 | 3041032a | अर्थी येनार्थकृत्येन संव्रजत्यविचारयन् |
2343 | 3041032c | तमर्थमर्थशास्त्रज्ञः प्राहुरर्थ्याश्च लक्ष्मण |
2344 | 3041033a | एतस्य मृगरत्नस्य परार्ध्ये काञ्चनत्वचि |
2345 | 3041033c | उपवेक्ष्यति वैदेही मया सह सुमध्यमा |
2346 | 3041034a | न कादली न प्रियकी न प्रवेणी न चाविकी |
2347 | 3041034c | भवेदेतस्य सदृशी स्पर्शनेनेति मे मतिः |
2348 | 3041035a | एष चैव मृगः श्रीमान्यश्च दिव्यो नभश्चरः |
2349 | 3041035c | उभावेतौ मृगौ दिव्यौ तारामृगमहीमृगौ |
2350 | 3041036a | यदि वायं तथा यन्मां भवेद्वदसि लक्ष्मण |
2351 | 3041036c | मायैषा राक्षसस्येति कर्तव्योऽस्य वधो मया |
2352 | 3041037a | एतेन हि नृशंसेन मारीचेनाकृतात्मना |
2353 | 3041037c | वने विचरता पूर्वं हिंसिता मुनिपुंगवाः |
2354 | 3041038a | उत्थाय बहवो येन मृगयायां जनाधिपाः |
2355 | 3041038c | निहताः परमेष्वासास्तस्माद्वध्यस्त्वयं मृगः |
2356 | 3041039a | पुरस्तादिह वातापिः परिभूय तपस्विनः |
2357 | 3041039c | उदरस्थो द्विजान्हन्ति स्वगर्भोऽश्वतरीमिव |
2358 | 3041040a | स कदाचिच्चिराल्लोके आससाद महामुनिम् |
2359 | 3041040c | अगस्त्यं तेजसा युक्तं भक्ष्यस्तस्य बभूव ह |
2360 | 3041041a | समुत्थाने च तद्रूपं कर्तुकामं समीक्ष्य तम् |
2361 | 3041041c | उत्स्मयित्वा तु भगवान्वातापिमिदमब्रवीत् |
2362 | 3041042a | त्वयाविगण्य वातापे परिभूताश्च तेजसा |
2363 | 3041042c | जीवलोके द्विजश्रेष्ठास्तस्मादसि जरां गतः |
2364 | 3041043a | एवं तन्न भवेद्रक्षो वातापिरिव लक्ष्मण |
2365 | 3041043c | मद्विधं योऽतिमन्येत धर्मनित्यं जितेन्द्रियम् |
2366 | 3041044a | भवेद्धतोऽयं वातापिरगस्त्येनेव मा गतिः |
2367 | 3041044c | इह त्वं भव संनद्धो यन्त्रितो रक्ष मैथिलीम् |
2368 | 3041045a | अस्यामायत्तमस्माकं यत्कृत्यं रघुनन्दन |
2369 | 3041045c | अहमेनं वधिष्यामि ग्रहीष्याम्यथ वा मृगम् |
2370 | 3041046a | यावद्गच्छामि सौमित्रे मृगमानयितुं द्रुतम् |
2371 | 3041046c | पश्य लक्ष्मण वैदेहीं मृगत्वचि गतस्पृहाम् |
2372 | 3041047a | त्वचा प्रधानया ह्येष मृगोऽद्य न भविष्यति |
2373 | 3041047c | अप्रमत्तेन ते भाव्यमाश्रमस्थेन सीतया |
2374 | 3041048a | यावत्पृषतमेकेन सायकेन निहन्म्यहम् |
2375 | 3041048c | हत्वैतच्चर्म आदाय शीघ्रमेष्यामि लक्ष्मण |
2376 | 3041049a | प्रदक्षिणेनातिबलेन पक्षिणा; जटायुषा बुद्धिमता च लक्ष्मण |
2377 | 3041049c | भवाप्रमत्तः प्रतिगृह्य मैथिलीं; प्रतिक्षणं सर्वत एव शङ्कितः |
2378 | 3042001a | तथा तु तं समादिश्य भ्रातरं रघुनन्दनः |
2379 | 3042001c | बबन्धासिं महातेजा जाम्बूनदमयत्सरुम् |
2380 | 3042002a | ततस्त्रिविणतं चापमादायात्मविभूषणम् |
2381 | 3042002c | आबध्य च कलापौ द्वौ जगामोदग्रविक्रमः |
2382 | 3042003a | तं वञ्चयानो राजेन्द्रमापतन्तं निरीक्ष्य वै |
2383 | 3042003c | बभूवान्तर्हितस्त्रासात्पुनः संदर्शनेऽभवत् |
2384 | 3042004a | बद्धासिर्धनुरादाय प्रदुद्राव यतो मृगः |
2385 | 3042004c | तं स पश्यति रूपेण द्योतमानमिवाग्रतः |
2386 | 3042005a | अवेक्ष्यावेक्ष्य धावन्तं धनुष्पाणिर्महावने |
2387 | 3042005c | अतिवृत्तमिषोः पाताल्लोभयानं कदाचन |
2388 | 3042006a | शङ्कितं तु समुद्भ्रान्तमुत्पतन्तमिवाम्बरे |
2389 | 3042006c | दश्यमानमदृश्यं च नवोद्देशेषु केषुचित् |
2390 | 3042007a | छिन्नाभ्रैरिव संवीतं शारदं चन्द्रमण्डलम् |
2391 | 3042007c | मुहूर्तादेव ददृशे मुहुर्दूरात्प्रकाशते |
2392 | 3042008a | दर्शनादर्शनेनैव सोऽपाकर्षत राघवम् |
2393 | 3042008c | आसीत्क्रुद्धस्तु काकुत्स्थो विवशस्तेन मोहितः |
2394 | 3042009a | अथावतस्थे सुश्रान्तश्छायामाश्रित्य शाद्वले |
2395 | 3042009c | मृगैः परिवृतो वन्यैरदूरात्प्रत्यदृश्यत |
2396 | 3042010a | दृष्ट्वा रामो महातेजास्तं हन्तुं कृतनिश्चयः |
2397 | 3042010c | संधाय सुदृढे चापे विकृष्य बलवद्बली |
2398 | 3042011a | तमेव मृगमुद्दिश्य ज्वलन्तमिव पन्नगम् |
2399 | 3042011c | मुमोच ज्वलितं दीप्तमस्त्रब्रह्मविनिर्मितम् |
2400 | 3042012a | स भृशं मृगरूपस्य विनिर्भिद्य शरोत्तमः |
2401 | 3042012c | मारीचस्यैव हृदयं विभेदाशनिसंनिभः |
2402 | 3042013a | तालमात्रमथोत्पत्य न्यपतत्स शरातुरः |
2403 | 3042013c | व्यनदद्भैरवं नादं धरण्यामल्पजीवितः |
2404 | 3042013e | म्रियमाणस्तु मारीचो जहौ तां कृत्रिमां तनुम् |
2405 | 3042014a | संप्राप्तकालमाज्ञाय चकार च ततः स्वरम् |
2406 | 3042014c | सदृशं राघवस्यैव हा सीते लक्ष्मणेति च |
2407 | 3042015a | तेन मर्मणि निर्विद्धः शरेणानुपमेन हि |
2408 | 3042015c | मृगरूपं तु तत्त्यक्त्वा राक्षसं रूपमात्मनः |
2409 | 3042015e | चक्रे स सुमहाकायो मारीचो जीवितं त्यजन् |
2410 | 3042016a | ततो विचित्रकेयूरः सर्वाभरणभूषितः |
2411 | 3042016c | हेममाली महादंष्ट्रो राक्षसोऽभूच्छराहतः |
2412 | 3042017a | तं दृष्ट्वा पतितं भूमौ राक्षसं घोरदर्शनम् |
2413 | 3042017c | जगाम मनसा सीतां लक्ष्मणस्य वचः स्मरन् |
2414 | 3042018a | हा सीते लक्ष्मणेत्येवमाक्रुश्य तु महास्वरम् |
2415 | 3042018c | ममार राक्षसः सोऽयं श्रुत्वा सीता कथं भवेत् |
2416 | 3042019a | लक्ष्मणश्च महाबाहुः कामवस्थां गमिष्यति |
2417 | 3042019c | इति संचिन्त्य धर्मात्मा रामो हृष्टतनूरुहः |
2418 | 3042020a | तत्र रामं भयं तीव्रमाविवेश विषादजम् |
2419 | 3042020c | राक्षसं मृगरूपं तं हत्वा श्रुत्वा च तत्स्वरम् |
2420 | 3042021a | निहत्य पृषतं चान्यं मांसमादाय राघवः |
2421 | 3042021c | त्वरमाणो जनस्थानं ससाराभिमुखस्तदा |
2422 | 3043001a | आर्तस्वरं तु तं भर्तुर्विज्ञाय सदृशं वने |
2423 | 3043001c | उवाच लक्ष्मणं सीता गच्छ जानीहि राघवम् |
2424 | 3043002a | न हि मे जीवितं स्थाने हृदयं वावतिष्ठते |
2425 | 3043002c | क्रोशतः परमार्तस्य श्रुतः शब्दो मया भृशम् |
2426 | 3043003a | आक्रन्दमानं तु वने भ्रातरं त्रातुमर्हसि |
2427 | 3043003c | तं क्षिप्रमभिधाव त्वं भ्रातरं शरणैषिणम् |
2428 | 3043004a | रक्षसां वशमापन्नं सिंहानामिव गोवृषम् |
2429 | 3043004c | न जगाम तथोक्तस्तु भ्रातुराज्ञाय शासनम् |
2430 | 3043005a | तमुवाच ततस्तत्र कुपिता जनकात्मजा |
2431 | 3043005c | सौमित्रे मित्ररूपेण भ्रातुस्त्वमसि शत्रुवत् |
2432 | 3043006a | यस्त्वमस्यामवस्थायां भ्रातरं नाभिपद्यसे |
2433 | 3043006c | इच्छसि त्वं विनश्यन्तं रामं लक्ष्मण मत्कृते |
2434 | 3043007a | व्यसनं ते प्रियं मन्ये स्नेहो भ्रातरि नास्ति ते |
2435 | 3043007c | तेन तिष्ठसि विस्रब्धस्तमपश्यन्महाद्युतिम् |
2436 | 3043008a | किं हि संशयमापन्ने तस्मिन्निह मया भवेत् |
2437 | 3043008c | कर्तव्यमिह तिष्ठन्त्या यत्प्रधानस्त्वमागतः |
2438 | 3043009a | इति ब्रुवाणं वैदेहीं बाष्पशोकपरिप्लुताम् |
2439 | 3043009c | अब्रवील्लक्ष्मणस्त्रस्तां सीतां मृगवधूमिव |
2440 | 3043010a | देवि देवमनुष्येषु गन्धर्वेषु पतत्रिषु |
2441 | 3043010c | राक्षसेषु पिशाचेषु किंनरेषु मृगेषु च |
2442 | 3043011a | दानवेषु च घोरेषु न स विद्येत शोभने |
2443 | 3043011c | यो रामं प्रतियुध्येत समरे वासवोपमम् |
2444 | 3043012a | अवध्यः समरे रामो नैवं त्वं वक्तुमर्हसि |
2445 | 3043012c | न त्वामस्मिन्वने हातुमुत्सहे राघवं विना |
2446 | 3043013a | अनिवार्यं बलं तस्य बलैर्बलवतामपि |
2447 | 3043013c | त्रिभिर्लोकैः समुद्युक्तैः सेश्वरैः सामरैरपि |
2448 | 3043014a | हृदयं निर्वृतं तेऽस्तु संतापस्त्यज्यतामयम् |
2449 | 3043014c | आगमिष्यति ते भर्ता शीघ्रं हत्वा मृगोत्तमम् |
2450 | 3043015a | न स तस्य स्वरो व्यक्तं न कश्चिदपि दैवतः |
2451 | 3043015c | गन्धर्वनगरप्रख्या माया सा तस्य रक्षसः |
2452 | 3043016a | न्यासभूतासि वैदेहि न्यस्ता मयि महात्मना |
2453 | 3043016c | रामेण त्वं वरारोहे न त्वां त्यक्तुमिहोत्सहे |
2454 | 3043017a | कृतवैराश्च कल्याणि वयमेतैर्निशाचरैः |
2455 | 3043017c | खरस्य निधने देवि जनस्थानवधं प्रति |
2456 | 3043018a | राक्षसा विधिना वाचो विसृजन्ति महावने |
2457 | 3043018c | हिंसाविहारा वैदेहि न चिन्तयितुमर्हसि |
2458 | 3043019a | लक्ष्मणेनैवमुक्ता तु क्रुद्धा संरक्तलोचना |
2459 | 3043019c | अब्रवीत्परुषं वाक्यं लक्ष्मणं सत्यवादिनम् |
2460 | 3043020a | अनार्य करुणारम्भ नृशंस कुलपांसन |
2461 | 3043020c | अहं तव प्रियं मन्ये तेनैतानि प्रभाषसे |
2462 | 3043021a | नैतच्चित्रं सपत्नेषु पापं लक्ष्मण यद्भवेत् |
2463 | 3043021c | त्वद्विधेषु नृशंसेषु नित्यं प्रच्छन्नचारिषु |
2464 | 3043022a | सुदुष्टस्त्वं वने राममेकमेकोऽनुगच्छसि |
2465 | 3043022c | मम हेतोः प्रतिच्छन्नः प्रयुक्तो भरतेन वा |
2466 | 3043023a | कथमिन्दीवरश्यामं रामं पद्मनिभेक्षणम् |
2467 | 3043023c | उपसंश्रित्य भर्तारं कामयेयं पृथग्जनम् |
2468 | 3043024a | समक्षं तव सौमित्रे प्राणांस्त्यक्ष्ये न संशयः |
2469 | 3043024c | रामं विना क्षणमपि न हि जीवामि भूतले |
2470 | 3043025a | इत्युक्तः परुषं वाक्यं सीतया सोमहर्षणम् |
2471 | 3043025c | अब्रवील्लक्ष्मणः सीतां प्राञ्जलिर्विजितेन्द्रियः |
2472 | 3043026a | उत्तरं नोत्सहे वक्तुं दैवतं भवती मम |
2473 | 3043026c | वाक्यमप्रतिरूपं तु न चित्रं स्त्रीषु मैथिलि |
2474 | 3043027a | स्वभावस्त्वेष नारीणामेषु लोकेषु दृश्यते |
2475 | 3043027c | विमुक्तधर्माश्चपलास्तीक्ष्णा भेदकराः स्त्रियः |
2476 | 3043028a | उपशृण्वन्तु मे सर्वे साक्षिभूता वनेचराः |
2477 | 3043028c | न्यायवादी यथा वाक्यमुक्तोऽहं परुषं त्वया |
2478 | 3043029a | धिक्त्वामद्य प्रणश्य त्वं यन्मामेवं विशङ्कसे |
2479 | 3043029c | स्त्रीत्वाद्दुष्टस्वभावेन गुरुवाक्ये व्यवस्थितम् |
2480 | 3043030a | गमिष्ये यत्र काकुत्स्थः स्वस्ति तेऽस्तु वरानने |
2481 | 3043030c | रक्षन्तु त्वां विशालाक्षि समग्रा वनदेवताः |
2482 | 3043031a | निमित्तानि हि घोराणि यानि प्रादुर्भवन्ति मे |
2483 | 3043031c | अपि त्वां सह रामेण पश्येयं पुनरागतः |
2484 | 3043032a | लक्ष्मणेनैवमुक्ता तु रुदती जनकात्मजा |
2485 | 3043032c | प्रत्युवाच ततो वाक्यं तीव्रं बाष्पपरिप्लुता |
2486 | 3043033a | गोदावरीं प्रवेक्ष्यामि विना रामेण लक्ष्मण |
2487 | 3043033c | आबन्धिष्येऽथवा त्यक्ष्ये विषमे देहमात्मनः |
2488 | 3043034a | पिबामि वा विषं तीक्ष्णं प्रवेक्ष्यामि हुताशनम् |
2489 | 3043034c | न त्वहं राघवादन्यं पदापि पुरुषं स्पृशे |
2490 | 3043035a | इति लक्ष्मणमाक्रुश्य सीता दुःखसमन्विता |
2491 | 3043035c | पाणिभ्यां रुदती दुःखादुदरं प्रजघान ह |
2492 | 3043036a | तामार्तरूपां विमना रुदन्तीं; सौमित्रिरालोक्य विशालनेत्राम् |
2493 | 3043036c | आश्वासयामास न चैव भर्तु;स्तं भ्रातरं किंचिदुवाच सीता |
2494 | 3043037a | ततस्तु सीतामभिवाद्य लक्ष्मणः; कृताञ्जलिः किंचिदभिप्रणम्य |
2495 | 3043037c | अवेक्षमाणो बहुशश्च मैथिलीं; जगाम रामस्य समीपमात्मवान् |
2496 | 3044001a | तया परुषमुक्तस्तु कुपितो राघवानुजः |
2497 | 3044001c | स विकाङ्क्षन्भृशं रामं प्रतस्थे नचिरादिव |
2498 | 3044002a | तदासाद्य दशग्रीवः क्षिप्रमन्तरमास्थितः |
2499 | 3044002c | अभिचक्राम वैदेहीं परिव्राजकरूपधृक् |
2500 | 3044003a | श्लक्ष्णकाषायसंवीतः शिखी छत्री उपानही |
2501 | 3044003c | वामे चांसेऽवसज्याथ शुभे यष्टिकमण्डलू |
2502 | 3044003e | परिव्राजकरूपेण वैदेहीं समुपागमत् |
2503 | 3044004a | तामाससादातिबलो भ्रातृभ्यां रहितां वने |
2504 | 3044004c | रहितां सूर्यचन्द्राभ्यां संध्यामिव महत्तमः |
2505 | 3044005a | तामपश्यत्ततो बालां राजपुत्रीं यशस्विनीम् |
2506 | 3044005c | रोहिणीं शशिना हीनां ग्रहवद्भृशदारुणः |
2507 | 3044006a | तमुग्रं पापकर्माणं जनस्थानरुहा द्रुमाः |
2508 | 3044006c | समीक्ष्य न प्रकम्पन्ते न प्रवाति च मारुतः |
2509 | 3044007a | शीघ्रस्रोताश्च तं दृष्ट्वा वीक्षन्तं रक्तलोचनम् |
2510 | 3044007c | स्तिमितं गन्तुमारेभे भयाद्गोदावरी नदी |
2511 | 3044008a | रामस्य त्वन्तरं प्रेप्सुर्दशग्रीवस्तदन्तरे |
2512 | 3044008c | उपतस्थे च वैदेहीं भिक्षुरूपेण रावणः |
2513 | 3044009a | अभव्यो भव्यरूपेण भर्तारमनुशोचतीम् |
2514 | 3044009c | अभ्यवर्तत वैदेहीं चित्रामिव शनैश्चरः |
2515 | 3044010a | स पापो भव्यरूपेण तृणैः कूप इवावृतः |
2516 | 3044010c | अतिष्ठत्प्रेक्ष्य वैदेहीं रामपत्नीं यशस्विनीम् |
2517 | 3044011a | शुभां रुचिरदन्तौष्ठीं पूर्णचन्द्रनिभाननाम् |
2518 | 3044011c | आसीनां पर्णशालायां बाष्पशोकाभिपीडिताम् |
2519 | 3044012a | स तां पद्मपलाशाक्षीं पीतकौशेयवासिनीम् |
2520 | 3044012c | अभ्यगच्छत वैदेहीं दुष्टचेता निशाचरः |
2521 | 3044013a | स मन्मथशराविष्टो ब्रह्मघोषमुदीरयन् |
2522 | 3044013c | अब्रवीत्प्रश्रितं वाक्यं रहिते राक्षसाधिपः |
2523 | 3044014a | तामुत्तमां त्रिलोकानां पद्महीनामिव श्रियम् |
2524 | 3044014c | विभ्राजमानां वपुषा रावणः प्रशशंस ह |
2525 | 3044015a | का त्वं काञ्चनवर्णाभे पीतकौशेयवासिनि |
2526 | 3044015c | कमलानां शुभां मालां पद्मिनीव च बिभ्रती |
2527 | 3044016a | ह्रीः श्रीः कीर्तिः शुभा लक्ष्मीरप्सरा वा शुभानने |
2528 | 3044016c | भूतिर्वा त्वं वरारोहे रतिर्वा स्वैरचारिणी |
2529 | 3044017a | समाः शिखरिणः स्निग्धाः पाण्डुरा दशनास्तव |
2530 | 3044017c | विशाले विमले नेत्रे रक्तान्ते कृष्णतारके |
2531 | 3044018a | विशालं जघनं पीनमूरू करिकरोपमौ |
2532 | 3044018c | एतावुपचितौ वृत्तौ सहितौ संप्रगल्भितौ |
2533 | 3044019a | पीनोन्नतमुखौ कान्तौ स्निग्धतालफलोपमौ |
2534 | 3044019c | मणिप्रवेकाभरणौ रुचिरौ ते पयोधरौ |
2535 | 3044020a | चारुस्मिते चारुदति चारुनेत्रे विलासिनि |
2536 | 3044020c | मनो हरसि मे रामे नदीकूलमिवाम्भसा |
2537 | 3044021a | करान्तमितमध्यासि सुकेशी संहतस्तनी |
2538 | 3044021c | नैव देवी न गन्धर्वी न यक्षी न च किंनरी |
2539 | 3044022a | नैवंरूपा मया नारी दृष्टपूर्वा महीतले |
2540 | 3044022c | इह वासश्च कान्तारे चित्तमुन्माथयन्ति मे |
2541 | 3044023a | सा प्रतिक्राम भद्रं ते न त्वं वस्तुमिहार्हसि |
2542 | 3044023c | राक्षसानामयं वासो घोराणां कामरूपिणाम् |
2543 | 3044024a | प्रासादाग्र्याणि रम्याणि नगरोपवनानि च |
2544 | 3044024c | संपन्नानि सुगन्धीनि युक्तान्याचरितुं त्वया |
2545 | 3044025a | वरं माल्यं वरं पानं वरं वस्त्रं च शोभने |
2546 | 3044025c | भर्तारं च वरं मन्ये त्वद्युक्तमसितेक्षणे |
2547 | 3044026a | का त्वं भवसि रुद्राणां मरुतां वा शुचिस्मिते |
2548 | 3044026c | वसूनां वा वरारोहे देवता प्रतिभासि मे |
2549 | 3044027a | नेह गच्छन्ती गन्धर्वा न देवा न च किंनराः |
2550 | 3044027c | राक्षसानामयं वासः कथं नु त्वमिहागता |
2551 | 3044028a | इह शाखामृगाः सिंहा द्वीपिव्याघ्रमृगास्तथा |
2552 | 3044028c | ऋक्षास्तरक्षवः कङ्काः कथं तेभ्यो न बिभ्यसे |
2553 | 3044029a | मदान्वितानां घोराणां कुञ्जराणां तरस्विनाम् |
2554 | 3044029c | कथमेका महारण्ये न बिभेषि वनानने |
2555 | 3044030a | कासि कस्य कुतश्च त्वं किंनिमित्तं च दण्डकान् |
2556 | 3044030c | एका चरसि कल्याणि घोरान्राक्षससेवितान् |
2557 | 3044031a | इति प्रशस्ता वैदेही रावणेन दुरात्मना |
2558 | 3044031c | द्विजातिवेषेण हि तं दृष्ट्वा रावणमागतम् |
2559 | 3044031e | सर्वैरतिथिसत्कारैः पूजयामास मैथिली |
2560 | 3044032a | उपानीयासनं पूर्वं पाद्येनाभिनिमन्त्र्य च |
2561 | 3044032c | अब्रवीत्सिद्धमित्येव तदा तं सौम्यदर्शनम् |
2562 | 3044033a | द्विजातिवेषेण समीक्ष्य मैथिली; तमागतं पात्रकुसुम्भधारिणम् |
2563 | 3044033c | अशक्यमुद्द्वेष्टुमुपायदर्शना;न्न्यमन्त्रयद्ब्राह्मणवद्यथागतम् |
2564 | 3044034a | इयं बृसी ब्राह्मण काममास्यता;मिदं च पाद्यं प्रतिगृह्यतामिति |
2565 | 3044034c | इदं च सिद्धं वनजातमुत्तमं; त्वदर्थमव्यग्रमिहोपभुज्यताम् |
2566 | 3044035a | निमन्त्र्यमाणः प्रतिपूर्णभाषिणीं; नरेन्द्रपत्नीं प्रसमीक्ष्य मैथिलीम् |
2567 | 3044035c | प्रहस्य तस्या हरणे धृतं मनः; समर्पयामास वधाय रावणः |
2568 | 3044036a | ततः सुवेषं मृगया गतं पतिं; प्रतीक्षमाणा सहलक्ष्मणं तदा |
2569 | 3044036c | निरीक्षमाणा हरितं ददर्श त;न्महद्वनं नैव तु रामलक्ष्मणौ |
2570 | 3045001a | रावणेन तु वैदेही तदा पृष्टा जिहीर्षुणा |
2571 | 3045001c | परिव्राजकरूपेण शशंसात्मानमात्मना |
2572 | 3045002a | ब्राह्मणश्चातिथिश्चैष अनुक्तो हि शपेत माम् |
2573 | 3045002c | इति ध्यात्वा मुहूर्तं तु सीता वचनमब्रवीत् |
2574 | 3045003a | दुहिता जनकस्याहं मैथिलस्य महात्मनः |
2575 | 3045003c | सीता नाम्नास्मि भद्रं ते रामभार्या द्विजोत्तम |
2576 | 3045004a | संवत्सरं चाध्युषिता राघवस्य निवेशने |
2577 | 3045004c | भुञ्जाना मानुषान्भोगान्सर्वकामसमृद्धिनी |
2578 | 3045005a | ततः संवत्सरादूर्ध्वं सममन्यत मे पतिम् |
2579 | 3045005c | अभिषेचयितुं रामं समेतो राजमन्त्रिभिः |
2580 | 3045006a | तस्मिन्संभ्रियमाणे तु राघवस्याभिषेचने |
2581 | 3045006c | कैकेयी नाम भर्तारं ममार्या याचते वरम् |
2582 | 3045007a | प्रतिगृह्य तु कैकेयी श्वशुरं सुकृतेन मे |
2583 | 3045007c | मम प्रव्राजनं भर्तुर्भरतस्याभिषेचनम् |
2584 | 3045007e | द्वावयाचत भर्तारं सत्यसंधं नृपोत्तमम् |
2585 | 3045008a | नाद्य भोक्ष्ये न च स्वप्स्ये न पास्येऽहं कदाचन |
2586 | 3045008c | एष मे जीवितस्यान्तो रामो यद्यभिषिच्यते |
2587 | 3045009a | इति ब्रुवाणां कैकेयीं श्वशुरो मे स मानदः |
2588 | 3045009c | अयाचतार्थैरन्वर्थैर्न च याच्ञां चकार सा |
2589 | 3045010a | मम भर्ता महातेजा वयसा पञ्चविंशकः |
2590 | 3045010c | रामेति प्रथितो लोके गुणवान्सत्यवाक्शुचिः |
2591 | 3045010e | विशालाक्षो महाबाहुः सर्वभूतहिते रतः |
2592 | 3045011a | अभिषेकाय तु पितुः समीपं राममागतम् |
2593 | 3045011c | कैकेयी मम भर्तारमित्युवाच द्रुतं वचः |
2594 | 3045012a | तव पित्रा समाज्ञप्तं ममेदं शृणु राघव |
2595 | 3045012c | भरताय प्रदातव्यमिदं राज्यमकण्टकम् |
2596 | 3045013a | त्वया तु खलु वस्तव्यं नव वर्षाणि पञ्च च |
2597 | 3045013c | वने प्रव्रज काकुत्स्थ पितरं मोचयानृतात् |
2598 | 3045014a | तथेत्युवाच तां रामः कैकेयीमकुतोभयः |
2599 | 3045014c | चकार तद्वचस्तस्या मम भर्ता दृढव्रतः |
2600 | 3045015a | दद्यान्न प्रतिगृह्णीयात्सत्यब्रूयान्न चानृतम् |
2601 | 3045015c | एतद्ब्राह्मण रामस्य व्रतं ध्रुवमनुत्तमम् |
2602 | 3045016a | तस्य भ्राता तु वैमात्रो लक्ष्मणो नाम वीर्यवान् |
2603 | 3045016c | रामस्य पुरुषव्याघ्रः सहायः समरेऽरिहा |
2604 | 3045017a | स भ्राता लक्ष्मणो नाम धर्मचारी दृढव्रतः |
2605 | 3045017c | अन्वगच्छद्धनुष्पाणिः प्रव्रजन्तं मया सह |
2606 | 3045018a | ते वयं प्रच्युता राज्यात्कैलेय्यास्तु कृते त्रयः |
2607 | 3045018c | विचराम द्विजश्रेष्ठ वनं गम्भीरमोजसा |
2608 | 3045019a | समाश्वस मुहूर्तं तु शक्यं वस्तुमिह त्वया |
2609 | 3045019c | आगमिष्यति मे भर्ता वन्यमादाय पुष्कलम् |
2610 | 3045020a | स त्वं नाम च गोत्रं च कुलमाचक्ष्व तत्त्वतः |
2611 | 3045020c | एकश्च दण्डकारण्ये किमर्थं चरसि द्विज |
2612 | 3045021a | एवं ब्रुवत्यां सीतायां रामपत्न्यां महाबलः |
2613 | 3045021c | प्रत्युवाचोत्तरं तीव्रं रावणो राक्षसाधिपः |
2614 | 3045022a | येन वित्रासिता लोकाः सदेवासुरपन्नगाः |
2615 | 3045022c | अहं स रावणो नाम सीते रक्षोगणेश्वरः |
2616 | 3045023a | त्वां तु काञ्चनवर्णाभां दृष्ट्वा कौशेयवासिनीम् |
2617 | 3045023c | रतिं स्वकेषु दारेषु नाधिगच्छाम्यनिन्दिते |
2618 | 3045024a | बह्वीनामुत्तमस्त्रीणामाहृतानामितस्ततः |
2619 | 3045024c | सर्वासामेव भद्रं ते ममाग्रमहिषी भव |
2620 | 3045025a | लङ्का नाम समुद्रस्य मध्ये मम महापुरी |
2621 | 3045025c | सागरेण परिक्षिप्ता निविष्टा गिरिमूर्धनि |
2622 | 3045026a | तत्र सीते मया सार्धं वनेषु विचरिष्यसि |
2623 | 3045026c | न चास्यारण्यवासस्य स्पृहयिष्यसि भामिनि |
2624 | 3045027a | पञ्चदास्यः सहस्राणि सर्वाभरणभूषिताः |
2625 | 3045027c | सीते परिचरिष्यन्ति भार्या भवसि मे यदि |
2626 | 3045028a | रावणेनैवमुक्ता तु कुपिता जनकात्मजा |
2627 | 3045028c | प्रत्युवाचानवद्याङ्गी तमनादृत्य राक्षसं |
2628 | 3045029a | महागिरिमिवाकम्प्यं महेन्द्रसदृशं पतिम् |
2629 | 3045029c | महोदधिमिवाक्षोभ्यमहं राममनुव्रता |
2630 | 3045030a | महाबाहुं महोरस्कं सिंहविक्रान्तगामिनम् |
2631 | 3045030c | नृसिंहं सिंहसंकाशमहं राममनुव्रता |
2632 | 3045031a | पूर्णचन्द्राननं वीरं राजवत्सं जितेन्द्रियम् |
2633 | 3045031c | पृथुकीर्तिं महाबाहुमहं राममनुव्रता |
2634 | 3045032a | त्वं पुनर्जम्बुकः सिंहीं मामिहेच्छसि दुर्लभाम् |
2635 | 3045032c | नाहं शक्या त्वया स्प्रष्टुमादित्यस्य प्रभा यथा |
2636 | 3045033a | पादपान्काञ्चनान्नूनं बहून्पश्यसि मन्दभाक् |
2637 | 3045033c | राघवस्य प्रियां भार्यां यस्त्वमिच्छसि रावण |
2638 | 3045034a | क्षुधितस्य च सिंहस्य मृगशत्रोस्तरस्विनः |
2639 | 3045034c | आशीविषस्य वदनाद्दंष्ट्रामादातुमिच्छसि |
2640 | 3045035a | मन्दरं पर्वतश्रेष्ठं पाणिना हर्तुमिच्छसि |
2641 | 3045035c | कालकूटं विषं पीत्वा स्वस्तिमान्गन्तुमिच्छसि |
2642 | 3045036a | अक्षिसूच्या प्रमृजसि जिह्वया लेढि च क्षुरम् |
2643 | 3045036c | राघवस्य प्रियां भार्यामधिगन्तुं त्वमिच्छसि |
2644 | 3045037a | अवसज्य शिलां कण्ठे समुद्रं तर्तुमिच्छसि |
2645 | 3045037c | सूर्या चन्द्रमसौ चोभौ प्राणिभ्यां हर्तुमिच्छसि |
2646 | 3045037e | यो रामस्य प्रियां भार्यां प्रधर्षयितुमिच्छसि |
2647 | 3045038a | अग्निं प्रज्वलितं दृष्ट्वा वस्त्रेणाहर्तुमिच्छसि |
2648 | 3045038c | कल्याण वृत्तां रामस्य यो भार्यां हर्तुमिच्छसि |
2649 | 3045039a | अयोमुखानां शूलानामग्रे चरितुमिच्छसि |
2650 | 3045039c | रामस्य सदृशीं भार्यां योऽधिगन्तुं त्वमिच्छसि |
2651 | 3045040a | यदन्तरं सिंहशृगालयोर्वने; यदन्तरं स्यन्दनिकासमुद्रयोः |
2652 | 3045040c | सुराग्र्यसौवीरकयोर्यदन्तरं; तदन्तरं दाशरथेस्तवैव च |
2653 | 3045041a | यदन्तरं काञ्चनसीसलोहयो;र्यदन्तरं चन्दनवारिपङ्कयोः |
2654 | 3045041c | यदन्तरं हस्तिबिडालयोर्वने; तदन्तरं दशरथेस्तवैव च |
2655 | 3045042a | यदन्तरं वायसवैनतेययो;र्यदन्तरं मद्गुमयूरयोरपि |
2656 | 3045042c | यदन्तरं सारसगृध्रयोर्वने; तदन्तरं दाशरथेस्तवैव च |
2657 | 3045043a | तस्मिन्सहस्राक्षसमप्रभावे; रामे स्थिते कार्मुकबाणपाणौ |
2658 | 3045043c | हृतापि तेऽहं न जरां गमिष्ये; वज्रं यथा मक्षिकयावगीर्णम् |
2659 | 3045044a | इतीव तद्वाक्यमदुष्टभावा; सुदृष्टमुक्त्वा रजनीचरं तम् |
2660 | 3045044c | गात्रप्रकम्पाद्व्यथिता बभूव; वातोद्धता सा कदलीव तन्वी |
2661 | 3045045a | तां वेपमानामुपलक्ष्य सीतां; स रावणो मृत्युसमप्रभावः |
2662 | 3045045c | कुलं बलं नाम च कर्म चात्मनः; समाचचक्षे भयकारणार्थम् |
2663 | 3046001a | एवं ब्रुवत्यां सीतायां संरब्धः परुषाक्षरम् |
2664 | 3046001c | ललाटे भ्रुकुटीं कृत्वा रावणः प्रत्युवाच ह |
2665 | 3046002a | भ्राता वैश्रवणस्याहं सापत्न्यो वरवर्णिनि |
2666 | 3046002c | रावणो नाम भद्रं ते दशग्रीवः प्रतापवान् |
2667 | 3046003a | यस्य देवाः सगन्धर्वाः पिशाचपतगोरगाः |
2668 | 3046003c | विद्रवन्ति भयाद्भीता मृत्योरिव सदा प्रजाः |
2669 | 3046004a | येन वैश्रवणो भ्राता वैमात्रः कारणान्तरे |
2670 | 3046004c | द्वन्द्वमासादितः क्रोधाद्रणे विक्रम्य निर्जितः |
2671 | 3046005a | मद्भयार्तः परित्यज्य स्वमधिष्ठानमृद्धिमत् |
2672 | 3046005c | कैलासं पर्वतश्रेष्ठमध्यास्ते नरवाहनः |
2673 | 3046006a | यस्य तत्पुष्पकं नाम विमानं कामगं शुभम् |
2674 | 3046006c | वीर्यादावर्जितं भद्रे येन यामि विहायसं |
2675 | 3046007a | मम संजातरोषस्य मुखं दृष्ट्वैव मैथिलि |
2676 | 3046007c | विद्रवन्ति परित्रस्ताः सुराः शक्रपुरोगमाः |
2677 | 3046008a | यत्र तिष्ठाम्यहं तत्र मारुतो वाति शङ्कितः |
2678 | 3046008c | तीव्रांशुः शिशिरांशुश्च भयात्संपद्यते रविः |
2679 | 3046009a | निष्कम्पपत्रास्तरवो नद्यश्च स्तिमितोदकाः |
2680 | 3046009c | भवन्ति यत्र यत्राहं तिष्ठामि च चरामि च |
2681 | 3046010a | मम पारे समुद्रस्य लङ्का नाम पुरी शुभा |
2682 | 3046010c | संपूर्णा राक्षसैर्घोरैर्यथेन्द्रस्यामरावती |
2683 | 3046011a | प्राकारेण परिक्षिप्ता पाण्डुरेण विराजिता |
2684 | 3046011c | हेमकक्ष्या पुरी रम्या वैदूर्यमय तोरणा |
2685 | 3046012a | हस्त्यश्वरथसंभाधा तूर्यनादविनादिता |
2686 | 3046012c | सर्वकामफलैर्वृक्षैः संकुलोद्यानशोभिता |
2687 | 3046013a | तत्र त्वं वसती सीते राजपुत्रि मया सह |
2688 | 3046013c | न स्रमिष्यसि नारीणां मानुषीणां मनस्विनि |
2689 | 3046014a | भुञ्जाना मानुषान्भोगान्दिव्यांश्च वरवर्णिनि |
2690 | 3046014c | न स्मरिष्यसि रामस्य मानुषस्य गतायुषः |
2691 | 3046015a | स्थापयित्वा प्रियं पुत्रं राज्ञा दशरथेन यः |
2692 | 3046015c | मन्दवीर्यः सुतो ज्येष्ठस्ततः प्रस्थापितो वनम् |
2693 | 3046016a | तेन किं भ्रष्टराज्येन रामेण गतचेतसा |
2694 | 3046016c | करिष्यसि विशालाक्षि तापसेन तपस्विना |
2695 | 3046017a | सर्वराक्षसभर्तारं कामात्स्वयमिहागतम् |
2696 | 3046017c | न मन्मथशराविष्टं प्रत्याख्यातुं त्वमर्हसि |
2697 | 3046018a | प्रत्याख्याय हि मां भीरु परितापं गमिष्यसि |
2698 | 3046018c | चरणेनाभिहत्येव पुरूरवसमुर्वशी |
2699 | 3046019a | एवमुक्ता तु वैदेही क्रुद्धा संरक्तलोचना |
2700 | 3046019c | अब्रवीत्परुषं वाक्यं रहिते राक्षसाधिपम् |
2701 | 3046020a | कथं वैश्रवणं देवं सर्वभूतनमस्कृतम् |
2702 | 3046020c | भ्रातरं व्यपदिश्य त्वमशुभं कर्तुमिच्छसि |
2703 | 3046021a | अवश्यं विनशिष्यन्ति सर्वे रावण राक्षसाः |
2704 | 3046021c | येषां त्वं कर्कशो राजा दुर्बुद्धिरजितेन्द्रियः |
2705 | 3046022a | अपहृत्य शचीं भार्यां शक्यमिन्द्रस्य जीवितुम् |
2706 | 3046022c | न तु रामस्य भार्यां मामपनीयास्ति जीवितम् |
2707 | 3046023a | जीवेच्चिरं वज्रधरस्य हस्ता;च्छचीं प्रधृष्याप्रतिरूपरूपाम् |
2708 | 3046023c | न मादृशीं राक्षसधर्षयित्वा; पीतामृतस्यापि तवास्ति मोक्षः |
2709 | 3047001a | सीताया वचनं श्रुत्वा दशग्रीवः प्रतापवान् |
2710 | 3047001c | हस्ते हस्तं समाहत्य चकार सुमहद्वपुः |
2711 | 3047002a | स मैथिलीं पुनर्वाक्यं बभाषे च ततो भृशम् |
2712 | 3047002c | नोन्मत्तया श्रुतौ मन्ये मम वीर्यपराक्रमौ |
2713 | 3047003a | उद्वहेयं भुजाभ्यां तु मेदिनीमम्बरे स्थितः |
2714 | 3047003c | आपिबेयं समुद्रं च मृत्युं हन्यां रणे स्थितः |
2715 | 3047004a | अर्कं रुन्ध्यां शरैस्तीक्ष्णैर्विभिन्द्यां हि महीतलम् |
2716 | 3047004c | कामरूपिणमुन्मत्ते पश्य मां कामदं पतिम् |
2717 | 3047005a | एवमुक्तवतस्तस्य रावणस्य शिखिप्रभे |
2718 | 3047005c | क्रुद्धस्य हरिपर्यन्ते रक्ते नेत्रे बभूवतुः |
2719 | 3047006a | सद्यः सौम्यं परित्यज्य भिक्षुरूपं स रावणः |
2720 | 3047006c | स्वं रूपं कालरूपाभं भेजे वैश्रवणानुजः |
2721 | 3047007a | संरक्तनयनः श्रीमांस्तप्तकाञ्चनकुण्डलः |
2722 | 3047007c | दशास्यः कार्मुकी बाणी बभूव क्षणदाचरः |
2723 | 3047008a | स परिव्राजकच्छद्म महाकायो विहाय तत् |
2724 | 3047008c | प्रतिपेदे स्वकं रूपं रावणो राक्षसाधिपः |
2725 | 3047009a | संरक्तनयनः क्रोधाज्जीमूतनिचयप्रभः |
2726 | 3047009c | रक्ताम्बरधरस्तस्थौ स्त्रीरत्नं प्रेक्ष्य मैथिलीम् |
2727 | 3047010a | स तामसितकेशान्तां भास्करस्य प्रभामिव |
2728 | 3047010c | वसनाभरणोपेतां मैथिलीं रावणोऽब्रवीत् |
2729 | 3047011a | त्रिषु लोकेषु विख्यातं यदि भर्तारमिच्छसि |
2730 | 3047011c | मामाश्रय वरारोहे तवाहं सदृशः पतिः |
2731 | 3047012a | मां भजस्व चिराय त्वमहं श्लाघ्यस्तव प्रियः |
2732 | 3047012c | नैव चाहं क्वचिद्भद्रे करिष्ये तव विप्रियम् |
2733 | 3047012e | त्यज्यतां मानुषो भावो मयि भावः प्रणीयताम् |
2734 | 3047013a | राज्याच्च्युतमसिद्धार्थं रामं परिमितायुषम् |
2735 | 3047013c | कैर्गुणैरनुरक्तासि मूढे पण्डितमानिनि |
2736 | 3047014a | यः स्त्रिया वचनाद्राज्यं विहाय ससुहृज्जनम् |
2737 | 3047014c | अस्मिन्व्यालानुचरिते वने वसति दुर्मतिः |
2738 | 3047015a | इत्युक्त्वा मैथिलीं वाक्यं प्रियार्हां प्रियवादिनीम् |
2739 | 3047015c | जग्राह रावणः सीतां बुधः खे रोहिणीमिव |
2740 | 3047016a | वामेन सीतां पद्माक्षीं मूर्धजेषु करेण सः |
2741 | 3047016c | ऊर्वोस्तु दक्षिणेनैव परिजग्राह पाणिना |
2742 | 3047017a | तं दृष्ट्वा गिरिशृङ्गाभं तीक्ष्णदंष्ट्रं महाभुजम् |
2743 | 3047017c | प्राद्रवन्मृत्युसंकाशं भयार्ता वनदेवताः |
2744 | 3047018a | स च मायामयो दिव्यः खरयुक्तः खरस्वनः |
2745 | 3047018c | प्रत्यदृश्यत हेमाङ्गो रावणस्य महारथः |
2746 | 3047019a | ततस्तां परुषैर्वाक्यैरभितर्ज्य महास्वनः |
2747 | 3047019c | अङ्केनादाय वैदेहीं रथमारोपयत्तदा |
2748 | 3047020a | सा गृहीतातिचुक्रोश रावणेन यशस्विनी |
2749 | 3047020c | रामेति सीता दुःखार्ता रामं दूरगतं वने |
2750 | 3047021a | तामकामां स कामार्तः पन्नगेन्द्रवधूमिव |
2751 | 3047021c | विवेष्टमानामादाय उत्पपाथाथ रावणः |
2752 | 3047022a | ततः सा राक्षसेन्द्रेण ह्रियमाणा विहायसा |
2753 | 3047022c | भृशं चुक्रोश मत्तेव भ्रान्तचित्ता यथातुरा |
2754 | 3047023a | हा लक्ष्मण महाबाहो गुरुचित्तप्रसादक |
2755 | 3047023c | ह्रियमाणां न जानीषे रक्षसा कामरूपिणा |
2756 | 3047024a | जीवितं सुखमर्थांश्च धर्महेतोः परित्यजन् |
2757 | 3047024c | ह्रियमाणामधर्मेण मां राघव न पश्यसि |
2758 | 3047025a | ननु नामाविनीतानां विनेतासि परंतप |
2759 | 3047025c | कथमेवंविधं पापं न त्वं शाधि हि रावणम् |
2760 | 3047026a | ननु सद्योऽविनीतस्य दृश्यते कर्मणः फलम् |
2761 | 3047026c | कालोऽप्यङ्गी भवत्यत्र सस्यानामिव पक्तये |
2762 | 3047027a | स कर्म कृतवानेतत्कालोपहतचेतनः |
2763 | 3047027c | जीवितान्तकरं घोरं रामाद्व्यसनमाप्नुहि |
2764 | 3047028a | हन्तेदानीं सकामा तु कैकेयी बान्धवैः सह |
2765 | 3047028c | ह्रियेयं धर्मकामस्य धर्मपत्नी यशस्विनः |
2766 | 3047029a | आमन्त्रये जनस्थानं कर्णिकारांश्च पुष्पितान् |
2767 | 3047029c | क्षिप्रं रामाय शंसध्वं सीतां हरति रावणः |
2768 | 3047030a | माल्यवन्तं शिखरिणं वन्दे प्रस्रवणं गिरिम् |
2769 | 3047030c | क्षिप्रं रामाय शंसध्वं सीतां हरति रावणः |
2770 | 3047031a | हंससारससंघुष्टां वन्दे गोदावरीं नदीम् |
2771 | 3047031c | क्षिप्रं रामाय शंसध्वं सीतां हरति रावणः |
2772 | 3047032a | दैवतानि च यान्त्यस्मिन्वने विविधपादपे |
2773 | 3047032c | नमस्करोम्यहं तेभ्यो भर्तुः शंसत मां हृताम् |
2774 | 3047033a | यानि कानिचिदप्यत्र सत्त्वानि निवसन्त्युत |
2775 | 3047033c | सर्वाणि शरणं यामि मृगपक्षिगणानपि |
2776 | 3047034a | ह्रियमाणां प्रियां भर्तुः प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम् |
2777 | 3047034c | विवशापहृता सीता रावणेनेति शंसत |
2778 | 3047035a | विदित्वा मां महाबाहुरमुत्रापि महाबलः |
2779 | 3047035c | आनेष्यति पराक्रम्य वैवस्वतहृतामपि |
2780 | 3047036a | रामाय तु यथातत्त्वं जटायो हरणं मम |
2781 | 3047036c | लक्ष्मणाय च तत्सर्वमाख्यातव्यमशेषतः |
2782 | 3048001a | तं शब्दमवसुप्तस्य जटायुरथ शुश्रुवे |
2783 | 3048001c | निरैक्षद्रावणं क्षिप्रं वैदेहीं च ददर्श सः |
2784 | 3048002a | ततः पर्वतकूटाभस्तीक्ष्णतुण्डः खगोत्तमः |
2785 | 3048002c | वनस्पतिगतः श्रीमान्व्याजहार शुभां गिरम् |
2786 | 3048003a | दशग्रीवस्थितो धर्मे पुराणे सत्यसंश्रयः |
2787 | 3048003c | जटायुर्नाम नाम्नाहं गृध्रराजो महाबलः |
2788 | 3048004a | राजा सर्वस्य लोकस्य महेन्द्रवरुणोपमः |
2789 | 3048004c | लोकानां च हिते युक्तो रामो दशरथात्मजः |
2790 | 3048005a | तस्यैषा लोकनाथस्य धर्मपत्नी यशस्विनी |
2791 | 3048005c | सीता नाम वरारोहा यां त्वं हर्तुमिहेच्छसि |
2792 | 3048006a | कथं राजा स्थितो धर्मे परदारान्परामृशेत् |
2793 | 3048006c | रक्षणीया विशेषेण राजदारा महाबलः |
2794 | 3048006e | निवर्तय मतिं नीचां परदाराभिमर्शनम् |
2795 | 3048007a | न तत्समाचरेद्धीरो यत्परोऽस्य विगर्हयेत् |
2796 | 3048007c | यथात्मनस्तथान्येषां दारा रक्ष्या विमर्शनात् |
2797 | 3048008a | अर्थं वा यदि वा कामं शिष्टाः शास्त्रेष्वनागतम् |
2798 | 3048008c | व्यवस्यन्त्यनु राजानं धर्मं पौरस्त्यनन्दन |
2799 | 3048009a | राजा धर्मश्च कामश्च द्रव्याणां चोत्तमो निधिः |
2800 | 3048009c | धर्मः शुभं वा पापं वा राजमूलं प्रवर्तते |
2801 | 3048010a | पापस्वभावश्चपलः कथं त्वं रक्षसां वर |
2802 | 3048010c | ऐश्वर्यमभिसंप्राप्तो विमानमिव दुष्कृती |
2803 | 3048011a | कामस्वभावो यो यस्य न स शक्यः प्रमार्जितुम् |
2804 | 3048011c | न हि दुष्टात्मनामार्य मा वसत्यालये चिरम् |
2805 | 3048012a | विषये वा पुरे वा ते यदा रामो महाबलः |
2806 | 3048012c | नापराध्यति धर्मात्मा कथं तस्यापराध्यसि |
2807 | 3048013a | यदि शूर्पणखाहेतोर्जनस्थानगतः खरः |
2808 | 3048013c | अतिवृत्तो हतः पूर्वं रामेणाक्लिष्टकर्मणा |
2809 | 3048014a | अत्र ब्रूहि यथासत्यं को रामस्य व्यतिक्रमः |
2810 | 3048014c | यस्य त्वं लोकनाथस्य हृत्वा भार्यां गमिष्यसि |
2811 | 3048015a | क्षिप्रं विसृज वैदेहीं मा त्वा घोरेण चक्षुषा |
2812 | 3048015c | दहेद्दहन भूतेन वृत्रमिन्द्राशनिर्यथा |
2813 | 3048016a | सर्पमाशीविषं बद्ध्वा वस्त्रान्ते नावबुध्यसे |
2814 | 3048016c | ग्रीवायां प्रतिमुक्तं च कालपाशं न पश्यसि |
2815 | 3048017a | स भारः सौम्य भर्तव्यो यो नरं नावसादयेत् |
2816 | 3048017c | तदन्नमुपभोक्तव्यं जीर्यते यदनामयम् |
2817 | 3048018a | यत्कृत्वा न भवेद्धर्मो न कीर्तिर्न यशो भुवि |
2818 | 3048018c | शरीरस्य भवेत्खेदः कस्तत्कर्म समाचरेत् |
2819 | 3048019a | षष्टिवर्षसहस्राणि मम जातस्य रावण |
2820 | 3048019c | पितृपैतामहं राज्यं यथावदनुतिष्ठतः |
2821 | 3048020a | वृद्धोऽहं त्वं युवा धन्वी सरथः कवची शरी |
2822 | 3048020c | तथाप्यादाय वैदेहीं कुशली न गमिष्यसि |
2823 | 3048021a | न शक्तस्त्वं बलाद्धर्तुं वैदेहीं मम पश्यतः |
2824 | 3048021c | हेतुभिर्न्यायसंयुक्तैर्ध्रुवां वेदश्रुतीमिव |
2825 | 3048022a | युध्यस्व यदि शूरोऽसि मुहूर्तं तिष्ठ रावण |
2826 | 3048022c | शयिष्यसे हतो भूमौ यथापूर्वं खरस्तथा |
2827 | 3048023a | असकृत्संयुगे येन निहता दैत्यदानवाः |
2828 | 3048023c | नचिराच्चीरवासास्त्वां रामो युधि वधिष्यति |
2829 | 3048024a | किं नु शक्यं मया कर्तुं गतौ दूरं नृपात्मजौ |
2830 | 3048024c | क्षिप्रं त्वं नश्यसे नीच तयोर्भीतो न संशयः |
2831 | 3048025a | न हि मे जीवमानस्य नयिष्यसि शुभामिमाम् |
2832 | 3048025c | सीतां कमलपत्राक्षीं रामस्य महषीं प्रियाम् |
2833 | 3048026a | अवश्यं तु मया कार्यं प्रियं तस्य महात्मनः |
2834 | 3048026c | जीवितेनापि रामस्य तथा दशरथस्य च |
2835 | 3048027a | तिष्ठ तिष्ठ दशग्रीव मुहूर्तं पश्य रावण |
2836 | 3048027c | युद्धातिथ्यं प्रदास्यामि यथाप्राणं निशाचर |
2837 | 3048027e | वृन्तादिव फलं त्वां तु पातयेयं रथोत्तमात् |
2838 | 3049001a | इत्युक्तस्य यथान्यायं रावणस्य जटायुषा |
2839 | 3049001c | क्रुद्धस्याग्निनिभाः सर्वा रेजुर्विंशतिदृष्टयः |
2840 | 3049002a | संरक्तनयनः कोपात्तप्तकाञ्चनकुण्डलः |
2841 | 3049002c | राक्षसेन्द्रोऽभिदुद्राव पतगेन्द्रममर्षणः |
2842 | 3049003a | स संप्रहारस्तुमुलस्तयोस्तस्मिन्महावने |
2843 | 3049003c | बभूव वातोद्धतयोर्मेघयोर्गगने यथा |
2844 | 3049004a | तद्बभूवाद्भुतं युद्धं गृध्रराक्षसयोस्तदा |
2845 | 3049004c | सपक्षयोर्माल्यवतोर्महापर्वतयोरिव |
2846 | 3049005a | ततो नालीकनाराचैस्तीक्ष्णाग्रैश्च विकर्णिभिः |
2847 | 3049005c | अभ्यवर्षन्महाघोरैर्गृध्रराजं महाबलः |
2848 | 3049006a | स तानि शरजालानि गृध्रः पत्ररथेश्वरः |
2849 | 3049006c | जटायुः प्रतिजग्राह रावणास्त्राणि संयुगे |
2850 | 3049007a | तस्य तीक्ष्णनखाभ्यां तु चरणाभ्यां महाबलः |
2851 | 3049007c | चकार बहुधा गात्रे व्रणान्पतगसत्तमः |
2852 | 3049008a | अथ क्रोधाद्दशग्रीवो जग्राह दशमार्गणान् |
2853 | 3049008c | मृत्युदण्डनिभान्घोराञ्शत्रुमर्दनकाङ्क्षया |
2854 | 3049009a | स तैर्बाणैर्महावीर्यः पूर्णमुक्तैरजिह्मगैः |
2855 | 3049009c | बिभेद निशितैस्तीक्ष्णैर्गृध्रं घोरैः शिलीमुखैः |
2856 | 3049010a | स राक्षसरथे पश्यञ्जानकीं बाष्पलोचनाम् |
2857 | 3049010c | अचिन्तयित्वा बाणांस्तान्राक्षसं समभिद्रवत् |
2858 | 3049011a | ततोऽस्य सशरं चापं मुक्तामणिविभूषितम् |
2859 | 3049011c | चरणाभ्यां महातेजा बभञ्ज पतगेश्वरः |
2860 | 3049012a | तच्चाग्निसदृशं दीप्तं रावणस्य शरावरम् |
2861 | 3049012c | पक्षाभ्यां च महातेजा व्यधुनोत्पतगेश्वरः |
2862 | 3049013a | काञ्चनोरश्छदान्दिव्यान्पिशाचवदनान्खरान् |
2863 | 3049013c | तांश्चास्य जवसंपन्नाञ्जघान समरे बली |
2864 | 3049014a | वरं त्रिवेणुसंपन्नं कामगं पावकार्चिषम् |
2865 | 3049014c | मणिहेमविचित्राङ्गं बभञ्ज च महारथम् |
2866 | 3049014e | पूर्णचन्द्रप्रतीकाशं छत्रं च व्यजनैः सह |
2867 | 3049015a | स भग्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः |
2868 | 3049015c | अङ्केनादाय वैदेहीं पपात भुवि रावणः |
2869 | 3049016a | दृष्ट्वा निपतितं भूमौ रावणं भग्नवाहनम् |
2870 | 3049016c | साधु साध्विति भूतानि गृध्रराजमपूजयन् |
2871 | 3049017a | परिश्रान्तं तु तं दृष्ट्वा जरया पक्षियूथपम् |
2872 | 3049017c | उत्पपात पुनर्हृष्टो मैथिलीं गृह्य रावणः |
2873 | 3049018a | तं प्रहृष्टं निधायाङ्के गच्छन्तं जनकात्मजाम् |
2874 | 3049018c | गृध्रराजः समुत्पत्य जटायुरिदमब्रवीत् |
2875 | 3049019a | वज्रसंस्पर्शबाणस्य भार्यां रामस्य रावण |
2876 | 3049019c | अल्पबुद्धे हरस्येनां वधाय खलु रक्षसाम् |
2877 | 3049020a | समित्रबन्धुः सामात्यः सबलः सपरिच्छदः |
2878 | 3049020c | विषपानं पिबस्येतत्पिपासित इवोदकम् |
2879 | 3049021a | अनुबन्धमजानन्तः कर्मणामविचक्षणाः |
2880 | 3049021c | शीघ्रमेव विनश्यन्ति यथा त्वं विनशिष्यसि |
2881 | 3049022a | बद्धस्त्वं कालपाशेन क्व गतस्तस्य मोक्ष्यसे |
2882 | 3049022c | वधाय बडिशं गृह्य सामिषं जलजो यथा |
2883 | 3049023a | न हि जातु दुराधर्षौ काकुत्स्थौ तव रावण |
2884 | 3049023c | धर्षणं चाश्रमस्यास्य क्षमिष्येते तु राघवौ |
2885 | 3049024a | यथा त्वया कृतं कर्म भीरुणा लोकगर्हितम् |
2886 | 3049024c | तस्कराचरितो मार्गो नैष वीरनिषेवितः |
2887 | 3049025a | युध्यस्व यदि शूरोऽसि मुहूर्तं तिष्ठ रावण |
2888 | 3049025c | शयिष्यसे हतो भूमौ यथा भ्राता खरस्तथा |
2889 | 3049026a | परेतकाले पुरुषो यत्कर्म प्रतिपद्यते |
2890 | 3049026c | विनाशायात्मनोऽधर्म्यं प्रतिपन्नोऽसि कर्म तत् |
2891 | 3049027a | पापानुबन्धो वै यस्य कर्मणः को नु तत्पुमान् |
2892 | 3049027c | कुर्वीत लोकाधिपतिः स्वयम्भूर्भगवानपि |
2893 | 3049028a | एवमुक्त्वा शुभं वाक्यं जटायुस्तस्य रक्षसः |
2894 | 3049028c | निपपात भृशं पृष्ठे दशग्रीवस्य वीर्यवान् |
2895 | 3049029a | तं गृहीत्वा नखैस्तीक्ष्णैर्विरराद समन्ततः |
2896 | 3049029c | अधिरूढो गजारोहि यथा स्याद्दुष्टवारणम् |
2897 | 3049030a | विरराद नखैरस्य तुण्डं पृष्ठे समर्पयन् |
2898 | 3049030c | केशांश्चोत्पाटयामास नखपक्षमुखायुधः |
2899 | 3049031a | स तथा गृध्रराजेन क्लिश्यमानो मुहुर्मुहुः |
2900 | 3049031c | अमर्षस्फुरितौष्ठः सन्प्राकम्पत स राक्षसः |
2901 | 3049032a | संपरिष्वज्य वैदेहीं वामेनाङ्केन रावणः |
2902 | 3049032c | तलेनाभिजघानार्तो जटायुं क्रोधमूर्छितः |
2903 | 3049033a | जटायुस्तमतिक्रम्य तुण्डेनास्य खराधिपः |
2904 | 3049033c | वामबाहून्दश तदा व्यपाहरदरिंदमः |
2905 | 3049034a | ततः क्रुद्धो दशक्रीवः सीतामुत्सृज्य वीर्यवान् |
2906 | 3049034c | मुष्टिभ्यां चरणाभ्यां च गृध्रराजमपोथयत् |
2907 | 3049035a | ततो मुहूर्तं संग्रामो बभूवातुलवीर्ययोः |
2908 | 3049035c | राक्षसानां च मुख्यस्य पक्षिणां प्रवरस्य च |
2909 | 3049036a | तस्य व्यायच्छमानस्य रामस्यार्थेऽथ रावणः |
2910 | 3049036c | पक्षौ पादौ च पार्श्वौ च खड्गमुद्धृत्य सोऽच्छिनत् |
2911 | 3049037a | स छिन्नपक्षः सहसा रक्षसा रौद्रकर्मणा |
2912 | 3049037c | निपपात हतो गृध्रो धरण्यामल्पजीवितः |
2913 | 3049038a | तं दृष्ट्वा पतितं भूमौ क्षतजार्द्रं जटायुषम् |
2914 | 3049038c | अभ्यधावत वैदेही स्वबन्धुमिव दुःखिता |
2915 | 3049039a | तं नीलजीमूतनिकाशकल्पं; सुपाण्डुरोरस्कमुदारवीर्यम् |
2916 | 3049039c | ददर्श लङ्काधिपतिः पृथिव्यां; जटायुषं शान्तमिवाग्निदावम् |
2917 | 3049040a | ततस्तु तं पत्ररथं महीतले; निपातितं रावणवेगमर्दितम् |
2918 | 3049040c | पुनः परिष्वज्य शशिप्रभानना; रुरोद सीता जनकात्मजा तदा |
2919 | 3050001a | तमल्पजीवितं भूमौ स्फुरन्तं राक्षसाधिपः |
2920 | 3050001c | ददर्श गृध्रं पतितं समीपे राघवाश्रमात् |
2921 | 3050002a | सा तु ताराधिपमुखी रावणेन समीक्ष्य तम् |
2922 | 3050002c | गृध्रराजं विनिहतं विललाप सुदुःखिता |
2923 | 3050003a | निमित्तं लक्षणज्ञानं शकुनिस्वरदर्शनम् |
2924 | 3050003c | अवश्यं सुखदुःखेषु नराणां प्रतिदृश्यते |
2925 | 3050004a | न नूनं राम जानासि महद्व्यसनमात्मजः |
2926 | 3050004c | धावन्ति नूनं काकुत्स्थ मदर्थं मृगपक्षिणः |
2927 | 3050005a | त्राहि मामद्य काकुत्स्थ लक्ष्मणेति वराङ्गना |
2928 | 3050005c | सुसंत्रस्ता समाक्रन्दच्छृण्वतां तु यथान्तिके |
2929 | 3050006a | तां क्लिष्टमाल्याभरणां विलपन्तीमनाथवत् |
2930 | 3050006c | अभ्यधावत वैदेहीं रावणो राक्षसाधिपः |
2931 | 3050007a | तां लतामिव वेष्टन्तीमालिङ्गन्तीं महाद्रुमान् |
2932 | 3050007c | मुञ्च मुञ्चेति बहुशः प्रवदन्राक्षसाधिपः |
2933 | 3050008a | क्रोशन्तीं राम रामेति रामेण रहितां वने |
2934 | 3050008c | जीवितान्ताय केशेषु जग्राहान्तकसंनिभः |
2935 | 3050009a | प्रधर्षितायां वैदेह्यां बभूव सचराचरम् |
2936 | 3050009c | जगत्सर्वममर्यादं तमसान्धेन संवृतम् |
2937 | 3050010a | दृष्ट्वा सीतां परामृष्टां दीनां दिव्येन चक्षुषा |
2938 | 3050010c | कृतं कार्यमिति श्रीमान्व्याजहार पितामहः |
2939 | 3050011a | प्रहृष्टा व्यथिताश्चासन्सर्वे ते परमर्षयः |
2940 | 3050011c | दृष्ट्वा सीतां परामृष्टां दण्डकारण्यवासिनः |
2941 | 3050012a | स तु तां राम रामेति रुदन्तीं लक्ष्मणेति च |
2942 | 3050012c | जगामाकाशमादाय रावणो राक्षसाधिपः |
2943 | 3050013a | तप्ताभरणसर्वाङ्गी पीतकौशेयवासनी |
2944 | 3050013c | रराज राजपुत्री तु विद्युत्सौदामनी यथा |
2945 | 3050014a | उद्धूतेन च वस्त्रेण तस्याः पीतेन रावणः |
2946 | 3050014c | अधिकं परिबभ्राज गिरिर्दीप इवाग्निना |
2947 | 3050015a | तस्याः परमकल्याण्यास्ताम्राणि सुरभीणि च |
2948 | 3050015c | पद्मपत्राणि वैदेह्या अभ्यकीर्यन्त रावणम् |
2949 | 3050016a | तस्याः कौशेयमुद्धूतमाकाशे कनकप्रभम् |
2950 | 3050016c | बभौ चादित्यरागेण ताम्रमभ्रमिवातपे |
2951 | 3050017a | तस्यास्तद्विमलं वक्त्रमाकाशे रावणाङ्कगम् |
2952 | 3050017c | न रराज विना रामं विनालमिव पङ्कजम् |
2953 | 3050018a | बभूव जलदं नीलं भित्त्वा चन्द्र इवोदितः |
2954 | 3050018c | सुललाटं सुकेशान्तं पद्मगर्भाभमव्रणम् |
2955 | 3050018e | शुक्लैः सुविमलैर्दन्तैः प्रभावद्भिरलंकृतम् |
2956 | 3050019a | रुदितं व्यपमृष्टास्त्रं चन्द्रवत्प्रियदर्शनम् |
2957 | 3050019c | सुनासं चारुताम्रौष्ठमाकाषे हाटकप्रभम् |
2958 | 3050020a | राक्षसेन्द्रसमाधूतं तस्यास्तद्वचनं शुभम् |
2959 | 3050020c | शुशुभे न विना रामं दिवा चन्द्र इवोदितः |
2960 | 3050021a | सा हेमवर्णा नीलाङ्गं मैथिली राक्षसाधिपम् |
2961 | 3050021c | शुशुभे काञ्चनी काञ्ची नीलं मणिमिवाश्रिता |
2962 | 3050022a | सा पद्मगौरी हेमाभा रावणं जनकात्मजा |
2963 | 3050022c | विद्युद्घनमिवाविश्य शुशुभे तप्तभूषणा |
2964 | 3050023a | तस्या भूषणघोषेण वैदेह्या राक्षसाधिपः |
2965 | 3050023c | बभूव विमलो नीलः सघोष इव तोयदः |
2966 | 3050024a | उत्तमाङ्गच्युता तस्याः पुष्पवृष्टिः समन्ततः |
2967 | 3050024c | सीताया ह्रियमाणायाः पपात धरणीतले |
2968 | 3050025a | सा तु रावणवेगेन पुष्पवृष्टिः समन्ततः |
2969 | 3050025c | समाधूता दशग्रीवं पुनरेवाभ्यवर्तत |
2970 | 3050026a | अभ्यवर्तत पुष्पाणां धारा वैश्रवणानुजम् |
2971 | 3050026c | नक्षत्रमालाविमला मेरुं नगमिवोत्तमम् |
2972 | 3050027a | चरणान्नूपुरं भ्रष्टं वैदेह्या रत्नभूषितम् |
2973 | 3050027c | विद्युन्मण्डलसंकाशं पपात मधुरस्वनम् |
2974 | 3050028a | तरुप्रवालरक्ता सा नीलाङ्गं राक्षसेश्वरम् |
2975 | 3050028c | प्राशोभयत वैदेही गजं कष्येव काञ्चनी |
2976 | 3050029a | तां महोल्कामिवाकाशे दीप्यमानां स्वतेजसा |
2977 | 3050029c | जहाराकाशमाविश्य सीतां वैश्रवणानुजः |
2978 | 3050030a | तस्यास्तान्यग्निवर्णानि भूषणानि महीतले |
2979 | 3050030c | सघोषाण्यवकीर्यन्त क्षीणास्तारा इवाम्बरात् |
2980 | 3050031a | तस्याः स्तनान्तराद्भ्रष्टो हारस्ताराधिपद्युतिः |
2981 | 3050031c | वैदेह्या निपतन्भाति गङ्गेव गगनाच्च्युता |
2982 | 3050032a | उत्पात वाताभिहता नानाद्विज गणायुताः |
2983 | 3050032c | मा भैरिति विधूताग्रा व्याजह्रुरिव पादपाः |
2984 | 3050033a | नलिन्यो ध्वस्तकमलास्त्रस्तमीनजले चराः |
2985 | 3050033c | सखीमिव गतोत्साहां शोचन्तीव स्म मैथिलीम् |
2986 | 3050034a | समन्तादभिसंपत्य सिंहव्याघ्रमृगद्विजाः |
2987 | 3050034c | अन्वधावंस्तदा रोषात्सीताच्छायानुगामिनः |
2988 | 3050035a | जलप्रपातास्रमुखाः शृङ्गैरुच्छ्रितबाहवः |
2989 | 3050035c | सीतायां ह्रियमाणायां विक्रोशन्तीव पर्वताः |
2990 | 3050036a | ह्रियमाणां तु वैदेहीं दृष्ट्वा दीनो दिवाकरः |
2991 | 3050036c | प्रविध्वस्तप्रभः श्रीमानासीत्पाण्डुरमण्डलः |
2992 | 3050037a | नास्ति धर्मः कुतः सत्यं नार्जवं नानृशंसता |
2993 | 3050037c | यत्र रामस्य वैदेहीं भार्यां हरति रावणः |
2994 | 3050038a | इति सर्वाणि भूतानि गणशः पर्यदेवयन् |
2995 | 3050038c | वित्रस्तका दीनमुखा रुरुदुर्मृगपोतकाः |
2996 | 3050039a | उद्वीक्ष्योद्वीक्ष्य नयनैरास्रपाताविलेक्षणाः |
2997 | 3050039c | सुप्रवेपितगात्राश्च बभूवुर्वनदेवताः |
2998 | 3050040a | विक्रोशन्तीं दृढं सीतां दृष्ट्वा दुःखं तथा गताम् |
2999 | 3050040c | तां तु लक्ष्मण रामेति क्रोशन्तीं मधुरस्वराम् |
3000 | 3050041a | अवेक्षमाणां बहुषो वैदेहीं धरणीतलम् |
3001 | 3050041c | स तामाकुलकेशान्तां विप्रमृष्टविशेषकाम् |
3002 | 3050041e | जहारात्मविनाशाय दशग्रीवो मनस्विनाम् |
3003 | 3050042a | ततस्तु सा चारुदती शुचिस्मिता; विनाकृता बन्धुजनेन मैथिली |
3004 | 3050042c | अपश्यती राघवलक्ष्मणावुभौ; विवर्णवक्त्रा भयभारपीडिता |
3005 | 3051001a | खमुत्पतन्तं तं दृष्ट्वा मैथिली जनकात्मजा |
3006 | 3051001c | दुःखिता परमोद्विग्ना भये महति वर्तिनी |
3007 | 3051002a | रोषरोदनताम्राक्षी भीमाक्षं राक्षसाधिपम् |
3008 | 3051002c | रुदती करुणं सीता ह्रियमाणेदमब्रवीत् |
3009 | 3051003a | न व्यपत्रपसे नीच कर्मणानेन रावण |
3010 | 3051003c | ज्ञात्वा विरहितां यो मां चोरयित्वा पलायसे |
3011 | 3051004a | त्वयैव नूनं दुष्टात्मन्भीरुणा हर्तुमिच्छता |
3012 | 3051004c | ममापवाहितो भर्ता मृगरूपेण मायया |
3013 | 3051004e | यो हि मामुद्यतस्त्रातुं सोऽप्ययं विनिपातितः |
3014 | 3051005a | परमं खलु ते वीर्यं दृश्यते राक्षसाधम |
3015 | 3051005c | विश्राव्य नामधेयं हि युद्धे नास्ति जिता त्वया |
3016 | 3051006a | ईदृशं गर्हितं कर्म कथं कृत्वा न लज्जसे |
3017 | 3051006c | स्त्रियाश्च हरणं नीच रहिते च परस्य च |
3018 | 3051007a | कथयिष्यन्ति लोकेषु पुरुषाः कर्म कुत्सितम् |
3019 | 3051007c | सुनृशंसमधर्मिष्ठं तव शौण्डीर्यमानिनः |
3020 | 3051008a | धिक्ते शौर्यं च सत्त्वं च यत्त्वया कथितं तदा |
3021 | 3051008c | कुलाक्रोशकरं लोके धिक्ते चारित्रमीदृशम् |
3022 | 3051009a | किं शक्यं कर्तुमेवं हि यज्जवेनैव धावसि |
3023 | 3051009c | मुहूर्तमपि तिष्ठस्व न जीवन्प्रतियास्यसि |
3024 | 3051010a | न हि चक्षुःपथं प्राप्य तयोः पार्थिवपुत्रयोः |
3025 | 3051010c | ससैन्योऽपि समर्तःस्त्वं मुहूर्तमपि जीवितुम् |
3026 | 3051011a | न त्वं तयोः शरस्पर्शं सोढुं शक्तः कथंचन |
3027 | 3051011c | वने प्रज्वलितस्येव स्पर्शमग्नेर्विहंगमः |
3028 | 3051012a | साधु कृत्वात्मनः पथ्यं साधु मां मुञ्च रावण |
3029 | 3051012c | मत्प्रधर्षणरुष्टो हि भ्रात्रा सह पतिर्मम |
3030 | 3051012e | विधास्यति विनाशाय त्वं मां यदि न मुञ्चसि |
3031 | 3051013a | येन त्वं व्यवसायेन बलान्मां हर्तुमिच्छसि |
3032 | 3051013c | व्यवसायः स ते नीच भविष्यति निरर्थकः |
3033 | 3051014a | न ह्यहं तमपश्यन्ती भर्तारं विबुधोपमम् |
3034 | 3051014c | उत्सहे शत्रुवशगा प्राणान्धारयितुं चिरम् |
3035 | 3051015a | न नूनं चात्मनः श्रेयः पथ्यं वा समवेक्षसे |
3036 | 3051015c | मृत्युकाले यथा मर्त्यो विपरीतानि सेवते |
3037 | 3051016a | मुमूर्षूणां हि सर्वेषां यत्पथ्यं तन्न रोचते |
3038 | 3051016c | पश्यामीव हि कण्ठे त्वां कालपाशावपाशितम् |
3039 | 3051017a | यथा चास्मिन्भयस्थाने न बिभेषे दशानन |
3040 | 3051017c | व्यक्तं हिरण्मयान्हि त्वं संपश्यसि महीरुहान् |
3041 | 3051018a | नदीं वैरतणीं घोरां रुधिरौघनिवाहिनीम् |
3042 | 3051018c | खड्गपत्रवनं चैव भीमं पश्यसि रावण |
3043 | 3051019a | तप्तकाञ्चनपुष्पां च वैदूर्यप्रवरच्छदाम् |
3044 | 3051019c | द्रक्ष्यसे शाल्मलीं तीक्ष्णामायसैः कण्टकैश्चिताम् |
3045 | 3051020a | न हि त्वमीदृशं कृत्वा तस्यालीकं महात्मनः |
3046 | 3051020c | धारितुं शक्ष्यसि चिरं विषं पीत्वेव निर्घृणः |
3047 | 3051021a | बद्धस्त्वं कालपाशेन दुर्निवारेण रावण |
3048 | 3051021c | क्व गतो लप्स्यसे शर्म भर्तुर्मम महात्मनः |
3049 | 3051022a | निमेषान्तरमात्रेण विना भ्रातरमाहवे |
3050 | 3051022c | राक्षसा निहता येन सहस्राणि चतुर्दश |
3051 | 3051023a | स कथं राघवो वीरः सर्वास्त्रकुशलो बली |
3052 | 3051023c | न त्वां हन्याच्छरैस्तीक्ष्णैरिष्टभार्यापहारिणम् |
3053 | 3051024a | एतच्चान्यच्च परुषं वैदेही रावणाङ्कगा |
3054 | 3051024c | भयशोकसमाविष्टा करुणं विललाप ह |
3055 | 3051025a | तथा भृशार्तां बहु चैव भाषिणीं; विललाप पूर्वं करुणं च भामिनीम् |
3056 | 3051025c | जहार पापस्तरुणीं विवेष्टतीं; नृपात्मजामागतगात्रवेपथुम् |
3057 | 3052001a | ह्रियमाणा तु वैदेही कंचिन्नाथमपश्यती |
3058 | 3052001c | ददर्श गिरिशृङ्गस्थान्पञ्चवानरपुंगवान् |
3059 | 3052002a | तेषां मध्ये विशालाक्षी कौशेयं कनकप्रभम् |
3060 | 3052002c | उत्तरीयं वरारोहा शुभान्याभरणानि च |
3061 | 3052002e | मुमोच यदि रामाय शंसेयुरिति मैथिली |
3062 | 3052003a | वस्त्रमुत्सृज्य तन्मध्ये विनिक्षिप्तं सभूषणम् |
3063 | 3052003c | संभ्रमात्तु दशग्रीवस्तत्कर्म न च बुद्धिवान् |
3064 | 3052004a | पिङ्गाक्षास्तां विशालाक्षीं नेत्रैरनिमिषैरिव |
3065 | 3052004c | विक्रोशन्तीं तदा सीतां ददृशुर्वानरर्षभाः |
3066 | 3052005a | स च पम्पामतिक्रम्य लङ्कामभिमुखः पुरीम् |
3067 | 3052005c | जगाम रुदतीं गृह्य मैथिलीं राक्षसेश्वरः |
3068 | 3052006a | तां जहार सुसंहृष्टो रावणो मृत्युमात्मनः |
3069 | 3052006c | उत्सङ्गेनैव भुजगीं तीक्ष्णदंष्ट्रां महाविषाम् |
3070 | 3052007a | वनानि सरितः शैलान्सरांसि च विहायसा |
3071 | 3052007c | स क्षिप्रं समतीयाय शरश्चापादिव च्युतः |
3072 | 3052008a | तिमिनक्रनिकेतं तु वरुणालयमक्षयम् |
3073 | 3052008c | सरितां शरणं गत्वा समतीयाय सागरम् |
3074 | 3052009a | संभ्रमात्परिवृत्तोर्मी रुद्धमीनमहोरगः |
3075 | 3052009c | वैदेह्यां ह्रियमाणायां बभूव वरुणालयः |
3076 | 3052010a | अन्तरिक्षगता वाचः ससृजुश्चारणास्तदा |
3077 | 3052010c | एतदन्तो दशग्रीव इति सिद्धास्तदाब्रुवन् |
3078 | 3052011a | स तु सीतां विवेष्टन्तीमङ्केनादाय रावणः |
3079 | 3052011c | प्रविवेश पुरीं लङ्कां रूपिणीं मृत्युमात्मनः |
3080 | 3052012a | सोऽभिगम्य पुरीं लङ्कां सुविभक्तमहापथाम् |
3081 | 3052012c | संरूढकक्ष्या बहुलं स्वमन्तःपुरमाविशत् |
3082 | 3052013a | तत्र तामसितापाङ्गीं शोकमोहपरायणाम् |
3083 | 3052013c | निदधे रावणः सीतां मयो मायामिवासुरीम् |
3084 | 3052014a | अब्रवीच्च दशग्रीवः पिशाचीर्घोरदर्शनाः |
3085 | 3052014c | यथा नैनां पुमान्स्त्री वा सीतां पश्यत्यसंमतः |
3086 | 3052015a | मुक्तामणिसुवर्णानि वस्त्राण्याभरणानि च |
3087 | 3052015c | यद्यदिच्छेत्तदेवास्या देयं मच्छन्दतो यथा |
3088 | 3052016a | या च वक्ष्यति वैदेहीं वचनं किंचिदप्रियम् |
3089 | 3052016c | अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानान्न तस्या जीवितं प्रियम् |
3090 | 3052017a | तथोक्त्वा राक्षसीस्तास्तु राक्षसेन्द्रः प्रतापवान् |
3091 | 3052017c | निष्क्रम्यान्तःपुरात्तस्मात्किं कृत्यमिति चिन्तयन् |
3092 | 3052017e | ददर्शाष्टौ महावीर्यान्राक्षसान्पिशिताशनान् |
3093 | 3052018a | स तान्दृष्ट्वा महावीर्यो वरदानेन मोहितः |
3094 | 3052018c | उवाचैतानिदं वाक्यं प्रशस्य बलवीर्यतः |
3095 | 3052019a | नानाप्रहरणाः क्षिप्रमितो गच्छत सत्वराः |
3096 | 3052019c | जनस्थानं हतस्थानं भूतपूर्वं खरालयम् |
3097 | 3052020a | तत्रोष्यतां जनस्थाने शून्ये निहतराक्षसे |
3098 | 3052020c | पौरुषं बलमाश्रित्य त्रासमुत्सृज्य दूरतः |
3099 | 3052021a | बलं हि सुमहद्यन्मे जनस्थाने निवेशितम् |
3100 | 3052021c | सदूषणखरं युद्धे हतं तद्रामसायकैः |
3101 | 3052022a | ततः क्रोधो ममापूर्वो धैर्यस्योपरि वर्धते |
3102 | 3052022c | वैरं च सुमहज्जातं रामं प्रति सुदारुणम् |
3103 | 3052023a | निर्यातयितुमिच्छामि तच्च वैरमहं रिपोः |
3104 | 3052023c | न हि लप्स्याम्यहं निद्रामहत्वा संयुगे रिपुम् |
3105 | 3052024a | तं त्विदानीमहं हत्वा खरदूषणघातिनम् |
3106 | 3052024c | रामं शर्मोपलप्स्यामि धनं लब्ध्वेव निर्धनः |
3107 | 3052025a | जनस्थाने वसद्भिस्तु भवद्भी राममाश्रिता |
3108 | 3052025c | प्रवृत्तिरुपनेतव्या किं करोतीति तत्त्वतः |
3109 | 3052026a | अप्रमादाच्च गन्तव्यं सर्वैरेव निशाचरैः |
3110 | 3052026c | कर्तव्यश्च सदा यत्नो राघवस्य वधं प्रति |
3111 | 3052027a | युष्माकं हि बलज्ञोऽहं बहुशो रणमूर्धनि |
3112 | 3052027c | अतश्चास्मिञ्जनस्थाने मया यूयं नियोजिताः |
3113 | 3052028a | ततः प्रियं वाक्यमुपेत्य राक्षसा; महार्थमष्टावभिवाद्य रावणम् |
3114 | 3052028c | विहाय लङ्कां सहिताः प्रतस्थिरे; यतो जनस्थानमलक्ष्यदर्शनाः |
3115 | 3052029a | ततस्तु सीतामुपलभ्य रावणः; सुसंप्रहृष्टः परिगृह्य मैथिलीम् |
3116 | 3052029c | प्रसज्य रामेण च वैरमुत्तमं; बभूव मोहान्मुदितः स राक्षसः |
3117 | 3053001a | संदिश्य राक्षसान्घोरान्रावणोऽष्टौ महाबलान् |
3118 | 3053001c | आत्मानं बुद्धिवैक्लव्यात्कृतकृत्यममन्यत |
3119 | 3053002a | स चिन्तयानो वैदेहीं कामबाणसमर्पितः |
3120 | 3053002c | प्रविवेश गृहं रम्यं सीतां द्रष्टुमभित्वरन् |
3121 | 3053003a | स प्रविश्य तु तद्वेश्म रावणो राक्षसाधिपः |
3122 | 3053003c | अपश्यद्राक्षसीमध्ये सीतां शोकपरायणम् |
3123 | 3053004a | अश्रुपूर्णमुखीं दीनां शोकभारावपीडिताम् |
3124 | 3053004c | वायुवेगैरिवाक्रान्तां मज्जन्तीं नावमर्णवे |
3125 | 3053005a | मृगयूथपरिभ्रष्टां मृगीं श्वभिरिवावृताम् |
3126 | 3053005c | अधोमुखमुखीं दीनामभ्येत्य च निशाचरः |
3127 | 3053006a | तां तु शोकवशां दीनामवशां राक्षसाधिपः |
3128 | 3053006c | स बलाद्दर्शयामास गृहं देवगृहोपमम् |
3129 | 3053007a | हर्म्यप्रासादसंबधं स्त्रीसहस्रनिषेवितम् |
3130 | 3053007c | नानापक्षिगणैर्जुष्टं नानारत्नसमन्वितम् |
3131 | 3053008a | काञ्चनैस्तापनीयैश्च स्फाटिकै राजतैस्तथा |
3132 | 3053008c | वज्रवैदूर्यचित्रैश्च स्तम्भैर्दृष्टिमनोहरैः |
3133 | 3053009a | दिव्यदुन्दुभिनिर्ह्रादं तप्तकाञ्चनतोरणम् |
3134 | 3053009c | सोपानं काञ्चनं चित्रमारुरोह तया सह |
3135 | 3053010a | दान्तका राजताश्चैव गवाक्षाः प्रियदर्शनाः |
3136 | 3053010c | हेमजालावृताश्चासंस्तत्र प्रासादपङ्क्तयः |
3137 | 3053011a | सुधामणिविचित्राणि भूमिभागानि सर्वशः |
3138 | 3053011c | दशग्रीवः स्वभवने प्रादर्शयत मैथिलीम् |
3139 | 3053012a | दीर्घिकाः पुष्करिण्यश्च नानापुष्पसमावृताः |
3140 | 3053012c | रावणो दर्शयामास सीतां शोकपरायणाम् |
3141 | 3053013a | दर्शयित्वा तु वैदेहीं कृत्स्नं तद्भवनोत्तमम् |
3142 | 3053013c | उवाच वाक्यं पापात्मा रावणो जनकात्मजाम् |
3143 | 3053014a | दशराक्षसकोट्यश्च द्वाविंशतिरथापराः |
3144 | 3053014c | वर्जयित्वा जरा वृद्धान्बालांश्च रजनीचरान् |
3145 | 3053015a | तेषां प्रभुरहं सीते सर्वेषां भीमकर्मणाम् |
3146 | 3053015c | सहस्रमेकमेकस्य मम कार्यपुरःसरम् |
3147 | 3053016a | यदिदं राज्यतन्त्रं मे त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम् |
3148 | 3053016c | जीवितं च विशालाक्षि त्वं मे प्राणैर्गरीयसी |
3149 | 3053017a | बहूनां स्त्रीसहस्राणां मम योऽसौ परिग्रहः |
3150 | 3053017c | तासां त्वमीश्वरी सीते मम भार्या भव प्रिये |
3151 | 3053018a | साधु किं तेऽन्यया बुद्ध्या रोचयस्व वचो मम |
3152 | 3053018c | भजस्व माभितप्तस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि |
3153 | 3053019a | परिक्षिप्ता समुद्रेण लङ्केयं शतयोजना |
3154 | 3053019c | नेयं धर्षयितुं शक्या सेन्द्रैरपि सुरासुरैः |
3155 | 3053020a | न देवेषु न यक्षेषु न गन्धर्वेषु नर्षिषु |
3156 | 3053020c | अहं पश्यामि लोकेषु यो मे वीर्यसमो भवेत् |
3157 | 3053021a | राज्यभ्रष्टेन दीनेन तापसेन गतायुषा |
3158 | 3053021c | किं करिष्यसि रामेण मानुषेणाल्पतेजसा |
3159 | 3053022a | भजस्व सीते मामेव भर्ताहं सदृशस्तव |
3160 | 3053022c | यौवनं ह्यध्रुवं भीरु रमस्वेह मया सह |
3161 | 3053023a | दर्शने मा कृथा बुद्धिं राघवस्य वरानने |
3162 | 3053023c | कास्य शक्तिरिहागन्तुमपि सीते मनोरथैः |
3163 | 3053024a | न शक्यो वायुराकाशे पाशैर्बद्धं महाजवः |
3164 | 3053024c | दीप्यमानस्य वाप्यग्नेर्ग्रहीतुं विमलां शिखाम् |
3165 | 3053025a | त्रयाणामपि लोकानां न तं पश्यामि शोभने |
3166 | 3053025c | विक्रमेण नयेद्यस्त्वां मद्बाहुपरिपालिताम् |
3167 | 3053026a | लङ्कायां सुमहद्राज्यमिदं त्वमनुपालय |
3168 | 3053026c | अभिषेकोदकक्लिन्ना तुष्टा च रमयस्व माम् |
3169 | 3053027a | दुष्कृतं यत्पुरा कर्म वनवासेन तद्गतम् |
3170 | 3053027c | यश्च ते सुकृतो धर्मस्तस्येह फलमाप्नुहि |
3171 | 3053028a | इह सर्वाणि माल्यानि दिव्यगन्धानि मैथिलि |
3172 | 3053028c | भूषणानि च मुख्यानि तानि सेव मया सह |
3173 | 3053029a | पुष्पकं नाम सुश्रोणि भ्रातुर्वैश्रवणस्य मे |
3174 | 3053029c | विमानं रमणीयं च तद्विमानं मनोजवम् |
3175 | 3053030a | तत्र सीते मया सार्धं विहरस्व यथासुखम् |
3176 | 3053030c | वदनं पद्मसंकाशं विमलं चारुदर्शनम् |
3177 | 3053031a | शोकार्तं तु वरारोहे न भ्राजति वरानने |
3178 | 3053031c | अलं व्रीडेन वैदेहि धर्मलोप कृतेन ते |
3179 | 3053032a | आर्षोऽयं दैवनिष्यन्दो यस्त्वामभिगमिष्यति |
3180 | 3053032c | एतौ पादौ मया स्निग्धौ शिरोभिः परिपीडितौ |
3181 | 3053033a | प्रसादं कुरु मे क्षिप्रं वश्यो दासोऽहमस्मि ते |
3182 | 3053033c | नेमाः शून्या मया वाचः शुष्यमाणेन भाषिताः |
3183 | 3053034a | न चापि रावणः कांचिन्मूर्ध्ना स्त्रीं प्रणमेत ह |
3184 | 3053034c | एवमुक्त्वा दशग्रीवो मैथिलीं जनकात्मजाम् |
3185 | 3053035a | कृतान्तवशमापन्नो ममेयमिति मन्यते |
3186 | 3054001a | सा तथोक्ता तु वैदेही निर्भया शोककर्षिता |
3187 | 3054001c | तृणमन्तरतः कृत्वा रावणं प्रत्यभाषत |
3188 | 3054002a | राजा दशरथो नाम धर्मसेतुरिवाचलः |
3189 | 3054002c | सत्यसन्धः परिज्ञातो यस्य पुत्रः स राघवः |
3190 | 3054003a | रामो नाम स धर्मात्मा त्रिषु लोकेषु विश्रुतः |
3191 | 3054003c | दीर्घबाहुर्विशालाक्षो दैवतं स पतिर्मम |
3192 | 3054004a | इक्ष्वाकूणां कुले जातः सिंहस्कन्धो महाद्युतिः |
3193 | 3054004c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा यस्ते प्राणां हरिष्यति |
3194 | 3054005a | प्रत्यक्षं यद्यहं तस्य त्वया स्यां धर्षिता बलात् |
3195 | 3054005c | शयिता त्वं हतः संख्ये जनस्थाने यथा खरः |
3196 | 3054006a | य एते राक्षसाः प्रोक्ता घोररूपा महाबलाः |
3197 | 3054006c | राघवे निर्विषाः सर्वे सुपर्णे पन्नगा यथा |
3198 | 3054007a | तस्य ज्याविप्रमुक्तास्ते शराः काञ्चनभूषणाः |
3199 | 3054007c | शरीरं विधमिष्यन्ति गङ्गाकूलमिवोर्मयः |
3200 | 3054008a | असुरैर्वा सुरैर्वा त्वं यद्यवधोऽसि रावण |
3201 | 3054008c | उत्पाद्य सुमहद्वैरं जीवंस्तस्य न मोक्ष्यसे |
3202 | 3054009a | स ते जीवितशेषस्य राघवोऽन्तकरो बली |
3203 | 3054009c | पशोर्यूपगतस्येव जीवितं तव दुर्लभम् |
3204 | 3054010a | यदि पश्येत्स रामस्त्वां रोषदीप्तेन चक्षुषा |
3205 | 3054010c | रक्षस्त्वमद्य निर्दग्धो गच्छेः सद्यः पराभवम् |
3206 | 3054011a | यश्चन्द्रं नभसो भूमौ पातयेन्नाशयेत वा |
3207 | 3054011c | सागरं शोषयेद्वापि स सीतां मोचयेदिह |
3208 | 3054012a | गतायुस्त्वं गतश्रीको गतसत्त्वो गतेन्द्रियः |
3209 | 3054012c | लङ्का वैधव्यसंयुक्ता त्वत्कृतेन भविष्यति |
3210 | 3054013a | न ते पापमिदं कर्म सुखोदर्कं भविष्यति |
3211 | 3054013c | याहं नीता विना भावं पतिपार्श्वात्त्वया वनात् |
3212 | 3054014a | स हि दैवतसंयुक्तो मम भर्ता महाद्युतिः |
3213 | 3054014c | निर्भयो वीर्यमाश्रित्य शून्ये वसति दण्डके |
3214 | 3054015a | स ते दर्पं बलं वीर्यमुत्सेकं च तथाविधम् |
3215 | 3054015c | अपनेष्यति गात्रेभ्यः शरवर्षेण संयुगे |
3216 | 3054016a | यदा विनाशो भूतानां दृश्यते कालचोदितः |
3217 | 3054016c | तदा कार्ये प्रमाद्यन्ति नराः कालवशं गताः |
3218 | 3054017a | मां प्रधृष्य स ते कालः प्राप्तोऽयं रक्षसाधम |
3219 | 3054017c | आत्मनो राक्षसानां च वधायान्तःपुरस्य च |
3220 | 3054018a | न शक्या यज्ञमध्यस्था वेदिः स्रुग्भाण्ड मण्डिता |
3221 | 3054018c | द्विजातिमन्त्रसंपूता चण्डालेनावमर्दितुम् |
3222 | 3054019a | इदं शरीरं निःसंज्ञं बन्ध वा घातयस्व वा |
3223 | 3054019c | नेदं शरीरं रक्ष्यं मे जीवितं वापि राक्षस |
3224 | 3054019e | न हि शक्ष्याम्युपक्रोशं पृथिव्यां दातुमात्मनः |
3225 | 3054020a | एवमुक्त्वा तु वैदेही क्रोद्धात्सुपरुषं वचः |
3226 | 3054020c | रावणं मैथिली तत्र पुनर्नोवाच किंचन |
3227 | 3054021a | सीताया वचनं श्रुत्वा परुषं रोमहर्षणम् |
3228 | 3054021c | प्रत्युवाच ततः सीतां भयसंदर्शनं वचः |
3229 | 3054022a | शृणु मैथिलि मद्वाक्यं मासान्द्वादश भामिनि |
3230 | 3054022c | कालेनानेन नाभ्येषि यदि मां चारुहासिनि |
3231 | 3054022e | ततस्त्वां प्रातराशार्थं सूदाश्छेत्स्यन्ति लेशशः |
3232 | 3054023a | इत्युक्त्वा परुषं वाक्यं रावणः शत्रुरावणः |
3233 | 3054023c | राक्षसीश्च ततः क्रुद्ध इदं वचनमब्रवीत् |
3234 | 3054024a | शीघ्रमेवं हि राक्षस्यो विकृता घोरदर्शनाः |
3235 | 3054024c | दर्पमस्या विनेष्यन्तु मांसशोणितभोजनाः |
3236 | 3054025a | वचनादेव तास्तस्य विकृता घोरदर्शनाः |
3237 | 3054025c | कृतप्राञ्जलयो भूत्वा मैथिलीं पर्यवारयन् |
3238 | 3054026a | स ताः प्रोवाच राजा तु रावणो घोरदर्शनः |
3239 | 3054026c | प्रचाल्य चरणोत्कर्षैर्दारयन्निव मेदिनीम् |
3240 | 3054027a | अशोकवनिकामध्ये मैथिली नीयतामिति |
3241 | 3054027c | तत्रेयं रक्ष्यतां गूढमुष्माभिः परिवारिता |
3242 | 3054028a | तत्रैनां तर्जनैर्घोरैः पुनः सान्त्वैश्च मैथिलीम् |
3243 | 3054028c | आनयध्वं वशं सर्वा वन्यां गजवधूमिव |
3244 | 3054029a | इति प्रतिसमादिष्टा राक्षस्यो रावणेन ताः |
3245 | 3054029c | अशोकवनिकां जग्मुर्मैथिलीं परिगृह्य ताम् |
3246 | 3054030a | सर्वकामफलैर्वृक्षैर्नानापुष्पफलैर्वृताम् |
3247 | 3054030c | सर्वकालमदैश्चापि द्विजैः समुपसेविताम् |
3248 | 3054031a | सा तु शोकपरीताङ्गी मैथिली जनकात्मजा |
3249 | 3054031c | राक्षसी वशमापन्ना व्याघ्रीणां हरिणी यथा |
3250 | 3054032a | न विन्दते तत्र तु शर्म मैथिली; विरूपनेत्राभिरतीव तर्जिता |
3251 | 3054032c | पतिं स्मरन्ती दयितं च देवरं; विचेतनाभूद्भयशोकपीडिता |
3252 | 3055001a | राक्षसं मृगरूपेण चरन्तं कामरूपिणम् |
3253 | 3055001c | निहत्य रामो मारीचं तूर्णं पथि न्यवर्तत |
3254 | 3055002a | तस्य संत्वरमाणस्य द्रष्टुकामस्य मैथिलीम् |
3255 | 3055002c | क्रूरस्वरोऽथ गोमायुर्विननादास्य पृष्ठतः |
3256 | 3055003a | स तस्य स्वरमाज्ञाय दारुणं रोमहर्षणम् |
3257 | 3055003c | चिन्तयामास गोमायोः स्वरेण परिशङ्कितः |
3258 | 3055004a | अशुभं बत मन्येऽहं गोमायुर्वाश्यते यथा |
3259 | 3055004c | स्वस्ति स्यादपि वैदेह्या राक्षसैर्भक्षणं विना |
3260 | 3055005a | मारीचेन तु विज्ञाय स्वरमालक्ष्य मामकम् |
3261 | 3055005c | विक्रुष्टं मृगरूपेण लक्ष्मणः शृणुयाद्यदि |
3262 | 3055006a | स सौमित्रिः स्वरं श्रुत्वा तां च हित्वाथ मैथिलीम् |
3263 | 3055006c | तयैव प्रहितः क्षिप्रं मत्सकाशमिहैष्यति |
3264 | 3055007a | राक्षसैः सहितैर्नूनं सीताया ईप्सितो वधः |
3265 | 3055007c | काञ्चनश्च मृगो भूत्वा व्यपनीयाश्रमात्तु माम् |
3266 | 3055008a | दूरं नीत्वा तु मारीचो राक्षसोऽभूच्छराहतः |
3267 | 3055008c | हा लक्ष्मण हतोऽस्मीति यद्वाक्यं व्यजहार ह |
3268 | 3055009a | अपि स्वस्ति भवेद्द्वाभ्यां रहिताभ्यां मया वने |
3269 | 3055009c | जनस्थाननिमित्तं हि कृतवैरोऽस्मि राक्षसैः |
3270 | 3055009e | निमित्तानि च घोराणि दृश्यन्तेऽद्य बहूनि च |
3271 | 3055010a | इत्येवं चिन्तयन्रामः श्रुत्वा गोमायुनिःस्वनम् |
3272 | 3055010c | आत्मनश्चापनयनं मृगरूपेण रक्षसा |
3273 | 3055010e | आजगाम जनस्थानं राघवः परिशङ्कितः |
3274 | 3055011a | तं दीनमानसं दीनमासेदुर्मृगपक्षिणः |
3275 | 3055011c | सव्यं कृत्वा महात्मानं घोरांश्च ससृजुः स्वरान् |
3276 | 3055012a | तानि दृष्ट्वा निमित्तानि महाघोराणि राघवः |
3277 | 3055012c | ततो लक्षणमायान्तं ददर्श विगतप्रभम् |
3278 | 3055013a | ततोऽविदूरे रामेण समीयाय स लक्ष्मणः |
3279 | 3055013c | विषण्णः स विषण्णेन दुःखितो दुःखभागिना |
3280 | 3055014a | संजगर्हेऽथ तं भ्राता जेष्ठो लक्ष्मणमागतम् |
3281 | 3055014c | विहाय सीतां विजने वने राक्षससेविते |
3282 | 3055015a | गृहीत्वा च करं सव्यं लक्ष्मणं रघुनन्दनः |
3283 | 3055015c | उवाच मधुरोदर्कमिदं परुषमार्तवत् |
3284 | 3055016a | अहो लक्ष्मण गर्ह्यं ते कृतं यत्त्वं विहाय ताम् |
3285 | 3055016c | सीतामिहागतः सौम्य कच्चित्स्वस्ति भवेदिति |
3286 | 3055017a | न मेऽस्ति संशयो वीर सर्वथा जनकात्मजा |
3287 | 3055017c | विनष्टा भक्षिता वाप राक्षसैर्वनचारिभिः |
3288 | 3055018a | अशुभान्येव भूयिष्ठं यथा प्रादुर्भवन्ति मे |
3289 | 3055018c | अपि लक्ष्मण सीतायाः सामग्र्यं प्राप्नुयावहे |
3290 | 3055019a | इदं हि रक्षोमृगसंनिकाशं; प्रलोभ्य मां दूरमनुप्रयातम् |
3291 | 3055019c | हतं कथंचिन्महता श्रमेण; स राक्षसोऽभून्म्रियमाण एव |
3292 | 3055020a | मनश्च मे दीनमिहाप्रहृष्टं; चक्षुश्च सव्यं कुरुते विकारम् |
3293 | 3055020c | असंशयं लक्ष्मण नास्ति सीता; हृता मृता वा पथि वर्तते वा |
3294 | 3056001a | स दृष्ट्वा लक्ष्मणं दीनं शून्ये दशरथात्मजः |
3295 | 3056001c | पर्यपृच्छत धर्मात्मा वैदेहीमागतं विना |
3296 | 3056002a | प्रस्थितं दण्डकारण्यं या मामनुजगाम ह |
3297 | 3056002c | क्व सा लक्ष्मण वैदेही यां हित्वा त्वमिहागतः |
3298 | 3056003a | राज्यभ्रष्टस्य दीनस्य दण्डकान्परिधावतः |
3299 | 3056003c | क्व सा दुःखसहाया मे वैदेही तनुमध्यमा |
3300 | 3056004a | यां विना नोत्सहे वीर मुहूर्तमपि जीवितुम् |
3301 | 3056004c | क्व सा प्राणसहाया मे सीता सुरसुतोपमा |
3302 | 3056005a | पतित्वममराणां वा पृथिव्याश्चापि लक्ष्मण |
3303 | 3056005c | विना तां तपनीयाभां नेच्छेयं जनकात्मजाम् |
3304 | 3056006a | कच्चिज्जीवति वैदेही प्राणैः प्रियतरा मम |
3305 | 3056006c | कच्चित्प्रव्राजनं सौम्य न मे मिथ्या भविष्यति |
3306 | 3056007a | सीतानिमित्तं सौमित्रे मृते मयि गते त्वयि |
3307 | 3056007c | कच्चित्सकामा सुखिता कैकेयी सा भविष्यति |
3308 | 3056008a | सपुत्रराज्यां सिद्धार्थां मृतपुत्रा तपस्विनी |
3309 | 3056008c | उपस्थास्यति कौसल्या कच्चिन्सौम्य न कैकयीम् |
3310 | 3056009a | यदि जीवति वैदेही गमिष्याम्याश्रमं पुनः |
3311 | 3056009c | सुवृत्ता यदि वृत्ता सा प्राणांस्त्यक्ष्यामि लक्ष्मण |
3312 | 3056010a | यदि मामाश्रमगतं वैदेही नाभिभाषते |
3313 | 3056010c | पुनः प्रहसिता सीता विनशिष्यामि लक्ष्मण |
3314 | 3056011a | ब्रूहि लक्ष्मण वैदेही यदि जीवति वा न वा |
3315 | 3056011c | त्वयि प्रमत्ते रक्षोभिर्भक्षिता वा तपस्विनी |
3316 | 3056012a | सुकुमारी च बाला च नित्यं चादुःखदर्शिनी |
3317 | 3056012c | मद्वियोगेन वैदेही व्यक्तं शोचति दुर्मनाः |
3318 | 3056013a | सर्वथा रक्षसा तेन जिह्मेन सुदुरात्मना |
3319 | 3056013c | वदता लक्ष्मणेत्युच्चैस्तवापि जनितं भयम् |
3320 | 3056014a | श्रुतश्च शङ्के वैदेह्या स स्वरः सदृशो मम |
3321 | 3056014c | त्रस्तया प्रेषितस्त्वं च द्रष्टुं मां शीघ्रमागतः |
3322 | 3056015a | सर्वथा तु कृतं कष्टं सीतामुत्सृजता वने |
3323 | 3056015c | प्रतिकर्तुं नृशंसानां रक्षसां दत्तमन्तरम् |
3324 | 3056016a | दुःखिताः खरघातेन राक्षसाः पिशिताशनाः |
3325 | 3056016c | तैः सीता निहता घोरैर्भविष्यति न संशयः |
3326 | 3056017a | अहोऽस्मि व्यसने मग्नः सर्वथा रिपुनाशन |
3327 | 3056017c | किं त्विदानीं करिष्यामि शङ्के प्राप्तव्यमीदृशम् |
3328 | 3056018a | इति सीतां वरारोहां चिन्तयन्नेव राघवः |
3329 | 3056018c | आजगाम जनस्थानं त्वरया सहलक्ष्मणः |
3330 | 3056019a | विगर्हमाणोऽनुजमार्तरूपं; क्षुधा श्रमाच्चैव पिपासया च |
3331 | 3056019c | विनिःश्वसञ्शुष्कमुखो विषण्णः; प्रतिश्रयं प्राप्य समीक्ष्य शून्यम् |
3332 | 3056020a | स्वमाश्रमं संप्रविगाह्य वीरो; विहारदेशाननुसृत्य कांश्चित् |
3333 | 3056020c | एतत्तदित्येव निवासभूमौ; प्रहृष्टरोमा व्यथितो बभूव |
3334 | 3057001a | अथाश्रमादुपावृत्तमन्तरा रघुनन्दनः |
3335 | 3057001c | परिपप्रच्छ सौमित्रिं रामो दुःखार्दितः पुनः |
3336 | 3057002a | तमुवाच किमर्थं त्वमागतोऽपास्य मैथिलीम् |
3337 | 3057002c | यदा सा तव विश्वासाद्वने विहरिता मया |
3338 | 3057003a | दृष्ट्वैवाभ्यागतं त्वां मे मैथिलीं त्यज्य लक्ष्मण |
3339 | 3057003c | शङ्कमानं महत्पापं यत्सत्यं व्यथितं मनः |
3340 | 3057004a | स्फुरते नयनं सव्यं बाहुश्च हृदयं च मे |
3341 | 3057004c | दृष्ट्वा लक्ष्मण दूरे त्वां सीताविरहितं पथि |
3342 | 3057005a | एवमुक्तस्तु सौमित्रिर्लक्ष्मणः शुभलक्षणः |
3343 | 3057005c | भूयो दुःखसमाविष्टो दुःखितं राममब्रवीत् |
3344 | 3057006a | न स्वयं कामकारेण तां त्यक्त्वाहमिहागतः |
3345 | 3057006c | प्रचोदितस्तयैवोग्रैस्त्वत्सकाशमिहागतः |
3346 | 3057007a | आर्येणेव परिक्रुष्टं हा सीते लक्ष्मणेति च |
3347 | 3057007c | परित्राहीति यद्वाक्यं मैथिल्यास्तच्छ्रुतिं गतम् |
3348 | 3057008a | सा तमार्तस्वरं श्रुत्वा तव स्नेहेन मैथिली |
3349 | 3057008c | गच्छ गच्छेति मामाह रुदन्ती भयविह्वला |
3350 | 3057009a | प्रचोद्यमानेन मया गच्छेति बहुशस्तया |
3351 | 3057009c | प्रत्युक्ता मैथिली वाक्यमिदं त्वत्प्रत्ययान्वितम् |
3352 | 3057010a | न तत्पश्याम्यहं रक्षो यदस्य भयमावहेत् |
3353 | 3057010c | निर्वृता भव नास्त्येतत्केनाप्येवमुदाहृतम् |
3354 | 3057011a | विगर्हितं च नीचं च कथमार्योऽभिधास्यति |
3355 | 3057011c | त्राहीति वचनं सीते यस्त्रायेत्त्रिदशानपि |
3356 | 3057012a | किंनिमित्तं तु केनापि भ्रातुरालम्ब्य मे स्वरम् |
3357 | 3057012c | विस्वरं व्याहृतं वाक्यं लक्ष्मण त्राहि मामिति |
3358 | 3057012e | न भवत्या व्यथा कार्या कुनारीजनसेविता |
3359 | 3057013a | अलं वैक्लव्यमालम्ब्य स्वस्था भव निरुत्सुका |
3360 | 3057013c | न चास्ति त्रिषु लोकेषु पुमान्यो राघवं रणे |
3361 | 3057013e | जातो वा जायमानो वा संयुगे यः पराजयेत् |
3362 | 3057014a | एवमुक्ता तु वैदेही परिमोहितचेतना |
3363 | 3057014c | उवाचाश्रूणि मुञ्चन्ती दारुणं मामिदं वचः |
3364 | 3057015a | भावो मयि तवात्यर्थं पाप एव निवेशितः |
3365 | 3057015c | विनष्टे भ्रातरि प्राप्ते न च त्वं मामवाप्स्यसि |
3366 | 3057016a | संकेताद्भरतेन त्वं रामं समनुगच्छसि |
3367 | 3057016c | क्रोशन्तं हि यथात्यर्थं नैनमभ्यवपद्यसे |
3368 | 3057017a | रिपुः प्रच्छन्नचारी त्वं मदर्थमनुगच्छसि |
3369 | 3057017c | राघवस्यान्तरप्रेप्सुस्तथैनं नाभिपद्यसे |
3370 | 3057018a | एवमुक्तो हि वैदेह्या संरब्धो रक्तलोचनः |
3371 | 3057018c | क्रोधात्प्रस्फुरमाणौष्ठ आश्रमादभिनिर्गतः |
3372 | 3057019a | एवं ब्रुवाणं सौमित्रिं रामः संतापमोहितः |
3373 | 3057019c | अब्रवीद्दुष्कृतं सौम्य तां विना यत्त्वमागतः |
3374 | 3057020a | जानन्नपि समर्थं मां रक्षसां विनिवारणे |
3375 | 3057020c | अनेन क्रोधवाक्येन मैथिल्या निःसृतो भवान् |
3376 | 3057021a | न हि ते परितुष्यामि त्यक्त्वा यद्यासि मैथिलीम् |
3377 | 3057021c | क्रुद्धायाः परुषं श्रुत्वा स्त्रिया यत्त्वमिहागतः |
3378 | 3057022a | सर्वथा त्वपनीतं ते सीतया यत्प्रचोदितः |
3379 | 3057022c | क्रोधस्य वशमागम्य नाकरोः शासनं मम |
3380 | 3057023a | असौ हि राक्षसः शेते शरेणाभिहतो मया |
3381 | 3057023c | मृगरूपेण येनाहमाश्रमादपवादितः |
3382 | 3057024a | विकृष्य चापं परिधाय सायकं; सलील बाणेन च ताडितो मया |
3383 | 3057024c | मार्गीं तनुं त्यज्य च विक्लवस्वरो; बभूव केयूरधरः स राक्षसः |
3384 | 3057025a | शराहतेनैव तदार्तया गिरा; स्वरं ममालम्ब्य सुदूरसंश्रवम् |
3385 | 3057025c | उदाहृतं तद्वचनं सुदारुणं; त्वमागतो येन विहाय मैथिलीम् |
3386 | 3058001a | भृशमाव्रजमानस्य तस्याधोवामलोचनम् |
3387 | 3058001c | प्रास्फुरच्चास्खलद्रामो वेपथुश्चास्य जायते |
3388 | 3058002a | उपालक्ष्य निमित्तानि सोऽशुभानि मुहुर्मुहुः |
3389 | 3058002c | अपि क्षेमं तु सीताया इति वै व्याजहार ह |
3390 | 3058003a | त्वरमाणो जगामाथ सीतादर्शनलालसः |
3391 | 3058003c | शून्यमावसथं दृष्ट्वा बभूवोद्विग्नमानसः |
3392 | 3058004a | उद्भ्रमन्निव वेगेन विक्षिपन्रघुनन्दनः |
3393 | 3058004c | तत्र तत्रोटजस्थानमभिवीक्ष्य समन्ततः |
3394 | 3058005a | ददर्श पर्णशालां च रहितां सीतया तदा |
3395 | 3058005c | श्रिया विरहितां ध्वस्तां हेमन्ते पद्मिनीमिव |
3396 | 3058006a | रुदन्तमिव वृक्षैश्च म्लानपुष्पमृगद्विजम् |
3397 | 3058006c | श्रिया विहीनं विध्वस्तं संत्यक्तवनदैवतम् |
3398 | 3058007a | विप्रकीर्णाजिनकुशं विप्रविद्धबृसीकटम् |
3399 | 3058007c | दृष्ट्वा शून्योटजस्थानं विललाप पुनः पुनः |
3400 | 3058008a | हृता मृता वा नष्टा वा भक्षिता वा भविष्यति |
3401 | 3058008c | निलीनाप्यथ वा भीरुरथ वा वनमाश्रिता |
3402 | 3058009a | गता विचेतुं पुष्पाणि फलान्यपि च वा पुनः |
3403 | 3058009c | अथ वा पद्मिनीं याता जलार्थं वा नदीं गता |
3404 | 3058010a | यत्नान्मृगयमाणस्तु नाससाद वने प्रियाम् |
3405 | 3058010c | शोकरक्तेक्षणः शोकादुन्मत्त इव लक्ष्यते |
3406 | 3058011a | वृक्षाद्वृक्षं प्रधावन्स गिरींश्चापि नदीन्नदीम् |
3407 | 3058011c | बभूव विलपन्रामः शोकपङ्कार्णवप्लुतः |
3408 | 3058012a | अस्ति कच्चित्त्वया दृष्टा सा कदम्बप्रिया प्रिया |
3409 | 3058012c | कदम्ब यदि जानीषे शंस सीतां शुभाननाम् |
3410 | 3058013a | स्निग्धपल्लवसंकाशां पीतकौशेयवासिनीम् |
3411 | 3058013c | शंसस्व यदि वा दृष्टा बिल्व बिल्वोपमस्तनी |
3412 | 3058014a | अथ वार्जुन शंस त्वं प्रियां तामर्जुनप्रियाम् |
3413 | 3058014c | जनकस्य सुता भीरुर्यदि जीवति वा न वा |
3414 | 3058015a | ककुभः ककुभोरुं तां व्यक्तं जानाति मैथिलीम् |
3415 | 3058015c | लतापल्लवपुष्पाढ्यो भाति ह्येष वनस्पतिः |
3416 | 3058016a | भ्रमरैरुपगीतश्च यथा द्रुमवरो ह्ययम् |
3417 | 3058016c | एष व्यक्तं विजानाति तिलकस्तिलकप्रियाम् |
3418 | 3058017a | अशोकशोकापनुद शोकोपहतचेतसं |
3419 | 3058017c | त्वन्नामानं कुरु क्षिप्रं प्रियासंदर्शनेन माम् |
3420 | 3058018a | यदि ताल त्वया दृष्टा पक्वतालफलस्तनी |
3421 | 3058018c | कथयस्व वरारोहां कारुष्यं यदि ते मयि |
3422 | 3058019a | यदि दृष्टा त्वया सीता जम्बुजाम्बूनदप्रभा |
3423 | 3058019c | प्रियां यदि विजानीषे निःशङ्कं कथयस्व मे |
3424 | 3058020a | अथ वा मृगशावाक्षीं मृग जानासि मैथिलीम् |
3425 | 3058020c | मृगविप्रेक्षणी कान्ता मृगीभिः सहिता भवेत् |
3426 | 3058021a | गज सा गजनासोरुर्यदि दृष्टा त्वया भवेत् |
3427 | 3058021c | तां मन्ये विदितां तुभ्यमाख्याहि वरवारण |
3428 | 3058022a | शार्दूल यदि सा दृष्टा प्रिया चन्द्रनिभानना |
3429 | 3058022c | मैथिली मम विस्रब्धः कथयस्व न ते भयम् |
3430 | 3058023a | किं धावसि प्रिये नूनं दृष्टासि कमलेक्षणे |
3431 | 3058023c | वृक्षेणाच्छाद्य चात्मानं किं मां न प्रतिभाषसे |
3432 | 3058024a | तिष्ठ तिष्ठ वरारोहे न तेऽस्ति करुणा मयि |
3433 | 3058024c | नात्यर्थं हास्यशीलासि किमर्थं मामुपेक्षसे |
3434 | 3058025a | पीतकौशेयकेनासि सूचिता वरवर्णिनि |
3435 | 3058025c | धावन्त्यपि मया दृष्टा तिष्ठ यद्यस्ति सौहृदम् |
3436 | 3058026a | नैव सा नूनमथ वा हिंसिता चारुहासिनी |
3437 | 3058026c | कृच्छ्रं प्राप्तं हि मां नूनं यथोपेक्षितुमर्हति |
3438 | 3058027a | व्यक्तं सा भक्षिता बाला राक्षसैः पिशिताशनैः |
3439 | 3058027c | विभज्याङ्गानि सर्वाणि मया विरहिता प्रिया |
3440 | 3058028a | नूनं तच्छुभदन्तौष्ठं मुखं निष्प्रभतां गतम् |
3441 | 3058028c | सा हि चम्पकवर्णाभा ग्रीवा ग्रैवेय शोभिता |
3442 | 3058029a | कोमला विलपन्त्यास्तु कान्ताया भक्षिता शुभा |
3443 | 3058029c | नूनं विक्षिप्यमाणौ तौ बाहू पल्लवकोमलौ |
3444 | 3058030a | भक्षितौ वेपमानाग्रौ सहस्ताभरणाङ्गदौ |
3445 | 3058030c | मया विरहिता बाला रक्षसां भक्षणाय वै |
3446 | 3058031a | सार्थेनेव परित्यक्ता भक्षिता बहुबान्धवा |
3447 | 3058031c | हा लक्ष्मण महाबाहो पश्यसि त्वं प्रियां क्वचित् |
3448 | 3058032a | हा प्रिये क्व गता भद्रे हा सीतेति पुनः पुनः |
3449 | 3058032c | इत्येवं विलपन्रामः परिधावन्वनाद्वनम् |
3450 | 3058033a | क्वचिदुद्भ्रमते वेगात्क्वचिद्विभ्रमते बलात् |
3451 | 3058033c | क्वचिन्मत्त इवाभाति कान्तान्वेषणतत्परः |
3452 | 3058034a | स वनानि नदीः शैलान्गिरिप्रस्रवणानि च |
3453 | 3058034c | काननानि च वेगेन भ्रमत्यपरिसंस्थितः |
3454 | 3058035a | तथा स गत्वा विपुलं महद्वनं; परीत्य सर्वं त्वथ मैथिलीं प्रति |
3455 | 3058035c | अनिष्ठिताशः स चकार मार्गणे; पुनः प्रियायाः परमं परिश्रमम् |
3456 | 3059001a | दृष्टाश्रमपदं शून्यं रामो दशरथात्मजः |
3457 | 3059001c | रहितां पर्णशालां च विध्वस्तान्यासनानि च |
3458 | 3059002a | अदृष्ट्वा तत्र वैदेहीं संनिरीक्ष्य च सर्वशः |
3459 | 3059002c | उवाच रामः प्राक्रुश्य प्रगृह्य रुचिरौ भुजौ |
3460 | 3059003a | क्व नु लक्ष्मण वैदेही कं वा देशमितो गता |
3461 | 3059003c | केनाहृता वा सौमित्रे भक्षिता केन वा प्रिया |
3462 | 3059004a | वृष्केणावार्य यदि मां सीते हसितुमिच्छसि |
3463 | 3059004c | अलं ते हसितेनाद्य मां भजस्व सुदुःखितम् |
3464 | 3059005a | यैः सह क्रीडसे सीते विश्वस्तैर्मृगपोतकैः |
3465 | 3059005c | एते हीनास्त्वया सौम्ये ध्यायन्त्यस्राविलेक्षणाः |
3466 | 3059006a | मृतं शोकेन महता सीताहरणजेन माम् |
3467 | 3059006c | परलोके महाराजो नूनं द्रक्ष्यति मे पिता |
3468 | 3059007a | कथं प्रतिज्ञां संश्रुत्य मया त्वमभियोजितः |
3469 | 3059007c | अपूरयित्वा तं कालं मत्सकाशमिहागतः |
3470 | 3059008a | कामवृत्तमनार्यं मां मृषावादिनमेव च |
3471 | 3059008c | धिक्त्वामिति परे लोके व्यक्तं वक्ष्यति मे पिता |
3472 | 3059009a | विवशं शोकसंतप्तं दीनं भग्नमनोरथम् |
3473 | 3059009c | मामिहोत्सृज्य करुणं कीर्तिर्नरमिवानृजुम् |
3474 | 3059010a | क्व गच्छसि वरारोहे मामुत्सृज्य सुमध्यमे |
3475 | 3059010c | त्वया विरहितश्चाहं मोक्ष्ये जीवितमात्मनः |
3476 | 3059011a | इतीव विलपन्रामः सीतादर्शनलालसः |
3477 | 3059011c | न ददर्श सुदुःखार्तो राघवो जनकात्मजाम् |
3478 | 3059012a | अनासादयमानं तं सीतां दशरथात्मजम् |
3479 | 3059012c | पङ्कमासाद्य विपुलं सीदन्तमिव कुञ्जरम् |
3480 | 3059012e | लक्ष्मणो राममत्यर्थमुवाच हितकाम्यया |
3481 | 3059013a | मा विषादं महाबाहो कुरु यत्नं मया सह |
3482 | 3059013c | इदं च हि वनं शूर बहुकन्दरशोभितम् |
3483 | 3059014a | प्रियकाननसंचारा वनोन्मत्ता च मैथिली |
3484 | 3059014c | सा वनं वा प्रविष्टा स्यान्नलिनीं वा सुपुष्पिताम् |
3485 | 3059015a | सरितं वापि संप्राप्ता मीनवञ्जुरसेविताम् |
3486 | 3059015c | वित्रासयितुकामा वा लीना स्यात्कानने क्वचित् |
3487 | 3059015e | जिज्ञासमाना वैदेही त्वां मां च पुरुषर्षभ |
3488 | 3059016a | तस्या ह्यन्वेषणे श्रीमन्क्षिप्रमेव यतावहे |
3489 | 3059016c | वनं सर्वं विचिनुवो यत्र सा जनकात्मजा |
3490 | 3059016e | मन्यसे यदि काकुत्स्थ मा स्म शोके मनः कृथाः |
3491 | 3059017a | एवमुक्तस्तु सौहार्दाल्लक्ष्मणेन समाहितः |
3492 | 3059017c | सह सौमित्रिणा रामो विचेतुमुपचक्रमे |
3493 | 3059017e | तौ वनानि गिरींश्चैव सरितश्च सरांसि च |
3494 | 3059018a | निखिलेन विचिन्वन्तौ सीतां दशरथात्मजौ |
3495 | 3059018c | तस्य शैलस्य सानूनि गुहाश्च शिखराणि च |
3496 | 3059019a | निखिलेन विचिन्वन्तौ नैव तामभिजग्मतुः |
3497 | 3059019c | विचित्य सर्वतः शैलं रामो लक्ष्मणमब्रवीत् |
3498 | 3059020a | नेह पश्यामि सौमित्रे वैदेहीं पर्वते शुभे |
3499 | 3059020c | ततो दुःखाभिसंतप्तो लक्ष्मणो वाक्यमब्रवीत् |
3500 | 3059021a | विचरन्दण्डकारण्यं भ्रातरं दीप्ततेजसं |
3501 | 3059021c | प्राप्स्यसि त्वं महाप्राज्ञ मैथिलीं जनकात्मजाम् |
3502 | 3059022a | यथा विष्णुर्महाबाहुर्बलिं बद्ध्वा महीमिमाम् |
3503 | 3059022c | एवमुक्तस्तु वीरेण लक्ष्मणेन स राघवः |
3504 | 3059023a | उवाच दीनया वाचा दुःखाभिहतचेतनः |
3505 | 3059023c | वनं सर्वं सुविचितं पद्मिन्यः फुल्लपङ्कजाः |
3506 | 3059024a | गिरिश्चायं महाप्राज्ञ बहुकन्दरनिर्झरः |
3507 | 3059024c | न हि पश्यामि वैदेहीं प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम् |
3508 | 3059025a | एवं स विलपन्रामः सीताहरणकर्शितः |
3509 | 3059025c | दीनः शोकसमाविष्टो मुहूर्तं विह्वलोऽभवत् |
3510 | 3059026a | स विह्वलितसर्वाङ्गो गतबुद्धिर्विचेतनः |
3511 | 3059026c | विषसादातुरो दीनो निःश्वस्याशीतमायतम् |
3512 | 3059027a | बहुशः स तु निःश्वस्य रामो राजीवलोचनः |
3513 | 3059027c | हा प्रियेति विचुक्रोश बहुशो बाष्पगद्गदः |
3514 | 3059028a | तं सान्त्वयामास ततो लक्ष्मणः प्रियबान्धवः |
3515 | 3059028c | बहुप्रकारं धर्मज्ञः प्रश्रितः प्रश्रिताञ्जलिः |
3516 | 3059029a | अनादृत्य तु तद्वाक्यं लक्ष्मणौष्ठपुटच्युतम् |
3517 | 3059029c | अपश्यंस्तां प्रियां सीतां प्राक्रोशत्स पुनः पुनः |
3518 | 3060001a | स दीनो दीनया वाचा लक्ष्मणं वाक्यमब्रवीत् |
3519 | 3060001c | शीघ्रं लक्ष्मण जानीहि गत्वा गोदावरीं नदीम् |
3520 | 3060001e | अपि गोदावरीं सीता पद्मान्यानयितुं गता |
3521 | 3060002a | एवमुक्तस्तु रामेण लक्ष्मणः पुनरेव हि |
3522 | 3060002c | नदीं गोदावरीं रम्यां जगाम लघुविक्रमः |
3523 | 3060003a | तां लक्ष्मणस्तीर्थवतीं विचित्वा राममब्रवीत् |
3524 | 3060003c | नैनां पश्यामि तीर्थेषु क्रोशतो न शृणोति मे |
3525 | 3060004a | कं नु सा देशमापन्ना वैदेही क्लेशनाशिनी |
3526 | 3060004c | न हि तं वेद्मि वै राम यत्र सा तनुमध्यमा |
3527 | 3060005a | लक्ष्मणस्य वचः श्रुत्वा दीनः संताप मोहितः |
3528 | 3060005c | रामः समभिचक्राम स्वयं गोदावरीं नदीम् |
3529 | 3060006a | स तामुपस्थितो रामः क्व सीतेत्येवमब्रवीत् |
3530 | 3060007a | भूतानि राक्षसेन्द्रेण वधार्हेण हृतामपि |
3531 | 3060007c | न तां शशंसू रामाय तथा गोदावरी नदी |
3532 | 3060008a | ततः प्रचोदिता भूतैः शंसास्मै तां प्रियामिति |
3533 | 3060008c | न च साभ्यवदत्सीतां पृष्टा रामेण शोचिता |
3534 | 3060009a | रावणस्य च तद्रूपं कर्माणि च दुरात्मनः |
3535 | 3060009c | ध्यात्वा भयात्तु वैदेहीं सा नदी न शशंस ताम् |
3536 | 3060010a | निराशस्तु तया नद्या सीताया दर्शने कृतः |
3537 | 3060010c | उवाच रामः सौमित्रिं सीतादर्शनकर्शितः |
3538 | 3060011a | किं नु लक्ष्मण वक्ष्यामि समेत्य जनकं वचः |
3539 | 3060011c | मातरं चैव वैदेह्या विना तामहमप्रियम् |
3540 | 3060012a | या मे राज्यविहीनस्य वने वन्येन जीवतः |
3541 | 3060012c | सर्वं व्यपनयच्छोकं वैदेही क्व नु सा गता |
3542 | 3060013a | ज्ञातिपक्षविहीनस्य राजपुत्रीमपश्यतः |
3543 | 3060013c | मन्ये दीर्घा भविष्यन्ति रात्रयो मम जाग्रतः |
3544 | 3060014a | गोदावरीं जनस्थानमिमं प्रस्रवणं गिरिम् |
3545 | 3060014c | सर्वाण्यनुचरिष्यामि यदि सीता हि दृश्यते |
3546 | 3060015a | एवं संभाषमाणौ तावन्योन्यं भ्रातरावुभौ |
3547 | 3060015c | वसुंधरायां पतितं पुष्पमार्गमपश्यताम् |
3548 | 3060016a | तां पुष्पवृष्टिं पतितां दृष्ट्वा रामो महीतले |
3549 | 3060016c | उवाच लक्ष्मणं वीरो दुःखितो दुःखितं वचः |
3550 | 3060017a | अभिजानामि पुष्पाणि तानीमामीह लक्ष्मण |
3551 | 3060017c | अपिनद्धानि वैदेह्या मया दत्तानि कानने |
3552 | 3060018a | एवमुक्त्वा महाबाहुर्लक्ष्मणं पुरुषर्षभम् |
3553 | 3060018c | क्रुद्धोऽब्रवीद्गिरिं तत्र सिंहः क्षुद्रमृगं यथा |
3554 | 3060019a | तां हेमवर्णां हेमाभां सीतां दर्शय पर्वत |
3555 | 3060019c | यावत्सानूनि सर्वाणि न ते विध्वंसयाम्यहम् |
3556 | 3060020a | मम बाणाग्निनिर्दग्धो भस्मीभूतो भविष्यसि |
3557 | 3060020c | असेव्यः सततं चैव निस्तृणद्रुमपल्लवः |
3558 | 3060021a | इमां वा सरितं चाद्य शोषयिष्यामि लक्ष्मण |
3559 | 3060021c | यदि नाख्याति मे सीतामद्य चन्द्रनिभाननाम् |
3560 | 3060022a | एवं स रुषितो रामो दिधक्षन्निव चक्षुषा |
3561 | 3060022c | ददर्श भूमौ निष्क्रान्तं राक्षसस्य पदं महत् |
3562 | 3060023a | स समीक्ष्य परिक्रान्तं सीताया राक्षसस्य च |
3563 | 3060023c | संभ्रान्तहृदयो रामः शशंस भ्रातरं प्रियम् |
3564 | 3060024a | पश्य लक्ष्मण वैदेह्याः शीर्णाः कनकबिन्दवः |
3565 | 3060024c | भूषणानां हि सौमित्रे माल्यानि विविधानि च |
3566 | 3060025a | तप्तबिन्दुनिकाशैश्च चित्रैः क्षतजबिन्दुभिः |
3567 | 3060025c | आवृतं पश्य सौमित्रे सर्वतो धरणीतलम् |
3568 | 3060026a | मन्ये लक्ष्मण वैदेही राक्षसैः कामरूपिभिः |
3569 | 3060026c | भित्त्वा भित्त्वा विभक्ता वा भक्षिता वा भविष्यति |
3570 | 3060027a | तस्य निमित्तं वैदेह्या द्वयोर्विवदमानयोः |
3571 | 3060027c | बभूव युद्धं सौमित्रे घोरं राक्षसयोरिह |
3572 | 3060028a | मुक्तामणिचितं चेदं तपनीयविभूषितम् |
3573 | 3060028c | धरण्यां पतितं सौम्य कस्य भग्नं महद्धनुः |
3574 | 3060029a | तरुणादित्यसंकाशं वैदूर्यगुलिकाचितम् |
3575 | 3060029c | विशीर्णं पतितं भूमौ कवचं कस्य काञ्चनम् |
3576 | 3060030a | छत्रं शतशलाकं च दिव्यमाल्योपशोभितम् |
3577 | 3060030c | भग्नदण्डमिदं कस्य भूमौ सौम्य निपातितम् |
3578 | 3060031a | काञ्चनोरश्छदाश्चेमे पिशाचवदनाः खराः |
3579 | 3060031c | भीमरूपा महाकायाः कस्य वा निहता रणे |
3580 | 3060032a | दीप्तपावकसंकाशो द्युतिमान्समरध्वजः |
3581 | 3060032c | अपविद्धश्च भग्नश्च कस्य सांग्रामिको रथः |
3582 | 3060033a | रथाक्षमात्रा विशिखास्तपनीयविभूषणाः |
3583 | 3060033c | कस्येमेऽभिहता बाणाः प्रकीर्णा घोरकर्मणः |
3584 | 3060034a | वैरं शतगुणं पश्य ममेदं जीवितान्तकम् |
3585 | 3060034c | सुघोरहृदयैः सौम्य राक्षसैः कामरूपिभिः |
3586 | 3060035a | हृता मृता वा सीता हि भक्षिता वा तपस्विनी |
3587 | 3060035c | न धर्मस्त्रायते सीतां ह्रियमाणां महावने |
3588 | 3060036a | भक्षितायां हि वैदेह्यां हृतायामपि लक्ष्मण |
3589 | 3060036c | के हि लोके प्रियं कर्तुं शक्ताः सौम्य ममेश्वराः |
3590 | 3060037a | कर्तारमपि लोकानां शूरं करुणवेदिनम् |
3591 | 3060037c | अज्ञानादवमन्येरन्सर्वभूतानि लक्ष्मण |
3592 | 3060038a | मृदुं लोकहिते युक्तं दान्तं करुणवेदिनम् |
3593 | 3060038c | निर्वीर्य इति मन्यन्ते नूनं मां त्रिदशेश्वराः |
3594 | 3060039a | मां प्राप्य हि गुणो दोषः संवृत्तः पश्य लक्ष्मण |
3595 | 3060039c | अद्यैव सर्वभूतानां रक्षसामभवाय च |
3596 | 3060039e | संहृत्यैव शशिज्योत्स्नां महान्सूर्य इवोदितः |
3597 | 3060040a | नैव यक्षा न गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः |
3598 | 3060040c | किंनरा वा मनुष्या वा सुखं प्राप्स्यन्ति लक्ष्मण |
3599 | 3060041a | ममास्त्रबाणसंपूर्णमाकाशं पश्य लक्ष्मण |
3600 | 3060041c | निःसंपातं करिष्यामि ह्यद्य त्रैलोक्यचारिणाम् |
3601 | 3060042a | संनिरुद्धग्रहगणमावारितनिशाकरम् |
3602 | 3060042c | विप्रनष्टानलमरुद्भास्करद्युतिसंवृतम् |
3603 | 3060043a | विनिर्मथितशैलाग्रं शुष्यमाणजलाशयम् |
3604 | 3060043c | ध्वस्तद्रुमलतागुल्मं विप्रणाशितसागरम् |
3605 | 3060044a | न तां कुशलिनीं सीतां प्रदास्यन्ति ममेश्वराः |
3606 | 3060044c | अस्मिन्मुहूर्ते सौमित्रे मम द्रक्ष्यन्ति विक्रमम् |
3607 | 3060045a | नाकाशमुत्पतिष्यन्ति सर्वभूतानि लक्ष्मण |
3608 | 3060045c | मम चापगुणान्मुक्तैर्बाणजालैर्निरन्तरम् |
3609 | 3060046a | अर्दितं मम नाराचैर्ध्वस्तभ्रान्तमृगद्विजम् |
3610 | 3060046c | समाकुलममर्यादं जगत्पश्याद्य लक्ष्मण |
3611 | 3060047a | आकर्णपूर्णैरिषुभिर्जीवलोकं दुरावरैः |
3612 | 3060047c | करिष्ये मैथिलीहेतोरपिशाचमराक्षसं |
3613 | 3060048a | मम रोषप्रयुक्तानां सायकानां बलं सुराः |
3614 | 3060048c | द्रक्ष्यन्त्यद्य विमुक्तानाममर्षाद्दूरगामिनाम् |
3615 | 3060049a | नैव देवा न दैतेया न पिशाचा न राक्षसाः |
3616 | 3060049c | भविष्यन्ति मम क्रोधात्त्रैलोक्ये विप्रणाशिते |
3617 | 3060050a | देवदानवयक्षाणां लोका ये रक्षसामपि |
3618 | 3060050c | बहुधा निपतिष्यन्ति बाणौघैः शकुलीकृताः |
3619 | 3060050e | निर्मर्यादानिमाँल्लोकान्करिष्याम्यद्य सायकैः |
3620 | 3060051a | यथा जरा यथा मृत्युर्यथाकालो यथाविधिः |
3621 | 3060051c | नित्यं न प्रतिहन्यन्ते सर्वभूतेषु लक्ष्मण |
3622 | 3060051e | तथाहं क्रोधसंयुक्तो न निवार्योऽस्म्यसंशयम् |
3623 | 3060052a | पुरेव मे चारुदतीमनिन्दितां; दिशन्ति सीतां यदि नाद्य मैथिलीम् |
3624 | 3060052c | सदेवगन्धर्वमनुष्य पन्नगं; जगत्सशैलं परिवर्तयाम्यहम् |
3625 | 3061001a | तप्यमानं तथा रामं सीताहरणकर्शितम् |
3626 | 3061001c | लोकानामभवे युक्तं साम्वर्तकमिवानलम् |
3627 | 3061002a | वीक्षमाणं धनुः सज्यं निःश्वसन्तं मुहुर्मुहुः |
3628 | 3061002c | हन्तुकामं पशुं रुद्रं क्रुद्धं दक्षक्रतौ यथा |
3629 | 3061003a | अदृष्टपूर्वं संक्रुद्धं दृष्ट्वा रामं स लक्ष्मणः |
3630 | 3061003c | अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं मुखेन परिशुष्यता |
3631 | 3061004a | पुरा भूत्वा मृदुर्दान्तः सर्वभूतहिते रतः |
3632 | 3061004c | न क्रोधवशमापन्नः प्रकृतिं हातुमर्हसि |
3633 | 3061005a | चन्द्रे लक्ष्णीः प्रभा सूर्ये गतिर्वायौ भुवि क्षमा |
3634 | 3061005c | एतच्च नियतं सर्वं त्वयि चानुत्तमं यशः |
3635 | 3061006a | न तु जानामि कस्यायं भग्नः सांग्रामिको रथः |
3636 | 3061006c | केन वा कस्य वा हेतोः सायुधः सपरिच्छदः |
3637 | 3061007a | खुरनेमिक्षतश्चायं सिक्तो रुधिरबिन्दुभिः |
3638 | 3061007c | देशो निवृत्तसंग्रामः सुघोरः पार्थिवात्मज |
3639 | 3061008a | एकस्य तु विमर्दोऽयं न द्वयोर्वदतां वर |
3640 | 3061008c | न हि वृत्तं हि पश्यामि बलस्य महतः पदम् |
3641 | 3061009a | नैकस्य तु कृते लोकान्विनाशयितुमर्हसि |
3642 | 3061009c | युक्तदण्डा हि मृदवः प्रशान्ता वसुधाधिपाः |
3643 | 3061010a | सदा त्वं सर्वभूतानां शरण्यः परमा गतिः |
3644 | 3061010c | को नु दारप्रणाशं ते साधु मन्येत राघव |
3645 | 3061011a | सरितः सागराः शैला देवगन्धर्वदानवाः |
3646 | 3061011c | नालं ते विप्रियं कर्तुं दीक्षितस्येव साधवः |
3647 | 3061012a | येन राजन्हृता सीता तमन्वेषितुमर्हसि |
3648 | 3061012c | मद्द्वितीयो धनुष्पाणिः सहायैः परमर्षिभिः |
3649 | 3061013a | समुद्रं च विचेष्यामः पर्वतांश्च वनानि च |
3650 | 3061013c | गुहाश्च विविधा घोरा नलिनीः पार्वतीश्च ह |
3651 | 3061014a | देवगन्धर्वलोकांश्च विचेष्यामः समाहिताः |
3652 | 3061014c | यावन्नाधिगमिष्यामस्तव भार्यापहारिणम् |
3653 | 3061015a | न चेत्साम्ना प्रदास्यन्ति पत्नीं ते त्रिदशेश्वराः |
3654 | 3061015c | कोसलेन्द्र ततः पश्चात्प्राप्तकालं करिष्यसि |
3655 | 3061016a | शीलेन साम्ना विनयेन सीतां; नयेन न प्राप्स्यसि चेन्नरेन्द्र |
3656 | 3061016c | ततः समुत्सादय हेमपुङ्खै;र्महेन्द्रवज्रप्रतिमैः शरौघैः |
3657 | 3062001a | तं तथा शोकसंतप्तं विलपन्तमनाथवत् |
3658 | 3062001c | मोहेन महताविष्टं परिद्यूनमचेतनम् |
3659 | 3062002a | ततः सौमित्रिराश्वास्य मुहूर्तादिव लक्ष्मणः |
3660 | 3062002c | रामं संबोधयामास चरणौ चाभिपीडयन् |
3661 | 3062003a | महता तपसा राम महता चापि कर्मणा |
3662 | 3062003c | राज्ञा दशरथेनासील्लब्धोऽमृतमिवामरैः |
3663 | 3062004a | तव चैव गुणैर्बद्धस्त्वद्वियोगान्महीपतिः |
3664 | 3062004c | राजा देवत्वमापन्नो भरतस्य यथा श्रुतम् |
3665 | 3062005a | यदि दुःखमिदं प्राप्तं काकुत्स्थ न सहिष्यसे |
3666 | 3062005c | प्राकृतश्चाल्पसत्त्वश्च इतरः कः सहिष्यति |
3667 | 3062006a | दुःखितो हि भवाँल्लोकांस्तेजसा यदि धक्ष्यते |
3668 | 3062006c | आर्ताः प्रजा नरव्याघ्र क्व नु यास्यन्ति निर्वृतिम् |
3669 | 3062007a | लोकस्वभाव एवैष ययातिर्नहुषात्मजः |
3670 | 3062007c | गतः शक्रेण सालोक्यमनयस्तं समस्पृशत् |
3671 | 3062008a | महर्षयो वसिष्ठस्तु यः पितुर्नः पुरोहितः |
3672 | 3062008c | अह्ना पुत्रशतं जज्ञे तथैवास्य पुनर्हतम् |
3673 | 3062009a | या चेयं जगतो माता देवी लोकनमस्कृता |
3674 | 3062009c | अस्याश्च चलनं भूमेर्दृश्यते सत्यसंश्रव |
3675 | 3062010a | यौ चेमौ जगतां नेत्रे यत्र सर्वं प्रतिष्ठितम् |
3676 | 3062010c | आदित्यचन्द्रौ ग्रहणमभ्युपेतौ महाबलौ |
3677 | 3062011a | सुमहान्त्यपि भूतानि देवाश्च पुरुषर्षभ |
3678 | 3062011c | न दैवस्य प्रमुञ्चन्ति सर्वभूतानि देहिनः |
3679 | 3062012a | शक्रादिष्वपि देवेषु वर्तमानौ नयानयौ |
3680 | 3062012c | श्रूयेते नरशार्दूल न त्वं व्यथितुमर्हसि |
3681 | 3062013a | नष्टायामपि वैदेह्यां हृतायामपि चानघ |
3682 | 3062013c | शोचितुं नार्हसे वीर यथान्यः प्राकृतस्तथा |
3683 | 3062014a | त्वद्विधा हि न शोचन्ति सततं सत्यदर्शिनः |
3684 | 3062014c | सुमहत्स्वपि कृच्छ्रेषु रामानिर्विण्णदर्शणाः |
3685 | 3062015a | तत्त्वतो हि नरश्रेष्ठ बुद्ध्या समनुचिन्तय |
3686 | 3062015c | बुद्ध्या युक्ता महाप्राज्ञा विजानन्ति शुभाशुभे |
3687 | 3062016a | अदृष्टगुणदोषाणामधृतानां च कर्मणाम् |
3688 | 3062016c | नान्तरेण क्रियां तेषां फलमिष्टं प्रवर्तते |
3689 | 3062017a | मामेव हि पुरा वीर त्वमेव बहुषोऽन्वशाः |
3690 | 3062017c | अनुशिष्याद्धि को नु त्वामपि साक्षाद्बृहस्पतिः |
3691 | 3062018a | बुद्धिश्च ते महाप्राज्ञ देवैरपि दुरन्वया |
3692 | 3062018c | शोकेनाभिप्रसुप्तं ते ज्ञानं संबोधयाम्यहम् |
3693 | 3062019a | दिव्यं च मानुषं चैवमात्मनश्च पराक्रमम् |
3694 | 3062019c | इक्ष्वाकुवृषभावेक्ष्य यतस्व द्विषतां बधे |
3695 | 3062020a | किं ते सर्वविनाशेन कृतेन पुरुषर्षभ |
3696 | 3062020c | तमेव तु रिपुं पापं विज्ञायोद्धर्तुमर्हसि |
3697 | 3063001a | पूर्वजोऽप्युक्तमात्रस्तु लक्ष्मणेन सुभाषितम् |
3698 | 3063001c | सारग्राही महासारं प्रतिजग्राह राघवः |
3699 | 3063002a | संनिगृह्य महाबाहुः प्रवृद्धं कोपमात्मनः |
3700 | 3063002c | अवष्टभ्य धनुश्चित्रं रामो लक्ष्मणमब्रवीत् |
3701 | 3063003a | किं करिष्यावहे वत्स क्व वा गच्छाव लक्ष्मण |
3702 | 3063003c | केनोपायेन पश्येयं सीतामिति विचिन्तय |
3703 | 3063004a | तं तथा परितापार्तं लक्ष्मणो राममब्रवीत् |
3704 | 3063004c | इदमेव जनस्थानं त्वमन्वेषितुमर्हसि |
3705 | 3063005a | राक्षसैर्बहुभिः कीर्णं नानाद्रुमलतायुतम् |
3706 | 3063005c | सन्तीह गिरिदुर्गाणि निर्दराः कन्दराणि च |
3707 | 3063006a | गुहाश्च विविधा घोरा नानामृगगणाकुलाः |
3708 | 3063006c | आवासाः किंनराणां च गन्धर्वभवनानि च |
3709 | 3063007a | तानि युक्तो मया सार्धं त्वमन्वेषितुमर्हसि |
3710 | 3063007c | त्वद्विधो बुद्धिसंपन्ना माहात्मानो नरर्षभ |
3711 | 3063008a | आपत्सु न प्रकम्पन्ते वायुवेगैरिवाचलाः |
3712 | 3063008c | इत्युक्तस्तद्वनं सर्वं विचचार सलक्ष्मणः |
3713 | 3063009a | क्रुद्धो रामः शरं घोरं संधाय धनुषि क्षुरम् |
3714 | 3063009c | ततः पर्वतकूटाभं महाभागं द्विजोत्तमम् |
3715 | 3063010a | ददर्श पतितं भूमौ क्षतजार्द्रं जटायुषम् |
3716 | 3063010c | तं दृष्ट्वा गिरिशृङ्गाभं रामो लक्ष्मणमब्रवीत् |
3717 | 3063010e | अनेन सीता वैदेही भक्षिता नात्र संशयः |
3718 | 3063011a | गृध्ररूपमिदं व्यक्तं रक्षो भ्रमति काननम् |
3719 | 3063011c | भक्षयित्वा विशालाक्षीमास्ते सीतां यथासुखम् |
3720 | 3063011e | एनं वधिष्ये दीप्ताग्रैर्घोरैर्बाणैरजिह्मगैः |
3721 | 3063012a | इत्युक्त्वाभ्यपतद्गृध्रं संधाय धनुषि क्षुरम् |
3722 | 3063012c | क्रुद्धो रामः समुद्रान्तां चालयन्निव मेदिनीम् |
3723 | 3063013a | तं दीनदीनया वाचा सफेनं रुधिरं वमन् |
3724 | 3063013c | अभ्यभाषत पक्षी तु रामं दशरथात्मजम् |
3725 | 3063014a | यामोषधिमिवायुष्मन्नन्वेषसि महावने |
3726 | 3063014c | सा देवी मम च प्राणा रावणेनोभयं हृतम् |
3727 | 3063015a | त्वया विरहिता देवी लक्ष्मणेन च राघव |
3728 | 3063015c | ह्रियमाणा मया दृष्टा रावणेन बलीयसा |
3729 | 3063016a | सीतामभ्यवपन्नोऽहं रावणश्च रणे मया |
3730 | 3063016c | विध्वंसितरथच्छत्रः पातितो धरणीतले |
3731 | 3063017a | एतदस्य धनुर्भग्नमेतदस्य शरावरम् |
3732 | 3063017c | अयमस्य रणे राम भग्नः सांग्रामिको रथः |
3733 | 3063018a | परिश्रान्तस्य मे पक्षौ छित्त्वा खड्गेन रावणः |
3734 | 3063018c | सीतामादाय वैदेहीमुत्पपात विहायसं |
3735 | 3063018e | रक्षसा निहतं पूर्व्म न मां हन्तुं त्वमर्हसि |
3736 | 3063019a | रामस्तस्य तु विज्ञाय सीतासक्तां प्रियां कथाम् |
3737 | 3063019c | गृध्रराजं परिष्वज्य रुरोद सहलक्ष्मणः |
3738 | 3063020a | एकमेकायने दुर्गे निःश्वसन्तं कथंचन |
3739 | 3063020c | समीक्ष्य दुःखितो रामः सौमित्रिमिदमब्रवीत् |
3740 | 3063021a | राज्याद्भ्रंशो वने वासः सीता नष्टा हतो द्विजः |
3741 | 3063021c | ईदृशीयं ममालक्ष्मीर्निर्दहेदपि पावकम् |
3742 | 3063022a | संपूर्णमपि चेदद्य प्रतरेयं महोदधिम् |
3743 | 3063022c | सोऽपि नूनं ममालक्ष्म्या विशुष्येत्सरितां पतिः |
3744 | 3063023a | नास्त्यभाग्यतरो लोके मत्तोऽस्मिन्सचराचरे |
3745 | 3063023c | येनेयं महती प्राप्ता मया व्यसनवागुरा |
3746 | 3063024a | अयं पितृवयस्यो मे गृध्रराजो जरान्वितः |
3747 | 3063024c | शेते विनिहतो भूमौ मम भाग्यविपर्ययात् |
3748 | 3063025a | इत्येवमुक्त्वा बहुशो राघवः सहलक्ष्मणः |
3749 | 3063025c | जटायुषं च पस्पर्श पितृस्नेहं निदर्शयन् |
3750 | 3063026a | निकृत्तपक्षं रुधिरावसिक्तं; तं गृध्रराजं परिरभ्य रामः |
3751 | 3063026c | क्व मैथिलि प्राणसमा ममेति; विमुच्य वाचं निपपात भूमौ |
3752 | 3064001a | रामः प्रेक्ष्य तु तं गृध्रं भुवि रौद्रेण पातितम् |
3753 | 3064001c | सौमित्रिं मित्रसंपन्नमिदं वचनमब्रवीत् |
3754 | 3064002a | ममायं नूनमर्थेषु यतमानो विहंगमः |
3755 | 3064002c | राक्षसेन हतः संख्ये प्राणांस्त्यजति दुस्त्यजान् |
3756 | 3064003a | अयमस्य शरीरेऽस्मिन्प्राणो लक्ष्मण विद्यते |
3757 | 3064003c | तथा स्वरविहीनोऽयं विक्लवं समुदीक्षते |
3758 | 3064004a | जटायो यदि शक्नोषि वाक्यं व्याहरितुं पुनः |
3759 | 3064004c | सीतामाख्याहि भद्रं ते वधमाख्याहि चात्मनः |
3760 | 3064005a | किंनिमित्तोऽहरत्सीतां रावणस्तस्य किं मया |
3761 | 3064005c | अपराद्धं तु यं दृष्ट्वा रावणेन हृता प्रिया |
3762 | 3064006a | कथं तच्चन्द्रसंकाशं मुखमासीन्मनोहरम् |
3763 | 3064006c | सीतया कानि चोक्तानि तस्मिन्काले द्विजोत्तम |
3764 | 3064007a | कथंवीर्यः कथंरूपः किंकर्मा स च राक्षसः |
3765 | 3064007c | क्व चास्य भवनं तात ब्रूहि मे परिपृच्छतः |
3766 | 3064008a | तमुद्वीक्ष्याथ दीनात्मा विलपन्तमनन्तरम् |
3767 | 3064008c | वाचातिसन्नया रामं जटायुरिदमब्रवीत् |
3768 | 3064009a | सा हृता राक्षसेन्द्रेण रावणेन विहायसा |
3769 | 3064009c | मायामास्थाय विपुलां वातदुर्दिनसंकुलाम् |
3770 | 3064010a | परिश्रान्तस्य मे तात पक्षौ छित्त्वा निशाचरः |
3771 | 3064010c | सीतामादाय वैदेहीं प्रयातो दक्षिणा मुखः |
3772 | 3064011a | उपरुध्यन्ति मे प्राणा दृष्टिर्भ्रमति राघव |
3773 | 3064011c | पश्यामि वृक्षान्सौवर्णानुशीरकृतमूर्धजान् |
3774 | 3064012a | येन याति मुहूर्तेन सीतामादाय रावणः |
3775 | 3064012c | विप्रनष्टं धनं क्षिप्रं तत्स्वामिप्रतिपद्यते |
3776 | 3064013a | विन्दो नाम मुहूर्तोऽसौ स च काकुत्स्थ नाबुधत् |
3777 | 3064013c | झषवद्बडिशं गृह्य क्षिप्रमेव विनश्यति |
3778 | 3064014a | न च त्वया व्यथा कार्या जनकस्य सुतां प्रति |
3779 | 3064014c | वैदेह्या रंस्यसे क्षिप्रं हत्वा तं राक्षसं रणे |
3780 | 3064015a | असंमूढस्य गृध्रस्य रामं प्रत्यनुभाषतः |
3781 | 3064015c | आस्यात्सुस्राव रुधिरं म्रियमाणस्य सामिषम् |
3782 | 3064016a | पुत्रो विश्रवसः साक्षाद्भ्राता वैश्रवणस्य च |
3783 | 3064016c | इत्युक्त्वा दुर्लभान्प्राणान्मुमोच पतगेश्वरः |
3784 | 3064017a | ब्रूहि ब्रूहीति रामस्य ब्रुवाणस्य कृताञ्जलेः |
3785 | 3064017c | त्यक्त्वा शरीरं गृध्रस्य जग्मुः प्राणा विहायसं |
3786 | 3064018a | स निक्षिप्य शिरो भूमौ प्रसार्य चरणौ तदा |
3787 | 3064018c | विक्षिप्य च शरीरं स्वं पपात धरणीतले |
3788 | 3064019a | तं गृध्रं प्रेक्ष्य ताम्राक्षं गतासुमचलोपमम् |
3789 | 3064019c | रामः सुबहुभिर्दुःखैर्दीनः सौमित्रिमब्रवीत् |
3790 | 3064020a | बहूनि रक्षसां वासे वर्षाणि वसता सुखम् |
3791 | 3064020c | अनेन दण्डकारण्ये विचीर्णमिह पक्षिणा |
3792 | 3064021a | अनेकवार्षिको यस्तु चिरकालं समुत्थितः |
3793 | 3064021c | सोऽयमद्य हतः शेते कालो हि दुरतिक्रमः |
3794 | 3064022a | पश्य लक्ष्मण गृध्रोऽयमुपकारी हतश्च मे |
3795 | 3064022c | सीतामभ्यवपन्नो वै रावणेन बलीयसा |
3796 | 3064023a | गृध्रराज्यं परित्यज्य पितृपैतामहं महत् |
3797 | 3064023c | मम हेतोरयं प्राणान्मुमोच पतगेश्वरः |
3798 | 3064024a | सर्वत्र खलु दृश्यन्ते साधवो धर्मचारिणः |
3799 | 3064024c | शूराः शरण्याः सौमित्रे तिर्यग्योनिगतेष्वपि |
3800 | 3064025a | सीताहरणजं दुःखं न मे सौम्य तथागतम् |
3801 | 3064025c | यथा विनाशो गृध्रस्य मत्कृते च परंतप |
3802 | 3064026a | राजा दशरथः श्रीमान्यथा मम मया यशाः |
3803 | 3064026c | पूजनीयश्च मान्यश्च तथायं पतगेश्वरः |
3804 | 3064027a | सौमित्रे हर काष्ठानि निर्मथिष्यामि पावकम् |
3805 | 3064027c | गृध्रराजं दिधक्षामि मत्कृते निधनं गतम् |
3806 | 3064028a | नाथं पतगलोकस्य चितामारोपयाम्यहम् |
3807 | 3064028c | इमं धक्ष्यामि सौमित्रे हतं रौद्रेण रक्षसा |
3808 | 3064029a | या गतिर्यज्ञशीलानामाहिताग्नेश्च या गतिः |
3809 | 3064029c | अपरावर्तिनां या च या च भूमिप्रदायिनाम् |
3810 | 3064030a | मया त्वं समनुज्ञातो गच्छ लोकाननुत्तमान् |
3811 | 3064030c | गृध्रराज महासत्त्व संस्कृतश्च मया व्रज |
3812 | 3064031a | एवमुक्त्वा चितां दीप्तामारोप्य पतगेश्वरम् |
3813 | 3064031c | ददाह रामो धर्मात्मा स्वबन्धुमिव दुःखितः |
3814 | 3064032a | रामोऽथ सहसौमित्रिर्वनं यात्वा स वीर्यवान् |
3815 | 3064032c | स्थूलान्हत्वा महारोहीननु तस्तार तं द्विजम् |
3816 | 3064033a | रोहिमांसानि चोद्धृत्य पेशीकृत्वा महायशाः |
3817 | 3064033c | शकुनाय ददौ रामो रम्ये हरितशाद्वले |
3818 | 3064034a | यत्तत्प्रेतस्य मर्त्यस्य कथयन्ति द्विजातयः |
3819 | 3064034c | तत्स्वर्गगमनं तस्य क्षिप्रं रामो जजाप ह |
3820 | 3064035a | ततो गोदावरीं गत्वा नदीं नरवरात्मजौ |
3821 | 3064035c | उदकं चक्रतुस्तस्मै गृध्रराजाय तावुभौ |
3822 | 3064036a | स गृध्रराजः कृतवान्यशस्करं; सुदुष्करं कर्म रणे निपातितः |
3823 | 3064036c | महर्षिकल्पेन च संस्कृतस्तदा; जगाम पुण्यां गतिमात्मनः शुभाम् |
3824 | 3065001a | कृत्वैवमुदकं तस्मै प्रस्थितौ राघवौ तदा |
3825 | 3065001c | अवेक्षन्तौ वने सीतां पश्चिमां जग्मतुर्दिशम् |
3826 | 3065002a | तां दिशं दक्षिणां गत्वा शरचापासिधारिणौ |
3827 | 3065002c | अविप्रहतमैक्ष्वाकौ पन्थानं प्रतिपेदतुः |
3828 | 3065003a | गुल्मैर्वृक्षैश्च बहुभिर्लताभिश्च प्रवेष्टितम् |
3829 | 3065003c | आवृतं सर्वतो दुर्गं गहनं घोरदर्शनम् |
3830 | 3065004a | व्यतिक्रम्य तु वेगेन गृहीत्वा दक्षिणां दिशम् |
3831 | 3065004c | सुभीमं तन्महारण्यं व्यतियातौ महाबलौ |
3832 | 3065005a | ततः परं जनस्थानात्त्रिक्रोशं गम्य राघवौ |
3833 | 3065005c | क्रौञ्चारण्यं विविशतुर्गहनं तौ महौजसौ |
3834 | 3065006a | नानामेघघनप्रख्यं प्रहृष्टमिव सर्वतः |
3835 | 3065006c | नानावर्णैः शुभैः पुष्पैर्मृगपक्षिगणैर्युतम् |
3836 | 3065007a | दिदृक्षमाणौ वैदेहीं तद्वनं तौ विचिक्यतुः |
3837 | 3065007c | तत्र तत्रावतिष्ठन्तौ सीताहरणकर्शितौ |
3838 | 3065008a | लक्ष्मणस्तु महातेजाः सत्त्ववाञ्शीलवाञ्शुचिः |
3839 | 3065008c | अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं भ्रातरं दीप्ततेजसं |
3840 | 3065009a | स्पन्दते मे दृढं बाहुरुद्विग्नमिव मे मनः |
3841 | 3065009c | प्रायशश्चाप्यनिष्टानि निमित्तान्युपलक्षये |
3842 | 3065010a | तस्मात्सज्जीभवार्य त्वं कुरुष्व वचनं हितम् |
3843 | 3065010c | ममैव हि निमित्तानि सद्यः शंसन्ति संभ्रमम् |
3844 | 3065011a | एष वञ्चुलको नाम पक्षी परमदारुणः |
3845 | 3065011c | आवयोर्विजयं युद्धे शंसन्निव विनर्दति |
3846 | 3065012a | तयोरन्वेषतोरेवं सर्वं तद्वनमोजसा |
3847 | 3065012c | संजज्ञे विपुलः शब्दः प्रभञ्जन्निव तद्वनम् |
3848 | 3065013a | संवेष्टितमिवात्यर्थं गहनं मातरिश्वना |
3849 | 3065013c | वनस्य तस्य शब्दोऽभूद्दिवमापूरयन्निव |
3850 | 3065014a | तं शब्दं काङ्क्षमाणस्तु रामः कक्षे सहानुजः |
3851 | 3065014c | ददर्श सुमहाकायं राक्षसं विपुलोरसं |
3852 | 3065015a | आसेदतुस्ततस्तत्र तावुभौ प्रमुखे स्थितम् |
3853 | 3065015c | विवृद्धमशिरोग्रीवं कबन्धमुदरे मुखम् |
3854 | 3065016a | रोमभिर्निचितैस्तीक्ष्णैर्महागिरिमिवोच्छ्रितम् |
3855 | 3065016c | नीलमेघनिभं रौद्रं मेघस्तनितनिःस्वनम् |
3856 | 3065017a | महापक्ष्मेण पिङ्गेन विपुलेनायतेन च |
3857 | 3065017c | एकेनोरसि घोरेण नयनेनाशुदर्शिना |
3858 | 3065018a | महादंष्ट्रोपपन्नं तं लेलिहानं महामुखम् |
3859 | 3065018c | भक्षयन्तं महाघोरानृक्षसिंहमृगद्विपान् |
3860 | 3065019a | घोरौ भुजौ विकुर्वाणमुभौ योजनमायतौ |
3861 | 3065019c | कराभ्यां विविधान्गृह्य ऋष्कान्पक्षिगणान्मृगान् |
3862 | 3065020a | आकर्षन्तं विकर्षन्तमनेकान्मृगयूथपान् |
3863 | 3065020c | स्थितमावृत्य पन्थानं तयोर्भ्रात्रोः प्रपन्नयोः |
3864 | 3065021a | अथ तौ समतिक्रम्य क्रोशमात्रे ददर्शतुः |
3865 | 3065021c | महान्तं दारुणं भीमं कबन्धं भुजसंवृतम् |
3866 | 3065022a | स महाबाहुरत्यर्थं प्रसार्य विपुलौ भुजौ |
3867 | 3065022c | जग्राह सहितावेव राघवौ पीडयन्बलात् |
3868 | 3065023a | खड्गिनौ दृढधन्वानौ तिग्मतेजौ महाभुजौ |
3869 | 3065023c | भ्रातरौ विवशं प्राप्तौ कृष्यमाणौ महाबलौ |
3870 | 3065024a | तावुवाच महाबाहुः कबन्धो दानवोत्तमः |
3871 | 3065024c | कौ युवां वृषभस्कन्धौ महाखड्गधनुर्धरौ |
3872 | 3065025a | घोरं देशमिमं प्राप्तौ मम भक्षावुपस्थितौ |
3873 | 3065025c | वदतं कार्यमिह वां किमर्थं चागतौ युवाम् |
3874 | 3065026a | इमं देशमनुप्राप्तौ क्षुधार्तस्येह तिष्ठतः |
3875 | 3065026c | सबाणचापखड्गौ च तीक्ष्णशृङ्गाविवर्षभौ |
3876 | 3065026e | ममास्यमनुसंप्राप्तौ दुर्लभं जीवितं पुनः |
3877 | 3065027a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा कबन्धस्य दुरात्मनः |
3878 | 3065027c | उवाच लक्ष्मणं रामो मुखेन परिशुष्यता |
3879 | 3065028a | कृच्छ्रात्कृच्छ्रतरं प्राप्य दारुणं सत्यविक्रम |
3880 | 3065028c | व्यसनं जीवितान्ताय प्राप्तमप्राप्य तां प्रियाम् |
3881 | 3065029a | कालस्य सुमहद्वीर्यं सर्वभूतेषु लक्ष्मण |
3882 | 3065029c | त्वां च मां च नरव्याघ्र व्यसनैः पश्य मोहितौ |
3883 | 3065029e | नातिभारोऽस्ति दैवस्य सर्वभुतेषु लक्ष्मण |
3884 | 3065030a | शूराश्च बलवन्तश्च कृतास्त्राश्च रणाजिरे |
3885 | 3065030c | कालाभिपन्नाः सीदन्ति यथा वालुकसेतवः |
3886 | 3065031a | इति ब्रुवाणो दृढसत्यविक्रमो; महायशा दाशरथिः प्रतापवान् |
3887 | 3065031c | अवेक्ष्य सौमित्रिमुदग्रविक्रमं; स्थिरां तदा स्वां मतिमात्मनाकरोत् |
3888 | 3066001a | तौ तु तत्र स्थितौ दृष्ट्वा भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
3889 | 3066001c | बाहुपाशपरिक्षिप्तौ कबन्धो वाक्यमब्रवीत् |
3890 | 3066002a | तिष्ठतः किं नु मां दृष्ट्वा क्षुधार्तं क्षत्रियर्षभौ |
3891 | 3066002c | आहारार्थं तु संदिष्टौ दैवेन गतचेतसौ |
3892 | 3066003a | तच्छ्रुत्वा लक्ष्मणो वाक्यं प्राप्तकालं हितं तदा |
3893 | 3066003c | उवाचार्तिसमापन्नो विक्रमे कृतनिश्चयः |
3894 | 3066004a | त्वां च मां च पुरा तूर्णमादत्ते राक्षसाधमः |
3895 | 3066004c | तस्मादसिभ्यामस्याशु बाहू छिन्दावहे गुरू |
3896 | 3066005a | ततस्तौ देशकालज्ञौ खड्गाभ्यामेव राघवौ |
3897 | 3066005c | अच्छिन्दतां सुसंहृष्टौ बाहू तस्यांसदेशयोः |
3898 | 3066006a | दक्षिणो दक्षिणं बाहुमसक्तमसिना ततः |
3899 | 3066006c | चिच्छेद रामो वेगेन सव्यं वीरस्तु लक्ष्मणः |
3900 | 3066007a | स पपात महाबाहुश्छिन्नबाहुर्महास्वनः |
3901 | 3066007c | खं च गां च दिशश्चैव नादयञ्जलदो यथा |
3902 | 3066008a | स निकृत्तौ भुजौ दृष्ट्वा शोणितौघपरिप्लुतः |
3903 | 3066008c | दीनः पप्रच्छ तौ वीरौ कौ युवामिति दानवः |
3904 | 3066009a | इति तस्य ब्रुवाणस्य लक्ष्मणः शुभलक्षणः |
3905 | 3066009c | शशंस तस्य काकुत्स्थं कबन्धस्य महाबलः |
3906 | 3066010a | अयमिक्ष्वाकुदायादो रामो नाम जनैः श्रुतः |
3907 | 3066010c | अस्यैवावरजं विद्धि भ्रातरं मां च लक्ष्मणम् |
3908 | 3066011a | अस्य देवप्रभावस्य वसतो विजने वने |
3909 | 3066011c | रक्षसापहृता भार्या यामिच्छन्ताविहागतौ |
3910 | 3066012a | त्वं तु को वा किमर्थं वा कबन्ध सदृशो वने |
3911 | 3066012c | आस्येनोरसि दीप्तेन भग्नजङ्घो विचेष्टसे |
3912 | 3066013a | एवमुक्तः कबन्धस्तु लक्ष्मणेनोत्तरं वचः |
3913 | 3066013c | उवाच परमप्रीतस्तदिन्द्रवचनं स्मरन् |
3914 | 3066014a | स्वागतं वां नरव्याघ्रौ दिष्ट्या पश्यामि चाप्यहम् |
3915 | 3066014c | दिष्ट्या चेमौ निकृत्तौ मे युवाभ्यां बाहुबन्धनौ |
3916 | 3066015a | विरूपं यच्च मे रूपं प्राप्तं ह्यविनयाद्यथा |
3917 | 3066015c | तन्मे शृणु नरव्याघ्र तत्त्वतः शंसतस्तव |
3918 | 3067001a | पुरा राम महाबाहो महाबलपराक्रम |
3919 | 3067001c | रूपमासीन्ममाचिन्त्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् |
3920 | 3067001e | यथा सोमस्य शक्रस्य सूर्यस्य च यथा वपुः |
3921 | 3067002a | सोऽहं रूपमिदं कृत्वा लोकवित्रासनं महत् |
3922 | 3067002c | ऋषीन्वनगतान्राम त्रासयामि ततस्ततः |
3923 | 3067003a | ततः स्थूलशिरा नाम महर्षिः कोपितो मया |
3924 | 3067003c | संचिन्वन्विविधं वन्यं रूपेणानेन धर्षितः |
3925 | 3067004a | तेनाहमुक्तः प्रेक्ष्यैवं घोरशापाभिधायिना |
3926 | 3067004c | एतदेव नृशंसं ते रूपमस्तु विगर्हितम् |
3927 | 3067005a | स मया याचितः क्रुद्धः शापस्यान्तो भवेदिति |
3928 | 3067005c | अभिशापकृतस्येति तेनेदं भाषितं वचः |
3929 | 3067006a | यदा छित्त्वा भुजौ रामस्त्वां दहेद्विजने वने |
3930 | 3067006c | तदा त्वं प्राप्स्यसे रूपं स्वमेव विपुलं शुभम् |
3931 | 3067007a | श्रिया विराजितं पुत्रं दनोस्त्वं विद्धि लक्ष्मण |
3932 | 3067007c | इन्द्रकोपादिदं रूपं प्राप्तमेवं रणाजिरे |
3933 | 3067008a | अहं हि तपसोग्रेण पितामहमतोषयम् |
3934 | 3067008c | दीर्घमायुः स मे प्रादात्ततो मां विभ्रमोऽस्पृशत् |
3935 | 3067009a | दीर्घमायुर्मया प्राप्तं किं मे शक्रः करिष्यति |
3936 | 3067009c | इत्येवं बुद्धिमास्थाय रणे शक्रमधर्षयम् |
3937 | 3067010a | तस्य बाहुप्रमुक्तेन वज्रेण शतपर्वणा |
3938 | 3067010c | सक्थिनी च शिरश्चैव शरीरे संप्रवेशितम् |
3939 | 3067011a | स मया याच्यमानः सन्नानयद्यमसादनम् |
3940 | 3067011c | पितामहवचः सत्यं तदस्त्विति ममाब्रवीत् |
3941 | 3067012a | अनाहारः कथं शक्तो भग्नसक्थिशिरोमुखः |
3942 | 3067012c | वज्रेणाभिहतः कालं सुदीर्घमपि जीवितुम् |
3943 | 3067013a | एवमुक्तस्तु मे शक्रो बाहू योजनमायतौ |
3944 | 3067013c | प्रादादास्यं च मे कुक्षौ तीक्ष्णदंष्ट्रमकल्पयत् |
3945 | 3067014a | सोऽहं भुजाभ्यां दीर्घाभ्यां समाकृष्य वनेचरान् |
3946 | 3067014c | सिंहद्विपमृगव्याघ्रान्भक्षयामि समन्ततः |
3947 | 3067015a | स तु मामब्रवीदिन्द्रो यदा रामः सलक्ष्मणः |
3948 | 3067015c | छेत्स्यते समरे बाहू तदा स्वर्गं गमिष्यसि |
3949 | 3067016a | स त्वं रामोऽसि भद्रं ते नाहमन्येन राघव |
3950 | 3067016c | शक्यो हन्तुं यथातत्त्वमेवमुक्तं महर्षिणा |
3951 | 3067017a | अहं हि मतिसाचिव्यं करिष्यामि नरर्षभ |
3952 | 3067017c | मित्रं चैवोपदेक्ष्यामि युवाभ्यां संस्कृतोऽग्निना |
3953 | 3067018a | एवमुक्तस्तु धर्मात्मा दनुना तेन राघवः |
3954 | 3067018c | इदं जगाद वचनं लक्ष्मणस्योपशृण्वतः |
3955 | 3067019a | रावणेन हृता सीता मम भार्या यशस्विनी |
3956 | 3067019c | निष्क्रान्तस्य जनस्थानात्सह भ्रात्रा यथासुखम् |
3957 | 3067020a | नाममात्रं तु जानामि न रूपं तस्य रक्षसः |
3958 | 3067020c | निवासं वा प्रभावं वा वयं तस्य न विद्महे |
3959 | 3067021a | शोकार्तानामनाथानामेवं विपरिधावताम् |
3960 | 3067021c | कारुण्यं सदृशं कर्तुमुपकारे च वर्तताम् |
3961 | 3067022a | काष्ठान्यानीय शुष्काणि काले भग्नानि कुञ्जरैः |
3962 | 3067022c | भक्ष्यामस्त्वां वयं वीर श्वभ्रे महति कल्पिते |
3963 | 3067023a | स त्वं सीतां समाचक्ष्व येन वा यत्र वा हृता |
3964 | 3067023c | कुरु कल्याणमत्यर्थं यदि जानासि तत्त्वतः |
3965 | 3067024a | एवमुक्तस्तु रामेण वाक्यं दनुरनुत्तमम् |
3966 | 3067024c | प्रोवाच कुशलो वक्तुं वक्तारमपि राघवम् |
3967 | 3067025a | दिव्यमस्ति न मे ज्ञानं नाभिजानामि मैथिलीम् |
3968 | 3067025c | यस्तां ज्ञास्यति तं वक्ष्ये दग्धः स्वं रूपमास्थितः |
3969 | 3067026a | अदग्धस्य हि विज्ञातुं शक्तिरस्ति न मे प्रभो |
3970 | 3067026c | राक्षसं तं महावीर्यं सीता येन हृता तव |
3971 | 3067027a | विज्ञानं हि महद्भ्रष्टं शापदोषेण राघव |
3972 | 3067027c | स्वकृतेन मया प्राप्तं रूपं लोकविगर्हितम् |
3973 | 3067028a | किं तु यावन्न यात्यस्तं सविता श्रान्तवाहनः |
3974 | 3067028c | तावन्मामवटे क्षिप्त्वा दह राम यथाविधि |
3975 | 3067029a | दग्धस्त्वयाहमवटे न्यायेन रघुनन्दन |
3976 | 3067029c | वक्ष्यामि तमहं वीर यस्तं ज्ञास्यति राक्षसं |
3977 | 3067030a | तेन सख्यं च कर्तव्यं न्याय्यवृत्तेन राघव |
3978 | 3067030c | कल्पयिष्यति ते प्रीतः साहाय्यं लघुविक्रमः |
3979 | 3067031a | न हि तस्यास्त्यविज्ञातं त्रिषु लोकेषु राघव |
3980 | 3067031c | सर्वान्परिसृतो लोकान्पुरा वै कारणान्तरे |
3981 | 3068001a | एवमुक्तौ तु तौ वीरौ कबन्धेन नरेश्वरौ |
3982 | 3068001c | गिरिप्रदरमासाद्य पावकं विससर्जतुः |
3983 | 3068002a | लक्ष्मणस्तु महोल्काभिर्ज्वलिताभिः समन्ततः |
3984 | 3068002c | चितामादीपयामास सा प्रजज्वाल सर्वतः |
3985 | 3068003a | तच्छरीरं कबन्धस्य घृतपिण्डोपमं महत् |
3986 | 3068003c | मेदसा पच्यमानस्य मन्दं दहति पावक |
3987 | 3068004a | स विधूय चितामाशु विधूमोऽग्निरिवोत्थितः |
3988 | 3068004c | अरजे वाससी विभ्रन्मालां दिव्यां महाबलः |
3989 | 3068005a | ततश्चिताया वेगेन भास्वरो विरजाम्बरः |
3990 | 3068005c | उत्पपाताशु संहृष्टः सर्वप्रत्यङ्गभूषणः |
3991 | 3068006a | विमाने भास्वरे तिष्ठन्हंसयुक्ते यशस्करे |
3992 | 3068006c | प्रभया च महातेजा दिशो दश विराजयन् |
3993 | 3068007a | सोऽन्तरिक्षगतो रामं कबन्धो वाक्यमब्रवीत् |
3994 | 3068007c | शृणु राघव तत्त्वेन यथा सीमामवाप्स्यसि |
3995 | 3068008a | राम षड्युक्तयो लोके याभिः सर्वं विमृश्यते |
3996 | 3068008c | परिमृष्टो दशान्तेन दशाभागेन सेव्यते |
3997 | 3068009a | दशाभागगतो हीनस्त्वं राम सहलक्ष्मणः |
3998 | 3068009c | यत्कृते व्यसनं प्राप्तं त्वया दारप्रधर्षणम् |
3999 | 3068010a | तदवश्यं त्वया कार्यः स सुहृत्सुहृदां वर |
4000 | 3068010c | अकृत्वा न हि ते सिद्धिमहं पश्यामि चिन्तयन् |
4001 | 3068011a | श्रूयतां राम वक्ष्यामि सुग्रीवो नाम वानरः |
4002 | 3068011c | भ्रात्रा निरस्तः क्रुद्धेन वालिना शक्रसूनुना |
4003 | 3068012a | ऋष्यमूके गिरिवरे पम्पापर्यन्तशोभिते |
4004 | 3068012c | निवसत्यात्मवान्वीरश्चतुर्भिः सह वानरैः |
4005 | 3068013a | वयस्यं तं कुरु क्षिप्रमितो गत्वाद्य राघव |
4006 | 3068013c | अद्रोहाय समागम्य दीप्यमाने विभावसौ |
4007 | 3068014a | न च ते सोऽवमन्तव्यः सुग्रीवो वानराधिपः |
4008 | 3068014c | कृतज्ञः कामरूपी च सहायार्थी च वीर्यवान् |
4009 | 3068015a | शक्तौ ह्यद्य युवां कर्तुं कार्यं तस्य चिकीर्षितम् |
4010 | 3068015c | कृतार्थो वाकृतार्थो वा कृत्यं तव करिष्यति |
4011 | 3068016a | स ऋक्षरजसः पुत्रः पम्पामटति शङ्कितः |
4012 | 3068016c | भास्करस्यौरसः पुत्रो वालिना कृतकिल्बिषः |
4013 | 3068017a | संनिधायायुधं क्षिप्रमृष्यमूकालयं कपिम् |
4014 | 3068017c | कुरु राघव सत्येन वयस्यं वनचारिणम् |
4015 | 3068018a | स हि स्थानानि सर्वाणि कार्त्स्न्येन कपिकुञ्जरः |
4016 | 3068018c | नरमांसाशिनां लोके नैपुण्यादधिगच्छति |
4017 | 3068019a | न तस्याविदितं लोके किंचिदस्ति हि राघव |
4018 | 3068019c | यावत्सूर्यः प्रतपति सहस्रांशुररिंदम |
4019 | 3068020a | स नदीर्विपुलाञ्शैलान्गिरिदुर्गाणि कन्दरान् |
4020 | 3068020c | अन्विष्य वानरैः सार्धं पत्नीं तेऽधिगमिष्यति |
4021 | 3068021a | वानरांश्च महाकायान्प्रेषयिष्यति राघव |
4022 | 3068021c | दिशो विचेतुं तां सीतां त्वद्वियोगेन शोचतीम् |
4023 | 3068022a | स मेरुशृङ्गाग्रगतामनिन्दितां; प्रविश्य पातालतलेऽपि वाश्रिताम् |
4024 | 3068022c | प्लवंगमानां प्रवरस्तव प्रियां; निहत्य रक्षांसि पुनः प्रदास्यति |
4025 | 3069001a | निदर्शयित्वा रामाय सीतायाः प्रतिपादने |
4026 | 3069001c | वाक्यमन्वर्थमर्थज्ञः कबन्धः पुनरब्रवीत् |
4027 | 3069002a | एष राम शिवः पन्था यत्रैते पुष्पिता द्रुमाः |
4028 | 3069002c | प्रतीचीं दिशमाश्रित्य प्रकाशन्ते मनोरमाः |
4029 | 3069003a | जम्बूप्रियालपनसाः प्लक्षन्यग्रोधतिन्दुकाः |
4030 | 3069003c | अश्वत्थाः कर्णिकाराश्च चूताश्चान्ये च पादपाः |
4031 | 3069004a | तानारुह्याथवा भूमौ पातयित्वा च तान्बलात् |
4032 | 3069004c | फलान्यमृतकल्पानि भक्षयन्तौ गमिष्यथः |
4033 | 3069005a | चङ्क्रमन्तौ वरान्देशाञ्शैलाच्छैलं वनाद्वनम् |
4034 | 3069005c | ततः पुष्करिणीं वीरौ पम्पां नाम गमिष्यथः |
4035 | 3069006a | अशर्करामविभ्रंशां समतीर्थमशैवलाम् |
4036 | 3069006c | राम संजातवालूकां कमलोत्पलशोभिताम् |
4037 | 3069007a | तत्र हंसाः प्लवाः क्रौञ्चाः कुरराश्चैव राघव |
4038 | 3069007c | वल्गुस्वरा निकूजन्ति पम्पासलिलगोचराः |
4039 | 3069008a | नोद्विजन्ते नरान्दृष्ट्वा वधस्याकोविदाः शुभाः |
4040 | 3069008c | घृतपिण्डोपमान्स्थूलांस्तान्द्विजान्भक्षयिष्यथः |
4041 | 3069009a | रोहितान्वक्रतुण्डांश्च नलमीनांश्च राघव |
4042 | 3069009c | पम्पायामिषुभिर्मत्स्यांस्तत्र राम वरान्हतान् |
4043 | 3069010a | निस्त्वक्पक्षानयस्तप्तानकृशानेककण्टकान् |
4044 | 3069010c | तव भक्त्या समायुक्तो लक्ष्मणः संप्रदास्यति |
4045 | 3069011a | भृशं ते खादतो मत्स्यान्पम्पायाः पुष्पसंचये |
4046 | 3069011c | पद्मगन्धि शिवं वारि सुखशीतमनामयम् |
4047 | 3069012a | उद्धृत्य स तदाक्लिष्टं रूप्यस्फटिकसंनिभम् |
4048 | 3069012c | अथ पुष्करपर्णेन लक्ष्मणः पाययिष्यति |
4049 | 3069013a | स्थूलान्गिरिगुहाशय्यान्वराहान्वनचारिणः |
4050 | 3069013c | अपां लोभादुपावृत्तान्वृषभानिव नर्दतः |
4051 | 3069013e | रूपान्वितांश्च पम्पायां द्रक्ष्यसि त्वं नरोत्तम |
4052 | 3069014a | सायाह्ने विचरन्राम विटपी माल्यधारिणः |
4053 | 3069014c | शीतोदकं च पम्पायां दृष्ट्वा शोकं विहास्यसि |
4054 | 3069015a | सुमनोभिश्चितांस्तत्र तिलकान्नक्तमालकान् |
4055 | 3069015c | उत्पलानि च फुल्लानि पङ्कजानि च राघव |
4056 | 3069016a | न तानि कश्चिन्माल्यानि तत्रारोपयिता नरः |
4057 | 3069016c | मतङ्गशिष्यास्तत्रासन्नृषयः सुसमाहितः |
4058 | 3069017a | तेषां भाराभितप्तानां वन्यमाहरतां गुरोः |
4059 | 3069017c | ये प्रपेतुर्महीं तूर्णं शरीरात्स्वेदबिन्दवः |
4060 | 3069018a | तानि माल्यानि जातानि मुनीनां तपसा तदा |
4061 | 3069018c | स्वेदबिन्दुसमुत्थानि न विनश्यन्ति राघव |
4062 | 3069019a | तेषामद्यापि तत्रैव दृश्यते परिचारिणी |
4063 | 3069019c | श्रमणी शबरी नाम काकुत्स्थ चिरजीविनी |
4064 | 3069020a | त्वां तु धर्मे स्थिता नित्यं सर्वभूतनमस्कृतम् |
4065 | 3069020c | दृष्ट्वा देवोपमं राम स्वर्गलोकं गमिष्यति |
4066 | 3069021a | ततस्तद्राम पम्पायास्तीरमाश्रित्य पश्चिमम् |
4067 | 3069021c | आश्रमस्थानमतुलं गुह्यं काकुत्स्थ पश्यसि |
4068 | 3069022a | न तत्राक्रमितुं नागाः शक्नुवन्ति तमाश्रमम् |
4069 | 3069022c | ऋषेस्तस्य मतङ्गस्य विधानात्तच्च काननम् |
4070 | 3069023a | तस्मिन्नन्दनसंकाशे देवारण्योपमे वने |
4071 | 3069023c | नानाविहगसंकीर्णे रंस्यसे राम निर्वृतः |
4072 | 3069024a | ऋष्यमूकस्तु पम्पायाः पुरस्तात्पुष्पितद्रुमः |
4073 | 3069024c | सुदुःखारोहणो नाम शिशुनागाभिरक्षितः |
4074 | 3069024e | उदारो ब्रह्मणा चैव पूर्वकाले विनिर्मितः |
4075 | 3069025a | शयानः पुरुषो राम तस्य शैलस्य मूर्धनि |
4076 | 3069025c | यत्स्वप्ने लभते वित्तं तत्प्रबुद्धोऽधिगच्छति |
4077 | 3069026a | न त्वेनं विषमाचारः पापकर्माधिरोहति |
4078 | 3069026c | तत्रैव प्रहरन्त्येनं सुप्तमादाय राक्षसाः |
4079 | 3069027a | ततोऽपि शिशुनागानामाक्रन्दः श्रूयते महान् |
4080 | 3069027c | क्रीडतां राम पम्पायां मतङ्गारण्यवासिनाम् |
4081 | 3069028a | सिक्ता रुधिरधाराभिः संहत्य परमद्विपाः |
4082 | 3069028c | प्रचरन्ति पृथक्कीर्णा मेघवर्णास्तरस्विनः |
4083 | 3069029a | ते तत्र पीत्वा पानीयं विमलं शीतमव्ययम् |
4084 | 3069029c | निवृत्ताः संविगाहन्ते वनानि वनगोचराः |
4085 | 3069030a | राम तस्य तु शैलस्य महती शोभते गुहा |
4086 | 3069030c | शिलापिधाना काकुत्स्थ दुःखं चास्याः प्रवेशनम् |
4087 | 3069031a | तस्या गुहायाः प्राग्द्वारे महाञ्शीतोदको ह्रदः |
4088 | 3069031c | बहुमूलफलो रम्यो नानानगसमावृतः |
4089 | 3069032a | तस्यां वसति सुग्रीवश्चतुर्भिः सह वानरैः |
4090 | 3069032c | कदाचिच्छिखरे तस्य पर्वतस्यावतिष्ठते |
4091 | 3069033a | कबन्धस्त्वनुशास्यैवं तावुभौ रामलक्ष्मणौ |
4092 | 3069033c | स्रग्वी भास्करवर्णाभः खे व्यरोचत वीर्यवान् |
4093 | 3069034a | तं तु खस्थं महाभागं कबन्धं रामलक्ष्मणौ |
4094 | 3069034c | प्रस्थितौ त्वं व्रजस्वेति वाक्यमूचतुरन्तिकात् |
4095 | 3069035a | गम्यतां कार्यसिद्ध्यर्थमिति तावब्रवीच्च सः |
4096 | 3069035c | सुप्रीतौ तावनुज्ञाप्य कबन्धः प्रस्थितस्तदा |
4097 | 3069036a | स तत्कबन्धः प्रतिपद्य रूपं; वृतः श्रिया भास्करतुल्यदेहः |
4098 | 3069036c | निदर्शयन्राममवेक्ष्य खस्थः; सख्यं कुरुष्वेति तदाभ्युवाच |
4099 | 3070001a | तौ कबन्धेन तं मार्गं पम्पाया दर्शितं वने |
4100 | 3070001c | आतस्थतुर्दिशं गृह्य प्रतीचीं नृवरात्मजौ |
4101 | 3070002a | तौ शैलेष्वाचितानेकान्क्षौद्रकल्पफलद्रुमान् |
4102 | 3070002c | वीक्षन्तौ जग्मतुर्द्रष्टुं सुग्रीवं रामलक्ष्मणौ |
4103 | 3070003a | कृत्वा च शैलपृष्ठे तु तौ वासं रघुनन्दनौ |
4104 | 3070003c | पम्पायाः पश्चिमं तीरं राघवावुपतस्थतुः |
4105 | 3070004a | तौ पुष्करिण्याः पम्पायास्तीरमासाद्य पश्चिमम् |
4106 | 3070004c | अपश्यतां ततस्तत्र शबर्या रम्यमाश्रमम् |
4107 | 3070005a | तौ तमाश्रममासाद्य द्रुमैर्बहुभिरावृतम् |
4108 | 3070005c | सुरम्यमभिवीक्षन्तौ शबरीमभ्युपेयतुः |
4109 | 3070006a | तौ तु दृष्ट्वा तदा सिद्धा समुत्थाय कृताञ्जलिः |
4110 | 3070006c | पादौ जग्राह रामस्य लक्ष्मणस्य च धीमतः |
4111 | 3070007a | तामुवाच ततो रामः श्रमणीं संशितव्रताम् |
4112 | 3070007c | कच्चित्ते निर्जिता विघ्नाः कच्चित्ते वर्धते तपः |
4113 | 3070008a | कच्चित्ते नियतः कोप आहारश्च तपोधने |
4114 | 3070008c | कच्चित्ते नियमाः प्राप्ताः कच्चित्ते मनसः सुखम् |
4115 | 3070008e | कच्चित्ते गुरुशुश्रूषा सफला चारुभाषिणि |
4116 | 3070009a | रामेण तापसी पृष्ठा सा सिद्धा सिद्धसंमता |
4117 | 3070009c | शशंस शबरी वृद्धा रामाय प्रत्युपस्थिता |
4118 | 3070010a | चित्रकूटं त्वयि प्राप्ते विमानैरतुलप्रभैः |
4119 | 3070010c | इतस्ते दिवमारूढा यानहं पर्यचारिषम् |
4120 | 3070011a | तैश्चाहमुक्ता धर्मज्ञैर्महाभागैर्महर्षिभिः |
4121 | 3070011c | आगमिष्यति ते रामः सुपुण्यमिममाश्रमम् |
4122 | 3070012a | स ते प्रतिग्रहीतव्यः सौमित्रिसहितोऽतिथिः |
4123 | 3070012c | तं च दृष्ट्वा वराँल्लोकानक्षयांस्त्वं गमिष्यसि |
4124 | 3070013a | मया तु विविधं वन्यं संचितं पुरुषर्षभ |
4125 | 3070013c | तवार्थे पुरुषव्याघ्र पम्पायास्तीरसंभवम् |
4126 | 3070014a | एवमुक्तः स धर्मात्मा शबर्या शबरीमिदम् |
4127 | 3070014c | राघवः प्राह विज्ञाने तां नित्यमबहिष्कृताम् |
4128 | 3070015a | दनोः सकाशात्तत्त्वेन प्रभावं ते महात्मनः |
4129 | 3070015c | श्रुतं प्रत्यक्षमिच्छामि संद्रष्टुं यदि मन्यसे |
4130 | 3070016a | एतत्तु वचनं श्रुत्वा रामवक्त्राद्विनिःसृतम् |
4131 | 3070016c | शबरी दर्शयामास तावुभौ तद्वनं महत् |
4132 | 3070017a | पश्य मेघघनप्रख्यं मृगपक्षिसमाकुलम् |
4133 | 3070017c | मतङ्गवनमित्येव विश्रुतं रघुनन्दन |
4134 | 3070018a | इह ते भावितात्मानो गुरवो मे महाद्युते |
4135 | 3070018c | जुहवांश्चक्रिरे तीर्थं मन्त्रवन्मन्त्रपूजितम् |
4136 | 3070019a | इयं प्रत्यक्स्थली वेदी यत्र ते मे सुसत्कृताः |
4137 | 3070019c | पुष्पोपहारं कुर्वन्ति श्रमादुद्वेपिभिः करैः |
4138 | 3070020a | तेषां तपः प्रभावेन पश्याद्यापि रघूत्तम |
4139 | 3070020c | द्योतयन्ति दिशः सर्वाः श्रिया वेद्योऽतुलप्रभाः |
4140 | 3070021a | अशक्नुवद्भिस्तैर्गन्तुमुपवासश्रमालसैः |
4141 | 3070021c | चिन्तितेऽभ्यागतान्पश्य समेतान्सप्त सागरान् |
4142 | 3070022a | कृताभिषेकैस्तैर्न्यस्ता वल्कलाः पादपेष्विह |
4143 | 3070022c | अद्यापि न विशुष्यन्ति प्रदेशे रघुनन्दन |
4144 | 3070023a | कृत्स्नं वनमिदं दृष्टं श्रोतव्यं च श्रुतं त्वया |
4145 | 3070023c | तदिच्छाम्यभ्यनुज्ञाता त्यक्तुमेतत्कलेवरम् |
4146 | 3070024a | तेषामिच्छाम्यहं गन्तुं समीपं भावितात्मनाम् |
4147 | 3070024c | मुनीनामाश्रंमो येषामहं च परिचारिणी |
4148 | 3070025a | धर्मिष्ठं तु वचः श्रुत्वा राघवः सहलक्ष्मणः |
4149 | 3070025c | अनुजानामि गच्छेति प्रहृष्टवदनोऽब्रवीत् |
4150 | 3070026a | अनुज्ञाता तु रामेण हुत्वात्मानं हुताशने |
4151 | 3070026c | ज्वलत्पावकसंकाशा स्वर्गमेव जगाम सा |
4152 | 3070027a | यत्र ते सुकृतात्मानो विहरन्ति महर्षयः |
4153 | 3070027c | तत्पुण्यं शबरीस्थानं जगामात्मसमाधिना |
4154 | 3071001a | दिवं तु तस्यां यातायां शबर्यां स्वेन कर्मणा |
4155 | 3071001c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा चिन्तयामास राघवः |
4156 | 3071002a | चिन्तयित्वा तु धर्मात्मा प्रभावं तं महात्मनाम् |
4157 | 3071002c | हितकारिणमेकाग्रं लक्ष्मणं राघवोऽब्रवीत् |
4158 | 3071003a | दृष्टोऽयमाश्रमः सौम्य बह्वाश्चर्यः कृतात्मनाम् |
4159 | 3071003c | विश्वस्तमृगशार्दूलो नानाविहगसेवितः |
4160 | 3071004a | सप्तानां च समुद्राणामेषु तीर्थेषु लक्ष्मण |
4161 | 3071004c | उपस्पृष्टं च विधिवत्पितरश्चापि तर्पिताः |
4162 | 3071005a | प्रनष्टमशुभं यत्तत्कल्याणं समुपस्थितम् |
4163 | 3071005c | तेन त्वेतत्प्रहृष्टं मे मनो लक्ष्मण संप्रति |
4164 | 3071006a | हृदये हि नरव्याघ्र शुभमाविर्भविष्यति |
4165 | 3071006c | तदागच्छ गमिष्यावः पम्पां तां प्रियदर्शनाम् |
4166 | 3071007a | ऋश्यमूको गिरिर्यत्र नातिदूरे प्रकाशते |
4167 | 3071007c | यस्मिन्वसति धर्मात्मा सुग्रीवोंऽशुमतः सुतः |
4168 | 3071007e | नित्यं वालिभयात्त्रस्तश्चतुर्भिः सह वानरैः |
4169 | 3071008a | अभित्वरे च तं द्रष्टुं सुग्रीवं वानरर्षभम् |
4170 | 3071008c | तदधीनं हि मे सौम्य सीतायाः परिमार्गणम् |
4171 | 3071009a | इति ब्रुवाणं तं रामं सौमित्रिरिदमब्रवीत् |
4172 | 3071009c | गच्छावस्त्वरितं तत्र ममापि त्वरते मनः |
4173 | 3071010a | आश्रमात्तु ततस्तस्मान्निष्क्रम्य स विशां पतिः |
4174 | 3071010c | आजगाम ततः पम्पां लक्ष्मणेन सहाभिभूः |
4175 | 3071011a | समीक्षमाणः पुष्पाढ्यं सर्वतो विपुलद्रुमम् |
4176 | 3071011c | कोयष्टिभिश्चार्जुनकैः शतपत्रैश्च कीचकैः |
4177 | 3071011e | एतैश्चान्यैश्च विविधैर्नादितं तद्वनं महत् |
4178 | 3071012a | स रामो विधिवान्वृक्षान्सरांसि विविधानि च |
4179 | 3071012c | पश्यन्कामाभिसंतप्तो जगाम परमं ह्रदम् |
4180 | 3071013a | स तामासाद्य वै रामो दूरादुदकवाहिनीम् |
4181 | 3071013c | मतङ्गसरसं नाम ह्रदं समवगाहत |
4182 | 3071014a | स तु शोकसमाविष्टो रामो दशरथात्मजः |
4183 | 3071014c | विवेश नलिनीं पम्पां पङ्कजैश्च समावृताम् |
4184 | 3071015a | तिलकाशोकपुंनागबकुलोद्दाल काशिनीम् |
4185 | 3071015c | रम्योपवनसंबाधां पद्मसंपीडितोदकाम् |
4186 | 3071016a | स्फटिकोपमतोयाढ्यां श्लक्ष्णवालुकसंतताम् |
4187 | 3071016c | मत्स्यकच्छपसंबाधां तीरस्थद्रुमशोभिताम् |
4188 | 3071017a | सखीभिरिव युक्ताभिर्लताभिरनुवेष्टिताम् |
4189 | 3071017c | किंनरोरगगन्धर्वयक्षराक्षससेविताम् |
4190 | 3071017e | नानाद्रुमलताकीर्णां शीतवारिनिधिं शुभाम् |
4191 | 3071018a | पद्मैः सौगन्धिकैस्ताम्रां शुक्लां कुमुदमण्डलैः |
4192 | 3071018c | नीलां कुवलयोद्धातैर्बहुवर्णां कुथामिव |
4193 | 3071019a | अरविन्दोत्पलवतीं पद्मसौगन्धिकायुताम् |
4194 | 3071019c | पुष्पिताम्रवणोपेतां बर्हिणोद्घुष्टनादिताम् |
4195 | 3071020a | स तां दृष्ट्वा ततः पम्पां रामः सौमित्रिणा सह |
4196 | 3071020c | विललाप च तेजस्वी कामाद्दशरथात्मजः |
4197 | 3071021a | तिलकैर्बीजपूरैश्च वटैः शुक्लद्रुमैस्तथा |
4198 | 3071021c | पुष्पितैः करवीरैश्च पुंनागैश्च सुपुष्पितैः |
4199 | 3071022a | मालतीकुन्दगुल्मैश्च भण्डीरैर्निचुलैस्तथा |
4200 | 3071022c | अशोकैः सप्तपर्णैश्च केतकैरतिमुक्तकैः |
4201 | 3071022e | अन्यैश्च विविधैर्वृक्षैः प्रमदेवोपशोभिताम् |
4202 | 3071023a | अस्यास्तीरे तु पूर्वोक्तः पर्वतो धातुमण्डितः |
4203 | 3071023c | ऋश्यमूक इति ख्यातश्चित्रपुष्पितकाननः |
4204 | 3071024a | हरिरृक्षरजो नाम्नः पुत्रस्तस्य महात्मनः |
4205 | 3071024c | अध्यास्ते तं महावीर्यः सुग्रीव इति विश्रुतः |
4206 | 3071025a | सुग्रीवमभिगच्छ त्वं वानरेन्द्रं नरर्षभ |
4207 | 3071025c | इत्युवाच पुनर्वाक्यं लक्ष्मणं सत्यविक्रमम् |
4208 | 3071026a | ततो महद्वर्त्म च दूरसंक्रमं; क्रमेण गत्वा प्रविलोकयन्वनम् |
4209 | 3071026c | ददर्श पम्पां शुभदर्श कानना;मनेकनानाविधपक्षिसंकुलाम् |
क्रमाङ्क | छन्द | श्लोक |
---|---|---|
1 | 4001001a | स तां पुष्करिणीं गत्वा पद्मोत्पलझषाकुलाम् |
2 | 4001001c | रामः सौमित्रिसहितो विललापाकुलेन्द्रियः |
3 | 4001002a | तस्य दृष्ट्वैव तां हर्षादिन्द्रियाणि चकम्पिरे |
4 | 4001002c | स कामवशमापन्नः सौमित्रिमिदमब्रवीत् |
5 | 4001003a | सौमित्रे पश्य पम्पायाः काननं शुभदर्शनम् |
6 | 4001003c | यत्र राजन्ति शैलाभा द्रुमाः सशिखरा इव |
7 | 4001004a | मां तु शोकाभिसंतप्तमाधयः पीडयन्ति वै |
8 | 4001004c | भरतस्य च दुःखेन वैदेह्या हरणेन च |
9 | 4001005a | अधिकं प्रविभात्येतन्नीलपीतं तु शाद्वलम् |
10 | 4001005c | द्रुमाणां विविधैः पुष्पैः परिस्तोमैरिवार्पितम् |
11 | 4001006a | सुखानिलोऽयं सौमित्रे कालः प्रचुरमन्मथः |
12 | 4001006c | गन्धवान्सुरभिर्मासो जातपुष्पफलद्रुमः |
13 | 4001007a | पश्य रूपाणि सौमित्रे वनानां पुष्पशालिनाम् |
14 | 4001007c | सृजतां पुष्पवर्षाणि वर्षं तोयमुचामिव |
15 | 4001008a | प्रस्तरेषु च रम्येषु विविधाः काननद्रुमाः |
16 | 4001008c | वायुवेगप्रचलिताः पुष्पैरवकिरन्ति गाम् |
17 | 4001009a | मारुतः सुखं संस्पर्शे वाति चन्दनशीतलः |
18 | 4001009c | षट्पदैरनुकूजद्भिर्वनेषु मधुगन्धिषु |
19 | 4001010a | गिरिप्रस्थेषु रम्येषु पुष्पवद्भिर्मनोरमैः |
20 | 4001010c | संसक्तशिखरा शैला विराजन्ति महाद्रुमैः |
21 | 4001011a | पुष्पिताग्रांश्च पश्येमान्कर्णिकारान्समन्ततः |
22 | 4001011c | हाटकप्रतिसंछन्नान्नरान्पीताम्बरानिव |
23 | 4001012a | अयं वसन्तः सौमित्रे नानाविहगनादितः |
24 | 4001012c | सीतया विप्रहीणस्य शोकसंदीपनो मम |
25 | 4001013a | मां हि शोकसमाक्रान्तं संतापयति मन्मथः |
26 | 4001013c | हृष्टः प्रवदमानश्च समाह्वयति कोकिलः |
27 | 4001014a | एष दात्यूहको हृष्टो रम्ये मां वननिर्झरे |
28 | 4001014c | प्रणदन्मन्मथाविष्टं शोचयिष्यति लक्ष्मण |
29 | 4001015a | विमिश्रा विहगाः पुम्भिरात्मव्यूहाभिनन्दिताः |
30 | 4001015c | भृङ्गराजप्रमुदिताः सौमित्रे मधुरस्वराः |
31 | 4001016a | मां हि सा मृगशावाक्षी चिन्ताशोकबलात्कृतम् |
32 | 4001016c | संतापयति सौमित्रे क्रूरश्चैत्रवनानिलः |
33 | 4001017a | शिखिनीभिः परिवृता मयूरा गिरिसानुषु |
34 | 4001017c | मन्मथाभिपरीतस्य मम मन्मथवर्धनाः |
35 | 4001018a | पश्य लक्ष्णम नृत्यन्तं मयूरमुपनृत्यति |
36 | 4001018c | शिखिनी मन्मथार्तैषा भर्तारं गिरिसानुषु |
37 | 4001019a | मयूरस्य वने नूनं रक्षसा न हृता प्रिया |
38 | 4001019c | मम त्वयं विना वासः पुष्पमासे सुदुःसहः |
39 | 4001020a | पश्य लक्ष्मण पुष्पाणि निष्फलानि भवन्ति मे |
40 | 4001020c | पुष्पभारसमृद्धानां वनानां शिशिरात्यये |
41 | 4001021a | वदन्ति रावं मुदिताः शकुनाः संघशः कलम् |
42 | 4001021c | आह्वयन्त इवान्योन्यं कामोन्मादकरा मम |
43 | 4001022a | नूनं परवशा सीता सापि शोचत्यहं यथा |
44 | 4001022c | श्यामा पद्मपलाशाक्षी मृदुभाषा च मे प्रिया |
45 | 4001023a | एष पुष्पवहो वायुः सुखस्पर्शो हिमावहः |
46 | 4001023c | तां विचिन्तयतः कान्तां पावकप्रतिमो मम |
47 | 4001024a | तां विनाथ विहंगोऽसौ पक्षी प्रणदितस्तदा |
48 | 4001024c | वायसः पादपगतः प्रहृष्टमभिनर्दति |
49 | 4001025a | एष वै तत्र वैदेह्या विहगः प्रतिहारकः |
50 | 4001025c | पक्षी मां तु विशालाक्ष्याः समीपमुपनेष्यति |
51 | 4001026a | पश्य लक्ष्मण संनादं वने मदविवर्धनम् |
52 | 4001026c | पुष्पिताग्रेषु वृक्षेषु द्विजानामुपकूजताम् |
53 | 4001027a | सौमित्रे पश्य पम्पायाश्चित्रासु वनराजिषु |
54 | 4001027c | नलिनानि प्रकाशन्ते जले तरुणसूर्यवत् |
55 | 4001028a | एषा प्रसन्नसलिला पद्मनीलोत्पलायता |
56 | 4001028c | हंसकारण्डवाकीर्णा पम्पा सौगन्धिकायुता |
57 | 4001029a | चक्रवाकयुता नित्यं चित्रप्रस्थवनान्तरा |
58 | 4001029c | मातङ्गमृगयूथैश्च शोभते सलिलार्थिभिः |
59 | 4001030a | पद्मकोशपलाशानि द्रष्टुं दृष्टिर्हि मन्यते |
60 | 4001030c | सीताया नेत्रकोशाभ्यां सदृशानीति लक्ष्मण |
61 | 4001031a | पद्मकेसरसंसृष्टो वृक्षान्तरविनिःसृतः |
62 | 4001031c | निःश्वास इव सीताया वाति वायुर्मनोहरः |
63 | 4001032a | सौमित्रे पश्य पम्पाया दक्षिणे गिरिसानुनि |
64 | 4001032c | पुष्पितां कर्णिकारस्य यष्टिं परमशोभनाम् |
65 | 4001033a | अधिकं शैलराजोऽयं धातुभिस्तु विभूषितः |
66 | 4001033c | विचित्रं सृजते रेणुं वायुवेगविघट्टितम् |
67 | 4001034a | गिरिप्रस्थास्तु सौमित्रे सर्वतः संप्रपुष्पितैः |
68 | 4001034c | निष्पत्रैः सर्वतो रम्यैः प्रदीपा इव कुंशुकैः |
69 | 4001035a | पम्पातीररुहाश्चेमे संसक्ता मधुगन्धिनः |
70 | 4001035c | मालतीमल्लिकाषण्डाः करवीराश्च पुष्पिताः |
71 | 4001036a | केतक्यः सिन्दुवाराश्च वासन्त्यश्च सुपुष्पिताः |
72 | 4001036c | माधव्यो गन्धपूर्णाश्च कुन्दगुल्माश्च सर्वशः |
73 | 4001037a | चिरिबिल्वा मधूकाश्च वञ्जुला बकुलास्तथा |
74 | 4001037c | चम्पकास्तिलकाश्चैव नागवृक्षाश्च पुष्पिताः |
75 | 4001038a | नीपाश्च वरणाश्चैव खर्जूराश्च सुपुष्पिताः |
76 | 4001038c | अङ्कोलाश्च कुरण्टाश्च चूर्णकाः पारिभद्रकाः |
77 | 4001039a | चूताः पाटलयश्चैव कोविदाराश्च पुष्पिताः |
78 | 4001039c | मुचुकुन्दार्जुनाश्चैव दृश्यन्ते गिरिसानुषु |
79 | 4001040a | केतकोद्दालकाश्चैव शिरीषाः शिंशपा धवाः |
80 | 4001040c | शाल्मल्यः किंशुकाश्चैव रक्ताः कुरबकास्तथा |
81 | 4001040e | तिनिशा नक्त मालाश्च चन्दनाः स्यन्दनास्तथा |
82 | 4001041a | विविधा विविधैः पुष्पैस्तैरेव नगसानुषु |
83 | 4001041c | विकीर्णैः पीतरक्ताभाः सौमित्रे प्रस्तराः कृताः |
84 | 4001042a | हिमान्ते पश्य सौमित्रे वृक्षाणां पुष्पसंभवम् |
85 | 4001042c | पुष्पमासे हि तरवः संघर्षादिव पुष्पिताः |
86 | 4001043a | पश्य शीतजलां चेमां सौमित्रे पुष्करायुताम् |
87 | 4001043c | चक्रवाकानुचरितां कारण्डवनिषेविताम् |
88 | 4001043e | प्लवैः क्रौञ्चैश्च संपूर्णां वराहमृगसेविताम् |
89 | 4001044a | अधिकं शोभते पम्पाविकूजद्भिर्विहंगमैः |
90 | 4001045a | दीपयन्तीव मे कामं विविधा मुदिता द्विजाः |
91 | 4001045c | श्यामां चन्द्रमुखीं स्मृत्वा प्रियां पद्मनिभेक्षणाम् |
92 | 4001046a | पय सानुषु चित्रेषु मृगीभिः सहितान्मृगान् |
93 | 4001046c | मां पुनर्मृगशावाक्ष्या वैदेह्या विरहीकृतम् |
94 | 4001047a | एवं स विलपंस्तत्र शोकोपहतचेतनः |
95 | 4001047c | अवेक्षत शिवां पम्पां रम्यवारिवहां शुभाम् |
96 | 4001048a | निरीक्षमाणः सहसा महात्मा; सर्वं वनं निर्झरकन्दरं च |
97 | 4001048c | उद्विग्नचेताः सह लक्ष्मणेन; विचार्य दुःखोपहतः प्रतस्थे |
98 | 4001049a | तावृष्यमूकं सहितौ प्रयातौ; सुग्रीवशाखामृगसेवितं तम् |
99 | 4001049c | त्रस्तास्तु दृष्ट्वा हरयो बभूवु;र्महौजसौ राघवलक्ष्मणौ तौ |
100 | 4002001a | तौ तु दृष्ट्वा महात्मानौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
101 | 4002001c | वरायुधधरौ वीरौ सुग्रीवः शङ्कितोऽभवत् |
102 | 4002002a | उद्विग्नहृदयः सर्वा दिशः समवलोकयन् |
103 | 4002002c | न व्यतिष्ठत कस्मिंश्चिद्देशे वानरपुंगवः |
104 | 4002003a | नैव चक्रे मनः स्थाने वीक्षमाणो महाबलौ |
105 | 4002003c | कपेः परमभीतस्य चित्तं व्यवससाद ह |
106 | 4002004a | चिन्तयित्वा स धर्मात्मा विमृश्य गुरुलाघवम् |
107 | 4002004c | सुग्रीवः परमोद्विग्नः सर्वैरनुचरैः सह |
108 | 4002005a | ततः स सचिवेभ्यस्तु सुग्रीवः प्लवगाधिपः |
109 | 4002005c | शशंस परमोद्विग्नः पश्यंस्तौ रामलक्ष्मणौ |
110 | 4002006a | एतौ वनमिदं दुर्गं वालिप्रणिहितौ ध्रुवम् |
111 | 4002006c | छद्मना चीरवसनौ प्रचरन्ताविहागतौ |
112 | 4002007a | ततः सुग्रीवसचिवा दृष्ट्वा परमधन्विनौ |
113 | 4002007c | जग्मुर्गिरितटात्तस्मादन्यच्छिखरमुत्तमम् |
114 | 4002008a | ते क्षिप्रमभिगम्याथ यूथपा यूथपर्षभम् |
115 | 4002008c | हरयो वानरश्रेष्ठं परिवार्योपतस्थिरे |
116 | 4002009a | एकमेकायनगताः प्लवमाना गिरेर्गिरिम् |
117 | 4002009c | प्रकम्पयन्तो वेगेन गिरीणां शिखराणि च |
118 | 4002010a | ततः शाखामृगाः सर्वे प्लवमाना महाबलाः |
119 | 4002010c | बभञ्जुश्च नगांस्तत्र पुष्पितान्दुर्गसंश्रितान् |
120 | 4002011a | आप्लवन्तो हरिवराः सर्वतस्तं महागिरिम् |
121 | 4002011c | मृगमार्जारशार्दूलांस्त्रासयन्तो ययुस्तदा |
122 | 4002012a | ततः सुग्रीवसचिवाः पर्वतेन्द्रं समाश्रिताः |
123 | 4002012c | संगम्य कपिमुख्येन सर्वे प्राञ्जलयः स्थिताः |
124 | 4002013a | ततस्तं भयसंत्रस्तं वालिकिल्बिषशङ्कितम् |
125 | 4002013c | उवाच हनुमान्वाक्यं सुग्रीवं वाक्यकोविदः |
126 | 4002014a | यस्मादुद्विग्नचेतास्त्वं प्रद्रुतो हरिपुंगव |
127 | 4002014c | तं क्रूरदर्शनं क्रूरं नेह पश्यामि वालिनम् |
128 | 4002015a | यस्मात्तव भयं सौम्य पूर्वजात्पापकर्मणः |
129 | 4002015c | स नेह वाली दुष्टात्मा न ते पश्याम्यहं भयम् |
130 | 4002016a | अहो शाखामृगत्वं ते व्यक्तमेव प्लवंगम |
131 | 4002016c | लघुचित्ततयात्मानं न स्थापयसि यो मतौ |
132 | 4002017a | बुद्धिविज्ञानसंपन्न इङ्गितैः सर्वमाचर |
133 | 4002017c | न ह्यबुद्धिं गतो राजा सर्वभूतानि शास्ति हि |
134 | 4002018a | सुग्रीवस्तु शुभं वाक्यं श्रुत्वा सर्वं हनूमतः |
135 | 4002018c | ततः शुभतरं वाक्यं हनूमन्तमुवाच ह |
136 | 4002019a | दीर्घबाहू विशालाक्षौ शरचापासिधारिणौ |
137 | 4002019c | कस्य न स्याद्भयं दृष्ट्वा एतौ सुरसुतोपमौ |
138 | 4002020a | वालिप्रणिहितावेतौ शङ्केऽहं पुरुषोत्तमौ |
139 | 4002020c | राजानो बहुमित्राश्च विश्वासो नात्र हि क्षमः |
140 | 4002021a | अरयश्च मनुष्येण विज्ञेयाश्छन्नचारिणः |
141 | 4002021c | विश्वस्तानामविश्वस्ताश्छिद्रेषु प्रहरन्ति हि |
142 | 4002022a | कृत्येषु वाली मेधावी राजानो बहुदर्शनाः |
143 | 4002022c | भवन्ति परहन्तारस्ते ज्ञेयाः प्राकृतैर्नरैः |
144 | 4002023a | तौ त्वया प्राकृतेनैव गत्वा ज्ञेयौ प्लवंगम |
145 | 4002023c | शङ्कितानां प्रकारैश्च रूपव्याभाषणेन च |
146 | 4002024a | लक्षयस्व तयोर्भावं प्रहृष्टमनसौ यदि |
147 | 4002024c | विश्वासयन्प्रशंसाभिरिङ्गितैश्च पुनः पुनः |
148 | 4002025a | ममैवाभिमुखं स्थित्वा पृच्छ त्वं हरिपुंगव |
149 | 4002025c | प्रयोजनं प्रवेशस्य वनस्यास्य धनुर्धरौ |
150 | 4002026a | शुद्धात्मानौ यदि त्वेतौ जानीहि त्वं प्लवंगम |
151 | 4002026c | व्याभाषितैर्वा रूपैर्वा विज्ञेया दुष्टतानयोः |
152 | 4002027a | इत्येवं कपिराजेन संदिष्टो मारुतात्मजः |
153 | 4002027c | चकार गमने बुद्धिं यत्र तौ रामलक्ष्मणौ |
154 | 4002028a | तथेति संपूज्य वचस्तु तस्य; कपेः सुभीतस्य दुरासदस्य |
155 | 4002028c | महानुभावो हनुमान्ययौ तदा; स यत्र रामोऽतिबलश्च लक्ष्मणः |
156 | 4003001a | वचो विज्ञाय हनुमान्सुग्रीवस्य महात्मनः |
157 | 4003001c | पर्वतादृश्यमूकात्तु पुप्लुवे यत्र राघवौ |
158 | 4003002a | स तत्र गत्वा हनुमान्बलवान्वानरोत्तमः |
159 | 4003002c | उपचक्राम तौ वाग्भिर्मृद्वीभिः सत्यविक्रमः |
160 | 4003003a | स्वकं रूपं परित्यज्य भिक्षुरूपेण वानरः |
161 | 4003003c | आबभाषे च तौ वीरौ यथावत्प्रशशंस च |
162 | 4003004a | राजर्षिदेवप्रतिमौ तापसौ संशितव्रतौ |
163 | 4003004c | देशं कथमिमं प्राप्तौ भवन्तौ वरवर्णिनौ |
164 | 4003005a | त्रासयन्तौ मृगगणानन्यांश्च वनचारिणः |
165 | 4003005c | पम्पातीररुहान्वृक्षान्वीक्षमाणौ समन्ततः |
166 | 4003006a | इमां नदीं शुभजलां शोभयन्तौ तरस्विनौ |
167 | 4003006c | धैर्यवन्तौ सुवर्णाभौ कौ युवां चीरवाससौ |
168 | 4003007a | सिंहविप्रेक्षितौ वीरौ सिंहातिबलविक्रमौ |
169 | 4003007c | शक्रचापनिभे चापे प्रगृह्य विपुलैर्भुजैः |
170 | 4003008a | श्रीमन्तौ रूपसंपन्नौ वृषभश्रेष्ठविक्रमौ |
171 | 4003008c | हस्तिहस्तोपमभुजौ द्युतिमन्तौ नरर्षभौ |
172 | 4003009a | प्रभया पर्वतेन्द्रोऽयं युवयोरवभासितः |
173 | 4003009c | राज्यार्हावमरप्रख्यौ कथं देशमिहागतौ |
174 | 4003010a | पद्मपत्रेक्षणौ वीरौ जटामण्डलधारिणौ |
175 | 4003010c | अन्योन्यसदृशौ वीरौ देवलोकादिवागतौ |
176 | 4003011a | यदृच्छयेव संप्राप्तौ चन्द्रसूर्यौ वसुंधराम् |
177 | 4003011c | विशालवक्षसौ वीरौ मानुषौ देवरूपिणौ |
178 | 4003012a | सिंहस्कन्धौ महासत्त्वौ समदाविव गोवृषौ |
179 | 4003012c | आयताश्च सुवृत्ताश्च बाहवः परिघोत्तमाः |
180 | 4003012e | सर्वभूषणभूषार्हाः किमर्थं न विभूषितः |
181 | 4003013a | उभौ योग्यावहं मन्ये रक्षितुं पृथिवीमिमाम् |
182 | 4003013c | ससागरवनां कृत्स्नां विन्ध्यमेरुविभूषिताम् |
183 | 4003014a | इमे च धनुषी चित्रे श्लक्ष्णे चित्रानुलेपने |
184 | 4003014c | प्रकाशेते यथेन्द्रस्य वज्रे हेमविभूषिते |
185 | 4003015a | संपूर्णा निशितैर्बाणैर्तूणाश्च शुभदर्शनाः |
186 | 4003015c | जीवितान्तकरैर्घोरैर्ज्वलद्भिरिव पन्नगैः |
187 | 4003016a | महाप्रमाणौ विपुलौ तप्तहाटकभूषितौ |
188 | 4003016c | खड्गावेतौ विराजेते निर्मुक्तभुजगाविव |
189 | 4003017a | एवं मां परिभाषन्तं कस्माद्वै नाभिभाषथः |
190 | 4003018a | सुग्रीवो नाम धर्मात्मा कश्चिद्वानरयूथपः |
191 | 4003018c | वीरो विनिकृतो भ्रात्रा जगद्भ्रमति दुःखितः |
192 | 4003019a | प्राप्तोऽहं प्रेषितस्तेन सुग्रीवेण महात्मना |
193 | 4003019c | राज्ञा वानरमुख्यानां हनुमान्नाम वानरः |
194 | 4003020a | युवाभ्यां सह धर्मात्मा सुग्रीवः सख्यमिच्छति |
195 | 4003020c | तस्य मां सचिवं वित्तं वानरं पवनात्मजम् |
196 | 4003021a | भिक्षुरूपप्रतिच्छन्नं सुग्रीवप्रियकाम्यया |
197 | 4003021c | ऋश्यमूकादिह प्राप्तं कामगं कामरूपिणम् |
198 | 4003022a | एवमुक्त्वा तु हनुमांस्तौ वीरौ रामलक्ष्मणौ |
199 | 4003022c | वाक्यज्ञौ वाक्यकुशलः पुनर्नोवाच किंचन |
200 | 4003023a | एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य रामो लक्ष्मणमब्रवीत् |
201 | 4003023c | प्रहृष्टवदनः श्रीमान्भ्रातरं पार्श्वतः स्थितम् |
202 | 4003024a | सचिवोऽयं कपीन्द्रस्य सुग्रीवस्य महात्मनः |
203 | 4003024c | तमेव काङ्क्षमाणस्य ममान्तिकमुपागतः |
204 | 4003025a | तमभ्यभाष सौमित्रे सुग्रीवसचिवं कपिम् |
205 | 4003025c | वाक्यज्ञं मधुरैर्वाक्यैः स्नेहयुक्तमरिंदमम् |
206 | 4004001a | ततः प्रहृष्टो हनुमान्कृत्यवानिति तद्वचः |
207 | 4004001c | श्रुत्वा मधुरसंभाषं सुग्रीवं मनसा गतः |
208 | 4004002a | भव्यो राज्यागमस्तस्य सुग्रीवस्य महात्मनः |
209 | 4004002c | यदयं कृत्यवान्प्राप्तः कृत्यं चैतदुपागतम् |
210 | 4004003a | ततः परमसंहृष्टो हनूमान्प्लवगर्षभः |
211 | 4004003c | प्रत्युवाच ततो वाक्यं रामं वाक्यविशारदः |
212 | 4004004a | किमर्थं त्वं वनं घोरं पम्पाकाननमण्डितम् |
213 | 4004004c | आगतः सानुजो दुर्गं नानाव्यालमृगायुतम् |
214 | 4004005a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा लक्ष्मणो रामचोदितः |
215 | 4004005c | आचचक्षे महात्मानं रामं दशरथात्मजम् |
216 | 4004006a | राजा दशरथो नाम द्युतिमान्धर्मवत्सलः |
217 | 4004006c | तस्यायं पूर्वजः पुत्रो रामो नाम जनैः श्रुतः |
218 | 4004007a | शरण्यः सर्वभूतानां पितुर्निर्देशपारगः |
219 | 4004007c | वीरो दशरथस्यायं पुत्राणां गुणवत्तरः |
220 | 4004008a | राज्याद्भ्रष्टो वने वस्तुं मया सार्धमिहागतः |
221 | 4004008c | भार्यया च महातेजाः सीतयानुगतो वशी |
222 | 4004008e | दिनक्षये महातेजाः प्रभयेव दिवाकरः |
223 | 4004009a | अहमस्यावरो भ्राता गुणैर्दास्यमुपागतः |
224 | 4004009c | कृतज्ञस्य बहुज्ञस्य लक्ष्मणो नाम नामतः |
225 | 4004010a | सुखार्हस्य महार्हस्य सर्वभूतहितात्मनः |
226 | 4004010c | ऐश्वर्येण विहीनस्य वनवासाश्रितस्य च |
227 | 4004011a | रक्षसापहृता भार्या रहिते कामरूपिणा |
228 | 4004011c | तच्च न ज्ञायते रक्षः पत्नी येनास्य सा हृता |
229 | 4004012a | दनुर्नाम श्रियः पुत्रः शापाद्राक्षसतां गतः |
230 | 4004012c | आख्यातस्तेन सुग्रीवः समर्थो वानराधिपः |
231 | 4004013a | स ज्ञास्यति महावीर्यस्तव भार्यापहारिणम् |
232 | 4004013c | एवमुक्त्वा दनुः स्वर्गं भ्राजमानो गतः सुखम् |
233 | 4004014a | एतत्ते सर्वमाख्यातं याथातथ्येन पृच्छतः |
234 | 4004014c | अहं चैव हि रामश्च सुग्रीवं शरणं गतौ |
235 | 4004015a | एष दत्त्वा च वित्तानि प्राप्य चानुत्तमं यशः |
236 | 4004015c | लोकनाथः पुरा भूत्वा सुग्रीवं नाथमिच्छति |
237 | 4004016a | शोकाभिभूते रामे तु शोकार्ते शरणं गते |
238 | 4004016c | कर्तुमर्हति सुग्रीवः प्रसादं सह यूथपैः |
239 | 4004017a | एवं ब्रुवाणं सौमित्रिं करुणं साश्रुपातनम् |
240 | 4004017c | हनूमान्प्रत्युवाचेदं वाक्यं वाक्यविशारदः |
241 | 4004018a | ईदृशा बुद्धिसंपन्ना जितक्रोधा जितेन्द्रियाः |
242 | 4004018c | द्रष्टव्या वानरेन्द्रेण दिष्ट्या दर्शनमागताः |
243 | 4004019a | स हि राज्याच्च विभ्रष्टः कृतवैरश्च वालिना |
244 | 4004019c | हृतदारो वने त्रस्तो भ्रात्रा विनिकृतो भृशम् |
245 | 4004020a | करिष्यति स साहाय्यं युवयोर्भास्करात्मजः |
246 | 4004020c | सुग्रीवः सह चास्माभिः सीतायाः परिमार्गणे |
247 | 4004021a | इत्येवमुक्त्वा हनुमाञ्श्लक्ष्णं मधुरया गिरा |
248 | 4004021c | बभाषे सोऽभिगच्छामः सुग्रीवमिति राघवम् |
249 | 4004022a | एवं ब्रुवाणं धर्मात्मा हनूमन्तं स लक्ष्मणः |
250 | 4004022c | प्रतिपूज्य यथान्यायमिदं प्रोवाच राघवम् |
251 | 4004023a | कपिः कथयते हृष्टो यथायं मारुतात्मजः |
252 | 4004023c | कृत्यवान्सोऽपि संप्राप्तः कृतकृत्योऽसि राघव |
253 | 4004024a | प्रसन्नमुखवर्णश्च व्यक्तं हृष्टश्च भाषते |
254 | 4004024c | नानृतं वक्ष्यते वीरो हनूमान्मारुतात्मजः |
255 | 4004025a | ततः स तु महाप्राज्ञो हनूमान्मारुतात्मजः |
256 | 4004025c | जगामादाय तौ वीरौ हरिराजाय राघवौ |
257 | 4004026a | स तु विपुल यशाः कपिप्रवीरः; पवनसुतः कृतकृत्यवत्प्रहृष्टः |
258 | 4004026c | गिरिवरमुरुविक्रमः प्रयातः; स शुभमतिः सह रामलक्ष्मणाभ्याम् |
259 | 4005001a | ऋश्यमूकात्तु हनुमान्गत्वा तं मलयं गिरम् |
260 | 4005001c | आचचक्षे तदा वीरौ कपिराजाय राघवौ |
261 | 4005002a | अयं रामो महाप्राज्ञः संप्राप्तो दृढविक्रमः |
262 | 4005002c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा रामोऽयं सत्यविक्रमः |
263 | 4005003a | इक्ष्वाकूणां कुले जातो रामो दशरथात्मजः |
264 | 4005003c | धर्मे निगदितश्चैव पितुर्निर्देशपालकः |
265 | 4005004a | तस्यास्य वसतोऽरण्ये नियतस्य महात्मनः |
266 | 4005004c | रक्षसापहृता भार्या स त्वां शरणमागतः |
267 | 4005005a | राजसूयाश्वमेधैश्च वह्निर्येनाभितर्पितः |
268 | 4005005c | दक्षिणाश्च तथोत्सृष्टा गावः शतसहस्रशः |
269 | 4005006a | तपसा सत्यवाक्येन वसुधा येन पालिता |
270 | 4005006c | स्त्रीहेतोस्तस्य पुत्रोऽयं रामस्त्वां शरणं गतः |
271 | 4005007a | भवता सख्यकामौ तौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
272 | 4005007c | प्रतिगृह्यार्चयस्वेमौ पूजनीयतमावुभौ |
273 | 4005008a | श्रुत्वा हनुमतो वाक्यं सुग्रीवो हृष्टमानसः |
274 | 4005008c | भयं स राघवाद्घोरं प्रजहौ विगतज्वरः |
275 | 4005009a | स कृत्वा मानुषं रूपं सुग्रीवः प्लवगाधिपः |
276 | 4005009c | दर्शनीयतमो भूत्वा प्रीत्या प्रोवाच राघवम् |
277 | 4005010a | भवान्धर्मविनीतश्च विक्रान्तः सर्ववत्सलः |
278 | 4005010c | आख्याता वायुपुत्रेण तत्त्वतो मे भवद्गुणाः |
279 | 4005011a | तन्ममैवैष सत्कारो लाभश्चैवोत्तमः प्रभो |
280 | 4005011c | यत्त्वमिच्छसि सौहार्दं वानरेण मया सह |
281 | 4005012a | रोचते यदि वा सख्यं बाहुरेष प्रसारितः |
282 | 4005012c | गृह्यतां पाणिना पाणिर्मर्यादा वध्यतां ध्रुवा |
283 | 4005013a | एतत्तु वचनं श्रुत्वा सुग्रीवस्य सुभाषितम् |
284 | 4005013c | संप्रहृष्टमना हस्तं पीडयामास पाणिना |
285 | 4005013e | हृद्यं सौहृदमालम्ब्य पर्यष्वजत पीडितम् |
286 | 4005014a | ततो हनूमान्संत्यज्य भिक्षुरूपमरिंदमः |
287 | 4005014c | काष्ठयोः स्वेन रूपेण जनयामास पावकम् |
288 | 4005015a | दीप्यमानं ततो वह्निं पुष्पैरभ्यर्च्य सत्कृतम् |
289 | 4005015c | तयोर्मध्ये तु सुप्रीतो निदधे सुसमाहितः |
290 | 4005016a | ततोऽग्निं दीप्यमानं तौ चक्रतुश्च प्रदक्षिणम् |
291 | 4005016c | सुग्रीवो राघवश्चैव वयस्यत्वमुपागतौ |
292 | 4005017a | ततः सुप्रीत मनसौ तावुभौ हरिराघवौ |
293 | 4005017c | अन्योन्यमभिवीक्षन्तौ न तृप्तिमुपजग्मतुः |
294 | 4005018a | ततः सर्वार्थविद्वांसं रामं दशरथात्मजम् |
295 | 4005018c | सुग्रीवः प्राह तेजस्वी वाक्यमेकमनास्तदा |
296 | 4006001a | अयमाख्याति मे राम सचिवो मन्त्रिसत्तमः |
297 | 4006001c | हनुमान्यन्निमित्तं त्वं निर्जनं वनमागतः |
298 | 4006002a | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा वसतश्च वने तव |
299 | 4006002c | रक्षसापहृता भार्या मैथिली जनकात्मजा |
300 | 4006003a | त्वया वियुक्ता रुदती लक्ष्मणेन च धीमता |
301 | 4006003c | अन्तरं प्रेप्सुना तेन हत्वा गृध्रं जटायुषम् |
302 | 4006004a | भार्यावियोगजं दुःखं नचिरात्त्वं विमोक्ष्यसे |
303 | 4006004c | अहं तामानयिष्यामि नष्टां वेदश्रुतिं यथा |
304 | 4006005a | रसातले वा वर्तन्तीं वर्तन्तीं वा नभस्तले |
305 | 4006005c | अहमानीय दास्यामि तव भार्यामरिंदम |
306 | 4006006a | इदं तथ्यं मम वचस्त्वमवेहि च राघव |
307 | 4006006c | त्यज शोकं महाबाहो तां कान्तामानयामि ते |
308 | 4006007a | अनुमानात्तु जानामि मैथिली सा न संशयः |
309 | 4006007c | ह्रियमाणा मया दृष्टा रक्षसा क्रूरकर्मणा |
310 | 4006008a | क्रोशन्ती राम रामेति लक्ष्मणेति च विस्वरम् |
311 | 4006008c | स्फुरन्ती रावणस्याङ्के पन्नगेन्द्रवधूर्यथा |
312 | 4006009a | आत्मना पञ्चमं मां हि दृष्ट्वा शैलतटे स्थितम् |
313 | 4006009c | उत्तरीयं तया त्यक्तं शुभान्याभरणानि च |
314 | 4006010a | तान्यस्माभिर्गृहीतानि निहितानि च राघव |
315 | 4006010c | आनयिष्याम्यहं तानि प्रत्यभिज्ञातुमर्हसि |
316 | 4006011a | तमब्रवीत्ततो रामः सुग्रीवं प्रियवादिनम् |
317 | 4006011c | आनयस्व सखे शीघ्रं किमर्थं प्रविलम्बसे |
318 | 4006012a | एवमुक्तस्तु सुग्रीवः शैलस्य गहनां गुहाम् |
319 | 4006012c | प्रविवेश ततः शीघ्रं राघवप्रियकाम्यया |
320 | 4006013a | उत्तरीयं गृहीत्वा तु शुभान्याभरणानि च |
321 | 4006013c | इदं पश्येति रामाय दर्शयामास वानरः |
322 | 4006014a | ततो गृहीत्वा तद्वासः शुभान्याभरणानि च |
323 | 4006014c | अभवद्बाष्पसंरुद्धो नीहारेणेव चन्द्रमाः |
324 | 4006015a | सीतास्नेहप्रवृत्तेन स तु बाष्पेण दूषितः |
325 | 4006015c | हा प्रियेति रुदन्धैर्यमुत्सृज्य न्यपतत्क्षितौ |
326 | 4006016a | हृदि कृत्वा स बहुशस्तमलंकारमुत्तमम् |
327 | 4006016c | निशश्वास भृशं सर्पो बिलस्थ इव रोषितः |
328 | 4006017a | अविच्छिन्नाश्रुवेगस्तु सौमित्रिं वीक्ष्य पार्श्वतः |
329 | 4006017c | परिदेवयितुं दीनं रामः समुपचक्रमे |
330 | 4006018a | पश्य लक्ष्मण वैदेह्या संत्यक्तं ह्रियमाणया |
331 | 4006018c | उत्तरीयमिदं भूमौ शरीराद्भूषणानि च |
332 | 4006019a | शाद्वलिन्यां ध्रुवं भूम्यां सीतया ह्रियमाणया |
333 | 4006019c | उत्सृष्टं भूषणमिदं तथारूपं हि दृश्यते |
334 | 4006020a | ब्रूहि सुग्रीव कं देशं ह्रियन्ती लक्षिता त्वया |
335 | 4006020c | रक्षसा रौद्ररूपेण मम प्राणसमा प्रिया |
336 | 4006021a | क्व वा वसति तद्रक्षो महद्व्यसनदं मम |
337 | 4006021c | यन्निमित्तमहं सर्वान्नाशयिष्यामि राक्षसान् |
338 | 4006022a | हरता मैथिलीं येन मां च रोषयता भृशम् |
339 | 4006022c | आत्मनो जीवितान्ताय मृत्युद्वारमपावृतम् |
340 | 4006023a | मम दयिततमा हृता वना;द्रजनिचरेण विमथ्य येन सा |
341 | 4006023c | कथय मम रिपुं तमद्य वै; प्रवगपते यमसंनिधिं नयामि |
342 | 4007001a | एवमुक्तस्तु सुग्रीवो रामेणार्तेन वानरः |
343 | 4007001c | अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं सबाष्पं बाष्पगद्गदः |
344 | 4007002a | न जाने निलयं तस्य सर्वथा पापरक्षसः |
345 | 4007002c | सामर्थ्यं विक्रमं वापि दौष्कुलेयस्य वा कुलम् |
346 | 4007003a | सत्यं तु प्रतिजानामि त्यज शोकमरिंदम |
347 | 4007003c | करिष्यामि तथा यत्नं यथा प्राप्स्यसि मैथिलीम् |
348 | 4007004a | रावणं सगणं हत्वा परितोष्यात्मपौरुषम् |
349 | 4007004c | तथास्मि कर्ता नचिराद्यथा प्रीतो भविष्यसि |
350 | 4007005a | अलं वैक्लव्यमालम्ब्य धैर्यमात्मगतं स्मर |
351 | 4007005c | त्वद्विधानां न सदृशमीदृशं बुद्धिलाघवम् |
352 | 4007006a | मयापि व्यसनं प्राप्तं भार्या हरणजं महत् |
353 | 4007006c | न चाहमेवं शोचामि न च धैर्यं परित्यजे |
354 | 4007007a | नाहं तामनुशोचामि प्राकृतो वानरोऽपि सन् |
355 | 4007007c | महात्मा च विनीतश्चा किं पुनर्धृतिमान्भवान् |
356 | 4007008a | बाष्पमापतितं धैर्यान्निग्रहीतुं त्वमर्हसि |
357 | 4007008c | मर्यादां सत्त्वयुक्तानां धृतिं नोत्स्रष्टुमर्हसि |
358 | 4007009a | व्यसने वार्थ कृच्छ्रे वा भये वा जीवितान्तगे |
359 | 4007009c | विमृशन्वै स्वया बुद्ध्या धृतिमान्नावसीदति |
360 | 4007010a | बालिशस्तु नरो नित्यं वैक्लव्यं योऽनुवर्तते |
361 | 4007010c | स मज्जत्यवशः शोके भाराक्रान्तेव नौर्जले |
362 | 4007011a | एषोऽञ्जलिर्मया बद्धः प्रणयात्त्वां प्रसादये |
363 | 4007011c | पौरुषं श्रय शोकस्य नान्तरं दातुमर्हसि |
364 | 4007012a | ये शोकमनुवर्तन्ते न तेषां विद्यते सुखम् |
365 | 4007012c | तेजश्च क्षीयते तेषां न त्वं शोचितुमर्हसि |
366 | 4007013a | हितं वयस्य भावेन ब्रूहि नोपदिशामि ते |
367 | 4007013c | वयस्यतां पूजयन्मे न त्वं शोचितुमर्हसि |
368 | 4007014a | मधुरं सान्त्वितस्तेन सुग्रीवेण स राघवः |
369 | 4007014c | मुखमश्रुपरिक्लिन्नं वस्त्रान्तेन प्रमार्जयत् |
370 | 4007015a | प्रकृतिष्ठस्तु काकुत्स्थः सुग्रीववचनात्प्रभुः |
371 | 4007015c | संपरिष्वज्य सुग्रीवमिदं वचनमब्रवीत् |
372 | 4007016a | कर्तव्यं यद्वयस्येन स्निग्धेन च हितेन च |
373 | 4007016c | अनुरूपं च युक्तं च कृतं सुग्रीव तत्त्वया |
374 | 4007017a | एष च प्रकृतिष्ठोऽहमनुनीतस्त्वया सखे |
375 | 4007017c | दुर्लभो हीदृशो बन्धुरस्मिन्काले विशेषतः |
376 | 4007018a | किं तु यत्नस्त्वया कार्यो मैथिल्याः परिमार्गणे |
377 | 4007018c | राक्षसस्य च रौद्रस्य रावणस्य दुरात्मनः |
378 | 4007019a | मया च यदनुष्ठेयं विस्रब्धेन तदुच्यताम् |
379 | 4007019c | वर्षास्विव च सुक्षेत्रे सर्वं संपद्यते तव |
380 | 4007020a | मया च यदिदं वाक्यमभिमानात्समीरितम् |
381 | 4007020c | तत्त्वया हरिशार्दूल तत्त्वमित्युपधार्यताम् |
382 | 4007021a | अनृतं नोक्तपूर्वं मे न च वक्ष्ये कदाचन |
383 | 4007021c | एतत्ते प्रतिजानामि सत्येनैव शपामि ते |
384 | 4007022a | ततः प्रहृष्टः सुग्रीवो वानरैः सचिवैः सह |
385 | 4007022c | राघवस्य वचः श्रुत्वा प्रतिज्ञातं विशेषतः |
386 | 4007023a | महानुभावस्य वचो निशम्य; हरिर्नराणामृषभस्य तस्य |
387 | 4007023c | कृतं स मेने हरिवीर मुख्य;स्तदा स्वकार्यं हृदयेन विद्वान् |
388 | 4008001a | परितुष्टस्तु सुग्रीवस्तेन वाक्येन वानरः |
389 | 4008001c | लक्ष्मणस्याग्रजं राममिदं वचनमब्रवीत् |
390 | 4008002a | सर्वथाहमनुग्राह्यो देवतानामसंशयः |
391 | 4008002c | उपपन्नगुणोपेतः सखा यस्य भवान्मम |
392 | 4008003a | शक्यं खलु भवेद्राम सहायेन त्वयानघ |
393 | 4008003c | सुरराज्यमपि प्राप्तुं स्वराज्यं किं पुनः प्रभो |
394 | 4008004a | सोऽहं सभाज्यो बन्धूनां सुहृदां चैव राघव |
395 | 4008004c | यस्याग्निसाक्षिकं मित्रं लब्धं राघववंशजम् |
396 | 4008005a | अहमप्यनुरूपस्ते वयस्यो ज्ञास्यसे शनैः |
397 | 4008005c | न तु वक्तुं समर्थोऽहं स्वयमात्मगतान्गुणान् |
398 | 4008006a | महात्मनां तु भूयिष्ठं त्वद्विधानां कृतात्मनाम् |
399 | 4008006c | निश्चला भवति प्रीतिर्धैर्यमात्मवतामिव |
400 | 4008007a | रजतं वा सुवर्णं वा वस्त्राण्याभरणानि वा |
401 | 4008007c | अविभक्तानि साधूनामवगच्छन्ति साधवः |
402 | 4008008a | आढ्यो वापि दरिद्रो वा दुःखितः सुखितोऽपि वा |
403 | 4008008c | निर्दोषो वा सदोषो वा वयस्यः परमा गतिः |
404 | 4008009a | धनत्यागः सुखत्यागो देहत्यागोऽपि वा पुनः |
405 | 4008009c | वयस्यार्थे प्रवर्तन्ते स्नेहं दृष्ट्वा तथाविधम् |
406 | 4008010a | तत्तथेत्यब्रवीद्रामः सुग्रीवं प्रियवादिनम् |
407 | 4008010c | लक्ष्मणस्याग्रतो लक्ष्म्या वासवस्येव धीमतः |
408 | 4008011a | ततो रामं स्थितं दृष्ट्वा लक्ष्मणं च महाबलम् |
409 | 4008011c | सुग्रीवः सर्वतश्चक्षुर्वने लोलमपातयत् |
410 | 4008012a | स ददर्श ततः सालमविदूरे हरीश्वरः |
411 | 4008012c | सुपुष्पमीषत्पत्राढ्यं भ्रमरैरुपशोभितम् |
412 | 4008013a | तस्यैकां पर्णबहुलां भङ्क्त्वा शाखां सुपुष्पिताम् |
413 | 4008013c | सालस्यास्तीर्य सुग्रीवो निषसाद सराघवः |
414 | 4008014a | तावासीनौ ततो दृष्ट्वा हनूमानपि लक्ष्मणम् |
415 | 4008014c | सालशाखां समुत्पाट्य विनीतमुपवेशयत् |
416 | 4008015a | ततः प्रहृष्टः सुग्रीवः श्लक्ष्णं मधुरया गिरा |
417 | 4008015c | उवाच प्रणयाद्रामं हर्षव्याकुलिताक्षरम् |
418 | 4008016a | अहं विनिकृतो भ्रात्रा चराम्येष भयार्दितः |
419 | 4008016c | ऋश्यमूकं गिरिवरं हृतभार्यः सुदुःखितः |
420 | 4008017a | सोऽहं त्रस्तो भये मग्नो वसाम्युद्भ्रान्तचेतनः |
421 | 4008017c | वालिना निकृतो भ्रात्रा कृतवैरश्च राघव |
422 | 4008018a | वालिनो मे भयार्तस्य सर्वलोकाभयंकर |
423 | 4008018c | ममापि त्वमनाथस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि |
424 | 4008019a | एवमुक्तस्तु तेजस्वी धर्मज्ञो धर्मवत्सलः |
425 | 4008019c | प्रत्युवाच स काकुत्स्थः सुग्रीवं प्रहसन्निव |
426 | 4008020a | उपकारफलं मित्रमपकारोऽरिलक्षणम् |
427 | 4008020c | अद्यैव तं हनिष्यामि तव भार्यापहारिणम् |
428 | 4008021a | इमे हि मे महावेगाः पत्रिणस्तिग्मतेजसः |
429 | 4008021c | कार्तिकेयवनोद्भूताः शरा हेमविभूषिताः |
430 | 4008022a | कङ्कपत्रप्रतिच्छन्ना महेन्द्राशनिसंनिभाः |
431 | 4008022c | सुपर्वाणः सुतीक्ष्णाग्रा सरोषा भुजगा इव |
432 | 4008023a | भ्रातृसंज्ञममित्रं ते वालिनं कृतकिल्बिषम् |
433 | 4008023c | शरैर्विनिहतं पश्य विकीर्णमिव पर्वतम् |
434 | 4008024a | राघवस्य वचः श्रुत्वा सुग्रीवो वाहिनीपतिः |
435 | 4008024c | प्रहर्षमतुलं लेभे साधु साध्विति चाब्रवीत् |
436 | 4008025a | रामशोकाभिभूतोऽहं शोकार्तानां भवान्गतिः |
437 | 4008025c | वयस्य इति कृत्वा हि त्वय्यहं परिदेवये |
438 | 4008026a | त्वं हि पाणिप्रदानेन वयस्यो सोऽग्निसाक्षिकः |
439 | 4008026c | कृतः प्राणैर्बहुमतः सत्येनापि शपाम्यहम् |
440 | 4008027a | वयस्य इति कृत्वा च विस्रब्धं प्रवदाम्यहम् |
441 | 4008027c | दुःखमन्तर्गतं यन्मे मनो दहति नित्यशः |
442 | 4008028a | एतावदुक्त्वा वचनं बाष्पदूषितलोचनः |
443 | 4008028c | बाष्पोपहतया वाचा नोच्चैः शक्नोति भाषितुम् |
444 | 4008029a | बाष्पवेगं तु सहसा नदीवेगमिवागतम् |
445 | 4008029c | धारयामास धैर्येण सुग्रीवो रामसंनिधौ |
446 | 4008030a | संनिगृह्य तु तं बाष्पं प्रमृज्य नयने शुभे |
447 | 4008030c | विनिःश्वस्य च तेजस्वी राघवं पुनरब्रवीत् |
448 | 4008031a | पुराहं वलिना राम राज्यात्स्वादवरोपितः |
449 | 4008031c | परुषाणि च संश्राव्य निर्धूतोऽस्मि बलीयसा |
450 | 4008032a | हृता भार्या च मे तेन प्राणेभ्योऽपि गरीयसी |
451 | 4008032c | सुहृदश्च मदीया ये संयता बन्धनेषु ते |
452 | 4008033a | यत्नवांश्च सुदुष्टात्मा मद्विनाशाय राघव |
453 | 4008033c | बहुशस्तत्प्रयुक्ताश्च वानरा निहता मया |
454 | 4008034a | शङ्कया त्वेतया चाहं दृष्ट्वा त्वामपि राघव |
455 | 4008034c | नोपसर्पाम्यहं भीतो भये सर्वे हि बिभ्यति |
456 | 4008035a | केवलं हि सहाया मे हनुमत्प्रमुखास्त्विमे |
457 | 4008035c | अतोऽहं धारयाम्यद्य प्राणान्कृच्छ्र गतोऽपि सन् |
458 | 4008036a | एते हि कपयः स्निग्धा मां रक्षन्ति समन्ततः |
459 | 4008036c | सह गच्छन्ति गन्तव्ये नित्यं तिष्ठन्ति च स्थिते |
460 | 4008037a | संक्षेपस्त्वेष मे राम किमुक्त्वा विस्तरं हि ते |
461 | 4008037c | स मे ज्येष्ठो रिपुर्भ्राता वाली विश्रुतपौरुषः |
462 | 4008038a | तद्विनाशाद्धि मे दुःखं प्रनष्टं स्यादनन्तरम् |
463 | 4008038c | सुखं मे जीवितं चैव तद्विनाशनिबन्धनम् |
464 | 4008039a | एष मे राम शोकान्तः शोकार्तेन निवेदितः |
465 | 4008039c | दुःखितोऽदुःखितो वापि सख्युर्नित्यं सखा गतिः |
466 | 4008040a | श्रुत्वैतच्च वचो रामः सुग्रीवमिदमब्रवीत् |
467 | 4008040c | किंनिमित्तमभूद्वैरं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः |
468 | 4008041a | सुखं हि कारणं श्रुत्वा वैरस्य तव वानर |
469 | 4008041c | आनन्तर्यं विधास्यामि संप्रधार्य बलाबलम् |
470 | 4008042a | बलवान्हि ममामर्षः श्रुत्वा त्वामवमानितम् |
471 | 4008042c | वर्धते हृदयोत्कम्पी प्रावृड्वेग इवाम्भसः |
472 | 4008043a | हृष्टः कथय विस्रब्धो यावदारोप्यते धनुः |
473 | 4008043c | सृष्टश्च हि मया बाणो निरस्तश्च रिपुस्तव |
474 | 4008044a | एवमुक्तस्तु सुग्रीवः काकुत्स्थेन महात्मना |
475 | 4008044c | प्रहर्षमतुलं लेभे चतुर्भिः सह वानरैः |
476 | 4008045a | ततः प्रहृष्टवदनः सुग्रीवो लक्ष्मणाग्रजे |
477 | 4008045c | वैरस्य कारणं तत्त्वमाख्यातुमुपचक्रमे |
478 | 4009001a | वाली नाम मम भ्राता ज्येष्ठः शत्रुनिषूदनः |
479 | 4009001c | पितुर्बहुमतो नित्यं मम चापि तथा पुरा |
480 | 4009002a | पितर्युपरतेऽस्माकं ज्येष्ठोऽयमिति मन्त्रिभिः |
481 | 4009002c | कपीनामीश्वरो राज्ये कृतः परमसंमतः |
482 | 4009003a | राज्यं प्रशासतस्तस्य पितृपैतामहं महत् |
483 | 4009003c | अहं सर्वेषु कालेषु प्रणतः प्रेष्यवत्स्थितः |
484 | 4009004a | मायावी नाम तेजस्वी पूर्वजो दुन्दुभेः सुतः |
485 | 4009004c | तेन तस्य महद्वैरं स्त्रीकृतं विश्रुतं पुरा |
486 | 4009005a | स तु सुप्ते जने रात्रौ किष्किन्धाद्वारमागतः |
487 | 4009005c | नर्दति स्म सुसंरब्धो वालिनं चाह्वयद्रणे |
488 | 4009006a | प्रसुप्तस्तु मम भ्राता नर्दितं भैरवस्वनम् |
489 | 4009006c | श्रुत्वा न ममृषे वाली निष्पपात जवात्तदा |
490 | 4009007a | स तु वै निःसृतः क्रोधात्तं हन्तुमसुरोत्तमम् |
491 | 4009007c | वार्यमाणस्ततः स्त्रीभिर्मया च प्रणतात्मना |
492 | 4009008a | स तु निर्धूय सर्वान्नो निर्जगाम महाबलः |
493 | 4009008c | ततोऽहमपि सौहार्दान्निःसृतो वालिना सह |
494 | 4009009a | स तु मे भ्रातरं दृष्ट्वा मां च दूरादवस्थितम् |
495 | 4009009c | असुरो जातसंत्रासः प्रदुद्राव तदा भृशम् |
496 | 4009010a | तस्मिन्द्रवति संत्रस्ते ह्यावां द्रुततरं गतौ |
497 | 4009010c | प्रकाशोऽपि कृतो मार्गश्चन्द्रेणोद्गच्छता तदा |
498 | 4009011a | स तृणैरावृतं दुर्गं धरण्या विवरं महत् |
499 | 4009011c | प्रविवेशासुरो वेगादावामासाद्य विष्ठितौ |
500 | 4009012a | तं प्रविष्टं रिपुं दृष्ट्वा बिलं रोषवशं गतः |
501 | 4009012c | मामुवाच तदा वाली वचनं क्षुभितेन्द्रियः |
502 | 4009013a | इह त्वं तिष्ठ सुग्रीव बिलद्वारि समाहितः |
503 | 4009013c | यावदत्र प्रविश्याहं निहन्मि समरे रिपुम् |
504 | 4009014a | मया त्वेतद्वचः श्रुत्वा याचितः स परंतप |
505 | 4009014c | शापयित्वा च मां पद्भ्यां प्रविवेश बिलं तदा |
506 | 4009015a | तस्य प्रविष्टस्य बिलं साग्रः संवत्सरो गतः |
507 | 4009015c | स्थितस्य च मम द्वारि स कालो व्यत्यवर्तत |
508 | 4009016a | अहं तु नष्टं तं ज्ञात्वा स्नेहादागतसंभ्रमः |
509 | 4009016c | भ्रातरं न हि पश्यामि पापशङ्कि च मे मनः |
510 | 4009017a | अथ दीर्घस्य कालस्य बिलात्तस्माद्विनिःसृतम् |
511 | 4009017c | सफेनं रुधिरं रक्तमहं दृष्ट्वा सुदुःखितः |
512 | 4009018a | नर्दतामसुराणां च ध्वनिर्मे श्रोत्रमागतः |
513 | 4009018c | निरस्तस्य च संग्रामे क्रोशतो निःस्वनो गुरोः |
514 | 4009019a | अहं त्ववगतो बुद्ध्या चिह्नैस्तैर्भ्रातरं हतम् |
515 | 4009019c | पिधाय च बिलद्वारं शिलया गिरिमात्रया |
516 | 4009019e | शोकार्तश्चोदकं कृत्वा किष्किन्धामागतः सखे |
517 | 4009020a | गूहमानस्य मे तत्त्वं यत्नतो मन्त्रिभिः श्रुतम् |
518 | 4009020c | ततोऽहं तैः समागम्य समेतैरभिषेचितः |
519 | 4009021a | राज्यं प्रशासतस्तस्य न्यायतो मम राघव |
520 | 4009021c | आजगाम रिपुं हत्वा वाली तमसुरोत्तमम् |
521 | 4009022a | अभिषिक्तं तु मां दृष्ट्वा क्रोधात्संरक्तलोचनः |
522 | 4009022c | मदीयान्मन्त्रिणो बद्ध्वा परुषं वाक्यमब्रवीत् |
523 | 4009023a | निग्रहेऽपि समर्थस्य तं पापं प्रति राघव |
524 | 4009023c | न प्रावर्तत मे बुद्धिर्भ्रातृगौरवयन्त्रिता |
525 | 4009024a | मानयंस्तं महात्मानं यथावच्चाभ्यवादयम् |
526 | 4009024c | उक्ताश्च नाशिषस्तेन संतुष्टेनान्तरात्मना |
527 | 4010001a | ततः क्रोधसमाविष्टं संरब्धं तमुपागतम् |
528 | 4010001c | अहं प्रसादयां चक्रे भ्रातरं प्रियकाम्यया |
529 | 4010002a | दिष्ट्यासि कुशली प्राप्तो निहतश्च त्वया रिपुः |
530 | 4010002c | अनाथस्य हि मे नाथस्त्वमेकोऽनाथनन्दनः |
531 | 4010003a | इदं बहुशलाकं ते पूर्णचन्द्रमिवोदितम् |
532 | 4010003c | छत्रं सवालव्यजनं प्रतीच्छस्व मयोद्यतम् |
533 | 4010004a | त्वमेव राजा मानार्हः सदा चाहं यथापुरा |
534 | 4010004c | न्यासभूतमिदं राज्यं तव निर्यातयाम्यहम् |
535 | 4010005a | मा च रोषं कृथाः सौम्य मयि शत्रुनिबर्हण |
536 | 4010005c | याचे त्वां शिरसा राजन्मया बद्धोऽयमञ्जलिः |
537 | 4010006a | बलादस्मि समागम्य मन्त्रिभिः पुरवासिभिः |
538 | 4010006c | राजभावे नियुक्तोऽहं शून्यदेशजिगीषया |
539 | 4010007a | स्निग्धमेवं ब्रुवाणं मां स तु निर्भर्त्स्य वानरः |
540 | 4010007c | धिक्त्वामिति च मामुक्त्वा बहु तत्तदुवाच ह |
541 | 4010008a | प्रकृतीश्च समानीय मन्त्रिणश्चैव संमतान् |
542 | 4010008c | मामाह सुहृदां मध्ये वाक्यं परमगर्हितम् |
543 | 4010009a | विदितं वो यथा रात्रौ मायावी स महासुरः |
544 | 4010009c | मां समाह्वयत क्रूरो युद्धाकाङ्क्षी सुदुर्मतिः |
545 | 4010010a | तस्य तद्गर्जितं श्रुत्वा निःसृतोऽहं नृपालयात् |
546 | 4010010c | अनुयातश्च मां तूर्णमयं भ्राता सुदारुणः |
547 | 4010011a | स तु दृष्ट्वैव मां रात्रौ सद्वितीयं महाबलः |
548 | 4010011c | प्राद्रवद्भयसंत्रस्तो वीक्ष्यावां तमनुद्रुतौ |
549 | 4010011e | अनुद्रुतस्तु वेगेन प्रविवेश महाबिलम् |
550 | 4010012a | तं प्रविष्टं विदित्वा तु सुघोरं सुमहद्बिलम् |
551 | 4010012c | अयमुक्तोऽथ मे भ्राता मया तु क्रूरदर्शनः |
552 | 4010013a | अहत्वा नास्ति मे शक्तिः प्रतिगन्तुमितः पुरीम् |
553 | 4010013c | बिलद्वारि प्रतीक्ष त्वं यावदेनं निहन्म्यहम् |
554 | 4010014a | स्थितोऽयमिति मत्वा तु प्रविष्टोऽहं दुरासदम् |
555 | 4010014c | तं च मे मार्गमाणस्य गतः संवत्सरस्तदा |
556 | 4010015a | स तु दृष्टो मया शत्रुरनिर्वेदाद्भयावहः |
557 | 4010015c | निहतश्च मया तत्र सोऽसुरो बन्धुभिः सह |
558 | 4010016a | तस्यास्यात्तु प्रवृत्तेन रुधिरौघेण तद्बिलम् |
559 | 4010016c | पूर्णमासीद्दुराक्रामं स्तनतस्तस्य भूतले |
560 | 4010017a | सूदयित्वा तु तं शत्रुं विक्रान्तं दुन्दुभेः सुतम् |
561 | 4010017c | निष्क्रामन्नेव पश्यामि बिलस्य पिहितं मुखम् |
562 | 4010018a | विक्रोशमानस्य तु मे सुग्रीवेति पुनः पुनः |
563 | 4010018c | यदा प्रतिवचो नास्ति ततोऽहं भृशदुःखितः |
564 | 4010019a | पादप्रहारैस्तु मया बहुशस्तद्विदारितम् |
565 | 4010019c | ततोऽहं तेन निष्क्रम्य यथा पुनरुपागतः |
566 | 4010020a | तत्रानेनास्मि संरुद्धो राज्यं मार्गयतात्मनः |
567 | 4010020c | सुग्रीवेण नृशंसेन विस्मृत्य भ्रातृसौहृदम् |
568 | 4010021a | एवमुक्त्वा तु मां तत्र वस्त्रेणैकेन वानरः |
569 | 4010021c | तदा निर्वासयामास वाली विगतसाध्वसः |
570 | 4010022a | तेनाहमपविद्धश्च हृतदारश्च राघव |
571 | 4010022c | तद्भयाच्च महीकृत्स्ना क्रान्तेयं सवनार्णवा |
572 | 4010023a | ऋश्यमूकं गिरिवरं भार्याहरणदुःखितः |
573 | 4010023c | प्रविष्टोऽस्मि दुराधर्षं वालिनः कारणान्तरे |
574 | 4010024a | एतत्ते सर्वमाख्यातं वैरानुकथनं महत् |
575 | 4010024c | अनागसा मया प्राप्तं व्यसनं पश्य राघव |
576 | 4010025a | वालिनस्तु भयार्तस्य सर्वलोकाभयंकर |
577 | 4010025c | कर्तुमर्हसि मे वीर प्रसादं तस्य निग्रहात् |
578 | 4010026a | एवमुक्तः स तेजस्वी धर्मज्ञो धर्मसंहितम् |
579 | 4010026c | वचनं वक्तुमारेभे सुग्रीवं प्रहसन्निव |
580 | 4010027a | अमोघाः सूर्यसंकाशा ममेमे निशिताः शराः |
581 | 4010027c | तस्मिन्वालिनि दुर्वृत्ते पतिष्यन्ति रुषान्विताः |
582 | 4010028a | यावत्तं न हि पश्येयं तव भार्यापहारिणम् |
583 | 4010028c | तावत्स जीवेत्पापात्मा वाली चारित्रदूषकः |
584 | 4010029a | आत्मानुमानात्पश्यामि मग्नं त्वां शोकसागरे |
585 | 4010029c | त्वामहं तारयिष्यामि कामं प्राप्स्यसि पुष्कलम् |
586 | 4011001a | रामस्य वचनं श्रुत्वा हर्षपौरुषवर्धनम् |
587 | 4011001c | सुग्रीवः पूजयां चक्रे राघवं प्रशशंस च |
588 | 4011002a | असंशयं प्रज्वलितैस्तीक्ष्णैर्मर्मातिगैः शरैः |
589 | 4011002c | त्वं दहेः कुपितो लोकान्युगान्त इव भास्करः |
590 | 4011003a | वालिनः पौरुषं यत्तद्यच्च वीर्यं धृतिश्च या |
591 | 4011003c | तन्ममैकमनाः श्रुत्वा विधत्स्व यदनन्तरम् |
592 | 4011004a | समुद्रात्पश्चिमात्पूर्वं दक्षिणादपि चोत्तरम् |
593 | 4011004c | क्रामत्यनुदिते सूर्ये वाली व्यपगतक्लमः |
594 | 4011005a | अग्राण्यारुह्य शैलानां शिखराणि महान्त्यपि |
595 | 4011005c | ऊर्ध्वमुत्क्षिप्य तरसा प्रतिगृह्णाति वीर्यवान् |
596 | 4011006a | बहवः सारवन्तश्च वनेषु विविधा द्रुमाः |
597 | 4011006c | वालिना तरसा भग्ना बलं प्रथयतात्मनः |
598 | 4011007a | महिषो दुन्दुभिर्नाम कैलासशिखरप्रभः |
599 | 4011007c | बलं नागसहस्रस्य धारयामास वीर्यवान् |
600 | 4011008a | वीर्योत्सेकेन दुष्टात्मा वरदानाच्च मोहितः |
601 | 4011008c | जगाम स महाकायः समुद्रं सरितां पतिम् |
602 | 4011009a | ऊर्मिमन्तमतिक्रम्य सागरं रत्नसंचयम् |
603 | 4011009c | मम युद्धं प्रयच्छेति तमुवाच महार्णवम् |
604 | 4011010a | ततः समुद्रो धर्मात्मा समुत्थाय महाबलः |
605 | 4011010c | अब्रवीद्वचनं राजन्नसुरं कालचोदितम् |
606 | 4011011a | समर्थो नास्मि ते दातुं युद्धं युद्धविशारद |
607 | 4011011c | श्रूयतामभिधास्यामि यस्ते युद्धं प्रदास्यति |
608 | 4011012a | शैलराजो महारण्ये तपस्विशरणं परम् |
609 | 4011012c | शंकरश्वशुरो नाम्ना हिमवानिति विश्रुतः |
610 | 4011013a | गुहा प्रस्रवणोपेतो बहुकन्दरनिर्झरः |
611 | 4011013c | स समर्थस्तव प्रीतिमतुलां कर्तुमाहवे |
612 | 4011014a | तं भीतमिति विज्ञाय समुद्रमसुरोत्तमः |
613 | 4011014c | हिमवद्वनमागच्छच्छरश्चापादिव च्युतः |
614 | 4011015a | ततस्तस्य गिरेः श्वेता गजेन्द्रविपुलाः शिलाः |
615 | 4011015c | चिक्षेप बहुधा भूमौ दुन्दुभिर्विननाद च |
616 | 4011016a | ततः श्वेताम्बुदाकारः सौम्यः प्रीतिकराकृतिः |
617 | 4011016c | हिमवानब्रवीद्वाक्यं स्व एव शिखरे स्थितः |
618 | 4011017a | क्लेष्टुमर्हसि मां न त्वं दुन्दुभे धर्मवत्सल |
619 | 4011017c | रणकर्मस्वकुशलस्तपस्विशरणं ह्यहम् |
620 | 4011018a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा गिरिराजस्य धीमतः |
621 | 4011018c | उवाच दुन्दुभिर्वाक्यं क्रोधात्संरक्तलोचनः |
622 | 4011019a | यदि युद्धेऽसमर्थस्त्वं मद्भयाद्वा निरुद्यमः |
623 | 4011019c | तमाचक्ष्व प्रदद्यान्मे योऽद्य युद्धं युयुत्सतः |
624 | 4011020a | हिमवानब्रवीद्वाक्यं श्रुत्वा वाक्यविशारदः |
625 | 4011020c | अनुक्तपूर्वं धर्मात्मा क्रोधात्तमसुरोत्तमम् |
626 | 4011021a | वाली नाम महाप्राज्ञः शक्रतुल्यपराक्रमः |
627 | 4011021c | अध्यास्ते वानरः श्रीमान्किष्किन्धामतुलप्रभाम् |
628 | 4011022a | स समर्थो महाप्राज्ञस्तव युद्धविशारदः |
629 | 4011022c | द्वन्द्वयुद्धं महद्दातुं नमुचेरिव वासवः |
630 | 4011023a | तं शीघ्रमभिगच्छ त्वं यदि युद्धमिहेच्छसि |
631 | 4011023c | स हि दुर्धर्षणो नित्यं शूरः समरकर्मणि |
632 | 4011024a | श्रुत्वा हिमवतो वाक्यं क्रोधाविष्टः स दुन्दुभिः |
633 | 4011024c | जगाम तां पुरीं तस्य किष्किन्धां वालिनस्तदा |
634 | 4011025a | धारयन्माहिषं रूपं तीक्ष्णशृङ्गो भयावहः |
635 | 4011025c | प्रावृषीव महामेघस्तोयपूर्णो नभस्तले |
636 | 4011026a | ततस्तु द्वारमागम्य किष्किन्धाया महाबलः |
637 | 4011026c | ननर्द कम्पयन्भूमिं दुन्दुभिर्दुन्दुभिर्यथा |
638 | 4011027a | समीपजान्द्रुमान्भञ्जन्वसुधां दारयन्खुरैः |
639 | 4011027c | विषाणेनोल्लेखन्दर्पात्तद्द्वारं द्विरदो यथा |
640 | 4011028a | अन्तःपुरगतो वाली श्रुत्वा शब्दममर्षणः |
641 | 4011028c | निष्पपात सह स्त्रीभिस्ताराभिरिव चन्द्रमाः |
642 | 4011029a | मितं व्यक्ताक्षरपदं तमुवाच स दुन्दुभिम् |
643 | 4011029c | हरीणामीश्वरो वाली सर्वेषां वनचारिणाम् |
644 | 4011030a | किमर्थं नगरद्वारमिदं रुद्ध्वा विनर्दसि |
645 | 4011030c | दुन्दुभे विदितो मेऽसि रक्ष प्राणान्महाबल |
646 | 4011031a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा वानरेन्द्रस्य धीमतः |
647 | 4011031c | उवाच दुन्दुभिर्वाक्यं क्रोधात्संरक्तलोचनः |
648 | 4011032a | न त्वं स्त्रीसंनिधौ वीर वचनं वक्तुमर्हसि |
649 | 4011032c | मम युद्धं प्रयच्छ त्वं ततो ज्ञास्यामि ते बलम् |
650 | 4011033a | अथ वा धारयिष्यामि क्रोधमद्य निशामिमाम् |
651 | 4011033c | गृह्यतामुदयः स्वैरं कामभोगेषु वानर |
652 | 4011034a | यो हि मत्तं प्रमत्तं वा सुप्तं वा रहितं भृशम् |
653 | 4011034c | हन्यात्स भ्रूणहा लोके त्वद्विधं मदमोहितम् |
654 | 4011035a | स प्रहस्याब्रवीन्मन्दं क्रोधात्तमसुरोत्तमम् |
655 | 4011035c | विसृज्य ताः स्त्रियः सर्वास्ताराप्रभृतिकास्तदा |
656 | 4011036a | मत्तोऽयमिति मा मंस्था यद्यभीतोऽसि संयुगे |
657 | 4011036c | मदोऽयं संप्रहारेऽस्मिन्वीरपानं समर्थ्यताम् |
658 | 4011037a | तमेवमुक्त्वा संक्रुद्धो मालामुत्क्षिप्य काञ्चनीम् |
659 | 4011037c | पित्रा दत्तां महेन्द्रेण युद्धाय व्यवतिष्ठत |
660 | 4011038a | विषाणयोर्गृहीत्वा तं दुन्दुभिं गिरिसंनिभम् |
661 | 4011038c | वाली व्यापातयां चक्रे ननर्द च महास्वनम् |
662 | 4011039a | युद्धे प्राणहरे तस्मिन्निष्पिष्टो दुन्दुभिस्तदा |
663 | 4011039c | श्रोत्राभ्यामथ रक्तं तु तस्य सुस्राव पात्यतः |
664 | 4011039e | पपात च महाकायः क्षितौ पञ्चत्वमागतः |
665 | 4011040a | तं तोलयित्वा बाहुभ्यां गतसत्त्वमचेतनम् |
666 | 4011040c | चिक्षेप वेगवान्वाली वेगेनैकेन योजनम् |
667 | 4011041a | तस्य वेगप्रविद्धस्य वक्त्रात्क्षतजबिन्दवः |
668 | 4011041c | प्रपेतुर्मारुतोत्क्षिप्ता मतङ्गस्याश्रमं प्रति |
669 | 4011042a | तान्दृष्ट्वा पतितांस्तत्र मुनिः शोणितविप्रुषः |
670 | 4011042c | उत्ससर्ज महाशापं क्षेप्तारं वालिनं प्रति |
671 | 4011042e | इह तेनाप्रवेष्टव्यं प्रविष्टस्य बधो भवेत् |
672 | 4011043a | स महर्षिं समासाद्य याचते स्म कृताञ्जलिः |
673 | 4011044a | ततः शापभयाद्भीत ऋश्यमूकं महागिरिम् |
674 | 4011044c | प्रवेष्टुं नेच्छति हरिर्द्रष्टुं वापि नरेश्वर |
675 | 4011045a | तस्याप्रवेशं ज्ञात्वाहमिदं राम महावनम् |
676 | 4011045c | विचरामि सहामात्यो विषादेन विवर्जितः |
677 | 4011046a | एषोऽस्थिनिचयस्तस्य दुन्दुभेः संप्रकाशते |
678 | 4011046c | वीर्योत्सेकान्निरस्तस्य गिरिकूटनिभो महान् |
679 | 4011047a | इमे च विपुलाः सालाः सप्त शाखावलम्बिनः |
680 | 4011047c | यत्रैकं घटते वाली निष्पत्रयितुमोजसा |
681 | 4011048a | एतदस्यासमं वीर्यं मया राम प्रकाशितम् |
682 | 4011048c | कथं तं वालिनं हन्तुं समरे शक्ष्यसे नृप |
683 | 4011049a | यदि भिन्द्याद्भवान्सालानिमांस्त्वेकेषुणा ततः |
684 | 4011049c | जानीयां त्वां महाबाहो समर्थं वालिनो वधे |
685 | 4011050a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सुग्रीवस्य महात्मनः |
686 | 4011050c | राघवो दुन्दुभेः कायं पादाङ्गुष्ठेन लीलया |
687 | 4011050e | तोलयित्वा महाबाहुश्चिक्षेप दशयोजनम् |
688 | 4011051a | क्षिप्तं दृष्ट्वा ततः कायं सुग्रीवः पुनरब्रवीत् |
689 | 4011051c | लक्ष्मणस्याग्रतो राममिदं वचनमर्थवत् |
690 | 4011052a | आर्द्रः समांसप्रत्यग्रः क्षिप्तः कायः पुरा सखे |
691 | 4011052c | लघुः संप्रति निर्मांसस्तृणभूतश्च राघव |
692 | 4011052e | नात्र शक्यं बलं ज्ञातुं तव वा तस्य वाधिकम् |
693 | 4012001a | एतच्च वचनं श्रुत्वा सुग्रीवेण सुभाषितम् |
694 | 4012001c | प्रत्ययार्थं महातेजा रामो जग्राह कार्मुकम् |
695 | 4012002a | स गृहीत्वा धनुर्घोरं शरमेकं च मानदः |
696 | 4012002c | सालानुद्दिश्य चिक्षेप ज्यास्वनैः पूरयन्दिशः |
697 | 4012003a | स विसृष्टो बलवता बाणः स्वर्णपरिष्कृतः |
698 | 4012003c | भित्त्वा सालान्गिरिप्रस्थे सप्त भूमिं विवेश ह |
699 | 4012004a | प्रविष्टस्तु मुहूर्तेन रसां भित्त्वा महाजवः |
700 | 4012004c | निष्पत्य च पुनस्तूर्णं स्वतूणीं प्रविवेश ह |
701 | 4012005a | तान्दृष्ट्वा सप्त निर्भिन्नान्सालान्वानरपुंगवः |
702 | 4012005c | रामस्य शरवेगेन विस्मयं परमं गतः |
703 | 4012006a | स मूर्ध्ना न्यपतद्भूमौ प्रलम्बीकृतभूषणः |
704 | 4012006c | सुग्रीवः परमप्रीतो राघवाय कृताञ्जलिः |
705 | 4012007a | इदं चोवाच धर्मज्ञं कर्मणा तेन हर्षितः |
706 | 4012007c | रामं सर्वास्त्रविदुषां श्रेष्ठं शूरमवस्थितम् |
707 | 4012008a | सेन्द्रानपि सुरान्सर्वांस्त्वं बाणैः पुरुषर्षभ |
708 | 4012008c | समर्थः समरे हन्तुं किं पुनर्वालिनं प्रभो |
709 | 4012009a | येन सप्त महासाला गिरिर्भूमिश्च दारिताः |
710 | 4012009c | बाणेनैकेन काकुत्स्थ स्थाता ते को रणाग्रतः |
711 | 4012010a | अद्य मे विगतः शोकः प्रीतिरद्य परा मम |
712 | 4012010c | सुहृदं त्वां समासाद्य महेन्द्रवरुणोपमम् |
713 | 4012011a | तमद्यैव प्रियार्थं मे वैरिणं भ्रातृरूपिणम् |
714 | 4012011c | वालिनं जहि काकुत्स्थ मया बद्धोऽयमञ्जलिः |
715 | 4012012a | ततो रामः परिष्वज्य सुग्रीवं प्रियदर्शनम् |
716 | 4012012c | प्रत्युवाच महाप्राज्ञो लक्ष्मणानुमतं वचः |
717 | 4012013a | अस्माद्गच्छाम किष्किन्धां क्षिप्रं गच्छ त्वमग्रतः |
718 | 4012013c | गत्वा चाह्वय सुग्रीव वालिनं भ्रातृगन्धिनम् |
719 | 4012014a | सर्वे ते त्वरितं गत्वा किष्किन्धां वालिनः पुरीम् |
720 | 4012014c | वृक्षैरात्मानमावृत्य व्यतिष्ठन्गहने वने |
721 | 4012015a | सुग्रीवो व्यनदद्घोरं वालिनो ह्वानकारणात् |
722 | 4012015c | गाढं परिहितो वेगान्नादैर्भिन्दन्निवाम्बरम् |
723 | 4012016a | तं श्रुत्वा निनदं भ्रातुः क्रुद्धो वाली महाबलः |
724 | 4012016c | निष्पपात सुसंरब्धो भास्करोऽस्ततटादिव |
725 | 4012017a | ततः सुतुमुलं युद्धं वालिसुग्रीवयोरभूत् |
726 | 4012017c | गगने ग्रहयोर्घोरं बुधाङ्गारकयोरिव |
727 | 4012018a | तलैरशनिकल्पैश्च वज्रकल्पैश्च मुष्टिभिः |
728 | 4012018c | जघ्नतुः समरेऽन्योन्यं भ्रातरौ क्रोधमूर्छितौ |
729 | 4012019a | ततो रामो धनुष्पाणिस्तावुभौ समुदीक्ष्य तु |
730 | 4012019c | अन्योन्यसदृशौ वीरावुभौ देवाविवाश्विनौ |
731 | 4012020a | यन्नावगच्छत्सुग्रीवं वालिनं वापि राघवः |
732 | 4012020c | ततो न कृतवान्बुद्धिं मोक्तुमन्तकरं शरम् |
733 | 4012021a | एतस्मिन्नन्तरे भग्नः सुग्रीवस्तेन वालिना |
734 | 4012021c | अपश्यन्राघवं नाथमृश्यमूकं प्रदुद्रुवे |
735 | 4012022a | क्लान्तो रुधिरसिक्ताङ्गः प्रहारैर्जर्जरीकृतः |
736 | 4012022c | वालिनाभिद्रुतः क्रोधात्प्रविवेश महावनम् |
737 | 4012023a | तं प्रविष्टं वनं दृष्ट्वा वाली शापभयात्ततः |
738 | 4012023c | मुक्तो ह्यसि त्वमित्युक्त्वा स निवृत्तो महाबलः |
739 | 4012024a | राघवोऽपि सह भ्रात्रा सह चैव हनूमता |
740 | 4012024c | तदेव वनमागच्छत्सुग्रीवो यत्र वानरः |
741 | 4012025a | तं समीक्ष्यागतं रामं सुग्रीवः सहलक्ष्मणम् |
742 | 4012025c | ह्रीमान्दीनमुवाचेदं वसुधामवलोकयन् |
743 | 4012026a | आह्वयस्वेति मामुक्त्वा दर्शयित्वा च विक्रमम् |
744 | 4012026c | वैरिणा घातयित्वा च किमिदानीं त्वया कृतम् |
745 | 4012027a | तामेव वेलां वक्तव्यं त्वया राघव तत्त्वतः |
746 | 4012027c | वालिनं न निहन्मीति ततो नाहमितो व्रजे |
747 | 4012028a | तस्य चैवं ब्रुवाणस्य सुग्रीवस्य महात्मनः |
748 | 4012028c | करुणं दीनया वाचा राघवः पुनरब्रवीत् |
749 | 4012029a | सुग्रीव श्रूयतां तातः क्रोधश्च व्यपनीयताम् |
750 | 4012029c | कारणं येन बाणोऽयं न मया स विसर्जितः |
751 | 4012030a | अलंकारेण वेषेण प्रमाणेन गतेन च |
752 | 4012030c | त्वं च सुग्रीव वाली च सदृशौ स्थः परस्परम् |
753 | 4012031a | स्वरेण वर्चसा चैव प्रेक्षितेन च वानर |
754 | 4012031c | विक्रमेण च वाक्यैश्च व्यक्तिं वां नोपलक्षये |
755 | 4012032a | ततोऽहं रूपसादृश्यान्मोहितो वानरोत्तम |
756 | 4012032c | नोत्सृजामि महावेगं शरं शत्रुनिबर्हणम् |
757 | 4012033a | एतन्मुहूर्ते तु मया पश्य वालिनमाहवे |
758 | 4012033c | निरस्तमिषुणैकेन वेष्टमानं महीतले |
759 | 4012034a | अभिज्ञानं कुरुष्व त्वमात्मनो वानरेश्वर |
760 | 4012034c | येन त्वामभिजानीयां द्वन्द्वयुद्धमुपागतम् |
761 | 4012035a | गजपुष्पीमिमां फुल्लामुत्पाट्य शुभलक्षणाम् |
762 | 4012035c | कुरु लक्ष्मण कण्ठेऽस्य सुग्रीवस्य महात्मनः |
763 | 4012036a | ततो गिरितटे जातामुत्पाट्य कुसुमायुताम् |
764 | 4012036c | लक्ष्मणो गजपुष्पीं तां तस्य कण्ठे व्यसर्जयत् |
765 | 4012037a | स तथा शुशुभे श्रीमाँल्लतया कण्ठसक्तया |
766 | 4012037c | मालयेव बलाकानां ससंध्य इव तोयदः |
767 | 4012038a | विभ्राजमानो वपुषा रामवाक्यसमाहितः |
768 | 4012038c | जगाम सह रामेण किष्किन्धां वालिपालिताम् |
769 | 4013001a | ऋश्यमूकात्स धर्मात्मा किष्किन्धां लक्ष्मणाग्रजः |
770 | 4013001c | जगाम सहसुग्रीवो वालिविक्रमपालिताम् |
771 | 4013002a | समुद्यम्य महच्चापं रामः काञ्चनभूषितम् |
772 | 4013002c | शरांश्चादित्य संकाशान्गृहीत्वा रणसाधकान् |
773 | 4013003a | अग्रतस्तु ययौ तस्य राघवस्य महात्मनः |
774 | 4013003c | सुग्रीवः संहतग्रीवो लक्ष्मणश्च महाबलः |
775 | 4013004a | पृष्ठतो हनुमान्वीरो नलो नीलश्च वानरः |
776 | 4013004c | तारश्चैव महातेजा हरियूथप यूथपाः |
777 | 4013005a | ते वीक्षमाणा वृक्षांश्च पुष्पभारावलम्बिनः |
778 | 4013005c | प्रसन्नाम्बुवहाश्चैव सरितः सागरं गमाः |
779 | 4013006a | कन्दराणि च शैलांश्च निर्झराणि गुहास्तथा |
780 | 4013006c | शिखराणि च मुख्यानि दरीश्च प्रियदर्शनाः |
781 | 4013007a | वैदूर्यविमलैः पर्णैः पद्मैश्चाकाशकुड्मलैः |
782 | 4013007c | शोभितान्सजलान्मार्गे तटाकांश्च व्यलोकयन् |
783 | 4013008a | कारण्डैः सारसैर्हंसैर्वञ्जूलैर्जलकुक्कुटैः |
784 | 4013008c | चक्रवाकैस्तथा चान्यैः शकुनैः प्रतिनादितान् |
785 | 4013009a | मृदुशष्पाङ्कुराहारान्निर्भयान्वनगोचरान् |
786 | 4013009c | चरतः सर्वतोऽपश्यन्स्थलीषु हरिणान्स्थितान् |
787 | 4013010a | तटाकवैरिणश्चापि शुक्लदन्तविभूषितान् |
788 | 4013010c | घोरानेकचरान्वन्यान्द्विरदान्कूलघातिनः |
789 | 4013011a | वने वनचरांश्चान्यान्खेचरांश्च विहंगमान् |
790 | 4013011c | पश्यन्तस्त्वरिता जग्मुः सुग्रीववशवर्तिनः |
791 | 4013012a | तेषां तु गच्छतां तत्र त्वरितं रघुनन्दनः |
792 | 4013012c | द्रुमषण्डं वनं दृष्ट्वा रामः सुग्रीवमब्रवीत् |
793 | 4013013a | एष मेघ इवाकाशे वृक्षषण्डः प्रकाशते |
794 | 4013013c | मेघसंघातविपुलः पर्यन्तकदलीवृतः |
795 | 4013014a | किमेतज्ज्ञातुमिच्छामि सखे कौतूहलं मम |
796 | 4013014c | कौतूहलापनयनं कर्तुमिच्छाम्यहं त्वया |
797 | 4013015a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राघवस्य महात्मनः |
798 | 4013015c | गच्छन्नेवाचचक्षेऽथ सुग्रीवस्तन्महद्वनम् |
799 | 4013016a | एतद्राघव विस्तीर्णमाश्रमं श्रमनाशनम् |
800 | 4013016c | उद्यानवनसंपन्नं स्वादुमूलफलोदकम् |
801 | 4013017a | अत्र सप्तजना नाम मुनयः संशितव्रताः |
802 | 4013017c | सप्तैवासन्नधःशीर्षा नियतं जलशायिनः |
803 | 4013018a | सप्तरात्रकृताहारा वायुना वनवासिनः |
804 | 4013018c | दिवं वर्षशतैर्याताः सप्तभिः सकलेवराः |
805 | 4013019a | तेषामेवं प्रभावेन द्रुमप्राकारसंवृतम् |
806 | 4013019c | आश्रमं सुदुराधर्षमपि सेन्द्रैः सुरासुरैः |
807 | 4013020a | पक्षिणो वर्जयन्त्येतत्तथान्ये वनचारिणः |
808 | 4013020c | विशन्ति मोहाद्येऽप्यत्र निवर्तन्ते न ते पुनः |
809 | 4013021a | विभूषणरवाश्चात्र श्रूयन्ते सकलाक्षराः |
810 | 4013021c | तूर्यगीतस्वनाश्चापि गन्धो दिव्यश्च राघव |
811 | 4013022a | त्रेताग्नयोऽपि दीप्यन्ते धूमो ह्येष प्रदृश्यते |
812 | 4013022c | वेष्टयन्निव वृक्षाग्रान्कपोताङ्गारुणो घनः |
813 | 4013023a | कुरु प्रणामं धर्मात्मंस्तान्समुद्दिश्य राघवः |
814 | 4013023c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा प्रयतः संयताञ्जलिः |
815 | 4013024a | प्रणमन्ति हि ये तेषामृषीणां भावितात्मनाम् |
816 | 4013024c | न तेषामशुभं किंचिच्छरीरे राम दृश्यते |
817 | 4013025a | ततो रामः सह भ्रात्रा लक्ष्मणेन कृताञ्जलिः |
818 | 4013025c | समुद्दिश्य महात्मानस्तानृषीनभ्यवादयत् |
819 | 4013026a | अभिवाद्य च धर्मात्मा रामो भ्राता च लक्ष्मणः |
820 | 4013026c | सुग्रीवो वानराश्चैव जग्मुः संहृष्टमानसाः |
821 | 4013027a | ते गत्वा दूरमध्वानं तस्मात्सप्तजनाश्रमात् |
822 | 4013027c | ददृशुस्तां दुराधर्षां किष्किन्धां वालिपालिताम् |
823 | 4014001a | सर्वे ते त्वरितं गत्वा किष्किन्धां वालिपालिताम् |
824 | 4014001c | वृक्षैरात्मानमावृत्य व्यतिष्ठन्गहने वने |
825 | 4014002a | विचार्य सर्वतो दृष्टिं कानने काननप्रियः |
826 | 4014002c | सुग्रीवो विपुलग्रीवः क्रोधमाहारयद्भृशम् |
827 | 4014003a | ततः स निनदं घोरं कृत्वा युद्धाय चाह्वयत् |
828 | 4014003c | परिवारैः परिवृतो नादैर्भिन्दन्निवाम्बरम् |
829 | 4014004a | अथ बालार्कसदृशो दृप्तसिंहगतिस्तदा |
830 | 4014004c | दृष्ट्वा रामं क्रियादक्षं सुग्रीवो वाक्यमब्रवीत् |
831 | 4014005a | हरिवागुरया व्याप्तं तप्तकाञ्चनतोरणाम् |
832 | 4014005c | प्राप्ताः स्म ध्वजयन्त्राढ्यां किष्किन्धां वालिनः पुरीम् |
833 | 4014006a | प्रतिज्ञा या त्वया वीर कृता वालिवधे पुरा |
834 | 4014006c | सफलां तां कुरु क्षिप्रं लतां काल इवागतः |
835 | 4014007a | एवमुक्तस्तु धर्मात्मा सुग्रीवेण स राघवः |
836 | 4014007c | तमथोवाच सुग्रीवं वचनं शत्रुसूदनः |
837 | 4014008a | कृताभिज्ञान चिह्नस्त्वमनया गजसाह्वया |
838 | 4014008c | विपरीत इवाकाशे सूर्यो नक्षत्र मालया |
839 | 4014009a | अद्य वालिसमुत्थं ते भयं वैरं च वानर |
840 | 4014009c | एकेनाहं प्रमोक्ष्यामि बाणमोक्षेण संयुगे |
841 | 4014010a | मम दर्शय सुग्रीववैरिणं भ्रातृरूपिणम् |
842 | 4014010c | वाली विनिहतो यावद्वने पांसुषु वेष्टते |
843 | 4014011a | यदि दृष्टिपथं प्राप्तो जीवन्स विनिवर्तते |
844 | 4014011c | ततो दोषेण मा गच्छेत्सद्यो गर्हेच्च मा भवान् |
845 | 4014012a | प्रत्यक्षं सप्त ते साला मया बाणेन दारिताः |
846 | 4014012c | ततो वेत्सि बलेनाद्य बालिनं निहतं मया |
847 | 4014013a | अनृतं नोक्तपूर्वं मे वीर कृच्छ्रेऽपि तिष्ठता |
848 | 4014013c | धर्मलोभपरीतेन न च वक्ष्ये कथंचन |
849 | 4014014a | सफलां च करिष्यामि प्रतिज्ञां जहि संभ्रमम् |
850 | 4014014c | प्रसूतं कलमं क्षेत्रे वर्षेणेव शतक्रतुः |
851 | 4014015a | तदाह्वाननिमित्तं त्वं वालिनो हेममालिनः |
852 | 4014015c | सुग्रीव कुरु तं शब्दं निष्पतेद्येन वानरः |
853 | 4014016a | जितकाशी जयश्लाघी त्वया चाधर्षितः पुरात् |
854 | 4014016c | निष्पतिष्यत्यसंगेन वाली स प्रियसंयुगः |
855 | 4014017a | रिपूणां धर्षणं शूरा मर्षयन्ति न संयुगे |
856 | 4014017c | जानन्तस्तु स्वकं वीर्यं स्त्रीसमक्षं विशेषतः |
857 | 4014018a | स तु रामवचः श्रुत्वा सुग्रीवो हेमपिङ्गलः |
858 | 4014018c | ननर्द क्रूरनादेन विनिर्भिन्दन्निवाम्बरम् |
859 | 4014019a | तस्य शब्देन वित्रस्ता गावो यान्ति हतप्रभाः |
860 | 4014019c | राजदोषपरामृष्टाः कुलस्त्रिय इवाकुलाः |
861 | 4014020a | द्रवन्ति च मृगाः शीघ्रं भग्ना इव रणे हयाः |
862 | 4014020c | पतन्ति च खगा भूमौ क्षीणपुण्या इव ग्रहाः |
863 | 4014021a | ततः स जीमूतगणप्रणादो; नादं व्यमुञ्चत्त्वरया प्रतीतः |
864 | 4014021c | सूर्यात्मजः शौर्यविवृद्धतेजाः; सरित्पतिर्वानिलचञ्चलोर्मिः |
865 | 4015001a | अथ तस्य निनादं तं सुग्रीवस्य महात्मनः |
866 | 4015001c | शुश्रावान्तःपुरगतो वाली भ्रातुरमर्षणः |
867 | 4015002a | श्रुत्वा तु तस्य निनदं सर्वभूतप्रकम्पनम् |
868 | 4015002c | मदश्चैकपदे नष्टः क्रोधश्चापतितो महान् |
869 | 4015003a | स तु रोषपरीताङ्गो वाली संध्यातपप्रभः |
870 | 4015003c | उपरक्त इवादित्यः सद्यो निष्प्रभतां गतः |
871 | 4015004a | वाली दंष्ट्रा करालस्तु क्रोधाद्दीप्ताग्निसंनिभः |
872 | 4015004c | भात्युत्पतितपद्माभः समृणाल इव ह्रदः |
873 | 4015005a | शब्दं दुर्मर्षणं श्रुत्वा निष्पपात ततो हरिः |
874 | 4015005c | वेगेन चरणन्यासैर्दारयन्निव मेदिनीम् |
875 | 4015006a | तं तु तारा परिष्वज्य स्नेहाद्दर्शितसौहृदा |
876 | 4015006c | उवाच त्रस्तसंभ्रान्ता हितोदर्कमिदं वचः |
877 | 4015007a | साधु क्रोधमिमं वीर नदी वेगमिवागतम् |
878 | 4015007c | शयनादुत्थितः काल्यं त्यज भुक्तामिव स्रजम् |
879 | 4015008a | सहसा तव निष्क्रामो मम तावन्न रोचते |
880 | 4015008c | श्रूयतामभिधास्यामि यन्निमित्तं निवार्यसे |
881 | 4015009a | पूर्वमापतितः क्रोधात्स त्वामाह्वयते युधि |
882 | 4015009c | निष्पत्य च निरस्तस्ते हन्यमानो दिशो गतः |
883 | 4015010a | त्वया तस्य निरस्तस्य पीडितस्य विशेषतः |
884 | 4015010c | इहैत्य पुनराह्वानं शङ्कां जनयतीव मे |
885 | 4015011a | दर्पश्च व्यवसायश्च यादृशस्तस्य नर्दतः |
886 | 4015011c | निनादस्य च संरम्भो नैतदल्पं हि कारणम् |
887 | 4015012a | नासहायमहं मन्ये सुग्रीवं तमिहागतम् |
888 | 4015012c | अवष्टब्धसहायश्च यमाश्रित्यैष गर्जति |
889 | 4015013a | प्रकृत्या निपुणश्चैव बुद्धिमांश्चैव वानरः |
890 | 4015013c | अपरीक्षितवीर्येण सुग्रीवः सह नैष्यति |
891 | 4015014a | पूर्वमेव मया वीर श्रुतं कथयतो वचः |
892 | 4015014c | अङ्गदस्य कुमारस्य वक्ष्यामि त्वा हितं वचः |
893 | 4015015a | तव भ्रातुर्हि विख्यातः सहायो रणकर्कशः |
894 | 4015015c | रामः परबलामर्दी युगान्ताग्निरिवोत्थितः |
895 | 4015016a | निवासवृक्षः साधूनामापन्नानां परा गतिः |
896 | 4015016c | आर्तानां संश्रयश्चैव यशसश्चैकभाजनम् |
897 | 4015017a | ज्ञानविज्ञानसंपन्नो निदेशो निरतः पितुः |
898 | 4015017c | धातूनामिव शैलेन्द्रो गुणानामाकरो महान् |
899 | 4015018a | तत्क्षमं न विरोधस्ते सह तेन महात्मना |
900 | 4015018c | दुर्जयेनाप्रमेयेन रामेण रणकर्मसु |
901 | 4015019a | शूर वक्ष्यामि ते किंचिन्न चेच्छाम्यभ्यसूयितुम् |
902 | 4015019c | श्रूयतां क्रियतां चैव तव वक्ष्यामि यद्धितम् |
903 | 4015020a | यौवराज्येन सुग्रीवं तूर्णं साध्वभिषेचय |
904 | 4015020c | विग्रहं मा कृथा वीर भ्रात्रा राजन्बलीयसा |
905 | 4015021a | अहं हि ते क्षमं मन्ये तव रामेण सौहृदम् |
906 | 4015021c | सुग्रीवेण च संप्रीतिं वैरमुत्सृज्य दूरतः |
907 | 4015022a | लालनीयो हि ते भ्राता यवीयानेष वानरः |
908 | 4015022c | तत्र वा सन्निहस्थो वा सर्वथा बन्धुरेव ते |
909 | 4015023a | यदि ते मत्प्रियं कार्यं यदि चावैषि मां हिताम् |
910 | 4015023c | याच्यमानः प्रयत्नेन साधु वाक्यं कुरुष्व मे |
911 | 4016001a | तामेवं ब्रुवतीं तारां ताराधिपनिभाननाम् |
912 | 4016001c | वाली निर्भर्त्सयामास वचनं चेदमब्रवीत् |
913 | 4016002a | गर्जतोऽस्य च संरम्भं भ्रातुः शत्रोर्विशेषतः |
914 | 4016002c | मर्षयिष्याम्यहं केन कारणेन वरानने |
915 | 4016003a | अधर्षितानां शूराणां समरेष्वनिवर्तिनाम् |
916 | 4016003c | धर्षणामर्षणं भीरु मरणादतिरिच्यते |
917 | 4016004a | सोढुं न च समर्थोऽहं युद्धकामस्य संयुगे |
918 | 4016004c | सुग्रीवस्य च संरम्भं हीनग्रीवस्य गर्जतः |
919 | 4016005a | न च कार्यो विषादस्ते राघवं प्रति मत्कृते |
920 | 4016005c | धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च कथं पापं करिष्यति |
921 | 4016006a | निवर्तस्व सह स्त्रीभिः कथं भूयोऽनुगच्छसि |
922 | 4016006c | सौहृदं दर्शितं तारे मयि भक्तिः कृता त्वया |
923 | 4016007a | प्रतियोत्स्याम्यहं गत्वा सुग्रीवं जहि संभ्रमम् |
924 | 4016007c | दर्पं चास्य विनेष्यामि न च प्राणैर्विमोक्ष्यते |
925 | 4016008a | शापितासि मम प्राणैर्निवर्तस्व जयेन च |
926 | 4016008c | अहं जित्वा निवर्तिष्ये तमलं भ्रातरं रणे |
927 | 4016009a | तं तु तारा परिष्वज्य वालिनं प्रियवादिनी |
928 | 4016009c | चकार रुदती मन्दं दक्षिणा सा प्रदक्षिणम् |
929 | 4016010a | ततः स्वस्त्ययनं कृत्वा मन्त्रवद्विजयैषिणी |
930 | 4016010c | अन्तःपुरं सह स्त्रीभिः प्रविष्टा शोकमोहिता |
931 | 4016011a | प्रविष्टायां तु तारायां सह स्त्रीभिः स्वमालयम् |
932 | 4016011c | नगरान्निर्ययौ क्रुद्धो महासर्प इव श्वसन् |
933 | 4016012a | स निःश्वस्य महावेगो वाली परमरोषणः |
934 | 4016012c | सर्वतश्चारयन्दृष्टिं शत्रुदर्शनकाङ्क्षया |
935 | 4016013a | स ददर्श ततः श्रीमान्सुग्रीवं हेमपिङ्गलम् |
936 | 4016013c | सुसंवीतमवष्टब्धं दीप्यमानमिवानलम् |
937 | 4016014a | स तं दृष्ट्वा महावीर्यं सुग्रीवं पर्यवस्थितम् |
938 | 4016014c | गाढं परिदधे वासो वाली परमरोषणः |
939 | 4016015a | स वाली गाढसंवीतो मुष्टिमुद्यम्य वीर्यवान् |
940 | 4016015c | सुग्रीवमेवाभिमुखो ययौ योद्धुं कृतक्षणः |
941 | 4016016a | श्लिष्टमुष्टिं समुद्यम्य संरब्धतरमागतः |
942 | 4016016c | सुग्रीवोऽपि समुद्दिश्य वालिनं हेममालिनम् |
943 | 4016017a | तं वाली क्रोधताम्राक्षः सुग्रीवं रणपण्डितम् |
944 | 4016017c | आपतन्तं महावेगमिदं वचनमब्रवीत् |
945 | 4016018a | एष मुष्टिर्मया बद्धो गाढः सुनिहिताङ्गुलिः |
946 | 4016018c | मया वेगविमुक्तस्ते प्राणानादाय यास्यति |
947 | 4016019a | एवमुक्तस्तु सुग्रीवः क्रुद्धो वालिनमब्रवीत् |
948 | 4016019c | तवैव च हरन्प्राणान्मुष्टिः पततु मूर्धनि |
949 | 4016020a | ताडितस्तेन संक्रुद्धः समभिक्रम्य वेगतः |
950 | 4016020c | अभवच्छोणितोद्गारी सोत्पीड इव पर्वतः |
951 | 4016021a | सुग्रीवेण तु निःसंगं सालमुत्पाट्य तेजसा |
952 | 4016021c | गात्रेष्वभिहतो वाली वज्रेणेव महागिरिः |
953 | 4016022a | स तु वाली प्रचरितः सालताडनविह्वलः |
954 | 4016022c | गुरुभारसमाक्रान्ता सागरे नौरिवाभवत् |
955 | 4016023a | तौ भीमबलविक्रान्तौ सुपर्णसमवेगिनौ |
956 | 4016023c | प्रवृद्धौ घोरवपुषौ चन्द्रसूर्याविवाम्बरे |
957 | 4016024a | वालिना भग्नदर्पस्तु सुग्रीवो मन्दविक्रमः |
958 | 4016024c | वालिनं प्रति सामर्षो दर्शयामास लाघवम् |
959 | 4016025a | ततो धनुषि संधाय शरमाशीविषोपमम् |
960 | 4016025c | राघवेण महाबाणो वालिवक्षसि पातितः |
961 | 4016026a | वेगेनाभिहतो वाली निपपात महीतले |
962 | 4016027a | अथोक्षितः शोणिततोयविस्रवैः; सुपुष्पिताशोक इवानिलोद्धतः |
963 | 4016027c | विचेतनो वासवसूनुराहवे; प्रभ्रंशितेन्द्रध्वजवत्क्षितिं गतः |
964 | 4017001a | ततः शरेणाभिहतो रामेण रणकर्कशः |
965 | 4017001c | पपात सहसा वाली निकृत्त इव पादपः |
966 | 4017002a | स भूमौ न्यस्तसर्वाङ्गस्तप्तकाञ्चनभूषणः |
967 | 4017002c | अपतद्देवराजस्य मुक्तरश्मिरिव ध्वजः |
968 | 4017003a | तस्मिन्निपतिते भूमौ हर्यृषाणां गणेश्वरे |
969 | 4017003c | नष्टचन्द्रमिव व्योम न व्यराजत भूतलम् |
970 | 4017004a | भूमौ निपतितस्यापि तस्य देहं महात्मनः |
971 | 4017004c | न श्रीर्जहाति न प्राणा न तेजो न पराक्रमः |
972 | 4017005a | शक्रदत्ता वरा माला काञ्चनी रत्नभूषिता |
973 | 4017005c | दधार हरिमुख्यस्य प्राणांस्तेजः श्रियं च सा |
974 | 4017006a | स तया मालया वीरो हैमया हरियूथपः |
975 | 4017006c | संध्यानुगतपर्यन्तः पयोधर इवाभवत् |
976 | 4017007a | तस्य माला च देहश्च मर्मघाती च यः शरः |
977 | 4017007c | त्रिधेव रचिता लक्ष्मीः पतितस्यापि शोभते |
978 | 4017008a | तदस्त्रं तस्य वीरस्य स्वर्गमार्गप्रभावनम् |
979 | 4017008c | रामबाणासनक्षिप्तमावहत्परमां गतिम् |
980 | 4017009a | तं तथा पतितं संख्ये गतार्चिषमिवानलम् |
981 | 4017009c | ययातिमिव पुण्यान्ते देवलोकात्परिच्युतम् |
982 | 4017010a | आदित्यमिव कालेन युगान्ते भुवि पातितम् |
983 | 4017010c | महेन्द्रमिव दुर्धर्षं महेन्द्रमिव दुःसहम् |
984 | 4017011a | महेन्द्रपुत्रं पतितं वालिनं हेममालिनम् |
985 | 4017011c | सिंहोरस्कं महाबाहुं दीप्तास्यं हरिलोचनम् |
986 | 4017011e | लक्ष्मणानुगतो रामो ददर्शोपससर्प च |
987 | 4017012a | स दृष्ट्वा राघवं वाली लक्ष्मणं च महाबलम् |
988 | 4017012c | अब्रवीत्प्रश्रितं वाक्यं परुषं धर्मसंहितम् |
989 | 4017013a | पराङ्मुखवधं कृत्वा को नु प्राप्तस्त्वया गुणः |
990 | 4017013c | यदहं युद्धसंरब्धस्त्वत्कृते निधनं गतः |
991 | 4017014a | कुलीनः सत्त्वसंपन्नस्तेजस्वी चरितव्रतः |
992 | 4017014c | रामः करुणवेदी च प्रजानां च हिते रतः |
993 | 4017015a | सानुक्रोशो महोत्साहः समयज्ञो दृढव्रतः |
994 | 4017015c | इति ते सर्वभूतानि कथयन्ति यशो भुवि |
995 | 4017016a | तान्गुणान्संप्रधार्याहमग्र्यं चाभिजनं तव |
996 | 4017016c | तारया प्रतिषिद्धः सन्सुग्रीवेण समागतः |
997 | 4017017a | न मामन्येन संरब्धं प्रमत्तं वेद्धुमर्हसि |
998 | 4017017c | इति मे बुद्धिरुत्पन्ना बभूवादर्शने तव |
999 | 4017018a | न त्वां विनिहतात्मानं धर्मध्वजमधार्मिकम् |
1000 | 4017018c | जाने पापसमाचारं तृणैः कूपमिवावृतम् |
1001 | 4017019a | सतां वेषधरं पापं प्रच्छन्नमिव पावकम् |
1002 | 4017019c | नाहं त्वामभिजानानि धर्मच्छद्माभिसंवृतम् |
1003 | 4017020a | विषये वा पुरे वा ते यदा नापकरोम्यहम् |
1004 | 4017020c | न च त्वां प्रतिजानेऽहं कस्मात्त्वं हंस्यकिल्बिषम् |
1005 | 4017021a | फलमूलाशनं नित्यं वानरं वनगोचरम् |
1006 | 4017021c | मामिहाप्रतियुध्यन्तमन्येन च समागतम् |
1007 | 4017022a | त्वं नराधिपतेः पुत्रः प्रतीतः प्रियदर्शनः |
1008 | 4017022c | लिङ्गमप्यस्ति ते राजन्दृश्यते धर्मसंहितम् |
1009 | 4017023a | कः क्षत्रियकुले जातः श्रुतवान्नष्टसंशयः |
1010 | 4017023c | धर्मलिङ्ग प्रतिच्छन्नः क्रूरं कर्म समाचरेत् |
1011 | 4017024a | राम राजकुले जातो धर्मवानिति विश्रुतः |
1012 | 4017024c | अभव्यो भव्यरूपेण किमर्थं परिधावसि |
1013 | 4017025a | साम दानं क्षमा धर्मः सत्यं धृतिपराक्रमौ |
1014 | 4017025c | पार्थिवानां गुणा राजन्दण्डश्चाप्यपकारिषु |
1015 | 4017026a | वयं वनचरा राम मृगा मूलफलाशनाः |
1016 | 4017026c | एषा प्रकृतिरस्माकं पुरुषस्त्वं नरेश्वरः |
1017 | 4017027a | भूमिर्हिरण्यं रूप्यं च निग्रहे कारणानि च |
1018 | 4017027c | तत्र कस्ते वने लोभो मदीयेषु फलेषु वा |
1019 | 4017028a | नयश्च विनयश्चोभौ निग्रहानुग्रहावपि |
1020 | 4017028c | राजवृत्तिरसंकीर्णा न नृपाः कामवृत्तयः |
1021 | 4017029a | त्वं तु कामप्रधानश्च कोपनश्चानवस्थितः |
1022 | 4017029c | राजवृत्तैश्च संकीर्णः शरासनपरायणः |
1023 | 4017030a | न तेऽस्त्यपचितिर्धर्मे नार्थे बुद्धिरवस्थिता |
1024 | 4017030c | इन्द्रियैः कामवृत्तः सन्कृष्यसे मनुजेश्वर |
1025 | 4017031a | हत्वा बाणेन काकुत्स्थ मामिहानपराधिनम् |
1026 | 4017031c | किं वक्ष्यसि सतां मध्ये कर्म कृत्वा जुगुप्सितम् |
1027 | 4017032a | राजहा ब्रह्महा गोघ्नश्चोरः प्राणिवधे रतः |
1028 | 4017032c | नास्तिकः परिवेत्ता च सर्वे निरयगामिनः |
1029 | 4017033a | अधार्यं चर्म मे सद्भी रोमाण्यस्थि च वर्जितम् |
1030 | 4017033c | अभक्ष्याणि च मांसानि त्वद्विधैर्धर्मचारिभिः |
1031 | 4017034a | पञ्च पञ्चनखा भक्ष्या ब्रह्मक्षत्रेण राघव |
1032 | 4017034c | शल्यकः श्वाविधो गोधा शशः कूर्मश्च पञ्चमः |
1033 | 4017035a | चर्म चास्थि च मे राजन्न स्पृशन्ति मनीषिणः |
1034 | 4017035c | अभक्ष्याणि च मांसानि सोऽहं पञ्चनखो हतः |
1035 | 4017036a | त्वया नाथेन काकुत्स्थ न सनाथा वसुंधरा |
1036 | 4017036c | प्रमदा शीलसंपन्ना धूर्तेन पतिता यथा |
1037 | 4017037a | शठो नैकृतिकः क्षुद्रो मिथ्या प्रश्रितमानसः |
1038 | 4017037c | कथं दशरथेन त्वं जातः पापो महात्मना |
1039 | 4017038a | छिन्नचारित्र्यकक्ष्येण सतां धर्मातिवर्तिना |
1040 | 4017038c | त्यक्तधर्माङ्कुशेनाहं निहतो रामहस्तिना |
1041 | 4017039a | दृश्यमानस्तु युध्येथा मया युधि नृपात्मज |
1042 | 4017039c | अद्य वैवस्वतं देवं पश्येस्त्वं निहतो मया |
1043 | 4017040a | त्वयादृश्येन तु रणे निहतोऽहं दुरासदः |
1044 | 4017040c | प्रसुप्तः पन्नगेनेव नरः पानवशं गतः |
1045 | 4017041a | सुग्रीवप्रियकामेन यदहं निहतस्त्वया |
1046 | 4017041c | कण्ठे बद्ध्वा प्रदद्यां तेऽनिहतं रावणं रणे |
1047 | 4017042a | न्यस्तां सागरतोये वा पाताले वापि मैथिलीम् |
1048 | 4017042c | जानयेयं तवादेशाच्छ्वेतामश्वतरीमिव |
1049 | 4017043a | युक्तं यत्प्रप्नुयाद्राज्यं सुग्रीवः स्वर्गते मयि |
1050 | 4017043c | अयुक्तं यदधर्मेण त्वयाहं निहतो रणे |
1051 | 4017044a | काममेवंविधं लोकः कालेन विनियुज्यते |
1052 | 4017044c | क्षमं चेद्भवता प्राप्तमुत्तरं साधु चिन्त्यताम् |
1053 | 4017045a | इत्येवमुक्त्वा परिशुष्कवक्त्रः; शराभिघाताद्व्यथितो महात्मा |
1054 | 4017045c | समीक्ष्य रामं रविसंनिकाशं; तूष्णीं बभूवामरराजसूनुः |
1055 | 4018001a | इत्युक्तः प्रश्रितं वाक्यं धर्मार्थसहितं हितम् |
1056 | 4018001c | परुषं वालिना रामो निहतेन विचेतसा |
1057 | 4018002a | तं निष्प्रभमिवादित्यं मुक्ततोयमिवाम्बुदम् |
1058 | 4018002c | उक्तवाक्यं हरिश्रेष्ठमुपशान्तमिवानलम् |
1059 | 4018003a | धर्मार्थगुणसंपन्नं हरीश्वरमनुत्तमम् |
1060 | 4018003c | अधिक्षिप्तस्तदा रामः पश्चाद्वालिनमब्रवीत् |
1061 | 4018004a | धर्ममर्थं च कामं च समयं चापि लौकिकम् |
1062 | 4018004c | अविज्ञाय कथं बाल्यान्मामिहाद्य विगर्हसे |
1063 | 4018005a | अपृष्ट्वा बुद्धिसंपन्नान्वृद्धानाचार्यसंमतान् |
1064 | 4018005c | सौम्य वानरचापल्यात्त्वं मां वक्तुमिहेच्छसि |
1065 | 4018006a | इक्ष्वाकूणामियं भूमिः सशैलवनकानना |
1066 | 4018006c | मृगपक्षिमनुष्याणां निग्रहानुग्रहावपि |
1067 | 4018007a | तां पालयति धर्मात्मा भरतः सत्यवागृजुः |
1068 | 4018007c | धर्मकामार्थतत्त्वज्ञो निग्रहानुग्रहे रतः |
1069 | 4018008a | नयश्च विनयश्चोभौ यस्मिन्सत्यं च सुस्थितम् |
1070 | 4018008c | विक्रमश्च यथा दृष्टः स राजा देशकालवित् |
1071 | 4018009a | तस्य धर्मकृतादेशा वयमन्ये च पार्थिवः |
1072 | 4018009c | चरामो वसुधां कृत्स्नां धर्मसंतानमिच्छवः |
1073 | 4018010a | तस्मिन्नृपतिशार्दूल भरते धर्मवत्सले |
1074 | 4018010c | पालयत्यखिलां भूमिं कश्चरेद्धर्मनिग्रहम् |
1075 | 4018011a | ते वयं मार्गविभ्रष्टं स्वधर्मे परमे स्थिताः |
1076 | 4018011c | भरताज्ञां पुरस्कृत्य निगृह्णीमो यथाविधि |
1077 | 4018012a | त्वं तु संक्लिष्टधर्मा च कर्मणा च विगर्हितः |
1078 | 4018012c | कामतन्त्रप्रधानश्च न स्थितो राजवर्त्मनि |
1079 | 4018013a | ज्येष्ठो भ्राता पिता चैव यश्च विद्यां प्रयच्छति |
1080 | 4018013c | त्रयस्ते पितरो ज्ञेया धर्मे च पथि वर्तिनः |
1081 | 4018014a | यवीयानात्मनः पुत्रः शिष्यश्चापि गुणोदितः |
1082 | 4018014c | पुत्रवत्ते त्रयश्चिन्त्या धर्मश्चेदत्र कारणम् |
1083 | 4018015a | सूक्ष्मः परमदुर्ज्ञेयः सतां धर्मः प्लवंगम |
1084 | 4018015c | हृदिस्थः सर्वभूतानामात्मा वेद शुभाशुभम् |
1085 | 4018016a | चपलश्चपलैः सार्धं वानरैरकृतात्मभिः |
1086 | 4018016c | जात्यन्ध इव जात्यन्धैर्मन्त्रयन्द्रक्ष्यसे नु किम् |
1087 | 4018017a | अहं तु व्यक्ततामस्य वचनस्य ब्रवीमि ते |
1088 | 4018017c | न हि मां केवलं रोषात्त्वं विगर्हितुमर्हसि |
1089 | 4018018a | तदेतत्कारणं पश्य यदर्थं त्वं मया हतः |
1090 | 4018018c | भ्रातुर्वर्तसि भार्यायां त्यक्त्वा धर्मं सनातनम् |
1091 | 4018019a | अस्य त्वं धरमाणस्य सुग्रीवस्य महात्मनः |
1092 | 4018019c | रुमायां वर्तसे कामात्स्नुषायां पापकर्मकृत् |
1093 | 4018020a | तद्व्यतीतस्य ते धर्मात्कामवृत्तस्य वानर |
1094 | 4018020c | भ्रातृभार्याभिमर्शेऽस्मिन्दण्डोऽयं प्रतिपादितः |
1095 | 4018021a | न हि धर्मविरुद्धस्य लोकवृत्तादपेयुषः |
1096 | 4018021c | दण्डादन्यत्र पश्यामि निग्रहं हरियूथप |
1097 | 4018022a | औरसीं भगिनीं वापि भार्यां वाप्यनुजस्य यः |
1098 | 4018022c | प्रचरेत नरः कामात्तस्य दण्डो वधः स्मृतः |
1099 | 4018023a | भरतस्तु महीपालो वयं त्वादेशवर्तिनः |
1100 | 4018023c | त्वं च धर्मादतिक्रान्तः कथं शक्यमुपेक्षितुम् |
1101 | 4018024a | गुरुधर्मव्यतिक्रान्तं प्राज्ञो धर्मेण पालयन् |
1102 | 4018024c | भरतः कामवृत्तानां निग्रहे पर्यवस्थितः |
1103 | 4018025a | वयं तु भरतादेशं विधिं कृत्वा हरीश्वर |
1104 | 4018025c | त्वद्विधान्भिन्नमर्यादान्नियन्तुं पर्यवस्थिताः |
1105 | 4018026a | सुग्रीवेण च मे सख्यं लक्ष्मणेन यथा तथा |
1106 | 4018026c | दारराज्यनिमित्तं च निःश्रेयसि रतः स मे |
1107 | 4018027a | प्रतिज्ञा च मया दत्ता तदा वानरसंनिधौ |
1108 | 4018027c | प्रतिज्ञा च कथं शक्या मद्विधेनानवेक्षितुम् |
1109 | 4018028a | तदेभिः कारणैः सर्वैर्महद्भिर्धर्मसंहितैः |
1110 | 4018028c | शासनं तव यद्युक्तं तद्भवाननुमन्यताम् |
1111 | 4018029a | सर्वथा धर्म इत्येव द्रष्टव्यस्तव निग्रहः |
1112 | 4018029c | वयस्यस्योपकर्तव्यं धर्ममेवानुपश्यता |
1113 | 4018030a | राजभिर्धृतदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः |
1114 | 4018030c | निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा |
1115 | 4018031a | आर्येण मम मान्धात्रा व्यसनं घोरमीप्सितम् |
1116 | 4018031c | श्रमणेन कृते पापे यथा पापं कृतं त्वया |
1117 | 4018032a | अन्यैरपि कृतं पापं प्रमत्तैर्वसुधाधिपैः |
1118 | 4018032c | प्रायश्चित्तं च कुर्वन्ति तेन तच्छाम्यते रजः |
1119 | 4018033a | तदलं परितापेन धर्मतः परिकल्पितः |
1120 | 4018033c | वधो वानरशार्दूल न वयं स्ववशे स्थिताः |
1121 | 4018034a | वागुराभिश्च पाशैश्च कूटैश्च विविधैर्नराः |
1122 | 4018034c | प्रतिच्छन्नाश्च दृश्याश्च गृह्णन्ति सुबहून्मृगान् |
1123 | 4018034e | प्रधावितान्वा वित्रस्तान्विस्रब्धानतिविष्ठितान् |
1124 | 4018035a | प्रमत्तानप्रमत्तान्वा नरा मांसार्थिनो भृशम् |
1125 | 4018035c | विध्यन्ति विमुखांश्चापि न च दोषोऽत्र विद्यते |
1126 | 4018036a | यान्ति राजर्षयश्चात्र मृगयां धर्मकोविदाः |
1127 | 4018036c | तस्मात्त्वं निहतो युद्धे मया बाणेन वानर |
1128 | 4018036e | अयुध्यन्प्रतियुध्यन्वा यस्माच्छाखामृगो ह्यसि |
1129 | 4018037a | दुर्लभस्य च धर्मस्य जीवितस्य शुभस्य च |
1130 | 4018037c | राजानो वानरश्रेष्ठ प्रदातारो न संशयः |
1131 | 4018038a | तान्न हिंस्यान्न चाक्रोशेन्नाक्षिपेन्नाप्रियं वदेत् |
1132 | 4018038c | देवा मानुषरूपेण चरन्त्येते महीतले |
1133 | 4018039a | त्वं तु धर्ममविज्ञाय केवलं रोषमास्थितः |
1134 | 4018039c | प्रदूषयसि मां धर्मे पितृपैतामहे स्थितम् |
1135 | 4018040a | एवमुक्तस्तु रामेण वाली प्रव्यथितो भृशम् |
1136 | 4018040c | प्रत्युवाच ततो रामं प्राञ्जलिर्वानरेश्वरः |
1137 | 4018041a | यत्त्वमात्थ नरश्रेष्ठ तदेवं नात्र संशयः |
1138 | 4018041c | प्रतिवक्तुं प्रकृष्टे हि नापकृष्टस्तु शक्नुयात् |
1139 | 4018042a | यदयुक्तं मया पूर्वं प्रमादाद्वाक्यमप्रियम् |
1140 | 4018042c | तत्रापि खलु मे दोषं कर्तुं नार्हसि राघव |
1141 | 4018043a | त्वं हि दृष्टार्थतत्त्वज्ञः प्रजानां च हिते रतः |
1142 | 4018043c | कार्यकारणसिद्धौ ते प्रसन्ना बुद्धिरव्यया |
1143 | 4018044a | मामप्यवगतं धर्माद्व्यतिक्रान्तपुरस्कृतम् |
1144 | 4018044c | धर्मसंहितया वाचा धर्मज्ञ परिपालय |
1145 | 4018045a | बाष्पसंरुद्धकण्ठस्तु वाली सार्तरवः शनैः |
1146 | 4018045c | उवाच रामं संप्रेक्ष्य पङ्कलग्न इव द्विपः |
1147 | 4018046a | न त्वात्मानमहं शोचे न तारां नापि बान्धवान् |
1148 | 4018046c | यथा पुत्रं गुणश्रेष्ठमङ्गदं कनकाङ्गदम् |
1149 | 4018047a | स ममादर्शनाद्दीनो बाल्यात्प्रभृति लालितः |
1150 | 4018047c | तटाक इव पीताम्बुरुपशोषं गमिष्यति |
1151 | 4018048a | सुग्रीवे चाङ्गदे चैव विधत्स्व मतिमुत्तमाम् |
1152 | 4018048c | त्वं हि शास्ता च गोप्ता च कार्याकार्यविधौ स्थितः |
1153 | 4018049a | या ते नरपते वृत्तिर्भरते लक्ष्मणे च या |
1154 | 4018049c | सुग्रीवे चाङ्गदे राजंस्तां चिन्तयितुमर्हसि |
1155 | 4018050a | मद्दोषकृतदोषां तां यथा तारां तपस्विनीम् |
1156 | 4018050c | सुग्रीवो नावमन्येत तथावस्थातुमर्हसि |
1157 | 4018051a | त्वया ह्यनुगृहीतेन शक्यं राज्यमुपासितुम् |
1158 | 4018051c | त्वद्वशे वर्तमानेन तव चित्तानुवर्तिना |
1159 | 4018052a | स तमाश्वासयद्रामो वालिनं व्यक्तदर्शनम् |
1160 | 4018053a | न वयं भवता चिन्त्या नाप्यात्मा हरिसत्तम |
1161 | 4018053c | वयं भवद्विशेषेण धर्मतः कृतनिश्चयाः |
1162 | 4018054a | दण्ड्ये यः पातयेद्दण्डं दण्ड्यो यश्चापि दण्ड्यते |
1163 | 4018054c | कार्यकारणसिद्धार्थावुभौ तौ नावसीदतः |
1164 | 4018055a | तद्भवान्दण्डसंयोगादस्माद्विगतकल्मषः |
1165 | 4018055c | गतः स्वां प्रकृतिं धर्म्यां धर्मदृष्ट्तेन वर्त्मना |
1166 | 4018056a | स तस्य वाक्यं मधुरं महात्मनः; समाहितं धर्मपथानुवर्तिनः |
1167 | 4018056c | निशम्य रामस्य रणावमर्दिनो; वचः सुयुक्तं निजगाद वानरः |
1168 | 4018057a | शराभितप्तेन विचेतसा मया; प्रदूषितस्त्वं यदजानता प्रभो |
1169 | 4018057c | इदं महेन्द्रोपमभीमविक्रम; प्रसादितस्त्वं क्षम मे महीश्वर |
1170 | 4019001a | स वानरमहाराजः शयानः शरविक्षतः |
1171 | 4019001c | प्रत्युक्तो हेतुमद्वाक्यैर्नोत्तरं प्रत्यपद्यत |
1172 | 4019002a | अश्मभिः परिभिन्नाङ्गः पादपैराहतो भृशम् |
1173 | 4019002c | रामबाणेन चाक्रान्तो जीवितान्ते मुमोह सः |
1174 | 4019003a | तं भार्याबाणमोक्षेण रामदत्तेन संयुगे |
1175 | 4019003c | हतं प्लवगशार्दूलं तारा शुश्राव वालिनम् |
1176 | 4019004a | सा सपुत्राप्रियं श्रुत्वा वधं भर्तुः सुदारुणम् |
1177 | 4019004c | निष्पपात भृशं त्रस्ता विविधाद्गिरिगह्वरात् |
1178 | 4019005a | ये त्वङ्गदपरीवारा वानरा हि महाबलाः |
1179 | 4019005c | ते सकार्मुकमालोक्य रामं त्रस्ताः प्रदुद्रुवुः |
1180 | 4019006a | सा ददर्श ततस्त्रस्तान्हरीनापततो द्रुतम् |
1181 | 4019006c | यूथादिव परिभ्रष्टान्मृगान्निहतयूथपान् |
1182 | 4019007a | तानुवाच समासाद्य दुःखितान्दुःखिता सती |
1183 | 4019007c | राम वित्रासितान्सर्वाननुबद्धानिवेषुभिः |
1184 | 4019008a | वानरा राजसिंहस्य यस्य यूयं पुरःसराः |
1185 | 4019008c | तं विहाय सुवित्रस्ताः कस्माद्द्रवत दुर्गताः |
1186 | 4019009a | राज्यहेतोः स चेद्भ्राता भ्राता रौद्रेण पातितः |
1187 | 4019009c | रामेण प्रसृतैर्दूरान्मार्गणैर्दूर पातिभिः |
1188 | 4019010a | कपिपत्न्या वचः श्रुत्वा कपयः कामरूपिणः |
1189 | 4019010c | प्राप्तकालमविश्लिष्टमूचुर्वचनमङ्गनाम् |
1190 | 4019011a | जीव पुत्रे निवर्तस्य पुत्रं रक्षस्व चान्दगम् |
1191 | 4019011c | अन्तको राम रूपेण हत्वा नयति वालिनम् |
1192 | 4019012a | क्षिप्तान्वृक्षान्समाविध्य विपुलाश्च शिलास्तथा |
1193 | 4019012c | वाली वज्रसमैर्बाणैर्वज्रेणेव निपातितः |
1194 | 4019013a | अभिद्रुतमिदं सर्वं विद्रुतं प्रसृतं बलम् |
1195 | 4019013c | अस्मिन्प्लवगशार्दूले हते शक्रसमप्रभे |
1196 | 4019014a | रक्ष्यतां नगरं शूरैरङ्गदश्चाभिषिच्यताम् |
1197 | 4019014c | पदस्थं वालिनः पुत्रं भजिष्यन्ति प्लवंगमाः |
1198 | 4019015a | अथ वा रुचिरं स्थानमिह ते रुचिरानने |
1199 | 4019015c | आविशन्ति हि दुर्गाणि क्षिप्रमद्यैव वानराः |
1200 | 4019016a | अभार्याः सह भार्याश्च सन्त्यत्र वनचारिणः |
1201 | 4019016c | लुब्धेभ्यो विप्रयुक्तेभ्यः स्वेभ्यो नस्तुमुलं भयम् |
1202 | 4019017a | अल्पान्तरगतानां तु श्रुत्वा वचनमङ्गना |
1203 | 4019017c | आत्मनः प्रतिरूपं सा बभाषे चारुहासिनी |
1204 | 4019018a | पुत्रेण मम किं कार्यं किं राज्येन किमात्मना |
1205 | 4019018c | कपिसिंहे महाभागे तस्मिन्भर्तरि नश्यति |
1206 | 4019019a | पादमूलं गमिष्यामि तस्यैवाहं महात्मनः |
1207 | 4019019c | योऽसौ रामप्रयुक्तेन शरेण विनिपातितः |
1208 | 4019020a | एवमुक्त्वा प्रदुद्राव रुदती शोककर्शिता |
1209 | 4019020c | शिरश्चोरश्च बाहुभ्यां दुःखेन समभिघ्नती |
1210 | 4019021a | आव्रजन्ती ददर्शाथ पतिं निपतितं भुवि |
1211 | 4019021c | हन्तारं दानवेन्द्राणां समरेष्वनिवर्तिनाम् |
1212 | 4019022a | क्षेप्तारं पर्वतेन्द्राणां वज्राणामिव वासवम् |
1213 | 4019022c | महावातसमाविष्टं महामेघौघनिःस्वनम् |
1214 | 4019023a | शक्रतुल्यपराक्रान्तं वृष्ट्वेवोपरतं घनम् |
1215 | 4019023c | नर्दन्तं नर्दतां भीमं शूरं शूरेण पातितम् |
1216 | 4019024a | शार्दूलेनामिषस्यार्थे मृगराजं यथा हतम् |
1217 | 4019024c | अर्चितं सर्वलोकस्य सपताकं सवेदिकम् |
1218 | 4019025a | नागहेतोः सुपर्णेन चैत्यमुन्मथितं यथा |
1219 | 4019025c | अवष्टभ्यावतिष्ठन्तं ददर्श धनुरूर्जितम् |
1220 | 4019026a | रामं रामानुजं चैव भर्तुश्चैवानुजं शुभा |
1221 | 4019026c | तानतीत्य समासाद्य भर्तारं निहतं रणे |
1222 | 4019027a | समीक्ष्य व्यथिता भूमौ संभ्रान्ता निपपात ह |
1223 | 4019027c | सुप्तेव पुनरुत्थाय आर्यपुत्रेति क्रोशती |
1224 | 4019028a | रुरोद सा पतिं दृष्ट्वा संदितं मृत्युदामभिः |
1225 | 4019028c | तामवेक्ष्य तु सुग्रीवः क्रोशन्तीं कुररीमिव |
1226 | 4019029a | विषादमगमत्कष्टं दृष्ट्वा चाङ्गदमागतम् |
1227 | 4020001a | रामचापविसृष्टेन शरेणान्तकरेण तम् |
1228 | 4020001c | दृष्ट्वा विनिहतं भूमौ तारा ताराधिपानना |
1229 | 4020002a | सा समासाद्य भर्तारं पर्यष्वजत भामिनी |
1230 | 4020002c | इषुणाभिहतं दृष्ट्वा वालिनं कुञ्जरोपमम् |
1231 | 4020003a | वानरेन्द्रं महेन्द्राभं शोकसंतप्तमानसा |
1232 | 4020003c | तारा तरुमिवोन्मूलं पर्यदेवयदातुरा |
1233 | 4020004a | रणे दारुणविक्रान्त प्रवीर प्लवतां वर |
1234 | 4020004c | किं दीनामपुरोभागामद्य त्वं नाभिभाषसे |
1235 | 4020005a | उत्तिष्ठ हरिशार्दूल भजस्व शयनोत्तमम् |
1236 | 4020005c | नैवंविधाः शेरते हि भूमौ नृपतिसत्तमाः |
1237 | 4020006a | अतीव खलु ते कान्ता वसुधा वसुधाधिप |
1238 | 4020006c | गतासुरपि यां गात्रैर्मां विहाय निषेवसे |
1239 | 4020007a | व्यक्तमन्या त्वया वीर धर्मतः संप्रवर्तता |
1240 | 4020007c | किष्किन्धेव पुरी रम्या स्वर्गमार्गे विनिर्मिता |
1241 | 4020008a | यान्यस्माभिस्त्वया सार्धं वनेषु मधुगन्धिषु |
1242 | 4020008c | विहृतानि त्वया काले तेषामुपरमः कृतः |
1243 | 4020009a | निरानन्दा निराशाहं निमग्ना शोकसागरे |
1244 | 4020009c | त्वयि पञ्चत्वमापन्ने महायूथपयूथपे |
1245 | 4020010a | हृदयं सुस्थिरं मह्यं दृष्ट्वा विनिहतं भुवि |
1246 | 4020010c | यन्न शोकाभिसंतप्तं स्फुटतेऽद्य सहस्रधा |
1247 | 4020011a | सुग्रीवस्य त्वया भार्या हृता स च विवासितः |
1248 | 4020011c | यत्तत्तस्य त्वया व्युष्टिः प्राप्तेयं प्लवगाधिप |
1249 | 4020012a | निःश्रेयसपरा मोहात्त्वया चाहं विगर्हिता |
1250 | 4020012c | यैषाब्रुवं हितं वाक्यं वानरेन्द्रहितैषिणी |
1251 | 4020013a | कालो निःसंशयो नूनं जीवितान्तकरस्तव |
1252 | 4020013c | बलाद्येनावपन्नोऽसि सुग्रीवस्यावशो वशम् |
1253 | 4020014a | वैधव्यं शोकसंतापं कृपणं कृपणा सती |
1254 | 4020014c | अदुःखोपचिता पूर्वं वर्तयिष्याम्यनाथवत् |
1255 | 4020015a | लालितश्चाङ्गदो वीरः सुकुमारः सुखोचितः |
1256 | 4020015c | वत्स्यते कामवस्थां मे पितृव्ये क्रोधमूर्छिते |
1257 | 4020016a | कुरुष्व पितरं पुत्र सुदृष्टं धर्मवत्सलम् |
1258 | 4020016c | दुर्लभं दर्शनं त्वस्य तव वत्स भविष्यति |
1259 | 4020017a | समाश्वासय पुत्रं त्वं संदेशं संदिशस्व च |
1260 | 4020017c | मूर्ध्नि चैनं समाघ्राय प्रवासं प्रस्थितो ह्यसि |
1261 | 4020018a | रामेण हि महत्कर्म कृतं त्वामभिनिघ्नता |
1262 | 4020018c | आनृण्यं तु गतं तस्य सुग्रीवस्य प्रतिश्रवे |
1263 | 4020019a | सकामो भव सुग्रीव रुमां त्वं प्रतिपत्स्यसे |
1264 | 4020019c | भुङ्क्ष्व राज्यमनुद्विग्नः शस्तो भ्राता रिपुस्तव |
1265 | 4020020a | किं मामेवं विलपतीं प्रेंणा त्वं नाभिभाषसे |
1266 | 4020020c | इमाः पश्य वरा बह्वीर्भार्यास्ते वानरेश्वर |
1267 | 4020021a | तस्या विलपितं श्रुत्वा वानर्यः सर्वतश्च ताः |
1268 | 4020021c | परिगृह्याङ्गदं दीनं दुःखार्ताः परिचुक्रुशुः |
1269 | 4020022a | किमङ्गदं साङ्गद वीर बाहो; विहाय यास्यद्य चिरप्रवासं |
1270 | 4020022c | न युक्तमेवं गुणसंनिकृष्टं; विहाय पुत्रं प्रियपुत्र गन्तुम् |
1271 | 4020023a | किमप्रियं ते प्रियचारुवेष; कृतं मया नाथ सुतेन वा ते |
1272 | 4020023c | सहायिनीमद्य विहाय वीर; यमक्षयं गच्छसि दुर्विनीतम् |
1273 | 4020024a | यद्यप्रियं किंचिदसंप्रधार्य; कृतं मया स्यात्तव दीर्घबाहो |
1274 | 4020024c | क्षमस्व मे तद्धरिवंश नाथ; व्रजामि मूर्ध्ना तव वीर पादौ |
1275 | 4020025a | तथा तु तारा करुणं रुदन्ती; भर्तुः समीपे सह वानरीभिः |
1276 | 4020025c | व्यवस्यत प्रायमनिन्द्यवर्णा; उपोपवेष्टुं भुवि यत्र वाली |
1277 | 4021001a | ततो निपतितां तारां च्युतां तारामिवाम्बरात् |
1278 | 4021001c | शनैराश्वासयामास हनूमान्हरियूथपः |
1279 | 4021002a | गुणदोषकृतं जन्तुः स्वकर्मफलहेतुकम् |
1280 | 4021002c | अव्यग्रस्तदवाप्नोति सर्वं प्रेत्य शुभाशुभम् |
1281 | 4021003a | शोच्या शोचसि कं शोच्यं दीनं दीनानुकम्पसे |
1282 | 4021003c | कश्च कस्यानुशोच्योऽस्ति देहेऽस्मिन्बुद्बुदोपमे |
1283 | 4021004a | अङ्गदस्तु कुमारोऽयं द्रष्टव्यो जीवपुत्रया |
1284 | 4021004c | आयत्या च विधेयानि समर्थान्यस्य चिन्तय |
1285 | 4021005a | जानास्यनियतामेवं भूतानामागतिं गतिम् |
1286 | 4021005c | तस्माच्छुभं हि कर्तव्यं पण्डिते नैहलौकिकम् |
1287 | 4021006a | यस्मिन्हरिसहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च |
1288 | 4021006c | वर्तयन्ति कृतांशानि सोऽयं दिष्टान्तमागतः |
1289 | 4021007a | यदयं न्यायदृष्टार्थः सामदानक्षमापरः |
1290 | 4021007c | गतो धर्मजितां भूमिं नैनं शोचितुमर्हसि |
1291 | 4021008a | सर्वे च हरिशार्दूल पुत्रश्चायं तवाङ्गदः |
1292 | 4021008c | हर्यृष्कपतिराज्यं च त्वत्सनाथमनिन्दिते |
1293 | 4021009a | ताविमौ शोकसंतप्तौ शनैः प्रेरय भामिनि |
1294 | 4021009c | त्वया परिगृहीतोऽयमङ्गदः शास्तु मेदिनीम् |
1295 | 4021010a | संततिश्च यथादृष्टा कृत्यं यच्चापि साम्प्रतम् |
1296 | 4021010c | राज्ञस्तत्क्रियतां सर्वमेष कालस्य निश्चयः |
1297 | 4021011a | संस्कार्यो हरिराजस्तु अङ्गदश्चाभिषिच्यताम् |
1298 | 4021011c | सिंहासनगतं पुत्रं पश्यन्ती शान्तिमेष्यसि |
1299 | 4021012a | सा तस्य वचनं श्रुत्वा भर्तृव्यसनपीडिता |
1300 | 4021012c | अब्रवीदुत्तरं तारा हनूमन्तमवस्थितम् |
1301 | 4021013a | अङ्गद प्रतिरूपाणां पुत्राणामेकतः शतम् |
1302 | 4021013c | हतस्याप्यस्य वीरस्य गात्रसंश्लेषणं वरम् |
1303 | 4021014a | न चाहं हरिराजस्य प्रभवाम्यङ्गदस्य वा |
1304 | 4021014c | पितृव्यस्तस्य सुग्रीवः सर्वकार्येष्वनन्तरः |
1305 | 4021015a | न ह्येषा बुद्धिरास्थेया हनूमन्नङ्गदं प्रति |
1306 | 4021015c | पिता हि बन्धुः पुत्रस्य न माता हरिसत्तम |
1307 | 4021016a | न हि मम हरिराजसंश्रया;त्क्षमतरमस्ति परत्र चेह वा |
1308 | 4021016c | अभिमुखहतवीरसेवितं; शयनमिदं मम सेवितुं क्षमम् |
1309 | 4022001a | वीक्षमाणस्तु मन्दासुः सर्वतो मन्दमुच्छ्वसन् |
1310 | 4022001c | आदावेव तु सुग्रीवं ददर्श त्वात्मजाग्रतः |
1311 | 4022002a | तं प्राप्तविजयं वाली सुग्रीवं प्लवगेश्वरम् |
1312 | 4022002c | आभाष्य व्यक्तया वाचा सस्नेहमिदमब्रवीत् |
1313 | 4022003a | सुग्रीवदोषेण न मां गन्तुमर्हसि किल्बिषात् |
1314 | 4022003c | कृष्यमाणं भविष्येण बुद्धिमोहेन मां बलात् |
1315 | 4022004a | युगपद्विहितं तात न मन्ये सुखमावयोः |
1316 | 4022004c | सौहार्दं भ्रातृयुक्तं हि तदिदं जातमन्यथा |
1317 | 4022005a | प्रतिपद्य त्वमद्यैव राज्यमेषां वनौकसाम् |
1318 | 4022005c | मामप्यद्यैव गच्छन्तं विद्धि वैवस्वतक्षयम् |
1319 | 4022006a | जीवितं च हि राज्यं च श्रियं च विपुलामिमाम् |
1320 | 4022006c | प्रजहाम्येष वै तूर्णं महच्चागर्हितं यशः |
1321 | 4022007a | अस्यां त्वहमवस्थायां वीर वक्ष्यामि यद्वचः |
1322 | 4022007c | यद्यप्यसुकरं राजन्कर्तुमेव तदर्हसि |
1323 | 4022008a | सुखार्हं सुखसंवृद्धं बालमेनमबालिशम् |
1324 | 4022008c | बाष्पपूर्णमुखं पश्य भूमौ पतितमङ्गदम् |
1325 | 4022009a | मम प्राणैः प्रियतरं पुत्रं पुत्रमिवौरसं |
1326 | 4022009c | मया हीनमहीनार्थं सर्वतः परिपालय |
1327 | 4022010a | त्वमप्यस्य हि दाता च परित्राता च सर्वतः |
1328 | 4022010c | भयेष्वभयदश्चैव यथाहं प्लवगेश्वर |
1329 | 4022011a | एष तारात्मजः श्रीमांस्त्वया तुल्यपराक्रमः |
1330 | 4022011c | रक्षसां तु वधे तेषामग्रतस्ते भविष्यति |
1331 | 4022012a | अनुरूपाणि कर्माणि विक्रम्य बलवान्रणे |
1332 | 4022012c | करिष्यत्येष तारेयस्तरस्वी तरुणोऽङ्गदः |
1333 | 4022013a | सुषेणदुहिता चेयमर्थसूक्ष्मविनिश्चये |
1334 | 4022013c | औत्पातिके च विविधे सर्वतः परिनिष्ठिता |
1335 | 4022014a | यदेषा साध्विति ब्रूयात्कार्यं तन्मुक्तसंशयम् |
1336 | 4022014c | न हि तारामतं किंचिदन्यथा परिवर्तते |
1337 | 4022015a | राघवस्य च ते कार्यं कर्तव्यमविशङ्कया |
1338 | 4022015c | स्यादधर्मो ह्यकरणे त्वां च हिंस्याद्विमानितः |
1339 | 4022016a | इमां च मालामाधत्स्व दिव्यां सुग्रीवकाञ्चनीम् |
1340 | 4022016c | उदारा श्रीः स्थिता ह्यस्यां संप्रजह्यान्मृते मयि |
1341 | 4022017a | इत्येवमुक्तः सुग्रीवो वालिना भ्रातृसौहृदात् |
1342 | 4022017c | हर्षं त्यक्त्वा पुनर्दीनो ग्रहग्रस्त इवोडुराट् |
1343 | 4022018a | तद्वालिवचनाच्छान्तः कुर्वन्युक्तमतन्द्रितः |
1344 | 4022018c | जग्राह सोऽभ्यनुज्ञातो मालां तां चैव काञ्चनीम् |
1345 | 4022019a | तां मालां काञ्चनीं दत्त्वा वाली दृष्ट्वात्मजं स्थितम् |
1346 | 4022019c | संसिद्धः प्रेत्य भावाय स्नेहादङ्गदमब्रवीत् |
1347 | 4022020a | देशकालौ भजस्वाद्य क्षममाणः प्रियाप्रिये |
1348 | 4022020c | सुखदुःखसहः काले सुग्रीववशगो भव |
1349 | 4022021a | यथा हि त्वं महाबाहो लालितः सततं मया |
1350 | 4022021c | न तथा वर्तमानं त्वां सुग्रीवो बहु मंस्यते |
1351 | 4022022a | मास्यामित्रैर्गतं गच्छेर्मा शत्रुभिररिंदम |
1352 | 4022022c | भर्तुरर्थपरो दान्तः सुग्रीववशगो भव |
1353 | 4022023a | न चातिप्रणयः कार्यः कर्तव्योऽप्रणयश्च ते |
1354 | 4022023c | उभयं हि महादोषं तस्मादन्तरदृग्भव |
1355 | 4022024a | इत्युक्त्वाथ विवृत्ताक्षः शरसंपीडितो भृशम् |
1356 | 4022024c | विवृतैर्दशनैर्भीमैर्बभूवोत्क्रान्तजीवितः |
1357 | 4022025a | हते तु वीरे प्लवगाधिपे तदा; प्लवंगमास्तत्र न शर्म लेभिरे |
1358 | 4022025c | वनेचराः सिंहयुते महावने; यथा हि गावो निहते गवां पतौ |
1359 | 4022026a | ततस्तु तारा व्यसनार्णव प्लुता; मृतस्या भर्तुर्वदनं समीक्ष्य सा |
1360 | 4022026c | जगाम भूमिं परिरभ्य वालिनं; महाद्रुमं छिन्नमिवाश्रिता लता |
1361 | 4023001a | ततः समुपजिघ्रन्ती कपिराजस्य तन्मुखम् |
1362 | 4023001c | पतिं लोकाच्च्युतं तारा मृतं वचनमब्रवीत् |
1363 | 4023002a | शेषे त्वं विषमे दुःखमकृत्वा वचनं मम |
1364 | 4023002c | उपलोपचिते वीर सुदुःखे वसुधातले |
1365 | 4023003a | मत्तः प्रियतरा नूनं वानरेन्द्र मही तव |
1366 | 4023003c | शेषे हि तां परिष्वज्य मां च न प्रतिभाषसे |
1367 | 4023004a | सुग्रीव एव विक्रान्तो वीर साहसिक प्रिय |
1368 | 4023004c | ऋक्षवानरमुख्यास्त्वां बलिनं पर्युपासते |
1369 | 4023005a | एषां विलपितं कृच्छ्रमङ्गदस्य च शोचतः |
1370 | 4023005c | मम चेमां गिरं श्रुत्वा किं त्वं न प्रतिबुध्यसे |
1371 | 4023006a | इदं तच्छूरशयनं यत्र शेषे हतो युधि |
1372 | 4023006c | शायिता निहता यत्र त्वयैव रिपवः पुरा |
1373 | 4023007a | विशुद्धसत्त्वाभिजन प्रिययुद्ध मम प्रिय |
1374 | 4023007c | मामनाथां विहायैकां गतस्त्वमसि मानद |
1375 | 4023008a | शूराय न प्रदातव्या कन्या खलु विपश्चिता |
1376 | 4023008c | शूरभार्यां हतां पश्य सद्यो मां विधवां कृताम् |
1377 | 4023009a | अवभग्नश्च मे मानो भग्ना मे शाश्वती गतिः |
1378 | 4023009c | अगाधे च निमग्नास्मि विपुले शोकसागरे |
1379 | 4023010a | अश्मसारमयं नूनमिदं मे हृदयं दृढम् |
1380 | 4023010c | भर्तारं निहतं दृष्ट्वा यन्नाद्य शतधा गतम् |
1381 | 4023011a | सुहृच्चैव हि भर्ता च प्रकृत्या च मम प्रियः |
1382 | 4023011c | आहवे च पराक्रान्तः शूरः पञ्चत्वमागतः |
1383 | 4023012a | पतिहीना तु या नारी कामं भवतु पुत्रिणी |
1384 | 4023012c | धनधान्यैः सुपूर्णापि विधवेत्युच्यते बुधैः |
1385 | 4023013a | स्वगात्रप्रभवे वीर शेषे रुधिरमण्डले |
1386 | 4023013c | कृमिरागपरिस्तोमे त्वमेवं शयने यथा |
1387 | 4023014a | रेणुशोणितसंवीतं गात्रं तव समन्ततः |
1388 | 4023014c | परिरब्धुं न शक्नोमि भुजाभ्यां प्लवगर्षभ |
1389 | 4023015a | कृतकृत्योऽद्य सुग्रीवो वैरेऽस्मिन्नतिदारुणे |
1390 | 4023015c | यस्य रामविमुक्तेन हृतमेकेषुणा भयम् |
1391 | 4023016a | शरेण हृदि लग्नेन गात्रसंस्पर्शने तव |
1392 | 4023016c | वार्यामि त्वां निरीक्षन्ती त्वयि पञ्चत्वमागते |
1393 | 4023017a | उद्बबर्ह शरं नीलस्तस्य गात्रगतं तदा |
1394 | 4023017c | गिरिगह्वरसंलीनं दीप्तमाशीविषं यथा |
1395 | 4023018a | तस्य निष्कृष्यमाणस्य बाणस्य च बभौ द्युतिः |
1396 | 4023018c | अस्तमस्तकसंरुद्धो रश्मिर्दिनकरादिव |
1397 | 4023019a | पेतुः क्षतजधारास्तु व्रणेभ्यस्तस्य सर्वशः |
1398 | 4023019c | ताम्रगैरिकसंपृक्ता धारा इव धराधरात् |
1399 | 4023020a | अवकीर्णं विमार्जन्ती भर्तारं रणरेणुना |
1400 | 4023020c | अस्रैर्नयनजैः शूरं सिषेचास्त्रसमाहतम् |
1401 | 4023021a | रुधिरोक्षितसर्वाङ्गं दृष्ट्वा विनिहतं पतिम् |
1402 | 4023021c | उवाच तारा पिङ्गाक्षं पुत्रमङ्गदमङ्गना |
1403 | 4023022a | अवस्थां पश्चिमां पश्य पितुः पुत्र सुदारुणाम् |
1404 | 4023022c | संप्रसक्तस्य वैरस्य गतोऽन्तः पापकर्मणा |
1405 | 4023023a | बालसूर्योदयतनुं प्रयान्तं यमसादनम् |
1406 | 4023023c | अभिवादय राजानं पितरं पुत्र मानदम् |
1407 | 4023024a | एवमुक्तः समुत्थाय जग्राह चरणौ पितुः |
1408 | 4023024c | भुजाभ्यां पीनवृताभ्यामङ्गदोऽहमिति ब्रुवन् |
1409 | 4023025a | अभिवादयमानं त्वामङ्गदं त्वं यथापुरा |
1410 | 4023025c | दीर्घायुर्भव पुत्रेति किमर्थं नाभिभाषसे |
1411 | 4023026a | अहं पुत्रसहाया त्वामुपासे गतचेतनम् |
1412 | 4023026c | सिंहेन निहतं सद्यो गौः सवत्सेव गोवृषम् |
1413 | 4023027a | इष्ट्वा संग्रामयज्ञेन नानाप्रहरणाम्भसा |
1414 | 4023027c | अस्मिन्नवभृथे स्नातः कथं पत्न्या मया विना |
1415 | 4023028a | या दत्ता देवराजेन तव तुष्टेन संयुगे |
1416 | 4023028c | शातकुम्भमयीं मालां तां ते पश्यामि नेह किम् |
1417 | 4023029a | राजश्रीर्न जहाति त्वां गतासुमपि मानद |
1418 | 4023029c | सूर्यस्यावर्तमानस्य शैलराजमिव प्रभा |
1419 | 4023030a | न मे वचः पथ्यमिदं त्वया कृतं; न चास्मि शक्ता हि निवारणे तव |
1420 | 4023030c | हता सपुत्रास्मि हतेन संयुगे; सह त्वया श्रीर्विजहाति मामिह |
1421 | 4024001a | गतासुं वालिनं दृष्ट्वा राघवस्तदनन्तरम् |
1422 | 4024001c | अब्रवीत्प्रश्रितं वाक्यं सुग्रीवं शत्रुतापनः |
1423 | 4024002a | न शोकपरितापेन श्रेयसा युज्यते मृतः |
1424 | 4024002c | यदत्रानन्तरं कार्यं तत्समाधातुमर्हथ |
1425 | 4024003a | लोकवृत्तमनुष्ठेयं कृतं वो बाष्पमोक्षणम् |
1426 | 4024003c | न कालादुत्तरं किंचित्कर्म शक्यमुपासितुम् |
1427 | 4024004a | नियतः कारणं लोके नियतिः कर्मसाधनम् |
1428 | 4024004c | नियतिः सर्वभूतानां नियोगेष्विह कारणम् |
1429 | 4024005a | न कर्ता कस्यचित्कश्चिन्नियोगे चापि नेश्वरः |
1430 | 4024005c | स्वभावे वर्तते लोकस्तस्य कालः परायणम् |
1431 | 4024006a | न कालः कालमत्येति न कालः परिहीयते |
1432 | 4024006c | स्वभावं वा समासाद्य न कश्चिदतिवर्तते |
1433 | 4024007a | न कालस्यास्ति बन्धुत्वं न हेतुर्न पराक्रमः |
1434 | 4024007c | न मित्रज्ञातिसंबन्धः कारणं नात्मनो वशः |
1435 | 4024008a | किं तु काल परीणामो द्रष्टव्यः साधु पश्यता |
1436 | 4024008c | धर्मश्चार्थश्च कामश्च कालक्रमसमाहिताः |
1437 | 4024009a | इतः स्वां प्रकृतिं वाली गतः प्राप्तः क्रियाफलम् |
1438 | 4024009c | धर्मार्थकामसंयोगैः पवित्रं प्लवगेश्वर |
1439 | 4024010a | स्वधर्मस्य च संयोगाज्जितस्तेन महात्मना |
1440 | 4024010c | स्वर्गः परिगृहीतश्च प्राणानपरिरक्षता |
1441 | 4024011a | एषा वै नियतिः श्रेष्ठा यां गतो हरियूथपः |
1442 | 4024011c | तदलं परितापेन प्राप्तकालमुपास्यताम् |
1443 | 4024012a | वचनान्ते तु रामस्य लक्ष्मणः परवीरहा |
1444 | 4024012c | अवदत्प्रश्रितं वाक्यं सुग्रीवं गतचेतसं |
1445 | 4024013a | कुरु त्वमस्य सुग्रीव प्रेतकार्यमनन्तरम् |
1446 | 4024013c | ताराङ्गदाभ्यां सहितो वालिनो दहनं प्रति |
1447 | 4024014a | समाज्ञापय काष्ठानि शुष्काणि च बहूनि च |
1448 | 4024014c | चन्दनानि च दिव्यानि वालिसंस्कारकारणात् |
1449 | 4024015a | समाश्वासय चैनं त्वमङ्गदं दीनचेतसं |
1450 | 4024015c | मा भूर्बालिशबुद्धिस्त्वं त्वदधीनमिदं पुरम् |
1451 | 4024016a | अङ्गदस्त्वानयेन्माल्यं वस्त्राणि विविधानि च |
1452 | 4024016c | घृतं तैलमथो गन्धान्यच्चात्र समनन्तरम् |
1453 | 4024017a | त्वं तार शिबिकां शीघ्रमादायागच्छ संभ्रमात् |
1454 | 4024017c | त्वरा गुणवती युक्ता ह्यस्मिन्काले विशेषतः |
1455 | 4024018a | सज्जीभवन्तु प्लवगाः शिबिकावाहनोचिताः |
1456 | 4024018c | समर्था बलिनश्चैव निर्हरिष्यन्ति वालिनम् |
1457 | 4024019a | एवमुक्त्वा तु सुग्रीवं सुमित्रानन्दवर्धनः |
1458 | 4024019c | तस्थौ भ्रातृसमीपस्थो लक्ष्मणः परवीरहा |
1459 | 4024020a | लक्ष्मणस्य वचः श्रुत्वा तारः संभ्रान्तमानसः |
1460 | 4024020c | प्रविवेश गुहां शीघ्रं शिबिकासक्तमानसः |
1461 | 4024021a | आदाय शिबिकां तारः स तु पर्यापयत्पुनः |
1462 | 4024021c | वानरैरुह्यमानां तां शूरैरुद्वहनोचितैः |
1463 | 4024022a | ततो वालिनमुद्यम्य सुग्रीवः शिबिकां तदा |
1464 | 4024022c | आरोपयत विक्रोशन्नङ्गदेन सहैव तु |
1465 | 4024023a | आरोप्य शिबिकां चैव वालिनं गतजीवितम् |
1466 | 4024023c | अलंकारैश्च विविधैर्माल्यैर्वस्त्रैश्च भूषितम् |
1467 | 4024024a | आज्ञापयत्तदा राजा सुग्रीवः प्लवगेश्वरः |
1468 | 4024024c | और्ध्वदेहिकमार्यस्य क्रियतामनुरूपतः |
1469 | 4024025a | विश्राणयन्तो रत्नानि विविधानि बहूनि च |
1470 | 4024025c | अग्रतः प्लवगा यान्तु शिबिका तदनन्तरम् |
1471 | 4024026a | राज्ञामृद्धिविशेषा हि दृश्यन्ते भुवि यादृशाः |
1472 | 4024026c | तादृशं वालिनः क्षिप्रं प्राकुर्वन्नौर्ध्वदेहिकम् |
1473 | 4024027a | अङ्गदमप्रिगृह्याशु तारप्रभृतयस्तथा |
1474 | 4024027c | क्रोशन्तः प्रययुः सर्वे वानरा हतबान्धवाः |
1475 | 4024028a | ताराप्रभृतयः सर्वा वानर्यो हतयूथपाः |
1476 | 4024028c | अनुजग्मुर्हि भर्तारं क्रोशन्त्यः करुणस्वनाः |
1477 | 4024029a | तासां रुदितशब्देन वानरीणां वनान्तरे |
1478 | 4024029c | वनानि गिरयः सर्वे विक्रोशन्तीव सर्वतः |
1479 | 4024030a | पुलिने गिरिनद्यास्तु विविक्ते जलसंवृते |
1480 | 4024030c | चितां चक्रुः सुबहवो वानरा वनचारिणः |
1481 | 4024031a | अवरोप्य ततः स्कन्धाच्छिबिकां वहनोचिताः |
1482 | 4024031c | तस्थुरेकान्तमाश्रित्य सर्वे शोकसमन्विताः |
1483 | 4024032a | ततस्तारा पतिं दृष्ट्वा शिबिकातलशायिनम् |
1484 | 4024032c | आरोप्याङ्के शिरस्तस्य विललाप सुदुःखिता |
1485 | 4024033a | जनं च पश्यसीमं त्वं कस्माच्छोकाभिपीडितम् |
1486 | 4024033c | प्रहृष्टमिव ते वक्त्रं गतासोरपि मानद |
1487 | 4024033e | अस्तार्कसमवर्णं च लक्ष्यते जीवतो यथा |
1488 | 4024034a | एष त्वां रामरूपेण कालः कर्षति वानर |
1489 | 4024034c | येन स्म विधवाः सर्वाः कृता एकेषुणा रणे |
1490 | 4024035a | इमास्तास्तव राजेन्द्रवानर्यो वल्लभाः सदा |
1491 | 4024035c | पादैर्विकृष्टमध्वानमागताः किं न बुध्यसे |
1492 | 4024036a | तवेष्टा ननु नामैता भार्याश्चन्द्रनिभाननाः |
1493 | 4024036c | इदानीं नेक्षसे कस्मात्सुग्रीवं प्लवगेश्वरम् |
1494 | 4024037a | एते हि सचिवा राजंस्तारप्रभृतयस्तव |
1495 | 4024037c | पुरवासिजनश्चायं परिवार्यासतेऽनघ |
1496 | 4024038a | विसर्जयैनान्प्रवलान्यथोचितमरिंदम |
1497 | 4024038c | ततः क्रीडामहे सर्वा वनेषु मदिरोत्कटाः |
1498 | 4024039a | एवं विलपतीं तारां पतिशोकपरिप्लुताम् |
1499 | 4024039c | उत्थापयन्ति स्म तदा वानर्यः शोककर्शिताः |
1500 | 4024040a | सुग्रीवेण ततः सार्धमङ्गदः पितरं रुदन् |
1501 | 4024040c | चितामारोपयामास शोकेनाभिहतेन्द्रियः |
1502 | 4024041a | ततोऽग्निं विधिवद्दत्त्वा सोऽपसव्यं चकार ह |
1503 | 4024041c | पितरं दीर्घमध्वानं प्रस्थितं व्याकुलेन्द्रियः |
1504 | 4024042a | संस्कृत्य वालिनं ते तु विधिपूर्वं प्लवंगमाः |
1505 | 4024042c | आजग्मुरुदकं कर्तुं नदीं शीतजलां शुभाम् |
1506 | 4024043a | ततस्ते सहितास्तत्र अङ्गदं स्थाप्य चाग्रतः |
1507 | 4024043c | सुग्रीवतारासहिताः सिषिचुर्वालिने जलम् |
1508 | 4024044a | सुग्रीवेणैव दीनेन दीनो भूत्वा महाबलः |
1509 | 4024044c | समानशोकः काकुत्स्थः प्रेतकार्याण्यकारयत् |
1510 | 4025001a | ततः शोकाभिसंतप्तं सुग्रीवं क्लिन्नवासनम् |
1511 | 4025001c | शाखामृगमहामात्राः परिवार्योपतस्थिरे |
1512 | 4025002a | अभिगम्य महाबाहुं राममक्लिष्टकारिणम् |
1513 | 4025002c | स्थिताः प्राञ्जलयः सर्वे पितामहमिवर्षयः |
1514 | 4025003a | ततः काञ्चनशैलाभस्तरुणार्कनिभाननः |
1515 | 4025003c | अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं हनुमान्मारुतात्मजः |
1516 | 4025004a | भवत्प्रसादात्सुग्रीवः पितृपैतामहं महत् |
1517 | 4025004c | वानराणां सुदुष्प्रापं प्राप्तो राज्यमिदं प्रभो |
1518 | 4025005a | भवता समनुज्ञातः प्रविश्य नगरं शुभम् |
1519 | 4025005c | संविधास्यति कार्याणि सर्वाणि ससुहृज्जनः |
1520 | 4025006a | स्नातोऽयं विविधैर्गन्धैरौषधैश्च यथाविधि |
1521 | 4025006c | अर्चयिष्यति रत्नैश्च माल्यैश्च त्वां विशेषतः |
1522 | 4025007a | इमां गिरिगुहां रम्यामभिगन्तुमितोऽर्हसि |
1523 | 4025007c | कुरुष्व स्वामि संबन्धं वानरान्संप्रहर्षयन् |
1524 | 4025008a | एवमुक्तो हनुमता राघवः परवीरहा |
1525 | 4025008c | प्रत्युवाच हनूमन्तं बुद्धिमान्वाक्यकोविदः |
1526 | 4025009a | चतुर्दशसमाः सौम्य ग्रामं वा यदि वा पुरम् |
1527 | 4025009c | न प्रवेक्ष्यामि हनुमन्पितुर्निर्देशपालकः |
1528 | 4025010a | सुसमृद्धां गुहां दिव्यां सुग्रीवो वानरर्षभः |
1529 | 4025010c | प्रविष्टो विधिवद्वीरः क्षिप्रं राज्येऽभिषिच्यताम् |
1530 | 4025011a | एवमुक्त्वा हनूमन्तं रामः सुग्रीवमब्रवीत् |
1531 | 4025011c | इममप्यङ्गदं वीर यौवराज्येऽभिषेचय |
1532 | 4025012a | पूर्वोऽयं वार्षिको मासः श्रावणः सलिलागमः |
1533 | 4025012c | प्रवृत्ताः सौम्य चत्वारो मासा वार्षिकसंज्ञिताः |
1534 | 4025013a | नायमुद्योगसमयः प्रविश त्वं पुरीं शुभाम् |
1535 | 4025013c | अस्मिन्वत्स्याम्यहं सौम्य पर्वते सहलक्ष्मणः |
1536 | 4025014a | इयं गिरिगुहा रम्या विशाला युक्तमारुता |
1537 | 4025014c | प्रभूतसलिला सौम्य प्रभूतकमलोत्पला |
1538 | 4025015a | कार्तिके समनुप्राप्ते त्वं रावणवधे यत |
1539 | 4025015c | एष नः समयः सौम्य प्रविश त्वं स्वमालयम् |
1540 | 4025015e | अभिषिञ्चस्व राज्ये च सुहृदः संप्रहर्षय |
1541 | 4025016a | इति रामाभ्यनुज्ञातः सुग्रीवो वानरर्षभः |
1542 | 4025016c | प्रविवेश पुरीं रम्यां किष्किन्धां वालिपालिताम् |
1543 | 4025017a | तं वानरसहस्राणि प्रविष्टं वानरेश्वरम् |
1544 | 4025017c | अभिवाद्य प्रहृष्टानि सर्वतः पर्यवारयन् |
1545 | 4025018a | ततः प्रकृतयः सर्वा दृष्ट्वा हरिगणेश्वरम् |
1546 | 4025018c | प्रणम्य मूर्ध्ना पतिता वसुधायां समाहिताः |
1547 | 4025019a | सुग्रीवः प्रकृतीः सर्वाः संभाष्योत्थाप्य वीर्यवान् |
1548 | 4025019c | भ्रातुरन्तःपुरं सौम्यं प्रविवेश महाबलः |
1549 | 4025020a | प्रविश्य त्वभिनिष्क्रान्तं सुग्रीवं वानरर्षभम् |
1550 | 4025020c | अभ्यषिञ्चन्त सुहृदः सहस्राक्षमिवामराः |
1551 | 4025021a | तस्य पाण्डुरमाजह्रुश्छत्रं हेमपरिष्कृतम् |
1552 | 4025021c | शुक्ले च बालव्यजने हेमदण्डे यशस्करे |
1553 | 4025022a | तथा सर्वाणि रत्नानि सर्वबीजौषधानि च |
1554 | 4025022c | सक्षीराणां च वृक्षाणां प्ररोहान्कुसुमानि च |
1555 | 4025023a | शुक्लानि चैव वस्त्राणि श्वेतं चैवानुलेपनम् |
1556 | 4025023c | सुगन्धीनि च माल्यानि स्थलजान्यम्बुजानि च |
1557 | 4025024a | चन्दनानि च दिव्यानि गन्धांश्च विविधान्बहून् |
1558 | 4025024c | अक्षतं जातरूपं च प्रियङ्गुमधुसर्पिषी |
1559 | 4025025a | दधिचर्म च वैयाघ्रं वाराही चाप्युपानहौ |
1560 | 4025025c | समालम्भनमादाय रोचनां समनःशिलाम् |
1561 | 4025025e | आजग्मुस्तत्र मुदिता वराः कन्यास्तु षोडश |
1562 | 4025026a | ततस्ते वानरश्रेष्ठं यथाकालं यथाविधि |
1563 | 4025026c | रत्नैर्वस्त्रैश्च भक्ष्यैश्च तोषयित्वा द्विजर्षभान् |
1564 | 4025027a | ततः कुशपरिस्तीर्णं समिद्धं जातवेदसं |
1565 | 4025027c | मन्त्रपूतेन हविषा हुत्वा मन्त्रविदो जनाः |
1566 | 4025028a | ततो हेमप्रतिष्ठाने वरास्तरणसंवृते |
1567 | 4025028c | प्रासादशिखरे रम्ये चित्रमाल्योपशोभिते |
1568 | 4025029a | प्राङ्मुखं विविधैर्मन्त्रैः स्थापयित्वा वरासने |
1569 | 4025029c | नदीनदेभ्यः संहृत्य तीर्थेभ्यश्च समन्ततः |
1570 | 4025030a | आहृत्य च समुद्रेभ्यः सर्वेभ्यो वानरर्षभाः |
1571 | 4025030c | अपः कनककुम्भेषु निधाय विमलाः शुभाः |
1572 | 4025031a | शुभैर्वृषभशृङ्गैश्च कलशैश्चापि काञ्चनैः |
1573 | 4025031c | शास्त्रदृष्टेन विधिना महर्षिविहितेन च |
1574 | 4025032a | गजो गवाक्षो गवयः शरभो गन्धमादनः |
1575 | 4025032c | मैन्दश्च द्विविदश्चैव हनूमाञ्जाम्बवान्नलः |
1576 | 4025033a | अभ्यषिञ्चन्त सुग्रीवं प्रसन्नेन सुगन्धिना |
1577 | 4025033c | सलिलेन सहस्राक्षं वसवो वासवं यथा |
1578 | 4025034a | अभिषिक्ते तु सुग्रीवे सर्वे वानरपुंगवाः |
1579 | 4025034c | प्रचुक्रुशुर्महात्मानो हृष्टास्तत्र सहस्रशः |
1580 | 4025035a | रामस्य तु वचः कुर्वन्सुग्रीवो हरिपुंगवः |
1581 | 4025035c | अङ्गदं संपरिष्वज्य यौवराज्येऽभिषेचयत् |
1582 | 4025036a | अङ्गदे चाभिषिक्ते तु सानुक्रोशाः प्लवंगमाः |
1583 | 4025036c | साधु साध्विति सुग्रीवं महात्मानोऽभ्यपूजयन् |
1584 | 4025037a | हृष्टपुष्टजनाकीर्णा पताकाध्वजशोभिता |
1585 | 4025037c | बभूव नगरी रम्या क्षिकिन्धा गिरिगह्वरे |
1586 | 4025038a | निवेद्य रामाय तदा महात्मने; महाभिषेकं कपिवाहिनीपतिः |
1587 | 4025038c | रुमां च भार्यां प्रतिलभ्य वीर्यवा;नवाप राज्यं त्रिदशाधिपो यथा |
1588 | 4026001a | अभिषिक्ते तु सुग्रीवे प्रविष्टे वानरे गुहाम् |
1589 | 4026001c | आजगाम सह भ्रात्रा रामः प्रस्रवणं गिरिम् |
1590 | 4026002a | शार्दूलमृगसंघुष्टं सिंहैर्भीमरवैर्वृतम् |
1591 | 4026002c | नानागुल्मलतागूढं बहुपादपसंकुलम् |
1592 | 4026003a | ऋक्षवानरगोपुच्छैर्मार्जारैश्च निषेवितम् |
1593 | 4026003c | मेघराशिनिभं शैलं नित्यं शुचिजलाश्रयम् |
1594 | 4026004a | तस्य शैलस्य शिखरे महतीमायतां गुहाम् |
1595 | 4026004c | प्रत्यगृह्णत वासार्थं रामः सौमित्रिणा सह |
1596 | 4026005a | अवसत्तत्र धर्मात्मा राघवः सहलक्ष्मणः |
1597 | 4026005c | बहुदृश्यदरीकुञ्जे तस्मिन्प्रस्रवणे गिरौ |
1598 | 4026006a | सुसुखेऽपि बहुद्रव्ये तस्मिन्हि धरणीधरे |
1599 | 4026006c | वसतस्तस्य रामस्य रतिरल्पापि नाभवत् |
1600 | 4026006e | हृतां हि भार्यां स्मरतः प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम् |
1601 | 4026007a | उदयाभ्युदितं दृष्ट्वा शशाङ्कं च विशेषतः |
1602 | 4026007c | आविवेश न तं निद्रा निशासु शयनं गतम् |
1603 | 4026008a | तत्समुत्थेन शोकेन बाष्पोपहतचेतसं |
1604 | 4026008c | तं शोचमानं काकुत्स्थं नित्यं शोकपरायणम् |
1605 | 4026008e | तुल्यदुःखोऽब्रवीद्भ्राता लक्ष्मणोऽनुनयन्वचः |
1606 | 4026009a | अलं वीर व्यथां गत्वा न त्वं शोचितुमर्हसि |
1607 | 4026009c | शोचतो ह्यवसीदन्ति सर्वार्था विदितं हि ते |
1608 | 4026010a | भवान्क्रियापरो लोके भवान्देवपरायणः |
1609 | 4026010c | आस्तिको धर्मशीलश्च व्यवसायी च राघव |
1610 | 4026011a | न ह्यव्यवसितः शत्रुं राक्षसं तं विशेषतः |
1611 | 4026011c | समर्थस्त्वं रणे हन्तुं विक्रमैर्जिह्मकारिणम् |
1612 | 4026012a | समुन्मूलय शोकं त्वं व्यवसायं स्थिरं कुरु |
1613 | 4026012c | ततः सपरिवारं तं निर्मूलं कुरु राक्षसं |
1614 | 4026013a | पृथिवीमपि काकुत्स्थ ससागरवनाचलाम् |
1615 | 4026013c | परिवर्तयितुं शक्तः किमङ्ग पुन रावणम् |
1616 | 4026014a | अहं तु खलु ते वीर्यं प्रसुप्तं प्रतिबोधये |
1617 | 4026014c | दीप्तैराहुतिभिः काले भस्मच्छन्नमिवानलम् |
1618 | 4026015a | लक्ष्मणस्य तु तद्वाक्यं प्रतिपूज्य हितं शुभम् |
1619 | 4026015c | राघवः सुहृदं स्निग्धमिदं वचनमब्रवीत् |
1620 | 4026016a | वाच्यं यदनुरक्तेन स्निग्धेन च हितेन च |
1621 | 4026016c | सत्यविक्रम युक्तेन तदुक्तं लक्ष्मण त्वया |
1622 | 4026017a | एष शोकः परित्यक्तः सर्वकार्यावसादकः |
1623 | 4026017c | विक्रमेष्वप्रतिहतं तेजः प्रोत्साहयाम्यहम् |
1624 | 4026018a | शरत्कालं प्रतीक्षेऽहमियं प्रावृडुपस्थिता |
1625 | 4026018c | ततः सराष्ट्रं सगणं राक्षसं तं निहन्म्यहम् |
1626 | 4026019a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा हृष्टो रामस्य लक्ष्मणः |
1627 | 4026019c | पुनरेवाब्रवीद्वाक्यं सौमित्रिर्मित्रनन्दनः |
1628 | 4026020a | एतत्ते सदृशं वाक्यमुक्तं शत्रुनिबर्हण |
1629 | 4026020c | इदानीमसि काकुत्स्थ प्रकृतिं स्वामुपागतः |
1630 | 4026021a | विज्ञाय ह्यात्मनो वीर्यं तथ्यं भवितुमर्हसि |
1631 | 4026021c | एतत्सदृशमुक्तं ते श्रुतस्याभिजनस्य च |
1632 | 4026022a | तस्मात्पुरुषशार्दूल चिन्तयञ्शत्रुनिग्रहम् |
1633 | 4026022c | वर्षारात्रमनुप्राप्तमतिक्रामय राघव |
1634 | 4026023a | नियम्य कोपं प्रतिपाल्यतां शर;त्क्षमस्व मासांश्चतुरो मया सह |
1635 | 4026023c | वसाचलेऽस्मिन्मृगराजसेविते; संवर्धयञ्शत्रुवधे समुद्यतः |
1636 | 4027001a | स तदा वालिनं हत्वा सुग्रीवमभिषिच्य च |
1637 | 4027001c | वसन्माल्यवतः पृष्टे रामो लक्ष्मणमब्रवीत् |
1638 | 4027002a | अयं स कालः संप्राप्तः समयोऽद्य जलागमः |
1639 | 4027002c | संपश्य त्वं नभो मेघैः संवृतं गिरिसंनिभैः |
1640 | 4027003a | नव मास धृतं गर्भं भास्कारस्य गभस्तिभिः |
1641 | 4027003c | पीत्वा रसं समुद्राणां द्यौः प्रसूते रसायनम् |
1642 | 4027004a | शक्यमम्बरमारुह्य मेघसोपानपङ्क्तिभिः |
1643 | 4027004c | कुटजार्जुनमालाभिरलंकर्तुं दिवाकरम् |
1644 | 4027005a | संध्यारागोत्थितैस्ताम्रैरन्तेष्वधिकपाण्डुरैः |
1645 | 4027005c | स्निग्धैरभ्रपटच्छदैर्बद्धव्रणमिवाम्बरम् |
1646 | 4027006a | मन्दमारुतनिःश्वासं संध्याचन्दनरञ्जितम् |
1647 | 4027006c | आपाण्डुजलदं भाति कामातुरमिवाम्बरम् |
1648 | 4027007a | एषा धर्मपरिक्लिष्टा नववारिपरिप्लुता |
1649 | 4027007c | सीतेव शोकसंतप्ता मही बाष्पं विमुञ्चति |
1650 | 4027008a | मेघोदरविनिर्मुक्ताः कह्लारसुखशीतलाः |
1651 | 4027008c | शक्यमञ्जलिभिः पातुं वाताः केतकिगन्धिनः |
1652 | 4027009a | एष फुल्लार्जुनः शैलः केतकैरधिवासितः |
1653 | 4027009c | सुग्रीव इव शान्तारिर्धाराभिरभिषिच्यते |
1654 | 4027010a | मेघकृष्णाजिनधरा धारायज्ञोपवीतिनः |
1655 | 4027010c | मारुतापूरितगुहाः प्राधीता इव पर्वताः |
1656 | 4027011a | कशाभिरिव हैमीभिर्विद्युद्भिरिव ताडितम् |
1657 | 4027011c | अन्तःस्तनितनिर्घोषं सवेदनमिवाम्बरम् |
1658 | 4027012a | नीलमेघाश्रिता विद्युत्स्फुरन्ती प्रतिभाति मे |
1659 | 4027012c | स्फुरन्ती रावणस्याङ्के वैदेहीव तपस्विनी |
1660 | 4027013a | इमास्ता मन्मथवतां हिताः प्रतिहता दिशः |
1661 | 4027013c | अनुलिप्ता इव घनैर्नष्टग्रहनिशाकराः |
1662 | 4027014a | क्वचिद्बाष्पाभिसंरुद्धान्वर्षागमसमुत्सुकान् |
1663 | 4027014c | कुटजान्पश्य सौमित्रे पुष्टितान्गिरिसानुषु |
1664 | 4027014e | मम शोकाभिभूतस्य कामसंदीपनान्स्थितान् |
1665 | 4027015a | रजः प्रशान्तं सहिमोऽद्य वायु;र्निदाघदोषप्रसराः प्रशान्ताः |
1666 | 4027015c | स्थिता हि यात्रा वसुधाधिपानां; प्रवासिनो यान्ति नराः स्वदेशान् |
1667 | 4027016a | संप्रस्थिता मानसवासलुब्धाः; प्रियान्विताः संप्रति चक्रवाकः |
1668 | 4027016c | अभीक्ष्णवर्षोदकविक्षतेषु; यानानि मार्गेषु न संपतन्ति |
1669 | 4027017a | क्वचित्प्रकाशं क्वचिदप्रकाशं; नभः प्रकीर्णाम्बुधरं विभाति |
1670 | 4027017c | क्वचित्क्वचित्पर्वतसंनिरुद्धं; रूपं यथा शान्तमहार्णवस्य |
1671 | 4027018a | व्यामिश्रितं सर्जकदम्बपुष्पै;र्नवं जलं पर्वतधातुताम्रम् |
1672 | 4027018c | मयूरकेकाभिरनुप्रयातं; शैलापगाः शीघ्रतरं वहन्ति |
1673 | 4027019a | रसाकुलं षट्पदसंनिकाशं; प्रभुज्यते जम्बुफलं प्रकामम् |
1674 | 4027019c | अनेकवर्णं पवनावधूतं; भूमौ पतत्याम्रफलं विपक्वम् |
1675 | 4027020a | विद्युत्पताकाः सबलाक मालाः; शैलेन्द्रकूटाकृतिसंनिकाशाः |
1676 | 4027020c | गर्जन्ति मेघाः समुदीर्णनादा; मत्तगजेन्द्रा इव संयुगस्थः |
1677 | 4027021a | मेघाभिकामी परिसंपतन्ती; संमोदिता भाति बलाकपङ्क्तिः |
1678 | 4027021c | वातावधूता वरपौण्डरीकी; लम्बेव माला रचिताम्बरस्य |
1679 | 4027022a | निद्रा शनैः केशवमभ्युपैति; द्रुतं नदी सागरमभ्युपैति |
1680 | 4027022c | हृष्टा बलाका घनमभ्युपैति; कान्ता सकामा प्रियमभ्युपैति |
1681 | 4027023a | जाता वनान्ताः शिखिसुप्रनृत्ता; जाताः कदम्बाः सकदम्बशाखाः |
1682 | 4027023c | जाता वृषा गोषु समानकामा; जाता मही सस्यवनाभिरामा |
1683 | 4027024a | वहन्ति वर्षन्ति नदन्ति भान्ति; ध्यायन्ति नृत्यन्ति समाश्वसन्ति |
1684 | 4027024c | नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः; प्रियाविनीहाः शिखिनः प्लवंगाः |
1685 | 4027025a | प्रहर्षिताः केतकपुष्पगन्ध;माघ्राय हृष्टा वननिर्झरेषु |
1686 | 4027025c | प्रपात शब्दाकुलिता गजेन्द्राः; सार्धं मयूरैः समदा नदन्ति |
1687 | 4027026a | धारानिपातैरभिहन्यमानाः; कदम्बशाखासु विलम्बमानाः |
1688 | 4027026c | क्षणार्जितं पुष्परसावगाढं; शनैर्मदं षट्चरणास्त्यजन्ति |
1689 | 4027027a | अङ्गारचूर्णोत्करसंनिकाशैः; फलैः सुपर्याप्त रसैः समृद्धैः |
1690 | 4027027c | जम्बूद्रुमाणां प्रविभान्ति शाखा; निलीयमाना इव षट्पदौघैः |
1691 | 4027028a | तडित्पताकाभिरलंकृताना;मुदीर्णगम्भीरमहारवाणाम् |
1692 | 4027028c | विभान्ति रूपाणि बलाहकानां; रणोद्यतानामिव वारणानाम् |
1693 | 4027029a | मार्गानुगः शैलवनानुसारी; संप्रस्थितो मेघरवं निशम्य |
1694 | 4027029c | युद्धाभिकामः प्रतिनागशङ्की; मत्तो गजेन्द्रः प्रतिसंनिवृत्तः |
1695 | 4027030a | मुक्तासकाशं सलिलं पतद्वै; सुनिर्मलं पत्रपुटेषु लग्नम् |
1696 | 4027030c | हृष्टा विवर्णच्छदना विहंगाः; सुरेन्द्रदत्तं तृषिताः पिबन्ति |
1697 | 4027031a | नीलेषु नीला नववारिपूर्णा; मेघेषु मेघाः प्रविभान्ति सक्ताः |
1698 | 4027031c | दवाग्निदग्धेषु दवाग्निदग्धाः; शैलेषु शैला इव बद्धमूलाः |
1699 | 4027032a | मत्ता गजेन्द्रा मुदिता गवेन्द्रा; वनेषु विश्रान्ततरा मृगेन्द्राः |
1700 | 4027032c | रम्या नगेन्द्रा निभृता नगेन्द्राः; प्रक्रीडितो वारिधरैः सुरेन्द्रः |
1701 | 4027033a | वृत्ता यात्रा नरेन्द्राणां सेना प्रतिनिवर्तते |
1702 | 4027033c | वैराणि चैव मार्गाश्च सलिलेन समीकृताः |
1703 | 4027034a | मासि प्रौष्ठपदे ब्रह्म ब्राह्मणानां विवक्षताम् |
1704 | 4027034c | अयमध्यायसमयः सामगानामुपस्थितः |
1705 | 4027035a | निवृत्तकर्मायतनो नूनं संचितसंचयः |
1706 | 4027035c | आषाढीमभ्युपगतो भरतः कोषकाधिपः |
1707 | 4027036a | नूनमापूर्यमाणायाः सरय्वा वधते रयः |
1708 | 4027036c | मां समीक्ष्य समायान्तमयोध्याया इव स्वनः |
1709 | 4027037a | इमाः स्फीतगुणा वर्षाः सुग्रीवः सुखमश्नुते |
1710 | 4027037c | विजितारिः सदारश्च राज्ये महति च स्थितः |
1711 | 4027038a | अहं तु हृतदारश्च राज्याच्च महतश्च्युतः |
1712 | 4027038c | नदीकूलमिव क्लिन्नमवसीदामि लक्ष्मण |
1713 | 4027039a | शोकश्च मम विस्तीर्णो वर्षाश्च भृशदुर्गमाः |
1714 | 4027039c | रावणश्च महाञ्शत्रुरपारं प्रतिभाति मे |
1715 | 4027040a | अयात्रां चैव दृष्ट्वेमां मार्गांश्च भृशदुर्गमान् |
1716 | 4027040c | प्रणते चैव सुग्रीवे न मया किंचिदीरितम् |
1717 | 4027041a | अपि चातिपरिक्लिष्टं चिराद्दारैः समागतम् |
1718 | 4027041c | आत्मकार्यगरीयस्त्वाद्वक्तुं नेच्छामि वानरम् |
1719 | 4027042a | स्वयमेव हि विश्रम्य ज्ञात्वा कालमुपागतम् |
1720 | 4027042c | उपकारं च सुग्रीवो वेत्स्यते नात्र संशयः |
1721 | 4027043a | तस्मात्कालप्रतीक्षोऽहं स्थितोऽस्मि शुभलक्षण |
1722 | 4027043c | सुग्रीवस्य नदीनां च प्रसादमनुपालयन् |
1723 | 4027044a | उपकारेण वीरो हि प्रतिकारेण युज्यते |
1724 | 4027044c | अकृतज्ञोऽप्रतिकृतो हन्ति सत्त्ववतां मनः |
1725 | 4027045a | अथैवमुक्तः प्रणिधाय लक्ष्मणः; कृताञ्जलिस्तत्प्रतिपूज्य भाषितम् |
1726 | 4027045c | उवाच रामं स्वभिराम दर्शनं; प्रदर्शयन्दर्शनमात्मनः शुभम् |
1727 | 4027046a | यथोक्तमेतत्तव सर्वमीप्सितं; नरेन्द्र कर्ता नचिराद्धरीश्वरः |
1728 | 4027046c | शरत्प्रतीक्षः क्षमतामिमं भवा;ञ्जलप्रपातं रिपुनिग्रहे धृतः |
1729 | 4028001a | समीक्ष्य विमलं व्योम गतविद्युद्बलाहकम् |
1730 | 4028001c | सारसारवसंघुष्टं रम्यज्योत्स्नानुलेपनम् |
1731 | 4028002a | समृद्धार्थं च सुग्रीवं मन्दधर्मार्थसंग्रहम् |
1732 | 4028002c | अत्यर्थमसतां मार्गमेकान्तगतमानसं |
1733 | 4028003a | निवृत्तकार्यं सिद्धार्थं प्रमदाभिरतं सदा |
1734 | 4028003c | प्राप्तवन्तमभिप्रेतान्सर्वानेव मनोरथान् |
1735 | 4028004a | स्वां च पात्नीमभिप्रेतां तारां चापि समीप्सिताम् |
1736 | 4028004c | विहरन्तमहोरात्रं कृतार्थं विगतज्वलम् |
1737 | 4028005a | क्रीडन्तमिव देवेशं नन्दनेऽप्सरसां गणैः |
1738 | 4028005c | मन्त्रिषु न्यस्तकार्यं च मन्त्रिणामनवेक्षकम् |
1739 | 4028006a | उत्सन्नराज्यसंदेशं कामवृत्तमवस्थितम् |
1740 | 4028006c | निश्चितार्थोऽर्थतत्त्वज्ञः कालधर्मविशेषवित् |
1741 | 4028007a | प्रसाद्य वाक्यैर्मधुरैर्हेतुमद्भिर्मनोरमैः |
1742 | 4028007c | वाक्यविद्वाक्यतत्त्वज्ञं हरीशं मारुतात्मजः |
1743 | 4028008a | हितं तथ्यं च पथ्यं च सामधर्मार्थनीतिमत् |
1744 | 4028008c | प्रणयप्रीतिसंयुक्तं विश्वासकृतनिश्चयम् |
1745 | 4028008e | हरीश्वरमुपागम्य हनुमान्वाक्यमब्रवीत् |
1746 | 4028009a | राज्यं प्राप्तं यशश्चैव कौली श्रीरभिवर्थिता |
1747 | 4028009c | मित्राणां संग्रहः शेषस्तद्भवान्कर्तुमर्हति |
1748 | 4028010a | यो हि मित्रेषु कालज्ञः सततं साधु वर्तते |
1749 | 4028010c | तस्य राज्यं च कीर्तिश्च प्रतापश्चाभिवर्धते |
1750 | 4028011a | यस्य कोशश्च दण्डश्च मित्राण्यात्मा च भूमिप |
1751 | 4028011c | समवेतानि सर्वाणि स राज्यं महदश्नुते |
1752 | 4028012a | तद्भवान्वृत्तसंपन्नः स्थितः पथि निरत्यये |
1753 | 4028012c | मित्रार्थमभिनीतार्थं यथावत्कर्तुमर्हति |
1754 | 4028013a | यस्तु कालव्यतीतेषु मित्रकार्येषु वर्तते |
1755 | 4028013c | स कृत्वा महतोऽप्यर्थान्न मित्रार्थेन युज्यते |
1756 | 4028014a | क्रियतां राघवस्यैतद्वैदेह्याः परिमार्गणम् |
1757 | 4028014c | तदिदं वीर कार्यं ते कालातीतमरिंदम |
1758 | 4028015a | न च कालमतीतं ते निवेदयति कालवित् |
1759 | 4028015c | त्वरमाणोऽपि सन्प्राज्ञस्तव राजन्वशानुगः |
1760 | 4028016a | कुलस्य केतुः स्फीतस्य दीर्घबन्धुश्च राघवः |
1761 | 4028016c | अप्रमेयप्रभावश्च स्वयं चाप्रतिमो गुणैः |
1762 | 4028017a | तस्य त्वं कुरु वै कार्यं पूर्वं तेन कृतं तव |
1763 | 4028017c | हरीश्वर हरिश्रेष्ठानाज्ञापयितुमर्हसि |
1764 | 4028018a | न हि तावद्भवेत्कालो व्यतीतश्चोदनादृते |
1765 | 4028018c | चोदितस्य हि कार्यस्य भवेत्कालव्यतिक्रमः |
1766 | 4028019a | अकर्तुरपि कार्यस्य भवान्कर्ता हरीश्वर |
1767 | 4028019c | किं पुनः प्रतिकर्तुस्ते राज्येन च धनेन च |
1768 | 4028020a | शक्तिमानसि विक्रान्तो वानरर्ष्क गणेश्वर |
1769 | 4028020c | कर्तुं दाशरथेः प्रीतिमाज्ञायां किं नु सज्जसे |
1770 | 4028021a | कामं खलु शरैर्शक्तः सुरासुरमहोरगान् |
1771 | 4028021c | वशे दाशरथिः कर्तुं त्वत्प्रतिज्ञां तु काङ्क्षते |
1772 | 4028022a | प्राणत्यागाविशङ्केन कृतं तेन तव प्रियम् |
1773 | 4028022c | तस्य मार्गाम वैदेहीं पृथिव्यामपि चाम्बरे |
1774 | 4028023a | न देवा न च गन्धर्वा नासुरा न मरुद्गणाः |
1775 | 4028023c | न च यक्षा भयं तस्य कुर्युः किमुत राक्षसाः |
1776 | 4028024a | तदेवं शक्तियुक्तस्य पूर्वं प्रियकृतस्तथा |
1777 | 4028024c | रामस्यार्हसि पिङ्गेश कर्तुं सर्वात्मना प्रियम् |
1778 | 4028025a | नाधस्तादवनौ नाप्सु गतिर्नोपरि चाम्बरे |
1779 | 4028025c | कस्यचित्सज्जतेऽस्माकं कपीश्वर तवाज्ञया |
1780 | 4028026a | तदाज्ञापय कः किं ते कृते वसतु कुत्रचित् |
1781 | 4028026c | हरयो ह्यप्रधृष्यास्ते सन्ति कोट्यग्रतोऽनघ |
1782 | 4028027a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा काले साधुनिवेदितम् |
1783 | 4028027c | सुग्रीवः सत्त्वसंपन्नश्चकार मतिमुत्तमाम् |
1784 | 4028028a | स संदिदेशाभिमतं नीलं नित्यकृतोद्यमम् |
1785 | 4028028c | दिक्षु सर्वासु सर्वेषां सैन्यानामुपसंग्रहे |
1786 | 4028029a | यथा सेना समग्रा मे यूथपालाश्च सर्वशः |
1787 | 4028029c | समागच्छन्त्यसंगेन सेनाग्राणि तथा कुरु |
1788 | 4028030a | ये त्वन्तपालाः प्लवगाः शीघ्रगा व्यवसायिनः |
1789 | 4028030c | समानयन्तु ते सैन्यं त्वरिताः शासनान्मम |
1790 | 4028030e | स्वयं चानन्तरं सैन्यं भवानेवानुपश्यतु |
1791 | 4028031a | त्रिपञ्चरात्रादूर्ध्वं यः प्राप्नुयान्नेह वानरः |
1792 | 4028031c | तस्य प्राणान्तिको दण्डो नात्र कार्या विचारणा |
1793 | 4028032a | हरींश्च वृद्धानुपयातु साङ्गदो; भवान्ममाज्ञामधिकृत्य निश्चिताम् |
1794 | 4028032c | इति व्यवस्थां हरिपुंगवेश्वरो; विधाय वेश्म प्रविवेश वीर्यवान् |
1795 | 4029001a | गुहां प्रविष्टे सुग्रीवे विमुक्ते गगने घनैः |
1796 | 4029001c | वर्षरात्रोषितो रामः कामशोकाभिपीडितः |
1797 | 4029002a | पाण्डुरं गगनं दृष्ट्वा विमलं चन्द्रमण्डलम् |
1798 | 4029002c | शारदीं रजनीं चैव दृष्ट्वा ज्योत्स्नानुलेपनाम् |
1799 | 4029003a | कामवृत्तं च सुग्रीवं नष्टां च जनकात्मजाम् |
1800 | 4029003c | बुद्ध्वा कालमतीतं च मुमोह परमातुरः |
1801 | 4029004a | स तु संज्ञामुपागम्य मुहूर्तान्मतिमान्पुनः |
1802 | 4029004c | मनःस्थामपि वैदेहीं चिन्तयामास राघवः |
1803 | 4029005a | आसीनः पर्वतस्याग्रे हेमधातुविभूषिते |
1804 | 4029005c | शारदं गगनं दृष्ट्व जगाम मनसा प्रियाम् |
1805 | 4029006a | दृष्ट्वा च विमलं व्योम गतविद्युद्बलाहकम् |
1806 | 4029006c | सारसारवसंघुष्टं विललापार्तया गिरा |
1807 | 4029007a | सारसारवसंनादैः सारसारवनादिनी |
1808 | 4029007c | याश्रमे रमते बाला साद्य मे रमते कथम् |
1809 | 4029008a | पुष्पितांश्चासनान्दृष्ट्वा काञ्चनानिव निर्मलान् |
1810 | 4029008c | कथं स रमते बाला पश्यन्ती मामपश्यती |
1811 | 4029009a | या पुरा कलहंसानां स्वरेण कलभाषिणी |
1812 | 4029009c | बुध्यते चारुसर्वाङ्गी साद्य मे बुध्यते कथम् |
1813 | 4029010a | निःस्वनं चक्रवाकानां निशम्य सहचारिणाम् |
1814 | 4029010c | पुण्डरीकविशालाक्षी कथमेषा भविष्यति |
1815 | 4029011a | सरांसि सरितो वापीः काननानि वनानि च |
1816 | 4029011c | तां विना मृगशावाक्षीं चरन्नाद्य सुखं लभे |
1817 | 4029012a | अपि तां मद्वियोगाच्च सौकुमार्याच्च भामिनीम् |
1818 | 4029012c | न दूरं पीडयेत्कामः शरद्गुणनिरन्तरः |
1819 | 4029013a | एवमादि नरश्रेष्ठो विललाप नृपात्मजः |
1820 | 4029013c | विहंग इव सारङ्गः सलिलं त्रिदशेश्वरात् |
1821 | 4029014a | ततश्चञ्चूर्य रम्येषु फलार्थी गिरिसानुषु |
1822 | 4029014c | ददर्श पर्युपावृत्तो लक्ष्मीवाँल्लक्ष्मणोऽग्रजम् |
1823 | 4029015a | तं चिन्तया दुःसहया परीतं; विसंज्ञमेकं विजने मनस्वी |
1824 | 4029015c | भ्रातुर्विषादात्परितापदीनः; समीक्ष्य सौमित्रिरुवाच रामम् |
1825 | 4029016a | किमार्य कामस्य वशंगतेन; किमात्मपौरुष्यपराभवेन |
1826 | 4029016c | अयं सदा संहृइयते समाधिः; किमत्र योगेन निवर्तितेन |
1827 | 4029017a | क्रियाभियोगं मनसः प्रसादं; समाधियोगानुगतं च कालम् |
1828 | 4029017c | सहायसामर्थ्यमदीनसत्त्व; स्वकर्महेतुं च कुरुष्व हेतुम् |
1829 | 4029018a | न जानकी मानववंशनाथ; त्वया सनाथा सुलभा परेण |
1830 | 4029018c | न चाग्निचूडां ज्वलितामुपेत्य; न दह्यते वीरवरार्ह कश्चित् |
1831 | 4029019a | सलक्ष्मणं लक्ष्मणमप्रधृष्यं; स्वभावजं वाक्यमुवाच रामः |
1832 | 4029019c | हितं च पथ्यं च नयप्रसक्तं; ससामधर्मार्थसमाहितं च |
1833 | 4029020a | निःसंशयं कार्यमवेक्षितव्यं; क्रियाविशेषो ह्यनुवर्तितव्यः |
1834 | 4029020c | ननु प्रवृत्तस्य दुरासदस्य; कुमारकार्यस्य फलं न चिन्त्यम् |
1835 | 4029021a | अथ पद्मपलाशाक्षीं मैथिलीमनुचिन्तयन् |
1836 | 4029021c | उवाच लक्ष्मणं रामो मुखेन परिशुष्यता |
1837 | 4029022a | तर्पयित्वा सहस्राक्षः सलिलेन वसुंधराम् |
1838 | 4029022c | निर्वर्तयित्वा सस्यानि कृतकर्मा व्यवस्थितः |
1839 | 4029023a | स्निग्धगम्भीरनिर्घोषाः शैलद्रुमपुरोगमाः |
1840 | 4029023c | विसृज्य सलिलं मेघाः परिश्रान्ता नृपात्मज |
1841 | 4029024a | नीलोत्पलदलश्यामः श्यामीकृत्वा दिशो दश |
1842 | 4029024c | विमदा इव मातङ्गाः शान्तवेगाः पयोधराः |
1843 | 4029025a | जलगर्भा महावेगाः कुटजार्जुनगन्धिनः |
1844 | 4029025c | चरित्वा विरताः सौम्य वृष्टिवाताः समुद्यताः |
1845 | 4029026a | घनानां वारणानां च मयूराणां च लक्ष्मण |
1846 | 4029026c | नादः प्रस्रवणानां च प्रशान्तः सहसानघ |
1847 | 4029027a | अभिवृष्टा महामेघैर्निर्मलाश्चित्रसानवः |
1848 | 4029027c | अनुलिप्ता इवाभान्ति गिरयश्चन्द्ररश्मिभिः |
1849 | 4029028a | दर्शयन्ति शरन्नद्यः पुलिनानि शनैः शनैः |
1850 | 4029028c | नवसंगमसव्रीडा जघनानीव योषितः |
1851 | 4029029a | प्रसन्नसलिलाः सौम्य कुररीभिर्विनादिताः |
1852 | 4029029c | चक्रवाकगणाकीर्णा विभान्ति सलिलाशयाः |
1853 | 4029030a | अन्योन्यबद्धवैराणां जिगीषूणां नृपात्मज |
1854 | 4029030c | उद्योगसमयः सौम्य पार्थिवानामुपस्थितः |
1855 | 4029031a | इयं सा प्रथमा यात्रा पार्थिवानां नृपात्मज |
1856 | 4029031c | न च पश्यामि सुग्रीवमुद्योगं वा तथाविधम् |
1857 | 4029032a | चत्वारो वार्षिका मासा गता वर्षशतोपमाः |
1858 | 4029032c | मम शोकाभितप्तस्य सौम्य सीतामपश्यतः |
1859 | 4029033a | प्रियाविहीने दुःखार्ते हृतराज्ये विवासिते |
1860 | 4029033c | कृपां न कुरुते राजा सुग्रीवो मयि लक्ष्मण |
1861 | 4029034a | अनाथो हृतराज्योऽयं रावणेन च धर्षितः |
1862 | 4029034c | दीनो दूरगृहः कामी मां चैव शरणं गतः |
1863 | 4029035a | इत्येतैः कारणैः सौम्य सुग्रीवस्य दुरात्मनः |
1864 | 4029035c | अहं वानरराजस्य परिभूतः परंतप |
1865 | 4029036a | स कालं परिसंख्याय सीतायाः परिमार्गणे |
1866 | 4029036c | कृतार्थः समयं कृत्वा दुर्मतिर्नावबुध्यते |
1867 | 4029037a | त्वं प्रविश्य च किष्किन्धां ब्रूहि वानरपुंगवम् |
1868 | 4029037c | मूर्खं ग्राम्य सुखे सक्तं सुग्रीवं वचनान्मम |
1869 | 4029038a | अर्थिनामुपपन्नानां पूर्वं चाप्युपकारिणाम् |
1870 | 4029038c | आशां संश्रुत्य यो हन्ति स लोके पुरुषाधमः |
1871 | 4029039a | शुभं वा यदि वा पापं यो हि वाक्यमुदीरितम् |
1872 | 4029039c | सत्येन परिगृह्णाति स वीरः पुरुषोत्तमः |
1873 | 4029040a | कृतार्था ह्यकृतार्थानां मित्राणां न भवन्ति ये |
1874 | 4029040c | तान्मृतानपि क्रव्यादः कृतघ्नान्नोपभुञ्जते |
1875 | 4029041a | नूनं काञ्चनपृष्ठस्य विकृष्टस्य मया रणे |
1876 | 4029041c | द्रष्टुमिच्छन्ति चापस्य रूपं विद्युद्गणोपमम् |
1877 | 4029042a | घोरं ज्यातलनिर्घोषं क्रुद्धस्य मम संयुगे |
1878 | 4029042c | निर्घोषमिव वज्रस्य पुनः संश्रोतुमिच्छति |
1879 | 4029043a | काममेवं गतेऽप्यस्य परिज्ञाते पराक्रमे |
1880 | 4029043c | त्वत्सहायस्य मे वीर न चिन्ता स्यान्नृपात्मज |
1881 | 4029044a | यदर्थमयमारम्भः कृतः परपुरंजय |
1882 | 4029044c | समयं नाभिजानाति कृतार्थः प्लवगेश्वरः |
1883 | 4029045a | वर्षासमयकालं तु प्रतिज्ञाय हरीश्वरः |
1884 | 4029045c | व्यतीतांश्चतुरो मासान्विहरन्नावबुध्यते |
1885 | 4029046a | सामात्यपरिषत्क्रीडन्पानमेवोपसेवते |
1886 | 4029046c | शोकदीनेषु नास्मासु सुग्रीवः कुरुते दयाम् |
1887 | 4029047a | उच्यतां गच्छ सुग्रीवस्त्वया वत्स महाबल |
1888 | 4029047c | मम रोषस्य यद्रूपं ब्रूयाश्चैनमिदं वचः |
1889 | 4029048a | न च संकुचितः पन्था येन वाली हतो गतः |
1890 | 4029048c | समये तिष्ठ सुग्रीवमा वालिपथमन्वगाः |
1891 | 4029049a | एक एव रणे वाली शरेण निहतो मया |
1892 | 4029049c | त्वां तु सत्यादतिक्रान्तं हनिष्यामि सबान्धवम् |
1893 | 4029050a | तदेवं विहिते कार्ये यद्धितं पुरुषर्षभ |
1894 | 4029050c | तत्तद्ब्रूहि नरश्रेष्ठ त्वर कालव्यतिक्रमः |
1895 | 4029051a | कुरुष्व सत्यं मयि वानरेश्वर; प्रतिश्रुतं धर्ममवेक्ष्य शाश्वतम् |
1896 | 4029051c | मा वालिनं प्रेत्य गतो यमक्षयं; त्वमद्य पश्येर्मम चोदितैः शरैः |
1897 | 4029052a | स पूर्वजं तीव्रविवृद्धकोपं; लालप्यमानं प्रसमीक्ष्य दीनम् |
1898 | 4029052c | चकार तीव्रां मतिमुग्रतेजा; हरीश्वरमानववंशनाथः |
1899 | 4030001a | स कामिनं दीनमदीनसत्त्वः; शोकाभिपन्नं समुदीर्णकोपम् |
1900 | 4030001c | नरेन्द्रसूनुर्नरदेवपुत्रं; रामानुजः पूर्वजमित्युवाच |
1901 | 4030002a | न वानरः स्थास्यति साधुवृत्ते; न मंस्यते कार्यफलानुषङ्गान् |
1902 | 4030002c | न भक्ष्यते वानरराज्यलक्ष्मीं; तथा हि नाभिक्रमतेऽस्य बुद्धिः |
1903 | 4030003a | मतिक्षयाद्ग्राम्यसुखेषु सक्त;स्तव प्रसादाप्रतिकारबुद्धिः |
1904 | 4030003c | हतोऽग्रजं पश्यतु वालिनं स; न राज्यमेवं विगुणस्य देयम् |
1905 | 4030004a | न धारये कोपमुदीर्णवेगं; निहन्मि सुग्रीवमसत्यमद्य |
1906 | 4030004c | हरिप्रवीरैः सह वालिपुत्रो; नरेन्द्रपत्न्या विचयं करोतु |
1907 | 4030005a | तमात्तबाणासनमुत्पतन्तं; निवेदितार्थं रणचण्डकोपम् |
1908 | 4030005c | उवच रामः परवीरहन्ता; स्ववेक्षितं सानुनयं च वाक्यम् |
1909 | 4030006a | न हि वै त्वद्विधो लोके पापमेवं समाचरेत् |
1910 | 4030006c | पापमार्येण यो हन्ति स वीरः पुरुषोत्तमः |
1911 | 4030007a | नेदमद्य त्वया ग्राह्यं साधुवृत्तेन लक्ष्मण |
1912 | 4030007c | तां प्रीतिमनुवर्तस्व पूर्ववृत्तं च संगतम् |
1913 | 4030008a | सामोपहितया वाचा रूक्षाणि परिवर्जयन् |
1914 | 4030008c | वक्तुमर्हसि सुग्रीवं व्यतीतं कालपर्यये |
1915 | 4030009a | सोऽ ग्रजेनानुशिष्टार्थो यथावत्पुरुषर्षभः |
1916 | 4030009c | प्रविवेश पुरीं वीरो लक्ष्मणः परवीरहा |
1917 | 4030010a | ततः शुभमतिः प्राज्ञो भ्रातुः प्रियहिते रतः |
1918 | 4030010c | लक्ष्मणः प्रतिसंरब्धो जगाम भवनं कपेः |
1919 | 4030011a | शक्रबाणासनप्रख्यं धनुः कालान्तकोपमः |
1920 | 4030011c | प्रगृह्य गिरिशृङ्गाभं मन्दरः सानुमानिव |
1921 | 4030012a | यथोक्तकारी वचनमुत्तरं चैव सोत्तरम् |
1922 | 4030012c | बृहस्पतिसमो बुद्ध्या मत्त्वा रामानुजस्तदा |
1923 | 4030013a | कामक्रोधसमुत्थेन भ्रातुः कोपाग्निना वृतः |
1924 | 4030013c | प्रभञ्जन इवाप्रीतः प्रययौ लक्ष्मणस्तदा |
1925 | 4030014a | सालतालाश्वकर्णांश्च तरसा पातयन्बहून् |
1926 | 4030014c | पर्यस्यन्गिरिकूटानि द्रुमानन्यांश्च वेगतः |
1927 | 4030015a | शिलाश्च शकलीकुर्वन्पद्भ्यां गज इवाशुगः |
1928 | 4030015c | दूरमेकपदं त्यक्त्वा ययौ कार्यवशाद्द्रुतम् |
1929 | 4030016a | तामपश्यद्बलाकीर्णां हरिराजमहापुरीम् |
1930 | 4030016c | दुर्गामिक्ष्वाकुशार्दूलः किष्किन्धां गिरिसंकटे |
1931 | 4030017a | रोषात्प्रस्फुरमाणौष्ठः सुग्रीवं प्रति कल्ष्मणः |
1932 | 4030017c | ददर्श वानरान्भीमान्किष्किन्धाया बहिश्चरान् |
1933 | 4030018a | शैलशृङ्गाणि शतशः प्रवृद्धांश्च महीरुहान् |
1934 | 4030018c | जगृहुः कुञ्जरप्रख्या वानराः पर्वतान्तरे |
1935 | 4030019a | तान्गृहीतप्रहरणान्हरीन्दृष्ट्वा तु लक्ष्मणः |
1936 | 4030019c | बभूव द्विगुणं क्रुद्धो बह्विन्धन इवानलः |
1937 | 4030020a | तं ते भयपरीताङ्गाः क्रुद्धं दृष्ट्वा प्लवंगमाः |
1938 | 4030020c | कालमृत्युयुगान्ताभं शतशो विद्रुता दिशः |
1939 | 4030021a | ततः सुग्रीवभवनं प्रविश्य हरिपुंगवाः |
1940 | 4030021c | क्रोधमागमनं चैव लक्ष्मणस्य न्यवेदयन् |
1941 | 4030022a | तारया सहितः कामी सक्तः कपिवृषो रहः |
1942 | 4030022c | न तेषां कपिवीराणां शुश्राव वचनं तदा |
1943 | 4030023a | ततः सचिवसंदिष्टा हरयो रोमहर्षणाः |
1944 | 4030023c | गिरिकुञ्जरमेघाभा नगर्या निर्ययुस्तदा |
1945 | 4030024a | नखदंष्ट्रायुधा घोराः सर्वे विकृतदर्शनाः |
1946 | 4030024c | सर्वे शार्दूलदर्पाश्च सर्वे च विकृताननाः |
1947 | 4030025a | दशनागबलाः केचित्केचिद्दशगुणोत्तराः |
1948 | 4030025c | केचिन्नागसहस्रस्य बभूवुस्तुल्यविक्रमाः |
1949 | 4030026a | कृत्स्नां हि कपिभिर्व्याप्तां द्रुमहस्तैर्महाबलैः |
1950 | 4030026c | अपश्यल्लक्ष्मणः क्रुद्धः किष्किन्धां तां दुरासदम् |
1951 | 4030027a | ततस्ते हरयः सर्वे प्राकारपरिखान्तरात् |
1952 | 4030027c | निष्क्रम्योदग्रसत्त्वास्तु तस्थुराविष्कृतं तदा |
1953 | 4030028a | सुग्रीवस्य प्रमादं च पूर्वजं चार्तमात्मवान् |
1954 | 4030028c | बुद्ध्वा कोपवशं वीरः पुनरेव जगाम सः |
1955 | 4030029a | स दीर्घोष्णमहोच्छ्वासः कोपसंरक्तलोचनः |
1956 | 4030029c | बभूव नरशार्दूलसधूम इव पावकः |
1957 | 4030030a | बाणशल्यस्फुरज्जिह्वः सायकासनभोगवान् |
1958 | 4030030c | स्वतेजोविषसंघातः पञ्चास्य इव पन्नगः |
1959 | 4030031a | तं दीप्तमिव कालाग्निं नागेन्द्रमिव कोपितम् |
1960 | 4030031c | समासाद्याङ्गदस्त्रासाद्विषादमगमद्भृशम् |
1961 | 4030032a | सोऽङ्गदं रोषताम्राक्षः संदिदेश महायशाः |
1962 | 4030032c | सुग्रीवः कथ्यतां वत्स ममागमनमित्युत |
1963 | 4030033a | एष रामानुजः प्राप्तस्त्वत्सकाशमरिंदमः |
1964 | 4030033c | भ्रातुर्व्यसनसंतप्तो द्वारि तिष्ठति लक्ष्मणः |
1965 | 4030034a | लक्ष्मणस्य वचः श्रुत्वा शोकाविष्टोऽङ्गदोऽब्रवीत् |
1966 | 4030034c | पितुः समीपमागम्य सौमित्रिरयमागतः |
1967 | 4030035a | ते महौघनिभं दृष्ट्वा वज्राशनिसमस्वनम् |
1968 | 4030035c | सिंहनादं समं चक्रुर्लक्ष्मणस्य समीपतः |
1969 | 4030036a | तेन शब्देन महता प्रत्यबुध्यत वानरः |
1970 | 4030036c | मदविह्वलताम्राक्षो व्याकुलस्रग्विभूषणः |
1971 | 4030037a | अथाङ्गदवचः श्रुत्वा तेनैव च समागतौ |
1972 | 4030037c | मन्त्रिणो वानरेन्द्रस्य संमतोदारदर्शिनौ |
1973 | 4030038a | प्लक्षश्चैव प्रभावश्च मन्त्रिणावर्थधर्मयोः |
1974 | 4030038c | वक्तुमुच्चावचं प्राप्तं लक्ष्मणं तौ शशंसतुः |
1975 | 4030039a | प्रसादयित्वा सुग्रीवं वचनैः सामनिश्चितैः |
1976 | 4030039c | आसीनं पर्युपासीनौ यथा शक्रं मरुत्पतिम् |
1977 | 4030040a | सत्यसंधौ महाभागौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
1978 | 4030040c | वयस्य भावं संप्राप्तौ राज्यार्हौ राज्यदायिनौ |
1979 | 4030041a | तयोरेको धनुष्पाणिर्द्वारि तिष्ठति लक्ष्मणः |
1980 | 4030041c | यस्य भीताः प्रवेपन्ते नादान्मुञ्चन्ति वानराः |
1981 | 4030042a | स एष राघवभ्राता लक्ष्मणो वाक्यसारथिः |
1982 | 4030042c | व्यवसाय रथः प्राप्तस्तस्य रामस्य शासनात् |
1983 | 4030043a | तस्य मूर्ध्ना प्रणम्य त्वं सपुत्रः सह बन्धुभिः |
1984 | 4030043c | राजंस्तिष्ठ स्वसमये भव सत्यप्रतिश्रवः |
1985 | 4031001a | अङ्गदस्य वचः श्रुत्वा सुग्रीवः सचिवैः सह |
1986 | 4031001c | लक्ष्मणं कुपितं श्रुत्वा मुमोचासनमात्मवान् |
1987 | 4031002a | सचिवानब्रवीद्वाक्यं निश्चित्य गुरुलाघवम् |
1988 | 4031002c | मन्त्रज्ञान्मन्त्रकुशलो मन्त्रेषु परिनिष्ठितः |
1989 | 4031003a | न मे दुर्व्याहृतं किंचिन्नापि मे दुरनुष्ठितम् |
1990 | 4031003c | लक्ष्मणो राघवभ्राता क्रुद्धः किमिति चिन्तये |
1991 | 4031004a | असुहृद्भिर्ममामित्रैर्नित्यमन्तरदर्शिभिः |
1992 | 4031004c | मम दोषानसंभूताञ्श्रावितो राघवानुजः |
1993 | 4031005a | अत्र तावद्यथाबुद्धि सर्वैरेव यथाविधि |
1994 | 4031005c | भवद्भिर्निश्चयस्तस्य विज्ञेयो निपुणं शनैः |
1995 | 4031006a | न खल्वस्ति मम त्रासो लक्ष्मणान्नापि राघवात् |
1996 | 4031006c | मित्रं त्वस्थान कुपितं जनयत्येव संभ्रमम् |
1997 | 4031007a | सर्वथा सुकरं मित्रं दुष्करं परिपालनम् |
1998 | 4031007c | अनित्यत्वात्तु चित्तानां प्रीतिरल्पेऽपि भिद्यते |
1999 | 4031008a | अतोनिमित्तं त्रस्तोऽहं रामेण तु महात्मना |
2000 | 4031008c | यन्ममोपकृतं शक्यं प्रतिकर्तुं न तन्मया |
2001 | 4031009a | सुग्रीवेणैवमुक्तस्तु हनुमान्हरिपुंगवः |
2002 | 4031009c | उवाच स्वेन तर्केण मध्ये वानरमन्त्रिणाम् |
2003 | 4031010a | सर्वथा नैतदाश्चर्यं यत्त्वं हरिगणेश्वर |
2004 | 4031010c | न विस्मरसि सुस्निग्धमुपकारकृतं शुभम् |
2005 | 4031011a | राघवेण तु शूरेण भयमुत्सृज्य दूरतः |
2006 | 4031011c | त्वत्प्रियार्थं हतो वाली शक्रतुल्यपराक्रमः |
2007 | 4031012a | सर्वथा प्रणयात्क्रुद्धो राघवो नात्र संशयः |
2008 | 4031012c | भ्रातरं स प्रहितवाँल्लक्ष्मणं लक्ष्मिवर्धनम् |
2009 | 4031013a | त्वं प्रमत्तो न जानीषे कालं कलविदां वर |
2010 | 4031013c | फुल्लसप्तच्छदश्यामा प्रवृत्ता तु शरच्छिवा |
2011 | 4031014a | निर्मल ग्रहनक्षत्रा द्यौः प्रनष्टबलाहका |
2012 | 4031014c | प्रसन्नाश्च दिशः सर्वाः सरितश्च सरांसि च |
2013 | 4031015a | प्राप्तमुद्योगकालं तु नावैषि हरिपुंगव |
2014 | 4031015c | त्वं प्रमत्त इति व्यक्तं लक्ष्मणोऽयमिहागतः |
2015 | 4031016a | आर्तस्य हृतदारस्य परुषं पुरुषान्तरात् |
2016 | 4031016c | वचनं मर्षणीयं ते राघवस्य महात्मनः |
2017 | 4031017a | कृतापराधस्य हि ते नान्यत्पश्याम्यहं क्षमम् |
2018 | 4031017c | अन्तरेणाञ्जलिं बद्ध्वा लक्ष्मणस्य प्रसादनात् |
2019 | 4031018a | नियुक्तैर्मन्त्रिभिर्वाच्यो अवश्यं पार्थिवो हितम् |
2020 | 4031018c | अत एव भयं त्यक्त्वा ब्रवीम्यवधृतं वचः |
2021 | 4031019a | अभिक्रुद्धः समर्थो हि चापमुद्यम्य राघवः |
2022 | 4031019c | सदेवासुरगन्धर्वं वशे स्थापयितुं जगत् |
2023 | 4031020a | न स क्षमः कोपयितुं यः प्रसाद्य पुनर्भवेत् |
2024 | 4031020c | पूर्वोपकारं स्मरता कृतज्ञेन विशेषतः |
2025 | 4031021a | तस्य मूर्ध्ना प्रणम्य त्वं सपुत्रः ससुहृज्जनः |
2026 | 4031021c | राजंस्तिष्ठ स्वसमये भर्तुर्भार्येव तद्वशे |
2027 | 4031022a | न रामरामानुजशासनं त्वया; कपीन्द्रयुक्तं मनसाप्यपोहितुम् |
2028 | 4031022c | मनो हि ते ज्ञास्यति मानुषं बलं; सराघवस्यास्य सुरेन्द्रवर्चसः |
2029 | 4032001a | अथ प्रतिसमादिष्टो लक्ष्मणः परवीरहा |
2030 | 4032001c | प्रविवेश गुहां घोरां किष्किन्धां रामशासनात् |
2031 | 4032002a | द्वारस्था हरयस्तत्र महाकाया महाबलाः |
2032 | 4032002c | बभूवुर्लक्ष्मणं दृष्ट्वा सर्वे प्राञ्जलयः स्थिताः |
2033 | 4032003a | निःश्वसन्तं तु तं दृष्ट्वा क्रुद्धं दशरथात्मजम् |
2034 | 4032003c | बभूवुर्हरयस्त्रस्ता न चैनं पर्यवारयन् |
2035 | 4032004a | स तं रत्नमयीं श्रीमान्दिव्यां पुष्पितकाननाम् |
2036 | 4032004c | रम्यां रत्नसमाकीर्णां ददर्श महतीं गुहाम् |
2037 | 4032005a | हर्म्यप्रासादसंबाधां नानापण्योपशोभिताम् |
2038 | 4032005c | सर्वकामफलैर्वृक्षैः पुष्पितैरुपशोभिताम् |
2039 | 4032006a | देवगन्धर्वपुत्रैश्च वानरैः कामरूपिभिः |
2040 | 4032006c | दिव्य माल्याम्बरधारैः शोभितां प्रियदर्शनैः |
2041 | 4032007a | चन्दनागरुपद्मानां गन्धैः सुरभिगन्धिनाम् |
2042 | 4032007c | मैरेयाणां मधूनां च संमोदितमहापथाम् |
2043 | 4032008a | विन्ध्यमेरुगिरिप्रस्थैः प्रासादैर्नैकभूमिभिः |
2044 | 4032008c | ददर्श गिरिनद्यश्च विमलास्तत्र राघवः |
2045 | 4032009a | अङ्गदस्य गृहं रम्यं मैन्दस्य द्विविदस्य च |
2046 | 4032009c | गवयस्य गवाक्षस्य गजस्य शरभस्य च |
2047 | 4032010a | विद्युन्मालेश्च संपातेः सूर्याक्षस्य हनूमतः |
2048 | 4032010c | वीरबाहोः सुबाहोश्च नलस्य च महात्मनः |
2049 | 4032011a | कुमुदस्य सुषेणस्य तारजाम्बवतोस्तथा |
2050 | 4032011c | दधिवक्त्रस्य नीलस्य सुपाटलसुनेत्रयोः |
2051 | 4032012a | एतेषां कपिमुख्यानां राजमार्गे महात्मनाम् |
2052 | 4032012c | ददर्श गृहमुख्यानि महासाराणि लक्ष्मणः |
2053 | 4032013a | पाण्डुराभ्रप्रकाशानि दिव्यमाल्ययुतानि च |
2054 | 4032013c | प्रभूतधनधान्यानि स्त्रीरत्नैः शोभितानि च |
2055 | 4032014a | पाण्डुरेण तु शैलेन परिक्षिप्तं दुरासदम् |
2056 | 4032014c | वानरेन्द्रगृहं रम्यं महेन्द्रसदनोपमम् |
2057 | 4032015a | शुल्कैः प्रासादशिखरैः कैलासशिखरोपमैः |
2058 | 4032015c | सर्वकामफलैर्वृक्षैः पुष्टितैरुपशोभितम् |
2059 | 4032016a | महेन्द्रदत्तैः श्रीमद्भिर्नीलजीमूतसंनिभैः |
2060 | 4032016c | दिव्यपुष्पफलैर्वृक्षैः शीतच्छायैर्मनोरमैः |
2061 | 4032017a | हरिभिः संवृतद्वारं बलिभिः शस्त्रपाणिभिः |
2062 | 4032017c | दिव्यमाल्यावृतं शुभ्रं तप्तकाञ्चनतोरणम् |
2063 | 4032018a | सुग्रीवस्य गृहं रम्यं प्रविवेश महाबलः |
2064 | 4032018c | अवार्यमाणः सौमित्रिर्महाभ्रमिव भास्करः |
2065 | 4032019a | स सप्त कक्ष्या धर्मात्मा यानासनसमावृताः |
2066 | 4032019c | प्रविश्य सुमहद्गुप्तं ददर्शान्तःपुरं महत् |
2067 | 4032020a | हैमराजतपर्यङ्कैर्बहुभिश्च वरासनैः |
2068 | 4032020c | महार्हास्तरणोपेतैस्तत्र तत्रोपशोभितम् |
2069 | 4032021a | प्रविशन्नेव सततं शुश्राव मधुरस्वरम् |
2070 | 4032021c | तन्त्रीगीतसमाकीर्णं समगीतपदाक्षरम् |
2071 | 4032022a | बह्वीश्च विविधाकारा रूपयौवनगर्विताः |
2072 | 4032022c | स्त्रियः सुग्रीवभवने ददर्श स महाबलः |
2073 | 4032023a | दृष्ट्वाभिजनसंपन्नाश्चित्रमाल्यकृतस्रजः |
2074 | 4032023c | वरमाल्यकृतव्यग्रा भूषणोत्तमभूषिताः |
2075 | 4032024a | नातृप्तान्नाति च व्यग्रान्नानुदात्तपरिच्छदान् |
2076 | 4032024c | सुग्रीवानुचरांश्चापि लक्षयामास लक्ष्मणः |
2077 | 4032025a | ततः सुग्रीवमासीनं काञ्चने परमासने |
2078 | 4032025c | महार्हास्तरणोपेते ददर्शादित्यसंनिभम् |
2079 | 4032026a | दिव्याभरणचित्राङ्गं दिव्यरूपं यशस्विनम् |
2080 | 4032026c | दिव्यमाल्याम्बरधरं महेन्द्रमिव दुर्जयम् |
2081 | 4032026e | दिव्याभरणमाल्याभिः प्रमदाभिः समावृतम् |
2082 | 4032027a | रुमां तु वीरः परिरभ्य गाढं; वरासनस्थो वरहेमवर्णः |
2083 | 4032027c | ददर्श सौमित्रिमदीनसत्त्वं; विशालनेत्रः सुविशालनेत्रम् |
2084 | 4033001a | तमप्रतिहतं क्रुद्धं प्रविष्टं पुरुषर्षभम् |
2085 | 4033001c | सुग्रीवो लक्ष्मणं दृष्ट्वा बभूव व्यथितेन्द्रियः |
2086 | 4033002a | क्रुद्धं निःश्वसमानं तं प्रदीप्तमिव तेजसा |
2087 | 4033002c | भ्रातुर्व्यसनसंतप्तं दृष्ट्वा दशरथात्मजम् |
2088 | 4033003a | उत्पपात हरिश्रेष्ठो हित्वा सौवर्णमासनम् |
2089 | 4033003c | महान्महेन्द्रस्य यथा स्वलंकृत इव ध्वजः |
2090 | 4033004a | उत्पतन्तमनूत्पेतू रुमाप्रभृतयः स्त्रियः |
2091 | 4033004c | सुग्रीवं गगने पूर्णं चन्द्रं तारागणा इव |
2092 | 4033005a | संरक्तनयनः श्रीमान्विचचाल कृताञ्जलिः |
2093 | 4033005c | बभूवावस्थितस्तत्र कल्पवृक्षो महानिव |
2094 | 4033006a | रुमा द्वितीयं सुग्रीवं नारीमध्यगतं स्थितम् |
2095 | 4033006c | अब्रवील्लक्ष्मणः क्रुद्धः सतारं शशिनं यथा |
2096 | 4033007a | सत्त्वाभिजनसंपन्नः सानुक्रोशो जितेन्द्रियः |
2097 | 4033007c | कृतज्ञः सत्यवादी च राजा लोके महीयते |
2098 | 4033008a | यस्तु राजा स्थितोऽधर्मे मित्राणामुपकारिणाम् |
2099 | 4033008c | मिथ्याप्रतिज्ञां कुरुते को नृशंसतरस्ततः |
2100 | 4033009a | शतमश्वानृते हन्ति सहस्रं तु गवानृते |
2101 | 4033009c | आत्मानं स्वजनं हन्ति पुरुषः पुरुषानृते |
2102 | 4033010a | पूर्वं कृतार्थो मित्राणां न तत्प्रतिकरोति यः |
2103 | 4033010c | कृतघ्नः सर्वभूतानां स वध्यः प्लवगेश्वर |
2104 | 4033011a | गीतोऽयं ब्रह्मणा श्लोकः सर्वलोकनमस्कृतः |
2105 | 4033011c | दृष्ट्वा कृतघ्नं क्रुद्धेन तं निबोध प्लवंगम |
2106 | 4033012a | ब्रह्मघ्ने च सुरापे च चोरे भग्नव्रते तथा |
2107 | 4033012c | निष्कृतिर्विहिता सद्भिः कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः |
2108 | 4033013a | अनार्यस्त्वं कृतघ्नश्च मिथ्यावादी च वानर |
2109 | 4033013c | पूर्वं कृतार्थो रामस्य न तत्प्रतिकरोषि यत् |
2110 | 4033014a | ननु नाम कृतार्थेन त्वया रामस्य वानर |
2111 | 4033014c | सीताया मार्गणे यत्नः कर्तव्यः कृतमिच्छता |
2112 | 4033015a | स त्वं ग्राम्येषु भोगेषु सक्तो मिथ्या प्रतिश्रवः |
2113 | 4033015c | न त्वां रामो विजानीते सर्पं मण्डूकराविणम् |
2114 | 4033016a | महाभागेन रामेण पापः करुणवेदिना |
2115 | 4033016c | हरीणां प्रापितो राज्यं त्वं दुरात्मा महात्मना |
2116 | 4033017a | कृतं चेन्नाभिजानीषे रामस्याक्लिष्टकर्मणः |
2117 | 4033017c | सद्यस्त्वं निशितैर्बाणैर्हतो द्रक्ष्यसि वालिनम् |
2118 | 4033018a | न च संकुचितः पन्था येन वाली हतो गतः |
2119 | 4033018c | समये तिष्ठ सुग्रीव मा वालिपथमन्वगाः |
2120 | 4033019a | न नूनमिक्ष्वाकुवरस्य कार्मुका;च्च्युताञ्शरान्पश्यसि वज्रसंनिभान् |
2121 | 4033019c | ततः सुखं नाम निषेवसे सुखी; न रामकार्यं मनसाप्यवेक्षसे |
2122 | 4034001a | तथा ब्रुवाणं सौमित्रिं प्रदीप्तमिव तेजसा |
2123 | 4034001c | अब्रवील्लक्ष्मणं तारा ताराधिपनिभानना |
2124 | 4034002a | नैवं लक्ष्मण वक्तव्यो नायं परुषमर्हति |
2125 | 4034002c | हरीणामीश्वरः श्रोतुं तव वक्त्राद्विशेषतः |
2126 | 4034003a | नैवाकृतज्ञः सुग्रीवो न शठो नापि दारुणः |
2127 | 4034003c | नैवानृतकथो वीर न जिह्मश्च कपीश्वरः |
2128 | 4034004a | उपकारं कृतं वीरो नाप्ययं विस्मृतः कपिः |
2129 | 4034004c | रामेण वीर सुग्रीवो यदन्यैर्दुष्करं रणे |
2130 | 4034005a | रामप्रसादात्कीर्तिं च कपिराज्यं च शाश्वतम् |
2131 | 4034005c | प्राप्तवानिह सुग्रीवो रुमां मां च परंतप |
2132 | 4034006a | सुदुःखं शायितः पूर्वं प्राप्येदं सुखमुत्तमम् |
2133 | 4034006c | प्राप्तकालं न जानीते विश्वामित्रो यथा मुनिः |
2134 | 4034007a | घृताच्यां किल संसक्तो दशवर्षाणि लक्ष्मण |
2135 | 4034007c | अहोऽमन्यत धर्मात्मा विश्वामित्रो महामुनिः |
2136 | 4034008a | स हि प्राप्तं न जानीते कालं कालविदां वरः |
2137 | 4034008c | विश्वामित्रो महातेजाः किं पुनर्यः पृथग्जनः |
2138 | 4034009a | देहधर्मं गतस्यास्य परिश्रान्तस्य लक्ष्मण |
2139 | 4034009c | अवितृप्तस्य कामेषु रामः क्षन्तुमिहार्हति |
2140 | 4034010a | न च रोषवशं तात गन्तुमर्हसि लक्ष्मण |
2141 | 4034010c | निश्चयार्थमविज्ञाय सहसा प्राकृतो यथा |
2142 | 4034011a | सत्त्वयुक्ता हि पुरुषास्त्वद्विधाः पुरुषर्षभ |
2143 | 4034011c | अविमृश्य न रोषस्य सहसा यान्ति वश्यताम् |
2144 | 4034012a | प्रसादये त्वां धर्मज्ञ सुग्रीवार्थे समाहिता |
2145 | 4034012c | महान्रोषसमुत्पन्नः संरम्भस्त्यज्यतामयम् |
2146 | 4034013a | रुमां मां कपिराज्यं च धनधान्यवसूनि च |
2147 | 4034013c | रामप्रियार्थं सुग्रीवस्त्यजेदिति मतिर्मम |
2148 | 4034014a | समानेष्व्यति सुग्रीवः सीतया सह राघवम् |
2149 | 4034014c | शशाङ्कमिव रोहिष्या निहत्वा रावणं रणे |
2150 | 4034015a | शतकोटिसहस्राणि लङ्कायां किल रक्षसाम् |
2151 | 4034015c | अयुतानि च षट्त्रिंशत्सहस्राणि शतानि च |
2152 | 4034016a | अहत्वा तांश्च दुर्धर्षान्राक्षसान्कामरूपिणः |
2153 | 4034016c | न शक्यो रावणो हन्तुं येन सा मैथिली हृता |
2154 | 4034017a | ते न शक्या रणे हन्तुमसहायेन लक्ष्मण |
2155 | 4034017c | रावणः क्रूरकर्मा च सुग्रीवेण विशेषतः |
2156 | 4034018a | एवमाख्यातवान्वाली स ह्यभिज्ञो हरीश्वरः |
2157 | 4034018c | आगमस्तु न मे व्यक्तः श्रवात्तस्य ब्रवीम्यहम् |
2158 | 4034019a | त्वत्सहायनिमित्तं वै प्रेषिता हरिपुंगवाः |
2159 | 4034019c | आनेतुं वानरान्युद्धे सुबहून्हरियूथपान् |
2160 | 4034020a | तांश्च प्रतीक्षमाणोऽयं विक्रान्तान्सुमहाबलान् |
2161 | 4034020c | राघवस्यार्थसिद्ध्यर्थं न निर्याति हरीश्वरः |
2162 | 4034021a | कृता तु संस्था सौमित्रे सुग्रीवेण यथापुरा |
2163 | 4034021c | अद्य तैर्वानरैर्सर्वैरागन्तव्यं महाबलैः |
2164 | 4034022a | ऋक्षकोटिसहस्राणि गोलाङ्गूलशतानि च |
2165 | 4034022c | अद्य त्वामुपयास्यन्ति जहि कोपमरिंदम |
2166 | 4034022e | कोट्योऽनेकास्तु काकुत्स्थ कपीनां दीप्ततेजसाम् |
2167 | 4034023a | तव हि मुखमिदं निरीक्ष्य कोपा;त्क्षतजनिभे नयने निरीक्षमाणाः |
2168 | 4034023c | हरिवरवनिता न यान्ति शान्तिं; प्रथमभयस्य हि शङ्किताः स्म सर्वाः |
2169 | 4035001a | इत्युक्तस्तारया वाक्यं प्रश्रितं धर्मसंहितम् |
2170 | 4035001c | मृदुस्वभावः सौमित्रिः प्रतिजग्राह तद्वचः |
2171 | 4035002a | तस्मिन्प्रतिगृहीते तु वाक्ये हरिगणेश्वरः |
2172 | 4035002c | लक्ष्मणात्सुमहत्त्रासं वस्त्रं क्लिन्नमिवात्यजत् |
2173 | 4035003a | ततः कण्ठगतं माल्यं चित्रं बहुगुणं महत् |
2174 | 4035003c | चिच्छेद विमदश्चासीत्सुग्रीवो वानरेश्वरः |
2175 | 4035004a | स लक्ष्मणं भीमबलं सर्ववानरसत्तमः |
2176 | 4035004c | अब्रवीत्प्रश्रितं वाक्यं सुग्रीवः संप्रहर्षयन् |
2177 | 4035005a | प्रनष्टा श्रीश्च कीर्तिश्च कपिराज्यं च शाश्वतम् |
2178 | 4035005c | रामप्रसादात्सौमित्रे पुनः प्राप्तमिदं मया |
2179 | 4035006a | कः शक्तस्तस्य देवस्य ख्यातस्य स्वेन कर्मणा |
2180 | 4035006c | तादृशं विक्रमं वीर प्रतिकर्तुमरिंदम |
2181 | 4035007a | सीतां प्राप्स्यति धर्मात्मा वधिष्यति च रावणम् |
2182 | 4035007c | सहायमात्रेण मया राघवः स्वेन तेजसा |
2183 | 4035008a | सहायकृत्यं हि तस्य येन सप्त महाद्रुमाः |
2184 | 4035008c | शैलश्च वसुधा चैव बाणेनैकेन दारिताः |
2185 | 4035009a | धनुर्विस्फारमाणस्य यस्य शब्देन लक्ष्मण |
2186 | 4035009c | सशैला कम्पिता भूमिः सहायैस्तस्य किं नु वै |
2187 | 4035010a | अनुयात्रां नरेन्द्रस्य करिष्येऽहं नरर्षभ |
2188 | 4035010c | गच्छतो रावणं हन्तुं वैरिणं सपुरःसरम् |
2189 | 4035011a | यदि किंचिदतिक्रान्तं विश्वासात्प्रणयेन वा |
2190 | 4035011c | प्रेष्यस्य क्षमितव्यं मे न कश्चिन्नापराध्यति |
2191 | 4035012a | इति तस्य ब्रुवाणस्य सुग्रीवस्य महात्मनः |
2192 | 4035012c | अभवल्लक्ष्मणः प्रीतः प्रेंणा चेदमुवाच ह |
2193 | 4035013a | सर्वथा हि मम भ्राता सनाथो वानरेश्वर |
2194 | 4035013c | त्वया नाथेन सुग्रीव प्रश्रितेन विशेषतः |
2195 | 4035014a | यस्ते प्रभावः सुग्रीव यच्च ते शौचमुत्तमम् |
2196 | 4035014c | अर्हस्तं कपिराज्यस्य श्रियं भोक्तुमनुत्तमाम् |
2197 | 4035015a | सहायेन च सुग्रीव त्वया रामः प्रतापवान् |
2198 | 4035015c | वधिष्यति रणे शत्रूनचिरान्नात्र संशयः |
2199 | 4035016a | धर्मज्ञस्य कृतज्ञस्य संग्रामेष्वनिवर्तिनः |
2200 | 4035016c | उपपन्नं च युक्तं च सुग्रीव तव भाषितम् |
2201 | 4035017a | दोषज्ञः सति सामर्थ्ये कोऽन्यो भाषितुमर्हति |
2202 | 4035017c | वर्जयित्वा मम ज्येष्ठं त्वां च वानरसत्तम |
2203 | 4035018a | सदृशश्चासि रामस्य विक्रमेण बलेन च |
2204 | 4035018c | सहायो दैवतैर्दत्तश्चिराय हरिपुंगव |
2205 | 4035019a | किं तु शीघ्रमितो वीर निष्क्राम त्वं मया सह |
2206 | 4035019c | सान्त्वयस्व वयस्यं च भार्याहरणदुःखितम् |
2207 | 4035020a | यच्च शोकाभिभूतस्य श्रुत्वा रामस्य भाषितम् |
2208 | 4035020c | मया त्वं परुषाण्युक्तस्तच्च त्वं क्षन्तुमर्हसि |
2209 | 4036001a | एवमुक्तस्तु सुग्रीवो लक्ष्मणेन महात्मना |
2210 | 4036001c | हनुमन्तं स्थितं पार्श्वे सचिवं वाक्यमब्रवीत् |
2211 | 4036002a | महेन्द्रहिमवद्विन्ध्यकैलासशिखरेषु च |
2212 | 4036002c | मन्दरे पाण्डुशिखरे पञ्चशैलेषु ये स्थिताः |
2213 | 4036003a | तरुणादित्यवर्णेषु भ्राजमानेषु सर्वशः |
2214 | 4036003c | पर्वतेषु समुद्रान्ते पश्चिमस्यां तु ये दिशि |
2215 | 4036004a | आदित्यभवने चैव गिरौ संध्याभ्रसंनिभे |
2216 | 4036004c | पद्मतालवनं भीमं संश्रिता हरिपुंगवाः |
2217 | 4036005a | अञ्जनाम्बुदसंकाशाः कुञ्जरप्रतिमौजसः |
2218 | 4036005c | अञ्जने परते चैव ये वसन्ति प्लवंगमाः |
2219 | 4036006a | मनःशिला गुहावासा वानराः कनकप्रभाः |
2220 | 4036006c | मेरुपार्श्वगताश्चैव ये च धूम्रगिरिं श्रिताः |
2221 | 4036007a | तरुणादित्यवर्णाश्च पर्वते ये महारुणे |
2222 | 4036007c | पिबन्तो मधुमैरेयं भीमवेगाः प्लवंगमाः |
2223 | 4036008a | वनेषु च सुरम्येषु सुगन्धिषु महत्सु च |
2224 | 4036008c | तापसानां च रम्येषु वनान्तेषु समन्ततः |
2225 | 4036009a | तांस्तांस्त्वमानय क्षिप्रं पृथिव्यां सर्ववानरान् |
2226 | 4036009c | सामदानादिभिः कल्पैराशु प्रेषय वानरान् |
2227 | 4036010a | प्रेषिताः प्रथमं ये च मया दूता महाजवाः |
2228 | 4036010c | त्वरणार्थं तु भूयस्त्वं हरीन्संप्रेषयापरान् |
2229 | 4036011a | ये प्रसक्ताश्च कामेषु दीर्घसूत्राश्च वानराः |
2230 | 4036011c | इहानयस्व तान्सर्वाञ्शीघ्रं तु मम शासनात् |
2231 | 4036012a | अहोभिर्दशभिर्ये च नागच्छन्ति ममाज्ञया |
2232 | 4036012c | हन्तव्यास्ते दुरात्मानो राजशासनदूषकाः |
2233 | 4036013a | शतान्यथ सहस्राणि कोट्यश्च मम शासनात् |
2234 | 4036013c | प्रयान्तु कपिसिंहानां दिशो मम मते स्थिताः |
2235 | 4036014a | मेघपर्वतसंकाशाश्छादयन्त इवाम्बरम् |
2236 | 4036014c | घोररूपाः कपिश्रेष्ठा यान्तु मच्छासनादितः |
2237 | 4036015a | ते गतिज्ञा गतिं गत्वा पृथिव्यां सर्ववानराः |
2238 | 4036015c | आनयन्तु हरीन्सर्वांस्त्वरिताः शासनान्मम |
2239 | 4036016a | तस्य वानरराजस्य श्रुत्वा वायुसुतो वचः |
2240 | 4036016c | दिक्षु सर्वासु विक्रान्तान्प्रेषयामास वानरान् |
2241 | 4036017a | ते पदं विष्णुविक्रान्तं पतत्रिज्योतिरध्वगाः |
2242 | 4036017c | प्रयाताः प्रहिता राज्ञा हरयस्तत्क्षणेन वै |
2243 | 4036018a | ते समुद्रेषु गिरिषु वनेषु च सरित्सु च |
2244 | 4036018c | वानरा वानरान्सर्वान्रामहेतोरचोदयन् |
2245 | 4036019a | मृत्युकालोपमस्याज्ञां राजराजस्य वानराः |
2246 | 4036019c | सुग्रीवस्याययुः श्रुत्वा सुग्रीवभयदर्शिनः |
2247 | 4036020a | ततस्तेऽञ्जनसंकाशा गिरेस्तस्मान्महाजवाः |
2248 | 4036020c | तिस्रः कोट्यः प्लवंगानां निर्ययुर्यत्र राघवः |
2249 | 4036021a | अस्तं गच्छति यत्रार्कस्तस्मिन्गिरिवरे रताः |
2250 | 4036021c | तप्तहेमसमाभासास्तस्मात्कोट्यो दशच्युताः |
2251 | 4036022a | कैलास शिखरेभ्यश्च सिंहकेसरवर्चसाम् |
2252 | 4036022c | ततः कोटिसहस्राणि वानराणामुपागमन् |
2253 | 4036023a | फलमूलेन जीवन्तो हिमवन्तमुपाश्रिताः |
2254 | 4036023c | तेषां कोटिसहस्राणां सहस्रं समवर्तत |
2255 | 4036024a | अङ्गारक समानानां भीमानां भीमकर्मणाम् |
2256 | 4036024c | विन्ध्याद्वानरकोटीनां सहस्राण्यपतन्द्रुतम् |
2257 | 4036025a | क्षीरोदवेलानिलयास्तमालवनवासिनः |
2258 | 4036025c | नारिकेलाशनाश्चैव तेषां संख्या न विद्यते |
2259 | 4036026a | वनेभ्यो गह्वरेभ्यश्च सरिद्भ्यश्च महाजवाः |
2260 | 4036026c | आगच्छद्वानरी सेना पिबन्तीव दिवाकरम् |
2261 | 4036027a | ये तु त्वरयितुं याता वानराः सर्ववानरान् |
2262 | 4036027c | ते वीरा हिमवच्छैलं ददृशुस्तं महाद्रुमम् |
2263 | 4036028a | तस्मिन्गिरिवरे रम्ये यज्ञो महेश्वरः पुरा |
2264 | 4036028c | सर्वदेवमनस्तोषो बभौ दिव्यो मनोहरः |
2265 | 4036029a | अन्नविष्यन्दजातानि मूलानि च फलानि च |
2266 | 4036029c | अमृतस्वादुकल्पानि ददृशुस्तत्र वानराः |
2267 | 4036030a | तदन्न संभवं दिव्यं फलं मूलं मनोहरम् |
2268 | 4036030c | यः कश्चित्सकृदश्नाति मासं भवति तर्पितः |
2269 | 4036031a | तानि मूलानि दिव्यानि फलानि च फलाशनाः |
2270 | 4036031c | औषधानि च दिव्यानि जगृहुर्हरियूथपाः |
2271 | 4036032a | तस्माच्च यज्ञायतनात्पुष्पाणि सुरभीणि च |
2272 | 4036032c | आनिन्युर्वानरा गत्वा सुग्रीवप्रियकारणात् |
2273 | 4036033a | ते तु सर्वे हरिवराः पृथिव्यां सर्ववानरान् |
2274 | 4036033c | संचोदयित्वा त्वरितं यूथानां जग्मुरग्रतः |
2275 | 4036034a | ते तु तेन मुहूर्तेन यूथपाः शीघ्रकारिणः |
2276 | 4036034c | किष्किन्धां त्वरया प्राप्ताः सुग्रीवो यत्र वानरः |
2277 | 4036035a | ते गृहीत्वौषधीः सर्वाः फलं मूलं च वानराः |
2278 | 4036035c | तं प्रतिग्राहयामासुर्वचनं चेदमब्रुवन् |
2279 | 4036036a | सर्वे परिगताः शैलाः समुद्राश्च वनानि च |
2280 | 4036036c | पृथिव्यां वानराः सर्वे शासनादुपयान्ति ते |
2281 | 4036037a | एवं श्रुत्वा ततो हृष्टः सुग्रीवः प्लवगाधिपः |
2282 | 4036037c | प्रतिजग्राह च प्रीतस्तेषां सर्वमुपायनम् |
2283 | 4037001a | प्रतिगृह्य च तत्सर्वमुपानयमुपाहृतम् |
2284 | 4037001c | वानरान्सान्त्वयित्वा च सर्वानेव व्यसर्जयत् |
2285 | 4037002a | विसर्जयित्वा स हरीञ्शूरांस्तान्कृतकर्मणः |
2286 | 4037002c | मेने कृतार्थमात्मानं राघवं च महाबलम् |
2287 | 4037003a | स लक्ष्मणो भीमबलं सर्ववानरसत्तमम् |
2288 | 4037003c | अब्रवीत्प्रश्रितं वाक्यं सुग्रीवं संप्रहर्षयन् |
2289 | 4037003e | किष्किन्धाया विनिष्क्राम यदि ते सौम्य रोचते |
2290 | 4037004a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा लक्ष्मणस्य सुभाषितम् |
2291 | 4037004c | सुग्रीवः परमप्रीतो वाक्यमेतदुवाच ह |
2292 | 4037005a | एवं भवतु गच्छामः स्थेयं त्वच्छासने मया |
2293 | 4037005c | तमेवमुक्त्वा सुग्रीवो लक्ष्मणं शुभलक्ष्मणम् |
2294 | 4037006a | विसर्जयामास तदा तारामन्याश्च योषितः |
2295 | 4037006c | एतेत्युच्चैर्हरिवरान्सुग्रीवः समुदाहरत् |
2296 | 4037007a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा हरयः शीघ्रमाययुः |
2297 | 4037007c | बद्धाञ्जलिपुटाः सर्वे ये स्युः स्त्रीदर्शनक्षमाः |
2298 | 4037008a | तानुवाच ततः प्राप्तान्राजार्कसदृशप्रभः |
2299 | 4037008c | उपस्थापयत क्षिप्रं शिबिकां मम वानराः |
2300 | 4037009a | श्रुत्वा तु वचनं तस्य हरयः शीघ्रविक्रमाः |
2301 | 4037009c | समुपस्थापयामासुः शिबिकां प्रियदर्शनाम् |
2302 | 4037010a | तामुपस्थापितां दृष्ट्वा शिबिकां वानराधिपः |
2303 | 4037010c | लक्ष्मणारुह्यतां शीघ्रमिति सौमित्रिमब्रवीत् |
2304 | 4037011a | इत्युक्त्वा काञ्चनं यानं सुग्रीवः सूर्यसंनिभम् |
2305 | 4037011c | बृहद्भिर्हरिभिर्युक्तमारुरोह सलक्ष्मणः |
2306 | 4037012a | पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि |
2307 | 4037012c | शुक्लैश्च बालव्यजनैर्धूयमानैः समन्ततः |
2308 | 4037013a | शङ्खभेरीनिनादैश्च बन्दिभिश्चाभिवन्दितः |
2309 | 4037013c | निर्ययौ प्राप्य सुग्रीवो राज्यश्रियमनुत्तमाम् |
2310 | 4037014a | स वानरशतैस्तीष्क्णैर्बहुभिः शस्त्रपाणिभिः |
2311 | 4037014c | परिकीर्णो ययौ तत्र यत्र रामो व्यवस्थितः |
2312 | 4037015a | स तं देशमनुप्राप्य श्रेष्ठं रामनिषेवितम् |
2313 | 4037015c | अवातरन्महातेजाः शिबिकायाः सलक्ष्मणः |
2314 | 4037016a | आसाद्य च ततो रामं कृताञ्जलिपुटोऽभवत् |
2315 | 4037016c | कृताञ्जलौ स्थिते तस्मिन्वानराश्चभवंस्तथा |
2316 | 4037017a | तटाकमिव तद्दृष्ट्वा रामः कुड्मलपङ्कजम् |
2317 | 4037017c | वानराणां महत्सैन्यं सुग्रीवे प्रीतिमानभूत् |
2318 | 4037018a | पादयोः पतितं मूर्ध्ना तमुत्थाप्य हरीश्वरम् |
2319 | 4037018c | प्रेंणा च बहुमानाच्च राघवः परिषस्वजे |
2320 | 4037019a | परिष्वज्य च धर्मात्मा निषीदेति ततोऽब्रवीत् |
2321 | 4037019c | तं निषण्णं ततो दृष्ट्वा क्षितौ रामोऽब्रवीद्वचः |
2322 | 4037020a | धर्ममर्थं च कामं च काले यस्तु निषेवते |
2323 | 4037020c | विभज्य सततं वीर स राजा हरिसत्तम |
2324 | 4037021a | हित्वा धर्मं तथार्थं च कामं यस्तु निषेवते |
2325 | 4037021c | स वृक्षाग्रे यथा सुप्तः पतितः प्रतिबुध्यते |
2326 | 4037022a | अमित्राणां वधे युक्तो मित्राणां संग्रहे रतः |
2327 | 4037022c | त्रिवर्गफलभोक्ता तु राजा धर्मेण युज्यते |
2328 | 4037023a | उद्योगसमयस्त्वेष प्राप्तः शत्रुविनाशन |
2329 | 4037023c | संचिन्त्यतां हि पिङ्गेश हरिभिः सह मन्त्रिभिः |
2330 | 4037024a | एवमुक्तस्तु सुग्रीवो रामं वचनमब्रवीत् |
2331 | 4037025a | प्रनष्टा श्रीश्च कीर्तिश्च कपिराज्यं च शाश्वतम् |
2332 | 4037025c | त्वत्प्रसादान्महाबाहो पुनः प्राप्तमिदं मया |
2333 | 4037026a | तव देवप्रसदाच्च भ्रातुश्च जयतां वर |
2334 | 4037026c | कृतं न प्रतिकुर्याद्यः पुरुषाणां स दूषकः |
2335 | 4037027a | एते वानरमुख्याश्च शतशः शत्रुसूदन |
2336 | 4037027c | प्राप्ताश्चादाय बलिनः पृथिव्यां सर्ववानरान् |
2337 | 4037028a | ऋक्षाश्चावहिताः शूरा गोलाङ्गूलाश्च राघव |
2338 | 4037028c | कान्तार वनदुर्गाणामभिज्ञा घोरदर्शनाः |
2339 | 4037029a | देवगन्धर्वपुत्राश्च वानराः कामरूपिणः |
2340 | 4037029c | स्वैः स्वैः परिवृताः सैन्यैर्वर्तन्ते पथि राघव |
2341 | 4037030a | शतैः शतसहस्रैश्च कोटिभिश्च प्लवंगमाः |
2342 | 4037030c | अयुतैश्चावृता वीरा शङ्कुभिश्च परंतप |
2343 | 4037031a | अर्बुदैरर्बुदशतैर्मध्यैश्चान्तैश्च वानराः |
2344 | 4037031c | समुद्रैश्च परार्धैश्च हरयो हरियूथपाः |
2345 | 4037032a | आगमिष्यन्ति ते राजन्महेन्द्रसमविक्रमाः |
2346 | 4037032c | मेरुमन्दरसंकाशा विन्ध्यमेरुकृतालयाः |
2347 | 4037033a | ते त्वामभिगमिष्यन्ति राक्षसं ये सबान्धवम् |
2348 | 4037033c | निहत्य रावणं संख्ये ह्यानयिष्यन्ति मैथिलीम् |
2349 | 4037034a | ततस्तमुद्योगमवेक्ष्य बुद्धिमा;न्हरिप्रवीरस्य निदेशवर्तिनः |
2350 | 4037034c | बभूव हर्षाद्वसुधाधिपात्मजः; प्रबुद्धनीलोत्पलतुल्यदर्शनः |
2351 | 4038001a | इति ब्रुवाणं सुग्रीवं रामो धर्मभृतां वरः |
2352 | 4038001c | बाहुभ्यां संपरिष्वज्य प्रत्युवाच कृताञ्जलिम् |
2353 | 4038002a | यदिन्द्रो वर्षते वर्षं न तच्चित्रं भवेद्भुवि |
2354 | 4038002c | आदित्यो वा सहस्रांशुः कुर्याद्वितिमिरं नभः |
2355 | 4038003a | चन्द्रमा रश्मिभिः कुर्यात्पृथिवीं सौम्य निर्मलाम् |
2356 | 4038003c | त्वद्विधो वापि मित्राणां प्रतिकुर्यात्परंतप |
2357 | 4038004a | एवं त्वयि न तच्चित्रं भवेद्यत्सौम्य शोभनम् |
2358 | 4038004c | जानाम्यहं त्वां सुग्रीव सततं प्रियवादिनम् |
2359 | 4038005a | त्वत्सनाथः सखे संख्ये जेतास्मि सकलानरीन् |
2360 | 4038005c | त्वमेव मे सुहृन्मित्रं साहाय्यं कर्तुमर्हसि |
2361 | 4038006a | जहारात्मविनाशाय वैदेहीं राक्षसाधमः |
2362 | 4038006c | वञ्चयित्वा तु पौलोमीमनुह्लादो यथा शचीम् |
2363 | 4038007a | नचिरात्तं हनिष्यामि रावणं निशितैः शरैः |
2364 | 4038007c | पौलोम्याः पितरं दृप्तं शतक्रतुरिवारिहा |
2365 | 4038008a | एतस्मिन्नन्तरे चैव रजः समभिवर्तत |
2366 | 4038008c | उष्णां तीव्रां सहस्रांशोश्छादयद्गगने प्रभाम् |
2367 | 4038009a | दिशः पर्याकुलाश्चासन्रजसा तेन मूर्छिताः |
2368 | 4038009c | चचाल च मही सर्वा सशैलवनकानना |
2369 | 4038010a | ततो नगेन्द्रसंकाशैस्तीक्ष्ण दंष्ट्रैर्महाबलैः |
2370 | 4038010c | कृत्स्ना संछादिता भूमिरसंख्येयैः प्लवंगमैः |
2371 | 4038011a | निमेषान्तरमात्रेण ततस्तैर्हरियूथपैः |
2372 | 4038011c | कोटीशतपरीवारैः कामरूपिभिरावृता |
2373 | 4038012a | नादेयैः पार्वतीयैश्च सामुद्रैश्च महाबलैः |
2374 | 4038012c | हरिभिर्मेघनिर्ह्रादैरन्यैश्च वनचारिभिः |
2375 | 4038013a | तरुणादित्यवर्णैश्च शशिगौरैश्च वानरैः |
2376 | 4038013c | पद्मकेसरवर्णैश्च श्वेतैर्मेरुकृतालयैः |
2377 | 4038014a | कोटीसहस्रैर्दशभिः श्रीमान्परिवृतस्तदा |
2378 | 4038014c | वीरः शतबलिर्नाम वानरः प्रत्यदृश्यत |
2379 | 4038015a | ततः काञ्चनशैलाभस्ताराया वीर्यवान्पिता |
2380 | 4038015c | अनेकैर्दशसाहस्रैः कोटिभिः प्रत्यदृश्यत |
2381 | 4038016a | पद्मकेसरसंकाशस्तरुणार्कनिभाननः |
2382 | 4038016c | बुद्धिमान्वानरश्रेष्ठः सर्ववानरसत्तमः |
2383 | 4038017a | अनीकैर्बहुसाहस्रैर्वानराणां समन्वितः |
2384 | 4038017c | पिता हनुमतः श्रीमान्केसरी प्रत्यदृश्यत |
2385 | 4038018a | गोलाङ्गूलमहाराजो गवाक्षो भीमविक्रमः |
2386 | 4038018c | वृतः कोटिसहस्रेण वानराणामदृश्यत |
2387 | 4038019a | ऋक्षाणां भीमवेगानां धूम्रः शत्रुनिबर्हणः |
2388 | 4038019c | वृतः कोटिसहस्राभ्यां द्वाभ्यां समभिवर्तत |
2389 | 4038020a | महाचलनिभैर्घोरैः पनसो नाम यूथपः |
2390 | 4038020c | आजगाम महावीर्यस्तिसृभिः कोटिभिर्वृतः |
2391 | 4038021a | नीलाञ्जनचयाकारो नीलो नामाथ यूथपः |
2392 | 4038021c | अदृश्यत महाकायः कोटिभिर्दशभिर्वृतः |
2393 | 4038022a | दरीमुखश्च बलवान्यूथपोऽभ्याययौ तदा |
2394 | 4038022c | वृतः कोटिसहस्रेण सुग्रीवं समुपस्थितः |
2395 | 4038023a | मैन्दश्च द्विविदश्चोभावश्विपुत्रौ महावलौ |
2396 | 4038023c | कोटिकोटिसहस्रेण वानराणामदृश्यताम् |
2397 | 4038024a | ततः कोटिसहस्राणां सहस्रेण शतेन च |
2398 | 4038024c | पृष्ठतोऽनुगतः प्राप्तो हरिभिर्गन्धमादनः |
2399 | 4038025a | ततः पद्मसहस्रेण वृतः शङ्कुशतेन च |
2400 | 4038025c | युवराजोऽङ्गदः प्राप्तः पितृतुल्यपराक्रमः |
2401 | 4038026a | ततस्ताराद्युतिस्तारो हरिर्भीमपराक्रमः |
2402 | 4038026c | पञ्चभिर्हरिकोटीभिर्दूरतः प्रत्यदृश्यत |
2403 | 4038027a | इन्द्रजानुः कपिर्वीरो यूथपः प्रत्यदृश्यत |
2404 | 4038027c | एकादशानां कोटीनामीश्वरस्तैश्च संवृतः |
2405 | 4038028a | ततो रम्भस्त्वनुप्राप्तस्तरुणादित्यसंनिभः |
2406 | 4038028c | अयुतेन वृतश्चैव सहस्रेण शतेन च |
2407 | 4038029a | ततो यूथपतिर्वीरो दुर्मुखो नाम वानरः |
2408 | 4038029c | प्रत्यदृश्यत कोटिभ्यां द्वाभ्यां परिवृतो बली |
2409 | 4038030a | कैलासशिखराकारैर्वानरैर्भीमविक्रमैः |
2410 | 4038030c | वृतः कोटिसहस्रेण हनुमान्प्रत्यदृश्यत |
2411 | 4038031a | नलश्चापि महावीर्यः संवृतो द्रुमवासिभिः |
2412 | 4038031c | कोटीशतेन संप्राप्तः सहस्रेण शतेन च |
2413 | 4038032a | शरभः कुमुदो वह्निर्वानरो रम्भ एव च |
2414 | 4038032c | एते चान्ये च बहवो वानराः कामरूपिणः |
2415 | 4038033a | आवृत्य पृथिवीं सर्वां पर्वतांश्च वनानि च |
2416 | 4038033c | आप्लवन्तः प्लवन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः |
2417 | 4038033e | अभ्यवर्तन्त सुग्रीवं सूर्यमभ्रगणा इव |
2418 | 4038034a | कुर्वाणा बहुशब्दांश्च प्रहृष्टा बलशालिनः |
2419 | 4038034c | शिरोभिर्वानरेन्द्राय सुग्रीवाय न्यवेदयन् |
2420 | 4038035a | अपरे वानरश्रेष्ठाः संगम्य च यथोचितम् |
2421 | 4038035c | सुग्रीवेण समागम्य स्थिताः प्राञ्जलयस्तदा |
2422 | 4038036a | सुग्रीवस्त्वरितो रामे सर्वांस्तान्वानरर्षभान् |
2423 | 4038036c | निवेदयित्वा धर्मज्ञः स्थितः प्राञ्जलिरब्रवीत् |
2424 | 4038037a | यथा सुखं पर्वतनिर्झरेषु; वनेषु सर्वेषु च वानरेन्द्राः |
2425 | 4038037c | निवेशयित्वा विधिवद्बलानि; बलं बलज्ञः प्रतिपत्तुमीष्टे |
2426 | 4039001a | अथ राजा समृद्धार्थः सुग्रीवः प्लवगेश्वरः |
2427 | 4039001c | उवाच नरशार्दूलं रामं परबलार्दनम् |
2428 | 4039002a | आगता विनिविष्टाश्च बलिनः कामरूपिणः |
2429 | 4039002c | वानरेन्द्रा महेन्द्राभा ये मद्विषयवासिनः |
2430 | 4039003a | त इमे बहुसाहस्रैर्हरिभिर्भीमविक्रमैः |
2431 | 4039003c | आगता वानरा घोरा दैत्यदानवसंनिभाः |
2432 | 4039004a | ख्यातकर्मापदानाश्च बलवन्तो जितक्लमाः |
2433 | 4039004c | पराक्रमेषु विख्याता व्यवसायेषु चोत्तमाः |
2434 | 4039005a | पृथिव्यम्बुचरा राम नानानगनिवासिनः |
2435 | 4039005c | कोट्यग्रश इमे प्राप्ता वानरास्तव किंकराः |
2436 | 4039006a | निदेशवर्तिनः सर्वे सर्वे गुरुहिते रताः |
2437 | 4039006c | अभिप्रेतमनुष्ठातुं तव शक्ष्यन्त्यरिंदम |
2438 | 4039007a | यन्मन्यसे नरव्याघ्र प्राप्तकालं तदुच्यताम् |
2439 | 4039007c | तत्सैन्यं त्वद्वशे युक्तमाज्ञापयितुमर्हसि |
2440 | 4039008a | काममेषामिदं कार्यं विदितं मम तत्त्वतः |
2441 | 4039008c | तथापि तु यथा तत्त्वमाज्ञापयितुमर्हसि |
2442 | 4039009a | तथा ब्रुवाणं सुग्रीवं रामो दशरथात्मजः |
2443 | 4039009c | बाहुभ्यां संपरिष्वज्य इदं वचनमब्रवीत् |
2444 | 4039010a | ज्ञायतां सौम्य वैदेही यदि जीवति वा न वा |
2445 | 4039010c | स च देशो महाप्राज्ञ यस्मिन्वसति रावणः |
2446 | 4039011a | अधिगम्य च वैदेहीं निलयं रावणस्य च |
2447 | 4039011c | प्राप्तकालं विधास्यामि तस्मिन्काले सह त्वया |
2448 | 4039012a | नाहमस्मिन्प्रभुः कार्ये वानरेश न लक्ष्मणः |
2449 | 4039012c | त्वमस्य हेतुः कार्यस्य प्रभुश्च प्लवगेश्वर |
2450 | 4039013a | त्वमेवाज्ञापय विभो मम कार्यविनिश्चयम् |
2451 | 4039013c | त्वं हि जानासि यत्कार्यं मम वीर न संशयः |
2452 | 4039014a | सुहृद्द्वितीयो विक्रान्तः प्राज्ञः कालविशेषवित् |
2453 | 4039014c | भवानस्मद्धिते युक्तः सुकृतार्थोऽर्थवित्तमः |
2454 | 4039015a | एवमुक्तस्तु सुग्रीवो विनतं नाम यूथपम् |
2455 | 4039015c | अब्रवीद्राम साम्निध्ये लक्ष्मणस्य च धीमतः |
2456 | 4039015e | शैलाभं मेघनिर्घोषमूर्जितं प्लवगेश्वरम् |
2457 | 4039016a | सोमसूर्यात्मजैः सार्धं वानरैर्वानरोत्तम |
2458 | 4039016c | देशकालनयैर्युक्तः कार्याकार्यविनिश्चये |
2459 | 4039017a | वृतः शतसहस्रेण वानराणां तरस्विनाम् |
2460 | 4039017c | अधिगच्छ दिशं पूर्वां सशैलवनकाननाम् |
2461 | 4039018a | तत्र सीतां च वैदेहीं निलयं रावणस्य च |
2462 | 4039018c | मार्गध्वं गिरिदुर्गेषु वनेषु च नदीषु च |
2463 | 4039019a | नदीं भागीरथीं रम्यां सरयूं कौशिकीं तथा |
2464 | 4039019c | कालिन्दीं यमुनां रम्यां यामुनं च महागिरिम् |
2465 | 4039020a | सरस्वतीं च सिन्धुं च शोणं मणिनिभोदकम् |
2466 | 4039020c | महीं कालमहीं चैव शैलकाननशोभिताम् |
2467 | 4039021a | ब्रह्ममालान्विदेहांश्च मालवान्काशिकोसलान् |
2468 | 4039021c | मागधांश्च महाग्रामान्पुण्ड्रान्वङ्गांस्तथैव च |
2469 | 4039022a | पत्तनं कोशकाराणां भूमिं च रजताकराम् |
2470 | 4039022c | सर्वमेतद्विचेतव्यं मृगयद्भिर्ततस्ततः |
2471 | 4039023a | रामस्य दयितां भार्यां सीतां दशरतः स्नुषाम् |
2472 | 4039023c | समुद्रमवगाढांश्च पर्वतान्पत्तनानि च |
2473 | 4039024a | मन्दरस्य च ये कोटिं संश्रिताः केचिदायताम् |
2474 | 4039024c | कर्णप्रावरणाश्चैव तथा चाप्योष्ठकर्णकाः |
2475 | 4039025a | घोरा लोहमुखाश्चैव जवनाश्चैकपादकाः |
2476 | 4039025c | अक्षया बलवन्तश्च पुरुषाः पुरुषादकाः |
2477 | 4039026a | किराताः कर्णचूडाश्च हेमाङ्गाः प्रियदर्शनाः |
2478 | 4039026c | आममीनाशनास्तत्र किराता द्वीपवासिनः |
2479 | 4039027a | अन्तर्जलचरा घोरा नरव्याघ्रा इति श्रुताः |
2480 | 4039027c | एतेषामालयाः सर्वे विचेयाः काननौकसः |
2481 | 4039028a | गिरिभिर्ये च गम्यन्ते प्लवनेन प्लवेन च |
2482 | 4039028c | रत्नवन्तं यवद्वीपं सप्तराज्योपशोभितम् |
2483 | 4039029a | सुवर्णरूप्यकं चैव सुवर्णाकरमण्डितम् |
2484 | 4039029c | यवद्वीपमतिक्रम्य शिशिरो नाम पर्वतः |
2485 | 4039030a | दिवं स्पृशति शृङ्गेण देवदानवसेवितः |
2486 | 4039030c | एतेषां गिरिदुर्गेषु प्रतापेषु वनेषु च |
2487 | 4039031a | रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः |
2488 | 4039031c | ततः समुद्रद्वीपांश्च सुभीमान्द्रष्टुमर्हथ |
2489 | 4039032a | तत्रासुरा महाकायाश्छायां गृह्णन्ति नित्यशः |
2490 | 4039032c | ब्रह्मणा समनुज्ञाता दीर्घकालं बुभुक्षिताः |
2491 | 4039033a | तं कालमेघप्रतिमं महोरगनिषेवितम् |
2492 | 4039033c | अभिगम्य महानादं तीर्थेनैव महोदधिम् |
2493 | 4039034a | ततो रक्तजलं भीमं लोहितं नाम सागरम् |
2494 | 4039034c | गता द्रक्ष्यथ तां चैव बृहतीं कूटशाल्मलीम् |
2495 | 4039035a | गृहं च वैनतेयस्य नानारत्नविभूषितम् |
2496 | 4039035c | तत्र कैलाससंकाशं विहितं विश्वकर्मणा |
2497 | 4039036a | तत्र शैलनिभा भीमा मन्देहा नाम राक्षसाः |
2498 | 4039036c | शैलशृङ्गेषु लम्बन्ते नानारूपा भयावहाः |
2499 | 4039037a | ते पतन्ति जले नित्यं सूर्यस्योदयनं प्रति |
2500 | 4039037c | अभितप्ताश्च सूर्येण लम्बन्ते स्म पुनः पुनः |
2501 | 4039038a | ततः पाण्डुरमेघाभं क्षीरौदं नाम सागरम् |
2502 | 4039038c | गता द्रक्ष्यथ दुर्धर्षा मुखा हारमिवोर्मिभिः |
2503 | 4039039a | तस्य मध्ये महाश्वेत ऋषभो नाम पर्वतः |
2504 | 4039039c | दिव्यगन्धैः कुसुमितै रजतैश्च नगैर्वृतः |
2505 | 4039040a | सरश्च राजतैः पद्मैर्ज्वलितैर्हेमकेसरैः |
2506 | 4039040c | नाम्ना सुदर्शनं नाम राजहंसैः समाकुलम् |
2507 | 4039041a | विबुधाश्चारणा यक्षाः किंनराः साप्सरोगणाः |
2508 | 4039041c | हृष्टाः समभिगच्छन्ति नलिनीं तां रिरंसवः |
2509 | 4039042a | क्षीरोदं समतिक्रम्य ततो द्रक्ष्यथ वानराः |
2510 | 4039042c | जलोदं सागरश्रेष्ठं सर्वभूतभयावहम् |
2511 | 4039043a | तत्र तत्कोपजं तेजः कृतं हयमुखं महत् |
2512 | 4039043c | अस्याहुस्तन्महावेगमोदनं सचराचरम् |
2513 | 4039044a | तत्र विक्रोशतां नादो भूतानां सागरौकसाम् |
2514 | 4039044c | श्रूयते चासमर्थानां दृष्ट्वा तद्वडवामुखम् |
2515 | 4039045a | स्वादूदस्योत्तरे देशे योजनानि त्रयोदश |
2516 | 4039045c | जातरूपशिलो नाम महान्कनकपर्वतः |
2517 | 4039046a | आसीनं पर्वतस्याग्रे सर्वभूतनमस्कृतम् |
2518 | 4039046c | सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससं |
2519 | 4039047a | त्रिशिराः काञ्चनः केतुस्तालस्तस्य महात्मनः |
2520 | 4039047c | स्थापितः पर्वतस्याग्रे विराजति सवेदिकः |
2521 | 4039048a | पूर्वस्यां दिशि निर्माणं कृतं तत्त्रिदशेश्वरैः |
2522 | 4039048c | ततः परं हेममयः श्रीमानुदयपर्वतः |
2523 | 4039049a | तस्य कोटिर्दिवं स्पृष्ट्वा शतयोजनमायता |
2524 | 4039049c | जातरूपमयी दिव्या विराजति सवेदिका |
2525 | 4039050a | सालैस्तालैस्तमालैश्च कर्णिकारैश्च पुष्पितैः |
2526 | 4039050c | जातरूपमयैर्दिव्यैः शोभते सूर्यसंनिभैः |
2527 | 4039051a | तत्र योजनविस्तारमुच्छ्रितं दशयोजनम् |
2528 | 4039051c | शृङ्गं सौमनसं नाम जातरूपमयं ध्रुवम् |
2529 | 4039052a | तत्र पूर्वं पदं कृत्वा पुरा विष्णुस्त्रिविक्रमे |
2530 | 4039052c | द्वितीयं शिखरं मेरोश्चकार पुरुषोत्तमः |
2531 | 4039053a | उत्तरेण परिक्रम्य जम्बूद्वीपं दिवाकरः |
2532 | 4039053c | दृश्यो भवति भूयिष्ठं शिखरं तन्महोच्छ्रयम् |
2533 | 4039054a | तत्र वैखानसा नाम वालखिल्या महर्षयः |
2534 | 4039054c | प्रकाशमाना दृश्यन्ते सूर्यवर्णास्तपस्विनः |
2535 | 4039055a | अयं सुदर्शनो द्वीपः पुरो यस्य प्रकाशते |
2536 | 4039055c | यस्मिंस्तेजश्च चक्षुश्च सर्वप्रानभृतामपि |
2537 | 4039056a | शैलस्य तस्य कुञ्जेषु कन्दरेषु वनेषु च |
2538 | 4039056c | रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः |
2539 | 4039057a | काञ्चनस्य च शैलस्य सूर्यस्य च महात्मनः |
2540 | 4039057c | आविष्टा तेजसा संध्या पूर्वा रक्ता प्रकाशते |
2541 | 4039058a | ततः परमगम्या स्याद्दिक्पूर्वा त्रिदशावृता |
2542 | 4039058c | रहिता चन्द्रसूर्याभ्यामदृश्या तिमिरावृता |
2543 | 4039059a | शैलेषु तेषु सर्वेषु कन्दरेषु वनेषु च |
2544 | 4039059c | य च नोक्ता मया देशा विचेया तेषु जानकी |
2545 | 4039060a | एतावद्वानरैः शक्यं गन्तुं वानरपुंगवाः |
2546 | 4039060c | अभास्करममर्यादं न जानीमस्ततः परम् |
2547 | 4039061a | अधिगम्य तु वैदेहीं निलयं रावणस्य च |
2548 | 4039061c | मासे पूर्णे निवर्तध्वमुदयं प्राप्य पर्वतम् |
2549 | 4039062a | ऊर्ध्वं मासान्न वस्तव्यं वसन्वध्यो भवेन्मम |
2550 | 4039062c | सिद्धार्थाः संनिवर्तध्वमधिगम्य च मैथिलीम् |
2551 | 4039063a | महेन्द्रकान्तां वनषण्ड मण्डितां; दिशं चरित्वा निपुणेन वानराः |
2552 | 4039063c | अवाप्य सीतां रघुवंशजप्रियां; ततो निवृत्ताः सुखितो भविष्यथ |
2553 | 4040001a | ततः प्रस्थाप्य सुग्रीवस्तन्महद्वानरं बलम् |
2554 | 4040001c | दक्षिणां प्रेषयामास वानरानभिलक्षितान् |
2555 | 4040002a | नीलमग्निसुतं चैव हनुमन्तं च वानरम् |
2556 | 4040002c | पितामहसुतं चैव जाम्बवन्तं महाकपिम् |
2557 | 4040003a | सुहोत्रं च शरीरं च शरगुल्मं तथैव च |
2558 | 4040003c | गजं गवाक्षं गवयं सुषेणमृषभं तथा |
2559 | 4040004a | मैन्दं च द्विविदं चैव विजयं गन्धमादनम् |
2560 | 4040004c | उल्कामुखमसङ्गं च हुताशन सुतावुभौ |
2561 | 4040005a | अङ्गदप्रमुखान्वीरान्वीरः कपिगणेश्वरः |
2562 | 4040005c | वेगविक्रमसंपन्नान्संदिदेश विशेषवित् |
2563 | 4040006a | तेषामग्रेषरं चैव महद्बलमसंगगम् |
2564 | 4040006c | विधाय हरिवीराणामादिशद्दक्षिणां दिशम् |
2565 | 4040007a | ये केचन समुद्देशास्तस्यां दिशि सुदुर्गमाः |
2566 | 4040007c | कपीशः कपिमुख्यानां स तेषां तानुदाहरत् |
2567 | 4040008a | सहस्रशिरसं विन्ध्यं नानाद्रुमलतावृतम् |
2568 | 4040008c | नर्मदां च नदीं दुर्गां महोरगनिषेविताम् |
2569 | 4040009a | ततो गोदावरीं रम्यां कृष्णावेणीं महानदीम् |
2570 | 4040009c | वरदां च महाभागां महोरगनिषेविताम् |
2571 | 4040010a | मेखलानुत्कलांश्चैव दशार्णनगराण्यपि |
2572 | 4040010c | अवन्तीमभ्रवन्तीं च सर्वमेवानुपश्यत |
2573 | 4040011a | विदर्भानृषिकांश्चैव रम्यान्माहिषकानपि |
2574 | 4040011c | तथा बङ्गान्कलिङ्गांश्च कौशिकांश्च समन्ततः |
2575 | 4040012a | अन्वीक्ष्य दण्डकारण्यं सपर्वतनदीगुहम् |
2576 | 4040012c | नदीं गोदावरीं चैव सर्वमेवानुपश्यत |
2577 | 4040013a | तथैवान्ध्रांश्च पुण्ड्रांश्च चोलान्पाण्ड्यान्सकेरलान् |
2578 | 4040013c | अयोमुखश्च गन्तव्यः पर्वतो धातुमण्डितः |
2579 | 4040014a | विचित्रशिखरः श्रीमांश्चित्रपुष्पितकाननः |
2580 | 4040014c | सचन्दनवनोद्देशो मार्गितव्यो महागिरिः |
2581 | 4040015a | ततस्तामापगां दिव्यां प्रसन्नसलिलां शिवाम् |
2582 | 4040015c | तत्र द्रक्ष्यथ कावेरीं विहृतामप्सरोगणैः |
2583 | 4040016a | तस्यासीनं नगस्याग्रे मलयस्य महौजसं |
2584 | 4040016c | द्रक्ष्यथादित्यसंकाशमगस्त्यमृषिसत्तमम् |
2585 | 4040017a | ततस्तेनाभ्यनुज्ञाताः प्रसन्नेन महात्मना |
2586 | 4040017c | ताम्रपर्णीं ग्राहजुष्टां तरिष्यथ महानदीम् |
2587 | 4040018a | सा चन्दनवनैर्दिव्यैः प्रच्छन्ना द्वीप शालिनी |
2588 | 4040018c | कान्तेव युवतिः कान्तं समुद्रमवगाहते |
2589 | 4040019a | ततो हेममयं दिव्यं मुक्तामणिविभूषितम् |
2590 | 4040019c | युक्तं कवाटं पाण्ड्यानां गता द्रक्ष्यथ वानराः |
2591 | 4040020a | ततः समुद्रमासाद्य संप्रधार्यार्थनिश्चयम् |
2592 | 4040020c | अगस्त्येनान्तरे तत्र सागरे विनिवेशितः |
2593 | 4040021a | चित्रनानानगः श्रीमान्महेन्द्रः पर्वतोत्तमः |
2594 | 4040021c | जातरूपमयः श्रीमानवगाढो महार्णवम् |
2595 | 4040022a | नानाविधैर्नगैः फुल्लैर्लताभिश्चोपशोभितम् |
2596 | 4040022c | देवर्षियक्षप्रवरैरप्सरोभिश्च सेवितम् |
2597 | 4040023a | सिद्धचारणसंघैश्च प्रकीर्णं सुमनोहरम् |
2598 | 4040023c | तमुपैति सहस्राक्षः सदा पर्वसु पर्वसु |
2599 | 4040024a | द्वीपस्तस्यापरे पारे शतयोजनमायतः |
2600 | 4040024c | अगम्यो मानुषैर्दीप्तस्तं मार्गध्वं समन्ततः |
2601 | 4040024e | तत्र सर्वात्मना सीता मार्गितव्या विशेषतः |
2602 | 4040025a | स हि देशस्तु वध्यस्य रावणस्य दुरात्मनः |
2603 | 4040025c | राक्षसाधिपतेर्वासः सहस्राक्षसमद्युतेः |
2604 | 4040026a | दक्षिणस्य समुद्रस्य मध्ये तस्य तु राक्षसी |
2605 | 4040026c | अङ्गारकेति विख्याता छायामाक्षिप्य भोजिनी |
2606 | 4040027a | तमतिक्रम्य लक्ष्मीवान्समुद्रे शतयोजने |
2607 | 4040027c | गिरिः पुष्पितको नाम सिद्धचारणसेवितः |
2608 | 4040028a | चन्द्रसूर्यांशुसंकाशः सागराम्बुसमावृतः |
2609 | 4040028c | भ्राजते विपुलैः शृङ्गैरम्बरं विलिखन्निव |
2610 | 4040029a | तस्यैकं काञ्चनं शृङ्गं सेवते यं दिवाकरः |
2611 | 4040029c | श्वेतं राजतमेकं च सेवते यं निशाकरः |
2612 | 4040030a | न तं कृतघ्नाः पश्यन्ति न नृशंसा न नास्तिकाः |
2613 | 4040030c | प्रणम्य शिरसा शैलं तं विमार्गत वानराः |
2614 | 4040031a | तमतिक्रम्य दुर्धर्षाः सूर्यवान्नाम पर्वतः |
2615 | 4040031c | अध्वना दुर्विगाहेन योजनानि चतुर्दश |
2616 | 4040032a | ततस्तमप्यतिक्रम्य वैद्युतो नाम पर्वतः |
2617 | 4040032c | सर्वकामफलैर्वृक्षैः सर्वकालमनोहरैः |
2618 | 4040033a | तत्र भुक्त्वा वरार्हाणि मूलानि च फलानि च |
2619 | 4040033c | मधूनि पीत्वा मुख्यानि परं गच्छत वानराः |
2620 | 4040034a | तत्र नेत्रमनःकान्तः कुञ्जरो नाम पर्वतः |
2621 | 4040034c | अगस्त्यभवनं यत्र निर्मितं विश्वकर्मणा |
2622 | 4040035a | तत्र योजनविस्तारमुच्छ्रितं दशयोजनम् |
2623 | 4040035c | शरणं काञ्चनं दिव्यं नानारत्नविभूषितम् |
2624 | 4040036a | तत्र भोगवती नाम सर्पाणामालयः पुरी |
2625 | 4040036c | विशालरथ्या दुर्धर्षा सर्वतः परिरक्षिता |
2626 | 4040036e | रक्षिता पन्नगैर्घोरैस्तीक्ष्णदंष्ट्रैर्महाविषैः |
2627 | 4040037a | सर्पराजो महाघोरो यस्यां वसति वासुकिः |
2628 | 4040037c | निर्याय मार्गितव्या च सा च भोगवती पुरी |
2629 | 4040038a | तं च देशमतिक्रम्य महानृषभसंस्थितः |
2630 | 4040038c | सर्वरत्नमयः श्रीमानृषभो नाम पर्वतः |
2631 | 4040039a | गोशीर्षकं पद्मकं च हरिश्यामं च चन्दनम् |
2632 | 4040039c | दिव्यमुत्पद्यते यत्र तच्चैवाग्निसमप्रभम् |
2633 | 4040040a | न तु तच्चन्दनं दृष्ट्वा स्प्रष्टव्यं च कदाचन |
2634 | 4040040c | रोहिता नाम गन्धर्वा घोरा रक्षन्ति तद्वनम् |
2635 | 4040041a | तत्र गन्धर्वपतयः पञ्चसूर्यसमप्रभाः |
2636 | 4040041c | शैलूषो ग्रामणीर्भिक्षुः शुभ्रो बभ्रुस्तथैव च |
2637 | 4040042a | अन्ते पृथिव्या दुर्धर्षास्तत्र स्वर्गजितः स्थिताः |
2638 | 4040042c | ततः परं न वः सेव्यः पितृलोकः सुदारुणः |
2639 | 4040042e | राजधानी यमस्यैषा कष्टेन तमसावृता |
2640 | 4040043a | एतावदेव युष्माभिर्वीरा वानरपुंगवाः |
2641 | 4040043c | शक्यं विचेतुं गन्तुं वा नातो गतिमतां गतिः |
2642 | 4040044a | सर्वमेतत्समालोक्य यच्चान्यदपि दृश्यते |
2643 | 4040044c | गतिं विदित्वा वैदेह्याः संनिवर्तितमर्हथ |
2644 | 4040045a | यस्तु मासान्निवृत्तोऽग्रे दृष्टा सीतेति वक्ष्यति |
2645 | 4040045c | मत्तुल्यविभवो भोगैः सुखं स विहरिष्यति |
2646 | 4040046a | ततः प्रियतरो नास्ति मम प्राणाद्विशेषतः |
2647 | 4040046c | कृतापराधो बहुशो मम बन्धुर्भविष्यति |
2648 | 4040047a | अमितबलपराक्रमा भवन्तो; विपुलगुणेषु कुलेषु च प्रसूताः |
2649 | 4040047c | मनुजपतिसुतां यथा लभध्वं; तदधिगुणं पुरुषार्थमारभध्वम् |
2650 | 4041001a | ततः प्रस्थाप्य सुग्रीवस्तान्हरीन्दक्षिणां दिशम् |
2651 | 4041001c | बुद्धिविक्रमसंपन्नान्वायुवेगसमाञ्जवे |
2652 | 4041002a | अथाहूय महातेजाः सुषेणं नाम यूथपम् |
2653 | 4041002c | तारायाः पितरं राजा श्वशुरभीमविक्रमम् |
2654 | 4041003a | अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यमभिगम्य प्रणम्य च |
2655 | 4041003c | साहाय्यं कुरु रामस्य कृत्येऽस्मिन्समुपस्थिते |
2656 | 4041004a | वृतः शतसहस्रेण वानराणां तरस्विनाम् |
2657 | 4041004c | अभिगच्छ दिशं सौम्य पश्चिमां वारुणीं प्रभो |
2658 | 4041005a | सुराष्ट्रान्सह बाह्लीकाञ्शूराभीरांस्तथैव च |
2659 | 4041005c | स्फीताञ्जनपदान्रम्यान्विपुलानि पुराणि च |
2660 | 4041006a | पुंनागगहनं कुक्षिं बहुलोद्दालकाकुलम् |
2661 | 4041006c | तथा केतकषण्डांश्च मार्गध्वं हरियूथपाः |
2662 | 4041007a | प्रत्यक्स्रोतोगमाश्चैव नद्यः शीतजलाः शिवाः |
2663 | 4041007c | तापसानामरण्यानि कान्तारा गिरयश्च ये |
2664 | 4041008a | गिरिजालावृतां दुर्गां मार्गित्वा पश्चिमां दिशम् |
2665 | 4041008c | ततः पश्चिममासाद्य समुद्रं द्रष्टुमर्हथ |
2666 | 4041008e | तिमि नक्रायुत जलमक्षोभ्यमथ वानरः |
2667 | 4041009a | ततः केतकषण्डेषु तमालगहनेषु च |
2668 | 4041009c | कपयो विहरिष्यन्ति नारिकेलवनेषु च |
2669 | 4041010a | तत्र सीतां च मार्गध्वं निलयं रावणस्य च |
2670 | 4041010c | मरीचिपत्तनं चैव रम्यं चैव जटीपुरम् |
2671 | 4041011a | अवन्तीमङ्गलोपां च तथा चालक्षितं वनम् |
2672 | 4041011c | राष्ट्राणि च विशालानि पत्तनानि ततस्ततः |
2673 | 4041012a | सिन्धुसागरयोश्चैव संगमे तत्र पर्वतः |
2674 | 4041012c | महान्हेमगिरिर्नाम शतशृङ्गो महाद्रुमः |
2675 | 4041013a | तस्य प्रस्थेषु रम्येषु सिंहाः पक्षगमाः स्थिताः |
2676 | 4041013c | तिमिमत्स्यगजांश्चैव नीडान्यारोपयन्ति ते |
2677 | 4041014a | तानि नीडानि सिंहानां गिरिशृङ्गगताश्च ये |
2678 | 4041014c | दृप्तास्तृप्ताश्च मातङ्गास्तोयदस्वननिःस्वनाः |
2679 | 4041014e | विचरन्ति विशालेऽस्मिंस्तोयपूर्णे समन्ततः |
2680 | 4041015a | तस्य शृङ्गं दिवस्पर्शं काञ्चनं चित्रपादपम् |
2681 | 4041015c | सर्वमाशु विचेतव्यं कपिभिः कामरूपिभिः |
2682 | 4041016a | कोटिं तत्र समुद्रे तु काञ्चनीं शतयोजनम् |
2683 | 4041016c | दुर्दर्शां परियात्रस्य गता द्रक्ष्यथ वानराः |
2684 | 4041017a | कोट्यस्तत्र चतुर्विंशद्गन्धर्वाणां तरस्विनाम् |
2685 | 4041017c | वसन्त्यग्निनिकाशानां घोराणां कामरूपिणाम् |
2686 | 4041018a | नात्यासादयितव्यास्ते वानरैर्भीमविक्रमैः |
2687 | 4041018c | नादेयं च फलं तस्माद्देशात्किंचित्प्लवंगमैः |
2688 | 4041019a | दुरासदा हि ते वीराः सत्त्ववन्तो महाबलाः |
2689 | 4041019c | फलमूलानि ते तत्र रक्षन्ते भीमविक्रमाः |
2690 | 4041020a | तत्र यत्नश्च कर्तव्यो मार्गितव्या च जानकी |
2691 | 4041020c | न हि तेभ्यो भयं किंचित्कपित्वमनुवर्तताम् |
2692 | 4041021a | चतुर्भागे समुद्रस्य चक्रवान्नाम पर्वतः |
2693 | 4041021c | तत्र चक्रं सहस्रारं निर्मितं विश्वकर्मणा |
2694 | 4041022a | तत्र पञ्चजनं हत्वा हयग्रीवं च दानवम् |
2695 | 4041022c | आजहार ततश्चक्रं शङ्खं च पुरुषोत्तमः |
2696 | 4041023a | तस्य सानुषु चित्रेषु विशालासु गुहासु च |
2697 | 4041023c | रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः |
2698 | 4041024a | योजनानि चतुःषष्टिर्वराहो नाम पर्वतः |
2699 | 4041024c | सुवर्णशृङ्गः सुश्रीमानगाधे वरुणालये |
2700 | 4041025a | तत्र प्राग्ज्योतिषं नाम जातरूपमयं पुरम् |
2701 | 4041025c | यस्मिन्वस्ति दुष्टात्मा नरको नाम गुहासु च |
2702 | 4041026a | तस्य सानुषु चित्रेषु विशालासु गुहासु च |
2703 | 4041026c | रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः |
2704 | 4041027a | तमतिक्रम्य शैलेन्द्रं काञ्चनान्तरनिर्दरः |
2705 | 4041027c | पर्वतः सर्वसौवर्णो धारा प्रस्रवणायुतः |
2706 | 4041028a | तं गजाश्च वराहाश्च सिंहा व्याघ्राश्च सर्वतः |
2707 | 4041028c | अभिगर्जन्ति सततं तेन शब्देन दर्पिताः |
2708 | 4041029a | तस्मिन्हरिहयः श्रीमान्महेन्द्रः पाकशासनः |
2709 | 4041029c | अभिषिक्तः सुरै राजा मेघवान्नाम पर्वतः |
2710 | 4041030a | तमतिक्रम्य शैलेन्द्रं महेन्द्रपरिपालितम् |
2711 | 4041030c | षष्टिं गिरिसहस्राणि काञ्चनानि गमिष्यथ |
2712 | 4041031a | तरुणादित्यवर्णानि भ्राजमानानि सर्वतः |
2713 | 4041031c | जातरूपमयैर्वृक्षैः शोभितानि सुपुष्पितैः |
2714 | 4041032a | तेषां मध्ये स्थितो राजा मेरुरुत्तमपर्वतः |
2715 | 4041032c | आदित्येन प्रसन्नेन शैलो दत्तवरः पुरा |
2716 | 4041033a | तेनैवमुक्तः शैलेन्द्रः सर्व एव त्वदाश्रयाः |
2717 | 4041033c | मत्प्रसादाद्भविष्यन्ति दिवारात्रौ च काञ्चनाः |
2718 | 4041034a | त्वयि ये चापि वत्स्यन्ति देवगन्धर्वदानवाः |
2719 | 4041034c | ते भविष्यन्ति रक्ताश्च प्रभया काञ्चनप्रभाः |
2720 | 4041035a | आदित्या वसवो रुद्रा मरुतश्च दिवौकसः |
2721 | 4041035c | आगम्य पश्चिमां संध्यां मेरुमुत्तमपर्वतम् |
2722 | 4041036a | आदित्यमुपतिष्ठन्ति तैश्च सूर्योऽभिपूजितः |
2723 | 4041036c | अदृश्यः सर्वभूतानामस्तं गच्छति पर्वतम् |
2724 | 4041037a | योजनानां सहस्राणि दशतानि दिवाकरः |
2725 | 4041037c | मुहूर्तार्धेन तं शीघ्रमभियाति शिलोच्चयम् |
2726 | 4041038a | शृङ्गे तस्य महद्दिव्यं भवनं सूर्यसंनिभम् |
2727 | 4041038c | प्रासादगुणसंबाधं विहितं विश्वकर्मणा |
2728 | 4041039a | शोभितं तरुभिश्चित्रैर्नानापक्षिसमाकुलैः |
2729 | 4041039c | निकेतं पाशहस्तस्य वरुणस्य महात्मनः |
2730 | 4041040a | अन्तरा मेरुमस्तं च तालो दशशिरा महान् |
2731 | 4041040c | जातरूपमयः श्रीमान्भ्राजते चित्रवेदिकः |
2732 | 4041041a | तेषु सर्वेषु दुर्गेषु सरःसु च सरित्सु च |
2733 | 4041041c | रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः |
2734 | 4041042a | यत्र तिष्ठति धर्मात्मा तपसा स्वेन भावितः |
2735 | 4041042c | मेरुसावर्णिरित्येव ख्यातो वै ब्रह्मणा समः |
2736 | 4041043a | प्रष्टव्यो मेरुसावर्णिर्महर्षिः सूर्यसंनिभः |
2737 | 4041043c | प्रणम्य शिरसा भूमौ प्रवृत्तिं मैथिलीं प्रति |
2738 | 4041044a | एतावज्जीवलोकस्य भास्करो रजनीक्षये |
2739 | 4041044c | कृत्वा वितिमिरं सर्वमस्तं गच्छति पर्वतम् |
2740 | 4041045a | एतावद्वानरैः शक्यं गन्तुं वानरपुंगवाः |
2741 | 4041045c | अभास्करममर्यादं न जानीमस्ततः परम् |
2742 | 4041046a | अधिगम्य तु वैदेहीं निलयं रावणस्य च |
2743 | 4041046c | अस्तं पर्वतमासाद्य पूर्णे मासे निवर्तत |
2744 | 4041047a | ऊर्ध्वं मासान्न वस्तव्यं वसन्वध्यो भवेन्मम |
2745 | 4041047c | सहैव शूरो युष्माभिः श्वशुरो मे गमिष्यति |
2746 | 4041048a | श्रोतव्यं सर्वमेतस्य भवद्भिर्दिष्ट कारिभिः |
2747 | 4041048c | गुरुरेष महाबाहुः श्वशुरो मे महाबलः |
2748 | 4041049a | भवन्तश्चापि विक्रान्ताः प्रमाणं सर्वकर्मसु |
2749 | 4041049c | प्रमाणमेनं संस्थाप्य पश्यध्वं पश्चिमां दिशम् |
2750 | 4041050a | दृष्टायां तु नरेन्द्रस्या पत्न्याममिततेजसः |
2751 | 4041050c | कृतकृत्या भविष्यामः कृतस्य प्रतिकर्मणा |
2752 | 4041051a | अतोऽन्यदपि यत्किंचित्कार्यस्यास्य हितं भवेत् |
2753 | 4041051c | संप्रधार्य भवद्भिश्च देशकालार्थसंहितम् |
2754 | 4041052a | ततः सुषेण प्रमुखाः प्लवंगमाः; सुग्रीववाक्यं निपुणं निशम्य |
2755 | 4041052c | आमन्त्र्य सर्वे प्लवगाधिपं ते; जग्मुर्दिशं तां वरुणाभिगुप्ताम् |
2756 | 4042001a | ततः संदिश्य सुग्रीवः श्वशुरं पश्चिमां दिशम् |
2757 | 4042001c | वीरं शतबलिं नाम वानरं वानरर्षभः |
2758 | 4042002a | उवाच राजा मन्त्रज्ञः सर्ववानरसंमतम् |
2759 | 4042002c | वाक्यमात्महितं चैव रामस्य च हितं तथा |
2760 | 4042003a | वृतः शतसहस्रेण त्वद्विधानां वनौकसाम् |
2761 | 4042003c | वैवस्वत सुतैः सार्धं प्रतिष्ठस्व स्वमन्त्रिभिः |
2762 | 4042004a | दिशं ह्युदीचीं विक्रान्तां हिमशैलावतंसकाम् |
2763 | 4042004c | सर्वतः परिमार्गध्वं रामपत्नीमनिन्दिताम् |
2764 | 4042005a | अस्मिन्कार्ये विनिवृत्ते कृते दाशरथेः प्रिये |
2765 | 4042005c | ऋणान्मुक्ता भविष्यामः कृतार्थार्थविदां वराः |
2766 | 4042006a | कृतं हि प्रियमस्माकं राघवेण महात्मना |
2767 | 4042006c | तस्य चेत्प्रतिकारोऽस्ति सफलं जीवितं भवेत् |
2768 | 4042007a | एतां बुद्धिं समास्थाय दृश्यते जानकी यथा |
2769 | 4042007c | तथा भवद्भिः कर्तव्यमस्मत्प्रियहितैषिभिः |
2770 | 4042008a | अयं हि सर्वभूतानां मान्यस्तु नरसत्तमः |
2771 | 4042008c | अस्मासु चागतप्रीती रामः परपुरंजयः |
2772 | 4042009a | इमानि वनदुर्गाणि नद्यः शैलान्तराणि च |
2773 | 4042009c | भवन्तः परिमार्गंस्तु बुद्धिविक्रमसंपदा |
2774 | 4042010a | तत्र म्लेच्छान्पुलिन्दांश्च शूरसेनांस्तथैव च |
2775 | 4042010c | प्रस्थालान्भरतांश्चैव कुरूंश्च सह मद्रकैः |
2776 | 4042011a | काम्बोजान्यवनांश्चैव शकानारट्टकानपि |
2777 | 4042011c | बाह्लीकानृषिकांश्चैव पौरवानथ टङ्कणान् |
2778 | 4042012a | चीनान्परमचीनांश्च नीहारांश्च पुनः पुनः |
2779 | 4042012c | अन्विष्य दरदांश्चैव हिमवन्तं विचिन्वथ |
2780 | 4042013a | लोध्रपद्मकषण्डेषु देवदारुवनेषु च |
2781 | 4042013c | रावणः सह वैदेह्य मार्गितव्यस्ततस्ततः |
2782 | 4042014a | ततः सोमाश्रमं गत्वा देवगन्धर्वसेवितम् |
2783 | 4042014c | कालं नाम महासानुं पर्वतं तं गमिष्यथ |
2784 | 4042015a | महत्सु तस्य शृङ्गेषु निर्दरेषु गुहासु च |
2785 | 4042015c | विचिनुध्वं महाभागां रामपत्नीं यशस्विनीम् |
2786 | 4042016a | तमतिक्रम्य शैलेन्द्रं हेमवर्गं महागिरिम् |
2787 | 4042016c | ततः सुदर्शनं नाम पर्वतं गन्तुमर्हथ |
2788 | 4042017a | तस्य काननषण्डेषु निर्दरेषु गुहासु च |
2789 | 4042017c | रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः |
2790 | 4042018a | तमतिक्रम्य चाकाशं सर्वतः शतयोजनम् |
2791 | 4042018c | अपर्वतनदी वृक्षं सर्वसत्त्वविवर्जितम् |
2792 | 4042019a | तं तु शीघ्रमतिक्रम्य कान्तारं रोमहर्षणम् |
2793 | 4042019c | कैलासं पाण्डुरं शैलं प्राप्य हृष्टा भविष्यथ |
2794 | 4042020a | तत्र पाण्डुरमेघाभं जाम्बूनदपरिष्कृतम् |
2795 | 4042020c | कुबेरभवनं दिव्यं निर्मितं विश्वकर्मणा |
2796 | 4042021a | विशाला नलिनी यत्र प्रभूतकमलोत्पला |
2797 | 4042021c | हंसकारण्डवाकीर्णा अप्सरोगणसेविता |
2798 | 4042022a | तत्र वैश्रवणो राजा सर्वभूतनमस्कृतः |
2799 | 4042022c | धनदो रमते श्रीमान्गुह्यकैः सह यक्षराट् |
2800 | 4042023a | तस्य चन्द्रनिकशेषु पर्वतेषु गुहासु च |
2801 | 4042023c | रावणः सह वैदेह्या मार्गितव्यस्ततस्ततः |
2802 | 4042024a | क्रौञ्चं तु गिरिमासाद्य बिलं तस्य सुदुर्गमम् |
2803 | 4042024c | अप्रमत्तैः प्रवेष्टव्यं दुष्प्रवेशं हि तत्स्मृतम् |
2804 | 4042025a | वसन्ति हि महात्मानस्तत्र सूर्यसमप्रभाः |
2805 | 4042025c | देवैरप्यर्चिताः सम्यग्देवरूपा महर्षयः |
2806 | 4042026a | क्रौञ्चस्य तु गुहाश्चान्याः सानूनि शिखराणि च |
2807 | 4042026c | निर्दराश्च नितम्बाश्च विचेतव्यास्ततस्ततः |
2808 | 4042027a | क्रौञ्चस्य शिखरं चापि निरीक्ष्य च ततस्ततः |
2809 | 4042027c | अवृक्षं कामशैलं च मानसं विहगालयम् |
2810 | 4042028a | न गतिस्तत्र भूतानां देवदानवरक्षसाम् |
2811 | 4042028c | स च सर्वैर्विचेतव्यः ससानुप्रस्थभूधरः |
2812 | 4042029a | क्रौञ्चं गिरिमतिक्रम्य मैनाको नाम पर्वतः |
2813 | 4042029c | मयस्य भवनं तत्र दानवस्य स्वयं कृतम् |
2814 | 4042030a | मैनाकस्तु विचेतव्यः ससानुप्रस्थकन्दरः |
2815 | 4042030c | स्त्रीणामश्वमुखीनां च निकेतास्तत्र तत्र तु |
2816 | 4042031a | तं देशं समतिक्रम्य आश्रमं सिद्धसेवितम् |
2817 | 4042031c | सिद्धा वैखानसास्तत्र वालखिल्याश्च तापसाः |
2818 | 4042032a | वन्द्यास्ते तु तपःसिद्धास्तापसा वीतकल्मषाः |
2819 | 4042032c | प्रष्टव्याश्चापि सीतायाः प्रवृत्तं विनयान्वितैः |
2820 | 4042033a | हेमपुष्करसंछन्नं तत्र वैखानसं सरः |
2821 | 4042033c | तरुणादित्यसंकाशैर्हंसैर्विचरितं शुभैः |
2822 | 4042034a | औपवाह्यः कुबेरस्य सर्वभौम इति स्मृतः |
2823 | 4042034c | गजः पर्येति तं देशं सदा सह करेणुभिः |
2824 | 4042035a | तत्सारः समतिक्रम्य नष्टचन्द्रदिवाकरम् |
2825 | 4042035c | अनक्षत्रगणं व्योम निष्पयोदमनादिमत् |
2826 | 4042036a | गभस्तिभिरिवार्कस्य स तु देशः प्रकाशते |
2827 | 4042036c | विश्राम्यद्भिस्तपः सिद्धैर्देवकल्पैः स्वयम्प्रभैः |
2828 | 4042037a | तं तु देशमतिक्रम्य शैलोदा नाम निम्नगा |
2829 | 4042037c | उभयोस्तीरयोर्यस्याः कीचका नाम वेणवः |
2830 | 4042038a | ते नयन्ति परं तीरं सिद्धान्प्रत्यानयन्ति च |
2831 | 4042038c | उत्तराः कुरवस्तत्र कृतपुण्यप्रतिश्रियाः |
2832 | 4042039a | ततः काञ्चनपद्माभिः पद्मिनीभिः कृतोदकाः |
2833 | 4042039c | नीलवैदूर्यपत्राढ्या नद्यस्तत्र सहस्रशः |
2834 | 4042040a | रक्तोत्पलवनैश्चात्र मण्डिताश्च हिरण्मयैः |
2835 | 4042040c | तरुणादित्यसदृशैर्भान्ति तत्र जलाशयाः |
2836 | 4042041a | महार्हमणिपत्रैश्च काञ्चनप्रभ केसरैः |
2837 | 4042041c | नीलोत्पलवनैश्चित्रैः स देशः सर्वतोवृतः |
2838 | 4042042a | निस्तुलाभिश्च मुक्ताभिर्मणिभिश्च महाधनैः |
2839 | 4042042c | उद्भूतपुलिनास्तत्र जातरूपैश्च निम्नगाः |
2840 | 4042043a | सर्वरत्नमयैश्चित्रैरवगाढा नगोत्तमैः |
2841 | 4042043c | जातरूपमयैश्चापि हुताशनसमप्रभैः |
2842 | 4042044a | नित्यपुष्पफलाश्चात्र नगाः पत्ररथाकुलाः |
2843 | 4042044c | दिव्यगन्धरसस्पर्शाः सर्वकामान्स्रवन्ति च |
2844 | 4042045a | नानाकाराणि वासांसि फलन्त्यन्ये नगोत्तमाः |
2845 | 4042045c | मुक्तावैदूर्यचित्राणि भूषणानि तथैव च |
2846 | 4042046a | स्त्रीणां यान्यनुरूपाणि पुरुषाणां तथैव च |
2847 | 4042046c | सर्वर्तुसुखसेव्यानि फलन्त्यन्ये नगोत्तमाः |
2848 | 4042047a | महार्हाणि विचित्राणि हैमान्यन्ये नगोत्तमाः |
2849 | 4042047c | शयनानि प्रसूयन्ते चित्रास्तारणवन्ति च |
2850 | 4042048a | मनःकान्तानि माल्यानि फलन्त्यत्रापरे द्रुमाः |
2851 | 4042048c | पानानि च महार्हाणि भक्ष्याणि विविधानि च |
2852 | 4042049a | स्त्रियश्च गुणसंपन्ना रूपयौवनलक्षिताः |
2853 | 4042049c | गन्धर्वाः किंनरा सिद्धा नागा विद्याधरास्तथा |
2854 | 4042049e | रमन्ते सहितास्तत्र नारीभिर्भास्करप्रभाः |
2855 | 4042050a | सर्वे सुकृतकर्माणः सर्वे रतिपरायणाः |
2856 | 4042050c | सर्वे कामार्थसहिता वसन्ति सह योषितः |
2857 | 4042051a | गीतवादित्रनिर्घोषः सोत्कृष्टहसितस्वनः |
2858 | 4042051c | श्रूयते सततं तत्र सर्वभूतमनोहरः |
2859 | 4042052a | तत्र नामुदितः कश्चिन्नास्ति कश्चिदसत्प्रियः |
2860 | 4042052c | अहन्यहनि वर्धन्ते गुणास्तत्र मनोरमाः |
2861 | 4042053a | समतिक्रम्य तं देशमुत्तरस्तोयसां निधिः |
2862 | 4042053c | तत्र सोमगिरिर्नाम मध्ये हेममयो महान् |
2863 | 4042054a | इन्द्रलोकगता ये च ब्रह्मलोकगताश्च ये |
2864 | 4042054c | देवास्तं समवेक्षन्ते गिरिराजं दिवं गतम् |
2865 | 4042055a | स तु देशो विसूर्योऽपि तस्य भासा प्रकाशते |
2866 | 4042055c | सूर्यलक्ष्म्याभिविज्ञेयस्तपसेव विवस्वता |
2867 | 4042056a | भगवानपि विश्वात्मा शम्भुरेकादशात्मकः |
2868 | 4042056c | ब्रह्मा वसति देवेशो ब्रह्मर्षिपरिवारितः |
2869 | 4042057a | न कथंचन गन्तव्यं कुरूणामुत्तरेण वः |
2870 | 4042057c | अन्येषामपि भूतानां नातिक्रामति वै गतिः |
2871 | 4042058a | सा हि सोमगिरिर्नाम देवानामपि दुर्गमः |
2872 | 4042058c | तमालोक्य ततः क्षिप्रमुपावर्तितुमर्हथ |
2873 | 4042059a | एतावद्वानरैः शक्यं गन्तुं वानरपुंगवाः |
2874 | 4042059c | अभास्करममर्यादं न जानीमस्ततः परम् |
2875 | 4042060a | सर्वमेतद्विचेतव्यं यन्मया परिकीर्तितम् |
2876 | 4042060c | यदन्यदपि नोक्तं च तत्रापि क्रियतां मतिः |
2877 | 4042061a | ततः कृतं दाशरथेर्महत्प्रियं; महत्तरं चापि ततो मम प्रियम् |
2878 | 4042061c | कृतं भविष्यत्यनिलानलोपमा; विदेहजा दर्शनजेन कर्मणा |
2879 | 4042062a | ततः कृतार्थाः सहिताः सबान्धवा; मयार्चिताः सर्वगुणैर्मनोरमैः |
2880 | 4042062c | चरिष्यथोर्वीं प्रतिशान्तशत्रवः; सहप्रिया भूतधराः प्लवंगमाः |
2881 | 4043001a | विशेषेण तु सुग्रीवो हनुमत्यर्थमुक्तवान् |
2882 | 4043001c | स हि तस्मिन्हरिश्रेष्ठे निश्चितार्थोऽर्थसाधने |
2883 | 4043002a | न भूमौ नान्तरिक्षे वा नाम्बरे नामरालये |
2884 | 4043002c | नाप्सु वा गतिसंगं ते पश्यामि हरिपुंगव |
2885 | 4043003a | सासुराः सहगन्धर्वाः सनागनरदेवताः |
2886 | 4043003c | विदिताः सर्वलोकास्ते ससागरधराधराः |
2887 | 4043004a | गतिर्वेगश्च तेजश्च लाघवं च महाकपे |
2888 | 4043004c | पितुस्ते सदृशं वीर मारुतस्य महौजसः |
2889 | 4043005a | तेजसा वापि ते भूतं समं भुवि न विद्यते |
2890 | 4043005c | तद्यथा लभ्यते सीता तत्त्वमेवोपपादय |
2891 | 4043006a | त्वय्येव हनुमन्नस्ति बलं बुद्धिः पराक्रमः |
2892 | 4043006c | देशकालानुवृत्तश्च नयश्च नयपण्डित |
2893 | 4043007a | ततः कार्यसमासंगमवगम्य हनूमति |
2894 | 4043007c | विदित्वा हनुमन्तं च चिन्तयामास राघवः |
2895 | 4043008a | सर्वथा निश्चितार्थोऽयं हनूमति हरीश्वरः |
2896 | 4043008c | निश्चितार्थतरश्चापि हनूमान्कार्यसाधने |
2897 | 4043009a | तदेवं प्रस्थितस्यास्य परिज्ञातस्य कर्मभिः |
2898 | 4043009c | भर्त्रा परिगृहीतस्य ध्रुवः कार्यफलोदयः |
2899 | 4043010a | तं समीक्ष्य महातेजा व्यवसायोत्तरं हरिम् |
2900 | 4043010c | कृतार्थ इव संवृत्तः प्रहृष्टेन्द्रियमानसः |
2901 | 4043011a | ददौ तस्य ततः प्रीतः स्वनामाङ्कोपशोभितम् |
2902 | 4043011c | अङ्गुलीयमभिज्ञानं राजपुत्र्याः परंतपः |
2903 | 4043012a | अनेन त्वां हरिश्रेष्ठ चिह्नेन जनकात्मजा |
2904 | 4043012c | मत्सकाशादनुप्राप्तमनुद्विग्नानुपश्यति |
2905 | 4043013a | व्यवसायश्च ते वीर सत्त्वयुक्तश्च विक्रमः |
2906 | 4043013c | सुग्रीवस्य च संदेशः सिद्धिं कथयतीव मे |
2907 | 4043014a | स तद्गृह्य हरिश्रेष्ठः स्थाप्य मूर्ध्नि कृताञ्जलिः |
2908 | 4043014c | वन्दित्वा चरणौ चैव प्रस्थितः प्लवगोत्तमः |
2909 | 4043015a | स तत्प्रकर्षन्हरिणां बलं मह;द्बभूव वीरः पवनात्मजः कपि |
2910 | 4043015c | गताम्बुदे व्योम्नि विशुद्धमण्डलः; शशीव नक्षत्रगणोपशोभितः |
2911 | 4043016a | अतिबलबलमाश्रितस्तवाहं; हरिवरविक्रमविक्रमैरनल्पैः |
2912 | 4043016c | पवनसुत यथाभिगम्यते सा; जनकसुता हनुमंस्तथा कुरुष्व |
2913 | 4044001a | तदुग्रशासनं भर्तुर्विज्ञाय हरिपुंगवाः |
2914 | 4044001c | शलभा इव संछाद्य मेदिनीं संप्रतस्थिरे |
2915 | 4044002a | रामः प्रस्रवणे तस्मिन्न्यवसत्सहलक्ष्मणः |
2916 | 4044002c | प्रतीक्षमाणस्तं मासं यः सीताधिगमे कृतः |
2917 | 4044003a | उत्तरां तु दिशं रम्यां गिरिराजसमावृताम् |
2918 | 4044003c | प्रतस्थे सहसा वीरो हरिः शतबलिस्तदा |
2919 | 4044004a | पूर्वां दिशं प्रति ययौ विनतो हरियूथपः |
2920 | 4044005a | ताराङ्गदादि सहितः प्लवगः पवनात्मजः |
2921 | 4044005c | अगस्त्यचरितामाशां दक्षिणां हरियूथपः |
2922 | 4044006a | पश्चिमां तु दिशं घोरां सुषेणः प्लवगेश्वरः |
2923 | 4044006c | प्रतस्थे हरिशार्दूलो भृशं वरुणपालिताम् |
2924 | 4044007a | ततः सर्वा दिशो राजा चोदयित्वा यथा तथम् |
2925 | 4044007c | कपिसेना पतीन्मुख्यान्मुमोद सुखितः सुखम् |
2926 | 4044008a | एवं संचोदिताः सर्वे राज्ञा वानरयूथपाः |
2927 | 4044008c | स्वां स्वां दिशमभिप्रेत्य त्वरिताः संप्रतस्थिरे |
2928 | 4044009a | नदन्तश्चोन्नदन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः |
2929 | 4044009c | क्ष्वेलन्तो धावमानाश्च ययुः प्लवगसत्तमाः |
2930 | 4044009e | आनयिष्यामहे सीतां हनिष्यामश्च रावणम् |
2931 | 4044010a | अहमेको हनिष्यामि प्राप्तं रावणमाहवे |
2932 | 4044010c | ततश्चोन्मथ्य सहसा हरिष्ये जनकात्मजाम् |
2933 | 4044011a | वेपमानं श्रमेणाद्य भवद्भिः स्थीयतामिति |
2934 | 4044011c | एक एवाहरिष्यामि पातालादपि जानकीम् |
2935 | 4044012a | विधमिष्याम्यहं वृक्षान्दारयिष्याम्यहं गिरीन् |
2936 | 4044012c | धरणीं दारयिष्यामि क्षोभयिष्यामि सागरान् |
2937 | 4044013a | अहं योजनसंख्यायाः प्लविता नात्र संशयः |
2938 | 4044013c | शतं योजनसंख्यायाः शतं समधिकं ह्यहम् |
2939 | 4044014a | भूतले सागरे वापि शैलेषु च वनेषु च |
2940 | 4044014c | पातालस्यापि वा मध्ये न ममाच्छिद्यते गतिः |
2941 | 4044015a | इत्येकैकं तदा तत्र वानरा बलदर्पिताः |
2942 | 4044015c | ऊचुश्च वचनं तस्मिन्हरिराजस्य संनिधौ |
2943 | 4045001a | गतेषु वानरेन्द्रेषु रामः सुग्रीवमब्रवीत् |
2944 | 4045001c | कथं भवान्विनाजीते सर्वं वै मण्डलं भुवः |
2945 | 4045002a | सुग्रीवस्तु ततो राममुवाच प्रणतात्मवान् |
2946 | 4045002c | श्रूयतां सर्वमाख्यास्ये विस्तरेण नरर्षभ |
2947 | 4045003a | यदा तु दुन्दुभिं नाम दानवं महिषाकृतिम् |
2948 | 4045003c | परिकालयते वाली मलयं प्रति पर्वतम् |
2949 | 4045004a | तदा विवेश महिषो मलयस्य गुहां प्रति |
2950 | 4045004c | विवेश वाली तत्रापि मलयं तज्जिघांसया |
2951 | 4045005a | ततोऽहं तत्र निक्षिप्तो गुहाद्वारिविनीतवत् |
2952 | 4045005c | न च निष्क्रमते वाली तदा संवत्सरे गते |
2953 | 4045006a | ततः क्षतजवेगेन आपुपूरे तदा बिलम् |
2954 | 4045006c | तदहं विस्मितो दृष्ट्वा भ्रातृशोकविषार्दितः |
2955 | 4045007a | अथाहं कृतबुद्धिस्तु सुव्यक्तं निहतो गुरुः |
2956 | 4045007c | शिलापर्वतसंकाशा बिलद्वारि मया कृता |
2957 | 4045007e | अशक्नुवन्निष्क्रमितुं महिषो विनशेदिति |
2958 | 4045008a | ततोऽहमागां किष्किन्धां निराशस्तस्य जीविते |
2959 | 4045008c | राज्यं च सुमहत्प्राप्तं तारा च रुमया सह |
2960 | 4045008e | मित्रैश्च सहितस्तत्र वसामि विगतज्वरः |
2961 | 4045009a | आजगाम ततो वाली हत्वा तं दानवर्षभम् |
2962 | 4045009c | ततोऽहमददां राज्यं गौरवाद्भययन्त्रितः |
2963 | 4045010a | स मां जिघांसुर्दुष्टात्मा वाली प्रव्यथितेन्द्रियः |
2964 | 4045010c | परिलाकयते क्रोधाद्धावन्तं सचिवैः सह |
2965 | 4045011a | ततोऽहं वालिना तेन सानुबन्धः प्रधावितः |
2966 | 4045011c | नदीश्च विविधाः पश्यन्वनानि नगराणि च |
2967 | 4045012a | आदर्शतलसंकाशा ततो वै पृथिवी मया |
2968 | 4045012c | अलातचक्रप्रतिमा दृष्टा गोष्पदवत्तदा |
2969 | 4045013a | ततः पूर्वमहं गत्वा दक्षिणामहमाश्रितः |
2970 | 4045013c | दिशं च पश्चिमां भूयो गतोऽस्मि भयशङ्कितः |
2971 | 4045013e | उत्तरां तु दिशं यान्तं हनुमान्मामथाब्रवीत् |
2972 | 4045014a | इदानीं मे स्मृतं राजन्यथा वाली हरीश्वरः |
2973 | 4045014c | मतङ्गेन तदा शप्तो ह्यस्मिन्नाश्रममण्डले |
2974 | 4045015a | प्रविशेद्यदि वा वाली मूर्धास्य शतधा भवेत् |
2975 | 4045015c | तत्र वासः सुखोऽस्माकं निरुद्विग्नो भविष्यति |
2976 | 4045016a | ततः पर्वतमासाद्य ऋश्यमूकं नृपात्मज |
2977 | 4045016c | न विवेश तदा वाली मतङ्गस्य भयात्तदा |
2978 | 4045017a | एवं मया तदा राजन्प्रत्यक्षमुपलक्षितम् |
2979 | 4045017c | पृथिवीमण्डलं कृत्स्नं गुहामस्म्यागतस्ततः |
2980 | 4046001a | दर्शनार्थं तु वैदेह्याः सर्वतः कपियूथपाः |
2981 | 4046001c | व्यादिष्टाः कपिराजेन यथोक्तं जग्मुरञ्जसा |
2982 | 4046002a | सरांसि सरितः कक्षानाकाशं नगराणि च |
2983 | 4046002c | नदीदुर्गांस्तथा शैलान्विचिन्वन्ति समन्ततः |
2984 | 4046003a | सुग्रीवेण समाख्यातान्सर्वे वानरयूथपाः |
2985 | 4046003c | प्रदेशान्प्रविचिन्वन्ति सशैलवनकाननान् |
2986 | 4046004a | विचिन्त्य दिवसं सर्वे सीताधिगमने धृताः |
2987 | 4046004c | समायान्ति स्म मेदिन्यां निशाकालेशु वानराः |
2988 | 4046005a | सर्वर्तुकांश्च देशेषु वानराः सफलान्द्रुमान् |
2989 | 4046005c | आसाद्य रजनीं शय्यां चक्रुः सर्वेष्वहःसु ते |
2990 | 4046006a | तदहः प्रथमं कृत्वा मासे प्रस्रवणं गताः |
2991 | 4046006c | कपिराजेन संगम्य निराशाः कपियूथपाः |
2992 | 4046007a | विचित्य तु दिशं पूर्वां यथोक्तां सचिवैः सह |
2993 | 4046007c | अदृष्ट्वा विनतः सीतामाजगाम महाबलः |
2994 | 4046008a | उत्तरां तु दिशं सर्वां विचित्य स महाकपिः |
2995 | 4046008c | आगतः सह सैन्येन वीरः शतबलिस्तदा |
2996 | 4046009a | सुषेणः पश्चिमामाशां विचित्य सह वानरैः |
2997 | 4046009c | समेत्य मासे संपूर्णे सुग्रीवमुपचक्रमे |
2998 | 4046010a | तं प्रस्रवणपृष्ठस्थं समासाद्याभिवाद्य च |
2999 | 4046010c | आसीनं सह रामेण सुग्रीवमिदमब्रुवन् |
3000 | 4046011a | विचिताः पर्वताः सर्वे वनानि नगराणि च |
3001 | 4046011c | निम्नगाः सागरान्ताश्च सर्वे जनपदास्तथा |
3002 | 4046012a | गुहाश्च विचिताः सर्वा यास्त्वया परिकीर्तिताः |
3003 | 4046012c | विचिताश्च महागुल्मा लताविततसंतताः |
3004 | 4046013a | गहनेषु च देशेषु दुर्गेषु विषमेषु च |
3005 | 4046013c | सत्त्वान्यतिप्रमाणानि विचितानि हतानि च |
3006 | 4046013e | ये चैव गहना देशा विचितास्ते पुनः पुनः |
3007 | 4046014a | उदारसत्त्वाभिजनो महात्मा; स मैथिलीं द्रक्ष्यति वानरेन्द्रः |
3008 | 4046014c | दिशं तु यामेव गता तु सीता; तामास्थितो वायुसुतो हनूमान् |
3009 | 4047001a | सहताराङ्गदाभ्यां तु गत्वा स हनुमान्कपिः |
3010 | 4047001c | सुग्रीवेण यथोद्दिष्टं तं देशमुपचक्रमे |
3011 | 4047002a | स तु दूरमुपागम्य सर्वैस्तैः कपिसत्तमैः |
3012 | 4047002c | विचिनोति स्म विन्ध्यस्य गुहाश्च गहनानि च |
3013 | 4047003a | पर्वताग्रान्नदीदुर्गान्सरांसि विपुलान्द्रुमान् |
3014 | 4047003c | वृक्षषण्डांश्च विविधान्पर्वतान्घनपादपान् |
3015 | 4047004a | अन्वेषमाणास्ते सर्वे वानराः सर्वतो दिशम् |
3016 | 4047004c | न सीतां ददृशुर्वीरा मैथिलीं जनकात्मजाम् |
3017 | 4047005a | ते भक्षयन्तो मूलानि फलानि विविधानि च |
3018 | 4047005c | अन्वेषमाणा दुर्धर्षा न्यवसंस्तत्र तत्र ह |
3019 | 4047005e | स तु देशो दुरन्वेषो गुहागहनवान्महान् |
3020 | 4047006a | त्यक्त्वा तु तं तदा देशं सर्वे वै हरियूथपाः |
3021 | 4047006c | देशमन्यं दुराधर्षं विविशुश्चाकुतोभयाः |
3022 | 4047007a | यत्र वन्ध्यफला वृक्षा विपुष्पाः पर्णवर्जिताः |
3023 | 4047007c | निस्तोयाः सरितो यत्र मूलं यत्र सुदुर्लभम् |
3024 | 4047008a | न सन्ति महिषा यत्र न मृगा न च हस्तिनः |
3025 | 4047008c | शार्दूलाः पक्षिणो वापि ये चान्ये वनगोचराः |
3026 | 4047009a | स्निग्धपत्राः स्थले यत्र पद्मिन्यः फुल्लपङ्कजाः |
3027 | 4047009c | प्रेक्षणीयाः सुगन्धाश्च भ्रमरैश्चापि वर्जिताः |
3028 | 4047010a | कण्डुर्नाम महाभागः सत्यवादी तपोधनः |
3029 | 4047010c | महर्षिः परमामर्षी नियमैर्दुष्प्रधर्षणः |
3030 | 4047011a | तस्य तस्मिन्वने पुत्रो बालको दशवार्षिकः |
3031 | 4047011c | प्रनष्टो जीवितान्ताय क्रुद्धस्तत्र महामुनिः |
3032 | 4047012a | तेन धर्मात्मना शप्तं कृत्स्नं तत्र महद्वनम् |
3033 | 4047012c | अशरण्यं दुराधर्षं मृगपक्षिविवर्जितम् |
3034 | 4047013a | तस्य ते काननान्तांस्तु गिरीणां कन्दराणि च |
3035 | 4047013c | प्रभवानि नदीनांच विचिन्वन्ति समाहिताः |
3036 | 4047014a | तत्र चापि महात्मानो नापश्यञ्जनकात्मजाम् |
3037 | 4047014c | हर्तारं रावणं वापि सुग्रीवप्रियकारिणः |
3038 | 4047015a | ते प्रविश्य तु तं भीमं लतागुल्मसमावृतम् |
3039 | 4047015c | ददृशुः क्रूरकर्माणमसुरं सुरनिर्भयम् |
3040 | 4047016a | तं दृष्ट्वा वनरा घोरं स्थितं शैलमिवापरम् |
3041 | 4047016c | गाढं परिहिताः सर्वे दृष्ट्वा तं पर्वतोपमम् |
3042 | 4047017a | सोऽपि तान्वानरान्सर्वान्नष्टाः स्थेत्यब्रवीद्बली |
3043 | 4047017c | अभ्यधावत संक्रुद्धो मुष्टिमुद्यम्य संहितम् |
3044 | 4047018a | तमापतन्तं सहसा वालिपुत्रोऽङ्गदस्तदा |
3045 | 4047019c | रावणोऽयमिति ज्ञात्वा तलेनाभिजघान ह |
3046 | 4047019a | स वालिपुत्राभिहतो वक्त्राच्छोणितमुद्वमन् |
3047 | 4047020a | असुरो न्यपतद्भूमौ पर्यस्त इव पर्वतः |
3048 | 4047020c | ते तु तस्मिन्निरुच्छ्वासे वानरा जितकाशिनः |
3049 | 4047020e | व्यचिन्वन्प्रायशस्तत्र सर्वं तद्गिरिगह्वरम् |
3050 | 4047021a | विचितं तु ततः कृत्वा सर्वे ते काननं पुनः |
3051 | 4047021c | अन्यदेवापरं घोरं विविशुर्गिरिगह्वरम् |
3052 | 4047022a | ते विचिन्त्य पुनः खिन्ना विनिष्पत्य समागताः |
3053 | 4047022c | एकान्ते वृक्षमूले तु निषेदुर्दीनमानसाः |
3054 | 4048001a | अथाङ्गदस्तदा सर्वान्वानरानिदमब्रवीत् |
3055 | 4048001c | परिश्रान्तो महाप्राज्ञः समाश्वास्य शनैर्वचः |
3056 | 4048002a | वनानि गिरयो नद्यो दुर्गाणि गहनानि च |
3057 | 4048002c | दर्यो गिरिगुहाश्चैव विचिता नः समन्ततः |
3058 | 4048003a | तत्र तत्र सहास्माभिर्जानकी न च दृश्यते |
3059 | 4048003c | तद्वा रक्षो हृता येन सीता सुरसुतोपमा |
3060 | 4048004a | कालश्च नो महान्यातः सुग्रीवश्चोग्रशासनः |
3061 | 4048004c | तस्माद्भवन्तः सहिता विचिन्वन्तु समन्ततः |
3062 | 4048005a | विहाय तन्द्रीं शोकं च निद्रां चैव समुत्थिताम् |
3063 | 4048005c | विचिनुध्वं यथा सीतां पश्यामो जनकात्मजाम् |
3064 | 4048006a | अनिर्वेदं च दाक्ष्यं च मनसश्चापराजयम् |
3065 | 4048006c | कार्यसिद्धिकराण्याहुस्तस्मादेतद्ब्रवीम्यहम् |
3066 | 4048007a | अद्यापीदं वनं दुर्गं विचिन्वन्तु वनौकसः |
3067 | 4048007c | खेदं त्यक्त्वा पुनः सर्वं वनमेतद्विचीयताम् |
3068 | 4048008a | अवश्यं क्रियमाणस्य दृश्यते कर्मणः फलम् |
3069 | 4048008c | अलं निर्वेदमागम्य न हि नो मलिनं क्षमम् |
3070 | 4048009a | सुग्रीवः क्रोधनो राजा तीक्ष्णदण्डश्च वानराः |
3071 | 4048009c | भेतव्यं तस्य सततं रामस्य च महात्मनः |
3072 | 4048010a | हितार्थमेतदुक्तं वः क्रियतां यदि रोचते |
3073 | 4048010c | उच्यतां वा क्षमं यन्नः सर्वेषामेव वानराः |
3074 | 4048011a | अङ्गदस्य वचः श्रुत्वा वचनं गन्धमादनः |
3075 | 4048011c | उवाचाव्यक्तया वाचा पिपासा श्रमखिन्नया |
3076 | 4048012a | सदृशं खलु वो वाक्यमङ्गदो यदुवाच ह |
3077 | 4048012c | हितं चैवानुकूलं च क्रियतामस्य भाषितम् |
3078 | 4048013a | पुनर्मार्गामहे शैलान्कन्दरांश्च दरीस्तथा |
3079 | 4048013c | काननानि च शून्यानि गिरिप्रस्रवणानि च |
3080 | 4048014a | यथोद्दिष्ठानि सर्वाणि सुग्रीवेण महात्मना |
3081 | 4048014c | विचिन्वन्तु वनं सर्वे गिरिदुर्गाणि सर्वशः |
3082 | 4048015a | ततः समुत्थाय पुनर्वानरास्ते महाबलाः |
3083 | 4048015c | विन्ध्यकाननसंकीर्णां विचेरुर्दक्षिणां दिशम् |
3084 | 4048016a | ते शारदाभ्रप्रतिमं श्रीमद्रजतपर्वतम् |
3085 | 4048016c | शृङ्गवन्तं दरीवन्तमधिरुह्य च वानराः |
3086 | 4048017a | तत्र लोध्रवनं रम्यं सप्तपर्णवनानि च |
3087 | 4048017c | विचिन्वन्तो हरिवराः सीतादर्शनकाङ्क्षिणः |
3088 | 4048018a | तस्याग्रमधिरूढास्ते श्रान्ता विपुलविक्रमाः |
3089 | 4048018c | न पश्यन्ति स्म वैदेहीं रामस्य महिषीं प्रियाम् |
3090 | 4048019a | ते तु दृष्टिगतं कृत्वा तं शैलं बहुकन्दरम् |
3091 | 4048019c | अवारोहन्त हरयो वीक्षमाणाः समन्ततः |
3092 | 4048020a | अवरुह्य ततो भूमिं श्रान्ता विगतचेतसः |
3093 | 4048020c | स्थित्वा मुहूर्तं तत्राथ वृक्षमूलमुपाश्रिताः |
3094 | 4048021a | ते मुहूर्तं समाश्वस्ताः किंचिद्भग्नपरिश्रमाः |
3095 | 4048021c | पुनरेवोद्यताः कृत्स्नां मार्गितुं दक्षिणां दिशम् |
3096 | 4048022a | हनुमत्प्रमुखास्ते तु प्रस्थिताः प्लवगर्षभाः |
3097 | 4048022c | विन्ध्यमेवादितस्तावद्विचेरुस्ते समन्ततः |
3098 | 4049001a | सह ताराङ्गदाभ्यां तु संगम्य हनुमान्कपिः |
3099 | 4049001c | विचिनोति स्म विन्ध्यस्य गुहाश्च गहनानि च |
3100 | 4049002a | सिंहशार्दूलजुष्टाश्च गुहाश्च परितस्तथा |
3101 | 4049002c | विषमेषु नगेन्द्रस्य महाप्रस्रवणेषु च |
3102 | 4049003a | तेषां तत्रैव वसतां स कालो व्यत्यवर्तत |
3103 | 4049004a | स हि देशो दुरन्वेषो गुहा गहनवान्महान् |
3104 | 4049004c | तत्र वायुसुतः सर्वं विचिनोति स्म पर्वतम् |
3105 | 4049005a | परस्परेण रहिता अन्योन्यस्याविदूरतः |
3106 | 4049005c | गजो गवाक्षो गवयः शरभो गन्धमादनः |
3107 | 4049006a | मैन्दश्च द्विविदश्चैव हनुमाञ्जाम्बवानपि |
3108 | 4049006c | अङ्गदो युवराजश्च तारश्च वनगोचरः |
3109 | 4049007a | गिरिजालावृतान्देशान्मार्गित्वा दक्षिणां दिशम् |
3110 | 4049007c | क्षुत्पिपासा परीताश्च श्रान्ताश्च सलिलार्थिनः |
3111 | 4049007e | अवकीर्णं लतावृक्षैर्ददृशुस्ते महाबिलम् |
3112 | 4049008a | ततः क्रौञ्चाश्च हंसाश्च सारसाश्चापि निष्क्रमन् |
3113 | 4049008c | जलार्द्राश्चक्रवाकाश्च रक्ताङ्गाः पद्मरेणुभिः |
3114 | 4049009a | ततस्तद्बिलमासाद्य सुगन्धि दुरतिक्रमम् |
3115 | 4049009c | विस्मयव्यग्रमनसो बभूवुर्वानरर्षभाः |
3116 | 4049010a | संजातपरिशङ्कास्ते तद्बिलं प्लवगोत्तमाः |
3117 | 4049010c | अभ्यपद्यन्त संहृष्टास्तेजोवन्तो महाबलाः |
3118 | 4049011a | ततः पर्वतकूटाभो हनुमान्मारुतात्मजः |
3119 | 4049011c | अब्रवीद्वानरान्सर्वान्कान्तार वनकोविदः |
3120 | 4049012a | गिरिजालावृतान्देशान्मार्गित्वा दक्षिणां दिशम् |
3121 | 4049012c | वयं सर्वे परिश्रान्ता न च पश्यामि मैथिलीम् |
3122 | 4049013a | अस्माच्चापि बिलाद्धंसाः क्रौञ्चाश्च सह सारसैः |
3123 | 4049013c | जलार्द्राश्चक्रवाकाश्च निष्पतन्ति स्म सर्वशः |
3124 | 4049014a | नूनं सलिलवानत्र कूपो वा यदि वा ह्रदः |
3125 | 4049014c | तथा चेमे बिलद्वारे स्निग्धास्तिष्ठन्ति पादपाः |
3126 | 4049015a | इत्युक्तास्तद्बिलं सर्वे विविशुस्तिमिरावृतम् |
3127 | 4049015c | अचन्द्रसूर्यं हरयो ददृशू रोमहर्षणम् |
3128 | 4049016a | ततस्तस्मिन्बिले दुर्गे नानापादपसंकुले |
3129 | 4049016c | अन्योन्यं संपरिष्वज्य जग्मुर्योजनमन्तरम् |
3130 | 4049017a | ते नष्टसंज्ञास्तृषिताः संभ्रान्ताः सलिलार्थिनः |
3131 | 4049017c | परिपेतुर्बिले तस्मिन्कंचित्कालमतन्द्रिताः |
3132 | 4049018a | ते कृशा दीनवदनाः परिश्रान्ताः प्लवंगमाः |
3133 | 4049018c | आलोकं ददृशुर्वीरा निराशा जीविते तदा |
3134 | 4049019a | ततस्तं देशमागम्य सौम्यं वितिमिरं वनम् |
3135 | 4049019c | ददृशुः काञ्चनान्वृक्षान्दीप्तवैश्वानरप्रभान् |
3136 | 4049020a | सालांस्तालांश्च पुंनागान्ककुभान्वञ्जुलान्धवान् |
3137 | 4049020c | चम्पकान्नागवृक्षांश्च कर्णिकारांश्च पुष्पितान् |
3138 | 4049021a | तरुणादित्यसंकाशान्वैदूर्यमयवेदिकान् |
3139 | 4049021c | नीलवैदूर्यवर्णाश्च पद्मिनीः पतगावृताः |
3140 | 4049022a | महद्भिः काञ्चनैर्वृक्षैर्वृतं बालार्क संनिभैः |
3141 | 4049022c | जातरूपमयैर्मत्स्यैर्महद्भिश्च सकच्छपैः |
3142 | 4049023a | नलिनीस्तत्र ददृशुः प्रसन्नसलिलायुताः |
3143 | 4049023c | काञ्चनानि विमानानि राजतानि तथैव च |
3144 | 4049024a | तपनीयगवाक्षाणि मुक्ताजालावृतानि च |
3145 | 4049024c | हैमराजतभौमानि वैदूर्यमणिमन्ति च |
3146 | 4049025a | ददृशुस्तत्र हरयो गृहमुख्यानि सर्वशः |
3147 | 4049025c | पुष्पितान्फलिनो वृक्षान्प्रवालमणिसंनिभान् |
3148 | 4049026a | काञ्चनभ्रमरांश्चैव मधूनि च समन्ततः |
3149 | 4049026c | मणिकाञ्चनचित्राणि शयनान्यासनानि च |
3150 | 4049027a | महार्हाणि च यानानि ददृशुस्ते समन्ततः |
3151 | 4049027c | हैमराजतकांस्यानां भाजनानां च संचयान् |
3152 | 4049028a | अगरूणां च दिव्यानां चन्दनानां च संचयान् |
3153 | 4049028c | शुचीन्यभ्यवहार्याणि मूलानि च फलानि च |
3154 | 4049029a | महार्हाणि च पानानि मधूनि रसवन्ति च |
3155 | 4049029c | दिव्यानामम्बराणां च महार्हाणां च संचयान् |
3156 | 4049029e | कम्बलानां च चित्राणामजिनानां च संचयान् |
3157 | 4049030a | तत्र तत्र विचिन्वन्तो बिले तत्र महाप्रभाः |
3158 | 4049030c | ददृशुर्वानराः शूराः स्त्रियं कांचिददूरतः |
3159 | 4049031a | तां दृष्ट्वा भृशसंत्रस्ताश्चीरकृष्णाजिनाम्बराम् |
3160 | 4049031c | तापसीं नियताहारां ज्वलन्तीमिव तेजसा |
3161 | 4049032a | ततो हनूमान्गिरिसंनिकाशः; कृताञ्जलिस्तामभिवाद्य वृद्धाम् |
3162 | 4049032c | पप्रच्छ का त्वं भवनं बिलं च; रत्नानि चेमानि वदस्व कस्य |
3163 | 4050001a | इत्युक्त्वा हनुमांस्तत्र पुनः कृष्णाजिनाम्बराम् |
3164 | 4050001c | अब्रवीत्तां महाभागां तापसीं धर्मचारिणीम् |
3165 | 4050002a | इदं प्रविष्टाः सहसा बिलं तिमिरसंवृतम् |
3166 | 4050002c | क्षुत्पिपासा परिश्रान्ताः परिखिन्नाश्च सर्वशः |
3167 | 4050003a | महद्धिरण्या विवरं प्रविष्टाः स्म पिपासिताः |
3168 | 4050003c | इमांस्त्वेवं विधान्भावान्विविधानद्भुतोपमान् |
3169 | 4050003e | दृष्ट्वा वयं प्रव्यथिताः संभ्रान्ता नष्टचेतसः |
3170 | 4050004a | कस्येमे काञ्चना वृक्षास्तरुणादित्यसंनिभाः |
3171 | 4050004c | शुचीन्यभ्यवहार्याणि मूलानि च फलानि च |
3172 | 4050005a | काञ्चनानि विमानानि राजतानि गृहाणि च |
3173 | 4050005c | तपनीय गवाक्षाणि मणिजालावृतानि च |
3174 | 4050006a | पुष्पिताः फालवन्तश्च पुण्याः सुरभिगन्धिनः |
3175 | 4050006c | इमे जाम्बूनदमयाः पादपाः कस्य तेजसा |
3176 | 4050007a | काञ्चनानि च पद्मानि जातानि विमले जले |
3177 | 4050007c | कथं मत्स्याश्च सौवर्णा चरन्ति सह कच्छपैः |
3178 | 4050008a | आत्मानमनुभावं च कस्य चैतत्तपोबलम् |
3179 | 4050008c | अजानतां नः सर्वेषां सर्वमाख्यातुमर्हसि |
3180 | 4050009a | एवमुक्ता हनुमता तापसी धर्मचारिणी |
3181 | 4050009c | प्रत्युवाच हनूमन्तं सर्वभूतहिते रता |
3182 | 4050010a | मयो नाम महातेजा मायावी दानवर्षभः |
3183 | 4050010c | तेनेदं निर्मितं सर्वं मायया काञ्चनं वनम् |
3184 | 4050011a | पुरा दानवमुख्यानां विश्वकर्मा बभूव ह |
3185 | 4050011c | येनेदं काञ्चनं दिव्यं निर्मितं भवनोत्तमम् |
3186 | 4050012a | स तु वर्षसहस्राणि तपस्तप्त्वा महावने |
3187 | 4050012c | पितामहाद्वरं लेभे सर्वमौशसनं धनम् |
3188 | 4050013a | विधाय सर्वं बलवान्सर्वकामेश्वरस्तदा |
3189 | 4050013c | उवास सुखितः कालं कंचिदस्मिन्महावने |
3190 | 4050014a | तमप्सरसि हेमायां सक्तं दानवपुंगवम् |
3191 | 4050014c | विक्रम्यैवाशनिं गृह्य जघानेशः पुरंदरः |
3192 | 4050015a | इदं च ब्रह्मणा दत्तं हेमायै वनमुत्तमम् |
3193 | 4050015c | शाश्वतः कामभोगश्च गृहं चेदं हिरण्मयम् |
3194 | 4050016a | दुहिता मेरुसावर्णेरहं तस्याः स्वयं प्रभा |
3195 | 4050016c | इदं रक्षामि भवनं हेमाया वानरोत्तम |
3196 | 4050017a | मम प्रियसखी हेमा नृत्तगीतविशारदा |
3197 | 4050017c | तया दत्तवरा चास्मि रक्षामि भवनोत्तमम् |
3198 | 4050018a | किं कार्यं कस्य वा हेतोः कान्ताराणि प्रपद्यथ |
3199 | 4050018c | कथं चेदं वनं दुर्गं युष्माभिरुपलक्षितम् |
3200 | 4050019a | इमान्यभ्यवहार्याणि मूलानि च फलानि च |
3201 | 4050019c | भुक्त्वा पीत्वा च पानीयं सर्वं मे वक्तुमर्हथ |
3202 | 4051001a | अथ तानब्रवीत्सर्वान्विश्रान्तान्हरियूथपान् |
3203 | 4051001c | इदं वचनमेकाग्रा तापसी धर्मचारिणी |
3204 | 4051002a | वानरा यदि वः खेदः प्रनष्टः फलभक्षणात् |
3205 | 4051002c | यदि चैतन्मया श्राव्यं श्रोतुमिच्छामि कथ्यताम् |
3206 | 4051003a | तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा हनुमान्मारुतात्मजः |
3207 | 4051003c | आर्जवेन यथातत्त्वमाख्यातुमुपचक्रमे |
3208 | 4051004a | राजा सर्वस्य लोकस्य महेन्द्रवरुणोपमः |
3209 | 4051004c | रामो दाशरथिः श्रीमान्प्रविष्टो दण्डकावनम् |
3210 | 4051005a | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा वैदेह्या चापि भार्यया |
3211 | 4051005c | तस्य भार्या जनस्थानाद्रावणेन हृता बलात् |
3212 | 4051006a | वीरस्तस्य सखा राज्ञः सुग्रीवो नाम वानरः |
3213 | 4051006c | राजा वानरमुख्यानां येन प्रस्थापिता वयम् |
3214 | 4051007a | अगस्त्यचरितामाशां दक्षिणां यमरक्षिताम् |
3215 | 4051007c | सहैभिर्वानरैर्मुख्यैरङ्गदप्रमुखैर्वयम् |
3216 | 4051008a | रावणं सहिताः सर्वे राक्षसं कामरूपिणम् |
3217 | 4051008c | सीतया सह वैदेह्या मार्गध्वमिति चोदिताः |
3218 | 4051009a | विचित्य तु वयं सर्वे समग्रां दक्षिणां दिशम् |
3219 | 4051009c | बुभुक्षिताः परिश्रान्ता वृक्षमूलमुपाश्रिताः |
3220 | 4051010a | विवर्णवदनाः सर्वे सर्वे ध्यानपरायणाः |
3221 | 4051010c | नाधिगच्छामहे पारं मग्नाश्चिन्तामहार्णवे |
3222 | 4051011a | चारयन्तस्ततश्चक्षुर्दृष्टवन्तो महद्बिलम् |
3223 | 4051011c | लतापादपसंछन्नं तिमिरेण समावृतम् |
3224 | 4051012a | अस्माद्धंसा जलक्लिन्नाः पक्षैः सलिलरेणुभिः |
3225 | 4051012c | कुरराः सारसाश्चैव निष्पतन्ति पतत्रिणः |
3226 | 4051012e | साध्वत्र प्रविशामेति मया तूक्ताः प्लवंगमाः |
3227 | 4051013a | तेषामपि हि सर्वेषामनुमानमुपागतम् |
3228 | 4051013c | गच्छामः प्रविशामेति भर्तृकार्यत्वरान्विताः |
3229 | 4051014a | ततो गाढं निपतिता गृह्य हस्तौ परस्परम् |
3230 | 4051014c | इदं प्रविष्टाः सहसा बिलं तिमिरसंवृतम् |
3231 | 4051015a | एतन्नः कायमेतेन कृत्येन वयमागताः |
3232 | 4051015c | त्वां चैवोपगताः सर्वे परिद्यूना बुभुक्षिताः |
3233 | 4051016a | आतिथ्यधर्मदत्तानि मूलानि च फलानि च |
3234 | 4051016c | अस्माभिरुपभुक्तानि बुभुक्षापरिपीडितैः |
3235 | 4051017a | यत्त्वया रक्षिताः सर्वे म्रियमाणा बुभुक्षया |
3236 | 4051017c | ब्रूहि प्रत्युपकारार्थं किं ते कुर्वन्तु वानराः |
3237 | 4051018a | एवमुक्ता तु सर्वज्ञा वानरैस्तैः स्वयंप्रभा |
3238 | 4051018c | प्रत्युवाच ततः सर्वानिदं वानरयूथपम् |
3239 | 4051019a | सर्वेषां परितुष्टास्मि वानराणां तरस्विनाम् |
3240 | 4051019c | चरन्त्या मम धर्मेण न कार्यमिह केनचित् |
3241 | 4052001a | एवमुक्तः शुभं वाक्यं तापस्या धर्मसंहितम् |
3242 | 4052001c | उवाच हनुमान्वाक्यं तामनिन्दितचेष्टिताम् |
3243 | 4052002a | शरणं त्वां प्रपन्नाः स्मः सर्वे वै धर्मचारिणि |
3244 | 4052002c | यः कृतः समयोऽस्माकं सुग्रीवेण महात्मना |
3245 | 4052002e | स तु कालो व्यतिक्रान्तो बिले च परिवर्तताम् |
3246 | 4052003a | सा त्वमस्माद्बिलाद्घोरादुत्तारयितुमर्हसि |
3247 | 4052004a | तस्मात्सुग्रीववचनादतिक्रान्तान्गतायुषः |
3248 | 4052004c | त्रातुमर्हसि नः सर्वान्सुग्रीवभयशङ्कितान् |
3249 | 4052005a | महच्च कार्यमस्माभिः कर्तव्यं धर्मचारिणि |
3250 | 4052005c | तच्चापि न कृतं कार्यमस्माभिरिह वासिभिः |
3251 | 4052006a | एवमुक्ता हनुमता तापसी वाक्यमब्रवीत् |
3252 | 4052006c | जीवता दुष्करं मन्ये प्रविष्टेन निवर्तितुम् |
3253 | 4052007a | तपसस्तु प्रभावेन नियमोपार्जितेन च |
3254 | 4052007c | सर्वानेव बिलादस्मादुद्धरिष्यामि वानरान् |
3255 | 4052008a | निमीलयत चक्षूंषि सर्वे वानरपुंगवाः |
3256 | 4052008c | न हि निष्क्रमितुं शक्यमनिमीलितलोचनैः |
3257 | 4052009a | ततः संमीलिताः सर्वे सुकुमाराङ्गुलैः करैः |
3258 | 4052009c | सहसा पिदधुर्दृष्टिं हृष्टा गमनकाङ्क्षिणः |
3259 | 4052010a | वानरास्तु महात्मानो हस्तरुद्धमुखास्तदा |
3260 | 4052010c | निमेषान्तरमात्रेण बिलादुत्तारितास्तया |
3261 | 4052011a | ततस्तान्वानरान्सर्वांस्तापसी धर्मचारिणी |
3262 | 4052011c | निःसृतान्विषमात्तस्मात्समाश्वास्येदमब्रवीत् |
3263 | 4052012a | एष विन्ध्यो गिरिः श्रीमान्नानाद्रुमलतायुतः |
3264 | 4052012c | एष प्रसवणः शैलः सागरोऽयं महोदधिः |
3265 | 4052013a | स्वस्ति वोऽस्तु गमिष्यामि भवनं वानरर्षभाः |
3266 | 4052013c | इत्युक्त्वा तद्बिलं श्रीमत्प्रविवेश स्वयंप्रभा |
3267 | 4052014a | ततस्ते ददृशुर्घोरं सागरं वरुणालयम् |
3268 | 4052014c | अपारमभिगर्जन्तं घोरैरूर्मिभिराकुलम् |
3269 | 4052015a | मयस्य माया विहितं गिरिदुर्गं विचिन्वताम् |
3270 | 4052015c | तेषां मासो व्यतिक्रान्तो यो राज्ञा समयः कृतः |
3271 | 4052016a | विन्ध्यस्य तु गिरेः पादे संप्रपुष्पितपादपे |
3272 | 4052016c | उपविश्य महाभागाश्चिन्तामापेदिरे तदा |
3273 | 4052017a | ततः पुष्पातिभाराग्राँल्लताशतसमावृतान् |
3274 | 4052017c | द्रुमान्वासन्तिकान्दृष्ट्वा बभूवुर्भयशङ्किताः |
3275 | 4052018a | ते वसन्तमनुप्राप्तं प्रतिवेद्य परस्परम् |
3276 | 4052018c | नष्टसंदेशकालार्था निपेतुर्धरणीतले |
3277 | 4052019a | स तु सिंहर्षभ स्कन्धः पीनायतभुजः कपिः |
3278 | 4052019c | युवराजो महाप्राज्ञ अङ्गदो वाक्यमब्रवीत् |
3279 | 4052020a | शासनात्कपिराजस्य वयं सर्वे विनिर्गताः |
3280 | 4052020c | मासः पूर्णो बिलस्थानां हरयः किं न बुध्यते |
3281 | 4052021a | तस्मिन्नतीते काले तु सुग्रीवेण कृते स्वयम् |
3282 | 4052021c | प्रायोपवेशनं युक्तं सर्वेषां च वनौकसाम् |
3283 | 4052022a | तीक्ष्णः प्रकृत्या सुग्रीवः स्वामिभावे व्यवस्थितः |
3284 | 4052022c | न क्षमिष्यति नः सर्वानपराधकृतो गतान् |
3285 | 4052023a | अप्रवृत्तौ च सीतायाः पापमेव करिष्यति |
3286 | 4052023c | तस्मात्क्षममिहाद्यैव प्रायोपविशनं हि नः |
3287 | 4052024a | त्यक्त्वा पुत्रांश्च दारांश्च धनानि च गृहाणि च |
3288 | 4052024c | यावन्न घातयेद्राजा सर्वान्प्रतिगतानितः |
3289 | 4052024e | वधेनाप्रतिरूपेण श्रेयान्मृत्युरिहैव नः |
3290 | 4052025a | न चाहं यौवराज्येन सुग्रीवेणाभिषेचितः |
3291 | 4052025c | नरेन्द्रेणाभिषिक्तोऽस्मि रामेणाक्लिष्टकर्मणा |
3292 | 4052026a | स पूर्वं बद्धवैरो मां राजा दृष्ट्वा व्यतिक्रमम् |
3293 | 4052026c | घातयिष्यति दण्डेन तीक्ष्णेन कृतनिश्चयः |
3294 | 4052027a | किं मे सुहृद्भिर्व्यसनं पश्यद्भिर्जीवितान्तरे |
3295 | 4052027c | इहैव प्रायमासिष्ये पुण्ये सागररोधसि |
3296 | 4052028a | एतच्छ्रुत्वा कुमारेण युवराजेन भाषितम् |
3297 | 4052028c | सर्वे ते वानरश्रेष्ठाः करुणं वाक्यमब्रुवन् |
3298 | 4052029a | तीक्ष्णः प्रकृत्या सुग्रीवः प्रियासक्तश्च राघवः |
3299 | 4052029c | अदृष्टायां च वैदेह्यां दृष्ट्वास्मांश्च समागतान् |
3300 | 4052030a | राघवप्रियकामार्थं घातयिष्यत्यसंशयम् |
3301 | 4052030c | न क्षमं चापराद्धानां गमनं स्वामिपार्श्वतः |
3302 | 4052031a | प्लवंगमानां तु भयार्दितानां; श्रुत्वा वचस्तार इदं बभाषे |
3303 | 4052031c | अलं विषादेन बिलं प्रविश्य; वसाम सर्वे यदि रोचते वः |
3304 | 4052032a | इदं हि माया विहितं सुदुर्गमं; प्रभूतवृक्षोदकभोज्यपेयम् |
3305 | 4052032c | इहास्ति नो नैव भयं पुरंदरा;न्न राघवाद्वानरराजतोऽपि वा |
3306 | 4052033a | श्रुत्वाङ्गदस्यापि वचोऽनुकूल;मूचुश्च सर्वे हरयः प्रतीताः |
3307 | 4052033c | यथा न हन्येम तथाविधान;मसक्तमद्यैव विधीयतां नः |
3308 | 4053001a | तथा ब्रुवति तारे तु ताराधिपतिवर्चसि |
3309 | 4053001c | अथ मेने हृतं राज्यं हनुमानङ्गदेन तत् |
3310 | 4053002a | बुद्ध्या ह्यष्टाङ्गया युक्तं चतुर्बलसमन्वितम् |
3311 | 4053002c | चतुर्दशगुणं मेने हनुमान्वालिनः सुतम् |
3312 | 4053003a | आपूर्यमाणं शश्वच्च तेजोबलपराक्रमैः |
3313 | 4053003c | शशिनं शुक्लपक्षादौ वर्धमानमिव श्रिया |
3314 | 4053004a | बृहस्पतिसमं बुद्ध्या विक्रमे सदृशं पितुः |
3315 | 4053004c | शुश्रूषमाणं तारस्य शुक्रस्येव पुरंदरम् |
3316 | 4053005a | भर्तुरर्थे परिश्रान्तं सर्वशास्त्रविशारदम् |
3317 | 4053005c | अभिसंधातुमारेभे हनुमानङ्गदं ततः |
3318 | 4053006a | स चतुर्णामुपायानां तृतीयमुपवर्णयन् |
3319 | 4053006c | भेदयामास तान्सर्वान्वानरान्वाक्यसंपदा |
3320 | 4053007a | तेषु सर्वेषु भिन्नेषु ततोऽभीषयदङ्गदम् |
3321 | 4053007c | भीषणैर्बहुभिर्वाक्यैः कोपोपायसमन्वितैः |
3322 | 4053008a | त्वं समर्थतरः पित्रा युद्धे तारेय वै धुरम् |
3323 | 4053008c | दृढं धारयितुं शक्तः कपिराज्यं यथा पिता |
3324 | 4053009a | नित्यमस्थिरचित्ता हि कपयो हरिपुंगव |
3325 | 4053009c | नाज्ञाप्यं विषहिष्यन्ति पुत्रदारान्विना त्वया |
3326 | 4053010a | त्वां नैते ह्यनुयुञ्जेयुः प्रत्यक्षं प्रवदामि ते |
3327 | 4053010c | यथायं जाम्बवान्नीलः सुहोत्रश्च महाकपिः |
3328 | 4053011a | न ह्यहं त इमे सर्वे सामदानादिभिर्गुणैः |
3329 | 4053011c | दण्डेन न त्वया शक्याः सुग्रीवादपकर्षितुम् |
3330 | 4053012a | विगृह्यासनमप्याहुर्दुर्बलेन बलीयसः |
3331 | 4053012c | आत्मरक्षाकरस्तस्मान्न विगृह्णीत दुर्बलः |
3332 | 4053013a | यां चेमां मन्यसे धात्रीमेतद्बिलमिति श्रुतम् |
3333 | 4053013c | एतल्लक्ष्मणबाणानामीषत्कार्यं विदारणे |
3334 | 4053014a | स्वल्पं हि कृतमिन्द्रेण क्षिपता ह्यशनिं पुरा |
3335 | 4053014c | लक्ष्मणो निशितैर्बाणैर्भिन्द्यात्पत्रपुटं यथा |
3336 | 4053014e | लक्ष्मणस्य च नाराचा बहवः सन्ति तद्विधाः |
3337 | 4053015a | अवस्थाने यदैव त्वमासिष्यसि परंतप |
3338 | 4053015c | तदैव हरयः सर्वे त्यक्ष्यन्ति कृतनिश्चयाः |
3339 | 4053016a | स्मरन्तः पुत्रदाराणां नित्योद्विग्ना बुभुक्षिताः |
3340 | 4053016c | खेदिता दुःखशय्याभिस्त्वां करिष्यन्ति पृष्ठतः |
3341 | 4053017a | स त्वं हीनः सुहृद्भिश्च हितकामैश्च बन्धुभिः |
3342 | 4053017c | तृणादपि भृशोद्विग्नः स्पन्दमानाद्भविष्यसि |
3343 | 4053018a | न च जातु न हिंस्युस्त्वां घोरा लक्ष्मणसायकाः |
3344 | 4053018c | अपवृत्तं जिघांसन्तो महावेगा दुरासदाः |
3345 | 4053019a | अस्माभिस्तु गतं सार्धं विनीतवदुपस्थितम् |
3346 | 4053019c | आनुपूर्व्यात्तु सुग्रीवो राज्ये त्वां स्थापयिष्यति |
3347 | 4053020a | धर्मकामः पितृव्यस्ते प्रीतिकामो दृढव्रतः |
3348 | 4053020c | शुचिः सत्यप्रतिज्ञश्च ना त्वां जातु जिघांसति |
3349 | 4053021a | प्रियकामश्च ते मातुस्तदर्थं चास्य जीवितम् |
3350 | 4053021c | तस्यापत्यं च नास्त्यन्यत्तस्मादङ्गद गम्यताम् |
3351 | 4054001a | श्रुत्वा हनुमतो वाक्यं प्रश्रितं धर्मसंहितम् |
3352 | 4054001c | स्वामिसत्कारसंयुक्तमङ्गदो वाक्यमब्रवीत् |
3353 | 4054002a | स्थैर्यं सर्वात्मना शौचमानृशंस्यमथार्जवम् |
3354 | 4054002c | विक्रमैश्चैव धैर्यं च सुग्रीवे नोपपद्यते |
3355 | 4054003a | भ्रातुर्ज्येष्ठस्य यो भार्यां जीवितो महिषीं प्रियाम् |
3356 | 4054003c | धर्मेण मातरं यस्तु स्वीकरोति जुगुप्सितः |
3357 | 4054004a | कथं स धर्मं जानीते येन भ्रात्रा दुरात्मना |
3358 | 4054004c | युद्धायाभिनियुक्तेन बिलस्य पिहितं मुखम् |
3359 | 4054005a | सत्यात्पाणिगृहीतश्च कृतकर्मा महायशाः |
3360 | 4054005c | विस्मृतो राघवो येन स कस्य सुकृतं स्मरेत् |
3361 | 4054006a | लक्ष्मणस्य भयाद्येन नाधर्मभयभीरुणा |
3362 | 4054006c | आदिष्टा मार्गितुं सीतां धर्ममस्मिन्कथं भवेत् |
3363 | 4054007a | तस्मिन्पापे कृतघ्ने तु स्मृतिहीने चलात्मनि |
3364 | 4054007c | आर्यः को विश्वसेज्जातु तत्कुलीनो जिजीविषुः |
3365 | 4054008a | राज्ये पुत्रं प्रतिष्ठाप्य सगुणो निर्गुणोऽपि वा |
3366 | 4054008c | कथं शत्रुकुलीनं मां सुग्रीवो जीवयिष्यति |
3367 | 4054009a | भिन्नमन्त्रोऽपराद्धश्च हीनशक्तिः कथं ह्यहम् |
3368 | 4054009c | किष्किन्धां प्राप्य जीवेयमनाथ इव दुर्बलः |
3369 | 4054010a | उपांशुदण्डेन हि मां बन्धनेनोपपादयेत् |
3370 | 4054010c | शठः क्रूरो नृशंसश्च सुग्रीवो राज्यकारणात् |
3371 | 4054011a | बन्धनाच्चावसादान्मे श्रेयः प्रायोपवेशनम् |
3372 | 4054011c | अनुजानीत मां सर्वे गृहान्गच्छन्तु वानराः |
3373 | 4054012a | अहं वः प्रतिजानामि न गमिष्याम्यहं पुरीम् |
3374 | 4054012c | इहैव प्रायमासिष्ये श्रेयो मरणमेव मे |
3375 | 4054013a | अभिवादनपूर्वं तु राजा कुशलमेव च |
3376 | 4054013c | वाच्यस्ततो यवीयान्मे सुग्रीवो वानरेश्वरः |
3377 | 4054014a | आरोग्यपूर्वं कुशलं वाच्या माता रुमा च मे |
3378 | 4054014c | मातरं चैव मे तारामाश्वासयितुमर्हथ |
3379 | 4054015a | प्रकृत्या प्रियपुत्रा सा सानुक्रोशा तपस्विनी |
3380 | 4054015c | विनष्टं मामिह श्रुत्वा व्यक्तं हास्यति जीवितम् |
3381 | 4054016a | एतावदुक्त्वा वचनं वृद्धानप्यभिवाद्य च |
3382 | 4054016c | संविवेशाङ्गदो भूमौ रुदन्दर्भेषु दुर्मनाः |
3383 | 4054017a | तस्य संविशतस्तत्र रुदन्तो वानरर्षभाः |
3384 | 4054017c | नयनेभ्यः प्रमुमुचुरुष्णं वै वारिदुःखिताः |
3385 | 4054018a | सुग्रीवं चैव निन्दन्तः प्रशंसन्तश्च वालिनम् |
3386 | 4054018c | परिवार्याङ्गदो सर्वे व्यवस्यन्प्रायमासितुम् |
3387 | 4054019a | मतं तद्वालिपुत्रस्य विज्ञाय प्लवगर्षभाः |
3388 | 4054019c | उपस्पृश्योदकं सर्वे प्राङ्मुखाः समुपाविशन् |
3389 | 4054019e | दक्षिणाग्रेषु दर्भेषु उदक्तीरं समाश्रिताः |
3390 | 4054020a | स संविशद्भिर्बहुभिर्महीधरो; महाद्रिकूटप्रमितैः प्लवंगमैः |
3391 | 4054021c | बभूव संनादितनिर्झरान्तरो; भृशं नदद्भिर्जलदैरिवोल्बणैः |
3392 | 4055001a | उपविष्टास्तु ते सर्वे यस्मिन्प्रायं गिरिस्थले |
3393 | 4055001c | हरयो गृध्रराजश्च तं देशमुपचक्रमे |
3394 | 4055002a | साम्पातिर्नाम नाम्ना तु चिरजीवी विहंगमः |
3395 | 4055002c | भ्राता जटायुषः श्रीमान्प्रख्यातबलपौरुषः |
3396 | 4055003a | कन्दरादभिनिष्क्रम्य स विन्ध्यस्य महागिरेः |
3397 | 4055003c | उपविष्टान्हरीन्दृष्ट्वा हृष्टात्मा गिरमब्रवीत् |
3398 | 4055004a | विधिः किल नरं लोके विधानेनानुवर्तते |
3399 | 4055004c | यथायं विहितो भक्ष्यश्चिरान्मह्यमुपागतः |
3400 | 4055005a | परम्पराणां भक्षिष्ये वानराणां मृतं मृतम् |
3401 | 4055005c | उवाचैवं वचः पक्षी तान्निरीक्ष्य प्लवंगमान् |
3402 | 4055006a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा भक्षलुब्धस्य पक्षिणः |
3403 | 4055006c | अङ्गदः परमायस्तो हनूमन्तमथाब्रवीत् |
3404 | 4055007a | पश्य सीतापदेशेन साक्षाद्वैवस्वतो यमः |
3405 | 4055007c | इमं देशमनुप्राप्तो वानराणां विपत्तये |
3406 | 4055008a | रामस्य न कृतं कार्यं राज्ञो न च वचः कृतम् |
3407 | 4055008c | हरीणामियमज्ञाता विपत्तिः सहसागता |
3408 | 4055009a | वैदेह्याः प्रियकामेन कृतं कर्म जटायुषा |
3409 | 4055009c | गृध्रराजेन यत्तत्र श्रुतं वस्तदशेषतः |
3410 | 4055010a | तथा सर्वाणि भूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि |
3411 | 4055010c | प्रियं कुर्वन्ति रामस्य त्यक्त्वा प्राणान्यथा वयम् |
3412 | 4055011a | राघवार्थे परिश्रान्ता वयं संत्यक्तजीविताः |
3413 | 4055011c | कान्ताराणि प्रपन्नाः स्म न च पश्याम मैथिलीम् |
3414 | 4055012a | स सुखी गृध्रराजस्तु रावणेन हतो रणे |
3415 | 4055012c | मुक्तश्च सुग्रीवभयाद्गतश्च परमां गतिम् |
3416 | 4055013a | जटायुषो विनाशेन राज्ञो दशरथस्य च |
3417 | 4055013c | हरणेन च वैदेह्याः संशयं हरयो गताः |
3418 | 4055014a | रामलक्ष्मणयोर्वासामरण्ये सह सीतया |
3419 | 4055014c | राघवस्य च बाणेन वालिनश्च तथा वधः |
3420 | 4055015a | रामकोपादशेषाणां राक्षसानां तथा वधः |
3421 | 4055015c | कैकेय्या वरदानेन इदं हि विकृतं कृतम् |
3422 | 4055016a | तत्तु श्रुत्वा तदा वाक्यमङ्गदस्य मुखोद्गतम् |
3423 | 4055016c | अब्रवीद्वचनं गृध्रस्तीक्ष्णतुण्डो महास्वनः |
3424 | 4055017a | कोऽयं गिरा घोषयति प्राणैः प्रियतरस्य मे |
3425 | 4055017c | जटायुषो वधं भ्रातुः कम्पयन्निव मे मनः |
3426 | 4055018a | कथमासीज्जनस्थाने युद्धं राक्षसगृध्रयोः |
3427 | 4055018c | नामधेयमिदं भ्रातुश्चिरस्याद्य मया श्रुतम् |
3428 | 4055019a | यवीयसो गुणज्ञस्य श्लाघनीयस्य विक्रमैः |
3429 | 4055019c | तदिच्छेयमहं श्रोतुं विनाशं वानरर्षभाः |
3430 | 4055020a | भ्रातुर्जटायुषस्तस्य जनस्थाननिवासिनः |
3431 | 4055020c | तस्यैव च मम भ्रातुः सखा दशरथः कथम् |
3432 | 4055020e | यस्य रामः प्रियः पुत्रो ज्येष्ठो गुरुजनप्रियः |
3433 | 4055021a | सूर्यांशुदग्धपक्षत्वान्न शक्नोमि विसर्पितुम् |
3434 | 4055021c | इच्छेयं पर्वतादस्मादवतर्तुमरिंदमाः |
3435 | 4056001a | शोकाद्भ्रष्टस्वरमपि श्रुत्वा ते हरियूथपाः |
3436 | 4056001c | श्रद्दधुर्नैव तद्वाक्यं कर्मणा तस्य शङ्किताः |
3437 | 4056002a | ते प्रायमुपविष्टास्तु दृष्ट्वा गृध्रं प्लवंगमाः |
3438 | 4056002c | चक्रुर्बुद्धिं तदा रौद्रां सर्वान्नो भक्षयिष्यति |
3439 | 4056003a | सर्वथा प्रायमासीनान्यदि नो भक्षयिष्यति |
3440 | 4056003c | कृतकृत्या भविष्यामः क्षिप्रं सिद्धिमितो गताः |
3441 | 4056004a | एतां बुद्धिं ततश्चक्रुः सर्वे ते वानरर्षभाः |
3442 | 4056004c | अवतार्य गिरेः शृङ्गाद्गृध्रमाहाङ्गदस्तदा |
3443 | 4056005a | बभूवुर्क्षरजो नाम वानरेन्द्रः प्रतापवान् |
3444 | 4056005c | ममार्यः पार्थिवः पक्षिन्धार्मिकौ तस्य चात्मजौ |
3445 | 4056006a | सुग्रीवश्चैव वली च पुत्रावोघबलावुभौ |
3446 | 4056006c | लोके विश्रुतकर्माभूद्राजा वाली पिता मम |
3447 | 4056007a | राजा कृत्स्नस्य जगत इक्ष्वाकूणां महारथः |
3448 | 4056007c | रामो दाशरथिः श्रीमान्प्रविष्टो दण्डकावनम् |
3449 | 4056008a | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा वैदेह्या चापि भार्यया |
3450 | 4056008c | पितुर्निदेशनिरतो धर्म्यं पन्थानमाश्रितः |
3451 | 4056008e | तस्य भार्या जनस्थानाद्रावणेन हृता बलात् |
3452 | 4056009a | रामस्य च पितुर्मित्रं जटायुर्नाम गृध्रराट् |
3453 | 4056009c | ददर्श सीतां वैदेहीं ह्रियमाणां विहायसा |
3454 | 4056010a | रावणं विरथं कृत्वा स्थापयित्वा च मैथिलीम् |
3455 | 4056010c | परिश्रान्तश्च वृद्धश्च रावणेन हतो रणे |
3456 | 4056011a | एवं गृध्रो हतस्तेन रावणेन बहीयसा |
3457 | 4056011c | संस्कृतश्चापि रामेण गतश्च गतिमुत्तमाम् |
3458 | 4056012a | ततो मम पितृव्येण सुग्रीवेण महात्मना |
3459 | 4056012c | चकार राघवः सख्यं सोऽवधीत्पितरं मम |
3460 | 4056013a | माम पित्रा विरुद्धो हि सुग्रीवः सचिवैः सह |
3461 | 4056013c | निहत्य वालिनं रामस्ततस्तमभिषेचयत् |
3462 | 4056014a | स राज्ये स्थापितस्तेन सुग्रीवो वानरेश्वरः |
3463 | 4056014c | राजा वानरमुख्यानां येन प्रस्थापिता वयम् |
3464 | 4056015a | एवं रामप्रयुक्तास्तु मार्गमाणास्ततस्ततः |
3465 | 4056015c | वैदेहीं नाधिगच्छामो रात्रौ सूर्यप्रभामिव |
3466 | 4056016a | ते वयं दण्दकारण्यं विचित्य सुसमाहिताः |
3467 | 4056016c | अज्ञानात्तु प्रविष्टाः स्म धरण्या विवृतं बिलम् |
3468 | 4056017a | मयस्य माया विहितं तद्बिलं च विचिन्वताम् |
3469 | 4056017c | व्यतीतस्तत्र नो मासो यो राज्ञा सामयः कृतः |
3470 | 4056018a | ते वयं कपिराजस्य सर्वे वचनकारिणः |
3471 | 4056018c | कृतां संस्थामतिक्रान्ता भयात्प्रायमुपास्महे |
3472 | 4056019a | क्रुद्धे तस्मिंस्तु काकुत्स्थे सुग्रीवे च सलक्ष्मणे |
3473 | 4056019c | गतानामपि सर्वेषां तत्र नो नास्ति जीवितम् |
3474 | 4057001a | इत्युक्तः करुणं वाक्यं वानरैस्त्यक्तजीवितैः |
3475 | 4057001c | सबाष्पो वानरान्गृध्रः प्रत्युवाच महास्वनः |
3476 | 4057002a | यवीयान्मम स भ्राता जटायुर्नाम वानराः |
3477 | 4057002c | यमाख्यात हतं युद्धे रावणेन बलीयसा |
3478 | 4057003a | वृद्धभावादपक्षत्वाच्छृण्वंस्तदपि मर्षये |
3479 | 4057003c | न हि मे शक्तिरद्यास्ति भ्रातुर्वैरविमोक्षणे |
3480 | 4057004a | पुरा वृत्रवधे वृत्ते स चाहं च जयैषिणौ |
3481 | 4057004c | आदित्यमुपयातौ स्वो ज्वलन्तं रश्मिमालिनम् |
3482 | 4057005a | आवृत्याकाशमार्गेण जवेन स्म गतौ भृशम् |
3483 | 4057005c | मध्यं प्राप्ते च सूर्ये च जटायुरवसीदति |
3484 | 4057006a | तमहं भ्रातरं दृष्ट्वा सूर्यरश्मिभिरर्दितम् |
3485 | 4057006c | पक्षाभ्यं छादयामास स्नेहात्परमविह्वलम् |
3486 | 4057007a | निर्दग्धपक्षः पतितो विन्ध्येऽहं वानरोत्तमाः |
3487 | 4057007c | अहमस्मिन्वसन्भ्रातुः प्रवृत्तिं नोपलक्षये |
3488 | 4057008a | जटायुषस्त्वेवमुक्तो भ्रात्रा संपातिना तदा |
3489 | 4057008c | युवराजो महाप्राज्ञः प्रत्युवाचाङ्गदस्तदा |
3490 | 4057009a | जटायुषो यदि भ्राता श्रुतं ते गदितं मया |
3491 | 4057009c | आख्याहि यदि जानासि निलयं तस्य रक्षसः |
3492 | 4057010a | अदीर्घदर्शिनं तं वा रावणं राक्षसाधिपम् |
3493 | 4057010c | अन्तिके यदि वा दूरे यदि जानासि शंस नः |
3494 | 4057011a | ततोऽब्रवीन्महातेजा ज्येष्ठो भ्राता जटायुषः |
3495 | 4057011c | आत्मानुरूपं वचनं वानरान्संप्रहर्षयन् |
3496 | 4057012a | निर्दग्धपक्षो गृध्रोऽहं गतवीर्यः प्लवंगमाः |
3497 | 4057012c | वाङ्मात्रेण तु रामस्य करिष्ये साह्यमुत्तमम् |
3498 | 4057013a | जानामि वारुणाल्लोकान्विष्णोस्त्रैविक्रमानपि |
3499 | 4057013c | देवासुरविमर्दांश्च अमृतस्य च मन्थनम् |
3500 | 4057014a | रामस्य यदिदं कार्यं कर्तव्यं प्रथमं मया |
3501 | 4057014c | जरया च हृतं तेजः प्राणाश्च शिथिला मम |
3502 | 4057015a | तरुणी रूपसंपन्ना सर्वाभरणभूषिता |
3503 | 4057015c | ह्रियमाणा मया दृष्टा रावणेन दुरात्मना |
3504 | 4057016a | क्रोशन्ती राम रामेति लक्ष्मणेति च भामिनी |
3505 | 4057016c | भूषणान्यपविध्यन्ती गात्राणि च विधुन्वती |
3506 | 4057017a | सूर्यप्रभेव शैलाग्रे तस्याः कौशेयमुत्तमम् |
3507 | 4057017c | असिते राक्षसे भाति यथा वा तडिदम्बुदे |
3508 | 4057018a | तां तु सीतामहं मन्ये रामस्य परिकीर्तनात् |
3509 | 4057018c | श्रूयतां मे कथयतो निलयं तस्य रक्षसः |
3510 | 4057019a | पुत्रो विश्रवसः साक्षाद्भ्राता वैश्रवणस्य च |
3511 | 4057019c | अध्यास्ते नगरीं लङ्कां रावणो नाम राकसः |
3512 | 4057020a | इतो द्वीपे समुद्रस्य संपूर्णे शतयोजने |
3513 | 4057020c | तस्मिँल्लङ्का पुरी रम्या निर्मिता विश्वकर्मणा |
3514 | 4057021a | तस्यां वसति वैदेही दीना कौशेयवासिनी |
3515 | 4057021c | रावणान्तःपुरे रुद्धा राक्षसीभिः सुरक्षिता |
3516 | 4057022a | जनकस्यात्मजां राज्ञस्तस्यां द्रक्ष्यथ मैथिलीम् |
3517 | 4057022c | लङ्कायामथ गुप्तायां सागरेण समन्ततः |
3518 | 4057023a | संप्राप्य सागरस्यान्तं संपूर्णं शतयोजनम् |
3519 | 4057023c | आसाद्य दक्षिणं कूलं ततो द्रक्ष्यथ रावणम् |
3520 | 4057024a | तत्रैव त्वरिताः क्षिप्रं विक्रमध्वं प्लवंगमाः |
3521 | 4057024c | ज्ञानेन खलु पश्यामि दृष्ट्वा प्रत्यागमिष्यथ |
3522 | 4057025a | आद्यः पन्थाः कुलिङ्गानां ये चान्ये धान्यजीविनः |
3523 | 4057025c | द्वितीयो बलिभोजानां ये च वृक्षफलाशिनः |
3524 | 4057026a | भासास्तृतीयं गच्छन्ति क्रौञ्चाश्च कुररैः सह |
3525 | 4057026c | श्येनाश्चतुर्थं गच्छन्ति गृध्रा गच्छन्ति पञ्चमम् |
3526 | 4057027a | बलवीर्योपपन्नानां रूपयौवनशालिनाम् |
3527 | 4057027c | षष्ठस्तु पन्था हंसानां वैनतेयगतिः परा |
3528 | 4057027e | वैनतेयाच्च नो जन्म सर्वेषां वानरर्षभाः |
3529 | 4057028a | गर्हितं तु कृतं कर्म येन स्म पिशिताशनाः |
3530 | 4057028c | इहस्थोऽहं प्रपश्यामि रावणं जानकीं तथा |
3531 | 4057029a | अस्माकमपि सौवर्णं दिव्यं चक्षुर्बलं तथा |
3532 | 4057029c | तस्मादाहारवीर्येण निसर्गेण च वानराः |
3533 | 4057029e | आयोजनशतात्साग्राद्वयं पश्याम नित्यशः |
3534 | 4057030a | अस्माकं विहिता वृत्तिर्निसार्गेण च दूरतः |
3535 | 4057030c | विहिता पादमूले तु वृत्तिश्चरणयोधिनाम् |
3536 | 4057031a | उपायो दृश्यतां कश्चिल्लङ्घने लवणाम्भसः |
3537 | 4057031c | अभिगम्य तु वैदेहीं समृद्धार्था गमिष्यथ |
3538 | 4057032a | समुद्रं नेतुमिच्छामि भवद्भिर्वरुणालयम् |
3539 | 4057032c | प्रदास्याम्युदकं भ्रातुः स्वर्गतस्य महात्मनः |
3540 | 4057033a | ततो नीत्वा तु तं देशं तीरे नदनदीपतेः |
3541 | 4057033c | निर्दग्धपक्षं संपातिं वानराः सुमहौजसः |
3542 | 4057034a | पुनः प्रत्यानयित्वा वै तं देशं पतगेश्वरम् |
3543 | 4057034c | बभूवुर्वानरा हृष्टाः प्रवृत्तिमुपलभ्य ते |
3544 | 4058001a | ततस्तदमृतास्वादं गृध्रराजेन भाषितम् |
3545 | 4058001c | निशम्य वदतो हृष्टास्ते वचः प्लवगर्षभाः |
3546 | 4058002a | जाम्बवान्वै हरिश्रेष्ठः सह सर्वैः प्लवंगमैः |
3547 | 4058002c | भूतलात्सहसोत्थाय गृध्रराजानमब्रवीत् |
3548 | 4058003a | क्व सीता केन वा दृष्टा को वा हरति मैथिलीम् |
3549 | 4058003c | तदाख्यातु भवान्सर्वं गतिर्भव वनौकसाम् |
3550 | 4058004a | को दाशरथिबाणानां वज्रवेगनिपातिनाम् |
3551 | 4058004c | स्वयं लक्ष्मणमुक्तानां न चिन्तयति विक्रमम् |
3552 | 4058005a | स हरीन्प्रीतिसंयुक्तान्सीता श्रुतिसमाहितान् |
3553 | 4058005c | पुनराश्वासयन्प्रीत इदं वचनमब्रवीत् |
3554 | 4058006a | श्रूयतामिह वैदेह्या यथा मे हरणं श्रुतम् |
3555 | 4058006c | येन चापि ममाख्यातं यत्र चायतलोचना |
3556 | 4058007a | अहमस्मिन्गिरौ दुर्गे बहुयोजनमायते |
3557 | 4058007c | चिरान्निपतितो वृद्धः क्षीणप्राणपराक्रमः |
3558 | 4058008a | तं मामेवंगतं पुत्रः सुपार्श्वो नाम नामतः |
3559 | 4058008c | आहारेण यथाकालं बिभर्ति पततां वरः |
3560 | 4058009a | तीक्ष्णकामास्तु गन्धर्वास्तीक्ष्णकोपा भुजंगमाः |
3561 | 4058009c | मृगाणां तु भयं तीक्ष्णं ततस्तीक्ष्णक्षुधा वयम् |
3562 | 4058010a | स कदाचित्क्षुधार्तस्य मम चाहारकाङ्क्षिणः |
3563 | 4058010c | गतसूर्योऽहनि प्राप्तो मम पुत्रो ह्यनामिषः |
3564 | 4058011a | स मया वृद्धभावाच्च कोपाच्च परिभर्त्सितः |
3565 | 4058011c | क्षुत्पिपासा परीतेन कुमारः पततां वरः |
3566 | 4058012a | स ममाहारसंरोधात्पीडितः प्रीतिवर्धनः |
3567 | 4058012c | अनुमान्य यथातत्त्वमिदं वचनमब्रवीत् |
3568 | 4058013a | अहं तात यथाकालमामिषार्थी खमाप्लुतः |
3569 | 4058013c | महेन्द्रस्य गिरेर्द्वारमावृत्य च समास्थितः |
3570 | 4058014a | तत्र सत्त्वसहस्राणां सागरान्तरचारिणाम् |
3571 | 4058014c | पन्थानमेकोऽध्यवसं संनिरोद्धुमवाङ्मुखः |
3572 | 4058015a | तत्र कश्चिन्मया दृष्टः सूर्योदयसमप्रभाम् |
3573 | 4058015c | स्त्रियमादाय गच्छन्वै भिन्नाञ्जनचयोपमः |
3574 | 4058016a | सोऽहमभ्यवहारार्थी तौ दृष्ट्वा कृतनिश्चयः |
3575 | 4058016c | तेन साम्ना विनीतेन पन्थानमभियाचितः |
3576 | 4058017a | न हि सामोपपन्नानां प्रहर्ता विद्यते क्वचित् |
3577 | 4058017c | नीचेष्वपि जनः कश्चित्किमङ्ग बत मद्विधः |
3578 | 4058018a | स यातस्तेजसा व्योम संक्षिपन्निव वेगतः |
3579 | 4058018c | अथाहं खे चरैर्भूतैरभिगम्य सभाजितः |
3580 | 4058019a | दिष्ट्या जीवसि तातेति अब्रुवन्मां महर्षयः |
3581 | 4058019c | कथंचित्सकलत्रोऽसौ गतस्ते स्वस्त्यसंशयम् |
3582 | 4058020a | एवमुक्तस्ततोऽहं तैः सिद्धैः परमशोभनैः |
3583 | 4058020c | स च मे रावणो राजा रक्षसां प्रतिवेदितः |
3584 | 4058021a | हरन्दाशरथेर्भार्यां रामस्य जनकात्मजाम् |
3585 | 4058021c | भ्रष्टाभरणकौशेयां शोकवेगपराजिताम् |
3586 | 4058022a | रामलक्ष्मणयोर्नाम क्रोशन्तीं मुक्तमूर्धजाम् |
3587 | 4058022c | एष कालात्ययस्तावदिति वाक्यविदां वरः |
3588 | 4058023a | एतमर्थं समग्रं मे सुपार्श्वः प्रत्यवेदयत् |
3589 | 4058023c | तच्छ्रुत्वापि हि मे बुद्धिर्नासीत्काचित्पराक्रमे |
3590 | 4058024a | अपक्षो हि कथं पक्षी कर्म किंचिदुपक्रमेत् |
3591 | 4058024c | यत्तु शक्यं मया कर्तुं वाग्बुद्धिगुणवर्तिना |
3592 | 4058025a | श्रूयतां तत्प्रवक्ष्यामि भवतां पौरुषाश्रयम् |
3593 | 4058025c | वाङ्मतिभ्यां हि सार्वेषां करिष्यामि प्रियं हि वः |
3594 | 4058025e | यद्धि दाशरथेः कार्यं मम तन्नात्र संशयः |
3595 | 4058026a | ते भवन्तो मतिश्रेष्ठा बलवन्तो मनस्विनः |
3596 | 4058026c | सहिताः कपिराजेन देवैरपि दुरासदाः |
3597 | 4058027a | रामलक्ष्मणबाणाश्च निशिताः कङ्कपत्रिणः |
3598 | 4058027c | त्रयाणामपि लोकानां पर्याप्तास्त्राणनिग्रहे |
3599 | 4058028a | कामं खलु दशग्रीवस्तेजोबलसमन्वितः |
3600 | 4058028c | भवतां तु समर्थानां न किंचिदपि दुष्करम् |
3601 | 4058029a | तदलं कालसंगेन क्रियतां बुद्धिनिश्चयः |
3602 | 4058029c | न हि कर्मसु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः |
3603 | 4059001a | ततः कृतोदकं स्नातं तं गृध्रं हरियूथपाः |
3604 | 4059001c | उपविष्टा गिरौ दुर्गे परिवार्य समन्ततः |
3605 | 4059002a | तमङ्गदमुपासीनं तैः सर्वैर्हरिभिर्वृतम् |
3606 | 4059002c | जनितप्रत्ययो हर्षात्संपातिः पुनरब्रवीत् |
3607 | 4059003a | कृत्वा निःशब्दमेकाग्राः शृण्वन्तु हरयो मम |
3608 | 4059003c | तत्त्वं संकीर्तयिष्यामि यथा जानामि मैथिलीम् |
3609 | 4059004a | अस्य विन्ध्यस्य शिखरे पतितोऽस्मि पुरा वने |
3610 | 4059004c | सूर्यातपपरीताङ्गो निर्दग्धः सूर्यरश्मिभिः |
3611 | 4059005a | लब्धसंज्ञस्तु षड्रात्राद्विवशो विह्वलन्निव |
3612 | 4059005c | वीक्षमाणो दिशः सर्वा नाभिजानामि किंचन |
3613 | 4059006a | ततस्तु सागराञ्शैलान्नदीः सर्वाः सरांसि च |
3614 | 4059006c | वनान्यटविदेशांश्च समीक्ष्य मतिरागमत् |
3615 | 4059007a | हृष्टपक्षिगणाकीर्णः कन्दरान्तरकूटवान् |
3616 | 4059007c | दक्षिणस्योदधेस्तीरे विन्ध्योऽयमिति निश्चितः |
3617 | 4059008a | आसीच्चात्राश्रमं पुण्यं सुरैरपि सुपूजितम् |
3618 | 4059008c | ऋषिर्निशाकरो नाम यस्मिन्नुग्रतपाभवत् |
3619 | 4059009a | अष्टौ वर्षसहस्राणि तेनास्मिन्नृषिणा विना |
3620 | 4059009c | वसतो मम धर्मज्ञाः स्वर्गते तु निशाकरे |
3621 | 4059010a | अवतीर्य च विन्ध्याग्रात्कृच्छ्रेण विषमाच्छनैः |
3622 | 4059010c | तीक्ष्णदर्भां वसुमतीं दुःखेन पुनरागतः |
3623 | 4059011a | तमृषिं द्रष्टु कामोऽस्मि दुःखेनाभ्यागतो भृशम् |
3624 | 4059011c | जटायुषा मया चैव बहुशोऽभिगतो हि सः |
3625 | 4059012a | तस्याश्रमपदाभ्याशे ववुर्वाताः सुगन्धिनः |
3626 | 4059012c | वृक्षो नापुष्पितः कश्चिदफलो वा न दृश्यते |
3627 | 4059013a | उपेत्य चाश्रमं पुण्यं वृक्षमूलमुपाश्रितः |
3628 | 4059013c | द्रष्टुकामः प्रतीक्षे च भगवन्तं निशाकरम् |
3629 | 4059014a | अथापश्यमदूरस्थमृषिं ज्वलिततेजसं |
3630 | 4059014c | कृताभिषेकं दुर्धर्षमुपावृत्तमुदङ्मुखम् |
3631 | 4059015a | तमृक्षाः सृमरा व्याघ्राः सिंहा नागाः सरीसृपाः |
3632 | 4059015c | परिवार्योपगच्छन्ति दातारं प्राणिनो यथा |
3633 | 4059016a | ततः प्राप्तमृषिं ज्ञात्वा तानि सत्त्वानि वै ययुः |
3634 | 4059016c | प्रविष्टे राजनि यथा सर्वं सामात्यकं बलम् |
3635 | 4059017a | ऋषिस्तु दृष्ट्वा मां तुष्टः प्रविष्टश्चाश्रमं पुनः |
3636 | 4059017c | मुहूर्तमात्रान्निष्क्रम्य ततः कार्यमपृच्छत |
3637 | 4059018a | सौम्य वैकल्यतां दृष्ट्वा रोंणां ते नावगम्यते |
3638 | 4059018c | अग्निदग्धाविमौ पक्षौ त्वक्चैव व्रणिता तव |
3639 | 4059019a | द्वौ गृध्रौ दृष्टपूर्वौ मे मातरिश्वसमौ जवे |
3640 | 4059019c | गृध्राणां चैव राजानौ भ्रातरौ कामरूपिणौ |
3641 | 4059020a | ज्येष्ठस्त्वं तु च संपातिर्जटायुरनुजस्तव |
3642 | 4059020c | मानुषं रूपमास्थाय गृह्णीतां चरणौ मम |
3643 | 4059021a | किं ते व्याधिसमुत्थानं पक्षयोः पतनं कथम् |
3644 | 4059021c | दण्डो वायं धृतः केन सर्वमाख्याहि पृच्छतः |
3645 | 4060001a | ततस्तद्दारुणं कर्म दुष्करं साहसात्कृतम् |
3646 | 4060001c | आचचक्षे मुनेः सर्वं सूर्यानुगमनं तथा |
3647 | 4060002a | भगवन्व्रणयुक्तत्वाल्लज्जया चाकुलेन्द्रियः |
3648 | 4060002c | परिश्रान्तो न शक्नोमि वचनं परिभाषितुम् |
3649 | 4060003a | अहं चैव जटायुश्च संघर्षाद्दर्पमोहितौ |
3650 | 4060003c | आकाशं पतितौ वीरौ जिघासन्तौ पराक्रमम् |
3651 | 4060004a | कैलासशिखरे बद्ध्वा मुनीनामग्रतः पणम् |
3652 | 4060004c | रविः स्यादनुयातव्यो यावदस्तं महागिरिम् |
3653 | 4060005a | अथावां युगपत्प्राप्तावपश्याव महीतले |
3654 | 4060005c | रथचक्रप्रमाणानि नगराणि पृथक्पृथक् |
3655 | 4060006a | क्वचिद्वादित्रघोषांश्च ब्रह्मघोषांश्च शुश्रुव |
3656 | 4060006c | गायन्तीश्चाङ्गना बह्वीः पश्यावो रक्तवाससः |
3657 | 4060007a | तूर्णमुत्पत्य चाकाशमादित्यपथमास्थितौ |
3658 | 4060007c | आवामालोकयावस्तद्वनं शाद्वलसंस्थितम् |
3659 | 4060008a | उपलैरिव संछन्ना दृश्यते भूः शिलोच्चयैः |
3660 | 4060008c | आपगाभिश्च संवीता सूत्रैरिव वसुंधरा |
3661 | 4060009a | हिमवांश्चैव विन्ध्यश्च मेरुश्च सुमहान्नगः |
3662 | 4060009c | भूतले संप्रकाशन्ते नागा इव जलाशये |
3663 | 4060010a | तीव्रस्वेदश्च खेदश्च भयं चासीत्तदावयोः |
3664 | 4060010c | समाविशत मोहश्च मोहान्मूर्छा च दारुणा |
3665 | 4060011a | न दिग्विज्ञायते याम्या नागेन्या न च वारुणी |
3666 | 4060011c | युगान्ते नियतो लोको हतो दग्ध इवाग्निना |
3667 | 4060012a | यत्नेन महता भूयो रविः समवलोकितः |
3668 | 4060012c | तुल्यः पृथ्वीप्रमाणेन भास्करः प्रतिभाति नौ |
3669 | 4060013a | जटायुर्मामनापृच्छ्य निपपात महीं ततः |
3670 | 4060013c | तं दृष्ट्वा तूर्णमाकाशादात्मानं मुक्तवानहम् |
3671 | 4060014a | पक्षिभ्यां च मया गुप्तो जटायुर्न प्रदह्यत |
3672 | 4060014c | प्रमादात्तत्र निर्दग्धः पतन्वायुपथादहम् |
3673 | 4060015a | आशङ्के तं निपतितं जनस्थाने जटायुषम् |
3674 | 4060015c | अहं तु पतितो विन्ध्ये दग्धपक्षो जडीकृतः |
3675 | 4060016a | राज्येन हीनो भ्रात्रा च पक्षाभ्यां विक्रमेण च |
3676 | 4060016c | सर्वथा मर्तुमेवेच्छन्पतिष्ये शिखराद्गिरेः |
3677 | 4061001a | एवमुक्त्वा मुनिश्रेष्ठमरुदं दुःखितो भृशम् |
3678 | 4061001c | अथ ध्यात्वा मुहूर्तं तु भगवानिदमब्रवीत् |
3679 | 4061002a | पक्षौ च ते प्रपक्षौ च पुनरन्यौ भविष्यतः |
3680 | 4061002c | चक्षुषी चैव प्राणाश्च विक्रमश्च बलं च ते |
3681 | 4061003a | पुराणे सुमहत्कार्यं भविष्यं हि मया श्रुतम् |
3682 | 4061003c | दृष्टं मे तपसा चैव श्रुत्वा च विदितं मम |
3683 | 4061004a | राजा दशरथो नाम कश्चिदिक्ष्वाकुनन्दनः |
3684 | 4061004c | तस्य पुत्रो महातेजा रामो नाम भविष्यति |
3685 | 4061005a | अरण्यं च सह भ्रात्रा लक्ष्मणेन गमिष्यति |
3686 | 4061005c | तस्मिन्नर्थे नियुक्तः सन्पित्रा सत्यपराक्रमः |
3687 | 4061006a | नैरृतो रावणो नाम तस्या भार्यां हरिष्यति |
3688 | 4061006c | राक्षसेन्द्रो जनस्थानादवध्यः सुरदानवैः |
3689 | 4061007a | सा च कामैः प्रलोभ्यन्ती भक्ष्यैर्भोज्यैश्च मैथिली |
3690 | 4061007c | न भोक्ष्यति महाभागा दुःखमग्ना यशस्विनी |
3691 | 4061008a | परमान्नं तु वैदेह्या ज्ञात्वा दास्यति वासवः |
3692 | 4061008c | यदन्नममृतप्रख्यं सुराणामपि दुर्लभम् |
3693 | 4061009a | तदन्नं मैथिली प्राप्य विज्ञायेन्द्रादिदं त्विति |
3694 | 4061009c | अग्रमुद्धृत्य रामाय भूतले निर्वपिष्यति |
3695 | 4061010a | यदि जीवति मे भर्ता लक्ष्मणेन सह प्रभुः |
3696 | 4061010c | देवत्वं गतयोर्वापि तयोरन्नमिदं त्विति |
3697 | 4061011a | एष्यन्त्यन्वेषकास्तस्या रामदूताः प्लवंगमाः |
3698 | 4061011c | आख्येया राममहिषी त्वया तेभ्यो विहंगम |
3699 | 4061012a | सर्वथा तु न गन्तव्यमीदृशः क्व गमिष्यसि |
3700 | 4061012c | देशकालौ प्रतीक्षस्व पक्षौ त्वं प्रतिपत्स्यसे |
3701 | 4061013a | उत्सहेयमहं कर्तुमद्यैव त्वां सपक्षकम् |
3702 | 4061013c | इहस्थस्त्वं तु लोकानां हितं कार्यं करिष्यसि |
3703 | 4061014a | त्वयापि खलु तत्कार्यं तयोश्च नृपपुत्रयोः |
3704 | 4061014c | ब्राह्मणानां सुराणां च मुनीनां वासवस्य च |
3705 | 4061015a | इच्छाम्यहमपि द्रष्टुं भ्रातरु रामलक्ष्मणौ |
3706 | 4061015c | नेच्छे चिरं धारयितुं प्राणांस्त्यक्ष्ये कलेवरम् |
3707 | 4062001a | एतैरन्यैश्च बहुभिर्वाक्यैर्वाक्यविशारदः |
3708 | 4062001c | मां प्रशस्याभ्यनुज्ञाप्य प्रविष्टः स स्वमाश्रमम् |
3709 | 4062002a | कन्दरात्तु विसर्पित्वा पर्वतस्य शनैः शनैः |
3710 | 4062002c | अहं विन्ध्यं समारुह्य भवतः प्रतिपालये |
3711 | 4062003a | अद्य त्वेतस्य कालस्य साग्रं वर्षशतं गतम् |
3712 | 4062003c | देशकालप्रतीक्षोऽस्मि हृदि कृत्वा मुनेर्वचः |
3713 | 4062004a | महाप्रस्थानमासाद्य स्वर्गते तु निशाकरे |
3714 | 4062004c | मां निर्दहति संतापो वितर्कैर्बहुभिर्वृतम् |
3715 | 4062005a | उत्थितां मरणे बुद्धिं मुनि वाक्यैर्निवर्तये |
3716 | 4062005c | बुद्धिर्या तेन मे दत्ता प्राणसंरक्षणाय तु |
3717 | 4062005e | सा मेऽपनयते दुःखं दीप्तेवाग्निशिखा तमः |
3718 | 4062006a | बुध्यता च मया वीर्यं रावणस्य दुरात्मनः |
3719 | 4062006c | पुत्रः संतर्जितो वाग्भिर्न त्राता मैथिली कथम् |
3720 | 4062007a | तस्या विलपितं श्रुत्वा तौ च सीता विनाकृतौ |
3721 | 4062007c | न मे दशरथस्नेहात्पुत्रेणोत्पादितं प्रियम् |
3722 | 4062008a | तस्य त्वेवं ब्रुवाणस्य संपातेर्वानरैः सह |
3723 | 4062008c | उत्पेततुस्तदा पक्षौ समक्षं वनचारिणाम् |
3724 | 4062009a | स दृष्ट्वा स्वां तनुं पक्षैरुद्गतैररुणच्छदैः |
3725 | 4062009c | प्रहर्षमतुलं लेभे वानरांश्चेदमब्रवीत् |
3726 | 4062010a | निशाकरस्य महर्षेः प्रभावादमितात्मनः |
3727 | 4062010c | आदित्यरश्मिनिर्दग्धौ पक्षौ मे पुनरुत्थितौ |
3728 | 4062011a | यौवने वर्तमानस्य ममासीद्यः पराक्रमः |
3729 | 4062011c | तमेवाद्यावगच्छामि बलं पौरुषमेव च |
3730 | 4062012a | सर्वथा क्रियतां यत्नः सीतामधिगमिष्यथ |
3731 | 4062012c | पक्षलाभो ममायं वः सिद्धिप्रत्यय कारकः |
3732 | 4062013a | इत्युक्त्वा तान्हरीन्सर्वान्संपातिः पततां वरः |
3733 | 4062013c | उत्पपात गिरेः शृङ्गाज्जिज्ञासुः खगमो गतिम् |
3734 | 4062014a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा प्रीतिसंहृष्टमानसाः |
3735 | 4062014c | बभूवुर्हरिशार्दूला विक्रमाभ्युदयोन्मुखाः |
3736 | 4062015a | अथ पवनसमानविक्रमाः; प्लवगवराः प्रतिलब्ध पौरुषाः |
3737 | 4062015c | अभिजिदभिमुखां दिशं ययु;र्जनकसुता परिमार्गणोन्मुखाः |
3738 | 4063001a | आख्याता गृध्रराजेन समुत्पत्य प्लवंगमाः |
3739 | 4063001c | संगताः प्रीतिसंयुक्ता विनेदुः सिंहविक्रमाः |
3740 | 4063002a | संपातेर्वचनं श्रुत्वा हरयो रावणक्षयम् |
3741 | 4063002c | हृष्टाः सागरमाजग्मुः सीतादर्शनकाङ्क्षिणः |
3742 | 4063003a | अभिक्रम्य तु तं देशं ददृशुर्भीमविक्रमाः |
3743 | 4063003c | कृत्स्नं लोकस्य महतः प्रतिबिम्बमिव स्थितम् |
3744 | 4063004a | दक्षिणस्य समुद्रस्य समासाद्योत्तरां दिशम् |
3745 | 4063004c | संनिवेशं ततश्चक्रुः सहिता वानरोत्तमाः |
3746 | 4063005a | सत्त्वैर्महद्भिर्विकृतैः क्रीडद्भिर्विविधैर्जले |
3747 | 4063005c | व्यात्तास्यैः सुमहाकायैरूर्मिभिश्च समाकुलम् |
3748 | 4063006a | प्रसुप्तमिव चान्यत्र क्रीडन्तमिव चान्यतः |
3749 | 4063006c | क्वचित्पर्वतमात्रैश्च जलराशिभिरावृतम् |
3750 | 4063007a | संकुलं दानवेन्द्रैश्च पातालतलवासिभिः |
3751 | 4063007c | रोमहर्षकरं दृष्ट्वा विषेदुः कपिकुञ्जराः |
3752 | 4063008a | आकाशमिव दुष्पारं सागरं प्रेक्ष्य वानराः |
3753 | 4063008c | विषेदुः सहसा सर्वे कथं कार्यमिति ब्रुवन् |
3754 | 4063009a | विषण्णां वाहिनीं दृष्ट्वा सागरस्य निरीक्षणात् |
3755 | 4063009c | आश्वासयामास हरीन्भयार्तान्हरिसत्तमः |
3756 | 4063010a | न निषादेन नः कार्यं विषादो दोषवत्तरः |
3757 | 4063010c | विषादो हन्ति पुरुषं बालं क्रुद्ध इवोरगः |
3758 | 4063011a | विषादोऽयं प्रसहते विक्रमे पर्युपस्थिते |
3759 | 4063011c | तेजसा तस्य हीनस्य पुरुषार्थो न सिध्यति |
3760 | 4063012a | तस्यां रात्र्यां व्यतीतायामङ्गदो वानरैः सह |
3761 | 4063012c | हरिवृद्धैः समागम्य पुनर्मन्त्रममन्त्रयत् |
3762 | 4063013a | सा वानराणां ध्वजिनी परिवार्याङ्गदं बभौ |
3763 | 4063013c | वासवं परिवार्येव मरुतां वाहिनी स्थिता |
3764 | 4063014a | कोऽन्यस्तां वानरीं सेनां शक्तः स्तम्भयितुं भवेत् |
3765 | 4063014c | अन्यत्र वालितनयादन्यत्र च हनूमतः |
3766 | 4063015a | ततस्तान्हरिवृद्धांश्च तच्च सैन्यमरिंदमः |
3767 | 4063015c | अनुमान्याङ्गदः श्रीमान्वाक्यमर्थवदब्रवीत् |
3768 | 4063016a | क इदानीं महातेजा लङ्घयिष्यति सागरम् |
3769 | 4063016c | कः करिष्यति सुग्रीवं सत्यसंधमरिंदमम् |
3770 | 4063017a | को वीरो योजनशतं लङ्घयेत प्लवंगमाः |
3771 | 4063017c | इमांश्च यूथपान्सर्वान्मोचयेत्को महाभयात् |
3772 | 4063018a | कस्य प्रसादाद्दारांश्च पुत्रांश्चैव गृहाणि च |
3773 | 4063018c | इतो निवृत्ताः पश्येम सिद्धार्थाः सुखिनो वयम् |
3774 | 4063019a | कस्य प्रसादाद्रामं च लक्ष्मणं च महाबलम् |
3775 | 4063019c | अभिगच्छेम संहृष्टाः सुग्रीवं च महाबलम् |
3776 | 4063020a | यदि कश्चित्समर्थो वः सागरप्लवने हरिः |
3777 | 4063020c | स ददात्विह नः शीघ्रं पुण्यामभयदक्षिणाम् |
3778 | 4063021a | अङ्गदस्य वचः श्रुत्वा न कश्चित्किंचिदब्रवीत् |
3779 | 4063021c | स्तिमितेवाभवत्सर्वा सा तत्र हरिवाहिनी |
3780 | 4063022a | पुनरेवाङ्गदः प्राह तान्हरीन्हरिसत्तमः |
3781 | 4063022c | सर्वे बलवतां श्रेष्ठा भवन्तो दृढविक्रमाः |
3782 | 4063023a | व्यपदेश्य कुले जाताः पूजिताश्चाप्यभीक्ष्णशः |
3783 | 4063023c | न हि वो गमने संगः कदाचिदपि कस्यचित् |
3784 | 4063024a | ब्रुवध्वं यस्य या शक्तिर्गमने प्लवगर्षभाः |
3785 | 4064001a | ततोऽङ्गदवचः श्रुत्वा सर्वे ते वानरोत्तमाः |
3786 | 4064001c | स्वं स्वं गतौ समुत्साहमाहुस्तत्र यथाक्रमम् |
3787 | 4064002a | गजो गवाक्षो गवयः शरभो गन्धमादनः |
3788 | 4064002c | मैन्दश्च द्विविदश्चैव सुषेणो जाम्बवांस्तथा |
3789 | 4064003a | आबभाषे गजस्तत्र प्लवेयं दशयोजनम् |
3790 | 4064003c | गवाक्षो योजनान्याह गमिष्यामीति विंशतिम् |
3791 | 4064004a | गवयो वानरस्तत्र वानरांस्तानुवाच ह |
3792 | 4064004c | त्रिंशतं तु गमिष्यामि योजनानां प्लवंगमाः |
3793 | 4064005a | शरभो वानरस्तत्र वानरांस्तानुवाच ह |
3794 | 4064005c | चत्वारिंशद्गमिष्यामि योजनानां न संशयः |
3795 | 4064006a | वानरांस्तु महातेजा अब्रवीद्गन्धमादनः |
3796 | 4064006c | योजनानां गमिष्यामि पञ्चाशत्तु न संशयः |
3797 | 4064007a | मैन्दस्तु वानरस्तत्र वानरांस्तानुवाच ह |
3798 | 4064007c | योजनानां परं षष्टिमहं प्लवितुमुत्सहे |
3799 | 4064008a | ततस्तत्र महातेजा द्विविदः प्रत्यभाषत |
3800 | 4064008c | गमिष्यामि न संदेहः सप्ततिं योजनान्यहम् |
3801 | 4064009a | सुषेणस्तु हरिश्रेष्ठः प्रोक्तवान्कपिसत्तमान् |
3802 | 4064009c | अशीतिं योजनानां तु प्लवेयं प्लवगर्षभाः |
3803 | 4064010a | तेषां कथयतां तत्र सर्वांस्ताननुमान्य च |
3804 | 4064010c | ततो वृद्धतमस्तेषां जाम्बवान्प्रत्यभाषत |
3805 | 4064011a | पूर्वमस्माकमप्यासीत्कश्चिद्गतिपराक्रमः |
3806 | 4064011c | ते वयं वयसः पारमनुप्राप्ताः स्म साम्प्रतम् |
3807 | 4064012a | किं तु नैवं गते शक्यमिदं कार्यमुपेक्षितुम् |
3808 | 4064012c | यदर्थं कपिराजश्च रामश्च कृतनिश्चयौ |
3809 | 4064013a | साम्प्रतं कालभेदेन या गतिस्तां निबोधत |
3810 | 4064013c | नवतिं योजनानां तु गमिष्यामि न संशयः |
3811 | 4064014a | तांश्च सर्वान्हरिश्रेष्ठाञ्जाम्बवान्पुनरब्रवीत् |
3812 | 4064014c | न खल्वेतावदेवासीद्गमने मे पराक्रमः |
3813 | 4064015a | मया महाबलैश्चैव यज्ञे विष्णुः सनातनः |
3814 | 4064015c | प्रदक्षिणीकृतः पूर्वं क्रममाणस्त्रिविक्रमः |
3815 | 4064016a | स इदानीमहं वृद्धः प्लवने मन्दविक्रमः |
3816 | 4064016c | यौवने च तदासीन्मे बलमप्रतिमं परैः |
3817 | 4064017a | संप्रत्येतावतीं शक्तिं गमने तर्कयाम्यहम् |
3818 | 4064017c | नैतावता च संसिद्धिः कार्यस्यास्य भविष्यति |
3819 | 4064018a | अथोत्तरमुदारार्थमब्रवीदङ्गदस्तदा |
3820 | 4064018c | अनुमान्य महाप्राज्ञो जाम्बवन्तं महाकपिम् |
3821 | 4064019a | अहमेतद्गमिष्यामि योजनानां शतं महत् |
3822 | 4064019c | निवर्तने तु मे शक्तिः स्यान्न वेति न निश्चितम् |
3823 | 4064020a | तमुवाच हरिश्रेष्ठो जाम्बवान्वाक्यकोविदः |
3824 | 4064020c | ज्ञायते गमने शक्तिस्तव हर्यृक्षसत्तम |
3825 | 4064021a | कामं शतसहस्रं वा न ह्येष विधिरुच्यते |
3826 | 4064021c | योजनानां भवाञ्शक्तो गन्तुं प्रतिनिवर्तितुम् |
3827 | 4064022a | न हि प्रेषयिता तत स्वामी प्रेष्यः कथंचन |
3828 | 4064022c | भवतायं जनः सर्वः प्रेष्यः प्लवगसत्तम |
3829 | 4064023a | भवान्कलत्रमस्माकं स्वामिभावे व्यवस्थितः |
3830 | 4064023c | स्वामी कलत्रं सैन्यस्य गतिरेषा परंतप |
3831 | 4064024a | तस्मात्कलत्रवत्तात प्रतिपाल्यः सदा भवान् |
3832 | 4064024c | अपि चैतस्य कार्यस्य भवान्मूलमरिंदम |
3833 | 4064025a | मूलमर्थस्य संरक्ष्यमेष कार्यविदां नयः |
3834 | 4064025c | मूले हि सति सिध्यन्ति गुणाः पुष्पफलादयः |
3835 | 4064026a | तद्भवानस्या कार्यस्य साधने सत्यविक्रमः |
3836 | 4064026c | बुद्धिविक्रमसंपन्नो हेतुरत्र परंतपः |
3837 | 4064027a | गुरुश्च गुरुपुत्रश्च त्वं हि नः कपिसत्तम |
3838 | 4064027c | भवन्तमाश्रित्य वयं समर्था ह्यर्थसाधने |
3839 | 4064028a | उक्तवाक्यं महाप्राज्ञं जाम्बवन्तं महाकपिः |
3840 | 4064028c | प्रत्युवाचोत्तरं वाक्यं वालिसूनुरथाङ्गदः |
3841 | 4064029a | यदि नाहं गमिष्यामि नान्यो वानरपुंगवः |
3842 | 4064029c | पुनः खल्विदमस्माभिः कार्यं प्रायोपवेशनम् |
3843 | 4064030a | न ह्यकृत्वा हरिपतेः संदेशं तस्य धीमतः |
3844 | 4064030c | तत्रापि गत्वा प्राणानां पश्यामि परिरक्षणम् |
3845 | 4064031a | स हि प्रसादे चात्यर्थं कोपे च हरिरीश्वरः |
3846 | 4064031c | अतीत्य तस्य संदेशं विनाशो गमने भवेत् |
3847 | 4064032a | तद्यथा ह्यस्य कार्यस्य न भवत्यन्यथा गतिः |
3848 | 4064032c | तद्भवानेव दृष्टार्थः संचिन्तयितुमर्हति |
3849 | 4064033a | सोऽङ्गदेन तदा वीरः प्रत्युक्तः प्लवगर्षभः |
3850 | 4064033c | जाम्बवानुत्तरं वाक्यं प्रोवाचेदं ततोऽङ्गदम् |
3851 | 4064034a | अस्य ते वीर कार्यस्य न किंचित्परिहीयते |
3852 | 4064034c | एष संचोदयाम्येनं यः कार्यं साधयिष्यति |
3853 | 4064035a | ततः प्रतीतं प्लवतां वरिष्ठ;मेकान्तमाश्रित्य सुखोपविष्टम् |
3854 | 4064035c | संचोदयामास हरिप्रवीरो; हरिप्रवीरं हनुमन्तमेव |
3855 | 4065001a | अनेकशतसाहस्रीं विषण्णां हरिवाहिनीम् |
3856 | 4065001c | जाम्बवान्समुदीक्ष्यैवं हनुमन्तमथाब्रवीत् |
3857 | 4065002a | वीर वानरलोकस्य सर्वशास्त्रविदां वर |
3858 | 4065002c | तूष्णीमेकान्तमाश्रित्य हनुमन्किं न जल्पसि |
3859 | 4065003a | हनुमन्हरिराजस्य सुग्रीवस्य समो ह्यसि |
3860 | 4065003c | रामलक्ष्मणयोश्चापि तेजसा च बलेन च |
3861 | 4065004a | अरिष्टनेमिनः पुत्रौ वैनतेयो महाबलः |
3862 | 4065004c | गरुत्मानिव विख्यात उत्तमः सर्वपक्षिणाम् |
3863 | 4065005a | बहुशो हि मया दृष्टः सागरे स महाबलः |
3864 | 4065005c | भुजगानुद्धरन्पक्षी महावेगो महायशाः |
3865 | 4065006a | पक्षयोर्यद्बलं तस्य तावद्भुजबलं तव |
3866 | 4065006c | विक्रमश्चापि वेगश्च न ते तेनापहीयते |
3867 | 4065007a | बलं बुद्धिश्च तेजश्च सत्त्वं च हरिसत्तम |
3868 | 4065007c | विशिष्टं सर्वभूतेषु किमात्मानं न बुध्यसे |
3869 | 4065008a | अप्सराप्सरसां श्रेष्ठा विख्याता पुञ्जिकस्थला |
3870 | 4065008c | अज्ञनेति परिख्याता पत्नी केसरिणो हरेः |
3871 | 4065009a | अभिशापादभूत्तात वानरी कामरूपिणी |
3872 | 4065009c | दुहिता वानरेन्द्रस्य कुञ्जरस्य महात्मनः |
3873 | 4065010a | कपित्वे चारुसर्वाङ्गी कदाचित्कामरूपिणी |
3874 | 4065010c | मानुषं विग्रहं कृत्वा यौवनोत्तमशालिनी |
3875 | 4065011a | अचरत्पर्वतस्याग्रे प्रावृडम्बुदसंनिभे |
3876 | 4065011c | विचित्रमाल्याभरणा महार्हक्षौमवासिनी |
3877 | 4065012a | तस्या वस्त्रं विशालाक्ष्याः पीतं रक्तदशं शुभम् |
3878 | 4065012c | स्थितायाः पर्वतस्याग्रे मारुतोऽपहरच्छनैः |
3879 | 4065013a | स ददर्श ततस्तस्या वृत्तावूरू सुसंहतौ |
3880 | 4065013c | स्तनौ च पीनौ सहितौ सुजातं चारु चाननम् |
3881 | 4065014a | तां विशालायतश्रोणीं तनुमध्यां यशस्विनीम् |
3882 | 4065014c | दृष्ट्वैव शुभसर्वाग्नीं पवनः काममोहितः |
3883 | 4065015a | स तां भुजाभ्यां पीनाभ्यां पर्यष्वजत मारुतः |
3884 | 4065015c | मन्मथाविष्टसर्वाङ्गो गतात्मा तामनिन्दिताम् |
3885 | 4065016a | सा तु तत्रैव संभ्रान्ता सुवृत्ता वाक्यमब्रवीत् |
3886 | 4065016c | एकपत्नीव्रतमिदं को नाशयितुमिच्छति |
3887 | 4065017a | अञ्जनाया वचः श्रुत्वा मारुतः प्रत्यभाषत |
3888 | 4065017c | न त्वां हिंसामि सुश्रोणि मा भूत्ते सुभगे भयम् |
3889 | 4065018a | मनसास्मि गतो यत्त्वां परिष्वज्य यशस्विनि |
3890 | 4065018c | वीर्यवान्बुद्धिसंपन्नः पुत्रस्तव भविष्यति |
3891 | 4065019a | अभ्युत्थितं ततः सूर्यं बालो दृष्ट्वा महावने |
3892 | 4065019c | फलं चेति जिघृक्षुस्त्वमुत्प्लुत्याभ्यपतो दिवम् |
3893 | 4065020a | शतानि त्रीणि गत्वाथ योजनानां महाकपे |
3894 | 4065020c | तेजसा तस्य निर्धूतो न विषादं ततो गतः |
3895 | 4065021a | तावदापततस्तूर्णमन्तरिक्षं महाकपे |
3896 | 4065021c | क्षिप्तमिन्द्रेण ते वज्रं क्रोधाविष्टेन धीमता |
3897 | 4065022a | ततः शैलाग्रशिखरे वामो हनुरभज्यत |
3898 | 4065022c | ततो हि नामधेयं ते हनुमानिति कीर्त्यते |
3899 | 4065023a | ततस्त्वां निहतं दृष्ट्वा वायुर्गन्धवहः स्वयम् |
3900 | 4065023c | त्रैलोक्ये भृशसंक्रुद्धो न ववौ वै प्रभञ्जनः |
3901 | 4065024a | संभ्रान्ताश्च सुराः सर्वे त्रैलोक्ये क्षुभिते सति |
3902 | 4065024c | प्रसादयन्ति संक्रुद्धं मारुतं भुवनेश्वराः |
3903 | 4065025a | प्रसादिते च पवने ब्रह्मा तुभ्यं वरं ददौ |
3904 | 4065025c | अशस्त्रवध्यतां तात समरे सत्यविक्रम |
3905 | 4065026a | वज्रस्य च निपातेन विरुजं त्वां समीक्ष्य च |
3906 | 4065026c | सहस्रनेत्रः प्रीतात्मा ददौ ते वरमुत्तमम् |
3907 | 4065027a | स्वच्छन्दतश्च मरणं ते भूयादिति वै प्रभो |
3908 | 4065027c | स त्वं केसरिणः पुत्रः क्षेत्रजो भीमविक्रमः |
3909 | 4065028a | मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः |
3910 | 4065028c | त्वं हि वायुसुतो वत्स प्लवने चापि तत्समः |
3911 | 4065029a | वयमद्य गतप्राणा भवानस्मासु साम्प्रतम् |
3912 | 4065029c | दाक्ष्यविक्रमसंपन्नः पक्षिराज इवापरः |
3913 | 4065030a | त्रिविक्रमे मया तात सशैलवनकानना |
3914 | 4065030c | त्रिः सप्तकृत्वः पृथिवी परिक्रान्ता प्रदक्षिणम् |
3915 | 4065031a | तदा चौषधयोऽस्माभिः संचिता देवशासनात् |
3916 | 4065031c | निष्पन्नममृतं याभिस्तदासीन्नो महद्बलम् |
3917 | 4065032a | स इदानीमहं वृद्धः परिहीनपराक्रमः |
3918 | 4065032c | साम्प्रतं कालमस्माकं भवान्सर्वगुणान्वितः |
3919 | 4065033a | तद्विजृम्भस्व विक्रान्तः प्लवतामुत्तमो ह्यसि |
3920 | 4065033c | त्वद्वीर्यं द्रष्टुकामेयं सर्वा वानरवाहिनी |
3921 | 4065034a | उत्तिष्ठ हरिशार्दूल लङ्घयस्व महार्णवम् |
3922 | 4065034c | परा हि सर्वभूतानां हनुमन्या गतिस्तव |
3923 | 4065035a | विषाण्णा हरयः सर्वे हनुमन्किमुपेक्षसे |
3924 | 4065035c | विक्रमस्व महावेगो विष्णुस्त्रीन्विक्रमानिव |
3925 | 4065036a | ततस्तु वै जाम्बवताभिचोदितः; प्रतीतवेगः पवनात्मजः कपिः |
3926 | 4065036c | प्रहर्षयंस्तां हरिवीर वाहिनीं; चकार रूपं महदात्मनस्तदा |
3927 | 4066001a | संस्तूयमानो हनुमान्व्यवर्धत महाबलः |
3928 | 4066001c | समाविध्य च लाङ्गूलं हर्षाच्च बलमेयिवान् |
3929 | 4066002a | तस्य संस्तूयमानस्य सर्वैर्वानरपुंगवैः |
3930 | 4066002c | तेजसापूर्यमाणस्य रूपमासीदनुत्तमम् |
3931 | 4066003a | यथा विजृम्भते सिंहो विवृद्धो गिरिगह्वरे |
3932 | 4066003c | मारुतस्यौरसः पुत्रस्तथा संप्रति जृम्भते |
3933 | 4066004a | अशोभत मुखं तस्य जृम्भमाणस्य धीमतः |
3934 | 4066004c | अम्बरीषोपमं दीप्तं विधूम इव पावकः |
3935 | 4066005a | हरीणामुत्थितो मध्यात्संप्रहृष्टतनूरुहः |
3936 | 4066005c | अभिवाद्य हरीन्वृद्धान्हनुमानिदमब्रवीत् |
3937 | 4066006a | अरुजन्पर्वताग्राणि हुताशनसखोऽनिलः |
3938 | 4066006c | बलवानप्रमेयश्च वायुराकाशगोचरः |
3939 | 4066007a | तस्याहं शीघ्रवेगस्य शीघ्रगस्य महात्मनः |
3940 | 4066007c | मारुतस्यौरसः पुत्रः प्लवने नास्ति मे समः |
3941 | 4066008a | उत्सहेयं हि विस्तीर्णमालिखन्तमिवाम्बरम् |
3942 | 4066008c | मेरुं गिरिमसंगेन परिगन्तुं सहस्रशः |
3943 | 4066009a | बाहुवेगप्रणुन्नेन सागरेणाहमुत्सहे |
3944 | 4066009c | समाप्लावयितुं लोकं सपर्वतनदीह्रदम् |
3945 | 4066010a | ममोरुजङ्घावेगेन भविष्यति समुत्थितः |
3946 | 4066010c | संमूर्छितमहाग्राहः समुद्रो वरुणालयः |
3947 | 4066011a | पन्नगाशनमाकाशे पतन्तं पक्षिसेवितम् |
3948 | 4066011c | वैनतेयमहं शक्तः परिगन्तुं सहस्रशः |
3949 | 4066012a | उदयात्प्रस्थितं वापि ज्वलन्तं रश्मिमालिनम् |
3950 | 4066012c | अनस्तमितमादित्यमभिगन्तुं समुत्सहे |
3951 | 4066013a | ततो भूमिमसंस्पृश्य पुनरागन्तुमुत्सहे |
3952 | 4066013c | प्रवेगेनैव महता भीमेन प्लवगर्षभाः |
3953 | 4066014a | उत्सहेयमतिक्रान्तुं सर्वानाकाशगोचरान् |
3954 | 4066014c | सागरं क्षोभयिष्यामि दारयिष्यामि मेदिनीम् |
3955 | 4066015a | पर्वतान्कम्पयिष्यामि प्लवमानः प्लवंगमाः |
3956 | 4066015c | हरिष्ये चोरुवेगेन प्लवमानो महार्णवम् |
3957 | 4066016a | लतानां वीरुधां पुष्पं पादपानां च सर्वशः |
3958 | 4066016c | अनुयास्यति मामद्य प्लवमानं विहायसा |
3959 | 4066016e | भविष्यति हि मे पन्थाः स्वातेः पन्था इवाम्बरे |
3960 | 4066017a | चरन्तं घोरमाकाशमुत्पतिष्यन्तमेव च |
3961 | 4066017c | द्रक्ष्यन्ति निपतन्तं च सर्वभूतानि वानराः |
3962 | 4066018a | महामेरुप्रतीकाशं मां द्रक्ष्यध्वं प्लवंगमाः |
3963 | 4066018c | दिवमावृत्य गच्छन्तं ग्रसमानमिवाम्बरम् |
3964 | 4066019a | विधमिष्यामि जीमूतान्कम्पयिष्यामि पर्वतान् |
3965 | 4066019c | सागरं क्षोभयिष्यामि प्लवमानः समाहितः |
3966 | 4066020a | वैनतेयस्य वा शक्तिर्मम वा मारुतस्य वा |
3967 | 4066020c | ऋते सुपर्णराजानं मारुतं वा महाबलम् |
3968 | 4066020e | न हि भूतं प्रपश्यामि यो मां प्लुतमनुव्रजेत् |
3969 | 4066021a | निमेषान्तरमात्रेण निरालम्भनमम्बरम् |
3970 | 4066021c | सहसा निपतिष्यामि घनाद्विद्युदिवोत्थिता |
3971 | 4066022a | भविष्यति हि मे रूपं प्लवमानस्य सागरम् |
3972 | 4066022c | विष्णोः प्रक्रममाणस्य तदा त्रीन्विक्रमानिव |
3973 | 4066023a | बुद्ध्या चाहं प्रपश्यामि मनश्चेष्टा च मे तथा |
3974 | 4066023c | अहं द्रक्ष्यामि वैदेहीं प्रमोदध्वं प्लवंगमाः |
3975 | 4066024a | मारुतस्य समो वेगे गरुडस्य समो जवे |
3976 | 4066024c | अयुतं योजनानां तु गमिष्यामीति मे मतिः |
3977 | 4066025a | वासवस्य सवज्रस्य ब्रह्मणो वा स्वयम्भुवः |
3978 | 4066025c | विक्रम्य सहसा हस्तादमृतं तदिहानये |
3979 | 4066025e | लङ्कां वापि समुत्क्षिप्य गच्छेयमिति मे मतिः |
3980 | 4066026a | तमेवं वानरश्रेष्ठं गर्जन्तममितौजसं |
3981 | 4066026c | उवाच परिसंहृष्टो जाम्बवान्हरिसत्तमः |
3982 | 4066027a | वीर केसरिणः पुत्र वेगवन्मारुतात्मज |
3983 | 4066027c | ज्ञातीनां विपुलं शोकस्त्वया तात प्रणाशितः |
3984 | 4066028a | तव कल्याणरुचयः कपिमुख्याः समागताः |
3985 | 4066028c | मङ्गलं कार्यसिद्ध्यर्थं करिष्यन्ति समाहिताः |
3986 | 4066029a | ऋषीणां च प्रसादेन कपिवृद्धमतेन च |
3987 | 4066029c | गुरूणां च प्रसादेन प्लवस्व त्वं महार्णवम् |
3988 | 4066030a | स्थास्यामश्चैकपादेन यावदागमनं तव |
3989 | 4066030c | त्वद्गतानि च सर्वेषां जीवितानि वनौकसाम् |
3990 | 4066031a | ततस्तु हरिशार्दूलस्तानुवाच वनौकसः |
3991 | 4066031c | नेयं मम मही वेगं प्लवने धारयिष्यति |
3992 | 4066032a | एतानि हि नगस्यास्य शिलासंकटशालिनः |
3993 | 4066032c | शिखराणि महेन्द्रस्य स्थिराणि च महान्ति च |
3994 | 4066033a | एतानि मम निष्पेषं पादयोः पततां वराः |
3995 | 4066033c | प्लवतो धारयिष्यन्ति योजनानामितः शतम् |
3996 | 4066034a | ततस्तु मारुतप्रख्यः स हरिर्मारुतात्मजः |
3997 | 4066034c | आरुरोह नगश्रेष्ठं महेन्द्रमरिमर्दनः |
3998 | 4066035a | वृतं नानाविधैर्वृक्षैर्मृगसेवितशाद्वलम् |
3999 | 4066035c | लताकुसुमसंबाधं नित्यपुष्पफलद्रुमम् |
4000 | 4066036a | सिंहशार्दूलचरितं मत्तमातङ्गसेवितम् |
4001 | 4066036c | मत्तद्विजगणोद्घुष्टं सलिलोत्पीडसंकुलम् |
4002 | 4066037a | महद्भिरुच्छ्रितं शृङ्गैर्महेन्द्रं स महाबलः |
4003 | 4066037c | विचचार हरिश्रेष्ठो महेन्द्रसमविक्रमः |
4004 | 4066038a | पादाभ्यां पीडितस्तेन महाशैलो महात्मना |
4005 | 4066038c | ररास सिंहाभिहतो महान्मत्त इव द्विपः |
4006 | 4066039a | मुमोच सलिलोत्पीडान्विप्रकीर्णशिलोच्चयः |
4007 | 4066039c | वित्रस्तमृगमातङ्गः प्रकम्पितमहाद्रुमः |
4008 | 4066040a | नानागन्धर्वमिथुनैः पानसंसर्गकर्कशैः |
4009 | 4066040c | उत्पतद्भिर्विहंगैश्च विद्याधरगणैरपि |
4010 | 4066041a | त्यज्यमानमहासानुः संनिलीनमहोरगः |
4011 | 4066041c | शैलशृङ्गशिलोद्घातस्तदाभूत्स महागिरिः |
4012 | 4066042a | निःश्वसद्भिस्तदा तैस्तु भुजगैरर्धनिःसृतैः |
4013 | 4066042c | सपताक इवाभाति स तदा धरणीधरः |
4014 | 4066043a | ऋषिभिस्त्रास संभ्रान्तैस्त्यज्यमानः शिलोच्चयः |
4015 | 4066043c | सीदन्महति कान्तारे सार्थहीन इवाध्वगः |
4016 | 4066044a | स वेगवान्वेगसमाहितात्मा; हरिप्रवीरः परवीरहन्ता |
4017 | 4066044c | मनः समाधाय महानुभावो; जगाम लङ्कां मनसा मनस्वी |
क्रमाङ्क | छन्द | श्लोक | मूल |
---|---|---|---|
1 | 5001001a | ततो रावणनीतायाः सीतायाः शत्रुकर्शनः | मूल |
2 | 5001001c | इयेष पदमन्वेष्टुं चारणाचरिते पथि | मूल |
3 | 5001002a | अथ वैदूर्यवर्णेषु शाद्वलेषु महाबलः | मूल |
4 | 5001002c | धीरः सलिलकल्पेषु विचचार यथासुखम् | मूल |
5 | 5001003a | द्विजान्वित्रासयन्धीमानुरसा पादपान्हरन् | मूल |
6 | 5001003c | मृगांश्च सुबहून्निघ्नन्प्रवृद्ध इव केसरी | मूल |
7 | 5001004a | नीललोहितमाञ्जिष्ठपद्मवर्णैः सितासितैः | मूल |
8 | 5001004c | स्वभावविहितैश्चित्रैर्धातुभिः समलंकृतम् | मूल |
9 | 5001005a | कामरूपिभिराविष्टमभीक्ष्णं सपरिच्छदैः | मूल |
10 | 5001005c | यक्षकिंनरगन्धर्वैर्देवकल्पैश्च पन्नगैः | मूल |
11 | 5001006a | स तस्य गिरिवर्यस्य तले नागवरायुते | मूल |
12 | 5001006c | तिष्ठन्कपिवरस्तत्र ह्रदे नाग इवाबभौ | मूल |
13 | 5001007a | स सूर्याय महेन्द्राय पवनाय स्वयम्भुवे | मूल |
14 | 5001007c | भूतेभ्यश्चाञ्जलिं कृत्वा चकार गमने मतिम् | मूल |
15 | 5001008a | अञ्जलिं प्राङ्मुखः कुर्वन्पवनायात्मयोनये | मूल |
16 | 5001008c | ततो हि ववृधे गन्तुं दक्षिणो दक्षिणां दिशम् | मूल |
17 | 5001009a | प्लवंगप्रवरैर्दृष्टः प्लवने कृतनिश्चयः | मूल |
18 | 5001009c | ववृधे रामवृद्ध्यर्थं समुद्र इव पर्वसु | मूल |
19 | 5001010a | निष्प्रमाण शरीरः सँल्लिलङ्घयिषुरर्णवम् | मूल |
20 | 5001010c | बाहुभ्यां पीडयामास चरणाभ्यां च पर्वतम् | मूल |
21 | 5001011a | स चचालाचलाश्चारु मुहूर्तं कपिपीडितः | मूल |
22 | 5001011c | तरूणां पुष्पिताग्राणां सर्वं पुष्पमशातयत् | मूल |
23 | 5001012a | तेन पादपमुक्तेन पुष्पौघेण सुगन्धिना | मूल |
24 | 5001012c | सर्वतः संवृतः शैलो बभौ पुष्पमयो यथा | मूल |
25 | 5001013a | तेन चोत्तमवीर्येण पीड्यमानः स पर्वतः | मूल |
26 | 5001013c | सलिलं संप्रसुस्राव मदं मत्त इव द्विपः | मूल |
27 | 5001014a | पीड्यमानस्तु बलिना महेन्द्रस्तेन पर्वतः | मूल |
28 | 5001014c | रीतिर्निर्वर्तयामास काञ्चनाञ्जनराजतीः | मूल |
29 | 5001014e | मुमोच च शिलाः शैलो विशालाः समनःशिलाः | मूल |
30 | 5001015a | गिरिणा पीड्यमानेन पीड्यमानानि सर्वशः | मूल |
31 | 5001015c | गुहाविष्टानि भूतानि विनेदुर्विकृतैः स्वरैः | मूल |
32 | 5001016a | स महासत्त्वसंनादः शैलपीडानिमित्तजः | मूल |
33 | 5001016c | पृथिवीं पूरयामास दिशश्चोपवनानि च | मूल |
34 | 5001017a | शिरोभिः पृथुभिः सर्पा व्यक्तस्वस्तिकलक्षणैः | मूल |
35 | 5001017c | वमन्तः पावकं घोरं ददंशुर्दशनैः शिलाः | मूल |
36 | 5001018a | तास्तदा सविषैर्दष्टाः कुपितैस्तैर्महाशिलाः | मूल |
37 | 5001018c | जज्वलुः पावकोद्दीप्ता विभिदुश्च सहस्रधा | मूल |
38 | 5001019a | यानि चौषधजालानि तस्मिञ्जातानि पर्वते | मूल |
39 | 5001019c | विषघ्नान्यपि नागानां न शेकुः शमितुं विषम् | मूल |
40 | 5001020a | भिद्यतेऽयं गिरिर्भूतैरिति मत्वा तपस्विनः | मूल |
41 | 5001020c | त्रस्ता विद्याधरास्तस्मादुत्पेतुः स्त्रीगणैः सह | |
42 | 5001021a | पानभूमिगतं हित्वा हैममासनभाजनम् | |
43 | 5001021c | पात्राणि च महार्हाणि करकांश्च हिरण्मयान् | |
44 | 5001022a | लेह्यानुच्चावचान्भक्ष्यान्मांसानि विविधानि च | |
45 | 5001022c | आर्षभाणि च चर्माणि खड्गांश्च कनकत्सरून् | |
46 | 5001023a | कृतकण्ठगुणाः क्षीबा रक्तमाल्यानुलेपनाः | |
47 | 5001023c | रक्ताक्षाः पुष्कराक्षाश्च गगनं प्रतिपेदिरे | |
48 | 5001024a | हारनूपुरकेयूर पारिहार्य धराः स्त्रियः | |
49 | 5001024c | विस्मिताः सस्मितास्तस्थुराकाशे रमणैः सह | |
50 | 5001025a | दर्शयन्तो महाविद्यां विद्याधरमहर्षयः | |
51 | 5001025c | सहितास्तस्थुराकाशे वीक्षां चक्रुश्च पर्वतम् | |
52 | 5001026a | शुश्रुवुश्च तदा शब्दमृषीणां भावितात्मनाम् | |
53 | 5001026c | चारणानां च सिद्धानां स्थितानां विमलेऽम्बरे | |
54 | 5001027a | एष पर्वतसंकाशो हनूमान्मारुतात्मजः | |
55 | 5001027c | तितीर्षति महावेगं समुद्रं मकरालयम् | |
56 | 5001028a | रामार्थं वानरार्थं च चिकीर्षन्कर्म दुष्करम् | |
57 | 5001028c | समुद्रस्य परं पारं दुष्प्रापं प्राप्तुमिच्छति | |
58 | 5001029a | दुधुवे च स रोमाणि चकम्पे चाचलोपमः | |
59 | 5001029c | ननाद च महानादं सुमहानिव तोयदः | |
60 | 5001030a | आनुपूर्व्याच्च वृत्तं च लाङ्गूलं रोमभिश्चितम् | |
61 | 5001030c | उत्पतिष्यन्विचिक्षेप पक्षिराज इवोरगम् | |
62 | 5001031a | तस्य लाङ्गूलमाविद्धमतिवेगस्य पृष्ठतः | |
63 | 5001031c | ददृशे गरुडेनेव ह्रियमाणो महोरगः | |
64 | 5001032a | बाहू संस्तम्भयामास महापरिघसंनिभौ | |
65 | 5001032c | ससाद च कपिः कट्यां चरणौ संचुकोप च | |
66 | 5001033a | संहृत्य च भुजौ श्रीमांस्तथैव च शिरोधराम् | |
67 | 5001033c | तेजः सत्त्वं तथा वीर्यमाविवेश स वीर्यवान् | |
68 | 5001034a | मार्गमालोकयन्दूरादूर्ध्वप्रणिहितेक्षणः | |
69 | 5001034c | रुरोध हृदये प्राणानाकाशमवलोकयन् | |
70 | 5001035a | पद्भ्यां दृढमवस्थानं कृत्वा स कपिकुञ्जरः | |
71 | 5001035c | निकुञ्च्य कर्णौ हनुमानुत्पतिष्यन्महाबलः | |
72 | 5001035e | वानरान्वानरश्रेष्ठ इदं वचनमब्रवीत् | |
73 | 5001036a | यथा राघवनिर्मुक्तः शरः श्वसनविक्रमः | |
74 | 5001036c | गच्छेत्तद्वद्गमिष्यामि लङ्कां रावणपालिताम् | |
75 | 5001037a | न हि द्रक्ष्यामि यदि तां लङ्कायां जनकात्मजाम् | |
76 | 5001037c | अनेनैव हि वेगेन गमिष्यामि सुरालयम् | |
77 | 5001038a | यदि वा त्रिदिवे सीतां न द्रक्ष्यामि कृतश्रमः | |
78 | 5001038c | बद्ध्वा राक्षसराजानमानयिष्यामि रावणम् | |
79 | 5001039a | सर्वथा कृतकार्योऽहमेष्यामि सह सीतया | |
80 | 5001039c | आनयिष्यामि वा लङ्कां समुत्पाट्य सरावणाम् | |
81 | 5001040a | एवमुक्त्वा तु हनुमान्वानरान्वानरोत्तमः | |
82 | 5001040c | उत्पपाताथ वेगेन वेगवानविचारयन् | |
83 | 5001041a | समुत्पतति तस्मिंस्तु वेगात्ते नगरोहिणः | |
84 | 5001041c | संहृत्य विटपान्सर्वान्समुत्पेतुः समन्ततः | |
85 | 5001042a | स मत्तकोयष्टिभकान्पादपान्पुष्पशालिनः | |
86 | 5001042c | उद्वहन्नूरुवेगेन जगाम विमलेऽम्बरे | |
87 | 5001043a | ऊरुवेगोद्धता वृक्षा मुहूर्तं कपिमन्वयुः | |
88 | 5001043c | प्रस्थितं दीर्घमध्वानं स्वबन्धुमिव बान्धवाः | |
89 | 5001044a | तमूरुवेगोन्मथिताः सालाश्चान्ये नगोत्तमाः | |
90 | 5001044c | अनुजग्मुर्हनूमन्तं सैन्या इव महीपतिम् | |
91 | 5001045a | सुपुष्पिताग्रैर्बहुभिः पादपैरन्वितः कपिः | |
92 | 5001045c | हनुमान्पर्वताकारो बभूवाद्भुतदर्शनः | |
93 | 5001046a | सारवन्तोऽथ ये वृक्षा न्यमज्जँल्लवणाम्भसि | |
94 | 5001046c | भयादिव महेन्द्रस्य पर्वता वरुणालये | |
95 | 5001047a | स नानाकुसुमैः कीर्णः कपिः साङ्कुरकोरकैः | |
96 | 5001047c | शुशुभे मेघसंकाशः खद्योतैरिव पर्वतः | |
97 | 5001048a | विमुक्तास्तस्य वेगेन मुक्त्वा पुष्पाणि ते द्रुमाः | |
98 | 5001048c | अवशीर्यन्त सलिले निवृत्ताः सुहृदो यथा | |
99 | 5001049a | लघुत्वेनोपपन्नं तद्विचित्रं सागरेऽपतत् | |
100 | 5001049c | द्रुमाणां विविधं पुष्पं कपिवायुसमीरितम् | |
101 | 5001050a | पुष्पौघेणानुबद्धेन नानावर्णेन वानरः | |
102 | 5001050c | बभौ मेघ इवोद्यन्वै विद्युद्गणविभूषितः | |
103 | 5001051a | तस्य वेगसमुद्भूतैः पुष्पैस्तोयमदृश्यत | |
104 | 5001051c | ताराभिरभिरामाभिरुदिताभिरिवाम्बरम् | |
105 | 5001052a | तस्याम्बरगतौ बाहू ददृशाते प्रसारितौ | |
106 | 5001052c | पर्वताग्राद्विनिष्क्रान्तौ पञ्चास्याविव पन्नगौ | |
107 | 5001053a | पिबन्निव बभौ चापि सोर्मिजालं महार्णवम् | |
108 | 5001053c | पिपासुरिव चाकाशं ददृशे स महाकपिः | |
109 | 5001054a | तस्य विद्युत्प्रभाकारे वायुमार्गानुसारिणः | |
110 | 5001054c | नयने विप्रकाशेते पर्वतस्थाविवानलौ | |
111 | 5001055a | पिङ्गे पिङ्गाक्षमुख्यस्य बृहती परिमण्डले | |
112 | 5001055c | चक्षुषी संप्रकशेते चन्द्रसूर्याविव स्थितौ | |
113 | 5001056a | मुखं नासिकया तस्य ताम्रया ताम्रमाबभौ | |
114 | 5001056c | संध्यया समभिस्पृष्टं यथा सूर्यस्य मण्डलम् | |
115 | 5001057a | लाङ्गलं च समाविद्धं प्लवमानस्य शोभते | |
116 | 5001057c | अम्बरे वायुपुत्रस्य शक्रध्वज इवोच्छ्रितः | |
117 | 5001058a | लाङ्गूलचक्रेण महाञ्शुक्लदंष्ट्रोऽनिलात्मजः | |
118 | 5001058c | व्यरोचत महाप्राज्ञः परिवेषीव भास्करः | |
119 | 5001059a | स्फिग्देशेनाभिताम्रेण रराज स महाकपिः | |
120 | 5001059c | महता दारितेनेव गिरिर्गैरिकधातुना | |
121 | 5001060a | तस्य वानरसिंहस्य प्लवमानस्य सागरम् | |
122 | 5001060c | कक्षान्तरगतो वायुर्जीमूत इव गर्जति | |
123 | 5001061a | खे यथा निपतत्युल्का उत्तरान्ताद्विनिःसृता | |
124 | 5001061c | दृश्यते सानुबन्धा च तथा स कपिकुञ्जरः | |
125 | 5001062a | पतत्पतंगसंकाशो व्यायतः शुशुभे कपिः | |
126 | 5001062c | प्रवृद्ध इव मातंगः कक्ष्यया बध्यमानया | |
127 | 5001063a | उपरिष्टाच्छरीरेण छायया चावगाढया | |
128 | 5001063c | सागरे मारुताविष्टा नौरिवासीत्तदा कपिः | |
129 | 5001064a | यं यं देशं समुद्रस्य जगाम स महाकपिः | |
130 | 5001064c | स स तस्याङ्गवेगेन सोन्माद इव लक्ष्यते | |
131 | 5001065a | सागरस्योर्मिजालानामुरसा शैलवर्ष्मणाम् | |
132 | 5001065c | अभिघ्नंस्तु महावेगः पुप्लुवे स महाकपिः | |
133 | 5001066a | कपिवातश्च बलवान्मेघवातश्च निःसृतः | |
134 | 5001066c | सागरं भीमनिर्घोषं कम्पयामासतुर्भृशम् | |
135 | 5001067a | विकर्षन्नूर्मिजालानि बृहन्ति लवणाम्भसि | |
136 | 5001067c | अत्यक्रामन्महावेगस्तरङ्गान्गणयन्निव | |
137 | 5001068a | प्लवमानं समीक्ष्याथ भुजङ्गाः सागरालयाः | |
138 | 5001068c | व्योम्नि तं कपिशार्दूलं सुपर्णमिति मेनिरे | |
139 | 5001069a | दशयोजनविस्तीर्णा त्रिंशद्योजनमायता | |
140 | 5001069c | छाया वानरसिंहस्य जले चारुतराभवत् | |
141 | 5001070a | श्वेताभ्रघनराजीव वायुपुत्रानुगामिनी | |
142 | 5001070c | तस्य सा शुशुभे छाया वितता लवणाम्भसि | |
143 | 5001071a | प्लवमानं तु तं दृष्ट्वा प्लवगं त्वरितं तदा | |
144 | 5001071c | ववृषुः पुष्पवर्षाणि देवगन्धर्वदानवाः | |
145 | 5001072a | तताप न हि तं सूर्यः प्लवन्तं वानरेश्वरम् | |
146 | 5001072c | सिषेवे च तदा वायू रामकार्यार्थसिद्धये | |
147 | 5001073a | ऋषयस्तुष्टुवुश्चैनं प्लवमानं विहायसा | |
148 | 5001073c | जगुश्च देवगन्धर्वाः प्रशंसन्तो महौजसं | |
149 | 5001074a | नागाश्च तुष्टुवुर्यक्षा रक्षांसि विबुधाः खगाः | |
150 | 5001074c | प्रेक्ष्याकाशे कपिवरं सहसा विगतक्लमम् | |
151 | 5001075a | तस्मिन्प्लवगशार्दूले प्लवमाने हनूमति | |
152 | 5001075c | इक्ष्वाकुकुलमानार्थी चिन्तयामास सागरः | |
153 | 5001076a | साहाय्यं वानरेन्द्रस्य यदि नाहं हनूमतः | |
154 | 5001076c | करिष्यामि भविष्यामि सर्ववाच्यो विवक्षताम् | |
155 | 5001077a | अहमिक्ष्वाकुनाथेन सगरेण विवर्धितः | |
156 | 5001077c | इक्ष्वाकुसचिवश्चायं नावसीदितुमर्हति | |
157 | 5001078a | तथा मया विधातव्यं विश्रमेत यथा कपिः | |
158 | 5001078c | शेषं च मयि विश्रान्तः सुखेनातिपतिष्यति | |
159 | 5001079a | इति कृत्वा मतिं साध्वीं समुद्रश्छन्नमम्भसि | |
160 | 5001079c | हिरण्यनाभं मैनाकमुवाच गिरिसत्तमम् | |
161 | 5001080a | त्वमिहासुरसंघानां पातालतलवासिनाम् | |
162 | 5001080c | देवराज्ञा गिरिश्रेष्ठ परिघः संनिवेशितः | |
163 | 5001081a | त्वमेषां ज्ञातवीर्याणां पुनरेवोत्पतिष्यताम् | |
164 | 5001081c | पातालस्याप्रमेयस्य द्वारमावृत्य तिष्ठसि | |
165 | 5001082a | तिर्यगूर्ध्वमधश्चैव शक्तिस्ते शैलवर्धितुम् | |
166 | 5001082c | तस्मात्संचोदयामि त्वामुत्तिष्ठ नगसत्तम | |
167 | 5001083a | स एष कपिशार्दूलस्त्वामुपर्येति वीर्यवान् | |
168 | 5001083c | हनूमान्रामकार्यार्थं भीमकर्मा खमाप्लुतः | |
169 | 5001084a | तस्य साह्यं मया कार्यमिक्ष्वाकुकुलवर्तिनः | |
170 | 5001084c | मम इक्ष्वाकवः पूज्याः परं पूज्यतमास्तव | |
171 | 5001085a | कुरु साचिव्यमस्माकं न नः कार्यमतिक्रमेत् | |
172 | 5001085c | कर्तव्यमकृतं कार्यं सतां मन्युमुदीरयेत् | |
173 | 5001086a | सलिलादूर्ध्वमुत्तिष्ठ तिष्ठत्वेष कपिस्त्वयि | |
174 | 5001086c | अस्माकमतिथिश्चैव पूज्यश्च प्लवतां वरः | |
175 | 5001087a | चामीकरमहानाभ देवगन्धर्वसेवित | |
176 | 5001087c | हनूमांस्त्वयि विश्रान्तस्ततः शेषं गमिष्यति | |
177 | 5001088a | काकुत्स्थस्यानृशंस्यं च मैथिल्याश्च विवासनम् | |
178 | 5001088c | श्रमं च प्लवगेन्द्रस्य समीक्ष्योत्थातुमर्हसि | |
179 | 5001089a | हिरण्यनाभो मैनाको निशम्य लवणाम्भसः | |
180 | 5001089c | उत्पपात जलात्तूर्णं महाद्रुमलतायुतः | |
181 | 5001090a | स सागरजलं भित्त्वा बभूवात्युत्थितस्तदा | |
182 | 5001090c | यथा जलधरं भित्त्वा दीप्तरश्मिर्दिवाकरः | |
183 | 5001091a | शातकुम्भमयैः शृङ्गैः सकिंनरमहोरगैः | |
184 | 5001091c | आदित्योदयसंकाशैरालिखद्भिरिवाम्बरम् | |
185 | 5001092a | तस्य जाम्बूनदैः शृङ्गैः पर्वतस्य समुत्थितैः | |
186 | 5001092c | आकाशं शस्त्रसंकाशमभवत्काञ्चनप्रभम् | |
187 | 5001093a | जातरूपमयैः शृङ्गैर्भ्राजमानैः स्वयं प्रभैः | |
188 | 5001093c | आदित्यशतसंकाशः सोऽभवद्गिरिसत्तमः | |
189 | 5001094a | तमुत्थितमसंगेन हनूमानग्रतः स्थितम् | |
190 | 5001094c | मध्ये लवणतोयस्य विघ्नोऽयमिति निश्चितः | |
191 | 5001095a | स तमुच्छ्रितमत्यर्थं महावेगो महाकपिः | |
192 | 5001095c | उरसा पातयामास जीमूतमिव मारुतः | |
193 | 5001096a | स तदा पातितस्तेन कपिना पर्वतोत्तमः | |
194 | 5001096c | बुद्ध्वा तस्य कपेर्वेगं जहर्ष च ननन्द च | |
195 | 5001097a | तमाकाशगतं वीरमाकाशे समवस्थितम् | |
196 | 5001097c | प्रीतो हृष्टमना वाक्यमब्रवीत्पर्वतः कपिम् | |
197 | 5001097e | मानुषं धरयन्रूपमात्मनः शिखरे स्थितः | |
198 | 5001098a | दुष्करं कृतवान्कर्म त्वमिदं वानरोत्तम | |
199 | 5001098c | निपत्य मम शृङ्गेषु विश्रमस्व यथासुखम् | |
200 | 5001099a | राघावस्य कुले जातैरुदधिः परिवर्धितः | |
201 | 5001099c | स त्वां रामहिते युक्तं प्रत्यर्चयति सागरः | |
202 | 5001100a | कृते च प्रतिकर्तव्यमेष धर्मः सनातनः | |
203 | 5001100c | सोऽयं तत्प्रतिकारार्थी त्वत्तः संमानमर्हति | |
204 | 5001101a | त्वन्निमित्तमनेनाहं बहुमानात्प्रचोदितः | |
205 | 5001101c | योजनानां शतं चापि कपिरेष समाप्लुतः | |
206 | 5001101e | तव सानुषु विश्रान्तः शेषं प्रक्रमतामिति | |
207 | 5001102a | तिष्ठ त्वं हरिशार्दूल मयि विश्रम्य गम्यताम् | |
208 | 5001102c | तदिदं गन्धवत्स्वादु कन्दमूलफलं बहु | |
209 | 5001102e | तदास्वाद्य हरिश्रेष्ठ विश्रान्तोऽनुगमिष्यसि | |
210 | 5001103a | अस्माकमपि संबन्धः कपिमुख्यस्त्वयास्ति वै | |
211 | 5001103c | प्रख्यातस्त्रिषु लोकेषु महागुणपरिग्रहः | |
212 | 5001104a | वेगवन्तः प्लवन्तो ये प्लवगा मारुतात्मज | |
213 | 5001104c | तेषां मुख्यतमं मन्ये त्वामहं कपिकुञ्जर | |
214 | 5001105a | अतिथिः किल पूजार्हः प्राकृतोऽपि विजानता | |
215 | 5001105c | धर्मं जिज्ञासमानेन किं पुनर्यादृशो भवान् | |
216 | 5001106a | त्वं हि देववरिष्ठस्य मारुतस्य महात्मनः | |
217 | 5001106c | पुत्रस्तस्यैव वेगेन सदृशः कपिकुञ्जर | |
218 | 5001107a | पूजिते त्वयि धर्मज्ञ पूजां प्राप्नोति मारुतः | |
219 | 5001107c | तस्मात्त्वं पूजनीयो मे शृणु चाप्यत्र कारणम् | |
220 | 5001108a | पूर्वं कृतयुगे तात पर्वताः पक्षिणोऽभवन् | |
221 | 5001108c | तेऽपि जग्मुर्दिशः सर्वा गरुडानिलवेगिनः | |
222 | 5001109a | ततस्तेषु प्रयातेषु देवसंघाः सहर्षिभिः | |
223 | 5001109c | भूतानि च भयं जग्मुस्तेषां पतनशङ्कया | |
224 | 5001110a | ततः क्रुद्धः सहस्राक्षः पर्वतानां शतक्रतुः | |
225 | 5001110c | पक्षांश्चिच्छेद वज्रेण तत्र तत्र सहस्रशः | |
226 | 5001111a | स मामुपगतः क्रुद्धो वज्रमुद्यम्य देवराट् | |
227 | 5001111c | ततोऽहं सहसा क्षिप्तः श्वसनेन महात्मना | |
228 | 5001112a | अस्मिँल्लवणतोये च प्रक्षिप्तः प्लवगोत्तम | |
229 | 5001112c | गुप्तपक्षः समग्रश्च तव पित्राभिरक्षितः | |
230 | 5001113a | ततोऽहं मानयामि त्वां मान्यो हि मम मारुतः | |
231 | 5001113c | त्वया मे ह्येष संबन्धः कपिमुख्य महागुणः | |
232 | 5001114a | अस्मिन्नेवंगते कार्ये सागरस्य ममैव च | |
233 | 5001114c | प्रीतिं प्रीतमना कर्तुं त्वमर्हसि महाकपे | |
234 | 5001115a | श्रमं मोक्षय पूजां च गृहाण कपिसत्तम | |
235 | 5001115c | प्रीतिं च बहुमन्यस्व प्रीतोऽस्मि तव दर्शनात् | |
236 | 5001116a | एवमुक्तः कपिश्रेष्ठस्तं नगोत्तममब्रवीत् | |
237 | 5001116c | प्रीतोऽस्मि कृतमातिथ्यं मन्युरेषोऽपनीयताम् | |
238 | 5001117a | त्वरते कार्यकालो मे अहश्चाप्यतिवर्तते | |
239 | 5001117c | प्रतिज्ञा च मया दत्ता न स्थातव्यमिहान्तरा | |
240 | 5001118a | इत्युक्त्वा पाणिना शैलमालभ्य हरिपुंगवः | |
241 | 5001118c | जगामाकाशमाविश्य वीर्यवान्प्रहसन्निव | |
242 | 5001119a | स पर्वतसमुद्राभ्यां बहुमानादवेक्षितः | |
243 | 5001119c | पूजितश्चोपपन्नाभिराशीर्भिरनिलात्मजः | |
244 | 5001120a | अथोर्ध्वं दूरमुत्पत्य हित्वा शैलमहार्णवौ | |
245 | 5001120c | पितुः पन्थानमास्थाय जगाम विमलेऽम्बरे | |
246 | 5001121a | भूयश्चोर्ध्वगतिं प्राप्य गिरिं तमवलोकयन् | |
247 | 5001121c | वायुसूनुर्निरालम्बे जगाम विमलेऽम्बरे | |
248 | 5001122a | तद्द्वितीयं हनुमतो दृष्ट्वा कर्म सुदुष्करम् | |
249 | 5001122c | प्रशशंसुः सुराः सर्वे सिद्धाश्च परमर्षयः | |
250 | 5001123a | देवताश्चाभवन्हृष्टास्तत्रस्थास्तस्य कर्मणा | |
251 | 5001123c | काञ्चनस्य सुनाभस्य सहस्राक्षश्च वासवः | |
252 | 5001124a | उवाच वचनं धीमान्परितोषात्सगद्गदम् | |
253 | 5001124c | सुनाभं पर्वतश्रेष्ठं स्वयमेव शचीपतिः | |
254 | 5001125a | हिरण्यनाभशैलेन्द्रपरितुष्टोऽस्मि ते भृशम् | |
255 | 5001125c | अभयं ते प्रयच्छामि तिष्ठ सौम्य यथासुखम् | |
256 | 5001126a | साह्यं कृतं ते सुमहद्विक्रान्तस्य हनूमतः | |
257 | 5001126c | क्रमतो योजनशतं निर्भयस्य भये सति | |
258 | 5001127a | रामस्यैष हि दौत्येन याति दाशरथेर्हरिः | |
259 | 5001127c | सत्क्रियां कुर्वता शक्या तोषितोऽस्मि दृढं त्वया | |
260 | 5001128a | ततः प्रहर्षमलभद्विपुलं पर्वतोत्तमः | |
261 | 5001128c | देवतानां पतिं दृष्ट्वा परितुष्टं शतक्रतुम् | |
262 | 5001129a | स वै दत्तवरः शैलो बभूवावस्थितस्तदा | |
263 | 5001129c | हनूमांश्च मुहूर्तेन व्यतिचक्राम सागरम् | |
264 | 5001130a | ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः | |
265 | 5001130c | अब्रुवन्सूर्यसंकाशां सुरसां नागमातरम् | |
266 | 5001131a | अयं वातात्मजः श्रीमान्प्लवते सागरोपरि | |
267 | 5001131c | हनूमान्नाम तस्य त्वं मुहूर्तं विघ्नमाचर | |
268 | 5001132a | राक्षसं रूपमास्थाय सुघोरं पर्वतोपमम् | |
269 | 5001132c | दंष्ट्राकरालं पिङ्गाक्षं वक्त्रं कृत्वा नभःस्पृशम् | |
270 | 5001133a | बलमिच्छामहे ज्ञातुं भूयश्चास्य पराक्रमम् | |
271 | 5001133c | त्वां विजेष्यत्युपायेन विषदं वा गमिष्यति | |
272 | 5001134a | एवमुक्ता तु सा देवी दैवतैरभिसत्कृता | |
273 | 5001134c | समुद्रमध्ये सुरसा बिभ्रती राक्षसं वपुः | |
274 | 5001135a | विकृतं च विरूपं च सर्वस्य च भयावहम् | |
275 | 5001135c | प्लवमानं हनूमन्तमावृत्येदमुवाच ह | |
276 | 5001136a | मम भक्षः प्रदिष्टस्त्वमीश्वरैर्वानरर्षभ | |
277 | 5001136c | अहं त्वां भक्षयिष्यामि प्रविशेदं ममाननम् | |
278 | 5001137a | एवमुक्तः सुरसया प्राञ्जलिर्वानरर्षभः | |
279 | 5001137c | प्रहृष्टवदनः श्रीमानिदं वचनमब्रवीत् | |
280 | 5001138a | रामो दाशरथिर्नाम प्रविष्टो दण्डकावनम् | |
281 | 5001138c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा वैदेह्या चापि भार्यया | |
282 | 5001139a | अस्य कार्यविषक्तस्य बद्धवैरस्य राक्षसैः | |
283 | 5001139c | तस्य सीता हृता भार्या रावणेन यशस्विनी | |
284 | 5001140a | तस्याः सकाशं दूतोऽहं गमिष्ये रामशासनात् | |
285 | 5001140c | कर्तुमर्हसि रामस्य साह्यं विषयवासिनि | |
286 | 5001141a | अथ वा मैथिलीं दृष्ट्वा रामं चाक्लिष्टकारिणम् | |
287 | 5001141c | आगमिष्यामि ते वक्त्रं सत्यं प्रतिशृणोमि ते | |
288 | 5001142a | एवमुक्ता हनुमता सुरसा कामरूपिणी | |
289 | 5001142c | अब्रवीन्नातिवर्तेन्मां कश्चिदेष वरो मम | |
290 | 5001143a | एवमुक्तः सुरसया क्रुद्धो वानरपुंगवः | |
291 | 5001143c | अब्रवीत्कुरु वै वक्त्रं येन मां विषहिष्यसे | |
292 | 5001144a | इत्युक्त्वा सुरसां क्रुद्धो दशयोजनमायतः | |
293 | 5001144c | दशयोजनविस्तारो बभूव हनुमांस्तदा | |
294 | 5001145a | तं दृष्ट्वा मेघसंकाशं दशयोजनमायतम् | |
295 | 5001145c | चकार सुरसाप्यास्यं विंशद्योजनमायतम् | |
296 | 5001146a | हनुमांस्तु ततः क्रुद्धस्त्रिंशद्योजनमायतः | |
297 | 5001146c | चकार सुरसा वक्त्रं चत्वारिंशत्तथोच्छ्रितम् | |
298 | 5001147a | बभूव हनुमान्वीरः पञ्चाशद्योजनोच्छ्रितः | |
299 | 5001147c | चकार सुरसा वक्त्रं षष्टियोजनमायतम् | |
300 | 5001148a | तथैव हनुमान्वीरः सप्ततिं योजनोच्छ्रितः | |
301 | 5001148c | चकार सुरसा वक्त्रमशीतिं योजनायतम् | |
302 | 5001149a | हनूमानचल प्रख्यो नवतिं योजनोच्छ्रितः | |
303 | 5001149c | चकार सुरसा वक्त्रं शतयोजनमायतम् | |
304 | 5001150a | तद्दृष्ट्वा व्यादितं त्वास्यं वायुपुत्रः स बुद्धिमान् | |
305 | 5001150c | दीर्घजिह्वं सुरसया सुघोरं नरकोपमम् | |
306 | 5001151a | स संक्षिप्यात्मनः कायं जीमूत इव मारुतिः | |
307 | 5001151c | तस्मिन्मुहूर्ते हनुमान्बभूवाङ्गुष्ठमात्रकः | |
308 | 5001152a | सोऽभिपत्याशु तद्वक्त्रं निष्पत्य च महाजवः | |
309 | 5001152c | अन्तरिक्षे स्थितः श्रीमानिदं वचनमब्रवीत् | |
310 | 5001153a | प्रविष्टोऽस्मि हि ते वक्त्रं दाक्षायणि नमोऽस्तु ते | |
311 | 5001153c | गमिष्ये यत्र वैदेही सत्यं चास्तु वचस्तव | |
312 | 5001154a | तं दृष्ट्वा वदनान्मुक्तं चन्द्रं राहुमुखादिव | |
313 | 5001154c | अब्रवीत्सुरसा देवी स्वेन रूपेण वानरम् | |
314 | 5001155a | अर्थसिद्ध्यै हरिश्रेष्ठ गच्छ सौम्य यथासुखम् | |
315 | 5001155c | समानय च वैदेहीं राघवेण महात्मना | |
316 | 5001156a | तत्तृतीयं हनुमतो दृष्ट्वा कर्म सुदुष्करम् | |
317 | 5001156c | साधु साध्विति भूतानि प्रशशंसुस्तदा हरिम् | |
318 | 5001157a | स सागरमनाधृष्यमभ्येत्य वरुणालयम् | |
319 | 5001157c | जगामाकाशमाविश्य वेगेन गरुणोपमः | |
320 | 5001158a | सेविते वारिधारिभिः पतगैश्च निषेविते | |
321 | 5001158c | चरिते कैशिकाचार्यैरैरावतनिषेविते | |
322 | 5001159a | सिंहकुञ्जरशार्दूलपतगोरगवाहनैः | |
323 | 5001159c | विमानैः संपतद्भिश्च विमलैः समलंकृते | |
324 | 5001160a | वज्राशनिसमाघातैः पावकैरुपशोभिते | |
325 | 5001160c | कृतपुण्यैर्महाभागैः स्वर्गजिद्भिरलंकृते | |
326 | 5001161a | बहता हव्यमत्यन्तं सेविते चित्रभानुना | |
327 | 5001161c | ग्रहनक्षत्रचन्द्रार्कतारागणविभूषिते | |
328 | 5001162a | महर्षिगणगन्धर्वनागयक्षसमाकुले | |
329 | 5001162c | विविक्ते विमले विश्वे विश्वावसुनिषेविते | |
330 | 5001163a | देवराजगजाक्रान्ते चन्द्रसूर्यपथे शिवे | |
331 | 5001163c | विताने जीवलोकस्य विततो ब्रह्मनिर्मिते | |
332 | 5001164a | बहुशः सेविते वीरैर्विद्याधरगणैर्वरैः | |
333 | 5001164c | कपिना कृष्यमाणानि महाभ्राणि चकाशिरे | |
334 | 5001165a | प्रविशन्नभ्रजालानि निष्पतंश्च पुनः पुनः | |
335 | 5001165c | प्रावृषीन्दुरिवाभाति निष्पतन्प्रविशंस्तदा | |
336 | 5001166a | प्लवमानं तु तं दृष्ट्वा सिंहिका नाम राक्षसी | |
337 | 5001166c | मनसा चिन्तयामास प्रवृद्धा कामरूपिणी | |
338 | 5001167a | अद्य दीर्घस्य कालस्य भविष्याम्यहमाशिता | |
339 | 5001167c | इदं हि मे महत्सत्त्वं चिरस्य वशमागतम् | |
340 | 5001168a | इति संचिन्त्य मनसा छायामस्य समक्षिपत् | |
341 | 5001168c | छायायां संगृहीतायां चिन्तयामास वानरः | |
342 | 5001169a | समाक्षिप्तोऽस्मि सहसा पङ्गूकृतपराक्रमः | |
343 | 5001169c | प्रतिलोमेन वातेन महानौरिव सागरे | |
344 | 5001170a | तिर्यगूर्ध्वमधश्चैव वीक्षमाणस्ततः कपिः | |
345 | 5001170c | ददर्श स महासत्त्वमुत्थितं लवणाम्भसि | |
346 | 5001171a | कपिराज्ञा यदाख्यातं सत्त्वमद्भुतदर्शनम् | |
347 | 5001171c | छायाग्राहि महावीर्यं तदिदं नात्र संशयः | |
348 | 5001172a | स तां बुद्ध्वार्थतत्त्वेन सिंहिकां मतिमान्कपिः | |
349 | 5001172c | व्यवर्धत महाकायः प्रावृषीव बलाहकः | |
350 | 5001173a | तस्य सा कायमुद्वीक्ष्य वर्धमानं महाकपेः | |
351 | 5001173c | वक्त्रं प्रसारयामास पातालाम्बरसंनिभम् | |
352 | 5001174a | स ददर्श ततस्तस्या विकृतं सुमहन्मुखम् | |
353 | 5001174c | कायमात्रं च मेधावी मर्माणि च महाकपिः | |
354 | 5001175a | स तस्या विवृते वक्त्रे वज्रसंहननः कपिः | |
355 | 5001175c | संक्षिप्य मुहुरात्मानं निष्पपात महाबलः | |
356 | 5001176a | आस्ये तस्या निमज्जन्तं ददृशुः सिद्धचारणाः | |
357 | 5001176c | ग्रस्यमानं यथा चन्द्रं पूर्णं पर्वणि राहुणा | |
358 | 5001177a | ततस्तस्य नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः | |
359 | 5001177c | उत्पपाताथ वेगेन मनःसंपातविक्रमः | |
360 | 5001178a | तां हतां वानरेणाशु पतितां वीक्ष्य सिंहिकाम् | |
361 | 5001178c | भूतान्याकाशचारीणि तमूचुः प्लवगर्षभम् | |
362 | 5001179a | भीममद्य कृतं कर्म महत्सत्त्वं त्वया हतम् | |
363 | 5001179c | साधयार्थमभिप्रेतमरिष्टं प्लवतां वर | |
364 | 5001180a | यस्य त्वेतानि चत्वारि वानरेन्द्र यथा तव | |
365 | 5001180c | धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं स कर्मसु न सीदति | |
366 | 5001181a | स तैः संभावितः पूज्यः प्रतिपन्नप्रयोजनः | |
367 | 5001181c | जगामाकाशमाविश्य पन्नगाशनवत्कपिः | |
368 | 5001182a | प्राप्तभूयिष्ठ पारस्तु सर्वतः प्रतिलोकयन् | |
369 | 5001182c | योजनानां शतस्यान्ते वनराजिं ददर्श सः | |
370 | 5001183a | ददर्श च पतन्नेव विविधद्रुमभूषितम् | |
371 | 5001183c | द्वीपं शाखामृगश्रेष्ठो मलयोपवनानि च | |
372 | 5001184a | सागरं सागरानूपान्सागरानूपजान्द्रुमान् | |
373 | 5001184c | सागरस्य च पत्नीनां मुखान्यपि विलोकयन् | |
374 | 5001185a | स महामेघसंकाशं समीक्ष्यात्मानमात्मना | |
375 | 5001185c | निरुन्धन्तमिवाकाशं चकार मतिमान्मतिम् | |
376 | 5001186a | कायवृद्धिं प्रवेगं च मम दृष्ट्वैव राक्षसाः | |
377 | 5001186c | मयि कौतूहलं कुर्युरिति मेने महाकपिः | |
378 | 5001187a | ततः शरीरं संक्षिप्य तन्महीधरसंनिभम् | |
379 | 5001187c | पुनः प्रकृतिमापेदे वीतमोह इवात्मवान् | |
380 | 5001188a | स चारुनानाविधरूपधारी; परं समासाद्य समुद्रतीरम् | |
381 | 5001188c | परैरशक्यप्रतिपन्नरूपः; समीक्षितात्मा समवेक्षितार्थः | |
382 | 5001189a | ततः स लम्बस्य गिरेः समृद्धे; विचित्रकूटे निपपात कूटे | |
383 | 5001189c | सकेतकोद्दालकनालिकेरे; महाद्रिकूटप्रतिमो महात्मा | |
384 | 5001190a | स सागरं दानवपन्नगायुतं; बलेन विक्रम्य महोर्मिमालिनम् | |
385 | 5001190c | निपत्य तीरे च महोदधेस्तदा; ददर्श लङ्काममरावतीमिव | |
386 | 5002001a | स सागरमनाधृष्यमतिक्रम्य महाबलः | |
387 | 5002001c | त्रिकूटशिखरे लङ्कां स्थितां स्वस्थो ददर्श ह | |
388 | 5002002a | ततः पादपमुक्तेन पुष्पवर्षेण वीर्यवान् | |
389 | 5002002c | अभिवृष्टः स्थितस्तत्र बभौ पुष्पमयो यथा | |
390 | 5002003a | योजनानां शतं श्रीमांस्तीर्त्वाप्युत्तमविक्रमः | |
391 | 5002003c | अनिश्वसन्कपिस्तत्र न ग्लानिमधिगच्छति | |
392 | 5002004a | शतान्यहं योजनानां क्रमेयं सुबहून्यपि | |
393 | 5002004c | किं पुनः सागरस्यान्तं संख्यातं शतयोजनम् | |
394 | 5002005a | स तु वीर्यवतां श्रेष्ठः प्लवतामपि चोत्तमः | |
395 | 5002005c | जगाम वेगवाँल्लङ्कां लङ्घयित्वा महोदधिम् | |
396 | 5002006a | शाद्वलानि च नीलानि गन्धवन्ति वनानि च | |
397 | 5002006c | गण्डवन्ति च मध्येन जगाम नगवन्ति च | |
398 | 5002007a | शैलांश्च तरुसंछन्नान्वनराजीश्च पुष्पिताः | |
399 | 5002007c | अभिचक्राम तेजस्वी हनुमान्प्लवगर्षभः | |
400 | 5002008a | स तस्मिन्नचले तिष्ठन्वनान्युपवनानि च | |
401 | 5002008c | स नगाग्रे च तां लङ्कां ददर्श पवनात्मजः | |
402 | 5002009a | सरलान्कर्णिकारांश्च खर्जूरांश्च सुपुष्पितान् | |
403 | 5002009c | प्रियालान्मुचुलिन्दांश्च कुटजान्केतकानपि | |
404 | 5002010a | प्रियङ्गून्गन्धपूर्णांश्च नीपान्सप्तच्छदांस्तथा | |
405 | 5002010c | असनान्कोविदारांश्च करवीरांश्च पुष्पितान् | |
406 | 5002011a | पुष्पभारनिबद्धांश्च तथा मुकुलितानपि | |
407 | 5002011c | पादपान्विहगाकीर्णान्पवनाधूतमस्तकान् | |
408 | 5002012a | हंसकारण्डवाकीर्णा वापीः पद्मोत्पलायुताः | |
409 | 5002012c | आक्रीडान्विविधान्रम्यान्विविधांश्च जलाशयान् | |
410 | 5002013a | संततान्विविधैर्वृक्षैः सर्वर्तुफलपुष्पितैः | |
411 | 5002013c | उद्यानानि च रम्याणि ददर्श कपिकुञ्जरः | |
412 | 5002014a | समासाद्य च लक्ष्मीवाँल्लङ्कां रावणपालिताम् | |
413 | 5002014c | परिखाभिः सपद्माभिः सोत्पलाभिरलंकृताम् | |
414 | 5002015a | सीतापहरणार्थेन रावणेन सुरक्षिताम् | |
415 | 5002015c | समन्ताद्विचरद्भिश्च राक्षसैरुग्रधन्विभिः | |
416 | 5002016a | काञ्चनेनावृतां रम्यां प्राकारेण महापुरीम् | |
417 | 5002016c | अट्टालकशताकीर्णां पताकाध्वजमालिनीम् | |
418 | 5002017a | तोरणैः काञ्चनैर्दिव्यैर्लतापङ्क्तिविचित्रितैः | |
419 | 5002017c | ददर्श हनुमाँल्लङ्कां दिवि देवपुरीमिव | |
420 | 5002018a | गिरिमूर्ध्नि स्थितां लङ्कां पाण्डुरैर्भवनैः शुभैः | |
421 | 5002018c | ददर्श स कपिः श्रीमान्पुरमाकाशगं यथा | |
422 | 5002019a | पालितां राक्षसेन्द्रेण निर्मितां विश्वकर्मणा | |
423 | 5002019c | प्लवमानामिवाकाशे ददर्श हनुमान्पुरीम् | |
424 | 5002020a | संपूर्णां राक्षसैर्घोरैर्नागैर्भोगवतीमिव | |
425 | 5002020c | अचिन्त्यां सुकृतां स्पष्टां कुबेराध्युषितां पुरा | |
426 | 5002021a | दंष्ट्रिभिर्बहुभिः शूरैः शूलपट्टिशपाणिभिः | |
427 | 5002021c | रक्षितां राक्षसैर्घोरैर्गुहामाशीविषैरपि | |
428 | 5002022a | वप्रप्राकारजघनां विपुलाम्बुनवाम्बराम् | |
429 | 5002022c | शतघ्नीशूलकेशान्तामट्टालकवतंसकाम् | |
430 | 5002023a | द्वारमुत्तरमासाद्य चिन्तयामास वानरः | |
431 | 5002023c | कैलासशिखरप्रख्यमालिखन्तमिवाम्बरम् | |
432 | 5002023e | ध्रियमाणमिवाकाशमुच्छ्रितैर्भवनोत्तमैः | |
433 | 5002024a | तस्याश्च महतीं गुप्तिं सागरं च निरीक्ष्य सः | |
434 | 5002024c | रावणं च रिपुं घोरं चिन्तयामास वानरः | |
435 | 5002025a | आगत्यापीह हरयो भविष्यन्ति निरर्थकाः | |
436 | 5002025c | न हि युद्धेन वै लङ्का शक्या जेतुं सुरैरपि | |
437 | 5002026a | इमां तु विषमां दुर्गां लङ्कां रावणपालिताम् | |
438 | 5002026c | प्राप्यापि स महाबाहुः किं करिष्यति राघवः | |
439 | 5002027a | अवकाशो न सान्त्वस्य राक्षसेष्वभिगम्यते | |
440 | 5002027c | न दानस्य न भेदस्य नैव युद्धस्य दृश्यते | |
441 | 5002028a | चतुर्णामेव हि गतिर्वानराणां महात्मनाम् | |
442 | 5002028c | वालिपुत्रस्य नीलस्य मम राज्ञश्च धीमतः | |
443 | 5002029a | यावज्जानामि वैदेहीं यदि जीवति वा न वा | |
444 | 5002029c | तत्रैव चिन्तयिष्यामि दृष्ट्वा तां जनकात्मजाम् | |
445 | 5002030a | ततः स चिन्तयामास मुहूर्तं कपिकुञ्जरः | |
446 | 5002030c | गिरिशृङ्गे स्थितस्तस्मिन्रामस्याभ्युदये रतः | |
447 | 5002031a | अनेन रूपेण मया न शक्या रक्षसां पुरी | |
448 | 5002031c | प्रवेष्टुं राक्षसैर्गुप्ता क्रूरैर्बलसमन्वितैः | |
449 | 5002032a | उग्रौजसो महावीर्यो बलवन्तश्च राक्षसाः | |
450 | 5002032c | वञ्चनीया मया सर्वे जानकीं परिमार्गिता | |
451 | 5002033a | लक्ष्यालक्ष्येण रूपेण रात्रौ लङ्का पुरी मया | |
452 | 5002033c | प्रवेष्टुं प्राप्तकालं मे कृत्यं साधयितुं महत् | |
453 | 5002034a | तां पुरीं तादृशीं दृष्ट्वा दुराधर्षां सुरासुरैः | |
454 | 5002034c | हनूमांश्चिन्तयामास विनिःश्वस्य मुहुर्मुहुः | |
455 | 5002035a | केनोपायेन पश्येयं मैथिलीं जनकात्मजाम् | |
456 | 5002035c | अदृष्टो राक्षसेन्द्रेण रावणेन दुरात्मना | |
457 | 5002036a | न विनश्येत्कथं कार्यं रामस्य विदितात्मनः | |
458 | 5002036c | एकामेकश्च पश्येयं रहिते जनकात्मजाम् | |
459 | 5002037a | भूताश्चार्थो विपद्यन्ते देशकालविरोधिताः | |
460 | 5002037c | विक्लवं दूतमासाद्य तमः सूर्योदये यथा | |
461 | 5002038a | अर्थानर्थान्तरे बुद्धिर्निश्चितापि न शोभते | |
462 | 5002038c | घातयन्ति हि कार्याणि दूताः पण्डितमानिनः | |
463 | 5002039a | न विनश्येत्कथं कार्यं वैक्लव्यं न कथं भवेत् | |
464 | 5002039c | लङ्घनं च समुद्रस्य कथं नु न वृथा भवेत् | |
465 | 5002040a | मयि दृष्टे तु रक्षोभी रामस्य विदितात्मनः | |
466 | 5002040c | भवेद्व्यर्थमिदं कार्यं रावणानर्थमिच्छतः | |
467 | 5002041a | न हि शक्यं क्वचित्स्थातुमविज्ञातेन राक्षसैः | |
468 | 5002041c | अपि राक्षसरूपेण किमुतान्येन केनचित् | |
469 | 5002042a | वायुरप्यत्र नाज्ञातश्चरेदिति मतिर्मम | |
470 | 5002042c | न ह्यस्त्यविदितं किंचिद्राक्षसानां बलीयसाम् | |
471 | 5002043a | इहाहं यदि तिष्ठामि स्वेन रूपेण संवृतः | |
472 | 5002043c | विनाशमुपयास्यामि भर्तुरर्थश्च हीयते | |
473 | 5002044a | तदहं स्वेन रूपेण रजन्यां ह्रस्वतां गतः | |
474 | 5002044c | लङ्कामभिपतिष्यामि राघवस्यार्थसिद्धये | |
475 | 5002045a | रावणस्य पुरीं रात्रौ प्रविश्य सुदुरासदाम् | |
476 | 5002045c | विचिन्वन्भवनं सर्वं द्रक्ष्यामि जनकात्मजाम् | |
477 | 5002046a | इति संचिन्त्य हनुमान्सूर्यस्यास्तमयं कपिः | |
478 | 5002046c | आचकाङ्क्षे तदा वीरा वैदेह्या दर्शनोत्सुकः | |
479 | 5002046e | पृषदंशकमात्रः सन्बभूवाद्भुतदर्शनः | |
480 | 5002047a | प्रदोषकाले हनुमांस्तूर्णमुत्पत्य वीर्यवान् | |
481 | 5002047c | प्रविवेश पुरीं रम्यां सुविभक्तमहापथम् | |
482 | 5002048a | प्रासादमालाविततां स्तम्भैः काञ्चनराजतैः | |
483 | 5002048c | शातकुम्भमयैर्जालैर्गन्धर्वनगरोपमाम् | |
484 | 5002049a | सप्तभौमाष्टभौमैश्च स ददर्श महापुरीम् | |
485 | 5002049c | तलैः स्फाटिकसंपूर्णैः कार्तस्वरविभूषितैः | |
486 | 5002050a | वैदूर्यमणिचित्रैश्च मुक्ताजालविभूषितैः | |
487 | 5002050c | तलैः शुशुभिरे तानि भवनान्यत्र रक्षसाम् | |
488 | 5002051a | काञ्चनानि विचित्राणि तोरणानि च रक्षसाम् | |
489 | 5002051c | लङ्कामुद्द्योतयामासुः सर्वतः समलंकृताम् | |
490 | 5002052a | अचिन्त्यामद्भुताकारां दृष्ट्वा लङ्कां महाकपिः | |
491 | 5002052c | आसीद्विषण्णो हृष्टश्च वैदेह्या दर्शनोत्सुकः | |
492 | 5002053a | स पाण्डुरोद्विद्धविमानमालिनीं; महार्हजाम्बूनदजालतोरणाम् | |
493 | 5002053c | यशस्विनां रावणबाहुपालितां; क्षपाचरैर्भीमबलैः समावृताम् | |
494 | 5002054a | चन्द्रोऽपि साचिव्यमिवास्य कुर्वं;स्तारागणैर्मध्यगतो विराजन् | |
495 | 5002054c | ज्योत्स्नावितानेन वितत्य लोक;मुत्तिष्ठते नैकसहस्ररश्मिः | |
496 | 5002055a | शङ्खप्रभं क्षीरमृणालवर्ण;मुद्गच्छमानं व्यवभासमानम् | |
497 | 5002055c | ददर्श चन्द्रं स कपिप्रवीरः; पोप्लूयमानं सरसीव हंसं | |
498 | 5003001a | स लम्बशिखरे लम्बे लम्बतोयदसंनिभे | |
499 | 5003001c | सत्त्वमास्थाय मेधावी हनुमान्मारुतात्मजः | |
500 | 5003002a | निशि लङ्कां महासत्त्वो विवेश कपिकुञ्जरः | |
501 | 5003002c | रम्यकाननतोयाढ्यां पुरीं रावणपालिताम् | |
502 | 5003003a | शारदाम्बुधरप्रख्यैर्भवनैरुपशोभिताम् | |
503 | 5003003c | सागरोपमनिर्घोषां सागरानिलसेविताम् | |
504 | 5003004a | सुपुष्टबलसंगुप्तां यथैव विटपावतीम् | |
505 | 5003004c | चारुतोरणनिर्यूहां पाण्डुरद्वारतोरणाम् | |
506 | 5003005a | भुजगाचरितां गुप्तां शुभां भोगवतीमिव | |
507 | 5003005c | तां सविद्युद्घनाकीर्णां ज्योतिर्मार्गनिषेविताम् | |
508 | 5003006a | चण्डमारुतनिर्ह्रादां यथेन्द्रस्यामरावतीम् | |
509 | 5003006c | शातकुम्भेन महता प्राकारेणाभिसंवृताम् | |
510 | 5003007a | किङ्किणीजालघोषाभिः पताकाभिरलंकृताम् | |
511 | 5003007c | आसाद्य सहसा हृष्टः प्राकारमभिपेदिवान् | |
512 | 5003008a | विस्मयाविष्टहृदयः पुरीमालोक्य सर्वतः | |
513 | 5003008c | जाम्बूनदमयैर्द्वारैर्वैदूर्यकृतवेदिकैः | |
514 | 5003009a | मणिस्फटिक मुक्ताभिर्मणिकुट्टिमभूषितैः | |
515 | 5003009c | तप्तहाटकनिर्यूहै राजतामलपाण्डुरैः | |
516 | 5003010a | वैदूर्यतलसोपानैः स्फाटिकान्तरपांसुभिः | |
517 | 5003010c | चारुसंजवनोपेतैः खमिवोत्पतितैः शुभैः | |
518 | 5003011a | क्रौञ्चबर्हिणसंघुष्टे राजहंसनिषेवितैः | |
519 | 5003011c | तूर्याभरणनिर्घोषैः सर्वतः प्रतिनादिताम् | |
520 | 5003012a | वस्वोकसाराप्रतिमां समीक्ष्य नगरीं ततः | |
521 | 5003012c | खमिवोत्पतितां लङ्कां जहर्ष हनुमान्कपिः | |
522 | 5003013a | तां समीक्ष्य पुरीं लङ्कां राक्षसाधिपतेः शुभाम् | |
523 | 5003013c | अनुत्तमामृद्धियुतां चिन्तयामास वीर्यवान् | |
524 | 5003014a | नेयमन्येन नगरी शक्या धर्षयितुं बलात् | |
525 | 5003014c | रक्षिता रावणबलैरुद्यतायुधधारिभिः | |
526 | 5003015a | कुमुदाङ्गदयोर्वापि सुषेणस्य महाकपेः | |
527 | 5003015c | प्रसिद्धेयं भवेद्भूमिर्मैन्दद्विविदयोरपि | |
528 | 5003016a | विवस्वतस्तनूजस्य हरेश्च कुशपर्वणः | |
529 | 5003016c | ऋक्षस्य केतुमालस्य मम चैव गतिर्भवेत् | |
530 | 5003017a | समीक्ष्य तु महाबाहो राघवस्य पराक्रमम् | |
531 | 5003017c | लक्ष्मणस्य च विक्रान्तमभवत्प्रीतिमान्कपिः | |
532 | 5003018a | तां रत्नवसनोपेतां कोष्ठागारावतंसकाम् | |
533 | 5003018c | यन्त्रागारस्तनीमृद्धां प्रमदामिव भूषिताम् | |
534 | 5003019a | तां नष्टतिमिरां दीपैर्भास्वरैश्च महागृहैः | |
535 | 5003019c | नगरीं राक्षसेन्द्रस्य ददर्श स महाकपिः | |
536 | 5003020a | प्रविष्टः सत्त्वसंपन्नो निशायां मारुतात्मजः | |
537 | 5003020c | स महापथमास्थाय मुक्तापुष्पविराजितम् | |
538 | 5003021a | हसितोद्घुष्टनिनदैस्तूर्यघोष पुरः सरैः | |
539 | 5003021c | वज्राङ्कुशनिकाशैश्च वज्रजालविभूषितैः | |
540 | 5003021e | गृहमेधैः पुरी रम्या बभासे द्यौरिवाम्बुदैः | |
541 | 5003022a | प्रजज्वाल तदा लङ्का रक्षोगणगृहैः शुभैः | |
542 | 5003022c | सिताभ्रसदृशैश्चित्रैः पद्मस्वस्तिकसंस्थितैः | |
543 | 5003022e | वर्धमानगृहैश्चापि सर्वतः सुविभाषितैः | |
544 | 5003023a | तां चित्रमाल्याभरणां कपिराजहितंकरः | |
545 | 5003023c | राघवार्थं चरञ्श्रीमान्ददर्श च ननन्द च | |
546 | 5003024a | शुश्राव मधुरं गीतं त्रिस्थानस्वरभूषितम् | |
547 | 5003024c | स्त्रीणां मदसमृद्धानां दिवि चाप्सरसामिव | |
548 | 5003025a | शुश्राव काञ्चीनिनादं नूपुराणां च निःस्वनम् | |
549 | 5003025c | सोपाननिनदांश्चैव भवनेषु महात्मनम् | |
550 | 5003025e | आस्फोटितनिनादांश्च क्ष्वेडितांश्च ततस्ततः | |
551 | 5003026a | स्वाध्याय निरतांश्चैव यातुधानान्ददर्श सः | |
552 | 5003026c | रावणस्तवसंयुक्तान्गर्जतो राक्षसानपि | |
553 | 5003027a | राजमार्गं समावृत्य स्थितं रक्षोबलं महत् | |
554 | 5003027c | ददर्श मध्यमे गुल्मे राक्षसस्य चरान्बहून् | |
555 | 5003028a | दीक्षिताञ्जटिलान्मुण्डान्गोऽजिनाम्बरवाससः | |
556 | 5003028c | दर्भमुष्टिप्रहरणानग्निकुण्डायुधांस्तथा | |
557 | 5003029a | कूटमुद्गरपाणींश्च दण्डायुधधरानपि | |
558 | 5003029c | एकाक्षानेककर्णांश्च चलल्लम्बपयोधरान् | |
559 | 5003030a | करालान्भुग्नवक्त्रांश्च विकटान्वामनांस्तथा | |
560 | 5003030c | धन्विनः खड्गिनश्चैव शतघ्नी मुसलायुधान् | |
561 | 5003030e | परिघोत्तमहस्तांश्च विचित्रकवचोज्ज्वलान् | |
562 | 5003031a | नातिष्ठूलान्नातिकृशान्नातिदीर्घातिह्रस्वकान् | |
563 | 5003031c | विरूपान्बहुरूपांश्च सुरूपांश्च सुवर्चसः | |
564 | 5003032a | शक्तिवृक्षायुधांश्चैव पट्टिशाशनिधारिणः | |
565 | 5003032c | क्षेपणीपाशहस्तांश्च ददर्श स महाकपिः | |
566 | 5003033a | स्रग्विणस्त्वनुलिप्तांश्च वराभरणभूषितान् | |
567 | 5003033c | तीक्ष्णशूलधरांश्चैव वज्रिणश्च महाबलान् | |
568 | 5003034a | शतसाहस्रमव्यग्रमारक्षं मध्यमं कपिः | |
569 | 5003034c | प्राकारावृतमत्यन्तं ददर्श स महाकपिः | |
570 | 5003035a | त्रिविष्टपनिभं दिव्यं दिव्यनादविनादितम् | |
571 | 5003035c | वाजिहेषितसंघुष्टं नादितं भूषणैस्तथा | |
572 | 5003036a | रथैर्यानैर्विमानैश्च तथा गजहयैः शुभैः | |
573 | 5003036c | वारणैश्च चतुर्दन्तैः श्वेताभ्रनिचयोपमैः | |
574 | 5003037a | भूषितं रुचिरद्वारं मत्तैश्च मृगपक्षिभिः | |
575 | 5003037c | राक्षसाधिपतेर्गुप्तमाविवेश गृहं कपिः | |
576 | 5004001a | ततः स मध्यं गतमंशुमन्तं; ज्योत्स्नावितानं महदुद्वमन्तम् | |
577 | 5004001c | ददर्श धीमान्दिवि भानुमन्तं; गोष्ठे वृषं मत्तमिव भ्रमन्तम् | |
578 | 5004002a | लोकस्य पापानि विनाशयन्तं; महोदधिं चापि समेधयन्तम् | |
579 | 5004002c | भूतानि सर्वाणि विराजयन्तं; ददर्श शीतांशुमथाभियान्तम् | |
580 | 5004003a | या भाति लक्ष्मीर्भुवि मन्दरस्था; तथा प्रदोषेषु च सागरस्था | |
581 | 5004003c | तथैव तोयेषु च पुष्करस्था; रराज सा चारुनिशाकरस्था | |
582 | 5004004a | हंसो यथा राजतपञ्जुरस्थः; सिंहो यथा मन्दरकन्दरस्थः | |
583 | 5004004c | वीरो यथा गर्वितकुञ्जरस्थ;श्चन्द्रोऽपि बभ्राज तथाम्बरस्थः | |
584 | 5004005a | स्थितः ककुद्मानिव तीक्ष्णशृङ्गो; महाचलः श्वेत इवोच्चशृङ्गः | |
585 | 5004005c | हस्तीव जाम्बूनदबद्धशृङ्गो; विभाति चन्द्रः परिपूर्णशृङ्गः | |
586 | 5004006a | प्रकाशचन्द्रोदयनष्टदोषः; प्रवृद्धरक्षः पिशिताशदोषः | |
587 | 5004006c | रामाभिरामेरितचित्तदोषः; स्वर्गप्रकाशो भगवान्प्रदोषः | |
588 | 5004007a | तन्त्री स्वनाः कर्णसुखाः प्रवृत्ताः; स्वपन्ति नार्यः पतिभिः सुवृत्ताः | |
589 | 5004007c | नक्तंचराश्चापि तथा प्रवृत्ता; विहर्तुमत्यद्भुतरौद्रवृत्ताः | |
590 | 5004008a | मत्तप्रमत्तानि समाकुलानि; रथाश्वभद्रासनसंकुलानि | |
591 | 5004008c | वीरश्रिया चापि समाकुलानि; ददर्श धीमान्स कपिः कुलानि | |
592 | 5004009a | परस्परं चाधिकमाक्षिपन्ति; भुजांश्च पीनानधिविक्षिपन्ति | |
593 | 5004009c | मत्तप्रलापानधिविक्षिपन्ति; मत्तानि चान्योन्यमधिक्षिपन्ति | |
594 | 5004010a | रक्षांसि वक्षांसि च विक्षिपन्ति; गात्राणि कान्तासु च विक्षिपन्ति | |
595 | 5004010c | ददर्श कान्ताश्च समालपन्ति; तथापरास्तत्र पुनः स्वपन्ति | |
596 | 5004011a | महागजैश्चापि तथा नदद्भिः; सूपूजितैश्चापि तथा सुसद्भिः | |
597 | 5004011c | रराज वीरैश्च विनिःश्वसद्भि;र्ह्रदो भुजङ्गैरिव निःश्वसद्भिः | |
598 | 5004012a | बुद्धिप्रधानान्रुचिराभिधाना;न्संश्रद्दधानाञ्जगतः प्रधानान् | |
599 | 5004012c | नानाविधानान्रुचिराभिधाना;न्ददर्श तस्यां पुरि यातुधानान् | |
600 | 5004013a | ननन्द दृष्ट्वा स च तान्सुरूपा;न्नानागुणानात्मगुणानुरूपान् | |
601 | 5004013c | विद्योतमानान्स च तान्सुरूपा;न्ददर्श कांश्चिच्च पुनर्विरूपान् | |
602 | 5004014a | ततो वरार्हाः सुविशुद्धभावा;स्तेषां स्त्रियस्तत्र महानुभावाः | |
603 | 5004014c | प्रियेषु पानेषु च सक्तभावा; ददर्श तारा इव सुप्रभावाः | |
604 | 5004015a | श्रिया ज्वलन्तीस्त्रपयोपगूढा; निशीथकाले रमणोपगूढाः | |
605 | 5004015c | ददर्श काश्चित्प्रमदोपगूढा; यथा विहंगाः कुसुमोपगूडाः | |
606 | 5004016a | अन्याः पुनर्हर्म्यतलोपविष्टा;स्तत्र प्रियाङ्केषु सुखोपविष्टाः | |
607 | 5004016c | भर्तुः प्रिया धर्मपरा निविष्टा; ददर्श धीमान्मनदाभिविष्टाः | |
608 | 5004017a | अप्रावृताः काञ्चनराजिवर्णाः; काश्चित्परार्ध्यास्तपनीयवर्णाः | |
609 | 5004017c | पुनश्च काश्चिच्छशलक्ष्मवर्णाः; कान्तप्रहीणा रुचिराङ्गवर्णाः | |
610 | 5004018a | ततः प्रियान्प्राप्य मनोऽभिरामा;न्सुप्रीतियुक्ताः प्रसमीक्ष्य रामाः | |
611 | 5004018c | गृहेषु हृष्टाः परमाभिरामा; हरिप्रवीरः स ददर्श रामाः | |
612 | 5004019a | चन्द्रप्रकाशाश्च हि वक्त्रमाला; वक्राक्षिपक्ष्माश्च सुनेत्रमालाः | |
613 | 5004019c | विभूषणानां च ददर्श मालाः; शतह्रदानामिव चारुमालाः | |
614 | 5004020a | न त्वेव सीतां परमाभिजातां; पथि स्थिते राजकुले प्रजाताम् | |
615 | 5004020c | लतां प्रफुल्लामिव साधुजातां; ददर्श तन्वीं मनसाभिजाताम् | |
616 | 5004021a | सनातने वर्त्मनि संनिविष्टां; रामेक्षणीं तां मदनाभिविष्टाम् | |
617 | 5004021c | भर्तुर्मनः श्रीमदनुप्रविष्टां; स्त्रीभ्यो वराभ्यश्च सदा विशिष्टाम् | |
618 | 5004022a | उष्णार्दितां सानुसृतास्रकण्ठीं; पुरा वरार्होत्तमनिष्ककण्ठीम् | |
619 | 5004022c | सुजातपक्ष्मामभिरक्तकण्ठीं; वने प्रवृत्तामिव नीलकण्ठीम् | |
620 | 5004023a | अव्यक्तलेखामिव चन्द्रलेखां; पांसुप्रदिग्धामिव हेमलेखाम् | |
621 | 5004023c | क्षतप्ररूढामिव बाणलेखां; वायुप्रभिन्नामिव मेघलेखाम् | |
622 | 5004024a | सीतामपश्यन्मनुजेश्वरस्य; रामस्य पत्नीं वदतां वरस्य | |
623 | 5004024c | बभूव दुःखाभिहतश्चिरस्य; प्लवंगमो मन्द इवाचिरस्य | |
624 | 5005001a | स निकामं विनामेषु विचरन्कामरूपधृक् | |
625 | 5005001c | विचचार कपिर्लङ्कां लाघवेन समन्वितः | |
626 | 5005002a | आससादाथ लक्ष्मीवान्राक्षसेन्द्रनिवेशनम् | |
627 | 5005002c | प्राकारेणार्कवर्णेन भास्वरेणाभिसंवृतम् | |
628 | 5005003a | रक्षितं राक्षसैर्भीमैः सिंहैरिव महद्वनम् | |
629 | 5005003c | समीक्षमाणो भवनं चकाशे कपिकुञ्जरः | |
630 | 5005004a | रूप्यकोपहितैश्चित्रैस्तोरणैर्हेमभूषितैः | |
631 | 5005004c | विचित्राभिश्च कक्ष्याभिर्द्वारैश्च रुचिरैर्वृतम् | |
632 | 5005005a | गजास्थितैर्महामात्रैः शूरैश्च विगतश्रमैः | |
633 | 5005005c | उपस्थितमसंहार्यैर्हयैः स्यन्दनयायिभिः | |
634 | 5005006a | सिंहव्याघ्रतनुत्राणैर्दान्तकाञ्चनराजतैः | |
635 | 5005006c | घोषवद्भिर्विचित्रैश्च सदा विचरितं रथैः | |
636 | 5005007a | बहुरत्नसमाकीर्णं परार्ध्यासनभाजनम् | |
637 | 5005007c | महारथसमावासं महारथमहासनम् | |
638 | 5005008a | दृश्यैश्च परमोदारैस्तैस्तैश्च मृगपक्षिभिः | |
639 | 5005008c | विविधैर्बहुसाहस्रैः परिपूर्णं समन्ततः | |
640 | 5005009a | विनीतैरन्तपालैश्च रक्षोभिश्च सुरक्षितम् | |
641 | 5005009c | मुख्याभिश्च वरस्त्रीभिः परिपूर्णं समन्ततः | |
642 | 5005010a | मुदितप्रमदा रत्नं राक्षसेन्द्रनिवेशनम् | |
643 | 5005010c | वराभरणनिर्ह्रादैः समुद्रस्वननिःस्वनम् | |
644 | 5005011a | तद्राजगुणसंपन्नं मुख्यैश्च वरचन्दनैः | |
645 | 5005011c | भेरीमृदङ्गाभिरुतं शङ्खघोषविनादितम् | |
646 | 5005012a | नित्यार्चितं पर्वहुतं पूजितं राक्षसैः सदा | |
647 | 5005012c | समुद्रमिव गम्भीरं समुद्रमिव निःस्वनम् | |
648 | 5005013a | महात्मानो महद्वेश्म महारत्नपरिच्छदम् | |
649 | 5005013c | महाजनसमाकीर्णं ददर्श स महाकपिः | |
650 | 5005014a | विराजमानं वपुषा गजाश्वरथसंकुलम् | |
651 | 5005014c | लङ्काभरणमित्येव सोऽमन्यत महाकपिः | |
652 | 5005015a | गृहाद्गृहं राक्षसानामुद्यानानि च वानरः | |
653 | 5005015c | वीक्षमाणो ह्यसंत्रस्तः प्रासादांश्च चचार सः | |
654 | 5005016a | अवप्लुत्य महावेगः प्रहस्तस्य निवेशनम् | |
655 | 5005016c | ततोऽन्यत्पुप्लुवे वेश्म महापार्श्वस्य वीर्यवान् | |
656 | 5005017a | अथ मेघप्रतीकाशं कुम्भकर्णनिवेशनम् | |
657 | 5005017c | विभीषणस्य च तथा पुप्लुवे स महाकपिः | |
658 | 5005018a | महोदरस्य च तथा विरूपाक्षस्य चैव हि | |
659 | 5005018c | विद्युज्जिह्वस्य भवनं विद्युन्मालेस्तथैव च | |
660 | 5005018e | वज्रदंष्ट्रस्य च तथा पुप्लुवे स महाकपिः | |
661 | 5005019a | शुकस्य च महावेगः सारणस्य च धीमतः | |
662 | 5005019c | तथा चेन्द्रजितो वेश्म जगाम हरियूथपः | |
663 | 5005020a | जम्बुमालेः सुमालेश्च जगाम हरियूथपः | |
664 | 5005020c | रश्मिकेतोश्च भवनं सूर्यशत्रोस्तथैव च | |
665 | 5005021a | धूम्राक्षस्य च संपातेर्भवनं मारुतात्मजः | |
666 | 5005021c | विद्युद्रूपस्य भीमस्य घनस्य विघनस्य च | |
667 | 5005022a | शुकनाभस्य वक्रस्य शठस्य विकटस्य च | |
668 | 5005022c | ह्रस्वकर्णस्य दंष्ट्रस्य रोमशस्य च रक्षसः | |
669 | 5005023a | युद्धोन्मत्तस्य मत्तस्य ध्वजग्रीवस्य नादिनः | |
670 | 5005023c | विद्युज्जिह्वेन्द्रजिह्वानां तथा हस्तिमुखस्य च | |
671 | 5005024a | करालस्य पिशाचस्य शोणिताक्षस्य चैव हि | |
672 | 5005024c | क्रममाणः क्रमेणैव हनूमान्मारुतात्मजः | |
673 | 5005025a | तेषु तेषु महार्हेषु भवनेषु महायशाः | |
674 | 5005025c | तेषामृद्धिमतामृद्धिं ददर्श स महाकपिः | |
675 | 5005026a | सर्वेषां समतिक्रम्य भवनानि समन्ततः | |
676 | 5005026c | आससादाथ लक्ष्मीवान्राक्षसेन्द्रनिवेशनम् | |
677 | 5005027a | रावणस्योपशायिन्यो ददर्श हरिसत्तमः | |
678 | 5005027c | विचरन्हरिशार्दूलो राक्षसीर्विकृतेक्षणाः | |
679 | 5005027e | शूलमुद्गरहस्ताश्च शक्तो तोमरधारिणीः | |
680 | 5005028a | ददर्श विविधान्गुल्मांस्तस्य रक्षःपतेर्गृहे | |
681 | 5005029a | रक्ताञ्श्वेतान्सितांश्चैव हरींश्चैव महाजवान् | |
682 | 5005029c | कुलीनान्रूपसंपन्नान्गजान्परगजारुजान् | |
683 | 5005030a | निष्ठितान्गजशिखायामैरावतसमान्युधि | |
684 | 5005030c | निहन्तॄन्परसैन्यानां गृहे तस्मिन्ददर्श सः | |
685 | 5005031a | क्षरतश्च यथा मेघान्स्रवतश्च यथा गिरीन् | |
686 | 5005031c | मेघस्तनितनिर्घोषान्दुर्धर्षान्समरे परैः | |
687 | 5005032a | सहस्रं वाहिनीस्तत्र जाम्बूनदपरिष्कृताः | |
688 | 5005032c | हेमजालैरविच्छिन्नास्तरुणादित्यसंनिभाः | |
689 | 5005033a | ददर्श राक्षसेन्द्रस्य रावणस्य निवेशने | |
690 | 5005033c | शिबिका विविधाकाराः स कपिर्मारुतात्मजः | |
691 | 5005034a | लतागृहाणि चित्राणि चित्रशालागृहाणि च | |
692 | 5005034c | क्रीडागृहाणि चान्यानि दारुपर्वतकानपि | |
693 | 5005035a | कामस्य गृहकं रम्यं दिवागृहकमेव च | |
694 | 5005035c | ददर्श राक्षसेन्द्रस्य रावणस्य निवेशने | |
695 | 5005036a | स मन्दरतलप्रख्यं मयूरस्थानसंकुलम् | |
696 | 5005036c | ध्वजयष्टिभिराकीर्णं ददर्श भवनोत्तमम् | |
697 | 5005037a | अनन्तरत्ननिचयं निधिजालं समन्ततः | |
698 | 5005037c | धीरनिष्ठितकर्मान्तं गृहं भूतपतेरिव | |
699 | 5005038a | अर्चिर्भिश्चापि रत्नानां तेजसा रावणस्य च | |
700 | 5005038c | विरराजाथ तद्वेश्म रश्मिमानिव रश्मिभिः | |
701 | 5005039a | जाम्बूनदमयान्येव शयनान्यासनानि च | |
702 | 5005039c | भाजनानि च शुभ्राणि ददर्श हरियूथपः | |
703 | 5005040a | मध्वासवकृतक्लेदं मणिभाजनसंकुलम् | |
704 | 5005040c | मनोरममसंबाधं कुबेरभवनं यथा | |
705 | 5005041a | नूपुराणां च घोषेण काञ्चीनां निनदेन च | |
706 | 5005041c | मृदङ्गतलघोषैश्च घोषवद्भिर्विनादितम् | |
707 | 5005042a | प्रासादसंघातयुतं स्त्रीरत्नशतसंकुलम् | |
708 | 5005042c | सुव्यूढकक्ष्यं हनुमान्प्रविवेश महागृहम् | |
709 | 5006001a | स वेश्मजालं बलवान्ददर्श; व्यासक्तवैदूर्यसुवर्णजालम् | |
710 | 5006001c | यथा महत्प्रावृषि मेघजालं; विद्युत्पिनद्धं सविहंगजालम् | |
711 | 5006002a | निवेशनानां विविधाश्च शालाः; प्रधानशङ्खायुधचापशालाः | |
712 | 5006002c | मनोहराश्चापि पुनर्विशाला; ददर्श वेश्माद्रिषु चन्द्रशालाः | |
713 | 5006003a | गृहाणि नानावसुराजितानि; देवासुरैश्चापि सुपूजितानि | |
714 | 5006003c | सर्वैश्च दोषैः परिवर्जितानि; कपिर्ददर्श स्वबलार्जितानि | |
715 | 5006004a | तानि प्रयत्नाभिसमाहितानि; मयेन साक्षादिव निर्मितानि | |
716 | 5006004c | महीतले सर्वगुणोत्तराणि; ददर्श लङ्काधिपतेर्गृहाणि | |
717 | 5006005a | ततो ददर्शोच्छ्रितमेघरूपं; मनोहरं काञ्चनचारुरूपम् | |
718 | 5006005c | रक्षोऽधिपस्यात्मबलानुरूपं; गृहोत्तमं ह्यप्रतिरूपरूपम् | |
719 | 5006006a | महीतले स्वर्गमिव प्रकीर्णं; श्रिया ज्वलन्तं बहुरत्नकीर्णम् | |
720 | 5006006c | नानातरूणां कुसुमावकीर्णं; गिरेरिवाग्रं रजसावकीर्णम् | |
721 | 5006007a | नारीप्रवेकैरिव दीप्यमानं; तडिद्भिरम्भोदवदर्च्यमानम् | |
722 | 5006007c | हंसप्रवेकैरिव वाह्यमानं; श्रिया युतं खे सुकृतां विमानम् | |
723 | 5006008a | यथा नगाग्रं बहुधातुचित्रं; यथा नभश्च ग्रहचन्द्रचित्रम् | |
724 | 5006008c | ददर्श युक्तीकृतमेघचित्रं; विमानरत्नं बहुरत्नचित्रम् | |
725 | 5006009a | मही कृता पर्वतराजिपूर्णा; शैलाः कृता वृक्षवितानपूर्णाः | |
726 | 5006009c | वृक्षाः कृताः पुष्पवितानपूर्णाः; पुष्पं कृतं केसरपत्रपूर्णम् | |
727 | 5006010a | कृतानि वेश्मानि च पाण्डुराणि; तथा सुपुष्पा अपि पुष्करिण्यः | |
728 | 5006010c | पुनश्च पद्मानि सकेसराणि; धन्यानि चित्राणि तथा वनानि | |
729 | 5006011a | पुष्पाह्वयं नाम विराजमानं; रत्नप्रभाभिश्च विवर्धमानम् | |
730 | 5006011c | वेश्मोत्तमानामपि चोच्चमानं; महाकपिस्तत्र महाविमानम् | |
731 | 5006012a | कृताश्च वैदूर्यमया विहंगा; रूप्यप्रवालैश्च तथा विहंगाः | |
732 | 5006012c | चित्राश्च नानावसुभिर्भुजंगा; जात्यानुरूपास्तुरगाः शुभाङ्गाः | |
733 | 5006013a | प्रवालजाम्बूनदपुष्पपक्षाः; सलीलमावर्जितजिह्मपक्षाः | |
734 | 5006013c | कामस्य साक्षादिव भान्ति पक्षाः; कृता विहंगाः सुमुखाः सुपक्षाः | |
735 | 5006014a | नियुज्यमानाश्च गजाः सुहस्ताः; सकेसराश्चोत्पलपत्रहस्ताः | |
736 | 5006014c | बभूव देवी च कृता सुहस्ता; लक्ष्मीस्तथा पद्मिनि पद्महस्ता | |
737 | 5006015a | इतीव तद्गृहमभिगम्य शोभनं; सविस्मयो नगमिव चारुशोभनम् | |
738 | 5006015c | पुनश्च तत्परमसुगन्धि सुन्दरं; हिमात्यये नगमिव चारुकन्दरम् | |
739 | 5006016a | ततः स तां कपिरभिपत्य पूजितां; चरन्पुरीं दशमुखबाहुपालिताम् | |
740 | 5006016c | अदृश्य तां जनकसुतां सुपूजितां; सुदुःखितां पतिगुणवेगनिर्जिताम् | |
741 | 5006017a | ततस्तदा बहुविधभावितात्मनः; कृतात्मनो जनकसुतां सुवर्त्मनः | |
742 | 5006017c | अपश्यतोऽभवदतिदुःखितं मनः; सुचक्षुषः प्रविचरतो महात्मनः | |
743 | 5007001a | तस्यालयवरिष्ठस्य मध्ये विपुलमायतम् | |
744 | 5007001c | ददर्श भवनश्रेष्ठं हनूमान्मारुतात्मजः | |
745 | 5007002a | अर्धयोजनविस्तीर्णमायतं योजनं हि तत् | |
746 | 5007002c | भवनं राक्षसेन्द्रस्य बहुप्रासादसंकुलम् | |
747 | 5007003a | मार्गमाणस्तु वैदेहीं सीतामायतलोचनाम् | |
748 | 5007003c | सर्वतः परिचक्राम हनूमानरिसूदनः | |
749 | 5007004a | चतुर्विषाणैर्द्विरदैस्त्रिविषाणैस्तथैव च | |
750 | 5007004c | परिक्षिप्तमसंबाधं रक्ष्यमाणमुदायुधैः | |
751 | 5007005a | राक्षसीभिश्च पत्नीभी रावणस्य निवेशनम् | |
752 | 5007005c | आहृताभिश्च विक्रम्य राजकन्याभिरावृतम् | |
753 | 5007006a | तन्नक्रमकराकीर्णं तिमिंगिलझषाकुलम् | |
754 | 5007006c | वायुवेगसमाधूतं पन्नगैरिव सागरम् | |
755 | 5007007a | या हि वैश्वरणे लक्ष्मीर्या चेन्द्रे हरिवाहने | |
756 | 5007007c | सा रावणगृहे सर्वा नित्यमेवानपायिनी | |
757 | 5007008a | या च राज्ञः कुबेरस्य यमस्य वरुणस्य च | |
758 | 5007008c | तादृशी तद्विशिष्टा वा ऋद्धी रक्षो गृहेष्विह | |
759 | 5007009a | तस्य हर्म्यस्य मध्यस्थं वेश्म चान्यत्सुनिर्मितम् | |
760 | 5007009c | बहुनिर्यूह संकीर्णं ददर्श पवनात्मजः | |
761 | 5007010a | ब्रह्मणोऽर्थे कृतं दिव्यं दिवि यद्विश्वकर्मणा | |
762 | 5007010c | विमानं पुष्पकं नाम सर्वरत्नविभूषितम् | |
763 | 5007011a | परेण तपसा लेभे यत्कुबेरः पितामहात् | |
764 | 5007011c | कुबेरमोजसा जित्वा लेभे तद्राक्षसेश्वरः | |
765 | 5007012a | ईहा मृगसमायुक्तैः कार्यस्वरहिरण्मयैः | |
766 | 5007012c | सुकृतैराचितं स्तम्भैः प्रदीप्तमिव च श्रिया | |
767 | 5007013a | मेरुमन्दरसंकाशैरुल्लिखद्भिरिवाम्बरम् | |
768 | 5007013c | कूटागारैः शुभाकारैः सर्वतः समलंकृतम् | |
769 | 5007014a | ज्वलनार्कप्रतीकाशं सुकृतं विश्वकर्मणा | |
770 | 5007014c | हेमसोपानसंयुक्तं चारुप्रवरवेदिकम् | |
771 | 5007015a | जालवातायनैर्युक्तं काञ्चनैः स्थाटिकैरपि | |
772 | 5007015c | इन्द्रनीलमहानीलमणिप्रवरवेदिकम् | |
773 | 5007015e | विमानं पुष्पकं दिव्यमारुरोह महाकपिः | |
774 | 5007016a | तत्रस्थः स तदा गन्धं पानभक्ष्यान्नसंभवम् | |
775 | 5007016c | दिव्यं संमूर्छितं जिघ्रन्रूपवन्तमिवानिलम् | |
776 | 5007017a | स गन्धस्तं महासत्त्वं बन्धुर्बन्धुमिवोत्तमम् | |
777 | 5007017c | इत एहीत्युवाचेव तत्र यत्र स रावणः | |
778 | 5007018a | ततस्तां प्रस्थितः शालां ददर्श महतीं शुभाम् | |
779 | 5007018c | रावणस्य मनःकान्तां कान्तामिव वरस्त्रियम् | |
780 | 5007019a | मणिसोपानविकृतां हेमजालविराजिताम् | |
781 | 5007019c | स्फाटिकैरावृततलां दन्तान्तरितरूपिकाम् | |
782 | 5007020a | मुक्ताभिश्च प्रवालैश्च रूप्यचामीकरैरपि | |
783 | 5007020c | विभूषितां मणिस्तम्भैः सुबहुस्तम्भभूषिताम् | |
784 | 5007021a | समैरृजुभिरत्युच्चैः समन्तात्सुविभूषितैः | |
785 | 5007021c | स्तम्भैः पक्षैरिवात्युच्चैर्दिवं संप्रस्थितामिव | |
786 | 5007022a | महत्या कुथयास्त्रीणं पृथिवीलक्षणाङ्कया | |
787 | 5007022c | पृथिवीमिव विस्तीर्णां सराष्ट्रगृहमालिनीम् | |
788 | 5007023a | नादितां मत्तविहगैर्दिव्यगन्धाधिवासिताम् | |
789 | 5007023c | परार्ध्यास्तरणोपेतां रक्षोऽधिपनिषेविताम् | |
790 | 5007024a | धूम्रामगरुधूपेन विमलां हंसपाण्डुराम् | |
791 | 5007024c | चित्रां पुष्पोपहारेण कल्माषीमिव सुप्रभाम् | |
792 | 5007025a | मनःसंह्लादजननीं वर्णस्यापि प्रसादिनीम् | |
793 | 5007025c | तां शोकनाशिनीं दिव्यां श्रियः संजननीमिव | |
794 | 5007026a | इन्द्रियाणीन्द्रियार्थैस्तु पञ्च पञ्चभिरुत्तमैः | |
795 | 5007026c | तर्पयामास मातेव तदा रावणपालिता | |
796 | 5007027a | स्वर्गोऽयं देवलोकोऽयमिन्द्रस्येयं पुरी भवेत् | |
797 | 5007027c | सिद्धिर्वेयं परा हि स्यादित्यमन्यत मारुतिः | |
798 | 5007028a | प्रध्यायत इवापश्यत्प्रदीपांस्तत्र काञ्चनान् | |
799 | 5007028c | धूर्तानिव महाधूर्तैर्देवनेन पराजितान् | |
800 | 5007029a | दीपानां च प्रकाशेन तेजसा रावणस्य च | |
801 | 5007029c | अर्चिर्भिर्भूषणानां च प्रदीप्तेत्यभ्यमन्यत | |
802 | 5007030a | ततोऽपश्यत्कुथासीनं नानावर्णाम्बरस्रजम् | |
803 | 5007030c | सहस्रं वरनारीणां नानावेषविभूषितम् | |
804 | 5007031a | परिवृत्तेऽर्धरात्रे तु पाननिद्रावशं गतम् | |
805 | 5007031c | क्रीडित्वोपरतं रात्रौ सुष्वाप बलवत्तदा | |
806 | 5007032a | तत्प्रसुप्तं विरुरुचे निःशब्दान्तरभूषणम् | |
807 | 5007032c | निःशब्दहंसभ्रमरं यथा पद्मवनं महत् | |
808 | 5007033a | तासां संवृतदन्तानि मीलिताक्षाणि मारुतिः | |
809 | 5007033c | अपश्यत्पद्मगन्धीनि वदनानि सुयोषिताम् | |
810 | 5007034a | प्रबुद्धानीव पद्मानि तासां भूत्वा क्षपाक्षये | |
811 | 5007034c | पुनःसंवृतपत्राणि रात्राविव बभुस्तदा | |
812 | 5007035a | इमानि मुखपद्मानि नियतं मत्तषट्पदाः | |
813 | 5007035c | अम्बुजानीव फुल्लानि प्रार्थयन्ति पुनः पुनः | |
814 | 5007036a | इति वामन्यत श्रीमानुपपत्त्या महाकपिः | |
815 | 5007036c | मेने हि गुणतस्तानि समानि सलिलोद्भवैः | |
816 | 5007037a | सा तस्य शुशुभे शाला ताभिः स्त्रीभिर्विराजिता | |
817 | 5007037c | शारदीव प्रसन्ना द्यौस्ताराभिरभिशोभिता | |
818 | 5007038a | स च ताभिः परिवृतः शुशुभे राक्षसाधिपः | |
819 | 5007038c | यथा ह्युडुपतिः श्रीमांस्ताराभिरभिसंवृतः | |
820 | 5007039a | याश्च्यवन्तेऽम्बरात्ताराः पुण्यशेषसमावृताः | |
821 | 5007039c | इमास्ताः संगताः कृत्स्ना इति मेने हरिस्तदा | |
822 | 5007040a | ताराणामिव सुव्यक्तं महतीनां शुभार्चिषाम् | |
823 | 5007040c | प्रभावर्णप्रसादाश्च विरेजुस्तत्र योषिताम् | |
824 | 5007041a | व्यावृत्तगुरुपीनस्रक्प्रकीर्णवरभूषणाः | |
825 | 5007041c | पानव्यायामकालेषु निद्रापहृतचेतसः | |
826 | 5007042a | व्यावृत्ततिलकाः काश्चित्काश्चिदुद्भ्रान्तनूपुराः | |
827 | 5007042c | पार्श्वे गलितहाराश्च काश्चित्परमयोषितः | |
828 | 5007043a | मुखा हारवृताश्चान्याः काश्चित्प्रस्रस्तवाससः | |
829 | 5007043c | व्याविद्धरशना दामाः किशोर्य इव वाहिताः | |
830 | 5007044a | सुकुण्डलधराश्चान्या विच्छिन्नमृदितस्रजः | |
831 | 5007044c | गजेन्द्रमृदिताः फुल्ला लता इव महावने | |
832 | 5007045a | चन्द्रांशुकिरणाभाश्च हाराः कासांचिदुत्कटाः | |
833 | 5007045c | हंसा इव बभुः सुप्ताः स्तनमध्येषु योषिताम् | |
834 | 5007046a | अपरासां च वैदूर्याः कादम्बा इव पक्षिणः | |
835 | 5007046c | हेमसूत्राणि चान्यासां चक्रवाका इवाभवन् | |
836 | 5007047a | हंसकारण्डवाकीर्णाश्चक्रवाकोपशोभिताः | |
837 | 5007047c | आपगा इव ता रेजुर्जघनैः पुलिनैरिव | |
838 | 5007048a | किङ्किणीजालसंकाशास्ता हेमविपुलाम्बुजाः | |
839 | 5007048c | भावग्राहा यशस्तीराः सुप्ता नद्य इवाबभुः | |
840 | 5007049a | मृदुष्वङ्गेषु कासांचित्कुचाग्रेषु च संस्थिताः | |
841 | 5007049c | बभूवुर्भूषणानीव शुभा भूषणराजयः | |
842 | 5007050a | अंशुकान्ताश्च कासांचिन्मुखमारुतकम्पिताः | |
843 | 5007050c | उपर्युपरि वक्त्राणां व्याधूयन्ते पुनः पुनः | |
844 | 5007051a | ताः पाताका इवोद्धूताः पत्नीनां रुचिरप्रभाः | |
845 | 5007051c | नानावर्णसुवर्णानां वक्त्रमूलेषु रेजिरे | |
846 | 5007052a | ववल्गुश्चात्र कासांचित्कुण्डलानि शुभार्चिषाम् | |
847 | 5007052c | मुखमारुतसंसर्गान्मन्दं मन्दं सुयोषिताम् | |
848 | 5007053a | शर्करासवगन्धः स प्रकृत्या सुरभिः सुखः | |
849 | 5007053c | तासां वदननिःश्वासः सिषेवे रावणं तदा | |
850 | 5007054a | रावणाननशङ्काश्च काश्चिद्रावणयोषितः | |
851 | 5007054c | मुखानि स्म सपत्नीनामुपाजिघ्रन्पुनः पुनः | |
852 | 5007055a | अत्यर्थं सक्तमनसो रावणे ता वरस्त्रियः | |
853 | 5007055c | अस्वतन्त्राः सपत्नीनां प्रियमेवाचरंस्तदा | |
854 | 5007056a | बाहूनुपनिधायान्याः पारिहार्य विभूषिताः | |
855 | 5007056c | अंशुकानि च रम्याणि प्रमदास्तत्र शिश्यिरे | |
856 | 5007057a | अन्या वक्षसि चान्यस्यास्तस्याः काचित्पुनर्भुजम् | |
857 | 5007057c | अपरा त्वङ्कमन्यस्यास्तस्याश्चाप्यपरा भुजौ | |
858 | 5007058a | ऊरुपार्श्वकटीपृष्ठमन्योन्यस्य समाश्रिताः | |
859 | 5007058c | परस्परनिविष्टाङ्ग्यो मदस्नेहवशानुगाः | |
860 | 5007059a | अन्योन्यस्याङ्गसंस्पर्शात्प्रीयमाणाः सुमध्यमाः | |
861 | 5007059c | एकीकृतभुजाः सर्वाः सुषुपुस्तत्र योषितः | |
862 | 5007060a | अन्योन्यभुजसूत्रेण स्त्रीमालाग्रथिता हि सा | |
863 | 5007060c | मालेव ग्रथिता सूत्रे शुशुभे मत्तषट्पदा | |
864 | 5007061a | लतानां माधवे मासि फुल्लानां वायुसेवनात् | |
865 | 5007061c | अन्योन्यमालाग्रथितं संसक्तकुसुमोच्चयम् | |
866 | 5007062a | व्यतिवेष्टितसुस्कन्थमन्योन्यभ्रमराकुलम् | |
867 | 5007062c | आसीद्वनमिवोद्धूतं स्त्रीवनं रावणस्य तत् | |
868 | 5007063a | उचितेष्वपि सुव्यक्तं न तासां योषितां तदा | |
869 | 5007063c | विवेकः शक्य आधातुं भूषणाङ्गाम्बरस्रजाम् | |
870 | 5007064a | रावणे सुखसंविष्टे ताः स्त्रियो विविधप्रभाः | |
871 | 5007064c | ज्वलन्तः काञ्चना दीपाः प्रेक्षन्तानिमिषा इव | |
872 | 5007065a | राजर्षिपितृदैत्यानां गन्धर्वाणां च योषितः | |
873 | 5007065c | रक्षसां चाभवन्कन्यास्तस्य कामवशं गताः | |
874 | 5007066a | न तत्र काचित्प्रमदा प्रसह्य; वीर्योपपन्नेन गुणेन लब्धा | |
875 | 5007066c | न चान्यकामापि न चान्यपूर्वा; विना वरार्हां जनकात्मजां तु | |
876 | 5007067a | न चाकुलीना न च हीनरूपा; नादक्षिणा नानुपचार युक्ता | |
877 | 5007067c | भार्याभवत्तस्य न हीनसत्त्वा; न चापि कान्तस्य न कामनीया | |
878 | 5007068a | बभूव बुद्धिस्तु हरीश्वरस्य; यदीदृशी राघवधर्मपत्नी | |
879 | 5007068c | इमा यथा राक्षसराजभार्याः; सुजातमस्येति हि साधुबुद्धेः | |
880 | 5007069a | पुनश्च सोऽचिन्तयदार्तरूपो; ध्रुवं विशिष्टा गुणतो हि सीता | |
881 | 5007069c | अथायमस्यां कृतवान्महात्मा; लङ्केश्वरः कष्टमनार्यकर्म | |
882 | 5008001a | तत्र दिव्योपमं मुख्यं स्फाटिकं रत्नभूषितम् | |
883 | 5008001c | अवेक्षमाणो हनुमान्ददर्श शयनासनम् | |
884 | 5008002a | तस्य चैकतमे देशे सोऽग्र्यमाल्यविभूषितम् | |
885 | 5008002c | ददर्श पाण्डुरं छत्रं ताराधिपतिसंनिभम् | |
886 | 5008003a | बालव्यजनहस्ताभिर्वीज्यमानं समन्ततः | |
887 | 5008003c | गन्धैश्च विविधैर्जुष्टं वरधूपेन धूपितम् | |
888 | 5008004a | परमास्तरणास्तीर्णमाविकाजिनसंवृतम् | |
889 | 5008004c | दामभिर्वरमाल्यानां समन्तादुपशोभितम् | |
890 | 5008005a | तस्मिञ्जीमूतसंकाशं प्रदीप्तोत्तमकुण्डलम् | |
891 | 5008005c | लोहिताक्षं महाबाहुं महारजतवाससं | |
892 | 5008006a | लोहितेनानुलिप्ताङ्गं चन्दनेन सुगन्धिना | |
893 | 5008006c | संध्यारक्तमिवाकाशे तोयदं सतडिद्गुणम् | |
894 | 5008007a | वृतमाभरणैर्दिव्यैः सुरूपं कामरूपिणम् | |
895 | 5008007c | सवृक्षवनगुल्माढ्यं प्रसुप्तमिव मन्दरम् | |
896 | 5008008a | क्रीडित्वोपरतं रात्रौ वराभरणभूषितम् | |
897 | 5008008c | प्रियं राक्षसकन्यानां राक्षसानां सुखावहम् | |
898 | 5008009a | पीत्वाप्युपरतं चापि ददर्श स महाकपिः | |
899 | 5008009c | भास्करे शयने वीरं प्रसुप्तं राक्षसाधिपम् | |
900 | 5008010a | निःश्वसन्तं यथा नागं रावणं वानरोत्तमः | |
901 | 5008010c | आसाद्य परमोद्विग्नः सोऽपासर्पत्सुभीतवत् | |
902 | 5008011a | अथारोहणमासाद्य वेदिकान्तरमाश्रितः | |
903 | 5008011c | सुप्तं राक्षसशार्दूलं प्रेक्षते स्म महाकपिः | |
904 | 5008012a | शुशुभे राक्षसेन्द्रस्य स्वपतः शयनोत्तमम् | |
905 | 5008012c | गन्धहस्तिनि संविष्टे यथाप्रस्रवणं महत् | |
906 | 5008013a | काञ्चनाङ्गदनद्धौ च ददर्श स महात्मनः | |
907 | 5008013c | विक्षिप्तौ राक्षसेन्द्रस्य भुजाविन्द्रध्वजोपमौ | |
908 | 5008014a | ऐरावतविषाणाग्रैरापीडितकृतव्रणौ | |
909 | 5008014c | वज्रोल्लिखितपीनांसौ विष्णुचक्रपरिक्षितौ | |
910 | 5008015a | पीनौ समसुजातांसौ संगतौ बलसंयुतौ | |
911 | 5008015c | सुलक्षण नखाङ्गुष्ठौ स्वङ्गुलीतललक्षितौ | |
912 | 5008016a | संहतौ परिघाकारौ वृत्तौ करिकरोपमौ | |
913 | 5008016c | विक्षिप्तौ शयने शुभ्रे पञ्चशीर्षाविवोरगौ | |
914 | 5008017a | शशक्षतजकल्पेन सुशीतेन सुगन्धिना | |
915 | 5008017c | चन्दनेन परार्ध्येन स्वनुलिप्तौ स्वलंकृतौ | |
916 | 5008018a | उत्तमस्त्रीविमृदितौ गन्धोत्तमनिषेवितौ | |
917 | 5008018c | यक्षपन्नगगन्धर्वदेवदानवराविणौ | |
918 | 5008019a | ददर्श स कपिस्तस्य बाहू शयनसंस्थितौ | |
919 | 5008019c | मन्दरस्यान्तरे सुप्तौ महार्ही रुषिताविव | |
920 | 5008020a | ताभ्यां स परिपूर्णाभ्यां भुजाभ्यां राक्षसाधिपः | |
921 | 5008020c | शुशुभेऽचलसंकाशः शृङ्गाभ्यामिव मन्दरः | |
922 | 5008021a | चूतपुंनागसुरभिर्बकुलोत्तमसंयुतः | |
923 | 5008021c | मृष्टान्नरससंयुक्तः पानगन्धपुरःसरः | |
924 | 5008022a | तस्य राक्षससिंहस्य निश्चक्राम मुखान्महान् | |
925 | 5008022c | शयानस्य विनिःश्वासः पूरयन्निव तद्गृहम् | |
926 | 5008023a | मुक्तामणिविचित्रेण काञ्चनेन विराजता | |
927 | 5008023c | मुकुटेनापवृत्तेन कुण्डलोज्ज्वलिताननम् | |
928 | 5008024a | रक्तचन्दनदिग्धेन तथा हारेण शोभिता | |
929 | 5008024c | पीनायतविशालेन वक्षसाभिविराजितम् | |
930 | 5008025a | पाण्डुरेणापविद्धेन क्षौमेण क्षतजेक्षणम् | |
931 | 5008025c | महार्हेण सुसंवीतं पीतेनोत्तमवाससा | |
932 | 5008026a | माषराशिप्रतीकाशं निःश्वसन्तं भुजङ्गवत् | |
933 | 5008026c | गाङ्गे महति तोयान्ते प्रसुतमिव कुञ्जरम् | |
934 | 5008027a | चतुर्भिः काञ्चनैर्दीपैर्दीप्यमानैश्चतुर्दिशम् | |
935 | 5008027c | प्रकाशीकृतसर्वाङ्गं मेघं विद्युद्गणैरिव | |
936 | 5008028a | पादमूलगताश्चापि ददर्श सुमहात्मनः | |
937 | 5008028c | पत्नीः स प्रियभार्यस्य तस्य रक्षःपतेर्गृहे | |
938 | 5008029a | शशिप्रकाशवदना वरकुण्डलभूषिताः | |
939 | 5008029c | अम्लानमाल्याभरणा ददर्श हरियूथपः | |
940 | 5008030a | नृत्तवादित्रकुशला राक्षसेन्द्रभुजाङ्कगाः | |
941 | 5008030c | वराभरणधारिण्यो निषन्ना ददृशे कपिः | |
942 | 5008031a | वज्रवैदूर्यगर्भाणि श्रवणान्तेषु योषिताम् | |
943 | 5008031c | ददर्श तापनीयानि कुण्डलान्यङ्गदानि च | |
944 | 5008032a | तासां चन्द्रोपमैर्वक्त्रैः शुभैर्ललितकुण्डलैः | |
945 | 5008032c | विरराज विमानं तन्नभस्तारागणैरिव | |
946 | 5008033a | मदव्यायामखिन्नास्ता राक्षसेन्द्रस्य योषितः | |
947 | 5008033c | तेषु तेष्ववकाशेषु प्रसुप्तास्तनुमध्यमाः | |
948 | 5008034a | काचिद्वीणां परिष्वज्य प्रसुप्ता संप्रकाशते | |
949 | 5008034c | महानदीप्रकीर्णेव नलिनी पोतमाश्रिता | |
950 | 5008035a | अन्या कक्षगतेनैव मड्डुकेनासितेक्षणा | |
951 | 5008035c | प्रसुप्ता भामिनी भाति बालपुत्रेव वत्सला | |
952 | 5008036a | पटहं चारुसर्वाङ्गी पीड्य शेते शुभस्तनी | |
953 | 5008036c | चिरस्य रमणं लब्ध्वा परिष्वज्येव कामिनी | |
954 | 5008037a | काचिदंशं परिष्वज्य सुप्ता कमललोचना | |
955 | 5008037c | निद्रावशमनुप्राप्ता सहकान्तेव भामिनी | |
956 | 5008038a | अन्या कनकसंकाशैर्मृदुपीनैर्मनोरमैः | |
957 | 5008038c | मृदङ्गं परिपीड्याङ्गैः प्रसुप्ता मत्तलोचना | |
958 | 5008039a | भुजपार्श्वान्तरस्थेन कक्षगेण कृशोदरी | |
959 | 5008039c | पणवेन सहानिन्द्या सुप्ता मदकृतश्रमा | |
960 | 5008040a | डिण्डिमं परिगृह्यान्या तथैवासक्तडिण्डिमा | |
961 | 5008040c | प्रसुप्ता तरुणं वत्समुपगूह्येव भामिनी | |
962 | 5008041a | काचिदाडम्बरं नारी भुजसंभोगपीडितम् | |
963 | 5008041c | कृत्वा कमलपत्राक्षी प्रसुप्ता मदमोहिता | |
964 | 5008042a | कलशीमपविद्ध्यान्या प्रसुप्ता भाति भामिनी | |
965 | 5008042c | वसन्ते पुष्पशबला मालेव परिमार्जिता | |
966 | 5008043a | पाणिभ्यां च कुचौ काचित्सुवर्णकलशोपमौ | |
967 | 5008043c | उपगूह्याबला सुप्ता निद्राबलपराजिता | |
968 | 5008044a | अन्या कमलपत्राक्षी पूर्णेन्दुसदृशानना | |
969 | 5008044c | अन्यामालिङ्ग्य सुश्रोणी प्रसुप्ता मदविह्वला | |
970 | 5008045a | आतोद्यानि विचित्राणि परिष्वज्य वरस्त्रियः | |
971 | 5008045c | निपीड्य च कुचैः सुप्ताः कामिन्यः कामुकानिव | |
972 | 5008046a | तासामेकान्तविन्यस्ते शयानां शयने शुभे | |
973 | 5008046c | ददर्श रूपसंपन्नामपरां स कपिः स्त्रियम् | |
974 | 5008047a | मुक्तामणिसमायुक्तैर्भूषणैः सुविभूषिताम् | |
975 | 5008047c | विभूषयन्तीमिव च स्वश्रिया भवनोत्तमम् | |
976 | 5008048a | गौरीं कनकवर्णाभामिष्टामन्तःपुरेश्वरीम् | |
977 | 5008048c | कपिर्मन्दोदरीं तत्र शयानां चारुरूपिणीम् | |
978 | 5008049a | स तां दृष्ट्वा महाबाहुर्भूषितां मारुतात्मजः | |
979 | 5008049c | तर्कयामास सीतेति रूपयौवनसंपदा | |
980 | 5008049e | हर्षेण महता युक्तो ननन्द हरियूथपः | |
981 | 5008050a | आस्ह्पोटयामास चुचुम्ब पुच्छं; ननन्द चिक्रीड जगौ जगाम | |
982 | 5008050c | स्तम्भानरोहन्निपपात भूमौ; निदर्शयन्स्वां प्रकृतिं कपीनाम् | |
983 | 5009001a | अवधूय च तां बुद्धिं बभूवावस्थितस्तदा | |
984 | 5009001c | जगाम चापरां चिन्तां सीतां प्रति महाकपिः | |
985 | 5009002a | न रामेण वियुक्ता सा स्वप्तुमर्हति भामिनी | |
986 | 5009002c | न भोक्तुं नाप्यलंकर्तुं न पानमुपसेवितुम् | |
987 | 5009003a | नान्यं नरमुपस्थातुं सुराणामपि चेश्वरम् | |
988 | 5009003c | न हि रामसमः कश्चिद्विद्यते त्रिदशेष्वपि | |
989 | 5009003e | अन्येयमिति निश्चित्य पानभूमौ चचार सः | |
990 | 5009004a | क्रीडितेनापराः क्लान्ता गीतेन च तथा पराः | |
991 | 5009004c | नृत्तेन चापराः क्लान्ताः पानविप्रहतास्तथा | |
992 | 5009005a | मुरजेषु मृदङ्गेषु पीठिकासु च संस्थिताः | |
993 | 5009005c | तथास्तरणमुख्य्येषु संविष्टाश्चापराः स्त्रियः | |
994 | 5009006a | अङ्गनानां सहस्रेण भूषितेन विभूषणैः | |
995 | 5009006c | रूपसंलापशीलेन युक्तगीतार्थभाषिणा | |
996 | 5009007a | देशकालाभियुक्तेन युक्तवाक्याभिधायिना | |
997 | 5009007c | रताभिरतसंसुप्तं ददर्श हरियूथपः | |
998 | 5009008a | तासां मध्ये महाबाहुः शुशुभे राक्षसेश्वरः | |
999 | 5009008c | गोष्ठे महति मुख्यानां गवां मध्ये यथा वृषः | |
1000 | 5009009a | स राक्षसेन्द्रः शुशुभे ताभिः परिवृतः स्वयम् | |
1001 | 5009009c | करेणुभिर्यथारण्यं परिकीर्णो महाद्विपः | |
1002 | 5009010a | सर्वकामैरुपेतां च पानभूमिं महात्मनः | |
1003 | 5009010c | ददर्श कपिशार्दूलस्तस्य रक्षःपतेर्गृहे | |
1004 | 5009011a | मृगाणां महिषाणां च वराहाणां च भागशः | |
1005 | 5009011c | तत्र न्यस्तानि मांसानि पानभूमौ ददर्श सः | |
1006 | 5009012a | रौक्मेषु च विशलेषु भाजनेष्वर्धभक्षितान् | |
1007 | 5009012c | ददर्श कपिशार्दूल मयूरान्कुक्कुटांस्तथा | |
1008 | 5009013a | वराहवार्ध्राणसकान्दधिसौवर्चलायुतान् | |
1009 | 5009013c | शल्यान्मृगमयूरांश्च हनूमानन्ववैक्षत | |
1010 | 5009014a | कृकरान्विविधान्सिद्धांश्चकोरानर्धभक्षितान् | |
1011 | 5009014c | महिषानेकशल्यांश्च छागांश्च कृतनिष्ठितान् | |
1012 | 5009014e | लेख्यमुच्चावचं पेयं भोज्यानि विविधानि च | |
1013 | 5009015a | तथाम्ललवणोत्तंसैर्विविधै रागषाडवैः | |
1014 | 5009015c | हार नूपुरकेयूरैरपविद्धैर्महाधनैः | |
1015 | 5009016a | पानभाजनविक्षिप्तैः फलैश्च विविधैरपि | |
1016 | 5009016c | कृतपुष्पोपहारा भूरधिकं पुष्यति श्रियम् | |
1017 | 5009017a | तत्र तत्र च विन्यस्तैः सुश्लिष्टैः शयनासनैः | |
1018 | 5009017c | पानभूमिर्विना वह्निं प्रदीप्तेवोपलक्ष्यते | |
1019 | 5009018a | बहुप्रकारैर्विविधैर्वरसंस्कारसंस्कृतैः | |
1020 | 5009018c | मांसैः कुशलसंयुक्तैः पानभूमिगतैः पृथक् | |
1021 | 5009019a | दिव्याः प्रसन्ना विविधाः सुराः कृतसुरा अपि | |
1022 | 5009019c | शर्करासवमाध्वीकाः पुष्पासवफलासवाः | |
1023 | 5009019e | वासचूर्णैश्च विविधैर्मृष्टास्तैस्तैः पृथक्पृथक् | |
1024 | 5009020a | संतता शुशुभे भूमिर्माल्यैश्च बहुसंस्थितैः | |
1025 | 5009020c | हिरण्मयैश्च करकैर्भाजनैः स्फाटिकैरपि | |
1026 | 5009020e | जाम्बूनदमयैश्चान्यैः करकैरभिसंवृता | |
1027 | 5009021a | राजतेषु च कुम्भेषु जाम्बूनदमयेषु च | |
1028 | 5009021c | पानश्रेष्ठं तदा भूरि कपिस्तत्र ददर्श ह | |
1029 | 5009022a | सोऽपश्यच्छातकुम्भानि शीधोर्मणिमयानि च | |
1030 | 5009022c | राजतानि च पूर्णानि भाजनानि महाकपिः | |
1031 | 5009023a | क्वचिदर्धावशेषाणि क्वचित्पीतानि सर्वशः | |
1032 | 5009023c | क्वचिन्नैव प्रपीतानि पानानि स ददर्श ह | |
1033 | 5009024a | क्वचिद्भक्ष्यांश्च विविधान्क्वचित्पानानि भागशः | |
1034 | 5009024c | क्वचिदन्नावशेषाणि पश्यन्वै विचचार ह | |
1035 | 5009025a | क्वचित्प्रभिन्नैः करकैः क्वचिदालोडितैर्घटैः | |
1036 | 5009025c | क्वचित्संपृक्तमाल्यानि जलानि च फलानि च | |
1037 | 5009026a | शयनान्यत्र नारीणां शून्यानि बहुधा पुनः | |
1038 | 5009026c | परस्परं समाश्लिष्य काश्चित्सुप्ता वराङ्गनाः | |
1039 | 5009027a | काचिच्च वस्त्रमन्यस्या अपहृत्योपगुह्य च | |
1040 | 5009027c | उपगम्याबला सुप्ता निद्राबलपराजिता | |
1041 | 5009028a | तासामुच्छ्वासवातेन वस्त्रं माल्यं च गात्रजम् | |
1042 | 5009028c | नात्यर्थं स्पन्दते चित्रं प्राप्य मन्दमिवानिलम् | |
1043 | 5009029a | चन्दनस्य च शीतस्य शीधोर्मधुरसस्य च | |
1044 | 5009029c | विविधस्य च माल्यस्य पुष्पस्य विविधस्य च | |
1045 | 5009030a | बहुधा मारुतस्तत्र गन्धं विविधमुद्वहन् | |
1046 | 5009030c | स्नानानां चन्दनानां च धूपानां चैव मूर्छितः | |
1047 | 5009030e | प्रववौ सुरभिर्गन्धो विमाने पुष्पके तदा | |
1048 | 5009031a | श्यामावदातास्तत्रान्याः काश्चित्कृष्णा वराङ्गनाः | |
1049 | 5009031c | काश्चित्काञ्चनवर्णाङ्ग्यः प्रमदा राक्षसालये | |
1050 | 5009032a | तासां निद्रावशत्वाच्च मदनेन विमूर्छितम् | |
1051 | 5009032c | पद्मिनीनां प्रसुप्तानां रूपमासीद्यथैव हि | |
1052 | 5009033a | एवं सर्वमशेषेण रावणान्तःपुरं कपिः | |
1053 | 5009033c | ददर्श सुमहातेजा न ददर्श च जानकीम् | |
1054 | 5009034a | निरीक्षमाणश्च ततस्ताः स्त्रियः स महाकपिः | |
1055 | 5009034c | जगाम महतीं चिन्तां धर्मसाध्वसशङ्कितः | |
1056 | 5009035a | परदारावरोधस्य प्रसुप्तस्य निरीक्षणम् | |
1057 | 5009035c | इदं खलु ममात्यर्थं धर्मलोपं करिष्यति | |
1058 | 5009036a | न हि मे परदाराणां दृष्टिर्विषयवर्तिनी | |
1059 | 5009036c | अयं चात्र मया दृष्टः परदारपरिग्रहः | |
1060 | 5009037a | तस्य प्रादुरभूच्चिन्तापुनरन्या मनस्विनः | |
1061 | 5009037c | निश्चितैकान्तचित्तस्य कार्यनिश्चयदर्शिनी | |
1062 | 5009038a | कामं दृष्ट्वा मया सर्वा विश्वस्ता रावणस्त्रियः | |
1063 | 5009038c | न तु मे मनसः किंचिद्वैकृत्यमुपपद्यते | |
1064 | 5009039a | मनो हि हेतुः सर्वेषामिन्द्रियाणां प्रवर्तते | |
1065 | 5009039c | शुभाशुभास्ववस्थासु तच्च मे सुव्यवस्थितम् | |
1066 | 5009040a | नान्यत्र हि मया शक्या वैदेही परिमार्गितुम् | |
1067 | 5009040c | स्त्रियो हि स्त्रीषु दृश्यन्ते सदा संपरिमार्गणे | |
1068 | 5009041a | यस्य सत्त्वस्य या योनिस्तस्यां तत्परिमार्ग्यते | |
1069 | 5009041c | न शक्यं प्रमदा नष्टा मृगीषु परिमार्गितुम् | |
1070 | 5009042a | तदिदं मार्गितं तावच्छुद्धेन मनसा मया | |
1071 | 5009042c | रावणान्तःपुरं सरं दृश्यते न च जानकी | |
1072 | 5009043a | देवगन्धर्वकन्याश्च नागकन्याश्च वीर्यवान् | |
1073 | 5009043c | अवेक्षमाणो हनुमान्नैवापश्यत जानकीम् | |
1074 | 5009044a | तामपश्यन्कपिस्तत्र पश्यंश्चान्या वरस्त्रियः | |
1075 | 5009044c | अपक्रम्य तदा वीरः प्रध्यातुमुपचक्रमे | |
1076 | 5010001a | स तस्य मध्ये भवनस्य वानरो; लतागृहांश्चित्रगृहान्निशागृहान् | |
1077 | 5010001c | जगाम सीतां प्रति दर्शनोत्सुको; न चैव तां पश्यति चारुदर्शनाम् | |
1078 | 5010002a | स चिन्तयामास ततो महाकपिः; प्रियामपश्यन्रघुनन्दनस्य ताम् | |
1079 | 5010002c | ध्रुवं नु सीता म्रियते यथा न मे; विचिन्वतो दर्शनमेति मैथिली | |
1080 | 5010003a | सा राक्षसानां प्रवरेण बाला; स्वशीलसंरक्षण तत्परा सती | |
1081 | 5010003c | अनेन नूनं प्रतिदुष्टकर्मणा; हता भवेदार्यपथे परे स्थिता | |
1082 | 5010004a | विरूपरूपा विकृता विवर्चसो; महानना दीर्घविरूपदर्शनाः | |
1083 | 5010004c | समीक्ष्य सा राक्षसराजयोषितो; भयाद्विनष्टा जनकेश्वरात्मजा | |
1084 | 5010005a | सीतामदृष्ट्वा ह्यनवाप्य पौरुषं; विहृत्य कालं सह वानरैश्चिरम् | |
1085 | 5010005c | न मेऽस्ति सुग्रीवसमीपगा गतिः; सुतीक्ष्णदण्डो बलवांश्च वानरः | |
1086 | 5010006a | दृष्टमन्तःपुरं सर्वं दृष्ट्वा रावणयोषितः | |
1087 | 5010006c | न सीता दृश्यते साध्वी वृथा जातो मम श्रमः | |
1088 | 5010007a | किं नु मां वानराः सर्वे गतं वक्ष्यन्ति संगताः | |
1089 | 5010007c | गत्वा तत्र त्वया वीर किं कृतं तद्वदस्व नः | |
1090 | 5010008a | अदृष्ट्वा किं प्रवक्ष्यामि तामहं जनकात्मजाम् | |
1091 | 5010008c | ध्रुवं प्रायमुपेष्यन्ति कालस्य व्यतिवर्तने | |
1092 | 5010009a | किं वा वक्ष्यति वृद्धश्च जाम्बवानङ्गदश्च सः | |
1093 | 5010009c | गतं पारं समुद्रस्य वानराश्च समागताः | |
1094 | 5010010a | अनिर्वेदः श्रियो मूलमनिर्वेदः परं सुखम् | |
1095 | 5010010c | भूयस्तावद्विचेष्यामि न यत्र विचयः कृतः | |
1096 | 5010011a | अनिर्वेदो हि सततं सर्वार्थेषु प्रवर्तकः | |
1097 | 5010011c | करोति सफलं जन्तोः कर्म यच्च करोति सः | |
1098 | 5010012a | तस्मादनिर्वेद कृतं यत्नं चेष्टेऽहमुत्तमम् | |
1099 | 5010012c | अदृष्टांश्च विचेष्यामि देशान्रावणपालितान् | |
1100 | 5010013a | आपानशालाविचितास्तथा पुष्पगृहाणि च | |
1101 | 5010013c | चित्रशालाश्च विचिता भूयः क्रीडागृहाणि च | |
1102 | 5010014a | निष्कुटान्तररथ्याश्च विमानानि च सर्वशः | |
1103 | 5010014c | इति संचिन्त्य भूयोऽपि विचेतुमुपचक्रमे | |
1104 | 5010015a | भूमीगृहांश्चैत्यगृहान्गृहातिगृहकानपि | |
1105 | 5010015c | उत्पतन्निपतंश्चापि तिष्ठन्गच्छन्पुनः क्वचित् | |
1106 | 5010016a | अपावृण्वंश्च द्वाराणि कपाटान्यवघट्टयन् | |
1107 | 5010016c | प्रविशन्निष्पतंश्चापि प्रपतन्नुत्पतन्नपि | |
1108 | 5010016e | सर्वमप्यवकाशं स विचचार महाकपिः | |
1109 | 5010017a | चतुरङ्गुलमात्रोऽपि नावकाशः स विद्यते | |
1110 | 5010017c | रावणान्तःपुरे तस्मिन्यं कपिर्न जगाम सः | |
1111 | 5010018a | प्राकरान्तररथ्याश्च वेदिकश्चैत्यसंश्रयाः | |
1112 | 5010018c | श्वभ्राश्च पुष्करिण्यश्च सर्वं तेनावलोकितम् | |
1113 | 5010019a | राक्षस्यो विविधाकारा विरूपा विकृतास्तथा | |
1114 | 5010019c | दृष्टा हनूमता तत्र न तु सा जनकात्मजा | |
1115 | 5010020a | रूपेणाप्रतिमा लोके वरा विद्याधर स्त्रियः | |
1116 | 5010020c | दृटा हनूमता तत्र न तु राघवनन्दिनी | |
1117 | 5010021a | नागकन्या वरारोहाः पूर्णचन्द्रनिभाननाः | |
1118 | 5010021c | दृष्टा हनूमता तत्र न तु सीता सुमध्यमा | |
1119 | 5010022a | प्रमथ्य राक्षसेन्द्रेण नागकन्या बलाद्धृताः | |
1120 | 5010022c | दृष्टा हनूमता तत्र न सा जनकनन्दिनी | |
1121 | 5010023a | सोऽपश्यंस्तां महाबाहुः पश्यंश्चान्या वरस्त्रियः | |
1122 | 5010023c | विषसाद महाबाहुर्हनूमान्मारुतात्मजः | |
1123 | 5010024a | उद्योगं वानरेन्द्राणं प्लवनं सागरस्य च | |
1124 | 5010024c | व्यर्थं वीक्ष्यानिलसुतश्चिन्तां पुनरुपागमत् | |
1125 | 5010025a | अवतीर्य विमानाच्च हनूमान्मारुतात्मजः | |
1126 | 5010025c | चिन्तामुपजगामाथ शोकोपहतचेतनः | |
1127 | 5011001a | विमानात्तु सुसंक्रम्य प्राकारं हरियूथपः | |
1128 | 5011001c | हनूमान्वेगवानासीद्यथा विद्युद्घनान्तरे | |
1129 | 5011002a | संपरिक्रम्य हनुमान्रावणस्य निवेशनान् | |
1130 | 5011002c | अदृष्ट्वा जानकीं सीतामब्रवीद्वचनं कपिः | |
1131 | 5011003a | भूयिष्ठं लोडिता लङ्का रामस्य चरता प्रियम् | |
1132 | 5011003c | न हि पश्यामि वैदेहीं सीतां सर्वाङ्गशोभनाम् | |
1133 | 5011004a | पल्वलानि तटाकानि सरांसि सरितस्तथा | |
1134 | 5011004c | नद्योऽनूपवनान्ताश्च दुर्गाश्च धरणीधराः | |
1135 | 5011004e | लोडिता वसुधा सर्वा न च पश्यामि जानकीम् | |
1136 | 5011005a | इह संपातिना सीता रावणस्य निवेशने | |
1137 | 5011005c | आख्याता गृध्रराजेन न च पश्यामि तामहम् | |
1138 | 5011006a | किं नु सीताथ वैदेही मैथिली जनकात्मजा | |
1139 | 5011006c | उपतिष्ठेत विवशा रावणं दुष्टचारिणम् | |
1140 | 5011007a | क्षिप्रमुत्पततो मन्ये सीतामादाय रक्षसः | |
1141 | 5011007c | बिभ्यतो रामबाणानामन्तरा पतिता भवेत् | |
1142 | 5011008a | अथ वा ह्रियमाणायाः पथि सिद्धनिषेविते | |
1143 | 5011008c | मन्ये पतितमार्याया हृदयं प्रेक्ष्य सागरम् | |
1144 | 5011009a | रावणस्योरुवेगेन भुजाभ्यां पीडितेन च | |
1145 | 5011009c | तया मन्ये विशालाक्ष्या त्यक्तं जीवितमार्यया | |
1146 | 5011010a | उपर्युपरि वा नूनं सागरं क्रमतस्तदा | |
1147 | 5011010c | विवेष्टमाना पतिता समुद्रे जनकात्मजा | |
1148 | 5011011a | आहो क्षुद्रेण चानेन रक्षन्ती शीलमात्मनः | |
1149 | 5011011c | अबन्धुर्भक्षिता सीता रावणेन तपस्विनी | |
1150 | 5011012a | अथ वा राक्षसेन्द्रस्य पत्नीभिरसितेक्षणा | |
1151 | 5011012c | अदुष्टा दुष्टभावाभिर्भक्षिता सा भविष्यति | |
1152 | 5011013a | संपूर्णचन्द्रप्रतिमं पद्मपत्रनिभेक्षणम् | |
1153 | 5011013c | रामस्य ध्यायती वक्त्रं पञ्चत्वं कृपणा गता | |
1154 | 5011014a | हा राम लक्ष्मणेत्येव हायोध्येति च मैथिली | |
1155 | 5011014c | विलप्य बहु वैदेही न्यस्तदेहा भविष्यति | |
1156 | 5011015a | अथ वा निहिता मन्ये रावणस्य निवेशने | |
1157 | 5011015c | नूनं लालप्यते मन्दं पञ्जरस्थेव शारिका | |
1158 | 5011016a | जनकस्य कुले जाता रामपत्नी सुमध्यमा | |
1159 | 5011016c | कथमुत्पलपत्राक्षी रावणस्य वशं व्रजेत् | |
1160 | 5011017a | विनष्टा वा प्रनष्टा वा मृता वा जनकात्मजा | |
1161 | 5011017c | रामस्य प्रियभार्यस्य न निवेदयितुं क्षमम् | |
1162 | 5011018a | निवेद्यमाने दोषः स्याद्दोषः स्यादनिवेदने | |
1163 | 5011018c | कथं नु खलु कर्तव्यं विषमं प्रतिभाति मे | |
1164 | 5011019a | अस्मिन्नेवंगते कर्ये प्राप्तकालं क्षमं च किम् | |
1165 | 5011019c | भवेदिति मतिं भूयो हनुमान्प्रविचारयन् | |
1166 | 5011020a | यदि सीतामदृष्ट्वाहं वानरेन्द्रपुरीमितः | |
1167 | 5011020c | गमिष्यामि ततः को मे पुरुषार्थो भविष्यति | |
1168 | 5011021a | ममेदं लङ्घनं व्यर्थं सागरस्य भविष्यति | |
1169 | 5011021c | प्रवेशश्चिव लङ्काया राक्षसानां च दर्शनम् | |
1170 | 5011022a | किं वा वक्ष्यति सुग्रीवो हरयो व समागताः | |
1171 | 5011022c | किष्किन्धां समनुप्राप्तौ तौ वा दशरथात्मजौ | |
1172 | 5011023a | गत्वा तु यदि काकुत्स्थं वक्ष्यामि परमप्रियम् | |
1173 | 5011023c | न दृष्टेति मया सीता ततस्त्यक्ष्यन्ति जीवितम् | |
1174 | 5011024a | परुषं दारुणं क्रूरं तीक्ष्णमिन्द्रियतापनम् | |
1175 | 5011024c | सीतानिमित्तं दुर्वाक्यं श्रुत्वा स न भविष्यति | |
1176 | 5011025a | तं तु कृच्छ्रगतं दृष्ट्वा पञ्चत्वगतमानसं | |
1177 | 5011025c | भृशानुरक्तो मेधावी न भविष्यति लक्ष्मणः | |
1178 | 5011026a | विनष्टौ भ्रातरौ श्रुत्वा भरतोऽपि मरिष्यति | |
1179 | 5011026c | भरतं च मृतं दृष्ट्वा शत्रुघ्नो न भविष्यति | |
1180 | 5011027a | पुत्रान्मृतान्समीक्ष्याथ न भविष्यन्ति मातरः | |
1181 | 5011027c | कौसल्या च सुमित्रा च कैकेयी च न संशयः | |
1182 | 5011028a | कृतज्ञः सत्यसंधश्च सुग्रीवः प्लवगाधिपः | |
1183 | 5011028c | रामं तथा गतं दृष्ट्वा ततस्त्यक्ष्यन्ति जीवितम् | |
1184 | 5011029a | दुर्मना व्यथिता दीना निरानन्दा तपस्विनी | |
1185 | 5011029c | पीडिता भर्तृशोकेन रुमा त्यक्ष्यति जीवितम् | |
1186 | 5011030a | वालिजेन तु दुःखेन पीडिता शोककर्शिता | |
1187 | 5011030c | पञ्चत्वगमने राज्ञस्तारापि न भविष्यति | |
1188 | 5011031a | मातापित्रोर्विनाशेन सुग्रीव व्यसनेन च | |
1189 | 5011031c | कुमारोऽप्यङ्गदः कस्माद्धारयिष्यति जीवितम् | |
1190 | 5011032a | भर्तृजेन तु शोकेन अभिभूता वनौकसः | |
1191 | 5011032c | शिरांस्यभिहनिष्यन्ति तलैर्मुष्टिभिरेव च | |
1192 | 5011033a | सान्त्वेनानुप्रदानेन मानेन च यशस्विना | |
1193 | 5011033c | लालिताः कपिराजेन प्राणांस्त्यक्ष्यन्ति वानराः | |
1194 | 5011034a | न वनेषु न शैलेषु न निरोधेषु वा पुनः | |
1195 | 5011034c | क्रीडामनुभविष्यन्ति समेत्य कपिकुञ्जराः | |
1196 | 5011035a | सपुत्रदाराः सामात्या भर्तृव्यसनपीडिताः | |
1197 | 5011035c | शैलाग्रेभ्यः पतिष्यन्ति समेत्य विषमेषु च | |
1198 | 5011036a | विषमुद्बन्धनं वापि प्रवेशं ज्वलनस्य वा | |
1199 | 5011036c | उपवासमथो शस्त्रं प्रचरिष्यन्ति वानराः | |
1200 | 5011037a | घोरमारोदनं मन्ये गते मयि भविष्यति | |
1201 | 5011037c | इक्ष्वाकुकुलनाशश्च नाशश्चैव वनौकसाम् | |
1202 | 5011038a | सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्किन्धां नगरीमितः | |
1203 | 5011038c | न हि शक्ष्याम्यहं द्रष्टुं सुग्रीवं मैथिलीं विना | |
1204 | 5011039a | मय्यगच्छति चेहस्थे धर्मात्मानौ महारथौ | |
1205 | 5011039c | आशया तौ धरिष्येते वनराश्च मनस्विनः | |
1206 | 5011040a | हस्तादानो मुखादानो नियतो वृक्षमूलिकः | |
1207 | 5011040c | वानप्रस्थो भविष्यामि अदृष्ट्वा जनकात्मजाम् | |
1208 | 5011041a | सागरानूपजे देशे बहुमूलफलोदके | |
1209 | 5011041c | चितां कृत्वा प्रवेक्ष्यामि समिद्धमरणीसुतम् | |
1210 | 5011042a | उपविष्टस्य वा सम्यग्लिङ्गिनं साधयिष्यतः | |
1211 | 5011042c | शरीरं भक्षयिष्यन्ति वायसाः श्वापदानि च | |
1212 | 5011043a | इदमप्यृषिभिर्दृष्टं निर्याणमिति मे मतिः | |
1213 | 5011043c | सम्यगापः प्रवेक्ष्यामि न चेत्पश्यामि जानकीम् | |
1214 | 5011044a | सुजातमूला सुभगा कीर्तिमालायशस्विनी | |
1215 | 5011044c | प्रभग्ना चिररात्रीयं मम सीतामपश्यतः | |
1216 | 5011045a | तापसो वा भविष्यामि नियतो वृक्षमूलिकः | |
1217 | 5011045c | नेतः प्रतिगमिष्यामि तामदृष्ट्वासितेक्षणाम् | |
1218 | 5011046a | यदीतः प्रतिगच्छामि सीतामनधिगम्य ताम् | |
1219 | 5011046c | अङ्गदः सहितैः सर्वैर्वानरैर्न भविष्यति | |
1220 | 5011047a | विनाशे बहवो दोषा जीवन्प्राप्नोति भद्रकम् | |
1221 | 5011047c | तस्मात्प्राणान्धरिष्यामि ध्रुवो जीवति संगमः | |
1222 | 5011048a | एवं बहुविधं दुःखं मनसा धारयन्मुहुः | |
1223 | 5011048c | नाध्यगच्छत्तदा पारं शोकस्य कपिकुञ्जरः | |
1224 | 5011049a | रावणं वा वधिष्यामि दशग्रीवं महाबलम् | |
1225 | 5011049c | काममस्तु हृता सीता प्रत्याचीर्णं भविष्यति | |
1226 | 5011050a | अथवैनं समुत्क्षिप्य उपर्युपरि सागरम् | |
1227 | 5011050c | रामायोपहरिष्यामि पशुं पशुपतेरिव | |
1228 | 5011051a | इति चिन्ता समापन्नः सीतामनधिगम्य ताम् | |
1229 | 5011051c | ध्यानशोका परीतात्मा चिन्तयामास वानरः | |
1230 | 5011052a | यावत्सीतां न पश्यामि रामपत्नीं यशस्विनीम् | |
1231 | 5011052c | तावदेतां पुरीं लङ्कां विचिनोमि पुनः पुनः | |
1232 | 5011053a | संपाति वचनाच्चापि रामं यद्यानयाम्यहम् | |
1233 | 5011053c | अपश्यन्राघवो भार्यां निर्दहेत्सर्ववानरान् | |
1234 | 5011054a | इहैव नियताहारो वत्स्यामि नियतेन्द्रियः | |
1235 | 5011054c | न मत्कृते विनश्येयुः सर्वे ते नरवानराः | |
1236 | 5011055a | अशोकवनिका चापि महतीयं महाद्रुमा | |
1237 | 5011055c | इमामभिगमिष्यामि न हीयं विचिता मया | |
1238 | 5011056a | वसून्रुद्रांस्तथादित्यानश्विनौ मरुतोऽपि च | |
1239 | 5011056c | नमस्कृत्वा गमिष्यामि रक्षसां शोकवर्धनः | |
1240 | 5011057a | जित्वा तु राक्षसान्देवीमिक्ष्वाकुकुलनन्दिनीम् | |
1241 | 5011057c | संप्रदास्यामि रामाया यथासिद्धिं तपस्विने | |
1242 | 5011058a | स मुहूर्तमिव ध्यात्वा चिन्ताविग्रथितेन्द्रियः | |
1243 | 5011058c | उदतिष्ठन्महाबाहुर्हनूमान्मारुतात्मजः | |
1244 | 5011059a | नमोऽस्तु रामाय सलक्ष्मणाय; देव्यै च तस्यै जनकात्मजायै | |
1245 | 5011059c | नमोऽस्तु रुद्रेन्द्रयमानिलेभ्यो; नमोऽस्तु चन्द्रार्कमरुद्गणेभ्यः | |
1246 | 5011060a | स तेभ्यस्तु नमस्कृत्वा सुग्रीवाय च मारुतिः | |
1247 | 5011060c | दिशः सर्वाः समालोक्य अशोकवनिकां प्रति | |
1248 | 5011061a | स गत्वा मनसा पूर्वमशोकवनिकां शुभाम् | |
1249 | 5011061c | उत्तरं चिन्तयामास वानरो मारुतात्मजः | |
1250 | 5011062a | ध्रुवं तु रक्षोबहुला भविष्यति वनाकुला | |
1251 | 5011062c | अशोकवनिका चिन्त्या सर्वसंस्कारसंस्कृता | |
1252 | 5011063a | रक्षिणश्चात्र विहिता नूनं रक्षन्ति पादपान् | |
1253 | 5011063c | भगवानपि सर्वात्मा नातिक्षोभं प्रवायति | |
1254 | 5011064a | संक्षिप्तोऽयं मयात्मा च रामार्थे रावणस्य च | |
1255 | 5011064c | सिद्धिं मे संविधास्यन्ति देवाः सर्षिगणास्त्विह | |
1256 | 5011065a | ब्रह्मा स्वयम्भूर्भगवान्देवाश्चैव दिशन्तु मे | |
1257 | 5011065c | सिद्धिमग्निश्च वायुश्च पुरुहूतश्च वज्रधृत् | |
1258 | 5011066a | वरुणः पाशहस्तश्च सोमादित्यै तथैव च | |
1259 | 5011066c | अश्विनौ च महात्मानौ मरुतः सर्व एव च | |
1260 | 5011067a | सिद्धिं सर्वाणि भूतानि भूतानां चैव यः प्रभुः | |
1261 | 5011067c | दास्यन्ति मम ये चान्ये अदृष्टाः पथि गोचराः | |
1262 | 5011068a | तदुन्नसं पाण्डुरदन्तमव्रणं; शुचिस्मितं पद्मपलाशलोचनम् | |
1263 | 5011068c | द्रक्ष्ये तदार्यावदनं कदा न्वहं; प्रसन्नताराधिपतुल्यदर्शनम् | |
1264 | 5011069a | क्षुद्रेण पापेन नृशंसकर्मणा; सुदारुणालांकृतवेषधारिणा | |
1265 | 5011069c | बलाभिभूता अबला तपस्विनी; कथं नु मे दृष्टपथेऽद्य सा भवेत् | |
1266 | 5012001a | स मुहूर्तमिव ध्यत्वा मनसा चाधिगम्य ताम् | |
1267 | 5012001c | अवप्लुतो महातेजाः प्राकारं तस्य वेश्मनः | |
1268 | 5012002a | स तु संहृष्टसर्वाङ्गः प्राकारस्थो महाकपिः | |
1269 | 5012002c | पुष्पिताग्रान्वसन्तादौ ददर्श विविधान्द्रुमान् | |
1270 | 5012003a | सालानशोकान्भव्यांश्च चम्पकांश्च सुपुष्पितान् | |
1271 | 5012003c | उद्दालकान्नागवृक्षांश्चूतान्कपिमुखानपि | |
1272 | 5012004a | अथाम्रवणसंछन्नां लताशतसमावृताम् | |
1273 | 5012004c | ज्यामुक्त इव नाराचः पुप्लुवे वृक्षवाटिकाम् | |
1274 | 5012005a | स प्रविष्य विचित्रां तां विहगैरभिनादिताम् | |
1275 | 5012005c | राजतैः काञ्चनैश्चैव पादपैः सर्वतोवृताम् | |
1276 | 5012006a | विहगैर्मृगसंघैश्च विचित्रां चित्रकाननाम् | |
1277 | 5012006c | उदितादित्यसंकाशां ददर्श हनुमान्कपिः | |
1278 | 5012007a | वृतां नानाविधैर्वृक्षैः पुष्पोपगफलोपगैः | |
1279 | 5012007c | कोकिलैर्भृङ्गराजैश्च मत्तैर्नित्यनिषेविताम् | |
1280 | 5012008a | प्रहृष्टमनुजे कले मृगपक्षिसमाकुले | |
1281 | 5012008c | मत्तबर्हिणसंघुष्टां नानाद्विजगणायुताम् | |
1282 | 5012009a | मार्गमाणो वरारोहां राजपुत्रीमनिन्दिताम् | |
1283 | 5012009c | सुखप्रसुप्तान्विहगान्बोधयामास वानरः | |
1284 | 5012010a | उत्पतद्भिर्द्विजगणैः पक्षैः सालाः समाहताः | |
1285 | 5012010c | अनेकवर्णा विविधा मुमुचुः पुष्पवृष्टयः | |
1286 | 5012011a | पुष्पावकीर्णः शुशुभे हनुमान्मारुतात्मजः | |
1287 | 5012011c | अशोकवनिकामध्ये यथा पुष्पमयो गिरिः | |
1288 | 5012012a | दिशः सर्वाभिदावन्तं वृक्षषण्डगतं कपिम् | |
1289 | 5012012c | दृष्ट्वा सर्वाणि भूतानि वसन्त इति मेनिरे | |
1290 | 5012013a | वृक्षेभ्यः पतितैः पुष्पैरवकीर्णा पृथग्विधैः | |
1291 | 5012013c | रराज वसुधा तत्र प्रमदेव विभूषिता | |
1292 | 5012014a | तरस्विना ते तरवस्तरसाभिप्रकम्पिताः | |
1293 | 5012014c | कुसुमानि विचित्राणि ससृजुः कपिना तदा | |
1294 | 5012015a | निर्धूतपत्रशिखराः शीर्णपुष्पफलद्रुमाः | |
1295 | 5012015c | निक्षिप्तवस्त्राभरणा धूर्ता इव पराजिताः | |
1296 | 5012016a | हनूमता वेगवता कम्पितास्ते नगोत्तमाः | |
1297 | 5012016c | पुष्पपर्णफलान्याशु मुमुचुः पुष्पशालिनः | |
1298 | 5012017a | विहंगसंघैर्हीनास्ते स्कन्धमात्राश्रया द्रुमाः | |
1299 | 5012017c | बभूवुरगमाः सर्वे मारुतेनेव निर्धुताः | |
1300 | 5012018a | विधूतकेशी युवतिर्यथा मृदितवर्णिका | |
1301 | 5012018c | निष्पीतशुभदन्तौष्ठी नखैर्दन्तैश्च विक्षता | |
1302 | 5012019a | तथा लाङ्गूलहस्तैश्च चरणाभ्यां च मर्दिता | |
1303 | 5012019c | बभूवाशोकवनिका प्रभग्नवरपादपा | |
1304 | 5012020a | महालतानां दामानि व्यधमत्तरसा कपिः | |
1305 | 5012020c | यथा प्रावृषि विन्ध्यस्य मेघजालानि मारुतः | |
1306 | 5012021a | स तत्र मणिभूमीश्च राजतीश्च मनोरमाः | |
1307 | 5012021c | तथा काञ्चनभूमीश्च विचरन्ददृशे कपिः | |
1308 | 5012022a | वापीश्च विविधाकाराः पूर्णाः परमवारिणा | |
1309 | 5012022c | महार्हैर्मणिसोपानैरुपपन्नास्ततस्ततः | |
1310 | 5012023a | मुक्ताप्रवालसिकता स्फटिकान्तरकुट्टिमाः | |
1311 | 5012023c | काञ्चनैस्तरुभिश्चित्रैस्तीरजैरुपशोभिताः | |
1312 | 5012024a | फुल्लपद्मोत्पलवनाश्चक्रवाकोपकूजिताः | |
1313 | 5012024c | नत्यूहरुतसंघुष्टा हंससारसनादिताः | |
1314 | 5012025a | दीर्घाभिर्द्रुमयुक्ताभिः सरिद्भिश्च समन्ततः | |
1315 | 5012025c | अमृतोपमतोयाभिः शिवाभिरुपसंस्कृताः | |
1316 | 5012026a | लताशतैरवतताः सन्तानकसमावृताः | |
1317 | 5012026c | नानागुल्मावृतवनाः करवीरकृतान्तराः | |
1318 | 5012027a | ततोऽम्बुधरसंकाशं प्रवृद्धशिखरं गिरिम् | |
1319 | 5012027c | विचित्रकूटं कूटैश्च सर्वतः परिवारितम् | |
1320 | 5012028a | शिलागृहैरवततं नानावृक्षैः समावृतम् | |
1321 | 5012028c | ददर्श कपिशार्दूलो रम्यं जगति पर्वतम् | |
1322 | 5012029a | ददर्श च नगात्तस्मान्नदीं निपतितां कपिः | |
1323 | 5012029c | अङ्कादिव समुत्पत्य प्रियस्य पतितां प्रियाम् | |
1324 | 5012030a | जले निपतिताग्रैश्च पादपैरुपशोभिताम् | |
1325 | 5012030c | वार्यमाणामिव क्रुद्धां प्रमदां प्रियबन्धुभिः | |
1326 | 5012031a | पुनरावृत्ततोयां च ददर्श स महाकपिः | |
1327 | 5012031c | प्रसन्नामिव कान्तस्य कान्तां पुनरुपस्थिताम् | |
1328 | 5012032a | तस्यादूरात्स पद्मिन्यो नानाद्विजगणायुताः | |
1329 | 5012032c | ददर्श कपिशार्दूलो हनुमान्मारुतात्मजः | |
1330 | 5012033a | कृत्रिमां दीर्घिकां चापि पूर्णां शीतेन वारिणा | |
1331 | 5012033c | मणिप्रवरसोपानां मुक्तासिकतशोभिताम् | |
1332 | 5012034a | विविधैर्मृगसंघैश्च विचित्रां चित्रकाननाम् | |
1333 | 5012034c | प्रासादैः सुमहद्भिश्च निर्मितैर्विश्वकर्मणा | |
1334 | 5012034e | काननैः कृत्रिमैश्चापि सर्वतः समलंकृताम् | |
1335 | 5012035a | ये केचित्पादपास्तत्र पुष्पोपगफलोपगाः | |
1336 | 5012035c | सच्छत्राः सवितर्दीकाः सर्वे सौवर्णवेदिकाः | |
1337 | 5012036a | लताप्रतानैर्बहुभिः पर्णैश्च बहुभिर्वृताम् | |
1338 | 5012036c | काञ्चनीं शिंशुपामेकां ददर्श स महाकपिः | |
1339 | 5012037a | सोऽपश्यद्भूमिभागांश्च गर्तप्रस्रवणानि च | |
1340 | 5012037c | सुवर्णवृक्षानपरान्ददर्श शिखिसंनिभान् | |
1341 | 5012038a | तेषां द्रुमाणां प्रभया मेरोरिव महाकपिः | |
1342 | 5012038c | अमन्यत तदा वीरः काञ्चनोऽस्मीति वानरः | |
1343 | 5012039a | तां काञ्चनैस्तरुगणैर्मारुतेन च वीजिताम् | |
1344 | 5012039c | किङ्किणीशतनिर्घोषां दृष्ट्वा विस्मयमागमत् | |
1345 | 5012040a | सुपुष्पिताग्रां रुचिरां तरुणाङ्कुरपल्लवाम् | |
1346 | 5012040c | तामारुह्य महावेगः शिंशपां पर्णसंवृताम् | |
1347 | 5012041a | इतो द्रक्ष्यामि वैदेहीं राम दर्शनलालसाम् | |
1348 | 5012041c | इतश्चेतश्च दुःखार्तां संपतन्तीं यदृच्छया | |
1349 | 5012042a | अशोकवनिका चेयं दृढं रम्या दुरात्मनः | |
1350 | 5012042c | चम्पकैश्चन्दनैश्चापि बकुलैश्च विभूषिता | |
1351 | 5012043a | इयं च नलिनी रम्या द्विजसंघनिषेविता | |
1352 | 5012043c | इमां सा राममहिषी नूनमेष्यति जानकी | |
1353 | 5012044a | सा राम राममहिषी राघवस्य प्रिया सदा | |
1354 | 5012044c | वनसंचारकुशला नूनमेष्यति जानकी | |
1355 | 5012045a | अथ वा मृगशावाक्षी वनस्यास्य विचक्षणा | |
1356 | 5012045c | वनमेष्यति सा चेह रामचिन्तानुकर्शिता | |
1357 | 5012046a | रामशोकाभिसंतप्ता सा देवी वामलोचना | |
1358 | 5012046c | वनवासरता नित्यमेष्यते वनचारिणी | |
1359 | 5012047a | वनेचराणां सततं नूनं स्पृहयते पुरा | |
1360 | 5012047c | रामस्य दयिता भार्या जनकस्य सुता सती | |
1361 | 5012048a | संध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी | |
1362 | 5012048c | नदीं चेमां शिवजलां संध्यार्थे वरवर्णिनी | |
1363 | 5012049a | तस्याश्चाप्यनुरूपेयमशोकवनिका शुभा | |
1364 | 5012049c | शुभा या पार्थिवेन्द्रस्य पत्नी रामस्य संमिता | |
1365 | 5012050a | यदि जिवति सा देवी ताराधिपनिभानना | |
1366 | 5012050c | आगमिष्यति सावश्यमिमां शिवजलां नदीम् | |
1367 | 5012051a | एवं तु मत्वा हनुमान्महात्मा; प्रतीक्षमाणो मनुजेन्द्रपत्नीम् | |
1368 | 5012051c | अवेक्षमाणश्च ददर्श सर्वं; सुपुष्पिते पर्णघने निलीनः | |
1369 | 5013001a | स वीक्षमाणस्तत्रस्थो मार्गमाणश्च मैथिलीम् | मूल |
1370 | 5013001c | अवेक्षमाणश्च महीं सर्वां तामन्ववैक्षत | मूल |
1371 | 5013002a | सन्तान कलताभिश्च पादपैरुपशोभिताम् | मूल |
1372 | 5013002c | दिव्यगन्धरसोपेतां सर्वतः समलंकृताम् | मूल |
1373 | 5013003a | तां स नन्दनसंकाशां मृगपक्षिभिरावृताम् | मूल |
1374 | 5013003c | हर्म्यप्रासादसंबाधां कोकिलाकुलनिःस्वनाम् | मूल |
1375 | 5013004a | काञ्चनोत्पलपद्माभिर्वापीभिरुपशोभिताम् | मूल |
1376 | 5013004c | बह्वासनकुथोपेतां बहुभूमिगृहायुताम् | मूल |
1377 | 5013005a | सर्वर्तुकुसुमै रम्यैः फलवद्भिश्च पादपैः | मूल |
1378 | 5013005c | पुष्पितानामशोकानां श्रिया सूर्योदयप्रभाम् | मूल |
1379 | 5013006a | प्रदीप्तामिव तत्रस्थो मारुतिः समुदैक्षत | मूल |
1380 | 5013006c | निष्पत्रशाखां विहगैः क्रियमाणामिवासकृत् | मूल |
1381 | 5013006e | विनिष्पतद्भिः शतशश्चित्रैः पुष्पावतंसकैः | मूल |
1382 | 5013007a | आमूलपुष्पनिचितैरशोकैः शोकनाशनैः | मूल |
1383 | 5013007c | पुष्पभारातिभारैश्च स्पृशद्भिरिव मेदिनीम् | मूल |
1384 | 5013008a | कर्णिकारैः कुसुमितैः किंशुकैश्च सुपुष्पितैः | मूल |
1385 | 5013008c | स देशः प्रभया तेषां प्रदीप्त इव सर्वतः | मूल |
1386 | 5013009a | पुंनागाः सप्तपर्णाश्च चम्पकोद्दालकास्तथा | मूल |
1387 | 5013009c | विवृद्धमूला बहवः शोभन्ते स्म सुपुष्पिताः | मूल |
1388 | 5013010a | शातकुम्भनिभाः केचित्केचिदग्निशिखोपमाः | मूल |
1389 | 5013010c | नीलाञ्जननिभाः केचित्तत्राशोकाः सहस्रशः | मूल |
1390 | 5013011a | नन्दनं विविधोद्यानं चित्रं चैत्ररथं यथा | मूल |
1391 | 5013011c | अतिवृत्तमिवाचिन्त्यं दिव्यं रम्यं श्रिया वृतम् | मूल |
1392 | 5013012a | द्वितीयमिव चाकाशं पुष्पज्योतिर्गणायुतम् | मूल |
1393 | 5013012c | पुष्परत्नशतैश्चित्रं पञ्चमं सागरं यथा | मूल |
1394 | 5013013a | सर्वर्तुपुष्पैर्निचितं पादपैर्मधुगन्धिभिः | मूल |
1395 | 5013013c | नानानिनादैरुद्यानं रम्यं मृगगणैर्द्विजैः | मूल |
1396 | 5013014a | अनेकगन्धप्रवहं पुण्यगन्धं मनोरमम् | मूल |
1397 | 5013014c | शैलेन्द्रमिव गन्धाढ्यं द्वितीयं गन्धमादनम् | मूल |
1398 | 5013015a | अशोकवनिकायां तु तस्यां वानरपुंगवः | मूल |
1399 | 5013015c | स ददर्शाविदूरस्थं चैत्यप्रासादमूर्जितम् | मूल |
1400 | 5013016a | मध्ये स्तम्भसहस्रेण स्थितं कैलासपाण्डुरम् | मूल |
1401 | 5013016c | प्रवालकृतसोपानं तप्तकाञ्चनवेदिकम् | मूल |
1402 | 5013017a | मुष्णन्तमिव चक्षूंषि द्योतमानमिव श्रिया | मूल |
1403 | 5013017c | विमलं प्रांशुभावत्वादुल्लिखन्तमिवाम्बरम् | मूल |
1404 | 5013018a | ततो मलिनसंवीतां राक्षसीभिः समावृताम् | मूल |
1405 | 5013018c | उपवासकृशां दीनां निःश्वसान्तीं पुनः पुनः | मूल |
1406 | 5013018e | ददर्श शुक्लपक्षादौ चन्द्ररेखामिवामलाम् | मूल |
1407 | 5013019a | मन्दप्रख्यायमानेन रूपेण रुचिरप्रभाम् | मूल |
1408 | 5013019c | पिनद्धां धूमजालेन शिखामिव विभावसोः | मूल |
1409 | 5013020a | पीतेनैकेन संवीतां क्लिष्टेनोत्तमवाससा | मूल |
1410 | 5013020c | सपङ्कामनलंकारां विपद्मामिव पद्मिनीम् | मूल |
1411 | 5013021a | व्रीडितां दुःखसंतप्तां परिम्लानां तपस्विनीम् | मूल |
1412 | 5013021c | ग्रहेणाङ्गारकेणैव पीडितामिव रोहिणीम् | मूल |
1413 | 5013022a | अश्रुपूर्णमुखीं दीनां कृशामननशेन च | मूल |
1414 | 5013022c | शोकध्यानपरां दीनां नित्यं दुःखपरायणाम् | मूल |
1415 | 5013023a | प्रियं जनमपश्यन्तीं पश्यन्तीं राक्षसीगणम् | मूल |
1416 | 5013023c | स्वगणेन मृगीं हीनां श्वगणाभिवृतामिव | मूल |
1417 | 5013024a | नीलनागाभया वेण्या जघनं गतयैकया | मूल |
1418 | 5013024c | सुखार्हां दुःखसंतप्तां व्यसनानामकोदिवाम् | मूल |
1419 | 5013025a | तां समीक्ष्य विशालाक्षीमधिकं मलिनां कृशाम् | मूल |
1420 | 5013025c | तर्कयामास सीतेति कारणैरुपपादिभिः | मूल |
1421 | 5013026a | ह्रियमाणा तदा तेन रक्षसा कामरूपिणा | मूल |
1422 | 5013026c | यथारूपा हि दृष्टा वै तथारूपेयमङ्गना | मूल |
1423 | 5013027a | पूर्णचन्द्राननां सुभ्रूं चारुवृत्तपयोधराम् | मूल |
1424 | 5013027c | कुर्वन्तीं प्रभया देवीं सर्वा वितिमिरा दिशः | मूल |
1425 | 5013028a | तां नीलकेशीं बिम्बौष्ठीं सुमध्यां सुप्रतिष्ठिताम् | मूल |
1426 | 5013028c | सीतां पद्मपलाशाक्षीं मन्मथस्य रतिं यथा | मूल |
1427 | 5013029a | इष्टां सर्वस्य जगतः पूर्णचन्द्रप्रभामिव | मूल |
1428 | 5013029c | भूमौ सुतनुमासीनां नियतामिव तापसीम् | मूल |
1429 | 5013030a | निःश्वासबहुलां भीरुं भुजगेन्द्रवधूमिव | मूल |
1430 | 5013030c | शोकजालेन महता विततेन न राजतीम् | मूल |
1431 | 5013031a | संसक्तां धूमजालेन शिखामिव विभावसोः | मूल |
1432 | 5013031c | तां स्मृतीमिव संदिघ्दामृद्धिं निपतितामिव | मूल |
1433 | 5013032a | विहतामिव च श्रद्धामाशां प्रतिहतामिव | मूल |
1434 | 5013032c | सोपसर्गां यथा सिद्धिं बुद्धिं सकलुषामिव | मूल |
1435 | 5013033a | अभूतेनापवादेन कीर्तिं निपतितामिव | मूल |
1436 | 5013033c | रामोपरोधव्यथितां रक्षोहरणकर्शिताम् | मूल |
1437 | 5013034a | अबलां मृगशावाक्षीं वीक्षमाणां ततस्ततः | मूल |
1438 | 5013034c | बाष्पाम्बुप्रतिपूर्णेन कृष्णवक्त्राक्षिपक्ष्मणा | मूल |
1439 | 5013034e | वदनेनाप्रसन्नेन निःश्वसन्तीं पुनः पुनः | मूल |
1440 | 5013035a | मलपङ्कधरां दीनां मण्डनार्हाममण्डिताम् | मूल |
1441 | 5013035c | प्रभां नक्षत्रराजस्य कालमेघैरिवावृताम् | मूल |
1442 | 5013036a | तस्य संदिदिहे बुद्धिर्मुहुः सीतां निरीक्ष्य तु | मूल |
1443 | 5013036c | आम्नायानामयोगेन विद्यां प्रशिथिलामिव | मूल |
1444 | 5013037a | दुःखेन बुबुधे सीतां हनुमाननलंकृताम् | मूल |
1445 | 5013037c | संस्कारेण यथाहीनां वाचमर्थान्तरं गताम् | मूल |
1446 | 5013038a | तां समीक्ष्य विशालाक्षीं राजपुत्रीमनिन्दिताम् | मूल |
1447 | 5013038c | तर्कयामास सीतेति कारणैरुपपादयन् | मूल |
1448 | 5013039a | वैदेह्या यानि चाङ्गेषु तदा रामोऽन्वकीर्तयत् | मूल |
1449 | 5013039c | तान्याभरणजालानि गात्रशोभीन्यलक्षयत् | मूल |
1450 | 5013040a | सुकृतौ कर्णवेष्टौ च श्वदंष्ट्रौ च सुसंस्थितौ | मूल |
1451 | 5013040c | मणिविद्रुमचित्राणि हस्तेष्वाभरणानि च | मूल |
1452 | 5013041a | श्यामानि चिरयुक्तत्वात्तथा संस्थानवन्ति च | मूल |
1453 | 5013041c | तान्येवैतानि मन्येऽहं यानि रामोऽव्नकीर्तयत् | मूल |
1454 | 5013042a | तत्र यान्यवहीनानि तान्यहं नोपलक्षये | मूल |
1455 | 5013042c | यान्यस्या नावहीनानि तानीमानि न संशयः | मूल |
1456 | 5013043a | पीतं कनकपट्टाभं स्रस्तं तद्वसनं शुभम् | मूल |
1457 | 5013043c | उत्तरीयं नगासक्तं तदा दृष्टं प्लवंगमैः | मूल |
1458 | 5013044a | भूषणानि च मुख्यानि दृष्टानि धरणीतले | मूल |
1459 | 5013044c | अनयैवापविद्धानि स्वनवन्ति महान्ति च | मूल |
1460 | 5013045a | इदं चिरगृहीतत्वाद्वसनं क्लिष्टवत्तरम् | मूल |
1461 | 5013045c | तथा हि नूनं तद्वर्णं तथा श्रीमद्यथेतरत् | मूल |
1462 | 5013046a | इयं कनकवर्णाङ्गी रामस्य महिषी प्रिया | मूल |
1463 | 5013046c | प्रनष्टापि सती यस्य मनसो न प्रणश्यति | मूल |
1464 | 5013047a | इयं सा यत्कृते रामश्चतुर्भिः परितप्यते | मूल |
1465 | 5013047c | कारुण्येनानृशंस्येन शोकेन मदनेन च | मूल |
1466 | 5013048a | स्त्री प्रनष्टेति कारुण्यादाश्रितेत्यानृशंस्यतः | मूल |
1467 | 5013048c | पत्नी नष्टेति शोकेन प्रियेति मदनेन च | मूल |
1468 | 5013049a | अस्या देव्या यथा रूपमङ्गप्रत्यङ्गसौष्ठवम् | मूल |
1469 | 5013049c | रामस्य च यथारूपं तस्येयमसितेक्षणा | मूल |
1470 | 5013050a | अस्या देव्या मनस्तस्मिंस्तस्य चास्यां प्रतिष्ठितम् | मूल |
1471 | 5013050c | तेनेयं स च धर्मात्मा मुहूर्तमपि जीवति | मूल |
1472 | 5013051a | दुष्करं कुरुते रामो य इमां मत्तकाशिनीम् | मूल |
1473 | 5013051c | सीतां विना महाबाहुर्मुहूर्तमपि जीवति | मूल |
1474 | 5013052a | एवं सीतां तदा दृष्ट्वा हृष्टः पवनसंभवः | मूल |
1475 | 5013052c | जगाम मनसा रामं प्रशशंस च तं प्रभुम् | मूल |
1476 | 5014001a | प्रशस्य तु प्रशस्तव्यां सीतां तां हरिपुंगवः | मूल |
1477 | 5014001c | गुणाभिरामं रामं च पुनश्चिन्तापरोऽभवत् | मूल |
1478 | 5014002a | स मुहूर्तमिव ध्यात्वा बाष्पपर्याकुलेक्षणः | मूल |
1479 | 5014002c | सीतामाश्रित्य तेजस्वी हनुमान्विललाप ह | मूल |
1480 | 5014003a | मान्या गुरुविनीतस्य लक्ष्मणस्य गुरुप्रिया | मूल |
1481 | 5014003c | यदि सीतापि दुःखार्ता कालो हि दुरतिक्रमः | मूल |
1482 | 5014004a | रामस्य व्यवसायज्ञा लक्ष्मणस्य च धीमतः | मूल |
1483 | 5014004c | नात्यर्थं क्षुभ्यते देवी गङ्गेव जलदागमे | मूल |
1484 | 5014005a | तुल्यशीलवयोवृत्तां तुल्याभिजनलक्षणाम् | मूल |
1485 | 5014005c | राघवोऽर्हति वैदेहीं तं चेयमसितेक्षणा | मूल |
1486 | 5014006a | तां दृष्ट्वा नवहेमाभां लोककान्तामिव श्रियम् | मूल |
1487 | 5014006c | जगाम मनसा रामं वचनं चेदमब्रवीत् | मूल |
1488 | 5014007a | अस्या हेतोर्विशालाक्ष्या हतो वाली महाबलः | मूल |
1489 | 5014007c | रावणप्रतिमो वीर्ये कबन्धश्च निपातितः | मूल |
1490 | 5014008a | विराधश्च हतः संख्ये राक्षसो भीमविक्रमः | मूल |
1491 | 5014008c | वने रामेण विक्रम्य महेन्द्रेणेव शम्बरः | मूल |
1492 | 5014009a | चतुर्दशसहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम् | मूल |
1493 | 5014009c | निहतानि जनस्थाने शरैरग्निशिखोपमैः | मूल |
1494 | 5014010a | खरश्च निहतः संख्ये त्रिशिराश्च निपातितः | मूल |
1495 | 5014010c | दूषणश्च महातेजा रामेण विदितात्मना | मूल |
1496 | 5014011a | ऐश्वर्यं वानराणां च दुर्लभं वालिपालितम् | मूल |
1497 | 5014011c | अस्या निमित्ते सुग्रीवः प्राप्तवाँल्लोकसत्कृतम् | मूल |
1498 | 5014012a | सागरश्च मया क्रान्तः श्रीमान्नदनदीपतिः | मूल |
1499 | 5014012c | अस्या हेतोर्विशालाक्ष्याः पुरी चेयं निरीक्षिता | मूल |
1500 | 5014013a | यदि रामः समुद्रान्तां मेदिनीं परिवर्तयेत् | मूल |
1501 | 5014013c | अस्याः कृते जगच्चापि युक्तमित्येव मे मतिः | मूल |
1502 | 5014014a | राज्यं वा त्रिषु लोकेषु सीता वा जनकात्मजा | मूल |
1503 | 5014014c | त्रैलोक्यराज्यं सकलं सीताया नाप्नुयात्कलाम् | मूल |
1504 | 5014015a | इयं सा धर्मशीलस्य मैथिलस्य महात्मनः | मूल |
1505 | 5014015c | सुता जनकराजस्य सीता भर्तृदृढव्रता | मूल |
1506 | 5014016a | उत्थिता मेदिनीं भित्त्वा क्षेत्रे हलमुखक्षते | मूल |
1507 | 5014016c | पद्मरेणुनिभैः कीर्णा शुभैः केदारपांसुभिः | मूल |
1508 | 5014017a | विक्रान्तस्यार्यशीलस्य संयुगेष्वनिवर्तिनः | मूल |
1509 | 5014017c | स्नुषा दशरथस्यैषा ज्येष्ठा राज्ञो यशस्विनी | मूल |
1510 | 5014018a | धर्मज्ञस्य कृतज्ञस्य रामस्य विदितात्मनः | मूल |
1511 | 5014018c | इयं सा दयिता भार्या राक्षसी वशमागता | मूल |
1512 | 5014019a | सर्वान्भोगान्परित्यज्य भर्तृस्नेहबलात्कृता | मूल |
1513 | 5014019c | अचिन्तयित्वा दुःखानि प्रविष्टा निर्जनं वनम् | मूल |
1514 | 5014020a | संतुष्टा फलमूलेन भर्तृशुश्रूषणे रता | मूल |
1515 | 5014020c | या परां भजते प्रीतिं वनेऽपि भवने यथा | मूल |
1516 | 5014021a | सेयं कनकवर्णाङ्गी नित्यं सुस्मितभाषिणी | मूल |
1517 | 5014021c | सहते यातनामेतामनर्थानामभागिनी | मूल |
1518 | 5014022a | इमां तु शीलसंपन्नां द्रष्टुमिच्छति राघवः | मूल |
1519 | 5014022c | रावणेन प्रमथितां प्रपामिव पिपासितः | मूल |
1520 | 5014023a | अस्या नूनं पुनर्लाभाद्राघवः प्रीतिमेष्यति | मूल |
1521 | 5014023c | राजा राज्यपरिभ्रष्टः पुनः प्राप्येव मेदिनीम् | मूल |
1522 | 5014024a | कामभोगैः परित्यक्ता हीना बन्धुजनेन च | मूल |
1523 | 5014024c | धारयत्यात्मनो देहं तत्समागमकाङ्क्षिणी | मूल |
1524 | 5014025a | नैषा पश्यति राक्षस्यो नेमान्पुष्पफलद्रुमान् | मूल |
1525 | 5014025c | एकस्थहृदया नूनं राममेवानुपश्यति | मूल |
1526 | 5014026a | भर्ता नाम परं नार्या भूषणं भूषणादपि | मूल |
1527 | 5014026c | एषा हि रहिता तेन शोभनार्हा न शोभते | मूल |
1528 | 5014027a | दुष्करं कुरुते रामो हीनो यदनया प्रभुः | मूल |
1529 | 5014027c | धारयत्यात्मनो देहं न दुःखेनावसीदति | मूल |
1530 | 5014028a | इमामसितकेशान्तां शतपत्रनिभेक्षणाम् | मूल |
1531 | 5014028c | सुखार्हां दुःखितां दृष्ट्वा ममापि व्यथितं मनः | मूल |
1532 | 5014029a | क्षितिक्षमा पुष्करसंनिभाक्षी; या रक्षिता राघवलक्ष्मणाभ्याम् | मूल |
1533 | 5014029c | सा राक्षसीभिर्विकृतेक्षणाभिः; संरक्ष्यते संप्रति वृक्षमूले | मूल |
1534 | 5014030a | हिमहतनलिनीव नष्टशोभा; व्यसनपरम्परया निपीड्यमाना | मूल |
1535 | 5014030c | सहचररहितेव चक्रवाकी; जनकसुता कृपणां दशां प्रपन्ना | मूल |
1536 | 5014031a | अस्या हि पुष्पावनताग्रशाखाः; शोकं दृढं वै जनयत्यशोकाः | मूल |
1537 | 5014031c | हिमव्यपायेन च मन्दरश्मि;रभ्युत्थितो नैकसहस्ररश्मिः | मूल |
1538 | 5014032a | इत्येवमर्थं कपिरन्ववेक्ष्य; सीतेयमित्येव निविष्टबुद्धिः | मूल |
1539 | 5014032c | संश्रित्य तस्मिन्निषसाद वृक्षे; बली हरीणामृषभस्तरस्वी | मूल |
1540 | 5015001a | ततः कुमुदषण्डाभो निर्मलं निर्मलः स्वयम् | |
1541 | 5015001c | प्रजगाम नभश्चन्द्रो हंसो नीलमिवोदकम् | |
1542 | 5015002a | साचिव्यमिव कुर्वन्स प्रभया निर्मलप्रभः | |
1543 | 5015002c | चन्द्रमा रश्मिभिः शीतैः सिषेवे पवनात्मजम् | |
1544 | 5015003a | स ददर्श ततः सीतां पूर्णचन्द्रनिभाननाम् | |
1545 | 5015003c | शोकभारैरिव न्यस्तां भारैर्नावमिवाम्भसि | |
1546 | 5015004a | दिदृक्षमाणो वैदेहीं हनूमान्मारुतात्मजः | |
1547 | 5015004c | स ददर्शाविदूरस्था राक्षसीर्घोरदर्शनाः | |
1548 | 5015005a | एकाक्षीमेककर्णां च कर्णप्रावरणां तथा | |
1549 | 5015005c | अकर्णां शङ्कुकर्णां च मस्तकोच्छ्वासनासिकाम् | |
1550 | 5015006a | अतिकायोत्तमाङ्गीं च तनुदीर्घशिरोधराम् | |
1551 | 5015006c | ध्वस्तकेशीं तथाकेशीं केशकम्बलधारिणीम् | |
1552 | 5015007a | लम्बकर्णललाटां च लम्बोदरपयोधराम् | |
1553 | 5015007c | लम्बौष्ठीं चिबुकौष्ठीं च लम्बास्यां लम्बजानुकाम् | |
1554 | 5015008a | ह्रस्वां दीर्घां च कुब्जां च विकटां वामनां तथा | |
1555 | 5015008c | करालां भुग्नवस्त्रां च पिङ्गाक्षीं विकृताननाम् | |
1556 | 5015009a | विकृताः पिङ्गलाः कालीः क्रोधनाः कलहप्रियाः | |
1557 | 5015009c | कालायसमहाशूलकूटमुद्गरधारिणीः | |
1558 | 5015010a | वराहमृगशार्दूलमहिषाजशिवा मुखाः | |
1559 | 5015010c | गजोष्ट्रहयपादाश्च निखातशिरसोऽपराः | |
1560 | 5015011a | एकहस्तैकपादाश्च खरकर्ण्यश्वकर्णिकाः | |
1561 | 5015011c | गोकर्णीर्हस्तिकर्णीश्च हरिकर्णीस्तथापराः | |
1562 | 5015012a | अनासा अतिनासाश्च तिर्यन्नासा विनासिकाः | |
1563 | 5015012c | गजसंनिभनासाश्च ललाटोच्छ्वासनासिकाः | |
1564 | 5015013a | हस्तिपादा महापादा गोपादाः पादचूलिकाः | |
1565 | 5015013c | अतिमात्रशिरोग्रीवा अतिमात्रकुचोदरीः | |
1566 | 5015014a | अतिमात्रास्य नेत्राश्च दीर्घजिह्वानखास्तथा | |
1567 | 5015014c | अजामुखीर्हस्तिमुखीर्गोमुखीः सूकरीमुखीः | |
1568 | 5015015a | हयोष्ट्रखरवक्त्राश्च राक्षसीर्घोरदर्शनाः | |
1569 | 5015015c | शूलमुद्गरहस्ताश्च क्रोधनाः कलहप्रियाः | |
1570 | 5015016a | कराला धूम्रकेशीश्च रक्षसीर्विकृताननाः | |
1571 | 5015016c | पिबन्तीः सततं पानं सदा मांससुराप्रियाः | |
1572 | 5015017a | मांसशोणितदिग्धाङ्गीर्मांसशोणितभोजनाः | |
1573 | 5015017c | ता ददर्श कपिश्रेष्ठो रोमहर्षणदर्शनाः | |
1574 | 5015018a | स्कन्धवन्तमुपासीनाः परिवार्य वनस्पतिम् | |
1575 | 5015018c | तस्याधस्ताच्च तां देवीं राजपुत्रीमनिन्दिताम् | |
1576 | 5015019a | लक्षयामास लक्ष्मीवान्हनूमाञ्जनकात्मजाम् | |
1577 | 5015019c | निष्प्रभां शोकसंतप्तां मलसंकुलमूर्धजाम् | |
1578 | 5015020a | क्षीणपुण्यां च्युतां भूमौ तारां निपतितामिव | |
1579 | 5015020c | चारित्र्य व्यपदेशाढ्यां भर्तृदर्शनदुर्गताम् | |
1580 | 5015021a | भूषणैरुत्तमैर्हीनां भर्तृवात्सल्यभूषिताम् | |
1581 | 5015021c | राक्षसाधिपसंरुद्धां बन्धुभिश्च विनाकृताम् | |
1582 | 5015022a | वियूथां सिंहसंरुद्धां बद्धां गजवधूमिव | |
1583 | 5015022c | चन्द्रलेखां पयोदान्ते शारदाभ्रैरिवावृताम् | |
1584 | 5015023a | क्लिष्टरूपामसंस्पर्शादयुक्तामिव वल्लकीम् | |
1585 | 5015023c | सीतां भर्तृहिते युक्तामयुक्तां रक्षसां वशे | |
1586 | 5015024a | अशोकवनिकामध्ये शोकसागरमाप्लुताम् | |
1587 | 5015024c | ताभिः परिवृतां तत्र सग्रहामिव रोहिणीम् | |
1588 | 5015025a | ददर्श हनुमान्देवीं लतामकुसुमामिव | |
1589 | 5015025c | सा मलेन च दिग्धाङ्गी वपुषा चाप्यलंकृता | |
1590 | 5015026a | मृणाली पङ्कदिघ्देव विभाति च न भाति च | |
1591 | 5015026c | मलिनेन तु वस्त्रेण परिक्लिष्टेन भामिनीम् | |
1592 | 5015027a | संवृतां मृगशावाक्षीं ददर्श हनुमान्कपिः | |
1593 | 5015027c | तां देवीं दीनवदनामदीनां भर्तृतेजसा | |
1594 | 5015028a | रक्षितां स्वेन शीलेन सीतामसितलोचनाम् | |
1595 | 5015028c | तां दृष्ट्वा हनुमान्सीतां मृगशावनिभेक्षणाम् | |
1596 | 5015029a | मृगकन्यामिव त्रस्तां वीक्षमाणां समन्ततः | |
1597 | 5015029c | दहन्तीमिव निःश्वासैर्वृक्षान्पल्लवधारिणः | |
1598 | 5015030a | संघातमिव शोकानां दुःखस्योर्मिमिवोत्थिताम् | |
1599 | 5015030c | तां क्षामां सुविभक्ताङ्गीं विनाभरणशोभिनीम् | |
1600 | 5015031a | प्रहर्षमतुलं लेभे मारुतिः प्रेक्ष्य मैथिलीम् | |
1601 | 5015031c | हर्षजानि च सोऽश्रूणि तां दृष्ट्वा मदिरेक्षणाम् | |
1602 | 5015032a | मुमोच हनुमांस्तत्र नमश्चक्रे च राघवम् | |
1603 | 5015032c | नमस्कृत्वा च रामाय लक्ष्मणाय च वीर्यवान् | |
1604 | 5015033a | सीतादर्शनसंहृष्टो हनूमान्संवृतोऽभवत् | |
1605 | 5016001a | तथा विप्रेक्षमाणस्य वनं पुष्पितपादपम् | |
1606 | 5016001c | विचिन्वतश्च वैदेहीं किंचिच्छेषा निशाभवत् | |
1607 | 5016002a | षडङ्गवेदविदुषां क्रतुप्रवरयाजिनाम् | |
1608 | 5016002c | शुश्राव ब्रह्मघोषांश्च विरात्रे ब्रह्मरक्षसाम् | |
1609 | 5016003a | अथ मङ्गलवादित्रैः शब्दैः श्रोत्रमनोहरैः | |
1610 | 5016003c | प्राबोध्यत महाबाहुर्दशग्रीवो महाबलः | |
1611 | 5016004a | विबुध्य तु यथाकालं राक्षसेन्द्रः प्रतावपान् | |
1612 | 5016004c | स्रस्तमाल्याम्बरधरो वैदेहीमन्वचिन्तयत् | |
1613 | 5016005a | भृशं नियुक्तस्तस्यां च मदनेन मदोत्कटः | |
1614 | 5016005c | न स तं राक्षसः कामं शशाकात्मनि गूहितुम् | |
1615 | 5016006a | स सर्वाभरणैर्युक्तो बिभ्रच्छ्रियमनुत्तमाम् | |
1616 | 5016006c | तां नगैर्विविधैर्जुष्टां सर्वपुष्पफलोपगैः | |
1617 | 5016007a | वृतां पुष्करिणीभिश्च नानापुष्पोपशोभिताम् | |
1618 | 5016007c | सदामदैश्च विहगैर्विचित्रां परमाद्भुताम् | |
1619 | 5016008a | ईहामृगैश्च विविधैश्वृतां दृष्टिमनोहरैः | |
1620 | 5016008c | वीथीः संप्रेक्षमाणश्च मणिकाञ्चनतोरणाः | |
1621 | 5016009a | नानामृगगणाकीर्णां फलैः प्रपतितैर्वृताम् | |
1622 | 5016009c | अशोकवनिकामेव प्राविशत्संततद्रुमाम् | |
1623 | 5016010a | अङ्गनाशतमात्रं तु तं व्रजन्तमनुव्रजत् | |
1624 | 5016010c | महेन्द्रमिव पौलस्त्यं देवगन्धर्वयोषितः | |
1625 | 5016011a | दीपिकाः काञ्चनीः काश्चिज्जगृहुस्तत्र योषितः | |
1626 | 5016011c | बालव्यजनहस्ताश्च तालवृन्तानि चापराः | |
1627 | 5016012a | काञ्चनैरपि भृङ्गारैर्जह्रुः सलिलमग्रतः | |
1628 | 5016012c | मण्डलाग्रानसींश्चैव गृह्यान्याः पृष्ठतो ययुः | |
1629 | 5016013a | काचिद्रत्नमयीं पात्रीं पूर्णां पानस्य भामिनी | |
1630 | 5016013c | दक्षिणा दक्षिणेनैव तदा जग्राह पाणिना | |
1631 | 5016014a | राजहंसप्रतीकाशं छत्रं पूर्णशशिप्रभम् | |
1632 | 5016014c | सौवर्णदण्डमपरा गृहीत्वा पृष्ठतो ययौ | |
1633 | 5016015a | निद्रामदपरीताक्ष्यो रावणस्योत्तमस्त्रियः | |
1634 | 5016015c | अनुजग्मुः पतिं वीरं घनं विद्युल्लता इव | |
1635 | 5016016a | ततः काञ्चीनिनादं च नूपुराणां च निःस्वनम् | |
1636 | 5016016c | शुश्राव परमस्त्रीणां स कपिर्मारुतात्मजः | |
1637 | 5016017a | तं चाप्रतिमकर्माणमचिन्त्यबलपौरुषम् | |
1638 | 5016017c | द्वारदेशमनुप्राप्तं ददर्श हनुमान्कपिः | |
1639 | 5016018a | दीपिकाभिरनेकाभिः समन्तादवभासितम् | |
1640 | 5016018c | गन्धतैलावसिक्ताभिर्ध्रियमाणाभिरग्रतः | |
1641 | 5016019a | कामदर्पमदैर्युक्तं जिह्मताम्रायतेक्षणम् | |
1642 | 5016019c | समक्षमिव कन्दर्पमपविद्ध शरासनम् | |
1643 | 5016020a | मथितामृतफेनाभमरजो वस्त्रमुत्तमम् | |
1644 | 5016020c | सलीलमनुकर्षन्तं विमुक्तं सक्तमङ्गदे | |
1645 | 5016021a | तं पत्रविटपे लीनः पत्रपुष्पघनावृतः | |
1646 | 5016021c | समीपमुपसंक्रान्तं निध्यातुमुपचक्रमे | |
1647 | 5016022a | अवेक्षमाणश्च ततो ददर्श कपिकुञ्जरः | |
1648 | 5016022c | रूपयौवनसंपन्ना रावणस्य वरस्त्रियः | |
1649 | 5016023a | ताभिः परिवृतो राजा सुरूपाभिर्महायशाः | |
1650 | 5016023c | तन्मृगद्विजसंघुष्टं प्रविष्टः प्रमदावनम् | |
1651 | 5016024a | क्षीबो विचित्राभरणः शङ्कुकर्णो महाबलः | |
1652 | 5016024c | तेन विश्रवसः पुत्रः स दृष्टो राक्षसाधिपः | |
1653 | 5016025a | वृतः परमनारीभिस्ताराभिरिव चन्द्रमाः | |
1654 | 5016025c | तं ददर्श महातेजास्तेजोवन्तं महाकपिः | |
1655 | 5016026a | रावणोऽयं महाबाहुरिति संचिन्त्य वानरः | |
1656 | 5016026c | अवप्लुतो महातेजा हनूमान्मारुतात्मजः | |
1657 | 5016027a | स तथाप्युग्रतेजाः सन्निर्धूतस्तस्य तेजसा | |
1658 | 5016027c | पत्रगुह्यान्तरे सक्तो हनूमान्संवृतोऽभवत् | |
1659 | 5016028a | स तामसितकेशान्तां सुश्रोणीं संहतस्तनीम् | |
1660 | 5016028c | दिदृक्षुरसितापाङ्गीमुपावर्तत रावणः | |
1661 | 5017001a | तस्मिन्नेव ततः काले राजपुत्री त्वनिन्दिता | |
1662 | 5017001c | रूपयौवनसंपन्नं भूषणोत्तमभूषितम् | |
1663 | 5017002a | ततो दृष्ट्वैव वैदेही रावणं राक्षसाधिपम् | |
1664 | 5017002c | प्रावेपत वरारोहा प्रवाते कदली यथा | |
1665 | 5017003a | ऊरुभ्यामुदरं छाद्य बाहुभ्यां च पयोधरौ | |
1666 | 5017003c | उपविष्टा विशालाक्षी रुदन्ती वरवर्णिनी | |
1667 | 5017004a | दशग्रीवस्तु वैदेहीं रक्षितां राक्षसीगणैः | |
1668 | 5017004c | ददर्श दीनां दुःखार्तं नावं सन्नामिवार्णवे | |
1669 | 5017005a | असंवृतायामासीनां धरण्यां संशितव्रताम् | |
1670 | 5017005c | छिन्नां प्रपतितां भूमौ शाखामिव वनस्पतेः | |
1671 | 5017005e | मलमण्डनदिग्धाङ्गीं मण्डनार्हाममण्डिताम् | |
1672 | 5017006a | समीपं राजसिंहस्य रामस्य विदितात्मनः | |
1673 | 5017006c | संकल्पहयसंयुक्तैर्यान्तीमिव मनोरथैः | |
1674 | 5017007a | शुष्यन्तीं रुदतीमेकां ध्यानशोकपरायणाम् | |
1675 | 5017007c | दुःखस्यान्तमपश्यन्तीं रामां राममनुव्रताम् | |
1676 | 5017008a | वेष्टमानामथाविष्टां पन्नगेन्द्रवधूमिव | |
1677 | 5017008c | धूप्यमानां ग्रहेणेव रोहिणीं धूमकेतुना | |
1678 | 5017009a | वृत्तशीले कुले जातामाचारवति धार्मिके | |
1679 | 5017009c | पुनः संस्कारमापन्नां जातमिव च दुष्कुले | |
1680 | 5017010a | सन्नामिव महाकीर्तिं श्रद्धामिव विमानिताम् | |
1681 | 5017010c | प्रज्ञामिव परिक्षीणामाशां प्रतिहतामिव | |
1682 | 5017011a | आयतीमिव विध्वस्तामाज्ञां प्रतिहतामिव | |
1683 | 5017011c | दीप्तामिव दिशं काले पूजामपहृतामिव | |
1684 | 5017012a | पद्मिनीमिव विध्वस्तां हतशूरां चमूमिव | |
1685 | 5017012c | प्रभामिव तपोध्वस्तामुपक्षीणामिवापगाम् | |
1686 | 5017013a | वेदीमिव परामृष्टां शान्तामग्निशिखामिव | |
1687 | 5017013c | पौर्णमासीमिव निशां राहुग्रस्तेन्दुमण्डलाम् | |
1688 | 5017014a | उत्कृष्टपर्णकमलां वित्रासितविहंगमाम् | |
1689 | 5017014c | हस्तिहस्तपरामृष्टामाकुलां पद्मिनीमिव | |
1690 | 5017015a | पतिशोकातुरां शुष्कां नदीं विस्रावितामिव | |
1691 | 5017015c | परया मृजया हीनां कृष्णपक्षे निशामिव | |
1692 | 5017016a | सुकुमारीं सुजाताङ्गीं रत्नगर्भगृहोचिताम् | |
1693 | 5017016c | तप्यमानामिवोष्णेन मृणालीमचिरोद्धृताम् | |
1694 | 5017017a | गृहीतामालितां स्तम्भे यूथपेन विनाकृताम् | |
1695 | 5017017c | निःश्वसन्तीं सुदुःखार्तां गजराजवधूमिव | |
1696 | 5017018a | एकया दीर्घया वेण्या शोभमानामयत्नतः | |
1697 | 5017018c | नीलया नीरदापाये वनराज्या महीमिव | |
1698 | 5017019a | उपवासेन शोकेन ध्यानेन च भयेन च | |
1699 | 5017019c | परिक्षीणां कृशां दीनामल्पाहारां तपोधनाम् | |
1700 | 5017020a | आयाचमानां दुःखार्तां प्राञ्जलिं देवतामिव | |
1701 | 5017020c | भावेन रघुमुख्यस्य दशग्रीवपराभवम् | |
1702 | 5017021a | समीक्षमाणां रुदतीमनिन्दितां; सुपक्ष्मताम्रायतशुक्ललोचनाम् | |
1703 | 5017021c | अनुव्रतां राममतीव मैथिलीं; प्रलोभयामास वधाय रावणः | |
1704 | 5018001a | स तां परिवृतां दीनां निरानन्दां तपस्विनीम् | |
1705 | 5018001c | साकारैर्मधुरैर्वाक्यैर्न्यदर्शयत रावणः | |
1706 | 5018002a | मां दृष्ट्वा नागनासोरुगूहमाना स्तनोदरम् | |
1707 | 5018002c | अदर्शनमिवात्मानं भयान्नेतुं त्वमिच्छसि | |
1708 | 5018003a | कामये त्वां विशालाक्षि बहुमन्यस्व मां प्रिये | |
1709 | 5018003c | सर्वाङ्गगुणसंपन्ने सर्वलोकमनोहरे | |
1710 | 5018004a | नेह केचिन्मनुष्या वा राक्षसाः कामरूपिणः | |
1711 | 5018004c | व्यपसर्पतु ते सीते भयं मत्तः समुत्थितम् | |
1712 | 5018005a | स्वधर्मे रक्षसां भीरु सर्वथैष न संशयः | |
1713 | 5018005c | गमनं वा परस्त्रीणां हरणं संप्रमथ्य वा | |
1714 | 5018006a | एवं चैतदकामां च न त्वां स्प्रक्ष्यामि मैथिलि | |
1715 | 5018006c | कामं कामः शरीरे मे यथाकामं प्रवर्तताम् | |
1716 | 5018007a | देवि नेह भयं कार्यं मयि विश्वसिहि प्रिये | |
1717 | 5018007c | प्रणयस्व च तत्त्वेन मैवं भूः शोकलालसा | |
1718 | 5018008a | एकवेणी धराशय्या ध्यानं मलिनमम्बरम् | |
1719 | 5018008c | अस्थानेऽप्युपवासश्च नैतान्यौपयिकानि ते | |
1720 | 5018009a | विचित्राणि च माल्यानि चन्दनान्यगरूणि च | |
1721 | 5018009c | विविधानि च वासांसि दिव्यान्याभरणानि च | |
1722 | 5018010a | महार्हाणि च पानानि यानानि शयनानि च | |
1723 | 5018010c | गीतं नृत्तं च वाद्यं च लभ मां प्राप्य मैथिलि | |
1724 | 5018011a | स्त्रीरत्नमसि मैवं भूः कुरु गात्रेषु भूषणम् | |
1725 | 5018011c | मां प्राप्य तु कथं हि स्यास्त्वमनर्हा सुविग्रहे | |
1726 | 5018012a | इदं ते चारुसंजातं यौवनं व्यतिवर्तते | |
1727 | 5018012c | यदतीतं पुनर्नैति स्रोतः शीघ्रमपामिव | |
1728 | 5018013a | त्वां कृत्वोपरतो मन्ये रूपकर्ता स विश्वकृत् | |
1729 | 5018013c | न हि रूपोपमा त्वन्या तवास्ति शुभदर्शने | |
1730 | 5018014a | त्वां समासाद्य वैदेहि रूपयौवनशालिनीम् | |
1731 | 5018014c | कः पुमानतिवर्तेत साक्षादपि पितामहः | |
1732 | 5018015a | यद्यत्पश्यामि ते गात्रं शीतांशुसदृशानने | |
1733 | 5018015c | तस्मिंस्तस्मिन्पृथुश्रोणि चक्षुर्मम निबध्यते | |
1734 | 5018016a | भव मैथिलि भार्या मे मोहमेनं विसर्जय | |
1735 | 5018016c | बह्वीनामुत्तमस्त्रीणां ममाग्रमहिषी भव | |
1736 | 5018017a | लोकेभ्यो यानि रत्नानि संप्रमथ्याहृतानि मे | |
1737 | 5018017c | तानि ते भीरु सर्वाणि राज्यं चैतदहं च ते | |
1738 | 5018018a | विजित्य पृथिवीं सर्वां नानानगरमालिनीम् | |
1739 | 5018018c | जनकाय प्रदास्यामि तव हेतोर्विलासिनि | |
1740 | 5018019a | नेह पश्यामि लोकेऽन्यं यो मे प्रतिबलो भवेत् | |
1741 | 5018019c | पश्य मे सुमहद्वीर्यमप्रतिद्वन्द्वमाहवे | |
1742 | 5018020a | असकृत्संयुगे भग्ना मया विमृदितध्वजाः | |
1743 | 5018020c | अशक्ताः प्रत्यनीकेषु स्थातुं मम सुरासुराः | |
1744 | 5018021a | इच्छ मां क्रियतामद्य प्रतिकर्म तवोत्तमम् | |
1745 | 5018021c | सप्रभाण्यवसज्जन्तां तवाङ्गे भूषणानि च | |
1746 | 5018021e | साधु पश्यामि ते रूपं संयुक्तं प्रतिकर्मणा | |
1747 | 5018022a | प्रतिकर्माभिसंयुक्ता दाक्षिण्येन वरानने | |
1748 | 5018022c | भुङ्क्ष्व भोगान्यथाकामं पिब भीरु रमस्व च | |
1749 | 5018022e | यथेष्टं च प्रयच्छ त्वं पृथिवीं वा धनानि च | |
1750 | 5018023a | ललस्व मयि विस्रब्धा धृष्टमाज्ञापयस्व च | |
1751 | 5018023c | मत्प्रभावाल्ललन्त्याश्च ललन्तां बान्धवास्तव | |
1752 | 5018024a | ऋद्धिं ममानुपश्य त्वं श्रियं भद्रे यशश्च मे | |
1753 | 5018024c | किं करिष्यसि रामेण सुभगे चीरवाससा | |
1754 | 5018025a | निक्षिप्तविजयो रामो गतश्रीर्वनगोचरः | |
1755 | 5018025c | व्रती स्थण्डिलशायी च शङ्के जीवति वा न वा | |
1756 | 5018026a | न हि वैदेहि रामस्त्वां द्रष्टुं वाप्युपलप्स्यते | |
1757 | 5018026c | पुरो बलाकैरसितैर्मेघैर्ज्योत्स्नामिवावृताम् | |
1758 | 5018027a | न चापि मम हस्तात्त्वां प्राप्तुमर्हति राघवः | |
1759 | 5018027c | हिरण्यकशिपुः कीर्तिमिन्द्रहस्तगतामिव | |
1760 | 5018028a | चारुस्मिते चारुदति चारुनेत्रे विलासिनि | |
1761 | 5018028c | मनो हरसि मे भीरु सुपर्णः पन्नगं यथा | |
1762 | 5018029a | क्लिष्टकौशेयवसनां तन्वीमप्यनलंकृताम् | |
1763 | 5018029c | तां दृष्ट्वा स्वेषु दारेषु रतिं नोपलभाम्यहम् | |
1764 | 5018030a | अन्तःपुरनिवासिन्यः स्त्रियः सर्वगुणान्विताः | |
1765 | 5018030c | यावन्त्यो मम सर्वासामैश्वर्यं कुरु जानकि | |
1766 | 5018031a | मम ह्यसितकेशान्ते त्रैलोक्यप्रवराः स्त्रियः | |
1767 | 5018031c | तास्त्वां परिचरिष्यन्ति श्रियमप्सरसो यथा | |
1768 | 5018032a | यानि वैश्रवणे सुभ्रु रत्नानि च धनानि च | |
1769 | 5018032c | तानि लोकांश्च सुश्रोणि मां च भुङ्क्ष्व यथासुखम् | |
1770 | 5018033a | न रामस्तपसा देवि न बलेन न विक्रमैः | |
1771 | 5018033c | न धनेन मया तुल्यस्तेजसा यशसापि वा | |
1772 | 5018034a | पिब विहर रमस्व भुङ्क्ष्व भोगा;न्धननिचयं प्रदिशामि मेदिनीं च | |
1773 | 5018034c | मयि लल ललने यथासुखं त्वं; त्वयि च समेत्य ललन्तु बान्धवास्ते | |
1774 | 5018035a | कुसुमिततरुजालसंततानि; भ्रमरयुतानि समुद्रतीरजानि | |
1775 | 5018035c | कनकविमलहारभूषिताङ्गी; विहर मया सह भीरु काननानि | |
1776 | 5019001a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सीता रौद्रस्य रक्षसः | |
1777 | 5019001c | आर्ता दीनस्वरा दीनं प्रत्युवाच शनैर्वचः | |
1778 | 5019002a | दुःखार्ता रुदती सीता वेपमाना तपस्विनी | |
1779 | 5019002c | चिन्तयन्ती वरारोहा पतिमेव पतिव्रता | |
1780 | 5019003a | तृणमन्तरतः कृत्वा प्रत्युवाच शुचिस्मिता | |
1781 | 5019003c | निवर्तय मनो मत्तः स्वजने क्रियतां मनः | |
1782 | 5019004a | न मां प्रार्थयितुं युक्तस्त्वं सिद्धिमिव पापकृत् | |
1783 | 5019004c | अकार्यं न मया कार्यमेकपत्न्या विगर्हितम् | |
1784 | 5019004e | कुलं संप्राप्तया पुण्यं कुले महति जातया | |
1785 | 5019005a | एवमुक्त्वा तु वैदेही रावणं तं यशस्विनी | |
1786 | 5019005c | राक्षसं पृष्ठतः कृत्वा भूयो वचनमब्रवीत् | |
1787 | 5019006a | नाहमौपयिकी भार्या परभार्या सती तव | |
1788 | 5019006c | साधु धर्ममवेक्षस्व साधु साधुव्रतं चर | |
1789 | 5019007a | यथा तव तथान्येषां रक्ष्या दारा निशाचर | |
1790 | 5019007c | आत्मानमुपमां कृत्वा स्वेषु दारेषु रम्यताम् | |
1791 | 5019008a | अतुष्टं स्वेषु दारेषु चपलं चलितेन्द्रियम् | |
1792 | 5019008c | नयन्ति निकृतिप्रज्ञां परदाराः पराभवम् | |
1793 | 5019009a | इह सन्तो न वा सन्ति सतो वा नानुवर्तसे | |
1794 | 5019009c | वचो मिथ्या प्रणीतात्मा पथ्यमुक्तं विचक्षणैः | |
1795 | 5019010a | अकृतात्मानमासाद्य राजानमनये रतम् | |
1796 | 5019010c | समृद्धानि विनश्यन्ति राष्ट्राणि नगराणि च | |
1797 | 5019011a | तथेयं त्वां समासाद्य लङ्का रत्नौघ संकुला | |
1798 | 5019011c | अपराधात्तवैकस्य नचिराद्विनशिष्यति | |
1799 | 5019012a | स्वकृतैर्हन्यमानस्य रावणादीर्घदर्शिनः | |
1800 | 5019012c | अभिनन्दन्ति भूतानि विनाशे पापकर्मणः | |
1801 | 5019013a | एवं त्वां पापकर्माणं वक्ष्यन्ति निकृता जनाः | |
1802 | 5019013c | दिष्ट्यैतद्व्यसनं प्राप्तो रौद्र इत्येव हर्षिताः | |
1803 | 5019014a | शक्या लोभयितुं नाहमैश्वर्येण धनेन वा | |
1804 | 5019014c | अनन्या राघवेणाहं भास्करेण प्रभा यथा | |
1805 | 5019015a | उपधाय भुजं तस्य लोकनाथस्य सत्कृतम् | |
1806 | 5019015c | कथं नामोपधास्यामि भुजमन्यस्य कस्यचित् | |
1807 | 5019016a | अहमौपयिकी भार्या तस्यैव वसुधापतेः | |
1808 | 5019016c | व्रतस्नातस्य विप्रस्य विद्येव विदितात्मनः | |
1809 | 5019017a | साधु रावण रामेण मां समानय दुःखिताम् | |
1810 | 5019017c | वने वाशितया सार्धं करेण्वेव गजाधिपम् | |
1811 | 5019018a | मित्रमौपयिकं कर्तुं रामः स्थानं परीप्सता | |
1812 | 5019018c | वधं चानिच्छता घोरं त्वयासौ पुरुषर्षभः | |
1813 | 5019019a | वर्जयेद्वज्रमुत्सृष्टं वर्जयेदन्तकश्चिरम् | |
1814 | 5019019c | त्वद्विधं न तु संक्रुद्धो लोकनाथः स राघवः | |
1815 | 5019020a | रामस्य धनुषः शब्दं श्रोष्यसि त्वं महास्वनम् | |
1816 | 5019020c | शतक्रतुविसृष्टस्य निर्घोषमशनेरिव | |
1817 | 5019021a | इह शीघ्रं सुपर्वाणो ज्वलितास्या इवोरगाः | |
1818 | 5019021c | इषवो निपतिष्यन्ति रामलक्ष्मणलक्षणाः | |
1819 | 5019022a | रक्षांसि परिनिघ्नन्तः पुर्यामस्यां समन्ततः | |
1820 | 5019022c | असंपातं करिष्यन्ति पतन्तः कङ्कवाससः | |
1821 | 5019023a | राक्षसेन्द्रमहासर्पान्स रामगरुडो महान् | |
1822 | 5019023c | उद्धरिष्यति वेगेन वैनतेय इवोरगान् | |
1823 | 5019024a | अपनेष्यति मां भर्ता त्वत्तः शीघ्रमरिंदमः | |
1824 | 5019024c | असुरेभ्यः श्रियं दीप्तां विष्णुस्त्रिभिरिव क्रमैः | |
1825 | 5019025a | जनस्थाने हतस्थाने निहते रक्षसां बले | |
1826 | 5019025c | अशक्तेन त्वया रक्षः कृतमेतदसाधु वै | |
1827 | 5019026a | आश्रमं तु तयोः शून्यं प्रविश्य नरसिंहयोः | |
1828 | 5019026c | गोचरं गतयोर्भ्रात्रोरपनीता त्वयाधम | |
1829 | 5019027a | न हि गन्धमुपाघ्राय रामलक्ष्मणयोस्त्वया | |
1830 | 5019027c | शक्यं संदर्शने स्थातुं शुना शार्दूलयोरिव | |
1831 | 5019028a | तस्य ते विग्रहे ताभ्यां युगग्रहणमस्थिरम् | |
1832 | 5019028c | वृत्रस्येवेन्द्रबाहुभ्यां बाहोरेकस्य निग्रहः | |
1833 | 5019029a | क्षिप्रं तव स नाथो मे रामः सौमित्रिणा सह | |
1834 | 5019029c | तोयमल्पमिवादित्यः प्राणानादास्यते शरैः | |
1835 | 5019030a | गिरिं कुबेरस्य गतोऽथवालयं; सभां गतो वा वरुणस्य राज्ञः | |
1836 | 5019030c | असंशयं दाशरथेर्न मोक्ष्यसे; महाद्रुमः कालहतोऽशनेरिव | |
1837 | 5020001a | सीताया वचनं श्रुत्वा परुषं राक्षसाधिपः | |
1838 | 5020001c | प्रत्युवाच ततः सीतां विप्रियं प्रियदर्शनाम् | |
1839 | 5020002a | यथा यथा सान्त्वयिता वश्यः स्त्रीणां तथा तथा | |
1840 | 5020002c | यथा यथा प्रियं वक्ता परिभूतस्तथा तथा | |
1841 | 5020003a | संनियच्छति मे क्रोधं त्वयि कामः समुत्थितः | |
1842 | 5020003c | द्रवतो मार्गमासाद्य हयानिव सुसारथिः | |
1843 | 5020004a | वामः कामो मनुष्याणां यस्मिन्किल निबध्यते | |
1844 | 5020004c | जने तस्मिंस्त्वनुक्रोशः स्नेहश्च किल जायते | |
1845 | 5020005a | एतस्मात्कारणान्न तां घतयामि वरानने | |
1846 | 5020005c | वधार्हामवमानार्हां मिथ्याप्रव्रजिते रताम् | |
1847 | 5020006a | परुषाणि हि वाक्यानि यानि यानि ब्रवीषि माम् | |
1848 | 5020006c | तेषु तेषु वधो युक्तस्तव मैथिलि दारुणः | |
1849 | 5020007a | एवमुक्त्वा तु वैदेहीं रावणो राक्षसाधिपः | |
1850 | 5020007c | क्रोधसंरम्भसंयुक्तः सीतामुत्तरमब्रवीत् | |
1851 | 5020008a | द्वौ मासौ रक्षितव्यौ मे योऽवधिस्ते मया कृतः | |
1852 | 5020008c | ततः शयनमारोह मम त्वं वरवर्णिनि | |
1853 | 5020009a | द्वाभ्यामूर्ध्वं तु मासाभ्यां भर्तारं मामनिच्छतीम् | |
1854 | 5020009c | मम त्वां प्रातराशार्थमारभन्ते महानसे | |
1855 | 5020010a | तां तर्ज्यमानां संप्रेक्ष्य राक्षसेन्द्रेण जानकीम् | |
1856 | 5020010c | देवगन्धर्वकन्यास्ता विषेदुर्विपुलेक्षणाः | |
1857 | 5020011a | ओष्ठप्रकारैरपरा नेत्रवक्त्रैस्तथापराः | |
1858 | 5020011c | सीतामाश्वासयामासुस्तर्जितां तेन रक्षसा | |
1859 | 5020012a | ताभिराश्वासिता सीता रावणं राक्षसाधिपम् | |
1860 | 5020012c | उवाचात्महितं वाक्यं वृत्तशौण्डीर्यगर्वितम् | |
1861 | 5020013a | नूनं न ते जनः कश्चिदसिन्निःश्रेयसे स्थितः | |
1862 | 5020013c | निवारयति यो न त्वां कर्मणोऽस्माद्विगर्हितात् | |
1863 | 5020014a | मां हि धर्मात्मनः पत्नीं शचीमिव शचीपतेः | |
1864 | 5020014c | त्वदन्यस्त्रिषु लोकेषु प्रार्थयेन्मनसापि कः | |
1865 | 5020015a | राक्षसाधम रामस्य भार्याममिततेजसः | |
1866 | 5020015c | उक्तवानसि यत्पापं क्व गतस्तस्य मोक्ष्यसे | |
1867 | 5020016a | यथा दृप्तश्च मातङ्गः शशश्च सहितौ वने | |
1868 | 5020016c | तथा द्विरदवद्रामस्त्वं नीच शशवत्स्मृतः | |
1869 | 5020017a | स त्वमिक्ष्वाकुनाथं वै क्षिपन्निह न लज्जसे | |
1870 | 5020017c | चक्षुषो विषयं तस्य न तावदुपगच्छसि | |
1871 | 5020018a | इमे ते नयने क्रूरे विरूपे कृष्णपिङ्गले | |
1872 | 5020018c | क्षितौ न पतिते कस्मान्मामनार्यनिरीक्षितः | |
1873 | 5020019a | तस्य धर्मात्मनः पत्नीं स्नुषां दशरथस्य च | |
1874 | 5020019c | कथं व्याहरतो मां ते न जिह्वा पाप शीर्यते | |
1875 | 5020020a | असंदेशात्तु रामस्य तपसश्चानुपालनात् | |
1876 | 5020020c | न त्वां कुर्मि दशग्रीव भस्म भस्मार्हतेजसा | |
1877 | 5020021a | नापहर्तुमहं शक्या तस्य रामस्य धीमतः | |
1878 | 5020021c | विधिस्तव वधार्थाय विहितो नात्र संशयः | |
1879 | 5020022a | शूरेण धनदभ्राता बलैः समुदितेन च | |
1880 | 5020022c | अपोह्य रामं कस्माद्धि दारचौर्यं त्वया कृतम् | |
1881 | 5020023a | सीताया वचनं श्रुत्वा रावणो राक्षसाधिपः | |
1882 | 5020023c | विवृत्य नयने क्रूरे जानकीमन्ववैक्षत | |
1883 | 5020024a | नीलजीमूतसंकाशो महाभुजशिरोधरः | |
1884 | 5020024c | सिंहसत्त्वगतिः श्रीमान्दीप्तजिह्वोग्रलोचनः | |
1885 | 5020025a | चलाग्रमकुटः प्रांशुश्चित्रमाल्यानुलेपनः | |
1886 | 5020025c | रक्तमाल्याम्बरधरस्तप्ताङ्गदविभूषणः | |
1887 | 5020026a | श्रोणीसूत्रेण महता मेककेन सुसंवृतः | |
1888 | 5020026c | अमृतोत्पादनद्धेन भुजंगेनेव मन्दरः | |
1889 | 5020027a | तरुणादित्यवर्णाभ्यां कुण्डलाभ्यां विभूषितः | |
1890 | 5020027c | रक्तपल्लवपुष्पाभ्यामशोकाभ्यामिवाचलः | |
1891 | 5020028a | अवेक्षमाणो वैदेहीं कोपसंरक्तलोचनः | |
1892 | 5020028c | उवाच रावणः सीतां भुजंग इव निःश्वसन् | |
1893 | 5020029a | अनयेनाभिसंपन्नमर्थहीनमनुव्रते | |
1894 | 5020029c | नाशयाम्यहमद्य त्वां सूर्यः संध्यामिवौजसा | |
1895 | 5020030a | इत्युक्त्वा मैथिलीं राजा रावणः शत्रुरावणः | |
1896 | 5020030c | संदिदेश ततः सर्वा राक्षसीर्घोरदर्शनाः | |
1897 | 5020031a | एकाक्षीमेककर्णां च कर्णप्रावरणां तथा | |
1898 | 5020031c | गोकर्णीं हस्तिकर्णीं च लम्बकर्णीमकर्णिकाम् | |
1899 | 5020032a | हस्तिपद्य श्वपद्यौ च गोपदीं पादचूलिकाम् | |
1900 | 5020032c | एकाक्षीमेकपादीं च पृथुपादीमपादिकाम् | |
1901 | 5020033a | अतिमात्रशिरोग्रीवामतिमात्रकुचोदरीम् | |
1902 | 5020033c | अतिमात्रास्यनेत्रां च दीर्घजिह्वामजिह्विकाम् | |
1903 | 5020033e | अनासिकां सिंहमुखीं गोमुखीं सूकरीमुखीम् | |
1904 | 5020034a | यथा मद्वशगा सीता क्षिप्रं भवति जानकी | |
1905 | 5020034c | तथा कुरुत राक्षस्यः सर्वाः क्षिप्रं समेत्य च | |
1906 | 5020035a | प्रतिलोमानुलोमैश्च सामदानादिभेदनैः | |
1907 | 5020035c | आवर्तयत वैदेहीं दण्डस्योद्यमनेन च | |
1908 | 5020036a | इति प्रतिसमादिश्य राक्षसेन्द्रः पुनः पुनः | |
1909 | 5020036c | काममन्युपरीतात्मा जानकीं पर्यतर्जयत् | |
1910 | 5020037a | उपगम्य ततः क्षिप्रं राक्षसी धान्यमालिनी | |
1911 | 5020037c | परिष्वज्य दशग्रीवमिदं वचनमब्रवीत् | |
1912 | 5020038a | मया क्रीड महाराजसीतया किं तवानया | |
1913 | 5020038c | अकामां कामयानस्य शरीरमुपतप्यते | |
1914 | 5020038e | इच्छन्तीं कामयानस्य प्रीतिर्भवति शोभना | |
1915 | 5020039a | एवमुक्तस्तु राक्षस्या समुत्क्षिप्तस्ततो बली | |
1916 | 5020039c | ज्वलद्भास्करवर्णाभं प्रविवेश निवेशनम् | |
1917 | 5020040a | देवगन्धर्वकन्याश्च नागकन्याश्च तास्ततः | |
1918 | 5020040c | परिवार्य दशग्रीवं विविशुस्तद्गृहोत्तमम् | |
1919 | 5020041a | स मैथिलीं धर्मपरामवस्थितां; प्रवेपमानां परिभर्त्स्य रावणः | |
1920 | 5020041c | विहाय सीतां मदनेन मोहितः; स्वमेव वेश्म प्रविवेश भास्वरम् | |
1921 | 5021001a | इत्युक्त्वा मैथिलीं राजा रावणः शत्रुरावणः | |
1922 | 5021001c | संदिश्य च ततः सर्वा राक्षसीर्निर्जगाम ह | |
1923 | 5021002a | निष्क्रान्ते राक्षसेन्द्रे तु पुनरन्तःपुरं गते | |
1924 | 5021002c | राक्षस्यो भीमरूपास्ताः सीतां समभिदुद्रुवुः | |
1925 | 5021003a | ततः सीतामुपागम्य राक्षस्यः क्रोधमूर्छिताः | |
1926 | 5021003c | परं परुषया वाचा वैदेहीमिदमब्रुवन् | |
1927 | 5021004a | पौलस्त्यस्य वरिष्ठस्य रावणस्य महात्मनः | |
1928 | 5021004c | दशग्रीवस्य भार्यात्वं सीते न बहु मन्यसे | |
1929 | 5021005a | ततस्त्वेकजटा नाम राक्षसी वाक्यमब्रवीत् | |
1930 | 5021005c | आमन्त्र्य क्रोधताम्राक्षी सीतां करतलोदरीम् | |
1931 | 5021006a | प्रजापतीनां षण्णां तु चतुर्थो यः प्रजापतिः | |
1932 | 5021006c | मानसो ब्रह्मणः पुत्रः पुलस्त्य इति विश्रुतः | |
1933 | 5021007a | पुलस्त्यस्य तु तेजस्वी महर्षिर्मानसः सुतः | |
1934 | 5021007c | नाम्ना स विश्रवा नाम प्रजापतिसमप्रभः | |
1935 | 5021008a | तस्य पुत्रो विशालाक्षि रावणः शत्रुरावणः | |
1936 | 5021008c | तस्य त्वं राक्षसेन्द्रस्य भार्या भवितुमर्हसि | |
1937 | 5021008e | मयोक्तं चारुसर्वाङ्गि वाक्यं किं नानुमन्यसे | |
1938 | 5021009a | ततो हरिजटा नाम राक्षसी वाक्यमब्रवीत् | |
1939 | 5021009c | विवृत्य नयने कोपान्मार्जारसदृशेक्षणा | |
1940 | 5021010a | येन देवास्त्रयस्त्रिंशद्देवराजश्च निर्जितः | |
1941 | 5021010c | तस्य त्वं राक्षसेन्द्रस्य भार्या भवितुमर्हसि | |
1942 | 5021011a | वीर्योत्सिक्तस्य शूरस्य संग्रामेष्वनिवर्तिनः | |
1943 | 5021011c | बलिनो वीर्ययुक्तस्या भार्यात्वं किं न लप्स्यसे | |
1944 | 5021012a | प्रियां बहुमतां भार्यां त्यक्त्वा राजा महाबलः | |
1945 | 5021012c | सर्वासां च महाभागां त्वामुपैष्यति रावणः | |
1946 | 5021013a | समृद्धं स्त्रीसहस्रेण नानारत्नोपशोभितम् | |
1947 | 5021013c | अन्तःपुरं समुत्सृज्य त्वामुपैष्यति रावणः | |
1948 | 5021014a | असकृद्देवता युद्धे नागगन्धर्वदानवाः | |
1949 | 5021014c | निर्जिताः समरे येन स ते पार्श्वमुपागतः | |
1950 | 5021015a | तस्य सर्वसमृद्धस्या रावणस्य महात्मनः | |
1951 | 5021015c | किमर्थं राक्षसेन्द्रस्य भार्यात्वं नेच्छसेऽधमे | |
1952 | 5021016a | यस्य सूर्यो न तपति भीतो यस्य च मारुतः | |
1953 | 5021016c | न वाति स्मायतापाङ्गे किं त्वं तस्य न तिष्ठसि | |
1954 | 5021017a | पुष्पवृष्टिं च तरवो मुमुचुर्यस्य वै भयात् | |
1955 | 5021017c | शैलाश्च सुभ्रु पानीयं जलदाश्च यदेच्छति | |
1956 | 5021018a | तस्य नैरृतराजस्य राजराजस्य भामिनि | |
1957 | 5021018c | किं त्वं न कुरुषे बुद्धिं भार्यार्थे रावणस्य हि | |
1958 | 5021019a | साधु ते तत्त्वतो देवि कथितं साधु भामिनि | |
1959 | 5021019c | गृहाण सुस्मिते वाक्यमन्यथा न भविष्यसि | |
1960 | 5022001a | ततः सीतामुपागम्य राक्षस्यो विकृताननाः | मूल |
1961 | 5022001c | परुषं परुषा नार्य ऊचुस्ता वाक्यमप्रियम् | मूल |
1962 | 5022002a | किं त्वमन्तःपुरे सीते सर्वभूतमनोहरे | मूल |
1963 | 5022002c | महार्हशयनोपेते न वासमनुमन्यसे | मूल |
1964 | 5022003a | मानुषी मानुषस्यैव भार्यात्वं बहु मन्यसे | मूल |
1965 | 5022003c | प्रत्याहर मनो रामान्न त्वं जातु भविष्यसि | मूल |
1966 | 5022004a | मानुषी मानुषं तं तु राममिच्छसि शोभने | मूल |
1967 | 5022004c | राज्याद्भ्रष्टमसिद्धार्थं विक्लवं तमनिन्दिते | मूल |
1968 | 5022005a | राक्षसीनां वचः श्रुत्वा सीता पद्मनिभेक्षणा | मूल |
1969 | 5022005c | नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यामिदं वचनमब्रवीत् | मूल |
1970 | 5022006a | यदिदं लोकविद्विष्टमुदाहरथ संगताः | मूल |
1971 | 5022006c | नैतन्मनसि वाक्यं मे किल्बिषं प्रतितिष्ठति | मूल |
1972 | 5022007a | न मानुषी राक्षसस्य भार्या भवितुमर्हति | मूल |
1973 | 5022007c | कामं खादत मां सर्वा न करिष्यामि वो वचः | मूल |
1974 | 5022007e | दीनो वा राज्यहीनो वा यो मे भर्ता स मे गुरुः | मूल |
1975 | 5022008a | सीताया वचनं श्रुत्वा राक्षस्यः क्रोधमूर्छिताः | मूल |
1976 | 5022008c | भर्त्सयन्ति स्म परुषैर्वाक्यै रावणचोदिताः | मूल |
1977 | 5022009a | अवलीनः स निर्वाक्यो हनुमाञ्शिंशपाद्रुमे | मूल |
1978 | 5022009c | सीतां संतर्जयन्तीस्ता राक्षसीरशृणोत्कपिः | मूल |
1979 | 5022010a | तामभिक्रम्य संरब्धा वेपमानां समन्ततः | मूल |
1980 | 5022010c | भृशं संलिलिहुर्दीप्तान्प्रलम्बदशनच्छदान् | मूल |
1981 | 5022011a | ऊचुश्च परमक्रुद्धाः प्रगृह्याशु परश्वधान् | मूल |
1982 | 5022011c | नेयमर्हति भर्तारं रावणं राक्षसाधिपम् | मूल |
1983 | 5022012a | सा भर्त्स्यमाना भीमाभी राक्षसीभिर्वरानना | मूल |
1984 | 5022012c | सा बाष्पमपमार्जन्ती शिंशपां तामुपागमत् | मूल |
1985 | 5022013a | ततस्तां शिंशपां सीता राक्षसीभिः समावृता | मूल |
1986 | 5022013c | अभिगम्य विशालाक्षी तस्थौ शोकपरिप्लुता | मूल |
1987 | 5022014a | तां कृशां दीनवदनां मलिनाम्बरधारिणीम् | मूल |
1988 | 5022014c | भर्त्सयां चक्रिरे भीमा राक्षस्यस्ताः समन्ततः | मूल |
1989 | 5022015a | ततस्तां विनता नाम राक्षसी भीमदर्शना | मूल |
1990 | 5022015c | अब्रवीत्कुपिताकारा कराला निर्णतोदरी | मूल |
1991 | 5022016a | सीते पर्याप्तमेतावद्भर्तृस्नेहो निदर्शितः | मूल |
1992 | 5022016c | सर्वत्रातिकृतं भद्रे व्यसनायोपकल्पते | मूल |
1993 | 5022017a | परितुष्टास्मि भद्रं ते मानुषस्ते कृतो विधिः | मूल |
1994 | 5022017c | ममापि तु वचः पथ्यं ब्रुवन्त्याः कुरु मैथिलि | मूल |
1995 | 5022018a | रावणं भज भर्तारं भर्तारं सर्वरक्षसाम् | मूल |
1996 | 5022018c | विक्रान्तं रूपवन्तं च सुरेशमिव वासवम् | मूल |
1997 | 5022019a | दक्षिणं त्यागशीलं च सर्वस्य प्रियवादिनम् | मूल |
1998 | 5022019c | मानुषं कृपणं रामं त्यक्त्वा रावणमाश्रय | मूल |
1999 | 5022020a | दिव्याङ्गरागा वैदेहि दिव्याभरणभूषिता | मूल |
2000 | 5022020c | अद्य प्रभृति सर्वेषां लोकानामीश्वरी भव | मूल |
2001 | 5022020e | अग्नेः स्वाहा यथा देवी शचीवेन्द्रस्य शोभने | मूल |
2002 | 5022021a | किं ते रामेण वैदेहि कृपणेन गतायुषा | मूल |
2003 | 5022022a | एतदुक्तं च मे वाक्यं यदि त्वं न करिष्यसि | मूल |
2004 | 5022022c | अस्मिन्मुहूर्ते सर्वास्त्वां भक्षयिष्यामहे वयम् | मूल |
2005 | 5022023a | अन्या तु विकटा नाम लम्बमानपयोधरा | मूल |
2006 | 5022023c | अब्रवीत्कुपिता सीतां मुष्टिमुद्यम्य गर्जती | मूल |
2007 | 5022024a | बहून्यप्रतिरूपाणि वचनानि सुदुर्मते | मूल |
2008 | 5022024c | अनुक्रोशान्मृदुत्वाच्च सोढानि तव मैथिलि | मूल |
2009 | 5022024e | न च नः कुरुषे वाक्यं हितं कालपुरस्कृतम् | मूल |
2010 | 5022025a | आनीतासि समुद्रस्य पारमन्यैर्दुरासदम् | मूल |
2011 | 5022025c | रावणान्तःपुरं घोरं प्रविष्टा चासि मैथिलि | मूल |
2012 | 5022026a | रावणस्य गृहे रुधा अस्माभिस्तु सुरक्षिता | मूल |
2013 | 5022026c | न त्वां शक्तः परित्रातुमपि साक्षात्पुरंदरः | मूल |
2014 | 5022027a | कुरुष्व हितवादिन्या वचनं मम मैथिलि | मूल |
2015 | 5022027c | अलमश्रुप्रपातेन त्यज शोकमनर्थकम् | मूल |
2016 | 5022028a | भज प्रीतिं प्रहर्षं च त्यजैतां नित्यदैन्यताम् | मूल |
2017 | 5022028c | सीते राक्षसराजेन सह क्रीड यथासुखम् | मूल |
2018 | 5022029a | जानासि हि यथा भीरु स्त्रीणां यौवनमध्रुवम् | मूल |
2019 | 5022029c | यावन्न ते व्यतिक्रामेत्तावत्सुखमवाप्नुहि | मूल |
2020 | 5022030a | उद्यानानि च रम्याणि पर्वतोपवनानि च | मूल |
2021 | 5022030c | सह राक्षसराजेन चर त्वं मदिरेक्षणे | मूल |
2022 | 5022031a | स्त्रीसहस्राणि ते सप्त वशे स्थास्यन्ति सुन्दरि | मूल |
2023 | 5022031c | रावणं भज भर्तारं भर्तारं सर्वरक्षसाम् | मूल |
2024 | 5022032a | उत्पाट्य वा ते हृदयं भक्षयिष्यामि मैथिलि | मूल |
2025 | 5022032c | यदि मे व्याहृतं वाक्यं न यथावत्करिष्यसि | मूल |
2026 | 5022033a | ततश्चण्डोदरी नाम राक्षसी क्रूरदर्शना | मूल |
2027 | 5022033c | भ्रामयन्ती महच्छूलमिदं वचनमब्रवीत् | मूल |
2028 | 5022034a | इमां हरिणलोकाक्षीं त्रासोत्कम्पपयोधराम् | मूल |
2029 | 5022034c | रावणेन हृतां दृष्ट्वा दौर्हृदो मे महानभूत् | मूल |
2030 | 5022035a | यकृत्प्लीहमथोत्पीडं हृदयं च सबन्धनम् | मूल |
2031 | 5022035c | अन्त्राण्यपि तथा शीर्षं खादेयमिति मे मतिः | मूल |
2032 | 5022036a | ततस्तु प्रघसा नाम राक्षसी वाक्यमब्रवीत् | मूल |
2033 | 5022036c | कण्ठमस्या नृशंसायाः पीडयामः किमास्यते | मूल |
2034 | 5022037a | निवेद्यतां ततो राज्ञे मानुषी सा मृतेति ह | मूल |
2035 | 5022037c | नात्र कश्चन संदेहः खादतेति स वक्ष्यति | मूल |
2036 | 5022038a | ततस्त्वजामुखी नाम राक्षसी वाक्यमब्रवीत् | मूल |
2037 | 5022038c | विशस्येमां ततः सर्वान्समान्कुरुत पीलुकान् | मूल |
2038 | 5022039a | विभजाम ततः सर्वा विवादो मे न रोचते | मूल |
2039 | 5022039c | पेयमानीयतां क्षिप्रं माल्यं च विविधं बहु | मूल |
2040 | 5022040a | ततः शूर्पणखा नाम राक्षसी वाक्यमब्रवीत् | मूल |
2041 | 5022040c | अजामुखा यदुक्तं हि तदेव मम रोचते | मूल |
2042 | 5022041a | सुरा चानीयतां क्षिप्रं सर्वशोकविनाशिनी | मूल |
2043 | 5022041c | मानुषं मांसमासाद्य नृत्यामोऽथ निकुम्भिलाम् | मूल |
2044 | 5022042a | एवं संभर्त्स्यमाना सा सीता सुरसुतोपमा | मूल |
2045 | 5022042c | राक्षसीभिः सुघोराभिर्धैर्यमुत्सृज्य रोदिति | मूल |
2046 | 5023001a | तथा तासां वदन्तीनां परुषं दारुणं बहु | मूल |
2047 | 5023001c | राक्षसीनामसौम्यानां रुरोद जनकात्मजा | मूल |
2048 | 5023002a | एवमुक्ता तु वैदेही राक्षसीभिर्मनस्विनी | मूल |
2049 | 5023002c | उवाच परमत्रस्ता बाष्पगद्गदया गिरा | मूल |
2050 | 5023003a | न मानुषी राक्षसस्य भार्या भवितुमर्हति | मूल |
2051 | 5023003c | कामं खादत मां सर्वा न करिष्यामि वो वचः | मूल |
2052 | 5023004a | सा राक्षसी मध्यगता सीता सुरसुतोपमा | मूल |
2053 | 5023004c | न शर्म लेभे दुःखार्ता रावणेन च तर्जिता | मूल |
2054 | 5023005a | वेपते स्माधिकं सीता विशन्तीवाङ्गमात्मनः | मूल |
2055 | 5023005c | वने यूथपरिभ्रष्टा मृगी कोकैरिवार्दिता | मूल |
2056 | 5023006a | सा त्वशोकस्य विपुलां शाखामालम्ब्य पुष्पिताम् | मूल |
2057 | 5023006c | चिन्तयामास शोकेन भर्तारं भग्नमानसा | मूल |
2058 | 5023007a | सा स्नापयन्ती विपुलौ स्तनौ नेत्रजलस्रवैः | मूल |
2059 | 5023007c | चिन्तयन्ती न शोकस्य तदान्तमधिगच्छति | मूल |
2060 | 5023008a | सा वेपमाना पतिता प्रवाते कदली यथा | मूल |
2061 | 5023008c | राक्षसीनां भयत्रस्ता विवर्णवदनाभवत् | मूल |
2062 | 5023009a | तस्या सा दीर्घविपुला वेपन्त्याः सीतया तदा | मूल |
2063 | 5023009c | ददृशे कम्पिनी वेणी व्यालीव परिसर्पती | मूल |
2064 | 5023010a | सा निःश्वसन्ती दुःखार्ता शोकोपहतचेतना | मूल |
2065 | 5023010c | आर्ता व्यसृजदश्रूणि मैथिली विललाप ह | मूल |
2066 | 5023011a | हा रामेति च दुःखार्ता पुनर्हा लक्ष्मणेति च | मूल |
2067 | 5023011c | हा श्वश्रु मम कौसल्ये हा सुमित्रेति भाविनि | मूल |
2068 | 5023012a | लोकप्रवादः सत्योऽयं पण्डितैः समुदाहृतः | मूल |
2069 | 5023012c | अकाले दुर्लभो मृत्युः स्त्रिया वा पुरुषस्य वा | मूल |
2070 | 5023013a | यत्राहमाभिः क्रूराभी राक्षसीभिरिहार्दिता | मूल |
2071 | 5023013c | जीवामि हीना रामेण मुहूर्तमपि दुःखिता | मूल |
2072 | 5023014a | एषाल्पपुण्या कृपणा विनशिष्याम्यनाथवत् | मूल |
2073 | 5023014c | समुद्रमध्ये नौ पूर्णा वायुवेगैरिवाहता | मूल |
2074 | 5023015a | भर्तारं तमपश्यन्ती राक्षसीवशमागता | मूल |
2075 | 5023015c | सीदामि खलु शोकेन कूलं तोयहतं यथा | मूल |
2076 | 5023016a | तं पद्मदलपत्राक्षं सिंहविक्रान्तगामिनम् | मूल |
2077 | 5023016c | धन्याः पश्यन्ति मे नाथं कृतज्ञं प्रियवादिनम् | मूल |
2078 | 5023017a | सर्वथा तेन हीनाया रामेण विदितात्मना | मूल |
2079 | 5023017c | तीष्क्णं विषमिवास्वाद्य दुर्लभं मम जीवितम् | मूल |
2080 | 5023018a | कीदृशं तु मया पापं पुरा देहान्तरे कृतम् | मूल |
2081 | 5023018c | येनेदं प्राप्यते दुःखं मया घोरं सुदारुणम् | मूल |
2082 | 5023019a | जीवितं त्यक्तुमिच्छामि शोकेन महता वृता | मूल |
2083 | 5023019c | राक्षसीभिश्च रक्षन्त्या रामो नासाद्यते मया | मूल |
2084 | 5023020a | धिगस्तु खलु मानुष्यं धिगस्तु परवश्यताम् | मूल |
2085 | 5023020c | न शक्यं यत्परित्यक्तुमात्मच्छन्देन जीवितम् | मूल |
2086 | 5024001a | प्रसक्ताश्रुमुखीत्येवं ब्रुवन्ती जनकात्मजा | मूल |
2087 | 5024001c | अधोमुखमुखी बाला विलप्तुमुपचक्रमे | मूल |
2088 | 5024002a | उन्मत्तेव प्रमत्तेव भ्रान्तचित्तेव शोचती | मूल |
2089 | 5024002c | उपावृत्ता किशोरीव विवेष्टन्ती महीतले | मूल |
2090 | 5024003a | राघवस्याप्रमत्तस्य रक्षसा कामरूपिणा | मूल |
2091 | 5024003c | रावणेन प्रमथ्याहमानीता क्रोशती बलात् | मूल |
2092 | 5024004a | राक्षसी वशमापन्ना भर्त्यमाना सुदारुणम् | मूल |
2093 | 5024004c | चिन्तयन्ती सुदुःखार्ता नाहं जीवितुमुत्सहे | मूल |
2094 | 5024005a | न हि मे जीवितेनार्थो नैवार्थैर्न च भूषणैः | मूल |
2095 | 5024005c | वसन्त्या राक्षसी मध्ये विना रामं महारथम् | मूल |
2096 | 5024006a | धिङ्मामनार्यामसतीं याहं तेन विना कृता | मूल |
2097 | 5024006c | मुहूर्तमपि रक्षामि जीवितं पापजीविता | मूल |
2098 | 5024007a | का च मे जीविते श्रद्धा सुखे वा तं प्रियं विना | मूल |
2099 | 5024007c | भर्तारं सागरान्ताया वसुधायाः प्रियं वदम् | मूल |
2100 | 5024008a | भिद्यतां भक्ष्यतां वापि शरीरं विसृजाम्यहम् | मूल |
2101 | 5024008c | न चाप्यहं चिरं दुःखं सहेयं प्रियवर्जिता | मूल |
2102 | 5024009a | चरणेनापि सव्येन न स्पृशेयं निशाचरम् | मूल |
2103 | 5024009c | रावणं किं पुनरहं कामयेयं विगर्हितम् | मूल |
2104 | 5024010a | प्रत्याख्यातं न जानाति नात्मानं नात्मनः कुलम् | मूल |
2105 | 5024010c | यो नृशंस स्वभावेन मां प्रार्थयितुमिच्छति | मूल |
2106 | 5024011a | छिन्ना भिन्ना विभक्ता वा दीप्ते वाग्नौ प्रदीपिता | मूल |
2107 | 5024011c | रावणं नोपतिष्ठेयं किं प्रलापेन वश्चिरम् | मूल |
2108 | 5024012a | ख्यातः प्राज्ञः कृतज्ञश्च सानुक्रोशश्च राघवः | मूल |
2109 | 5024012c | सद्वृत्तो निरनुक्रोशः शङ्के मद्भाग्यसंक्षयात् | मूल |
2110 | 5024013a | राक्षसानां जनस्थाने सहस्राणि चतुर्दश | मूल |
2111 | 5024013c | येनैकेन निरस्तानि स मां किं नाभिपद्यते | मूल |
2112 | 5024014a | निरुद्धा रावणेनाहमल्पवीर्येण रक्षसा | मूल |
2113 | 5024014c | समर्थः खलु मे भर्ता रावणं हन्तुमाहवे | मूल |
2114 | 5024015a | विराधो दण्डकारण्ये येन राक्षसपुंगवः | मूल |
2115 | 5024015c | रणे रामेण निहतः स मां किं नाभिपद्यते | मूल |
2116 | 5024016a | कामं मध्ये समुद्रस्य लङ्केयं दुष्प्रधर्षणा | मूल |
2117 | 5024016c | न तु राघवबाणानां गतिरोधी ह विद्यते | मूल |
2118 | 5024017a | किं नु तत्कारणं येन रामो दृढपराक्रमः | मूल |
2119 | 5024017c | रक्षसापहृतां भार्यामिष्टां नाभ्यवपद्यते | मूल |
2120 | 5024018a | इहस्थां मां न जानीते शङ्के लक्ष्मणपूर्वजः | मूल |
2121 | 5024018c | जानन्नपि हि तेजस्वी धर्षणां मर्षयिष्यति | मूल |
2122 | 5024019a | हृतेति योऽधिगत्वा मां राघवाय निवेदयेत् | मूल |
2123 | 5024019c | गृध्रराजोऽपि स रणे रावणेन निपातितः | मूल |
2124 | 5024020a | कृतं कर्म महत्तेन मां तदाभ्यवपद्यता | मूल |
2125 | 5024020c | तिष्ठता रावणद्वन्द्वे वृद्धेनापि जटायुषा | मूल |
2126 | 5024021a | यदि मामिह जानीयाद्वर्तमानां स राघवः | मूल |
2127 | 5024021c | अद्य बाणैरभिक्रुद्धः कुर्याल्लोकमराक्षसं | मूल |
2128 | 5024022a | विधमेच्च पुरीं लङ्कां शोषयेच्च महोदधिम् | मूल |
2129 | 5024022c | रावणस्य च नीचस्य कीर्तिं नाम च नाशयेत् | मूल |
2130 | 5024023a | ततो निहतनथानां राक्षसीनां गृहे गृहे | मूल |
2131 | 5024023c | यथाहमेवं रुदती तथा भूयो न संशयः | मूल |
2132 | 5024023e | अन्विष्य रक्षसां लङ्कां कुर्याद्रामः सलक्ष्मणः | मूल |
2133 | 5024024a | न हि ताभ्यां रिपुर्दृष्टो मुहूतमपि जीवति | मूल |
2134 | 5024024c | चिता धूमाकुलपथा गृध्रमण्डलसंकुला | मूल |
2135 | 5024024e | अचिरेण तु लङ्केयं श्मशानसदृशी भवेत् | मूल |
2136 | 5024025a | अचिरेणैव कालेन प्राप्स्याम्येव मनोरथम् | मूल |
2137 | 5024025c | दुष्प्रस्थानोऽयमाख्याति सर्वेषां वो विपर्ययः | मूल |
2138 | 5024026a | यादृशानि तु दृश्यन्ते लङ्कायामशुभानि तु | मूल |
2139 | 5024026c | अचिरेणैव कालेन भविष्यति हतप्रभा | मूल |
2140 | 5024027a | नूनं लङ्का हते पापे रावणे राक्षसाधिपे | मूल |
2141 | 5024027c | शोषं यास्यति दुर्धर्षा प्रमदा विधवा यथा | मूल |
2142 | 5024028a | पुष्योत्सवसमृद्धा च नष्टभर्त्री सराक्षसा | मूल |
2143 | 5024028c | भविष्यति पुरी लङ्का नष्टभर्त्री यथाङ्गना | मूल |
2144 | 5024029a | नूनं राक्षसकन्यानां रुदन्तीनां गृहे गृहे | मूल |
2145 | 5024029c | श्रोष्यामि नचिरादेव दुःखार्तानामिह ध्वनिम् | मूल |
2146 | 5024030a | सान्धकारा हतद्योता हतराक्षसपुंगवा | मूल |
2147 | 5024030c | भविष्यति पुरी लङ्का निर्दग्धा रामसायकैः | मूल |
2148 | 5024031a | यदि नाम स शूरो मां रामो रक्तान्तलोचनः | मूल |
2149 | 5024031c | जानीयाद्वर्तमानां हि रावणस्य निवेशने | मूल |
2150 | 5024032a | अनेन तु नृशंसेन रावणेनाधमेन मे | मूल |
2151 | 5024032c | समयो यस्तु निर्दिष्टस्तस्य कालोऽयमागतः | मूल |
2152 | 5024033a | अकार्यं ये न जानन्ति नैरृताः पापकारिणः | मूल |
2153 | 5024033c | अधर्मात्तु महोत्पातो भविष्यति हि साम्प्रतम् | मूल |
2154 | 5024034a | नैते धर्मं विजानन्ति राक्षसाः पिशिताशनाः | मूल |
2155 | 5024034c | ध्रुवं मां प्रातराशार्थे राक्षसः कल्पयिष्यति | मूल |
2156 | 5024035a | साहं कथं करिष्यामि तं विना प्रियदर्शनम् | मूल |
2157 | 5024035c | रामं रक्तान्तनयनमपश्यन्ती सुदुःखिता | मूल |
2158 | 5024036a | यदि कश्चित्प्रदाता मे विषस्याद्य भवेदिह | मूल |
2159 | 5024036c | क्षिप्रं वैवस्वतं देवं पश्येयं पतिना विना | मूल |
2160 | 5024037a | नाजानाज्जीवतीं रामः स मां लक्ष्मणपूर्वजः | मूल |
2161 | 5024037c | जानन्तौ तौ न कुर्यातां नोर्व्यां हि मम मार्गणम् | मूल |
2162 | 5024038a | नूनं ममैव शोकेन स वीरो लक्ष्मणाग्रजः | मूल |
2163 | 5024038c | देवलोकमितो यातस्त्यक्त्वा देहं महीतले | मूल |
2164 | 5024039a | धन्या देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः | मूल |
2165 | 5024039c | मम पश्यन्ति ये नाथं रामं राजीवलोचनम् | मूल |
2166 | 5024040a | अथ वा न हि तस्यार्थे धर्मकामस्य धीमतः | मूल |
2167 | 5024040c | मया रामस्य राजर्षेर्भार्यया परमात्मनः | मूल |
2168 | 5024041a | दृश्यमाने भवेत्प्रीतः सौहृदं नास्त्यपश्यतः | मूल |
2169 | 5024041c | नाशयन्ति कृतघ्रास्तु न रामो नाशयिष्यति | मूल |
2170 | 5024042a | किं नु मे न गुणाः केचित्किं वा भाग्य क्षयो हि मे | मूल |
2171 | 5024042c | याहं सीता वरार्हेण हीना रामेण भामिनी | मूल |
2172 | 5024043a | श्रेयो मे जीवितान्मर्तुं विहीना या महात्मना | मूल |
2173 | 5024043c | रामादक्लिष्टचारित्राच्छूराच्छत्रुनिबर्हणात् | मूल |
2174 | 5024044a | अथ वा न्यस्तशस्त्रौ तौ वने मूलफलाशनौ | मूल |
2175 | 5024044c | भ्रातरौ हि नर श्रेष्ठौ चरन्तौ वनगोचरौ | मूल |
2176 | 5024045a | अथ वा राक्षसेन्द्रेण रावणेन दुरात्मना | मूल |
2177 | 5024045c | छद्मना घातितौ शूरौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ | मूल |
2178 | 5024046a | साहमेवंगते काले मर्तुमिच्छामि सर्वथा | मूल |
2179 | 5024046c | न च मे विहितो मृत्युरस्मिन्दुःखेऽपि वर्तति | मूल |
2180 | 5024047a | धन्याः खलु महात्मानो मुनयः सत्यसंमताः | मूल |
2181 | 5024047c | जितात्मानो महाभागा येषां न स्तः प्रियाप्रिये | मूल |
2182 | 5024048a | प्रियान्न संभवेद्दुःखमप्रियादधिकं भयम् | मूल |
2183 | 5024048c | ताभ्यां हि ये वियुज्यन्ते नमस्तेषां महात्मनाम् | मूल |
2184 | 5024049a | साहं त्यक्ता प्रियेणेह रामेण विदितात्मना | मूल |
2185 | 5024049c | प्राणांस्त्यक्ष्यामि पापस्य रावणस्य गता वशम् | मूल |
2186 | 5025001a | इत्युक्ताः सीतया घोरं राक्षस्यः क्रोधमूर्छिताः | मूल |
2187 | 5025001c | काश्चिज्जग्मुस्तदाख्यातुं रावणस्य तरस्विनः | मूल |
2188 | 5025002a | ततः सीतामुपागम्य राक्षस्यो घोरदर्शनाः | मूल |
2189 | 5025002c | पुनः परुषमेकार्थमनर्थार्थमथाब्रुवन् | मूल |
2190 | 5025003a | हन्तेदानीं तवानार्ये सीते पापविनिश्चये | मूल |
2191 | 5025003c | राक्षस्यो भक्षयिष्यन्ति मांसमेतद्यथासुखम् | मूल |
2192 | 5025004a | सीतां ताभिरनार्याभिर्दृष्ट्वा संतर्जितां तदा | मूल |
2193 | 5025004c | राक्षसी त्रिजटावृद्धा शयाना वाक्यमब्रवीत् | मूल |
2194 | 5025005a | आत्मानं खादतानार्या न सीतां भक्षयिष्यथ | मूल |
2195 | 5025005c | जनकस्य सुतामिष्टां स्नुषां दशरथस्य च | मूल |
2196 | 5025006a | स्वप्नो ह्यद्य मया दृष्टो दारुणो रोमहर्षणः | मूल |
2197 | 5025006c | राक्षसानामभावाय भर्तुरस्या भवाय च | मूल |
2198 | 5025007a | एवमुक्तास्त्रिजटया राक्षस्यः क्रोधमूर्छिताः | मूल |
2199 | 5025007c | सर्वा एवाब्रुवन्भीतास्त्रिजटां तामिदं वचः | मूल |
2200 | 5025008a | कथयस्व त्वया दृष्टः स्वप्नेऽयं कीदृशो निशि | मूल |
2201 | 5025009a | तासां श्रुत्वा तु वचनं राक्षसीनां मुखोद्गतम् | मूल |
2202 | 5025009c | उवाच वचनं काले त्रिजटास्वप्नसंश्रितम् | मूल |
2203 | 5025010a | गजदन्तमयीं दिव्यां शिबिकामन्तरिक्षगाम् | मूल |
2204 | 5025010c | युक्तां वाजिसहस्रेण स्वयमास्थाय राघवः | मूल |
2205 | 5025011a | स्वप्ने चाद्य मया दृष्टा सीता शुक्लाम्बरावृता | मूल |
2206 | 5025011c | सागरेण परिक्षिप्तं श्वेतपर्वतमास्थिता | मूल |
2207 | 5025011e | रामेण संगता सीता भास्करेण प्रभा यथा | मूल |
2208 | 5025012a | राघवश्च मया दृष्टश्चतुर्दन्तं महागजम् | मूल |
2209 | 5025012c | आरूढः शैलसंकाशं चचार सहलक्ष्मणः | मूल |
2210 | 5025013a | ततस्तौ नरशार्दूलौ दीप्यमानौ स्वतेजसा | मूल |
2211 | 5025013c | शुक्लमाल्याम्बरधरौ जानकीं पर्युपस्थितौ | मूल |
2212 | 5025014a | ततस्तस्य नगस्याग्रे आकाशस्थस्य दन्तिनः | मूल |
2213 | 5025014c | भर्त्रा परिगृहीतस्य जानकी स्कन्धमाश्रिता | मूल |
2214 | 5025015a | भर्तुरङ्कात्समुत्पत्य ततः कमललोचना | मूल |
2215 | 5025015c | चन्द्रसूर्यौ मया दृष्टा पाणिभ्यां परिमार्जती | मूल |
2216 | 5025016a | ततस्ताभ्यां कुमाराभ्यामास्थितः स गजोत्तमः | मूल |
2217 | 5025016c | सीतया च विशालाक्ष्या लङ्काया उपरि स्थितः | मूल |
2218 | 5025017a | पाण्डुरर्षभयुक्तेन रथेनाष्टयुजा स्वयम् | मूल |
2219 | 5025017c | शुक्लमाल्याम्बरधरो लक्ष्मणेन समागतः | मूल |
2220 | 5025017e | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया सह भार्यया | मूल |
2221 | 5025018a | विमानात्पुष्पकादद्य रावणः पतितो भुवि | मूल |
2222 | 5025018c | कृष्यपाणः स्त्रिया दृष्टो मुण्डः कृष्णाम्बरः पुनः | मूल |
2223 | 5025019a | रथेन खरयुक्तेन रक्तमाल्यानुलेपनः | मूल |
2224 | 5025019c | प्रयातो दक्षिणामाशां प्रविष्टः कर्दमं ह्रदम् | मूल |
2225 | 5025020a | कण्ठे बद्ध्वा दशग्रीवं प्रमदा रक्तवासिनी | मूल |
2226 | 5025020c | काली कर्दमलिप्ताङ्गी दिशं याम्यां प्रकर्षति | मूल |
2227 | 5025021a | वराहेण दशग्रीवः शिंशुमारेण चेन्द्रजित् | मूल |
2228 | 5025021c | उष्ट्रेण कुम्भकर्णश्च प्रयातो दक्षिणां दिशम् | मूल |
2229 | 5025022a | समाजश्च महान्वृत्तो गीतवादित्रनिःस्वनः | मूल |
2230 | 5025022c | पिबतां रक्तमाल्यानां रक्षसां रक्तवाससाम् | मूल |
2231 | 5025023a | लङ्का चेयं पुरी रम्या सवाजिरथसंकुला | मूल |
2232 | 5025023c | सागरे पतिता दृष्टा भग्नगोपुरतोरणा | मूल |
2233 | 5025024a | पीत्व तैलं प्रनृत्ताश्च प्रहसन्त्यो महास्वनाः | मूल |
2234 | 5025024c | लङ्कायां भस्मरूक्षायां सर्वा राक्षसयोषितः | मूल |
2235 | 5025025a | कुम्भकर्णादयश्चेमे सर्वे राक्षसपुंगवाः | मूल |
2236 | 5025025c | रक्तं निवसनं गृह्य प्रविष्टा गोमयह्रदे | मूल |
2237 | 5025026a | अपगच्छत नश्यध्वं सीतामाप्नोति राघवः | मूल |
2238 | 5025026c | घातयेत्परमामर्षी सर्वैः सार्धं हि राक्षसैः | मूल |
2239 | 5025027a | प्रियां बहुमतां भार्यां वनवासमनुव्रताम् | मूल |
2240 | 5025027c | भर्त्सितां तर्जितां वापि नानुमंस्यति राघवः | मूल |
2241 | 5025028a | तदलं क्रूरवाक्यैर्वः सान्त्वमेवाभिधीयताम् | मूल |
2242 | 5025028c | अभियाचाम वैदेहीमेतद्धि मम रोचते | मूल |
2243 | 5025029a | यस्या ह्येवं विधः स्वप्नो दुःखितायाः प्रदृश्यते | मूल |
2244 | 5025029c | सा दुःखैर्बहुभिर्मुक्ता प्रियं प्राप्नोत्यनुत्तमम् | मूल |
2245 | 5025030a | भर्त्सितामपि याचध्वं राक्षस्यः किं विवक्षया | मूल |
2246 | 5025030c | राघवाद्धि भयं घोरं राक्षसानामुपस्थितम् | मूल |
2247 | 5025031a | प्रणिपात प्रसन्ना हि मैथिली जनकात्मजा | मूल |
2248 | 5025031c | अलमेषा परित्रातुं राक्षस्यो महतो भयात् | मूल |
2249 | 5025032a | अपि चास्या विशालाक्ष्या न किंचिदुपलक्षये | मूल |
2250 | 5025032c | विरुद्धमपि चाङ्गेषु सुसूक्ष्ममपि लक्ष्मणम् | मूल |
2251 | 5025033a | छाया वैगुण्य मात्रं तु शङ्के दुःखमुपस्थितम् | मूल |
2252 | 5025033c | अदुःखार्हामिमां देवीं वैहायसमुपस्थिताम् | मूल |
2253 | 5025034a | अर्थसिद्धिं तु वैदेह्याः पश्याम्यहमुपस्थिताम् | मूल |
2254 | 5025034c | राक्षसेन्द्रविनाशं च विजयं राघवस्य च | मूल |
2255 | 5025035a | निमित्तभूतमेतत्तु श्रोतुमस्या महत्प्रियम् | मूल |
2256 | 5025035c | दृश्यते च स्फुरच्चक्षुः पद्मपत्रमिवायतम् | मूल |
2257 | 5025036a | ईषच्च हृषितो वास्या दक्षिणाया ह्यदक्षिणः | मूल |
2258 | 5025036c | अकस्मादेव वैदेह्या बाहुरेकः प्रकम्पते | मूल |
2259 | 5025037a | करेणुहस्तप्रतिमः सव्यश्चोरुरनुत्तमः | मूल |
2260 | 5025037c | वेपन्सूचयतीवास्या राघवं पुरतः स्थितम् | मूल |
2261 | 5025038a | पक्षी च शाखा निलयं प्रविष्टः; पुनः पुनश्चोत्तमसान्त्ववादी | मूल |
2262 | 5025038c | सुखागतां वाचमुदीरयाणः; पुनः पुनश्चोदयतीव हृष्टः | मूल |
2263 | 5026001a | सा राक्षसेन्द्रस्य वचो निशम्य; तद्रावणस्याप्रियमप्रियार्ता | मूल |
2264 | 5026001c | सीता वितत्रास यथा वनान्ते; सिंहाभिपन्ना गजराजकन्या | मूल |
2265 | 5026002a | सा राक्षसी मध्यगता च भीरु;र्वाग्भिर्भृशं रावणतर्जिता च | मूल |
2266 | 5026002c | कान्तारमध्ये विजने विसृष्टा; बालेव कन्या विललाप सीता | मूल |
2267 | 5026003a | सत्यं बतेदं प्रवदन्ति लोके; नाकालमृत्युर्भवतीति सन्तः | मूल |
2268 | 5026003c | यत्राहमेवं परिभर्त्स्यमाना; जीवामि किंचित्क्षणमप्यपुण्या | मूल |
2269 | 5026004a | सुखाद्विहीनं बहुदुःखपूर्ण;मिदं तु नूनं हृदयं स्थिरं मे | मूल |
2270 | 5026004c | विदीर्यते यन्न सहस्रधाद्य; वज्राहतं शृङ्गमिवाचलस्य | मूल |
2271 | 5026005a | नैवास्ति नूनं मम दोषमत्र; वध्याहमस्याप्रियदर्शनस्य | मूल |
2272 | 5026005c | भावं न चास्याहमनुप्रदातु;मलं द्विजो मन्त्रमिवाद्विजाय | मूल |
2273 | 5026006a | नूनं ममाङ्गान्यचिरादनार्यः; शस्त्रैः शितैश्छेत्स्यति राक्षसेन्द्रः | मूल |
2274 | 5026006c | तस्मिन्ननागच्छति लोकनाथे; गर्भस्थजन्तोरिव शल्यकृन्तः | मूल |
2275 | 5026007a | दुःखं बतेदं मम दुःखिताया; मासौ चिरायाभिगमिष्यतो द्वौ | मूल |
2276 | 5026007c | बद्धस्य वध्यस्य यथा निशान्ते; राजापराधादिव तस्करस्य | मूल |
2277 | 5026008a | हा राम हा लक्ष्मण हा सुमित्रे; हा राम मातः सह मे जनन्या | मूल |
2278 | 5026008c | एषा विपद्याम्यहमल्पभाग्या; महार्णवे नौरिव मूढ वाता | मूल |
2279 | 5026009a | तरस्विनौ धारयता मृगस्य; सत्त्वेन रूपं मनुजेन्द्रपुत्रौ | मूल |
2280 | 5026009c | नूनं विशस्तौ मम कारणात्तौ; सिंहर्षभौ द्वाविव वैद्युतेन | मूल |
2281 | 5026010a | नूनं स कालो मृगरूपधारी; मामल्पभाग्यां लुलुभे तदानीम् | मूल |
2282 | 5026010c | यत्रार्यपुत्रं विससर्ज मूढा; रामानुजं लक्ष्मणपूर्वकं च | मूल |
2283 | 5026011a | हा राम सत्यव्रत दीर्घवाहो; हा पूर्णचन्द्रप्रतिमानवक्त्र | मूल |
2284 | 5026011c | हा जीवलोकस्य हितः प्रियश्च; वध्यां न मां वेत्सि हि राक्षसानाम् | मूल |
2285 | 5026012a | अनन्यदेवत्वमियं क्षमा च; भूमौ च शय्या नियमश्च धर्मे | मूल |
2286 | 5026012c | पतिव्रतात्वं विफलं ममेदं; कृतं कृतघ्नेष्विव मानुषाणाम् | मूल |
2287 | 5026013a | मोघो हि धर्मश्चरितो ममायं; तथैकपत्नीत्वमिदं निरर्थम् | मूल |
2288 | 5026013c | या त्वां न पश्यामि कृशा विवर्णा; हीना त्वया संगमने निराशा | मूल |
2289 | 5026014a | पितुर्निर्देशं नियमेन कृत्वा; वनान्निवृत्तश्चरितव्रतश्च | मूल |
2290 | 5026014c | स्त्रीभिस्तु मन्ये विपुलेक्षणाभिः; संरंस्यसे वीतभयः कृतार्थः | मूल |
2291 | 5026015a | अहं तु राम त्वयि जातकामा; चिरं विनाशाय निबद्धभावा | मूल |
2292 | 5026015c | मोघं चरित्वाथ तपोव्रतं च; त्यक्ष्यामि धिग्जीवितमल्पभाग्या | मूल |
2293 | 5026016a | सा जीवितं क्षिप्रमहं त्यजेयं; विषेण शस्त्रेण शितेन वापि | मूल |
2294 | 5026016c | विषस्य दाता न तु मेऽस्ति कश्चि;च्छस्त्रस्य वा वेश्मनि राक्षसस्य | मूल |
2295 | 5026017a | शोकाभितप्ता बहुधा विचिन्त्य; सीताथ वेण्युद्ग्रथनं गृहीत्वा | मूल |
2296 | 5026017c | उद्बध्य वेण्युद्ग्रथनेन शीघ्र;महं गमिष्यामि यमस्य मूलम् | मूल |
2297 | 5026018a | इतीव सीता बहुधा विलप्य; सर्वात्मना राममनुस्मरन्ती | मूल |
2298 | 5026018c | प्रवेपमाना परिशुष्कवक्त्रा; नगोत्तमं पुष्पितमाससाद | मूल |
2299 | 5026019a | उपस्थिता सा मृदुर्सर्वगात्री; शाखां गृहीत्वाथ नगस्य तस्य | मूल |
2300 | 5026019c | तस्यास्तु रामं प्रविचिन्तयन्त्या; रामानुजं स्वं च कुलं शुभाङ्ग्याः | मूल |
2301 | 5026020a | शोकानिमित्तानि तदा बहूनि; धैर्यार्जितानि प्रवराणि लोके | मूल |
2302 | 5026020c | प्रादुर्निमित्तानि तदा बभूवुः; पुरापि सिद्धान्युपलक्षितानि | मूल |
2303 | 5027001a | तथागतां तां व्यथितामनिन्दितां; व्यपेतहर्षां परिदीनमानसाम् | मूल |
2304 | 5027001c | शुभां निमित्तानि शुभानि भेजिरे; नरं श्रिया जुष्टमिवोपजीविनः | मूल |
2305 | 5027002a | तस्याः शुभं वाममरालपक्ष्म; राजीवृतं कृष्णविशालशुक्लम् | मूल |
2306 | 5027002c | प्रास्पन्दतैकं नयनं सुकेश्या; मीनाहतं पद्ममिवाभिताम्रम् | मूल |
2307 | 5027003a | भुजश्च चार्वञ्चितपीनवृत्तः; परार्ध्य कालागुरुचन्दनार्हः | मूल |
2308 | 5027003c | अनुत्तमेनाध्युषितः प्रियेण; चिरेण वामः समवेपताशु | मूल |
2309 | 5027004a | गजेन्द्रहस्तप्रतिमश्च पीन;स्तयोर्द्वयोः संहतयोः सुजातः | मूल |
2310 | 5027004c | प्रस्पन्दमानः पुनरूरुरस्या; रामं पुरस्तात्स्थितमाचचक्षे | मूल |
2311 | 5027005a | शुभं पुनर्हेमसमानवर्ण;मीषद्रजोध्वस्तमिवामलाक्ष्याः | मूल |
2312 | 5027005c | वासः स्थितायाः शिखराग्रदन्त्याः; किंचित्परिस्रंसत चारुगात्र्याः | मूल |
2313 | 5027006a | एतैर्निमित्तैरपरैश्च सुभ्रूः; संबोधिता प्रागपि साधुसिद्धैः | मूल |
2314 | 5027006c | वातातपक्लान्तमिव प्रनष्टं; वर्षेण बीजं प्रतिसंजहर्ष | मूल |
2315 | 5027007a | तस्याः पुनर्बिम्बफलोपमौष्ठं; स्वक्षिभ्रुकेशान्तमरालपक्ष्म | मूल |
2316 | 5027007c | वक्त्रं बभासे सितशुक्लदंष्ट्रं; राहोर्मुखाच्चन्द्र इव प्रमुक्तः | मूल |
2317 | 5027008a | सा वीतशोका व्यपनीततन्द्री; शान्तज्वरा हर्षविबुद्धसत्त्वा | मूल |
2318 | 5027008c | अशोभतार्या वदनेन शुक्ले; शीतान्शुना रात्रिरिवोदितेन | मूल |
2319 | 5028001a | हनुमानपि विक्रान्तः सर्वं शुश्राव तत्त्वतः | मूल |
2320 | 5028001c | सीतायास्त्रिजटायाश्च राक्षसीनां च तर्जनम् | मूल |
2321 | 5028002a | अवेक्षमाणस्तां देवीं देवतामिव नन्दने | मूल |
2322 | 5028002c | ततो बहुविधां चिन्तां चिन्तयामास वानरः | मूल |
2323 | 5028003a | यां कपीनां सहस्राणि सुबहून्ययुतानि च | मूल |
2324 | 5028003c | दिक्षु सर्वासु मार्गन्ते सेयमासादिता मया | मूल |
2325 | 5028004a | चारेण तु सुयुक्तेन शत्रोः शक्तिमवेक्षिता | मूल |
2326 | 5028004c | गूढेन चरता तावदवेक्षितमिदं मया | मूल |
2327 | 5028005a | राक्षसानां विशेषश्च पुरी चेयमवेक्षिता | मूल |
2328 | 5028005c | राक्षसाधिपतेरस्य प्रभावो रावणस्य च | मूल |
2329 | 5028006a | युक्तं तस्याप्रमेयस्य सर्वसत्त्वदयावतः | मूल |
2330 | 5028006c | समाश्वासयितुं भार्यां पतिदर्शनकाङ्क्षिणीम् | मूल |
2331 | 5028007a | अहमाश्वासयाम्येनां पूर्णचन्द्रनिभाननाम् | मूल |
2332 | 5028007c | अदृष्टदुःखां दुःखस्य न ह्यन्तमधिगच्छतीम् | मूल |
2333 | 5028008a | यदि ह्यहमिमां देवीं शोकोपहतचेतनाम् | मूल |
2334 | 5028008c | अनाश्वास्य गमिष्यामि दोषवद्गमनं भवेत् | मूल |
2335 | 5028009a | गते हि मयि तत्रेयं राजपुत्री यशस्विनी | मूल |
2336 | 5028009c | परित्राणमविन्दन्ती जानकी जीवितं त्यजेत् | मूल |
2337 | 5028010a | मया च स महाबाहुः पूर्णचन्द्रनिभाननः | मूल |
2338 | 5028010c | समाश्वासयितुं न्याय्यः सीतादर्शनलालसः | मूल |
2339 | 5028011a | निशाचरीणां प्रत्यक्षमक्षमं चाभिभाषणम् | मूल |
2340 | 5028011c | कथं नु खलु कर्तव्यमिदं कृच्छ्र गतो ह्यहम् | मूल |
2341 | 5028012a | अनेन रात्रिशेषेण यदि नाश्वास्यते मया | मूल |
2342 | 5028012c | सर्वथा नास्ति संदेहः परित्यक्ष्यति जीवितम् | मूल |
2343 | 5028013a | रामश्च यदि पृच्छेन्मां किं मां सीताब्रवीद्वचः | मूल |
2344 | 5028013c | किमहं तं प्रतिब्रूयामसंभाष्य सुमध्यमाम् | मूल |
2345 | 5028014a | सीतासंदेशरहितं मामितस्त्वरया गतम् | मूल |
2346 | 5028014c | निर्दहेदपि काकुत्स्थः क्रुद्धस्तीव्रेण चक्षुषा | मूल |
2347 | 5028015a | यदि चेद्योजयिष्यामि भर्तारं रामकारणात् | मूल |
2348 | 5028015c | व्यर्थमागमनं तस्य ससैन्यस्य भविष्यति | मूल |
2349 | 5028016a | अन्तरं त्वहमासाद्य राक्षसीनामिह स्थितः | मूल |
2350 | 5028016c | शनैराश्वासयिष्यामि संतापबहुलामिमाम् | मूल |
2351 | 5028017a | अहं ह्यतितनुश्चैव वनरश्च विशेषतः | मूल |
2352 | 5028017c | वाचं चोदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम् | मूल |
2353 | 5028018a | यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम् | मूल |
2354 | 5028018c | रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति | मूल |
2355 | 5028019a | अवश्यमेव वक्तव्यं मानुषं वाक्यमर्थवत् | मूल |
2356 | 5028019c | मया सान्त्वयितुं शक्या नान्यथेयमनिन्दिता | मूल |
2357 | 5028020a | सेयमालोक्य मे रूपं जानकी भाषितं तथा | मूल |
2358 | 5028020c | रक्षोभिस्त्रासिता पूर्वं भूयस्त्रासं गमिष्यति | मूल |
2359 | 5028021a | ततो जातपरित्रासा शब्दं कुर्यान्मनस्विनी | मूल |
2360 | 5028021c | जानमाना विशालाक्षी रावणं कामरूपिणम् | मूल |
2361 | 5028022a | सीतया च कृते शब्दे सहसा राक्षसीगणः | मूल |
2362 | 5028022c | नानाप्रहरणो घोरः समेयादन्तकोपमः | मूल |
2363 | 5028023a | ततो मां संपरिक्षिप्य सर्वतो विकृताननाः | मूल |
2364 | 5028023c | वधे च ग्रहणे चैव कुर्युर्यत्नं यथाबलम् | मूल |
2365 | 5028024a | तं मां शाखाः प्रशाखाश्च स्कन्धांश्चोत्तमशाखिनाम् | मूल |
2366 | 5028024c | दृष्ट्वा विपरिधावन्तं भवेयुर्भयशङ्किताः | मूल |
2367 | 5028025a | मम रूपं च संप्रेक्ष्य वनं विचरतो महत् | मूल |
2368 | 5028025c | राक्षस्यो भयवित्रस्ता भवेयुर्विकृताननाः | मूल |
2369 | 5028026a | ततः कुर्युः समाह्वानं राक्षस्यो रक्षसामपि | मूल |
2370 | 5028026c | राक्षसेन्द्रनियुक्तानां राक्षसेन्द्रनिवेशने | मूल |
2371 | 5028027a | ते शूलशरनिस्त्रिंश विविधायुधपाणयः | मूल |
2372 | 5028027c | आपतेयुर्विमर्देऽस्मिन्वेगेनोद्विग्नकारिणः | मूल |
2373 | 5028028a | संक्रुद्धस्तैस्तु परितो विधमन्रक्षसां बलम् | मूल |
2374 | 5028028c | शक्नुयं न तु संप्राप्तुं परं पारं महोदधेः | मूल |
2375 | 5028029a | मां वा गृह्णीयुराप्लुत्य बहवः शीघ्रकारिणः | मूल |
2376 | 5028029c | स्यादियं चागृहीतार्था मम च ग्रहणं भवेत् | मूल |
2377 | 5028030a | हिंसाभिरुचयो हिंस्युरिमां वा जनकात्मजाम् | मूल |
2378 | 5028030c | विपन्नं स्यात्ततः कार्यं रामसुग्रीवयोरिदम् | मूल |
2379 | 5028031a | उद्देशे नष्टमार्गेऽस्मिन्राक्षसैः परिवारिते | मूल |
2380 | 5028031c | सागरेण परिक्षिप्ते गुप्ते वसति जानकी | मूल |
2381 | 5028032a | विशस्ते वा गृहीते वा रक्षोभिर्मयि संयुगे | मूल |
2382 | 5028032c | नान्यं पश्यामि रामस्य सहायं कार्यसाधने | मूल |
2383 | 5028033a | विमृशंश्च न पश्यामि यो हते मयि वानरः | मूल |
2384 | 5028033c | शतयोजनविस्तीर्णं लङ्घयेत महोदधिम् | मूल |
2385 | 5028034a | कामं हन्तुं समर्थोऽस्मि सहस्राण्यपि रक्षसाम् | मूल |
2386 | 5028034c | न तु शक्ष्यामि संप्राप्तुं परं पारं महोदधेः | मूल |
2387 | 5028035a | असत्यानि च युद्धानि संशयो मे न रोचते | मूल |
2388 | 5028035c | कश्च निःसंशयं कार्यं कुर्यात्प्राज्ञः ससंशयम् | मूल |
2389 | 5028036a | एष दोषो महान्हि स्यान्मम सीताभिभाषणे | मूल |
2390 | 5028036c | प्राणत्यागश्च वैदेह्या भवेदनभिभाषणे | मूल |
2391 | 5028037a | भूताश्चार्था विनश्यन्ति देशकालविरोधिताः | मूल |
2392 | 5028037c | विक्लवं दूतमासाद्य तमः सूर्योदये यथा | मूल |
2393 | 5028038a | अर्थानर्थान्तरे बुद्धिर्निश्चितापि न शोभते | मूल |
2394 | 5028038c | घातयन्ति हि कार्याणि दूताः पण्डितमानिनः | मूल |
2395 | 5028039a | न विनश्येत्कथं कार्यं वैक्लव्यं न कथं भवेत् | मूल |
2396 | 5028039c | लङ्घनं च समुद्रस्य कथं नु न वृथा भवेत् | मूल |
2397 | 5028040a | कथं नु खलु वाक्यं मे शृणुयान्नोद्विजेत च | मूल |
2398 | 5028040c | इति संचिन्त्य हनुमांश्चकार मतिमान्मतिम् | मूल |
2399 | 5028041a | राममक्लिष्टकर्माणं स्वबन्धुमनुकीर्तयन् | मूल |
2400 | 5028041c | नैनामुद्वेजयिष्यामि तद्बन्धुगतमानसाम् | मूल |
2401 | 5028042a | इक्ष्वाकूणां वरिष्ठस्य रामस्य विदितात्मनः | मूल |
2402 | 5028042c | शुभानि धर्मयुक्तानि वचनानि समर्पयन् | मूल |
2403 | 5028043a | श्रावयिष्यामि सर्वाणि मधुरां प्रब्रुवन्गिरम् | मूल |
2404 | 5028043c | श्रद्धास्यति यथा हीयं तथा सर्वं समादधे | मूल |
2405 | 5028044a | इति स बहुविधं महानुभावो; जगतिपतेः प्रमदामवेक्षमाणः | मूल |
2406 | 5028044c | मधुरमवितथं जगाद वाक्यं; द्रुमविटपान्तरमास्थितो हनूमान् | मूल |
2407 | 5029001a | एवं बहुविधां चिन्तां चिन्तयित्व महाकपिः | मूल |
2408 | 5029001c | संश्रवे मधुरं वाक्यं वैदेह्या व्याजहार ह | मूल |
2409 | 5029002a | राजा दशरथो नाम रथकुञ्जरवाजिनाम् | मूल |
2410 | 5029002c | पुण्यशीलो महाकीर्तिरृजुरासीन्महायशाः | मूल |
2411 | 5029002e | चक्रवर्तिकुले जातः पुरंदरसमो बले | मूल |
2412 | 5029003a | अहिंसारतिरक्षुद्रो घृणी सत्यपराक्रमः | मूल |
2413 | 5029003c | मुख्यश्चेक्ष्वाकुवंशस्य लक्ष्मीवाँल्लक्ष्मिवर्धनः | मूल |
2414 | 5029004a | पार्थिवव्यञ्जनैर्युक्तः पृथुश्रीः पार्थिवर्षभः | मूल |
2415 | 5029004c | पृथिव्यां चतुरन्तयां विश्रुतः सुखदः सुखी | मूल |
2416 | 5029005a | तस्य पुत्रः प्रियो ज्येष्ठस्ताराधिपनिभाननः | मूल |
2417 | 5029005c | रामो नाम विशेषज्ञः श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम् | मूल |
2418 | 5029006a | रक्षिता स्वस्य वृत्तस्य स्वजनस्यापि रक्षिता | मूल |
2419 | 5029006c | रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य च परंतपः | मूल |
2420 | 5029007a | तस्य सत्याभिसंधस्य वृद्धस्य वचनात्पितुः | मूल |
2421 | 5029007c | सभार्यः सह च भ्रात्रा वीरः प्रव्रजितो वनम् | मूल |
2422 | 5029008a | तेन तत्र महारण्ये मृगयां परिधावता | मूल |
2423 | 5029008c | जनस्थानवधं श्रुत्वा हतौ च खरदूषणौ | मूल |
2424 | 5029008e | ततस्त्वमर्षापहृता जानकी रावणेन तु | मूल |
2425 | 5029009a | यथारूपां यथावर्णां यथालक्ष्मीं विनिश्चिताम् | मूल |
2426 | 5029009c | अश्रौषं राघवस्याहं सेयमासादिता मया | मूल |
2427 | 5029010a | विररामैवमुक्त्वासौ वाचं वानरपुंगवः | मूल |
2428 | 5029010c | जानकी चापि तच्छ्रुत्वा विस्मयं परमं गता | मूल |
2429 | 5029011a | ततः सा वक्रकेशान्ता सुकेशी केशसंवृतम् | मूल |
2430 | 5029011c | उन्नम्य वदनं भीरुः शिंशपावृक्षमैक्षत | मूल |
2431 | 5029012a | सा तिर्यगूर्ध्वं च तथाप्यधस्ता;न्निरीक्षमाणा तमचिन्त्य बुद्धिम् | मूल |
2432 | 5029012c | ददर्श पिङ्गाधिपतेरमात्यं; वातात्मजं सूर्यमिवोदयस्थम् | मूल |
2433 | 5030001a | ततः शाखान्तरे लीनं दृष्ट्वा चलितमानसा | मूल |
2434 | 5030001c | सा ददर्श कपिं तत्र प्रश्रितं प्रियवादिनम् | मूल |
2435 | 5030002a | सा तु दृष्ट्वा हरिश्रेष्ठं विनीतवदुपस्थितम् | मूल |
2436 | 5030002c | मैथिली चिन्तयामास स्वप्नोऽयमिति भामिनी | मूल |
2437 | 5030003a | सा तं समीक्ष्यैव भृशं विसंज्ञा; गतासुकल्पेव बभूव सीता | मूल |
2438 | 5030003c | चिरेण संज्ञां प्रतिलभ्य चैव; विचिन्तयामास विशालनेत्रा | मूल |
2439 | 5030004a | स्वप्नो मयायं विकृतोऽद्य दृष्टः; शाखामृगः शास्त्रगणैर्निषिद्धः | मूल |
2440 | 5030004c | स्वस्त्यस्तु रामाय सलक्ष्मणाय; तथा पितुर्मे जनकस्य राज्ञः | मूल |
2441 | 5030005a | स्वप्नोऽपि नायं न हि मेऽस्ति निद्रा; शोकेन दुःखेन च पीडितायाः | मूल |
2442 | 5030005c | सुखं हि मे नास्ति यतोऽस्मि हीना; तेनेन्दुपूर्णप्रतिमाननेन | मूल |
2443 | 5030006a | अहं हि तस्याद्य मनो भवेन; संपीडिता तद्गतसर्वभावा | मूल |
2444 | 5030006c | विचिन्तयन्ती सततं तमेव; तथैव पश्यामि तथा शृणोमि | मूल |
2445 | 5030007a | मनोरथः स्यादिति चिन्तयामि; तथापि बुद्ध्या च वितर्कयामि | मूल |
2446 | 5030007c | किं कारणं तस्य हि नास्ति रूपं; सुव्यक्तरूपश्च वदत्ययं माम् | मूल |
2447 | 5030008a | नमोऽस्तु वाचस्पतये सवज्रिणे; स्वयम्भुवे चैव हुताशनाय | मूल |
2448 | 5030008c | अनेन चोक्तं यदिदं ममाग्रतो; वनौकसा तच्च तथास्तु नान्यथा | मूल |
2449 | 5031001a | तामब्रवीन्महातेजा हनूमान्मारुतात्मजः | मूल |
2450 | 5031001c | शिरस्यञ्जलिमाधाय सीतां मधुरया गिरा | मूल |
2451 | 5031002a | का नु पद्मपलाशाक्षी क्लिष्टकौशेयवासिनी | मूल |
2452 | 5031002c | द्रुमस्य शाखामालम्ब्य तिष्ठसि त्वमनिन्दिता | मूल |
2453 | 5031003a | किमर्थं तव नेत्राभ्यां वारि स्रवति शोकजम् | मूल |
2454 | 5031003c | पुण्डरीकपलाशाभ्यां विप्रकीर्णमिवोदकम् | मूल |
2455 | 5031004a | सुराणामसुराणां च नागगन्धर्वरक्षसाम् | मूल |
2456 | 5031004c | यक्षाणां किंनराणां च का त्वं भवसि शोभने | मूल |
2457 | 5031005a | का त्वं भवसि रुद्राणां मरुतां वा वरानने | मूल |
2458 | 5031005c | वसूनां वा वरारोहे देवता प्रतिभासि मे | मूल |
2459 | 5031006a | किं नु चन्द्रमसा हीना पतिता विबुधालयात् | मूल |
2460 | 5031006c | रोहिणी ज्योतिषां श्रेष्ठा श्रेष्ठा सर्वगुणान्विता | मूल |
2461 | 5031007a | कोपाद्वा यदि वा मोहाद्भर्तारमसितेक्षणा | मूल |
2462 | 5031007c | वसिष्ठं कोपयित्वा त्वं नासि कल्याण्यरुन्धती | मूल |
2463 | 5031008a | को नौ पुत्रः पिता भ्रात भर्ता वा ते सुमध्यमे | मूल |
2464 | 5031008c | अस्माल्लोकादमुं लोकं गतं त्वमनुशोचसि | मूल |
2465 | 5031009a | व्यञ्जनानि हि ते यानि लक्षणानि च लक्षये | मूल |
2466 | 5031009c | महिषी भूमिपालस्य राजकन्यासि मे मता | मूल |
2467 | 5031010a | रावणेन जनस्थानाद्बलादपहृता यदि | मूल |
2468 | 5031010c | सीता त्वमसि भद्रं ते तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः | मूल |
2469 | 5031011a | सा तस्य वचनं श्रुत्वा रामकीर्तनहर्षिता | मूल |
2470 | 5031011c | उवाच वाक्यं वैदेही हनूमन्तं द्रुमाश्रितम् | मूल |
2471 | 5031012a | दुहिता जनकस्याहं वैदेहस्य महात्मनः | मूल |
2472 | 5031012c | सीता च नाम नाम्नाहं भार्या रामस्य धीमतः | मूल |
2473 | 5031013a | समा द्वादश तत्राहं राघवस्य निवेशने | मूल |
2474 | 5031013c | भुञ्जाना मानुषान्भोगान्सर्वकामसमृद्धिनी | मूल |
2475 | 5031014a | ततस्त्रयोदशे वर्षे राज्येनेक्ष्वाकुनन्दनम् | मूल |
2476 | 5031014c | अभिषेचयितुं राजा सोपाध्यायः प्रचक्रमे | मूल |
2477 | 5031015a | तस्मिन्संभ्रियमाणे तु राघवस्याभिषेचने | मूल |
2478 | 5031015c | कैकेयी नाम भर्तारं देवी वचनमब्रवीत् | मूल |
2479 | 5031016a | न पिबेयं न खादेयं प्रत्यहं मम भोजनम् | मूल |
2480 | 5031016c | एष मे जीवितस्यान्तो रामो यद्यभिषिच्यते | मूल |
2481 | 5031017a | यत्तदुक्तं त्वया वाक्यं प्रीत्या नृपतिसत्तम | मूल |
2482 | 5031017c | तच्चेन्न वितथं कार्यं वनं गच्छतु राघवः | मूल |
2483 | 5031018a | स राजा सत्यवाग्देव्या वरदानमनुस्मरन् | मूल |
2484 | 5031018c | मुमोह वचनं श्रुत्वा कैकेय्याः क्रूरमप्रियम् | मूल |
2485 | 5031019a | ततस्तु स्थविरो राजा सत्यधर्मे व्यवस्थितः | मूल |
2486 | 5031019c | ज्येष्ठं यशस्विनं पुत्रं रुदन्राज्यमयाचत | मूल |
2487 | 5031020a | स पितुर्वचनं श्रीमानभिषेकात्परं प्रियम् | मूल |
2488 | 5031020c | मनसा पूर्वमासाद्य वाचा प्रतिगृहीतवान् | मूल |
2489 | 5031021a | दद्यान्न प्रतिगृह्णीयान्न ब्रूयत्किंचिदप्रियम् | मूल |
2490 | 5031021c | अपि जीवितहेतोर्हि रामः सत्यपराक्रमः | मूल |
2491 | 5031022a | स विहायोत्तरीयाणि महार्हाणि महायशाः | मूल |
2492 | 5031022c | विसृज्य मनसा राज्यं जनन्यै मां समादिशत् | मूल |
2493 | 5031023a | साहं तस्याग्रतस्तूर्णं प्रस्थिता वनचारिणी | मूल |
2494 | 5031023c | न हि मे तेन हीनाया वासः स्वर्गेऽपि रोचते | मूल |
2495 | 5031024a | प्रागेव तु महाभागः सौमित्रिर्मित्रनन्दनः | मूल |
2496 | 5031024c | पूर्वजस्यानुयात्रार्थे द्रुमचीरैरलंकृतः | मूल |
2497 | 5031025a | ते वयं भर्तुरादेशं बहु मान्यदृढव्रताः | मूल |
2498 | 5031025c | प्रविष्टाः स्म पुराद्दृष्टं वनं गम्भीरदर्शनम् | मूल |
2499 | 5031026a | वसतो दण्डकारण्ये तस्याहममितौजसः | मूल |
2500 | 5031026c | रक्षसापहृता भार्या रावणेन दुरात्मना | मूल |
2501 | 5031027a | द्वौ मासौ तेन मे कालो जीवितानुग्रहः कृतः | मूल |
2502 | 5031027c | ऊर्ध्वं द्वाभ्यां तु मासाभ्यां ततस्त्यक्ष्यामि जीवितम् | मूल |
2503 | 5032001a | तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा हनूमान्हरियूथपः | मूल |
2504 | 5032001c | दुःखाद्दुःखाभिभूतायाः सान्तमुत्तरमब्रवीत् | मूल |
2505 | 5032002a | अहं रामस्य संदेशाद्देवि दूतस्तवागतः | मूल |
2506 | 5032002c | वैदेहि कुशली रामस्त्वां च कौशलमब्रवीत् | मूल |
2507 | 5032003a | यो ब्राह्ममस्त्रं वेदांश्च वेद वेदविदां वरः | मूल |
2508 | 5032003c | स त्वां दाशरथी रामो देवि कौशलमब्रवीत् | मूल |
2509 | 5032004a | लक्ष्मणश्च महातेजा भर्तुस्तेऽनुचरः प्रियः | मूल |
2510 | 5032004c | कृतवाञ्शोकसंतप्तः शिरसा तेऽभिवादनम् | मूल |
2511 | 5032005a | सा तयोः कुशलं देवी निशम्य नरसिंहयोः | मूल |
2512 | 5032005c | प्रीतिसंहृष्टसर्वाङ्गी हनूमान्तमथाब्रवीत् | मूल |
2513 | 5032006a | कल्याणी बत गथेयं लौकिकी प्रतिभाति मे | मूल |
2514 | 5032006c | एहि जीवन्तमानदो नरं वर्षशतादपि | मूल |
2515 | 5032007a | तयोः समागमे तस्मिन्प्रीतिरुत्पादिताद्भुता | मूल |
2516 | 5032007c | परस्परेण चालापं विश्वस्तौ तौ प्रचक्रतुः | मूल |
2517 | 5032008a | तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा हनूमान्हरियूथपः | मूल |
2518 | 5032008c | सीतायाः शोकदीनायाः समीपमुपचक्रमे | मूल |
2519 | 5032009a | यथा यथा समीपं स हनूमानुपसर्पति | मूल |
2520 | 5032009c | तथा तथा रावणं सा तं सीता परिशङ्कते | मूल |
2521 | 5032010a | अहो धिग्धिक्कृतमिदं कथितं हि यदस्य मे | मूल |
2522 | 5032010c | रूपान्तरमुपागम्य स एवायं हि रावणः | मूल |
2523 | 5032011a | तामशोकस्य शाखां सा विमुक्त्वा शोककर्शिता | मूल |
2524 | 5032011c | तस्यामेवानवद्याङ्गी धरण्यां समुपाविशत् | मूल |
2525 | 5032012a | अवन्दत महाबाहुस्ततस्तां जनकात्मजाम् | मूल |
2526 | 5032012c | सा चैनं भयवित्रस्ता भूयो नैवाभ्युदैक्षत | मूल |
2527 | 5032013a | तं दृष्ट्वा वन्दमानं तु सीता शशिनिभानना | मूल |
2528 | 5032013c | अब्रवीद्दीर्घमुच्छ्वस्य वानरं मधुरस्वरा | मूल |
2529 | 5032014a | मायां प्रविष्टो मायावी यदि त्वं रावणः स्वयम् | मूल |
2530 | 5032014c | उत्पादयसि मे भूयः संतापं तन्न शोभनम् | मूल |
2531 | 5032015a | स्वं परित्यज्य रूपं यः परिव्राजकरूपधृत् | मूल |
2532 | 5032015c | जनस्थाने मया दृष्टस्त्वं स एवासि रावणः | मूल |
2533 | 5032016a | उपवासकृशां दीनां कामरूप निशाचर | मूल |
2534 | 5032016c | संतापयसि मां भूयः संतापं तन्न शोभनम् | मूल |
2535 | 5032017a | यदि रामस्य दूतस्त्वमागतो भद्रमस्तु ते | मूल |
2536 | 5032017c | पृच्छामि त्वां हरिश्रेष्ठ प्रिया राम कथा हि मे | मूल |
2537 | 5032018a | गुणान्रामस्य कथय प्रियस्य मम वानर | मूल |
2538 | 5032018c | चित्तं हरसि मे सौम्य नदीकूलं यथा रयः | मूल |
2539 | 5032019a | अहो स्वप्नस्य सुखता याहमेवं चिराहृता | मूल |
2540 | 5032019c | प्रेषितं नाम पश्यामि राघवेण वनौकसं | मूल |
2541 | 5032020a | स्वप्नेऽपि यद्यहं वीरं राघवं सहलक्ष्मणम् | मूल |
2542 | 5032020c | पश्येयं नावसीदेयं स्वप्नोऽपि मम मत्सरी | मूल |
2543 | 5032021a | नाहं स्वप्नमिमं मन्ये स्वप्ने दृष्ट्वा हि वानरम् | मूल |
2544 | 5032021c | न शक्योऽभ्युदयः प्राप्तुं प्राप्तश्चाभ्युदयो मम | मूल |
2545 | 5032022a | किं नु स्याच्चित्तमोहोऽयं भवेद्वातगतिस्त्वियम् | मूल |
2546 | 5032022c | उन्मादजो विकारो वा स्यादियं मृगतृष्णिका | मूल |
2547 | 5032023a | अथ वा नायमुन्मादो मोहोऽप्युन्मादलक्ष्मणः | मूल |
2548 | 5032023c | संबुध्ये चाहमात्मानमिमं चापि वनौकसं | मूल |
2549 | 5032024a | इत्येवं बहुधा सीता संप्रधार्य बलाबलम् | मूल |
2550 | 5032024c | रक्षसां कामरूपत्वान्मेने तं राक्षसाधिपम् | मूल |
2551 | 5032025a | एतां बुद्धिं तदा कृत्वा सीता सा तनुमध्यमा | मूल |
2552 | 5032025c | न प्रतिव्याजहाराथ वानरं जनकात्मजा | मूल |
2553 | 5032026a | सीतायाश्चिन्तितं बुद्ध्वा हनूमान्मारुतात्मजः | मूल |
2554 | 5032026c | श्रोत्रानुकूलैर्वचनैस्तदा तां संप्रहर्षयत् | मूल |
2555 | 5032027a | आदित्य इव तेजस्वी लोककान्तः शशी यथा | मूल |
2556 | 5032027c | राजा सर्वस्य लोकस्य देवो वैश्रवणो यथा | मूल |
2557 | 5032028a | विक्रमेणोपपन्नश्च यथा विष्णुर्महायशाः | मूल |
2558 | 5032028c | सत्यवादी मधुरवाग्देवो वाचस्पतिर्यथा | मूल |
2559 | 5032029a | रूपवान्सुभगः श्रीमान्कन्दर्प इव मूर्तिमान् | मूल |
2560 | 5032029c | स्थानक्रोधप्रहर्ता च श्रेष्ठो लोके महारथः | मूल |
2561 | 5032029e | बाहुच्छायामवष्टब्धो यस्य लोको महात्मनः | मूल |
2562 | 5032030a | अपकृष्याश्रमपदान्मृगरूपेण राघवम् | मूल |
2563 | 5032030c | शून्ये येनापनीतासि तस्य द्रक्ष्यसि यत्फलम् | मूल |
2564 | 5032031a | नचिराद्रावणं संख्ये यो वधिष्यति वीर्यवान् | मूल |
2565 | 5032031c | रोषप्रमुक्तैरिषुभिर्ज्वलद्भिरिव पावकैः | मूल |
2566 | 5032032a | तेनाहं प्रेषितो दूतस्त्वत्सकाशमिहागतः | मूल |
2567 | 5032032c | त्वद्वियोगेन दुःखार्तः स त्वां कौशलमब्रवीत् | मूल |
2568 | 5032033a | लक्ष्मणश्च महातेजाः सुमित्रानन्दवर्धनः | मूल |
2569 | 5032033c | अभिवाद्य महाबाहुः सोऽपि कौशलमब्रवीत् | मूल |
2570 | 5032034a | रामस्य च सखा देवि सुग्रीवो नाम वानरः | मूल |
2571 | 5032034c | राजा वानरमुख्यानां स त्वां कौशलमब्रवीत् | मूल |
2572 | 5032035a | नित्यं स्मरति रामस्त्वां ससुग्रीवः सलक्ष्मणः | मूल |
2573 | 5032035c | दिष्ट्या जीवसि वैदेहि राक्षसी वशमागता | मूल |
2574 | 5032036a | नचिराद्द्रक्ष्यसे रामं लक्ष्मणं च महारथम् | मूल |
2575 | 5032036c | मध्ये वानरकोटीनां सुग्रीवं चामितौजसं | मूल |
2576 | 5032037a | अहं सुग्रीवसचिवो हनूमान्नाम वानरः | मूल |
2577 | 5032037c | प्रविष्टो नगरीं लङ्कां लङ्घयित्वा महोदधिम् | मूल |
2578 | 5032038a | कृत्वा मूर्ध्नि पदन्यासं रावणस्य दुरात्मनः | मूल |
2579 | 5032038c | त्वां द्रष्टुमुपयातोऽहं समाश्रित्य पराक्रमम् | मूल |
2580 | 5032039a | नाहमस्मि तथा देवि यथा मामवगच्छसि | मूल |
2581 | 5032039c | विशङ्का त्यज्यतामेषा श्रद्धत्स्व वदतो मम | मूल |
2582 | 5033001a | तां तु राम कथां श्रुत्वा वैदेही वानरर्षभात् | मूल |
2583 | 5033001c | उवाच वचनं सान्त्वमिदं मधुरया गिरा | मूल |
2584 | 5033002a | क्व ते रामेण संसर्गः कथं जानासि लक्ष्मणम् | मूल |
2585 | 5033002c | वानराणां नराणां च कथमासीत्समागमः | मूल |
2586 | 5033003a | यानि रामस्य लिङ्गानि लक्ष्मणस्य च वानर | मूल |
2587 | 5033003c | तानि भूयः समाचक्ष्व न मां शोकः समाविशेत् | मूल |
2588 | 5033004a | कीदृशं तस्य संस्थानं रूपं रामस्य कीदृशम् | मूल |
2589 | 5033004c | कथमूरू कथं बाहू लक्ष्मणस्य च शंस मे | मूल |
2590 | 5033005a | एवमुक्तस्तु वैदेह्या हनूमान्मारुतात्मजः | मूल |
2591 | 5033005c | ततो रामं यथातत्त्वमाख्यातुमुपचक्रमे | मूल |
2592 | 5033006a | जानन्ती बत दिष्ट्या मां वैदेहि परिपृच्छसि | मूल |
2593 | 5033006c | भर्तुः कमलपत्राक्षि संख्यानं लक्ष्मणस्य च | मूल |
2594 | 5033007a | यानि रामस्य चिह्नानि लक्ष्मणस्य च यानि वै | मूल |
2595 | 5033007c | लक्षितानि विशालाक्षि वदतः शृणु तानि मे | मूल |
2596 | 5033008a | रामः कमलपत्राक्षः सर्वभूतमनोहरः | मूल |
2597 | 5033008c | रूपदाक्षिण्यसंपन्नः प्रसूतो जनकात्मजे | मूल |
2598 | 5033009a | तेजसादित्यसंकाशः क्षमया पृथिवीसमः | मूल |
2599 | 5033009c | बृहस्पतिसमो बुद्ध्या यशसा वासवोपमः | मूल |
2600 | 5033010a | रक्षिता जीवलोकस्य स्वजनस्य च रक्षिता | मूल |
2601 | 5033010c | रक्षिता स्वस्य वृत्तस्य धर्मस्य च परंतपः | मूल |
2602 | 5033011a | रामो भामिनि लोकस्य चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता | मूल |
2603 | 5033011c | मर्यादानां च लोकस्य कर्ता कारयिता च सः | मूल |
2604 | 5033012a | अर्चिष्मानर्चितोऽत्यर्थं ब्रह्मचर्यव्रते स्थितः | मूल |
2605 | 5033012c | साधूनामुपकारज्ञः प्रचारज्ञश्च कर्मणाम् | मूल |
2606 | 5033013a | राजविद्याविनीतश्च ब्राह्मणानामुपासिता | मूल |
2607 | 5033013c | श्रुतवाञ्शीलसंपन्नो विनीतश्च परंतपः | मूल |
2608 | 5033014a | यजुर्वेदविनीतश्च वेदविद्भिः सुपूजितः | मूल |
2609 | 5033014c | धनुर्वेदे च वेदे च वेदाङ्गेषु च निष्ठितः | मूल |
2610 | 5033015a | विपुलांसो महाबाहुः कम्बुग्रीवः शुभाननः | मूल |
2611 | 5033015c | गूढजत्रुः सुताम्राक्षो रामो देवि जनैः श्रुतः | मूल |
2612 | 5033016a | दुन्दुभिस्वननिर्घोषः स्निग्धवर्णः प्रतापवान् | मूल |
2613 | 5033016c | समः समविभक्ताङ्गो वर्णं श्यामं समाश्रितः | मूल |
2614 | 5033017a | त्रिस्थिरस्त्रिप्रलम्बश्च त्रिसमस्त्रिषु चोन्नतः | मूल |
2615 | 5033017c | त्रिवलीवांस्त्र्यवणतश्चतुर्व्यङ्गस्त्रिशीर्षवान् | मूल |
2616 | 5033018a | चतुष्कलश्चतुर्लेखश्चतुष्किष्कुश्चतुःसमः | मूल |
2617 | 5033018c | चतुर्दशसमद्वन्द्वश्चतुर्दष्टश्चतुर्गतिः | मूल |
2618 | 5033019a | महौष्ठहनुनासश्च पञ्चस्निग्धोऽष्टवंशवान् | मूल |
2619 | 5033019c | दशपद्मो दशबृहत्त्रिभिर्व्याप्तो द्विशुक्लवान् | मूल |
2620 | 5033019e | षडुन्नतो नवतनुस्त्रिभिर्व्याप्नोति राघवः | मूल |
2621 | 5033020a | सत्यधर्मपरः श्रीमान्संग्रहानुग्रहे रतः | मूल |
2622 | 5033020c | देशकालविभागज्ञः सर्वलोकप्रियंवदः | मूल |
2623 | 5033021a | भ्राता च तस्य द्वैमात्रः सौमित्रिरपराजितः | मूल |
2624 | 5033021c | अनुरागेण रूपेण गुणैश्चैव तथाविधः | मूल |
2625 | 5033022a | त्वामेव मार्गमाणो तौ विचरन्तौ वसुंधराम् | मूल |
2626 | 5033022c | ददर्शतुर्मृगपतिं पूर्वजेनावरोपितम् | मूल |
2627 | 5033023a | ऋश्यमूकस्य पृष्ठे तु बहुपादपसंकुले | मूल |
2628 | 5033023c | भ्रातुर्भार्यार्तमासीनं सुग्रीवं प्रियदर्शनम् | मूल |
2629 | 5033024a | वयं तु हरिराजं तं सुग्रीवं सत्यसंगरम् | मूल |
2630 | 5033024c | परिचर्यामहे राज्यात्पूर्वजेनावरोपितम् | मूल |
2631 | 5033025a | ततस्तौ चीरवसनौ धनुःप्रवरपाणिनौ | मूल |
2632 | 5033025c | ऋश्यमूकस्य शैलस्य रम्यं देशमुपागतौ | मूल |
2633 | 5033026a | स तौ दृष्ट्वा नरव्याघ्रौ धन्विनौ वानरर्षभः | मूल |
2634 | 5033026c | अभिप्लुतो गिरेस्तस्य शिखरं भयमोहितः | मूल |
2635 | 5033027a | ततः स शिखरे तस्मिन्वानरेन्द्रो व्यवस्थितः | मूल |
2636 | 5033027c | तयोः समीपं मामेव प्रेषयामास सत्वरः | मूल |
2637 | 5033028a | तावहं पुरुषव्याघ्रौ सुग्रीववचनात्प्रभू | मूल |
2638 | 5033028c | रूपलक्षणसंपन्नौ कृताञ्जलिरुपस्थितः | मूल |
2639 | 5033029a | तौ परिज्ञाततत्त्वार्थौ मया प्रीतिसमन्वितौ | मूल |
2640 | 5033029c | पृष्ठमारोप्य तं देशं प्रापितौ पुरुषर्षभौ | मूल |
2641 | 5033030a | निवेदितौ च तत्त्वेन सुग्रीवाय महात्मने | मूल |
2642 | 5033030c | तयोरन्योन्यसंभाषाद्भृशं प्रीतिरजायत | मूल |
2643 | 5033031a | तत्र तौ कीर्तिसंपन्नौ हरीश्वरनरेश्वरौ | मूल |
2644 | 5033031c | परस्परकृताश्वासौ कथया पूर्ववृत्तया | मूल |
2645 | 5033032a | तं ततः सान्त्वयामास सुग्रीवं लक्ष्मणाग्रजः | मूल |
2646 | 5033032c | स्त्रीहेतोर्वालिना भ्रात्रा निरस्तमुरु तेजसा | मूल |
2647 | 5033033a | ततस्त्वन्नाशजं शोकं रामस्याक्लिष्टकर्मणः | मूल |
2648 | 5033033c | लक्ष्मणो वानरेन्द्राय सुग्रीवाय न्यवेदयत् | मूल |
2649 | 5033034a | स श्रुत्वा वानरेन्द्रस्तु लक्ष्मणेनेरितं वचः | मूल |
2650 | 5033034c | तदासीन्निष्प्रभोऽत्यर्थं ग्रहग्रस्त इवांशुमान् | मूल |
2651 | 5033035a | ततस्त्वद्गात्रशोभीनि रक्षसा ह्रियमाणया | मूल |
2652 | 5033035c | यान्याभरणजालानि पातितानि महीतले | मूल |
2653 | 5033036a | तानि सर्वाणि रामाय आनीय हरियूथपाः | मूल |
2654 | 5033036c | संहृष्टा दर्शयामासुर्गतिं तु न विदुस्तव | मूल |
2655 | 5033037a | तानि रामाय दत्तानि मयैवोपहृतानि च | मूल |
2656 | 5033037c | स्वनवन्त्यवकीर्णन्ति तस्मिन्विहतचेतसि | मूल |
2657 | 5033038a | तान्यङ्के दर्शनीयानि कृत्वा बहुविधं ततः | मूल |
2658 | 5033038c | तेन देवप्रकाशेन देवेन परिदेवितम् | मूल |
2659 | 5033039a | पश्यतस्तस्या रुदतस्ताम्यतश्च पुनः पुनः | मूल |
2660 | 5033039c | प्रादीपयन्दाशरथेस्तानि शोकहुताशनम् | मूल |
2661 | 5033040a | शयितं च चिरं तेन दुःखार्तेन महात्मना | मूल |
2662 | 5033040c | मयापि विविधैर्वाक्यैः कृच्छ्रादुत्थापितः पुनः | मूल |
2663 | 5033041a | तानि दृष्ट्वा महार्हाणि दर्शयित्वा मुहुर्मुहुः | मूल |
2664 | 5033041c | राघवः सहसौमित्रिः सुग्रीवे स न्यवेदयत् | मूल |
2665 | 5033042a | स तवादर्शनादार्ये राघवः परितप्यते | मूल |
2666 | 5033042c | महता ज्वलता नित्यमग्निनेवाग्निपर्वतः | मूल |
2667 | 5033043a | त्वत्कृते तमनिद्रा च शोकश्चिन्ता च राघवम् | मूल |
2668 | 5033043c | तापयन्ति महात्मानमग्न्यगारमिवाग्नयः | मूल |
2669 | 5033044a | तवादर्शनशोकेन राघवः प्रविचाल्यते | मूल |
2670 | 5033044c | महता भूमिकम्पेन महानिव शिलोच्चयः | मूल |
2671 | 5033045a | कानानानि सुरम्याणि नदीप्रस्रवणानि च | मूल |
2672 | 5033045c | चरन्न रतिमाप्नोति त्वमपश्यन्नृपात्मजे | मूल |
2673 | 5033046a | स त्वां मनुजशार्दूलः क्षिप्रं प्राप्स्यति राघवः | मूल |
2674 | 5033046c | समित्रबान्धवं हत्वा रावणं जनकात्मजे | मूल |
2675 | 5033047a | सहितौ रामसुग्रीवावुभावकुरुतां तदा | मूल |
2676 | 5033047c | समयं वालिनं हन्तुं तव चान्वेषणं तथा | मूल |
2677 | 5033048a | ततो निहत्य तरसा रामो वालिनमाहवे | मूल |
2678 | 5033048c | सर्वर्क्षहरिसंघानां सुग्रीवमकरोत्पतिम् | मूल |
2679 | 5033049a | रामसुग्रीवयोरैक्यं देव्येवं समजायत | मूल |
2680 | 5033049c | हनूमन्तं च मां विद्धि तयोर्दूतमिहागतम् | मूल |
2681 | 5033050a | स्वराज्यं प्राप्य सुग्रीवः समनीय महाहरीन् | मूल |
2682 | 5033050c | त्वदर्थं प्रेषयामास दिशो दश महाबलान् | मूल |
2683 | 5033051a | आदिष्टा वानरेन्द्रेण सुग्रीवेण महौजसः | मूल |
2684 | 5033051c | अद्रिराजप्रतीकाशाः सर्वतः प्रस्थिता महीम् | मूल |
2685 | 5033052a | अङ्गदो नाम लक्ष्मीवान्वालिसूनुर्महाबलः | मूल |
2686 | 5033052c | प्रस्थितः कपिशार्दूलस्त्रिभागबलसंवृतः | मूल |
2687 | 5033053a | तेषां नो विप्रनष्टानां विन्ध्ये पर्वतसत्तमे | मूल |
2688 | 5033053c | भृशं शोकपरीतनामहोरात्रगणा गताः | मूल |
2689 | 5033054a | ते वयं कार्यनैराश्यात्कालस्यातिक्रमेण च | मूल |
2690 | 5033054c | भयाच्च कपिराजस्य प्राणांस्त्यक्तुं व्यवस्थिताः | मूल |
2691 | 5033055a | विचित्य वनदुर्गाणि गिरिप्रस्रवणानि च | मूल |
2692 | 5033055c | अनासाद्य पदं देव्याः प्राणांस्त्यक्तुं व्यवस्थिताः | मूल |
2693 | 5033056a | भृशं शोकार्णवे मग्नः पर्यदेवयदङ्गदः | मूल |
2694 | 5033056c | तव नाशं च वैदेहि वालिनश्च तथा वधम् | मूल |
2695 | 5033056e | प्रायोपवेशमस्माकं मरणं च जटायुषः | मूल |
2696 | 5033057a | तेषां नः स्वामिसंदेशान्निराशानां मुमूर्षताम् | मूल |
2697 | 5033057c | कार्यहेतोरिवायातः शकुनिर्वीर्यवान्महान् | मूल |
2698 | 5033058a | गृध्रराजस्य सोदर्यः संपातिर्नाम गृध्रराट् | मूल |
2699 | 5033058c | श्रुत्वा भ्रातृवधं कोपादिदं वचनमब्रवीत् | मूल |
2700 | 5033059a | यवीयान्केन मे भ्राता हतः क्व च विनाशितः | मूल |
2701 | 5033059c | एतदाख्यातुमिच्छामि भवद्भिर्वानरोत्तमाः | मूल |
2702 | 5033060a | अङ्गदोऽकथयत्तस्य जनस्थाने महद्वधम् | मूल |
2703 | 5033060c | रक्षसा भीमरूपेण त्वामुद्दिश्य यथातथम् | मूल |
2704 | 5033061a | जटायोस्तु वधं श्रुत्वा दुःखितः सोऽरुणात्मजः | मूल |
2705 | 5033061c | त्वामाह स वरारोहे वसन्तीं रावणालये | मूल |
2706 | 5033062a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा संपातेः प्रीतिवर्धनम् | मूल |
2707 | 5033062c | अङ्गदप्रमुखाः सर्वे ततः संप्रस्थिता वयम् | मूल |
2708 | 5033062e | त्वद्दर्शनकृतोत्साहा हृष्टास्तुष्टाः प्लवंगमाः | मूल |
2709 | 5033063a | अथाहं हरिसैन्यस्य सागरं दृश्य सीदतः | मूल |
2710 | 5033063c | व्यवधूय भयं तीव्रं योजनानां शतं प्लुतः | मूल |
2711 | 5033064a | लङ्का चापि मया रात्रौ प्रविष्टा राक्षसाकुला | मूल |
2712 | 5033064c | रावणश्च मया दृष्टस्त्वं च शोकनिपीडिता | मूल |
2713 | 5033065a | एतत्ते सर्वमाख्यातं यथावृत्तमनिन्दिते | मूल |
2714 | 5033065c | अभिभाषस्व मां देवि दूतो दाशरथेरहम् | मूल |
2715 | 5033066a | त्वं मां रामकृतोद्योगं त्वन्निमित्तमिहागतम् | मूल |
2716 | 5033066c | सुग्रीव सचिवं देवि बुध्यस्व पवनात्मजम् | मूल |
2717 | 5033067a | कुशली तव काकुत्स्थः सर्वशस्त्रभृतां वरः | मूल |
2718 | 5033067c | गुरोराराधने युक्तो लक्ष्मणश्च सुलक्षणः | मूल |
2719 | 5033068a | तस्य वीर्यवतो देवि भर्तुस्तव हिते रतः | मूल |
2720 | 5033068c | अहमेकस्तु संप्राप्तः सुग्रीववचनादिह | मूल |
2721 | 5033069a | मयेयमसहायेन चरता कामरूपिणा | मूल |
2722 | 5033069c | दक्षिणा दिगनुक्रान्ता त्वन्मार्गविचयैषिणा | मूल |
2723 | 5033070a | दिष्ट्याहं हरिसैन्यानां त्वन्नाशमनुशोचताम् | मूल |
2724 | 5033070c | अपनेष्यामि संतापं तवाभिगमशंसनात् | मूल |
2725 | 5033071a | दिष्ट्या हि न मम व्यर्थं देवि सागरलङ्घनम् | मूल |
2726 | 5033071c | प्राप्स्याम्यहमिदं दिष्ट्या त्वद्दर्शनकृतं यशः | मूल |
2727 | 5033072a | राघवश्च महावीर्यः क्षिप्रं त्वामभिपत्स्यते | मूल |
2728 | 5033072c | समित्रबान्धवं हत्वा रावणं राक्षसाधिपम् | मूल |
2729 | 5033073a | कौरजो नाम वैदेहि गिरीणामुत्तमो गिरिः | मूल |
2730 | 5033073c | ततो गच्छति गोकर्णं पर्वतं केसरी हरिः | मूल |
2731 | 5033074a | स च देवर्षिभिर्दृष्टः पिता मम महाकपिः | मूल |
2732 | 5033074c | तीर्थे नदीपतेः पुण्ये शम्बसादनमुद्धरत् | मूल |
2733 | 5033075a | तस्याहं हरिणः क्षेत्रे जातो वातेन मैथिलि | मूल |
2734 | 5033075c | हनूमानिति विख्यातो लोके स्वेनैव कर्मणा | मूल |
2735 | 5033075e | विश्वासार्थं तु वैदेहि भर्तुरुक्ता मया गुणाः | मूल |
2736 | 5033076a | एवं विश्वासिता सीता हेतुभिः शोककर्शिता | मूल |
2737 | 5033076c | उपपन्नैरभिज्ञानैर्दूतं तमवगच्छति | मूल |
2738 | 5033077a | अतुलं च गता हर्षं प्रहर्षेण तु जानकी | मूल |
2739 | 5033077c | नेत्राभ्यां वक्रपक्ष्माभ्यां मुमोचानन्दजं जलम् | मूल |
2740 | 5033078a | चारु तच्चाननं तस्यास्ताम्रशुक्लायतेक्षणम् | मूल |
2741 | 5033078c | अशोभत विशालाक्ष्या राहुमुक्त इवोडुराट् | मूल |
2742 | 5033078e | हनूमन्तं कपिं व्यक्तं मन्यते नान्यथेति सा | मूल |
2743 | 5033079a | अथोवाच हनूमांस्तामुत्तरं प्रियदर्शनाम् | मूल |
2744 | 5033080a | हतेऽसुरे संयति शम्बसादने; कपिप्रवीरेण महर्षिचोदनात् | मूल |
2745 | 5033080c | ततोऽस्मि वायुप्रभवो हि मैथिलि; प्रभावतस्तत्प्रतिमश्च वानरः | मूल |
2746 | 5034001a | भूय एव महातेजा हनूमान्मारुतात्मजः | मूल |
2747 | 5034001c | अब्रवीत्प्रश्रितं वाक्यं सीताप्रत्ययकारणात् | मूल |
2748 | 5034002a | वानरोऽहं महाभागे दूतो रामस्य धीमतः | मूल |
2749 | 5034002c | रामनामाङ्कितं चेदं पश्य देव्यङ्गुलीयकम् | मूल |
2750 | 5034002e | समाश्वसिहि भद्रं ते क्षीणदुःखफला ह्यसि | मूल |
2751 | 5034003a | गृहीत्वा प्रेक्षमाणा सा भर्तुः करविभूषणम् | मूल |
2752 | 5034003c | भर्तारमिव संप्राप्ता जानकी मुदिताभवत् | मूल |
2753 | 5034004a | चारु तद्वदनं तस्यास्ताम्रशुक्लायतेक्षणम् | मूल |
2754 | 5034004c | बभूव प्रहर्षोदग्रं राहुमुक्त इवोडुराट् | मूल |
2755 | 5034005a | ततः सा ह्रीमती बाला भर्तुः संदेशहर्षिता | मूल |
2756 | 5034005c | परितुट्षा प्रियं श्रुत्वा प्राशंसत महाकपिम् | मूल |
2757 | 5034006a | विक्रान्तस्त्वं समर्थस्त्वं प्राज्ञस्त्वं वानरोत्तम | मूल |
2758 | 5034006c | येनेदं राक्षसपदं त्वयैकेन प्रधर्षितम् | मूल |
2759 | 5034007a | शतयोजनविस्तीर्णः सागरो मकरालयः | मूल |
2760 | 5034007c | विक्रमश्लाघनीयेन क्रमता गोष्पदीकृतः | मूल |
2761 | 5034008a | न हि त्वां प्राकृतं मन्ये वनरं वनरर्षभ | मूल |
2762 | 5034008c | यस्य ते नास्ति संत्रासो रावणान्नापि संभ्रमः | मूल |
2763 | 5034009a | अर्हसे च कपिश्रेष्ठ मया समभिभाषितुम् | मूल |
2764 | 5034009c | यद्यसि प्रेषितस्तेन रामेण विदितात्मना | मूल |
2765 | 5034010a | प्रेषयिष्यति दुर्धर्षो रामो न ह्यपरीक्षितम् | मूल |
2766 | 5034010c | पराक्रममविज्ञाय मत्सकाशं विशेषतः | मूल |
2767 | 5034011a | दिष्ट्या च कुशली रामो धर्मात्मा धर्मवत्सलः | मूल |
2768 | 5034011c | लक्ष्मणश्च महातेजाः सुमित्रानन्दवर्धनः | मूल |
2769 | 5034012a | कुशली यदि काकुत्स्थः किं नु सागरमेखलाम् | मूल |
2770 | 5034012c | महीं दहति कोपेन युगान्ताग्निरिवोत्थितः | मूल |
2771 | 5034013a | अथ वा शक्तिमन्तौ तौ सुराणामपि निग्रहे | मूल |
2772 | 5034013c | ममैव तु न दुःखानामस्ति मन्ये विपर्ययः | मूल |
2773 | 5034014a | कच्चिच्च व्यथते रामः कच्चिन्न परिपत्यते | मूल |
2774 | 5034014c | उत्तराणि च कार्याणि कुरुते पुरुषोत्तमः | मूल |
2775 | 5034015a | कच्चिन्न दीनः संभ्रान्तः कार्येषु च न मुह्यति | मूल |
2776 | 5034015c | कच्चिन्पुरुषकार्याणि कुरुते नृपतेः सुतः | मूल |
2777 | 5034016a | द्विविधं त्रिविधोपायमुपायमपि सेवते | मूल |
2778 | 5034016c | विजिगीषुः सुहृत्कच्चिन्मित्रेषु च परंतपः | मूल |
2779 | 5034017a | कच्चिन्मित्राणि लभते मित्रैश्चाप्यभिगम्यते | मूल |
2780 | 5034017c | कच्चित्कल्याणमित्रश्च मित्रैश्चापि पुरस्कृतः | मूल |
2781 | 5034018a | कच्चिदाशास्ति देवानां प्रसादं पार्थिवात्मजः | मूल |
2782 | 5034018c | कच्चित्पुरुषकारं च दैवं च प्रतिपद्यते | मूल |
2783 | 5034019a | कच्चिन्न विगतस्नेहो विवासान्मयि राघवः | मूल |
2784 | 5034019c | कच्चिन्मां व्यसनादस्मान्मोक्षयिष्यति वानरः | मूल |
2785 | 5034020a | सुखानामुचितो नित्यमसुखानामनूचितः | मूल |
2786 | 5034020c | दुःखमुत्तरमासाद्य कच्चिद्रामो न सीदति | मूल |
2787 | 5034021a | कौसल्यायास्तथा कच्चित्सुमित्रायास्तथैव च | मूल |
2788 | 5034021c | अभीक्ष्णं श्रूयते कच्चित्कुशलं भरतस्य च | मूल |
2789 | 5034022a | मन्निमित्तेन मानार्हः कच्चिच्छोकेन राघवः | मूल |
2790 | 5034022c | कच्चिन्नान्यमना रामः कच्चिन्मां तारयिष्यति | मूल |
2791 | 5034023a | कच्चिदक्षौहिणीं भीमां भरतो भ्रातृवत्सलः | मूल |
2792 | 5034023c | ध्वजिनीं मन्त्रिभिर्गुप्तां प्रेषयिष्यति मत्कृते | मूल |
2793 | 5034024a | वानराधिपतिः श्रीमान्सुग्रीवः कच्चिदेष्यति | मूल |
2794 | 5034024c | मत्कृते हरिभिर्वीरैर्वृतो दन्तनखायुधैः | मूल |
2795 | 5034025a | कच्चिच्च लक्ष्मणः शूरः सुमित्रानन्दवर्धनः | मूल |
2796 | 5034025c | अस्त्रविच्छरजालेन राक्षसान्विधमिष्यति | मूल |
2797 | 5034026a | रौद्रेण कच्चिदस्त्रेण रामेण निहतं रणे | मूल |
2798 | 5034026c | द्रक्ष्याम्यल्पेन कालेन रावणं ससुहृज्जनम् | मूल |
2799 | 5034027a | कच्चिन्न तद्धेमसमानवर्णं; तस्याननं पद्मसमानगन्धि | मूल |
2800 | 5034027c | मया विना शुष्यति शोकदीनं; जलक्षये पद्ममिवातपेन | मूल |
2801 | 5034028a | धर्मापदेशात्त्यजतश्च राज्यां; मां चाप्यरण्यं नयतः पदातिम् | मूल |
2802 | 5034028c | नासीद्व्यथा यस्य न भीर्न शोकः; कच्चित्स धैर्यं हृदये करोति | मूल |
2803 | 5034029a | न चास्य माता न पिता न चान्यः; स्नेहाद्विशिष्टोऽस्ति मया समो वा | मूल |
2804 | 5034029c | तावद्ध्यहं दूतजिजीविषेयं; यावत्प्रवृत्तिं शृणुयां प्रियस्य | मूल |
2805 | 5034030a | इतीव देवी वचनं महार्थं; तं वानरेन्द्रं मधुरार्थमुक्त्वा | मूल |
2806 | 5034030c | श्रोतुं पुनस्तस्य वचोऽभिरामं; रामार्थयुक्तं विरराम रामा | मूल |
2807 | 5034031a | सीताया वचनं श्रुत्वा मारुतिर्भीमविक्रमः | मूल |
2808 | 5034031c | शिरस्यञ्जलिमाधाय वाक्यमुत्तरमब्रवीत् | मूल |
2809 | 5034032a | न त्वामिहस्थां जानीते रामः कमललोचनः | मूल |
2810 | 5034032c | श्रुत्वैव तु वचो मह्यं क्षिप्रमेष्यति राघवः | मूल |
2811 | 5034033a | चमूं प्रकर्षन्महतीं हर्यृष्कगणसंकुलाम् | मूल |
2812 | 5034033c | विष्टम्भयित्वा बाणौघैरक्षोभ्यं वरुणालयम् | मूल |
2813 | 5034033e | करिष्यति पुरीं लङ्कां काकुत्स्थः शान्तराक्षसाम् | मूल |
2814 | 5034034a | तत्र यद्यन्तरा मृत्युर्यदि देवाः सहासुराः | मूल |
2815 | 5034034c | स्थास्यन्ति पथि रामस्य स तानपि वधिष्यति | मूल |
2816 | 5034035a | तवादर्शनजेनार्ये शोकेन स परिप्लुतः | मूल |
2817 | 5034035c | न शर्म लभते रामः सिंहार्दित इव द्विपः | मूल |
2818 | 5034036a | दर्दरेण च ते देवि शपे मूलफलेन च | मूल |
2819 | 5034036c | मलयेन च विन्ध्येन मेरुणा मन्दरेण च | मूल |
2820 | 5034037a | यथा सुनयनं वल्गु बिम्बौष्ठं चारुकुण्डलम् | मूल |
2821 | 5034037c | मुखं द्रक्ष्यसि रामस्य पूर्णचन्द्रमिवोदितम् | मूल |
2822 | 5034038a | क्षिप्रं द्रक्ष्यसि वैदेहि रामं प्रस्रवणे गिरौ | मूल |
2823 | 5034038c | शतक्रतुमिवासीनं नाकपृष्ठस्य मूर्धनि | मूल |
2824 | 5034039a | न मांसं राघवो भुङ्क्ते न चापि मधुसेवते | मूल |
2825 | 5034039c | वन्यं सुविहितं नित्यं भक्तमश्नाति पञ्चमम् | मूल |
2826 | 5034040a | नैव दंशान्न मशकान्न कीटान्न सरीसृपान् | मूल |
2827 | 5034040c | राघवोऽपनयेद्गत्रात्त्वद्गतेनान्तरात्मना | मूल |
2828 | 5034041a | नित्यं ध्यानपरो रामो नित्यं शोकपरायणः | मूल |
2829 | 5034041c | नान्यच्चिन्तयते किंचित्स तु कामवशं गतः | मूल |
2830 | 5034042a | अनिद्रः सततं रामः सुप्तोऽपि च नरोत्तमः | मूल |
2831 | 5034042c | सीतेति मधुरां वाणीं व्याहरन्प्रतिबुध्यते | मूल |
2832 | 5034043a | दृष्ट्वा फलं वा पुष्पं वा यच्चान्यत्स्त्रीमनोहरम् | मूल |
2833 | 5034043c | बहुशो हा प्रियेत्येवं श्वसंस्त्वामभिभाषते | मूल |
2834 | 5034044a | स देवि नित्यं परितप्यमान;स्त्वामेव सीतेत्यभिभाषमाणः | मूल |
2835 | 5034044c | धृतव्रतो राजसुतो महात्मा; तवैव लाभाय कृतप्रयत्नः | मूल |
2836 | 5034045a | सा रामसंकीर्तनवीतशोका; रामस्य शोकेन समानशोका | मूल |
2837 | 5034045c | शरन्मुखेनाम्बुदशेषचन्द्रा; निशेव वैदेहसुता बभूव | मूल |
2838 | 5035001a | सीता तद्वचनं श्रुत्वा पूर्णचन्द्रनिभानना | मूल |
2839 | 5035001c | हनूमन्तमुवाचेदं धर्मार्थसहितं वचः | मूल |
2840 | 5035002a | अमृतं विषसंसृष्टं त्वया वानरभाषितम् | मूल |
2841 | 5035002c | यच्च नान्यमना रामो यच्च शोकपरायणः | मूल |
2842 | 5035003a | ऐश्वर्ये वा सुविस्तीर्णे व्यसने वा सुदारुणे | मूल |
2843 | 5035003c | रज्ज्वेव पुरुषं बद्ध्वा कृतान्तः परिकर्षति | मूल |
2844 | 5035004a | विधिर्नूनमसंहार्यः प्राणिनां प्लवगोत्तम | मूल |
2845 | 5035004c | सौमित्रिं मां च रामं च व्यसनैः पश्य मोहितान् | मूल |
2846 | 5035005a | शोकस्यास्य कदा पारं राघवोऽधिगमिष्यति | मूल |
2847 | 5035005c | प्लवमानः परिश्रान्तो हतनौः सागरे यथा | मूल |
2848 | 5035006a | राक्षसानां क्षयं कृत्वा सूदयित्वा च रावणम् | मूल |
2849 | 5035006c | लङ्कामुन्मूलितां कृत्वा कदा द्रक्ष्यति मां पतिः | मूल |
2850 | 5035007a | स वाच्यः संत्वरस्वेति यावदेव न पूर्यते | मूल |
2851 | 5035007c | अयं संवत्सरः कालस्तावद्धि मम जीवितम् | मूल |
2852 | 5035008a | वर्तते दशमो मासो द्वौ तु शेषौ प्लवंगम | मूल |
2853 | 5035008c | रावणेन नृशंसेन समयो यः कृतो मम | मूल |
2854 | 5035009a | विभीषणेन च भ्रात्रा मम निर्यातनं प्रति | मूल |
2855 | 5035009c | अनुनीतः प्रयत्नेन न च तत्कुरुते मतिम् | मूल |
2856 | 5035010a | मम प्रतिप्रदानं हि रावणस्य न रोचते | मूल |
2857 | 5035010c | रावणं मार्गते संख्ये मृत्युः कालवशं गतम् | मूल |
2858 | 5035011a | ज्येष्ठा कन्यानला नम विभीषणसुता कपे | मूल |
2859 | 5035011c | तया ममैतदाख्यातं मात्रा प्रहितया स्वयम् | मूल |
2860 | 5035012a | अविन्ध्यो नाम मेधावी विद्वान्राक्षसपुंगवः | मूल |
2861 | 5035012c | धृतिमाञ्शीलवान्वृद्धो रावणस्य सुसंमतः | मूल |
2862 | 5035013a | रामात्क्षयमनुप्राप्तं रक्षसां प्रत्यचोदयत् | मूल |
2863 | 5035013c | न च तस्यापि दुष्टात्मा शृणोति वचनं हितम् | मूल |
2864 | 5035014a | आशंसेति हरिश्रेष्ठ क्षिप्रं मां प्राप्स्यते पतिः | मूल |
2865 | 5035014c | अन्तरात्मा हि मे शुद्धस्तस्मिंश्च बहवो गुणाः | मूल |
2866 | 5035015a | उत्साहः पौरुषं सत्त्वमानृशंस्यं कृतज्ञता | मूल |
2867 | 5035015c | विक्रमश्च प्रभावश्च सन्ति वानरराघवे | मूल |
2868 | 5035016a | चतुर्दशसहस्राणि राक्षसानां जघान यः | मूल |
2869 | 5035016c | जनस्थाने विना भ्रात्रा शत्रुः कस्तस्य नोद्विजेत् | मूल |
2870 | 5035017a | न स शक्यस्तुलयितुं व्यसनैः पुरुषर्षभः | मूल |
2871 | 5035017c | अहं तस्यानुभावज्ञा शक्रस्येव पुलोमजा | मूल |
2872 | 5035018a | शरजालांशुमाञ्शूरः कपे रामदिवाकरः | मूल |
2873 | 5035018c | शत्रुरक्षोमयं तोयमुपशोषं नयिष्यति | मूल |
2874 | 5035019a | इति संजल्पमानां तां रामार्थे शोककर्शिताम् | मूल |
2875 | 5035019c | अश्रुसंपूर्णवदनामुवाच हनुमान्कपिः | मूल |
2876 | 5035020a | श्रुत्वैव तु वचो मह्यं क्षिप्रमेष्यति राघवः | मूल |
2877 | 5035020c | चमूं प्रकर्षन्महतीं हर्यृक्षगणसंकुलाम् | मूल |
2878 | 5035021a | अथ वा मोचयिष्यामि तामद्यैव हि राक्षसात् | मूल |
2879 | 5035021c | अस्माद्दुःखादुपारोह मम पृष्ठमनिन्दिते | मूल |
2880 | 5035022a | त्वं हि पृष्ठगतां कृत्वा संतरिष्यामि सागरम् | मूल |
2881 | 5035022c | शक्तिरस्ति हि मे वोढुं लङ्कामपि सरावणाम् | मूल |
2882 | 5035023a | अहं प्रस्रवणस्थाय राघवायाद्य मैथिलि | मूल |
2883 | 5035023c | प्रापयिष्यामि शक्राय हव्यं हुतमिवानलः | मूल |
2884 | 5035024a | द्रक्ष्यस्यद्यैव वैदेहि राघवं सहलक्ष्मणम् | मूल |
2885 | 5035024c | व्यवसाय समायुक्तं विष्णुं दैत्यवधे यथा | मूल |
2886 | 5035025a | त्वद्दर्शनकृतोत्साहमाश्रमस्थं महाबलम् | मूल |
2887 | 5035025c | पुरंदरमिवासीनं नागराजस्य मूर्धनि | मूल |
2888 | 5035026a | पृष्ठमारोह मे देवि मा विकाङ्क्षस्व शोभने | मूल |
2889 | 5035026c | योगमन्विच्छ रामेण शशाङ्केनेव रोहिणी | मूल |
2890 | 5035027a | कथयन्तीव चन्द्रेण सूर्येणेव सुवर्चला | मूल |
2891 | 5035027c | मत्पृष्ठमधिरुह्य त्वं तराकाशमहार्णवम् | मूल |
2892 | 5035028a | न हि मे संप्रयातस्य त्वामितो नयतोऽङ्गने | मूल |
2893 | 5035028c | अनुगन्तुं गतिं शक्ताः सर्वे लङ्कानिवासिनः | मूल |
2894 | 5035029a | यथैवाहमिह प्राप्तस्तथैवाहमसंशयम् | मूल |
2895 | 5035029c | यास्यामि पश्य वैदेहि त्वामुद्यम्य विहायसं | मूल |
2896 | 5035030a | मैथिली तु हरिश्रेष्ठाच्छ्रुत्वा वचनमद्भुतम् | मूल |
2897 | 5035030c | हर्षविस्मितसर्वाङ्गी हनूमन्तमथाब्रवीत् | मूल |
2898 | 5035031a | हनूमन्दूरमध्वनं कथं मां वोढुमिच्छसि | मूल |
2899 | 5035031c | तदेव खलु ते मन्ये कपित्वं हरियूथप | मूल |
2900 | 5035032a | कथं वाल्पशरीरस्त्वं मामितो नेतुमिच्छसि | मूल |
2901 | 5035032c | सकाशं मानवेन्द्रस्य भर्तुर्मे प्लवगर्षभ | मूल |
2902 | 5035033a | सीताया वचनं श्रुत्वा हनूमान्मारुतात्मजः | मूल |
2903 | 5035033c | चिन्तयामास लक्ष्मीवान्नवं परिभवं कृतम् | मूल |
2904 | 5035034a | न मे जानाति सत्त्वं वा प्रभावं वासितेक्षणा | मूल |
2905 | 5035034c | तस्मात्पश्यतु वैदेही यद्रूपं मम कामतः | मूल |
2906 | 5035035a | इति संचिन्त्य हनुमांस्तदा प्लवगसत्तमः | मूल |
2907 | 5035035c | दर्शयामास वैदेह्याः स्वरूपमरिमर्दनः | मूल |
2908 | 5035036a | स तस्मात्पादपाद्धीमानाप्लुत्य प्लवगर्षभः | मूल |
2909 | 5035036c | ततो वर्धितुमारेभे सीताप्रत्ययकारणात् | मूल |
2910 | 5035037a | मेरुमन्दारसंकाशो बभौ दीप्तानलप्रभः | मूल |
2911 | 5035037c | अग्रतो व्यवतस्थे च सीताया वानरर्षभः | मूल |
2912 | 5035038a | हरिः पर्वतसंकाशस्ताम्रवक्त्रो महाबलः | मूल |
2913 | 5035038c | वज्रदंष्ट्रनखो भीमो वैदेहीमिदमब्रवीत् | मूल |
2914 | 5035039a | सपर्वतवनोद्देशां साट्टप्राकारतोरणाम् | मूल |
2915 | 5035039c | लङ्कामिमां सनथां वा नयितुं शक्तिरस्ति मे | मूल |
2916 | 5035040a | तदवस्थाप्य तां बुद्धिरलं देवि विकाङ्क्षया | मूल |
2917 | 5035040c | विशोकं कुरु वैदेहि राघवं सहलक्ष्मणम् | मूल |
2918 | 5035041a | तं दृष्ट्वाचलसंकाशमुवाच जनकात्मजा | मूल |
2919 | 5035041c | पद्मपत्रविशालाक्षी मारुतस्यौरसं सुतम् | मूल |
2920 | 5035042a | तव सत्त्वं बलं चैव विजानामि महाकपे | मूल |
2921 | 5035042c | वायोरिव गतिं चापि तेजश्चाग्निरिवाद्भुतम् | मूल |
2922 | 5035043a | प्राकृतोऽन्यः कथं चेमां भूमिमागन्तुमर्हति | मूल |
2923 | 5035043c | उदधेरप्रमेयस्य पारं वानरपुंगव | मूल |
2924 | 5035044a | जानामि गमने शक्तिं नयने चापि ते मम | मूल |
2925 | 5035044c | अवश्यं साम्प्रधार्याशु कार्यसिद्धिरिहात्मनः | मूल |
2926 | 5035045a | अयुक्तं तु कपिश्रेष्ठ मया गन्तुं त्वया सह | मूल |
2927 | 5035045c | वायुवेगसवेगस्य वेगो मां मोहयेत्तव | मूल |
2928 | 5035046a | अहमाकाशमासक्ता उपर्युपरि सागरम् | मूल |
2929 | 5035046c | प्रपतेयं हि ते पृष्ठाद्भयाद्वेगेन गच्छतः | मूल |
2930 | 5035047a | पतिता सागरे चाहं तिमिनक्रझषाकुले | मूल |
2931 | 5035047c | भयेयमाशु विवशा यादसामन्नमुत्तमम् | मूल |
2932 | 5035048a | न च शक्ष्ये त्वया सार्धं गन्तुं शत्रुविनाशन | मूल |
2933 | 5035048c | कलत्रवति संदेहस्त्वय्यपि स्यादसंशयम् | मूल |
2934 | 5035049a | ह्रियमाणां तु मां दृष्ट्वा राक्षसा भीमविक्रमाः | मूल |
2935 | 5035049c | अनुगच्छेयुरादिष्टा रावणेन दुरात्मना | मूल |
2936 | 5035050a | तैस्त्वं परिवृतः शूरैः शूलमुद्गर पाणिभिः | मूल |
2937 | 5035050c | भवेस्त्वं संशयं प्राप्तो मया वीर कलत्रवान् | मूल |
2938 | 5035051a | सायुधा बहवो व्योम्नि राक्षसास्त्वं निरायुधः | मूल |
2939 | 5035051c | कथं शक्ष्यसि संयातुं मां चैव परिरक्षितुम् | मूल |
2940 | 5035052a | युध्यमानस्य रक्षोभिस्ततस्तैः क्रूरकर्मभिः | मूल |
2941 | 5035052c | प्रपतेयं हि ते पृष्ठद्भयार्ता कपिसत्तम | मूल |
2942 | 5035053a | अथ रक्षांसि भीमानि महान्ति बलवन्ति च | मूल |
2943 | 5035053c | कथंचित्साम्पराये त्वां जयेयुः कपिसत्तम | मूल |
2944 | 5035054a | अथ वा युध्यमानस्य पतेयं विमुखस्य ते | मूल |
2945 | 5035054c | पतितां च गृहीत्वा मां नयेयुः पापराक्षसाः | मूल |
2946 | 5035055a | मां वा हरेयुस्त्वद्धस्ताद्विशसेयुरथापि वा | मूल |
2947 | 5035055c | अव्यवस्थौ हि दृश्येते युद्धे जयपराजयौ | मूल |
2948 | 5035056a | अहं वापि विपद्येयं रक्षोभिरभितर्जिता | मूल |
2949 | 5035056c | त्वत्प्रयत्नो हरिश्रेष्ठ भवेन्निष्फल एव तु | मूल |
2950 | 5035057a | कामं त्वमपि पर्याप्तो निहन्तुं सर्वराक्षसान् | मूल |
2951 | 5035057c | राघवस्य यशो हीयेत्त्वया शस्तैस्तु राक्षसैः | मूल |
2952 | 5035058a | अथ वादाय रक्षांसि न्यस्येयुः संवृते हि माम् | मूल |
2953 | 5035058c | यत्र ते नाभिजानीयुर्हरयो नापि राघवः | मूल |
2954 | 5035059a | आरम्भस्तु मदर्थोऽयं ततस्तव निरर्थकः | मूल |
2955 | 5035059c | त्वया हि सह रामस्य महानागमने गुणः | मूल |
2956 | 5035060a | मयि जीवितमायत्तं राघवस्य महात्मनः | मूल |
2957 | 5035060c | भ्रातॄणां च महाबाहो तव राजकुलस्य च | मूल |
2958 | 5035061a | तौ निराशौ मदर्थे तु शोकसंतापकर्शितौ | मूल |
2959 | 5035061c | सह सर्वर्क्षहरिभिस्त्यक्ष्यतः प्राणसंग्रहम् | मूल |
2960 | 5035062a | भर्तुर्भक्तिं पुरस्कृत्य रामादन्यस्य वानर | मूल |
2961 | 5035062c | नाहं स्प्रष्टुं पदा गात्रमिच्छेयं वानरोत्तम | मूल |
2962 | 5035063a | यदहं गात्रसंस्पर्शं रावणस्य गता बलात् | मूल |
2963 | 5035063c | अनीशा किं करिष्यामि विनाथा विवशा सती | मूल |
2964 | 5035064a | यदि रामो दशग्रीवमिह हत्वा सराक्षसं | मूल |
2965 | 5035064c | मामितो गृह्य गच्छेत तत्तस्य सदृशं भवेत् | मूल |
2966 | 5035065a | श्रुता हि दृष्टाश्च मया पराक्रमा; महात्मनस्तस्य रणावमर्दिनः | मूल |
2967 | 5035065c | न देवगन्धर्वभुजंगराक्षसा; भवन्ति रामेण समा हि संयुगे | मूल |
2968 | 5035066a | समीक्ष्य तं संयति चित्रकार्मुकं; महाबलं वासवतुल्यविक्रमम् | मूल |
2969 | 5035066c | सलक्ष्मणं को विषहेत राघवं; हुताशनं दीप्तमिवानिलेरितम् | मूल |
2970 | 5035067a | सलक्ष्मणं राघवमाजिमर्दनं; दिशागजं मत्तमिव व्यवस्थितम् | मूल |
2971 | 5035067c | सहेत को वानरमुख्य संयुगे; युगान्तसूर्यप्रतिमं शरार्चिषम् | मूल |
2972 | 5035068a | स मे हरिश्रेष्ठ सलक्ष्मणं पतिं; सयूथपं क्षिप्रमिहोपपादय | मूल |
2973 | 5035068c | चिराय रामं प्रति शोककर्शितां; कुरुष्व मां वानरमुख्य हर्षिताम् | मूल |
2974 | 5036001a | ततः स कपिशार्दूलस्तेन वाक्येन हर्षितः | |
2975 | 5036001c | सीतामुवाच तच्छ्रुत्वा वाक्यं वाक्यविशारदः | |
2976 | 5036002a | युक्तरूपं त्वया देवि भाषितं शुभदर्शने | |
2977 | 5036002c | सदृशं स्त्रीस्वभावस्य साध्वीनां विनयस्य च | |
2978 | 5036003a | स्त्रीत्वं न तु समर्थं हि सागरं व्यतिवर्तितुम् | |
2979 | 5036003c | मामधिष्ठाय विस्तीर्णं शतयोजनमायतम् | |
2980 | 5036004a | द्वितीयं कारणं यच्च ब्रवीषि विनयान्विते | |
2981 | 5036004c | रामादन्यस्य नार्हामि संस्पर्शमिति जानकि | |
2982 | 5036005a | एतत्ते देवि सदृशं पत्न्यास्तस्य महात्मनः | |
2983 | 5036005c | का ह्यन्या त्वामृते देवि ब्रूयाद्वचनमीदृशम् | |
2984 | 5036006a | श्रोष्यते चैव काकुत्स्थः सर्वं निरवशेषतः | |
2985 | 5036006c | चेष्टितं यत्त्वया देवि भाषितं मम चाग्रतः | |
2986 | 5036007a | कारणैर्बहुभिर्देवि राम प्रियचिकीर्षया | |
2987 | 5036007c | स्नेहप्रस्कन्नमनसा मयैतत्समुदीरितम् | |
2988 | 5036008a | लङ्काया दुष्प्रवेशत्वाद्दुस्तरत्वान्महोदधेः | |
2989 | 5036008c | सामर्थ्यादात्मनश्चैव मयैतत्समुदाहृतम् | |
2990 | 5036009a | इच्छामि त्वां समानेतुमद्यैव रघुबन्धुना | |
2991 | 5036009c | गुरुस्नेहेन भक्त्या च नान्यथा तदुदाहृतम् | |
2992 | 5036010a | यदि नोत्सहसे यातुं मया सार्धमनिन्दिते | |
2993 | 5036010c | अभिज्ञानं प्रयच्छ त्वं जानीयाद्राघवो हि यत् | |
2994 | 5036011a | एवमुक्ता हनुमता सीता सुरसुतोपमा | |
2995 | 5036011c | उवाच वचनं मन्दं बाष्पप्रग्रथिताक्षरम् | |
2996 | 5036012a | इदं श्रेष्ठमभिज्ञानं ब्रूयास्त्वं तु मम प्रियम् | |
2997 | 5036012c | शैलस्य चित्रकूटस्य पादे पूर्वोत्तरे तदा | |
2998 | 5036013a | तापसाश्रमवासिन्याः प्राज्यमूलफलोदके | |
2999 | 5036013c | तस्मिन्सिद्धाश्रमे देशे मन्दाकिन्या अदूरतः | |
3000 | 5036014a | तस्योपवनषण्डेषु नानापुष्पसुगन्धिषु | |
3001 | 5036014c | विहृत्य सलिलक्लिन्ना तवाङ्के समुपाविशम् | |
3002 | 5036015a | पर्यायेण प्रसुप्तश्च ममाङ्के भरताग्रजः | |
3003 | 5036016a | ततो मांससमायुक्तो वायसः पर्यतुण्डयत् | |
3004 | 5036016c | तमहं लोष्टमुद्यम्य वारयामि स्म वायसं | |
3005 | 5036017a | दारयन्स च मां काकस्तत्रैव परिलीयते | |
3006 | 5036017c | न चाप्युपरमन्मांसाद्भक्षार्थी बलिभोजनः | |
3007 | 5036018a | उत्कर्षन्त्यां च रशनां क्रुद्धायां मयि पक्षिणे | |
3008 | 5036018c | स्रंसमाने च वसने ततो दृष्टा त्वया ह्यहम् | |
3009 | 5036019a | त्वया विहसिता चाहं क्रुद्धा संलज्जिता तदा | |
3010 | 5036019c | भक्ष्य गृद्धेन कालेन दारिता त्वामुपागता | |
3011 | 5036020a | आसीनस्य च ते श्रान्ता पुनरुत्सङ्गमाविशम् | |
3012 | 5036020c | क्रुध्यन्ती च प्रहृष्टेन त्वयाहं परिसान्त्विता | |
3013 | 5036021a | बाष्पपूर्णमुखी मन्दं चक्षुषी परिमार्जती | |
3014 | 5036021c | लक्षिताहं त्वया नाथ वायसेन प्रकोपिता | |
3015 | 5036022a | आशीविष इव क्रुद्धः श्वसान्वाक्यमभाषथाः | |
3016 | 5036022c | केन ते नागनासोरु विक्षतं वै स्तनान्तरम् | |
3017 | 5036022e | कः क्रीडति सरोषेण पञ्चवक्त्रेण भोगिना | |
3018 | 5036023a | वीक्षमाणस्ततस्तं वै वायसं समवैक्षथाः | |
3019 | 5036023c | नखैः सरुधिरैस्तीक्ष्णैर्मामेवाभिमुखं स्थितम् | |
3020 | 5036024a | पुत्रः किल स शक्रस्य वायसः पततां वरः | |
3021 | 5036024c | धरान्तरचरः शीघ्रं पवनस्य गतौ समः | |
3022 | 5036025a | ततस्तस्मिन्महाबाहुः कोपसंवर्तितेक्षणः | |
3023 | 5036025c | वायसे कृतवान्क्रूरां मतिं मतिमतां वर | |
3024 | 5036026a | स दर्भसंस्तराद्गृह्य ब्रह्मणोऽस्त्रेण योजयः | |
3025 | 5036026c | स दीप्त इव कालाग्निर्जज्वालाभिमुखो द्विजम् | |
3026 | 5036027a | चिक्षेपिथ प्रदीप्तां तामिषीकां वायसं प्रति | |
3027 | 5036027c | अनुसृष्टस्तदा कालो जगाम विविधां गतिम् | |
3028 | 5036027e | त्राणकाम इमं लोकं सर्वं वै विचचार ह | |
3029 | 5036028a | स पित्रा च परित्यक्तः सुरैः सर्वैर्महर्षिभिः | |
3030 | 5036028c | त्रीँल्लोकान्संपरिक्रम्य त्वामेव शरणं गतः | |
3031 | 5036029a | तं त्वं निपतितं भूमौ शरण्यः शरणागतम् | |
3032 | 5036029c | वधार्हमपि काकुत्स्थ कृपया पर्यपालयः | |
3033 | 5036029e | न शर्म लब्ध्वा लोकेषु त्वामेव शरणं गतः | |
3034 | 5036030a | परिद्यूनं विषण्णं च स त्वमायान्तमुक्तवान् | |
3035 | 5036030c | मोघं कर्तुं न शक्यं तु ब्राह्ममस्त्रं तदुच्यताम् | |
3036 | 5036031a | ततस्तस्याक्षि काकस्य हिनस्ति स्म स दक्षिणम् | |
3037 | 5036032a | स ते तदा नमस्कृत्वा राज्ञे दशरथाय च | |
3038 | 5036032c | त्वया वीर विसृष्टस्तु प्रतिपेदे स्वमालयम् | |
3039 | 5036033a | मत्कृते काकमात्रेऽपि ब्रह्मास्त्रं समुदीरितम् | |
3040 | 5036033c | कस्माद्यो मां हरत्त्वत्तः क्षमसे तं महीपते | |
3041 | 5036034a | स कुरुष्व महोत्साहं कृपां मयि नरर्षभ | |
3042 | 5036034c | आनृशंस्यं परो धर्मस्त्वत्त एव मया श्रुतः | |
3043 | 5036035a | जानामि त्वां महावीर्यं महोत्साहं महाबलम् | |
3044 | 5036035c | अपारपारमक्षोभ्यं गाम्भीर्यात्सागरोपमम् | |
3045 | 5036035e | भर्तारं ससमुद्राया धरण्या वासवोपमम् | |
3046 | 5036036a | एवमस्त्रविदां श्रेष्ठः सत्त्ववान्बलवानपि | |
3047 | 5036036c | किमर्थमस्त्रं रक्षःसु न योजयसि राघव | |
3048 | 5036037a | न नागा नापि गन्धर्वा नासुरा न मरुद्गणाः | |
3049 | 5036037c | रामस्य समरे वेगं शक्ताः प्रति समाधितुम् | |
3050 | 5036038a | तस्या वीर्यवतः कश्चिद्यद्यस्ति मयि संभ्रमः | |
3051 | 5036038c | किमर्थं न शरैस्तीक्ष्णैः क्षयं नयति राक्षसान् | |
3052 | 5036039a | भ्रातुरादेशमादाय लक्ष्मणो वा परंतपः | |
3053 | 5036039c | कस्य हेतोर्न मां वीरः परित्राति महाबलः | |
3054 | 5036040a | यदि तौ पुरुषव्याघ्रौ वाय्विन्द्रसमतेजसौ | |
3055 | 5036040c | सुराणामपि दुर्धर्षो किमर्थं मामुपेक्षतः | |
3056 | 5036041a | ममैव दुष्कृतं किंचिन्महदस्ति न संशयः | |
3057 | 5036041c | समर्थावपि तौ यन्मां नावेक्षेते परंतपौ | |
3058 | 5036042a | कौसल्या लोकभर्तारं सुषुवे यं मनस्विनी | |
3059 | 5036042c | तं ममार्थे सुखं पृच्छ शिरसा चाभिवादय | |
3060 | 5036043a | स्रजश्च सर्वरत्नानि प्रिया याश्च वराङ्गनाः | |
3061 | 5036043c | ऐश्वर्यं च विशालायां पृथिव्यामपि दुर्लभम् | |
3062 | 5036044a | पितरं मातरं चैव संमान्याभिप्रसाद्य च | |
3063 | 5036044c | अनुप्रव्रजितो रामं सुमित्रा येन सुप्रजाः | |
3064 | 5036044e | आनुकूल्येन धर्मात्मा त्यक्त्वा सुखमनुत्तमम् | |
3065 | 5036045a | अनुगच्छति काकुत्स्थं भ्रातरं पालयन्वने | |
3066 | 5036045c | सिंहस्कन्धो महाबाहुर्मनस्वी प्रियदर्शनः | |
3067 | 5036046a | पितृवद्वर्तते रामे मातृवन्मां समाचरन् | |
3068 | 5036046c | ह्रियमाणां तदा वीरो न तु मां वेद लक्ष्मणः | |
3069 | 5036047a | वृद्धोपसेवी लक्ष्मीवाञ्शक्तो न बहुभाषिता | |
3070 | 5036047c | राजपुत्रः प्रियश्रेष्ठः सदृशः श्वशुरस्य मे | |
3071 | 5036048a | मत्तः प्रियतरो नित्यं भ्राता रामस्य लक्ष्मणः | |
3072 | 5036048c | नियुक्तो धुरि यस्यां तु तामुद्वहति वीर्यवान् | |
3073 | 5036049a | यं दृष्ट्वा राघवो नैव वृद्धमार्यमनुस्मरत् | |
3074 | 5036049c | स ममार्थाय कुशलं वक्तव्यो वचनान्मम | |
3075 | 5036049e | मृदुर्नित्यं शुचिर्दक्षः प्रियो रामस्य लक्ष्मणः | |
3076 | 5036050a | इदं ब्रूयाश्च मे नाथं शूरं रामं पुनः पुनः | |
3077 | 5036050c | जीवितं धारयिष्यामि मासं दशरथात्मज | |
3078 | 5036050e | ऊर्ध्वं मासान्न जीवेयं सत्येनाहं ब्रवीमि ते | |
3079 | 5036051a | रावणेनोपरुद्धां मां निकृत्या पापकर्मणा | |
3080 | 5036051c | त्रातुमर्हसि वीर त्वं पातालादिव कौशिकीम् | |
3081 | 5036052a | ततो वस्त्रगतं मुक्त्वा दिव्यं चूडामणिं शुभम् | |
3082 | 5036052c | प्रदेयो राघवायेति सीता हनुमते ददौ | |
3083 | 5036053a | प्रतिगृह्य ततो वीरो मणिरत्नमनुत्तमम् | |
3084 | 5036053c | अङ्गुल्या योजयामास न ह्यस्या प्राभवद्भुजः | |
3085 | 5036054a | मणिरत्नं कपिवरः प्रतिगृह्याभिवाद्य च | |
3086 | 5036054c | सीतां प्रदक्षिणं कृत्वा प्रणतः पार्श्वतः स्थितः | |
3087 | 5036055a | हर्षेण महता युक्तः सीतादर्शनजेन सः | |
3088 | 5036055c | हृदयेन गतो रामं शरीरेण तु विष्ठितः | |
3089 | 5036056a | मणिवरमुपगृह्य तं महार्हं; जनकनृपात्मजया धृतं प्रभावात् | |
3090 | 5036056c | गिरिवरपवनावधूतमुक्तः; सुखितमनाः प्रतिसंक्रमं प्रपेदे | |
3091 | 5037001a | मणिं दत्त्वा ततः सीता हनूमन्तमथाब्रवीत् | मूल |
3092 | 5037001c | अभिज्ञानमभिज्ञातमेतद्रामस्य तत्त्वतः | मूल |
3093 | 5037002a | मणिं तु दृष्ट्वा रामो वै त्रयाणां संस्मरिष्यति | मूल |
3094 | 5037002c | वीरो जनन्या मम च राज्ञो दशरथस्य च | मूल |
3095 | 5037003a | स भूयस्त्वं समुत्साहे चोदितो हरिसत्तम | मूल |
3096 | 5037003c | अस्मिन्कार्यसमारम्भे प्रचिन्तय यदुत्तरम् | मूल |
3097 | 5037004a | त्वमस्मिन्कार्यनिर्योगे प्रमाणं हरिसत्तम | मूल |
3098 | 5037004c | तस्य चिन्तय यो यत्नो दुःखक्षयकरो भवेत् | मूल |
3099 | 5037005a | स तथेति प्रतिज्ञाय मारुतिर्भीमविक्रमः | मूल |
3100 | 5037005c | शिरसावन्द्य वैदेहीं गमनायोपचक्रमे | मूल |
3101 | 5037006a | ज्ञात्वा संप्रस्थितं देवी वानरं मारुतात्मजम् | मूल |
3102 | 5037006c | बाष्पगद्गदया वाचा मैथिली वाक्यमब्रवीत् | मूल |
3103 | 5037007a | कुशलं हनुमन्ब्रूयाः सहितौ रामलक्ष्मणौ | मूल |
3104 | 5037007c | सुग्रीवं च सहामात्यं वृद्धान्सर्वांश्च वानरान् | मूल |
3105 | 5037008a | यथा च स महाबाहुर्मां तारयति राघवः | मूल |
3106 | 5037008c | अस्माद्दुःखाम्बुसंरोधात्त्वं समाधातुमर्हसि | मूल |
3107 | 5037009a | जीवन्तीं मां यथा रामः संभावयति कीर्तिमान् | मूल |
3108 | 5037009c | तत्त्वया हनुमन्वाच्यं वाचा धर्ममवाप्नुहि | मूल |
3109 | 5037010a | नित्यमुत्साहयुक्ताश्च वाचः श्रुत्वा मयेरिताः | मूल |
3110 | 5037010c | वर्धिष्यते दाशरथेः पौरुषं मदवाप्तये | मूल |
3111 | 5037011a | मत्संदेशयुता वाचस्त्वत्तः श्रुत्वैव राघवः | मूल |
3112 | 5037011c | पराक्रमविधिं वीरो विधिवत्संविधास्यति | मूल |
3113 | 5037012a | सीतायास्तद्वचः श्रुत्वा हनुमान्मारुतात्मजः | मूल |
3114 | 5037012c | शिरस्यञ्जलिमाधाय वाक्यमुत्तरमब्रवीत् | मूल |
3115 | 5037013a | क्षिप्रमेष्यति काकुत्स्थो हर्यृक्षप्रवरैर्वृतः | मूल |
3116 | 5037013c | यस्ते युधि विजित्यारीञ्शोकं व्यपनयिष्यति | मूल |
3117 | 5037014a | न हि पश्यामि मर्त्येषु नामरेष्वसुरेषु वा | मूल |
3118 | 5037014c | यस्तस्य वमतो बाणान्स्थातुमुत्सहतेऽग्रतः | मूल |
3119 | 5037015a | अप्यर्कमपि पर्जन्यमपि वैवस्वतं यमम् | मूल |
3120 | 5037015c | स हि सोढुं रणे शक्तस्तवहेतोर्विशेषतः | मूल |
3121 | 5037016a | स हि सागरपर्यन्तां महीं शासितुमीहते | मूल |
3122 | 5037016c | त्वन्निमित्तो हि रामस्य जयो जनकनन्दिनि | मूल |
3123 | 5037017a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सम्यक्सत्यं सुभाषितम् | मूल |
3124 | 5037017c | जानकी बहु मेनेऽथ वचनं चेदमब्रवीत् | मूल |
3125 | 5037018a | ततस्तं प्रस्थितं सीता वीक्षमाणा पुनः पुनः | मूल |
3126 | 5037018c | भर्तुः स्नेहान्वितं वाक्यं सौहार्दादनुमानयत् | मूल |
3127 | 5037019a | यदि वा मन्यसे वीर वसैकाहमरिंदम | मूल |
3128 | 5037019c | कस्मिंश्चित्संवृते देशे विश्रान्तः श्वो गमिष्यसि | मूल |
3129 | 5037020a | मम चेदल्पभाग्यायाः साम्निध्यात्तव वीर्यवान् | मूल |
3130 | 5037020c | अस्य शोकस्य महतो मुहूर्तं मोक्षणं भवेत् | मूल |
3131 | 5037021a | गते हि हरिशार्दूल पुनरागमनाय तु | मूल |
3132 | 5037021c | प्राणानामपि संदेहो मम स्यान्नात्र संशयः | मूल |
3133 | 5037022a | तवादर्शनजः शोको भूयो मां परितापयेत् | मूल |
3134 | 5037022c | दुःखाद्दुःखपरामृष्टां दीपयन्निव वानर | मूल |
3135 | 5037023a | अयं च वीर संदेहस्तिष्ठतीव ममाग्रतः | मूल |
3136 | 5037023c | सुमहांस्त्वत्सहायेषु हर्यृक्षेषु हरीश्वर | मूल |
3137 | 5037024a | कथं नु खलु दुष्पारं तरिष्यन्ति महोदधिम् | मूल |
3138 | 5037024c | तानि हर्यृक्षसैन्यानि तौ वा नरवरात्मजौ | मूल |
3139 | 5037025a | त्रयाणामेव भूतानां सागरस्येह लङ्घने | मूल |
3140 | 5037025c | शक्तिः स्याद्वैनतेयस्य तव वा मारुतस्य वा | मूल |
3141 | 5037026a | तदस्मिन्कार्यनिर्योगे वीरैवं दुरतिक्रमे | मूल |
3142 | 5037026c | किं पश्यसि समाधानं त्वं हि कार्यविदां वरः | मूल |
3143 | 5037027a | काममस्य त्वमेवैकः कार्यस्य परिसाधने | मूल |
3144 | 5037027c | पर्याप्तः परवीरघ्न यशस्यस्ते बलोदयः | मूल |
3145 | 5037028a | बलैः समग्रैर्यदि मां रावणं जित्य संयुगे | मूल |
3146 | 5037028c | विजयी स्वपुरं यायात्तत्तु मे स्याद्यशस्करम् | मूल |
3147 | 5037029a | बलैस्तु संकुलां कृत्वा लङ्कां परबलार्दनः | मूल |
3148 | 5037029c | मां नयेद्यदि काकुत्स्थस्तत्तस्य सदृशं भवेत् | मूल |
3149 | 5037030a | तद्यथा तस्य विक्रान्तमनुरूपं महात्मनः | मूल |
3150 | 5037030c | भवेदाहव शूरस्य तथा त्वमुपपादय | मूल |
3151 | 5037031a | तदर्थोपहितं वाक्यं सहितं हेतुसंहितम् | मूल |
3152 | 5037031c | निशम्य हनुमाञ्शेषं वाक्यमुत्तरमब्रवीत् | मूल |
3153 | 5037032a | देवि हर्यृक्षसैन्यानामीश्वरः प्लवतां वरः | मूल |
3154 | 5037032c | सुग्रीवः सत्त्वसंपन्नस्तवार्थे कृतनिश्चयः | मूल |
3155 | 5037033a | स वानरसहस्राणां कोटीभिरभिसंवृतः | मूल |
3156 | 5037033c | क्षिप्रमेष्यति वैदेहि राक्षसानां निबर्हणः | मूल |
3157 | 5037034a | तस्य विक्रमसंपन्नाः सत्त्ववन्तो महाबलाः | मूल |
3158 | 5037034c | मनःसंकल्पसंपाता निदेशे हरयः स्थिताः | मूल |
3159 | 5037035a | येषां नोपरि नाधस्तान्न तिर्यक्सज्जते गतिः | मूल |
3160 | 5037035c | न च कर्मसु सीदन्ति महत्स्वमिततेजसः | मूल |
3161 | 5037036a | असकृत्तैर्महोत्सहैः ससागरधराधरा | मूल |
3162 | 5037036c | प्रदक्षिणीकृता भूमिर्वायुमार्गानुसारिभिः | मूल |
3163 | 5037037a | मद्विशिष्टाश्च तुल्याश्च सन्ति तत्र वनौकसः | मूल |
3164 | 5037037c | मत्तः प्रत्यवरः कश्चिन्नास्ति सुग्रीवसंनिधौ | मूल |
3165 | 5037038a | अहं तावदिह प्राप्तः किं पुनस्ते महाबलाः | मूल |
3166 | 5037038c | न हि प्रकृष्टाः प्रेष्यन्ते प्रेष्यन्ते हीतरे जनाः | मूल |
3167 | 5037039a | तदलं परितापेन देवि शोको व्यपैतु ते | मूल |
3168 | 5037039c | एकोत्पातेन ते लङ्कामेष्यन्ति हरियूथपाः | मूल |
3169 | 5037040a | मम पृष्ठगतौ तौ च चन्द्रसूर्याविवोदितौ | मूल |
3170 | 5037040c | त्वत्सकाशं महासत्त्वौ नृसिंहावागमिष्यतः | मूल |
3171 | 5037041a | तौ हि वीरौ नरवरौ सहितौ रामलक्ष्मणौ | मूल |
3172 | 5037041c | आगम्य नगरीं लङ्कां सायकैर्विधमिष्यतः | मूल |
3173 | 5037042a | सगणं रावणं हत्वा राघवो रघुनन्दनः | मूल |
3174 | 5037042c | त्वामादाय वरारोहे स्वपुरं प्रतियास्यति | मूल |
3175 | 5037043a | तदाश्वसिहि भद्रं ते भव त्वं कालकाङ्क्षिणी | मूल |
3176 | 5037043c | नचिराद्द्रक्ष्यसे रामं प्रज्वजन्तमिवानिलम् | मूल |
3177 | 5037044a | निहते राक्षसेन्द्रे च सपुत्रामात्यबान्धवे | मूल |
3178 | 5037044c | त्वं समेष्यसि रामेण शशाङ्केनेव रोहिणी | मूल |
3179 | 5037045a | क्षिप्रं त्वं देवि शोकस्य पारं यास्यसि मैथिलि | मूल |
3180 | 5037045c | रावणं चैव रामेण निहतं द्रक्ष्यसेऽचिरात् | मूल |
3181 | 5037046a | एवमाश्वस्य वैदेहीं हनूमान्मारुतात्मजः | मूल |
3182 | 5037046c | गमनाय मतिं कृत्वा वैदेहीं पुनरब्रवीत् | मूल |
3183 | 5037047a | तमरिघ्नं कृतात्मानं क्षिप्रं द्रक्ष्यसि राघवम् | मूल |
3184 | 5037047c | लक्ष्मणं च धनुष्पाणिं लङ्काद्वारमुपस्थितम् | मूल |
3185 | 5037048a | नखदंष्ट्रायुधान्वीरान्सिंहशार्दूलविक्रमान् | मूल |
3186 | 5037048c | वानरान्वारणेन्द्राभान्क्षिप्रं द्रक्ष्यसि संगतान् | मूल |
3187 | 5037049a | शैलाम्बुदनिकाशानां लङ्कामलयसानुषु | मूल |
3188 | 5037049c | नर्दतां कपिमुख्यानामार्ये यूथान्यनेकशः | मूल |
3189 | 5037050a | स तु मर्मणि घोरेण ताडितो मन्मथेषुणा | मूल |
3190 | 5037050c | न शर्म लभते रामः सिंहार्दित इव द्विपः | मूल |
3191 | 5037051a | मा रुदो देवि शोकेन मा भूत्ते मनसोऽप्रियम् | मूल |
3192 | 5037051c | शचीव पथ्या शक्रेण भर्त्रा नाथवती ह्यसि | मूल |
3193 | 5037052a | रामाद्विशिष्टः कोऽन्योऽस्ति कश्चित्सौमित्रिणा समः | मूल |
3194 | 5037052c | अग्निमारुतकल्पौ तौ भ्रातरौ तव संश्रयौ | मूल |
3195 | 5037053a | नास्मिंश्चिरं वत्स्यसि देवि देशे; रक्षोगणैरध्युषितोऽतिरौद्रे | मूल |
3196 | 5037053c | न ते चिरादागमनं प्रियस्य; क्षमस्व मत्संगमकालमात्रम् | मूल |
3197 | 5038001a | श्रुत्वा तु वचनं तस्य वायुसूनोर्महात्मनः | मूल |
3198 | 5038001c | उवाचात्महितं वाक्यं सीता सुरसुतोपमा | मूल |
3199 | 5038002a | त्वां दृष्ट्वा प्रियवक्तारं संप्रहृष्यामि वानर | मूल |
3200 | 5038002c | अर्धसंजातसस्येव वृष्टिं प्राप्य वसुंधरा | मूल |
3201 | 5038003a | यथा तं पुरुषव्याघ्रं गात्रैः शोकाभिकर्शितैः | मूल |
3202 | 5038003c | संस्पृशेयं सकामाहं तथा कुरु दयां मयि | मूल |
3203 | 5038004a | अभिज्ञानं च रामस्य दत्तं हरिगणोत्तम | मूल |
3204 | 5038004c | क्षिप्तामीषिकां काकस्य कोपादेकाक्षिशातनीम् | मूल |
3205 | 5038005a | मनःशिलायास्तिकलो गण्डपार्श्वे निवेशितः | मूल |
3206 | 5038005c | त्वया प्रनष्टे तिलके तं किल स्मर्तुमर्हसि | मूल |
3207 | 5038006a | स वीर्यवान्कथं सीतां हृतां समनुमन्यसे | मूल |
3208 | 5038006c | वसन्तीं रक्षसां मध्ये महेन्द्रवरुणोपम | मूल |
3209 | 5038007a | एष चूडामणिर्दिव्यो मया सुपरिरक्षितः | मूल |
3210 | 5038007c | एतं दृष्ट्वा प्रहृष्यामि व्यसने त्वामिवानघ | मूल |
3211 | 5038008a | एष निर्यातितः श्रीमान्मया ते वारिसंभवः | मूल |
3212 | 5038008c | अतः परं न शक्ष्यामि जीवितुं शोकलालसा | मूल |
3213 | 5038009a | असह्यानि च दुःखानि वाचश्च हृदयच्छिदः | मूल |
3214 | 5038009c | राक्षसीनां सुघोराणां त्वत्कृते मर्षयाम्यहम् | मूल |
3215 | 5038010a | धारयिष्यामि मासं तु जीवितं शत्रुसूदन | मूल |
3216 | 5038010c | मासादूर्ध्वं न जीविष्ये त्वया हीना नृपात्मज | मूल |
3217 | 5038011a | घोरो राक्षसराजोऽयं दृष्टिश्च न सुखा मयि | मूल |
3218 | 5038011c | त्वां च श्रुत्वा विपद्यन्तं न जीवेयमहं क्षणम् | मूल |
3219 | 5038012a | वैदेह्या वचनं श्रुत्वा करुणं साश्रुभाषितम् | मूल |
3220 | 5038012c | अथाब्रवीन्महातेजा हनुमान्मारुतात्मजः | मूल |
3221 | 5038013a | त्वच्छोकविमुखो रामो देवि सत्येन ते शपे | मूल |
3222 | 5038013c | रामे शोकाभिभूते तु लक्ष्मणः परितप्यते | मूल |
3223 | 5038014a | दृष्टा कथंचिद्भवती न कालः परिशोचितुम् | मूल |
3224 | 5038014c | इमं मुहूर्तं दुःखानामन्तं द्रक्ष्यसि भामिनि | मूल |
3225 | 5038015a | तावुभौ पुरुषव्याघ्रौ राजपुत्रावनिन्दितौ | मूल |
3226 | 5038015c | त्वद्दर्शनकृतोत्साहौ लङ्कां भस्मीकरिष्यतः | मूल |
3227 | 5038016a | हत्वा तु समरे क्रूरं रावणं सह बान्धवम् | मूल |
3228 | 5038016c | राघवौ त्वां विशालाक्षि स्वां पुरीं प्रापयिष्यतः | मूल |
3229 | 5038017a | यत्तु रामो विजानीयादभिज्ञानमनिन्दिते | मूल |
3230 | 5038017c | प्रीतिसंजननं तस्य भूयस्त्वं दातुमर्हसि | मूल |
3231 | 5038018a | साब्रवीद्दत्तमेवेह मयाभिज्ञानमुत्तमम् | मूल |
3232 | 5038018c | एतदेव हि रामस्य दृष्ट्वा मत्केशभूषणम् | मूल |
3233 | 5038018e | श्रद्धेयं हनुमन्वाक्यं तव वीर भविष्यति | मूल |
3234 | 5038019a | स तं मणिवरं गृह्य श्रीमान्प्लवगसत्तमः | मूल |
3235 | 5038019c | प्रणम्य शिरसा देवीं गमनायोपचक्रमे | मूल |
3236 | 5038020a | तमुत्पातकृतोत्साहमवेक्ष्य हरिपुंगवम् | मूल |
3237 | 5038020c | वर्धमानं महावेगमुवाच जनकात्मजा | मूल |
3238 | 5038020e | अश्रुपूर्णमुखी दीना बाष्पगद्गदया गिरा | मूल |
3239 | 5038021a | हनूमन्सिंहसंकाशौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ | मूल |
3240 | 5038021c | सुग्रीवं च सहामात्यं सर्वान्ब्रूया अनामयम् | मूल |
3241 | 5038022a | यथा च स महाबाहुर्मां तारयति राघवः | मूल |
3242 | 5038022c | अस्माद्दुःखाम्बुसंरोधात्तत्समाधातुमर्हसि | मूल |
3243 | 5038023a | इमं च तीव्रं मम शोकवेगं; रक्षोभिरेभिः परिभर्त्सनं च | मूल |
3244 | 5038023c | ब्रूयास्तु रामस्य गतः समीपं; शिवश्च तेऽध्वास्तु हरिप्रवीर | मूल |
3245 | 5038024a | स राजपुत्र्या प्रतिवेदितार्थः; कपिः कृतार्थः परिहृष्टचेताः | मूल |
3246 | 5038024c | तदल्पशेषं प्रसमीक्ष्य कार्यं; दिशं ह्युदीचीं मनसा जगाम | मूल |
3247 | 5039001a | स च वाग्भिः प्रशस्ताभिर्गमिष्यन्पूजितस्तया | मूल |
3248 | 5039001c | तस्माद्देशादपक्रम्य चिन्तयामास वानरः | मूल |
3249 | 5039002a | अल्पशेषमिदं कार्यं दृष्टेयमसितेक्षणा | मूल |
3250 | 5039002c | त्रीनुपायानतिक्रम्य चतुर्थ इह दृश्यते | मूल |
3251 | 5039003a | न साम रक्षःसु गुणाय कल्पते; न दनमर्थोपचितेषु वर्तते | मूल |
3252 | 5039003c | न भेदसाध्या बलदर्पिता जनाः; पराक्रमस्त्वेष ममेह रोचते | मूल |
3253 | 5039004a | न चास्य कार्यस्य पराक्रमादृते; विनिश्चयः कश्चिदिहोपपद्यते | मूल |
3254 | 5039004c | हृतप्रवीरास्तु रणे हि राक्षसाः; कथंचिदीयुर्यदिहाद्य मार्दवम् | मूल |
3255 | 5039005a | कार्ये कर्मणि निर्दिष्टो यो बहून्यपि साधयेत् | मूल |
3256 | 5039005c | पूर्वकार्यविरोधेन स कार्यं कर्तुमर्हति | मूल |
3257 | 5039006a | न ह्येकः साधको हेतुः स्वल्पस्यापीह कर्मणः | मूल |
3258 | 5039006c | यो ह्यर्थं बहुधा वेद स समर्थोऽर्थसाधने | मूल |
3259 | 5039007a | इहैव तावत्कृतनिश्चयो ह्यहं; यदि व्रजेयं प्लवगेश्वरालयम् | मूल |
3260 | 5039007c | परात्मसंमर्द विशेषतत्त्ववि;त्ततः कृतं स्यान्मम भर्तृशासनम् | मूल |
3261 | 5039008a | कथं नु खल्वद्य भवेत्सुखागतं; प्रसह्य युद्धं मम राक्षसैः सह | मूल |
3262 | 5039008c | तथैव खल्वात्मबलं च सारव;त्समानयेन्मां च रणे दशाननः | मूल |
3263 | 5039009a | इदमस्य नृशंसस्य नन्दनोपममुत्तमम् | मूल |
3264 | 5039009c | वनं नेत्रमनःकान्तं नानाद्रुमलतायुतम् | मूल |
3265 | 5039010a | इदं विध्वंसयिष्यामि शुष्कं वनमिवानलः | मूल |
3266 | 5039010c | अस्मिन्भग्ने ततः कोपं करिष्यति स रावणः | मूल |
3267 | 5039011a | ततो महत्साश्वमहारथद्विपं; बलं समानेष्वपि राक्षसाधिपः | मूल |
3268 | 5039011c | त्रिशूलकालायसपट्टिशायुधं; ततो महद्युद्धमिदं भविष्यति | मूल |
3269 | 5039012a | अहं तु तैः संयति चण्डविक्रमैः; समेत्य रक्षोभिरसंगविक्रमः | मूल |
3270 | 5039012c | निहत्य तद्रावणचोदितं बलं; सुखं गमिष्यामि कपीश्वरालयम् | मूल |
3271 | 5039013a | ततो मारुतवत्क्रुद्धो मारुतिर्भीमविक्रमः | मूल |
3272 | 5039013c | ऊरुवेगेन महता द्रुमान्क्षेप्तुमथारभत् | मूल |
3273 | 5039014a | ततस्तद्धनुमान्वीरो बभञ्ज प्रमदावनम् | मूल |
3274 | 5039014c | मत्तद्विजसमाघुष्टं नानाद्रुमलतायुतम् | मूल |
3275 | 5039015a | तद्वनं मथितैर्वृक्षैर्भिन्नैश्च सलिलाशयैः | मूल |
3276 | 5039015c | चूर्णितैः पर्वताग्रैश्च बभूवाप्रियदर्शनम् | मूल |
3277 | 5039016a | लतागृहैश्चित्रगृहैश्च नाशितै;र्महोरगैर्व्यालमृगैश्च निर्धुतैः | मूल |
3278 | 5039016c | शिलागृहैरुन्मथितैस्तथा गृहैः; प्रनष्टरूपं तदभून्महद्वनम् | मूल |
3279 | 5039017a | स तस्य कृत्वार्थपतेर्महाकपि;र्महद्व्यलीकं मनसो महात्मनः | मूल |
3280 | 5039017c | युयुत्सुरेको बहुभिर्महाबलैः; श्रिया ज्वलंस्तोरणमाश्रितः कपिः | मूल |
3281 | 5040001a | ततः पक्षिनिनादेन वृक्षभङ्गस्वनेन च | मूल |
3282 | 5040001c | बभूवुस्त्राससंभ्रान्ताः सर्वे लङ्कानिवासिनः | मूल |
3283 | 5040002a | विद्रुताश्च भयत्रस्ता विनेदुर्मृगपक्षुणः | मूल |
3284 | 5040002c | रक्षसां च निमित्तानि क्रूराणि प्रतिपेदिरे | मूल |
3285 | 5040003a | ततो गतायां निद्रायां राक्षस्यो विकृताननाः | मूल |
3286 | 5040003c | तद्वनं ददृशुर्भग्नं तं च वीरं महाकपिम् | मूल |
3287 | 5040004a | स ता दृष्ट्व महाबाहुर्महासत्त्वो महाबलः | मूल |
3288 | 5040004c | चकार सुमहद्रूपं राक्षसीनां भयावहम् | मूल |
3289 | 5040005a | ततस्तं गिरिसंकाशमतिकायं महाबलम् | मूल |
3290 | 5040005c | राक्षस्यो वानरं दृष्ट्वा पप्रच्छुर्जनकात्मजाम् | मूल |
3291 | 5040006a | कोऽयं कस्य कुतो वायं किंनिमित्तमिहागतः | मूल |
3292 | 5040006c | कथं त्वया सहानेन संवादः कृत इत्युत | मूल |
3293 | 5040007a | आचक्ष्व नो विशालाक्षि मा भूत्ते सुभगे भयम् | मूल |
3294 | 5040007c | संवादमसितापाङ्गे त्वया किं कृतवानयम् | मूल |
3295 | 5040008a | अथाब्रवीत्तदा साध्वी सीता सर्वाङ्गशोभना | मूल |
3296 | 5040008c | रक्षसां कामरूपाणां विज्ञाने मम का गतिः | मूल |
3297 | 5040009a | यूयमेवास्य जानीत योऽयं यद्वा करिष्यति | मूल |
3298 | 5040009c | अहिरेव अहेः पादान्विजानाति न संशयः | मूल |
3299 | 5040010a | अहमप्यस्य भीतास्मि नैनं जानामि कोऽन्वयम् | मूल |
3300 | 5040010c | वेद्मि राक्षसमेवैनं कामरूपिणमागतम् | मूल |
3301 | 5040011a | वैदेह्या वचनं श्रुत्वा राक्षस्यो विद्रुता द्रुतम् | मूल |
3302 | 5040011c | स्थिताः काश्चिद्गताः काश्चिद्रावणाय निवेदितुम् | मूल |
3303 | 5040012a | रावणस्य समीपे तु राक्षस्यो विकृताननाः | मूल |
3304 | 5040012c | विरूपं वानरं भीममाख्यातुमुपचक्रमुः | मूल |
3305 | 5040013a | अशोकवनिका मध्ये राजन्भीमवपुः कपिः | मूल |
3306 | 5040013c | सीतया कृतसंवादस्तिष्ठत्यमितविक्रमः | मूल |
3307 | 5040014a | न च तं जानकी सीता हरिं हरिणलोचणा | मूल |
3308 | 5040014c | अस्माभिर्बहुधा पृष्टा निवेदयितुमिच्छति | मूल |
3309 | 5040015a | वासवस्य भवेद्दूतो दूतो वैश्रवणस्य वा | मूल |
3310 | 5040015c | प्रेषितो वापि रामेण सीतान्वेषणकाङ्क्षया | मूल |
3311 | 5040016a | तेन त्वद्भूतरूपेण यत्तत्तव मनोहरम् | मूल |
3312 | 5040016c | नानामृगगणाकीर्णं प्रमृष्टं प्रमदावनम् | मूल |
3313 | 5040017a | न तत्र कश्चिदुद्देशो यस्तेन न विनाशितः | मूल |
3314 | 5040017c | यत्र सा जानकी सीता स तेन न विनाशितः | मूल |
3315 | 5040018a | जानकीरक्षणार्थं वा श्रमाद्वा नोपलभ्यते | मूल |
3316 | 5040018c | अथ वा कः श्रमस्तस्य सैव तेनाभिरक्षिता | मूल |
3317 | 5040019a | चारुपल्लवपत्राढ्यं यं सीता स्वयमास्थिता | मूल |
3318 | 5040019c | प्रवृद्धः शिंशपावृक्षः स च तेनाभिरक्षितः | मूल |
3319 | 5040020a | तस्योग्ररूपस्योग्रं त्वं दण्डमाज्ञातुमर्हसि | मूल |
3320 | 5040020c | सीता संभाषिता येन तद्वनं च विनाशितम् | मूल |
3321 | 5040021a | मनःपरिगृहीतां तां तव रक्षोगणेश्वर | मूल |
3322 | 5040021c | कः सीतामभिभाषेत यो न स्यात्त्यक्तजीवितः | मूल |
3323 | 5040022a | राक्षसीनां वचः श्रुत्वा रावणो राक्षसेश्वरः | मूल |
3324 | 5040022c | हुतागिरिव जज्वाल कोपसंवर्तितेक्षणः | मूल |
3325 | 5040023a | आत्मनः सदृशाञ्शूरान्किंकरान्नाम राक्षसान् | मूल |
3326 | 5040023c | व्यादिदेश महातेजा निग्रहार्थं हनूमतः | मूल |
3327 | 5040024a | तेषामशीतिसाहस्रं किंकराणां तरस्विनाम् | मूल |
3328 | 5040024c | निर्ययुर्भवनात्तस्मात्कूटमुद्गरपाणयः | मूल |
3329 | 5040025a | महोदरा महादंष्ट्रा घोररूपा महाबलाः | मूल |
3330 | 5040025c | युद्धाभिमनसः सर्वे हनूमद्ग्रहणोन्मुखाः | मूल |
3331 | 5040026a | ते कपिं तं समासाद्य तोरणस्थमवस्थितम् | मूल |
3332 | 5040026c | अभिपेतुर्महावेगाः पतङ्गा इव पावकम् | मूल |
3333 | 5040027a | ते गदाभिर्विचित्राभिः परिघैः काञ्चनाङ्गदैः | मूल |
3334 | 5040027c | आजघ्नुर्वानरश्रेष्ठं शरैरादित्यसंनिभैः | मूल |
3335 | 5040028a | हनूमानपि तेजस्वी श्रीमान्पर्वतसंनिभः | मूल |
3336 | 5040028c | क्षितावाविध्य लाङ्गूलं ननाद च महास्वनम् | मूल |
3337 | 5040029a | तस्य संनादशब्देन तेऽभवन्भयशङ्किताः | मूल |
3338 | 5040029c | ददृशुश्च हनूमन्तं संध्यामेघमिवोन्नतम् | मूल |
3339 | 5040030a | स्वामिसंदेशनिःशङ्कास्ततस्ते राक्षसाः कपिम् | मूल |
3340 | 5040030c | चित्रैः प्रहरणैर्भीमैरभिपेतुस्ततस्ततः | मूल |
3341 | 5040031a | स तैः परिवृतः शूरैः सर्वतः स महाबलः | मूल |
3342 | 5040031c | आससादायसं भीमं परिघं तोरणाश्रितम् | मूल |
3343 | 5040032a | स तं परिघमादाय जघान रजनीचरान् | मूल |
3344 | 5040033a | स पन्नगमिवादाय स्फुरन्तं विनतासुतः | मूल |
3345 | 5040033c | विचचाराम्बरे वीरः परिगृह्य च मारुतिः | मूल |
3346 | 5040034a | स हत्वा राक्षसान्वीरः किंकरान्मारुतात्मजः | मूल |
3347 | 5040034c | युद्धाकाङ्क्षी पुनर्वीरस्तोरणं समुपस्थितः | मूल |
3348 | 5040035a | ततस्तस्माद्भयान्मुक्ताः कतिचित्तत्र राक्षसाः | मूल |
3349 | 5040035c | निहतान्किंकरान्सर्वान्रावणाय न्यवेदयन् | मूल |
3350 | 5040036a | स राक्षसानां निहतं महाबलं; निशम्य राजा परिवृत्तलोचनः | मूल |
3351 | 5040036c | समादिदेशाप्रतिमं पराक्रमे; प्रहस्तपुत्रं समरे सुदुर्जयम् | मूल |
3352 | 5041001a | ततः स किंकरान्हत्वा हनूमान्ध्यानमास्थितः | मूल |
3353 | 5041001c | वनं भग्नं मया चैत्यप्रासादो न विनाशितः | मूल |
3354 | 5041001e | तस्मात्प्रासादमप्येवमिमं विध्वंसयाम्यहम् | मूल |
3355 | 5041002a | इति संचिन्त्य हनुमान्मनसा दर्शयन्बलम् | मूल |
3356 | 5041002c | चैत्यप्रासादमाप्लुत्य मेरुशृङ्गमिवोन्नतम् | मूल |
3357 | 5041002e | आरुरोह हरिश्रेष्ठो हनूमान्मारुतात्मजः | मूल |
3358 | 5041003a | संप्रधृष्य च दुर्धर्षश्चैत्यप्रासादमुन्नतम् | मूल |
3359 | 5041003c | हनूमान्प्रज्वलँल्लक्ष्म्या पारियात्रोपमोऽभवत् | मूल |
3360 | 5041004a | स भूत्वा तु महाकायो हनूमान्मारुतात्मजः | मूल |
3361 | 5041004c | धृष्टमास्फोटयामास लङ्कां शब्देन पूरयन् | मूल |
3362 | 5041005a | तस्यास्फोटितशब्देन महता श्रोत्रघातिना | मूल |
3363 | 5041005c | पेतुर्विहंगा गगनादुच्चैश्चेदमघोषयत् | मूल |
3364 | 5041006a | जयत्यतिबलो रामो लक्ष्मणश्च महाबलः | मूल |
3365 | 5041006c | राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपालितः | मूल |
3366 | 5041007a | दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्टकर्मणः | मूल |
3367 | 5041007c | हनुमाञ्शत्रुसैन्यानां निहन्ता मारुतात्मजः | मूल |
3368 | 5041008a | न रावणसहस्रं मे युद्धे प्रतिबलं भवेत् | मूल |
3369 | 5041008c | शिलाभिस्तु प्रहरतः पादपैश्च सहस्रशः | मूल |
3370 | 5041009a | अर्दयित्वा पुरीं लङ्कामभिवाद्य च मैथिलीम् | मूल |
3371 | 5041009c | समृद्धार्थो गमिष्यामि मिषतां सर्वरक्षसाम् | मूल |
3372 | 5041010a | एवमुक्त्वा विमानस्थश्चैत्यस्थान्हरिपुंगवः | मूल |
3373 | 5041010c | ननाद भीमनिर्ह्रादो रक्षसां जनयन्भयम् | मूल |
3374 | 5041011a | तेन शब्देन महता चैत्यपालाः शतं ययुः | मूल |
3375 | 5041011c | गृहीत्वा विविधानस्त्रान्प्रासान्खड्गान्परश्वधान् | मूल |
3376 | 5041011e | विसृजन्तो महाक्षया मारुतिं पर्यवारयन् | मूल |
3377 | 5041012a | आवर्त इव गङ्गायास्तोयस्य विपुलो महान् | मूल |
3378 | 5041012c | परिक्षिप्य हरिश्रेष्ठं स बभौ रक्षसां गणः | मूल |
3379 | 5041013a | ततो वातात्मजः क्रुद्धो भीमरूपं समास्थितः | मूल |
3380 | 5041014a | प्रासादस्य महांस्तस्य स्तम्भं हेमपरिष्कृतम् | मूल |
3381 | 5041014c | उत्पाटयित्वा वेगेन हनूमान्मारुतात्मजः | मूल |
3382 | 5041014e | ततस्तं भ्रामयामास शतधारं महाबलः | मूल |
3383 | 5041015a | स राक्षसशतं हत्वा वज्रेणेन्द्र इवासुरान् | मूल |
3384 | 5041015c | अन्तरिक्षस्थितः श्रीमानिदं वचनमब्रवीत् | मूल |
3385 | 5041016a | मादृशानां सहस्राणि विसृष्टानि महात्मनाम् | मूल |
3386 | 5041016c | बलिनां वानरेन्द्राणां सुग्रीववशवर्तिनाम् | मूल |
3387 | 5041017a | शतैः शतसहस्रैश्च कोटीभिरयुतैरपि | मूल |
3388 | 5041017c | आगमिष्यति सुग्रीवः सर्वेषां वो निषूदनः | मूल |
3389 | 5041018a | नेयमस्ति पुरी लङ्का न यूयं न च रावणः | मूल |
3390 | 5041018c | यस्मादिक्ष्वाकुनाथेन बद्धं वैरं महात्मना | मूल |
3391 | 5042001a | संदिष्टो राक्षसेन्द्रेण प्रहस्तस्य सुतो बली | मूल |
3392 | 5042001c | जम्बुमाली महादंष्ट्रो निर्जगाम धनुर्धरः | मूल |
3393 | 5042002a | रक्तमाल्याम्बरधरः स्रग्वी रुचिरकुण्डलः | मूल |
3394 | 5042002c | महान्विवृत्तनयनश्चण्डः समरदुर्जयः | मूल |
3395 | 5042003a | धनुः शक्रधनुः प्रख्यं महद्रुचिरसायकम् | मूल |
3396 | 5042003c | विस्फारयाणो वेगेन वज्राशनिसमस्वनम् | मूल |
3397 | 5042004a | तस्य विस्फारघोषेण धनुषो महता दिशः | मूल |
3398 | 5042004c | प्रदिशश्च नभश्चैव सहसा समपूर्यत | मूल |
3399 | 5042005a | रथेन खरयुक्तेन तमागतमुदीक्ष्य सः | मूल |
3400 | 5042005c | हनूमान्वेगसंपन्नो जहर्ष च ननाद च | मूल |
3401 | 5042006a | तं तोरणविटङ्कस्थं हनूमन्तं महाकपिम् | मूल |
3402 | 5042006c | जम्बुमाली महाबाहुर्विव्याध निशितैः शरैः | मूल |
3403 | 5042007a | अर्धचन्द्रेण वदने शिरस्येकेन कर्णिना | मूल |
3404 | 5042007c | बाह्वोर्विव्याध नाराचैर्दशभिस्तं कपीश्वरम् | मूल |
3405 | 5042008a | तस्य तच्छुशुभे ताम्रं शरेणाभिहतं मुखम् | मूल |
3406 | 5042008c | शरदीवाम्बुजं फुल्लं विद्धं भास्कररश्मिना | मूल |
3407 | 5042009a | चुकोप बाणाभिहतो राक्षसस्य महाकपिः | मूल |
3408 | 5042009c | ततः पार्श्वेऽतिविपुलां ददर्श महतीं शिलाम् | मूल |
3409 | 5042010a | तरसा तां समुत्पाट्य चिक्षेप बलवद्बली | मूल |
3410 | 5042010c | तां शरैर्दशभिः क्रुद्धस्ताडयामास राक्षसः | मूल |
3411 | 5042011a | विपन्नं कर्म तद्दृष्ट्वा हनूमांश्चण्डविक्रमः | मूल |
3412 | 5042011c | सालं विपुलमुत्पाट्य भ्रामयामास वीर्यवान् | मूल |
3413 | 5042012a | भ्रामयन्तं कपिं दृष्ट्वा सालवृक्षं महाबलम् | मूल |
3414 | 5042012c | चिक्षेप सुबहून्बाणाञ्जम्बुमाली महाबलः | मूल |
3415 | 5042013a | सालं चतुर्भिर्चिच्छेद वानरं पञ्चभिर्भुजे | मूल |
3416 | 5042013c | उरस्येकेन बाणेन दशभिस्तु स्तनान्तरे | मूल |
3417 | 5042014a | स शरैः पूरिततनुः क्रोधेन महता वृतः | मूल |
3418 | 5042014c | तमेव परिघं गृह्य भ्रामयामास वेगितः | मूल |
3419 | 5042015a | अतिवेगोऽतिवेगेन भ्रामयित्वा बलोत्कटः | मूल |
3420 | 5042015c | परिघं पातयामास जम्बुमालेर्महोरसि | मूल |
3421 | 5042016a | तस्य चैव शिरो नास्ति न बाहू न च जानुनी | मूल |
3422 | 5042016c | न धनुर्न रथो नाश्वास्तत्रादृश्यन्त नेषवः | मूल |
3423 | 5042017a | स हतस्तरसा तेन जम्बुमाली महारथः | मूल |
3424 | 5042017c | पपात निहतो भूमौ चूर्णिताङ्गविभूषणः | मूल |
3425 | 5042018a | जम्बुमालिं च निहतं किंकरांश्च महाबलान् | मूल |
3426 | 5042018c | चुक्रोध रावणः श्रुत्वा कोपसंरक्तलोचनः | मूल |
3427 | 5042019a | स रोषसंवर्तितताम्रलोचनः; प्रहस्तपुत्रे निहते महाबले | मूल |
3428 | 5042019c | अमात्यपुत्रानतिवीर्यविक्रमा;न्समादिदेशाशु निशाचरेश्वरः | मूल |
3429 | 5043001a | ततस्ते राक्षसेन्द्रेण चोदिता मन्त्रिणः सुताः | मूल |
3430 | 5043001c | निर्ययुर्भवनात्तस्मात्सप्त सप्तार्चिवर्चसः | मूल |
3431 | 5043002a | महाबलपरीवारा धनुष्मन्तो महाबलाः | मूल |
3432 | 5043002c | कृतास्त्रास्त्रविदां श्रेष्ठाः परस्परजयैषिणः | मूल |
3433 | 5043003a | हेमजालपरिक्षिप्तैर्ध्वजवद्भिः पताकिभिः | मूल |
3434 | 5043003c | तोयदस्वननिर्घोषैर्वाजियुक्तैर्महारथैः | मूल |
3435 | 5043004a | तप्तकाञ्चनचित्राणि चापान्यमितविक्रमाः | मूल |
3436 | 5043004c | विस्फारयन्तः संहृष्टास्तडिद्वन्त इवाम्बुदाः | मूल |
3437 | 5043005a | जनन्यस्तास्ततस्तेषां विदित्वा किंकरान्हतान् | मूल |
3438 | 5043005c | बभूवुः शोकसंभ्रान्ताः सबान्धवसुहृज्जनाः | मूल |
3439 | 5043006a | ते परस्परसंघर्षास्तप्तकाञ्चनभूषणाः | मूल |
3440 | 5043006c | अभिपेतुर्हनूमन्तं तोरणस्थमवस्थितम् | मूल |
3441 | 5043007a | सृजन्तो बाणवृष्टिं ते रथगर्जितनिःस्वनाः | मूल |
3442 | 5043007c | वृष्टिमन्त इवाम्भोदा विचेरुर्नैरृतर्षभाः | मूल |
3443 | 5043008a | अवकीर्णस्ततस्ताभिर्हनूमाञ्शरवृष्टिभिः | मूल |
3444 | 5043008c | अभवत्संवृताकारः शैलराडिव वृष्टिभिः | मूल |
3445 | 5043009a | स शरान्वञ्चयामास तेषामाशुचरः कपिः | मूल |
3446 | 5043009c | रथवेगांश्च वीराणां विचरन्विमलेऽम्बरे | मूल |
3447 | 5043010a | स तैः क्रीडन्धनुष्मद्भिर्व्योम्नि वीरः प्रकाशते | मूल |
3448 | 5043010c | धनुष्मद्भिर्यथा मेघैर्मारुतः प्रभुरम्बरे | मूल |
3449 | 5043011a | स कृत्वा निनदं घोरं त्रासयंस्तां महाचमूम् | मूल |
3450 | 5043011c | चकार हनुमान्वेगं तेषु रक्षःसु वीर्यवान् | मूल |
3451 | 5043012a | तलेनाभिहनत्कांश्चित्पादैः कांश्चित्परंतपः | मूल |
3452 | 5043012c | मुष्टिनाभ्यहनत्कांश्चिन्नखैः कांश्चिद्व्यदारयत् | मूल |
3453 | 5043013a | प्रममाथोरसा कांश्चिदूरुभ्यामपरान्कपिः | मूल |
3454 | 5043013c | केचित्तस्यैव नादेन तत्रैव पतिता भुवि | मूल |
3455 | 5043014a | ततस्तेष्ववपन्नेषु भूमौ निपतितेषु च | मूल |
3456 | 5043014c | तत्सैन्यमगमत्सर्वं दिशो दशभयार्दितम् | मूल |
3457 | 5043015a | विनेदुर्विस्वरं नागा निपेतुर्भुवि वाजिनः | मूल |
3458 | 5043015c | भग्ननीडध्वजच्छत्रैर्भूश्च कीर्णाभवद्रथैः | मूल |
3459 | 5043016a | स तान्प्रवृद्धान्विनिहत्य राक्षसा;न्महाबलश्चण्डपराक्रमः कपिः | मूल |
3460 | 5043016c | युयुत्सुरन्यैः पुनरेव राक्षसै;स्तदेव वीरोऽभिजगाम तोरणम् | मूल |
3461 | 5044001a | हतान्मन्त्रिसुतान्बुद्ध्वा वानरेण महात्मना | मूल |
3462 | 5044001c | रावणः संवृताकारश्चकार मतिमुत्तमाम् | मूल |
3463 | 5044002a | स विरूपाक्षयूपाक्षौ दुर्धरं चैव राक्षसं | मूल |
3464 | 5044002c | प्रघसं भासकर्णं च पञ्चसेनाग्रनायकान् | मूल |
3465 | 5044003a | संदिदेश दशग्रीवो वीरान्नयविशारदान् | मूल |
3466 | 5044003c | हनूमद्ग्रहणे व्यग्रान्वायुवेगसमान्युधि | मूल |
3467 | 5044004a | यात सेनाग्रगाः सर्वे महाबलपरिग्रहाः | मूल |
3468 | 5044004c | सवाजिरथमातङ्गाः स कपिः शास्यतामिति | मूल |
3469 | 5044005a | यत्तैश्च खलु भाव्यं स्यात्तमासाद्य वनालयम् | मूल |
3470 | 5044005c | कर्म चापि समाधेयं देशकालविरोधितम् | मूल |
3471 | 5044006a | न ह्यहं तं कपिं मन्ये कर्मणा प्रतितर्कयन् | मूल |
3472 | 5044006c | सर्वथा तन्महद्भूतं महाबलपरिग्रहम् | मूल |
3473 | 5044006e | भवेदिन्द्रेण वा सृष्टमस्मदर्थं तपोबलात् | मूल |
3474 | 5044007a | सनागयक्षगन्धर्वा देवासुरमहर्षयः | मूल |
3475 | 5044007c | युष्माभिः सहितैः सर्वैर्मया सह विनिर्जिताः | मूल |
3476 | 5044008a | तैरवश्यं विधातव्यं व्यलीकं किंचिदेव नः | मूल |
3477 | 5044008c | तदेव नात्र संदेहः प्रसह्य परिगृह्यताम् | मूल |
3478 | 5044009a | नावमन्यो भवद्भिश्च हरिः क्रूरपराक्रमः | मूल |
3479 | 5044009c | दृष्टा हि हरयः शीघ्रा मया विपुलविक्रमाः | मूल |
3480 | 5044010a | वाली च सह सुग्रीवो जाम्बवांश्च महाबलः | मूल |
3481 | 5044010c | नीलः सेनापतिश्चैव ये चान्ये द्विविदादयः | मूल |
3482 | 5044011a | नैव तेषां गतिर्भीमा न तेजो न पराक्रमः | मूल |
3483 | 5044011c | न मतिर्न बलोत्साहो न रूपपरिकल्पनम् | मूल |
3484 | 5044012a | महत्सत्त्वमिदं ज्ञेयं कपिरूपं व्यवस्थितम् | मूल |
3485 | 5044012c | प्रयत्नं महदास्थाय क्रियतामस्य निग्रहः | मूल |
3486 | 5044013a | कामं लोकास्त्रयः सेन्द्राः ससुरासुरमानवाः | मूल |
3487 | 5044013c | भवतामग्रतः स्थातुं न पर्याप्ता रणाजिरे | मूल |
3488 | 5044014a | तथापि तु नयज्ञेन जयमाकाङ्क्षता रणे | मूल |
3489 | 5044014c | आत्मा रक्ष्यः प्रयत्नेन युद्धसिद्धिर्हि चञ्चला | मूल |
3490 | 5044015a | ते स्वामिवचनं सर्वे प्रतिगृह्य महौजसः | मूल |
3491 | 5044015c | समुत्पेतुर्महावेगा हुताशसमतेजसः | मूल |
3492 | 5044016a | रथैश्च मत्तैर्नागैश्च वाजिभिश्च महाजवैः | मूल |
3493 | 5044016c | शस्त्रैश्च विविधैस्तीक्ष्णैः सर्वैश्चोपचिता बलैः | मूल |
3494 | 5044017a | ततस्तं ददृशुर्वीरा दीप्यमानं महाकपिम् | मूल |
3495 | 5044017c | रश्मिमन्तमिवोद्यन्तं स्वतेजोरश्मिमालिनम् | मूल |
3496 | 5044018a | तोरणस्थं महावेगं महासत्त्वं महाबलम् | मूल |
3497 | 5044018c | महामतिं महोत्साहं महाकायं महाबलम् | मूल |
3498 | 5044019a | तं समीक्ष्यैव ते सर्वे दिक्षु सर्वास्ववस्थिताः | मूल |
3499 | 5044019c | तैस्तैः प्रहरणैर्भीमैरभिपेतुस्ततस्ततः | मूल |
3500 | 5044020a | तस्य पञ्चायसास्तीक्ष्णाः सिताः पीतमुखाः शराः | मूल |
3501 | 5044020c | शिरस्त्युत्पलपत्राभा दुर्धरेण निपातिताः | मूल |
3502 | 5044021a | स तैः पञ्चभिराविद्धः शरैः शिरसि वानरः | मूल |
3503 | 5044021c | उत्पपात नदन्व्योम्नि दिशो दश विनादयन् | मूल |
3504 | 5044022a | ततस्तु दुर्धरो वीरः सरथः सज्जकार्मुकः | मूल |
3505 | 5044022c | किरञ्शरशतैर्नैकैरभिपेदे महाबलः | मूल |
3506 | 5044023a | स कपिर्वारयामास तं व्योम्नि शरवर्षिणम् | मूल |
3507 | 5044023c | वृष्टिमन्तं पयोदान्ते पयोदमिव मारुतः | मूल |
3508 | 5044024a | अर्द्यमानस्ततस्तेन दुर्धरेणानिलात्मजः | मूल |
3509 | 5044024c | चकार निनदं भूयो व्यवर्धत च वेगवान् | मूल |
3510 | 5044025a | स दूरं सहसोत्पत्य दुर्धरस्य रथे हरिः | मूल |
3511 | 5044025c | निपपात महावेगो विद्युद्राशिर्गिराविव | मूल |
3512 | 5044026a | ततस्तं मथिताष्टाश्वं रथं भग्नाक्षकूवरम् | मूल |
3513 | 5044026c | विहाय न्यपतद्भूमौ दुर्धरस्त्यक्तजीवितः | मूल |
3514 | 5044027a | तं विरूपाक्षयूपाक्षौ दृष्ट्वा निपतितं भुवि | मूल |
3515 | 5044027c | संजातरोषौ दुर्धर्षावुत्पेततुररिंदमौ | मूल |
3516 | 5044028a | स ताभ्यां सहसोत्पत्य विष्ठितो विमलेऽम्बरे | मूल |
3517 | 5044028c | मुद्गराभ्यां महाबाहुर्वक्षस्यभिहतः कपिः | मूल |
3518 | 5044029a | तयोर्वेगवतोर्वेगं विनिहत्य महाबलः | मूल |
3519 | 5044029c | निपपात पुनर्भूमौ सुपर्णसमविक्रमः | मूल |
3520 | 5044030a | स सालवृक्षमासाद्य समुत्पाट्य च वानरः | मूल |
3521 | 5044030c | तावुभौ राक्षसौ वीरौ जघान पवनात्मजः | मूल |
3522 | 5044031a | ततस्तांस्त्रीन्हताञ्ज्ञात्वा वानरेण तरस्विना | मूल |
3523 | 5044031c | अभिपेदे महावेगः प्रसह्य प्रघसो हरिम् | मूल |
3524 | 5044032a | भासकर्णश्च संक्रुद्धः शूलमादाय वीर्यवान् | मूल |
3525 | 5044032c | एकतः कपिशार्दूलं यशस्विनमवस्थितौ | मूल |
3526 | 5044033a | पट्टिशेन शिताग्रेण प्रघसः प्रत्यपोथयत् | मूल |
3527 | 5044033c | भासकर्णश्च शूलेन राक्षसः कपिसत्तमम् | मूल |
3528 | 5044034a | स ताभ्यां विक्षतैर्गात्रैरसृग्दिग्धतनूरुहः | मूल |
3529 | 5044034c | अभवद्वानरः क्रुद्धो बालसूर्यसमप्रभः | मूल |
3530 | 5044035a | समुत्पाट्य गिरेः शृङ्गं समृगव्यालपादपम् | मूल |
3531 | 5044035c | जघान हनुमान्वीरो राक्षसौ कपिकुञ्जरः | मूल |
3532 | 5044036a | ततस्तेष्ववसन्नेषु सेनापतिषु पञ्चसु | मूल |
3533 | 5044036c | बलं तदवशेषं तु नाशयामास वानरः | मूल |
3534 | 5044037a | अश्वैरश्वान्गजैर्नागान्योधैर्योधान्रथै रथान् | मूल |
3535 | 5044037c | स कपिर्नाशयामास सहस्राक्ष इवासुरान् | मूल |
3536 | 5044038a | हतैर्नागैश्च तुरगैर्भग्नाक्षैश्च महारथैः | मूल |
3537 | 5044038c | हतैश्च राक्षसैर्भूमी रुद्धमार्गा समन्ततः | मूल |
3538 | 5044039a | ततः कपिस्तान्ध्वजिनीपतीन्रणे; निहत्य वीरान्सबलान्सवाहनान् | मूल |
3539 | 5044039c | तदेव वीरः परिगृह्य तोरणं; कृतक्षणः काल इव प्रजाक्षये | मूल |
3540 | 5045001a | सेनापतीन्पञ्च स तु प्रमापिता;न्हनूमता सानुचरान्सवाहनान् | मूल |
3541 | 5045001c | समीक्ष्य राजा समरोद्धतोन्मुखं; कुमारमक्षं प्रसमैक्षताक्षतम् | मूल |
3542 | 5045002a | स तस्य दृष्ट्यर्पणसंप्रचोदितः; प्रतापवान्काञ्चनचित्रकार्मुकः | मूल |
3543 | 5045002c | समुत्पपाताथ सदस्युदीरितो; द्विजातिमुख्यैर्हविषेव पावकः | मूल |
3544 | 5045003a | ततो महद्बालदिवाकरप्रभं; प्रतप्तजाम्बूनदजालसंततम् | मूल |
3545 | 5045003c | रथां समास्थाय ययौ स वीर्यवा;न्महाहरिं तं प्रति नैरृतर्षभः | मूल |
3546 | 5045004a | ततस्तपःसंग्रहसंचयार्जितं; प्रतप्तजाम्बूनदजालशोभितम् | मूल |
3547 | 5045004c | पताकिनं रत्नविभूषितध्वजं; मनोजवाष्टाश्ववरैः सुयोजितम् | मूल |
3548 | 5045005a | सुरासुराधृष्यमसंगचारिणं; रविप्रभं व्योमचरं समाहितम् | मूल |
3549 | 5045005c | सतूणमष्टासिनिबद्धबन्धुरं; यथाक्रमावेशितशक्तितोमरम् | मूल |
3550 | 5045006a | विराजमानं प्रतिपूर्णवस्तुना; सहेमदाम्ना शशिसूर्यवर्वसा | मूल |
3551 | 5045006c | दिवाकराभं रथमास्थितस्ततः; स निर्जगामामरतुल्यविक्रमः | मूल |
3552 | 5045007a | स पूरयन्खं च महीं च साचलां; तुरंगमतङ्गमहारथस्वनैः | मूल |
3553 | 5045007c | बलैः समेतैः स हि तोरणस्थितं; समर्थमासीनमुपागमत्कपिम् | मूल |
3554 | 5045008a | स तं समासाद्य हरिं हरीक्षणो; युगान्तकालाग्निमिव प्रजाक्षये | मूल |
3555 | 5045008c | अवस्थितं विस्मितजातसंभ्रमः; समैक्षताक्षो बहुमानचक्षुषा | मूल |
3556 | 5045009a | स तस्य वेगं च कपेर्महात्मनः; पराक्रमं चारिषु पार्थिवात्मजः | मूल |
3557 | 5045009c | विचारयन्खं च बलं महाबलो; हिमक्षये सूर्य इवाभिवर्धते | मूल |
3558 | 5045010a | स जातमन्युः प्रसमीक्ष्य विक्रमं; स्थिरः स्थितः संयति दुर्निवारणम् | मूल |
3559 | 5045010c | समाहितात्मा हनुमन्तमाहवे; प्रचोदयामास शरैस्त्रिभिः शितैः | मूल |
3560 | 5045011a | ततः कपिं तं प्रसमीक्ष्य गर्वितं; जितश्रमं शत्रुपराजयोर्जितम् | मूल |
3561 | 5045011c | अवैक्षताक्षः समुदीर्णमानसः; सबाणपाणिः प्रगृहीतकार्मुकः | मूल |
3562 | 5045012a | स हेमनिष्काङ्गदचारुकुण्डलः; समाससादाशु पराक्रमः कपिम् | मूल |
3563 | 5045012c | तयोर्बभूवाप्रतिमः समागमः; सुरासुराणामपि संभ्रमप्रदः | मूल |
3564 | 5045013a | ररास भूमिर्न तताप भानुमा;न्ववौ न वायुः प्रचचाल चाचलः | मूल |
3565 | 5045013c | कपेः कुमारस्य च वीक्ष्य संयुगं; ननाद च द्यौरुदधिश्च चुक्षुभे | मूल |
3566 | 5045014a | ततः स वीरः सुमुखान्पतत्रिणः; सुवर्णपुङ्खान्सविषानिवोरगान् | मूल |
3567 | 5045014c | समाधिसंयोगविमोक्षतत्त्ववि;च्छरानथ त्रीन्कपिमूर्ध्न्यपातयत् | मूल |
3568 | 5045015a | स तैः शरैर्मूर्ध्नि समं निपातितैः; क्षरन्नसृग्दिग्धविवृत्तलोचनः | मूल |
3569 | 5045015c | नवोदितादित्यनिभः शरांशुमा;न्व्यराजतादित्य इवांशुमालिकः | मूल |
3570 | 5045016a | ततः स पिङ्गाधिपमन्त्रिसत्तमः; समीक्ष्य तं राजवरात्मजं रणे | मूल |
3571 | 5045016c | उदग्रचित्रायुधचित्रकार्मुकं; जहर्ष चापूर्यत चाहवोन्मुखः | मूल |
3572 | 5045017a | स मन्दराग्रस्थ इवांशुमाली; विवृद्धकोपो बलवीर्यसंयुतः | मूल |
3573 | 5045017c | कुमारमक्षं सबलं सवाहनं; ददाह नेत्राग्निमरीचिभिस्तदा | मूल |
3574 | 5045018a | ततः स बाणासनशक्रकार्मुकः; शरप्रवर्षो युधि राक्षसाम्बुदः | मूल |
3575 | 5045018c | शरान्मुमोचाशु हरीश्वराचले; बलाहको वृष्टिमिवाचलोत्तमे | मूल |
3576 | 5045019a | ततः कपिस्तं रणचण्डविक्रमं; विवृद्धतेजोबलवीर्यसायकम् | मूल |
3577 | 5045019c | कुमारमक्षं प्रसमीक्ष्य संयुगे; ननाद हर्षाद्घनतुल्यविक्रमः | मूल |
3578 | 5045020a | स बालभावाद्युधि वीर्यदर्पितः; प्रवृद्धमन्युः क्षतजोपमेक्षणः | मूल |
3579 | 5045020c | समाससादाप्रतिमं रणे कपिं; गजो महाकूपमिवावृतं तृणैः | मूल |
3580 | 5045021a | स तेन बाणैः प्रसभं निपातितै;श्चकार नादं घननादनिःस्वनः | मूल |
3581 | 5045021c | समुत्पपाताशु नभः स मारुति;र्भुजोरुविक्षेपण घोरदर्शनः | मूल |
3582 | 5045022a | समुत्पतन्तं समभिद्रवद्बली; स राक्षसानां प्रवरः प्रतापवान् | मूल |
3583 | 5045022c | रथी रथश्रेष्ठतमः किरञ्शरैः; पयोधरः शैलमिवाश्मवृष्टिभिः | मूल |
3584 | 5045023a | स ताञ्शरांस्तस्य विमोक्षयन्कपि;श्चचार वीरः पथि वायुसेविते | मूल |
3585 | 5045023c | शरान्तरे मारुतवद्विनिष्पत;न्मनोजवः संयति चण्डविक्रमः | मूल |
3586 | 5045024a | तमात्तबाणासनमाहवोन्मुखं; खमास्तृणन्तं विविधैः शरोत्तमैः | मूल |
3587 | 5045024c | अवैक्षताक्षं बहुमानचक्षुषा; जगाम चिन्तां च स मारुतात्मजः | मूल |
3588 | 5045025a | ततः शरैर्भिन्नभुजान्तरः कपिः; कुमारवर्येण महात्मना नदन् | मूल |
3589 | 5045025c | महाभुजः कर्मविशेषतत्त्ववि;द्विचिन्तयामास रणे पराक्रमम् | मूल |
3590 | 5045026a | अबालवद्बालदिवाकरप्रभः; करोत्ययं कर्म महन्महाबलः | मूल |
3591 | 5045026c | न चास्य सर्वाहवकर्मशोभिनः; प्रमापणे मे मतिरत्र जायते | मूल |
3592 | 5045027a | अयं महात्मा च महांश्च वीर्यतः; समाहितश्चातिसहश्च संयुगे | मूल |
3593 | 5045027c | असंशयं कर्मगुणोदयादयं; सनागयक्षैर्मुनिभिश्च पूजितः | मूल |
3594 | 5045028a | पराक्रमोत्साहविवृद्धमानसः; समीक्षते मां प्रमुखागतः स्थितः | मूल |
3595 | 5045028c | पराक्रमो ह्यस्य मनांसि कम्पये;त्सुरासुराणामपि शीघ्रकारिणः | मूल |
3596 | 5045029a | न खल्वयं नाभिभवेदुपेक्षितः; पराक्रमो ह्यस्य रणे विवर्धते | मूल |
3597 | 5045029c | प्रमापणं त्वेव ममास्य रोचते; न वर्धमानोऽग्निरुपेक्षितुं क्षमः | मूल |
3598 | 5045030a | इति प्रवेगं तु परस्य तर्कय;न्स्वकर्मयोगं च विधाय वीर्यवान् | मूल |
3599 | 5045030c | चकार वेगं तु महाबलस्तदा; मतिं च चक्रेऽस्य वधे महाकपिः | मूल |
3600 | 5045031a | स तस्य तानष्टहयान्महाजवा;न्समाहितान्भारसहान्विवर्तने | मूल |
3601 | 5045031c | जघान वीरः पथि वायुसेविते; तलप्रहालैः पवनात्मजः कपिः | मूल |
3602 | 5045032a | ततस्तलेनाभिहतो महारथः; स तस्य पिङ्गाधिपमन्त्रिनिर्जितः | मूल |
3603 | 5045032c | स भग्ननीडः परिमुक्तकूबरः; पपात भूमौ हतवाजिरम्बरात् | मूल |
3604 | 5045033a | स तं परित्यज्य महारथो रथं; सकार्मुकः खड्गधरः खमुत्पतत् | मूल |
3605 | 5045033c | तपोऽभियोगादृषिरुग्रवीर्यवा;न्विहाय देहं मरुतामिवालयम् | मूल |
3606 | 5045034a | ततः कपिस्तं विचरन्तमम्बरे; पतत्रिराजानिलसिद्धसेविते | मूल |
3607 | 5045034c | समेत्य तं मारुतवेगविक्रमः; क्रमेण जग्राह च पादयोर्दृढम् | मूल |
3608 | 5045035a | स तं समाविध्य सहस्रशः कपि;र्महोरगं गृह्य इवाण्डजेश्वरः | मूल |
3609 | 5045035c | मुमोच वेगात्पितृतुल्यविक्रमो; महीतले संयति वानरोत्तमः | मूल |
3610 | 5045036a | स भग्नबाहूरुकटीशिरो धरः; क्षरन्नसृन्निर्मथितास्थिलोचनः | मूल |
3611 | 5045036c | स भिन्नसंधिः प्रविकीर्णबन्धनो; हतः क्षितौ वायुसुतेन राक्षसः | मूल |
3612 | 5045037a | महाकपिर्भूमितले निपीड्य तं; चकार रक्षोऽधिपतेर्महद्भयम् | मूल |
3613 | 5045038a | महर्षिभिश्चक्रचरैर्महाव्रतैः; समेत्य भूतैश्च सयक्षपन्नगैः | मूल |
3614 | 5045038c | सुरैश्च सेन्द्रैर्भृशजातविस्मयै;र्हते कुमारे स कपिर्निरीक्षितः | मूल |
3615 | 5045039a | निहत्य तं वज्रसुतोपमप्रभं; कुमारमक्षं क्षतजोपमेक्षणम् | मूल |
3616 | 5045039c | तदेव वीरोऽभिजगाम तोरणं; कृतक्षणः काल इव प्रजाक्षये | मूल |
3617 | 5046001a | ततस्तु रक्षोऽधिपतिर्महात्मा; हनूमताक्षे निहते कुमारे | मूल |
3618 | 5046001c | मनः समाधाय तदेन्द्रकल्पं; समादिदेशेन्द्रजितं स रोषात् | मूल |
3619 | 5046002a | त्वमस्त्रविच्छस्त्रभृतां वरिष्ठः; सुरासुराणामपि शोकदाता | मूल |
3620 | 5046002c | सुरेषु सेन्द्रेषु च दृष्टकर्मा; पितामहाराधनसंचितास्त्रः | मूल |
3621 | 5046003a | तवास्त्रबलमासाद्य नासुरा न मरुद्गणाः | मूल |
3622 | 5046003c | न कश्चित्त्रिषु लोकेषु संयुगे न गतश्रमः | मूल |
3623 | 5046004a | भुजवीर्याभिगुप्तश्च तपसा चाभिरक्षितः | मूल |
3624 | 5046004c | देशकालविभागज्ञस्त्वमेव मतिसत्तमः | मूल |
3625 | 5046005a | न तेऽस्त्यशक्यं समरेषु कर्मणा; न तेऽस्त्यकार्यं मतिपूर्वमन्त्रणे | मूल |
3626 | 5046005c | न सोऽस्ति कश्चित्त्रिषु संग्रहेषु वै; न वेद यस्तेऽस्त्रबलं बलं च ते | मूल |
3627 | 5046006a | ममानुरूपं तपसो बलं च ते; पराक्रमश्चास्त्रबलं च संयुगे | मूल |
3628 | 5046006c | न त्वां समासाद्य रणावमर्दे; मनः श्रमं गच्छति निश्चितार्थम् | मूल |
3629 | 5046007a | निहता इंकराः सर्वे जम्बुमाली च राक्षसः | मूल |
3630 | 5046007c | अमात्यपुत्रा वीराश्च पञ्च सेनाग्रयायिनः | मूल |
3631 | 5046008a | सहोदरस्ते दयितः कुमारोऽक्षश्च सूदितः | मूल |
3632 | 5046008c | न तु तेष्वेव मे सारो यस्त्वय्यरिनिषूदन | मूल |
3633 | 5046009a | इदं हि दृष्ट्वा मतिमन्महद्बलं; कपेः प्रभावं च पराक्रमं च | मूल |
3634 | 5046009c | त्वमात्मनश्चापि समीक्ष्य सारं; कुरुष्व वेगं स्वबलानुरूपम् | मूल |
3635 | 5046010a | बलावमर्दस्त्वयि संनिकृष्टे; यथा गते शाम्यति शान्तशत्रौ | मूल |
3636 | 5046010c | तथा समीक्ष्यात्मबलं परं च; समारभस्वास्त्रविदां वरिष्ठ | मूल |
3637 | 5046011a | न खल्वियं मतिः श्रेष्ठा यत्त्वां संप्रेषयाम्यहम् | मूल |
3638 | 5046011c | इयं च राजधर्माणां क्षत्रस्य च मतिर्मता | मूल |
3639 | 5046012a | नानाशस्त्रैश्च संग्रामे वैशारद्यमरिंदम | मूल |
3640 | 5046012c | अवश्यमेव बोद्धव्यं काम्यश्च विजयो रणे | मूल |
3641 | 5046013a | ततः पितुस्तद्वचनं निशम्य; प्रदक्षिणं दक्षसुतप्रभावः | मूल |
3642 | 5046013c | चकार भर्तारमदीनसत्त्वो; रणाय वीरः प्रतिपन्नबुद्धिः | मूल |
3643 | 5046014a | ततस्तैः स्वगणैरिष्टैरिन्द्रजित्प्रतिपूजितः | मूल |
3644 | 5046014c | युद्धोद्धतकृतोत्साहः संग्रामं प्रतिपद्यत | मूल |
3645 | 5046015a | श्रीमान्पद्मपलाशाक्षो राक्षसाधिपतेः सुतः | मूल |
3646 | 5046015c | निर्जगाम महातेजाः समुद्र इव पर्वसु | मूल |
3647 | 5046016a | स पक्षि राजोपमतुल्यवेगै;र्व्यालैश्चतुर्भिः सिततीक्ष्णदंष्ट्रैः | मूल |
3648 | 5046016c | रथं समायुक्तमसंगवेगं; समारुरोहेन्द्रजिदिन्द्रकल्पः | मूल |
3649 | 5046017a | स रथी धन्विनां श्रेष्ठः शस्त्रज्ञोऽस्त्रविदां वरः | मूल |
3650 | 5046017c | रथेनाभिययौ क्षिप्रं हनूमान्यत्र सोऽभवत् | मूल |
3651 | 5046018a | स तस्य रथनिर्घोषं ज्यास्वनं कार्मुकस्य च | मूल |
3652 | 5046018c | निशम्य हरिवीरोऽसौ संप्रहृष्टतरोऽभवत् | मूल |
3653 | 5046019a | सुमहच्चापमादाय शितशल्यांश्च सायकान् | मूल |
3654 | 5046019c | हनूमन्तमभिप्रेत्य जगाम रणपण्डितः | मूल |
3655 | 5046020a | तस्मिंस्ततः संयति जातहर्षे; रणाय निर्गच्छति बाणपाणौ | मूल |
3656 | 5046020c | दिशश्च सर्वाः कलुषा बभूवु;र्मृगाश्च रौद्रा बहुधा विनेदुः | मूल |
3657 | 5046021a | समागतास्तत्र तु नागयक्षा; महर्षयश्चक्रचराश्च सिद्धाः | मूल |
3658 | 5046021c | नभः समावृत्य च पक्षिसंघा; विनेदुरुच्चैः परमप्रहृष्टाः | मूल |
3659 | 5046022a | आयन्तं सरथं दृष्ट्वा तूर्णमिन्द्रजितं कपिः | मूल |
3660 | 5046022c | विननाद महानादं व्यवर्धत च वेगवान् | मूल |
3661 | 5046023a | इन्द्रजित्तु रथं दिव्यमास्थितश्चित्रकार्मुकः | मूल |
3662 | 5046023c | धनुर्विस्फारयामास तडिदूर्जितनिःस्वनम् | मूल |
3663 | 5046024a | ततः समेतावतितीक्ष्णवेगौ; महाबलौ तौ रणनिर्विशङ्कौ | मूल |
3664 | 5046024c | कपिश्च रक्षोऽधिपतेश्च पुत्रः; सुरासुरेन्द्राविव बद्धवैरौ | मूल |
3665 | 5046025a | स तस्य वीरस्य महारथस्या; धनुष्मतः संयति संमतस्य | मूल |
3666 | 5046025c | शरप्रवेगं व्यहनत्प्रवृद्ध;श्चचार मार्गे पितुरप्रमेयः | मूल |
3667 | 5046026a | ततः शरानायततीक्ष्णशल्या;न्सुपत्रिणः काञ्चनचित्रपुङ्खान् | मूल |
3668 | 5046026c | मुमोच वीरः परवीरहन्ता; सुसंततान्वज्रनिपातवेगान् | मूल |
3669 | 5046027a | स तस्य तत्स्यन्दननिःस्वनं च; मृदङ्गभेरीपटहस्वनं च | मूल |
3670 | 5046027c | विकृष्यमाणस्य च कार्मुकस्य; निशम्य घोषं पुनरुत्पपात | मूल |
3671 | 5046028a | शराणामन्तरेष्वाशु व्यवर्तत महाकपिः | मूल |
3672 | 5046028c | हरिस्तस्याभिलक्षस्य मोक्षयँल्लक्ष्यसंग्रहम् | मूल |
3673 | 5046029a | शराणामग्रतस्तस्य पुनः समभिवर्तत | मूल |
3674 | 5046029c | प्रसार्य हस्तौ हनुमानुत्पपातानिलात्मजः | मूल |
3675 | 5046030a | तावुभौ वेगसंपन्नौ रणकर्मविशारदौ | मूल |
3676 | 5046030c | सर्वभूतमनोग्राहि चक्रतुर्युद्धमुत्तमम् | मूल |
3677 | 5046031a | हनूमतो वेद न राक्षसोऽन्तरं; न मारुतिस्तस्य महात्मनोऽन्तरम् | मूल |
3678 | 5046031c | परस्परं निर्विषहौ बभूवतुः; समेत्य तौ देवसमानविक्रमौ | मूल |
3679 | 5046032a | ततस्तु लक्ष्ये स विहन्यमाने; शरेषु मोघेषु च संपतत्सु | मूल |
3680 | 5046032c | जगाम चिन्तां महतीं महात्मा; समाधिसंयोगसमाहितात्मा | मूल |
3681 | 5046033a | ततो मतिं राक्षसराजसूनु;श्चकार तस्मिन्हरिवीरमुख्ये | मूल |
3682 | 5046033c | अवध्यतां तस्य कपेः समीक्ष्य; कथं निगच्छेदिति निग्रहार्थम् | मूल |
3683 | 5046034a | ततः पैतामहां वीरः सोऽस्त्रमस्त्रविदां वरः | मूल |
3684 | 5046034c | संदधे सुमहातेजास्तं हरिप्रवरं प्रति | मूल |
3685 | 5046035a | अवध्योऽयमिति ज्ञात्वा तमस्त्रेणास्त्रतत्त्ववित् | मूल |
3686 | 5046035c | निजग्राह महाबाहुर्मारुतात्मजमिन्द्रजित् | मूल |
3687 | 5046036a | तेन बद्धस्ततोऽस्त्रेण राक्षसेन स वानरः | मूल |
3688 | 5046036c | अभवन्निर्विचेष्टश्च पपात च महीतले | मूल |
3689 | 5046037a | ततोऽथ बुद्ध्वा स तदास्त्रबन्धं; प्रभोः प्रभावाद्विगताल्पवेगः | मूल |
3690 | 5046037c | पितामहानुग्रहमात्मनश्च; विचिन्तयामास हरिप्रवीरः | मूल |
3691 | 5046038a | ततः स्वायम्भुवैर्मन्त्रैर्ब्रह्मास्त्रमभिमन्त्रितम् | मूल |
3692 | 5046038c | हनूमांश्चिन्तयामास वरदानं पितामहात् | मूल |
3693 | 5046039a | न मेऽस्त्रबन्धस्य च शक्तिरस्ति; विमोक्षणे लोकगुरोः प्रभावात् | मूल |
3694 | 5046039c | इत्येवमेवंविहितोऽस्त्रबन्धो; मयात्मयोनेरनुवर्तितव्यः | मूल |
3695 | 5046040a | स वीर्यमस्त्रस्य कपिर्विचार्य; पितामहानुग्रहमात्मनश्च | मूल |
3696 | 5046040c | विमोक्षशक्तिं परिचिन्तयित्वा; पितामहाज्ञामनुवर्तते स्म | मूल |
3697 | 5046041a | अस्त्रेणापि हि बद्धस्य भयं मम न जायते | मूल |
3698 | 5046041c | पितामहमहेन्द्राभ्यां रक्षितस्यानिलेन च | मूल |
3699 | 5046042a | ग्रहणे चापि रक्षोभिर्महन्मे गुणदर्शनम् | मूल |
3700 | 5046042c | राक्षसेन्द्रेण संवादस्तस्माद्गृह्णन्तु मां परे | मूल |
3701 | 5046043a | स निश्चितार्थः परवीरहन्ता; समीक्ष्य करी विनिवृत्तचेष्टः | मूल |
3702 | 5046043c | परैः प्रसह्याभिगतैर्निगृह्य; ननाद तैस्तैः परिभर्त्स्यमानः | मूल |
3703 | 5046044a | ततस्तं राक्षसा दृष्ट्वा निर्विचेष्टमरिंदमम् | मूल |
3704 | 5046044c | बबन्धुः शणवल्कैश्च द्रुमचीरैश्च संहतैः | मूल |
3705 | 5046045a | स रोचयामास परैश्च बन्धनं; प्रसह्य वीरैरभिनिग्रहं च | मूल |
3706 | 5046045c | कौतूहलान्मां यदि राक्षसेन्द्रो; द्रष्टुं व्यवस्येदिति निश्चितार्थः | मूल |
3707 | 5046046a | स बद्धस्तेन वल्केन विमुक्तोऽस्त्रेण वीर्यवान् | मूल |
3708 | 5046046c | अस्त्रबन्धः स चान्यं हि न बन्धमनुवर्तते | मूल |
3709 | 5046047a | अथेन्द्रजित्तं द्रुमचीरबन्धं; विचार्य वीरः कपिसत्तमं तम् | मूल |
3710 | 5046047c | विमुक्तमस्त्रेण जगाम चिन्ता;मन्येन बद्धो ह्यनुवर्ततेऽस्त्रम् | मूल |
3711 | 5046048a | अहो महत्कर्म कृतं निरर्थकं; न राक्षसैर्मन्त्रगतिर्विमृष्टा | मूल |
3712 | 5046048c | पुनश्च नास्त्रे विहतेऽस्त्रमन्य;त्प्रवर्तते संशयिताः स्म सर्वे | मूल |
3713 | 5046049a | अस्त्रेण हनुमान्मुक्तो नात्मानमवबुध्यते | मूल |
3714 | 5046049c | कृष्यमाणस्तु रक्षोभिस्तैश्च बन्धैर्निपीडितः | मूल |
3715 | 5046050a | हन्यमानस्ततः क्रूरै राक्षसैः काष्ठमुष्टिभिः | मूल |
3716 | 5046050c | समीपं राक्षसेन्द्रस्य प्राकृष्यत स वानरः | मूल |
3717 | 5046051a | अथेन्द्रजित्तं प्रसमीक्ष्य मुक्त;मस्त्रेण बद्धं द्रुमचीरसूत्रैः | मूल |
3718 | 5046051c | व्यदर्शयत्तत्र महाबलं तं; हरिप्रवीरं सगणाय राज्ञे | मूल |
3719 | 5046052a | तं मत्तमिव मातङ्गं बद्धं कपिवरोत्तमम् | मूल |
3720 | 5046052c | राक्षसा राक्षसेन्द्राय रावणाय न्यवेदयन् | मूल |
3721 | 5046053a | कोऽयं कस्य कुतो वापि किं कार्यं को व्यपाश्रयः | मूल |
3722 | 5046053c | इति राक्षसवीराणां तत्र संजज्ञिरे कथाः | मूल |
3723 | 5046054a | हन्यतां दह्यतां वापि भक्ष्यतामिति चापरे | मूल |
3724 | 5046054c | राक्षसास्तत्र संक्रुद्धाः परस्परमथाब्रुवन् | मूल |
3725 | 5046055a | अतीत्य मार्गं सहसा महात्मा; स तत्र रक्षोऽधिपपादमूले | मूल |
3726 | 5046055c | ददर्श राज्ञः परिचारवृद्धा;न्गृहं महारत्नविभूषितं च | मूल |
3727 | 5046056a | स ददर्श महातेजा रावणः कपिसत्तमम् | मूल |
3728 | 5046056c | रक्षोभिर्विकृताकारैः कृष्यमाणमितस्ततः | मूल |
3729 | 5046057a | राक्षसाधिपतिं चापि ददर्श कपिसत्तमः | मूल |
3730 | 5046057c | तेजोबलसमायुक्तं तपन्तमिव भास्करम् | मूल |
3731 | 5046058a | स रोषसंवर्तितताम्रदृष्टि;र्दशाननस्तं कपिमन्ववेक्ष्य | मूल |
3732 | 5046058c | अथोपविष्टान्कुलशीलवृद्धा;न्समादिशत्तं प्रति मन्त्रमुख्यान् | मूल |
3733 | 5046059a | यथाक्रमं तैः स कपिश्च पृष्टः; कार्यार्थमर्थस्य च मूलमादौ | मूल |
3734 | 5046059c | निवेदयामास हरीश्वरस्य; दूतः सकाशादहमागतोऽस्मि | मूल |
3735 | 5047001a | ततः स कर्मणा तस्य विस्मितो भीमविक्रमः | मूल |
3736 | 5047001c | हनुमान्रोषताम्राक्षो रक्षोऽधिपमवैक्षत | मूल |
3737 | 5047002a | भाजमानं महार्हेण काञ्चनेन विराजता | मूल |
3738 | 5047002c | मुक्ताजालावृतेनाथ मुकुटेन महाद्युतिम् | मूल |
3739 | 5047003a | वज्रसंयोगसंयुक्तैर्महार्हमणिविग्रहैः | मूल |
3740 | 5047003c | हैमैराभरणैश्चित्रैर्मनसेव प्रकल्पितैः | मूल |
3741 | 5047004a | महार्हक्षौमसंवीतं रक्तचन्दनरूषितम् | मूल |
3742 | 5047004c | स्वनुलिप्तं विचित्राभिर्विविधभिश्च भक्तिभिः | मूल |
3743 | 5047005a | विपुलैर्दर्शनीयैश्च रक्षाक्षैर्भीमदर्शनैः | मूल |
3744 | 5047005c | दीप्ततीक्ष्णमहादंष्ट्रैः प्रलम्बदशनच्छदैः | मूल |
3745 | 5047006a | शिरोभिर्दशभिर्वीरं भ्राजमानं महौजसं | मूल |
3746 | 5047006c | नानाव्यालसमाकीर्णैः शिखरैरिव मन्दरम् | मूल |
3747 | 5047007a | नीलाञ्जनचय प्रख्यं हारेणोरसि राजता | मूल |
3748 | 5047007c | पूर्णचन्द्राभवक्त्रेण सबलाकमिवाम्बुदम् | मूल |
3749 | 5047008a | बाहुभिर्बद्धकेयूरैश्चन्दनोत्तमरूषितैः | मूल |
3750 | 5047008c | भ्राजमानाङ्गदैः पीनैः पञ्चशीर्षैरिवोरगैः | मूल |
3751 | 5047009a | महति स्फाटिके चित्रे रत्नसंयोगसंस्कृते | मूल |
3752 | 5047009c | उत्तमास्तरणास्तीर्णे उपविष्टं वरासने | मूल |
3753 | 5047010a | अलंकृताभिरत्यर्थं प्रमदाभिः समन्ततः | मूल |
3754 | 5047010c | वालव्यजनहस्ताभिरारात्समुपसेवितम् | मूल |
3755 | 5047011a | दुर्धरेण प्रहस्तेन महापार्श्वेन रक्षसा | मूल |
3756 | 5047011c | मन्त्रिभिर्मन्त्रतत्त्वज्ञैर्निकुम्भेन च मन्त्रिणा | मूल |
3757 | 5047012a | उपोपविष्टं रक्षोभिश्चतुर्भिर्बलदर्पितैः | मूल |
3758 | 5047012c | कृत्स्नैः परिवृतं लोकं चतुर्भिरिव सागरैः | मूल |
3759 | 5047013a | मन्त्रिभिर्मन्त्रतत्त्वज्ञैरन्यैश्च शुभबुद्धिभिः | मूल |
3760 | 5047013c | अन्वास्यमानं सचिवैः सुरैरिव सुरेश्वरम् | मूल |
3761 | 5047014a | अपश्यद्राक्षसपतिं हनूमानतितेजसं | मूल |
3762 | 5047014c | विष्ठितं मेरुशिखरे सतोयमिव तोयदम् | मूल |
3763 | 5047015a | स तैः संपीड्यमानोऽपि रक्षोभिर्भीमविक्रमैः | मूल |
3764 | 5047015c | विस्मयं परमं गत्वा रक्षोऽधिपमवैक्षत | मूल |
3765 | 5047016a | भ्राजमानं ततो दृष्ट्वा हनुमान्राक्षसेश्वरम् | मूल |
3766 | 5047016c | मनसा चिन्तयामास तेजसा तस्य मोहितः | मूल |
3767 | 5047017a | अहो रूपमहो धैर्यमहो सत्त्वमहो द्युतिः | मूल |
3768 | 5047017c | अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता | मूल |
3769 | 5047018a | यद्यधर्मो न बलवान्स्यादयं राक्षसेश्वरः | मूल |
3770 | 5047018c | स्यादयं सुरलोकस्य सशक्रस्यापि रक्षिता | मूल |
3771 | 5047019a | तेन बिभ्यति खल्वस्माल्लोकाः सामरदानवाः | मूल |
3772 | 5047019c | अयं ह्युत्सहते क्रुद्धः कर्तुमेकार्णवं जगत् | मूल |
3773 | 5047020a | इति चिन्तां बहुविधामकरोन्मतिमान्कपिः | मूल |
3774 | 5047020c | दृष्ट्वा राक्षसराजस्य प्रभावममितौजसः | मूल |
3775 | 5048001a | तमुद्वीक्ष्य महाबाहुः पिङ्गाक्षं पुरतः स्थितम् | मूल |
3776 | 5048001c | रोषेण महताविष्टो रावणो लोकरावणः | मूल |
3777 | 5048002a | स राजा रोषताम्राक्षः प्रहस्तं मन्त्रिसत्तमम् | मूल |
3778 | 5048002c | कालयुक्तमुवाचेदं वचो विपुलमर्थवत् | मूल |
3779 | 5048003a | दुरात्मा पृच्छ्यतामेष कुतः किं वास्य कारणम् | मूल |
3780 | 5048003c | वनभङ्गे च कोऽस्यार्थो राक्षसीनां च तर्जने | मूल |
3781 | 5048004a | रावणस्य वचः श्रुत्वा प्रहस्तो वाक्यमब्रवीत् | मूल |
3782 | 5048004c | समाश्वसिहि भद्रं ते न भीः कार्या त्वया कपे | मूल |
3783 | 5048005a | यदि तावत्त्वमिन्द्रेण प्रेषितो रावणालयम् | मूल |
3784 | 5048005c | तत्त्वमाख्याहि मा ते भूद्भयं वानर मोक्ष्यसे | मूल |
3785 | 5048006a | यदि वैश्रवणस्य त्वं यमस्य वरुणस्य च | मूल |
3786 | 5048006c | चारुरूपमिदं कृत्वा यमस्य वरुणस्य च | मूल |
3787 | 5048007a | विष्णुना प्रेषितो वापि दूतो विजयकाङ्क्षिणा | मूल |
3788 | 5048007c | न हि ते वानरं तेजो रूपमात्रं तु वानरम् | मूल |
3789 | 5048008a | तत्त्वतः कथयस्वाद्य ततो वानर मोक्ष्यसे | मूल |
3790 | 5048008c | अनृतं वदतश्चापि दुर्लभं तव जीवितम् | मूल |
3791 | 5048009a | अथ वा यन्निमित्तस्ते प्रवेशो रावणालये | मूल |
3792 | 5048010a | एवमुक्तो हरिवरस्तदा रक्षोगणेश्वरम् | मूल |
3793 | 5048010c | अब्रवीन्नास्मि शक्रस्य यमस्य वरुणस्य वा | मूल |
3794 | 5048011a | धनदेन न मे सख्यं विष्णुना नास्मि चोदितः | मूल |
3795 | 5048011c | जातिरेव मम त्वेषा वानरोऽहमिहागतः | मूल |
3796 | 5048012a | दर्शने राक्षसेन्द्रस्य दुर्लभे तदिदं मया | मूल |
3797 | 5048012c | वनं राक्षसराजस्य दर्शनार्थे विनाशितम् | मूल |
3798 | 5048013a | ततस्ते राक्षसाः प्राप्ता बलिनो युद्धकाङ्क्षिणः | मूल |
3799 | 5048013c | रक्षणार्थं च देहस्य प्रतियुद्धा मया रणे | मूल |
3800 | 5048014a | अस्त्रपाशैर्न शक्योऽहं बद्धुं देवासुरैरपि | मूल |
3801 | 5048014c | पितामहादेव वरो ममाप्येषोऽभ्युपागतः | मूल |
3802 | 5048015a | राजानं द्रष्टुकामेन मयास्त्रमनुवर्तितम् | मूल |
3803 | 5048015c | विमुक्तो अहमस्त्रेण राक्षसैस्त्वतिपीडितः | मूल |
3804 | 5048016a | दूतोऽहमिति विज्ञेयो राघवस्यामितौजसः | मूल |
3805 | 5048016c | श्रूयतां चापि वचनं मम पथ्यमिदं प्रभो | मूल |
3806 | 5049001a | तं समीक्ष्य महासत्त्वं सत्त्ववान्हरिसत्तमः | मूल |
3807 | 5049001c | वाक्यमर्थवदव्यग्रस्तमुवाच दशाननम् | मूल |
3808 | 5049002a | अहं सुग्रीवसंदेशादिह प्राप्तस्तवालयम् | मूल |
3809 | 5049002c | राक्षसेन्द्र हरीशस्त्वां भ्राता कुशलमब्रवीत् | मूल |
3810 | 5049003a | भ्रातुः शृणु समादेशं सुग्रीवस्य महात्मनः | मूल |
3811 | 5049003c | धर्मार्थोपहितं वाक्यमिह चामुत्र च क्षमम् | मूल |
3812 | 5049004a | राजा दशरथो नाम रथकुञ्जरवाजिमान् | मूल |
3813 | 5049004c | पितेव बन्धुर्लोकस्य सुरेश्वरसमद्युतिः | मूल |
3814 | 5049005a | ज्येष्ठस्तस्य महाबाहुः पुत्रः प्रियकरः प्रभुः | मूल |
3815 | 5049005c | पितुर्निदेशान्निष्क्रान्तः प्रविष्टो दण्डकावनम् | मूल |
3816 | 5049006a | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया चापि भार्यया | मूल |
3817 | 5049006c | रामो नाम महातेजा धर्म्यं पन्थानमाश्रितः | मूल |
3818 | 5049007a | तस्य भार्या वने नष्टा सीता पतिमनुव्रता | मूल |
3819 | 5049007c | वैदेहस्य सुता राज्ञो जनकस्य महात्मनः | मूल |
3820 | 5049008a | स मार्गमाणस्तां देवीं राजपुत्रः सहानुजः | मूल |
3821 | 5049008c | ऋश्यमूकमनुप्राप्तः सुग्रीवेण च संगतः | मूल |
3822 | 5049009a | तस्य तेन प्रतिज्ञातं सीतायाः परिमार्गणम् | मूल |
3823 | 5049009c | सुग्रीवस्यापि रामेण हरिराज्यं निवेदितम् | मूल |
3824 | 5049010a | ततस्तेन मृधे हत्वा राजपुत्रेण वालिनम् | मूल |
3825 | 5049010c | सुग्रीवः स्थापितो राज्ये हर्यृक्षाणां गणेश्वरः | मूल |
3826 | 5049011a | स सीतामार्गणे व्यग्रः सुग्रीवः सत्यसंगरः | मूल |
3827 | 5049011c | हरीन्संप्रेषयामास दिशः सर्वा हरीश्वरः | मूल |
3828 | 5049012a | तां हरीणां सहस्राणि शतानि नियुतानि च | मूल |
3829 | 5049012c | दिक्षु सर्वासु मार्गन्ते अधश्चोपरि चाम्बरे | मूल |
3830 | 5049013a | वैनतेय समाः केचित्केचित्तत्रानिलोपमाः | मूल |
3831 | 5049013c | असंगगतयः शीघ्रा हरिवीरा महाबलाः | मूल |
3832 | 5049014a | अहं तु हनुमान्नाम मारुतस्यौरसः सुतः | मूल |
3833 | 5049014c | सीतायास्तु कृते तूर्णं शतयोजनमायतम् | मूल |
3834 | 5049014e | समुद्रं लङ्घयित्वैव तां दिदृक्षुरिहागतः | मूल |
3835 | 5049015a | तद्भवान्दृष्टधर्मार्थस्तपः कृतपरिग्रहः | मूल |
3836 | 5049015c | परदारान्महाप्राज्ञ नोपरोद्धुं त्वमर्हसि | मूल |
3837 | 5049016a | न हि धर्मविरुद्धेषु बह्वपायेषु कर्मसु | मूल |
3838 | 5049016c | मूलघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः | मूल |
3839 | 5049017a | कश्च लक्ष्मणमुक्तानां रामकोपानुवर्तिनाम् | मूल |
3840 | 5049017c | शराणामग्रतः स्थातुं शक्तो देवासुरेष्वपि | मूल |
3841 | 5049018a | न चापि त्रिषु लोकेषु राजन्विद्येत कश्चन | मूल |
3842 | 5049018c | राघवस्य व्यलीकं यः कृत्वा सुखमवाप्नुयात् | मूल |
3843 | 5049019a | तत्त्रिकालहितं वाक्यं धर्म्यमर्थानुबन्धि च | मूल |
3844 | 5049019c | मन्यस्व नरदेवाय जानकी प्रतिदीयताम् | मूल |
3845 | 5049020a | दृष्टा हीयं मया देवी लब्धं यदिह दुर्लभम् | मूल |
3846 | 5049020c | उत्तरं कर्म यच्छेषं निमित्तं तत्र राघवः | मूल |
3847 | 5049021a | लक्षितेयं मया सीता तथा शोकपरायणा | मूल |
3848 | 5049021c | गृह्य यां नाभिजानासि पञ्चास्यामिव पन्नगीम् | मूल |
3849 | 5049022a | नेयं जरयितुं शक्या सासुरैरमरैरपि | मूल |
3850 | 5049022c | विषसंसृष्टमत्यर्थं भुक्तमन्नमिवौजसा | मूल |
3851 | 5049023a | तपःसंतापलब्धस्ते योऽयं धर्मपरिग्रहः | मूल |
3852 | 5049023c | न स नाशयितुं न्याय्य आत्मप्राणपरिग्रहः | मूल |
3853 | 5049024a | अवध्यतां तपोभिर्यां भवान्समनुपश्यति | मूल |
3854 | 5049024c | आत्मनः सासुरैर्देवैर्हेतुस्तत्राप्ययं महान् | मूल |
3855 | 5049025a | सुग्रीवो न हि देवोऽयं नासुरो न च मानुषः | मूल |
3856 | 5049025c | न राक्षसो न गन्धर्वो न यक्षो न च पन्नगः | मूल |
3857 | 5049026a | मानुषो राघवो राजन्सुग्रीवश्च हरीश्वरः | मूल |
3858 | 5049026c | तस्मात्प्राणपरित्राणं कथं राजन्करिष्यसि | मूल |
3859 | 5049027a | न तु धर्मोपसंहारमधर्मफलसंहितम् | मूल |
3860 | 5049027c | तदेव फलमन्वेति धर्मश्चाधर्मनाशनः | मूल |
3861 | 5049028a | प्राप्तं धर्मफलं तावद्भवता नात्र संशयः | मूल |
3862 | 5049028c | फलमस्याप्यधर्मस्य क्षिप्रमेव प्रपत्स्यसे | मूल |
3863 | 5049029a | जनस्थानवधं बुद्ध्वा बुद्ध्वा वालिवधं तथा | मूल |
3864 | 5049029c | रामसुग्रीवसख्यं च बुध्यस्व हितमात्मनः | मूल |
3865 | 5049030a | कामं खल्वहमप्येकः सवाजिरथकुञ्जराम् | मूल |
3866 | 5049030c | लङ्कां नाशयितुं शक्तस्तस्यैष तु विनिश्चयः | मूल |
3867 | 5049031a | रामेण हि प्रतिज्ञातं हर्यृक्षगणसंनिधौ | मूल |
3868 | 5049031c | उत्सादनममित्राणां सीता यैस्तु प्रधर्षिता | मूल |
3869 | 5049032a | अपकुर्वन्हि रामस्य साक्षादपि पुरंदरः | मूल |
3870 | 5049032c | न सुखं प्राप्नुयादन्यः किं पुनस्त्वद्विधो जनः | मूल |
3871 | 5049033a | यां सीतेत्यभिजानासि येयं तिष्ठति ते वशे | मूल |
3872 | 5049033c | कालरात्रीति तां विद्धि सर्वलङ्काविनाशिनीम् | मूल |
3873 | 5049034a | तदलं कालपाशेन सीता विग्रहरूपिणा | मूल |
3874 | 5049034c | स्वयं स्कन्धावसक्तेन क्षममात्मनि चिन्त्यताम् | मूल |
3875 | 5049035a | सीतायास्तेजसा दग्धां रामकोपप्रपीडिताम् | मूल |
3876 | 5049035c | दह्यमनामिमां पश्य पुरीं साट्टप्रतोलिकाम् | मूल |
3877 | 5049036a | स सौष्ठवोपेतमदीनवादिनः; कपेर्निशम्याप्रतिमोऽप्रियं वचः | मूल |
3878 | 5049036c | दशाननः कोपविवृत्तलोचनः; समादिशत्तस्य वधं महाकपेः | मूल |
3879 | 5050001a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा वानरस्य महात्मनः | मूल |
3880 | 5050001c | आज्ञापयद्वधं तस्य रावणः क्रोधमूर्छितः | मूल |
3881 | 5050002a | वधे तस्य समाज्ञप्ते रावणेन दुरात्मना | मूल |
3882 | 5050002c | निवेदितवतो दौत्यं नानुमेने विभीषणः | मूल |
3883 | 5050003a | तं रक्षोऽधिपतिं क्रुद्धं तच्च कार्यमुपस्थितम् | मूल |
3884 | 5050003c | विदित्वा चिन्तयामास कार्यं कार्यविधौ स्थितः | मूल |
3885 | 5050004a | निश्चितार्थस्ततः साम्नापूज्य शत्रुजिदग्रजम् | मूल |
3886 | 5050004c | उवाच हितमत्यर्थं वाक्यं वाक्यविशारदः | मूल |
3887 | 5050005a | राजन्धर्मविरुद्धं च लोकवृत्तेश्च गर्हितम् | मूल |
3888 | 5050005c | तव चासदृशं वीर कपेरस्य प्रमापणम् | मूल |
3889 | 5050006a | असंशयं शत्रुरयं प्रवृद्धः; कृतं ह्यनेनाप्रियमप्रमेयम् | मूल |
3890 | 5050006c | न दूतवध्यां प्रवदन्ति सन्तो; दूतस्य दृष्टा बहवो हि दण्डाः | मूल |
3891 | 5050007a | वैरूप्यामङ्गेषु कशाभिघातो; मौण्ड्यं तथा लक्ष्मणसंनिपातः | मूल |
3892 | 5050007c | एतान्हि दूते प्रवदन्ति दण्डा;न्वधस्तु दूतस्य न नः श्रुतोऽपि | मूल |
3893 | 5050008a | कथं च धर्मार्थविनीतबुद्धिः; परावरप्रत्ययनिश्चितार्थः | मूल |
3894 | 5050008c | भवद्विधः कोपवशे हि तिष्ठे;त्कोपं नियच्छन्ति हि सत्त्ववन्तः | मूल |
3895 | 5050009a | न धर्मवादे न च लोकवृत्ते; न शास्त्रबुद्धिग्रहणेषु वापि | मूल |
3896 | 5050009c | विद्येत कश्चित्तव वीरतुल्य;स्त्वं ह्युत्तमः सर्वसुरासुराणाम् | मूल |
3897 | 5050010a | न चाप्यस्य कपेर्घाते कंचित्पश्याम्यहं गुणम् | मूल |
3898 | 5050010c | तेष्वयं पात्यतां दण्डो यैरयं प्रेषितः कपिः | मूल |
3899 | 5050011a | साधुर्वा यदि वासाधुर्परैरेष समर्पितः | मूल |
3900 | 5050011c | ब्रुवन्परार्थं परवान्न दूतो वधमर्हति | मूल |
3901 | 5050012a | अपि चास्मिन्हते राजन्नान्यं पश्यामि खेचरम् | मूल |
3902 | 5050012c | इह यः पुनरागच्छेत्परं पारं महोदधिः | मूल |
3903 | 5050013a | तस्मान्नास्य वधे यत्नः कार्यः परपुरंजय | मूल |
3904 | 5050013c | भवान्सेन्द्रेषु देवेषु यत्नमास्थातुमर्हति | मूल |
3905 | 5050014a | अस्मिन्विनष्टे न हि दूतमन्यं; पश्यामि यस्तौ नरराजपुत्रौ | मूल |
3906 | 5050014c | युद्धाय युद्धप्रियदुर्विनीता;वुद्योजयेद्दीर्घपथावरुद्धौ | मूल |
3907 | 5050015a | पराक्रमोत्साहमनस्विनां च; सुरासुराणामपि दुर्जयेन | मूल |
3908 | 5050015c | त्वया मनोनन्दन नैरृतानां; युद्धायतिर्नाशयितुं न युक्ता | मूल |
3909 | 5050016a | हिताश्च शूराश्च समाहिताश्च; कुलेषु जाताश्च महागुणेषु | मूल |
3910 | 5050016c | मनस्विनः शस्त्रभृतां वरिष्ठाः; कोट्यग्रशस्ते सुभृताश्च योधाः | मूल |
3911 | 5050017a | तदेकदेशेन बलस्य ताव;त्केचित्तवादेशकृतोऽपयान्तु | मूल |
3912 | 5050017c | तौ राजपुत्रौ विनिगृह्य मूढौ; परेषु ते भावयितुं प्रभावम् | मूल |
3913 | 5051001a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा दशग्रीवो महाबलः | मूल |
3914 | 5051001c | देशकालहितं वाक्यं भ्रातुरुत्तममब्रवीत् | मूल |
3915 | 5051002a | सम्यगुक्तं हि भवता दूतवध्या विगर्हिता | मूल |
3916 | 5051002c | अवश्यं तु वधादन्यः क्रियतामस्य निग्रहः | मूल |
3917 | 5051003a | कपीनां किल लाङ्गूलमिष्टं भवति भूषणम् | मूल |
3918 | 5051003c | तदस्य दीप्यतां शीघ्रं तेन दग्धेन गच्छतु | मूल |
3919 | 5051004a | ततः पश्यन्त्विमं दीनमङ्गवैरूप्यकर्शितम् | मूल |
3920 | 5051004c | समित्रा ज्ञातयः सर्वे बान्धवाः ससुहृज्जनाः | मूल |
3921 | 5051005a | आज्ञापयद्राक्षसेन्द्रः पुरं सर्वं सचत्वरम् | मूल |
3922 | 5051005c | लाङ्गूलेन प्रदीप्तेन रक्षोभिः परिणीयताम् | मूल |
3923 | 5051006a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राक्षसाः कोपकर्कशाः | मूल |
3924 | 5051006c | वेष्टन्ते तस्य लाङ्गूलं जीर्णैः कार्पासिकैः पटैः | मूल |
3925 | 5051007a | संवेष्ट्यमाने लाङ्गूले व्यवर्धत महाकपिः | मूल |
3926 | 5051007c | शुष्कमिन्धनमासाद्य वनेष्विव हुताशनः | मूल |
3927 | 5051008a | तैलेन परिषिच्याथ तेऽग्निं तत्रावपातयन् | मूल |
3928 | 5051009a | लाङ्गूलेन प्रदीप्तेन राक्षसांस्तानपातयत् | मूल |
3929 | 5051009c | रोषामर्षपरीतात्मा बालसूर्यसमाननः | मूल |
3930 | 5051010a | स भूयः संगतैः क्रूरै राकसैर्हरिसत्तमः | मूल |
3931 | 5051010c | निबद्धः कृतवान्वीरस्तत्कालसदृशीं मतिम् | मूल |
3932 | 5051011a | कामं खलु न मे शक्ता निबधस्यापि राक्षसाः | मूल |
3933 | 5051011c | छित्त्वा पाशान्समुत्पत्य हन्यामहमिमान्पुनः | मूल |
3934 | 5051012a | सर्वेषामेव पर्याप्तो राक्षसानामहं युधि | मूल |
3935 | 5051012c | किं तु रामस्य प्रीत्यर्थं विषहिष्येऽहमीदृशम् | मूल |
3936 | 5051013a | लङ्का चरयितव्या मे पुनरेव भवेदिति | मूल |
3937 | 5051013c | रात्रौ न हि सुदृष्टा मे दुर्गकर्मविधानतः | मूल |
3938 | 5051013e | अवश्यमेव द्रष्टव्या मया लङ्का निशाक्षये | मूल |
3939 | 5051014a | कामं बन्धैश्च मे भूयः पुच्छस्योद्दीपनेन च | मूल |
3940 | 5051014c | पीडां कुर्वन्तु रक्षांसि न मेऽस्ति मनसः श्रमः | मूल |
3941 | 5051015a | ततस्ते संवृताकारं सत्त्ववन्तं महाकपिम् | मूल |
3942 | 5051015c | परिगृह्य ययुर्हृष्टा राक्षसाः कपिकुञ्जरम् | मूल |
3943 | 5051016a | शङ्खभेरीनिनादैस्तैर्घोषयन्तः स्वकर्मभिः | मूल |
3944 | 5051016c | राक्षसाः क्रूरकर्माणश्चारयन्ति स्म तां पुरीम् | मूल |
3945 | 5051017a | हनुमांश्चारयामास राक्षसानां महापुरीम् | मूल |
3946 | 5051017c | अथापश्यद्विमानानि विचित्राणि महाकपिः | मूल |
3947 | 5051018a | संवृतान्भूमिभागांश्च सुविभक्तांश्च चत्वरान् | मूल |
3948 | 5051018c | रथ्याश्च गृहसंबाधाः कपिः शृङ्गाटकानि च | मूल |
3949 | 5051019a | चत्वरेषु चतुष्केषु राजमार्गे तथैव च | मूल |
3950 | 5051019c | घोषयन्ति कपिं सर्वे चारीक इति राक्षसाः | मूल |
3951 | 5051020a | दीप्यमाने ततस्तस्य लाङ्गूलाग्रे हनूमतः | मूल |
3952 | 5051020c | राक्षस्यस्ता विरूपाक्ष्यः शंसुर्देव्यास्तदप्रियम् | मूल |
3953 | 5051021a | यस्त्वया कृतसंवादः सीते ताम्रमुखः कपिः | मूल |
3954 | 5051021c | लाङ्गूलेन प्रदीप्तेन स एष परिणीयते | मूल |
3955 | 5051022a | श्रुत्वा तद्वचनं क्रूरमात्मापहरणोपमम् | मूल |
3956 | 5051022c | वैदेही शोकसंतप्ता हुताशनमुपागमत् | मूल |
3957 | 5051023a | मङ्गलाभिमुखी तस्य सा तदासीन्महाकपेः | मूल |
3958 | 5051023c | उपतस्थे विशालाक्षी प्रयता हव्यवाहनम् | मूल |
3959 | 5051024a | यद्यस्ति पतिशुश्रूषा यद्यस्ति चरितं तपः | मूल |
3960 | 5051024c | यदि चास्त्येकपत्नीत्वं शीतो भव हनूमतः | मूल |
3961 | 5051025a | यदि कश्चिदनुक्रोशस्तस्य मय्यस्ति धीमतः | मूल |
3962 | 5051025c | यदि वा भाग्यशेषं मे शीतो भव हनूमतः | मूल |
3963 | 5051026a | यदि मां वृत्तसंपन्नां तत्समागमलालसाम् | मूल |
3964 | 5051026c | स विजानाति धर्मात्मा शीतो भव हनूमतः | मूल |
3965 | 5051027a | यदि मां तारयत्यार्यः सुग्रीवः सत्यसंगरः | मूल |
3966 | 5051027c | अस्माद्दुःखान्महाबाहुः शीतो भव हनूमतः | मूल |
3967 | 5051028a | ततस्तीक्ष्णार्चिरव्यग्रः प्रदक्षिणशिखोऽनलः | मूल |
3968 | 5051028c | जज्वाल मृगशावाक्ष्याः शंसन्निव शिवं कपेः | मूल |
3969 | 5051029a | दह्यमाने च लाङ्गूले चिन्तयामास वानरः | मूल |
3970 | 5051029c | प्रदीप्तोऽग्निरयं कस्मान्न मां दहति सर्वतः | मूल |
3971 | 5051030a | दृश्यते च महाज्वालः करोति च न मे रुजम् | मूल |
3972 | 5051030c | शिशिरस्येव संपातो लाङ्गूलाग्रे प्रतिष्ठितः | मूल |
3973 | 5051031a | अथ वा तदिदं व्यक्तं यद्दृष्टं प्लवता मया | मूल |
3974 | 5051031c | रामप्रभावादाश्चर्यं पर्वतः सरितां पतौ | मूल |
3975 | 5051032a | यदि तावत्समुद्रस्य मैनाकस्य च धीमथ | मूल |
3976 | 5051032c | रामार्थं संभ्रमस्तादृक्किमग्निर्न करिष्यति | मूल |
3977 | 5051033a | सीतायाश्चानृशंस्येन तेजसा राघवस्य च | मूल |
3978 | 5051033c | पितुश्च मम सख्येन न मां दहति पावकः | मूल |
3979 | 5051034a | भूयः स चिन्तयामास मुहूर्तं कपिकुञ्जरः | मूल |
3980 | 5051034c | उत्पपाताथ वेगेन ननाद च महाकपिः | मूल |
3981 | 5051035a | पुरद्वारं ततः श्रीमाञ्शैलशृङ्गमिवोन्नतम् | मूल |
3982 | 5051035c | विभक्तरक्षःसंबाधमाससादानिलात्मजः | मूल |
3983 | 5051036a | स भूत्वा शैलसंकाशः क्षणेन पुनरात्मवान् | मूल |
3984 | 5051036c | ह्रस्वतां परमां प्राप्तो बन्धनान्यवशातयत् | मूल |
3985 | 5051037a | विमुक्तश्चाभवच्छ्रीमान्पुनः पर्वतसंनिभः | मूल |
3986 | 5051037c | वीक्षमाणश्च ददृशे परिघं तोरणाश्रितम् | मूल |
3987 | 5051038a | स तं गृह्य महाबाहुः कालायसपरिष्कृतम् | मूल |
3988 | 5051038c | रक्षिणस्तान्पुनः सर्वान्सूदयामास मारुतिः | मूल |
3989 | 5051039a | स तान्निहत्वा रणचण्डविक्रमः; समीक्षमाणः पुनरेव लङ्काम् | मूल |
3990 | 5051039c | प्रदीप्तलाङ्गूलकृतार्चिमाली; प्रकाशतादित्य इवांशुमाली | मूल |
3991 | 5052001a | वीक्षमाणस्ततो लङ्कां कपिः कृतमनोरथः | मूल |
3992 | 5052001c | वर्धमानसमुत्साहः कार्यशेषमचिन्तयत् | मूल |
3993 | 5052002a | किं नु खल्वविशिष्टं मे कर्तव्यमिह साम्प्रतम् | मूल |
3994 | 5052002c | यदेषां रक्षसां भूयः संतापजननं भवेत् | मूल |
3995 | 5052003a | वनं तावत्प्रमथितं प्रकृष्टा राक्षसा हताः | मूल |
3996 | 5052003c | बलैकदेशः क्षपितः शेषं दुर्गविनाशनम् | मूल |
3997 | 5052004a | दुर्गे विनाशिते कर्म भवेत्सुखपरिश्रमम् | मूल |
3998 | 5052004c | अल्पयत्नेन कार्येऽस्मिन्मम स्यात्सफलः श्रमः | मूल |
3999 | 5052005a | यो ह्ययं मम लाङ्गूले दीप्यते हव्यवाहनः | मूल |
4000 | 5052005c | अस्य संतर्पणं न्याय्यं कर्तुमेभिर्गृहोत्तमैः | मूल |
4001 | 5052006a | ततः प्रदीप्तलाङ्गूलः सविद्युदिव तोयदः | मूल |
4002 | 5052006c | भवनाग्रेषु लङ्काया विचचार महाकपिः | मूल |
4003 | 5052007a | मुमोच हनुमानग्निं कालानलशिखोपमम् | मूल |
4004 | 5052008a | श्वसनेन च संयोगादतिवेगो महाबलः | मूल |
4005 | 5052008c | कालाग्निरिव जज्वाल प्रावर्धत हुताशनः | मूल |
4006 | 5052009a | प्रदीप्तमग्निं पवनस्तेषु वेश्मसु चारयत् | मूल |
4007 | 5052010a | तानि काञ्चनजालानि मुक्तामणिमयानि च | मूल |
4008 | 5052010c | भवनान्यवशीर्यन्त रत्नवन्ति महान्ति च | मूल |
4009 | 5052011a | तानि भग्नविमानानि निपेतुर्वसुधातले | मूल |
4010 | 5052011c | भवनानीव सिद्धानामम्बरात्पुण्यसंक्षये | मूल |
4011 | 5052012a | वज्रविद्रुमवैदूर्यमुक्तारजतसंहितान् | मूल |
4012 | 5052012c | विचित्रान्भवनाद्धातून्स्यन्दमानान्ददर्श सः | मूल |
4013 | 5052013a | नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां तृणानां च यथा तथा | मूल |
4014 | 5052013c | हनूमान्राक्षसेन्द्राणां वधे किंचिन्न तृप्यति | मूल |
4015 | 5052014a | हुताशनज्वालसमावृता सा; हतप्रवीरा परिवृत्तयोधा | मूल |
4016 | 5052014c | हनूमातः क्रोधबलाभिभूता; बभूव शापोपहतेव लङ्का | मूल |
4017 | 5052015a | ससंभ्रमं त्रस्तविषण्णराक्षसां; समुज्ज्वलज्ज्वालहुताशनाङ्किताम् | मूल |
4018 | 5052015c | ददर्श लङ्कां हनुमान्महामनाः; स्वयम्भुकोपोपहतामिवावनिम् | मूल |
4019 | 5052016a | स राक्षसांस्तान्सुबहूंश्च हत्वा; वनं च भङ्क्त्वा बहुपादपं तत् | मूल |
4020 | 5052016c | विसृज्य रक्षो भवनेषु चाग्निं; जगाम रामं मनसा महात्मा | मूल |
4021 | 5052017a | लङ्कां समस्तां संदीप्य लाङ्गूलाग्निं महाकपिः | मूल |
4022 | 5052017c | निर्वापयामास तदा समुद्रे हरिसत्तमः | मूल |
4023 | 5053001a | संदीप्यमानां विध्वस्तां त्रस्तरक्षो गणां पुरीम् | मूल |
4024 | 5053001c | अवेक्ष्य हानुमाँल्लङ्कां चिन्तयामास वानरः | मूल |
4025 | 5053002a | तस्याभूत्सुमहांस्त्रासः कुत्सा चात्मन्यजायत | मूल |
4026 | 5053002c | लङ्कां प्रदहता कर्म किंस्वित्कृतमिदं मया | मूल |
4027 | 5053003a | धन्यास्ते पुरुषश्रेष्ठ ये बुद्ध्या कोपमुत्थितम् | मूल |
4028 | 5053003c | निरुन्धन्ति महात्मानो दीप्तमग्निमिवाम्भसा | मूल |
4029 | 5053004a | यदि दग्धा त्वियं लङ्का नूनमार्यापि जानकी | मूल |
4030 | 5053004c | दग्धा तेन मया भर्तुर्हतं कार्यमजानता | मूल |
4031 | 5053005a | यदर्थमयमारम्भस्तत्कार्यमवसादितम् | मूल |
4032 | 5053005c | मया हि दहता लङ्कां न सीता परिरक्षिता | मूल |
4033 | 5053006a | ईषत्कार्यमिदं कार्यं कृतमासीन्न संशयः | मूल |
4034 | 5053006c | तस्य क्रोधाभिभूतेन मया मूलक्षयः कृतः | मूल |
4035 | 5053007a | विनष्टा जानकी व्यक्तं न ह्यदग्धः प्रदृश्यते | मूल |
4036 | 5053007c | लङ्कायाः कश्चिदुद्देशः सर्वा भस्मीकृता पुरी | मूल |
4037 | 5053008a | यदि तद्विहतं कार्यं मया प्रज्ञाविपर्ययात् | मूल |
4038 | 5053008c | इहैव प्राणसंन्यासो ममापि ह्यतिरोचते | मूल |
4039 | 5053009a | किमग्नौ निपताम्यद्य आहोस्विद्वडवामुखे | मूल |
4040 | 5053009c | शरीरमाहो सत्त्वानां दद्मि सागरवासिनाम् | मूल |
4041 | 5053010a | कथं हि जीवता शक्यो मया द्रष्टुं हरीश्वरः | मूल |
4042 | 5053010c | तौ वा पुरुषशार्दूलौ कार्यसर्वस्वघातिना | मूल |
4043 | 5053011a | मया खलु तदेवेदं रोषदोषात्प्रदर्शितम् | मूल |
4044 | 5053011c | प्रथितं त्रिषु लोकेषु कपितमनवस्थितम् | मूल |
4045 | 5053012a | धिगस्तु राजसं भावमनीशमनवस्थितम् | मूल |
4046 | 5053012c | ईश्वरेणापि यद्रागान्मया सीता न रक्षिता | मूल |
4047 | 5053013a | विनष्टायां तु सीतायां तावुभौ विनशिष्यतः | मूल |
4048 | 5053013c | तयोर्विनाशे सुग्रीवः सबन्धुर्विनशिष्यति | मूल |
4049 | 5053014a | एतदेव वचः श्रुत्वा भरतो भ्रातृवत्सलः | मूल |
4050 | 5053014c | धर्मात्मा सहशत्रुघ्नः कथं शक्ष्यति जीवितुम् | मूल |
4051 | 5053015a | इक्ष्वाकुवंशे धर्मिष्ठे गते नाशमसंशयम् | मूल |
4052 | 5053015c | भविष्यन्ति प्रजाः सर्वाः शोकसंतापपीडिताः | मूल |
4053 | 5053016a | तदहं भाग्यरहितो लुप्तधर्मार्थसंग्रहः | मूल |
4054 | 5053016c | रोषदोषपरीतात्मा व्यक्तं लोकविनाशनः | मूल |
4055 | 5053017a | इति चिन्तयतस्तस्य निमित्तान्युपपेदिरे | मूल |
4056 | 5053017c | पूरमप्युपलब्धानि साक्षात्पुनरचिन्तयत् | मूल |
4057 | 5053018a | अथ वा चारुसर्वाङ्गी रक्षिता स्वेन तेजसा | मूल |
4058 | 5053018c | न नशिष्यति कल्याणी नाग्निरग्नौ प्रवर्तते | मूल |
4059 | 5053019a | न हि धर्मान्मनस्तस्य भार्याममिततेजसः | मूल |
4060 | 5053019c | स्वचारित्राभिगुप्तां तां स्प्रष्टुमर्हति पावकः | मूल |
4061 | 5053020a | नूनं रामप्रभावेन वैदेह्याः सुकृतेन च | मूल |
4062 | 5053020c | यन्मां दहनकर्मायं नादहद्धव्यवाहनः | मूल |
4063 | 5053021a | त्रयाणां भरतादीनां भ्रातॄणां देवता च या | मूल |
4064 | 5053021c | रामस्य च मनःकान्ता सा कथं विनशिष्यति | मूल |
4065 | 5053022a | यद्वा दहनकर्मायं सर्वत्र प्रभुरव्ययः | मूल |
4066 | 5053022c | न मे दहति लाङ्गूलं कथमार्यां प्रधक्ष्यति | मूल |
4067 | 5053023a | तपसा सत्यवाक्येन अनन्यत्वाच्च भर्तरि | मूल |
4068 | 5053023c | अपि सा निर्दहेदग्निं न तामग्निः प्रधक्ष्यति | मूल |
4069 | 5053024a | स तथा चिन्तयंस्तत्र देव्या धर्मपरिग्रहम् | मूल |
4070 | 5053024c | शुश्राव हनुमान्वाक्यं चारणानां महात्मनाम् | मूल |
4071 | 5053025a | अहो खलु कृतं कर्म दुर्विषह्यं हनूमता | मूल |
4072 | 5053025c | अग्निं विसृजताभीक्ष्णं भीमं राक्षससद्मनि | मूल |
4073 | 5053026a | दग्धेयं नगरी लङ्का साट्टप्राकारतोरणा | मूल |
4074 | 5053026c | जानकी न च दग्धेति विस्मयोऽद्भुत एव नः | मूल |
4075 | 5053027a | स निमित्तैश्च दृष्टार्थैः कारणैश्च महागुणैः | मूल |
4076 | 5053027c | ऋषिवाक्यैश्च हनुमानभवत्प्रीतमानसः | मूल |
4077 | 5053028a | ततः कपिः प्राप्तमनोरथार्थ;स्तामक्षतां राजसुतां विदित्वा | मूल |
4078 | 5053028c | प्रत्यक्षतस्तां पुनरेव दृष्ट्वा; प्रतिप्रयाणाय मतिं चकार | मूल |
4079 | 5054001a | ततस्तु शिंशपामूले जानकीं पर्यवस्थिताम् | मूल |
4080 | 5054001c | अभिवाद्याब्रवीद्दिष्ट्या पश्यामि त्वामिहाक्षताम् | मूल |
4081 | 5054002a | ततस्तं प्रस्थितं सीता वीक्षमाणा पुनः पुनः | मूल |
4082 | 5054002c | भर्तृस्नेहान्वितं वाक्यं हनूमन्तमभाषत | मूल |
4083 | 5054003a | काममस्य त्वमेवैकः कार्यस्य परिसाधने | मूल |
4084 | 5054003c | पर्याप्तः परवीरघ्न यशस्यस्ते बलोदयः | मूल |
4085 | 5054004a | बलैस्तु संकुलां कृत्वा लङ्कां परबलार्दनः | मूल |
4086 | 5054004c | मां नयेद्यदि काकुत्स्थस्तस्य तत्सादृशं भवेत् | मूल |
4087 | 5054005a | तद्यथा तस्य विक्रान्तमनुरूपं महात्मनः | मूल |
4088 | 5054005c | भवत्याहवशूरस्य तत्त्वमेवोपपादय | मूल |
4089 | 5054006a | तदर्थोपहितं वाक्यं प्रश्रितं हेतुसंहितम् | मूल |
4090 | 5054006c | निशम्य हनुमांस्तस्या वाक्यमुत्तरमब्रवीत् | मूल |
4091 | 5054007a | क्षिप्रमेष्यति काकुत्स्थो हर्यृक्षप्रवरैर्वृतः | मूल |
4092 | 5054007c | यस्ते युधि विजित्यारीञ्शोकं व्यपनयिष्यति | मूल |
4093 | 5054008a | एवमाश्वास्य वैदेहीं हनूमान्मारुतात्मजः | मूल |
4094 | 5054008c | गमनाय मतिं कृत्वा वैदेहीमभ्यवादयत् | मूल |
4095 | 5054009a | ततः स कपिशार्दूलः स्वामिसंदर्शनोत्सुकः | मूल |
4096 | 5054009c | आरुरोह गिरिश्रेष्ठमरिष्टमरिमर्दनः | मूल |
4097 | 5054010a | तुङ्गपद्मकजुष्टाभिर्नीलाभिर्वनराजिभिः | मूल |
4098 | 5054010c | सालतालाश्वकर्णैश्च वंशैश्च बहुभिर्वृतम् | मूल |
4099 | 5054011a | लतावितानैर्विततैः पुष्पवद्भिरलंकृतम् | मूल |
4100 | 5054011c | नानामृगगणाकीर्णं धातुनिष्यन्दभूषितम् | मूल |
4101 | 5054012a | बहुप्रस्रवणोपेतं शिलासंचयसंकटम् | मूल |
4102 | 5054012c | महर्षियक्षगन्धर्वकिंनरोरगसेवितम् | मूल |
4103 | 5054013a | लतापादपसंबाधं सिंहाकुलितकन्दरम् | मूल |
4104 | 5054013c | व्याघ्रसंघसमाकीर्णं स्वादुमूलफलद्रुमम् | मूल |
4105 | 5054014a | तमारुरोहातिबलः पर्वतं प्लवगोत्तमः | मूल |
4106 | 5054014c | रामदर्शनशीघ्रेण प्रहर्षेणाभिचोदितः | मूल |
4107 | 5054015a | तेन पादतलाक्रान्ता रम्येषु गिरिसानुषु | मूल |
4108 | 5054015c | सघोषाः समशीर्यन्त शिलाश्चूर्णीकृतास्ततः | मूल |
4109 | 5054016a | स तमारुह्य शैलेन्द्रं व्यवर्धत महाकपिः | मूल |
4110 | 5054016c | दक्षिणादुत्तरं पारं प्रार्थयँल्लवणाम्भसः | मूल |
4111 | 5054017a | अधिरुह्य ततो वीरः पर्वतं पवनात्मजः | मूल |
4112 | 5054017c | ददर्श सागरं भीमं मीनोरगनिषेवितम् | मूल |
4113 | 5054018a | स मारुत इवाकाशं मारुतस्यात्मसंभवः | मूल |
4114 | 5054018c | प्रपेदे हरिशार्दूलो दक्षिणादुत्तरां दिशम् | मूल |
4115 | 5054019a | स तदा पीडितस्तेन कपिना पर्वतोत्तमः | मूल |
4116 | 5054019c | ररास सह तैर्भूतैः प्राविशद्वसुधातलम् | मूल |
4117 | 5054019e | कम्पमानैश्च शिखरैः पतद्भिरपि च द्रुमैः | मूल |
4118 | 5054020a | तस्योरुवेगान्मथिताः पादपाः पुष्पशालिनः | मूल |
4119 | 5054020c | निपेतुर्भूतले रुग्णाः शक्रायुधहता इव | मूल |
4120 | 5054021a | कन्दरोदरसंस्थानां पीडितानां महौजसाम् | मूल |
4121 | 5054021c | सिंहानां निनदो भीमो नभो भिन्दन्स शुश्रुवे | मूल |
4122 | 5054022a | स्रस्तव्याविद्धवसना व्याकुलीकृतभूषणा | मूल |
4123 | 5054022c | विद्याधर्यः समुत्पेतुः सहसा धरणीधरात् | मूल |
4124 | 5054023a | अतिप्रमाणा बलिनो दीप्तजिह्वा महाविषाः | मूल |
4125 | 5054023c | निपीडितशिरोग्रीवा व्यवेष्टन्त महाहयः | मूल |
4126 | 5054024a | किंनरोरगगन्धर्वयक्षविद्याधरास्तथा | मूल |
4127 | 5054024c | पीडितं तं नगवरं त्यक्त्वा गगनमास्थिताः | मूल |
4128 | 5054025a | स च भूमिधरः श्रीमान्बलिना तेन पीडितः | मूल |
4129 | 5054025c | सवृक्षशिखरोदग्राः प्रविवेश रसातलम् | मूल |
4130 | 5054026a | दशयोजनविस्तारस्त्रिंशद्योजनमुच्छ्रितः | मूल |
4131 | 5054026c | धरण्यां समतां यातः स बभूव धराधरः | मूल |
4132 | 5055001a | सचन्द्रकुमुदं रम्यं सार्ककारण्डवं शुभम् | |
4133 | 5055001c | तिष्यश्रवणकदम्बमभ्रशैवलशाद्वलम् | |
4134 | 5055002a | पुनर्वसु महामीनं लोहिताङ्गमहाग्रहम् | |
4135 | 5055002c | ऐरावतमहाद्वीपं स्वातीहंसविलोडितम् | |
4136 | 5055003a | वातसंघातजातोर्मिं चन्द्रांशुशिशिराम्बुमत् | |
4137 | 5055003c | भुजंगयक्षगन्धर्वप्रबुद्धकमलोत्पलम् | |
4138 | 5055004a | ग्रसमान इवाकाशं ताराधिपमिवालिखन् | |
4139 | 5055004c | हरन्निव सनक्षत्रं गगनं सार्कमण्डलम् | |
4140 | 5055005a | मारुतस्यालयं श्रीमान्कपिर्व्योमचरो महान् | |
4141 | 5055005c | हनूमान्मेघजालानि विकर्षन्निव गच्छति | |
4142 | 5055006a | पाण्डुरारुणवर्णानि नीलमाञ्जिष्ठकानि च | |
4143 | 5055006c | हरितारुणवर्णानि महाभ्राणि चकाशिरे | |
4144 | 5055007a | प्रविशन्नभ्रजालानि निष्क्रमंश्च पुनः पुनः | |
4145 | 5055007c | प्रच्छन्नश्च प्रकाशश्च चन्द्रमा इव लक्ष्यते | |
4146 | 5055008a | नदन्नादेन महता मेघस्वनमहास्वनः | |
4147 | 5055008c | आजगाम महातेजाः पुनर्मध्येन सागरम् | |
4148 | 5055009a | पर्वतेन्द्रं सुनाभं च समुपस्पृश्य वीर्यवान् | |
4149 | 5055009c | ज्यामुक्त इव नाराचो महावेगोऽभ्युपागतः | |
4150 | 5055010a | स किंचिदनुसंप्राप्तः समालोक्य महागिरिम् | |
4151 | 5055010c | महेन्द्रमेघसंकाशं ननाद हरिपुंगवः | |
4152 | 5055011a | निशम्य नदतो नादं वानरास्ते समन्ततः | |
4153 | 5055011c | बभूवुरुत्सुकाः सर्वे सुहृद्दर्शनकाङ्क्षिणः | |
4154 | 5055012a | जाम्बवान्स हरिश्रेष्ठः प्रीतिसंहृष्टमानसः | |
4155 | 5055012c | उपामन्त्र्य हरीन्सर्वानिदं वचनमब्रवीत् | |
4156 | 5055013a | सर्वथा कृतकार्योऽसौ हनूमान्नात्र संशयः | |
4157 | 5055013c | न ह्यस्याकृतकार्यस्य नाद एवंविधो भवेत् | |
4158 | 5055014a | तस्या बाहूरुवेगं च निनादं च महात्मनः | |
4159 | 5055014c | निशम्य हरयो हृष्टाः समुत्पेतुस्ततस्ततः | |
4160 | 5055015a | ते नगाग्रान्नगाग्राणि शिखराच्छिखराणि च | |
4161 | 5055015c | प्रहृष्टाः समपद्यन्त हनूमन्तं दिदृक्षवः | |
4162 | 5055016a | ते प्रीताः पादपाग्रेषु गृह्य शाखाः सुपुष्पिताः | |
4163 | 5055016c | वासांसीव प्रकाशानि समाविध्यन्त वानराः | |
4164 | 5055017a | तमभ्रघनसंकाशमापतन्तं महाकपिम् | |
4165 | 5055017c | दृष्ट्वा ते वानराः सर्वे तस्थुः प्राञ्जलयस्तदा | |
4166 | 5055018a | ततस्तु वेगवांस्तस्य गिरेर्गिरिनिभः कपिः | |
4167 | 5055018c | निपपात महेन्द्रस्य शिखरे पादपाकुले | |
4168 | 5055019a | ततस्ते प्रीतमनसः सर्वे वानरपुंगवाः | |
4169 | 5055019c | हनूमन्तं महात्मानं परिवार्योपतस्थिरे | |
4170 | 5055020a | परिवार्य च ते सर्वे परां प्रीतिमुपागताः | |
4171 | 5055020c | प्रहृष्टवदनाः सर्वे तमरोगमुपागतम् | |
4172 | 5055021a | उपायनानि चादाय मूलानि च फलानि च | |
4173 | 5055021c | प्रत्यर्चयन्हरिश्रेष्ठं हरयो मारुतात्मजम् | |
4174 | 5055022a | विनेदुर्मुदिताः केचिच्चक्रुः किल किलां तथा | |
4175 | 5055022c | हृष्टाः पादपशाखाश्च आनिन्युर्वानरर्षभाः | |
4176 | 5055023a | हनूमांस्तु गुरून्वृद्धाञ्जाम्बवत्प्रमुखांस्तदा | |
4177 | 5055023c | कुमारमङ्गदं चैव सोऽवन्दत महाकपिः | |
4178 | 5055024a | स ताभ्यां पूजितः पूज्यः कपिभिश्च प्रसादितः | |
4179 | 5055024c | दृष्टा देवीति विक्रान्तः संक्षेपेण न्यवेदयत् | |
4180 | 5055025a | निषसाद च हस्तेन गृहीत्वा वालिनः सुतम् | |
4181 | 5055025c | रमणीये वनोद्देशे महेन्द्रस्य गिरेस्तदा | |
4182 | 5055026a | हनूमानब्रवीद्धृष्टस्तदा तान्वानरर्षभान् | |
4183 | 5055026c | अशोकवनिकासंस्था दृष्टा सा जनकात्मजा | |
4184 | 5055027a | रक्ष्यमाणा सुघोराभी राक्षसीभिरनिन्दिता | |
4185 | 5055027c | एकवेणीधरा बाला रामदर्शनलालसा | |
4186 | 5055027e | उपवासपरिश्रान्ता मलिना जटिला कृशा | |
4187 | 5055028a | ततो दृष्टेति वचनं महार्थममृतोपमम् | |
4188 | 5055028c | निशम्य मारुतेः सर्वे मुदिता वानरा भवन् | |
4189 | 5055029a | क्ष्वेडन्त्यन्ये नदन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये महाबलाः | |
4190 | 5055029c | चक्रुः किल किलामन्ये प्रतिगर्जन्ति चापरे | |
4191 | 5055030a | केचिदुच्छ्रितलाङ्गूलाः प्रहृष्टाः कपिकुञ्जराः | |
4192 | 5055030c | अञ्चितायतदीर्घाणि लाङ्गूलानि प्रविव्यधुः | |
4193 | 5055031a | अपरे तु हनूमन्तं वानरा वारणोपमम् | |
4194 | 5055031c | आप्लुत्य गिरिशृङ्गेभ्यः संस्पृशन्ति स्म हर्षिताः | |
4195 | 5055032a | उक्तवाक्यं हनूमन्तमङ्गदस्तु तदाब्रवीत् | |
4196 | 5055032c | सर्वेषां हरिवीराणां मध्ये वाचमनुत्तमाम् | |
4197 | 5055033a | सत्त्वे वीर्ये न ते कश्चित्समो वानरविद्यते | |
4198 | 5055033c | यदवप्लुत्य विस्तीर्णं सागरं पुनरागतः | |
4199 | 5055034a | दिष्ट्या दृष्टा त्वया देवी रामपत्नी यशस्विनी | |
4200 | 5055034c | दिष्ट्या त्यक्ष्यति काकुत्स्थः शोकं सीता वियोगजम् | |
4201 | 5055035a | ततोऽङ्गदं हनूमन्तं जाम्बवन्तं च वानराः | |
4202 | 5055035c | परिवार्य प्रमुदिता भेजिरे विपुलाः शिलाः | |
4203 | 5055036a | श्रोतुकामाः समुद्रस्य लङ्घनं वानरोत्तमाः | |
4204 | 5055036c | दर्शनं चापि लङ्कायाः सीताया रावणस्य च | |
4205 | 5055036e | तस्थुः प्राञ्जलयः सर्वे हनूमद्वदनोन्मुखाः | |
4206 | 5055037a | तस्थौ तत्राङ्गदः श्रीमान्वानरैर्बहुभिर्वृतः | |
4207 | 5055037c | उपास्यमानो विबुधैर्दिवि देवपतिर्यथा | |
4208 | 5055038a | हनूमता कीर्तिमता यशस्विना; तथाङ्गदेनाङ्गदबद्धबाहुना | |
4209 | 5055038c | मुदा तदाध्यासितमुन्नतं मह;न्महीधराग्रं ज्वलितं श्रियाभवत् | |
4210 | 5056001a | ततस्तस्य गिरेः शृङ्गे महेन्द्रस्य महाबलाः | |
4211 | 5056001c | हनुमत्प्रमुखाः प्रीतिं हरयो जग्मुरुत्तमाम् | |
4212 | 5056002a | तं ततः प्रतिसंहृष्टः प्रीतिमन्तं महाकपिम् | |
4213 | 5056002c | जाम्बवान्कार्यवृत्तान्तमपृच्छदनिलात्मजम् | |
4214 | 5056003a | कथं दृष्टा त्वया देवी कथं वा तत्र वर्तते | |
4215 | 5056003c | तस्यां वा स कथं वृत्तः क्रूरकर्मा दशाननः | |
4216 | 5056004a | तत्त्वतः सर्वमेतन्नः प्रब्रूहि त्वं महाकपे | |
4217 | 5056004c | श्रुतार्थाश्चिन्तयिष्यामो भूयः कार्यविनिश्चयम् | |
4218 | 5056005a | यश्चार्थस्तत्र वक्तव्यो गतैरस्माभिरात्मवान् | |
4219 | 5056005c | रक्षितव्यं च यत्तत्र तद्भवान्व्याकरोतु नः | |
4220 | 5056006a | स नियुक्तस्ततस्तेन संप्रहृष्टतनूरुहः | |
4221 | 5056006c | नमस्यञ्शिरसा देव्यै सीतायै प्रत्यभाषत | |
4222 | 5056007a | प्रत्यक्षमेव भवतां महेन्द्राग्रात्खमाप्लुतः | |
4223 | 5056007c | उदधेर्दक्षिणं पारं काङ्क्षमाणः समाहितः | |
4224 | 5056008a | गच्छतश्च हि मे घोरं विघ्नरूपमिवाभवत् | |
4225 | 5056008c | काञ्चनं शिखरं दिव्यं पश्यामि सुमनोहरम् | |
4226 | 5056009a | स्थितं पन्थानमावृत्य मेने विघ्नं च तं नगम् | |
4227 | 5056010a | उपसंगम्य तं दिव्यं काञ्चनं नगसत्तमम् | |
4228 | 5056010c | कृता मे मनसा बुद्धिर्भेत्तव्योऽयं मयेति च | |
4229 | 5056011a | प्रहतं च मया तस्य लाङ्गूलेन महागिरेः | |
4230 | 5056011c | शिखरं सूर्यसंकाशं व्यशीर्यत सहस्रधा | |
4231 | 5056012a | व्यवसायं च मे बुद्ध्वा स होवाच महागिरिः | |
4232 | 5056012c | पुत्रेति मधुरां बाणीं मनःप्रह्लादयन्निव | |
4233 | 5056013a | पितृव्यं चापि मां विद्धि सखायं मातरिश्वनः | |
4234 | 5056013c | मैनाकमिति विख्यातं निवसन्तं महोदधौ | |
4235 | 5056014a | पक्ष्ववन्तः पुरा पुत्र बभूवुः पर्वतोत्तमाः | |
4236 | 5056014c | छन्दतः पृथिवीं चेरुर्बाधमानाः समन्ततः | |
4237 | 5056015a | श्रुत्वा नगानां चरितं महेन्द्रः पाकशासनः | |
4238 | 5056015c | चिच्छेद भगवान्पक्षान्वज्रेणैषां सहस्रशः | |
4239 | 5056016a | अहं तु मोक्षितस्तस्मात्तव पित्रा महात्मना | |
4240 | 5056016c | मारुतेन तदा वत्स प्रक्षिप्तोऽस्मि महार्णवे | |
4241 | 5056017a | रामस्य च मया साह्ये वर्तितव्यमरिंदम | |
4242 | 5056017c | रामो धर्मभृतां श्रेष्ठो महेन्द्रसमविक्रमः | |
4243 | 5056018a | एतच्छ्रुत्वा मया तस्य मैनाकस्य महात्मनः | |
4244 | 5056018c | कार्यमावेद्य तु गिरेरुद्धतं च मनो मम | |
4245 | 5056019a | तेन चाहमनुज्ञातो मैनाकेन महात्मना | |
4246 | 5056019c | उत्तमं जवमास्थाय शेषमध्वानमास्थितः | |
4247 | 5056020a | ततोऽहं सुचिरं कालं वेगेनाभ्यगमं पथि | |
4248 | 5056020c | ततः पश्याम्यहं देवीं सुरसां नागमातरम् | |
4249 | 5056021a | समुद्रमध्ये सा देवी वचनं मामभाषत | |
4250 | 5056021c | मम भक्ष्यः प्रदिष्टस्त्वममारैर्हरिसत्तमम् | |
4251 | 5056021e | ततस्त्वां भक्षयिष्यामि विहितस्त्वं चिरस्य मे | |
4252 | 5056022a | एवमुक्तः सुरसया प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः | |
4253 | 5056022c | विवर्णवदनो भूत्वा वाक्यं चेदमुदीरयम् | |
4254 | 5056023a | रामो दाशरथिः श्रीमान्प्रविष्टो दण्डकावनम् | |
4255 | 5056023c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया च परंतपः | |
4256 | 5056024a | तस्य सीता हृता भार्या रावणेन दुरात्मना | |
4257 | 5056024c | तस्याः सकाशं दूतोऽहं गमिष्ये रामशासनात् | |
4258 | 5056025a | कर्तुमर्हसि रामस्य साह्यं विषयवासिनि | |
4259 | 5056026a | अथ वा मैथिलीं दृष्ट्वा रामं चाक्लिष्टकारिणम् | |
4260 | 5056026c | आगमिष्यामि ते वक्त्रं सत्यं प्रतिशृणोति मे | |
4261 | 5056027a | एवमुक्ता मया सा तु सुरसा कामरूपिणी | |
4262 | 5056027c | अब्रवीन्नातिवर्तेत कश्चिदेष वरो मम | |
4263 | 5056028a | एवमुक्तः सुरसया दशयोजनमायतः | |
4264 | 5056028c | ततोऽर्धगुणविस्तारो बभूवाहं क्षणेन तु | |
4265 | 5056029a | मत्प्रमाणानुरूपं च व्यादितं तन्मुखं तया | |
4266 | 5056029c | तद्दृष्ट्वा व्यादितं त्वास्यं ह्रस्वं ह्यकरवं वपुः | |
4267 | 5056030a | तस्मिन्मुहूर्ते च पुनर्बभूवाङ्गुष्ठसंमितः | |
4268 | 5056030c | अभिपत्याशु तद्वक्त्रं निर्गतोऽहं ततः क्षणात् | |
4269 | 5056031a | अब्रवीत्सुरसा देवी स्वेन रूपेण मां पुनः | |
4270 | 5056031c | अर्थसिद्ध्यै हरिश्रेष्ठ गच्छ सौम्य यथासुखम् | |
4271 | 5056032a | समानय च वैदेहीं राघवेण महात्मना | |
4272 | 5056032c | सुखी भव महाबाहो प्रीतास्मि तव वानर | |
4273 | 5056033a | ततोऽहं साधु साध्वीति सर्वभूतैः प्रशंसितः | |
4274 | 5056033c | ततोऽन्तरिक्षं विपुलं प्लुतोऽहं गरुडो यथा | |
4275 | 5056034a | छाया मे निगृहीता च न च पश्यामि किंचन | |
4276 | 5056034c | सोऽहं विगतवेगस्तु दिशो दश विलोकयन् | |
4277 | 5056034e | न किंचित्तत्र पश्यामि येन मेऽपहृता गतिः | |
4278 | 5056035a | ततो मे बुद्धिरुत्पन्ना किं नाम गमने मम | |
4279 | 5056035c | ईदृशो विघ्न उत्पन्नो रूपं यत्र न दृश्यते | |
4280 | 5056036a | अधो भागेन मे दृष्टिः शोचता पातिता मया | |
4281 | 5056036c | ततोऽद्राक्षमहं भीमां राक्षसीं सलिले शयाम् | |
4282 | 5056037a | प्रहस्य च महानादमुक्तोऽहं भीमया तया | |
4283 | 5056037c | अवस्थितमसंभ्रान्तमिदं वाक्यमशोभनम् | |
4284 | 5056038a | क्वासि गन्ता महाकाय क्षुधिताया ममेप्सितः | |
4285 | 5056038c | भक्षः प्रीणय मे देहं चिरमाहारवर्जितम् | |
4286 | 5056039a | बाढमित्येव तां वाणीं प्रत्यगृह्णामहं ततः | |
4287 | 5056039c | आस्य प्रमाणादधिकं तस्याः कायमपूरयम् | |
4288 | 5056040a | तस्याश्चास्यं महद्भीमं वर्धते मम भक्षणे | |
4289 | 5056040c | न च मां सा तु बुबुधे मम वा विकृतं कृतम् | |
4290 | 5056041a | ततोऽहं विपुलं रूपं संक्षिप्य निमिषान्तरात् | |
4291 | 5056041c | तस्या हृदयमादाय प्रपतामि नभस्तलम् | |
4292 | 5056042a | सा विसृष्टभुजा भीमा पपात लवणाम्भसि | |
4293 | 5056042c | मया पर्वतसंकाशा निकृत्तहृदया सती | |
4294 | 5056043a | शृणोमि खगतानां च सिद्धानां चारणैः सह | |
4295 | 5056043c | राक्षसी सिंहिका भीमा क्षिप्रं हनुमता हृता | |
4296 | 5056044a | तां हत्वा पुनरेवाहं कृत्यमात्ययिकं स्मरन् | |
4297 | 5056044c | गत्वा च महदध्वानं पश्यामि नगमण्डितम् | |
4298 | 5056044e | दक्षिणं तीरमुदधेर्लङ्का यत्र च सा पुरी | |
4299 | 5056045a | अस्तं दिनकरे याते रक्षसां निलयं पुरीम् | |
4300 | 5056045c | प्रविष्टोऽहमविज्ञातो रक्षोभिर्भीमविक्रमैः | |
4301 | 5056046a | तत्राहं सर्वरात्रं तु विचिन्वञ्जनकात्मजाम् | |
4302 | 5056046c | रावणान्तःपुरगतो न चापश्यं सुमध्यमाम् | |
4303 | 5056047a | ततः सीतामपश्यंस्तु रावणस्य निवेशने | |
4304 | 5056047c | शोकसागरमासाद्य न पारमुपलक्षये | |
4305 | 5056048a | शोचता च मया दृष्टं प्राकारेण समावृतम् | |
4306 | 5056048c | काञ्चनेन विकृष्टेन गृहोपवनमुत्तमम् | |
4307 | 5056049a | स प्राकारमवप्लुत्य पश्यामि बहुपादपम् | |
4308 | 5056050a | अशोकवनिकामध्ये शिंशपापादपो महान् | |
4309 | 5056050c | तमारुह्य च पश्यामि काञ्चनं कदली वनम् | |
4310 | 5056051a | अदूराच्छिंशपावृक्षात्पश्यामि वनवर्णिनीम् | |
4311 | 5056051c | श्यामां कमलपत्राक्षीमुपवासकृशाननाम् | |
4312 | 5056052a | राक्षसीभिर्विरूपाभिः क्रूराभिरभिसंवृताम् | |
4313 | 5056052c | मांसशोणितभक्ष्याभिर्व्याघ्रीभिर्हरिणीं यथा | |
4314 | 5056053a | तां दृष्ट्वा तादृशीं नारीं रामपत्नीमनिन्दिताम् | |
4315 | 5056053c | तत्रैव शिंशपावृक्षे पश्यन्नहमवस्थितः | |
4316 | 5056054a | ततो हलहलाशब्दं काञ्चीनूपुरमिश्रितम् | |
4317 | 5056054c | शृणोम्यधिकगम्भीरं रावणस्य निवेशने | |
4318 | 5056055a | ततोऽहं परमोद्विग्नः स्वरूपं प्रत्यसंहरम् | |
4319 | 5056055c | अहं च शिंशपावृक्षे पक्षीव गहने स्थितः | |
4320 | 5056056a | ततो रावणदाराश्च रावणश्च महाबलः | |
4321 | 5056056c | तं देशं समनुप्राप्ता यत्र सीताभवत्स्थिता | |
4322 | 5056057a | तं दृष्ट्वाथ वरारोहा सीता रक्षोगणेश्वरम् | |
4323 | 5056057c | संकुच्योरू स्तनौ पीनौ बाहुभ्यां परिरभ्य च | |
4324 | 5056058a | तामुवाच दशग्रीवः सीतां परमदुःखिताम् | |
4325 | 5056058c | अवाक्शिराः प्रपतितो बहु मन्यस्व मामिति | |
4326 | 5056059a | यदि चेत्त्वं तु मां दर्पान्नाभिनन्दसि गर्विते | |
4327 | 5056059c | द्विमासानन्तरं सीते पास्यामि रुधिरं तव | |
4328 | 5056060a | एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य रावणस्य दुरात्मनः | |
4329 | 5056060c | उवाच परमक्रुद्धा सीता वचनमुत्तमम् | |
4330 | 5056061a | राक्षसाधम रामस्य भार्याममिततेजसः | |
4331 | 5056061c | इक्ष्वाकुकुलनाथस्य स्नुषां दशरथस्य च | |
4332 | 5056061e | अवाच्यं वदतो जिह्वा कथं न पतिता तव | |
4333 | 5056062a | किंस्विद्वीर्यं तवानार्य यो मां भर्तुरसंनिधौ | |
4334 | 5056062c | अपहृत्यागतः पाप तेनादृष्टो महात्मना | |
4335 | 5056063a | न त्वं रामस्य सदृशो दास्येऽप्यस्या न युज्यसे | |
4336 | 5056063c | यज्ञीयः सत्यवाक्चैव रणश्लाघी च राघवः | |
4337 | 5056064a | जानक्या परुषं वाक्यमेवमुक्तो दशाननः | |
4338 | 5056064c | जज्वाल सहसा कोपाच्चितास्थ इव पावकः | |
4339 | 5056065a | विवृत्य नयने क्रूरे मुष्टिमुद्यम्य दक्षिणम् | |
4340 | 5056065c | मैथिलीं हन्तुमारब्धः स्त्रीभिर्हाहाकृतं तदा | |
4341 | 5056066a | स्त्रीणां मध्यात्समुत्पत्य तस्य भार्या दुरात्मनः | |
4342 | 5056066c | वरा मन्दोदरी नाम तया स प्रतिषेधितः | |
4343 | 5056067a | उक्तश्च मधुरां वाणीं तया स मदनार्दितः | |
4344 | 5056067c | सीतया तव किं कार्यं महेन्द्रसमविक्रम | |
4345 | 5056067e | मया सह रमस्वाद्य मद्विशिष्टा न जानकी | |
4346 | 5056068a | देवगन्धर्वकन्याभिर्यक्षकन्याभिरेव च | |
4347 | 5056068c | सार्धं प्रभो रमस्वेह सीतया किं करिष्यसि | |
4348 | 5056069a | ततस्ताभिः समेताभिर्नारीभिः स महाबलः | |
4349 | 5056069c | उत्थाप्य सहसा नीतो भवनं स्वं निशाचरः | |
4350 | 5056070a | याते तस्मिन्दशग्रीवे राक्षस्यो विकृताननाः | |
4351 | 5056070c | सीतां निर्भर्त्सयामासुर्वाक्यैः क्रूरैः सुदारुणैः | |
4352 | 5056071a | तृणवद्भाषितं तासां गणयामास जानकी | |
4353 | 5056071c | तर्जितं च तदा तासां सीतां प्राप्य निरर्थकम् | |
4354 | 5056072a | वृथागर्जितनिश्चेष्टा राक्षस्यः पिशिताशनाः | |
4355 | 5056072c | रावणाय शशंसुस्ताः सीताव्यवसितं महत् | |
4356 | 5056073a | ततस्ताः सहिताः सर्वा विहताशा निरुद्यमाः | |
4357 | 5056073c | परिक्षिप्य समन्तात्तां निद्रावशमुपागताः | |
4358 | 5056074a | तासु चैव प्रसुप्तासु सीता भर्तृहिते रता | |
4359 | 5056074c | विलप्य करुणं दीना प्रशुशोच सुदुःखिता | |
4360 | 5056075a | तां चाहं तादृशीं दृष्ट्वा सीताया दारुणां दशाम् | |
4361 | 5056075c | चिन्तयामास विश्रान्तो न च मे निर्वृतं मनः | |
4362 | 5056076a | संभाषणार्थे च मया जानक्याश्चिन्तितो विधिः | |
4363 | 5056076c | इक्ष्वाकुकुलवंशस्तु ततो मम पुरस्कृतः | |
4364 | 5056077a | श्रुत्वा तु गदितां वाचं राजर्षिगणपूजिताम् | |
4365 | 5056077c | प्रत्यभाषत मां देवी बाष्पैः पिहितलोचना | |
4366 | 5056078a | कस्त्वं केन कथं चेह प्राप्तो वानरपुंगव | |
4367 | 5056078c | का च रामेण ते प्रीतिस्तन्मे शंसितुमर्हसि | |
4368 | 5056079a | तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा अहमप्यब्रुवं वचः | |
4369 | 5056079c | देवि रामस्य भर्तुस्ते सहायो भीमविक्रमः | |
4370 | 5056079e | सुग्रीवो नाम विक्रान्तो वानरेन्दो महाबलः | |
4371 | 5056080a | तस्य मां विद्धि भृत्यं त्वं हनूमन्तमिहागतम् | |
4372 | 5056080c | भर्त्राहं प्रहितस्तुभ्यं रामेणाक्लिष्टकर्मणा | |
4373 | 5056081a | इदं च पुरुषव्याघ्रः श्रीमान्दाशरथिः स्वयम् | |
4374 | 5056081c | अङ्गुलीयमभिज्ञानमदात्तुभ्यं यशस्विनि | |
4375 | 5056082a | तदिच्छामि त्वयाज्ञप्तं देवि किं करवाण्यहम् | |
4376 | 5056082c | रामलक्ष्मणयोः पार्श्वं नयामि त्वां किमुत्तरम् | |
4377 | 5056083a | एतच्छ्रुत्वा विदित्वा च सीता जनकनन्दिनी | |
4378 | 5056083c | आह रावणमुत्साद्य राघवो मां नयत्विति | |
4379 | 5056084a | प्रणम्य शिरसा देवीमहमार्यामनिन्दिताम् | |
4380 | 5056084c | राघवस्य मनोह्लादमभिज्ञानमयाचिषम् | |
4381 | 5056085a | एवमुक्ता वरारोहा मणिप्रवरमुत्तमम् | |
4382 | 5056085c | प्रायच्छत्परमोद्विग्ना वाचा मां संदिदेश ह | |
4383 | 5056086a | ततस्तस्यै प्रणम्याहं राजपुत्र्यै समाहितः | |
4384 | 5056086c | प्रदक्षिणं परिक्राममिहाभ्युद्गतमानसः | |
4385 | 5056087a | उत्तरं पुनरेवाह निश्चित्य मनसा तदा | |
4386 | 5056087c | हनूमन्मम वृत्तान्तं वक्तुमर्हसि राघवे | |
4387 | 5056088a | यथा श्रुत्वैव नचिरात्तावुभौ रामलक्ष्मणौ | |
4388 | 5056088c | सुग्रीवसहितौ वीरावुपेयातां तथा कुरु | |
4389 | 5056089a | यद्यन्यथा भवेदेतद्द्वौ मासौ जीवितं मम | |
4390 | 5056089c | न मां द्रक्ष्यति काकुत्स्थो म्रिये साहमनाथवत् | |
4391 | 5056090a | तच्छ्रुत्वा करुणं वाक्यं क्रोधो मामभ्यवर्तत | |
4392 | 5056090c | उत्तरं च मया दृष्टं कार्यशेषमनन्तरम् | |
4393 | 5056091a | ततोऽवर्धत मे कायस्तदा पर्वतसंनिभः | |
4394 | 5056091c | युद्धकाङ्क्षी वनं तच्च विनाशयितुमारभे | |
4395 | 5056092a | तद्भग्नं वनषण्डं तु भ्रान्तत्रस्तमृगद्विजम् | |
4396 | 5056092c | प्रतिबुद्धा निरीक्षन्ते राक्षस्यो विकृताननाः | |
4397 | 5056093a | मां च दृष्ट्वा वने तस्मिन्समागम्य ततस्ततः | |
4398 | 5056093c | ताः समभ्यागताः क्षिप्रं रावणायाचचक्षिरे | |
4399 | 5056094a | राजन्वनमिदं दुर्गं तव भग्नं दुरात्मना | |
4400 | 5056094c | वानरेण ह्यविज्ञाय तव वीर्यं महाबल | |
4401 | 5056095a | दुर्बुद्धेस्तस्य राजेन्द्र तव विप्रियकारिणः | |
4402 | 5056095c | वधमाज्ञापय क्षिप्रं यथासौ विलयं व्रजेत् | |
4403 | 5056096a | तच्छ्रुत्वा राक्षसेन्द्रेण विसृष्टा भृशदुर्जयाः | |
4404 | 5056096c | राक्षसाः किंकरा नाम रावणस्य मनोऽनुगाः | |
4405 | 5056097a | तेषामशीतिसाहस्रं शूलमुद्गरपाणिनाम् | |
4406 | 5056097c | मया तस्मिन्वनोद्देशे परिघेण निषूदितम् | |
4407 | 5056098a | तेषां तु हतशेषा ये ते गता लघुविक्रमाः | |
4408 | 5056098c | निहतं च मया सैन्यं रावणायाचचक्षिरे | |
4409 | 5056099a | ततो मे बुद्धिरुत्पन्ना चैत्यप्रासादमाक्रमम् | |
4410 | 5056100a | तत्रस्थान्राक्षसान्हत्वा शतं स्तम्भेन वै पुनः | |
4411 | 5056100c | ललाम भूतो लङ्काया मया विध्वंसितो रुषा | |
4412 | 5056101a | ततः प्रहस्तस्य सुतं जम्बुमालिनमादिशत् | |
4413 | 5056102a | तमहं बलसंपन्नं राक्षसं रणकोविदम् | |
4414 | 5056102c | परिघेणातिघोरेण सूदयामि सहानुगम् | |
4415 | 5056103a | तच्छ्रुत्वा राक्षसेन्द्रस्तु मन्त्रिपुत्रान्महाबलान् | |
4416 | 5056103c | पदातिबलसंपन्नान्प्रेषयामास रावणः | |
4417 | 5056103e | परिघेणैव तान्सर्वान्नयामि यमसादनम् | |
4418 | 5056104a | मन्त्रिपुत्रान्हताञ्श्रुत्वा समरे लघुविक्रमान् | |
4419 | 5056104c | पञ्चसेनाग्रगाञ्शूरान्प्रेषयामास रावणः | |
4420 | 5056104e | तानहं सह सैन्यान्वै सर्वानेवाभ्यसूदयम् | |
4421 | 5056105a | ततः पुनर्दशग्रीवः पुत्रमक्षं महाबलम् | |
4422 | 5056105c | बहुभी राकसैः सार्धं प्रेषयामास संयुगे | |
4423 | 5056106a | तं तु मन्दोदरी पुत्रं कुमारं रणपण्डितम् | |
4424 | 5056106c | सहसा खं समुत्क्रान्तं पादयोश्च गृहीतवान् | |
4425 | 5056106e | चर्मासिनं शतगुणं भ्रामयित्वा व्यपेषयम् | |
4426 | 5056107a | तमक्षमागतं भग्नं निशम्य स दशाननः | |
4427 | 5056107c | तत इन्द्रजितं नाम द्वितीयं रावणः सुतम् | |
4428 | 5056107e | व्यादिदेश सुसंक्रुद्धो बलिनं युद्धदुर्मदम् | |
4429 | 5056108a | तस्याप्यहं बलं सर्वं तं च राक्षसपुंगवम् | |
4430 | 5056108c | नष्टौजसं रणे कृत्वा परं हर्षमुपागमम् | |
4431 | 5056109a | महता हि महाबाहुः प्रत्ययेन महाबलः | |
4432 | 5056109c | प्रेषितो रावणेनैष सह वीरैर्मदोत्कटैः | |
4433 | 5056110a | ब्राह्मेणास्त्रेण स तु मां प्रबध्नाच्चातिवेगतः | |
4434 | 5056110c | रज्जूभिरभिबध्नन्ति ततो मां तत्र राक्षसाः | |
4435 | 5056111a | रावणस्य समीपं च गृहीत्वा मामुपानयन् | |
4436 | 5056111c | दृष्ट्वा संभाषितश्चाहं रावणेन दुरात्मना | |
4437 | 5056112a | पृष्टश्च लङ्कागमनं राक्षसानां च तद्वधम् | |
4438 | 5056112c | तत्सर्वं च मया तत्र सीतार्थमिति जल्पितम् | |
4439 | 5056113a | अस्याहं दर्शनाकाङ्क्षी प्राप्तस्त्वद्भवनं विभो | |
4440 | 5056113c | मारुतस्यौरसः पुत्रो वानरो हनुमानहम् | |
4441 | 5056114a | रामदूतं च मां विद्धि सुग्रीवसचिवं कपिम् | |
4442 | 5056114c | सोऽहं दौत्येन रामस्य त्वत्समीपमिहागतः | |
4443 | 5056115a | शृणु चापि समादेशं यदहं प्रब्रवीमि ते | |
4444 | 5056115c | राक्षसेश हरीशस्त्वां वाक्यमाह समाहितम् | |
4445 | 5056115e | धर्मार्थकामसहितं हितं पथ्यमिवाशनम् | |
4446 | 5056116a | वसतो ऋष्यमूके मे पर्वते विपुलद्रुमे | |
4447 | 5056116c | राघवो रणविक्रान्तो मित्रत्वं समुपागतः | |
4448 | 5056117a | तेन मे कथितं राजन्भार्या मे रक्षसा हृता | |
4449 | 5056117c | तत्र साहाय्यहेतोर्मे समयं कर्तुमर्हसि | |
4450 | 5056118a | वालिना हृतराज्येन सुग्रीवेण सह प्रभुः | |
4451 | 5056118c | चक्रेऽग्निसाक्षिकं सक्यं राघवः सहलक्ष्मणः | |
4452 | 5056119a | तेन वालिनमुत्साद्य शरेणैकेन संयुगे | |
4453 | 5056119c | वानराणां महाराजः कृतः संप्लवतां प्रभुः | |
4454 | 5056120a | तस्य साहाय्यमस्माभिः कार्यं सर्वात्मना त्विह | |
4455 | 5056120c | तेन प्रस्थापितस्तुभ्यं समीपमिह धर्मतः | |
4456 | 5056121a | क्षिप्रमानीयतां सीता दीयतां राघवस्य च | |
4457 | 5056121c | यावन्न हरयो वीरा विधमन्ति बलं तव | |
4458 | 5056122a | वानराणां प्रभवो हि न केन विदितः पुरा | |
4459 | 5056122c | देवतानां सकाशं च ये गच्छन्ति निमन्त्रिताः | |
4460 | 5056123a | इति वानरराजस्त्वामाहेत्यभिहितो मया | |
4461 | 5056123c | मामैक्षत ततो रुष्टश्चक्षुषा प्रदहन्निव | |
4462 | 5056124a | तेन वध्योऽहमाज्ञप्तो रक्षसा रौद्रकर्मणा | |
4463 | 5056125a | ततो विभीषणो नाम तस्य भ्राता महामतिः | |
4464 | 5056125c | तेन राक्षसराजोऽसौ याचितो मम कारणात् | |
4465 | 5056126a | दूतवध्या न दृष्टा हि राजशास्त्रेषु राक्षस | |
4466 | 5056126c | दूतेन वेदितव्यं च यथार्थं हितवादिना | |
4467 | 5056127a | सुमहत्यपराधेऽपि दूतस्यातुलविक्रमः | |
4468 | 5056127c | विरूपकरणं दृष्टं न वधोऽस्तीह शास्त्रतः | |
4469 | 5056128a | विभीषणेनैवमुक्तो रावणः संदिदेश तान् | |
4470 | 5056128c | राक्षसानेतदेवाद्य लाङ्गूलं दह्यतामिति | |
4471 | 5056129a | ततस्तस्य वचः श्रुत्वा मम पुच्छं समन्ततः | |
4472 | 5056129c | वेष्टितं शणवल्कैश्च पटैः कार्पासकैस्तथा | |
4473 | 5056130a | राक्षसाः सिद्धसंनाहास्ततस्ते चण्डविक्रमाः | |
4474 | 5056130c | तदादीप्यन्त मे पुच्छं हनन्तः काष्ठमुष्टिभिः | |
4475 | 5056131a | बद्धस्य बहुभिः पाशैर्यन्त्रितस्य च राक्षसैः | |
4476 | 5056131c | न मे पीडा भवेत्काचिद्दिदृक्षोर्नगरीं दिवा | |
4477 | 5056132a | ततस्ते राक्षसाः शूरा बद्धं मामग्निसंवृतम् | |
4478 | 5056132c | अघोषयन्राजमार्गे नगरद्वारमागताः | |
4479 | 5056133a | ततोऽहं सुमहद्रूपं संक्षिप्य पुनरात्मनः | |
4480 | 5056133c | विमोचयित्वा तं बन्धं प्रकृतिष्ठः स्थितः पुनः | |
4481 | 5056134a | आयसं परिघं गृह्य तानि रक्षांस्यसूदयम् | |
4482 | 5056134c | ततस्तन्नगरद्वारं वेगेनाप्लुतवानहम् | |
4483 | 5056135a | पुच्छेन च प्रदीप्तेन तां पुरीं साट्टगोपुराम् | |
4484 | 5056135c | दहाम्यहमसंभ्रान्तो युगान्ताग्निरिव प्रजाः | |
4485 | 5056136a | दग्ध्वा लङ्कां पुनश्चैव शङ्का मामभ्यवर्तत | |
4486 | 5056136c | दहता च मया लङ्कां दघ्दा सीता न संशयः | |
4487 | 5056137a | अथाहं वाचमश्रौषं चारणानां शुभाक्षराम् | |
4488 | 5056137c | जानकी न च दग्धेति विस्मयोदन्तभाषिणाम् | |
4489 | 5056138a | ततो मे बुद्धिरुत्पन्ना श्रुत्वा तामद्भुतां गिरम् | |
4490 | 5056138c | पुनर्दृष्टा च वैदेही विसृष्टश्च तया पुनः | |
4491 | 5056139a | राघवस्य प्रभावेन भवतां चैव तेजसा | |
4492 | 5056139c | सुग्रीवस्य च कार्यार्थं मया सर्वमनुष्ठितम् | |
4493 | 5056140a | एतत्सर्वं मया तत्र यथावदुपपादितम् | |
4494 | 5056140c | अत्र यन्न कृतं शेषं तत्सर्वं क्रियतामिति | |
4495 | 5057001a | एतदाख्यानं तत्सर्वं हनूमान्मारुतात्मजः | |
4496 | 5057001c | भूयः समुपचक्राम वचनं वक्तुमुत्तरम् | |
4497 | 5057002a | सफलो राघवोद्योगः सुग्रीवस्य च संभ्रमः | |
4498 | 5057002c | शीलमासाद्य सीताया मम च प्लवनं महत् | |
4499 | 5057003a | आर्यायाः सदृशं शीलं सीतायाः प्लवगर्षभाः | |
4500 | 5057003c | तपसा धारयेल्लोकान्क्रुद्धा वा निर्दहेदपि | |
4501 | 5057004a | सर्वथातिप्रवृद्धोऽसौ रावणो राक्षसाधिपः | |
4502 | 5057004c | यस्य तां स्पृशतो गात्रं तपसा न विनाशितम् | |
4503 | 5057005a | न तदग्निशिखा कुर्यात्संस्पृष्टा पाणिना सती | |
4504 | 5057005c | जनकस्यात्मजा कुर्यादुत्क्रोधकलुषीकृता | |
4505 | 5057006a | अशोकवनिकामध्ये रावणस्य दुरात्मनः | |
4506 | 5057006c | अधस्ताच्छिंशपावृक्षे साध्वी करुणमास्थिता | |
4507 | 5057007a | राक्षसीभिः परिवृता शोकसंतापकर्शिता | |
4508 | 5057007c | मेघलेखापरिवृता चन्द्रलेखेव निष्प्रभा | |
4509 | 5057008a | अचिन्तयन्ती वैदेही रावणं बलदर्पितम् | |
4510 | 5057008c | पतिव्रता च सुश्रोणी अवष्टब्धा च जानकी | |
4511 | 5057009a | अनुरक्ता हि वैदेही रामं सर्वात्मना शुभा | |
4512 | 5057009c | अनन्यचित्ता रामे च पौलोमीव पुरंदरे | |
4513 | 5057010a | तदेकवासःसंवीता रजोध्वस्ता तथैव च | |
4514 | 5057010c | शोकसंतापदीनाङ्गी सीता भर्तृहिते रता | |
4515 | 5057011a | सा मया राक्षसी मध्ये तर्ज्यमाना मुहुर्मुहुः | |
4516 | 5057011c | राक्षसीभिर्विरूपाभिर्दृष्टा हि प्रमदा वने | |
4517 | 5057012a | एकवेणीधरा दीना भर्तृचिन्तापरायणा | |
4518 | 5057012c | अधःशय्या विवर्णाङ्गी पद्मिनीव हिमागमे | |
4519 | 5057013a | रावणाद्विनिवृत्तार्था मर्तव्यकृतनिश्चया | |
4520 | 5057013c | कथंचिन्मृगशावाक्षी विश्वासमुपपादिता | |
4521 | 5057014a | ततः संभाषिता चैव सर्वमर्थं च दर्शिता | |
4522 | 5057014c | रामसुग्रीवसख्यं च श्रुत्वा प्रीतिमुपागता | |
4523 | 5057015a | नियतः समुदाचारो भक्तिर्भर्तरि चोत्तमा | |
4524 | 5057016a | यन्न हन्ति दशग्रीवं स महात्मा दशाननः | |
4525 | 5057016c | निमित्तमात्रं रामस्तु वधे तस्य भविष्यति | |
4526 | 5057017a | एवमास्ते महाभागा सीता शोकपरायणा | |
4527 | 5057017c | यदत्र प्रतिकर्तव्यं तत्सर्वमुपपाद्यताम् | |
4528 | 5058001a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा वालिसूनुरभाषत | |
4529 | 5058001c | जाम्बवत्प्रमुखान्सर्वाननुज्ञाप्य महाकपीन् | |
4530 | 5058002a | अस्मिन्नेवंगते कार्ये भवतां च निवेदिते | |
4531 | 5058002c | न्याय्यं स्म सह वैदेह्या द्रष्टुं तौ पार्थिवात्मजौ | |
4532 | 5058003a | अहमेकोऽपि पर्याप्तः सराक्षसगणां पुरीम् | |
4533 | 5058003c | तां लङ्कां तरसा हन्तुं रावणं च महाबलम् | |
4534 | 5058004a | किं पुनः सहितो वीरैर्बलवद्भिः कृतात्मभिः | |
4535 | 5058004c | कृतास्त्रैः प्लवगैः शक्तैर्भवद्भिर्विजयैषिभिः | |
4536 | 5058005a | अहं तु रावणं युद्धे ससैन्यं सपुरःसरम् | |
4537 | 5058005c | सपुत्रं विधमिष्यामि सहोदरयुतं युधि | |
4538 | 5058006a | ब्राह्ममैन्द्रं च रौद्रं च वायव्यं वारुणं तथा | |
4539 | 5058006c | यदि शक्रजितोऽस्त्राणि दुर्निरीक्ष्याणि संयुगे | |
4540 | 5058006e | तान्यहं विधमिष्यामि निहनिष्यामि राक्षसान् | |
4541 | 5058007a | भवतामभ्यनुज्ञातो विक्रमो मे रुणद्धि तम् | |
4542 | 5058008a | मयातुला विसृष्टा हि शैलवृष्टिर्निरन्तरा | |
4543 | 5058008c | देवानपि रणे हन्यात्किं पुनस्तान्निशाचरान् | |
4544 | 5058009a | सागरोऽप्यतियाद्वेलां मन्दरः प्रचलेदपि | |
4545 | 5058009c | न जाम्बवन्तं समरे कम्पयेदरिवाहिनी | |
4546 | 5058010a | सर्वराक्षससंघानां राक्षसा ये च पूर्वकाः | |
4547 | 5058010c | अलमेको विनाशाय वीरो वायुसुतः कपिः | |
4548 | 5058011a | पनसस्योरुवेगेन नीलस्य च महात्मनः | |
4549 | 5058011c | मन्दरोऽप्यवशीर्येत किं पुनर्युधि राक्षसाः | |
4550 | 5058012a | सदेवासुरयुद्धेषु गन्धर्वोरगपक्षिषु | |
4551 | 5058012c | मैन्दस्य प्रतियोद्धारं शंसत द्विविदस्य वा | |
4552 | 5058013a | अश्विपुत्रौ महावेगावेतौ प्लवगसत्तमौ | |
4553 | 5058013c | पितामहवरोत्सेकात्परमं दर्पमास्थितौ | |
4554 | 5058014a | अश्विनोर्माननार्थं हि सर्वलोकपितामहः | |
4555 | 5058014c | सर्वावध्यत्वमतुलमनयोर्दत्तवान्पुरा | |
4556 | 5058015a | वरोत्सेकेन मत्तौ च प्रमथ्य महतीं चमूम् | |
4557 | 5058015c | सुराणाममृतं वीरौ पीतवन्तौ प्लवंगमौ | |
4558 | 5058016a | एतावेव हि संक्रुद्धौ सवाजिरथकुञ्जराम् | |
4559 | 5058016c | लङ्कां नाशयितुं शक्तौ सर्वे तिष्ठन्तु वानराः | |
4560 | 5058017a | अयुक्तं तु विना देवीं दृष्टबद्भिः प्लवंगमाः | |
4561 | 5058017c | समीपं गन्तुमस्माभी राघवस्य महात्मनः | |
4562 | 5058018a | दृष्टा देवी न चानीता इति तत्र निवेदनम् | |
4563 | 5058018c | अयुक्तमिव पश्यामि भवद्भिः ख्यातविक्रमैः | |
4564 | 5058019a | न हि वः प्लवते कश्चिन्नापि कश्चित्पराक्रमे | |
4565 | 5058019c | तुल्यः सामरदैत्येषु लोकेषु हरिसत्तमाः | |
4566 | 5058020a | तेष्वेवं हतवीरेषु राक्षसेषु हनूमता | |
4567 | 5058020c | किमन्यदत्र कर्तव्यं गृहीत्वा याम जानकीम् | |
4568 | 5058021a | तमेवं कृतसंकल्पं जाम्बवान्हरिसत्तमः | |
4569 | 5058021c | उवाच परमप्रीतो वाक्यमर्थवदर्थवित् | |
4570 | 5058022a | न तावदेषा मतिरक्षमा नो; यथा भवान्पश्यति राजपुत्र | |
4571 | 5058022c | यथा तु रामस्य मतिर्निविष्टा; तथा भवान्पश्यतु कार्यसिद्धिम् | |
4572 | 5059001a | ततो जाम्बवतो वाक्यमगृह्णन्त वनौकसः | |
4573 | 5059001c | अङ्गदप्रमुखा वीरा हनूमांश्च महाकपिः | |
4574 | 5059002a | प्रीतिमन्तस्ततः सर्वे वायुपुत्रपुरःसराः | |
4575 | 5059002c | महेन्द्राग्रं परित्यज्य पुप्लुवुः प्लवगर्षभाः | |
4576 | 5059003a | मेरुमन्दरसंकाशा मत्ता इव महागजाः | |
4577 | 5059003c | छादयन्त इवाकाशं महाकाया महाबलाः | |
4578 | 5059004a | सभाज्यमानं भूतैस्तमात्मवन्तं महाबलम् | |
4579 | 5059004c | हनूमन्तं महावेगं वहन्त इव दृष्टिभिः | |
4580 | 5059005a | राघवे चार्थनिर्वृत्तिं भर्तुश्च परमं यशः | |
4581 | 5059005c | समाधाय समृद्धार्थाः कर्मसिद्धिभिरुन्नताः | |
4582 | 5059006a | प्रियाख्यानोन्मुखाः सर्वे सर्वे युद्धाभिनन्दिनः | |
4583 | 5059006c | सर्वे रामप्रतीकारे निश्चितार्था मनस्विनः | |
4584 | 5059007a | प्लवमानाः खमाप्लुत्य ततस्ते काननौक्षकः | |
4585 | 5059007c | नन्दनोपममासेदुर्वनं द्रुमलतायुतम् | |
4586 | 5059008a | यत्तन्मधुवनं नाम सुग्रीवस्याभिरक्षितम् | |
4587 | 5059008c | अधृष्यं सर्वभूतानां सर्वभूतमनोहरम् | |
4588 | 5059009a | यद्रक्षति महावीर्यः सदा दधिमुखः कपिः | |
4589 | 5059009c | मातुलः कपिमुख्यस्य सुग्रीवस्य महात्मनः | |
4590 | 5059010a | ते तद्वनमुपागम्य बभूवुः परमोत्कटाः | |
4591 | 5059010c | वानरा वानरेन्द्रस्य मनःकान्ततमं महत् | |
4592 | 5059011a | ततस्ते वानरा हृष्टा दृष्ट्वा मधुवनं महत् | |
4593 | 5059011c | कुमारमभ्ययाचन्त मधूनि मधुपिङ्गलाः | |
4594 | 5059012a | ततः कुमारस्तान्वृद्धाञ्जाम्बवत्प्रमुखान्कपीन् | |
4595 | 5059012c | अनुमान्य ददौ तेषां निसर्गं मधुभक्षणे | |
4596 | 5059013a | ततश्चानुमताः सर्वे संप्रहृष्टा वनौकसः | |
4597 | 5059013c | मुदिताश्च ततस्ते च प्रनृत्यन्ति ततस्ततः | |
4598 | 5059014a | गायन्ति केचित्प्रणमन्ति के चि;न्नृत्यन्ति केचित्प्रहसन्ति केचित् | |
4599 | 5059014c | पतन्ति केचिद्विचरन्ति के चि;त्प्लवन्ति केचित्प्रलपन्ति केचित् | |
4600 | 5059015a | परस्परं केचिदुपाश्रयन्ते; परस्परं केचिदतिब्रुवन्ते | |
4601 | 5059015c | द्रुमाद्द्रुमं केचिदभिप्लवन्ते; क्षितौ नगाग्रान्निपतन्ति केचित् | |
4602 | 5059016a | महीतलात्केचिदुदीर्णवेगा; महाद्रुमाग्राण्यभिसंपतन्ते | |
4603 | 5059016c | गायन्तमन्यः प्रहसन्नुपैति; हसन्तमन्यः प्रहसन्नुपैति | |
4604 | 5059017a | रुदन्तमन्यः प्ररुदन्नुपैति; नुदन्तमन्यः प्रणुदन्नुपैति | |
4605 | 5059017c | समाकुलं तत्कपिसैन्यमासी;न्मधुप्रपानोत्कट सत्त्वचेष्टम् | |
4606 | 5059017e | न चात्र कश्चिन्न बभूव मत्तो; न चात्र कश्चिन्न बभूव तृप्तो | |
4607 | 5059018a | ततो वनं तत्परिभक्ष्यमाणं; द्रुमांश्च विध्वंसितपत्रपुष्पान् | |
4608 | 5059018c | समीक्ष्य कोपाद्दधिवक्त्रनामा; निवारयामास कपिः कपींस्तान् | |
4609 | 5059019a | स तैः प्रवृद्धैः परिभर्त्स्यमानो; वनस्य गोप्ता हरिवीरवृद्धः | |
4610 | 5059019c | चकार भूयो मतिमुग्रतेजा; वनस्य रक्षां प्रति वानरेभ्यः | |
4611 | 5059020a | उवाच कांश्चित्परुषाणि धृष्ट;मसक्तमन्यांश्च तलैर्जघान | |
4612 | 5059020c | समेत्य कैश्चित्कलहं चकार; तथैव साम्नोपजगाम कांश्चित् | |
4613 | 5059021a | स तैर्मदाच्चाप्रतिवार्य वेगै;र्बलाच्च तेनाप्रतिवार्यमाणैः | |
4614 | 5059021c | प्रधर्षितस्त्यक्तभयैः समेत्य; प्रकृष्यते चाप्यनवेक्ष्य दोषम् | |
4615 | 5059022a | नखैस्तुदन्तो दशनैर्दशन्त;स्तलैश्च पादैश्च समाप्नुवन्तः | |
4616 | 5059022c | मदात्कपिं तं कपयः समग्रा; महावनं निर्विषयं च चक्रुः | |
4617 | 5060001a | तानुवाच हरिश्रेष्ठो हनूमान्वानरर्षभः | |
4618 | 5060001c | अव्यग्रमनसो यूयं मधु सेवत वानराः | |
4619 | 5060002a | श्रुत्वा हनुमतो वाक्यं हरीणां प्रवरोऽङ्गदः | |
4620 | 5060002c | प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा पिबन्तु हरयो मधु | |
4621 | 5060003a | अवश्यं कृतकार्यस्य वाक्यं हनुमतो मया | |
4622 | 5060003c | अकार्यमपि कर्तव्यं किमङ्ग पुनरीदृशम् | |
4623 | 5060004a | अन्दगस्य मुखाच्छ्रुत्वा वचनं वानरर्षभाः | |
4624 | 5060004c | साधु साध्विति संहृष्टा वानराः प्रत्यपूजयन् | |
4625 | 5060005a | पूजयित्वाङ्गदं सर्वे वानरा वानरर्षभम् | |
4626 | 5060005c | जग्मुर्मधुवनं यत्र नदीवेग इव द्रुतम् | |
4627 | 5060006a | ते प्रहृष्टा मधुवनं पालानाक्रम्य वीर्यतः | |
4628 | 5060006c | अतिसर्गाच्च पटवो दृष्ट्वा श्रुत्वा च मैथिलीम् | |
4629 | 5060007a | उत्पत्य च ततः सर्वे वनपालान्समागताः | |
4630 | 5060007c | ताडयन्ति स्म शतशः सक्तान्मधुवने तदा | |
4631 | 5060008a | मधूनि द्रोणमात्राणि बहुभिः परिगृह्य ते | |
4632 | 5060008c | घ्नन्ति स्म सहिताः सर्वे भक्षयन्ति तथापरे | |
4633 | 5060009a | केचित्पीत्वापविध्यन्ति मधूनि मधुपिङ्गलाः | |
4634 | 5060009c | मधूच्चिष्टेन केचिच्च जघ्नुरन्योन्यमुत्कटाः | |
4635 | 5060010a | अपरे वृक्षमूलेषु शाखां गृह्य व्यवस्थितः | |
4636 | 5060010c | अत्यर्थं च मदग्लानाः पर्णान्यास्तीर्य शेरते | |
4637 | 5060011a | उन्मत्तभूताः प्लवगा मधुमत्ताश्च हृष्टवत् | |
4638 | 5060011c | क्षिपन्त्यपि तथान्योन्यं स्खलन्त्यपि तथापरे | |
4639 | 5060012a | केचित्क्ष्वेडान्प्रकुर्वन्ति केचित्कूजन्ति हृष्टवत् | |
4640 | 5060012c | हरयो मधुना मत्ताः केचित्सुप्ता महीतले | |
4641 | 5060013a | येऽप्यत्र मधुपालाः स्युः प्रेष्या दधिमुखस्य तु | |
4642 | 5060013c | तेऽपि तैर्वानरैर्भीमैः प्रतिषिद्धा दिशो गताः | |
4643 | 5060014a | जानुभिश्च प्रकृष्टाश्च देवमार्गं च दर्शिताः | |
4644 | 5060014c | अब्रुवन्परमोद्विग्ना गत्वा दधिमुखं वचः | |
4645 | 5060015a | हनूमता दत्तवरैर्हतं मधुवनं बलात् | |
4646 | 5060015c | वयं च जानुभिः कृष्टा देवमार्गं च दर्शिताः | |
4647 | 5060016a | ततो दधिमुखः क्रुद्धो वनपस्तत्र वानरः | |
4648 | 5060016c | हतं मधुवनं श्रुत्वा सान्त्वयामास तान्हरीन् | |
4649 | 5060017a | एतागच्छत गच्छामो वानरानतिदर्पितान् | |
4650 | 5060017c | बलेनावारयिष्यामो मधु भक्षयतो वयम् | |
4651 | 5060018a | श्रुत्वा दधिमुखस्येदं वचनं वानरर्षभाः | |
4652 | 5060018c | पुनर्वीरा मधुवनं तेनैव सहिता ययुः | |
4653 | 5060019a | मध्ये चैषां दधिमुखः प्रगृह्य सुमहातरुम् | |
4654 | 5060019c | समभ्यधावद्वेगेना ते च सर्वे प्लवंगमाः | |
4655 | 5060020a | ते शिलाः पादपांश्चापि पाषाणांश्चापि वानराः | |
4656 | 5060020c | गृहीत्वाभ्यागमन्क्रुद्धा यत्र ते कपिकुञ्जराः | |
4657 | 5060021a | ते स्वामिवचनं वीरा हृदयेष्ववसज्य तत् | |
4658 | 5060021c | त्वरया ह्यभ्यधावन्त सालतालशिलायुधाः | |
4659 | 5060022a | वृक्षस्थांश्च तलस्थांश्च वानरान्बलदर्पितान् | |
4660 | 5060022c | अभ्यक्रामन्त ते वीराः पालास्तत्र सहस्रशः | |
4661 | 5060023a | अथ दृष्ट्वा दधिमुखं क्रुद्धं वानरपुंगवाः | |
4662 | 5060023c | अभ्यधावन्त वेगेन हनूमत्प्रमुखास्तदा | |
4663 | 5060024a | तं सवृक्षं महाबाहुमापतन्तं महाबलम् | |
4664 | 5060024c | आर्यकं प्राहरत्तत्र बाहुभ्यां कुपितोऽङ्गदः | |
4665 | 5060025a | मदान्धश न वेदैनमार्यकोऽयं ममेति सः | |
4666 | 5060025c | अथैनं निष्पिपेषाशु वेगवद्वसुधातले | |
4667 | 5060026a | स भग्नबाहुर्विमुखो विह्वलः शोणितोक्षितः | |
4668 | 5060026c | मुमोह सहसा वीरो मुहूर्तं कपिकुञ्जरः | |
4669 | 5060027a | स कथंचिद्विमुक्तस्तैर्वानरैर्वानरर्षभः | |
4670 | 5060027c | उवाचैकान्तमागम्य भृत्यांस्तान्समुपागतान् | |
4671 | 5060028a | एते तिष्ठन्तु गच्छामो भर्ता नो यत्र वानरः | |
4672 | 5060028c | सुग्रीवो विपुलग्रीवः सह रामेण तिष्ठति | |
4673 | 5060029a | सर्वं चैवाङ्गदे दोषं श्रावयिष्यामि पार्थिव | |
4674 | 5060029c | अमर्षी वचनं श्रुत्वा घातयिष्यति वानरान् | |
4675 | 5060030a | इष्टं मधुवनं ह्येतत्सुग्रीवस्य महात्मनः | |
4676 | 5060030c | पितृपैतामहं दिव्यं देवैरपि दुरासदम् | |
4677 | 5060031a | स वानरानिमान्सर्वान्मधुलुब्धान्गतायुषः | |
4678 | 5060031c | घातयिष्यति दण्डेन सुग्रीवः ससुहृज्जनान् | |
4679 | 5060032a | वध्या ह्येते दुरात्मानो नृपाज्ञा परिभाविनः | |
4680 | 5060032c | अमर्षप्रभवो रोषः सफलो नो भविष्यति | |
4681 | 5060033a | एवमुक्त्वा दधिमुखो वनपालान्महाबलः | |
4682 | 5060033c | जगाम सहसोत्पत्य वनपालैः समन्वितः | |
4683 | 5060034a | निमेषान्तरमात्रेण स हि प्राप्तो वनालयः | |
4684 | 5060034c | सहस्रांशुसुतो धीमान्सुग्रीवो यत्र वानरः | |
4685 | 5060035a | रामं च लक्ष्मणं चैव दृष्ट्वा सुग्रीवमेव च | |
4686 | 5060035c | समप्रतिष्ठां जगतीमाकाशान्निपपात ह | |
4687 | 5060036a | स निपत्य महावीर्यः सर्वैस्तैः परिवारितः | |
4688 | 5060036c | हरिर्दधिमुखः पालैः पालानां परमेश्वरः | |
4689 | 5060037a | स दीनवदनो भूत्वा कृत्वा शिरसि चाञ्जलिम् | |
4690 | 5060037c | सुग्रीवस्य शुभौ मूर्ध्ना चरणौ प्रत्यपीडयत् | |
4691 | 5061001a | ततो मूर्ध्ना निपतितं वानरं वानरर्षभः | |
4692 | 5061001c | दृष्ट्वैवोद्विग्नहृदयो वाक्यमेतदुवाच ह | |
4693 | 5061002a | उत्तिष्ठोत्तिष्ठ कस्मात्त्वं पादयोः पतितो मम | |
4694 | 5061002c | अभयं ते भवेद्वीर सत्यमेवाभिधीयताम् | |
4695 | 5061003a | स तु विश्वासितस्तेन सुग्रीवेण महात्मना | |
4696 | 5061003c | उत्थाय च महाप्राज्ञो वाक्यं दधिमुखोऽब्रवीत् | |
4697 | 5061004a | नैवर्क्षरजसा राजन्न त्वया नापि वालिना | |
4698 | 5061004c | वनं निसृष्टपूर्वं हि भक्षितं तत्तु वानरैः | |
4699 | 5061005a | एभिः प्रधर्षिताश्चैव वारिता वनरक्षिभिः | |
4700 | 5061005c | मधून्यचिन्तयित्वेमान्भक्षयन्ति पिबन्ति च | |
4701 | 5061006a | शिष्टमत्रापविध्यन्ति भक्षयन्ति तथापरे | |
4702 | 5061006c | निवार्यमाणास्ते सर्वे भ्रुवौ वै दर्शयन्ति हि | |
4703 | 5061007a | इमे हि संरब्धतरास्तथा तैः संप्रधर्षिताः | |
4704 | 5061007c | वारयन्तो वनात्तस्मात्क्रुद्धैर्वानरपुंगवैः | |
4705 | 5061008a | ततस्तैर्बहुभिर्वीरैर्वानरैर्वानरर्षभाः | |
4706 | 5061008c | संरक्तनयनैः क्रोधाद्धरयः संप्रचालिताः | |
4707 | 5061009a | पाणिभिर्निहताः केचित्केचिज्जानुभिराहताः | |
4708 | 5061009c | प्रकृष्टाश्च यथाकामं देवमार्गं च दर्शिताः | |
4709 | 5061010a | एवमेते हताः शूरास्त्वयि तिष्ठति भर्तरि | |
4710 | 5061010c | कृत्स्नं मधुवनं चैव प्रकामं तैः प्रभक्ष्यते | |
4711 | 5061011a | एवं विज्ञाप्यमानं तु सुग्रीवं वानरर्षभम् | |
4712 | 5061011c | अपृच्छत्तं महाप्राज्ञो लक्ष्मणः परवीरहा | |
4713 | 5061012a | किमयं वानरो राजन्वनपः प्रत्युपस्थितः | |
4714 | 5061012c | कं चार्थमभिनिर्दिश्य दुःखितो वाक्यमब्रवीत् | |
4715 | 5061013a | एवमुक्तस्तु सुग्रीवो लक्ष्मणेन महात्मना | |
4716 | 5061013c | लक्ष्मणं प्रत्युवाचेदं वाक्यं वाक्यविशारदः | |
4717 | 5061014a | आर्य लक्ष्मण संप्राह वीरो दधिमुखः कपिः | |
4718 | 5061014c | अङ्गदप्रमुखैर्वीरैर्भक्षितं मधुवानरैः | |
4719 | 5061015a | नैषामकृतकृत्यानामीदृशः स्यादुपक्रमः | |
4720 | 5061015c | वनं यथाभिपन्नं तैः साधितं कर्म वानरैः | |
4721 | 5061016a | दृष्टा देवी न संदेहो न चान्येन हनूमता | |
4722 | 5061016c | न ह्यन्यः साधने हेतुः कर्मणोऽस्य हनूमतः | |
4723 | 5061017a | कार्यसिद्धिर्हनुमति मतिश्च हरिपुंगव | |
4724 | 5061017c | व्यवसायश्च वीर्यं च श्रुतं चापि प्रतिष्ठितम् | |
4725 | 5061018a | जाम्बवान्यत्र नेता स्यादङ्गदस्य बलेश्वरः | |
4726 | 5061018c | हनूमांश्चाप्यधिष्ठाता न तस्य गतिरन्यथा | |
4727 | 5061019a | अङ्गदप्रमुखैर्वीरैर्हतं मधुवनं किल | |
4728 | 5061019c | विचिन्त्य दक्षिणामाशामागतैर्हरिपुंगवैः | |
4729 | 5061020a | आगतैश्च प्रविष्टं तद्यथा मधुवनं हि तैः | |
4730 | 5061020c | धर्षितं च वनं कृत्स्नमुपयुक्तं च वानरैः | |
4731 | 5061020e | वारिताः सहिताः पालास्तथा जानुभिराहताः | |
4732 | 5061021a | एतदर्थमयं प्राप्तो वक्तुं मधुरवागिह | |
4733 | 5061021c | नाम्ना दधिमुखो नाम हरिः प्रख्यातविक्रमः | |
4734 | 5061022a | दृष्टा सीता महाबाहो सौमित्रे पश्य तत्त्वतः | |
4735 | 5061022c | अभिगम्य यथा सर्वे पिबन्ति मधु वानराः | |
4736 | 5061023a | न चाप्यदृष्ट्वा वैदेहीं विश्रुताः पुरुषर्षभ | |
4737 | 5061023c | वनं दात्त वरं दिव्यं धर्षयेयुर्वनौकसः | |
4738 | 5061024a | ततः प्रहृष्टो धर्मात्मा लक्ष्मणः सहराघवः | |
4739 | 5061024c | श्रुत्वा कर्णसुखां वाणीं सुग्रीववदनाच्च्युताम् | |
4740 | 5061025a | प्राहृष्यत भृशं रामो लक्ष्मणश्च महायशाः | |
4741 | 5061025c | श्रुत्वा दधिमुखस्येदं सुग्रीवस्तु प्रहृष्य च | |
4742 | 5061025e | वनपालं पुनर्वाक्यं सुग्रीवः प्रत्यभाषत | |
4743 | 5061026a | प्रीतोऽस्मि सौम्य यद्भुक्तं वनं तैः कृतकर्मभिः | |
4744 | 5061026c | मर्षितं मर्षणीयं च चेष्टितं कृतकर्मणाम् | |
4745 | 5061027a | इच्छामि शीघ्रं हनुमत्प्रधाना;न्शाखामृगांस्तान्मृगराजदर्पान् | |
4746 | 5061027c | द्रष्टुं कृतार्थान्सह राघवाभ्यां; श्रोतुं च सीताधिगमे प्रयत्नम् | |
4747 | 5062001a | सुग्रीवेणैवमुक्तस्तु हृष्टो दधिमुखः कपिः | |
4748 | 5062001c | राघवं लक्ष्मणं चैव सुग्रीवं चाभ्यवादयत् | |
4749 | 5062002a | स प्रणम्य च सुग्रीवं राघवौ च महाबलौ | |
4750 | 5062002c | वानरैः सहितैः शूरैर्दिवमेवोत्पपात ह | |
4751 | 5062003a | स यथैवागतः पूर्वं तथैव त्वरितो गतः | |
4752 | 5062003c | निपत्य गगनाद्भूमौ तद्वनं प्रविवेश ह | |
4753 | 5062004a | स प्रविष्टो मधुवनं ददर्श हरियूथपान् | |
4754 | 5062004c | विमदानुद्धतान्सर्वान्मेहमानान्मधूदकम् | |
4755 | 5062005a | स तानुपागमद्वीरो बद्ध्वा करपुटाञ्जलिम् | |
4756 | 5062005c | उवाच वचनं श्लक्ष्णमिदं हृष्टवदङ्गदम् | |
4757 | 5062006a | सौम्य रोषो न कर्तव्यो यदेभिरभिवारितः | |
4758 | 5062006c | अज्ञानाद्रक्षिभिः क्रोधाद्भवन्तः प्रतिषेधिताः | |
4759 | 5062007a | युवराजस्त्वमीशश्च वनस्यास्य महाबल | |
4760 | 5062007c | मौर्ख्यात्पूर्वं कृतो दोषस्तद्भवान्क्षन्तुमर्हति | |
4761 | 5062008a | यथैव हि पिता तेऽभूत्पूर्वं हरिगणेश्वरः | |
4762 | 5062008c | तथा त्वमपि सुग्रीवो नान्यस्तु हरिसत्तम | |
4763 | 5062009a | आख्यातं हि मया गत्वा पितृव्यस्य तवानघ | |
4764 | 5062009c | इहोपयानं सर्वेषामेतेषां वनचारिणाम् | |
4765 | 5062010a | स त्वदागमनं श्रुत्वा सहैभिर्हरियूथपैः | |
4766 | 5062010c | प्रहृष्टो न तु रुष्टोऽसौ वनं श्रुत्वा प्रधर्षितम् | |
4767 | 5062011a | प्रहृष्टो मां पितृव्यस्ते सुग्रीवो वानरेश्वरः | |
4768 | 5062011c | शीघ्रं प्रेषय सर्वांस्तानिति होवाच पार्थिवः | |
4769 | 5062012a | श्रुत्वा दधिमुखस्यैतद्वचनं श्लक्ष्णमङ्गदः | |
4770 | 5062012c | अब्रवीत्तान्हरिश्रेष्ठो वाक्यं वाक्यविशारदः | |
4771 | 5062013a | शङ्के श्रुतोऽयं वृत्तान्तो रामेण हरियूथपाः | |
4772 | 5062013c | तत्क्षमं नेह नः स्थातुं कृते कार्ये परंतपाः | |
4773 | 5062014a | पीत्वा मधु यथाकामं विश्रान्ता वनचारिणः | |
4774 | 5062014c | किं शेषं गमनं तत्र सुग्रीवो यत्र मे गुरुः | |
4775 | 5062015a | सर्वे यथा मां वक्ष्यन्ति समेत्य हरियूथपाः | |
4776 | 5062015c | तथास्मि कर्ता कर्तव्ये भवद्भिः परवानहम् | |
4777 | 5062016a | नाज्ञापयितुमीशोऽहं युवराजोऽस्मि यद्यपि | |
4778 | 5062016c | अयुक्तं कृतकर्माणो यूयं धर्षयितुं मया | |
4779 | 5062017a | ब्रुवतश्चाङ्गदश्चैवं श्रुत्वा वचनमव्ययम् | |
4780 | 5062017c | प्रहृष्टमनसो वाक्यमिदमूचुर्वनौकसः | |
4781 | 5062018a | एवं वक्ष्यति को राजन्प्रभुः सन्वानरर्षभ | |
4782 | 5062018c | ऐश्वर्यमदमत्तो हि सर्वोऽहमिति मन्यते | |
4783 | 5062019a | तव चेदं सुसदृशं वाक्यं नान्यस्य कस्यचित् | |
4784 | 5062019c | संनतिर्हि तवाख्याति भविष्यच्छुभभाग्यताम् | |
4785 | 5062020a | सर्वे वयमपि प्राप्तास्तत्र गन्तुं कृतक्षणाः | |
4786 | 5062020c | स यत्र हरिवीराणां सुग्रीवः पतिरव्ययः | |
4787 | 5062021a | त्वया ह्यनुक्तैर्हरिभिर्नैव शक्यं पदात्पदम् | |
4788 | 5062021c | क्वचिद्गन्तुं हरिश्रेष्ठ ब्रूमः सत्यमिदं तु ते | |
4789 | 5062022a | एवं तु वदतां तेषामङ्गदः प्रत्यभाषत | |
4790 | 5062022c | बाढं गच्छाम इत्युक्त्वा उत्पपात महीतलात् | |
4791 | 5062023a | उत्पतन्तमनूत्पेतुः सर्वे ते हरियूथपाः | |
4792 | 5062023c | कृत्वाकाशं निराकाशं यज्ञोत्क्षिप्ता इवानलाः | |
4793 | 5062024a | तेऽम्बरं सहसोत्पत्य वेगवन्तः प्लवंगमाः | |
4794 | 5062024c | विनदन्तो महानादं घना वातेरिता यथा | |
4795 | 5062025a | अङ्गदे ह्यननुप्राप्ते सुग्रीवो वानराधिपः | |
4796 | 5062025c | उवाच शोकोपहतं रामं कमललोचनम् | |
4797 | 5062026a | समाश्वसिहि भद्रं ते दृष्टा देवी न संशयः | |
4798 | 5062026c | नागन्तुमिह शक्यं तैरतीते समये हि नः | |
4799 | 5062027a | न मत्सकाशमागच्छेत्कृत्ये हि विनिपातिते | |
4800 | 5062027c | युवराजो महाबाहुः प्लवतां प्रवरोऽङ्गदः | |
4801 | 5062028a | यद्यप्यकृतकृत्यानामीदृशः स्यादुपक्रमः | |
4802 | 5062028c | भवेत्तु दीनवदनो भ्रान्तविप्लुतमानसः | |
4803 | 5062029a | पितृपैतामहं चैतत्पूर्वकैरभिरक्षितम् | |
4804 | 5062029c | न मे मधुवनं हन्यादहृष्टः प्लवगेश्वरः | |
4805 | 5062030a | कौसल्या सुप्रजा राम समाश्वसिहि सुव्रत | |
4806 | 5062030c | दृष्टा देवी न संदेहो न चान्येन हनूमता | |
4807 | 5062030e | न ह्यन्यः कर्मणो हेतुः साधने तद्विधो भवेत् | |
4808 | 5062031a | हनूमति हि सिद्धिश्च मतिश्च मतिसत्तम | |
4809 | 5062031c | व्यवसायश्च वीर्यं च सूर्ये तेज इव ध्रुवम् | |
4810 | 5062032a | जाम्बवान्यत्र नेता स्यादङ्गदश्च बलेश्वरः | |
4811 | 5062032c | हनूमांश्चाप्यधिष्ठाता न तस्य गतिरन्यथा | |
4812 | 5062033a | मा भूश्चिन्ता समायुक्तः संप्रत्यमितविक्रम | |
4813 | 5062034a | ततः किल किला शब्दं शुश्रावासन्नमम्बरे | |
4814 | 5062034c | हनूमत्कर्मदृप्तानां नर्दतां काननौकसाम् | |
4815 | 5062034e | किष्किन्धामुपयातानां सिद्धिं कथयतामिव | |
4816 | 5062035a | ततः श्रुत्वा निनादं तं कपीनां कपिसत्तमः | |
4817 | 5062035c | आयताञ्चितलाङ्गूलः सोऽभवद्धृष्टमानसः | |
4818 | 5062036a | आजग्मुस्तेऽपि हरयो रामदर्शनकाङ्क्षिणः | |
4819 | 5062036c | अङ्गदं पुरतः कृत्वा हनूमन्तं च वानरम् | |
4820 | 5062037a | तेऽङ्गदप्रमुखा वीराः प्रहृष्टाश्च मुदान्विताः | |
4821 | 5062037c | निपेतुर्हरिराजस्य समीपे राघवस्य च | |
4822 | 5062038a | हनूमांश्च महाबहुः प्रणम्य शिरसा ततः | |
4823 | 5062038c | नियतामक्षतां देवीं राघवाय न्यवेदयत् | |
4824 | 5062039a | निश्चितार्थं ततस्तस्मिन्सुग्रीवं पवनात्मजे | |
4825 | 5062039c | लक्ष्मणः प्रीतिमान्प्रीतं बहुमानादवैक्षत | |
4826 | 5062040a | प्रीत्या च रममाणोऽथ राघवः परवीरहा | |
4827 | 5062040c | बहु मानेन महता हनूमन्तमवैक्षत | |
4828 | 5063001a | ततः प्रस्रवणं शैलं ते गत्वा चित्रकाननम् | |
4829 | 5063001c | प्रणम्य शिरसा रामं लक्ष्मणं च महाबलम् | |
4830 | 5063002a | युवराजं पुरस्कृत्य सुग्रीवमभिवाद्य च | |
4831 | 5063002c | प्रवृत्तमथ सीतायाः प्रवक्तुमुपचक्रमुः | |
4832 | 5063003a | रावणान्तःपुरे रोधं राक्षसीभिश्च तर्जनम् | |
4833 | 5063003c | रामे समनुरागं च यश्चापि समयः कृतः | |
4834 | 5063004a | एतदाख्यान्ति ते सर्वे हरयो राम संनिधौ | |
4835 | 5063004c | वैदेहीमक्षतां श्रुत्वा रामस्तूत्तरमब्रवीत् | |
4836 | 5063005a | क्व सीता वर्तते देवी कथं च मयि वर्तते | |
4837 | 5063005c | एतन्मे सर्वमाख्यात वैदेहीं प्रति वानराः | |
4838 | 5063006a | रामस्य गदितं श्रुत्व हरयो रामसंनिधौ | |
4839 | 5063006c | चोदयन्ति हनूमन्तं सीतावृत्तान्तकोविदम् | |
4840 | 5063007a | श्रुत्वा तु वचनं तेषां हनूमान्मारुतात्मजः | |
4841 | 5063007c | उवाच वाक्यं वाक्यज्ञः सीताया दर्शनं यथा | |
4842 | 5063008a | समुद्रं लङ्घयित्वाहं शतयोजनमायतम् | |
4843 | 5063008c | अगच्छं जानकीं सीतां मार्गमाणो दिदृक्षया | |
4844 | 5063009a | तत्र लङ्केति नगरी रावणस्य दुरात्मनः | |
4845 | 5063009c | दक्षिणस्य समुद्रस्य तीरे वसति दक्षिणे | |
4846 | 5063010a | तत्र दृष्टा मया सीता रावणान्तःपुरे सती | |
4847 | 5063010c | संन्यस्य त्वयि जीवन्ती रामा राम मनोरथम् | |
4848 | 5063011a | दृष्टा मे राक्षसी मध्ये तर्ज्यमाना मुहुर्मुहुः | |
4849 | 5063011c | राक्षसीभिर्विरूपाभी रक्षिता प्रमदावने | |
4850 | 5063012a | दुःखमापद्यते देवी तवादुःखोचिता सती | |
4851 | 5063012c | रावणान्तःपुरे रुद्ध्वा राक्षसीभिः सुरक्षिता | |
4852 | 5063013a | एकवेणीधरा दीना त्वयि चिन्तापरायणा | |
4853 | 5063013c | अधःशय्या विवर्णाङ्गी पद्मिनीव हिमागमे | |
4854 | 5063014a | रावणाद्विनिवृत्तार्था मर्तव्यकृतनिश्चया | |
4855 | 5063014c | देवी कथंचित्काकुत्स्थ त्वन्मना मार्गिता मया | |
4856 | 5063015a | इक्ष्वाकुवंशविख्यातिं शनैः कीर्तयतानघ | |
4857 | 5063015c | स मया नरशार्दूल विश्वासमुपपादिता | |
4858 | 5063016a | ततः संभाषिता देवी सर्वमर्थं च दर्शिता | |
4859 | 5063016c | रामसुग्रीवसख्यं च श्रुत्वा प्रीतिमुपागता | |
4860 | 5063017a | नियतः समुदाचारो भक्तिश्चास्यास्तथा त्वयि | |
4861 | 5063017c | एवं मया महाभागा दृष्टा जनकनन्दिनी | |
4862 | 5063017e | उग्रेण तपसा युक्ता त्वद्भक्त्या पुरुषर्षभ | |
4863 | 5063018a | अभिज्ञानं च मे दत्तं यथावृत्तं तवान्तिके | |
4864 | 5063018c | चित्रकूटे महाप्राज्ञ वायसं प्रति राघव | |
4865 | 5063019a | विज्ञाप्यश्च नर व्याघ्रो रामो वायुसुत त्वया | |
4866 | 5063019c | अखिलेनेह यद्दृष्टमिति मामाह जानकी | |
4867 | 5063020a | इदं चास्मै प्रदातव्यं यत्नात्सुपरिरक्षितम् | |
4868 | 5063020c | ब्रुवता वचनान्येवं सुग्रीवस्योपशृण्वतः | |
4869 | 5063021a | एष चूडामणिः श्रीमान्मया ते यत्नरक्षितः | |
4870 | 5063021c | मनःशिलायास्तिकलस्तं स्मरस्वेति चाब्रवीत् | |
4871 | 5063022a | एष निर्यातितः श्रीमान्मया ते वारिसंभवः | |
4872 | 5063022c | एतं दृष्ट्वा प्रमोदिष्ये व्यसने त्वामिवानघ | |
4873 | 5063023a | जीवितं धारयिष्यामि मासं दशरथात्मज | |
4874 | 5063023c | ऊर्ध्वं मासान्न जीवेयं रक्षसां वशमागता | |
4875 | 5063024a | इति मामब्रवीत्सीता कृशाङ्गी धर्म चारिणी | |
4876 | 5063024c | रावणान्तःपुरे रुद्धा मृगीवोत्फुल्ललोचना | |
4877 | 5063025a | एतदेव मयाख्यातं सर्वं राघव यद्यथा | |
4878 | 5063025c | सर्वथा सागरजले संतारः प्रविधीयताम् | |
4879 | 5063026a | तौ जाताश्वासौ राजपुत्रौ विदित्वा; तच्चाभिज्ञानं राघवाय प्रदाय | |
4880 | 5063026c | देव्या चाख्यातं सर्वमेवानुपूर्व्या;द्वाचा संपूर्णं वायुपुत्रः शशंस | |
4881 | 5064001a | एवमुक्तो हनुमता रामो दशरथात्मजः | |
4882 | 5064001c | तं मणिं हृदये कृत्वा प्ररुरोद सलक्ष्मणः | |
4883 | 5064002a | तं तु दृष्ट्वा मणिश्रेष्ठं राघवः शोककर्शितः | |
4884 | 5064002c | नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां सुग्रीवमिदमब्रवीत् | |
4885 | 5064003a | यथैव धेनुः स्रवति स्नेहाद्वत्सस्य वत्सला | |
4886 | 5064003c | तथा ममापि हृदयं मणिरत्नस्य दर्शनात् | |
4887 | 5064004a | मणिरत्नमिदं दत्तं वैदेह्याः श्वशुरेण मे | |
4888 | 5064004c | वधूकाले यथा बद्धमधिकं मूर्ध्नि शोभते | |
4889 | 5064005a | अयं हि जलसंभूतो मणिः प्रवरपूजितः | |
4890 | 5064005c | यज्ञे परमतुष्टेन दत्तः शक्रेण धीमता | |
4891 | 5064006a | इमं दृष्ट्वा मणिश्रेष्ठं तथा तातस्य दर्शनम् | |
4892 | 5064006c | अद्यास्म्यवगतः सौम्य वैदेहस्य तथा विभोः | |
4893 | 5064007a | अयं हि शोभते तस्याः प्रियाया मूर्ध्नि मे मणिः | |
4894 | 5064007c | अद्यास्य दर्शनेनाहं प्राप्तां तामिव चिन्तये | |
4895 | 5064008a | किमाह सीता वैदेही ब्रूहि सौम्य पुनः पुनः | |
4896 | 5064008c | परासुमिव तोयेन सिञ्चन्ती वाक्यवारिणा | |
4897 | 5064009a | इतस्तु किं दुःखतरं यदिमं वारिसंभवम् | |
4898 | 5064009c | मणिं पश्यामि सौमित्रे वैदेहीमागतं विना | |
4899 | 5064010a | चिरं जीवति वैदेही यदि मासं धरिष्यति | |
4900 | 5064010c | क्षणं सौम्य न जीवेयं विना तामसितेक्षणाम् | |
4901 | 5064011a | नय मामपि तं देशं यत्र दृष्टा मम प्रिया | |
4902 | 5064011c | न तिष्ठेयं क्षणमपि प्रवृत्तिमुपलभ्य च | |
4903 | 5064012a | कथं सा मम सुश्रोणि भीरु भीरुः सती तदा | |
4904 | 5064012c | भयावहानां घोराणां मध्ये तिष्ठति रक्षसाम् | |
4905 | 5064013a | शारदस्तिमिरोन्मुखो नूनं चन्द्र इवाम्बुदैः | |
4906 | 5064013c | आवृतं वदनं तस्या न विराजति राक्षसैः | |
4907 | 5064014a | किमाह सीता हनुमंस्तत्त्वतः कथयस्व मे | |
4908 | 5064014c | एतेन खलु जीविष्ये भेषजेनातुरो यथा | |
4909 | 5064015a | मधुरा मधुरालापा किमाह मम भामिनी | |
4910 | 5064015c | मद्विहीना वरारोहा हनुमन्कथयस्व मे | |
4911 | 5064015e | दुःखाद्दुःखतरं प्राप्य कथं जीवति जानकी | |
4912 | 5065001a | एवमुक्तस्तु हनुमान्राघवेण महात्मना | |
4913 | 5065001c | सीताया भाषितं सर्वं न्यवेदयत राघवे | |
4914 | 5065002a | इदमुक्तवती देवी जानकी पुरुषर्षभ | |
4915 | 5065002c | पूर्ववृत्तमभिज्ञानं चित्रकूटे यथा तथम् | |
4916 | 5065003a | सुखसुप्ता त्वया सार्धं जानकी पूर्वमुत्थिता | |
4917 | 5065003c | वायसः सहसोत्पत्य विरराद स्तनान्तरे | |
4918 | 5065004a | पर्यायेण च सुप्तस्त्वं देव्यङ्के भरताग्रज | |
4919 | 5065004c | पुनश्च किल पक्षी स देव्या जनयति व्यथाम् | |
4920 | 5065005a | ततः पुनरुपागम्य विरराद भृशं किल | |
4921 | 5065005c | ततस्त्वं बोधितस्तस्याः शोणितेन समुक्षितः | |
4922 | 5065006a | वायसेन च तेनैव सततं बाध्यमानया | |
4923 | 5065006c | बोधितः किल देव्यास्त्वं सुखसुप्तः परंतप | |
4924 | 5065007a | तां तु दृष्ट्वा महाबाहो रादितां च स्तनान्तरे | |
4925 | 5065007c | आशीविष इव क्रुद्धो निःश्वसन्नभ्यभाषथाः | |
4926 | 5065008a | नखाग्रैः केन ते भीरु दारितं तु स्तनान्तरम् | |
4927 | 5065008c | कः क्रीडति सरोषेण पञ्चवक्त्रेण भोगिना | |
4928 | 5065009a | निरीक्षमाणः सहसा वायसं समवैक्षताः | |
4929 | 5065009c | नखैः सरुधिरैस्तीक्ष्णैर्मामेवाभिमुखं स्थितम् | |
4930 | 5065010a | सुतः किल स शक्रस्य वायसः पततां वरः | |
4931 | 5065010c | धरान्तरचरः शीघ्रं पवनस्य गतौ समः | |
4932 | 5065011a | ततस्तस्मिन्महाबाहो कोपसंवर्तितेक्षणः | |
4933 | 5065011c | वायसे त्वं कृत्वाः क्रूरां मतिं मतिमतां वर | |
4934 | 5065012a | स दर्भं संस्तराद्गृह्य ब्रह्मास्त्रेण न्ययोजयः | |
4935 | 5065012c | स दीप्त इव कालाग्निर्जज्वालाभिमुखः खगम् | |
4936 | 5065013a | स त्वं प्रदीप्तं चिक्षेप दर्भं तं वायसं प्रति | |
4937 | 5065013c | ततस्तु वायसं दीप्तः स दर्भोऽनुजगाम ह | |
4938 | 5065014a | स पित्रा च परित्यक्तः सुरैः सर्वैर्महर्षिभिः | |
4939 | 5065014c | त्रीँल्लोकान्संपरिक्रम्य त्रातारं नाधिगच्छति | |
4940 | 5065015a | तं त्वं निपतितं भूमौ शरण्यः शरणागतम् | |
4941 | 5065015c | वधार्हमपि काकुत्स्थ कृपया परिपालयः | |
4942 | 5065016a | मोघमस्त्रं न शक्यं तु कर्तुमित्येव राघव | |
4943 | 5065016c | ततस्तस्याक्षिकाकस्य हिनस्ति स्म स दक्षिणम् | |
4944 | 5065017a | राम त्वां स नमस्कृत्वा राज्ञो दशरथस्य च | |
4945 | 5065017c | विसृष्टस्तु तदा काकः प्रतिपेदे खमालयम् | |
4946 | 5065018a | एवमस्त्रविदां श्रेष्ठः सत्त्ववाञ्शीलवानपि | |
4947 | 5065018c | किमर्थमस्त्रं रक्षःसु न योजयसि राघव | |
4948 | 5065019a | न नागा नापि गन्धर्वा नासुरा न मरुद्गणाः | |
4949 | 5065019c | तव राम मुखे स्थातुं शक्ताः प्रतिसमाधितुम् | |
4950 | 5065020a | तव वीर्यवतः कच्चिन्मयि यद्यस्ति संभ्रमः | |
4951 | 5065020c | क्षिप्रं सुनिशितैर्बाणैर्हन्यतां युधि रावणः | |
4952 | 5065021a | भ्रातुरादेशमादाय लक्ष्मणो वा परंतपः | |
4953 | 5065021c | स किमर्थं नरवरो न मां रक्षति राघवः | |
4954 | 5065022a | शक्तौ तौ पुरुषव्याघ्रौ वाय्वग्निसमतेजसौ | |
4955 | 5065022c | सुराणामपि दुर्धर्षौ किमर्थं मामुपेक्षतः | |
4956 | 5065023a | ममैव दुष्कृतं किंचिन्महदस्ति न संशयः | |
4957 | 5065023c | समर्थौ सहितौ यन्मां नापेक्षेते परंतपौ | |
4958 | 5065024a | वैदेह्या वचनं श्रुत्वा करुणं साश्रुभाषितम् | |
4959 | 5065024c | पुनरप्यहमार्यां तामिदं वचनमब्रुवम् | |
4960 | 5065025a | त्वच्छोकविमुखो रामो देवि सत्येन ते शपे | |
4961 | 5065025c | रामे दुःखाभिभूते च लक्ष्मणः परितप्यते | |
4962 | 5065026a | कथंचिद्भवती दृष्टा न कालः परिशोचितुम् | |
4963 | 5065026c | इमं मुहूर्तं दुःखानामन्तं द्रक्ष्यसि भामिनि | |
4964 | 5065027a | तावुभौ नरशार्दूलौ राजपुत्रावरिंदमौ | |
4965 | 5065027c | त्वद्दर्शनकृतोत्साहौ लङ्कां भस्मीकरिष्यतः | |
4966 | 5065028a | हत्वा च समरे रौद्रं रावणं सह बान्धवम् | |
4967 | 5065028c | राघवस्त्वां महाबाहुः स्वां पुरीं नयते ध्रुवम् | |
4968 | 5065029a | यत्तु रामो विजानीयादभिज्ञानमनिन्दिते | |
4969 | 5065029c | प्रीतिसंजननं तस्य प्रदातुं तत्त्वमर्हसि | |
4970 | 5065030a | साभिवीक्ष्य दिशः सर्वा वेण्युद्ग्रथनमुत्तमम् | |
4971 | 5065030c | मुक्त्वा वस्त्राद्ददौ मह्यं मणिमेतं महाबल | |
4972 | 5065031a | प्रतिगृह्य मणिं दिव्यं तव हेतो रघूत्तम | |
4973 | 5065031c | शिरसा संप्रणम्यैनामहमागमने त्वरे | |
4974 | 5065032a | गमने च कृतोत्साहमवेक्ष्य वरवर्णिनी | |
4975 | 5065032c | विवर्धमानं च हि मामुवाच जनकात्मजा | |
4976 | 5065032e | अश्रुपूर्णमुखी दीना बाष्पसंदिग्धभाषिणी | |
4977 | 5065033a | हनुमन्सिंहसंकाशौ तावुभौ रामलक्ष्मणौ | |
4978 | 5065033c | सुग्रीवं च सहामात्यं सर्वान्ब्रूया अनामयम् | |
4979 | 5065034a | यथा च स महाबाहुर्मां तारयति राघवः | |
4980 | 5065034c | अस्माद्दुःखाम्बुसंरोधात्तत्समाधातुमर्हसि | |
4981 | 5065035a | इमं च तीव्रं मम शोकवेगं; रक्षोभिरेभिः परिभर्त्सनं च | |
4982 | 5065035c | ब्रूयास्तु रामस्य गतः समीपं; शिवश्च तेऽध्वास्तु हरिप्रवीर | |
4983 | 5065036a | एतत्तवार्या नृपराजसिंह; सीता वचः प्राह विषादपूर्वम् | |
4984 | 5065036c | एतच्च बुद्ध्वा गदितं मया त्वं; श्रद्धत्स्व सीतां कुशलां समग्राम् | |
4985 | 5066001a | अथाहमुत्तरं देव्या पुनरुक्तः ससंभ्रमम् | |
4986 | 5066001c | तव स्नेहान्नरव्याघ्र सौहार्यादनुमान्य च | |
4987 | 5066002a | एवं बहुविधं वाच्यो रामो दाशरथिस्त्वया | |
4988 | 5066002c | यथा मामाप्नुयाच्छीघ्रं हत्वा रावणमाहवे | |
4989 | 5066003a | यदि वा मन्यसे वीर वसैकाहमरिंदम | |
4990 | 5066003c | कस्मिंश्चित्संवृते देशे विश्रान्तः श्वो गमिष्यसि | |
4991 | 5066004a | मम चाप्यल्पभाग्यायाः साम्निध्यात्तव वानर | |
4992 | 5066004c | अस्य शोकविपाकस्य मुहूर्तं स्याद्विमोक्षणम् | |
4993 | 5066005a | गते हि त्वयि विक्रान्ते पुनरागमनाय वै | |
4994 | 5066005c | प्राणानामपि संदेहो मम स्यान्नात्र संशयः | |
4995 | 5066006a | तवादर्शनजः शोको भूयो मां परितापयेत् | |
4996 | 5066006c | दुःखाद्दुःखपराभूतां दुर्गतां दुःखभागिनीम् | |
4997 | 5066007a | अयं तु वीरसंदेहस्तिष्ठतीव ममाग्रतः | |
4998 | 5066007c | सुमहांस्त्वत्सहायेषु हर्यृक्षेषु असंशयः | |
4999 | 5066008a | कथं नु खलु दुष्पारं तरिष्यन्ति महोदधिम् | |
5000 | 5066008c | तानि हर्यृक्षसैन्यानि तौ वा नरवरात्मजौ | |
5001 | 5066009a | त्रयाणामेव भूतानां सागरस्यास्य लङ्घने | |
5002 | 5066009c | शक्तिः स्याद्वैनतेयस्य वायोर्वा तव वानघ | |
5003 | 5066010a | तदस्मिन्कार्यनियोगे वीरैवं दुरतिक्रमे | |
5004 | 5066010c | किं पश्यसि समाधानं ब्रूहि कार्यविदां वर | |
5005 | 5066011a | काममस्य त्वमेवैकः कार्यस्य परिसाधने | |
5006 | 5066011c | पर्याप्तः परवीरघ्न यशस्यस्ते बलोदयः | |
5007 | 5066012a | बलैः समग्रैर्यदि मां हत्वा रावणमाहवे | |
5008 | 5066012c | विजयी स्वां पुरीं रामो नयेत्तत्स्याद्यशस्करम् | |
5009 | 5066013a | यथाहं तस्य वीरस्य वनादुपधिना हृता | |
5010 | 5066013c | रक्षसा तद्भयादेव तथा नार्हति राघवः | |
5011 | 5066014a | बलैस्तु संकुलां कृत्वा लङ्कां परबलार्दनः | |
5012 | 5066014c | मां नयेद्यदि काकुत्स्थस्तत्तस्य सदृशं भवेत् | |
5013 | 5066015a | तद्यथा तस्य विक्रान्तमनुरूपं महात्मनः | |
5014 | 5066015c | भवत्याहवशूरस्य तथा त्वमुपपादय | |
5015 | 5066016a | तदर्थोपहितं वाक्यं प्रश्रितं हेतुसंहितम् | |
5016 | 5066016c | निशम्याहं ततः शेषं वाक्यमुत्तरमब्रुवम् | |
5017 | 5066017a | देवि हर्यृक्षसैन्यानामीश्वरः प्लवतां वरः | |
5018 | 5066017c | सुग्रीवः सत्त्वसंपन्नस्तवार्थे कृतनिश्चयः | |
5019 | 5066018a | तस्य विक्रमसंपन्नाः सत्त्ववन्तो महाबलाः | |
5020 | 5066018c | मनःसंकल्पसंपाता निदेशे हरयः स्थिताः | |
5021 | 5066019a | येषां नोपरि नाधस्तान्न तिर्यक्सज्जते गतिः | |
5022 | 5066019c | न च कर्मसु सीदन्ति महत्स्वमिततेजसः | |
5023 | 5066020a | असकृत्तैर्महाभागैर्वानरैर्बलसंयुतैः | |
5024 | 5066020c | प्रदक्षिणीकृता भूमिर्वायुमार्गानुसारिभिः | |
5025 | 5066021a | मद्विशिष्टाश्च तुल्याश्च सन्ति तत्र वनौकसः | |
5026 | 5066021c | मत्तः प्रत्यवरः कश्चिन्नास्ति सुग्रीवसंनिधौ | |
5027 | 5066022a | अहं तावदिह प्राप्तः किं पुनस्ते महाबलाः | |
5028 | 5066022c | न हि प्रकृष्टाः प्रेष्यन्ते प्रेष्यन्ते हीतरे जनाः | |
5029 | 5066023a | तदलं परितापेन देवि मन्युर्व्यपैतु ते | |
5030 | 5066023c | एकोत्पातेन ते लङ्कामेष्यन्ति हरियूथपाः | |
5031 | 5066024a | मम पृष्ठगतौ तौ च चन्द्रसूर्याविवोदितौ | |
5032 | 5066024c | त्वत्सकाशं महाभागे नृसिंहावागमिष्यतः | |
5033 | 5066025a | अरिघ्नं सिंहसंकाशं क्षिप्रं द्रक्ष्यसि राघवम् | |
5034 | 5066025c | लक्ष्मणं च धनुष्पाणिं लङ्का द्वारमुपस्थितम् | |
5035 | 5066026a | नखदंष्ट्रायुधान्वीरान्सिंहशार्दूलविक्रमान् | |
5036 | 5066026c | वानरान्वानरेन्द्राभान्क्षिप्रं द्रक्ष्यसि संगतान् | |
5037 | 5066027a | शैलाम्बुदन्निकाशानां लङ्कामलयसानुषु | |
5038 | 5066027c | नर्दतां कपिमुख्यानामचिराच्छोष्यसे स्वनम् | |
5039 | 5066028a | निवृत्तवनवासं च त्वया सार्धमरिंदमम् | |
5040 | 5066028c | अभिषिक्तमयोध्यायां क्षिप्रं द्रक्ष्यसि राघवम् | |
5041 | 5066029a | ततो मया वाग्भिरदीनभाषिणी; शिवाभिरिष्टाभिरभिप्रसादिता | |
5042 | 5066029c | जगाम शान्तिं मम मैथिलात्मजा; तवापि शोकेन तथाभिपीडिता |
क्रमाङ्क | छन्द | श्लोक |
---|---|---|
1 | 6001001a | श्रुत्वा हनुमतो वाक्यं यथावदभिभाषितम् |
2 | 6001001c | रामः प्रीतिसमायुक्तो वाक्यमुत्तरमब्रवीत् |
3 | 6001002a | कृतं हनुमता कार्यं सुमहद्भुवि दुष्करम् |
4 | 6001002c | मनसापि यदन्येन न शक्यं धरणीतले |
5 | 6001003a | न हि तं परिपश्यामि यस्तरेत महार्णवम् |
6 | 6001003c | अन्यत्र गरुणाद्वायोरन्यत्र च हनूमतः |
7 | 6001004a | देवदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम् |
8 | 6001004c | अप्रधृष्यां पुरीं लङ्कां रावणेन सुरक्षिताम् |
9 | 6001005a | प्रविष्टः सत्त्वमाश्रित्य जीवन्को नाम निष्क्रमेत् |
10 | 6001005c | को विशेत्सुदुराधर्षां राक्षसैश्च सुरक्षिताम् |
11 | 6001005e | यो वीर्यबलसंपन्नो न समः स्याद्धनूमतः |
12 | 6001006a | भृत्यकार्यं हनुमता सुग्रीवस्य कृतं महत् |
13 | 6001006c | एवं विधाय स्वबलं सदृशं विक्रमस्य च |
14 | 6001007a | यो हि भृत्यो नियुक्तः सन्भर्त्रा कर्मणि दुष्करे |
15 | 6001007c | कुर्यात्तदनुरागेण तमाहुः पुरुषोत्तमम् |
16 | 6001008a | नियुक्तो नृपतेः कार्यं न कुर्याद्यः समाहितः |
17 | 6001008c | भृत्यो युक्तः समर्थश्च तमाहुः पुरुषाधमम् |
18 | 6001009a | तन्नियोगे नियुक्तेन कृतं कृत्यं हनूमता |
19 | 6001009c | न चात्मा लघुतां नीतः सुग्रीवश्चापि तोषितः |
20 | 6001010a | अहं च रघुवंशश्च लक्ष्मणश्च महाबलः |
21 | 6001010c | वैदेह्या दर्शनेनाद्य धर्मतः परिरक्षिताः |
22 | 6001011a | इदं तु मम दीनस्या मनो भूयः प्रकर्षति |
23 | 6001011c | यदिहास्य प्रियाख्यातुर्न कुर्मि सदृशं प्रियम् |
24 | 6001012a | एष सर्वस्वभूतस्तु परिष्वङ्गो हनूमतः |
25 | 6001012c | मया कालमिमं प्राप्य दत्तस्तस्य महात्मनः |
26 | 6001013a | सर्वथा सुकृतं तावत्सीतायाः परिमार्गणम् |
27 | 6001013c | सागरं तु समासाद्य पुनर्नष्टं मनो मम |
28 | 6001014a | कथं नाम समुद्रस्य दुष्पारस्य महाम्भसः |
29 | 6001014c | हरयो दक्षिणं पारं गमिष्यन्ति समाहिताः |
30 | 6001015a | यद्यप्येष तु वृत्तान्तो वैदेह्या गदितो मम |
31 | 6001015c | समुद्रपारगमने हरीणां किमिवोत्तरम् |
32 | 6001016a | इत्युक्त्वा शोकसंभ्रान्तो रामः शत्रुनिबर्हणः |
33 | 6001016c | हनूमन्तं महाबाहुस्ततो ध्यानमुपागमत् |
34 | 6002001a | तं तु शोकपरिद्यूनं रामं दशरथात्मजम् |
35 | 6002001c | उवाच वचनं श्रीमान्सुग्रीवः शोकनाशनम् |
36 | 6002002a | किं त्वं संतप्यसे वीर यथान्यः प्राकृतस्तथा |
37 | 6002002c | मैवं भूस्त्यज संतापं कृतघ्न इव सौहृदम् |
38 | 6002003a | संतापस्य च ते स्थानं न हि पश्यामि राघव |
39 | 6002003c | प्रवृत्तावुपलब्धायां ज्ञाते च निलये रिपोः |
40 | 6002004a | धृतिमाञ्शास्त्रवित्प्राज्ञः पण्डितश्चासि राघव |
41 | 6002004c | त्यजेमां पापिकां बुद्धिं कृत्वात्मेवार्थदूषणीम् |
42 | 6002005a | समुद्रं लङ्घयित्वा तु महानक्रसमाकुलम् |
43 | 6002005c | लङ्कामारोहयिष्यामो हनिष्यामश्च ते रिपुम् |
44 | 6002006a | निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः |
45 | 6002006c | सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति |
46 | 6002007a | इमे शूराः समर्थाश्च सर्वे नो हरियूथपाः |
47 | 6002007c | त्वत्प्रियार्थं कृतोत्साहाः प्रवेष्टुमपि पावकम् |
48 | 6002008a | एषां हर्षेण जानामि तर्कश्चास्मिन्दृढो मम |
49 | 6002008c | विक्रमेण समानेष्ये सीतां हत्वा यथा रिपुम् |
50 | 6002009a | सेतुरत्र यथा वध्येद्यथा पश्येम तां पुरीम् |
51 | 6002009c | तस्य राक्षसराजस्य तथा त्वं कुरु राघव |
52 | 6002010a | दृष्ट्वा तां हि पुरीं लङ्कां त्रिकूटशिखरे स्थिताम् |
53 | 6002010c | हतं च रावणं युद्धे दर्शनादुपधारय |
54 | 6002011a | सेतुबद्धः समुद्रे च यावल्लङ्का समीपतः |
55 | 6002011c | सर्वं तीर्णं च वै सैन्यं जितमित्युपधार्यताम् |
56 | 6002012a | इमे हि समरे शूरा हरयः कामरूपिणः |
57 | 6002012c | तदलं विक्लवा बुद्धी राजन्सर्वार्थनाशनी |
58 | 6002013a | पुरुषस्य हि लोकेऽस्मिञ्शोकः शौर्यापकर्षणः |
59 | 6002013c | यत्तु कार्यं मनुष्येण शौण्डीर्यमवलम्बता |
60 | 6002013e | शूराणां हि मनुष्याणां त्वद्विधानां महात्मनाम् |
61 | 6002014a | विनष्टे वा प्रनष्टे वा शोकः सर्वार्थनाशनः |
62 | 6002014c | त्वं तु बुद्धिमतां श्रेष्ठः सर्वशास्त्रार्थकोविदः |
63 | 6002015a | मद्विधैः सचिवैः सार्थमरिं जेतुमिहार्हसि |
64 | 6002015c | न हि पश्याम्यहं कंचित्त्रिषु लोकेषु राघव |
65 | 6002016a | गृहीतधनुषो यस्ते तिष्ठेदभिमुखो रणे |
66 | 6002016c | वानरेषु समासक्तं न ते कार्यं विपत्स्यते |
67 | 6002017a | अचिराद्द्रक्ष्यसे सीतां तीर्त्वा सागरमक्षयम् |
68 | 6002017c | तदलं शोकमालम्ब्य क्रोधमालम्ब भूपते |
69 | 6002018a | निश्चेष्टाः क्षत्रिया मन्दाः सर्वे चण्डस्य बिभ्यति |
70 | 6002018c | लङ्गनार्थं च घोरस्य समुद्रस्य नदीपतेः |
71 | 6002019a | सहास्माभिरिहोपेतः सूक्ष्मबुद्धिर्विचारय |
72 | 6002019c | इमे हि समरे शूरा हरयः कामरूपिणः |
73 | 6002020a | तानरीन्विधमिष्यन्ति शिलापादपवृष्टिभिः |
74 | 6002020c | कथंचित्परिपश्यामस्ते वयं वरुणालयम् |
75 | 6002021a | किमुक्त्वा बहुधा चापि सर्वथा विजयी भवान् |
76 | 6003001a | सुग्रीवस्य वचः श्रुत्वा हेतुमत्परमार्थवित् |
77 | 6003001c | प्रतिजग्राह काकुत्स्थो हनूमन्तमथाब्रवीत् |
78 | 6003002a | तरसा सेतुबन्धेन सागरोच्छोषणेन वा |
79 | 6003002c | सर्वथा सुसमर्थोऽस्मि सागरस्यास्य लङ्घने |
80 | 6003003a | कति दुर्गाणि दुर्गाया लङ्कायास्तद्ब्रवीहि मे |
81 | 6003003c | ज्ञातुमिच्छामि तत्सर्वं दर्शनादिव वानर |
82 | 6003004a | बलस्य परिमाणं च द्वारदुर्गक्रियामपि |
83 | 6003004c | गुप्ति कर्म च लङ्काया रक्षसां सदनानि च |
84 | 6003005a | यथासुखं यथावच्च लङ्कायामसि दृष्टवान् |
85 | 6003005c | सरमाचक्ष्व तत्त्वेन सर्वथा कुशलो ह्यसि |
86 | 6003006a | श्रुत्वा रामस्य वचनं हनूमान्मारुतात्मजः |
87 | 6003006c | वाक्यं वाक्यविदां श्रेष्ठो रामं पुनरथाब्रवीत् |
88 | 6003007a | श्रूयतां सर्वमाख्यास्ये दुर्गकर्मविधानतः |
89 | 6003007c | गुप्ता पुरी यथा लङ्का रक्षिता च यथा बलैः |
90 | 6003008a | परां समृद्धिं लङ्कायाः सागरस्य च भीमताम् |
91 | 6003008c | विभागं च बलौघस्य निर्देशं वाहनस्य च |
92 | 6003009a | प्रहृष्टा मुदिता लङ्का मत्तद्विपसमाकुला |
93 | 6003009c | महती रथसंपूर्णा रक्षोगणसमाकुला |
94 | 6003010a | दृढबद्धकवाटानि महापरिघवन्ति च |
95 | 6003010c | द्वाराणि विपुलान्यस्याश्चत्वारि सुमहान्ति च |
96 | 6003011a | वप्रेषूपलयन्त्राणि बलवन्ति महान्ति च |
97 | 6003011c | आगतं परसैन्यं तैस्तत्र प्रतिनिवार्यते |
98 | 6003012a | द्वारेषु संस्कृता भीमाः कालायसमयाः शिताः |
99 | 6003012c | शतशो रोचिता वीरैः शतघ्न्यो रक्षसां गणैः |
100 | 6003013a | सौवर्णश्च महांस्तस्याः प्राकारो दुष्प्रधर्षणः |
101 | 6003013c | मणिविद्रुमवैदूर्यमुक्ताविचरितान्तरः |
102 | 6003014a | सर्वतश्च महाभीमाः शीततोया महाशुभाः |
103 | 6003014c | अगाधा ग्राहवत्यश्च परिखा मीनसेविताः |
104 | 6003015a | द्वारेषु तासां चत्वारः संक्रमाः परमायताः |
105 | 6003015c | यन्त्रैरुपेता बहुभिर्महद्भिर्दृढसंधिभिः |
106 | 6003016a | त्रायन्ते संक्रमास्तत्र परसैन्यागमे सति |
107 | 6003016c | यन्त्रैस्तैरवकीर्यन्ते परिखासु समन्ततः |
108 | 6003017a | एकस्त्वकम्प्यो बलवान्संक्रमः सुमहादृढः |
109 | 6003017c | काञ्चनैर्बहुभिः स्तम्भैर्वेदिकाभिश्च शोभितः |
110 | 6003018a | स्वयं प्रकृतिसंपन्नो युयुत्सू राम रावणः |
111 | 6003018c | उत्थितश्चाप्रमत्तश्च बलानामनुदर्शने |
112 | 6003019a | लङ्का पुरी निरालम्बा देवदुर्गा भयावहा |
113 | 6003019c | नादेयं पार्वतं वन्यं कृत्रिमं च चतुर्विधम् |
114 | 6003020a | स्थिता पारे समुद्रस्य दूरपारस्य राघव |
115 | 6003020c | नौपथश्चापि नास्त्यत्र निरादेशश्च सर्वतः |
116 | 6003021a | शैलाग्रे रचिता दुर्गा सा पूर्देवपुरोपमा |
117 | 6003021c | वाजिवारणसंपूर्णा लङ्का परमदुर्जया |
118 | 6003022a | परिघाश्च शतघ्न्यश्च यन्त्राणि विविधानि च |
119 | 6003022c | शोभयन्ति पुरीं लङ्कां रावणस्य दुरात्मनः |
120 | 6003023a | अयुतं रक्षसामत्र पश्चिमद्वारमाश्रितम् |
121 | 6003023c | शूलहस्ता दुराधर्षाः सर्वे खड्गाग्रयोधिनः |
122 | 6003024a | नियुतं रक्षसामत्र दक्षिणद्वारमाश्रितम् |
123 | 6003024c | चतुरङ्गेण सैन्येन योधास्तत्राप्यनुत्तमाः |
124 | 6003025a | प्रयुतं रक्षसामत्र पूर्वद्वारं समाश्रितम् |
125 | 6003025c | चर्मखड्गधराः सर्वे तथा सर्वास्त्रकोविदाः |
126 | 6003026a | अर्बुदं रक्षसामत्र उत्तरद्वारमाश्रितम् |
127 | 6003026c | रथिनश्चाश्ववाहाश्च कुलपुत्राः सुपूजिताः |
128 | 6003027a | शतं शतसहस्राणां मध्यमं गुल्ममाश्रितम् |
129 | 6003027c | यातुधाना दुराधर्षाः साग्रकोटिश्च रक्षसाम् |
130 | 6003028a | ते मया संक्रमा भग्नाः परिखाश्चावपूरिताः |
131 | 6003028c | दग्धा च नगरी लङ्का प्राकाराश्चावसादिताः |
132 | 6003029a | येन केन तु मार्गेण तराम वरुणालयम् |
133 | 6003029c | हतेति नगरी लङ्कां वानरैरवधार्यताम् |
134 | 6003030a | अङ्गदो द्विविदो मैन्दो जाम्बवान्पनसो नलः |
135 | 6003030c | नीलः सेनापतिश्चैव बलशेषेण किं तव |
136 | 6003031a | प्लवमाना हि गत्वा तां रावणस्य महापुरीम् |
137 | 6003031c | सप्रकारां सभवनामानयिष्यन्ति मैथिलीम् |
138 | 6003032a | एवमाज्ञापय क्षिप्रं बलानां सर्वसंग्रहम् |
139 | 6003032c | मुहूर्तेन तु युक्तेन प्रस्थानमभिरोचय |
140 | 6004001a | श्रुत्वा हनूमतो वाक्यं यथावदनुपूर्वशः |
141 | 6004001c | ततोऽब्रवीन्महातेजा रामः सत्यपराक्रमः |
142 | 6004002a | यां निवेदयसे लङ्कां पुरीं भीमस्य रक्षसः |
143 | 6004002c | क्षिप्रमेनां वधिष्यामि सत्यमेतद्ब्रवीमि ते |
144 | 6004003a | अस्मिन्मुहूर्ते सुग्रीव प्रयाणमभिरोचये |
145 | 6004003c | युक्तो मुहूर्तो विजयः प्राप्तो मध्यं दिवाकरः |
146 | 6004004a | उत्तरा फल्गुनी ह्यद्य श्वस्तु हस्तेन योक्ष्यते |
147 | 6004004c | अभिप्रयाम सुग्रीव सर्वानीकसमावृताः |
148 | 6004005a | निमित्तानि च धन्यानि यानि प्रादुर्भवन्ति मे |
149 | 6004005c | निहत्य रावणं सीतामानयिष्यामि जानकीम् |
150 | 6004006a | उपरिष्टाद्धि नयनं स्फुरमाणमिदं मम |
151 | 6004006c | विजयं समनुप्राप्तं शंसतीव मनोरथम् |
152 | 6004007a | अग्रे यातु बलस्यास्य नीलो मार्गमवेक्षितुम् |
153 | 6004007c | वृतः शतसहस्रेण वानराणां तरस्विनाम् |
154 | 6004008a | फलमूलवता नील शीतकाननवारिणा |
155 | 6004008c | पथा मधुमता चाशु सेनां सेनापते नय |
156 | 6004009a | दूषयेयुर्दुरात्मानः पथि मूलफलोदकम् |
157 | 6004009c | राक्षसाः परिरक्षेथास्तेभ्यस्त्वं नित्यमुद्यतः |
158 | 6004010a | निम्नेषु वनदुर्गेषु वनेषु च वनौकसः |
159 | 6004010c | अभिप्लुत्याभिपश्येयुः परेषां निहतं बलम् |
160 | 6004011a | सागरौघनिभं भीममग्रानीकं महाबलाः |
161 | 6004011c | कपिसिंहा प्रकर्षन्तु शतशोऽथ सहस्रशः |
162 | 6004012a | गजश्च गिरिसंकाशो गवयश्च महाबलः |
163 | 6004012c | गवाक्षश्चाग्रतो यान्तु गवां दृप्ता इवर्षभाः |
164 | 6004013a | यातु वानरवाहिन्या वानरः प्लवतां पतिः |
165 | 6004013c | पालयन्दक्षिणं पार्श्वमृषभो वानरर्षभः |
166 | 6004014a | गन्धहस्तीव दुर्धर्षस्तरस्वी गन्धमादनः |
167 | 6004014c | यातु वानरवाहिन्याः सव्यं पार्श्वमधिष्ठितः |
168 | 6004015a | यास्यामि बलमध्येऽहं बलौघमभिहर्षयन् |
169 | 6004015c | अधिरुह्य हनूमन्तमैरावतमिवेश्वरः |
170 | 6004016a | अङ्गदेनैष संयातु लक्ष्मणश्चान्तकोपमः |
171 | 6004016c | सार्वभौमेण भूतेशो द्रविणाधिपतिर्यथा |
172 | 6004017a | जाम्बवांश्च सुषेणश्च वेगदर्शी च वानरः |
173 | 6004017c | ऋक्षराजो महासत्त्वः कुक्षिं रक्षन्तु ते त्रयः |
174 | 6004018a | राघवस्य वचः श्रुत्वा सुग्रीवो वाहिनीपतिः |
175 | 6004018c | व्यादिदेश महावीर्यान्वानरान्वानरर्षभः |
176 | 6004019a | ते वानरगणाः सर्वे समुत्पत्य युयुत्सवः |
177 | 6004019c | गुहाभ्यः शिखरेभ्यश्च आशु पुप्लुविरे तदा |
178 | 6004020a | ततो वानरराजेन लक्ष्मणेन च पूजितः |
179 | 6004020c | जगाम रामो धर्मात्मा ससैन्यो दक्षिणां दिशम् |
180 | 6004021a | शतैः शतसहस्रैश्च कोटीभिरयुतैरपि |
181 | 6004021c | वारणाभिश्च हरिभिर्ययौ परिवृतस्तदा |
182 | 6004022a | तं यान्तमनुयाति स्म महती हरिवाहिनी |
183 | 6004023a | हृष्टाः प्रमुदिताः सर्वे सुग्रीवेणाभिपालिताः |
184 | 6004023c | आप्लवन्तः प्लवन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः |
185 | 6004023e | क्ष्वेलन्तो निनदन्तश्च जग्मुर्वै दक्षिणां दिशम् |
186 | 6004024a | भक्षयन्तः सुगन्धीनि मधूनि च फलानि च |
187 | 6004024c | उद्वहन्तो महावृक्षान्मञ्जरीपुञ्जधारिणः |
188 | 6004025a | अन्योन्यं सहसा दृष्टा निर्वहन्ति क्षिपन्ति च |
189 | 6004025c | पतन्तश्चोत्पतन्त्यन्ये पातयन्त्यपरे परान् |
190 | 6004026a | रावणो नो निहन्तव्यः सर्वे च रजनीचराः |
191 | 6004026c | इति गर्जन्ति हरयो राघवस्य समीपतः |
192 | 6004027a | पुरस्तादृषभो वीरो नीलः कुमुद एव च |
193 | 6004027c | पथानं शोधयन्ति स्म वानरैर्बहुभिः सह |
194 | 6004028a | मध्ये तु राजा सुग्रीवो रामो लक्ष्मण एव च |
195 | 6004028c | बहुभिर्बलिभिर्भीमैर्वृताः शत्रुनिबर्हणः |
196 | 6004029a | हरिः शतबलिर्वीरः कोटीभिर्दशभिर्वृतः |
197 | 6004029c | सर्वामेको ह्यवष्टभ्य ररक्ष हरिवाहिनीम् |
198 | 6004030a | कोटीशतपरीवारः केसरी पनसो गजः |
199 | 6004030c | अर्कश्चातिबलः पार्श्वमेकं तस्याभिरक्षति |
200 | 6004031a | सुषेणो जाम्बवांश्चैव ऋक्षैर्बहुभिरावृतः |
201 | 6004031c | सुग्रीवं पुरतः कृत्वा जघनं संररक्षतुः |
202 | 6004032a | तेषां सेनापतिर्वीरो नीलो वानरपुंगवः |
203 | 6004032c | संपतन्पततां श्रेष्ठस्तद्बलं पर्यपालयत् |
204 | 6004033a | दरीमिखः प्रजङ्घश्च जम्भोऽथ रभसः कपिः |
205 | 6004033c | सर्वतश्च ययुर्वीरास्त्वरयन्तः प्लवंगमान् |
206 | 6004034a | एवं ते हरिशार्दूला गच्छन्तो बलदर्पिताः |
207 | 6004034c | अपश्यंस्ते गिरिश्रेष्ठं सह्यं द्रुमलतायुतम् |
208 | 6004035a | सागरौघनिभं भीमं तद्वानरबलं महत् |
209 | 6004035c | निःससर्प महाघोषं भीमवेग इवार्णवः |
210 | 6004036a | तस्य दाशरथेः पार्श्वे शूरास्ते कपिकुञ्जराः |
211 | 6004036c | तूर्णमापुप्लुवुः सर्वे सदश्वा इव चोदिताः |
212 | 6004037a | कपिभ्यामुह्यमानौ तौ शुशुभते नरर्षभौ |
213 | 6004037c | महद्भ्यामिव संस्पृष्टौ ग्राहाभ्यां चन्द्रभास्करौ |
214 | 6004038a | तमङ्गदगतो रामं लक्ष्मणः शुभया गिरा |
215 | 6004038c | उवाच प्रतिपूर्णार्थः स्मृतिमान्प्रतिभानवान् |
216 | 6004039a | हृतामवाप्य वैदेहीं क्षिप्रं हत्वा च रावणम् |
217 | 6004039c | समृद्धार्थः समृद्धार्थामयोध्यां प्रतियास्यसि |
218 | 6004040a | महान्ति च निमित्तानि दिवि भूमौ च राघव |
219 | 6004040c | शुभान्ति तव पश्यामि सर्वाण्येवार्थसिद्धये |
220 | 6004041a | अनु वाति शुभो वायुः सेनां मृदुहितः सुखः |
221 | 6004041c | पूर्णवल्गुस्वराश्चेमे प्रवदन्ति मृगद्विजाः |
222 | 6004042a | प्रसन्नाश्च दिशः सर्वा विमलश्च दिवाकरः |
223 | 6004042c | उशना च प्रसन्नार्चिरनु त्वां भार्गवो गतः |
224 | 6004043a | ब्रह्मराशिर्विशुद्धश्च शुद्धाश्च परमर्षयः |
225 | 6004043c | अर्चिष्मन्तः प्रकाशन्ते ध्रुवं सर्वे प्रदक्षिणम् |
226 | 6004044a | त्रिशङ्कुर्विमलो भाति राजर्षिः सपुरोहितः |
227 | 6004044c | पितामहवरोऽस्माकमिष्क्वाकूणां महात्मनाम् |
228 | 6004045a | विमले च प्रकाशेते विशाखे निरुपद्रवे |
229 | 6004045c | नक्षत्रं परमस्माकमिक्ष्वाकूणां महात्मनाम् |
230 | 6004046a | नैरृतं नैरृतानां च नक्षत्रमभिपीड्यते |
231 | 6004046c | मूलं मूलवता स्पृष्टं धूप्यते धूमकेतुना |
232 | 6004047a | सरं चैतद्विनाशाय राक्षसानामुपस्थितम् |
233 | 6004047c | काले कालगृहीतानां नकत्रं ग्रहपीडितम् |
234 | 6004048a | प्रसन्नाः सुरसाश्चापो वनानि फलवन्ति च |
235 | 6004048c | प्रवान्त्यभ्यधिकं गन्धा यथर्तुकुसुमा द्रुमाः |
236 | 6004049a | व्यूढानि कपिसैन्यानि प्रकाशन्तेऽधिकं प्रभो |
237 | 6004049c | देवानामिव सैन्यानि संग्रामे तारकामये |
238 | 6004050a | एवमार्य समीक्ष्यैतान्प्रीतो भवितुमर्हसि |
239 | 6004050c | इति भ्रातरमाश्वास्य हृष्टः सौमित्रिरब्रवीत् |
240 | 6004051a | अथावृत्य महीं कृत्स्नां जगाम महती चमूः |
241 | 6004051c | ऋक्षवानरशार्दूलैर्नखदंष्ट्रायुधैर्वृता |
242 | 6004052a | कराग्रैश्चरणाग्रैश्च वानरैरुद्धतं रजः |
243 | 6004052c | भौममन्तर्दधे लोकं निवार्य सवितुः प्रभाम् |
244 | 6004053a | सा स्म याति दिवारात्रं महती हरिवाहिनी |
245 | 6004053c | हृष्टप्रमुदिता सेना सुग्रीवेणाभिरक्षिता |
246 | 6004054a | वनरास्त्वरितं यान्ति सर्वे युद्धाभिनन्दनः |
247 | 6004054c | मुमोक्षयिषवः सीतां मुहूर्तं क्वापि नासत |
248 | 6004055a | ततः पादपसंबाधं नानामृगसमाकुलम् |
249 | 6004055c | सह्यपर्वतमासेदुर्मलयं च मही धरम् |
250 | 6004056a | काननानि विचित्राणि नदीप्रस्रवणानि च |
251 | 6004056c | पश्यन्नपि ययौ रामः सह्यस्य मलयस्य च |
252 | 6004057a | चम्पकांस्तिलकांश्चूतानशोकान्सिन्दुवारकान् |
253 | 6004057c | करवीरांश्च तिमिशान्भञ्जन्ति स्म प्लवंगमाः |
254 | 6004058a | फलान्यमृतगन्धीनि मूलानि कुसुमानि च |
255 | 6004058c | बुभुजुर्वानरास्तत्र पादपानां बलोत्कटाः |
256 | 6004059a | द्रोणमात्रप्रमाणानि लम्बमानानि वानराः |
257 | 6004059c | ययुः पिबन्तो हृष्टास्ते मधूनि मधुपिङ्गलाः |
258 | 6004060a | पादपानवभञ्जन्तो विकर्षन्तस्तथा लताः |
259 | 6004060c | विधमन्तो गिरिवरान्प्रययुः प्लवगर्षभाः |
260 | 6004061a | वृक्षेभ्योऽन्ये तु कपयो नर्दन्तो मधुदर्पिताः |
261 | 6004061c | अन्ये वृक्षान्प्रपद्यन्ते प्रपतन्त्यपि चापरे |
262 | 6004062a | बभूव वसुधा तैस्तु संपूर्णा हरिपुंगवैः |
263 | 6004062c | यथा कमलकेदारैः पक्वैरिव वसुंधरा |
264 | 6004063a | महेन्द्रमथ संप्राप्य रामो राजीवलोचनः |
265 | 6004063c | अध्यारोहन्महाबाहुः शिखरं द्रुमभूषितम् |
266 | 6004064a | ततः शिखरमारुह्य रामो दशरथात्मजः |
267 | 6004064c | कूर्ममीनसमाकीर्णमपश्यत्सलिलाशयम् |
268 | 6004065a | ते सह्यं समतिक्रम्य मलयं च महागिरिम् |
269 | 6004065c | आसेदुरानुपूर्व्येण समुद्रं भीमनिःस्वनम् |
270 | 6004066a | अवरुह्य जगामाशु वेलावनमनुत्तमम् |
271 | 6004066c | रामो रमयतां श्रेष्ठः ससुग्रीवः सलक्ष्मणः |
272 | 6004067a | अथ धौतोपलतलां तोयौघैः सहसोत्थितैः |
273 | 6004067c | वेलामासाद्य विपुलां रामो वचनमब्रवीत् |
274 | 6004068a | एते वयमनुप्राप्ताः सुग्रीव वरुणालयम् |
275 | 6004068c | इहेदानीं विचिन्ता सा या न पूर्वं समुत्थिता |
276 | 6004069a | अतः परमतीरोऽयं सागरः सरितां पति |
277 | 6004069c | न चायमनुपायेन शक्यस्तरितुमर्णवः |
278 | 6004070a | तदिहैव निवेशोऽस्तु मन्त्रः प्रस्तूयतामिह |
279 | 6004070c | यथेदं वानरबलं परं पारमवाप्नुयात् |
280 | 6004071a | इतीव स महाबाहुः सीताहरणकर्शितः |
281 | 6004071c | रामः सागरमासाद्य वासमाज्ञापयत्तदा |
282 | 6004072a | संप्राप्तो मन्त्रकालो नः सागरस्येह लङ्घने |
283 | 6004072c | स्वां स्वां सेनां समुत्सृज्य मा च कश्चित्कुतो व्रजेत् |
284 | 6004072e | गच्छन्तु वानराः शूरा ज्ञेयं छन्नं भयं च नः |
285 | 6004073a | रामस्य वचनं श्रुत्वा सुग्रीवः सहलक्ष्मणः |
286 | 6004073c | सेनां न्यवेशयत्तीरे सागरस्य द्रुमायुते |
287 | 6004074a | विरराज समीपस्थं सागरस्य तु तद्बलम् |
288 | 6004074c | मधुपाण्डुजलः श्रीमान्द्वितीय इव सागरः |
289 | 6004075a | वेलावनमुपागम्य ततस्ते हरिपुंगवाः |
290 | 6004075c | विनिविष्टाः परं पारं काङ्क्षमाणा महोदधेः |
291 | 6004076a | सा महार्णवमासाद्य हृष्टा वानरवाहिनी |
292 | 6004076c | वायुवेगसमाधूतं पश्यमाना महार्णवम् |
293 | 6004077a | दूरपारमसंबाधं रक्षोगणनिषेवितम् |
294 | 6004077c | पश्यन्तो वरुणावासं निषेदुर्हरियूथपाः |
295 | 6004078a | चण्डनक्रग्रहं घोरं क्षपादौ दिवसक्षये |
296 | 6004078c | चन्द्रोदये समाधूतं प्रतिचन्द्रसमाकुलम् |
297 | 6004079a | चण्डानिलमहाग्राहैः कीर्णं तिमितिमिंगिलैः |
298 | 6004079c | दीप्तभोगैरिवाक्रीर्णं भुजंगैर्वरुणालयम् |
299 | 6004080a | अवगाढं महासत्तैर्नानाशैलसमाकुलम् |
300 | 6004080c | दुर्गं द्रुगममार्गं तमगाधमसुरालयम् |
301 | 6004081a | मकरैर्नागभोगैश्च विगाढा वातलोहिताः |
302 | 6004081c | उत्पेतुश्च निपेतुश्च प्रवृद्धा जलराशयः |
303 | 6004082a | अग्निचूर्णमिवाविद्धं भास्कराम्बुमनोरगम् |
304 | 6004082c | सुरारिविषयं घोरं पातालविषमं सदा |
305 | 6004083a | सागरं चाम्बरप्रख्यमम्बरं सागरोपमम् |
306 | 6004083c | सागरं चाम्बरं चेति निर्विशेषमदृश्यत |
307 | 6004084a | संपृक्तं नभसा ह्यम्भः संपृक्तं च नभोऽम्भसा |
308 | 6004084c | तादृग्रूपे स्म दृश्येते तारा रत्नसमाकुले |
309 | 6004085a | समुत्पतितमेघस्य वीच्चि मालाकुलस्य च |
310 | 6004085c | विशेषो न द्वयोरासीत्सागरस्याम्बरस्य च |
311 | 6004086a | अन्योन्यैराहताः सक्ताः सस्वनुर्भीमनिःस्वनाः |
312 | 6004086c | ऊर्मयः सिन्धुराजस्य महाभेर्य इवाहवे |
313 | 6004087a | रत्नौघजलसंनादं विषक्तमिव वायुना |
314 | 6004087c | उत्पतन्तमिव क्रुद्धं यादोगणसमाकुलम् |
315 | 6004088a | ददृशुस्ते महात्मानो वाताहतजलाशयम् |
316 | 6004088c | अनिलोद्धूतमाकाशे प्रवल्गतमिवोर्मिभिः |
317 | 6004088e | भ्रान्तोर्मिजलसंनादं प्रलोलमिव सागरम् |
318 | 6005001a | सा तु नीलेन विधिवत्स्वारक्षा सुसमाहिता |
319 | 6005001c | सागरस्योत्तरे तीरे साधु सेना निवेशिता |
320 | 6005002a | मैन्दश्च द्विविधश्चोभौ तत्र वानरपुंगवौ |
321 | 6005002c | विचेरतुश्च तां सेनां रक्षार्थं सर्वतो दिशम् |
322 | 6005003a | निविष्टायां तु सेनायां तीरे नदनदीपतेः |
323 | 6005003c | पार्श्वस्थं लक्ष्मणं दृष्ट्वा रामो वचनमब्रवीत् |
324 | 6005004a | शोकश्च किल कालेन गच्छता ह्यपगच्छति |
325 | 6005004c | मम चापश्यतः कान्तामहन्यहनि वर्धते |
326 | 6005005a | न मे दुःखं प्रिया दूरे न मे दुःखं हृतेति च |
327 | 6005005c | एतदेवानुशोचामि वयोऽस्या ह्यतिवर्तते |
328 | 6005006a | वाहि वात यतः कन्या तां स्पृष्ट्वा मामपि स्पृश |
329 | 6005006c | त्वयि मे गात्रसंस्पर्शश्चन्द्रे दृष्टिसमागमः |
330 | 6005007a | तन्मे दहति गात्राणि विषं पीतमिवाशये |
331 | 6005007c | हा नाथेति प्रिया सा मां ह्रियमाणा यदब्रवीत् |
332 | 6005008a | तद्वियोगेन्धनवता तच्चिन्ताविपुलार्चिषा |
333 | 6005008c | रात्रिं दिवं शरीरं मे दह्यते मदनाग्निना |
334 | 6005009a | अवगाह्यार्णवं स्वप्स्ये सौमित्रे भवता विना |
335 | 6005009c | कथंचित्प्रज्वलन्कामः समासुप्तं जले दहेत् |
336 | 6005010a | बह्वेतत्कामयानस्य शक्यमेतेन जीवितुम् |
337 | 6005010c | यदहं सा च वामोरुरेकां धरणिमाश्रितौ |
338 | 6005011a | केदारस्येव केदारः सोदकस्य निरूदकः |
339 | 6005011c | उपस्नेहेन जीवामि जीवन्तीं यच्छृणोमि ताम् |
340 | 6005012a | कदा तु खलु सुस्शोणीं शतपत्रायतेक्षणाम् |
341 | 6005012c | विजित्य शत्रून्द्रक्ष्यामि सीतां स्फीतामिव श्रियम् |
342 | 6005013a | कदा नु चारुबिम्बौष्ठं तस्याः पद्ममिवाननम् |
343 | 6005013c | ईषदुन्नम्य पास्यामि रसायनमिवातुरः |
344 | 6005014a | तौ तस्याः संहतौ पीनौ स्तनौ तालफलोपमौ |
345 | 6005014c | कदा नु खलु सोत्कम्पौ हसन्त्या मां भजिष्यतः |
346 | 6005015a | सा नूनमसितापाङ्गी रक्षोमध्यगता सती |
347 | 6005015c | मन्नाथा नाथहीनेव त्रातारं नाधिगच्छति |
348 | 6005016a | कदा विक्षोभ्य रक्षांसि सा विधूयोत्पतिष्यति |
349 | 6005016c | विधूय जलदान्नीलाञ्शशिलेखा शरत्स्विव |
350 | 6005017a | स्वभावतनुका नूनं शोकेनानशनेन च |
351 | 6005017c | भूयस्तनुतरा सीता देशकालविपर्ययात् |
352 | 6005018a | कदा नु राक्षसेन्द्रस्य निधायोरसि सायकान् |
353 | 6005018c | सीतां प्रत्याहरिष्यामि शोकमुत्सृज्य मानसं |
354 | 6005019a | कदा नु खलु मां साध्वी सीतामरसुतोपमा |
355 | 6005019c | सोत्कण्ठा कण्ठमालम्ब्य मोक्ष्यत्यानन्दजं जलम् |
356 | 6005020a | कदा शोकमिमं घोरं मैथिली विप्रयोगजम् |
357 | 6005020c | सहसा विप्रमोक्ष्यामि वासः शुक्लेतरं यथा |
358 | 6005021a | एवं विलपतस्तस्य तत्र रामस्य धीमतः |
359 | 6005021c | दिनक्षयान्मन्दवपुर्भास्करोऽस्तमुपागमत् |
360 | 6005022a | आश्वासितो लक्ष्मणेन रामः संध्यामुपासत |
361 | 6005022c | स्मरन्कमलपत्राक्षीं सीतां शोकाकुलीकृतः |
362 | 6006001a | लङ्कायां तु कृतं कर्म घोरं दृष्ट्वा भवावहम् |
363 | 6006001c | राक्षसेन्द्रो हनुमता शक्रेणेव महात्मना |
364 | 6006001e | अब्रवीद्राक्षसान्सर्वान्ह्रिया किंचिदवाङ्मुखः |
365 | 6006002a | धर्षिता च प्रविष्टा च लङ्का दुष्प्रसहा पुरी |
366 | 6006002c | तेन वानरमात्रेण दृष्टा सीता च जानकी |
367 | 6006003a | प्रसादो धर्षितश्चैत्यः प्रवरा राक्षसा हताः |
368 | 6006003c | आविला च पुरी लङ्का सर्वा हनुमता कृता |
369 | 6006004a | किं करिष्यामि भद्रं वः किं वा युक्तमनन्तरम् |
370 | 6006004c | उच्यतां नः समर्थं यत्कृतं च सुकृतं भवेत् |
371 | 6006005a | मन्त्रमूलं हि विजयं प्राहुरार्या मनस्विनः |
372 | 6006005c | तस्माद्वै रोचये मन्त्रं रामं प्रति महाबलाः |
373 | 6006006a | त्रिविधाः पुरुषा लोके उत्तमाधममध्यमाः |
374 | 6006006c | तेषां तु समवेतानां गुणदोषं वदाम्यहम् |
375 | 6006007a | मन्त्रिभिर्हितसंयुक्तैः समर्थैर्मन्त्रनिर्णये |
376 | 6006007c | मित्रैर्वापि समानार्थैर्बान्धवैरपि वा हितैः |
377 | 6006008a | सहितो मन्त्रयित्वा यः कर्मारम्भान्प्रवर्तयेत् |
378 | 6006008c | दैवे च कुरुते यत्नं तमाहुः पुरुषोत्तमम् |
379 | 6006009a | एकोऽर्थं विमृशेदेको धर्मे प्रकुरुते मनः |
380 | 6006009c | एकः कार्याणि कुरुते तमाहुर्मध्यमं नरम् |
381 | 6006010a | गुणदोषावनिश्चित्य त्यक्त्वा दैवव्यपाश्रयम् |
382 | 6006010c | करिष्यामीति यः कार्यमुपेक्षेत्स नराधमः |
383 | 6006011a | यथेमे पुरुषा नित्यमुत्तमाधममध्यमाः |
384 | 6006011c | एवं मन्त्रोऽपि विज्ञेय उत्तमाधममध्यमः |
385 | 6006012a | ऐकमत्यमुपागम्य शास्त्रदृष्टेन चक्षुषा |
386 | 6006012c | मन्त्रिणो यत्र निरस्तास्तमाहुर्मन्त्रमुत्तमम् |
387 | 6006013a | बह्व्योऽपि मतयो गत्वा मन्त्रिणो ह्यर्थनिर्णये |
388 | 6006013c | पुनर्यत्रैकतां प्राप्तः स मन्त्रो मध्यमः स्मृतः |
389 | 6006014a | अन्योन्यमतिमास्थाय यत्र संप्रतिभाष्यते |
390 | 6006014c | न चैकमत्ये श्रेयोऽस्ति मन्त्रः सोऽधम उच्यते |
391 | 6006015a | तस्मात्सुमन्त्रितं साधु भवन्तो मन्त्रिसत्तमाः |
392 | 6006015c | कार्यं संप्रतिपद्यन्तामेतत्कृत्यतमं मम |
393 | 6006016a | वानराणां हि वीराणां सहस्रैः परिवारितः |
394 | 6006016c | रामोऽभ्येति पुरीं लङ्कामस्माकमुपरोधकः |
395 | 6006017a | तरिष्यति च सुव्यक्तं राघवः सागरं सुखम् |
396 | 6006017c | तरसा युक्तरूपेण सानुजः सबलानुगः |
397 | 6006018a | अस्मिन्नेवंगते कार्ये विरुद्धे वानरैः सह |
398 | 6006018c | हितं पुरे च सैन्ये च सर्वं संमन्त्र्यतां मम |
399 | 6007001a | इत्युक्ता राक्षसेन्द्रेण राक्षसास्ते महाबलाः |
400 | 6007001c | ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे रावणं राक्षसेश्वरम् |
401 | 6007002a | राजन्परिघशक्त्यृष्टिशूलपट्टससंकुलम् |
402 | 6007002c | सुमहन्नो बलं कस्माद्विषादं भजते भवान् |
403 | 6007003a | कैलासशिखरावासी यक्षैर्बहुभिरावृतः |
404 | 6007003c | सुमहत्कदनं कृत्वा वश्यस्ते धनदः कृतः |
405 | 6007004a | स महेश्वरसख्येन श्लाघमानस्त्वया विभो |
406 | 6007004c | निर्जितः समरे रोषाल्लोकपालो महाबलः |
407 | 6007005a | विनिहत्य च यक्षौघान्विक्षोभ्य च विगृह्य च |
408 | 6007005c | त्वया कैलासशिखराद्विमानमिदमाहृतम् |
409 | 6007006a | मयेन दानवेन्द्रेण त्वद्भयात्सख्यमिच्छता |
410 | 6007006c | दुहिता तव भार्यार्थे दत्ता राक्षसपुंगव |
411 | 6007007a | दानवेन्द्रो मधुर्नाम वीर्योत्सिक्तो दुरासदः |
412 | 6007007c | विगृह्य वशमानीतः कुम्भीनस्याः सुखावहः |
413 | 6007008a | निर्जितास्ते महाबाहो नागा गत्वा रसातलम् |
414 | 6007008c | वासुकिस्तक्षकः शङ्खो जटी च वशमाहृताः |
415 | 6007009a | अक्षया बलवन्तश्च शूरा लब्धवराः पुनः |
416 | 6007009c | त्वया संवत्सरं युद्ध्वा समरे दानवा विभो |
417 | 6007010a | स्वबलं समुपाश्रित्य नीता वशमरिंदम |
418 | 6007010c | मायाश्चाधिगतास्तत्र बहवो राक्षसाधिप |
419 | 6007011a | शूराश्च बलवन्तश्च वरुणस्य सुता रणे |
420 | 6007011c | निर्जितास्ते महाबाहो चतुर्विधबलानुगाः |
421 | 6007012a | मृत्युदण्डमहाग्राहं शाल्मलिद्वीपमण्डितम् |
422 | 6007012c | अवगाह्य त्वया राजन्यमस्य बलसागरम् |
423 | 6007013a | जयश्च विप्लुलः प्राप्तो मृत्युश्च प्रतिषेधितः |
424 | 6007013c | सुयुद्धेन च ते सर्वे लोकास्तत्र सुतोषिताः |
425 | 6007014a | क्षत्रियैर्बहुभिर्वीरैः शक्रतुल्यपराक्रमैः |
426 | 6007014c | आसीद्वसुमती पूर्णा महद्भिरिव पादपैः |
427 | 6007015a | तेषां वीर्यगुणोत्साहैर्न समो राघवो रणे |
428 | 6007015c | प्रसह्य ते त्वया राजन्हताः परमदुर्जयाः |
429 | 6007016a | राजन्नापदयुक्तेयमागता प्राकृताज्जनात् |
430 | 6007016c | हृदि नैव त्वया कार्या त्वं वधिष्यसि राघवम् |
431 | 6008001a | ततो नीलाम्बुदनिभः प्रहस्तो नाम राक्षसः |
432 | 6008001c | अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं शूरः सेनापतिस्तदा |
433 | 6008002a | देवदानवगन्धर्वाः पिशाचपतगोरगाः |
434 | 6008002c | न त्वां धर्षयितुं शक्ताः किं पुनर्वानरा रणे |
435 | 6008003a | सर्वे प्रमत्ता विश्वस्ता वञ्चिताः स्म हनूमता |
436 | 6008003c | न हि मे जीवतो गच्छेज्जीवन्स वनगोचरः |
437 | 6008004a | सर्वां सागरपर्यन्तां सशैलवनकाननाम् |
438 | 6008004c | करोम्यवानरां भूमिमाज्ञापयतु मां भवान् |
439 | 6008005a | रक्षां चैव विधास्यामि वानराद्रजनीचर |
440 | 6008005c | नागमिष्यति ते दुःखं किंचिदात्मापराधजम् |
441 | 6008006a | अब्रवीच्च सुसंक्रुद्धो दुर्मुखो नाम राक्षसः |
442 | 6008006c | इदं न क्षमणीयं हि सर्वेषां नः प्रधर्षणम् |
443 | 6008007a | अयं परिभवो भूयः पुरस्यान्तःपुरस्य च |
444 | 6008007c | श्रीमतो राक्षसेन्द्रस्य वानरेन्द्रप्रधर्षणम् |
445 | 6008008a | अस्मिन्मुहूर्ते हत्वैको निवर्तिष्यामि वानरान् |
446 | 6008008c | प्रविष्टान्सागरं भीममम्बरं वा रसातलम् |
447 | 6008009a | ततोऽब्रवीत्सुसंक्रुद्धो वज्रदंष्ट्रो महाबलः |
448 | 6008009c | प्रगृह्य परिघं घोरं मांसशोणितरूपितम् |
449 | 6008010a | किं वो हनुमता कार्यं कृपणेन तपस्विना |
450 | 6008010c | रामे तिष्ठति दुर्धर्षे सुग्रीवे सहलक्ष्मणे |
451 | 6008011a | अद्य रामं ससुग्रीवं परिघेण सलक्ष्मणम् |
452 | 6008011c | आगमिष्यामि हत्वैको विक्षोभ्य हरिवाहिनीम् |
453 | 6008012a | कौम्भकर्णिस्ततो वीरो निकुम्भो नाम वीर्यवान् |
454 | 6008012c | अब्रवीत्परमकुर्द्धो रावणं लोकरावणम् |
455 | 6008013a | सर्वे भवन्तस्तिष्ठन्तु महाराजेन संगताः |
456 | 6008013c | अहमेको हनिष्यामि राघवं सहलक्ष्मणम् |
457 | 6008014a | ततो वज्रहनुर्नाम राक्षसः पर्वतोपमः |
458 | 6008014c | क्रुद्धः परिलिहन्वक्त्रं जिह्वया वाक्यमब्रवीत् |
459 | 6008015a | स्वैरं कुर्वन्तु कार्याणि भवन्तो विगतज्वराः |
460 | 6008015c | एकोऽहं भक्षयिष्यामि तान्सर्वान्हरियूथपान् |
461 | 6008016a | स्वस्थाः क्रीडन्तु निश्चिन्ताः पिबन्तु मधुवारुणीम् |
462 | 6008016c | अहमेको हनिष्यामि सुग्रीवं सहलक्ष्मणम् |
463 | 6008016e | साङ्गदं च हनूमन्तं रामं च रणकुञ्जरम् |
464 | 6009001a | ततो निकुम्भो रभसः सूर्यशत्रुर्महाबलः |
465 | 6009001c | सुप्तघ्नो यज्ञकोपश्च महापार्श्वो महोअरः |
466 | 6009002a | अग्निकेतुश्च दुर्धर्षो रश्मिकेतुश्च राक्षसः |
467 | 6009002c | इन्द्रजिच्च महातेजा बलवान्रावणात्मजः |
468 | 6009003a | प्रहस्तोऽथ विरूपाक्षो वज्रदंष्ट्रो महाबलः |
469 | 6009003c | धूम्राक्षश्चातिकायश्च दुर्मुखश्चैव राक्षसः |
470 | 6009004a | परिघान्पट्टसान्प्रासाञ्शक्तिशूलपरश्वधान् |
471 | 6009004c | चापानि च सबाणानि खड्गांश्च विपुलाञ्शितान् |
472 | 6009005a | प्रगृह्य परमक्रुद्धाः समुत्पत्य च राक्षसाः |
473 | 6009005c | अब्रुवन्रावणं सर्वे प्रदीप्ता इव तेजसा |
474 | 6009006a | अद्य रामं वधिष्यामः सुग्रीवं च सलक्ष्मणम् |
475 | 6009006c | कृपणं च हनूमन्तं लङ्का येन प्रधर्षिता |
476 | 6009007a | तान्गृहीतायुधान्सर्वान्वारयित्वा विभीषणः |
477 | 6009007c | अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं पुनः प्रत्युपवेश्य तान् |
478 | 6009008a | अप्युपायैस्त्रिभिस्तात योऽर्थः प्राप्तुं न शक्यते |
479 | 6009008c | तस्य विक्रमकालांस्तान्युक्तानाहुर्मनीषिणः |
480 | 6009009a | प्रमत्तेष्वभियुक्तेषु दैवेन प्रहतेषु च |
481 | 6009009c | विक्रमास्तात सिध्यन्ति परीक्ष्य विधिना कृताः |
482 | 6009010a | अप्रमत्तं कथं तं तु विजिगीषुं बले स्थितम् |
483 | 6009010c | जितरोषं दुराधर्षं प्रधर्षयितुमिच्छथ |
484 | 6009011a | समुद्रं लङ्घयित्वा तु घोरं नदनदीपतिम् |
485 | 6009011c | कृतं हनुमता कर्म दुष्करं तर्कयेत कः |
486 | 6009012a | बलान्यपरिमेयानि वीर्याणि च निशाचराः |
487 | 6009012c | परेषां सहसावज्ञा न कर्तव्या कथंचन |
488 | 6009013a | किं च राक्षसराजस्य रामेणापकृतं पुरा |
489 | 6009013c | आजहार जनस्थानाद्यस्य भार्यां यशस्विनः |
490 | 6009014a | खरो यद्यतिवृत्तस्तु रामेण निहतो रणे |
491 | 6009014c | अवश्यं प्राणिनां प्राणा रक्षितव्या यथा बलम् |
492 | 6009015a | एतन्निमित्तं वैदेही भयं नः सुमहद्भवेत् |
493 | 6009015c | आहृता सा परित्याज्या कलहार्थे कृते न किम् |
494 | 6009016a | न नः क्षमं वीर्यवता तेन धर्मानुवर्तिना |
495 | 6009016c | वैरं निरर्थकं कर्तुं दीयतामस्य मैथिली |
496 | 6009017a | यावन्न सगजां साश्वां बहुरत्नसमाकुलाम् |
497 | 6009017c | पुरीं दारयते बाणैर्दीयतामस्य मैथिली |
498 | 6009018a | यावत्सुघोरा महती दुर्धर्षा हरिवाहिनी |
499 | 6009018c | नावस्कन्दति नो लङ्कां तावत्सीता प्रदीयताम् |
500 | 6009019a | विनश्येद्धि पुरी लङ्का शूराः सर्वे च राक्षसाः |
501 | 6009019c | रामस्य दयिता पत्नी न स्वयं यदि दीयते |
502 | 6009020a | प्रसादये त्वां बन्धुत्वात्कुरुष्व वचनं मम |
503 | 6009020c | हितं पथ्यं त्वहं ब्रूमि दीयतामस्य मैथिली |
504 | 6009021a | पुरा शरत्सूर्यमरीचिसंनिभा;न्नवाग्रपुङ्खान्सुदृढान्नृपात्मजः |
505 | 6009021c | सृजत्यमोघान्विशिखान्वधाय ते; प्रदीयतां दाशरथाय मैथिली |
506 | 6009022a | त्यजस्व कोपं सुखधर्मनाशनं; भजस्व धर्मं रतिकीर्तिवर्धनम् |
507 | 6009022c | प्रसीद जीवेम सपुत्रबान्धवाः; प्रदीयतां दाशरथाय मैथिली |
508 | 6010001a | सुनिविष्टं हितं वाक्यमुक्तवन्तं विभीषणम् |
509 | 6010001c | अब्रवीत्परुषं वाक्यं रावणः कालचोदितः |
510 | 6010002a | वसेत्सह सपत्नेन क्रुद्धेनाशीविषेण वा |
511 | 6010002c | न तु मित्रप्रवादेन संवसेच्छत्रुसेविना |
512 | 6010003a | जानामि शीलं ज्ञातीनां सर्वलोकेषु राक्षस |
513 | 6010003c | हृष्यन्ति व्यसनेष्वेते ज्ञातीनां ज्ञातयः सदा |
514 | 6010004a | प्रधानं साधकं वैद्यं धर्मशीलं च राक्षस |
515 | 6010004c | ज्ञातयो ह्यवमन्यन्ते शूरं परिभवन्ति च |
516 | 6010005a | नित्यमन्योन्यसंहृष्टा व्यसनेष्वाततायिनः |
517 | 6010005c | प्रच्छन्नहृदया घोरा ज्ञातयस्तु भयावहाः |
518 | 6010006a | श्रूयन्ते हस्तिभिर्गीताः श्लोकाः पद्मवने क्वचित् |
519 | 6010006c | पाशहस्तान्नरान्दृष्ट्वा शृणु तान्गदतो मम |
520 | 6010007a | नाग्निर्नान्यानि शस्त्राणि न नः पाशा भयावहाः |
521 | 6010007c | घोराः स्वार्थप्रयुक्तास्तु ज्ञातयो नो भयावहाः |
522 | 6010008a | उपायमेते वक्ष्यन्ति ग्रहणे नात्र संशयः |
523 | 6010008c | कृत्स्नाद्भयाज्ज्ञातिभयं सुकष्टं विदितं च नः |
524 | 6010009a | विद्यते गोषु संपन्नं विद्यते ब्राह्मणे दमः |
525 | 6010009c | विद्यते स्त्रीषु चापल्यं विद्यते ज्ञातितो भयम् |
526 | 6010010a | ततो नेष्टमिदं सौम्य यदहं लोकसत्कृतः |
527 | 6010010c | ऐश्वर्यमभिजातश्च रिपूणां मूर्ध्नि च स्थितः |
528 | 6010011a | अन्यस्त्वेवंविधं ब्रूयाद्वाक्यमेतन्निशाचर |
529 | 6010011c | अस्मिन्मुहूर्ते न भवेत्त्वां तु धिक्कुलपांसनम् |
530 | 6010012a | इत्युक्तः परुषं वाक्यं न्यायवादी विभीषणः |
531 | 6010012c | उत्पपात गदापाणिश्चतुर्भिः सह राक्षसैः |
532 | 6010013a | अब्रवीच्च तदा वाक्यं जातक्रोधो विभीषणः |
533 | 6010013c | अन्तरिक्षगतः श्रीमान्भ्रातरं राक्षसाधिपम् |
534 | 6010014a | स त्वं भ्रातासि मे राजन्ब्रूहि मां यद्यदिच्छसि |
535 | 6010014c | इदं तु परुषं वाक्यं न क्षमाम्यनृतं तव |
536 | 6010015a | सुनीतं हितकामेन वाक्यमुक्तं दशानन |
537 | 6010015c | न गृह्णन्त्यकृतात्मानः कालस्य वशमागताः |
538 | 6010016a | सुलभाः पुरुषा राजन्सततं प्रियवादिनः |
539 | 6010016c | अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः |
540 | 6010017a | बद्धं कालस्य पाशेन सर्वभूतापहारिणा |
541 | 6010017c | न नश्यन्तमुपेक्षेयं प्रदीप्तं शरणं यथा |
542 | 6010018a | दीप्तपावकसंकाशैः शितैः काञ्चनभूषणैः |
543 | 6010018c | न त्वामिच्छाम्यहं द्रष्टुं रामेण निहतं शरैः |
544 | 6010019a | शूराश्च बलवन्तश्च कृतास्त्राश्च रणाजिरे |
545 | 6010019c | कालाभिपन्ना सीदन्ति यथा वालुकसेतवः |
546 | 6010020a | आत्मानं सर्वथा रक्ष पुरीं चेमां सराक्षसाम् |
547 | 6010020c | स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि सुखी भव मया विना |
548 | 6010021a | निवार्यमाणस्य मया हितैषिणा; न रोचते ते वचनं निशाचर |
549 | 6010021c | परीतकाला हि गतायुषो नरा; हितं न गृह्णन्ति सुहृद्भिरीरितम् |
550 | 6011001a | इत्युक्त्वा परुषं वाक्यं रावणं रावणानुजः |
551 | 6011001c | आजगाम मुहूर्तेन यत्र रामः सलक्ष्मणः |
552 | 6011002a | तं मेरुशिखराकारं दीप्तामिव शतह्रदाम् |
553 | 6011002c | गगनस्थं महीस्थास्ते ददृशुर्वानराधिपाः |
554 | 6011003a | तमात्मपञ्चमं दृष्ट्वा सुग्रीवो वानराधिपः |
555 | 6011003c | वानरैः सह दुर्धर्षश्चिन्तयामास बुद्धिमान् |
556 | 6011004a | चिन्तयित्वा मुहूर्तं तु वानरांस्तानुवाच ह |
557 | 6011004c | हनूमत्प्रमुखान्सर्वानिदं वचनमुत्तमम् |
558 | 6011005a | एष सर्वायुधोपेतश्चतुर्भिः सह राक्षसैः |
559 | 6011005c | राक्षसोऽभ्येति पश्यध्वमस्मान्हन्तुं न संशयः |
560 | 6011006a | सुग्रीवस्य वचः श्रुत्वा सर्वे ते वानरोत्तमाः |
561 | 6011006c | सालानुद्यम्य शैलांश्च इदं वचनमब्रुवन् |
562 | 6011007a | शीघ्रं व्यादिश नो राजन्वधायैषां दुरात्मनाम् |
563 | 6011007c | निपतन्तु हताश्चैते धरण्यामल्पजीविताः |
564 | 6011008a | तेषां संभाषमाणानामन्योन्यं स विभीषणः |
565 | 6011008c | उत्तरं तीरमासाद्य खस्थ एव व्यतिष्ठत |
566 | 6011009a | उवाच च महाप्राज्ञः स्वरेण महता महान् |
567 | 6011009c | सुग्रीवं तांश्च संप्रेक्ष्य खस्थ एव विभीषणः |
568 | 6011010a | रावणो नाम दुर्वृत्तो राक्षसो राक्षसेश्वरः |
569 | 6011010c | तस्याहमनुजो भ्राता विभीषण इति श्रुतः |
570 | 6011011a | तेन सीता जनस्थानाद्धृता हत्वा जटायुषम् |
571 | 6011011c | रुद्ध्वा च विवशा दीना राक्षसीभिः सुरक्षिता |
572 | 6011012a | तमहं हेतुभिर्वाक्यैर्विविधैश्च न्यदर्शयम् |
573 | 6011012c | साधु निर्यात्यतां सीता रामायेति पुनः पुनः |
574 | 6011013a | स च न प्रतिजग्राह रावणः कालचोदितः |
575 | 6011013c | उच्यमानो हितं वाक्यं विपरीत इवौषधम् |
576 | 6011014a | सोऽहं परुषितस्तेन दासवच्चावमानितः |
577 | 6011014c | त्यक्त्वा पुत्रांश्च दारांश्च राघवं शरणं गतः |
578 | 6011015a | सर्वलोकशरण्याय राघवाय महात्मने |
579 | 6011015c | निवेदयत मां क्षिप्रं विभीषणमुपस्थितम् |
580 | 6011016a | एतत्तु वचनं श्रुत्वा सुग्रीवो लघुविक्रमः |
581 | 6011016c | लक्ष्मणस्याग्रतो रामं संरब्धमिदमब्रवीत् |
582 | 6011017a | रावणस्यानुजो भ्राता विभीषण इति श्रुतः |
583 | 6011017c | चतुर्भिः सह रक्षोभिर्भवन्तं शरणं गतः |
584 | 6011018a | रावणेन प्रणिहितं तमवेहि विभीषणम् |
585 | 6011018c | तस्याहं निग्रहं मन्ये क्षमं क्षमवतां वर |
586 | 6011019a | राक्षसो जिह्मया बुद्ध्या संदिष्टोऽयमुपस्थितः |
587 | 6011019c | प्रहर्तुं मायया छन्नो विश्वस्ते त्वयि राघव |
588 | 6011020a | बध्यतामेष तीव्रेण दण्डेन सचिवैः सह |
589 | 6011020c | रावणस्य नृशंसस्य भ्राता ह्येष विभीषणः |
590 | 6011021a | एवमुक्त्वा तु तं रामं संरब्धो वाहिनीपतिः |
591 | 6011021c | वाक्यज्ञो वाक्यकुशलं ततो मौनमुपागमत् |
592 | 6011022a | सुग्रीवस्य तु तद्वाक्यं श्रुत्वा रामो महाबलः |
593 | 6011022c | समीपस्थानुवाचेदं हनूमत्प्रमुखान्हरीन् |
594 | 6011023a | यदुक्तं कपिराजेन रावणावरजं प्रति |
595 | 6011023c | वाक्यं हेतुमदत्यर्थं भवद्भिरपि तच्छ्रुतम् |
596 | 6011024a | सुहृदा ह्यर्थकृच्छेषु युक्तं बुद्धिमता सता |
597 | 6011024c | समर्थेनापि संदेष्टुं शाश्वतीं भूतिमिच्छता |
598 | 6011025a | इत्येवं परिपृष्टास्ते स्वं स्वं मतमतन्द्रिताः |
599 | 6011025c | सोपचारं तदा राममूचुर्हितचिकीर्षवः |
600 | 6011026a | अज्ञातं नास्ति ते किंचित्त्रिषु लोकेषु राघव |
601 | 6011026c | आत्मानं पूजयन्राम पृच्छस्यस्मान्सुहृत्तया |
602 | 6011027a | त्वं हि सत्यव्रतः शूरो धार्मिको दृढविक्रमः |
603 | 6011027c | परीक्ष्य कारा स्मृतिमान्निसृष्टात्मा सुहृत्सु च |
604 | 6011028a | तस्मादेकैकशस्तावद्ब्रुवन्तु सचिवास्तव |
605 | 6011028c | हेतुतो मतिसंपन्नाः समर्थाश्च पुनः पुनः |
606 | 6011029a | इत्युक्ते राघवायाथ मतिमानङ्गदोऽग्रतः |
607 | 6011029c | विभीषणपरीक्षार्थमुवाच वचनं हरिः |
608 | 6011030a | शत्रोः सकाशात्संप्राप्तः सर्वथा शङ्क्य एव हि |
609 | 6011030c | विश्वासयोग्यः सहसा न कर्तव्यो विभीषणः |
610 | 6011031a | छादयित्वात्मभावं हि चरन्ति शठबुद्धयः |
611 | 6011031c | प्रहरन्ति च रन्ध्रेषु सोऽनर्थः सुमहान्भवेत् |
612 | 6011032a | अर्थानर्थौ विनिश्चित्य व्यवसायं भजेत ह |
613 | 6011032c | गुणतः संग्रहं कुर्याद्दोषतस्तु विसर्जयेत् |
614 | 6011033a | यदि दोषो महांस्तस्मिंस्त्यज्यतामविशङ्कितम् |
615 | 6011033c | गुणान्वापि बहूञ्ज्ञात्वा संग्रहः क्रियतां नृप |
616 | 6011034a | शरभस्त्वथ निश्चित्य सार्थं वचनमब्रवीत् |
617 | 6011034c | क्षिप्रमस्मिन्नरव्याघ्र चारः प्रतिविधीयताम् |
618 | 6011035a | प्रणिधाय हि चारेण यथावत्सूक्ष्मबुद्धिना |
619 | 6011035c | परीक्ष्य च ततः कार्यो यथान्यायं परिग्रहः |
620 | 6011036a | जाम्बवांस्त्वथ संप्रेक्ष्य शास्त्रबुद्ध्या विचक्षणः |
621 | 6011036c | वाक्यं विज्ञापयामास गुणवद्दोषवर्जितम् |
622 | 6011037a | बद्धवैराच्च पापाच्च राक्षसेन्द्राद्विभीषणः |
623 | 6011037c | अदेश काले संप्राप्तः सर्वथा शङ्क्यतामयम् |
624 | 6011038a | ततो मैन्दस्तु संप्रेक्ष्य नयापनयकोविदः |
625 | 6011038c | वाक्यं वचनसंपन्नो बभाषे हेतुमत्तरम् |
626 | 6011039a | वचनं नाम तस्यैष रावणस्य विभीषणः |
627 | 6011039c | पृच्छ्यतां मधुरेणायं शनैर्नरवरेश्वर |
628 | 6011040a | भावमस्य तु विज्ञाय ततस्तत्त्वं करिष्यसि |
629 | 6011040c | यदि दृष्टो न दुष्टो वा बुद्धिपूर्वं नरर्षभ |
630 | 6011041a | अथ संस्कारसंपन्नो हनूमान्सचिवोत्तमः |
631 | 6011041c | उवाच वचनं श्लक्ष्णमर्थवन्मधुरं लघु |
632 | 6011042a | न भवन्तं मतिश्रेष्ठं समर्थं वदतां वरम् |
633 | 6011042c | अतिशाययितुं शक्तो बृहस्पतिरपि ब्रुवन् |
634 | 6011043a | न वादान्नापि संघर्षान्नाधिक्यान्न च कामतः |
635 | 6011043c | वक्ष्यामि वचनं राजन्यथार्थं रामगौरवात् |
636 | 6011044a | अर्थानर्थनिमित्तं हि यदुक्तं सचिवैस्तव |
637 | 6011044c | तत्र दोषं प्रपश्यामि क्रिया न ह्युपपद्यते |
638 | 6011045a | ऋते नियोगात्सामर्थ्यमवबोद्धुं न शक्यते |
639 | 6011045c | सहसा विनियोगो हि दोषवान्प्रतिभाति मे |
640 | 6011046a | चारप्रणिहितं युक्तं यदुक्तं सचिवैस्तव |
641 | 6011046c | अर्थस्यासंभवात्तत्र कारणं नोपपद्यते |
642 | 6011047a | अदेश काले संप्राप्त इत्ययं यद्विभीषणः |
643 | 6011047c | विवक्षा चात्र मेऽस्तीयं तां निबोध यथा मति |
644 | 6011048a | स एष देशः कालश्च भवतीह यथा तथा |
645 | 6011048c | पुरुषात्पुरुषं प्राप्य तथा दोषगुणावपि |
646 | 6011049a | दौरात्म्यं रावणे दृष्ट्वा विक्रमं च तथा त्वयि |
647 | 6011049c | युक्तमागमनं तस्य सदृशं तस्य बुद्धितः |
648 | 6011050a | अज्ञातरूपैः पुरुषैः स राजन्पृच्छ्यतामिति |
649 | 6011050c | यदुक्तमत्र मे प्रेक्षा काचिदस्ति समीक्षिता |
650 | 6011051a | पृच्छ्यमानो विशङ्केत सहसा बुद्धिमान्वचः |
651 | 6011051c | तत्र मित्रं प्रदुष्येत मिथ्यपृष्टं सुखागतम् |
652 | 6011052a | अशक्यः सहसा राजन्भावो वेत्तुं परस्य वै |
653 | 6011052c | अन्तः स्वभावैर्गीतैस्तैर्नैपुण्यं पश्यता भृशम् |
654 | 6011053a | न त्वस्य ब्रुवतो जातु लक्ष्यते दुष्टभावता |
655 | 6011053c | प्रसन्नं वदनं चापि तस्मान्मे नास्ति संशयः |
656 | 6011054a | अशङ्कितमतिः स्वस्थो न शठः परिसर्पति |
657 | 6011054c | न चास्य दुष्टा वाक्चापि तस्मान्नास्तीह संशयः |
658 | 6011055a | आकारश्छाद्यमानोऽपि न शक्यो विनिगूहितुम् |
659 | 6011055c | बलाद्धि विवृणोत्येव भावमन्तर्गतं नृणाम् |
660 | 6011056a | देशकालोपपन्नं च कार्यं कार्यविदां वर |
661 | 6011056c | सफलं कुरुते क्षिप्रं प्रयोगेणाभिसंहितम् |
662 | 6011057a | उद्योगं तव संप्रेक्ष्य मिथ्यावृत्तं च रावणम् |
663 | 6011057c | वालिनश्च वधं श्रुत्वा सुग्रीवं चाभिषेचितम् |
664 | 6011058a | राज्यं प्रार्थयमानश्च बुद्धिपूर्वमिहागतः |
665 | 6011058c | एतावत्तु पुरस्कृत्य युज्यते त्वस्य संग्रहः |
666 | 6011059a | यथाशक्ति मयोक्तं तु राक्षसस्यार्जवं प्रति |
667 | 6011059c | त्वं प्रमाणं तु शेषस्य श्रुत्वा बुद्धिमतां वर |
668 | 6012001a | अथ रामः प्रसन्नात्मा श्रुत्वा वायुसुतस्य ह |
669 | 6012001c | प्रत्यभाषत दुर्धर्षः श्रुतवानात्मनि स्थितम् |
670 | 6012002a | ममापि तु विवक्षास्ति काचित्प्रति विभीषणम् |
671 | 6012002c | श्रुतमिच्छामि तत्सर्वं भवद्भिः श्रेयसि स्थितैः |
672 | 6012003a | मित्रभावेन संप्राप्तं न त्यजेयं कथंचन |
673 | 6012003c | दोषो यद्यपि तस्य स्यात्सतामेतदगर्हितम् |
674 | 6012004a | रामस्य वचनं श्रुत्वा सुग्रीवः प्लवगेश्वरः |
675 | 6012004c | प्रत्यभाषत काकुत्स्थं सौहार्देनाभिचोदितः |
676 | 6012005a | किमत्र चित्रं धर्मज्ञ लोकनाथशिखामणे |
677 | 6012005c | यत्त्वमार्यं प्रभाषेथाः सत्त्ववान्सपथे स्थितः |
678 | 6012006a | मम चाप्यन्तरात्मायं शुद्धिं वेत्ति विभीषणम् |
679 | 6012006c | अनुमनाच्च भावाच्च सर्वतः सुपरीक्षितः |
680 | 6012007a | तस्मात्क्षिप्रं सहास्माभिस्तुल्यो भवतु राघव |
681 | 6012007c | विभीषणो महाप्राज्ञः सखित्वं चाभ्युपैतु नः |
682 | 6012008a | स सुग्रीवस्य तद्वाक्यं रामः श्रुत्वा विमृश्य च |
683 | 6012008c | ततः शुभतरं वाक्यमुवाच हरिपुंगवम् |
684 | 6012009a | सुदुष्टो वाप्यदुष्टो वा किमेष रजनीचरः |
685 | 6012009c | सूक्ष्ममप्यहितं कर्तुं ममाशक्तः कथंचन |
686 | 6012010a | पिशाचान्दानवान्यक्षान्पृथिव्यां चैव राक्षसान् |
687 | 6012010c | अङ्गुल्यग्रेण तान्हन्यामिच्छन्हरिगणेश्वर |
688 | 6012011a | श्रूयते हि कपोतेन शत्रुः शरणमागतः |
689 | 6012011c | अर्चितश्च यथान्यायं स्वैश्च मांसैर्निमन्त्रितः |
690 | 6012012a | स हि तं प्रतिजग्राह भार्या हर्तारमागतम् |
691 | 6012012c | कपोतो वानरश्रेष्ठ किं पुनर्मद्विधो जनः |
692 | 6012013a | ऋषेः कण्वस्य पुत्रेण कण्डुना परमर्षिणा |
693 | 6012013c | शृणु गाथां पुरा गीतां धर्मिष्ठां सत्यवादिना |
694 | 6012014a | बद्धाञ्जलिपुटं दीनं याचन्तं शरणागतम् |
695 | 6012014c | न हन्यादानृशंस्यार्थमपि शत्रुं परं पत |
696 | 6012015a | आर्तो वा यदि वा दृप्तः परेषां शरणं गतः |
697 | 6012015c | अरिः प्राणान्परित्यज्य रक्षितव्यः कृतात्मना |
698 | 6012016a | स चेद्भयाद्वा मोहाद्वा कामाद्वापि न रक्षति |
699 | 6012016c | स्वया शक्त्या यथातत्त्वं तत्पापं लोकगर्हितम् |
700 | 6012017a | विनष्टः पश्यतस्तस्य रक्षिणः शरणागतः |
701 | 6012017c | आदाय सुकृतं तस्य सर्वं गच्छेदरक्षितः |
702 | 6012018a | एवं दोषो महानत्र प्रपन्नानामरक्षणे |
703 | 6012018c | अस्वर्ग्यं चायशस्यं च बलवीर्यविनाशनम् |
704 | 6012019a | करिष्यामि यथार्थं तु कण्डोर्वचनमुत्तमम् |
705 | 6012019c | धर्मिष्ठं च यशस्यं च स्वर्ग्यं स्यात्तु फलोदये |
706 | 6012020a | सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते |
707 | 6012020c | अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम |
708 | 6012021a | आनयैनं हरिश्रेष्ठ दत्तमस्याभयं मया |
709 | 6012021c | विभीषणो वा सुग्रीव यदि वा रावणः स्वयम् |
710 | 6012022a | ततस्तु सुग्रीववचो निशम्य त;द्धरीश्वरेणाभिहितं नरेश्वरः |
711 | 6012022c | विभीषणेनाशु जगाम संगमं; पतत्रिराजेन यथा पुरंदरः |
712 | 6013001a | राघवेणाभये दत्ते संनतो रावणानुजः |
713 | 6013001c | खात्पपातावनिं हृष्टो भक्तैरनुचरैः सह |
714 | 6013002a | स तु रामस्य धर्मात्मा निपपात विभीषणः |
715 | 6013002c | पादयोः शरणान्वेषी चतुर्भिः सह राक्षसैः |
716 | 6013003a | अब्रवीच्च तदा रामं वाक्यं तत्र विभीषणः |
717 | 6013003c | धर्मयुक्तं च युक्तं च साम्प्रतं संप्रहर्षणम् |
718 | 6013004a | अनुजो रावणस्याहं तेन चास्म्यवमानितः |
719 | 6013004c | भवन्तं सर्वभूतानां शरण्यं शरणं गतः |
720 | 6013005a | परित्यक्ता मया लङ्का मित्राणि च धनानि च |
721 | 6013005c | भवद्गतं मे राज्यं च जीवितं च सुखानि च |
722 | 6013006a | राक्षसानां वधे साह्यं लङ्कायाश्च प्रधर्षणे |
723 | 6013006c | करिष्यामि यथाप्राणं प्रवेक्ष्यामि च वाहिनीम् |
724 | 6013007a | इति ब्रुवाणं रामस्तु परिष्वज्य विभीषणम् |
725 | 6013007c | अब्रवील्लक्ष्मणं प्रीतः समुद्राज्जलमानय |
726 | 6013008a | तेन चेमं महाप्राज्ञमभिषिञ्च विभीषणम् |
727 | 6013008c | राजानं रक्षसां क्षिप्रं प्रसन्ने मयि मानद |
728 | 6013009a | एवमुक्तस्तु सौमित्रिरभ्यषिञ्चद्विभीषणम् |
729 | 6013009c | मध्ये वानरमुख्यानां राजानं रामशासनात् |
730 | 6013010a | तं प्रसादं तु रामस्य दृष्ट्वा सद्यः प्लवंगमाः |
731 | 6013010c | प्रचुक्रुशुर्महानादान्साधु साध्विति चाब्रुवन् |
732 | 6013011a | अब्रवीच्च हनूमांश्च सुग्रीवश्च विभीषणम् |
733 | 6013011c | कथं सागरमक्षोभ्यं तराम वरुणालयम् |
734 | 6013012a | उपायैरभिगच्छामो यथा नदनदीपतिम् |
735 | 6013012c | तराम तरसा सर्वे ससैन्या वरुणालयम् |
736 | 6013013a | एवमुक्तस्तु धर्मज्ञः प्रत्युवाच विभीषणः |
737 | 6013013c | समुद्रं राघवो राजा शरणं गन्तुमर्हति |
738 | 6013014a | खानितः सगरेणायमप्रमेयो महोदधिः |
739 | 6013014c | कर्तुमर्हति रामस्य ज्ञातेः कार्यं महोदधिः |
740 | 6013015a | एवं विभीषणेनोक्ते राक्षसेन विपश्चिता |
741 | 6013015c | प्रकृत्या धर्मशीलस्य राघवस्याप्यरोचत |
742 | 6013016a | स लक्ष्मणं महातेजाः सुग्रीवं च हरीश्वरम् |
743 | 6013016c | सत्क्रियार्थं क्रियादक्षः स्मितपूर्वमुवाच ह |
744 | 6013017a | विभीषणस्य मन्त्रोऽयं मम लक्ष्मण रोचते |
745 | 6013017c | ब्रूहि त्वं सहसुग्रीवस्तवापि यदि रोचते |
746 | 6013018a | सुग्रीवः पण्डितो नित्यं भवान्मन्त्रविचक्षणः |
747 | 6013018c | उभाभ्यां संप्रधार्यार्यं रोचते यत्तदुच्यताम् |
748 | 6013019a | एवमुक्तौ तु तौ वीरावुभौ सुग्रीवलक्ष्मणौ |
749 | 6013019c | समुदाचार संयुक्तमिदं वचनमूचतुः |
750 | 6013020a | किमर्थं नो नरव्याघ्र न रोचिष्यति राघव |
751 | 6013020c | विभीषणेन यत्तूक्तमस्मिन्काले सुखावहम् |
752 | 6013021a | अबद्ध्वा सागरे सेतुं घोरेऽस्मिन्वरुणालये |
753 | 6013021c | लङ्का नासादितुं शक्या सेन्द्रैरपि सुरासुरैः |
754 | 6013022a | विभीषणस्य शूरस्य यथार्थं क्रियतां वचः |
755 | 6013022c | अलं कालात्ययं कृत्वा समुद्रोऽयं नियुज्यताम् |
756 | 6013023a | एवमुक्तः कुशास्तीर्णे तीरे नदनदीपतेः |
757 | 6013023c | संविवेश तदा रामो वेद्यामिव हुताशनः |
758 | 6014001a | तस्य रामस्य सुप्तस्य कुशास्तीर्णे महीतले |
759 | 6014001c | नियमादप्रमत्तस्य निशास्तिस्रोऽतिचक्रमुः |
760 | 6014002a | न च दर्शयते मन्दस्तदा रामस्य सागरः |
761 | 6014002c | प्रयतेनापि रामेण यथार्हमभिपूजितः |
762 | 6014003a | समुद्रस्य ततः क्रुद्धो रामो रक्तान्तलोचनः |
763 | 6014003c | समीपस्थमुवाचेदं लक्ष्मणं शुभलक्ष्मणम् |
764 | 6014004a | पश्य तावदनार्यस्य पूज्यमानस्य लक्ष्मण |
765 | 6014004c | अवलेपं समुद्रस्य न दर्शयति यत्स्वयम् |
766 | 6014005a | प्रशमश्च क्षमा चैव आर्जवं प्रियवादिता |
767 | 6014005c | असामर्थ्यं फलन्त्येते निर्गुणेषु सतां गुणाः |
768 | 6014006a | आत्मप्रशंसिनं दुष्टं धृष्टं विपरिधावकम् |
769 | 6014006c | सर्वत्रोत्सृष्टदण्डं च लोकः सत्कुरुते नरम् |
770 | 6014007a | न साम्ना शक्यते कीर्तिर्न साम्ना शक्यते यशः |
771 | 6014007c | प्राप्तुं लक्ष्मण लोकेऽस्मिञ्जयो वा रणमूधनि |
772 | 6014008a | अद्य मद्बाणनिर्भिन्नैर्मकरैर्मकरालयम् |
773 | 6014008c | निरुद्धतोयं सौमित्रे प्लवद्भिः पश्य सर्वतः |
774 | 6014009a | महाभोगानि मत्स्यानां करिणां च करानिह |
775 | 6014009c | भोगांश्च पश्य नागानां मया भिन्नानि लक्ष्मण |
776 | 6014010a | सशङ्खशुक्तिका जालं समीनमकरं शरैः |
777 | 6014010c | अद्य युद्धेन महता समुद्रं परिशोषये |
778 | 6014011a | क्षमया हि समायुक्तं मामयं मकरालयः |
779 | 6014011c | असमर्थं विजानाति धिक्क्षमामीदृशे जने |
780 | 6014012a | चापमानय सौमित्रे शरांश्चाशीविषोपमान् |
781 | 6014012c | अद्याक्षोभ्यमपि क्रुद्धः क्षोभयिष्यामि सागरम् |
782 | 6014013a | वेलासु कृतमर्यादं सहसोर्मिसमाकुलम् |
783 | 6014013c | निर्मर्यादं करिष्यामि सायकैर्वरुणालयम् |
784 | 6014014a | एवमुक्त्वा धनुष्पाणिः क्रोधविस्फारितेक्षणः |
785 | 6014014c | बभूव रामो दुर्धर्षो युगान्ताग्निरिव ज्वलन् |
786 | 6014015a | संपीड्य च धनुर्घोरं कम्पयित्वा शरैर्जगत् |
787 | 6014015c | मुमोच विशिखानुग्रान्वज्राणीव शतक्रतुः |
788 | 6014016a | ते ज्वलन्तो महावेगास्तेजसा सायकोत्तमाः |
789 | 6014016c | प्रविशन्ति समुद्रस्य सलिलं त्रस्तपन्नगम् |
790 | 6014017a | ततो वेगः समुद्रस्य सनक्रमकरो महान् |
791 | 6014017c | संबभूव महाघोरः समारुतरवस्तदा |
792 | 6014018a | महोर्मिमालाविततः शङ्खशुक्तिसमाकुलः |
793 | 6014018c | सधूमपरिवृत्तोर्मिः सहसाभून्महोदधिः |
794 | 6014019a | व्यथिताः पन्नगाश्चासन्दीप्तास्या दीप्तलोचनाः |
795 | 6014019c | दानवाश्च महावीर्याः पातालतलवासिनः |
796 | 6014020a | ऊर्मयः सिन्धुराजस्य सनक्रमकरास्तदा |
797 | 6014020c | विन्ध्यमन्दरसंकाशाः समुत्पेतुः सहस्रशः |
798 | 6014021a | आघूर्णिततरङ्गौघः संभ्रान्तोरगराक्षसः |
799 | 6014021c | उद्वर्तित महाग्राहः संवृत्तः सलिलाशयः |
800 | 6015001a | ततो मध्यात्समुद्रस्य सागरः स्वयमुत्थितः |
801 | 6015001c | उदयन्हि महाशैलान्मेरोरिव दिवाकरः |
802 | 6015001e | पन्नगैः सह दीप्तास्यैः समुद्रः प्रत्यदृश्यत |
803 | 6015002a | स्निग्धवैदूर्यसंकाशो जाम्बूनदविभूषितः |
804 | 6015002c | रक्तमाल्याम्बरधरः पद्मपत्रनिभेक्षणः |
805 | 6015003a | सागरः समतिक्रम्य पूर्वमामन्त्र्य वीर्यवान् |
806 | 6015003c | अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं राघवं शरपाणिनम् |
807 | 6015004a | पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च राघवः |
808 | 6015004c | स्वभावे सौम्य तिष्ठन्ति शाश्वतं मार्गमाश्रिताः |
809 | 6015005a | तत्स्वभावो ममाप्येष यदगाधोऽहमप्लवः |
810 | 6015005c | विकारस्तु भवेद्राध एतत्ते प्रवदाम्यहम् |
811 | 6015006a | न कामान्न च लोभाद्वा न भयात्पार्थिवात्मज |
812 | 6015006c | ग्राहनक्राकुलजलं स्तम्भयेयं कथंचन |
813 | 6015007a | विधास्ये राम येनापि विषहिष्ये ह्यहं तथा |
814 | 6015007c | ग्राहा न प्रहरिष्यन्ति यावत्सेना तरिष्यति |
815 | 6015008a | अयं सौम्य नलो नाम तनुजो विश्वकर्मणः |
816 | 6015008c | पित्रा दत्तवरः श्रीमान्प्रतिमो विश्वकर्मणः |
817 | 6015009a | एष सेतुं महोत्साहः करोतु मयि वानरः |
818 | 6015009c | तमहं धारयिष्यामि तथा ह्येष यथा पिता |
819 | 6015010a | एवमुक्त्वोदधिर्नष्टः समुत्थाय नलस्ततः |
820 | 6015010c | अब्रवीद्वानरश्रेष्ठो वाक्यं रामं महाबलः |
821 | 6015011a | अहं सेतुं करिष्यामि विस्तीर्णे वरुणालये |
822 | 6015011c | पितुः सामर्थ्यमास्थाय तत्त्वमाह महोदधिः |
823 | 6015012a | मम मातुर्वरो दत्तो मन्दरे विश्वकर्मणा |
824 | 6015012c | औरसस्तस्य पुत्रोऽहं सदृशो विश्वकर्मणा |
825 | 6015013a | न चाप्यहमनुक्तो वै प्रब्रूयामात्मनो गुणान् |
826 | 6015013c | काममद्यैव बध्नन्तु सेतुं वानरपुंगवाः |
827 | 6015014a | ततो निसृष्टरामेण सर्वतो हरियूथपाः |
828 | 6015014c | अभिपेतुर्महारण्यं हृष्टाः शतसहस्रशः |
829 | 6015015a | ते नगान्नगसंकाशाः शाखामृगगणर्षभाः |
830 | 6015015c | बभञ्जुर्वानरास्तत्र प्रचकर्षुश्च सागरम् |
831 | 6015016a | ते सालैश्चाश्वकर्णैश्च धवैर्वंशैश्च वानराः |
832 | 6015016c | कुटजैरर्जुनैस्तालैस्तिकलैस्तिमिशैरपि |
833 | 6015017a | बिल्वकैः सप्तपर्णैश्च कर्णिकारैश्च पुष्पितैः |
834 | 6015017c | चूतैश्चाशोकवृक्षैश्च सागरं समपूरयन् |
835 | 6015018a | समूलांश्च विमूलांश्च पादपान्हरिसत्तमाः |
836 | 6015018c | इन्द्रकेतूनिवोद्यम्य प्रजह्रुर्हरयस्तरून् |
837 | 6015019a | प्रक्षिप्यमाणैरचलैः सहसा जलमुद्धतम् |
838 | 6015019c | समुत्पतितमाकाशमपासर्पत्ततस्ततः |
839 | 6015020a | दशयोजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम् |
840 | 6015020c | नलश्चक्रे महासेतुं मध्ये नदनदीपतेः |
841 | 6015021a | शिलानां क्षिप्यमाणानां शैलानां तत्र पात्यताम् |
842 | 6015021c | बभूव तुमुलः शब्दस्तदा तस्मिन्महोदधौ |
843 | 6015022a | स नलेन कृतः सेतुः सागरे मकरालये |
844 | 6015022c | शुशुभे सुभगः श्रीमान्स्वातीपथ इवाम्बरे |
845 | 6015023a | ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः |
846 | 6015024a | आप्लवन्तः प्लवन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः |
847 | 6015024c | तमचिन्त्यमसह्यं च अद्भुतं लोमहर्षणम् |
848 | 6015024e | ददृशुः सर्वभूतानि सागरे सेतुबन्धनम् |
849 | 6015025a | तानि कोटिसहस्राणि वानराणां महौजसाम् |
850 | 6015025c | बध्नन्तः सागरे सेतुं जग्मुः पारं महोदधेः |
851 | 6015026a | विशालः सुकृतः श्रीमान्सुभूमिः सुसमाहितः |
852 | 6015026c | अशोभत महासेतुः सीमन्त इव सागरे |
853 | 6015027a | ततः परे समुद्रस्य गदापाणिर्विभीषणः |
854 | 6015027c | परेषामभिघतार्थमतिष्ठत्सचिवैः सह |
855 | 6015028a | अग्रतस्तस्य सैन्यस्य श्रीमान्रामः सलक्ष्मणः |
856 | 6015028c | जगाम धन्वी धर्मात्मा सुग्रीवेण समन्वितः |
857 | 6015029a | अन्ये मध्येन गच्छन्ति पार्श्वतोऽन्ये प्लवंगमाः |
858 | 6015029c | सलिले प्रपतन्त्यन्ये मार्गमन्ये न लेभिरे |
859 | 6015029e | केचिद्वैहायस गताः सुपर्णा इव पुप्लुवुः |
860 | 6015030a | घोषेण महता घोषं सागरस्य समुच्छ्रितम् |
861 | 6015030c | भीममन्तर्दधे भीमा तरन्ती हरिवाहिनी |
862 | 6015031a | वानराणां हि सा तीर्णा वाहिनी नल सेतुना |
863 | 6015031c | तीरे निविविशे राज्ञा बहुमूलफलोदके |
864 | 6015032a | तदद्भुतं राघव कर्म दुष्करं; समीक्ष्य देवाः सह सिद्धचारणैः |
865 | 6015032c | उपेत्य रामं सहिता महर्षिभिः; समभ्यषिञ्चन्सुशुभैर्जलैः पृथक् |
866 | 6015033a | जयस्व शत्रून्नरदेव मेदिनीं; ससागरां पालय शाश्वतीः समाः |
867 | 6015033c | इतीव रामं नरदेवसत्कृतं; शुभैर्वचोभिर्विविधैरपूजयन् |
868 | 6016001a | सबले सागरं तीर्णे रामे दशरथात्मजे |
869 | 6016001c | अमात्यौ रावणः श्रीमानब्रवीच्छुकसारणौ |
870 | 6016002a | समग्रं सागरं तीर्णं दुस्तरं वानरं बलम् |
871 | 6016002c | अभूतपूर्वं रामेण सागरे सेतुबन्धनम् |
872 | 6016003a | सागरे सेतुबन्धं तु न श्रद्दध्यां कथंचन |
873 | 6016003c | अवश्यं चापि संख्येयं तन्मया वानरं बलम् |
874 | 6016004a | भवन्तौ वानरं सैन्यं प्रविश्यानुपलक्षितौ |
875 | 6016004c | परिमाणं च वीर्यं च ये च मुख्याः प्लवंगमाः |
876 | 6016005a | मन्त्रिणो ये च रामस्य सुग्रीवस्य च संमताः |
877 | 6016005c | ये पूर्वमभिवर्तन्ते ये च शूराः प्लवंगमाः |
878 | 6016006a | स च सेतुर्यथा बद्धः सागरे सलिलार्णवे |
879 | 6016006c | निवेशश्च यथा तेषां वानराणां महात्मनाम् |
880 | 6016007a | रामस्य व्यवसायं च वीर्यं प्रहरणानि च |
881 | 6016007c | लक्ष्मणस्य च वीरस्य तत्त्वतो ज्ञातुमर्हथ |
882 | 6016008a | कश्च सेनापतिस्तेषां वानराणां महौजसाम् |
883 | 6016008c | एतज्ज्ञात्वा यथातत्त्वं शीघ्रमगन्तुमर्हथः |
884 | 6016009a | इति प्रतिसमादिष्टौ राक्षसौ शुकसारणौ |
885 | 6016009c | हरिरूपधरौ वीरौ प्रविष्टौ वानरं बलम् |
886 | 6016010a | ततस्तद्वानरं सैन्यमचिन्त्यं लोमहर्षणम् |
887 | 6016010c | संख्यातुं नाध्यगच्छेतां तदा तौ शुकसारणौ |
888 | 6016011a | तत्स्थितं पर्वताग्रेषु निर्दरेषु गुहासु च |
889 | 6016011c | समुद्रस्य च तीरेषु वनेषूपवनेषु च |
890 | 6016012a | तरमाणं च तीर्णं च तर्तुकामं च सर्वशः |
891 | 6016012c | निविष्टं निविशच्चैव भीमनादं महाबलम् |
892 | 6016013a | तौ ददर्श महातेजाः प्रच्छन्नौ च विभीषणः |
893 | 6016013c | आचचक्षेऽथ रामाय गृहीत्वा शुकसारणौ |
894 | 6016013e | लङ्कायाः समनुप्राप्तौ चारौ परपुरंजयौ |
895 | 6016014a | तौ दृष्ट्वा व्यथितौ रामं निराशौ जीविते तदा |
896 | 6016014c | कृताञ्जलिपुटौ भीतौ वचनं चेदमूचतुः |
897 | 6016015a | आवामिहागतौ सौम्य रावणप्रहितावुभौ |
898 | 6016015c | परिज्ञातुं बलं कृत्स्नं तवेदं रघुनन्दन |
899 | 6016016a | तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा रामो दशरथात्मजः |
900 | 6016016c | अब्रवीत्प्रहसन्वाक्यं सर्वभूतहिते रतः |
901 | 6016017a | यदि दृष्टं बलं कृत्स्नं वयं वा सुसमीक्षिताः |
902 | 6016017c | यथोक्तं वा कृतं कार्यं छन्दतः प्रतिगम्यताम् |
903 | 6016018a | प्रविश्य नगरीं लङ्कां भवद्भ्यां धनदानुजः |
904 | 6016018c | वक्तव्यो रक्षसां राजा यथोक्तं वचनं मम |
905 | 6016019a | यद्बलं च समाश्रित्य सीतां मे हृतवानसि |
906 | 6016019c | तद्दर्शय यथाकामं ससैन्यः सहबान्धवः |
907 | 6016020a | श्वःकाले नगरीं लङ्कां सप्राकारां सतोरणाम् |
908 | 6016020c | राक्षसं च बलं पश्य शरैर्विध्वंसितं मया |
909 | 6016021a | घोरं रोषमहं मोक्ष्ये बलं धारय रावण |
910 | 6016021c | श्वःकाले वज्रवान्वज्रं दानवेष्विव वासवः |
911 | 6016022a | इति प्रतिसमादिष्टौ राक्षसौ शुकसारणौ |
912 | 6016022c | आगम्य नगरीं लङ्कामब्रूतां राक्षसाधिपम् |
913 | 6016023a | विभीषणगृहीतौ तु वधार्हौ राक्षसेश्वर |
914 | 6016023c | दृष्ट्वा धर्मात्मना मुक्तौ रामेणामिततेजसा |
915 | 6016024a | एकस्थानगता यत्र चत्वारः पुरुषर्षभाः |
916 | 6016024c | लोकपालोपमाः शूराः कृतास्त्रा दृढविक्रमाः |
917 | 6016025a | रामो दाशरथिः श्रीमाँल्लक्ष्मणश्च विभीषणः |
918 | 6016025c | सुग्रीवश्च महातेजा महेन्द्रसमविक्रमः |
919 | 6016026a | एते शक्ताः पुरीं लङ्कां सप्राकारां सतोरणाम् |
920 | 6016026c | उत्पाट्य संक्रामयितुं सर्वे तिष्ठन्तु वानराः |
921 | 6016027a | यादृशं तस्य रामस्य रूपं प्रहरणानि च |
922 | 6016027c | वधिष्यति पुरीं लङ्कामेकस्तिष्ठन्तु ते त्रयः |
923 | 6016028a | रामलक्ष्मणगुप्ता सा सुग्रीवेण च वाहिनी |
924 | 6016028c | बभूव दुर्धर्षतरा सर्वैरपि सुरासुरैः |
925 | 6016029a | प्रहृष्टरूपा ध्वजिनी वनौकसां; महात्मनां संप्रति योद्धुमिच्छताम् |
926 | 6016029c | अलं विरोधेन शमो विधीयतां; प्रदीयतां दाशरथाय मैथिली |
927 | 6017001a | तद्वचः पथ्यमक्लीबं सारणेनाभिभाषितम् |
928 | 6017001c | निशम्य रावणो राजा प्रत्यभाषत सारणम् |
929 | 6017002a | यदि मामभियुञ्जीरन्देवगन्धर्वदानवाः |
930 | 6017002c | नैव सीतां प्रदास्यामि सर्वलोकभयादपि |
931 | 6017003a | त्वं तु सौम्य परित्रस्तो हरिभिर्निर्जितो भृशम् |
932 | 6017003c | प्रतिप्रदानमद्यैव सीतायाः साधु मन्यसे |
933 | 6017003e | को हि नाम सपत्नो मां समरे जेतुमर्हति |
934 | 6017004a | इत्युक्त्वा परुषं वाक्यं रावणो राक्षसाधिपः |
935 | 6017004c | आरुरोह ततः श्रीमान्प्रासादं हिमपाण्डुरम् |
936 | 6017004e | बहुतालसमुत्सेधं रावणोऽथ दिदृक्षया |
937 | 6017005a | ताभ्यां चराभ्यां सहितो रावणः क्रोधमूर्छितः |
938 | 6017005c | पश्यमानः समुद्रं च पर्वतांश्च वनानि च |
939 | 6017005e | ददर्श पृथिवीदेशं सुसंपूर्णं प्लवंगमैः |
940 | 6017006a | तदपारमसंख्येयं वानराणां महद्बलम् |
941 | 6017006c | आलोक्य रावणो राजा परिपप्रच्छ सारणम् |
942 | 6017007a | एषां वानरमुख्यानां के शूराः के महाबलाः |
943 | 6017007c | के पूर्वमभिवर्तन्ते महोत्साहाः समन्ततः |
944 | 6017008a | केषां शृणोति सुग्रीवः के वा यूथपयूथपाः |
945 | 6017008c | सारणाचक्ष्व मे सर्वं के प्रधानाः प्लवंगमाः |
946 | 6017009a | सारणो राक्षसेन्द्रस्य वचनं परिपृच्छतः |
947 | 6017009c | आचचक्षेऽथ मुख्यज्ञो मुख्यांस्तांस्तु वनौकसः |
948 | 6017010a | एष योऽभिमुखो लङ्कां नर्दंस्तिष्ठति वानरः |
949 | 6017010c | यूथपानां सहस्राणां शतेन परिवारितः |
950 | 6017011a | यस्य घोषेण महता सप्राकारा सतोरणा |
951 | 6017011c | लङ्का प्रवेपते सर्वा सशैलवनकानना |
952 | 6017012a | सर्वशाखामृगेन्द्रस्य सुग्रीवस्य महात्मनः |
953 | 6017012c | बलाग्रे तिष्ठते वीरो नीलो नामैष यूथपः |
954 | 6017013a | बाहू प्रगृह्य यः पद्भ्यां महीं गच्छति वीर्यवान् |
955 | 6017013c | लङ्कामभिमुखः कोपादभीक्ष्णं च विजृम्भते |
956 | 6017014a | गिरिशृङ्गप्रतीकाशः पद्मकिञ्जल्कसंनिभः |
957 | 6017014c | स्फोटयत्यभिसंरब्धो लाङ्गूलं च पुनः पुनः |
958 | 6017015a | यस्य लाङ्गूलशब्देन स्वनन्तीव दिशो दश |
959 | 6017015c | एष वानरराजेन सुर्ग्रीवेणाभिषेचितः |
960 | 6017015e | यौवराज्येऽङ्गदो नाम त्वामाह्वयति संयुगे |
961 | 6017016a | ये तु विष्टभ्य गात्राणि क्ष्वेडयन्ति नदन्ति च |
962 | 6017016c | उत्थाय च विजृम्भन्ते क्रोधेन हरिपुंगवाः |
963 | 6017017a | एते दुष्प्रसहा घोराश्चण्डाश्चण्डपराक्रमाः |
964 | 6017017c | अष्टौ शतसहस्राणि दशकोटिशतानि च |
965 | 6017018a | य एनमनुगच्छन्ति वीराश्चन्दनवासिनः |
966 | 6017018c | एष आशंसते लङ्कां स्वेनानीकेन मर्दितुम् |
967 | 6017019a | श्वेतो रजतसंकाशः सबलो भीमविक्रमः |
968 | 6017019c | बुद्धिमान्वानरः शूरस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः |
969 | 6017020a | तूर्णं सुग्रीवमागम्य पुनर्गच्छति वानरः |
970 | 6017020c | विभजन्वानरीं सेनामनीकानि प्रहर्षयन् |
971 | 6017021a | यः पुरा गोमतीतीरे रम्यं पर्येति पर्वतम् |
972 | 6017021c | नाम्ना संकोचनो नाम नानानगयुतो गिरिः |
973 | 6017022a | तत्र राज्यं प्रशास्त्येष कुमुदो नाम यूथपः |
974 | 6017022c | योऽसौ शतसहस्राणां सहस्रं परिकर्षति |
975 | 6017023a | यस्य वाला बहुव्यामा दीर्घलाङ्गूलमाश्रिताः |
976 | 6017023c | ताम्राः पीताः सिताः श्वेताः प्रकीर्णा घोरकर्मणः |
977 | 6017024a | अदीनो रोषणश्चण्डः संग्राममभिकाङ्क्षति |
978 | 6017024c | एषैवाशंसते लङ्कां स्वेनानीकेन मर्दितुम् |
979 | 6017025a | यस्त्वेष सिंहसंकाशः कपिलो दीर्घकेसरः |
980 | 6017025c | निभृतः प्रेक्षते लङ्कां दिधक्षन्निव चक्षुषा |
981 | 6017026a | विन्ध्यं कृष्णगिरिं सह्यं पर्वतं च सुदर्शनम् |
982 | 6017026c | राजन्सततमध्यास्ते रम्भो नामैष यूथपः |
983 | 6017027a | शतं शतसहस्राणां त्रिंशच्च हरियूथपाः |
984 | 6017027c | परिवार्यानुगच्छन्ति लङ्कां मर्दितुमोजसा |
985 | 6017028a | यस्तु कर्णौ विवृणुते जृम्भते च पुनः पुनः |
986 | 6017028c | न च संविजते मृत्योर्न च यूथाद्विधावति |
987 | 6017029a | महाबलो वीतभयो रम्यं साल्वेय पर्वतम् |
988 | 6017029c | राजन्सततमध्यास्ते शरभो नाम यूथपः |
989 | 6017030a | एतस्य बलिनः सर्वे विहारा नाम यूथपाः |
990 | 6017030c | राजञ्शतसहस्राणि चत्वारिंशत्तथैव च |
991 | 6017031a | यस्तु मेघ इवाकाशं महानावृत्य तिष्ठति |
992 | 6017031c | मध्ये वानरवीराणां सुराणामिव वासवः |
993 | 6017032a | भेरीणामिव संनादो यस्यैष श्रूयते महान् |
994 | 6017032c | घोरः शाखामृगेन्द्राणां संग्राममभिकाङ्क्षताम् |
995 | 6017033a | एष पर्वतमध्यास्ते पारियात्रमनुत्तमम् |
996 | 6017033c | युद्धे दुष्प्रसहो नित्यं पनसो नाम यूथपः |
997 | 6017034a | एनं शतसहस्राणां शतार्धं पर्युपासते |
998 | 6017034c | यूथपा यूथपश्रेष्ठं येषां यूथानि भागशः |
999 | 6017035a | यस्तु भीमां प्रवल्गन्तीं चमूं तिष्ठति शोभयन् |
1000 | 6017035c | स्थितां तीरे समुद्रस्य द्वितीय इव सागरः |
1001 | 6017036a | एष दर्दरसंकाशो विनतो नाम यूथपः |
1002 | 6017036c | पिबंश्चरति पर्णाशां नदीनामुत्तमां नदीम् |
1003 | 6017037a | षष्टिः शतसहस्राणि बलमस्य प्लवंगमाः |
1004 | 6017037c | त्वामाह्वयति युद्धाय क्रथनो नाम यूथपः |
1005 | 6017038a | यस्तु गैरिकवर्णाभं वपुः पुष्यति वानरः |
1006 | 6017038c | गवयो नाम तेजस्वी त्वां क्रोधादभिवर्तते |
1007 | 6017039a | एनं शतसहस्राणि सप्ततिः पर्युपासते |
1008 | 6017039c | एष आशंसते लङ्कां स्वेनानीकेन मर्दितुम् |
1009 | 6017040a | एते दुष्प्रसहा घोरा बलिनः कामरूपिणः |
1010 | 6017040c | यूथपा यूथपश्रेष्ठा येषां संख्या न विद्यते |
1011 | 6018001a | तांस्तु तेऽहं प्रवक्ष्यामि प्रेक्षमाणस्य यूथपान् |
1012 | 6018001c | राघवार्थे पराक्रान्ता ये न रक्षन्ति जीवितम् |
1013 | 6018002a | स्निग्धा यस्य बहुश्यामा बाला लाङ्गूलमाश्रिताः |
1014 | 6018002c | ताम्राः पीताः सिताः श्वेताः प्रकीर्णा घोरकर्मणः |
1015 | 6018003a | प्रगृहीताः प्रकाशन्ते सूर्यस्येव मरीचयः |
1016 | 6018003c | पृथिव्यां चानुकृष्यन्ते हरो नामैष यूथपः |
1017 | 6018004a | यं पृष्ठतोऽनुगच्छन्ति शतशोऽथ सहस्रशः |
1018 | 6018004c | द्रुमानुद्यम्य सहिता लङ्कारोहणतत्पराः |
1019 | 6018005a | एष कोटीसहस्रेण वानराणां महौजसाम् |
1020 | 6018005c | आकाङ्क्षते त्वां संग्रामे जेतुं परपुरंजय |
1021 | 6018006a | नीलानिव महामेघांस्तिष्ठतो यांस्तु पश्यसि |
1022 | 6018006c | असिताञ्जनसंकाशान्युद्धे सत्यपराक्रमान् |
1023 | 6018007a | नखदंष्ट्रायुधान्वीरांस्तीक्ष्णकोपान्भयावहान् |
1024 | 6018007c | असंख्येयाननिर्देश्यान्परं पारमिवोदधेः |
1025 | 6018008a | पर्वतेषु च ये केचिद्विषमेषु नदीषु च |
1026 | 6018008c | एते त्वामभिवर्तन्ते राजन्नृष्काः सुदारुणाः |
1027 | 6018009a | एषां मध्ये स्थितो राजन्भीमाक्षो भीमदर्शनः |
1028 | 6018009c | पर्जन्य इव जीमूतैः समन्तात्परिवारितः |
1029 | 6018010a | ऋक्षवन्तं गिरिश्रेष्ठमध्यास्ते नर्मदां पिबन् |
1030 | 6018010c | सर्वर्क्षाणामधिपतिर्धूम्रो नामैष यूथपः |
1031 | 6018011a | यवीयानस्य तु भ्राता पश्यैनं पर्वतोपमम् |
1032 | 6018011c | भ्रात्रा समानो रूपेण विशिष्टस्तु पराक्रमे |
1033 | 6018012a | स एष जाम्बवान्नाम महायूथपयूथपः |
1034 | 6018012c | प्रशान्तो गुरुवर्ती च संप्रहारेष्वमर्षणः |
1035 | 6018013a | एतेन साह्यं सुमहत्कृतं शक्रस्य धीमता |
1036 | 6018013c | देवासुरे जाम्बवता लब्धाश्च बहवो वराः |
1037 | 6018014a | आरुह्य पर्वताग्रेभ्यो महाभ्रविपुलाः शिलाः |
1038 | 6018014c | मुञ्चन्ति विपुलाकारा न मृत्योरुद्विजन्ति च |
1039 | 6018015a | राक्षसानां च सदृशाः पिशाचानां च रोमशाः |
1040 | 6018015c | एतस्य सैन्ये बहवो विचरन्त्यग्नितेजसः |
1041 | 6018016a | यं त्वेनमभिसंरब्धं प्लवमानमिव स्थितम् |
1042 | 6018016c | प्रेक्षन्ते वानराः सर्वे स्थितं यूथपयूथपम् |
1043 | 6018017a | एष राजन्सहस्राक्षं पर्युपास्ते हरीश्वरः |
1044 | 6018017c | बलेन बलसंपन्नो रम्भो नामैष यूथपः |
1045 | 6018018a | यः स्थितं योजने शैलं गच्छन्पार्श्वेन सेवते |
1046 | 6018018c | ऊर्ध्वं तथैव कायेन गतः प्राप्नोति योजनम् |
1047 | 6018019a | यस्मान्न परमं रूपं चतुष्पादेषु विद्यते |
1048 | 6018019c | श्रुतः संनादनो नाम वानराणां पितामहः |
1049 | 6018020a | येन युद्धं तदा दत्तं रणे शक्रस्य धीमता |
1050 | 6018020c | पराजयश्च न प्राप्तः सोऽयं यूथपयूथपः |
1051 | 6018020e | यस्य विक्रममाणस्य शक्रस्येव पराक्रमः |
1052 | 6018021a | एष गन्धर्वकन्यायामुत्पन्नः कृष्णवर्त्मना |
1053 | 6018021c | पुरा देवासुरे युद्धे साह्यार्थं त्रिदिवौकसाम् |
1054 | 6018022a | यस्य वैश्रवणो राजा जम्बूमुपनिषेवते |
1055 | 6018022c | यो राजा पर्वतेन्द्राणां बहुकिंनरसेविनाम् |
1056 | 6018023a | विहारसुखदो नित्यं भ्रातुस्ते राक्षसाधिप |
1057 | 6018023c | तत्रैष वसति श्रीमान्बलवान्वानरर्षभः |
1058 | 6018023e | युद्धेष्वकत्थनो नित्यं क्रथनो नाम यूथपः |
1059 | 6018024a | वृतः कोटिसहस्रेण हरीणां समुपस्थितः |
1060 | 6018024c | एषैवाशंसते लङ्कां स्वेनानीकेन मर्दितुम् |
1061 | 6018025a | यो गङ्गामनु पर्येति त्रासयन्हस्तियूथपान् |
1062 | 6018025c | हस्तिनां वानराणां च पूर्ववैरमनुस्मरन् |
1063 | 6018026a | एष यूथपतिर्नेता गच्छन्गिरिगुहाशयः |
1064 | 6018026c | हरीणां वाहिनी मुख्यो नदीं हैमवतीमनु |
1065 | 6018027a | उशीर बीजमाश्रित्य पर्वतं मन्दरोपमम् |
1066 | 6018027c | रमते वानरश्रेष्ठो दिवि शक्र इव स्वयम् |
1067 | 6018028a | एनं शतसहस्राणां सहस्रमभिवर्तते |
1068 | 6018028c | एष दुर्मर्षणो राजन्प्रमाथी नाम यूथपः |
1069 | 6018029a | वातेनेवोद्धतं मेघं यमेनमनुपश्यसि |
1070 | 6018029c | विवर्तमानं बहुशो यत्रैतद्बहुलं रजः |
1071 | 6018030a | एतेऽसितमुखा घोरा गोलाङ्गूला महाबलाः |
1072 | 6018030c | शतं शतसहस्राणि दृष्ट्वा वै सेतुबन्धनम् |
1073 | 6018031a | गोलाङ्गूलं महावेगं गवाक्षं नाम यूथपम् |
1074 | 6018031c | परिवार्याभिवर्तन्ते लङ्कां मर्दितुमोजसा |
1075 | 6018032a | भ्रमराचरिता यत्र सर्वकामफलद्रुमाः |
1076 | 6018032c | यं सूर्यतुल्यवर्णाभमनुपर्येति पर्वतम् |
1077 | 6018033a | यस्य भासा सदा भान्ति तद्वर्णा मृगपक्षिणः |
1078 | 6018033c | यस्य प्रस्थं महात्मानो न त्यजन्ति महर्षयः |
1079 | 6018034a | तत्रैष रमते राजन्रम्ये काञ्चनपर्वते |
1080 | 6018034c | मुख्यो वानरमुख्यानां केसरी नाम यूथपः |
1081 | 6018035a | षष्टिर्गिरिसहस्राणां रम्याः काञ्चनपर्वताः |
1082 | 6018035c | तेषां मध्ये गिरिवरस्त्वमिवानघ रक्षसाम् |
1083 | 6018036a | तत्रैते कपिलाः श्वेतास्ताम्रास्या मधुपिङ्गलाः |
1084 | 6018036c | निवसन्त्युत्तमगिरौ तीक्ष्णदंष्ट्रानखायुधाः |
1085 | 6018037a | सिंह इव चतुर्दंष्ट्रा व्याघ्रा इव दुरासदाः |
1086 | 6018037c | सर्वे वैश्वनरसमा ज्वलिताशीविषोपमाः |
1087 | 6018038a | सुदीर्घाञ्चितलाङ्गूला मत्तमातंगसंनिभाः |
1088 | 6018038c | महापर्वतसंकाशा महाजीमूतनिस्वनाः |
1089 | 6018039a | एष चैषामधिपतिर्मध्ये तिष्ठति वीर्यवान् |
1090 | 6018039c | नाम्ना पृथिव्यां विख्यातो राजञ्शतबलीति यः |
1091 | 6018039e | एषैवाशंसते लङ्कां स्वेनानीकेन मर्दितुम् |
1092 | 6018040a | गजो गवाक्षो गवयो नलो नीलश्च वानरः |
1093 | 6018040c | एकैक एव यूथानां कोटिभिर्दशभिर्वृतः |
1094 | 6018041a | तथान्ये वानरश्रेष्ठा विन्ध्यपर्वतवासिनः |
1095 | 6018041c | न शक्यन्ते बहुत्वात्तु संख्यातुं लघुविक्रमाः |
1096 | 6018042a | सर्वे महाराज महाप्रभावाः; सर्वे महाशैलनिकाशकायाः |
1097 | 6018042c | सर्वे समर्थाः पृथिवीं क्षणेन; कर्तुं प्रविध्वस्तविकीर्णशैलाम् |
1098 | 6019001a | सारणस्य वचः श्रुत्वा रावणं राक्षसाधिपम् |
1099 | 6019001c | बलमालोकयन्सर्वं शुको वाक्यमथाब्रवीत् |
1100 | 6019002a | स्थितान्पश्यसि यानेतान्मत्तानिव महाद्विपान् |
1101 | 6019002c | न्यग्रोधानिव गाङ्गेयान्सालान्हैमवतीनिव |
1102 | 6019003a | एते दुष्प्रसहा राजन्बलिनः कामरूपिणः |
1103 | 6019003c | दैत्यदानवसंकाशा युद्धे देवपराक्रमाः |
1104 | 6019004a | एषां कोटिसहस्राणि नव पञ्चच सप्त च |
1105 | 6019004c | तथा शङ्खसहस्राणि तथा वृन्दशतानि च |
1106 | 6019005a | एते सुग्रीवसचिवाः किष्किन्धानिलयाः सदा |
1107 | 6019005c | हरयो देवगन्धर्वैरुत्पन्नाः कामरूपिणः |
1108 | 6019006a | यौ तौ पश्यसि तिष्ठन्तौ कुमारौ देवरूपिणौ |
1109 | 6019006c | मैन्दश्च द्विविदश्चोभौ ताभ्यां नास्ति समो युधि |
1110 | 6019007a | ब्रह्मणा समनुज्ञातावमृतप्राशिनावुभौ |
1111 | 6019007c | आशंसेते युधा लङ्कामेतौ मर्दितुमोजसा |
1112 | 6019008a | यावेतावेतयोः पार्श्वे स्थितौ पर्वतसंनिभौ |
1113 | 6019008c | सुमुखो विमुखश्चैव मृत्युपुत्रौ पितुः समौ |
1114 | 6019009a | यं तु पश्यसि तिष्ठन्तं प्रभिन्नमिव कुञ्जरम् |
1115 | 6019009c | यो बलात्क्षोभयेत्क्रुद्धः समुद्रमपि वानरः |
1116 | 6019010a | एषोऽभिगन्ता लङ्काया वैदेह्यास्तव च प्रभो |
1117 | 6019010c | एनं पश्य पुरा दृष्टं वानरं पुनरागतम् |
1118 | 6019011a | ज्येष्ठः केसरिणः पुत्रो वातात्मज इति श्रुतः |
1119 | 6019011c | हनूमानिति विख्यातो लङ्घितो येन सागरः |
1120 | 6019012a | कामरूपी हरिश्रेष्ठो बलरूपसमन्वितः |
1121 | 6019012c | अनिवार्यगतिश्चैव यथा सततगः प्रभुः |
1122 | 6019013a | उद्यन्तं भास्करं दृष्ट्वा बालः किल पिपासितः |
1123 | 6019013c | त्रियोजनसहस्रं तु अध्वानमवतीर्य हि |
1124 | 6019014a | आदित्यमाहरिष्यामि न मे क्षुत्प्रतियास्यति |
1125 | 6019014c | इति संचिन्त्य मनसा पुरैष बलदर्पितः |
1126 | 6019015a | अनाधृष्यतमं देवमपि देवर्षिदानवैः |
1127 | 6019015c | अनासाद्यैव पतितो भास्करोदयने गिरौ |
1128 | 6019016a | पतितस्य कपेरस्य हनुरेका शिलातले |
1129 | 6019016c | किंचिद्भिन्ना दृढहनोर्हनूमानेष तेन वै |
1130 | 6019017a | सत्यमागमयोगेन ममैष विदितो हरिः |
1131 | 6019017c | नास्य शक्यं बलं रूपं प्रभावो वानुभाषितुम् |
1132 | 6019018a | एष आशंसते लङ्कामेको मर्दितुमोजसा |
1133 | 6019018c | यश्चैषोऽनन्तरः शूरः श्यामः पद्मनिभेक्षणः |
1134 | 6019019a | इक्ष्वाकूणामतिरथो लोके विख्यात पौरुषः |
1135 | 6019019c | यस्मिन्न चलते धर्मो यो धर्मं नातिवर्तते |
1136 | 6019020a | यो ब्राह्ममस्त्रं वेदांश्च वेद वेदविदां वरः |
1137 | 6019020c | यो भिन्द्याद्गगनं बाणैः पर्वतांश्चापि दारयेत् |
1138 | 6019021a | यस्य मृत्योरिव क्रोधः शक्रस्येव पराक्रमः |
1139 | 6019021c | स एष रामस्त्वां योद्धुं राजन्समभिवर्तते |
1140 | 6019022a | यश्चैष दक्षिणे पार्श्वे शुद्धजाम्बूनदप्रभः |
1141 | 6019022c | विशालवक्षास्ताम्राक्षो नीलकुञ्चितमूर्धजः |
1142 | 6019023a | एषोऽस्य लक्ष्मणो नाम भ्राता प्राणसमः प्रियः |
1143 | 6019023c | नये युद्धे च कुशलः सर्वशास्त्रविशारदः |
1144 | 6019024a | अमर्षी दुर्जयो जेता विक्रान्तो बुद्धिमान्बली |
1145 | 6019024c | रामस्य दक्षिणो बाहुर्नित्यं प्राणो बहिश्चरः |
1146 | 6019025a | न ह्येष राघवस्यार्थे जीवितं परिरक्षति |
1147 | 6019025c | एषैवाशंसते युद्धे निहन्तुं सर्वराक्षसान् |
1148 | 6019026a | यस्तु सव्यमसौ पक्षं रामस्याश्रित्य तिष्ठति |
1149 | 6019026c | रक्षोगणपरिक्षिप्तो राजा ह्येष विभीषणः |
1150 | 6019027a | श्रीमता राजराजेन लङ्कायामभिषेचितः |
1151 | 6019027c | त्वामेव प्रतिसंरब्धो युद्धायैषोऽभिवर्तते |
1152 | 6019028a | यं तु पश्यसि तिष्ठन्तं मध्ये गिरिमिवाचलम् |
1153 | 6019028c | सर्वशाखामृगेन्द्राणां भर्तारमपराजितम् |
1154 | 6019029a | तेजसा यशसा बुद्ध्या ज्ञानेनाभिजनेन च |
1155 | 6019029c | यः कपीनति बभ्राज हिमवानिव पर्वतान् |
1156 | 6019030a | किष्किन्धां यः समध्यास्ते गुहां सगहनद्रुमाम् |
1157 | 6019030c | दुर्गां पर्वतदुर्गस्थां प्रधानैः सह यूथपैः |
1158 | 6019031a | यस्यैषा काञ्चनी माला शोभते शतपुष्करा |
1159 | 6019031c | कान्ता देवमनुष्याणां यस्यां लक्ष्मीः प्रतिष्ठिता |
1160 | 6019032a | एतां च मालां तारां च कपिराज्यं च शाश्वतम् |
1161 | 6019032c | सुग्रीवो वालिनं हत्वा रामेण प्रतिपादितः |
1162 | 6019033a | एवं कोटिसहस्रेण शङ्कूनां च शतेन च |
1163 | 6019033c | सुग्रीवो वानरेन्द्रस्त्वां युद्धार्थमभिवर्तते |
1164 | 6019034a | इमां महाराजसमीक्ष्य वाहिनी;मुपस्थितां प्रज्वलितग्रहोपमाम् |
1165 | 6019034c | ततः प्रयत्नः परमो विधीयतां; यथा जयः स्यान्न परैः पराजयः |
1166 | 6020001a | शुकेन तु समाख्यातांस्तान्दृष्ट्वा हरियूथपान् |
1167 | 6020001c | समीपस्थं च रामस्य भ्रातरं स्वं विभीषणम् |
1168 | 6020002a | लक्ष्मणं च महावीर्यं भुजं रामस्य दक्षिणम् |
1169 | 6020002c | सर्ववानरराजं च सुग्रीवं भीमविक्रमम् |
1170 | 6020003a | किंचिदाविग्नहृदयो जातक्रोधश्च रावणः |
1171 | 6020003c | भर्त्सयामास तौ वीरौ कथान्ते शुकसारणौ |
1172 | 6020004a | अधोमुखौ तौ प्रणतावब्रवीच्छुकसारणौ |
1173 | 6020004c | रोषगद्गदया वाचा संरब्धः परुषं वचः |
1174 | 6020005a | न तावत्सदृशं नाम सचिवैरुपजीविभिः |
1175 | 6020005c | विप्रियं नृपतेर्वक्तुं निग्रहप्रग्रहे विभोः |
1176 | 6020006a | रिपूणां प्रतिकूलानां युद्धार्थमभिवर्तताम् |
1177 | 6020006c | उभाभ्यां सदृशं नाम वक्तुमप्रस्तवे स्तवम् |
1178 | 6020007a | आचार्या गुरवो वृद्धा वृथा वां पर्युपासिताः |
1179 | 6020007c | सारं यद्राजशास्त्राणामनुजीव्यं न गृह्यते |
1180 | 6020008a | गृहीतो वा न विज्ञातो भारो ज्ञानस्य वोछ्यते |
1181 | 6020008c | ईदृशैः सचिवैर्युक्तो मूर्खैर्दिष्ट्या धराम्यहम् |
1182 | 6020009a | किं नु मृत्योर्भयं नास्ति मां वक्तुं परुषं वचः |
1183 | 6020009c | यस्य मे शासतो जिह्वा प्रयच्छति शुभाशुभम् |
1184 | 6020010a | अप्येव दहनं स्पृष्ट्वा वने तिष्ठन्ति पादपाः |
1185 | 6020010c | राजदोषपरामृष्टास्तिष्ठन्ते नापराधिनः |
1186 | 6020011a | हन्यामहमिमौ पापौ शत्रुपक्षप्रशंसकौ |
1187 | 6020011c | यदि पूर्वोपकारैर्मे न क्रोधो मृदुतां व्रजेत् |
1188 | 6020012a | अपध्वंसत गच्छध्वं संनिकर्षादितो मम |
1189 | 6020012c | न हि वां हन्तुमिच्छामि स्मरन्नुपकृतानि वाम् |
1190 | 6020012e | हतावेव कृतघ्नौ तौ मयि स्नेहपराङ्मुखौ |
1191 | 6020013a | एवमुक्तौ तु सव्रीडौ तावुभौ शुकसारणौ |
1192 | 6020013c | रावणं जयशब्देन प्रतिनन्द्याभिनिःसृतौ |
1193 | 6020014a | अब्रवीत्स दशग्रीवः समीपस्थं महोदरम् |
1194 | 6020014c | उपस्थापय शीघ्रं मे चारान्नीतिविशारदान् |
1195 | 6020015a | ततश्चराः संत्वरिताः प्राप्ताः पार्थिवशासनात् |
1196 | 6020015c | उपस्थिताः प्राञ्जलयो वर्धयित्वा जयाशिषा |
1197 | 6020016a | तानब्रवीत्ततो वाक्यं रावणो राक्षसाधिपः |
1198 | 6020016c | चारान्प्रत्ययिकाञ्शूरान्भक्तान्विगतसाध्वसान् |
1199 | 6020017a | इतो गच्छत रामस्य व्यवसायं परीक्षथ |
1200 | 6020017c | मन्त्रेष्वभ्यन्तरा येऽस्य प्रीत्या तेन समागताः |
1201 | 6020018a | कथं स्वपिति जागर्ति किमन्यच्च करिष्यति |
1202 | 6020018c | विज्ञाय निपुणं सर्वमागन्तव्यमशेषतः |
1203 | 6020019a | चारेण विदितः शत्रुः पण्डितैर्वसुधाधिपैः |
1204 | 6020019c | युद्धे स्वल्पेन यत्नेन समासाद्य निरस्यते |
1205 | 6020020a | चारास्तु ते तथेत्युक्त्वा प्रहृष्टा राक्षसेश्वरम् |
1206 | 6020020c | कृत्वा प्रदक्षिणं जग्मुर्यत्र रामः सलक्ष्मणः |
1207 | 6020021a | ते सुवेलस्य शैलस्य समीपे रामलक्ष्मणौ |
1208 | 6020021c | प्रच्छन्ना ददृशुर्गत्वा ससुग्रीवविभीषणौ |
1209 | 6020022a | ते तु धर्मात्मना दृष्टा राक्षसेन्द्रेण राक्षसाः |
1210 | 6020022c | विभीषणेन तत्रस्था निगृहीता यदृच्छया |
1211 | 6020023a | वानरैरर्दितास्ते तु विक्रान्तैर्लघुविक्रमैः |
1212 | 6020023c | पुनर्लङ्कामनुप्राप्ताः श्वसन्तो नष्टचेतसः |
1213 | 6020024a | ततो दशग्रीवमुपस्थितास्ते; चारा बहिर्नित्यचरा निशाचराः |
1214 | 6020024c | गिरेः सुवेलस्य समीपवासिनं; न्यवेदयन्भीमबलं महाबलाः |
1215 | 6021001a | ततस्तमक्षोभ्य बलं लङ्काधिपतये चराः |
1216 | 6021001c | सुवेले राघवं शैले निविष्टं प्रत्यवेदयन् |
1217 | 6021002a | चाराणां रावणः श्रुत्वा प्राप्तं रामं महाबलम् |
1218 | 6021002c | जातोद्वेगोऽभवत्किंचिच्छार्दूलं वाक्यमब्रवीत् |
1219 | 6021003a | अयथावच्च ते वर्णो दीनश्चासि निशाचर |
1220 | 6021003c | नासि कच्चिदमित्राणां क्रुद्धानां वशमागतः |
1221 | 6021004a | इति तेनानुशिष्टस्तु वाचं मन्दमुदीरयत् |
1222 | 6021004c | तदा राक्षसशार्दूलं शार्दूलो भयविह्वलः |
1223 | 6021005a | न ते चारयितुं शक्या राजन्वानरपुंगवाः |
1224 | 6021005c | विक्रान्ता बलवन्तश्च राघवेण च रक्षिताः |
1225 | 6021006a | नापि संभाषितुं शक्याः संप्रश्नोऽत्र न लभ्यते |
1226 | 6021006c | सर्वतो रक्ष्यते पन्था वानरैः पर्वतोपमैः |
1227 | 6021007a | प्रविष्टमात्रे ज्ञातोऽहं बले तस्मिन्नचारिते |
1228 | 6021007c | बलाद्गृहीतो बहुभिर्बहुधास्मि विदारितः |
1229 | 6021008a | जानुभिर्मुष्टिभिर्दन्तैस्तलैश्चाभिहतो भृशम् |
1230 | 6021008c | परिणीतोऽस्मि हरिभिर्बलवद्भिरमर्षणैः |
1231 | 6021009a | परिणीय च सर्वत्र नीतोऽहं रामसंसदम् |
1232 | 6021009c | रुधिरादिग्धसर्वाङ्गो विह्वलश्चलितेन्द्रियः |
1233 | 6021010a | हरिभिर्वध्यमानश्च याचमानः कृताञ्जलिः |
1234 | 6021010c | राघवेण परित्रातो जीवामि ह यदृच्छया |
1235 | 6021011a | एष शैलैः शिलाभिश्च पूरयित्वा महार्णवम् |
1236 | 6021011c | द्वारमाश्रित्य लङ्काया रामस्तिष्ठति सायुधः |
1237 | 6021012a | गरुडव्यूहमास्थाय सर्वतो हरिभिर्वृतः |
1238 | 6021012c | मां विसृज्य महातेजा लङ्कामेवाभिवर्तते |
1239 | 6021013a | पुरा प्राकारमायाति क्षिप्रमेकतरं कुरु |
1240 | 6021013c | सीतां चास्मै प्रयच्छाशु सुयुद्धं वा प्रदीयताम् |
1241 | 6021014a | मनसा संततापाथ तच्छ्रुत्वा राक्षसाधिपः |
1242 | 6021014c | शार्दूलस्य महद्वाक्यमथोवाच स रावणः |
1243 | 6021015a | यदि मां प्रतियुध्येरन्देवगन्धर्वदानवाः |
1244 | 6021015c | नैव सीतां प्रदास्यामि सर्वलोकभयादपि |
1245 | 6021016a | एवमुक्त्वा महातेजा रावणः पुनरब्रवीत् |
1246 | 6021016c | चारिता भवता सेना केऽत्र शूराः प्लवंगमाः |
1247 | 6021017a | कीदृशाः किंप्रभावाश्च वानरा ये दुरासदाः |
1248 | 6021017c | कस्य पुत्राश्च पौत्राश्च तत्त्वमाख्याहि राक्षस |
1249 | 6021018a | तत्रत्र प्रतिपत्स्यामि ज्ञात्वा तेषां बलाबलम् |
1250 | 6021018c | अवश्यं बलसंख्यानं कर्तव्यं युद्धमिच्छता |
1251 | 6021019a | अथैवमुक्तः शार्दूलो रावणेनोत्तमश्चरः |
1252 | 6021019c | इदं वचनमारेभे वक्तुं रावणसंनिधौ |
1253 | 6021020a | अथर्क्षरजसः पुत्रो युधि राजन्सुदुर्जयः |
1254 | 6021020c | गद्गदस्याथ पुत्रोऽत्र जाम्बवानिति विश्रुतः |
1255 | 6021021a | गद्गदस्यैव पुत्रोऽन्यो गुरुपुत्रः शतक्रतोः |
1256 | 6021021c | कदनं यस्य पुत्रेण कृतमेकेन रक्षसाम् |
1257 | 6021022a | सुषेणश्चापि धर्मात्मा पुत्रो धर्मस्य वीर्यवान् |
1258 | 6021022c | सौम्यः सोमात्मजश्चात्र राजन्दधिमुखः कपिः |
1259 | 6021023a | सुमुखो दुर्मुखश्चात्र वेगदर्शी च वानरः |
1260 | 6021023c | मृत्युर्वानररूपेण नूनं सृष्टः स्वयम्भुवा |
1261 | 6021024a | पुत्रो हुतवहस्याथ नीलः सेनापतिः स्वयम् |
1262 | 6021024c | अनिलस्य च पुत्रोऽत्र हनूमानिति विश्रुतः |
1263 | 6021025a | नप्ता शक्रस्य दुर्धर्षो बलवानङ्गदो युवा |
1264 | 6021025c | मैन्दश्च द्विविदश्चोभौ बलिनावश्विसंभवौ |
1265 | 6021026a | पुत्रा वैवस्वतस्यात्र पञ्चकालान्तकोपमाः |
1266 | 6021026c | गजो गवाक्षो गवयः शरभो गन्धमादनः |
1267 | 6021027a | श्वेतो ज्योतिर्मुखश्चात्र भास्करस्यात्मसंभवौ |
1268 | 6021027c | वरुणस्य च पुत्रोऽथ हेमकूटः प्लवंगमः |
1269 | 6021028a | विश्वकर्मसुतो वीरो नलः प्लवगसत्तमः |
1270 | 6021028c | विक्रान्तो वेगवानत्र वसुपुत्रः सुदुर्धरः |
1271 | 6021029a | दशवानरकोट्यश्च शूराणां युद्धकाङ्क्षिणाम् |
1272 | 6021029c | श्रीमतां देवपुत्राणां शेषान्नाख्यातुमुत्सहे |
1273 | 6021030a | पुत्रो दशरथस्यैष सिंहसंहननो युवा |
1274 | 6021030c | दूषणो निहतो येन खरश्च त्रिशिरास्तथा |
1275 | 6021031a | नास्ति रामस्य सदृशो विक्रमे भुवि कश्चन |
1276 | 6021031c | विराधो निहतो येन कबन्धश्चान्तकोपमः |
1277 | 6021032a | वक्तुं न शक्तो रामस्य नरः कश्चिद्गुणान्क्षितौ |
1278 | 6021032c | जनस्थानगता येन तावन्तो राक्षसा हताः |
1279 | 6021033a | लक्ष्मणश्चात्र धर्मात्मा मातंगानामिवर्षभः |
1280 | 6021033c | यस्य बाणपथं प्राप्य न जीवेदपि वासवः |
1281 | 6021034a | राक्षसानां वरिष्ठश्च तव भ्राता विभीषणः |
1282 | 6021034c | परिगृह्य पुरीं लङ्कां राघवस्य हिते रतः |
1283 | 6021035a | इति सर्वं समाख्यातं तवेदं वानरं बलम् |
1284 | 6021035c | सुवेलेऽधिष्ठितं शैले शेषकार्ये भवान्गतिः |
1285 | 6022001a | ततस्तमक्षोभ्यबलं लङ्कायां नृपतेश्चरः |
1286 | 6022001c | सुवेले राघवं शैले निविष्टं प्रत्यवेदयन् |
1287 | 6022002a | चाराणां रावणः श्रुत्वा प्राप्तं रामं महाबलम् |
1288 | 6022002c | जातोद्वेगोऽभवत्किंचित्सचिवांश्चेदमब्रवीत् |
1289 | 6022003a | मन्त्रिणः शीघ्रमायान्तु सर्वे वै सुसमाहिताः |
1290 | 6022003c | अयं नो मन्त्रकालो हि संप्राप्त इव राक्षसाः |
1291 | 6022004a | तस्य तच्छासनं श्रुत्वा मन्त्रिणोऽभ्यागमन्द्रुतम् |
1292 | 6022004c | ततः संमन्त्रयामास सचिवै राक्षसैः सह |
1293 | 6022005a | मन्त्रयित्वा स दुर्धर्षः क्षमं यत्समनन्तरम् |
1294 | 6022005c | विसर्जयित्वा सचिवान्प्रविवेश स्वमालयम् |
1295 | 6022006a | ततो राक्षसमाहूय विद्युज्जिह्वं महाबलम् |
1296 | 6022006c | मायाविदं महामायः प्राविशद्यत्र मैथिली |
1297 | 6022007a | विद्युज्जिह्वं च मायाज्ञमब्रवीद्राक्षसाधिपः |
1298 | 6022007c | मोहयिष्यामहे सीतां मायया जनकात्मजाम् |
1299 | 6022008a | शिरो मायामयं गृह्य राघवस्य निशाचर |
1300 | 6022008c | मां त्वं समुपतिष्ठस्व महच्च सशरं धनुः |
1301 | 6022009a | एवमुक्तस्तथेत्याह विद्युज्जिह्वो निशाचरः |
1302 | 6022009c | तस्य तुष्टोऽभवद्राजा प्रददौ च विभूषणम् |
1303 | 6022010a | अशोकवनिकायां तु प्रविवेश महाबलः |
1304 | 6022010c | ततो दीनामदैन्यार्हां ददर्श धनदानुजः |
1305 | 6022010e | अधोमुखीं शोकपरामुपविष्टां महीतले |
1306 | 6022011a | भर्तारमेव ध्यायन्तीमशोकवनिकां गताम् |
1307 | 6022011c | उपास्यमानां घोराभी राक्षसीभिरदूरतः |
1308 | 6022012a | उपसृत्य ततः सीतां प्रहर्षन्नाम कीर्तयन् |
1309 | 6022012c | इदं च वचनं धृष्टमुवाच जनकात्मजाम् |
1310 | 6022013a | सान्त्व्यमाना मया भद्रे यमुपाश्रित्य वल्गसे |
1311 | 6022013c | खर हन्ता स ते भर्ता राघवः समरे हतः |
1312 | 6022014a | छिन्नं ते सर्वतो मूलं दर्पस्ते निहतो मया |
1313 | 6022014c | व्यसनेनात्मनः सीते मम भार्या भविष्यसि |
1314 | 6022015a | अल्पपुण्ये निवृत्तार्थे मूढे पण्डितमानिनि |
1315 | 6022015c | शृणु भर्तृबधं सीते घोरं वृत्रवधं यथा |
1316 | 6022016a | समायातः समुद्रान्तं मां हन्तुं किल राघवः |
1317 | 6022016c | वानरेन्द्रप्रणीतेन बलेन महता वृतः |
1318 | 6022017a | संनिविष्टः समुद्रस्य तीरमासाद्य दक्षिणम् |
1319 | 6022017c | बलेन महता रामो व्रजत्यस्तं दिवाकरे |
1320 | 6022018a | अथाध्वनि परिश्रान्तमर्धरात्रे स्थितं बलम् |
1321 | 6022018c | सुखसुप्तं समासाद्य चारितं प्रथमं चरैः |
1322 | 6022019a | तत्प्रहस्तप्रणीतेन बलेन महता मम |
1323 | 6022019c | बलमस्य हतं रात्रौ यत्र रामः सुलक्ष्मणः |
1324 | 6022020a | पट्टसान्परिघान्खड्गांश्चक्रान्दण्डान्महायसान् |
1325 | 6022020c | बाणजालानि शूलानि भास्वरान्कूटमुद्गरान् |
1326 | 6022021a | यष्टीश्च तोमरान्प्रासंश्चक्राणि मुसलानि च |
1327 | 6022021c | उद्यम्योद्यम्य रक्षोभिर्वानरेषु निपातिताः |
1328 | 6022022a | अथ सुप्तस्य रामस्य प्रहस्तेन प्रमाथिना |
1329 | 6022022c | असक्तं कृतहस्तेन शिरश्छिन्नं महासिना |
1330 | 6022023a | विभीषणः समुत्पत्य निगृहीतो यदृच्छया |
1331 | 6022023c | दिशः प्रव्राजितः सर्वैर्लक्ष्मणः प्लवगैः सह |
1332 | 6022024a | सुग्रीवो ग्रीवया शेते भग्नया प्लवगाधिपः |
1333 | 6022024c | निरस्तहनुकः शेते हनूमान्राक्षसैर्हतः |
1334 | 6022025a | जाम्बवानथ जानुभ्यामुत्पतन्निहतो युधि |
1335 | 6022025c | पट्टसैर्बहुभिश्छिन्नो निकृत्तः पादपो यथा |
1336 | 6022026a | मैन्दश्च द्विविदश्चोभौ निहतौ वानरर्षभौ |
1337 | 6022026c | निःश्वसन्तौ रुदन्तौ च रुधिरेण समुक्षितौ |
1338 | 6022027a | असिनाभ्याहतश्छिन्नो मध्ये रिपुनिषूदनः |
1339 | 6022027c | अभिष्टनति मेदिन्यां पनसः पनसो यथा |
1340 | 6022028a | नाराचैर्बहुभिश्छिन्नः शेते दर्यां दरीमुखः |
1341 | 6022028c | कुमुदस्तु महातेजा निष्कूजन्सायकैर्हतः |
1342 | 6022029a | अङ्गदो बहुभिश्छिन्नः शरैरासाद्य राक्षसैः |
1343 | 6022029c | पातितो रुधिरोद्गारी क्षितौ निपतितोऽङ्गदः |
1344 | 6022030a | हरयो मथिता नागै रथजालैस्तथापरे |
1345 | 6022030c | शायिता मृदितास्तत्र वायुवेगैरिवाम्बुदाः |
1346 | 6022031a | प्रद्रुताश्च परे त्रस्ता हन्यमाना जघन्यतः |
1347 | 6022031c | अभिद्रुतास्तु रक्षोभिः सिंहैरिव महाद्विपाः |
1348 | 6022032a | सागरे पतिताः केचित्केचिद्गगनमाश्रिताः |
1349 | 6022032c | ऋक्षा वृक्षानुपारूढा वानरैस्तु विमिश्रिताः |
1350 | 6022033a | सागरस्य च तीरेषु शैलेषु च वनेषु च |
1351 | 6022033c | पिङ्गाक्षास्ते विरूपाक्षैर्बहुभिर्बहवो हताः |
1352 | 6022034a | एवं तव हतो भर्ता ससैन्यो मम सेनया |
1353 | 6022034c | क्षतजार्द्रं रजोध्वस्तमिदं चास्याहृतं शिरः |
1354 | 6022035a | ततः परमदुर्धर्षो रावणो राक्षसेश्वरः |
1355 | 6022035c | सीतायामुपशृण्वन्त्यां राक्षसीमिदमब्रवीत् |
1356 | 6022036a | राक्षसं क्रूरकर्माणं विद्युज्जिह्वं त्वमानय |
1357 | 6022036c | येन तद्राघवशिरः संग्रामात्स्वयमाहृतम् |
1358 | 6022037a | विद्युज्जिह्वस्ततो गृह्य शिरस्तत्सशरासनम् |
1359 | 6022037c | प्रणामं शिरसा कृत्वा रावणस्याग्रतः स्थितः |
1360 | 6022038a | तमब्रवीत्ततो राजा रावणो राक्षसं स्थितम् |
1361 | 6022038c | विद्युज्जिह्वं महाजिह्वं समीपपरिवर्तिनम् |
1362 | 6022039a | अग्रतः कुरु सीतायाः शीघ्रं दाशरथेः शिरः |
1363 | 6022039c | अवस्थां पश्चिमां भर्तुः कृपणा साधु पश्यतु |
1364 | 6022040a | एवमुक्तं तु तद्रक्षः शिरस्तत्प्रियदर्शनम् |
1365 | 6022040c | उपनिक्षिप्य सीतायाः क्षिप्रमन्तरधीयत |
1366 | 6022041a | रावणश्चापि चिक्षेप भास्वरं कार्मुकं महत् |
1367 | 6022041c | त्रिषु लोकेषु विख्यातं सीतामिदमुवाच ह |
1368 | 6022042a | इदं तत्तव रामस्य कार्मुकं ज्यासमन्वितम् |
1369 | 6022042c | इह प्रहस्तेनानीतं हत्वा तं निशि मानुषम् |
1370 | 6022043a | स विद्युज्जिह्वेन सहैव तच्छिरो; धनुश्च भूमौ विनिकीर्य रावणः |
1371 | 6022043c | विदेहराजस्य सुतां यशस्विनीं; ततोऽब्रवीत्तां भव मे वशानुगा |
1372 | 6023001a | सा सीता तच्छिरो दृष्ट्वा तच्च कार्मुकमुत्तमम् |
1373 | 6023001c | सुग्रीवप्रतिसंसर्गमाख्यातं च हनूमता |
1374 | 6023002a | नयने मुखवर्णं च भर्तुस्तत्सदृशं मुखम् |
1375 | 6023002c | केशान्केशान्तदेशं च तं च चूडामणिं शुभम् |
1376 | 6023003a | एतैः सर्वैरभिज्ञानैरभिज्ञाय सुदुःखिता |
1377 | 6023003c | विजगर्हेऽथ कैकेयीं क्रोशन्ती कुररी यथा |
1378 | 6023004a | सकामा भव कैकेयि हतोऽयं कुलनन्दनः |
1379 | 6023004c | कुलमुत्सादितं सर्वं त्वया कलहशीलया |
1380 | 6023005a | आर्येण किं नु कैकेय्याः कृतं रामेण विप्रियम् |
1381 | 6023005c | यद्गृहाच्चीरवसनस्तया प्रस्थापितो वनम् |
1382 | 6023006a | एवमुक्त्वा तु वैदेही वेपमाना तपस्विनी |
1383 | 6023006c | जगाम जगतीं बाला छिन्ना तु कदली यथा |
1384 | 6023007a | सा मुहूर्तात्समाश्वस्य प्रतिलभ्य च चेतनाम् |
1385 | 6023007c | तच्छिरः समुपाघ्राय विललापायतेक्षणा |
1386 | 6023008a | हा हतास्मि महाबाहो वीरव्रतमनुव्रता |
1387 | 6023008c | इमां ते पश्चिमावस्थां गतास्मि विधवा कृता |
1388 | 6023009a | प्रथमं मरणं नार्या भर्तुर्वैगुण्यमुच्यते |
1389 | 6023009c | सुवृत्तः साधुवृत्तायाः संवृत्तस्त्वं ममाग्रतः |
1390 | 6023010a | दुःखाद्दुःखं प्रपन्नाया मग्नायाः शोकसागरे |
1391 | 6023010c | यो हि मामुद्यतस्त्रातुं सोऽपि त्वं विनिपातितः |
1392 | 6023011a | सा श्वश्रूर्मम कौसल्या त्वया पुत्रेण राघव |
1393 | 6023011c | वत्सेनेव यथा धेनुर्विवत्सा वत्सला कृता |
1394 | 6023012a | आदिष्टं दीर्घमायुस्ते यैरचिन्त्यपराक्रम |
1395 | 6023012c | अनृतं वचनं तेषामल्पायुरसि राघव |
1396 | 6023013a | अथ वा नश्यति प्रज्ञा प्राज्ञस्यापि सतस्तव |
1397 | 6023013c | पचत्येनं तथा कालो भूतानां प्रभवो ह्ययम् |
1398 | 6023014a | अदृष्टं मृत्युमापन्नः कस्मात्त्वं नयशास्त्रवित् |
1399 | 6023014c | व्यसनानामुपायज्ञः कुशलो ह्यसि वर्जने |
1400 | 6023015a | तथा त्वं संपरिष्वज्य रौद्रयातिनृशंसया |
1401 | 6023015c | कालरात्र्या मयाच्छिद्य हृतः कमललोचनः |
1402 | 6023016a | उपशेषे महाबाहो मां विहाय तपस्विनीम् |
1403 | 6023016c | प्रियामिव शुभां नारीं पृथिवीं पुरुषर्षभ |
1404 | 6023017a | अर्चितं सततं यत्नाद्गन्धमाल्यैर्मया तव |
1405 | 6023017c | इदं ते मत्प्रियं वीर धनुः काञ्चनभूषितम् |
1406 | 6023018a | पित्रा दशरथेन त्वं श्वशुरेण ममानघ |
1407 | 6023018c | पूर्वैश्च पितृभिः सार्धं नूनं स्वर्गे समागतः |
1408 | 6023019a | दिवि नक्षत्रभूतस्त्वं महत्कर्म कृतं प्रियम् |
1409 | 6023019c | पुण्यं राजर्षिवंशं त्वमात्मनः समुपेक्षसे |
1410 | 6023020a | किं मान्न प्रेक्षसे राजन्किं मां न प्रतिभाषसे |
1411 | 6023020c | बालां बालेन संप्राप्तां भार्यां मां सहचारिणीम् |
1412 | 6023021a | संश्रुतं गृह्णता पाणिं चरिष्यामीति यत्त्वया |
1413 | 6023021c | स्मर तन्मम काकुत्स्थ नय मामपि दुःखिताम् |
1414 | 6023022a | कस्मान्मामपहाय त्वं गतो गतिमतां वर |
1415 | 6023022c | अस्माल्लोकादमुं लोकं त्यक्त्वा मामिह दुःखिताम् |
1416 | 6023023a | कल्याणैरुचितं यत्तत्परिष्वक्तं मयैव तु |
1417 | 6023023c | क्रव्यादैस्तच्छरीरं ते नूनं विपरिकृष्यते |
1418 | 6023024a | अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैरिष्टवानाप्तदक्षिणैः |
1419 | 6023024c | अग्निहोत्रेण संस्कारं केन त्वं तु न लप्स्यसे |
1420 | 6023025a | प्रव्रज्यामुपपन्नानां त्रयाणामेकमागतम् |
1421 | 6023025c | परिप्रक्ष्यति कौसल्या लक्ष्मणं शोकलालसा |
1422 | 6023026a | स तस्याः परिपृच्छन्त्या वधं मित्रबलस्य ते |
1423 | 6023026c | तव चाख्यास्यते नूनं निशायां राक्षसैर्वधम् |
1424 | 6023027a | सा त्वां सुप्तं हतं श्रुत्वा मां च रक्षोगृहं गताम् |
1425 | 6023027c | हृदयेन विदीर्णेन न भविष्यति राघव |
1426 | 6023028a | साधु पातय मां क्षिप्रं रामस्योपरि रावणः |
1427 | 6023028c | समानय पतिं पत्न्या कुरु कल्याणमुत्तमम् |
1428 | 6023029a | शिरसा मे शिरश्चास्य कायं कायेन योजय |
1429 | 6023029c | रावणानुगमिष्यामि गतिं भर्तुर्महात्मनः |
1430 | 6023029e | मुहूर्तमपि नेच्छामि जीवितुं पापजीविना |
1431 | 6023030a | श्रुतं मया वेदविदां ब्राह्मणानां पितुर्गृहे |
1432 | 6023030c | यासां स्त्रीणां प्रियो भर्ता तासां लोका महोदयाः |
1433 | 6023031a | क्षमा यस्मिन्दमस्त्यागः सत्यं धर्मः कृतज्ञता |
1434 | 6023031c | अहिंसा चैव भूतानां तमृते का गतिर्मम |
1435 | 6023032a | इति सा दुःखसंतप्ता विललापायतेक्षणा |
1436 | 6023032c | भर्तुः शिरो धनुस्तत्र समीक्ष्य जनकात्मजा |
1437 | 6023033a | एवं लालप्यमानायां सीतायां तत्र राक्षसः |
1438 | 6023033c | अभिचक्राम भर्तारमनीकस्थः कृताञ्जलिः |
1439 | 6023034a | विजयस्वार्यपुत्रेति सोऽभिवाद्य प्रसाद्य च |
1440 | 6023034c | न्यवेदयदनुप्राप्तं प्रहस्तं वाहिनीपतिम् |
1441 | 6023035a | अमात्यैः सहितः सर्वैः प्रहस्तः समुपस्थितः |
1442 | 6023035c | किंचिदात्ययिकं कार्यं तेषां त्वं दर्शनं कुरु |
1443 | 6023036a | एतच्छ्रुत्वा दशग्रीवो राक्षसप्रतिवेदितम् |
1444 | 6023036c | अशोकवनिकां त्यक्त्वा मन्त्रिणां दर्शनं ययौ |
1445 | 6023037a | स तु सर्वं समर्थ्यैव मन्त्रिभिः कृत्यमात्मनः |
1446 | 6023037c | सभां प्रविश्य विदधे विदित्वा रामविक्रमम् |
1447 | 6023038a | अन्तर्धानं तु तच्छीर्षं तच्च कार्मुकमुत्तमम् |
1448 | 6023038c | जगाम रावणस्यैव निर्याणसमनन्तरम् |
1449 | 6023039a | राक्षसेन्द्रस्तु तैः सार्धं मन्त्रिभिर्भीमविक्रमैः |
1450 | 6023039c | समर्थयामास तदा रामकार्यविनिश्चयम् |
1451 | 6023040a | अविदूरस्थितान्सर्वान्बलाध्यक्षान्हितैषिणः |
1452 | 6023040c | अब्रवीत्कालसदृशो रावणो राक्षसाधिपः |
1453 | 6023041a | शीघ्रं भेरीनिनादेन स्फुटकोणाहतेन मे |
1454 | 6023041c | समानयध्वं सैन्यानि वक्तव्यं च न कारणम् |
1455 | 6023042a | ततस्तथेति प्रतिगृह्य तद्वचो; बलाधिपास्ते महदात्मनो बलम् |
1456 | 6023042c | समानयंश्चैव समागतं च ते; न्यवेदयन्भर्तरि युद्धकाङ्क्षिणि |
1457 | 6024001a | सीतां तु मोहितां दृष्ट्वा सरमा नाम राक्षसी |
1458 | 6024001c | आससादाशु वैदेहीं प्रियां प्रणयिनी सखी |
1459 | 6024002a | सा हि तत्र कृता मित्रं सीतया रक्ष्यमाणया |
1460 | 6024002c | रक्षन्ती रावणादिष्टा सानुक्रोशा दृढव्रता |
1461 | 6024003a | सा ददर्श सखीं सीतां सरमा नष्टचेतनाम् |
1462 | 6024003c | उपावृत्योत्थितां ध्वस्तां वडवामिव पांसुषु |
1463 | 6024004a | तां समाश्वासयामास सखी स्नेहेन सुव्रता |
1464 | 6024004c | उक्ता यद्रावणेन त्वं प्रत्युक्तं च स्वयं त्वया |
1465 | 6024005a | सखीस्नेहेन तद्भीरु मया सर्वं प्रतिश्रुतम् |
1466 | 6024005c | लीनया गनहे शूह्ये भयमुत्सृज्य रावणात् |
1467 | 6024005e | तव हेतोर्विशालाक्षि न हि मे जीवितं प्रियम् |
1468 | 6024006a | स संभ्रान्तश्च निष्क्रान्तो यत्कृते राक्षसाधिपः |
1469 | 6024006c | तच्च मे विदितं सर्वमभिनिष्क्रम्य मैथिलि |
1470 | 6024007a | न शक्यं सौप्तिकं कर्तुं रामस्य विदितात्मनः |
1471 | 6024007c | वधश्च पुरुषव्याघ्रे तस्मिन्नेवोपपद्यते |
1472 | 6024008a | न चैव वानरा हन्तुं शक्याः पादपयोधिनः |
1473 | 6024008c | सुरा देवर्षभेणेव रामेण हि सुरक्षिताः |
1474 | 6024009a | दीर्घवृत्तभुजः श्रीमान्महोरस्कः प्रतापवान् |
1475 | 6024009c | धन्वी संहननोपेतो धर्मात्मा भुवि विश्रुतः |
1476 | 6024010a | विक्रान्तो रक्षिता नित्यमात्मनश्च परस्य च |
1477 | 6024010c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा कुशली नयशास्त्रवित् |
1478 | 6024011a | हन्ता परबलौघानामचिन्त्यबलपौरुषः |
1479 | 6024011c | न हतो राघवः श्रीमान्सीते शत्रुनिबर्हणः |
1480 | 6024012a | अयुक्तबुद्धिकृत्येन सर्वभूतविरोधिना |
1481 | 6024012c | इयं प्रयुक्ता रौद्रेण माया मायाविदा त्वयि |
1482 | 6024013a | शोकस्ते विगतः सर्वः कल्याणं त्वामुपस्थितम् |
1483 | 6024013c | ध्रुवं त्वां भजते लक्ष्मीः प्रियं प्रीतिकरं शृणु |
1484 | 6024014a | उत्तीर्य सागरं रामः सह वानरसेनया |
1485 | 6024014c | संनिविष्टः समुद्रस्य तीरमासाद्य दक्षिणम् |
1486 | 6024015a | दृष्टो मे परिपूर्णार्थः काकुत्स्थः सहलक्ष्मणः |
1487 | 6024015c | सहितैः सागरान्तस्थैर्बलैस्तिष्ठति रक्षितः |
1488 | 6024016a | अनेन प्रेषिता ये च राक्षसा लघुविक्रमः |
1489 | 6024016c | राघवस्तीर्ण इत्येवं प्रवृत्तिस्तैरिहाहृता |
1490 | 6024017a | स तां श्रुत्वा विशालाक्षि प्रवृत्तिं राक्षसाधिपः |
1491 | 6024017c | एष मन्त्रयते सर्वैः सचिवैः सह रावणः |
1492 | 6024018a | इति ब्रुवाणा सरमा राक्षसी सीतया सह |
1493 | 6024018c | सर्वोद्योगेन सैन्यानां शब्दं शुश्राव भैरवम् |
1494 | 6024019a | दण्डनिर्घातवादिन्याः श्रुत्वा भेर्या महास्वनम् |
1495 | 6024019c | उवाच सरमा सीतामिदं मधुरभाषिणी |
1496 | 6024020a | संनाहजननी ह्येषा भैरवा भीरु भेरिका |
1497 | 6024020c | भेरीनादं च गम्भीरं शृणु तोयदनिस्वनम् |
1498 | 6024021a | कल्प्यन्ते मत्तमातंगा युज्यन्ते रथवाजिनः |
1499 | 6024021c | तत्र तत्र च संनद्धाः संपतन्ति पदातयः |
1500 | 6024022a | आपूर्यन्ते राजमार्गाः सैन्यैरद्भुतदर्शनैः |
1501 | 6024022c | वेगवद्भिर्नदद्भिश्च तोयौघैरिव सागरः |
1502 | 6024023a | शास्त्राणां च प्रसन्नानां चर्मणां वर्मणां तथा |
1503 | 6024023c | रथवाजिगजानां च भूषितानां च रक्षसाम् |
1504 | 6024024a | प्रभां विसृजतां पश्य नानावर्णां समुत्थिताम् |
1505 | 6024024c | वनं निर्दहतो धर्मे यथारूपं विभावसोः |
1506 | 6024025a | घण्टानां शृणु निर्घोषं रथानां शृणु निस्वनम् |
1507 | 6024025c | हयानां हेषमाणानां शृणु तूर्यध्वनिं यथा |
1508 | 6024026a | उद्यतायुधहस्तानां राक्षसेन्द्रानुयायिनाम् |
1509 | 6024026c | संभ्रमो रक्षसामेष तुमुलो लोमहर्षणः |
1510 | 6024027a | श्रीस्त्वां भजति शोकघ्नी रक्षसां भयमागतम् |
1511 | 6024027c | रामात्कमलपत्राक्षि दैत्यानामिव वासवात् |
1512 | 6024028a | अवजित्य जितक्रोधस्तमचिन्त्यपराक्रमः |
1513 | 6024028c | रावणं समरे हत्वा भर्ता त्वाधिगमिष्यति |
1514 | 6024029a | विक्रमिष्यति रक्षःसु भर्ता ते सहलक्ष्मणः |
1515 | 6024029c | यथा शत्रुषु शत्रुघ्नो विष्णुना सह वासवः |
1516 | 6024030a | आगतस्य हि रामस्य क्षिप्रमङ्कगतां सतीम् |
1517 | 6024030c | अहं द्रक्ष्यामि सिद्धार्थां त्वां शत्रौ विनिपातिते |
1518 | 6024031a | अश्रूण्यानन्दजानि त्वं वर्तयिष्यसि शोभने |
1519 | 6024031c | समागम्य परिष्वक्ता तस्योरसि महोरसः |
1520 | 6024032a | अचिरान्मोक्ष्यते सीते देवि ते जघनं गताम् |
1521 | 6024032c | धृतामेतां बहून्मासान्वेणीं रामो महाबलः |
1522 | 6024033a | तस्य दृष्ट्वा मुखं देवि पूर्णचन्द्रमिवोदितम् |
1523 | 6024033c | मोक्ष्यसे शोकजं वारि निर्मोकमिव पन्नगी |
1524 | 6024034a | रावणं समरे हत्वा नचिरादेव मैथिलि |
1525 | 6024034c | त्वया समग्रं प्रियया सुखार्हो लप्स्यते सुखम् |
1526 | 6024035a | समागता त्वं रामेण मोदिष्यसि महात्मना |
1527 | 6024035c | सुवर्षेण समायुक्ता यथा सस्येन मेदिनी |
1528 | 6024036a | गिरिवरमभितोऽनुवर्तमानो; हय इव मण्डलमाशु यः करोति |
1529 | 6024036c | तमिह शरणमभ्युपेहि देवि; दिवसकरं प्रभवो ह्ययं प्रजानाम् |
1530 | 6025001a | अथ तां जातसंतापां तेन वाक्येन मोहिताम् |
1531 | 6025001c | सरमा ह्लादयामास पृतिवीं द्यौरिवाम्भसा |
1532 | 6025002a | ततस्तस्या हितं सख्याश्चिकीर्षन्ती सखी वचः |
1533 | 6025002c | उवाच काले कालज्ञा स्मितपूर्वाभिभाषिणी |
1534 | 6025003a | उत्सहेयमहं गत्वा त्वद्वाक्यमसितेक्षणे |
1535 | 6025003c | निवेद्य कुशलं रामे प्रतिच्छन्ना निवर्तितुम् |
1536 | 6025004a | न हि मे क्रममाणाया निरालम्बे विहायसि |
1537 | 6025004c | समर्थो गतिमन्वेतुं पवनो गरुडोऽपि वा |
1538 | 6025005a | एवं ब्रुवाणां तां सीता सरमां पुनरब्रवीत् |
1539 | 6025005c | मधुरं श्लक्ष्णया वाचा पूर्वशोकाभिपन्नया |
1540 | 6025006a | समर्था गगनं गन्तुमपि वा त्वं रसातलम् |
1541 | 6025006c | अवगच्छाम्यकर्तव्यं कर्तव्यं ते मदन्तरे |
1542 | 6025007a | मत्प्रियं यदि कर्तव्यं यदि बुद्धिः स्थिरा तव |
1543 | 6025007c | ज्ञातुमिच्छामि तं गत्वा किं करोतीति रावणः |
1544 | 6025008a | स हि मायाबलः क्रूरो रावणः शत्रुरावणः |
1545 | 6025008c | मां मोहयति दुष्टात्मा पीतमात्रेव वारुणी |
1546 | 6025009a | तर्जापयति मां नित्यं भर्त्सापयति चासकृत् |
1547 | 6025009c | राक्षसीभिः सुघोराभिर्या मां रक्षन्ति नित्यशः |
1548 | 6025010a | उद्विग्ना शङ्किता चास्मि न च स्वस्थं मनो मम |
1549 | 6025010c | तद्भयाच्चाहमुद्विग्ना अशोकवनिकां गताः |
1550 | 6025011a | यदि नाम कथा तस्य निश्चितं वापि यद्भवेत् |
1551 | 6025011c | निवेदयेथाः सर्वं तत्परो मे स्यादनुग्रहः |
1552 | 6025012a | सा त्वेवं ब्रुवतीं सीतां सरमा वल्गुभाषिणी |
1553 | 6025012c | उवाच वचनं तस्याः स्पृशन्ती बाष्पविक्लवम् |
1554 | 6025013a | एष ते यद्यभिप्रायस्तस्माद्गच्छामि जानकि |
1555 | 6025013c | गृह्य शत्रोरभिप्रायमुपावृत्तां च पश्य माम् |
1556 | 6025014a | एवमुक्त्वा ततो गत्वा समीपं तस्य रक्षसः |
1557 | 6025014c | शुश्राव कथितं तस्य रावणस्य समन्त्रिणः |
1558 | 6025015a | सा श्रुत्वा निश्चयं तस्य निश्चयज्ञा दुरात्मनः |
1559 | 6025015c | पुनरेवागमत्क्षिप्रमशोकवनिकां तदा |
1560 | 6025016a | सा प्रविष्टा पुनस्तत्र ददर्श जनकात्मजाम् |
1561 | 6025016c | प्रतीक्षमाणां स्वामेव भ्रष्टपद्मामिव श्रियम् |
1562 | 6025017a | तां तु सीता पुनः प्राप्तां सरमां वल्गुभाषिणीम् |
1563 | 6025017c | परिष्वज्य च सुस्निग्धं ददौ च स्वयमासनम् |
1564 | 6025018a | इहासीना सुखं सर्वमाख्याहि मम तत्त्वतः |
1565 | 6025018c | क्रूरस्य निश्चयं तस्य रावणस्य दुरात्मनः |
1566 | 6025019a | एवमुक्ता तु सरमा सीतया वेपमानया |
1567 | 6025019c | कथितं सर्वमाचष्ट रावणस्य समन्त्रिणः |
1568 | 6025020a | जनन्या राक्षसेन्द्रो वै त्वन्मोक्षार्थं बृहद्वचः |
1569 | 6025020c | अविद्धेन च वैदेहि मन्त्रिवृद्धेन बोधितः |
1570 | 6025021a | दीयतामभिसत्कृत्य मनुजेन्द्राय मैथिली |
1571 | 6025021c | निदर्शनं ते पर्याप्तं जनस्थाने यदद्भुतम् |
1572 | 6025022a | लङ्घनं च समुद्रस्य दर्शनं च हनूमतः |
1573 | 6025022c | वधं च रक्षसां युद्धे कः कुर्यान्मानुषो भुवि |
1574 | 6025023a | एवं स मन्त्रिवृद्धैश्च मात्रा च बहु भाषितः |
1575 | 6025023c | न त्वामुत्सहते मोक्तुमर्तह्मर्थपरो यथा |
1576 | 6025024a | नोत्सहत्यमृतो मोक्तुं युद्धे त्वामिति मैथिलि |
1577 | 6025024c | सामात्यस्य नृशंसस्य निश्चयो ह्येष वर्तते |
1578 | 6025025a | तदेषा सुस्थिरा बुद्धिर्मृत्युलोभादुपस्थिता |
1579 | 6025025c | भयान्न शक्तस्त्वां मोक्तुमनिरस्तस्तु संयुगे |
1580 | 6025025e | राक्षसानां च सर्वेषामात्मनश्च वधेन हि |
1581 | 6025026a | निहत्य रावणं संख्ये सर्वथा निशितैः शरैः |
1582 | 6025026c | प्रतिनेष्यति रामस्त्वामयोध्यामसितेक्षणे |
1583 | 6025027a | एतस्मिन्नन्तरे शब्दो भेरीशङ्खसमाकुलः |
1584 | 6025027c | श्रुतो वै सर्वसैन्यानां कम्पयन्धरणीतलम् |
1585 | 6025028a | श्रुत्वा तु तं वानरसैन्यशब्दं; लङ्कागता राक्षसराजभृत्याः |
1586 | 6025028c | नष्टौजसो दैन्यपरीतचेष्टाः; श्रेयो न पश्यन्ति नृपस्य दोषैः |
1587 | 6026001a | तेन शङ्खविमिश्रेण भेरीशब्देन राघवः |
1588 | 6026001c | उपयतो महाबाहू रामः परपुरंजयः |
1589 | 6026002a | तं निनादं निशम्याथ रावणो राक्षसेश्वरः |
1590 | 6026002c | मुहूर्तं ध्यानमास्थाय सचिवानभ्युदैक्षत |
1591 | 6026003a | अथ तान्सचिवांस्तत्र सर्वानाभाष्य रावणः |
1592 | 6026003c | सभां संनादयन्सर्वामित्युवाच महाबलः |
1593 | 6026004a | तरणं सागरस्यापि विक्रमं बलसंचयम् |
1594 | 6026004c | यदुक्तवन्तो रामस्य भवन्तस्तन्मया श्रुतम् |
1595 | 6026004e | भवतश्चाप्यहं वेद्मि युद्धे सत्यपराक्रमान् |
1596 | 6026005a | ततस्तु सुमहाप्राज्ञो माल्यवान्नाम राक्षसः |
1597 | 6026005c | रावणस्य वचः श्रुत्वा मातुः पैतामहोऽब्रवीत् |
1598 | 6026006a | विद्यास्वभिविनीतो यो राजा राजन्नयानुगः |
1599 | 6026006c | स शास्ति चिरमैश्वर्यमरींश्च कुरुते वशे |
1600 | 6026007a | संदधानो हि कालेन विगृह्णंश्चारिभिः सह |
1601 | 6026007c | स्वपक्षवर्धनं कुर्वन्महदैश्वर्यमश्नुते |
1602 | 6026008a | हीयमानेन कर्तव्यो राज्ञा संधिः समेन च |
1603 | 6026008c | न शत्रुमवमन्येत ज्यायान्कुर्वीत विग्रहम् |
1604 | 6026009a | तन्मह्यं रोचते संधिः सह रामेण रावण |
1605 | 6026009c | यदर्थमभियुक्ताः स्म सीता तस्मै प्रदीयताम् |
1606 | 6026010a | तस्य देवर्षयः सर्वे गन्धर्वाश्च जयैषिणः |
1607 | 6026010c | विरोधं मा गमस्तेन संधिस्ते तेन रोचताम् |
1608 | 6026011a | असृजद्भगवान्पक्षौ द्वावेव हि पितामहः |
1609 | 6026011c | सुराणामसुराणां च धर्माधर्मौ तदाश्रयौ |
1610 | 6026012a | धर्मो हि श्रूयते पक्षः सुराणां च महात्मनाम् |
1611 | 6026012c | अधर्मो रक्षसं पक्षो ह्यसुराणां च रावण |
1612 | 6026013a | धर्मो वै ग्रसतेऽधर्मं ततः कृतमभूद्युगम् |
1613 | 6026013c | अधर्मो ग्रसते धर्मं ततस्तिष्यः प्रवर्तते |
1614 | 6026014a | तत्त्वया चरता लोकान्धर्मो विनिहतो महान् |
1615 | 6026014c | अधर्मः प्रगृहीतश्च तेनास्मद्बलिनः परे |
1616 | 6026015a | स प्रमादाद्विवृद्धस्तेऽधर्मोऽहिर्ग्रसते हि नः |
1617 | 6026015c | विवर्धयति पक्षं च सुराणां सुरभावनः |
1618 | 6026016a | विषयेषु प्रसक्तेन यत्किंचित्कारिणा त्वया |
1619 | 6026016c | ऋषीणामग्निकल्पानामुद्वेगो जनितो महान् |
1620 | 6026016e | तेषां प्रभावो दुर्धर्षः प्रदीप्त इव पावकः |
1621 | 6026017a | तपसा भावितात्मानो धर्मस्यानुग्रहे रताः |
1622 | 6026017c | मुख्यैर्यज्ञैर्यजन्त्येते नित्यं तैस्तैर्द्विजातयः |
1623 | 6026018a | जुह्वत्यग्नींश्च विधिवद्वेदांश्चोच्चैरधीयते |
1624 | 6026018c | अभिभूय च रक्षांसि ब्रह्मघोषानुदैरयन् |
1625 | 6026018e | दिशो विप्रद्रुताः सर्वे स्तनयित्नुरिवोष्णगे |
1626 | 6026019a | ऋषीणामग्निकल्पानामग्निहोत्रसमुत्थितः |
1627 | 6026019c | आदत्ते रक्षसां तेजो धूमो व्याप्य दिशो दश |
1628 | 6026020a | तेषु तेषु च देशेषु पुण्येषु च दृढव्रतैः |
1629 | 6026020c | चर्यमाणं तपस्तीव्रं संतापयति राक्षसान् |
1630 | 6026021a | उत्पातान्विविधान्दृष्ट्वा घोरान्बहुविधांस्तथा |
1631 | 6026021c | विनाशमनुपश्यामि सर्वेषां रक्षसामहम् |
1632 | 6026022a | खराभिस्तनिता घोरा मेघाः प्रतिभयंकरः |
1633 | 6026022c | शोणितेनाभिवर्षन्ति लङ्कामुष्णेन सर्वतः |
1634 | 6026023a | रुदतां वाहनानां च प्रपतन्त्यस्रबिन्दवः |
1635 | 6026023c | ध्वजा ध्वस्ता विवर्णाश्च न प्रभान्ति यथापुरम् |
1636 | 6026024a | व्याला गोमायवो गृध्रा वाशन्ति च सुभैरवम् |
1637 | 6026024c | प्रविश्य लङ्कामनिशं समवायांश्च कुर्वते |
1638 | 6026025a | कालिकाः पाण्डुरैर्दन्तैः प्रहसन्त्यग्रतः स्थिताः |
1639 | 6026025c | स्त्रियः स्वप्नेषु मुष्णन्त्यो गृहाणि प्रतिभाष्य च |
1640 | 6026026a | गृहाणां बलिकर्माणि श्वानः पर्युपभुञ्जते |
1641 | 6026026c | खरा गोषु प्रजायन्ते मूषिका नकुलैः सह |
1642 | 6026027a | मार्जारा द्वीपिभिः सार्धं सूकराः शुनकैः सह |
1643 | 6026027c | किंनरा राक्षसैश्चापि समेयुर्मानुषैः सह |
1644 | 6026028a | पाण्डुरा रक्तपादाश्च विहगाः कालचोदिताः |
1645 | 6026028c | राक्षसानां विनाशाय कपोता विचरन्ति च |
1646 | 6026029a | चीकी कूचीति वाशन्त्यः शारिका वेश्मसु स्थिताः |
1647 | 6026029c | पतन्ति ग्रथिताश्चापि निर्जिताः कलहैषिणः |
1648 | 6026030a | करालो विकटो मुण्डः पुरुषः कृष्णपिङ्गलः |
1649 | 6026030c | कालो गृहाणि सर्वेषां काले कालेऽन्ववेक्षते |
1650 | 6026030e | एतान्यन्यानि दुष्टानि निमित्तान्युत्पतन्ति च |
1651 | 6026031a | विष्णुं मन्यामहे रामं मानुषं देहमास्थितम् |
1652 | 6026031c | न हि मानुषमात्रोऽसौ राघवो दृढविक्रमः |
1653 | 6026032a | येन बद्धः समुद्रस्य स सेतुः परमाद्भुतः |
1654 | 6026032c | कुरुष्व नरराजेन संधिं रामेण रावण |
1655 | 6026033a | इदं वचस्तत्र निगद्य माल्यव;न्परीक्ष्य रक्षोऽधिपतेर्मनः पुनः |
1656 | 6026033c | अनुत्तमेषूत्तमपौरुषो बली; बभूव तूष्णीं समवेक्ष्य रावणम् |
1657 | 6027001a | तत्तु माल्यवतो वाक्यं हितमुक्तं दशाननः |
1658 | 6027001c | न मर्षयति दुष्टात्मा कालस्य वशमागतः |
1659 | 6027002a | स बद्ध्वा भ्रुकुटिं वक्त्रे क्रोधस्य वशमागतः |
1660 | 6027002c | अमर्षात्परिवृत्ताक्षो माल्यवन्तमथाब्रवीत् |
1661 | 6027003a | हितबुद्ध्या यदहितं वचः परुषमुच्यते |
1662 | 6027003c | परपक्षं प्रविश्यैव नैतच्छ्रोत्रगतं मम |
1663 | 6027004a | मानुषं कृपणं राममेकं शाखामृगाश्रयम् |
1664 | 6027004c | समर्थं मन्यसे केन त्यक्तं पित्रा वनालयम् |
1665 | 6027005a | रक्षसामीश्वरं मां च देवतानां भयंकरम् |
1666 | 6027005c | हीनं मां मन्यसे केन अहीनं सर्वविक्रमैः |
1667 | 6027006a | वीरद्वेषेण वा शङ्के पक्षपातेन वा रिपोः |
1668 | 6027006c | त्वयाहं परुषाण्युक्तः परप्रोत्साहनेन वा |
1669 | 6027007a | प्रभवन्तं पदस्थं हि परुषं कोऽह्बिधास्यति |
1670 | 6027007c | पण्डितः शास्त्रतत्त्वज्ञो विना प्रोत्साहनाद्रिपोः |
1671 | 6027008a | आनीय च वनात्सीतां पद्महीनामिव श्रियम् |
1672 | 6027008c | किमर्थं प्रतिदास्यामि राघवस्य भयादहम् |
1673 | 6027009a | वृतं वानरकोटीभिः ससुग्रीवं सलक्ष्मणम् |
1674 | 6027009c | पश्य कैश्चिदहोभिस्त्वं राघवं निहतं मया |
1675 | 6027010a | द्वन्द्वे यस्य न तिष्ठन्ति दैवतान्यपि संयुगे |
1676 | 6027010c | स कस्माद्रावणो युद्धे भयमाहारयिष्यति |
1677 | 6027011a | द्विधा भज्येयमप्येवं न नमेयं तु कस्यचित् |
1678 | 6027011c | एष मे सहजो दोषः स्वभावो दुरतिक्रमः |
1679 | 6027012a | यदि तावत्समुद्रे तु सेतुर्बद्धो यदृच्छया |
1680 | 6027012c | रामेण विस्मयः कोऽत्र येन ते भयमागतम् |
1681 | 6027013a | स तु तीर्त्वार्णवं रामः सह वानरसेनया |
1682 | 6027013c | प्रतिजानामि ते सत्यं न जीवन्प्रतियास्यति |
1683 | 6027014a | एवं ब्रुवाणं संरब्धं रुष्टं विज्ञाय रावणम् |
1684 | 6027014c | व्रीडितो माल्यवान्वाक्यं नोत्तरं प्रत्यपद्यत |
1685 | 6027015a | जयाशिषा च राजानं वर्धयित्वा यथोचितम् |
1686 | 6027015c | माल्यवानभ्यनुज्ञातो जगाम स्वं निवेशनम् |
1687 | 6027016a | रावणस्तु सहामात्यो मन्त्रयित्वा विमृश्य च |
1688 | 6027016c | लङ्कायामतुलां गुप्तिं कारयामास राक्षसः |
1689 | 6027017a | व्यादिदेश च पूर्वस्यां प्रहस्तं द्वारि राक्षसं |
1690 | 6027017c | दक्षिणस्यां महावीर्यौ महापार्श्व महोदरौ |
1691 | 6027018a | पश्चिमायामथो द्वारि पुत्रमिन्द्रजितं तथा |
1692 | 6027018c | व्यादिदेश महामायं राक्षसैर्बहुभिर्वृतम् |
1693 | 6027019a | उत्तरस्यां पुरद्वारि व्यादिश्य शुकसारणौ |
1694 | 6027019c | स्वयं चात्र भविष्यामि मन्त्रिणस्तानुवाच ह |
1695 | 6027020a | राक्षसं तु विरूपाक्षं महावीर्यपराक्रमम् |
1696 | 6027020c | मध्यमेऽस्थापयद्गुल्मे बहुभिः सह राक्षसैः |
1697 | 6027021a | एवंविधानं लङ्कायां कृत्वा राक्षसपुंगवः |
1698 | 6027021c | मेने कृतार्थमात्मानं कृतान्तवशमागतः |
1699 | 6027022a | विसर्जयामास ततः स मन्त्रिणो; विधानमाज्ञाप्य पुरस्य पुष्कलम् |
1700 | 6027022c | जयाशिषा मन्त्रगणेन पूजितो; विवेश सोऽन्तःपुरमृद्धिमन्महत् |
1701 | 6028001a | नरवानरराजौ तौ स च वायुसुतः कपिः |
1702 | 6028001c | जाम्बवानृक्षराजश्च राक्षसश्च विभीषणः |
1703 | 6028002a | अङ्गदो वालिपुत्रश्च सौमित्रिः शरभः कपिः |
1704 | 6028002c | सुषेणः सहदायादो मैन्दो द्विविद एव च |
1705 | 6028003a | गजो गवाक्षो कुमुदो नलोऽथ पनसस्तथा |
1706 | 6028003c | अमित्रविषयं प्राप्ताः समवेताः समर्थयन् |
1707 | 6028004a | इयं सा लक्ष्यते लङ्का पुरी रावणपालिता |
1708 | 6028004c | सासुरोरगगन्धर्वैरमरैरपि दुर्जया |
1709 | 6028005a | कार्यसिद्धिं पुरस्कृत्य मन्त्रयध्वं विनिर्णये |
1710 | 6028005c | नित्यं संनिहितो ह्यत्र रावणो राक्षसाधिपः |
1711 | 6028006a | तथा तेषु ब्रुवाणेषु रावणावरजोऽब्रवीत् |
1712 | 6028006c | वाक्यमग्राम्यपदवत्पुष्कलार्थं विभीषणः |
1713 | 6028007a | अनलः शरभश्चैव संपातिः प्रघसस्तथा |
1714 | 6028007c | गत्वा लङ्कां ममामात्याः पुरीं पुनरिहागताः |
1715 | 6028008a | भूत्वा शकुनयः सर्वे प्रविष्टाश्च रिपोर्बलम् |
1716 | 6028008c | विधानं विहितं यच्च तद्दृष्ट्वा समुपस्थिताः |
1717 | 6028009a | संविधानं यथाहुस्ते रावणस्य दुरात्मनः |
1718 | 6028009c | राम तद्ब्रुवतः सर्वं यथातथ्येन मे शृणु |
1719 | 6028010a | पूर्वं प्रहस्तः सबलो द्वारमासाद्य तिष्ठति |
1720 | 6028010c | दक्षिणं च महावीर्यौ महापार्श्वमहोदरौ |
1721 | 6028011a | इन्द्रजित्पश्चिमद्वारं राक्षसैर्बहुभिर्वृतः |
1722 | 6028011c | पट्टसासिधनुष्मद्भिः शूलमुद्गरपाणिभिः |
1723 | 6028012a | नानाप्रहरणैः शूरैरावृतो रावणात्मजः |
1724 | 6028012c | राक्षसानां सहस्रैस्तु बहुभिः शस्त्रपाणिभिः |
1725 | 6028013a | युक्तः परमसंविग्नो राक्षसैर्बहुभिर्वृतः |
1726 | 6028013c | उत्तरं नगरद्वारं रावणः स्वयमास्थितः |
1727 | 6028014a | विरूपाक्षस्तु महता शूलखड्गधनुष्मता |
1728 | 6028014c | बलेन राक्षसैः सार्धं मध्यमं गुल्ममास्थितः |
1729 | 6028015a | एतानेवंविधान्गुल्माँल्लङ्कायां समुदीक्ष्य ते |
1730 | 6028015c | मामकाः सचिवाः सर्वे शीघ्रं पुनरिहागताः |
1731 | 6028016a | गजानां च सहस्रं च रथानामयुतं पुरे |
1732 | 6028016c | हयानामयुते द्वे च साग्रकोटी च रक्षसाम् |
1733 | 6028017a | विक्रान्ता बलवन्तश्च संयुगेष्वाततायिनः |
1734 | 6028017c | इष्टा राक्षसराजस्य नित्यमेते निशाचराः |
1735 | 6028018a | एकैकस्यात्र युद्धार्थे राक्षसस्य विशां पते |
1736 | 6028018c | परिवारः सहस्राणां सहस्रमुपतिष्ठते |
1737 | 6028019a | एतां प्रवृत्तिं लङ्कायां मन्त्रिप्रोक्तं विभीषणः |
1738 | 6028019c | रामं कमलपत्राक्षमिदमुत्तरमब्रवीत् |
1739 | 6028020a | कुबेरं तु यदा राम रावणः प्रत्ययुध्यत |
1740 | 6028020c | षष्टिः शतसहस्राणि तदा निर्यान्ति राक्षसाः |
1741 | 6028021a | पराक्रमेण वीर्येण तेजसा सत्त्वगौरवात् |
1742 | 6028021c | सदृशा योऽत्र दर्पेण रावणस्य दुरात्मनः |
1743 | 6028022a | अत्र मन्युर्न कर्तव्यो रोषये त्वां न भीषये |
1744 | 6028022c | समर्थो ह्यसि वीर्येण सुराणामपि निग्रहे |
1745 | 6028023a | तद्भवांश्चतुरङ्गेण बलेन महता वृतः |
1746 | 6028023c | व्यूह्येदं वानरानीकं निर्मथिष्यसि रावणम् |
1747 | 6028024a | रावणावरजे वाक्यमेवं ब्रुवति राघवः |
1748 | 6028024c | शत्रूणां प्रतिघातार्थमिदं वचनमब्रवीत् |
1749 | 6028025a | पूर्वद्वारे तु लङ्काया नीलो वानरपुंगवः |
1750 | 6028025c | प्रहस्तं प्रतियोद्धा स्याद्वानरैर्बहुभिर्वृतः |
1751 | 6028026a | अङ्गदो वालिपुत्रस्तु बलेन महता वृतः |
1752 | 6028026c | दक्षिणे बाधतां द्वारे महापार्श्वमहोदरौ |
1753 | 6028027a | हनूमान्पश्चिमद्वारं निपीड्य पवनात्मजः |
1754 | 6028027c | प्रविशत्वप्रमेयात्मा बहुभिः कपिभिर्वृतः |
1755 | 6028028a | दैत्यदानवसंघानामृषीणां च महात्मनाम् |
1756 | 6028028c | विप्रकारप्रियः क्षुद्रो वरदानबलान्वितः |
1757 | 6028029a | परिक्रामति यः सर्वाँल्लोकान्संतापयन्प्रजाः |
1758 | 6028029c | तस्याहं राक्षसेन्द्रस्य स्वयमेव वधे धृतः |
1759 | 6028030a | उत्तरं नगरद्वारमहं सौमित्रिणा सह |
1760 | 6028030c | निपीड्याभिप्रवेक्ष्यामि सबलो यत्र रावणः |
1761 | 6028031a | वानरेन्द्रश्च बलवानृक्षराजश्च जाम्बवान् |
1762 | 6028031c | राक्षसेन्द्रानुजश्चैव गुल्मे भवतु मध्यमे |
1763 | 6028032a | न चैव मानुषं रूपं कार्यं हरिभिराहवे |
1764 | 6028032c | एषा भवतु नः संज्ञा युद्धेऽस्मिन्वानरे बले |
1765 | 6028033a | वानरा एव निश्चिह्नं स्वजनेऽस्मिन्भविष्यति |
1766 | 6028033c | वयं तु मानुषेणैव सप्त योत्स्यामहे परान् |
1767 | 6028034a | अहमेव सह भ्रात्रा लक्ष्मणेन महौजसा |
1768 | 6028034c | आत्मना पञ्चमश्चायं सखा मम विभीषणः |
1769 | 6028035a | स रामः कार्यसिद्ध्यर्थमेवमुक्त्वा विभीषणम् |
1770 | 6028035c | सुवेलारोहणे बुद्धिं चकार मतिमान्मतिम् |
1771 | 6028036a | ततस्तु रामो महता बलेन; प्रच्छाद्य सर्वां पृथिवीं महात्मा |
1772 | 6028036c | प्रहृष्टरूपोऽभिजगाम लङ्कां; कृत्वा मतिं सोऽरिवधे महात्मा |
1773 | 6029001a | स तु कृत्वा सुवेलस्य मतिमारोहणं प्रति |
1774 | 6029001c | लक्ष्मणानुगतो रामः सुग्रीवमिदमब्रवीत् |
1775 | 6029002a | विभीषणं च धर्मज्ञमनुरक्तं निशाचरम् |
1776 | 6029002c | मन्त्रज्ञं च विधिज्ञं च श्लक्ष्णया परया गिरा |
1777 | 6029003a | सुवेलं साधु शैलेन्द्रमिमं धातुशतैश्चितम् |
1778 | 6029003c | अध्यारोहामहे सर्वे वत्स्यामोऽत्र निशामिमाम् |
1779 | 6029004a | लङ्कां चालोकयिष्यामो निलयं तस्य रक्षसः |
1780 | 6029004c | येन मे मरणान्ताय हृता भार्या दुरात्मना |
1781 | 6029005a | येन धर्मो न विज्ञातो न वृत्तं न कुलं तथा |
1782 | 6029005c | राक्षस्या नीचया बुद्ध्या येन तद्गर्हितं कृतम् |
1783 | 6029006a | यस्मिन्मे वर्धते रोषः कीर्तिते राक्षसाधमे |
1784 | 6029006c | यस्यापराधान्नीचस्य वधं द्रक्ष्यामि रक्षसाम् |
1785 | 6029007a | एको हि कुरुते पापं कालपाशवशं गतः |
1786 | 6029007c | नीचेनात्मापचारेण कुलं तेन विनश्यति |
1787 | 6029008a | एवं संमन्त्रयन्नेव सक्रोधो रावणं प्रति |
1788 | 6029008c | रामः सुवेलं वासाय चित्रसानुमुपारुहत् |
1789 | 6029009a | पृष्ठतो लक्ष्मण चैनमन्वगच्छत्समाहितः |
1790 | 6029009c | सशरं चापमुद्यम्य सुमहद्विक्रमे रतः |
1791 | 6029010a | तमन्वरोहत्सुग्रीवः सामात्यः सविभीषणः |
1792 | 6029010c | हनूमानङ्गदो नीलो मैन्दो द्विविद एव च |
1793 | 6029011a | गजो गवाक्षो गवयः शरभो गन्धमादनः |
1794 | 6029011c | पनसः कुमुदश्चैव हरो रम्भश्च यूथपः |
1795 | 6029012a | एते चान्ये च बहवो वानराः शीघ्रगामिनः |
1796 | 6029012c | ते वायुवेगप्रवणास्तं गिरिं गिरिचारिणः |
1797 | 6029012e | अध्यारोहन्त शतशः सुवेलं यत्र राघवः |
1798 | 6029013a | ते त्वदीर्घेण कालेन गिरिमारुह्य सर्वतः |
1799 | 6029013c | ददृशुः शिखरे तस्य विषक्तामिव खे पुरीम् |
1800 | 6029014a | तां शुभां प्रवरद्वारां प्राकारवरशोभिताम् |
1801 | 6029014c | लङ्कां राक्षससंपूर्णां ददृशुर्हरियूथपाः |
1802 | 6029015a | प्राकारचयसंस्थैश्च तथा नीलैर्निशाचरैः |
1803 | 6029015c | ददृशुस्ते हरिश्रेष्ठाः प्राकारमपरं कृतम् |
1804 | 6029016a | ते दृष्ट्वा वानराः सर्वे राक्षसान्युद्धकाङ्क्षिणः |
1805 | 6029016c | मुमुचुर्विपुलान्नादांस्तत्र रामस्य पश्यतः |
1806 | 6029017a | ततोऽस्तमगमत्सूर्यः संध्यया प्रतिरञ्जितः |
1807 | 6029017c | पूर्णचन्द्रप्रदीपा च क्षपा समभिवर्तते |
1808 | 6029018a | ततः स रामो हरिवाहिनीपति;र्विभीषणेन प्रतिनन्द्य सत्कृतः |
1809 | 6029018c | सलक्ष्मणो यूथपयूथसंवृतः; सुवेल पृष्ठे न्यवसद्यथासुखम् |
1810 | 6030001a | तां रात्रिमुषितास्तत्र सुवेले हरिपुंगवाः |
1811 | 6030001c | लङ्कायां ददृशुर्वीरा वनान्युपवनानि च |
1812 | 6030002a | समसौम्यानि रम्याणि विशालान्यायतानि च |
1813 | 6030002c | दृष्टिरम्याणि ते दृष्ट्वा बभूवुर्जातविस्मयाः |
1814 | 6030003a | चम्पकाशोकपुंनागसालतालसमाकुला |
1815 | 6030003c | तमालवनसंछन्ना नागमालासमावृता |
1816 | 6030004a | हिन्तालैरर्जुनैर्नीपैः सप्तपर्णैश्च पुष्पितैः |
1817 | 6030004c | तिलकैः कर्णिकारैश्च पटालैश्च समन्ततः |
1818 | 6030005a | शुशुभे पुष्पिताग्रैश्च लतापरिगतैर्द्रुमैः |
1819 | 6030005c | लङ्का बहुविधैर्दिव्यैर्यथेन्द्रस्यामरावती |
1820 | 6030006a | विचित्रकुसुमोपेतै रक्तकोमलपल्लवैः |
1821 | 6030006c | शाद्वलैश्च तथा नीलैश्चित्राभिर्वनराजिभिः |
1822 | 6030007a | गन्धाढ्यान्यभिरम्याणि पुष्पाणि च फलानि च |
1823 | 6030007c | धारयन्त्यगमास्तत्र भूषणानीव मानवाः |
1824 | 6030008a | तच्चैत्ररथसंकाशं मनोज्ञं नन्दनोपमम् |
1825 | 6030008c | वनं सर्वर्तुकं रम्यं शुशुभे षट्पदायुतम् |
1826 | 6030009a | नत्यूहकोयष्टिभकैर्नृत्यमानैश्च बर्हिभिः |
1827 | 6030009c | रुतं परभृतानां च शुश्रुवे वननिर्झरे |
1828 | 6030010a | नित्यमत्तविहंगानि भ्रमराचरितानि च |
1829 | 6030010c | कोकिलाकुलषण्डानि विहगाभिरुतानि च |
1830 | 6030011a | भृङ्गराजाभिगीतानि भ्रमरैः सेवितानि च |
1831 | 6030011c | कोणालकविघुष्टानि सारसाभिरुतानि च |
1832 | 6030012a | विविशुस्ते ततस्तानि वनान्युपवनानि च |
1833 | 6030012c | हृष्टाः प्रमुदिता वीरा हरयः कामरूपिणः |
1834 | 6030013a | तेषां प्रविशतां तत्र वानराणां महौजसाम् |
1835 | 6030013c | पुष्पसंसर्गसुरभिर्ववौ घ्राणसुखोऽनिलः |
1836 | 6030014a | अन्ये तु हरिवीराणां यूथान्निष्क्रम्य यूथपाः |
1837 | 6030014c | सुग्रीवेणाभ्यनुज्ञाता लङ्कां जग्मुः पताकिनीम् |
1838 | 6030015a | वित्रासयन्तो विहगांस्त्रासयन्तो मृगद्विपान् |
1839 | 6030015c | कम्पयन्तश्च तां लङ्कां नादैः स्वैर्नदतां वराः |
1840 | 6030016a | कुर्वन्तस्ते महावेगा महीं चारणपीडिताम् |
1841 | 6030016c | रजश्च सहसैवोर्ध्वं जगाम चरणोद्धतम् |
1842 | 6030017a | ऋक्षाः सिंहा वराहाश्च महिषा वारणा मृगाः |
1843 | 6030017c | तेन शब्देन वित्रस्ता जग्मुर्भीता दिशो दश |
1844 | 6030018a | शिखरं तु त्रिकूटस्य प्रांशु चैकं दिविस्पृशम् |
1845 | 6030018c | समन्तात्पुष्पसंछन्नं महारजतसंनिभम् |
1846 | 6030019a | शतयोजनविस्तीर्णं विमलं चारुदर्शनम् |
1847 | 6030019c | श्लक्ष्णं श्रीमन्महच्चैव दुष्प्रापं शकुनैरपि |
1848 | 6030020a | मनसापि दुरारोहं किं पुनः कर्मणा जनैः |
1849 | 6030020c | निविष्टा तत्र शिखरे लङ्का रावणपालिता |
1850 | 6030021a | सा पुरी गोपुरैरुच्चैः पाण्डुराम्बुदसंनिभैः |
1851 | 6030021c | काञ्चनेन च सालेन राजतेन च शोभिता |
1852 | 6030022a | प्रासादैश्च विमानैश्च लङ्का परमभूषिता |
1853 | 6030022c | घनैरिवातपापाये मध्यमं वैष्णवं पदम् |
1854 | 6030023a | यस्यां स्तम्भसहस्रेण प्रासादः समलंकृतः |
1855 | 6030023c | कैलासशिखराकारो दृश्यते खमिवोल्लिखन् |
1856 | 6030024a | चैत्यः स राक्षसेन्द्रस्य बभूव पुरभूषणम् |
1857 | 6030024c | शतेन रक्षसां नित्यं यः समग्रेण रक्ष्यते |
1858 | 6030025a | तां समृद्धां समृद्धार्थो लक्ष्मीवाँल्लक्ष्मणाग्रजः |
1859 | 6030025c | रावणस्य पुरीं रामो ददर्श सह वानरैः |
1860 | 6030026a | तां रत्नपूर्णां बहुसंविधानां; प्रासादमालाभिरलंकृतां च |
1861 | 6030026c | पुरीं महायन्त्रकवाटमुख्यां; ददर्श रामो महता बलेन |
1862 | 6031001a | अथ तस्मिन्निमित्तानि दृष्ट्वा लक्ष्मणपूर्वजः |
1863 | 6031001c | लक्ष्मणं लक्ष्मिसंपन्नमिदं वचनमब्रवीत् |
1864 | 6031002a | परिगृह्योदकं शीतं वनानि फलवन्ति च |
1865 | 6031002c | बलौघं संविभज्येमं व्यूह्य तिष्ठेम लक्ष्मण |
1866 | 6031003a | लोकक्षयकरं भीमं भयं पश्याम्युपस्थितम् |
1867 | 6031003c | निबर्हणं प्रवीराणामृक्षवानररक्षसाम् |
1868 | 6031004a | वाताश्च परुषं वान्ति कम्पते च वसुंधरा |
1869 | 6031004c | पर्वताग्राणि वेपन्ते पतन्ति धरणीधराः |
1870 | 6031005a | मेघाः क्रव्यादसंकाशाः परुषाः परुषस्वनाः |
1871 | 6031005c | क्रूराः क्रूरं प्रवर्षन्ति मिश्रं शोणितबिन्दुभिः |
1872 | 6031006a | रक्तचन्दनसंकाशा संध्यापरमदारुणा |
1873 | 6031006c | ज्वलच्च निपतत्येतदादित्यादग्निमण्डलम् |
1874 | 6031007a | आदित्यमभिवाश्यन्ते जनयन्तो महद्भयम् |
1875 | 6031007c | दीना दीनस्वरा घोरा अप्रशस्ता मृगद्विजाः |
1876 | 6031008a | रजन्यामप्रकाशश्च संतापयति चन्द्रमाः |
1877 | 6031008c | कृष्णरक्तांशुपर्यन्तो यथा लोकस्य संक्षये |
1878 | 6031009a | ह्रस्वो रूक्षोऽप्रशस्तश्च परिवेषः सुलोहितः |
1879 | 6031009c | आदित्यमण्डले नीलं लक्ष्म लक्ष्मण दृश्यते |
1880 | 6031010a | दृश्यन्ते न यथावच्च नक्षत्राण्यभिवर्तते |
1881 | 6031010c | युगान्तमिव लोकस्य पश्य लक्ष्मण शंसति |
1882 | 6031011a | काकाः श्येनास्तथा गृध्रा नीचैः परिपतन्ति च |
1883 | 6031011c | शिवाश्चाप्यशिवा वाचः प्रवदन्ति महास्वनाः |
1884 | 6031012a | क्षिप्रमद्य दुराधर्षां पुरीं रावणपालिताम् |
1885 | 6031012c | अभियाम जवेनैव सर्वतो हरिभिर्वृताः |
1886 | 6031013a | इत्येवं तु वदन्वीरो लक्ष्मणं लक्ष्मणाग्रजः |
1887 | 6031013c | तस्मादवातरच्छीघ्रं पर्वताग्रान्महाबलः |
1888 | 6031014a | अवतीर्य तु धर्मात्मा तस्माच्छैलात्स राघवः |
1889 | 6031014c | परैः परमदुर्धर्षं ददर्श बलमात्मनः |
1890 | 6031015a | संनह्य तु ससुग्रीवः कपिराजबलं महत् |
1891 | 6031015c | कालज्ञो राघवः काले संयुगायाभ्यचोदयत् |
1892 | 6031016a | ततः काले महाबाहुर्बलेन महता वृतः |
1893 | 6031016c | प्रस्थितः पुरतो धन्वी लङ्कामभिमुखः पुरीम् |
1894 | 6031017a | तं विभीषण सुग्रीवौ हनूमाञ्जाम्बवान्नलः |
1895 | 6031017c | ऋक्षराजस्तथा नीलो लक्ष्मणश्चान्ययुस्तदा |
1896 | 6031018a | ततः पश्चात्सुमहती पृतनर्क्षवनौकसाम् |
1897 | 6031018c | प्रच्छाद्य महतीं भूमिमनुयाति स्म राघवम् |
1898 | 6031019a | शैलशृङ्गाणि शतशः प्रवृद्धांश्च महीरुहाम् |
1899 | 6031019c | जगृहुः कुञ्जरप्रख्या वानराः परवारणाः |
1900 | 6031020a | तौ त्वदीर्घेण कालेन भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
1901 | 6031020c | रावणस्य पुरीं लङ्कामासेदतुररिंदमौ |
1902 | 6031021a | पताकामालिनीं रम्यामुद्यानवनशोभिताम् |
1903 | 6031021c | चित्रवप्रां सुदुष्प्रापामुच्चप्राकारतोरणाम् |
1904 | 6031022a | तां सुरैरपि दुर्धर्षां रामवाक्यप्रचोदिताः |
1905 | 6031022c | यथानिदेशं संपीड्य न्यविशन्त वनौकसः |
1906 | 6031023a | लङ्कायास्तूत्तरद्वारं शैलशृङ्गमिवोन्नतम् |
1907 | 6031023c | रामः सहानुजो धन्वी जुगोप च रुरोध च |
1908 | 6031024a | लङ्कामुपनिविष्टश्च रामो दशरथात्मजः |
1909 | 6031024c | लक्ष्मणानुचरो वीरः पुरीं रावणपालिताम् |
1910 | 6031025a | उत्तरद्वारमासाद्य यत्र तिष्ठति रावणः |
1911 | 6031025c | नान्यो रामाद्धि तद्द्वारं समर्थः परिरक्षितुम् |
1912 | 6031026a | रावणाधिष्ठितं भीमं वरुणेनेव सागरम् |
1913 | 6031026c | सायुधौ राक्षसैर्भीमैरभिगुप्तं समन्ततः |
1914 | 6031026e | लघूनां त्रासजननं पातालमिव दानवैः |
1915 | 6031027a | विन्यस्तानि च योधानां बहूनि विविधानि च |
1916 | 6031027c | ददर्शायुधजालानि तथैव कवचानि च |
1917 | 6031028a | पूर्वं तु द्वारमासाद्य नीलो हरिचमूपतिः |
1918 | 6031028c | अतिष्ठत्सह मैन्देन द्विविदेन च वीर्यवान् |
1919 | 6031029a | अङ्गदो दक्षिणद्वारं जग्राह सुमहाबलः |
1920 | 6031029c | ऋषभेण गवाक्षेण गजेन गवयेन च |
1921 | 6031030a | हनूमान्पश्चिमद्वारं ररक्ष बलवान्कपिः |
1922 | 6031030c | प्रमाथि प्रघसाभ्यां च वीरैरन्यैश्च संगतः |
1923 | 6031031a | मध्यमे च स्वयं गुल्मे सुग्रीवः समतिष्ठत |
1924 | 6031031c | सह सर्वैर्हरिश्रेष्ठैः सुपर्णश्वसनोपमैः |
1925 | 6031032a | वानराणां तु षट्त्रिंशत्कोट्यः प्रख्यातयूथपाः |
1926 | 6031032c | निपीड्योपनिविष्टाश्च सुग्रीवो यत्र वानरः |
1927 | 6031033a | शासनेन तु रामस्य लक्ष्मणः सविभीषणः |
1928 | 6031033c | द्वारे द्वारे हरीणां तु कोटिं कोटिं न्यवेशयत् |
1929 | 6031034a | पश्चिमेन तु रामस्य सुग्रीवः सह जाम्बवान् |
1930 | 6031034c | अदूरान्मध्यमे गुल्मे तस्थौ बहुबलानुगः |
1931 | 6031035a | ते तु वानरशार्दूलाः शार्दूला इव दंष्ट्रिणः |
1932 | 6031035c | गृहीत्वा द्रुमशैलाग्रान्हृष्टा युद्धाय तस्थिरे |
1933 | 6031036a | सर्वे विकृतलाङ्गूलाः सर्वे दंष्ट्रानखायुधाः |
1934 | 6031036c | सर्वे विकृतचित्राङ्गाः सर्वे च विकृताननाः |
1935 | 6031037a | दशनागबलाः केचित्केचिद्दशगुणोत्तराः |
1936 | 6031037c | केचिन्नागसहस्रस्य बभूवुस्तुल्यविक्रमाः |
1937 | 6031038a | सन्ति चौघा बलाः केचित्केचिच्छतगुणोत्तराः |
1938 | 6031038c | अप्रमेयबलाश्चान्ये तत्रासन्हरियूथपाः |
1939 | 6031039a | अद्भुतश्च विचित्रश्च तेषामासीत्समागमः |
1940 | 6031039c | तत्र वानरसैन्यानां शलभानामिवोद्गमः |
1941 | 6031040a | परिपूर्णमिवाकाशं संछन्नेव च मेदिनी |
1942 | 6031040c | लङ्कामुपनिविष्टैश्च संपतद्भिश्च वानरैः |
1943 | 6031041a | शतं शतसहस्राणां पृथगृक्षवनौकसाम् |
1944 | 6031041c | लङ्का द्वाराण्युपाजग्मुरन्ये योद्धुं समन्ततः |
1945 | 6031042a | आवृतः स गिरिः सर्वैस्तैः समन्तात्प्लवंगमैः |
1946 | 6031042c | अयुतानां सहस्रं च पुरीं तामभ्यवर्तत |
1947 | 6031043a | वानरैर्बलवद्भिश्च बभूव द्रुमपाणिभिः |
1948 | 6031043c | सर्वतः संवृता लङ्का दुष्प्रवेशापि वायुना |
1949 | 6031044a | राक्षसा विस्मयं जग्मुः सहसाभिनिपीडिताः |
1950 | 6031044c | वानरैर्मेघसंकाशैः शक्रतुल्यपराक्रमैः |
1951 | 6031045a | महाञ्शब्दोऽभवत्तत्र बलौघस्याभिवर्ततः |
1952 | 6031045c | सागरस्येव भिन्नस्य यथा स्यात्सलिलस्वनः |
1953 | 6031046a | तेन शब्देन महता सप्राकारा सतोरणा |
1954 | 6031046c | लङ्का प्रचलिता सर्वा सशैलवनकानना |
1955 | 6031047a | रामलक्ष्मणगुप्ता सा सुग्रीवेण च वाहिनी |
1956 | 6031047c | बभूव दुर्धर्षतरा सर्वैरपि सुरासुरैः |
1957 | 6031048a | राघवः संनिवेश्यैवं सैन्यं स्वं रक्षसां वधे |
1958 | 6031048c | संमन्त्र्य मन्त्रिभिः सार्धं निश्चित्य च पुनः पुनः |
1959 | 6031049a | आनन्तर्यमभिप्रेप्सुः क्रमयोगार्थतत्त्ववित् |
1960 | 6031049c | विभीषणस्यानुमते राजधर्ममनुस्मरन् |
1961 | 6031049e | अङ्गदं वालितनयं समाहूयेदमब्रवीत् |
1962 | 6031050a | गत्वा सौम्य दशग्रीवं ब्रूहि मद्वचनात्कपे |
1963 | 6031050c | लङ्घयित्वा पुरीं लङ्कां भयं त्यक्त्वा गतव्यथः |
1964 | 6031051a | भ्रष्टश्रीकगतैश्वर्यमुमूर्षो नष्टचेतनः |
1965 | 6031051c | ऋषीणां देवतानां च गन्धर्वाप्सरसां तथा |
1966 | 6031052a | नागानामथ यक्षाणां राज्ञां च रजनीचर |
1967 | 6031052c | यच्च पापं कृतं मोहादवलिप्तेन राक्षस |
1968 | 6031053a | नूनमद्य गतो दर्पः स्वयम्भू वरदानजः |
1969 | 6031053c | यस्य दण्डधरस्तेऽहं दाराहरणकर्शितः |
1970 | 6031053e | दण्डं धारयमाणस्तु लङ्काद्वरे व्यवस्थितः |
1971 | 6031054a | पदवीं देवतानां च महर्षीणां च राक्षस |
1972 | 6031054c | राजर्षीणां च सर्वेणां गमिष्यसि मया हतः |
1973 | 6031055a | बलेन येन वै सीतां मायया राक्षसाधम |
1974 | 6031055c | मामतिक्रामयित्वा त्वं हृतवांस्तद्विदर्शय |
1975 | 6031056a | अराक्षसमिमं लोकं कर्तास्मि निशितैः शरैः |
1976 | 6031056c | न चेच्छरणमभ्येषि मामुपादाय मैथिलीम् |
1977 | 6031057a | धर्मात्मा रक्षसां श्रेष्ठः संप्राप्तोऽयं विभीषणः |
1978 | 6031057c | लङ्कैश्वर्यं ध्रुवं श्रीमानयं प्राप्नोत्यकण्टकम् |
1979 | 6031058a | न हि राज्यमधर्मेण भोक्तुं क्षणमपि त्वया |
1980 | 6031058c | शक्यं मूर्खसहायेन पापेनाविजितात्मना |
1981 | 6031059a | युध्यस्व वा धृतिं कृत्वा शौर्यमालम्ब्य राक्षस |
1982 | 6031059c | मच्छरैस्त्वं रणे शान्तस्ततः पूतो भविष्यसि |
1983 | 6031060a | यद्याविशसि लोकांस्त्रीन्पक्षिभूतो मनोजवः |
1984 | 6031060c | मम चक्षुष्पथं प्राप्य न जीवन्प्रतियास्यसि |
1985 | 6031061a | ब्रवीमि त्वां हितं वाक्यं क्रियतामौर्ध्वदेकिकम् |
1986 | 6031061c | सुदृष्टा क्रियतां लङ्का जीवितं ते मयि स्थितम् |
1987 | 6031062a | इत्युक्तः स तु तारेयो रामेणाक्लिष्टकर्मणा |
1988 | 6031062c | जगामाकाशमाविश्य मूर्तिमानिव हव्यवाट् |
1989 | 6031063a | सोऽतिपत्य मुहूर्तेन श्रीमान्रावणमन्दिरम् |
1990 | 6031063c | ददर्शासीनमव्यग्रं रावणं सचिवैः सह |
1991 | 6031064a | ततस्तस्याविदूरेण निपत्य हरिपुंगवः |
1992 | 6031064c | दीप्ताग्निसदृशस्तस्थावङ्गदः कनकाङ्गदः |
1993 | 6031065a | तद्रामवचनं सर्वमन्यूनाधिकमुत्तमम् |
1994 | 6031065c | सामात्यं श्रावयामास निवेद्यात्मानमात्मना |
1995 | 6031066a | दूतोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्टकर्मणः |
1996 | 6031066c | वालिपुत्रोऽङ्गदो नाम यदि ते श्रोत्रमागतः |
1997 | 6031067a | आह त्वां राघवो रामः कौसल्यानन्दवर्धनः |
1998 | 6031067c | निष्पत्य प्रतियुध्यस्व नृशंसं पुरुषाधम |
1999 | 6031068a | हन्तास्मि त्वां सहामात्यं सपुत्रज्ञातिबान्धवम् |
2000 | 6031068c | निरुद्विग्नास्त्रयो लोका भविष्यन्ति हते त्वयि |
2001 | 6031069a | देवदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम् |
2002 | 6031069c | शत्रुमद्योद्धरिष्यामि त्वामृषीणां च कण्टकम् |
2003 | 6031070a | विभीषणस्य चैश्वर्यं भविष्यति हते त्वयि |
2004 | 6031070c | न चेत्सत्कृत्य वैदेहीं प्रणिपत्य प्रदास्यसि |
2005 | 6031071a | इत्येवं परुषं वाक्यं ब्रुवाणे हरिपुंगवे |
2006 | 6031071c | अमर्षवशमापन्नो निशाचरगणेश्वरः |
2007 | 6031072a | ततः स रोषताम्राक्षः शशास सचिवांस्तदा |
2008 | 6031072c | गृह्यतामेष दुर्मेधा वध्यतामिति चासकृत् |
2009 | 6031073a | रावणस्य वचः श्रुत्वा दीप्ताग्निसमतेजसः |
2010 | 6031073c | जगृहुस्तं ततो घोराश्चत्वारो रजनीचराः |
2011 | 6031074a | ग्राहयामास तारेयः स्वयमात्मानमात्मना |
2012 | 6031074c | बलं दर्शयितुं वीरो यातुधानगणे तदा |
2013 | 6031075a | स तान्बाहुद्वये सक्तानादाय पतगानिव |
2014 | 6031075c | प्रासादं शैलसंकाशमुत्पापाताङ्गदस्तदा |
2015 | 6031076a | तेऽन्तरिक्षाद्विनिर्धूतास्तस्य वेगेन राक्षसाः |
2016 | 6031076c | भुमौ निपतिताः सर्वे राक्षसेन्द्रस्य पश्यतः |
2017 | 6031077a | ततः प्रासादशिखरं शैलशृङ्गमिवोन्नतम् |
2018 | 6031077c | तत्पफाल तदाक्रान्तं दशग्रीवस्य पश्यतः |
2019 | 6031078a | भङ्क्त्वा प्रासादशिखरं नाम विश्राव्य चात्मनः |
2020 | 6031078c | विनद्य सुमहानादमुत्पपात विहायसा |
2021 | 6031079a | रावणस्तु परं चक्रे क्रोधं प्रासादधर्षणात् |
2022 | 6031079c | विनाशं चात्मनः पश्यन्निःश्वासपरमोऽभवत् |
2023 | 6031080a | रामस्तु बहुभिर्हृष्टैर्निनदद्भिः प्लवंगमैः |
2024 | 6031080c | वृतो रिपुवधाकाङ्क्षी युद्धायैवाभ्यवर्तत |
2025 | 6031081a | सुषेणस्तु महावीर्यो गिरिकूटोपमो हरिः |
2026 | 6031081c | बहुभिः संवृतस्तत्र वानरैः कामरूपिभिः |
2027 | 6031082a | चतुर्द्वाराणि सर्वाणि सुग्रीववचनात्कपिः |
2028 | 6031082c | पर्याक्रमत दुर्धर्षो नक्षत्राणीव चन्द्रमाः |
2029 | 6031083a | तेषामक्षौहिणिशतं समवेक्ष्य वनौकसाम् |
2030 | 6031083c | लङ्कामुपनिविष्टानां सागरं चातिवर्तताम् |
2031 | 6031084a | राक्षसा विस्मयं जग्मुस्त्रासं जग्मुस्तथापरे |
2032 | 6031084c | अपरे समरोद्धर्षाद्धर्षमेवोपपेदिरे |
2033 | 6031085a | कृत्स्नं हि कपिभिर्व्याप्तं प्राकारपरिखान्तरम् |
2034 | 6031085c | ददृशू राक्षसा दीनाः प्राकारं वानरीकृतम् |
2035 | 6031086a | तस्मिन्महाभीषणके प्रवृत्ते; कोलाहले राक्षसराजधान्याम् |
2036 | 6031086c | प्रगृह्य रक्षांसि महायुधानि; युगान्तवाता इव संविचेरुः |
2037 | 6032001a | ततस्ते राक्षसास्तत्र गत्वा रावणमन्दिरम् |
2038 | 6032001c | न्यवेदयन्पुरीं रुद्धां रामेण सह वानरैः |
2039 | 6032002a | रुद्धां तु नगरीं श्रुत्वा जातक्रोधो निशाचरः |
2040 | 6032002c | विधानं द्विगुणं श्रुत्वा प्रासादं सोऽध्यरोहत |
2041 | 6032003a | स ददर्शावृतां लङ्कां सशैलवनकाननाम् |
2042 | 6032003c | असंख्येयैर्हरिगणैः सर्वतो युद्धकाङ्क्षिभिः |
2043 | 6032004a | स दृष्ट्वा वानरैः सर्वां वसुधां कवलीकृताम् |
2044 | 6032004c | कथं क्षपयितव्याः स्युरिति चिन्तापरोऽभवत् |
2045 | 6032005a | स चिन्तयित्वा सुचिरं धैर्यमालम्ब्य रावणः |
2046 | 6032005c | राघवं हरियूथांश्च ददर्शायतलोचनः |
2047 | 6032006a | प्रेक्षतो राक्षसेन्द्रस्य तान्यनीकानि भागशः |
2048 | 6032006c | राघवप्रियकामार्थं लङ्कामारुरुहुस्तदा |
2049 | 6032007a | ते ताम्रवक्त्रा हेमाभा रामार्थे त्यक्तजीविताः |
2050 | 6032007c | लङ्कामेवाह्यवर्तन्त सालतालशिलायुधाः |
2051 | 6032008a | ते द्रुमैः पर्वताग्रैश्च मुष्टिभिश्च प्लवंगमाः |
2052 | 6032008c | प्रासादाग्राणि चोच्चानि ममन्तुस्तोरणानि च |
2053 | 6032009a | पारिखाः पूरयन्ति स्म प्रसन्नसलिलायुताः |
2054 | 6032009c | पांसुभिः पर्वताग्रैश्च तृणैः काष्ठैश्च वानराः |
2055 | 6032010a | ततः सहस्रयूथाश्च कोटियूथाश्च यूथपाः |
2056 | 6032010c | कोटीशतयुताश्चान्ये लङ्कामारुरुहुस्तदा |
2057 | 6032011a | काञ्चनानि प्रमृद्नन्तस्तोरणानि प्लवंगमाः |
2058 | 6032011c | कैलासशिखराभानि गोपुराणि प्रमथ्य च |
2059 | 6032012a | आप्लवन्तः प्लवन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः |
2060 | 6032012c | लङ्कां तामभ्यवर्तन्त महावारणसंनिभाः |
2061 | 6032013a | जयत्यतिबलो रामो लक्ष्मणश्च महाबलः |
2062 | 6032013c | राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपालितः |
2063 | 6032014a | इत्येवं घोषयन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः |
2064 | 6032014c | अभ्यधावन्त लङ्कायाः प्राकारं कामरूपिणः |
2065 | 6032015a | वीरबाहुः सुबाहुश्च नलश्च वनगोचरः |
2066 | 6032015c | निपीड्योपनिविष्टास्ते प्राकारं हरियूथपाः |
2067 | 6032016a | एतस्मिन्नन्तरे चक्रुः स्कन्धावारनिवेशनम् |
2068 | 6032017a | पूर्वद्वारं तु कुमुदः कोटिभिर्दशभिर्वृतः |
2069 | 6032017c | आवृत्य बलवांस्तस्थौ हरिभिर्जितकाशिभिः |
2070 | 6032018a | दक्षिणद्वारमागम्य वीरः शतबलिः कपिः |
2071 | 6032018c | आवृत्य बलवांस्तस्थौ विंशत्या कोटिभिर्वृतः |
2072 | 6032019a | सुषेणः पश्चिमद्वारं गतस्तारा पिता हरिः |
2073 | 6032019c | आवृत्य बलवांस्तस्थौ षष्टि कोटिभिरावृतः |
2074 | 6032020a | उत्तरद्वारमासाद्य रामः सौमित्रिणा सह |
2075 | 6032020c | आवृत्य बलवांस्तस्थौ सुग्रीवश्च हरीश्वरः |
2076 | 6032021a | गोलाङ्गूलो महाकायो गवाक्षो भीमदर्शनः |
2077 | 6032021c | वृतः कोट्या महावीर्यस्तस्थौ रामस्य पार्वतः |
2078 | 6032022a | ऋष्काणां भीमवेगानां धूम्रः शत्रुनिबर्हणः |
2079 | 6032022c | वृतः कोट्या महावीर्यस्तस्थौ रामस्य पार्श्वतः |
2080 | 6032023a | संनद्धस्तु महावीर्यो गदापाणिर्विभीषणः |
2081 | 6032023c | वृतो यस्तैस्तु सचिवैस्तस्थौ तत्र महाबलः |
2082 | 6032024a | गजो गवाक्षो गवयः शरभो गन्धमादनः |
2083 | 6032024c | समन्तात्परिघावन्तो ररक्षुर्हरिवाहिनीम् |
2084 | 6032025a | ततः कोपपरीतात्मा रावणो राक्षसेश्वरः |
2085 | 6032025c | निर्याणं सर्वसैन्यानां द्रुतमाज्ञापयत्तदा |
2086 | 6032026a | निष्पतन्ति ततः सैन्या हृष्टा रावणचोदिताः |
2087 | 6032026c | समये पूर्यमाणस्य वेगा इव महोदधेः |
2088 | 6032027a | एतस्मिन्नन्तरे घोरः संग्रामः समपद्यत |
2089 | 6032027c | रक्षसां वानराणां च यथा देवासुरे पुरा |
2090 | 6032028a | ते गदाभिः प्रदीप्ताभिः शक्तिशूलपरश्वधैः |
2091 | 6032028c | निजघ्नुर्वानरान्घोराः कथयन्तः स्वविक्रमान् |
2092 | 6032029a | तथा वृक्षैर्महाकायाः पर्वताग्रैश्च वानराः |
2093 | 6032029c | राक्षसास्तानि रक्षांसि नखैर्दन्तैश्च वेगिताः |
2094 | 6032030a | राक्षसास्त्वपरे भीमाः प्राकारस्था महीगतान् |
2095 | 6032030c | भिण्डिपालैश्च खड्गैश्च शूलैश्चैव व्यदारयन् |
2096 | 6032031a | वानराश्चापि संक्रुद्धाः प्राकारस्थान्महीगताः |
2097 | 6032031c | राक्षसान्पातयामासुः समाप्लुत्य प्लवंगमाः |
2098 | 6032032a | स संप्रहारस्तुमुलो मांसशोणितकर्दमः |
2099 | 6032032c | रक्षसां वानराणां च संबभूवाद्भुतोपमाः |
2100 | 6033001a | युध्यतां तु ततस्तेषां वानराणां महात्मनाम् |
2101 | 6033001c | रक्षसां संबभूवाथ बलकोपः सुदारुणः |
2102 | 6033002a | ते हयैः काञ्चनापीडैर्ध्वजैश्चाग्निशिखोपमैः |
2103 | 6033002c | रथैश्चादित्यसंकाशैः कवचैश्च मनोरमैः |
2104 | 6033003a | निर्ययू राक्षसव्याघ्रा नादयन्तो दिशो दश |
2105 | 6033003c | राक्षसा भीमकर्माणो रावणस्य जयैषिणः |
2106 | 6033004a | वानराणामपि चमूर्महती जयमिच्चताम् |
2107 | 6033004c | अभ्यधावत तां सेनां रक्षसां कामरूपिणाम् |
2108 | 6033005a | एतस्मिन्नन्तरे तेषामन्योन्यमभिधावताम् |
2109 | 6033005c | रक्षसां वानराणां च द्वन्द्वयुद्धमवर्तत |
2110 | 6033006a | अङ्गदेनेन्द्रजित्सार्धं वालिपुत्रेण राक्षसः |
2111 | 6033006c | अयुध्यत महातेजास्त्र्यम्बकेण यथान्धकः |
2112 | 6033007a | प्रजङ्घेन च संपातिर्नित्यं दुर्मर्षणो रणे |
2113 | 6033007c | जम्बूमालिनमारब्धो हनूमानपि वानरः |
2114 | 6033008a | संगतः सुमहाक्रोधो राक्षसो रावणानुजः |
2115 | 6033008c | समरे तीक्ष्णवेगेन मित्रघ्नेन विभीषणः |
2116 | 6033009a | तपनेन गजः सार्धं राक्षसेन महाबलः |
2117 | 6033009c | निकुम्भेन महातेजा नीलोऽपि समयुध्यत |
2118 | 6033010a | वानरेन्द्रस्तु सुग्रीवः प्रघसेन समागतः |
2119 | 6033010c | संगतः समरे श्रीमान्विरूपाक्षेण लक्ष्मणः |
2120 | 6033011a | अग्निकेतुश्च दुर्धर्षो रश्मिकेतुश्च राक्षसः |
2121 | 6033011c | सुप्तघ्नो यज्ञकोपश्च रामेण सह संगताः |
2122 | 6033012a | वज्रमुष्टिस्तु मैन्देन द्विविदेनाशनिप्रभः |
2123 | 6033012c | राक्षसाभ्यां सुघोराभ्यां कपिमुख्यौ समागतौ |
2124 | 6033013a | वीरः प्रतपनो घोरो राक्षसो रणदुर्धरः |
2125 | 6033013c | समरे तीक्ष्णवेगेन नलेन समयुध्यत |
2126 | 6033014a | धर्मस्य पुत्रो बलवान्सुषेण इति विश्रुतः |
2127 | 6033014c | स विद्युन्मालिना सार्धमयुध्यत महाकपिः |
2128 | 6033015a | वानराश्चापरे भीमा राक्षसैरपरैः सह |
2129 | 6033015c | द्वन्द्वं समीयुर्बहुधा युद्धाय बहुभिः सह |
2130 | 6033016a | तत्रासीत्सुमहद्युद्धं तुमुलं लोमहर्षणम् |
2131 | 6033016c | रक्षसां वानराणां च वीराणां जयमिच्छताम् |
2132 | 6033017a | हरिराक्षसदेहेभ्यः प्रसृताः केशशाड्वलाः |
2133 | 6033017c | शरीरसंघाटवहाः प्रसुस्रुः शोणितापगाः |
2134 | 6033018a | आजघानेन्द्रजित्क्रुद्धो वज्रेणेव शतक्रतुः |
2135 | 6033018c | अङ्गदं गदया वीरं शत्रुसैन्यविदारणम् |
2136 | 6033019a | तस्य काञ्चनचित्राङ्गं रथं साश्वं ससारथिम् |
2137 | 6033019c | जघान समरे श्रीमानङ्गदो वेगवान्कपिः |
2138 | 6033020a | संपातिस्तु त्रिभिर्बाणैः प्रजङ्घेन समाहतः |
2139 | 6033020c | निजघानाश्वकर्णेन प्रजङ्घं रणमूर्धनि |
2140 | 6033021a | जम्बूमाली रथस्थस्तु रथशक्त्या महाबलः |
2141 | 6033021c | बिभेद समरे क्रुद्धो हनूमन्तं स्तनान्तरे |
2142 | 6033022a | तस्य तं रथमास्थाय हनूमान्मारुतात्मजः |
2143 | 6033022c | प्रममाथ तलेनाशु सह तेनैव रक्षसा |
2144 | 6033023a | भिन्नगात्रः शरैस्तीक्ष्णैः क्षिप्रहस्तेन रक्षसा |
2145 | 6033023c | प्रजघानाद्रिशृङ्गेण तपनं मुष्टिना गजः |
2146 | 6033024a | ग्रसन्तमिव सैन्यानि प्रघसं वानराधिपः |
2147 | 6033024c | सुग्रीवः सप्तपर्णेन निर्बिभेद जघान च |
2148 | 6033025a | प्रपीड्य शरवर्षेण राक्षसं भीमदर्शनम् |
2149 | 6033025c | निजघान विरूपाक्षं शरेणैकेन लक्ष्मणः |
2150 | 6033026a | अग्निकेतुश्च दुर्धर्षो रश्मिकेतुश्च राक्षसः |
2151 | 6033026c | सुप्तिघ्नो यज्ञकोपश्च रामं निर्बिभिदुः शरैः |
2152 | 6033027a | तेषां चतुर्णां रामस्तु शिरांसि समरे शरैः |
2153 | 6033027c | क्रुद्धश्चतुर्भिश्चिच्छेद घोरैरग्निशिखोपमैः |
2154 | 6033028a | वज्रमुष्टिस्तु मैन्देन मुष्टिना निहतो रणे |
2155 | 6033028c | पपात सरथः साश्वः पुराट्ट इव भूतले |
2156 | 6033029a | वज्राशनिसमस्पर्शो द्विविदोऽप्यशनिप्रभम् |
2157 | 6033029c | जघान गिरिशृङ्गेण मिषतां सर्वरक्षसाम् |
2158 | 6033030a | द्विविदं वानरेन्द्रं तु द्रुमयोधिनमाहवे |
2159 | 6033030c | शरैरशनिसंकाशैः स विव्याधाशनिप्रभः |
2160 | 6033031a | स शरैरतिविद्धाङ्गो द्विविदः क्रोधमूर्छितः |
2161 | 6033031c | सालेन सरथं साश्वं निजघानाशनिप्रभम् |
2162 | 6033032a | निकुम्भस्तु रणे नीलं नीलाञ्जनचयप्रभम् |
2163 | 6033032c | निर्बिभेद शरैस्तीक्ष्णैः करैर्मेघमिवांशुमान् |
2164 | 6033033a | पुनः शरशतेनाथ क्षिप्रहस्तो निशाचरः |
2165 | 6033033c | बिभेद समरे नीलं निकुम्भः प्रजहास च |
2166 | 6033034a | तस्यैव रथचक्रेण नीलो विष्णुरिवाहवे |
2167 | 6033034c | शिरश्चिच्छेद समरे निकुम्भस्य च सारथेः |
2168 | 6033035a | विद्युन्माली रथस्थस्तु शरैः काञ्चनभूषणैः |
2169 | 6033035c | सुषेणं ताडयामास ननाद च मुहुर्मुहुः |
2170 | 6033036a | तं रथस्थमथो दृष्ट्वा सुषेणो वानरोत्तमः |
2171 | 6033036c | गिरिशृङ्गेण महता रथमाशु न्यपातयत् |
2172 | 6033037a | लाघवेन तु संयुक्तो विद्युन्माली निशाचरः |
2173 | 6033037c | अपक्रम्य रथात्तूर्णं गदापाणिः क्षितौ स्थितः |
2174 | 6033038a | ततः क्रोधसमाविष्टः सुषेणो हरिपुंगवः |
2175 | 6033038c | शिलां सुमहतीं गृह्य निशाचरमभिद्रवत् |
2176 | 6033039a | तमापतन्तं गदया विद्युन्माली निशाचरः |
2177 | 6033039c | वक्षस्यभिजग्नानाशु सुषेणं हरिसत्तमम् |
2178 | 6033040a | गदाप्रहारं तं घोरमचिन्त्यप्लवगोत्तमः |
2179 | 6033040c | तां शिलां पातयामास तस्योरसि महामृधे |
2180 | 6033041a | शिलाप्रहाराभिहतो विद्युन्माली निशाचरः |
2181 | 6033041c | निष्पिष्टहृदयो भूमौ गतासुर्निपपात ह |
2182 | 6033042a | एवं तैर्वानरैः शूरैः शूरास्ते रजनीचराः |
2183 | 6033042c | द्वन्द्वे विमृदितास्तत्र दैत्या इव दिवौकसैः |
2184 | 6033043a | भल्लैः खड्गैर्गदाभिश्च शक्तितोमर पट्टसैः |
2185 | 6033043c | अपविद्धश्च भिन्नश्च रथैः सांग्रामिकैर्हयैः |
2186 | 6033044a | निहतैः कुञ्जरैर्मत्तैस्तथा वानरराक्षसैः |
2187 | 6033044c | चक्राक्षयुगदण्डैश्च भग्नैर्धरणिसंश्रितैः |
2188 | 6033044e | बभूवायोधनं घोरं गोमायुगणसेवितम् |
2189 | 6033045a | कबन्धानि समुत्पेतुर्दिक्षु वानररक्षसाम् |
2190 | 6033045c | विमर्दे तुमुले तस्मिन्देवासुररणोपमे |
2191 | 6033046a | विदार्यमाणा हरिपुंगवैस्तदा; निशाचराः शोणितदिग्धगात्राः |
2192 | 6033046c | पुनः सुयुद्धं तरसा समाश्रिता; दिवाकरस्यास्तमयाभिकाङ्क्षिणः |
2193 | 6034001a | युध्यतामेव तेषां तु तदा वानररक्षसाम् |
2194 | 6034001c | रविरस्तं गतो रात्रिः प्रवृत्ता प्राणहारिणी |
2195 | 6034002a | अन्योन्यं बद्धवैराणां घोराणां जयमिच्छताम् |
2196 | 6034002c | संप्रवृत्तं निशायुद्धं तदा वारणरक्षसाम् |
2197 | 6034003a | राक्षसोऽसीति हरयो हरिश्चासीति राक्षसाः |
2198 | 6034003c | अन्योन्यं समरे जघ्नुस्तस्मिंस्तमसि दारुणे |
2199 | 6034004a | जहि दारय चैतीति कथं विद्रवसीति च |
2200 | 6034004c | एवं सुतुमुलः शब्दस्तस्मिंस्तमसि शुश्रुवे |
2201 | 6034005a | कालाः काञ्चनसंनाहास्तस्मिंस्तमसि राक्षसाः |
2202 | 6034005c | संप्रादृश्यन्त शैलेन्द्रा दीप्तौषधिवना इव |
2203 | 6034006a | तस्मिंस्तमसि दुष्पारे राक्षसाः क्रोधमूर्छिताः |
2204 | 6034006c | परिपेतुर्महावेगा भक्षयन्तः प्लवंगमान् |
2205 | 6034007a | ते हयान्काञ्चनापीडन्ध्वजांश्चाग्निशिखोपमान् |
2206 | 6034007c | आप्लुत्य दशनैस्तीक्ष्णैर्भीमकोपा व्यदारयन् |
2207 | 6034008a | कुञ्जरान्कुञ्जरारोहान्पताकाध्वजिनो रथान् |
2208 | 6034008c | चकर्षुश्च ददंशुश्च दशनैः क्रोधमूर्छिताः |
2209 | 6034009a | लक्ष्मणश्चापि रामश्च शरैराशीविषोमपैः |
2210 | 6034009c | दृश्यादृश्यानि रक्षांसि प्रवराणि निजघ्नतुः |
2211 | 6034010a | तुरंगखुरविध्वस्तं रथनेमिसमुद्धतम् |
2212 | 6034010c | रुरोध कर्णनेत्राणिण्युध्यतां धरणीरजः |
2213 | 6034011a | वर्तमाने तथा घोरे संग्रामे लोमहर्षणे |
2214 | 6034011c | रुधिरोदा महावेगा नद्यस्तत्र प्रसुस्रुवुः |
2215 | 6034012a | ततो भेरीमृदङ्गानां पणवानां च निस्वनः |
2216 | 6034012c | शङ्खवेणुस्वनोन्मिश्रः संबभूवाद्भुतोपमः |
2217 | 6034013a | हतानां स्तनमानानां राक्षसानां च निस्वनः |
2218 | 6034013c | शस्त्राणां वानराणां च संबभूवातिदारुणः |
2219 | 6034014a | शस्त्रपुष्पोपहारा च तत्रासीद्युद्धमेदिनी |
2220 | 6034014c | दुर्ज्ञेया दुर्निवेशा च शोणितास्रवकर्दमा |
2221 | 6034015a | सा बभूव निशा घोरा हरिराक्षसहारिणी |
2222 | 6034015c | कालरात्रीव भूतानां सर्वेषां दुरतिक्रमा |
2223 | 6034016a | ततस्ते राक्षसास्तत्र तस्मिंस्तमसि दारुणे |
2224 | 6034016c | राममेवाभ्यधावन्त संहृष्टा शरवृष्टिभिः |
2225 | 6034017a | तेषामापततां शब्दः क्रुद्धानामभिगर्जताम् |
2226 | 6034017c | उद्वर्त इव सप्तानां समुद्राणामभूत्स्वनः |
2227 | 6034018a | तेषां रामः शरैः षड्भिः षड्जघान निशाचरान् |
2228 | 6034018c | निमेषान्तरमात्रेण शितैरग्निशिखोपमैः |
2229 | 6034019a | यज्ञशत्रुश्च दुर्धर्षो महापार्श्वमहोदरौ |
2230 | 6034019c | वज्रदंष्ट्रो महाकायस्तौ चोभौ शुकसारणौ |
2231 | 6034020a | ते तु रामेण बाणौघः सर्वमर्मसु ताडिताः |
2232 | 6034020c | युद्धादपसृतास्तत्र सावशेषायुषोऽभवन् |
2233 | 6034021a | ततः काञ्चनचित्राङ्गैः शरैरग्निशिखोपमैः |
2234 | 6034021c | दिशश्चकार विमलाः प्रदिशश्च महाबलः |
2235 | 6034022a | ये त्वन्ये राक्षसा वीरा रामस्याभिमुखे स्थिताः |
2236 | 6034022c | तेऽपि नष्टाः समासाद्य पतंगा इव पावकम् |
2237 | 6034023a | सुवर्णपुङ्खैर्विशिखैः संपतद्भिः सहस्रशः |
2238 | 6034023c | बभूव रजनी चित्रा खद्योतैरिव शारदी |
2239 | 6034024a | राक्षसानां च निनदैर्हरीणां चापि गर्जितैः |
2240 | 6034024c | सा बभूव निशा घोरा भूयो घोरतरा तदा |
2241 | 6034025a | तेन शब्देन महता प्रवृद्धेन समन्ततः |
2242 | 6034025c | त्रिकूटः कन्दराकीर्णः प्रव्याहरदिवाचलः |
2243 | 6034026a | गोलाङ्गूला महाकायास्तमसा तुल्यवर्चसः |
2244 | 6034026c | संपरिष्वज्य बाहुभ्यां भक्षयन्रजनीचरान् |
2245 | 6034027a | अङ्गदस्तु रणे शत्रुं निहन्तुं समुपस्थितः |
2246 | 6034027c | रावणेर्निजघानाशु सारथिं च हयानपि |
2247 | 6034028a | इन्द्रजित्तु रथं त्यक्त्वा हताश्वो हतसारथिः |
2248 | 6034028c | अङ्गदेन महामायस्तत्रैवान्तरधीयत |
2249 | 6034029a | सोऽन्तर्धान गतः पापो रावणी रणकर्कशः |
2250 | 6034029c | ब्रह्मदत्तवरो वीरो रावणिः क्रोधमूर्छितः |
2251 | 6034029e | अदृश्यो निशितान्बाणान्मुमोचाशनिवर्चसः |
2252 | 6034030a | स रामं लक्ष्मणं चैव घोरैर्नागमयैः शरैः |
2253 | 6034030c | बिभेद समरे क्रुद्धः सर्वगात्रेषु राक्षसः |
2254 | 6035001a | स तस्य गतिमन्विच्छन्राजपुत्रः प्रतापवान् |
2255 | 6035001c | दिदेशातिबलो रामो दशवानरयूथपान् |
2256 | 6035002a | द्वौ सुषेणस्य दायादौ नीलं च प्लवगर्षभम् |
2257 | 6035002c | अङ्गदं वालिपुत्रं च शरभं च तरस्विनम् |
2258 | 6035003a | विनतं जाम्बवन्तं च सानुप्रस्थं महाबलम् |
2259 | 6035003c | ऋषभं चर्षभस्कन्धमादिदेश परंतपः |
2260 | 6035004a | ते संप्रहृष्टा हरयो भीमानुद्यम्य पादपान् |
2261 | 6035004c | आकाशं विविशुः सर्वे मार्गामाणा दिशो दश |
2262 | 6035005a | तेषां वेगवतां वेगमिषुभिर्वेगवत्तरैः |
2263 | 6035005c | अस्त्रवित्परमास्त्रेण वारयामास रावणिः |
2264 | 6035006a | तं भीमवेगा हरयो नाराचैः क्षतविक्षताः |
2265 | 6035006c | अन्धकारे न ददृशुर्मेघैः सूर्यमिवावृतम् |
2266 | 6035007a | रामलक्ष्मणयोरेव सर्वमर्मभिदः शरान् |
2267 | 6035007c | भृशमावेशयामास रावणिः समितिंजयः |
2268 | 6035008a | निरन्तरशरीरौ तु भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
2269 | 6035008c | क्रुद्धेनेन्द्रजिता वीरौ पन्नगैः शरतां गतैः |
2270 | 6035009a | तयोः क्षतजमार्गेण सुस्राव रुधिरं बहु |
2271 | 6035009c | तावुभौ च प्रकाशेते पुष्पिताविव किंशुकौ |
2272 | 6035010a | ततः पर्यन्तरक्ताक्षो भिन्नाञ्जनचयोपमः |
2273 | 6035010c | रावणिर्भ्रातरौ वाक्यमन्तर्धानगतोऽब्रवीत् |
2274 | 6035011a | युध्यमानमनालक्ष्यं शक्रोऽपि त्रिदशेश्वरः |
2275 | 6035011c | द्रष्टुमासादितुं वापि न शक्तः किं पुनर्युवाम् |
2276 | 6035012a | प्रावृताविषुजालेन राघवौ कङ्कपत्रिणा |
2277 | 6035012c | एष रोषपरीतात्मा नयामि यमसादनम् |
2278 | 6035013a | एवमुक्त्वा तु धर्मज्ञौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
2279 | 6035013c | निर्बिभेद शितैर्बाणैः प्रजहर्ष ननाद च |
2280 | 6035014a | भिन्नाञ्जनचयश्यामो विस्फार्य विपुलं धनुः |
2281 | 6035014c | भूयो भूयः शरान्घोरान्विससर्ज महामृधे |
2282 | 6035015a | ततो मर्मसु मर्मज्ञो मज्जयन्निशिताञ्शरान् |
2283 | 6035015c | रामलक्ष्मणयोर्वीरो ननाद च मुहुर्मुहुः |
2284 | 6035016a | बद्धौ तु शरबन्धेन तावुभौ रणमूर्धनि |
2285 | 6035016c | निमेषान्तरमात्रेण न शेकतुरुदीक्षितुम् |
2286 | 6035017a | ततो विभिन्नसर्वाङ्गौ शरशल्याचितावुभौ |
2287 | 6035017c | ध्वजाविव महेन्द्रस्य रज्जुमुक्तौ प्रकम्पितौ |
2288 | 6035018a | तौ संप्रचलितौ वीरौ मर्मभेदेन कर्शितौ |
2289 | 6035018c | निपेततुर्महेष्वासौ जगत्यां जगतीपती |
2290 | 6035019a | तौ वीरशयने वीरौ शयानौ रुधिरोक्षितौ |
2291 | 6035019c | शरवेष्टितसर्वाङ्गावार्तौ परमपीडितौ |
2292 | 6035020a | न ह्यविद्धं तयोर्गात्रं बभूवाङ्गुलमन्तरम् |
2293 | 6035020c | नानिर्भिन्नं न चास्तब्धमा कराग्रादजिह्मगैः |
2294 | 6035021a | तौ तु क्रूरेण निहतौ रक्षसा कामरूपिणा |
2295 | 6035021c | असृक्सुस्रुवतुस्तीव्रं जलं प्रस्रवणाविव |
2296 | 6035022a | पपात प्रथमं रामो विद्धो मर्मसु मार्गणैः |
2297 | 6035022c | क्रोधादिन्द्रजिता येन पुरा शक्रो विनिर्जितः |
2298 | 6035023a | नारचैरर्धनाराचैर्भल्लैरञ्जलिकैरपि |
2299 | 6035023c | विव्याध वत्सदन्तैश्च सिंहदंष्ट्रैः क्षुरैस्तथा |
2300 | 6035024a | स वीरशयने शिश्ये विज्यमादाय कार्मुकम् |
2301 | 6035024c | भिन्नमुष्टिपरीणाहं त्रिणतं रुक्मभूषितम् |
2302 | 6035025a | बाणपातान्तरे रामं पतितं पुरुषर्षभम् |
2303 | 6035025c | स तत्र लक्ष्मणो दृष्ट्वा निराशो जीवितेऽभवत् |
2304 | 6035026a | बद्धौ तु वीरौ पतितौ शयानौ; तौ वानराः संपरिवार्य तस्थुः |
2305 | 6035026c | समागता वायुसुतप्रमुख्या; विषदमार्ताः परमं च जग्मुः |
2306 | 6036001a | ततो द्यां पृथिवीं चैव वीक्षमाणा वनौकसः |
2307 | 6036001c | ददृशुः संततौ बाणैर्भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
2308 | 6036002a | वृष्ट्वेवोपरते देवे कृतकर्मणि राक्षसे |
2309 | 6036002c | आजगामाथ तं देशं ससुग्रीवो विभीषणः |
2310 | 6036003a | नीलद्विविदमैन्दाश्च सुषेणसुमुखाङ्गदाः |
2311 | 6036003c | तूर्णं हनुमता सार्धमन्वशोचन्त राघवौ |
2312 | 6036004a | निश्चेष्टौ मन्दनिःश्वासौ शोणितौघपरिप्लुतौ |
2313 | 6036004c | शरजालाचितौ स्तब्धौ शयानौ शरतल्पयोः |
2314 | 6036005a | निःश्वसन्तौ यथा सर्पौ निश्चेष्टौ मन्दविक्रमौ |
2315 | 6036005c | रुधिरस्रावदिग्धाङ्गौ तापनीयाविव ध्वजौ |
2316 | 6036006a | तौ वीरशयने वीरौ शयानौ मन्दचेष्टितौ |
2317 | 6036006c | यूथपैस्तैः परिवृतौ बाष्पव्याकुललोचनैः |
2318 | 6036007a | राघवौ पतितौ दृष्ट्वा शरजालसमावृतौ |
2319 | 6036007c | बभूवुर्व्यथिताः सर्वे वानराः सविभीषणाः |
2320 | 6036008a | अन्तरिक्षं निरीक्षन्तो दिशः सर्वाश्च वानराः |
2321 | 6036008c | न चैनं मायया छन्नं ददृशू रावणिं रणे |
2322 | 6036009a | तं तु मायाप्रतिच्छिन्नं माययैव विभीषणः |
2323 | 6036009c | वीक्षमाणो ददर्शाथ भ्रातुः पुत्रमवस्थितम् |
2324 | 6036010a | तमप्रतिम कर्माणमप्रतिद्वन्द्वमाहवे |
2325 | 6036010c | ददर्शान्तर्हितं वीरं वरदानाद्विभीषणः |
2326 | 6036011a | इन्द्रजित्त्वात्मनः कर्म तौ शयानौ समीक्ष्य च |
2327 | 6036011c | उवाच परमप्रीतो हर्षयन्सर्वनैरृतान् |
2328 | 6036012a | दूषणस्य च हन्तारौ खरस्य च महाबलौ |
2329 | 6036012c | सादितौ मामकैर्बाणैर्भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
2330 | 6036013a | नेमौ मोक्षयितुं शक्यावेतस्मादिषुबन्धनात् |
2331 | 6036013c | सर्वैरपि समागम्य सर्षिसङ्घैः सुरासुरैः |
2332 | 6036014a | यत्कृते चिन्तयानस्य शोकार्तस्य पितुर्मम |
2333 | 6036014c | अस्पृष्ट्वा शयनं गात्रैस्त्रियामा याति शर्वती |
2334 | 6036015a | कृत्स्नेयं यत्कृते लङ्का नदी वर्षास्विवाकुला |
2335 | 6036015c | सोऽयं मूलहरोऽनर्थः सर्वेषां निहतो मया |
2336 | 6036016a | रामस्य लक्ष्मणस्यैव सर्वेषां च वनौकसाम् |
2337 | 6036016c | विक्रमा निष्फलाः सर्वे यथा शरदि तोयदाः |
2338 | 6036017a | एवमुक्त्वा तु तान्सर्वान्राक्षसान्परिपार्श्वगान् |
2339 | 6036017c | यूथपानपि तान्सर्वांस्ताडयामास रावणिः |
2340 | 6036018a | तानर्दयित्वा बाणौघैस्त्रासयित्वा च वानरान् |
2341 | 6036018c | प्रजहास महाबाहुर्वचनं चेदमब्रवीत् |
2342 | 6036019a | शरबन्धेन घोरेण मया बद्धौ चमूमुखे |
2343 | 6036019c | सहितौ भ्रातरावेतौ निशामयत राक्षसाः |
2344 | 6036020a | एवमुक्तास्तु ते सर्वे राक्षसाः कूटयोधिनः |
2345 | 6036020c | परं विस्मयमाजग्मुः कर्मणा तेन तोषिताः |
2346 | 6036021a | विनेदुश्च महानादान्सर्वे ते जलदोपमाः |
2347 | 6036021c | हतो राम इति ज्ञात्वा रावणिं समपूजयन् |
2348 | 6036022a | निष्पन्दौ तु तदा दृष्ट्वा तावुभौ रामलक्ष्मणौ |
2349 | 6036022c | वसुधायां निरुच्छ्वासौ हतावित्यन्वमन्यत |
2350 | 6036023a | हर्षेण तु समाविष्ट इन्द्रजित्समितिंजयः |
2351 | 6036023c | प्रविवेश पुरीं लङ्कां हर्षयन्सर्वनैरृतान् |
2352 | 6036024a | रामलक्ष्मणयोर्दृष्ट्वा शरीरे सायकैश्चिते |
2353 | 6036024c | सर्वाणि चाङ्गोपाङ्गानि सुग्रीवं भयमाविशत् |
2354 | 6036025a | तमुवाच परित्रस्तं वानरेन्द्रं विभीषणः |
2355 | 6036025c | सबाष्पवदनं दीनं शोकव्याकुललोचनम् |
2356 | 6036026a | अलं त्रासेन सुग्रीव बाष्पवेगो निगृह्यताम् |
2357 | 6036026c | एवं प्रायाणि युद्धानि विजयो नास्ति नैष्ठिकः |
2358 | 6036027a | सशेषभाग्यतास्माकं यदि वीर भविष्यति |
2359 | 6036027c | मोहमेतौ प्रहास्येते भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
2360 | 6036028a | पर्यवस्थापयात्मानमनाथं मां च वानर |
2361 | 6036028c | सत्यधर्मानुरक्तानां नास्ति मृत्युकृतं भयम् |
2362 | 6036029a | एवमुक्त्वा ततस्तस्य जलक्लिन्नेन पाणिना |
2363 | 6036029c | सुग्रीवस्य शुभे नेत्रे प्रममार्ज विभीषणः |
2364 | 6036030a | प्रमृज्य वदनं तस्य कपिराजस्य धीमतः |
2365 | 6036030c | अब्रवीत्कालसंप्रातमसंभ्रान्तमिदं वचः |
2366 | 6036031a | न कालः कपिराजेन्द्र वैक्लव्यमनुवर्तितुम् |
2367 | 6036031c | अतिस्नेहोऽप्यकालेऽस्मिन्मरणायोपपद्यते |
2368 | 6036032a | तस्मादुत्सृज्य वैक्लव्यं सर्वकार्यविनाशनम् |
2369 | 6036032c | हितं रामपुरोगाणां सैन्यानामनुचिन्त्यताम् |
2370 | 6036033a | अथ वा रक्ष्यतां रामो यावत्संज्ञा विपर्ययः |
2371 | 6036033c | लब्धसंज्ञौ तु काकुत्स्थौ भयं नो व्यपनेष्यतः |
2372 | 6036034a | नैतत्किंचन रामस्य न च रामो मुमूर्षति |
2373 | 6036034c | न ह्येनं हास्यते लक्ष्मीर्दुर्लभा या गतायुषाम् |
2374 | 6036035a | तस्मादाश्वासयात्मानं बलं चाश्वासय स्वकम् |
2375 | 6036035c | यावत्सर्वाणि सैन्यानि पुनः संस्थापयाम्यहम् |
2376 | 6036036a | एते ह्युत्फुल्लनयनास्त्रासादागतसाध्वसाः |
2377 | 6036036c | कर्णे कर्णे प्रकथिता हरयो हरिपुंगव |
2378 | 6036037a | मां तु दृष्ट्वा प्रधावन्तमनीकं संप्रहर्षितुम् |
2379 | 6036037c | त्यजन्तु हरयस्त्रासं भुक्तपूर्वामिव स्रजम् |
2380 | 6036038a | समाश्वास्य तु सुग्रीवं राक्षसेन्द्रो विभीषणः |
2381 | 6036038c | विद्रुतं वानरानीकं तत्समाश्वासयत्पुनः |
2382 | 6036039a | इन्द्रजित्तु महामायः सर्वसैन्यसमावृतः |
2383 | 6036039c | विवेश नगरीं लङ्कां पितरं चाभ्युपागमत् |
2384 | 6036040a | तत्र रावणमासीनमभिवाद्य कृताञ्जलिः |
2385 | 6036040c | आचचक्षे प्रियं पित्रे निहतौ रामलक्ष्मणौ |
2386 | 6036041a | उत्पपात ततो हृष्टः पुत्रं च परिषस्वजे |
2387 | 6036041c | रावणो रक्षसां मध्ये श्रुत्वा शत्रू निपातितौ |
2388 | 6036042a | उपाघ्राय स मूर्ध्न्येनं पप्रच्छ प्रीतमानसः |
2389 | 6036042c | पृच्छते च यथावृत्तं पित्रे सर्वं न्यवेदयत् |
2390 | 6036043a | स हर्षवेगानुगतान्तरात्मा; श्रुत्वा वचस्तस्य महारथस्य |
2391 | 6036043c | जहौ ज्वरं दाशरथेः समुत्थितं; प्रहृष्य वाचाभिननन्द पुत्रम् |
2392 | 6037001a | प्रतिप्रविष्टे लङ्कां तु कृतार्थे रावणात्मजे |
2393 | 6037001c | राघवं परिवार्यार्ता ररक्षुर्वानरर्षभाः |
2394 | 6037002a | हनूमानङ्गदो नीलः सुषेणः कुमुदो नलः |
2395 | 6037002c | गजो गवाक्षो गवयः शरभो गन्धमादनः |
2396 | 6037003a | जाम्बवानृषभः सुन्दो रम्भः शतबलिः पृथुः |
2397 | 6037003c | व्यूढानीकाश्च यत्ताश्च द्रुमानादाय सर्वतः |
2398 | 6037004a | वीक्षमाणा दिशः सर्वास्तिर्यगूर्ध्वं च वानराः |
2399 | 6037004c | तृणेष्वपि च चेष्टत्सु राक्षसा इति मेनिरे |
2400 | 6037005a | रावणश्चापि संहृष्टो विसृज्येन्द्रजितं सुतम् |
2401 | 6037005c | आजुहाव ततः सीता रक्षणी राक्षसीस्तदा |
2402 | 6037006a | राक्षस्यस्त्रिजटा चापि शासनात्तमुपस्थिताः |
2403 | 6037006c | ता उवाच ततो हृष्टो राक्षसी राक्षसेश्वरः |
2404 | 6037007a | हताविन्द्रजिताख्यात वैदेह्या रामलक्ष्मणौ |
2405 | 6037007c | पुष्पकं च समारोप्य दर्शयध्वं हतौ रणे |
2406 | 6037008a | यदाश्रयादवष्टब्धो नेयं मामुपतिष्ठति |
2407 | 6037008c | सोऽस्या भर्ता सह भ्रात्रा निरस्तो रणमूर्धनि |
2408 | 6037009a | निर्विशङ्का निरुद्विग्ना निरपेक्षा च मैथिली |
2409 | 6037009c | मामुपस्थास्यते सीता सर्वाभरणभूषिता |
2410 | 6037010a | अद्य कालवशं प्राप्तं रणे रामं सलक्ष्मणम् |
2411 | 6037010c | अवेक्ष्य विनिवृत्ताशा नान्यां गतिमपश्यती |
2412 | 6037011a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा रावणस्य दुरात्मनः |
2413 | 6037011c | राक्षस्यस्तास्तथेत्युक्त्वा प्रजग्मुर्यत्र पुष्पकम् |
2414 | 6037012a | ततः पुष्पकमादय राक्षस्यो रावणाज्ञया |
2415 | 6037012c | अशोकवनिकास्थां तां मैथिलीं समुपानयन् |
2416 | 6037013a | तामादाय तु राक्षस्यो भर्तृशोकपरायणाम् |
2417 | 6037013c | सीतामारोपयामासुर्विमानं पुष्पकं तदा |
2418 | 6037014a | ततः पुष्पकमारोप्य सीतां त्रिजटया सह |
2419 | 6037014c | रावणोऽकारयल्लङ्कां पताकाध्वजमालिनीम् |
2420 | 6037015a | प्राघोषयत हृष्टश्च लङ्कायां राक्षसेश्वरः |
2421 | 6037015c | राघवो लक्ष्मणश्चैव हताविन्द्रजिता रणे |
2422 | 6037016a | विमानेनापि सीता तु गत्वा त्रिजटया सह |
2423 | 6037016c | ददर्श वानराणां तु सर्वं सिन्यं निपातितम् |
2424 | 6037017a | प्रहृष्टमनसश्चापि ददर्श पिशिताशनान् |
2425 | 6037017c | वानरांश्चापि दुःखार्तान्रामलक्ष्मणपार्श्वतः |
2426 | 6037018a | ततः सीता ददर्शोभौ शयानौ शततल्पयोः |
2427 | 6037018c | लक्ष्मणं चैव रामं च विसंज्ञौ शरपीडितौ |
2428 | 6037019a | विध्वस्तकवचौ वीरौ विप्रविद्धशरासनौ |
2429 | 6037019c | सायकैश्छिन्नसर्वाङ्गौ शरस्तम्भमयौ क्षितौ |
2430 | 6037020a | तौ दृष्ट्वा भ्रातरौ तत्र वीरौ सा पुरुषर्षभौ |
2431 | 6037020c | दुःखार्ता सुभृशं सीता करुणं विललाप ह |
2432 | 6037021a | सा बाष्पशोकाभिहता समीक्ष्य; तौ भ्रातरौ देवसमप्रभावौ |
2433 | 6037021c | वितर्कयन्ती निधनं तयोः सा; दुःखान्विता वाक्यमिदं जगाद |
2434 | 6038001a | भर्तारं निहतं दृष्ट्वा लक्ष्मणं च महाबलम् |
2435 | 6038001c | विललाप भृशं सीता करुणं शोककर्शिता |
2436 | 6038002a | ऊचुर्लक्षणिका ये मां पुत्रिण्यविधवेति च |
2437 | 6038002c | तेऽस्य सर्वे हते रामेऽज्ञानिनोऽनृतवादिनः |
2438 | 6038003a | यज्वनो महिषीं ये मामूचुः पत्नीं च सत्रिणः |
2439 | 6038003c | तेऽद्य सर्वे हते रामेऽज्ञानिनोऽनृतवादिनः |
2440 | 6038004a | वीरपार्थिवपत्नी त्वं ये धन्येति च मां विदुः |
2441 | 6038004c | तेऽद्य सर्वे हते रामेऽज्ञानिनोऽनृतवादिनः |
2442 | 6038005a | ऊचुः संश्रवणे ये मां द्विजाः कार्तान्तिकाः शुभाम् |
2443 | 6038005c | तेऽद्य सर्वे हते रामेऽज्ञानिनोऽनृतवादिनः |
2444 | 6038006a | इमानि खलु पद्मानि पादयोर्यैः किल स्त्रियः |
2445 | 6038006c | अधिराज्येऽभिषिच्यन्ते नरेन्द्रैः पतिभिः सह |
2446 | 6038007a | वैधव्यं यान्ति यैर्नार्योऽलक्षणैर्भाग्यदुर्लभाः |
2447 | 6038007c | नात्मनस्तानि पश्यामि पश्यन्ती हतलक्षणा |
2448 | 6038008a | सत्यानीमानि पद्मानि स्त्रीणामुक्त्वानि लक्षणे |
2449 | 6038008c | तान्यद्य निहते रामे वितथानि भवन्ति मे |
2450 | 6038009a | केशाः सूक्ष्माः समा नीला भ्रुवौ चासंगते मम |
2451 | 6038009c | वृत्ते चालोमशे जङ्घे दन्ताश्चाविरला मम |
2452 | 6038010a | शङ्खे नेत्रे करौ पादौ गुल्फावूरू च मे चितौ |
2453 | 6038010c | अनुवृत्ता नखाः स्निग्धाः समाश्चाङ्गुलयो मम |
2454 | 6038011a | स्तनौ चाविरलौ पीनौ ममेमौ मग्नचूचुकौ |
2455 | 6038011c | मग्ना चोत्सङ्गिनी नाभिः पार्श्वोरस्कं च मे चितम् |
2456 | 6038012a | मम वर्णो मणिनिभो मृदून्यङ्गरुहाणि च |
2457 | 6038012c | प्रतिष्ठितां द्वदशभिर्मामूचुः शुभलक्षणाम् |
2458 | 6038013a | समग्रयवमच्छिद्रं पाणिपादं च वर्णवत् |
2459 | 6038013c | मन्दस्मितेत्येव च मां कन्यालक्षणिका विदुः |
2460 | 6038014a | अधिराज्येऽभिषेको मे ब्राह्मणैः पतिना सह |
2461 | 6038014c | कृतान्तकुशलैरुक्तं तत्सर्वं वितथीकृतम् |
2462 | 6038015a | शोधयित्वा जनस्थानं प्रवृत्तिमुपलभ्य च |
2463 | 6038015c | तीर्त्वा सागरमक्षोभ्यं भ्रातरौ गोष्पदे हतौ |
2464 | 6038016a | ननु वारुणमाग्नेयमैन्द्रं वायव्यमेव च |
2465 | 6038016c | अस्त्रं ब्रह्मशिरश्चैव राघवौ प्रत्यपद्यताम् |
2466 | 6038017a | अदृश्यमानेन रणे मायया वासवोपमौ |
2467 | 6038017c | मम नाथावनाथाया निहतौ रामलक्ष्मणौ |
2468 | 6038018a | न हि दृष्टिपथं प्राप्य राघवस्य रणे रिपुः |
2469 | 6038018c | जीवन्प्रतिनिवर्तेत यद्यपि स्यान्मनोजवः |
2470 | 6038019a | न कालस्यातिभारोऽस्ति कृतान्तश्च सुदुर्जयः |
2471 | 6038019c | यत्र रामः सह भ्रात्रा शेते युधि निपाथितः |
2472 | 6038020a | नाहं शोचामि भर्तारं निहतं न च लक्ष्मणम् |
2473 | 6038020c | नात्मानं जननी चापि यथा श्वश्रूं तपस्विनीम् |
2474 | 6038021a | सा हि चिन्तयते नित्यं समाप्तव्रतमागतम् |
2475 | 6038021c | कदा द्रक्ष्यामि सीतां च रामं च सहलक्ष्मणम् |
2476 | 6038022a | परिदेवयमानां तां राक्षसी त्रिजटाब्रवीत् |
2477 | 6038022c | मा विषादं कृथा देवि भर्तायं तव जीवति |
2478 | 6038023a | कारणानि च वक्ष्यामि महान्ति सदृशानि च |
2479 | 6038023c | यथेमौ जीवतो देवि भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
2480 | 6038024a | न हि कोपपरीतानि हर्षपर्युत्सुकानि च |
2481 | 6038024c | भवन्ति युधि योधानां मुखानि निहते पतौ |
2482 | 6038025a | इदं विमानं वैदेहि पुष्पकं नाम नामतः |
2483 | 6038025c | दिव्यं त्वां धारयेन्नेदं यद्येतौ गजजीवितौ |
2484 | 6038026a | हतवीरप्रधाना हि हतोत्साहा निरुद्यमा |
2485 | 6038026c | सेना भ्रमति संख्येषु हतकर्णेव नौर्जले |
2486 | 6038027a | इयं पुनरसंभ्रान्ता निरुद्विग्ना तरस्विनी |
2487 | 6038027c | सेना रक्षति काकुत्स्थौ मायया निर्जितौ रणे |
2488 | 6038028a | सा त्वं भव सुविस्रब्धा अनुमानैः सुखोदयैः |
2489 | 6038028c | अहतौ पश्य काकुत्स्थौ स्नेहादेतद्ब्रवीमि ते |
2490 | 6038029a | अनृतं नोक्तपूर्वं मे न च वक्ष्ये कदाचन |
2491 | 6038029c | चारित्रसुखशीलत्वात्प्रविष्टासि मनो मम |
2492 | 6038030a | नेमौ शक्यौ रणे जेतुं सेन्द्रैरपि सुरासुरैः |
2493 | 6038030c | एतयोराननं दृष्ट्वा मया चावेदितं तव |
2494 | 6038031a | इदं च सुमहच्चिह्नं शनैः पश्यस्व मैथिलि |
2495 | 6038031c | निःसंज्ञावप्युभावेतौ नैव लक्ष्मीर्वियुज्यते |
2496 | 6038032a | प्रायेण गतसत्त्वानां पुरुषाणां गतायुषाम् |
2497 | 6038032c | दृश्यमानेषु वक्त्रेषु परं भवति वैकृतम् |
2498 | 6038033a | त्यज शोकं च दुःखं च मोहं च जनकात्मजे |
2499 | 6038033c | रामलक्ष्मणयोरर्थे नाद्य शक्यमजीवितुम् |
2500 | 6038034a | श्रुत्वा तु वचनं तस्याः सीता सुरसुतोपमा |
2501 | 6038034c | कृताञ्जलिरुवाचेदमेवमस्त्विति मैथिली |
2502 | 6038035a | विमानं पुष्पकं तत्तु समिवर्त्य मनोजवम् |
2503 | 6038035c | दीना त्रिजटया सीता लङ्कामेव प्रवेशिता |
2504 | 6038036a | ततस्त्रिजटया सार्धं पुष्पकादवरुह्य सा |
2505 | 6038036c | अशोकवनिकामेव रक्षसीभिः प्रवेशिता |
2506 | 6038037a | प्रविश्य सीता बहुवृक्षषण्डां; तां राक्षसेन्द्रस्य विहारभूमिम् |
2507 | 6038037c | संप्रेक्ष्य संचिन्त्य च राजपुत्रौ; परं विषादं समुपाजगाम |
2508 | 6039001a | घोरेण शरबन्धेन बद्धौ दशरथात्मजौ |
2509 | 6039001c | निश्वसन्तौ यथा नागौ शयानौ रुधिरोक्षितौ |
2510 | 6039002a | सर्वे ते वानरश्रेष्ठाः ससुग्रीवा महाबलाः |
2511 | 6039002c | परिवार्य महात्मानौ तस्थुः शोकपरिप्लुताः |
2512 | 6039003a | एतस्मिन्नन्तेरे रामः प्रत्यबुध्यत वीर्यवान् |
2513 | 6039003c | स्थिरत्वात्सत्त्वयोगाच्च शरैः संदानितोऽपि सन् |
2514 | 6039004a | ततो दृष्ट्वा सरुधिरं विषण्णं गाढमर्पितम् |
2515 | 6039004c | भ्रातरं दीनवदनं पर्यदेवयदातुरः |
2516 | 6039005a | किं नु मे सीतया कार्यं किं कार्यं जीवितेन वा |
2517 | 6039005c | शयानं योऽद्य पश्यामि भ्रातरं युधि निर्जितम् |
2518 | 6039006a | शक्या सीता समा नारी प्राप्तुं लोके विचिन्वता |
2519 | 6039006c | न लक्ष्मणसमो भ्राता सचिवः साम्परायिकः |
2520 | 6039007a | परित्यक्ष्याम्यहं प्राणान्वानराणां तु पश्यताम् |
2521 | 6039007c | यदि पञ्चत्वमापन्नः सुमित्रानन्दवर्धनः |
2522 | 6039008a | किं नु वक्ष्यामि कौसल्यां मातरं किं नु कैकयीम् |
2523 | 6039008c | कथमम्बां सुमित्रांच पुत्रदर्शनलालसाम् |
2524 | 6039009a | विवत्सां वेपमानां च क्रोशन्तीं कुररीमिव |
2525 | 6039009c | कथमाश्वासयिष्यामि यदि यास्यामि तं विना |
2526 | 6039010a | कथं वक्ष्यामि शत्रुघ्नं भरतं च यशस्विनम् |
2527 | 6039010c | मया सह वनं यातो विना तेनागतः पुनः |
2528 | 6039011a | उपालम्भं न शक्ष्यामि सोढुं बत सुमित्रया |
2529 | 6039011c | इहैव देहं त्यक्ष्यामि न हि जीवितुमुत्सहे |
2530 | 6039012a | धिङ्मां दुष्कृतकर्माणमनार्यं यत्कृते ह्यसौ |
2531 | 6039012c | लक्ष्मणः पतितः शेते शरतल्पे गतासुवत् |
2532 | 6039013a | त्वं नित्यं सुविषण्णं मामाश्वासयसि लक्ष्मण |
2533 | 6039013c | गतासुर्नाद्य शक्नोषि मामार्तमभिभाषितुम् |
2534 | 6039014a | येनाद्य बहवो युद्धे राक्षसा निहताः क्षितौ |
2535 | 6039014c | तस्यामेव क्षितौ वीरः स शेते निहतः परैः |
2536 | 6039015a | शयानः शरतल्पेऽस्मिन्स्वशोणितपरिप्लुतः |
2537 | 6039015c | शरजालैश्चितो भाति भास्करोऽस्तमिव व्रजन् |
2538 | 6039016a | बाणाभिहतमर्मत्वान्न शक्नोत्यभिवीक्षितुम् |
2539 | 6039016c | रुजा चाब्रुवतो ह्यस्य दृष्टिरागेण सूच्यते |
2540 | 6039017a | यथैव मां वनं यान्तमनुयातो महाद्युतिः |
2541 | 6039017c | अहमप्यनुयास्यामि तथैवैनं यमक्षयम् |
2542 | 6039018a | इष्टबन्धुजनो नित्यं मां च नित्यमनुव्रतः |
2543 | 6039018c | इमामद्य गतोऽवस्थां ममानार्यस्य दुर्नयैः |
2544 | 6039019a | सुरुष्टेनापि वीरेण लक्ष्मणेना न संस्मरे |
2545 | 6039019c | परुषं विप्रियं वापि श्रावितं न कदाचन |
2546 | 6039020a | विससर्जैकवेगेन पञ्चबाणशतानि यः |
2547 | 6039020c | इष्वस्त्रेष्वधिकस्तस्मात्कार्तवीर्याच्च लक्ष्मणः |
2548 | 6039021a | अस्त्रैरस्त्राणि यो हन्याच्छक्रस्यापि महात्मनः |
2549 | 6039021c | सोऽयमुर्व्यांहतः शेते महार्हशयनोचितः |
2550 | 6039022a | तच्च मिथ्या प्रलप्तं मां प्रधक्ष्यति न संशयः |
2551 | 6039022c | यन्मया न कृतो राजा राक्षसानां विभीषणः |
2552 | 6039023a | अस्मिन्मुहूर्ते सुग्रीव प्रतियातुमितोऽर्हसि |
2553 | 6039023c | मत्वा हीनं मया राजन्रावणोऽभिद्रवेद्बली |
2554 | 6039024a | अङ्गदं तु पुरस्कृत्य ससैन्यः ससुहृज्जनः |
2555 | 6039024c | सागरं तर सुग्रीव पुनस्तेनैव सेतुना |
2556 | 6039025a | कृतं हनुमता कार्यं यदन्यैर्दुष्करं रणे |
2557 | 6039025c | ऋक्षराजेन तुष्यामि गोलाङ्गूलाधिपेन च |
2558 | 6039026a | अङ्गदेन कृतं कर्म मैन्देन द्विविदेन च |
2559 | 6039026c | युद्धं केसरिणा संख्ये घोरं संपातिना कृतम् |
2560 | 6039027a | गवयेन गवाक्षेण शरभेण गजेन च |
2561 | 6039027c | अन्यैश्च हरिभिर्युद्धं मदार्थे त्यक्तजीवितैः |
2562 | 6039028a | न चातिक्रमितुं शक्यं दैवं सुग्रीव मानुषैः |
2563 | 6039028c | यत्तु शक्यं वयस्येन सुहृदा वा परंतप |
2564 | 6039028e | कृतं सुग्रीव तत्सर्वं भवताधर्मभीरुणा |
2565 | 6039029a | मित्रकार्यं कृतमिदं भवद्भिर्वानरर्षभाः |
2566 | 6039029c | अनुज्ञाता मया सर्वे यथेष्टं गन्तुमर्हथ |
2567 | 6039030a | शुश्रुवुस्तस्य ते सर्वे वानराः परिदेवितम् |
2568 | 6039030c | वर्तयां चक्रुरश्रूणि नेत्रैः कृष्णेतरेक्षणाः |
2569 | 6039031a | ततः सर्वाण्यनीकानि स्थापयित्वा विभीषणः |
2570 | 6039031c | आजगाम गदापाणिस्त्वरितो यत्र राघवः |
2571 | 6039032a | तं दृष्ट्वा त्वरितं यान्तं नीलाञ्जनचयोपमम् |
2572 | 6039032c | वानरा दुद्रुवुः सर्वे मन्यमानास्तु रावणिम् |
2573 | 6040001a | अथोवाच महातेजा हरिराजो महाबलः |
2574 | 6040001c | किमियं व्यथिता सेना मूढवातेव नौर्जले |
2575 | 6040002a | सुग्रीवस्य वचः श्रुत्वा वालिपुत्रोऽङ्गदोऽब्रवीत् |
2576 | 6040002c | न त्वं पश्यसि रामं च लक्ष्मणं च महाबलम् |
2577 | 6040003a | शरजालाचितौ वीरावुभौ दशरथात्मजौ |
2578 | 6040003c | शरतल्पे महात्मानौ शयानौ रुधिरोक्षितौ |
2579 | 6040004a | अथाब्रवीद्वानरेन्द्रः सुग्रीवः पुत्रमङ्गदम् |
2580 | 6040004c | नानिमित्तमिदं मन्ये भवितव्यं भयेन तु |
2581 | 6040005a | विषण्णवदना ह्येते त्यक्तप्रहरणा दिशः |
2582 | 6040005c | प्रपलायन्ति हरयस्त्रासादुत्फुल्ललोचनाः |
2583 | 6040006a | अन्योन्यस्य न लज्जन्ते न निरीक्षन्ति पृष्ठतः |
2584 | 6040006c | विप्रकर्षन्ति चान्योन्यं पतितं लङ्घयन्ति च |
2585 | 6040007a | एतस्मिन्नन्तरे वीरो गदापाणिर्विभीषणः |
2586 | 6040007c | सुग्रीवं वर्धयामास राघवं च निरैक्षत |
2587 | 6040008a | विभीषणं तं सुग्रीवो दृष्ट्वा वानरभीषणम् |
2588 | 6040008c | ऋक्षराजं समीपस्थं जाम्बवन्तमुवाच ह |
2589 | 6040009a | विभीषणोऽयं संप्राप्तो यं दृष्ट्वा वानरर्षभाः |
2590 | 6040009c | विद्रवन्ति परित्रस्ता रावणात्मजशङ्कया |
2591 | 6040010a | शीघ्रमेतान्सुवित्रस्तान्बहुधा विप्रधावितान् |
2592 | 6040010c | पर्यवस्थापयाख्याहि विभीषणमुपस्थितम् |
2593 | 6040011a | सुग्रीवेणैवमुक्तस्तु जाम्बवानृक्षपार्थिवः |
2594 | 6040011c | वानरान्सान्त्वयामास संनिवर्त्य प्रहावतः |
2595 | 6040012a | ते निवृत्ताः पुनः सर्वे वानरास्त्यक्तसंभ्रमाः |
2596 | 6040012c | ऋक्षराजवचः श्रुत्वा तं च दृष्ट्वा विभीषणम् |
2597 | 6040013a | विभीषणस्तु रामस्य दृष्ट्वा गात्रं शरैश्चितम् |
2598 | 6040013c | लक्ष्मणस्य च धर्मात्मा बभूव व्यथितेन्द्रियः |
2599 | 6040014a | जलक्लिन्नेन हस्तेन तयोर्नेत्रे प्रमृज्य च |
2600 | 6040014c | शोकसंपीडितमना रुरोद विललाप च |
2601 | 6040015a | इमौ तौ सत्त्वसंपन्नौ विक्रान्तौ प्रियसंयुगौ |
2602 | 6040015c | इमामवस्थां गमितौ राकसैः कूटयोधिभिः |
2603 | 6040016a | भ्रातुः पुत्रेण मे तेन दुष्पुत्रेण दुरात्मना |
2604 | 6040016c | राक्षस्या जिह्मया बुद्ध्या छलितावृजुविक्रमौ |
2605 | 6040017a | शरैरिमावलं विद्धौ रुधिरेण समुक्षितौ |
2606 | 6040017c | वसुधायामिम सुप्तौ दृश्येते शल्यकाविव |
2607 | 6040018a | ययोर्वीर्यमुपाश्रित्य प्रतिष्ठा काङ्क्षिता मया |
2608 | 6040018c | तावुभौ देहनाशाय प्रसुप्तौ पुरुषर्षभौ |
2609 | 6040019a | जीवन्नद्य विपन्नोऽस्मि नष्टराज्यमनोरथः |
2610 | 6040019c | प्राप्तप्रतिज्ञश्च रिपुः सकामो रावणः कृतः |
2611 | 6040020a | एवं विलपमानं तं परिष्वज्य विभीषणम् |
2612 | 6040020c | सुग्रीवः सत्त्वसंपन्नो हरिराजोऽब्रवीदिदम् |
2613 | 6040021a | राज्यं प्राप्स्यसि धर्मज्ञ लङ्कायां नात्र संशयः |
2614 | 6040021c | रावणः सह पुत्रेण स राज्यं नेह लप्स्यते |
2615 | 6040022a | शरसंपीडितावेतावुभौ राघवलक्ष्मणौ |
2616 | 6040022c | त्यक्त्वा मोहं वधिष्येते सगणं रावणं रणे |
2617 | 6040023a | तमेवं सान्त्वयित्वा तु समाश्वास्य च राक्षसं |
2618 | 6040023c | सुषेणं श्वशुरं पार्श्वे सुग्रीवस्तमुवाच ह |
2619 | 6040024a | सह शूरैर्हरिगणैर्लब्धसंज्ञावरिंदमौ |
2620 | 6040024c | गच्छ त्वं भ्रातरौ गृह्य किष्किन्धां रामलक्ष्मणौ |
2621 | 6040025a | अहं तु रावणं हत्वा सपुत्रं सहबान्धवम् |
2622 | 6040025c | मैथिलीमानयिष्यामि शक्रो नष्टामिव श्रियम् |
2623 | 6040026a | श्रुत्वैतद्वानरेन्द्रस्य सुषेणो वाक्यमब्रवीत् |
2624 | 6040026c | देवासुरं महायुद्धमनुभूतं सुदारुणम् |
2625 | 6040027a | तदा स्म दानवा देवाञ्शरसंस्पर्शकोविदाः |
2626 | 6040027c | निजघ्नुः शस्त्रविदुषश्छादयन्तो मुहुर्मुहुः |
2627 | 6040028a | तानार्तान्नष्टसंज्ञांश्च परासूंश्च बृहस्पतिः |
2628 | 6040028c | विध्याभिर्मन्त्रयुक्ताभिरोषधीभिश्चिकित्सति |
2629 | 6040029a | तान्यौषधान्यानयितुं क्षीरोदं यान्तु सागरम् |
2630 | 6040029c | जवेन वानराः शीघ्रं संपाति पनसादयः |
2631 | 6040030a | हरयस्तु विजानन्ति पार्वती ते महौषधी |
2632 | 6040030c | संजीवकरणीं दिव्यां विशल्यां देवनिर्मिताम् |
2633 | 6040031a | चन्द्रश्च नाम द्रोणश्च पर्वतौ सागरोत्तमे |
2634 | 6040031c | अमृतं यत्र मथितं तत्र ते परमौषधी |
2635 | 6040032a | ते तत्र निहिते देवैः पर्वते परमौषधी |
2636 | 6040032c | अयं वायुसुतो राजन्हनूमांस्तत्र गच्छतु |
2637 | 6040033a | एतस्मिन्नन्तरे वायुर्मेघांश्चापि सविद्युतः |
2638 | 6040033c | पर्यस्यन्सागरे तोयं कम्पयन्निव पर्वतान् |
2639 | 6040034a | महता पक्षवातेन सर्वे द्वीपमहाद्रुमाः |
2640 | 6040034c | निपेतुर्भग्नविटपाः समूला लवणाम्भसि |
2641 | 6040035a | अभवन्पन्नगास्त्रस्ता भोगिनस्तत्रवासिनः |
2642 | 6040035c | शीघ्रं सर्वाणि यादांसि जग्मुश्च लवणार्णवम् |
2643 | 6040036a | ततो मुहूर्तद्गरुडं वैनतेयं महाबलम् |
2644 | 6040036c | वानरा ददृशुः सर्वे ज्वलन्तमिव पावकम् |
2645 | 6040037a | तमागतमभिप्रेक्ष्य नागास्ते विप्रदुद्रुवुः |
2646 | 6040037c | यैस्तौ सत्पुरुषौ बद्धौ शरभूतैर्महाबलौ |
2647 | 6040038a | ततः सुपर्णः काकुत्स्थौ दृष्ट्वा प्रत्यभिनन्द्य च |
2648 | 6040038c | विममर्श च पाणिभ्यां मुखे चन्द्रसमप्रभे |
2649 | 6040039a | वैनतेयेन संस्पृष्टास्तयोः संरुरुहुर्व्रणाः |
2650 | 6040039c | सुवर्णे च तनू स्निग्धे तयोराशु बभूवतुः |
2651 | 6040040a | तेजो वीर्यं बलं चौज उत्साहश्च महागुणाः |
2652 | 6040040c | प्रदर्शनं च बुद्धिश्च स्मृतिश्च द्विगुणं तयोः |
2653 | 6040041a | तावुत्थाप्य महावीर्यौ गरुडो वासवोपमौ |
2654 | 6040041c | उभौ तौ सस्वजे हृष्टौ रामश्चैनमुवाच ह |
2655 | 6040042a | भवत्प्रसादाद्व्यसनं रावणिप्रभवं महत् |
2656 | 6040042c | आवामिह व्यतिक्रान्तौ शीघ्रं च बलिनौ कृतौ |
2657 | 6040043a | यथा तातं दशरथं यथाजं च पितामहम् |
2658 | 6040043c | तथा भवन्तमासाद्य हृषयं मे प्रसीदति |
2659 | 6040044a | को भवान्रूपसंपन्नो दिव्यस्रगनुलेपनः |
2660 | 6040044c | वसानो विरजे वस्त्रे दिव्याभरणभूषितः |
2661 | 6040045a | तमुवाच महातेजा वैनतेयो महाबलः |
2662 | 6040045c | पतत्रिराजः प्रीतात्मा हर्षपर्याकुलेक्षणः |
2663 | 6040046a | अहं सखा ते काकुत्स्थ प्रियः प्राणो बहिश्चरः |
2664 | 6040046c | गरुत्मानिह संप्राप्तो युवयोः साह्यकारणात् |
2665 | 6040047a | असुरा वा महावीर्या दानवा वा महाबलाः |
2666 | 6040047c | सुराश्चापि सगन्धर्वाः पुरस्कृत्य शतक्रतुम् |
2667 | 6040048a | नेमं मोक्षयितुं शक्ताः शरबन्धं सुदारुणम् |
2668 | 6040048c | माया बलादिन्द्रजिता निर्मितं क्रूरकर्मणा |
2669 | 6040049a | एते नागाः काद्रवेयास्तीक्ष्णदंष्ट्राविषोल्बणाः |
2670 | 6040049c | रक्षोमाया प्रभावेन शरा भूत्वा त्वदाश्रिताः |
2671 | 6040050a | सभाग्यश्चासि धर्मज्ञ राम सत्यपराक्रम |
2672 | 6040050c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा समरे रिपुघातिना |
2673 | 6040051a | इमं श्रुत्वा तु वृत्तान्तं त्वरमाणोऽहमागतः |
2674 | 6040051c | सहसा युवयोः स्नेहात्सखित्वमनुपालयन् |
2675 | 6040052a | मोक्षितौ च महाघोरादस्मात्सायकबन्धनात् |
2676 | 6040052c | अप्रमादश्च कर्तव्यो युवाभ्यां नित्यमेव हि |
2677 | 6040053a | प्रकृत्या राक्षसाः सर्वे संग्रामे कूटयोधिनः |
2678 | 6040053c | शूराणां शुद्धभावानां भवतामार्जवं बलम् |
2679 | 6040054a | तन्न विश्वसितव्यं वो राक्षसानां रणाजिरे |
2680 | 6040054c | एतेनैवोपमानेन नित्यजिह्मा हि राक्षसाः |
2681 | 6040055a | एवमुक्त्वा ततो रामं सुपर्णः सुमहाबलः |
2682 | 6040055c | परिष्वज्य सुहृत्स्निग्धमाप्रष्टुमुपचक्रमे |
2683 | 6040056a | सखे राघव धर्मज्ञ रिपूणामपि वत्सल |
2684 | 6040056c | अभ्यनुज्ञातुमिच्छामि गमिष्यामि यथागतम् |
2685 | 6040057a | बालवृद्धावशेषां तु लङ्कां कृत्वा शरोर्मिभिः |
2686 | 6040057c | रावणं च रिपुं हत्वा सीतां समुपलप्स्यसे |
2687 | 6040058a | इत्येवमुक्त्वा वचनं सुपर्णः शीघ्रविक्रमः |
2688 | 6040058c | रामं च विरुजं कृत्वा मध्ये तेषां वनौकसाम् |
2689 | 6040059a | प्रदक्षिणं ततः कृत्वा परिष्वज्य च वीर्यवान् |
2690 | 6040059c | जगामाकाशमाविश्य सुपर्णः पवनो यथा |
2691 | 6040060a | विरुजौ राघवौ दृष्ट्वा ततो वानरयूथपाः |
2692 | 6040060c | सिंहनादांस्तदा नेदुर्लाङ्गूलं दुधुवुश्च ते |
2693 | 6040061a | ततो भेरीः समाजघ्नुर्मृदङ्गांश्च व्यनादयन् |
2694 | 6040061c | दध्मुः शङ्खान्संप्रहृष्टाः क्ष्वेलन्त्यपि यथापुरम् |
2695 | 6040062a | आस्फोट्यास्फोट्य विक्रान्ता वानरा नगयोधिनः |
2696 | 6040062c | द्रुमानुत्पाट्य विविधांस्तस्थुः शतसहस्रशः |
2697 | 6040063a | विसृजन्तो महानादांस्त्रासयन्तो निशाचरान् |
2698 | 6040063c | लङ्काद्वाराण्युपाजग्मुर्योद्धुकामाः प्लवंगमाः |
2699 | 6040064a | ततस्तु भीमस्तुमुलो निनादो; बभूव शाखामृगयूथपानाम् |
2700 | 6040064c | क्षये निदाघस्य यथा घनानां; नादः सुभीमो नदतां निशीथे |
2701 | 6041001a | तेषां सुतुमुलं शब्दं वानराणां तरस्विनाम् |
2702 | 6041001c | नर्दतां राक्षसैः सार्धं तदा शुश्राव रावणः |
2703 | 6041002a | स्निग्धगम्भीरनिर्घोषं श्रुत्वा स निनदं भृशम् |
2704 | 6041002c | सचिवानां ततस्तेषां मध्ये वचनमब्रवीत् |
2705 | 6041003a | यथासौ संप्रहृष्टानां वानराणां समुत्थितः |
2706 | 6041003c | बहूनां सुमहान्नादो मेघानामिव गर्जताम् |
2707 | 6041004a | व्यक्तं सुमहती प्रीतिरेतेषां नात्र संशयः |
2708 | 6041004c | तथा हि विपुलैर्नादैश्चुक्षुभे वरुणालयः |
2709 | 6041005a | तौ तु बद्धौ शरैस्तीष्क्णैर्भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
2710 | 6041005c | अयं च सुमहान्नादः शङ्कां जनयतीव मे |
2711 | 6041006a | एतत्तु वचनं चोक्त्वा मन्त्रिणो राक्षसेश्वरः |
2712 | 6041006c | उवाच नैरृतांस्तत्र समीपपरिवर्तिनः |
2713 | 6041007a | ज्ञायतां तूर्णमेतषां सर्वेषां वनचारिणाम् |
2714 | 6041007c | शोककाले समुत्पन्ने हर्षकारणमुत्थितम् |
2715 | 6041008a | तथोक्तास्तेन संभ्रान्ताः प्राकारमधिरुह्य ते |
2716 | 6041008c | ददृशुः पालितां सेनां सुग्रीवेण महात्मना |
2717 | 6041009a | तौ च मुक्तौ सुघोरेण शरबन्धेन राघवौ |
2718 | 6041009c | समुत्थितौ महाभागौ विषेदुः प्रेक्ष्य राक्षसाः |
2719 | 6041010a | संत्रस्तहृदया सर्वे प्राकारादवरुह्य ते |
2720 | 6041010c | विषण्णवदनाः सर्वे राक्षसेन्द्रमुपस्थिताः |
2721 | 6041011a | तदप्रियं दीनमुखा रावणस्य निशाचराः |
2722 | 6041011c | कृत्स्नं निवेदयामासुर्यथावद्वाक्यकोविदाः |
2723 | 6041012a | यौ ताविन्द्रजिता युद्धे भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
2724 | 6041012c | निबद्धौ शरबन्धेन निष्प्रकम्पभुजौ कृतौ |
2725 | 6041013a | विमुक्तौ शरबन्धेन तौ दृश्येते रणाजिरे |
2726 | 6041013c | पाशानिव गजौ छित्त्वा गजेन्द्रसमविक्रमौ |
2727 | 6041014a | तच्छ्रुत्वा वचनं तेषां राक्षसेन्द्रो महाबलः |
2728 | 6041014c | चिन्ताशोकसमाक्रान्तो विषण्णवदनोऽब्रवीत् |
2729 | 6041015a | घोरैर्दत्तवरैर्बद्धौ शरैराशीविषोमपैः |
2730 | 6041015c | अमोघैः सूर्यसंकाशैः प्रमथ्येन्द्रजिता युधि |
2731 | 6041016a | तमस्त्रबन्धमासाद्य यदि मुक्तौ रिपू मम |
2732 | 6041016c | संशयस्थमिदं सर्वमनुपश्याम्यहं बलम् |
2733 | 6041017a | निष्फलाः खलु संवृत्ताः शरा वासुकितेजसः |
2734 | 6041017c | आदत्तं यैस्तु संग्रामे रिपूणां मम जीवितम् |
2735 | 6041018a | एवमुक्त्वा तु संक्रुद्धो निश्वसन्नुरगो यथा |
2736 | 6041018c | अब्रवीद्रक्षसां मध्ये धूम्राक्षं नाम राकसं |
2737 | 6041019a | बलेन महता युक्तो रक्षसां भीमकर्मणाम् |
2738 | 6041019c | त्वं वधायाभिनिर्याहि रामस्य सह वानरैः |
2739 | 6041020a | एवमुक्तस्तु धूम्राक्षो राक्षसेन्द्रेण धीमता |
2740 | 6041020c | कृत्वा प्रणामं संहृष्टो निर्जगाम नृपालयात् |
2741 | 6041021a | अभिनिष्क्रम्य तद्द्वारं बलाध्यक्षमुवाच ह |
2742 | 6041021c | त्वरयस्व बलं तूर्णं किं चिरेण युयुत्सतः |
2743 | 6041022a | धूम्राक्षस्य वचः श्रुत्वा बलाध्यक्षो बलानुगः |
2744 | 6041022c | बलमुद्योजयामास रावणस्याज्ञया द्रुतम् |
2745 | 6041023a | ते बद्धघण्टा बलिनो घोररूपा निशाचराः |
2746 | 6041023c | विनर्दमानाः संहृष्टा धूम्राक्षं पर्यवारयन् |
2747 | 6041024a | विविधायुधहस्ताश्च शूलमुद्गरपाणयः |
2748 | 6041024c | गदाभिः पट्टसैर्दण्डैरायसैर्मुसलैर्भृशम् |
2749 | 6041025a | परिघैर्भिण्डिपालैश्च भल्लैः प्रासैः परश्वधैः |
2750 | 6041025c | निर्ययू राक्षसा घोरा नर्दन्तो जलदा यथा |
2751 | 6041026a | रथैः कवचिनस्त्वन्ये ध्वजैश्च समलंकृतैः |
2752 | 6041026c | सुवर्णजालविहितैः खरैश्च विविधाननैः |
2753 | 6041027a | हयैः परमशीघ्रैश्च गजेन्द्रैश्च मदोत्कटैः |
2754 | 6041027c | निर्ययू राक्षसव्याघ्रा व्याघ्रा इव दुरासदाः |
2755 | 6041028a | वृकसिंहमुखैर्युक्तं खरैः कनकभूषणैः |
2756 | 6041028c | आरुरोह रथं दिव्यं धूम्राक्षः खरनिस्वनः |
2757 | 6041029a | स निर्यातो महावीर्यो धूम्राक्षो राक्षसैर्वृतः |
2758 | 6041029c | प्रहसन्पश्चिमद्वारं हनूमान्यत्र यूथपः |
2759 | 6041030a | प्रयान्तं तु महाघोरं राक्षसं भीमदर्शनम् |
2760 | 6041030c | अन्तरिक्षगताः क्रूराः शकुनाः प्रत्यवारयन् |
2761 | 6041031a | रथशीर्षे महाभीमो गृध्रश्च निपपात ह |
2762 | 6041031c | ध्वजाग्रे ग्रथिताश्चैव निपेतुः कुणपाशनाः |
2763 | 6041032a | रुधिरार्द्रो महाञ्श्वेतः कबन्धः पतितो भुवि |
2764 | 6041032c | विस्वरं चोत्सृजन्नादं धूम्राक्षस्य समीपतः |
2765 | 6041033a | ववर्ष रुधिरं देवः संचचाल च मेदिनी |
2766 | 6041033c | प्रतिलोमं ववौ वायुर्निर्घातसमनिस्वनः |
2767 | 6041033e | तिमिरौघावृतास्तत्र दिशश्च न चकाशिरे |
2768 | 6041034a | स तूत्पातांस्ततो दृष्ट्वा राक्षसानां भयावहान् |
2769 | 6041034c | प्रादुर्भूतान्सुघोरांश्च धूम्राक्षो व्यथितोऽभवत् |
2770 | 6041035a | ततः सुभीमो बहुभिर्निशाचरै;र्वृतोऽभिनिष्क्रम्य रणोत्सुको बली |
2771 | 6041035c | ददर्श तां राघवबाहुपालितां; समुद्रकल्पां बहुवानरीं चमूम् |
2772 | 6042001a | धूम्राक्षं प्रेक्ष्य निर्यान्तं राक्षसं भीमनिस्वनम् |
2773 | 6042001c | विनेदुर्वानराः सर्वे प्रहृष्टा युद्धकाङ्क्षिणः |
2774 | 6042002a | तेषां तु तुमुलं युद्धं संजज्ञे हरिरक्षसाम् |
2775 | 6042002c | अन्योन्यं पादपैर्घोरैर्निघ्नतं शूलमुद्गरैः |
2776 | 6042003a | राक्षसैर्वानरा घोरा विनिकृत्ताः समन्ततः |
2777 | 6042003c | वानरै राक्षसाश्चापि द्रुमैर्भूमौ समीकृताः |
2778 | 6042004a | राक्षसाश्चापि संक्रुद्धा वानरान्निशितैः शरैः |
2779 | 6042004c | विव्यधुर्घोरसंकाशैः कङ्कपत्रैरजिह्मगैः |
2780 | 6042005a | ते गदाभिश्च भीमाभिः पट्टसैः कूटमुद्गरैः |
2781 | 6042005c | घोरैश्च परिघैश्चित्रैस्त्रिशूलैश्चापि संशितैः |
2782 | 6042006a | विदार्यमाणा रक्षोभिर्वानरास्ते महाबलाः |
2783 | 6042006c | अमर्षाज्जनितोद्धर्षाश्चक्रुः कर्माण्यभीतवत् |
2784 | 6042007a | शरनिर्भिन्नगात्रास्ते शूलनिर्भिन्नदेहिनः |
2785 | 6042007c | जगृहुस्ते द्रुमांस्तत्र शिलाश्च हरियूथपाः |
2786 | 6042008a | ते भीमवेगा हरयो नर्दमानास्ततस्ततः |
2787 | 6042008c | ममन्थू राक्षसान्भीमान्नामानि च बभाषिरे |
2788 | 6042009a | तद्बभूवाद्भुतं घोरं युद्धं वानररक्षसाम् |
2789 | 6042009c | शिलाभिर्विविधाभिश्च बहुशाखैश्च पादपैः |
2790 | 6042010a | राक्षसा मथिताः केचिद्वानरैर्जितकाशिभिः |
2791 | 6042010c | ववर्षू रुधिरं केचिन्मुखै रुधिरभोजनाः |
2792 | 6042011a | पार्श्वेषु दारिताः केचित्केचिद्राशीकृता द्रुमैः |
2793 | 6042011c | शिलाभिश्चूर्णिताः केचित्केचिद्दन्तैर्विदारिताः |
2794 | 6042012a | ध्वजैर्विमथितैर्भग्नैः खरैश्च विनिपातितैः |
2795 | 6042012c | रथैर्विध्वंसितैश्चापि पतितै रजनीचरैः |
2796 | 6042013a | वानरैर्भीमविक्रान्तैराप्लुत्याप्लुत्य वेगितैः |
2797 | 6042013c | राक्षसाः करजैस्तीक्ष्णैर्मुखेषु विनिकर्तिताः |
2798 | 6042014a | विवर्णवदना भूयो विप्रकीर्णशिरोरुहाः |
2799 | 6042014c | मूढाः शोणितगन्धेन निपेतुर्धरणीतले |
2800 | 6042015a | नये तु परमक्रुद्धा राक्षसा भीमविक्रमाः |
2801 | 6042015c | तलैरेवाभिधावन्ति वज्रस्पर्शसमैर्हरीन् |
2802 | 6042016a | वनरैरापतन्तस्ते वेगिता वेगवत्तरैः |
2803 | 6042016c | मुष्टिभिश्चरणैर्दन्तैः पादपैश्चापपोथिताः |
2804 | 6042017a | सन्यं तु विद्रुतं दृष्ट्वा धूम्राक्षो राक्षसर्षभः |
2805 | 6042017c | क्रोधेन कदनं चक्रे वानराणां युयुत्सताम् |
2806 | 6042018a | प्रासैः प्रमथिताः केचिद्वानराः शोणितस्रवाः |
2807 | 6042018c | मुद्गरैराहताः केचित्पतिता धरणीतले |
2808 | 6042019a | परिघैर्मथितः केचिद्भिण्डिपालैर्विदारिताः |
2809 | 6042019c | पट्टसैराहताः केचिद्विह्वलन्तो गतासवः |
2810 | 6042020a | केचिद्विनिहता भूमौ रुधिरार्द्रा वनौकसः |
2811 | 6042020c | केचिद्विद्राविता नष्टाः संक्रुद्धै राक्षसैर्युधि |
2812 | 6042021a | विभिन्नहृदयाः केचिदेकपार्श्वेन शायिताः |
2813 | 6042021c | विदारितास्त्रशूलै च केचिदान्त्रैर्विनिस्रुताः |
2814 | 6042022a | तत्सुभीमं महद्युद्धं हरिराकस संकुलम् |
2815 | 6042022c | प्रबभौ शस्त्रबहुलं शिलापादपसंकुलम् |
2816 | 6042023a | धनुर्ज्यातन्त्रिमधुरं हिक्कातालसमन्वितम् |
2817 | 6042023c | मन्द्रस्तनितसंगीतं युद्धगान्धर्वमाबभौ |
2818 | 6042024a | धूम्राक्षस्तु धनुष्पाणिर्वानरान्रणमूर्धनि |
2819 | 6042024c | हसन्विद्रावयामास दिशस्ताञ्शरवृष्टिभिः |
2820 | 6042025a | धूम्राक्षेणार्दितं सैन्यं व्यथितं दृश्य मारुतिः |
2821 | 6042025c | अभ्यवर्तत संक्रुद्धः प्रगृह्य विपुलां शिलाम् |
2822 | 6042026a | क्रोधाद्द्विगुणताम्राक्षः पितृतुल्यपराक्रमः |
2823 | 6042026c | शिलां तां पातयामास धूम्राक्षस्य रथं प्रति |
2824 | 6042027a | आपतन्तीं शिलां दृष्ट्वा गदामुद्यम्य संभ्रमात् |
2825 | 6042027c | रथादाप्लुत्य वेगेन वसुधायां व्यतिष्ठत |
2826 | 6042028a | सा प्रमथ्य रथं तस्य निपपात शिलाभुवि |
2827 | 6042028c | सचक्रकूबरं साश्वं सध्वजं सशरासनम् |
2828 | 6042029a | स भङ्क्त्वा तु रथं तस्य हनूमान्मारुतात्मजः |
2829 | 6042029c | रक्षसां कदनं चक्रे सस्कन्धविटपैर्द्रुमैः |
2830 | 6042030a | विभिन्नशिरसो भूत्वा राक्षसाः शोणितोक्षिताः |
2831 | 6042030c | द्रुमैः प्रमथिताश्चान्ये निपेतुर्धरणीतले |
2832 | 6042031a | विद्राव्य राक्षसं सैन्यं हनूमान्मारुतात्मजः |
2833 | 6042031c | गिरेः शिखरमादाय धूम्राक्षमभिदुद्रुवे |
2834 | 6042032a | तमापतन्तं धूम्राक्षो गदामुद्यम्य वीर्यवान् |
2835 | 6042032c | विनर्दमानः सहसा हनूमन्तमभिद्रवत् |
2836 | 6042033a | ततः क्रुद्धस्तु वेगेन गदां तां बहुकण्टकाम् |
2837 | 6042033c | पातयामास धूम्राक्षो मस्तके तु हनूमतः |
2838 | 6042034a | ताडितः स तया तत्र गदया भीमरूपया |
2839 | 6042034c | स कपिर्मारुतबलस्तं प्रहारमचिन्तयन् |
2840 | 6042034e | धूम्राक्षस्य शिरो मध्ये गिरिशृङ्गमपातयत् |
2841 | 6042035a | स विह्वलितसर्वाङ्गो गिरिशृङ्गेण ताडितः |
2842 | 6042035c | पपात सहसा भूमौ विकीर्ण इव पर्वतः |
2843 | 6042036a | धूम्राक्षं निहतं दृष्ट्वा हतशेषा निशाचराः |
2844 | 6042036c | त्रस्ताः प्रविविशुर्लङ्कां वध्यमानाः प्लवंगमैः |
2845 | 6042037a | स तु पवनसुतो निहत्य शत्रुं; क्षतजवहाः सरितश्च संविकीर्य |
2846 | 6042037c | रिपुवधजनितश्रमो महात्मा; मुदमगमत्कपिभिश्च पूज्यमानः |
2847 | 6043001a | धूम्राक्षं निहतं श्रुत्वा रावणो राक्षसेश्वरः |
2848 | 6043001c | बलाध्यक्षमुवाचेदं कृताञ्जलिमुपस्थितम् |
2849 | 6043002a | शीघ्रं निर्यान्तु दुर्धर्षा राक्षसा भीमविक्रमाः |
2850 | 6043002c | अकम्पनं पुरस्कृत्य सर्वशस्त्रप्रकोविदम् |
2851 | 6043003a | ततो नानाप्रहरणा भीमाक्षा भीमदर्शनाः |
2852 | 6043003c | निष्पेतू राक्षसा मुख्या बलाध्यक्षप्रचोदिताः |
2853 | 6043004a | रथमास्थाय विपुलं तप्तकाञ्चनकुण्डलः |
2854 | 6043004c | राकसैः संवृतो घोरैस्तदा निर्यात्यकम्पनः |
2855 | 6043005a | न हि कम्पयितुं शक्यः सुरैरपि महामृधे |
2856 | 6043005c | अकम्पनस्ततस्तेषामादित्य इव तेजसा |
2857 | 6043006a | तस्य निधावमानस्य संरब्धस्य युयुत्सया |
2858 | 6043006c | अकस्माद्दैन्यमागच्छद्धयानां रथवाहिनाम् |
2859 | 6043007a | व्यस्फुरन्नयनं चास्य सव्यं युद्धाभिनन्दिनः |
2860 | 6043007c | विवर्णो मुखवर्णश्च गद्गदश्चाभवत्स्वरः |
2861 | 6043008a | अभवत्सुदिने चापि दुर्दिने रूक्षमारुतम् |
2862 | 6043008c | ऊचुः खगा मृगाः सर्वे वाचः क्रूरा भयावहाः |
2863 | 6043009a | स सिंहोपचितस्कन्धः शार्दूलसमविक्रमः |
2864 | 6043009c | तानुत्पातानचिन्त्यैव निर्जगाम रणाजिरम् |
2865 | 6043010a | तदा निर्गच्छतस्तस्य रक्षसः सह राक्षसैः |
2866 | 6043010c | बभूव सुमहान्नादः क्षोभयन्निव सागरम् |
2867 | 6043011a | तेन शब्देन वित्रस्ता वानराणां महाचमूः |
2868 | 6043011c | द्रुमशैलप्रहरणा योद्धुं समवतिष्ठत |
2869 | 6043012a | तेषां युद्धं महारौद्रं संजज्ञे कपिरक्षसाम् |
2870 | 6043012c | रामरावणयोरर्थे समभित्यक्तजीविनाम् |
2871 | 6043013a | सर्वे ह्यतिबलाः शूराः सर्वे पर्वतसंनिभाः |
2872 | 6043013c | हरयो राक्षसाश्चैव परस्परजिघंसवः |
2873 | 6043014a | तेषां विनर्दातां शब्दः संयुगेऽतितरस्विनाम् |
2874 | 6043014c | शुश्रुवे सुमहान्क्रोधादन्योन्यमभिगर्जताम् |
2875 | 6043015a | रजश्चारुणवर्णाभं सुभीममभवद्भृशम् |
2876 | 6043015c | उद्धूतं हरिरक्षोभिः संरुरोध दिशो दश |
2877 | 6043016a | अन्योन्यं रजसा तेन कौशेयोद्धूतपाण्डुना |
2878 | 6043016c | संवृतानि च भूतानि ददृशुर्न रणाजिरे |
2879 | 6043017a | न ध्वजो न पताकावा वर्म वा तुरगोऽपि वा |
2880 | 6043017c | आयुधं स्यन्दनं वापि ददृशे तेन रेणुना |
2881 | 6043018a | शब्दश्च सुमहांस्तेषां नर्दतामभिधावताम् |
2882 | 6043018c | श्रूयते तुमुले युद्धे न रूपाणि चकाशिरे |
2883 | 6043019a | हरीनेव सुसंक्रुद्धा हरयो जघ्नुराहवे |
2884 | 6043019c | राक्षसाश्चापि रक्षांसि निजघ्नुस्तिमिरे तदा |
2885 | 6043020a | परांश्चैव विनिघ्नन्तः स्वांश्च वानरराक्षसाः |
2886 | 6043020c | रुधिरार्द्रं तदा चक्रुर्महीं पङ्कानुलेपनाम् |
2887 | 6043021a | ततस्तु रुधिरौघेण सिक्तं व्यपगतं रजः |
2888 | 6043021c | शरीरशवसंकीर्णा बभूव च वसुंधरा |
2889 | 6043022a | द्रुमशक्तिशिलाप्रासैर्गदापरिघतोमरैः |
2890 | 6043022c | हरयो राक्षसास्तूर्णं जघ्नुरन्योन्यमोजसा |
2891 | 6043023a | बाहुभिः परिघाकारैर्युध्यन्तः पर्वतोपमाः |
2892 | 6043023c | हरयो भीमकर्माणो राक्षसाञ्जघ्नुराहवे |
2893 | 6043024a | राक्षसाश्चापि संक्रुद्धाः प्रासतोमरपाणयः |
2894 | 6043024c | कपीन्निजघ्निरे तत्र शस्त्रैः परमदारुणैः |
2895 | 6043025a | हरयस्त्वपि रक्षांसि महाद्रुममहाश्मभिः |
2896 | 6043025c | विदारयन्त्यभिक्रम्य शस्त्राण्याच्छिद्य वीर्यतः |
2897 | 6043026a | एतस्मिन्नन्तरे वीरा हरयः कुमुदो नलः |
2898 | 6043026c | मैन्दश्च परमक्रुद्धश्चक्रुर्वेगमनुत्तमम् |
2899 | 6043027a | ते तु वृक्षैर्महावेगा राक्षसानां चमूमुखे |
2900 | 6043027c | कदनं सुमह चक्रुर्लीलया हरियूथपाः |
2901 | 6044001a | तद्दृष्ट्वा सुमहत्कर्म कृतं वानरसत्तमैः |
2902 | 6044001c | क्रोधमाहारयामास युधि तीव्रमकम्पनः |
2903 | 6044002a | क्रोधमूर्छितरूपस्तु ध्नुवन्परमकार्मुकम् |
2904 | 6044002c | दृष्ट्वा तु कर्म शत्रूणां सारथिं वाक्यमब्रवीत् |
2905 | 6044003a | तत्रैव तावत्त्वरितं रथं प्रापय सारथे |
2906 | 6044003c | एतेऽत्र बहवो घ्नन्ति सुबहून्राक्षसान्रणे |
2907 | 6044004a | एतेऽत्र बलवन्तो हि भीमकायाश्च वानराः |
2908 | 6044004c | द्रुमशैलप्रहरणास्तिष्ठन्ति प्रमुखे मम |
2909 | 6044005a | एतान्निहन्तुमिच्छामि समरश्लाघिनो ह्यहम् |
2910 | 6044005c | एतैः प्रमथितं सर्वं दृश्यते राक्षसं बलम् |
2911 | 6044006a | ततः प्रजविताश्वेन रथेन रथिनां वरः |
2912 | 6044006c | हरीनभ्यहनत्क्रोधाच्छरजालैरकम्पनः |
2913 | 6044007a | न स्थातुं वानराः शेकुः किं पुनर्योद्धुमाहवे |
2914 | 6044007c | अकम्पनशरैर्भग्नाः सर्व एव प्रदुद्रुवुः |
2915 | 6044008a | तान्मृत्युवशमापन्नानकम्पनवशं गतान् |
2916 | 6044008c | समीक्ष्य हनुमाञ्ज्ञातीनुपतस्थे महाबलः |
2917 | 6044009a | तं महाप्लवगं दृष्ट्वा सर्वे प्लवगयूथपाः |
2918 | 6044009c | समेत्य समरे वीराः सहिताः पर्यवारयन् |
2919 | 6044010a | व्यवस्थितं हनूमन्तं ते दृष्ट्वा हरियूथपाः |
2920 | 6044010c | बभूवुर्बलवन्तो हि बलवन्तमुपाश्रिताः |
2921 | 6044011a | अकम्पनस्तु शैलाभं हनूमन्तमवस्थितम् |
2922 | 6044011c | महेन्द्र इव धाराभिः शरैरभिववर्ष ह |
2923 | 6044012a | अचिन्तयित्वा बाणौघाञ्शरीरे पतिताञ्शितान् |
2924 | 6044012c | अकम्पनवधार्थाय मनो दध्रे महाबलः |
2925 | 6044013a | स प्रहस्य महातेजा हनूमान्मारुतात्मजः |
2926 | 6044013c | अभिदुद्राव तद्रक्षः कम्पयन्निव मेदिनीम् |
2927 | 6044014a | तस्याभिनर्दमानस्य दीप्यमानस्य तेजसा |
2928 | 6044014c | बभूव रूपं दुर्धर्षं दीप्तस्येव विभावसोः |
2929 | 6044015a | आत्मानं त्वप्रहरणं ज्ञात्वा क्रोधसमन्वितः |
2930 | 6044015c | शैलमुत्पाटयामास वेगेन हरिपुंगवः |
2931 | 6044016a | तं गृहीत्वा महाशैलं पाणिनैकेन मारुतिः |
2932 | 6044016c | विनद्य सुमहानादं भ्रामयामास वीर्यवान् |
2933 | 6044017a | ततस्तमभिदुद्राव राक्षसेन्द्रमकम्पनम् |
2934 | 6044017c | यथा हि नमुचिं संख्ये वज्रेणेव पुरंदरः |
2935 | 6044018a | अकम्पनस्तु तद्दृष्ट्वा गिरिशृङ्गं समुद्यतम् |
2936 | 6044018c | दूरादेव महाबाणैरर्धचन्द्रैर्व्यदारयत् |
2937 | 6044019a | तत्पर्वताग्रमाकाशे रक्षोबाणविदारितम् |
2938 | 6044019c | विकीर्णं पतितं दृष्ट्वा हनूमान्क्रोधमूर्छितः |
2939 | 6044020a | सोऽश्वकर्णं समासाद्य रोषदर्पान्वितो हरिः |
2940 | 6044020c | तूर्णमुत्पाटयामास महागिरिमिवोच्छ्रितम् |
2941 | 6044021a | तं गृहीत्वा महास्कन्धं सोऽश्वकर्णं महाद्युतिः |
2942 | 6044021c | प्रहस्य परया प्रीत्या भ्रामयामास संयुगे |
2943 | 6044022a | प्रधावन्नुरुवेगेन प्रभञ्जंस्तरसा द्रुमान् |
2944 | 6044022c | हनूमान्परमक्रुद्धश्चरणैर्दारयत्क्षितिम् |
2945 | 6044023a | गजांश्च सगजारोहान्सरथान्रथिनस्तथा |
2946 | 6044023c | जघान हनुमान्धीमान्राक्षसांश्च पदातिकान् |
2947 | 6044024a | तमन्तकमिव क्रुद्धं समरे प्राणहारिणम् |
2948 | 6044024c | हनूमन्तमभिप्रेक्ष्य राक्षसा विप्रदुद्रुवुः |
2949 | 6044025a | तमापतन्तं संक्रुद्धं राक्षसानां भयावहम् |
2950 | 6044025c | ददर्शाकम्पनो वीरश्चुक्रोध च ननाद च |
2951 | 6044026a | स चतुर्दशभिर्बाणैः शितैर्देहविदारणैः |
2952 | 6044026c | निर्बिभेद हनूमन्तं महावीर्यमकम्पनः |
2953 | 6044027a | स तथा प्रतिविद्धस्तु बह्वीभिः शरवृष्टिभिः |
2954 | 6044027c | हनूमान्ददृशे वीरः प्ररूढ इव सानुमान् |
2955 | 6044028a | ततोऽन्यं वृक्षमुत्पाट्य कृत्वा वेगमनुत्तमम् |
2956 | 6044028c | शिरस्यभिजघानाशु राक्षसेन्द्रमकम्पनम् |
2957 | 6044029a | स वृक्षेण हतस्तेन सक्रोधेन महात्मना |
2958 | 6044029c | राक्षसो वानरेन्द्रेण पपात स ममार च |
2959 | 6044030a | तं दृष्ट्वा निहतं भूमौ राक्षसेन्द्रमकम्पनम् |
2960 | 6044030c | व्यथिता राक्षसाः सर्वे क्षितिकम्प इव द्रुमाः |
2961 | 6044031a | त्यक्तप्रहरणाः सर्वे राक्षसास्ते पराजिताः |
2962 | 6044031c | लङ्कामभिययुस्त्रस्ता वानरैस्तैरभिद्रुताः |
2963 | 6044032a | ते मुक्तकेशाः संभ्रान्ता भग्नमानाः पराजिताः |
2964 | 6044032c | स्रवच्छ्रमजलैरङ्गैः श्वसन्तो विप्रदुद्रुवुः |
2965 | 6044033a | अन्योन्यं प्रममन्तुस्ते विविशुर्नगरं भयात् |
2966 | 6044033c | पृष्ठतस्ते सुसंमूढाः प्रेक्षमाणा मुहुर्मुहुः |
2967 | 6044034a | तेषु लङ्कां प्रविष्टेषु राक्षसेषु महाबलाः |
2968 | 6044034c | समेत्य हरयः सर्वे हनूमन्तमपूजयन् |
2969 | 6044035a | सोऽपि प्रहृष्टस्तान्सर्वान्हरीन्संप्रत्यपूजयत् |
2970 | 6044035c | हनूमान्सत्त्वसंपन्नो यथार्हमनुकूलतः |
2971 | 6044036a | विनेदुश्च यथा प्राणं हरयो जितकाशिनः |
2972 | 6044036c | चकर्षुश्च पुनस्तत्र सप्राणानेव राक्षसान् |
2973 | 6044037a | स वीरशोभामभजन्महाकपिः; समेत्य रक्षांसि निहत्य मारुतिः |
2974 | 6044037c | महासुरं भीमममित्रनाशनं; यथैव विष्णुर्बलिनं चमूमुखे |
2975 | 6044038a | अपूजयन्देवगणास्तदा कपिं; स्वयं च रामोऽतिबलश्च लक्ष्मणः |
2976 | 6044038c | तथैव सुग्रीवमुखाः प्लवंगमा; विभीषणश्चैव महाबलस्तदा |
2977 | 6045001a | अकम्पनवधं श्रुत्वा क्रुद्धो वै राक्षसेश्वरः |
2978 | 6045001c | किंचिद्दीनमुखश्चापि सचिवांस्तानुदैक्षत |
2979 | 6045002a | स तु ध्यात्वा मुहूर्तं तु मन्त्रिभिः संविचार्य च |
2980 | 6045002c | पुरीं परिययौ लङ्कां सर्वान्गुल्मानवेक्षितुम् |
2981 | 6045003a | तां राक्षसगणैर्गुप्तां गुल्मैर्बहुभिरावृताम् |
2982 | 6045003c | ददर्श नगरीं लङ्कां पताकाध्वजमालिनीम् |
2983 | 6045004a | रुद्धां तु नगरीं दृष्ट्वा रावणो राक्षसेश्वरः |
2984 | 6045004c | उवाचामर्षितः काले प्रहस्तं युद्धकोविदम् |
2985 | 6045005a | पुरस्योपनिविष्टस्य सहसा पीडितस्य च |
2986 | 6045005c | नान्यं युद्धात्प्रपश्यामि मोक्षं युद्धविशारद |
2987 | 6045006a | अहं वा कुम्भकर्णो वा त्वं वा सेनापतिर्मम |
2988 | 6045006c | इन्द्रजिद्वा निकुम्भो वा वहेयुर्भारमीदृशम् |
2989 | 6045007a | स त्वं बलमितः शीघ्रमादाय परिगृह्य च |
2990 | 6045007c | विजयायाभिनिर्याहि यत्र सर्वे वनौकसः |
2991 | 6045008a | निर्याणादेव ते नूनं चपला हरिवाहिनी |
2992 | 6045008c | नर्दतां राक्षसेन्द्राणां श्रुत्वा नादं द्रविष्यति |
2993 | 6045009a | चपला ह्यविनीताश्च चलचित्ताश्च वानराः |
2994 | 6045009c | न सहिष्यन्ति ते नादं सिंहनादमिव द्विपाः |
2995 | 6045010a | विद्रुते च बले तस्मिन्रामः सौमित्रिणा सह |
2996 | 6045010c | अवशस्ते निरालम्बः प्रहस्तवशमेष्यति |
2997 | 6045011a | आपत्संशयिता श्रेयो नात्र निःसंशयीकृता |
2998 | 6045011c | प्रतिलोमानुलोमं वा यद्वा नो मन्यसे हितम् |
2999 | 6045012a | रावणेनैवमुक्तस्तु प्रहस्तो वाहिनीपतिः |
3000 | 6045012c | राक्षसेन्द्रमुवाचेदमसुरेन्द्रमिवोशना |
3001 | 6045013a | राजन्मन्त्रितपूर्वं नः कुशलैः सह मन्त्रिभिः |
3002 | 6045013c | विवादश्चापि नो वृत्तः समवेक्ष्य परस्परम् |
3003 | 6045014a | प्रदानेन तु सीतायाः श्रेयो व्यवसितं मया |
3004 | 6045014c | अप्रदाने पुनर्युद्धं दृष्टमेतत्तथैव नः |
3005 | 6045015a | सोऽहं दानैश्च मानैश्च सततं पूजितस्त्वया |
3006 | 6045015c | सान्त्वैश्च विविधैः काले किं न कुर्यां प्रियं तव |
3007 | 6045016a | न हि मे जीवितं रक्ष्यं पुत्रदारधनानि वा |
3008 | 6045016c | त्वं पश्य मां जुहूषन्तं त्वदर्थे जीवितं युधि |
3009 | 6045017a | एवमुक्त्वा तु भर्तारं रावणं वाहिनीपतिः |
3010 | 6045017c | समानयत मे शीघ्रं राक्षसानां महद्बलम् |
3011 | 6045018a | मद्बाणाशनिवेगेन हतानां तु रणाजिरे |
3012 | 6045018c | अद्य तृप्यन्तु मांसेन पक्षिणः काननौकसाम् |
3013 | 6045019a | इत्युक्तास्ते प्रहस्तेन बलाध्यक्षाः कृतत्वराः |
3014 | 6045019c | बलमुद्योजयामासुस्तस्मिन्राक्षसमन्दिरे |
3015 | 6045020a | सा बभूव मुहूर्तेन तिग्मनानाविधायुधैः |
3016 | 6045020c | लङ्का राक्षसवीरैस्तैर्गजैरिव समाकुला |
3017 | 6045021a | हुताशनं तर्पयतां ब्राह्मणांश्च नमस्यताम् |
3018 | 6045021c | आज्यगन्धप्रतिवहः सुरभिर्मारुतो ववौ |
3019 | 6045022a | स्रजश्च विविधाकारा जगृहुस्त्वभिमन्त्रिताः |
3020 | 6045022c | संग्रामसज्जाः संहृष्टा धारयन्राक्षसास्तदा |
3021 | 6045023a | सधनुष्काः कवचिनो वेगादाप्लुत्य राक्षसाः |
3022 | 6045023c | रावणं प्रेक्ष्य राजानं प्रहस्तं पर्यवारयन् |
3023 | 6045024a | अथामन्त्र्य च राजानं भेरीमाहत्य भैरवाम् |
3024 | 6045024c | आरुरोह रथं दिव्यं प्रहस्तः सज्जकल्पितम् |
3025 | 6045025a | हयैर्महाजवैर्युक्तं सम्यक्सूतसुसंयुतम् |
3026 | 6045025c | महाजलदनिर्घोषं साक्षाच्चन्द्रार्कभास्वरम् |
3027 | 6045026a | उरगध्वजदुर्धर्षं सुवरूथं स्वपस्करम् |
3028 | 6045026c | सुवर्णजालसंयुक्तं प्रहसन्तमिव श्रिया |
3029 | 6045027a | ततस्तं रथमास्थाय रावणार्पितशासनः |
3030 | 6045027c | लङ्काया निर्ययौ तूर्णं बलेन महता वृतः |
3031 | 6045028a | ततो दुंदुभिनिर्घोषः पर्जन्यनिनदोपमः |
3032 | 6045028c | शुश्रुवे शङ्खशब्दश्च प्रयाते वाहिनीपतौ |
3033 | 6045029a | निनदन्तः स्वरान्घोरान्राक्षसा जग्मुरग्रतः |
3034 | 6045029c | भीमरूपा महाकायाः प्रहस्तस्य पुरःसराः |
3035 | 6045030a | व्यूढेनैव सुघोरेण पूर्वद्वारात्स निर्ययौ |
3036 | 6045030c | गजयूथनिकाशेन बलेन महता वृतः |
3037 | 6045031a | सागरप्रतिमौघेन वृतस्तेन बलेन सः |
3038 | 6045031c | प्रहस्तो निर्ययौ तूर्णं क्रुद्धः कालान्तकोपमः |
3039 | 6045032a | तस्य निर्याण घोषेण राक्षसानां च नर्दताम् |
3040 | 6045032c | लङ्कायां सर्वभूतानि विनेदुर्विकृतैः स्वरैः |
3041 | 6045033a | व्यभ्रमाकाशमाविश्य मांसशोणितभोजनाः |
3042 | 6045033c | मण्डलान्यपसव्यानि खगाश्चक्रू रथं प्रति |
3043 | 6045034a | वमन्त्यः पावकज्वालाः शिवा घोरा ववाशिरे |
3044 | 6045035a | अन्तरिक्षात्पपातोल्का वायुश्च परुषो ववौ |
3045 | 6045035c | अन्योन्यमभिसंरब्धा ग्रहाश्च न चकाशिरे |
3046 | 6045036a | ववर्षू रुधिरं चास्य सिषिचुश्च पुरःसरान् |
3047 | 6045036c | केतुमूर्धनि गृध्रोऽस्य विलीनो दक्षिणामुखः |
3048 | 6045037a | सारथेर्बहुशश्चास्य संग्राममवगाहतः |
3049 | 6045037c | प्रतोदो न्यपतद्धस्तात्सूतस्य हयसादिनः |
3050 | 6045038a | निर्याण श्रीश्च यास्यासीद्भास्वरा च सुदुर्लभा |
3051 | 6045038c | सा ननाश मुहूर्तेन समे च स्खलिता हयाः |
3052 | 6045039a | प्रहस्तं त्वभिनिर्यान्तं प्रख्यात बलपौरुषम् |
3053 | 6045039c | युधि नानाप्रहरणा कपिसेनाभ्यवर्तत |
3054 | 6045040a | अथ घोषः सुतुमुलो हरीणां समजायत |
3055 | 6045040c | वृक्षानारुजतां चैव गुर्वीश्चागृह्णतां शिलाः |
3056 | 6045041a | उभे प्रमुदिते सैन्ये रक्षोगणवनौकसाम् |
3057 | 6045041c | वेगितानां समर्थानामन्योन्यवधकाङ्क्षिणाम् |
3058 | 6045041e | परस्परं चाह्वयतां निनादः श्रूयते महान् |
3059 | 6045042a | ततः प्रहस्तः कपिराजवाहिनी;मभिप्रतस्थे विजयाय दुर्मतिः |
3060 | 6045042c | विवृद्धवेगां च विवेश तां चमूं; यथा मुमूर्षुः शलभो विभावसुम् |
3061 | 6046001a | ततः प्रहस्तं निर्यान्तं भीमं भीमपराक्रमम् |
3062 | 6046001c | गर्जन्तं सुमहाकायं राक्षसैरभिसंवृतम् |
3063 | 6046002a | ददर्श महती सेना वानराणां बलीयसाम् |
3064 | 6046002c | अतिसंजातरोषाणां प्रहस्तमभिगर्जताम् |
3065 | 6046003a | खड्गशक्त्यष्टिबाणाश्च शूलानि मुसलानि च |
3066 | 6046003c | गदाश्च परिघाः प्रासा विविधाश्च परश्वधाः |
3067 | 6046004a | धनूंषि च विचित्राणि राक्षसानां जयैषिणाम् |
3068 | 6046004c | प्रगृहीतान्यशोभन्त वानरानभिधावताम् |
3069 | 6046005a | जगृहुः पादपांश्चापि पुष्पितान्वानरर्षभाः |
3070 | 6046005c | शिलाश्च विपुला दीर्घा योद्धुकामाः प्लवंगमाः |
3071 | 6046006a | तेषामन्योन्यमासाद्य संग्रामः सुमहानभूत् |
3072 | 6046006c | बहूनामश्मवृष्टिं च शरवृष्टिं च वर्षताम् |
3073 | 6046007a | बहवो राक्षसा युद्धे बहून्वानरयूथपान् |
3074 | 6046007c | वानरा राक्षसांश्चापि निजघ्नुर्बहवो बहून् |
3075 | 6046008a | शूलैः प्रमथिताः केचित्केचित्तु परमायुधैः |
3076 | 6046008c | परिघैराहताः केचित्केचिच्छिन्नाः परश्वधैः |
3077 | 6046009a | निरुच्छ्वासाः पुनः केचित्पतिता धरणीतले |
3078 | 6046009c | विभिन्नहृदयाः केचिदिषुसंतानसंदिताः |
3079 | 6046010a | केचिद्द्विधाकृताः खड्गैः स्फुरन्तः पतिता भुवि |
3080 | 6046010c | वानरा राक्षसैः शूलैः पार्श्वतश्च विदारिताः |
3081 | 6046011a | वानरैश्चापि संक्रुद्धै राक्षसौघाः समन्ततः |
3082 | 6046011c | पादपैर्गिरिशृङ्गैश्च संपिष्टा वसुधातले |
3083 | 6046012a | वज्रस्पर्शतलैर्हस्तैर्मुष्टिभिश्च हता भृशम् |
3084 | 6046012c | वेमुः शोणितमास्येभ्यो विशीर्णदशनेक्षणः |
3085 | 6046013a | आर्तस्वरं च स्वनतां सिंहनादं च नर्दताम् |
3086 | 6046013c | बभूव तुमुलः शब्दो हरीणां रक्षसां युधि |
3087 | 6046014a | वानरा राक्षसाः क्रुद्धा वीरमार्गमनुव्रताः |
3088 | 6046014c | विवृत्तनयनाः क्रूराश्चक्रुः कर्माण्यभीतवत् |
3089 | 6046015a | नरान्तकः कुम्भहनुर्महानादः समुन्नतः |
3090 | 6046015c | एते प्रहस्तसचिवाः सर्वे जघ्नुर्वनौकसः |
3091 | 6046016a | तेषामापततां शीघ्रं निघ्नतां चापि वानरान् |
3092 | 6046016c | द्विविदो गिरिशृङ्गेण जघानैकं नरान्तकम् |
3093 | 6046017a | दुर्मुखः पुनरुत्पाट्य कपिः स विपुलद्रुमम् |
3094 | 6046017c | राक्षसं क्षिप्रहस्तस्तु समुन्नतमपोथयत् |
3095 | 6046018a | जाम्बवांस्तु सुसंक्रुद्धः प्रगृह्य महतीं शिलाम् |
3096 | 6046018c | पातयामास तेजस्वी महानादस्य वक्षसि |
3097 | 6046019a | अथ कुम्भहनुस्तत्र तारेणासाद्य वीर्यवान् |
3098 | 6046019c | वृक्षेणाभिहतो मूर्ध्नि प्राणांस्तत्याज राक्षसः |
3099 | 6046020a | अमृष्यमाणस्तत्कर्म प्रहस्तो रथमास्थितः |
3100 | 6046020c | चकार कदनं घोरं धनुष्पाणिर्वनौकसाम् |
3101 | 6046021a | आवर्त इव संजज्ञे उभयोः सेनयोस्तदा |
3102 | 6046021c | क्षुभितस्याप्रमेयस्य सागरस्येव निस्वनः |
3103 | 6046022a | महता हि शरौघेण प्रहस्तो युद्धकोविदः |
3104 | 6046022c | अर्दयामास संक्रुद्धो वानरान्परमाहवे |
3105 | 6046023a | वानराणां शरीरैस्तु राक्षसानां च मेदिनी |
3106 | 6046023c | बभूव निचिता घोरा पतितैरिव पर्वतैः |
3107 | 6046024a | सा महीरुधिरौघेण प्रच्छन्ना संप्रकाशते |
3108 | 6046024c | संछन्ना माधवे मासि पलाशैरिव पुष्पितैः |
3109 | 6046025a | हतवीरौघवप्रां तु भग्नायुधमहाद्रुमाम् |
3110 | 6046025c | शोणितौघमहातोयां यमसागरगामिनीम् |
3111 | 6046026a | यकृत्प्लीहमहापङ्कां विनिकीर्णान्त्रशैवलाम् |
3112 | 6046026c | भिन्नकायशिरोमीनामङ्गावयवशाड्वलाम् |
3113 | 6046027a | गृध्रहंसगणाकीर्णां कङ्कसारससेविताम् |
3114 | 6046027c | मेधःफेनसमाकीर्णामार्तस्तनितनिस्वनाम् |
3115 | 6046028a | तां कापुरुषदुस्तारां युद्धभूमिमयीं नदीम् |
3116 | 6046028c | नदीमिव घनापाये हंससारससेविताम् |
3117 | 6046029a | राक्षसाः कपिमुख्याश्च तेरुस्तां दुस्तरां नदीम् |
3118 | 6046029c | यथा पद्मरजोध्वस्तां नलिनीं गजयूथपाः |
3119 | 6046030a | ततः सृजन्तं बाणौघान्प्रहस्तं स्यन्दने स्थितम् |
3120 | 6046030c | ददर्श तरसा नीलो विनिघ्नन्तं प्लवंगमान् |
3121 | 6046031a | स तं परमदुर्धर्षमापतन्तं महाकपिः |
3122 | 6046031c | प्रहस्तं ताडयामास वृक्षमुत्पाट्य वीर्यवान् |
3123 | 6046032a | स तेनाभिहतः क्रुद्धो नदन्राक्षसपुंगवः |
3124 | 6046032c | ववर्ष शरवर्षाणि प्लवगानां चमूपतौ |
3125 | 6046033a | अपारयन्वारयितुं प्रत्यगृह्णान्निमीलितः |
3126 | 6046033c | यथैव गोवृषो वर्षं शारदं शीघ्रमागतम् |
3127 | 6046034a | एवमेव प्रहस्तस्य शरवर्षं दुरासदम् |
3128 | 6046034c | निमीलिताक्षः सहसा नीलः सेहे सुदारुणम् |
3129 | 6046035a | रोषितः शरवर्षेण सालेन महता महान् |
3130 | 6046035c | प्रजघान हयान्नीलः प्रहस्तस्य मनोजवान् |
3131 | 6046036a | विधनुस्तु कृतस्तेन प्रहस्तो वाहिनीपतिः |
3132 | 6046036c | प्रगृह्य मुसलं घोरं स्यन्दनादवपुप्लुवे |
3133 | 6046037a | तावुभौ वाहिनीमुख्यौ जातरोषौ तरस्विनौ |
3134 | 6046037c | स्थितौ क्षतजदिग्धाङ्गौ प्रभिन्नाविव कुञ्जरौ |
3135 | 6046038a | उल्लिखन्तौ सुतीक्ष्णाभिर्दंष्ट्राभिरितरेतरम् |
3136 | 6046038c | सिंहशार्दूलसदृशौ सिंहशार्दूलचेष्टितौ |
3137 | 6046039a | विक्रान्तविजयौ वीरौ समरेष्वनिवर्तिनौ |
3138 | 6046039c | काङ्क्षमाणौ यशः प्राप्तुं वृत्रवासवयोः समौ |
3139 | 6046040a | आजघान तदा नीलं ललाटे मुसलेन सः |
3140 | 6046040c | प्रहस्तः परमायस्तस्तस्य सुस्राव शोणितम् |
3141 | 6046041a | ततः शोणितदिग्धाङ्गः प्रगृह्य सुमहातरुम् |
3142 | 6046041c | प्रहस्तस्योरसि क्रुद्धो विससर्ज महाकपिः |
3143 | 6046042a | तमचिन्त्यप्रहारं स प्रगृह्य मुसलं महत् |
3144 | 6046042c | अभिदुद्राव बलिनं बली नीलं प्लवंगमम् |
3145 | 6046043a | तमुग्रवेगं संरब्धमापतन्तं महाकपिः |
3146 | 6046043c | ततः संप्रेक्ष्य जग्राह महावेगो महाशिलाम् |
3147 | 6046044a | तस्य युद्धाभिकामस्य मृधे मुसलयोधिनः |
3148 | 6046044c | प्रहस्तस्य शिलां नीलो मूर्ध्नि तूर्णमपातयत् |
3149 | 6046045a | सा तेन कपिमुख्येन विमुक्ता महती शिला |
3150 | 6046045c | बिभेद बहुधा घोरा प्रहस्तस्य शिरस्तदा |
3151 | 6046046a | स गतासुर्गतश्रीको गतसत्त्वो गतेन्द्रियः |
3152 | 6046046c | पपात सहसा भूमौ छिन्नमूल इव द्रुमः |
3153 | 6046047a | विभिन्नशिरसस्तस्य बहु सुस्रावशोणितम् |
3154 | 6046047c | शरीरादपि सुस्राव गिरेः प्रस्रवणं यथा |
3155 | 6046048a | हते प्रहस्ते नीलेन तदकम्प्यं महद्बलम् |
3156 | 6046048c | रक्षसामप्रहृष्टानां लङ्कामभिजगाम ह |
3157 | 6046049a | न शेकुः समवस्थातुं निहते वाहिनीपतौ |
3158 | 6046049c | सेतुबन्धं समासाद्य विशीर्णं सलिलं यथा |
3159 | 6046050a | हते तस्मिंश्चमूमुख्ये राक्षसस्ते निरुद्यमाः |
3160 | 6046050c | रक्षःपतिगृहं गत्वा ध्यानमूकत्वमागताः |
3161 | 6046051a | ततस्तु नीलो विजयी महाबलः; प्रशस्यमानः स्वकृतेन कर्मणा |
3162 | 6046051c | समेत्य रामेण सलक्ष्मणेन; प्रहृष्टरूपस्तु बभूव यूथपः |
3163 | 6047001a | तस्मिन्हते राक्षससैन्यपाले; प्लवंगमानामृषभेण युद्धे |
3164 | 6047001c | भीमायुधं सागरतुल्यवेगं; प्रदुद्रुवे राक्षसराजसैन्यम् |
3165 | 6047002a | गत्वा तु रक्षोऽधिपतेः शशंसुः; सेनापतिं पावकसूनुशस्तम् |
3166 | 6047002c | तच्चापि तेषां वचनं निशम्य; रक्षोऽधिपः क्रोधवशं जगाम |
3167 | 6047003a | संख्ये प्रहस्तं निहतं निशम्य; शोकार्दितः क्रोधपरीतचेताः |
3168 | 6047003c | उवाच तान्नैरृतयोधमुख्या;निन्द्रो यथा चामरयोधमुख्यान् |
3169 | 6047004a | नावज्ञा रिपवे कार्या यैरिन्द्रबलसूदनः |
3170 | 6047004c | सूदितः सैन्यपालो मे सानुयात्रः सकुञ्जरः |
3171 | 6047005a | सोऽहं रिपुविनाशाय विजयायाविचारयन् |
3172 | 6047005c | स्वयमेव गमिष्यामि रणशीर्षं तदद्भुतम् |
3173 | 6047006a | अद्य तद्वानरानीकं रामं च सहलक्ष्मणम् |
3174 | 6047006c | निर्दहिष्यामि बाणौघैर्वनं दीप्तैरिवाग्निभिः |
3175 | 6047007a | स एवमुक्त्वा ज्वलनप्रकाशं; रथं तुरंगोत्तमराजियुक्तम् |
3176 | 6047007c | प्रकाशमानं वपुषा ज्वलन्तं; समारुरोहामरराजशत्रुः |
3177 | 6047008a | स शङ्खभेरीपटह प्रणादै;रास्फोटितक्ष्वेडितसिंहनादैः |
3178 | 6047008c | पुण्यैः स्तवैश्चाप्यभिपूज्यमान;स्तदा ययौ राक्षसराजमुख्यः |
3179 | 6047009a | स शैलजीमूतनिकाश रूपै;र्मांसाशनैः पावकदीप्तनेत्रैः |
3180 | 6047009c | बभौ वृतो राक्षसराजमुख्यै;र्भूतैर्वृतो रुद्र इवामरेशः |
3181 | 6047010a | ततो नगर्याः सहसा महौजा; निष्क्रम्य तद्वानरसैन्यमुग्रम् |
3182 | 6047010c | महार्णवाभ्रस्तनितं ददर्श; समुद्यतं पादपशैलहस्तम् |
3183 | 6047011a | तद्राक्षसानीकमतिप्रचण्ड;मालोक्य रामो भुजगेन्द्रबाहुः |
3184 | 6047011c | विभीषणं शस्त्रभृतां वरिष्ठ;मुवाच सेनानुगतः पृथुश्रीः |
3185 | 6047012a | नानापताकाध्वजशस्त्रजुष्टं; प्रासासिशूलायुधचक्रजुष्टम् |
3186 | 6047012c | सैन्यं नगेन्द्रोपमनागजुष्टं; कस्येदमक्षोभ्यमभीरुजुष्टम् |
3187 | 6047013a | ततस्तु रामस्य निशम्य वाक्यं; विभीषणः शक्रसमानवीर्यः |
3188 | 6047013c | शशंस रामस्य बलप्रवेकं; महात्मनां राक्षसपुंगवानाम् |
3189 | 6047014a | योऽसौ गजस्कन्धगतो महात्मा; नवोदितार्कोपमताम्रवक्त्रः |
3190 | 6047014c | प्रकम्पयन्नागशिरोऽभ्युपैति; ह्यकम्पनं त्वेनमवेहि राजन् |
3191 | 6047015a | योऽसौ रथस्थो मृगराजकेतु;र्धून्वन्धनुः शक्रधनुःप्रकाशम् |
3192 | 6047015c | करीव भात्युग्रविवृत्तदंष्ट्रः; स इन्द्रजिन्नाम वरप्रधानः |
3193 | 6047016a | यश्चैष विन्ध्यास्तमहेन्द्रकल्पो; धन्वी रथस्थोऽतिरथोऽतिवीर्यः |
3194 | 6047016c | विस्फारयंश्चापमतुल्यमानं; नाम्नातिकायोऽतिविवृद्धकायः |
3195 | 6047017a | योऽसौ नवार्कोदितताम्रचक्षु;रारुह्य घण्टानिनदप्रणादम् |
3196 | 6047017c | गजं खरं गर्जति वै महात्मा; महोदरो नाम स एष वीरः |
3197 | 6047018a | योऽसौ हयं काञ्चनचित्रभाण्ड;मारुह्य संध्याभ्रगिरिप्रकाशम् |
3198 | 6047018c | प्रासं समुद्यम्य मरीचिनद्धं; पिशाच एषाशनितुल्यवेगः |
3199 | 6047019a | यश्चैष शूलं निशितं प्रगृह्य; विद्युत्प्रभं किंकरवज्रवेगम् |
3200 | 6047019c | वृषेन्द्रमास्थाय गिरिप्रकाश;मायाति सोऽसौ त्रिशिरा यशस्वी |
3201 | 6047020a | असौ च जीमूतनिकाश रूपः; कुम्भः पृथुव्यूढसुजातवक्षाः |
3202 | 6047020c | समाहितः पन्नगराजकेतु;र्विस्फारयन्भाति धनुर्विधून्वन् |
3203 | 6047021a | यश्चैष जाम्बूनदवज्रजुष्टं; दीप्तं सधूमं परिघं प्रगृह्य |
3204 | 6047021c | आयाति रक्षोबलकेतुभूतः; सोऽसौ निकुम्भोऽद्भुतघोरकर्मा |
3205 | 6047022a | यश्चैष चापासिशरौघजुष्टं; पताकिनं पावकदीप्तरूपम् |
3206 | 6047022c | रथं समास्थाय विभात्युदग्रो; नरान्तकोऽसौ नगशृङ्गयोधी |
3207 | 6047023a | यश्चैष नानाविधघोररूपै;र्व्याघ्रोष्ट्रनागेन्द्रमृगेन्द्रवक्त्रैः |
3208 | 6047023c | भूतैर्वृतो भाति विवृत्तनेत्रैः; सोऽसौ सुराणामपि दर्पहन्ता |
3209 | 6047024a | यत्रैतदिन्दुप्रतिमं विभाति;च्छत्त्रं सितं सूक्ष्मशलाकमग्र्यम् |
3210 | 6047024c | अत्रैष रक्षोऽधिपतिर्महात्मा; भूतैर्वृतो रुद्र इवावभाति |
3211 | 6047025a | असौ किरीटी चलकुण्डलास्यो; नागेन्द्रविन्ध्योपमभीमकायः |
3212 | 6047025c | महेन्द्रवैवस्वतदर्पहन्ता; रक्षोऽधिपः सूर्य इवावभाति |
3213 | 6047026a | प्रत्युवाच ततो रामो विभीषणमरिंदमम् |
3214 | 6047026c | अहो दीप्तो महातेजा रावणो राक्षसेश्वरः |
3215 | 6047027a | आदित्य इव दुष्प्रेक्ष्यो रश्मिभिर्भाति रावणः |
3216 | 6047027c | सुव्यक्तं लक्षये ह्यस्य रूपं तेजःसमावृतम् |
3217 | 6047028a | देवदानववीराणां वपुर्नैवंविधं भवेत् |
3218 | 6047028c | यादृशं राक्षसेन्द्रस्य वपुरेतत्प्रकाशते |
3219 | 6047029a | सर्वे पर्वतसंकाशाः सर्वे पर्वतयोधिनः |
3220 | 6047029c | सर्वे दीप्तायुधधरा योधश्चास्य महौजसः |
3221 | 6047030a | भाति राक्षसराजोऽसौ प्रदीप्तैर्भीमविक्रमैः |
3222 | 6047030c | भूतैः परिवृतस्तीक्ष्णैर्देहवद्भिरिवान्तकः |
3223 | 6047031a | एवमुक्त्वा ततो रामो धनुरादाय वीर्यवान् |
3224 | 6047031c | लक्ष्मणानुचरस्तस्थौ समुद्धृत्य शरोत्तमम् |
3225 | 6047032a | ततः स रक्षोऽधिपतिर्महात्मा; रक्षांसि तान्याह महाबलानि |
3226 | 6047032c | द्वारेषु चर्यागृहगोपुरेषु; सुनिर्वृतास्तिष्ठत निर्विशङ्काः |
3227 | 6047033a | विसर्जयित्वा सहसा ततस्ता;न्गतेषु रक्षःसु यथानियोगम् |
3228 | 6047033c | व्यदारयद्वानरसागरौघं; महाझषः पूर्ममिवार्णवौघम् |
3229 | 6047034a | तमापतन्तं सहसा समीक्ष्य; दीप्तेषुचापं युधि राक्षसेन्द्रम् |
3230 | 6047034c | महत्समुत्पाट्य महीधराग्रं; दुद्राव रक्षोऽधिपतिं हरीशः |
3231 | 6047035a | तच्छैलशृङ्गं बहुवृक्षसानुं; प्रगृह्य चिक्षेप निशाचराय |
3232 | 6047035c | तमापतन्तं सहसा समीक्ष्य; बिभेद बाणैस्तपनीयपुङ्खैः |
3233 | 6047036a | तस्मिन्प्रवृद्धोत्तमसानुवृक्षे; शृङ्गे विकीर्णे पतिते पृथिव्याम् |
3234 | 6047036c | महाहिकल्पं शरमन्तकाभं; समाददे राक्षसलोकनाथः |
3235 | 6047037a | स तं गृहीत्वानिलतुल्यवेगं; सविस्फुलिङ्गज्वलनप्रकाशम् |
3236 | 6047037c | बाणं महेन्द्राशनितुल्यवेगं; चिक्षेप सुग्रीववधाय रुष्टः |
3237 | 6047038a | स सायको रावणबाहुमुक्तः; शक्राशनिप्रख्यवपुः शिताग्रः |
3238 | 6047038c | सुग्रीवमासाद्य बिभेद वेगा;द्गुहेरिता क्रौचमिवोग्रशक्तिः |
3239 | 6047039a | स सायकार्तो विपरीतचेताः; कूजन्पृथिव्यां निपपात वीरः |
3240 | 6047039c | तं प्रेक्ष्य भूमौ पतितं विसंज्मं; नेदुः प्रहृष्टा युधि यातुधानाः |
3241 | 6047040a | ततो गवाक्षो गवयः सुदंष्ट्र;स्तथर्षभो ज्योतिमुखो नलश्च |
3242 | 6047040c | शैलान्समुद्यम्य विवृद्धकायाः; प्रदुद्रुवुस्तं प्रति राक्षसेन्द्रम् |
3243 | 6047041a | तेषां प्रहारान्स चकार मेघा;न्रक्षोऽधिपो बाणगणैः शिताग्रैः |
3244 | 6047041c | तान्वानरेन्द्रानपि बाणजालै;र्बिभेद जाम्बूनदचित्रपुङ्खैः |
3245 | 6047042a | ते वानरेन्द्रास्त्रिदशारिबाणै;र्भिन्ना निपेतुर्भुवि भीमरूपाः |
3246 | 6047042c | ततस्तु तद्वानरसैन्यमुग्रं; प्रच्छादयामास स बाणजालैः |
3247 | 6047043a | ते वध्यमानाः पतिताग्र्यवीरा; नानद्यमाना भयशल्यविद्धाः |
3248 | 6047043c | शाखामृगा रावणसायकार्ता; जग्मुः शरण्यं शरणं स्म रामम् |
3249 | 6047044a | ततो महात्मा स धनुर्धनुष्मा;नादाय रामः सहरा जगाम |
3250 | 6047044c | तं लक्ष्मणः प्राञ्जलिरभ्युपेत्य; उवाच वाक्यं परमार्थयुक्तम् |
3251 | 6047045a | काममार्यः सुपर्याप्तो वधायास्य दुरात्मनः |
3252 | 6047045c | विधमिष्याम्यहं नीचमनुजानीहि मां विभो |
3253 | 6047046a | तमब्रवीन्महातेजा रामः सत्यपराक्रमः |
3254 | 6047046c | गच्छ यत्नपरश्चापि भव लक्ष्मण संयुगे |
3255 | 6047047a | रावणो हि महावीर्यो रणेऽद्भुतपराक्रमः |
3256 | 6047047c | त्रैलोक्येनापि संक्रुद्धो दुष्प्रसह्यो न संशयः |
3257 | 6047048a | तस्य च्छिद्राणि मार्गस्व स्वच्छिद्राणि च गोपय |
3258 | 6047048c | चक्षुषा धनुषा यत्नाद्रक्षात्मानं समाहितः |
3259 | 6047049a | राघवस्य वचः श्रुत्वा संपरिष्वज्य पूज्य च |
3260 | 6047049c | अभिवाद्य ततो रामं ययौ सौमित्रिराहवम् |
3261 | 6047050a | स रावणं वारणहस्तबाहु;र्ददर्श दीप्तोद्यतभीमचापम् |
3262 | 6047050c | प्रच्छादयन्तं शरवृष्टिजालै;स्तान्वानरान्भिन्नविकीर्णदेहान् |
3263 | 6047051a | तमालोक्य महातेजा हनूमान्मारुतात्मजा |
3264 | 6047051c | निवार्य शरजालानि प्रदुद्राव स रावणम् |
3265 | 6047052a | रथं तस्य समासाद्य भुजमुद्यम्य दक्षिणम् |
3266 | 6047052c | त्रासयन्रावणं धीमान्हनूमान्वाक्यमब्रवीत् |
3267 | 6047053a | देवदानवगन्धर्वा यक्षाश्च सह राक्षसैः |
3268 | 6047053c | अवध्यत्वात्त्वया भग्ना वानरेभ्यस्तु ते भयम् |
3269 | 6047054a | एष मे दक्षिणो बाहुः पञ्चशाखः समुद्यतः |
3270 | 6047054c | विधमिष्यति ते देहाद्भूतात्मानं चिरोषितम् |
3271 | 6047055a | श्रुत्वा हनूमतो वाक्यं रावणो भीमविक्रमः |
3272 | 6047055c | संरक्तनयनः क्रोधादिदं वचनमब्रवीत् |
3273 | 6047056a | क्षिप्रं प्रहर निःशङ्कं स्थिरां कीर्तिमवाप्नुहि |
3274 | 6047056c | ततस्त्वां ज्ञातिविक्रान्तं नाशयिष्यामि वानर |
3275 | 6047057a | रावणस्य वचः श्रुत्वा वायुसूनुर्वचोऽब्रवीत् |
3276 | 6047057c | प्रहृतं हि मया पूर्वमक्षं स्मर सुतं तव |
3277 | 6047058a | एवमुक्तो महातेजा रावणो राक्षसेश्वरः |
3278 | 6047058c | आजघानानिलसुतं तलेनोरसि वीर्यवान् |
3279 | 6047059a | स तलाभिहतस्तेन चचाल च मुहुर्मुहुः |
3280 | 6047059c | आजघानाभिसंक्रुद्धस्तलेनैवामरद्विषम् |
3281 | 6047060a | ततस्तलेनाभिहतो वानरेण महात्मना |
3282 | 6047060c | दशग्रीवः समाधूतो यथा भूमिचलेऽचलः |
3283 | 6047061a | संग्रामे तं तथा दृष्ट्व रावणं तलताडितम् |
3284 | 6047061c | ऋषयो वानराः सिद्धा नेदुर्देवाः सहासुराः |
3285 | 6047062a | अथाश्वस्य महातेजा रावणो वाक्यमब्रवीत् |
3286 | 6047062c | साधु वानरवीर्येण श्लाघनीयोऽसि मे रिपुः |
3287 | 6047063a | रावणेनैवमुक्तस्तु मारुतिर्वाक्यमब्रवीत् |
3288 | 6047063c | धिगस्तु मम वीर्यं तु यत्त्वं जीवसि रावण |
3289 | 6047064a | सकृत्तु प्रहरेदानीं दुर्बुद्धे किं विकत्थसे |
3290 | 6047064c | ततस्त्वां मामको मुष्टिर्नयिष्यामि यथाक्षयम् |
3291 | 6047064e | ततो मारुतिवाक्येन क्रोधस्तस्य तदाज्वलत् |
3292 | 6047065a | संरक्तनयनो यत्नान्मुष्टिमुद्यम्य दक्षिणम् |
3293 | 6047065c | पातयामास वेगेन वानरोरसि वीर्यवान् |
3294 | 6047065e | हनूमान्वक्षसि व्यूधे संचचाल हतः पुनः |
3295 | 6047066a | विह्वलं तं तदा दृष्ट्वा हनूमन्तं महाबलम् |
3296 | 6047066c | रथेनातिरथः शीघ्रं नीलं प्रति समभ्यगात् |
3297 | 6047067a | पन्नगप्रतिमैर्भीमैः परमर्मातिभेदिभिः |
3298 | 6047067c | शरैरादीपयामास नीलं हरिचमूपतिम् |
3299 | 6047068a | स शरौघसमायस्तो नीलः कपिचमूपतिः |
3300 | 6047068c | करेणैकेन शैलाग्रं रक्षोऽधिपतयेऽसृजत् |
3301 | 6047069a | हनूमानपि तेजस्वी समाश्वस्तो महामनाः |
3302 | 6047069c | विप्रेक्षमाणो युद्धेप्सुः सरोषमिदमब्रवीत् |
3303 | 6047070a | नीलेन सह संयुक्तं रावणं राक्षसेश्वरम् |
3304 | 6047070c | अन्येन युध्यमानस्य न युक्तमभिधावनम् |
3305 | 6047071a | रावणोऽपि महातेजास्तच्छृङ्गं सप्तभिः शरैः |
3306 | 6047071c | आजघान सुतीक्ष्णाग्रैस्तद्विकीर्णं पपात ह |
3307 | 6047072a | तद्विकीर्णं गिरेः शृङ्गं दृष्ट्वा हरिचमूपतिः |
3308 | 6047072c | कालाग्निरिव जज्वाल क्रोधेन परवीरहा |
3309 | 6047073a | सोऽश्वकर्णान्धवान्सालांश्चूतांश्चापि सुपुष्पितान् |
3310 | 6047073c | अन्यांश्च विविधान्वृक्षान्नीलश्चिक्षेप संयुगे |
3311 | 6047074a | स तान्वृक्षान्समासाद्य प्रतिचिच्छेद रावणः |
3312 | 6047074c | अभ्यवर्षत्सुघोरेण शरवर्षेण पावकिम् |
3313 | 6047075a | अभिवृष्टः शरौघेण मेघेनेव महाचलः |
3314 | 6047075c | ह्रस्वं कृत्वा तदा रूपं ध्वजाग्रे निपपात ह |
3315 | 6047076a | पावकात्मजमालोक्य ध्वजाग्रे समवस्थितम् |
3316 | 6047076c | जज्वाल रावणः क्रोधात्ततो नीलो ननाद ह |
3317 | 6047077a | ध्वजाग्रे धनुषश्चाग्रे किरीटाग्रे च तं हरिम् |
3318 | 6047077c | लक्ष्मणोऽथ हनूमांश्च दृष्ट्वा रामश्च विस्मिताः |
3319 | 6047078a | रावणोऽपि महातेजाः कपिलाघवविस्मितः |
3320 | 6047078c | अस्त्रमाहारयामास दीप्तमाग्नेयमद्भुतम् |
3321 | 6047079a | ततस्ते चुक्रुशुर्हृष्टा लब्धलक्ष्याः प्लवंगमाः |
3322 | 6047079c | नीललाघवसंभ्रान्तं दृष्ट्वा रावणमाहवे |
3323 | 6047080a | वानराणां च नादेन संरब्धो रावणस्तदा |
3324 | 6047080c | संभ्रमाविष्टहृदयो न किंचित्प्रत्यपद्यत |
3325 | 6047081a | आग्नेयेनाथ संयुक्तं गृहीत्वा रावणः शरम् |
3326 | 6047081c | ध्वजशीर्षस्थितं नीलमुदैक्षत निशाचरः |
3327 | 6047082a | ततोऽब्रवीन्महातेजा रावणो राक्षसेश्वरः |
3328 | 6047082c | कपे लाघवयुक्तोऽसि मायया परयानया |
3329 | 6047083a | जीवितं खलु रक्षस्व यदि शक्नोषि वानर |
3330 | 6047083c | तानि तान्यात्मरूपाणि सृजसे त्वमनेकशः |
3331 | 6047084a | तथापि त्वां मया मुक्तः सायकोऽस्त्रप्रयोजितः |
3332 | 6047084c | जीवितं परिरक्षन्तं जीविताद्भ्रंशयिष्यति |
3333 | 6047085a | एवमुक्त्वा महाबाहू रावणो राक्षसेश्वरः |
3334 | 6047085c | संधाय बाणमस्त्रेण चमूपतिमताडयत् |
3335 | 6047086a | सोऽस्त्रयुक्तेन बाणेन नीलो वक्षसि ताडितः |
3336 | 6047086c | निर्दह्यमानः सहसा निपपात महीतले |
3337 | 6047087a | पितृमाहात्म्य संयोगादात्मनश्चापि तेजसा |
3338 | 6047087c | जानुभ्यामपतद्भूमौ न च प्राणैर्व्ययुज्यत |
3339 | 6047088a | विसंज्ञं वानरं दृष्ट्वा दशग्रीवो रणोत्सुकः |
3340 | 6047088c | रथेनाम्बुदनादेन सौमित्रिमभिदुद्रुवे |
3341 | 6047089a | तमाह सौमित्रिरदीनसत्त्वो; विस्फारयन्तं धनुरप्रमेयम् |
3342 | 6047089c | अन्वेहि मामेव निशाचरेन्द्र; न वानरांस्त्वं प्रति योद्धुमर्हसि |
3343 | 6047090a | स तस्य वाक्यं परिपूर्णघोषं; ज्याशब्दमुग्रं च निशम्य राजा |
3344 | 6047090c | आसाद्य सौमित्रिमवस्थितं तं; कोपान्वितं वाक्यमुवाच रक्षः |
3345 | 6047091a | दिष्ट्यासि मे राघव दृष्टिमार्गं; प्राप्तोऽन्तगामी विपरीतबुद्धिः |
3346 | 6047091c | अस्मिन्क्षणे यास्यसि मृत्युदेशं; संसाद्यमानो मम बाणजालैः |
3347 | 6047092a | तमाह सौमित्रिरविस्मयानो; गर्जन्तमुद्वृत्तसिताग्रदंष्ट्रम् |
3348 | 6047092c | राजन्न गर्जन्ति महाप्रभावा; विकत्थसे पापकृतां वरिष्ठ |
3349 | 6047093a | जानामि वीर्यं तव राक्षसेन्द्र; बलं प्रतापं च पराक्रमं च |
3350 | 6047093c | अवस्थितोऽहं शरचापपाणि;रागच्छ किं मोघविकत्थनेन |
3351 | 6047094a | स एवमुक्तः कुपितः ससर्ज; रक्षोऽधिपः सप्तशरान्सुपुङ्खान् |
3352 | 6047094c | ताँल्लक्ष्मणः काञ्चनचित्रपुङ्खै;श्चिच्छेद बाणैर्निशिताग्रधारैः |
3353 | 6047095a | तान्प्रेक्षमाणः सहसा निकृत्ता;न्निकृत्तभोगानिव पन्नगेन्द्रान् |
3354 | 6047095c | लङ्केश्वरः क्रोधवशं जगाम; ससर्ज चान्यान्निशितान्पृषत्कान् |
3355 | 6047096a | स बाणवर्षं तु ववर्ष तीव्रं; रामानुजः कार्मुकसंप्रयुक्तम् |
3356 | 6047096c | क्षुरार्धचन्द्रोत्तमकर्णिभल्लैः; शरांश्च चिच्छेद न चुक्षुभे च |
3357 | 6047097a | स लक्ष्मणश्चाशु शराञ्शिताग्रा;न्महेन्द्रवज्राशनितुल्यवेगान् |
3358 | 6047097c | संधाय चापे ज्वलनप्रकाशा;न्ससर्ज रक्षोऽधिपतेर्वधाय |
3359 | 6047098a | स तान्प्रचिच्छेद हि राक्षसेन्द्र;श्छित्त्वा च ताँल्लक्ष्मणमाजघान |
3360 | 6047098c | शरेण कालाग्निसमप्रभेण; स्वयम्भुदत्तेन ललाटदेशे |
3361 | 6047099a | स लक्ष्मणो रावणसायकार्त;श्चचाल चापं शिथिलं प्रगृह्य |
3362 | 6047099c | पुनश्च संज्ञां प्रतिलभ्य कृच्छ्रा;च्चिच्छेद चापं त्रिदशेन्द्रशत्रोः |
3363 | 6047100a | निकृत्तचापं त्रिभिराजघान; बाणैस्तदा दाशरथिः शिताग्रैः |
3364 | 6047100c | स सायकार्तो विचचाल राजा; कृच्छ्राच्च संज्ञां पुनराससाद |
3365 | 6047101a | स कृत्तचापः शरताडितश्च; स्वेदार्द्रगात्रो रुधिरावसिक्तः |
3366 | 6047101c | जग्राह शक्तिं समुदग्रशक्तिः; स्वयम्भुदत्तां युधि देवशत्रुः |
3367 | 6047102a | स तां विधूमानलसंनिकाशां; वित्रासनीं वानरवाहिनीनाम् |
3368 | 6047102c | चिक्षेप शक्तिं तरसा ज्वलन्तीं; सौमित्रये राक्षसराष्ट्रनाथः |
3369 | 6047103a | तामापतन्तीं भरतानुजोऽस्त्रै;र्जघान बाणैश्च हुताग्निकल्पैः |
3370 | 6047103c | तथापि सा तस्य विवेश शक्ति;र्भुजान्तरं दाशरथेर्विशालम् |
3371 | 6047104a | शक्त्या ब्राम्या तु सौमित्रिस्ताडितस्तु स्तनान्तरे |
3372 | 6047104c | विष्णोरचिन्त्यं स्वं भागमात्मानं प्रत्यनुस्मरत् |
3373 | 6047105a | ततो दानवदर्पघ्नं सौमित्रिं देवकण्टकः |
3374 | 6047105c | तं पीडयित्वा बाहुभ्यामप्रभुर्लङ्घनेऽभवत् |
3375 | 6047106a | हिमवान्मन्दरो मेरुस्त्रैलोक्यं वा सहामरैः |
3376 | 6047106c | शक्यं भुजाभ्यामुद्धर्तुं न संख्ये भरतानुजः |
3377 | 6047107a | अथैनं वैष्णवं भागं मानुषं देहमास्थितम् |
3378 | 6047107c | विसंज्ञं लक्ष्मणं दृष्ट्वा रावणो विस्मितोऽभवत् |
3379 | 6047108a | अथ वायुसुतः क्रुद्धो रावणं समभिद्रवत् |
3380 | 6047108c | आजघानोरसि क्रुद्धो वज्रकल्पेन मुष्टिना |
3381 | 6047109a | तेन मुष्टिप्रहारेण रावणो राक्षसेश्वरः |
3382 | 6047109c | जानुभ्यामपतद्भूमौ चचाल च पपात च |
3383 | 6047110a | विसंज्ञं रावणं दृष्ट्वा समरे भीमविक्रमम् |
3384 | 6047110c | ऋषयो वानराश्चैव नेदुर्देवाः सवासवाः |
3385 | 6047111a | हनूमानपि तेजस्वी लक्ष्मणं रावणार्दितम् |
3386 | 6047111c | अनयद्राघवाभ्याशं बाहुभ्यां परिगृह्य तम् |
3387 | 6047112a | वायुसूनोः सुहृत्त्वेन भक्त्या परमया च सः |
3388 | 6047112c | शत्रूणामप्रकम्प्योऽपि लघुत्वमगमत्कपेः |
3389 | 6047113a | तं समुत्सृज्य सा शक्तिः सौमित्रिं युधि दुर्जयम् |
3390 | 6047113c | रावणस्य रथे तस्मिन्स्थानं पुनरुपागमत् |
3391 | 6047114a | रावणोऽपि महातेजाः प्राप्य संज्ञां महाहवे |
3392 | 6047114c | आददे निशितान्बाणाञ्जग्राह च महद्धनुः |
3393 | 6047115a | आश्वस्तश्च विशल्यश्च लक्ष्मणः शत्रुसूदनः |
3394 | 6047115c | विष्णोर्भागममीमांस्यमात्मानं प्रत्यनुस्मरन् |
3395 | 6047116a | निपातितमहावीरां वानराणां महाचमूम् |
3396 | 6047116c | राघवस्तु रणे दृष्ट्वा रावणं समभिद्रवत् |
3397 | 6047117a | अथैनमुपसंगम्य हनूमान्वाक्यमब्रवीत् |
3398 | 6047117c | मम पृष्ठं समारुह्य रक्षसं शास्तुमर्हसि |
3399 | 6047118a | तच्छ्रुत्वा राघवो वाक्यं वायुपुत्रेण भाषितम् |
3400 | 6047118c | आरोहत्सहसा शूरो हनूमन्तं महाकपिम् |
3401 | 6047118e | रथस्थं रावणं संख्ये ददर्श मनुजाधिपः |
3402 | 6047119a | तमालोक्य महातेजाः प्रदुद्राव स राघवः |
3403 | 6047119c | वैरोचनमिव क्रुद्धो विष्णुरभ्युद्यतायुधः |
3404 | 6047120a | ज्याशब्दमकरोत्तीव्रं वज्रनिष्पेषनिस्वनम् |
3405 | 6047120c | गिरा गम्भीरया रामो राक्षसेन्द्रमुवाच ह |
3406 | 6047121a | तिष्ठ तिष्ठ मम त्वं हि कृत्वा विप्रियमीदृशम् |
3407 | 6047121c | क्व नु राक्षसशार्दूल गतो मोक्षमवाप्स्यसि |
3408 | 6047122a | यदीन्द्रवैवस्वत भास्करान्वा; स्वयम्भुवैश्वानरशंकरान्वा |
3409 | 6047122c | गमिष्यसि त्वं दश वा दिशो वा; तथापि मे नाद्य गतो विमोक्ष्यसे |
3410 | 6047123a | यश्चैष शक्त्याभिहतस्त्वयाद्य; इच्छन्विषादं सहसाभ्युपेतः |
3411 | 6047123c | स एष रक्षोगणराज मृत्युः; सपुत्रदारस्य तवाद्य युद्धे |
3412 | 6047124a | राघवस्य वचः श्रुत्वा राक्षसेन्द्रो महाकपिम् |
3413 | 6047124c | आजघान शरैस्तीक्ष्णैः कालानलशिखोपमैः |
3414 | 6047125a | राक्षसेनाहवे तस्य ताडितस्यापि सायकैः |
3415 | 6047125c | स्वभावतेजोयुक्तस्य भूयस्तेजो व्यवर्धत |
3416 | 6047126a | ततो रामो महातेजा रावणेन कृतव्रणम् |
3417 | 6047126c | दृष्ट्वा प्लवगशार्दूलं क्रोधस्य वशमेयिवान् |
3418 | 6047127a | तस्याभिसंक्रम्य रथं सचक्रं; साश्वध्वजच्छत्रमहापताकम् |
3419 | 6047127c | ससारथिं साशनिशूलखड्गं; रामः प्रचिच्छेद शरैः सुपुङ्खैः |
3420 | 6047128a | अथेन्द्रशत्रुं तरसा जघान; बाणेन वज्राशनिसंनिभेन |
3421 | 6047128c | भुजान्तरे व्यूढसुजातरूपे; वज्रेण मेरुं भगवानिवेन्द्रः |
3422 | 6047129a | यो वज्रपाताशनिसंनिपाता;न्न चुक्षुभे नापि चचाल राजा |
3423 | 6047129c | स रामबाणाभिहतो भृशार्त;श्चचाल चापं च मुमोच वीरः |
3424 | 6047130a | तं विह्वलन्तं प्रसमीक्ष्य रामः; समाददे दीप्तमथार्धचन्द्रम् |
3425 | 6047130c | तेनार्कवर्णं सहसा किरीटं; चिच्छेद रक्षोऽधिपतेर्महात्माः |
3426 | 6047131a | तं निर्विषाशीविषसंनिकाशं; शान्तार्चिषं सूर्यमिवाप्रकाशम् |
3427 | 6047131c | गतश्रियं कृत्तकिरीटकूट;मुवाच रामो युधि राक्षसेन्द्रम् |
3428 | 6047132a | कृतं त्वया कर्म महत्सुभीमं; हतप्रवीरश्च कृतस्त्वयाहम् |
3429 | 6047132c | तस्मात्परिश्रान्त इति व्यवस्य; न त्वं शरैर्मृत्युवशं नयामि |
3430 | 6047133a | स एवमुक्तो हतदर्पहर्षो; निकृत्तचापः स हताश्वसूतः |
3431 | 6047133c | शरार्दितः कृत्तमहाकिरीटो; विवेश लङ्कां सहसा स्म राजा |
3432 | 6047134a | तस्मिन्प्रविष्टे रजनीचरेन्द्रे; महाबले दानवदेवशत्रौ |
3433 | 6047134c | हरीन्विशल्यान्सहलक्ष्मणेन; चकार रामः परमाहवाग्रे |
3434 | 6047135a | तस्मिन्प्रभग्ने त्रिदशेन्द्रशत्रौ; सुरासुरा भूतगणा दिशश्च |
3435 | 6047135c | ससागराः सर्षिमहोरगाश्च; तथैव भूम्यम्बुचराश्च हृष्टाः |
3436 | 6048001a | स प्रविश्य पुरीं लङ्कां रामबाणभयार्दितः |
3437 | 6048001c | भग्नदर्पस्तदा राजा बभूव व्यथितेन्द्रियः |
3438 | 6048002a | मातंग इव सिंहेन गरुडेनेव पन्नगः |
3439 | 6048002c | अभिभूतोऽभवद्राजा राघवेण महात्मना |
3440 | 6048003a | ब्रह्मदण्डप्रकाशानां विद्युत्सदृशवर्चसाम् |
3441 | 6048003c | स्मरन्राघवबाणानां विव्यथे राक्षसेश्वरः |
3442 | 6048004a | स काञ्चनमयं दिव्यमाश्रित्य परमासनम् |
3443 | 6048004c | विक्प्रेक्षमाणो रक्षांसि रावणो वाक्यमब्रवीत् |
3444 | 6048005a | सर्वं तत्खलु मे मोघं यत्तप्तं परमं तपः |
3445 | 6048005c | यत्समानो महेन्द्रेण मानुषेणास्मि निर्जितः |
3446 | 6048006a | इदं तद्ब्रह्मणो घोरं वाक्यं मामभ्युपस्थितम् |
3447 | 6048006c | मानुषेभ्यो विजानीहि भयं त्वमिति तत्तथा |
3448 | 6048007a | देवदानवगन्धर्वैर्यक्षराक्षसपन्नगैः |
3449 | 6048007c | अवध्यत्वं मया प्राप्तं मानुषेभ्यो न याचितम् |
3450 | 6048008a | एतदेवाभ्युपागम्य यत्नं कर्तुमिहार्हथ |
3451 | 6048008c | राक्षसाश्चापि तिष्ठन्तु चर्यागोपुरमूर्धसु |
3452 | 6048009a | स चाप्रतिमगम्भीरो देवदानवदर्पहा |
3453 | 6048009c | ब्रह्मशापाभिभूतस्तु कुम्भकर्णो विबोध्यताम् |
3454 | 6048010a | स पराजितमात्मानं प्रहस्तं च निषूदितम् |
3455 | 6048010c | ज्ञात्वा रक्षोबलं भीममादिदेश महाबलः |
3456 | 6048011a | द्वारेषु यत्नः क्रियतां प्राकाराश्चाधिरुह्यताम् |
3457 | 6048011c | निद्रावशसमाविष्टः कुम्भकर्णो विबोध्यताम् |
3458 | 6048012a | नव षट्सप्त चाष्टौ च मासान्स्वपिति राक्षसः |
3459 | 6048012c | तं तु बोधयत क्षिप्रं कुम्भकर्णं महाबलम् |
3460 | 6048013a | स हि संख्ये महाबाहुः ककुदं सर्वरक्षसाम् |
3461 | 6048013c | वानरान्राजपुत्रौ च क्षिप्रमेव वधिष्यति |
3462 | 6048014a | कुम्भकर्णः सदा शेते मूढो ग्राम्यसुखे रतः |
3463 | 6048014c | रामेणाभिनिरस्तस्य संग्रामोऽस्मिन्सुदारुणे |
3464 | 6048015a | भविष्यति न मे शोकः कुम्भकर्णे विबोधिते |
3465 | 6048015c | किं करिष्याम्यहं तेन शक्रतुल्यबलेन हि |
3466 | 6048016a | ईदृशे व्यसने प्राप्ते यो न साह्याय कल्पते |
3467 | 6048016c | ते तु तद्वचनं श्रुत्वा राक्षसेन्द्रस्य राक्षसाः |
3468 | 6048017a | जग्मुः परमसंभ्रान्ताः कुम्भकर्णनिवेशनम् |
3469 | 6048017c | ते रावणसमादिष्टा मांसशोणितभोजनाः |
3470 | 6048018a | गन्धमाल्यांस्तथा भक्ष्यानादाय सहसा ययुः |
3471 | 6048018c | तां प्रविश्य महाद्वारां सर्वतो योजनायताम् |
3472 | 6048019a | कुम्भकर्णगुहां रम्यां सर्वगन्धप्रवाहिनीम् |
3473 | 6048019c | प्रतिष्ठमानाः कृच्छ्रेण यत्नात्प्रविविशुर्गुहाम् |
3474 | 6048020a | तां प्रविश्य गुहां रम्यां शुभां काञ्चनकुट्टिमाम् |
3475 | 6048020c | ददृशुर्नैरृतव्याघ्रं शयानं भीमदर्शनम् |
3476 | 6048021a | ते तु तं विकृतं सुप्तं विकीर्णमिव पर्वतम् |
3477 | 6048021c | कुम्भकर्णं महानिद्रं सहिताः प्रत्यबोधयन् |
3478 | 6048022a | ऊर्ध्वरोमाञ्चिततनुं श्वसन्तमिव पन्नगम् |
3479 | 6048022c | त्रासयन्तं महाश्वासैः शयानं भीमदर्शनम् |
3480 | 6048023a | भीमनासापुटं तं तु पातालविपुलाननम् |
3481 | 6048023c | ददृशुर्नैरृतव्याघ्रं कुम्भकर्णं महाबलम् |
3482 | 6048024a | ततश्चक्रुर्महात्मानः कुम्भकर्णाग्रतस्तदा |
3483 | 6048024c | मांसानां मेरुसंकाशं राशिं परमतर्पणम् |
3484 | 6048025a | मृगाणां महिषाणां च वराहाणां च संचयान् |
3485 | 6048025c | चक्रुर्नैरृतशार्दूला राशिमन्नस्य चाद्भुतम् |
3486 | 6048026a | ततः शोणितकुम्भांश्च मद्यानि विविधानि च |
3487 | 6048026c | पुरस्तात्कुम्भकर्णस्य चक्रुस्त्रिदशशत्रवः |
3488 | 6048027a | लिलिपुश्च परार्ध्येन चन्दनेन परंतपम् |
3489 | 6048027c | दिव्यैराच्छादयामासुर्माल्यैर्गन्धैः सुगन्धिभिः |
3490 | 6048028a | धूपं सुगन्धं ससृजुस्तुष्टुवुश्च परंतपम् |
3491 | 6048028c | जलदा इव चोनेदुर्यातुधानाः सहस्रशः |
3492 | 6048029a | शङ्खानापूरयामासुः शशाङ्कसदृशप्रभान् |
3493 | 6048029c | तुमुलं युगपच्चापि विनेदुश्चाप्यमर्षिताः |
3494 | 6048030a | नेदुरास्फोटयामासुश्चिक्षिपुस्ते निशाचराः |
3495 | 6048030c | कुम्भकर्णविबोधार्थं चक्रुस्ते विपुलं स्वनम् |
3496 | 6048031a | सशङ्खभेरीपटहप्रणाद;मास्फोटितक्ष्वेडितसिंहनादम् |
3497 | 6048031c | दिशो द्रवन्तस्त्रिदिवं किरन्तः; श्रुत्वा विहंगाः सहसा निपेतुः |
3498 | 6048032a | यदा भृशं तैर्निनदैर्महात्मा; न कुम्भकर्णो बुबुधे प्रसुप्तः |
3499 | 6048032c | ततो मुसुण्डीमुसलानि सर्वे; रक्षोगणास्ते जगृहुर्गदाश्च |
3500 | 6048033a | तं शैलशृङ्गैर्मुसलैर्गदाभि;र्वृक्षैस्तलैर्मुद्गरमुष्टिभिश्च |
3501 | 6048033c | सुखप्रसुप्तं भुवि कुम्भकर्णं; रक्षांस्युदग्राणि तदा निजघ्नुः |
3502 | 6048034a | तस्य निश्वासवातेन कुम्भकर्णस्य रक्षसः |
3503 | 6048034c | राक्षसा बलवन्तोऽपि स्थातुं नाशक्नुवन्पुरः |
3504 | 6048035a | ततोऽस्य पुरतो गाढं राक्षसा भीमविक्रमाः |
3505 | 6048035c | मृदङ्गपणवान्भेरीः शङ्खकुम्भगणांस्तथा |
3506 | 6048035e | दशराक्षससाहस्रं युगपत्पर्यवादयन् |
3507 | 6048036a | नीलाञ्जनचयाकारं ते तु तं प्रत्यबोधयन् |
3508 | 6048036c | अभिघ्नन्तो नदन्तश्च नैव संविविदे तु सः |
3509 | 6048037a | यदा चैनं न शेकुस्ते प्रतिबोधयितुं तदा |
3510 | 6048037c | ततो गुरुतरं यत्नं दारुणं समुपाक्रमन् |
3511 | 6048038a | अश्वानुष्ट्रान्खरान्नागाञ्जघ्नुर्दण्डकशाङ्कुशैः |
3512 | 6048038c | भेरीशङ्खमृदङ्गांश्च सर्वप्राणैरवादयन् |
3513 | 6048039a | निजघ्नुश्चास्य गात्राणि महाकाष्ठकटं करैः |
3514 | 6048039c | मुद्गरैर्मुसलैश्चैव सर्वप्राणसमुद्यतैः |
3515 | 6048040a | तेन शब्देन महता लङ्का समभिपूरिता |
3516 | 6048040c | सपर्वतवना सर्वा सोऽपि नैव प्रबुध्यते |
3517 | 6048041a | ततः सहस्रं भेरीणां युगपत्समहन्यत |
3518 | 6048041c | मृष्टकाञ्चनकोणानामसक्तानां समन्ततः |
3519 | 6048042a | एवमप्यतिनिद्रस्तु यदा नैव प्रबुध्यत |
3520 | 6048042c | शापस्य वशमापन्नस्ततः क्रुद्धा निशाचराः |
3521 | 6048043a | महाक्रोधसमाविष्टाः सर्वे भीमपराक्रमाः |
3522 | 6048043c | तद्रक्षोबोधयिष्यन्तश्चक्रुरन्ये पराक्रमम् |
3523 | 6048044a | अन्ये भेरीः समाजघ्नुरन्ये चक्रुर्महास्वनम् |
3524 | 6048044c | केशानन्ये प्रलुलुपुः कर्णावन्ये दशन्ति च |
3525 | 6048044e | न कुम्भकर्णः पस्पन्दे महानिद्रावशं गतः |
3526 | 6048045a | अन्ये च बलिनस्तस्य कूटमुद्गरपाणयः |
3527 | 6048045c | मूर्ध्नि वक्षसि गात्रेषु पातयन्कूटमुद्गरान् |
3528 | 6048046a | रज्जुबन्धनबद्धाभिः शतघ्नीभिश्च सर्वतः |
3529 | 6048046c | वध्यमानो महाकायो न प्राबुध्यत राक्षसः |
3530 | 6048047a | वारणानां सहस्रं तु शरीरेऽस्य प्रधावितम् |
3531 | 6048047c | कुम्भकर्णस्ततो बुद्धः स्पर्शं परमबुध्यत |
3532 | 6048048a | स पात्यमानैर्गिरिशृङ्गवृक्षै;रचिन्तयंस्तान्विपुलान्प्रहारान् |
3533 | 6048048c | निद्राक्षयात्क्षुद्भयपीडितश्च; विजृम्भमाणः सहसोत्पपात |
3534 | 6048049a | स नागभोगाचलशृङ्गकल्पौ; विक्षिप्य बाहू गिरिशृङ्गसारौ |
3535 | 6048049c | विवृत्य वक्त्रं वडवामुखाभं; निशाचरोऽसौ विकृतं जजृम्भे |
3536 | 6048050a | तस्य जाजृम्भमाणस्य वक्त्रं पातालसंनिभम् |
3537 | 6048050c | ददृशे मेरुशृङ्गाग्रे दिवाकर इवोदितः |
3538 | 6048051a | विजृम्भमाणोऽतिबलः प्रतिबुद्धो निशाचरः |
3539 | 6048051c | निश्वासश्चास्य संजज्ञे पर्वतादिव मारुतः |
3540 | 6048052a | रूपमुत्तिष्ठतस्तस्य कुम्भकर्णस्य तद्बभौ |
3541 | 6048052c | तपान्ते सबलाकस्य मेघस्येव विवर्षतः |
3542 | 6048053a | तस्य दीप्ताग्निसदृशे विद्युत्सदृशवर्चसी |
3543 | 6048053c | ददृशाते महानेत्रे दीप्ताविव महाग्रहौ |
3544 | 6048054a | आदद्बुभुक्षितो मांसं शोणितं तृषितोऽपिबत् |
3545 | 6048054c | मेदः कुम्भं च मद्यं च पपौ शक्ररिपुस्तदा |
3546 | 6048055a | ततस्तृप्त इति ज्ञात्वा समुत्पेतुर्निशाचराः |
3547 | 6048055c | शिरोभिश्च प्रणम्यैनं सर्वतः पर्यवारयन् |
3548 | 6048056a | स सर्वान्सान्त्वयामास नैरृतान्नैरृतर्षभः |
3549 | 6048056c | बोधनाद्विस्मितश्चापि राक्षसानिदमब्रवीत् |
3550 | 6048057a | किमर्थमहमाहत्य भवद्भिः प्रतिबोधितः |
3551 | 6048057c | कच्चित्सुकुशलं राज्ञो भयं वा नेह किंचन |
3552 | 6048058a | अथ वा ध्रुवमन्येभ्यो भयं परमुपस्थितम् |
3553 | 6048058c | यदर्थमेव त्वरितैर्भवद्भिः प्रतिबोधितः |
3554 | 6048059a | अद्य राक्षसराजस्य भयमुत्पाटयाम्यहम् |
3555 | 6048059c | पातयिष्ये महेन्द्रं वा शातयिष्ये तथानलम् |
3556 | 6048060a | न ह्यल्पकारणे सुप्तं बोधयिष्यति मां भृशम् |
3557 | 6048060c | तदाख्यातार्थतत्त्वेन मत्प्रबोधनकारणम् |
3558 | 6048061a | एवं ब्रुवाणं संरब्धं कुम्भकर्णमरिंदमम् |
3559 | 6048061c | यूपाक्षः सचिवो राज्ञः कृताञ्जलिरुवाच ह |
3560 | 6048062a | न नो देवकृतं किंचिद्भयमस्ति कदाचन |
3561 | 6048062c | न दैत्यदानवेभ्यो वा भयमस्ति हि तादृशम् |
3562 | 6048062e | यादृशं मानुषं राजन्भयमस्मानुपस्थितम् |
3563 | 6048063a | वानरैः पर्वताकारैर्लङ्केयं परिवारिता |
3564 | 6048063c | सीताहरणसंतप्ताद्रामान्नस्तुमुलं भयम् |
3565 | 6048064a | एकेन वानरेणेयं पूर्वं दग्धा महापुरी |
3566 | 6048064c | कुमारो निहतश्चाक्षः सानुयात्रः सकुञ्जरः |
3567 | 6048065a | स्वयं रक्षोऽधिपश्चापि पौलस्त्यो देवकण्टकः |
3568 | 6048065c | मृतेति संयुगे मुक्तारामेणादित्यतेजसा |
3569 | 6048066a | यन्न देवैः कृतो राजा नापि दैत्यैर्न दानवैः |
3570 | 6048066c | कृतः स इह रामेण विमुक्तः प्राणसंशयात् |
3571 | 6048067a | स यूपाक्षवचः श्रुत्वा भ्रातुर्युधि पराजयम् |
3572 | 6048067c | कुम्भकर्णो विवृत्ताक्षो यूपाक्षमिदमब्रवीत् |
3573 | 6048068a | सर्वमद्यैव यूपाक्ष हरिसैन्यं सलक्ष्मणम् |
3574 | 6048068c | राघवं च रणे हत्वा पश्चाद्द्रक्ष्यामि रावणम् |
3575 | 6048069a | राक्षसांस्तर्पयिष्यामि हरीणां मांसशोणितैः |
3576 | 6048069c | रामलक्ष्मणयोश्चापि स्वयं पास्यामि शोणितम् |
3577 | 6048070a | तत्तस्य वाक्यं ब्रुवतो निशम्य; सगर्वितं रोषविवृद्धदोषम् |
3578 | 6048070c | महोदरो नैरृतयोधमुख्यः; कृताञ्जलिर्वाक्यमिदं बभाषे |
3579 | 6048071a | रावणस्य वचः श्रुत्वा गुणदोषु विमृश्य च |
3580 | 6048071c | पश्चादपि महाबाहो शत्रून्युधि विजेष्यसि |
3581 | 6048072a | महोदरवचः श्रुत्वा राक्षसैः परिवारितः |
3582 | 6048072c | कुम्भकर्णो महातेजाः संप्रतस्थे महाबलः |
3583 | 6048073a | तं समुत्थाप्य भीमाक्षं भीमरूपपराक्रमम् |
3584 | 6048073c | राक्षसास्त्वरिता जग्मुर्दशग्रीवनिवेशनम् |
3585 | 6048074a | ततो गत्वा दशग्रीवमासीनं परमासने |
3586 | 6048074c | ऊचुर्बद्धाञ्जलिपुटाः सर्व एव निशाचराः |
3587 | 6048075a | प्रबुद्धः कुम्भकर्णोऽसौ भ्राता ते राक्षसर्षभ |
3588 | 6048075c | कथं तत्रैव निर्यातु द्रक्ष्यसे तमिहागतम् |
3589 | 6048076a | रावणस्त्वब्रवीद्धृष्टो यथान्यायं च पूजितम् |
3590 | 6048076c | द्रष्टुमेनमिहेच्छामि यथान्यायं च पूजितम् |
3591 | 6048077a | तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे पुनरागम्य राक्षसाः |
3592 | 6048077c | कुम्भकर्णमिदं वाक्यमूचू रावणचोदिताः |
3593 | 6048078a | द्रष्टुं त्वां काङ्क्षते राजा सर्वराक्षसपुंगवः |
3594 | 6048078c | गमने क्रियतां बुद्धिर्भ्रातरं संप्रहर्षय |
3595 | 6048079a | कुम्भकर्णस्तु दुर्धर्षो भ्रातुराज्ञाय शासनम् |
3596 | 6048079c | तथेत्युक्त्वा महावीर्यः शयनादुत्पपात ह |
3597 | 6048080a | प्रक्षाल्य वदनं हृष्टः स्नातः परमभूषितः |
3598 | 6048080c | पिपासुस्त्वरयामास पानं बलसमीरणम् |
3599 | 6048081a | ततस्ते त्वरितास्तस्य राज्षसा रावणाज्ञया |
3600 | 6048081c | मद्यं भक्ष्यांश्च विविधान्क्षिप्रमेवोपहारयन् |
3601 | 6048082a | पीत्वा घटसहस्रं स गमनायोपचक्रमे |
3602 | 6048083a | ईषत्समुत्कटो मत्तस्तेजोबलसमन्वितः |
3603 | 6048083c | कुम्भकर्णो बभौ हृष्टः कालान्तकयमोपमः |
3604 | 6048084a | भ्रातुः स भवनं गच्छन्रक्षोबलसमन्वितः |
3605 | 6048084c | कुम्भकर्णः पदन्यासैरकम्पयत मेदिनीम् |
3606 | 6048085a | स राजमार्गं वपुषा प्रकाशय;न्सहस्ररश्मिर्धरणीमिवांशुभिः |
3607 | 6048085c | जगाम तत्राञ्जलिमालया वृतः; शतक्रतुर्गेहमिव स्वयम्भुवः |
3608 | 6048086a | केचिच्छरण्यं शरणं स्म रामं; व्रजन्ति केचिद्व्यथिताः पतन्ति |
3609 | 6048086c | केचिद्दिशः स्म व्यथिताः प्रयान्ति; केचिद्भयार्ता भुवि शेरते स्म |
3610 | 6048087a | तमद्रिशृङ्गप्रतिमं किरीटिनं; स्पृशन्तमादित्यमिवात्मतेजसा |
3611 | 6048087c | वनौकसः प्रेक्ष्य विवृद्धमद्भुतं; भयार्दिता दुद्रुविरे ततस्ततः |
3612 | 6049001a | ततो रामो महातेजा धनुरादाय वीर्यवान् |
3613 | 6049001c | किरीटिनं महाकायं कुम्भकर्णं ददर्श ह |
3614 | 6049002a | तं दृष्ट्वा राक्षसश्रेष्ठं पर्वताकारदर्शनम् |
3615 | 6049002c | क्रममाणमिवाकाशं पुरा नारायणं प्रभुम् |
3616 | 6049003a | सतोयाम्बुदसंकाशं काञ्चनाङ्गदभूषणम् |
3617 | 6049003c | दृष्ट्वा पुनः प्रदुद्राव वानराणां महाचमूः |
3618 | 6049004a | विद्रुतां वाहिनीं दृष्ट्वा वर्धमानं च राक्षसं |
3619 | 6049004c | सविस्मयमिदं रामो विभीषणमुवाच ह |
3620 | 6049005a | कोऽसौ पर्वतसंकशः किरीटी हरिलोचनः |
3621 | 6049005c | लङ्कायां दृश्यते वीरः सविद्युदिव तोयदः |
3622 | 6049006a | पृथिव्याः केतुभूतोऽसौ महानेकोऽत्र दृश्यते |
3623 | 6049006c | यं दृष्ट्वा वानराः सर्वे विद्रवन्ति ततस्ततः |
3624 | 6049007a | आचक्ष्व मे महान्कोऽसौ रक्षो वा यदि वासुरः |
3625 | 6049007c | न मयैवंविधं भूतं दृष्टपूर्वं कदाचन |
3626 | 6049008a | स पृष्टो राजपुत्रेण रामेणाक्लिष्टकारिणा |
3627 | 6049008c | विभीषणो महाप्राज्ञः काकुत्स्थमिदमब्रवीत् |
3628 | 6049009a | येन वैवस्वतो युद्धे वासवश्च पराजितः |
3629 | 6049009c | सैष विश्रवसः पुत्रः कुम्भकर्णः प्रतापवान् |
3630 | 6049010a | एतेन देवा युधि दानवाश्च; यक्षा भुजंगाः पिशिताशनाश्च |
3631 | 6049010c | गन्धर्वविद्याधरकिंनराश्च; सहस्रशो राघव संप्रभग्नाः |
3632 | 6049011a | शूलपाणिं विरूपाक्षं कुम्भकर्णं महाबलम् |
3633 | 6049011c | हन्तुं न शेकुस्त्रिदशाः कालोऽयमिति मोहिताः |
3634 | 6049012a | प्रकृत्या ह्येष तेजस्वी कुम्भकर्णो महाबलः |
3635 | 6049012c | अन्येषां राक्षसेन्द्राणां वरदानकृतं बलम् |
3636 | 6049013a | एतेन जातमात्रेण क्षुधार्तेन महात्मना |
3637 | 6049013c | भक्षितानि सहस्राणि सत्त्वानां सुबहून्यपि |
3638 | 6049014a | तेषु संभक्ष्यमाणेषु प्रजा भयनिपीडिताः |
3639 | 6049014c | यान्ति स्म शरणं शक्रं तमप्यर्थं न्यवेदयन् |
3640 | 6049015a | स कुम्भकर्णं कुपितो महेन्द्रो; जघान वज्रेण शितेन वज्री |
3641 | 6049015c | स शक्रवज्राभिहतो महात्मा; चचाल कोपाच्च भृशं ननाद |
3642 | 6049016a | तस्य नानद्यमानस्य कुम्भकर्णस्य धीमतः |
3643 | 6049016c | श्रुत्वा निनादं वित्रस्ता भूयो भूमिर्वितत्रसे |
3644 | 6049017a | ततः कोपान्महेन्द्रस्य कुम्भकर्णो महाबलः |
3645 | 6049017c | विकृष्यैरावताद्दन्तं जघानोरसि वासवम् |
3646 | 6049018a | कुम्भकर्णप्रहारार्तो विचचाल स वासवः |
3647 | 6049018c | ततो विषेदुः सहसा देवब्रह्मर्षिदानवाः |
3648 | 6049019a | प्रजाभिः सह शक्रश्च ययौ स्थानं स्वयम्भुवः |
3649 | 6049019c | कुम्भकर्णस्य दौरात्म्यं शशंसुस्ते प्रजापतेः |
3650 | 6049019e | प्रजानां भक्षणं चापि देवानां चापि धर्षणम् |
3651 | 6049020a | एवं प्रजा यदि त्वेष भक्षयिष्यति नित्यशः |
3652 | 6049020c | अचिरेणैव कालेन शून्यो लोको भविष्यति |
3653 | 6049021a | वासवस्य वचः श्रुत्वा सर्वलोकपितामहः |
3654 | 6049021c | रक्षांस्यावाहयामास कुम्भकर्णं ददर्श ह |
3655 | 6049022a | कुम्भकर्णं समीक्ष्यैव वितत्रास प्रजापतिः |
3656 | 6049022c | दृष्ट्वा निश्वस्य चैवेदं स्वयम्भूरिदमब्रवीत् |
3657 | 6049023a | ध्रुवं लोकविनाशाय पौरस्त्येनासि निर्मितः |
3658 | 6049023c | तस्मात्त्वमद्य प्रभृति मृतकल्पः शयिष्यसि |
3659 | 6049023e | ब्रह्मशापाभिभूतोऽथ निपपाताग्रतः प्रभोः |
3660 | 6049024a | ततः परमसंभ्रान्तो रावणो वाक्यमब्रवीत् |
3661 | 6049024c | विवृद्धः काञ्चनो वृक्षः फलकाले निकृत्यते |
3662 | 6049025a | न नप्तारं स्वकं न्याय्यं शप्तुमेवं प्रजापते |
3663 | 6049025c | न मिथ्यावचनश्च त्वं स्वप्स्यत्येष न संशयः |
3664 | 6049025e | कालस्तु क्रियतामस्य शयने जागरे तथा |
3665 | 6049026a | रावणस्य वचः श्रुत्वा स्वयम्भूरिदमब्रवीत् |
3666 | 6049026c | शयिता ह्येष षण्मासानेकाहं जागरिष्यति |
3667 | 6049027a | एकेनाह्ना त्वसौ वीरश्चरन्भूमिं बुभुक्षितः |
3668 | 6049027c | व्यात्तास्यो भक्षयेल्लोकान्संक्रुद्ध इव पावकः |
3669 | 6049028a | सोऽसौ व्यसनमापन्नः कुम्भकर्णमबोधयत् |
3670 | 6049028c | त्वत्पराक्रमभीतश्च राजा संप्रति रावणः |
3671 | 6049029a | स एष निर्गतो वीरः शिबिराद्भीमविक्रमः |
3672 | 6049029c | वानरान्भृशसंक्रुद्धो भक्षयन्परिधावति |
3673 | 6049030a | कुम्भकर्णं समीक्ष्यैव हरयो विप्रदुद्रुवुः |
3674 | 6049030c | कथमेनं रणे क्रुद्धं वारयिष्यन्ति वानराः |
3675 | 6049031a | उच्यन्तां वानराः सर्वे यन्त्रमेतत्समुच्छ्रितम् |
3676 | 6049031c | इति विज्ञाय हरयो भविष्यन्तीह निर्भयाः |
3677 | 6049032a | विभीषणवचः श्रुत्वा हेतुमत्सुमुखोद्गतम् |
3678 | 6049032c | उवाच राघवो वाक्यं नीलं सेनापतिं तदा |
3679 | 6049033a | गच्छ सैन्यानि सर्वाणि व्यूह्य तिष्ठस्व पावके |
3680 | 6049033c | द्वाराण्यादाय लङ्कायाश्चर्याश्चाप्यथ संक्रमान् |
3681 | 6049034a | शैलशृङ्गाणि वृक्षांश्च शिलाश्चाप्युपसंहरन् |
3682 | 6049034c | तिष्ठन्तु वानराः सर्वे सायुधाः शैलपाणयः |
3683 | 6049035a | राघवेण समादिष्टो नीलो हरिचमूपतिः |
3684 | 6049035c | शशास वानरानीकं यथावत्कपिकुञ्जरः |
3685 | 6049036a | ततो गवाक्षः शरभो हनुमानङ्गदो नलः |
3686 | 6049036c | शैलशृङ्गाणि शैलाभा गृहीत्वा द्वारमभ्ययुः |
3687 | 6049037a | ततो हरीणां तदनीकमुग्रं; रराज शैलोद्यतवृक्षहस्तम् |
3688 | 6049037c | गिरेः समीपानुगतं यथैव; महन्महाम्भोधरजालमुग्रम् |
3689 | 6050001a | स तु राक्षसशार्दूलो निद्रामदसमाकुलः |
3690 | 6050001c | राजमार्गं श्रिया जुष्टं ययौ विपुलविक्रमः |
3691 | 6050002a | राक्षसानां सहस्रैश्च वृतः परमदुर्जयः |
3692 | 6050002c | गृहेभ्यः पुष्पवर्षेण कार्यमाणस्तदा ययौ |
3693 | 6050003a | स हेमजालविततं भानुभास्वरदर्शनम् |
3694 | 6050003c | ददर्श विपुलं रम्यं राक्षसेन्द्रनिवेशनम् |
3695 | 6050004a | स तत्तदा सूर्य इवाभ्रजालं; प्रविश्य रक्षोऽधिपतेर्निवेशनम् |
3696 | 6050004c | ददर्श दूरेऽग्रजमासनस्थं; स्वयम्भुवं शक्र इवासनस्थम् |
3697 | 6050005a | सोऽभिगम्य गृहं भ्रातुः कक्ष्यामभिविगाह्य च |
3698 | 6050005c | ददर्शोद्विग्नमासीनं विमाने पुष्पके गुरुम् |
3699 | 6050006a | अथ दृष्ट्वा दशग्रीवः कुम्भकर्णमुपस्थितम् |
3700 | 6050006c | तूर्णमुत्थाय संहृष्टः संनिकर्षमुपानयत् |
3701 | 6050007a | अथासीनस्य पर्यङ्के कुम्भकर्णो महाबलः |
3702 | 6050007c | भ्रातुर्ववन्दे चरणां किं कृत्यमिति चाब्रवीत् |
3703 | 6050007e | उत्पत्य चैनं मुदितो रावणः परिषस्वजे |
3704 | 6050008a | स भ्रात्रा संपरिष्वक्तो यथावच्चाभिनन्दितः |
3705 | 6050008c | कुम्भकर्णः शुभं दिव्यं प्रतिपेदे वरासनम् |
3706 | 6050009a | स तदासनमाश्रित्य कुम्भकर्णो महाबलः |
3707 | 6050009c | संरक्तनयनः कोपाद्रावणं वाक्यमब्रवीत् |
3708 | 6050010a | किमर्थमहमादृत्य त्वया राजन्प्रबोधितः |
3709 | 6050010c | शंस कस्माद्भयं तेऽस्ति कोऽद्य प्रेतो भविष्यति |
3710 | 6050011a | भ्रातरं रावणः क्रुद्धं कुम्भकर्णमवस्थितम् |
3711 | 6050011c | ईषत्तु परिवृत्ताभ्यां नेत्राभ्यां वाक्यमब्रवीत् |
3712 | 6050012a | अद्य ते सुमहान्कालः शयानस्य महाबल |
3713 | 6050012c | सुखितस्त्वं न जानीषे मम रामकृतं भयम् |
3714 | 6050013a | एष दाशरथी रामः सुग्रीवसहितो बली |
3715 | 6050013c | समुद्रं सबलस्तीर्त्वा मूलं नः परिकृन्तति |
3716 | 6050014a | हन्त पश्यस्व लङ्काया वनान्युपवनानि च |
3717 | 6050014c | सेतुना सुखमागम्य वानरैकार्णवं कृतम् |
3718 | 6050015a | ये राक्षसा मुख्यतमा हतास्ते वानरैर्युधि |
3719 | 6050015c | वानराणां क्षयं युद्धे न पश्यामि कदाचन |
3720 | 6050016a | सर्वक्षपितकोशं च स त्वमभ्यवपद्य माम् |
3721 | 6050016c | त्रायस्वेमां पुरीं लङ्कां बालवृद्धावशेषिताम् |
3722 | 6050017a | भ्रातुरर्थे महाबाहो कुरु कर्म सुदुष्करम् |
3723 | 6050017c | मयैवं नोक्तपूर्वो हि कश्चिद्भ्रातः परंतप |
3724 | 6050017e | त्वय्यस्ति मम च स्नेहः परा संभावना च मे |
3725 | 6050018a | देवासुरविमर्देषु बहुशो राक्षसर्षभ |
3726 | 6050018c | त्वया देवाः प्रतिव्यूह्य निर्जिताश्चासुरा युधि |
3727 | 6050018e | न हि ते सर्वभूतेषु दृश्यते सदृशो बली |
3728 | 6050019a | कुरुष्व मे प्रियहितमेतदुत्तमं; यथाप्रियं प्रियरणबान्धवप्रिय |
3729 | 6050019c | स्वतेजसा विधम सपत्नवाहिनीं; शरद्घनं पवन इवोद्यतो महान् |
3730 | 6051001a | तस्य राक्षसराजस्य निशम्य परिदेवितम् |
3731 | 6051001c | कुम्भकर्णो बभाषेऽथ वचनं प्रजहास च |
3732 | 6051002a | दृष्टो दोषो हि योऽस्माभिः पुरा मन्त्रविनिर्णये |
3733 | 6051002c | हितेष्वनभियुक्तेन सोऽयमासादितस्त्वया |
3734 | 6051003a | शीघ्रं खल्वभ्युपेतं त्वां फलं पापस्य कर्मणः |
3735 | 6051003c | निरयेष्वेव पतनं यथा दुष्कृतकर्मणः |
3736 | 6051004a | प्रथमं वै महाराज कृत्यमेतदचिन्तितम् |
3737 | 6051004c | केवलं वीर्यदर्पेण नानुबन्धो विचारितः |
3738 | 6051005a | यः पश्चात्पूर्वकार्याणि कुर्यादैश्वर्यमास्थितः |
3739 | 6051005c | पूर्वं चोत्तरकार्याणि न स वेद नयानयौ |
3740 | 6051006a | देशकालविहीनानि कर्माणि विपरीतवत् |
3741 | 6051006c | क्रियमाणानि दुष्यन्ति हवींष्यप्रयतेष्विव |
3742 | 6051007a | त्रयाणां पञ्चधा योगं कर्मणां यः प्रपश्यति |
3743 | 6051007c | सचिवैः समयं कृत्वा स सभ्ये वर्तते पथि |
3744 | 6051008a | यथागमं च यो राजा समयं विचिकीर्षति |
3745 | 6051008c | बुध्यते सचिवान्बुद्ध्या सुहृदश्चानुपश्यति |
3746 | 6051009a | धर्ममर्थं च कामं च सर्वान्वा रक्षसां पते |
3747 | 6051009c | भजते पुरुषः काले त्रीणि द्वन्द्वानि वा पुनः |
3748 | 6051010a | त्रिषु चैतेषु यच्छ्रेष्ठं श्रुत्वा तन्नावबुध्यते |
3749 | 6051010c | राजा वा राजमात्रो वा व्यर्थं तस्य बहुश्रुतम् |
3750 | 6051011a | उपप्रदानं सान्त्वं वा भेदं काले च विक्रमम् |
3751 | 6051011c | योगं च रक्षसां श्रेष्ठ तावुभौ च नयानयौ |
3752 | 6051012a | काले धर्मार्थकामान्यः संमन्त्र्य सचिवैः सह |
3753 | 6051012c | निषेवेतात्मवाँल्लोके न स व्यसनमाप्नुयात् |
3754 | 6051013a | हितानुबन्धमालोक्य कार्याकार्यमिहात्मनः |
3755 | 6051013c | राजा सहार्थतत्त्वज्ञैः सचिवैः सह जीवति |
3756 | 6051014a | अनभिज्ञाय शास्त्रार्थान्पुरुषाः पशुबुद्धयः |
3757 | 6051014c | प्रागल्भ्याद्वक्तुमिच्छन्ति मन्त्रेष्वभ्यन्तरीकृताः |
3758 | 6051015a | अशास्त्रविदुषां तेषां न कार्यमहितं वचः |
3759 | 6051015c | अर्थशास्त्रानभिज्ञानां विपुलां श्रियमिच्छताम् |
3760 | 6051016a | अहितं च हिताकारं धार्ष्ट्याज्जल्पन्ति ये नराः |
3761 | 6051016c | अवेक्ष्य मन्त्रबाह्यास्ते कर्तव्याः कृत्यदूषणाः |
3762 | 6051017a | विनाशयन्तो भर्तारं सहिताः शत्रुभिर्बुधैः |
3763 | 6051017c | विपरीतानि कृत्यानि कारयन्तीह मन्त्रिणः |
3764 | 6051018a | तान्भर्ता मित्रसंकाशानमित्रान्मन्त्रनिर्णये |
3765 | 6051018c | व्यवहारेण जानीयात्सचिवानुपसंहितान् |
3766 | 6051019a | चपलस्येह कृत्यानि सहसानुप्रधावतः |
3767 | 6051019c | छिद्रमन्ये प्रपद्यन्ते क्रौञ्चस्य खमिव द्विजाः |
3768 | 6051020a | यो हि शत्रुमवज्ञाय नात्मानमभिरक्षति |
3769 | 6051020c | अवाप्नोति हि सोऽनर्थान्स्थानाच्च व्यवरोप्यते |
3770 | 6051021a | तत्तु श्रुत्वा दशग्रीवः कुम्भकर्णस्य भाषितम् |
3771 | 6051021c | भ्रुकुटिं चैव संचक्रे क्रुद्धश्चैनमुवाच ह |
3772 | 6051022a | मान्यो गुरुरिवाचार्यः किं मां त्वमनुशासति |
3773 | 6051022c | किमेवं वाक्श्रमं कृत्वा काले युक्तं विधीयताम् |
3774 | 6051023a | विभ्रमाच्चित्तमोहाद्वा बलवीर्याश्रयेण वा |
3775 | 6051023c | नाभिपन्नमिदानीं यद्व्यर्थास्तस्य पुनः कृथाः |
3776 | 6051024a | अस्मिन्काले तु यद्युक्तं तदिदानीं विधीयताम् |
3777 | 6051024c | ममापनयजं दोषं विक्रमेण समीकुरु |
3778 | 6051025a | यदि खल्वस्ति मे स्नेहो भ्रातृत्वं वावगच्छसि |
3779 | 6051025c | यदि वा कार्यमेतत्ते हृदि कार्यतमं मतम् |
3780 | 6051026a | स सुहृद्यो विपन्नार्थं दीनमभ्यवपद्यते |
3781 | 6051026c | स बन्धुर्योऽपनीतेषु साहाय्यायोपकल्पते |
3782 | 6051027a | तमथैवं ब्रुवाणं तु वचनं धीरदारुणम् |
3783 | 6051027c | रुष्टोऽयमिति विज्ञाय शनैः श्लक्ष्णमुवाच ह |
3784 | 6051028a | अतीव हि समालक्ष्य भ्रातरं क्षुभितेन्द्रियम् |
3785 | 6051028c | कुम्भकर्णः शनैर्वाक्यं बभाषे परिसान्त्वयन् |
3786 | 6051029a | अलं राक्षसराजेन्द्र संतापमुपपद्य ते |
3787 | 6051029c | रोषं च संपरित्यज्य स्वस्थो भवितुमर्हसि |
3788 | 6051030a | नैतन्मनसि कर्तव्व्यं मयि जीवति पार्थिव |
3789 | 6051030c | तमहं नाशयिष्यामि यत्कृते परितप्यसे |
3790 | 6051031a | अवश्यं तु हितं वाच्यं सर्वावस्थं मया तव |
3791 | 6051031c | बन्धुभावादभिहितं भ्रातृस्नेहाच्च पार्थिव |
3792 | 6051032a | सदृशं यत्तु कालेऽस्मिन्कर्तुं स्निग्धेन बन्धुना |
3793 | 6051032c | शत्रूणां कदनं पश्य क्रियमाणं मया रणे |
3794 | 6051033a | अद्य पश्य महाबाहो मया समरमूर्धनि |
3795 | 6051033c | हते रामे सह भ्रात्रा द्रवन्तीं हरिवाहिनीम् |
3796 | 6051034a | अद्य रामस्य तद्दृष्ट्वा मयानीतं रणाच्छिरः |
3797 | 6051034c | सुखीभव महाबाहो सीता भवतु दुःखिता |
3798 | 6051035a | अद्य रामस्य पश्यन्तु निधनं सुमहत्प्रियम् |
3799 | 6051035c | लङ्कायां राक्षसाः सर्वे ये ते निहतबान्धवाः |
3800 | 6051036a | अद्य शोकपरीतानां स्वबन्धुवधकारणात् |
3801 | 6051036c | शत्रोर्युधि विनाशेन करोम्यस्रप्रमार्जनम् |
3802 | 6051037a | अद्य पर्वतसंकाशं ससूर्यमिव तोयदम् |
3803 | 6051037c | विकीर्णं पश्य समरे सुग्रीवं प्लवगेश्वरम् |
3804 | 6051038a | न परः प्रेषणीयस्ते युद्धायातुल विक्रम |
3805 | 6051038c | अहमुत्सादयिष्यामि शत्रूंस्तव महाबल |
3806 | 6051039a | यदि शक्रो यदि यमो यदि पावकमारुतौ |
3807 | 6051039c | तानहं योधयिष्यामि कुबेर वरुणावपि |
3808 | 6051040a | गिरिमात्रशरीरस्य शितशूलधरस्य मे |
3809 | 6051040c | नर्दतस्तीक्ष्णदंष्ट्रस्य बिभीयाच्च पुरंदरः |
3810 | 6051041a | अथ वा त्यक्तशस्त्रस्य मृद्गतस्तरसा रिपून् |
3811 | 6051041c | न मे प्रतिमुखे कश्चिच्छक्तः स्थातुं जिजीविषुः |
3812 | 6051042a | नैव शक्त्या न गदया नासिना न शितैः शरैः |
3813 | 6051042c | हस्ताभ्यामेव संरब्धो हनिष्याम्यपि वज्रिणम् |
3814 | 6051043a | यदि मे मुष्टिवेगं स राघवोऽद्य सहिष्यति |
3815 | 6051043c | ततः पास्यन्ति बाणौघा रुधिरं राघवस्य ते |
3816 | 6051044a | चिन्तया बाध्यसे राजन्किमर्थं मयि तिष्ठति |
3817 | 6051044c | सोऽहं शत्रुविनाशाय तव निर्यातुमुद्यतः |
3818 | 6051045a | मुञ्च रामाद्भयं राजन्हनिष्यामीह संयुगे |
3819 | 6051045c | राघवं लक्ष्मणं चैव सुग्रीवं च महाबलम् |
3820 | 6051045e | असाधारणमिच्छामि तव दातुं महद्यशः |
3821 | 6051046a | वधेन ते दाशरथेः सुखावहं; सुखं समाहर्तुमहं व्रजामि |
3822 | 6051046c | निहत्य रामं सहलक्ष्मणेन; खादामि सर्वान्हरियूथमुख्यान् |
3823 | 6051047a | रमस्व कामं पिब चाग्र्यवारुणीं; कुरुष्व कृत्यानि विनीयतां ज्वरः |
3824 | 6051047c | मयाद्य रामे गमिते यमक्षयं; चिराय सीता वशगा भविष्यति |
3825 | 6052001a | तदुक्तमतिकायस्य बलिनो बाहुशालिनः |
3826 | 6052001c | कुम्भकर्णस्य वचनं श्रुत्वोवाच महोदरः |
3827 | 6052002a | कुम्भकर्णकुले जातो धृष्टः प्राकृतदर्शनः |
3828 | 6052002c | अवलिप्तो न शक्नोषि कृत्यं सर्वत्र वेदितुम् |
3829 | 6052003a | न हि राजा न जानीते कुम्भकर्ण नयानयौ |
3830 | 6052003c | त्वं तु कैशोरकाद्धृष्टः केवलं वक्तुमिच्छसि |
3831 | 6052004a | स्थानं वृद्धिं च हानिं च देशकालविभागवित् |
3832 | 6052004c | आत्मनश्च परेषां च बुध्यते राक्षसर्षभ |
3833 | 6052005a | यत्तु शक्यं बलवता कर्तुं प्राकृतबुद्धिना |
3834 | 6052005c | अनुपासितवृद्धेन कः कुर्यात्तादृशं बुधः |
3835 | 6052006a | यांस्तु धर्मार्थकामांस्त्वं ब्रवीषि पृथगाश्रयान् |
3836 | 6052006c | अनुबोद्धुं स्वभावेन न हि लक्षणमस्ति ते |
3837 | 6052007a | कर्म चैव हि सर्वेषां कारणानां प्रयोजनम् |
3838 | 6052007c | श्रेयः पापीयसां चात्र फलं भवति कर्मणाम् |
3839 | 6052008a | निःश्रेयस फलावेव धर्मार्थावितरावपि |
3840 | 6052008c | अधर्मानर्थयोः प्राप्तिः फलं च प्रत्यवायिकम् |
3841 | 6052009a | ऐहलौकिकपारत्र्यं कर्म पुम्भिर्निषेव्यते |
3842 | 6052009c | कर्माण्यपि तु कल्प्यानि लभते काममास्थितः |
3843 | 6052010a | तत्र कॢप्तमिदं राज्ञा हृदि कार्यं मतं च नः |
3844 | 6052010c | शत्रौ हि साहसं यत्स्यात्किमिवात्रापनीयते |
3845 | 6052011a | एकस्यैवाभियाने तु हेतुर्यः प्रकृतस्त्वया |
3846 | 6052011c | तत्राप्यनुपपन्नं ते वक्ष्यामि यदसाधु च |
3847 | 6052012a | येन पूर्वं जनस्थाने बहवोऽतिबला हताः |
3848 | 6052012c | राक्षसा राघवं तं त्वं कथमेको जयिष्यसि |
3849 | 6052013a | ये पुरा निर्जितास्तेन जनस्थाने महौजसः |
3850 | 6052013c | राक्षसांस्तान्पुरे सर्वान्भीतानद्यापि पश्यसि |
3851 | 6052014a | तं सिंहमिव संक्रुद्धं रामं दशरथात्मजम् |
3852 | 6052014c | सर्पं सुप्तमिवाबुद्ध्या प्रबोधयितुमिच्छसि |
3853 | 6052015a | ज्वलन्तं तेजसा नित्यं क्रोधेन च दुरासदम् |
3854 | 6052015c | कस्तं मृत्युमिवासह्यमासादयितुमर्हति |
3855 | 6052016a | संशयस्थमिदं सर्वं शत्रोः प्रतिसमासने |
3856 | 6052016c | एकस्य गमनं तत्र न हि मे रोचते तव |
3857 | 6052017a | हीनार्थस्तु समृद्धार्थं को रिपुं प्राकृतो यथा |
3858 | 6052017c | निश्चितं जीवितत्यागे वशमानेतुमिच्छति |
3859 | 6052018a | यस्य नास्ति मनुष्येषु सदृशो राक्षसोत्तम |
3860 | 6052018c | कथमाशंससे योद्धुं तुल्येनेन्द्रविवस्वतोः |
3861 | 6052019a | एवमुक्त्वा तु संरब्धं कुम्भकर्णं महोदरः |
3862 | 6052019c | उवाच रक्षसां मध्ये रावणो लोकरावणम् |
3863 | 6052020a | लब्ध्वा पुनस्तां वैदेहीं किमर्थं त्वं प्रजल्पसि |
3864 | 6052020c | यदेच्छसि तदा सीता वशगा ते भविष्यति |
3865 | 6052021a | दृष्टः कश्चिदुपायो मे सीतोपस्थानकारकः |
3866 | 6052021c | रुचितश्चेत्स्वया बुद्ध्या राक्षसेश्वर तं शृणु |
3867 | 6052022a | अहं द्विजिह्वः संह्रादी कुम्भकर्णो वितर्दनः |
3868 | 6052022c | पञ्चरामवधायैते निर्यान्तीत्यवघोषय |
3869 | 6052023a | ततो गत्वा वयं युद्धं दास्यामस्तस्य यत्नतः |
3870 | 6052023c | जेष्यामो यदि ते शत्रून्नोपायैः कृत्यमस्ति नः |
3871 | 6052024a | अथ जीवति नः शत्रुर्वयं च कृतसंयुगाः |
3872 | 6052024c | ततः समभिपत्स्यामो मनसा यत्समीक्षितुम् |
3873 | 6052025a | वयं युद्धादिहैष्यामो रुधिरेण समुक्षिताः |
3874 | 6052025c | विदार्य स्वतनुं बाणै रामनामाङ्कितैः शितैः |
3875 | 6052026a | भक्षितो राघवोऽस्माभिर्लक्ष्मणश्चेति वादिनः |
3876 | 6052026c | तव पादौ ग्रहीष्यामस्त्वं नः काम प्रपूरय |
3877 | 6052027a | ततोऽवघोषय पुरे गजस्कन्धेन पार्थिव |
3878 | 6052027c | हतो रामः सह भ्रात्रा ससैन्य इति सर्वतः |
3879 | 6052028a | प्रीतो नाम ततो भूत्वा भृत्यानां त्वमरिंदम |
3880 | 6052028c | भोगांश्च परिवारांश्च कामांश्च वसुदापय |
3881 | 6052029a | ततो माल्यानि वासांसि वीराणामनुलेपनम् |
3882 | 6052029c | पेयं च बहु योधेभ्यः स्वयं च मुदितः पिब |
3883 | 6052030a | ततोऽस्मिन्बहुलीभूते कौलीने सर्वतो गते |
3884 | 6052030c | प्रविश्याश्वास्य चापि त्वं सीतां रहसि सान्त्वय |
3885 | 6052030e | धनधान्यैश्च कामैश्च रत्नैश्चैनां प्रलोभय |
3886 | 6052031a | अनयोपधया राजन्भयशोकानुबन्धया |
3887 | 6052031c | अकामा त्वद्वशं सीता नष्टनाथा गमिष्यति |
3888 | 6052032a | रञ्जनीयं हि भर्तारं विनष्टमवगम्य सा |
3889 | 6052032c | नैराश्यात्स्त्रीलघुत्वाच्च त्वद्वशं प्रतिपत्स्यते |
3890 | 6052033a | सा पुरा सुखसंवृद्धा सुखार्हा दुःखकर्षिता |
3891 | 6052033c | त्वय्यधीनः सुखं ज्ञात्वा सर्वथोपगमिष्यति |
3892 | 6052034a | एतत्सुनीतं मम दर्शनेन; रामं हि दृष्ट्वैव भवेदनर्थः |
3893 | 6052034c | इहैव ते सेत्स्यति मोत्सुको भू;र्महानयुद्धेन सुखस्य लाभः |
3894 | 6052035a | अनष्टसैन्यो ह्यनवाप्तसंशयो; रिपूनयुद्धेन जयञ्जनाधिप |
3895 | 6052035c | यशश्च पुण्यं च महन्महीपते; श्रियं च कीर्तिं च चिरं समश्नुते |
3896 | 6053001a | स तथोक्तस्तु निर्भर्त्स्य कुम्भकर्णो महोदरम् |
3897 | 6053001c | अब्रवीद्राक्षसश्रेष्ठं भ्रातरं रावणं ततः |
3898 | 6053002a | सोऽहं तव भयं घोरं वधात्तस्य दुरात्मनः |
3899 | 6053002c | रामस्याद्य प्रमार्जामि निर्वैरस्त्वं सुखीभव |
3900 | 6053003a | गर्जन्ति न वृथा शूर निर्जला इव तोयदाः |
3901 | 6053003c | पश्य संपाद्यमानं तु गर्जितं युधि कर्मणा |
3902 | 6053004a | न मर्षयति चात्मानं संभावयति नात्मना |
3903 | 6053004c | अदर्शयित्वा शूरास्तु कर्म कुर्वन्ति दुष्करम् |
3904 | 6053005a | विक्लवानामबुद्धीनां राज्ञां पण्डितमानिनाम् |
3905 | 6053005c | शृण्वतामादित इदं त्वद्विधानां महोदर |
3906 | 6053006a | युद्धे कापुरुषैर्नित्यं भवद्भिः प्रियवादिभिः |
3907 | 6053006c | राजानमनुगच्छद्भिः कृत्यमेतद्विनाशितम् |
3908 | 6053007a | राजशेषा कृता लङ्का क्षीणः कोशो बलं हतम् |
3909 | 6053007c | राजानमिममासाद्य सुहृच्चिह्नममित्रकम् |
3910 | 6053008a | एष निर्याम्यहं युद्धमुद्यतः शत्रुनिर्जये |
3911 | 6053008c | दुर्नयं भवतामद्य समीकर्तुं महाहवे |
3912 | 6053009a | एवमुक्तवतो वाक्यं कुम्भकर्णस्य धीमतः |
3913 | 6053009c | प्रत्युवाच ततो वाक्यं प्रहसन्राक्षसाधिपः |
3914 | 6053010a | महोदरोऽयं रामात्तु परित्रस्तो न संशयः |
3915 | 6053010c | न हि रोचयते तात युद्धं युद्धविशारद |
3916 | 6053011a | कश्चिन्मे त्वत्समो नास्ति सौहृदेन बलेन च |
3917 | 6053011c | गच्छ शत्रुवधाय त्वं कुम्भकर्णजयाय च |
3918 | 6053012a | आददे निशितं शूलं वेगाच्छत्रुनिबर्हणः |
3919 | 6053012c | सर्वकालायसं दीप्तं तप्तकाञ्चनभूषणम् |
3920 | 6053013a | इन्द्राशनिसमं भीमं वज्रप्रतिमगौरवम् |
3921 | 6053013c | देवदानवगन्धर्वयक्षकिंनरसूदनम् |
3922 | 6053014a | रक्तमाल्य महादाम स्वतश्चोद्गतपावकम् |
3923 | 6053014c | आदाय निशितं शूलं शत्रुशोणितरञ्जितम् |
3924 | 6053014e | कुम्भकर्णो महातेजा रावणं वाक्यमब्रवीत् |
3925 | 6053015a | गमिष्याम्यहमेकाकी तिष्ठत्विह बलं महत् |
3926 | 6053015c | अद्य तान्क्षुधितः क्रुद्धो भक्षयिष्यामि वानरान् |
3927 | 6053016a | कुम्भकर्णवचः श्रुत्वा रावणो वाक्यमब्रवीत् |
3928 | 6053016c | सैन्यैः परिवृतो गच्छ शूलमुद्गलपाणिभिः |
3929 | 6053017a | वानरा हि महात्मानः शीघ्राश्च व्यवसायिनः |
3930 | 6053017c | एकाकिनं प्रमत्तं वा नयेयुर्दशनैः क्षयम् |
3931 | 6053018a | तस्मात्परमदुर्धर्षैः सैन्यैः परिवृतो व्रज |
3932 | 6053018c | रक्षसामहितं सर्वं शत्रुपक्षं निसूदय |
3933 | 6053019a | अथासनात्समुत्पत्य स्रजं मणिकृतान्तराम् |
3934 | 6053019c | आबबन्ध महातेजाः कुम्भकर्णस्य रावणः |
3935 | 6053020a | अङ्गदानङ्गुलीवेष्टान्वराण्याभरणानि च |
3936 | 6053020c | हारं च शशिसंकाशमाबबन्ध महात्मनः |
3937 | 6053021a | दिव्यानि च सुगन्धीनि माल्यदामानि रावणः |
3938 | 6053021c | श्रोत्रे चासज्जयामास श्रीमती चास्य कुण्डले |
3939 | 6053022a | काञ्चनाङ्गदकेयूरो निष्काभरणभूषितः |
3940 | 6053022c | कुम्भकर्णो बृहत्कर्णः सुहुतोऽग्निरिवाबभौ |
3941 | 6053023a | श्रोणीसूत्रेण महता मेचकेन विराजितः |
3942 | 6053023c | अमृतोत्पादने नद्धो भुजंगेनेव मन्दरः |
3943 | 6053024a | स काञ्चनं भारसहं निवातं; विद्युत्प्रभं दीप्तमिवात्मभासा |
3944 | 6053024c | आबध्यमानः कवचं रराज; संध्याभ्रसंवीत इवाद्रिराजः |
3945 | 6053025a | सर्वाभरणनद्धाङ्गः शूलपाणिः स राक्षसः |
3946 | 6053025c | त्रिविक्रमकृतोत्साहो नारायण इवाबभौ |
3947 | 6053026a | भ्रातरं संपरिष्वज्य कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् |
3948 | 6053026c | प्रणम्य शिरसा तस्मै संप्रतस्थे महाबलिः |
3949 | 6053026e | तमाशीर्भिः प्रशस्ताभिः प्रेषयामास रावणः |
3950 | 6053027a | शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषैः सैन्यैश्चापि वरायुधैः |
3951 | 6053027c | तं गजैश्च तुरंगैश्च स्यन्दनैश्चाम्बुदस्वनैः |
3952 | 6053027e | अनुजग्मुर्महात्मानं रथिनो रथिनां वरम् |
3953 | 6053028a | सर्पैरुष्ट्रैः खरैरश्वैः सिंहद्विपमृगद्विजैः |
3954 | 6053028c | अनुजग्मुश्च तं घोरं कुम्भकर्णं महाबलम् |
3955 | 6053029a | स पुष्पवर्णैरवकीर्यमाणो; धृतातपत्रः शितशूलपाणिः |
3956 | 6053029c | मदोत्कटः शोणितगन्धमत्तो; विनिर्ययौ दानवदेवशत्रुः |
3957 | 6053030a | पदातयश बहवो महानादा महाबलाः |
3958 | 6053030c | अन्वयू राक्षसा भीमा भीमाक्षाः शस्त्रपाणयः |
3959 | 6053031a | रक्ताक्षाः सुमहाकाया नीलाञ्जनचयोपमाः |
3960 | 6053031c | शूरानुद्यम्य खड्गांश्च निशितांश्च परश्वधान् |
3961 | 6053032a | बहुव्यामांश्च विपुलान्क्षेपणीयान्दुरासदान् |
3962 | 6053032c | तालस्कन्धांश्च विपुलान्क्षेपणीयान्दुरासदान् |
3963 | 6053033a | अथान्यद्वपुरादाय दारुणं लोमहर्षणम् |
3964 | 6053033c | निष्पपात महातेजाः कुम्भकर्णो महाबलः |
3965 | 6053034a | धनुःशतपरीणाहः स षट्शतसमुच्छितः |
3966 | 6053034c | रौद्रः शकटचक्राक्षो महापर्वतसंनिभः |
3967 | 6053035a | संनिपत्य च रक्षांसि दग्धशैलोपमो महान् |
3968 | 6053035c | कुम्भकर्णो महावक्त्रः प्रहसन्निदमब्रवीत् |
3969 | 6053036a | अद्य वानरमुख्यानां तानि यूथानि भागशः |
3970 | 6053036c | निर्दहिष्यामि संक्रुद्धः शलभानिव पावकः |
3971 | 6053037a | नापराध्यन्ति मे कामं वानरा वनचारिणः |
3972 | 6053037c | जातिरस्मद्विधानां सा पुरोद्यानविभूषणम् |
3973 | 6053038a | पुररोधस्य मूलं तु राघवः सहलक्ष्मणः |
3974 | 6053038c | हते तस्मिन्हतं सर्वं तं वधिष्यामि संयुगे |
3975 | 6053039a | एवं तस्य ब्रुवाणस्य कुम्भकर्णस्य राक्षसाः |
3976 | 6053039c | नादं चक्रुर्महाघोरं कम्पयन्त इवार्णवम् |
3977 | 6053040a | तस्य निष्पततस्तूर्णं कुम्भकर्णस्य धीमतः |
3978 | 6053040c | बभूवुर्घोररूपाणि निमित्तानि समन्ततः |
3979 | 6053041a | उल्काशनियुता मेघा विनेदुश्च सुदारुणाः |
3980 | 6053041c | ससागरवना चैव वसुधा समकम्पत |
3981 | 6053042a | घोररूपाः शिवा नेदुः सज्वालकवलैर्मुखैः |
3982 | 6053042c | मण्डलान्यपसव्यानि बबन्धुश्च विहंगमाः |
3983 | 6053043a | निष्पपात च गृध्रेऽस्य शूले वै पथि गच्छतः |
3984 | 6053043c | प्रास्फुरन्नयनं चास्य सव्यो बाहुरकम्पत |
3985 | 6053044a | निष्पपात तदा चोक्ला ज्वलन्ती भीमनिस्वना |
3986 | 6053044c | आदित्यो निष्प्रभश्चासीन्न प्रवाति सुखोऽनिलः |
3987 | 6053045a | अचिन्तयन्महोत्पातानुत्थिताँल्लोमहर्षणान् |
3988 | 6053045c | निर्ययौ कुम्भकर्णस्तु कृतान्तबलचोदितः |
3989 | 6053046a | स लङ्घयित्वा प्राकारं पद्भ्यां पर्वतसंनिभः |
3990 | 6053046c | ददर्शाभ्रघनप्रख्यं वानरानीकमद्भुतम् |
3991 | 6053047a | ते दृष्ट्वा राक्षसश्रेष्ठं वानराः पर्वतोपमम् |
3992 | 6053047c | वायुनुन्ना इव घना ययुः सर्वा दिशस्तदा |
3993 | 6053048a | तद्वानरानीकमतिप्रचण्डं; दिशो द्रवद्भिन्नमिवाभ्रजालम् |
3994 | 6053048c | स कुम्भकर्णः समवेक्ष्य हर्षा;न्ननाद भूयो घनवद्घनाभः |
3995 | 6053049a | ते तस्य घोरं निनदं निशम्य; यथा निनादं दिवि वारिदस्य |
3996 | 6053049c | पेतुर्धरण्यां बहवः प्लवंगा; निकृत्तमूला इव सालवृक्षाः |
3997 | 6053050a | विपुलपरिघवान्स कुम्भकर्णो; रिपुनिधनाय विनिःसृतो महात्मा |
3998 | 6053050c | कपि गणभयमाददत्सुभीमं; प्रभुरिव किंकरदण्डवान्युगान्ते |
3999 | 6054001a | स ननाद महानादं समुद्रमभिनादयन् |
4000 | 6054001c | जनयन्निव निर्घातान्विधमन्निव पर्वतान् |
4001 | 6054002a | तमवध्यं मघवता यमेन वरुणेन च |
4002 | 6054002c | प्रेक्ष्य भीमाक्षमायान्तं वानरा विप्रदुद्रुवुः |
4003 | 6054003a | तांस्तु विद्रवतो दृष्ट्वा वालिपुत्रोऽङ्गदोऽब्रवीत् |
4004 | 6054003c | नलं नीलं गवाक्षं च कुमुदं च महाबलम् |
4005 | 6054004a | आत्मानमत्र विस्मृत्य वीर्याण्यभिजनानि च |
4006 | 6054004c | क्व गच्छत भयत्रस्ताः प्राकृता हरयो यथा |
4007 | 6054005a | साधु सौम्या निवर्तध्वं किं प्राणान्परिरक्षथ |
4008 | 6054005c | नालं युद्धाय वै रक्षो महतीयं विभीषिकाः |
4009 | 6054006a | महतीमुत्थितामेनां राक्षसानां विभीषिकाम् |
4010 | 6054006c | विक्रमाद्विधमिष्यामो निवर्तध्वं प्लवंगमाः |
4011 | 6054007a | कृच्छ्रेण तु समाश्वास्य संगम्य च ततस्ततः |
4012 | 6054007c | वृक्षाद्रिहस्ता हरयः संप्रतस्थू रणाजिरम् |
4013 | 6054008a | ते निवृत्य तु संक्रुद्धाः कुम्भकर्णं वनौकसः |
4014 | 6054008c | निजघ्नुः परमक्रुद्धाः समदा इव कुञ्जराः |
4015 | 6054008e | प्रांशुभिर्गिरिशृङ्गैश्च शिलाभिश्च महाबलाः |
4016 | 6054009a | पादपैः पुष्पिताग्रैश्च हन्यमानो न कम्पते |
4017 | 6054009c | तस्य गात्रेषु पतिता भिद्यन्ते शतशः शिलाः |
4018 | 6054009e | पादपाः पुष्पिताग्राश्च भग्नाः पेतुर्महीतले |
4019 | 6054010a | सोऽपि सैन्यानि संक्रुद्धो वानराणां महौजसाम् |
4020 | 6054010c | ममन्थ परमायत्तो वनान्यग्निरिवोत्थितः |
4021 | 6054011a | लोहितार्द्रास्तु बहवः शेरते वानरर्षभाः |
4022 | 6054011c | निरस्ताः पतिता भूमौ ताम्रपुष्पा इव द्रुमाः |
4023 | 6054012a | लङ्घयन्तः प्रधावन्तो वानरा नावलोकयन् |
4024 | 6054012c | केचित्समुद्रे पतिताः केचिद्गगनमाश्रिताः |
4025 | 6054013a | वध्यमानास्तु ते वीरा राक्षसेन बलीयसा |
4026 | 6054013c | सागरं येन ते तीर्णाः पथा तेनैव दुद्रुवुः |
4027 | 6054014a | ते स्थलानि तथा निम्नं विषण्णवदना भयात् |
4028 | 6054014c | ऋक्षा वृक्षान्समारूढाः केचित्पर्वतमाश्रिताः |
4029 | 6054015a | ममज्जुरर्णवे केचिद्गुहाः केचित्समाश्रिताः |
4030 | 6054015c | निषेदुः प्लवगाः केचित्केचिन्नैवावतस्थिरे |
4031 | 6054016a | तान्समीक्ष्याङ्गदो भङ्गान्वानरानिदमब्रवीत् |
4032 | 6054016c | अवतिष्ठत युध्यामो निवर्तध्वं प्लवंगमाः |
4033 | 6054017a | भग्नानां वो न पश्यामि परिगम्य महीमिमाम् |
4034 | 6054017c | स्थानं सर्वे निवर्तध्वं किं प्राणान्परिरक्षथ |
4035 | 6054018a | निरायुधानां द्रवतामसंगगतिपौरुषाः |
4036 | 6054018c | दारा ह्यपहसिष्यन्ति स वै घातस्तु जीविताम् |
4037 | 6054019a | कुलेषु जाताः सर्वे स्म विस्तीर्णेषु महत्सु च |
4038 | 6054019c | अनार्याः खलु यद्भीतास्त्यक्त्वा वीर्यं प्रधावत |
4039 | 6054020a | विकत्थनानि वो यानि यदा वै जनसंसदि |
4040 | 6054020c | तानि वः क्व च यतानि सोदग्राणि महान्ति च |
4041 | 6054021a | भीरुप्रवादाः श्रूयन्ते यस्तु जीवति धिक्कृतः |
4042 | 6054021c | मार्गः सत्पुरुषैर्जुष्टः सेव्यतां त्यज्यतां भयम् |
4043 | 6054022a | शयामहे वा निहताः पृथिव्यामल्पजीविताः |
4044 | 6054022c | दुष्प्रापं ब्रह्मलोकं वा प्राप्नुमो युधि सूदिताः |
4045 | 6054022e | संप्राप्नुयामः कीर्तिं वा निहत्य शत्रुमाहवे |
4046 | 6054023a | न कुम्भकर्णः काकुत्स्थं दृष्ट्वा जीवन्गमिष्यति |
4047 | 6054023c | दीप्यमानमिवासाद्य पतंगो ज्वलनं यथा |
4048 | 6054024a | पलायनेन चोद्दिष्टाः प्राणान्रक्षामहे वयम् |
4049 | 6054024c | एकेन बहवो भग्ना यशो नाशं गमिष्यति |
4050 | 6054025a | एवं ब्रुवाणं तं शूरमङ्गदं कनकाङ्गदम् |
4051 | 6054025c | द्रवमाणास्ततो वाक्यमूचुः शूरविगर्हितम् |
4052 | 6054026a | कृतं नः कदनं घोरं कुम्भकर्णेन रक्षसा |
4053 | 6054026c | न स्थानकालो गच्छामो दयितं जीवितं हि नः |
4054 | 6054027a | एतावदुक्त्वा वचनं सर्वे ते भेजिरे दिशः |
4055 | 6054027c | भीमं भीमाक्षमायान्तं दृष्ट्वा वानरयूथपाः |
4056 | 6054028a | द्रवमाणास्तु ते वीरा अङ्गदेन वलीमुखाः |
4057 | 6054028c | सान्त्वैश्च बहुमानैश्च ततः सर्वे निवर्तिताः |
4058 | 6054029a | ऋषभशरभमैन्दधूम्रनीलाः; कुमुदसुषेणगवाक्षरम्भताराः |
4059 | 6054029c | द्विविदपनसवायुपुत्रमुख्या;स्त्वरिततराभिमुखं रणं प्रयाताः |
4060 | 6055001a | ते निवृत्ता महाकायाः श्रुत्वाङ्गदवचस्तदा |
4061 | 6055001c | नैष्ठिकीं बुद्धिमास्थाय सर्वे संग्रामकाङ्क्षिणः |
4062 | 6055002a | समुदीरितवीर्यास्ते समारोपितविक्रमाः |
4063 | 6055002c | पर्यवस्थापिता वाक्यैरङ्गदेन वलीमुखाः |
4064 | 6055003a | प्रयाताश्च गता हर्षं मरणे कृतनिश्चयाः |
4065 | 6055003c | चक्रुः सुतुमुलं युद्धं वानरास्त्यक्तजीविताः |
4066 | 6055004a | अथ वृक्षान्महाकायाः सानूनि सुमहान्ति च |
4067 | 6055004c | वानरास्तूर्णमुद्यम्य कुम्भकर्णमभिद्रवन् |
4068 | 6055005a | स कुम्भकर्णः संक्रुद्धो गदामुद्यम्य वीर्यवान् |
4069 | 6055005c | अर्दयन्सुमहाकायः समन्ताद्व्याक्षिपद्रिपून् |
4070 | 6055006a | शतानि सप्त चाष्टौ च सहस्राणि च वानराः |
4071 | 6055006c | प्रकीर्णाः शेरते भूमौ कुम्भकर्णेन पोथिताः |
4072 | 6055007a | षोडशाष्टौ च दश च विंशत्त्रिंशत्तथैव च |
4073 | 6055007c | परिक्षिप्य च बाहुभ्यां खादन्विपरिधावति |
4074 | 6055007e | भक्षयन्भृशसंक्रुद्धो गरुडः पन्नगानिव |
4075 | 6055008a | हनूमाञ्शैलशृङ्गाणि वृक्षांश्च विविधान्बहून् |
4076 | 6055008c | ववर्ष कुम्भकर्णस्य शिरस्यम्बरमास्थितः |
4077 | 6055009a | तानि पर्वतशृङ्गाणि शूलेन तु बिभेद ह |
4078 | 6055009c | बभञ्ज वृक्षवर्षं च कुम्भकर्णो महाबलः |
4079 | 6055010a | ततो हरीणां तदनीकमुग्रं; दुद्राव शूलं निशितं प्रगृह्य |
4080 | 6055010c | तस्थौ ततोऽस्यापततः पुरस्ता;न्महीधराग्रं हनुमान्प्रगृह्य |
4081 | 6055011a | स कुम्भकर्णं कुपितो जघान; वेगेन शैलोत्तमभीमकायम् |
4082 | 6055011c | स चुक्षुभे तेन तदाभिबूतो; मेदार्द्रगात्रो रुधिरावसिक्तः |
4083 | 6055012a | स शूलमाविध्य तडित्प्रकाशं; गिरिं यथा प्रज्वलिताग्रशृङ्गम् |
4084 | 6055012c | बाह्वन्तरे मारुतिमाजघान; गुहोऽचलं क्रौञ्चमिवोग्रशक्त्या |
4085 | 6055013a | स शूलनिर्भिन्न महाभुजान्तरः; प्रविह्वलः शोणितमुद्वमन्मुखात् |
4086 | 6055013c | ननाद भीमं हनुमान्महाहवे; युगान्तमेघस्तनितस्वनोपमम् |
4087 | 6055014a | ततो विनेदुः सहसा प्रहृष्टा; रक्षोगणास्तं व्यथितं समीक्ष्य |
4088 | 6055014c | प्लवंगमास्तु व्यथिता भयार्ताः; प्रदुद्रुवुः संयति कुम्भकर्णात् |
4089 | 6055015a | नीलश्चिक्षेप शैलाग्रं कुम्भकर्णाय धीमते |
4090 | 6055015c | तमापतन्तं संप्रेक्ष्य मुष्टिनाभिजघान ह |
4091 | 6055016a | मुष्टिप्रहाराभिहतं तच्छैलाग्रं व्यशीर्यत |
4092 | 6055016c | सविस्फुलिङ्गं सज्वालं निपपात महीतले |
4093 | 6055017a | ऋषभः शरभो नीलो गवाक्षो गन्धमादनः |
4094 | 6055017c | पञ्चवानरशार्दूलाः कुम्भकर्णमुपाद्रवन् |
4095 | 6055018a | शैलैर्वृक्षैस्तलैः पादैर्मुष्टिभिश्च महाबलाः |
4096 | 6055018c | कुम्भकर्णं महाकायं सर्वतोऽभिनिजघ्निरे |
4097 | 6055019a | स्पर्शानिव प्रहारांस्तान्वेदयानो न विव्यथे |
4098 | 6055019c | ऋषभं तु महावेगं बाहुभ्यां परिषस्वजे |
4099 | 6055020a | कुम्भकर्णभुजाभ्यां तु पीडितो वानरर्षभः |
4100 | 6055020c | निपपातर्षभो भीमः प्रमुखागतशोणितः |
4101 | 6055021a | मुष्टिना शरभं हत्वा जानुना नीलमाहवे |
4102 | 6055021c | आजघान गवाक्षं च तलेनेन्द्ररिपुस्तदा |
4103 | 6055022a | दत्तप्रहरव्यथिता मुमुहुः शोणितोक्षिताः |
4104 | 6055022c | निपेतुस्ते तु मेदिन्यां निकृत्ता इव किंशुकाः |
4105 | 6055023a | तेषु वानरमुख्येषु पतितेषु महात्मसु |
4106 | 6055023c | वानराणां सहस्राणि कुम्भकर्णं प्रदुद्रुवुः |
4107 | 6055024a | तं शैलमिव शैलाभाः सर्वे तु प्लवगर्षभाः |
4108 | 6055024c | समारुह्य समुत्पत्य ददंशुश्च महाबलाः |
4109 | 6055025a | तं नखैर्दशनैश्चापि मुष्टिभिर्जानुभिस्तथा |
4110 | 6055025c | कुम्भकर्णं महाकायं ते जघ्नुः प्लवगर्षभाः |
4111 | 6055026a | स वानरसहस्रैस्तैराचितः पर्वतोपमः |
4112 | 6055026c | रराज राक्षसव्याघ्रो गिरिरात्मरुहैरिव |
4113 | 6055027a | बाहुभ्यां वानरान्सर्वान्प्रगृह्य स महाबलः |
4114 | 6055027c | भक्षयामास संक्रुद्धो गरुडः पन्नगानिव |
4115 | 6055028a | प्रक्षिप्ताः कुम्भकर्णेन वक्त्रे पातालसंनिभे |
4116 | 6055028c | नासा पुटाभ्यां निर्जग्मुः कर्णाभ्यां चैव वानराः |
4117 | 6055029a | भक्षयन्भृशसंक्रुद्धो हरीन्पर्वतसंनिभः |
4118 | 6055029c | बभञ्ज वानरान्सर्वान्संक्रुद्धो राक्षसोत्तमः |
4119 | 6055030a | मांसशोणितसंक्लेदां भूमिं कुर्वन्स राक्षसः |
4120 | 6055030c | चचार हरिसैन्येषु कालाग्निरिव मूर्छितः |
4121 | 6055031a | वज्रहस्तो यथा शक्रः पाशहस्त इवान्तकः |
4122 | 6055031c | शूलहस्तो बभौ तस्मिन्कुम्भकर्णो महाबलः |
4123 | 6055032a | यथा शुष्काण्यरण्यानि ग्रीष्मे दहति पावकः |
4124 | 6055032c | तथा वानरसैन्यानि कुम्भकर्णो विनिर्दहत् |
4125 | 6055033a | ततस्ते वध्यमानास्तु हतयूथा विनायकाः |
4126 | 6055033c | वानरा भयसंविग्ना विनेदुर्विस्वरं भृशम् |
4127 | 6055034a | अनेकशो वध्यमानाः कुम्भकर्णेन वानराः |
4128 | 6055034c | राघवं शरणं जग्मुर्व्यथिताः खिन्नचेतसः |
4129 | 6055035a | तमापतन्तं संप्रेक्ष्य कुम्भकर्णं महाबलम् |
4130 | 6055035c | उत्पपात तदा वीरः सुग्रीवो वानराधिपः |
4131 | 6055036a | स पर्वताग्रमुत्क्षिप्य समाविध्य महाकपिः |
4132 | 6055036c | अभिदुद्राव वेगेन कुम्भकर्णं महाबलम् |
4133 | 6055037a | तमापतन्तं संप्रेक्ष्य कुम्भकर्णः प्लवंगमम् |
4134 | 6055037c | तस्थौ विवृतसर्वाङ्गो वानरेन्द्रस्य संमुखः |
4135 | 6055038a | कपिशोणितदिग्धाङ्गं भक्षयन्तं महाकपीन् |
4136 | 6055038c | कुम्भकर्णं स्थितं दृष्ट्वा सुग्रीवो वाक्यमब्रवीत् |
4137 | 6055039a | पातिताश्च त्वया वीराः कृतं कर्म सुदुष्करम् |
4138 | 6055039c | भक्षितानि च सैन्यानि प्राप्तं ते परमं यशः |
4139 | 6055040a | त्यज तद्वानरानीकं प्राकृतैः किं करिष्यसि |
4140 | 6055040c | सहस्वैकं निपातं मे पर्वतस्यास्य राक्षस |
4141 | 6055041a | तद्वाक्यं हरिराजस्य सत्त्वधैर्यसमन्वितम् |
4142 | 6055041c | श्रुत्वा राक्षसशार्दूलः कुम्भकर्णोऽब्रवीद्वचः |
4143 | 6055042a | प्रजापतेस्तु पौत्रस्त्वं तथैवर्क्षरजःसुतः |
4144 | 6055042c | श्रुतपौरुषसंपन्नस्तस्माद्गर्जसि वानर |
4145 | 6055043a | स कुम्भकर्णस्य वचो निशम्य; व्याविध्य शैलं सहसा मुमोच |
4146 | 6055043c | तेनाजघानोरसि कुम्भकर्णं; शैलेन वज्राशनिसंनिभेन |
4147 | 6055044a | तच्छैलशृङ्गं सहसा विकीर्णं; भुजान्तरे तस्य तदा विशाले |
4148 | 6055044c | ततो विषेदुः सहसा प्लवंगमा; रक्षोगणाश्चापि मुदा विनेदुः |
4149 | 6055045a | स शैलशृङ्गाभिहतश्चुकोप; ननाद कोपाच्च विवृत्य वक्त्रम् |
4150 | 6055045c | व्याविध्य शूलं च तडित्प्रकाशं; चिक्षेप हर्यृक्षपतेर्वधाय |
4151 | 6055046a | तत्कुम्भकर्णस्य भुजप्रविद्धं; शूलं शितं काञ्चनदामजुष्टम् |
4152 | 6055046c | क्षिप्रं समुत्पत्य निगृह्य दोर्भ्यां; बभञ्ज वेगेन सुतोऽनिलस्य |
4153 | 6055047a | कृतं भारसहस्रस्य शूलं कालायसं महत् |
4154 | 6055047c | बभञ्ज जनौमारोप्य प्रहृष्टः प्लवगर्षभः |
4155 | 6055048a | स तत्तदा भग्नमवेक्ष्य शूलं; चुकोप रक्षोऽधिपतिर्महात्मा |
4156 | 6055048c | उत्पाट्य लङ्कामलयात्स शृङ्गं; जघान सुग्रीवमुपेत्य तेन |
4157 | 6055049a | स शैलशृङ्गाभिहतो विसंज्ञः; पपात भूमौ युधि वानरेन्द्रः |
4158 | 6055049c | तं प्रेक्ष्य भूमौ पतितं विसंज्ञं; नेदुः प्रहृष्टा युधि यातुधानाः |
4159 | 6055050a | तमभ्युपेत्याद्भुतघोरवीर्यं; स कुम्भकर्णो युधि वानरेन्द्रम् |
4160 | 6055050c | जहार सुग्रीवमभिप्रगृह्य; यथानिलो मेघमतिप्रचण्डः |
4161 | 6055051a | स तं महामेघनिकाशरूप;मुत्पाट्य गच्छन्युधि कुम्भकर्णः |
4162 | 6055051c | रराज मेरुप्रतिमानरूपो; मेरुर्यथात्युच्छ्रितघोरशृङ्गः |
4163 | 6055052a | ततः समुत्पाट्य जगाम वीरः; संस्तूयमानो युधि राक्षसेन्द्रैः |
4164 | 6055052c | शृण्वन्निनादं त्रिदशालयानां; प्लवंगराजग्रहविस्मितानाम् |
4165 | 6055053a | ततस्तमादाय तदा स मेने; हरीन्द्रमिन्द्रोपममिन्द्रवीर्यः |
4166 | 6055053c | अस्मिन्हृते सर्वमिदं हृतं स्या;त्सराघवं सैन्यमितीन्द्रशत्रुः |
4167 | 6055054a | विद्रुतां वाहिनीं दृष्ट्वा वानराणां ततस्ततः |
4168 | 6055054c | कुम्भकर्णेन सुग्रीवं गृहीतं चापि वानरम् |
4169 | 6055055a | हनूमांश्चिन्तयामास मतिमान्मारुतात्मजः |
4170 | 6055055c | एवं गृहीते सुग्रीवे किं कर्तव्यं मया भवेत् |
4171 | 6055056a | यद्वै न्याय्यं मया कर्तुं तत्करिष्यामि सर्वथा |
4172 | 6055056c | भूत्वा पर्वतसंकाशो नाशयिष्यामि राक्षसं |
4173 | 6055057a | मया हते संयति कुम्भकर्णे; महाबले मुष्टिविशीर्णदेहे |
4174 | 6055057c | विमोचिते वानरपार्थिवे च; भवन्तु हृष्टाः प्रवगाः समग्राः |
4175 | 6055058a | अथ वा स्वयमप्येष मोक्षं प्राप्स्यति पार्थिवः |
4176 | 6055058c | गृहीतोऽयं यदि भवेत्त्रिदशैः सासुरोरगैः |
4177 | 6055059a | मन्ये न तावदात्मानं बुध्यते वानराधिपः |
4178 | 6055059c | शैलप्रहाराभिहतः कुम्भकर्णेन संयुगे |
4179 | 6055060a | अयं मुहूर्तात्सुग्रीवो लब्धसंज्ञो महाहवे |
4180 | 6055060c | आत्मनो वानराणां च यत्पथ्यं तत्करिष्यति |
4181 | 6055061a | मया तु मोक्षितस्यास्य सुग्रीवस्य महात्मनः |
4182 | 6055061c | अप्रीतश्च भवेत्कष्टा कीर्तिनाशश्च शाश्वतः |
4183 | 6055062a | तस्मान्मुहूर्तं काङ्क्षिष्ये विक्रमं पार्थिवस्य नः |
4184 | 6055062c | भिन्नं च वानरानीकं तावदाश्वासयाम्यहम् |
4185 | 6055063a | इत्येवं चिन्तयित्वा तु हनूमान्मारुतात्मजः |
4186 | 6055063c | भूयः संस्तम्भयामास वानराणां महाचमूम् |
4187 | 6055064a | स कुम्भकर्णोऽथ विवेश लङ्कां; स्फुरन्तमादाय महाहरिं तम् |
4188 | 6055064c | विमानचर्यागृहगोपुरस्थैः; पुष्पाग्र्यवर्षैरवकीर्यमाणः |
4189 | 6055065a | ततः स संज्ञामुपलभ्य कृच्छ्रा;द्बलीयसस्तस्य भुजान्तरस्थः |
4190 | 6055065c | अवेक्षमाणः पुरराजमार्गं; विचिन्तयामास मुहुर्महात्मा |
4191 | 6055066a | एवं गृहीतेन कथं नु नाम; शक्यं मया संप्रति कर्तुमद्य |
4192 | 6055066c | तथा करिष्यामि यथा हरीणां; भविष्यतीष्टं च हितं च कार्यम् |
4193 | 6055067a | ततः कराग्रैः सहसा समेत्य; राजा हरीणाममरेन्द्रशत्रोः |
4194 | 6055067c | नखैश्च कर्णौ दशनैश्च नासां; ददंश पार्श्वेषु च कुम्भकर्णम् |
4195 | 6055068a | स कुम्भकर्णौ हृतकर्णनासो; विदारितस्तेन विमर्दितश्च |
4196 | 6055068c | रोषाभिभूतः क्षतजार्द्रगात्रः; सुग्रीवमाविध्य पिपेष भूमौ |
4197 | 6055069a | स भूतले भीमबलाभिपिष्टः; सुरारिभिस्तैरभिहन्यमानः |
4198 | 6055069c | जगाम खं वेगवदभ्युपेत्य; पुनश्च रामेण समाजगाम |
4199 | 6055070a | कर्णनासा विहीनस्य कुम्भकर्णो महाबलः |
4200 | 6055070c | रराज शोणितोत्सिक्तो गिरिः प्रस्रवणैरिव |
4201 | 6055071a | ततः स पुर्याः सहसा महात्मा; निष्क्रम्य तद्वानरसैन्यमुग्रम् |
4202 | 6055071c | बभक्ष रक्षो युधि कुम्भकर्णः; प्रजा युगान्ताग्निरिव प्रदीप्तः |
4203 | 6055072a | बुभुक्षितः शोणितमांसगृध्नुः; प्रविश्य तद्वानरसैन्यमुग्रम् |
4204 | 6055072c | चखाद रक्षांसि हरीन्पिशाचा;नृक्षांश्च मोहाद्युधि कुम्भकर्णः |
4205 | 6055073a | एकं द्वौ त्रीन्बहून्क्रुद्धो वानरान्सह राक्षसैः |
4206 | 6055073c | समादायैकहस्तेन प्रचिक्षेप त्वरन्मुखे |
4207 | 6055074a | संप्रस्रवंस्तदा मेदः शोणितं च महाबलः |
4208 | 6055074c | वध्यमानो नगेन्द्राग्रैर्भक्षयामास वानरान् |
4209 | 6055074e | ते भक्ष्यमाणा हरयो रामं जग्मुस्तदा गतिम् |
4210 | 6055075a | तस्मिन्काले सुमित्रायाः पुत्रः परबलार्दनः |
4211 | 6055075c | चकार लक्ष्मणः क्रुद्धो युद्धं परपुरंजयः |
4212 | 6055076a | स कुम्भकर्णस्य शराञ्शरीरे सप्त वीर्यवान् |
4213 | 6055076c | निचखानाददे चान्यान्विससर्ज च लक्ष्मणः |
4214 | 6055077a | अतिक्रम्य च सौमित्रिं कुम्भकर्णो महाबलः |
4215 | 6055077c | राममेवाभिदुद्राव दारयन्निव मेदिनीम् |
4216 | 6055078a | अथ दाशरथी रामो रौद्रमस्त्रं प्रयोजयन् |
4217 | 6055078c | कुम्भकर्णस्य हृदये ससर्ज निशिताञ्शरान् |
4218 | 6055079a | तस्य रामेण विद्धस्य सहसाभिप्रधावतः |
4219 | 6055079c | अङ्गारमिश्राः क्रुद्धस्य मुखान्निश्चेरुरर्चिषः |
4220 | 6055080a | तस्योरसि निमग्नाश्च शरा बर्हिणवाससः |
4221 | 6055080c | हस्ताच्चास्य परिभ्रष्टा पपातोर्व्यां महागदा |
4222 | 6055081a | स निरायुधमात्मानं यदा मेने महाबलः |
4223 | 6055081c | मुष्टिभ्यां चारणाभ्यां च चकार कदनं महत् |
4224 | 6055082a | स बाणैरतिविद्धाङ्गः क्षतजेन समुक्षितः |
4225 | 6055082c | रुधिरं परिसुस्राव गिरिः प्रस्रवणानिव |
4226 | 6055083a | स तीव्रेण च कोपेन रुधिरेण च मूर्छितः |
4227 | 6055083c | वानरान्राक्षसानृक्षान्खादन्विपरिधावति |
4228 | 6055084a | तस्मिन्काले स धर्मात्मा लक्ष्मणो राममब्रवीत् |
4229 | 6055084c | कुम्भकर्णवधे युक्तो योगान्परिमृशन्बहून् |
4230 | 6055085a | नैवायं वानरान्राजन्न विजानाति राक्षसान् |
4231 | 6055085c | मत्तः शोणितगन्धेन स्वान्परांश्चैव खादति |
4232 | 6055086a | साध्वेनमधिरोहन्तु सर्वतो वानरर्षभाः |
4233 | 6055086c | यूथपाश्च यथामुख्यास्तिष्ठन्त्वस्य समन्ततः |
4234 | 6055087a | अप्ययं दुर्मतिः काले गुरुभारप्रपीडितः |
4235 | 6055087c | प्रपतन्राक्षसो भूमौ नान्यान्हन्यात्प्लवंगमान् |
4236 | 6055088a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राजपुत्रस्य धीमतः |
4237 | 6055088c | ते समारुरुहुर्हृष्टाः कुम्भकर्णं प्लवंगमाः |
4238 | 6055089a | कुम्भकर्णस्तु संक्रुद्धः समारूढः प्लवंगमैः |
4239 | 6055089c | व्यधूनयत्तान्वेगेन दुष्टहस्तीव हस्तिपान् |
4240 | 6055090a | तान्दृष्ट्वा निर्धूतान्रामो रुष्टोऽयमिति राक्षसः |
4241 | 6055090c | समुत्पपात वेगेन धनुरुत्तममाददे |
4242 | 6055091a | स चापमादाय भुजंगकल्पं; दृढज्यमुग्रं तपनीयचित्रम् |
4243 | 6055091c | हरीन्समाश्वास्य समुत्पपात; रामो निबद्धोत्तमतूणबाणः |
4244 | 6055092a | स वानरगणैस्तैस्तु वृतः परमदुर्जयः |
4245 | 6055092c | लक्ष्मणानुचरो रामः संप्रतस्थे महाबलः |
4246 | 6055093a | स ददर्श महात्मानं किरीटिनमरिंदमम् |
4247 | 6055093c | शोणिताप्लुतसर्वाङ्गं कुम्भकर्णं महाबलम् |
4248 | 6055094a | सर्वान्समभिधावन्तं यथारुष्टं दिशा गजम् |
4249 | 6055094c | मार्गमाणं हरीन्क्रुद्धं राक्षसैः परिवारितम् |
4250 | 6055095a | विन्ध्यमन्दरसंकाशं काञ्चनाङ्गदभूषणम् |
4251 | 6055095c | स्रवन्तं रुधिरं वक्त्राद्वर्षमेघमिवोत्थितम् |
4252 | 6055096a | जिह्वया परिलिह्यन्तं शोणितं शोणितोक्षितम् |
4253 | 6055096c | मृद्नन्तं वानरानीकं कालान्तकयमोपमम् |
4254 | 6055097a | तं दृष्ट्वा राक्षसश्रेष्ठं प्रदीप्तानलवर्चसं |
4255 | 6055097c | विस्फारयामास तदा कार्मुकं पुरुषर्षभः |
4256 | 6055098a | स तस्य चापनिर्घोषात्कुपितो नैरृतर्षभः |
4257 | 6055098c | अमृष्यमाणस्तं घोषमभिदुद्राव राघवम् |
4258 | 6055099a | ततस्तु वातोद्धतमेघकल्पं; भुजंगराजोत्तमभोगबाहुम् |
4259 | 6055099c | तमापतन्तं धरणीधराभ;मुवाच रामो युधि कुम्भकर्णम् |
4260 | 6055100a | आगच्छ रक्षोऽधिपमा विषाद;मवस्थितोऽहं प्रगृहीतचापः |
4261 | 6055100c | अवेहि मां शक्रसपत्न राम;मयं मुहूर्ताद्भविता विचेताः |
4262 | 6055101a | रामोऽयमिति विज्ञाय जहास विकृतस्वनम् |
4263 | 6055101c | पातयन्निव सर्वेषां हृदयानि वनौकसाम् |
4264 | 6055102a | प्रहस्य विकृतं भीमं स मेघस्वनितोपमम् |
4265 | 6055102c | कुम्भकर्णो महातेजा राघवं वाक्यमब्रवीत् |
4266 | 6055103a | नाहं विराधो विज्ञेयो न कबन्धः खरो न च |
4267 | 6055103c | न वाली न च मारीचः कुम्भकर्णोऽहमागतः |
4268 | 6055104a | पश्य मे मुद्गरं घोरं सर्वकालायसं महत् |
4269 | 6055104c | अनेन निर्जिता देवा दानवाश्च मया पुरा |
4270 | 6055105a | विकर्णनास इति मां नावज्ञातुं त्वमर्हसि |
4271 | 6055105c | स्वल्पापि हि न मे पीडा कर्णनासाविनाशनात् |
4272 | 6055106a | दर्शयेक्ष्वाकुशार्दूल वीर्यं गात्रेषु मे लघु |
4273 | 6055106c | ततस्त्वां भक्षयिष्यामि दृष्टपौरुषविक्रमम् |
4274 | 6055107a | स कुम्भकर्णस्य वचो निशम्य; रामः सुपुङ्खान्विससर्ज बाणान् |
4275 | 6055107c | तैराहतो वज्रसमप्रवेगै;र्न चुक्षुभे न व्यथते सुरारिः |
4276 | 6055108a | यैः सायकैः सालवरा निकृत्ता; वाली हतो वानरपुंगवश्च |
4277 | 6055108c | ते कुम्भकर्णस्य तदा शरीरं; वज्रोपमा न व्यथयां प्रचक्रुः |
4278 | 6055109a | स वारिधारा इव सायकांस्ता;न्पिबञ्शरीरेण महेन्द्रशत्रुः |
4279 | 6055109c | जघान रामस्य शरप्रवेगं; व्याविध्य तं मुद्गरमुग्रवेगम् |
4280 | 6055110a | ततस्तु रक्षः क्षतजानुलिप्तं; वित्रासनं देवमहाचमूनाम् |
4281 | 6055110c | व्याविध्य तं मुद्गरमुग्रवेगं; विद्रावयामास चमूं हरीणाम् |
4282 | 6055111a | वायव्यमादाय ततो वरास्त्रं; रामः प्रचिक्षेप निशाचराय |
4283 | 6055111c | समुद्गरं तेन जहार बाहुं; स कृत्तबाहुस्तुमुलं ननाद |
4284 | 6055112a | स तस्य बाहुर्गिरिशृङ्गकल्पः; समुद्गरो राघवबाणकृत्तः |
4285 | 6055112c | पपात तस्मिन्हरिराजसैन्ये; जघान तां वानरवाहिनीं च |
4286 | 6055113a | ते वानरा भग्नहतावशेषाः; पर्यन्तमाश्रित्य तदा विषण्णाः |
4287 | 6055113c | प्रवेपिताङ्गा ददृशुः सुघोरं; नरेन्द्ररक्षोऽधिपसंनिपातम् |
4288 | 6055114a | स कुम्भकर्णोऽस्त्रनिकृत्तबाहु;र्महान्निकृत्ताग्र इवाचलेन्द्रः |
4289 | 6055114c | उत्पाटयामास करेण वृक्षं; ततोऽभिदुद्राव रणे नरेन्द्रम् |
4290 | 6055115a | तं तस्य बाहुं सह सालवृक्षं; समुद्यतं पन्नगभोगकल्पम् |
4291 | 6055115c | ऐन्द्रास्त्रयुक्तेन जहार रामो; बाणेन जाम्बूनदचित्रितेन |
4292 | 6055116a | स कुम्भकर्णस्य भुजो निकृत्तः; पपात भूमौ गिरिसंनिकाशः |
4293 | 6055116c | विवेष्टमानो निजघान वृक्षा;ञ्शैलाञ्शिलावानरराक्षसांश्च |
4294 | 6055117a | तं छिन्नबाहुं समवेक्ष्य रामः; समापतन्तं सहसा नदन्तम् |
4295 | 6055117c | द्वावर्धचन्द्रौ निशितौ प्रगृह्य; चिच्छेद पादौ युधि राक्षसस्य |
4296 | 6055118a | निकृत्तबाहुर्विनिकृत्तपादो; विदार्य वक्त्रं वडवामुखाभम् |
4297 | 6055118c | दुद्राव रामं सहसाभिगर्ज;न्राहुर्यथा चन्द्रमिवान्तरिक्षे |
4298 | 6055119a | अपूरयत्तस्य मुखं शिताग्रै; रामः शरैर्हेमपिनद्धपुङ्खैः |
4299 | 6055119c | स पूर्णवक्त्रो न शशाक वक्तुं; चुकूज कृच्छ्रेण मुमोह चापि |
4300 | 6055120a | अथाददे सूर्यमरीचिकल्पं; स ब्रह्मदण्डान्तककालकल्पम् |
4301 | 6055120c | अरिष्टमैन्द्रं निशितं सुपुङ्खं; रामः शरं मारुततुल्यवेगम् |
4302 | 6055121a | तं वज्रजाम्बूनदचारुपुङ्खं; प्रदीप्तसूर्यज्वलनप्रकाशम् |
4303 | 6055121c | महेन्द्रवज्राशनितुल्यवेगं; रामः प्रचिक्षेप निशाचराय |
4304 | 6055122a | स सायको राघवबाहुचोदितो; दिशः स्वभासा दश संप्रकाशयन् |
4305 | 6055122c | विधूमवैश्वानरदीप्तदर्शनो; जगाम शक्राशनितुल्यविक्रमः |
4306 | 6055123a | स तन्महापर्वतकूटसंनिभं; विवृत्तदंष्ट्रं चलचारुकुण्डलम् |
4307 | 6055123c | चकर्त रक्षोऽधिपतेः शिरस्तदा; यथैव वृत्रस्य पुरा पुरंदरः |
4308 | 6055124a | तद्रामबाणाभिहतं पपात; रक्षःशिरः पर्वतसंनिकाशम् |
4309 | 6055124c | बभञ्ज चर्यागृहगोपुराणि; प्राकारमुच्चं तमपातयच्च |
4310 | 6055125a | तच्चातिकायं हिमवत्प्रकाशं; रक्षस्तदा तोयनिधौ पपात |
4311 | 6055125c | ग्राहान्महामीनचयान्भुजंगमा;न्ममर्द भूमिं च तथा विवेश |
4312 | 6055126a | तस्मिर्हते ब्राह्मणदेवशत्रौ; महाबले संयति कुम्भकर्णे |
4313 | 6055126c | चचाल भूर्भूमिधराश्च सर्वे; हर्षाच्च देवास्तुमुलं प्रणेदुः |
4314 | 6055127a | ततस्तु देवर्षिमहर्षिपन्नगाः; सुराश्च भूतानि सुपर्णगुह्यकाः |
4315 | 6055127c | सयक्षगन्धर्वगणा नभोगताः; प्रहर्षिता राम पराक्रमेण |
4316 | 6055128a | प्रहर्षमीयुर्बहवस्तु वानराः; प्रबुद्धपद्मप्रतिमैरिवाननैः |
4317 | 6055128c | अपूजयन्राघवमिष्टभागिनं; हते रिपौ भीमबले दुरासदे |
4318 | 6055129a | स कुम्भकर्णं सुरसैन्यमर्दनं; महत्सु युद्धेष्वपराजितश्रमम् |
4319 | 6055129c | ननन्द हत्वा भरताग्रजो रणे; महासुरं वृत्रमिवामराधिपः |
4320 | 6056001a | कुम्भकर्णं हतं दृष्ट्वा राघवेण महात्मना |
4321 | 6056001c | राक्षसा राक्षसेन्द्राय रावणाय न्यवेदयन् |
4322 | 6056002a | श्रुत्वा विनिहतं संख्ये कुम्भकर्णं महाबलम् |
4323 | 6056002c | रावणः शोकसंतप्तो मुमोह च पपात च |
4324 | 6056003a | पितृव्यं निहतं श्रुत्वा देवान्तकनरान्तकौ |
4325 | 6056003c | त्रिशिराश्चातिकायश्च रुरुदुः शोकपीडिताः |
4326 | 6056004a | भ्रातरं निहतं श्रुत्वा रामेणाक्लिष्टकर्मणा |
4327 | 6056004c | महोदरमहापार्श्वौ शोकाक्रान्तौ बभूवतुः |
4328 | 6056005a | ततः कृच्छ्रात्समासाद्य संज्ञां राक्षसपुंगवः |
4329 | 6056005c | कुम्भकर्णवधाद्दीनो विललाप स रावणः |
4330 | 6056006a | हा वीर रिपुदर्पघ्न कुम्भकर्ण महाबल |
4331 | 6056006c | शत्रुसैन्यं प्रताप्यैकः क्व मां संत्यज्य गच्छसि |
4332 | 6056007a | इदानीं खल्वहं नास्मि यस्य मे पतितो भुजः |
4333 | 6056007c | दक्षिणो यं समाश्रित्य न बिभेमि सुरासुरान् |
4334 | 6056008a | कथमेवंविधो वीरो देवदानवदर्पहा |
4335 | 6056008c | कालाग्निप्रतिमो ह्यद्य राघवेण रणे हतः |
4336 | 6056009a | यस्य ते वज्रनिष्पेषो न कुर्याद्व्यसनं सदा |
4337 | 6056009c | स कथं रामबाणार्तः प्रसुप्तोऽसि महीतले |
4338 | 6056010a | एते देवगणाः सार्धमृषिभिर्गगने स्थिताः |
4339 | 6056010c | निहतं त्वां रणे दृष्ट्वा निनदन्ति प्रहर्षिताः |
4340 | 6056011a | ध्रुवमद्यैव संहृष्टा लब्धलक्ष्याः प्लवंगमाः |
4341 | 6056011c | आरोक्ष्यन्तीह दुर्गाणि लङ्काद्वाराणि सर्वशः |
4342 | 6056012a | राज्येन नास्ति मे कार्यं किं करिष्यामि सीतया |
4343 | 6056012c | कुम्भकर्णविहीनस्य जीविते नास्ति मे रतिः |
4344 | 6056013a | यद्यहं भ्रातृहन्तारं न हन्मि युधि राघवम् |
4345 | 6056013c | ननु मे मरणं श्रेयो न चेदं व्यर्थजीवितम् |
4346 | 6056014a | अद्यैव तं गमिष्यामि देशं यत्रानुजो मम |
4347 | 6056014c | न हि भ्रातॄन्समुत्सृज्य क्षणं जीवितुमुत्सहे |
4348 | 6056015a | देवा हि मां हसिष्यन्ति दृष्ट्वा पूर्वापकारिणम् |
4349 | 6056015c | कथमिन्द्रं जयिष्यामि कुम्भकर्णहते त्वयि |
4350 | 6056016a | तदिदं मामनुप्राप्तं विभीषणवचः शुभम् |
4351 | 6056016c | यदज्ञानान्मया तस्य न गृहीतं महात्मनः |
4352 | 6056017a | विभीषणवचो यावत्कुम्भकर्णप्रहस्तयोः |
4353 | 6056017c | विनाशोऽयं समुत्पन्नो मां व्रीडयति दारुणः |
4354 | 6056018a | तस्यायं कर्मणः प्रातो विपाको मम शोकदः |
4355 | 6056018c | यन्मया धार्मिकः श्रीमान्स निरस्तो विभीषणः |
4356 | 6056019a | इति बहुविधमाकुलान्तरात्मा; कृपणमतीव विलप्य कुम्भकर्णम् |
4357 | 6056019c | न्यपतदथ दशाननो भृशार्त;स्तमनुजमिन्द्ररिपुं हतं विदित्वा |
4358 | 6057001a | एवं विलपमानस्य रावणस्य दुरात्मनः |
4359 | 6057001c | श्रुत्वा शोकाभितप्तस्य त्रिशिरा वाक्यमब्रवीत् |
4360 | 6057002a | एवमेव महावीर्यो हतो नस्तात मध्यमः |
4361 | 6057002c | न तु सत्पुरुषा राजन्विलपन्ति यथा भवान् |
4362 | 6057003a | नूनं त्रिभुवणस्यापि पर्याप्तस्त्वमसि प्रभो |
4363 | 6057003c | स कस्मात्प्राकृत इव शोकस्यात्मानमीदृशम् |
4364 | 6057004a | ब्रह्मदत्तास्ति ते शक्तिः कवचः सायको धनुः |
4365 | 6057004c | सहस्रखरसंयुक्तो रथो मेघसमस्वनः |
4366 | 6057005a | त्वयासकृद्विशस्त्रेण विशस्ता देवदानवाः |
4367 | 6057005c | स सर्वायुधसंपन्नो राघवं शास्तुमर्हसि |
4368 | 6057006a | कामं तिष्ठ महाराजनिर्गमिष्याम्यहं रणम् |
4369 | 6057006c | उद्धरिष्यामि ते शत्रून्गरुडः पन्नगानिह |
4370 | 6057007a | शम्बरो देवराजेन नरको विष्णुना यथा |
4371 | 6057007c | तथाद्य शयिता रामो मया युधि निपातितः |
4372 | 6057008a | श्रुत्वा त्रिशिरसो वाक्यं रावणो राक्षसाधिपः |
4373 | 6057008c | पुनर्जातमिवात्मानं मन्यते कालचोदितः |
4374 | 6057009a | श्रुत्वा त्रिशिरसो वाक्यं देवान्तकनरान्तकौ |
4375 | 6057009c | अतिकायश्च तेजस्वी बभूवुर्युद्धहर्षिताः |
4376 | 6057010a | ततोऽहमहमित्येवं गर्जन्तो नैरृतर्षभाः |
4377 | 6057010c | रावणस्य सुता वीराः शक्रतुल्यपराक्रमाः |
4378 | 6057011a | अन्तरिक्षचराः सर्वे सर्वे माया विशारदाः |
4379 | 6057011c | सर्वे त्रिदशदर्पघ्नाः सर्वे च रणदुर्मदाः |
4380 | 6057012a | सर्वेऽस्त्रबलसंपन्नाः सर्वे विस्तीर्ण कीर्तयः |
4381 | 6057012c | सर्वे समरमासाद्य न श्रूयन्ते स्म निर्जिताः |
4382 | 6057013a | सर्वेऽस्त्रविदुषो वीराः सर्वे युद्धविशारदाः |
4383 | 6057013c | सर्वे प्रवरजिज्ञानाः सर्वे लब्धवरास्तथा |
4384 | 6057014a | स तैस्तथा भास्करतुल्यवर्चसैः; सुतैर्वृतः शत्रुबलप्रमर्दनैः |
4385 | 6057014c | रराज राजा मघवान्यथामरै;र्वृतो महादानवदर्पनाशनैः |
4386 | 6057015a | स पुत्रान्संपरिष्वज्य भूषयित्वा च भूषणैः |
4387 | 6057015c | आशीर्भिश्च प्रशस्ताभिः प्रेषयामास संयुगे |
4388 | 6057016a | महोदरमहापार्श्वौ भ्रातरौ चापि रावणः |
4389 | 6057016c | रक्षणार्थं कुमाराणां प्रेषयामास संयुगे |
4390 | 6057017a | तेऽभिवाद्य महात्मानं रावणं रिपुरावणम् |
4391 | 6057017c | कृत्वा प्रदक्षिणं चैव महाकायाः प्रतस्थिरे |
4392 | 6057018a | सर्वौषधीभिर्गन्धैश्च समालभ्य महाबलाः |
4393 | 6057018c | निर्जग्मुर्नैरृतश्रेष्ठाः षडेते युद्धकाङ्क्षिणः |
4394 | 6057019a | ततः सुदर्शनं नाम नीलजीमूतसंनिभम् |
4395 | 6057019c | ऐरावतकुले जातमारुरोह महोदरः |
4396 | 6057020a | सर्वायुधसमायुक्तं तूणीभिश्च स्वलंकृतम् |
4397 | 6057020c | रराज गजमास्थाय सवितेवास्तमूर्धनि |
4398 | 6057021a | हयोत्तमसमायुक्तं सर्वायुधसमाकुलम् |
4399 | 6057021c | आरुरोह रथश्रेष्ठं त्रिशिरा रावणात्मजः |
4400 | 6057022a | त्रिशिरा रथमास्थाय विरराज धनुर्धरः |
4401 | 6057022c | सविद्युदुल्कः सज्वालः सेन्द्रचाप इवाम्बुदः |
4402 | 6057023a | त्रिभिः किरीटैस्त्रिशिराः शुशुभे स रथोत्तमे |
4403 | 6057023c | हिमवानिव शैलेन्द्रस्त्रिभिः काञ्चनपर्वतैः |
4404 | 6057024a | अतिकायोऽपि तेजस्वी राक्षसेन्द्रसुतस्तदा |
4405 | 6057024c | आरुरोह रथश्रेष्ठं श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम् |
4406 | 6057025a | सुचक्राक्षं सुसंयुक्तं सानुकर्षं सकूबरम् |
4407 | 6057025c | तूणीबाणासनैर्दीप्तं प्रासासि परिघाकुलम् |
4408 | 6057026a | स काञ्चनविचित्रेण किरीटेन विराजता |
4409 | 6057026c | भूषणैश्च बभौ मेरुः प्रभाभिरिव भास्वरः |
4410 | 6057027a | स रराज रथे तस्मिन्राजसूनुर्महाबलः |
4411 | 6057027c | वृतो नैरृतशार्दूलैर्वज्रपाणिरिवामरैः |
4412 | 6057028a | हयमुच्चैःश्रवः प्रख्यं श्वेतं कनकभूषणम् |
4413 | 6057028c | मनोजवं महाकायमारुरोह नरान्तकः |
4414 | 6057029a | गृहीत्वा प्रासमुक्लाभं विरराज नरान्तकः |
4415 | 6057029c | शक्तिमादाय तेजस्वी गुहः शत्रुष्विवाहवे |
4416 | 6057030a | देवान्तकः समादाय परिघं वज्रभूषणम् |
4417 | 6057030c | परिगृह्य गिरिं दोर्भ्यां वपुर्विष्णोर्विडम्बयन् |
4418 | 6057031a | महापार्श्वो महातेजा गदामादाय वीर्यवान् |
4419 | 6057031c | विरराज गदापाणिः कुबेर इव संयुगे |
4420 | 6057032a | ते प्रतस्थुर्महात्मानो बलैरप्रतिमैर्वृताः |
4421 | 6057032c | सुरा इवामरावत्यां बलैरप्रतिमैर्वृताः |
4422 | 6057033a | तान्गजैश्च तुरंगैश्च रथैश्चाम्बुदनिस्वनैः |
4423 | 6057033c | अनुजग्मुर्महात्मानो राक्षसाः प्रवरायुधाः |
4424 | 6057034a | ते विरेजुर्महात्मानो कुमाराः सूर्यवर्चसः |
4425 | 6057034c | किरीटिनः श्रिया जुष्टा ग्रहा दीप्ता इवाम्बरे |
4426 | 6057035a | प्रगृहीता बभौ तेषां छत्राणामावलिः सिता |
4427 | 6057035c | शारदाभ्रप्रतीकाशां हंसावलिरिवाम्बरे |
4428 | 6057036a | मरणं वापि निश्चित्य शत्रूणां वा पराजयम् |
4429 | 6057036c | इति कृत्वा मतिं वीरा निर्जग्मुः संयुगार्थिनः |
4430 | 6057037a | जगर्जुश्च प्रणेदुश्च चिक्षिपुश्चापि सायकान् |
4431 | 6057037c | जहृषुश्च महात्मानो निर्यान्तो युद्धदुर्मदाः |
4432 | 6057038a | क्ष्वेडितास्फोटनिनदैः संचचालेव मेदिनी |
4433 | 6057038c | रक्षसां सिंहनादैश्च पुस्फोटेव तदाम्बरम् |
4434 | 6057039a | तेऽभिनिष्क्रम्य मुदिता राक्षसेन्द्रा महाबलाः |
4435 | 6057039c | ददृशुर्वानरानीकं समुद्यतशिलानगम् |
4436 | 6057040a | हरयोऽपि महात्मानो ददृशुर्नैरृतं बलम् |
4437 | 6057040c | हस्त्यश्वरथसंबाधं किङ्किणीशतनादितम् |
4438 | 6057041a | नीलजीमूतसंकाशं समुद्यतमहायुधम् |
4439 | 6057041c | दीप्तानलरविप्रख्यैर्नैरृतैः सर्वतो वृतम् |
4440 | 6057042a | तद्दृष्ट्वा बलमायान्तं लब्धलक्ष्याः प्लवंगमाः |
4441 | 6057042c | समुद्यतमहाशैलाः संप्रणेदुर्मुहुर्मुहुः |
4442 | 6057043a | ततः समुद्घुष्टरवं निशम्य; रक्षोगणा वानरयूथपानाम् |
4443 | 6057043c | अमृष्यमाणाः परहर्षमुग्रं; महाबला भीमतरं विनेदुः |
4444 | 6057044a | ते राक्षसबलं घोरं प्रविश्य हरियूथपाः |
4445 | 6057044c | विचेरुरुद्यतैः शैलैर्नगाः शिखरिणो यथा |
4446 | 6057045a | केचिदाकाशमाविश्य केचिदुर्व्यां प्लवंगमाः |
4447 | 6057045c | रक्षःसैन्येषु संक्रुद्धाश्चेरुर्द्रुमशिलायुधाः |
4448 | 6057046a | ते पादपशिलाशैलैश्चक्रुर्वृष्टिमनुत्तमाम् |
4449 | 6057046c | बाणौघैर्वार्यमाणाश्च हरयो भीमविक्रमाः |
4450 | 6057047a | सिंहनादान्विनेदुश्च रणे राक्षसवानराः |
4451 | 6057047c | शिलाभिश्चूर्णयामासुर्यातुधानान्प्लवंगमाः |
4452 | 6057048a | निजघ्नुः संयुगे क्रुद्धाः कवचाभरणावृतान् |
4453 | 6057048c | केचिद्रथगतान्वीरान्गजवाजिगतानपि |
4454 | 6057049a | निजघ्नुः सहसाप्लुत्य यातुधानान्प्लवंगमाः |
4455 | 6057049c | शैलशृङ्गनिपातैश्च मुष्टिभिर्वान्तलोचनाः |
4456 | 6057049e | चेलुः पेतुश्च नेदुश्च तत्र राक्षसपुंगवाः |
4457 | 6057050a | ततः शैलैश्च खड्गैश्च विसृष्टैर्हरिराक्षसैः |
4458 | 6057050c | मुहूर्तेनावृता भूमिरभवच्छोणिताप्लुता |
4459 | 6057051a | विकीर्णपर्वताकारै रक्षोभिररिमर्दनैः |
4460 | 6057051c | आक्षिप्ताः क्षिप्यमाणाश्च भग्नशूलाश्च वानरैः |
4461 | 6057052a | वानरान्वानरैरेव जग्नुस्ते रजनीचराः |
4462 | 6057052c | राक्षसान्राक्षसैरेव जघ्नुस्ते वानरा अपि |
4463 | 6057053a | आक्षिप्य च शिलास्तेषां निजघ्नू राक्षसा हरीन् |
4464 | 6057053c | तेषां चाच्छिद्य शस्त्राणि जघ्नू रक्षांसि वानराः |
4465 | 6057054a | निजघ्नुः शैलशूलास्त्रैर्विभिदुश्च परस्परम् |
4466 | 6057054c | सिंहनादान्विनेदुश्च रणे वानरराक्षसाः |
4467 | 6057055a | छिन्नवर्मतनुत्राणा राक्षसा वानरैर्हताः |
4468 | 6057055c | रुधिरं प्रस्रुतास्तत्र रससारमिव द्रुमाः |
4469 | 6057056a | रथेन च रथं चापि वारणेन च वारणम् |
4470 | 6057056c | हयेन च हयं केचिन्निजघ्नुर्वानरा रणे |
4471 | 6057057a | क्षुरप्रैरर्धचन्द्रैश्च भल्लैश्च निशितैः शरैः |
4472 | 6057057c | राक्षसा वानरेन्द्राणां चिच्छिदुः पादपाञ्शिलाः |
4473 | 6057058a | विकीर्णैः पर्वताग्रैश्च द्रुमैश्छिन्नैश्च संयुगे |
4474 | 6057058c | हतैश्च कपिरक्षोभिर्दुर्गमा वसुधाभवत् |
4475 | 6057059a | तस्मिन्प्रवृत्ते तुमुले विमर्दे; प्रहृष्यमाणेषु वली मुखेषु |
4476 | 6057059c | निपात्यमानेषु च राक्षसेषु; महर्षयो देवगणाश्च नेदुः |
4477 | 6057060a | ततो हयं मारुततुल्यवेग;मारुह्य शक्तिं निशितां प्रगृह्य |
4478 | 6057060c | नरान्तको वानरराजसैन्यं; महार्णवं मीन इवाविवेश |
4479 | 6057061a | स वानरान्सप्तशतानि वीरः; प्रासेन दीप्तेन विनिर्बिभेद |
4480 | 6057061c | एकः क्षणेनेन्द्ररिपुर्महात्मा; जघान सैन्यं हरिपुंगवानाम् |
4481 | 6057062a | ददृशुश्च महात्मानं हयपृष्ठे प्रतिष्ठितम् |
4482 | 6057062c | चरन्तं हरिसैन्येषु विद्याधरमहर्षयः |
4483 | 6057063a | स तस्य ददृशे मार्गो मांसशोणितकर्दमः |
4484 | 6057063c | पतितैः पर्वताकारैर्वानरैरभिसंवृतः |
4485 | 6057064a | यावद्विक्रमितुं बुद्धिं चक्रुः प्लवगपुंगवाः |
4486 | 6057064c | तावदेतानतिक्रम्य निर्बिभेद नरान्तकः |
4487 | 6057065a | ज्वलन्तं प्रासमुद्यम्य संग्रामान्ते नरान्तकः |
4488 | 6057065c | ददाह हरिसैन्यानि वनानीव विभावसुः |
4489 | 6057066a | यावदुत्पाटयामासुर्वृक्षाञ्शैलान्वनौकसः |
4490 | 6057066c | तावत्प्रासहताः पेतुर्वज्रकृत्ता इवाचलाः |
4491 | 6057067a | दिक्षु सर्वासु बलवान्विचचार नरान्तकः |
4492 | 6057067c | प्रमृद्नन्सर्वतो युद्धे प्रावृट्काले यथानिलः |
4493 | 6057068a | न शेकुर्धावितुं वीरा न स्थातुं स्पन्दितुं कुतः |
4494 | 6057068c | उत्पतन्तं स्थितं यान्तं सर्वान्विव्याध वीर्यवान् |
4495 | 6057069a | एकेनान्तककल्पेन प्रासेनादित्यतेजसा |
4496 | 6057069c | भिन्नानि हरिसैन्यानि निपेतुर्धरणीतले |
4497 | 6057070a | वज्रनिष्पेषसदृशं प्रासस्याभिनिपातनम् |
4498 | 6057070c | न शेकुर्वानराः सोढुं ते विनेदुर्महास्वनम् |
4499 | 6057071a | पततां हरिवीराणां रूपाणि प्रचकाशिरे |
4500 | 6057071c | वज्रभिन्नाग्रकूटानां शैलानां पततामिव |
4501 | 6057072a | ये तु पूर्वं महात्मानः कुम्भकर्णेन पातिताः |
4502 | 6057072c | तेऽस्वस्था वानरश्रेष्ठाः सुग्रीवमुपतस्थिरे |
4503 | 6057073a | विप्रेक्षमाणः सुग्रीवो ददर्श हरिवाहिनीम् |
4504 | 6057073c | नरान्तकभयत्रस्तां विद्रवन्तीमितस्ततः |
4505 | 6057074a | विद्रुतां वाहिनीं दृष्ट्वा स ददर्श नरान्तकम् |
4506 | 6057074c | गृहीतप्रासमायान्तं हयपृष्ठे प्रतिष्ठितम् |
4507 | 6057075a | अथोवाच महातेजाः सुग्रीवो वानराधिपः |
4508 | 6057075c | कुमारमङ्गदं वीरं शक्रतुल्यपराक्रमम् |
4509 | 6057076a | गच्छैनं राक्षसं वीर योऽसौ तुरगमास्थितः |
4510 | 6057076c | क्षोभयन्तं हरिबलं क्षिप्रं प्राणैर्वियोजय |
4511 | 6057077a | स भर्तुर्वचनं श्रुत्वा निष्पपाताङ्गदस्तदा |
4512 | 6057077c | अनीकान्मेघसंकाशान्मेघानीकादिवांशुमान् |
4513 | 6057078a | शैलसंघातसंकाशो हरीणामुत्तमोऽङ्गदः |
4514 | 6057078c | रराजाङ्गदसंनद्धः सधातुरिव पर्वतः |
4515 | 6057079a | निरायुधो महातेजाः केवलं नखदंष्ट्रवान् |
4516 | 6057079c | नरान्तकमभिक्रम्य वालिपुत्रोऽब्रवीद्वचः |
4517 | 6057080a | तिष्ठ किं प्राकृतैरेभिर्हरिभिस्त्वं करिष्यसि |
4518 | 6057080c | अस्मिन्वज्रसमस्पर्शे प्रासं क्षिप ममोरसि |
4519 | 6057081a | अङ्गदस्य वचः श्रुत्वा प्रचुक्रोध नरान्तकः |
4520 | 6057081c | संदश्य दशनैरोष्ठं निश्वस्य च भुजंगवत् |
4521 | 6057082a | स प्रासमाविध्य तदाङ्गदाय; समुज्ज्वलन्तं सहसोत्ससर्ज |
4522 | 6057082c | स वालिपुत्रोरसि वज्रकल्पे; बभूव भग्नो न्यपतच्च भूमौ |
4523 | 6057083a | तं प्रासमालोक्य तदा विभग्नं; सुपर्णकृत्तोरगभोगकल्पम् |
4524 | 6057083c | तलं समुद्यम्य स वालिपुत्र;स्तुरंगमस्याभिजघान मूर्ध्नि |
4525 | 6057084a | निमग्नपादः स्फुटिताक्षि तारो; निष्क्रान्तजिह्वोऽचलसंनिकाशः |
4526 | 6057084c | स तस्य वाजी निपपात भूमौ; तलप्रहारेण विकीर्णमूर्धा |
4527 | 6057085a | नरान्तकः क्रोधवशं जगाम; हतं तुरगं पतितं निरीक्ष्य |
4528 | 6057085c | स मुष्टिमुद्यम्य महाप्रभावो; जघान शीर्षे युधि वालिपुत्रम् |
4529 | 6057086a | अथाङ्गदो मुष्टिविभिन्नमूर्धा; सुस्राव तीव्रं रुधिरं भृशोष्णम् |
4530 | 6057086c | मुहुर्विजज्वाल मुमोह चापि; संज्ञां समासाद्य विसिष्मिये च |
4531 | 6057087a | अथाङ्गदो वज्रसमानवेगं; संवर्त्य मुष्टिं गिरिशृङ्गकल्पम् |
4532 | 6057087c | निपातयामास तदा महात्मा; नरान्तकस्योरसि वालिपुत्रः |
4533 | 6057088a | स मुष्टिनिष्पिष्टविभिन्नवक्षा; ज्वालां वमञ्शोणितदिग्धगात्रः |
4534 | 6057088c | नरान्तको भूमितले पपात; यथाचलो वज्रनिपातभग्नः |
4535 | 6057089a | अथान्तरिक्षे त्रिदशोत्तमानां; वनौकसां चैव महाप्रणादः |
4536 | 6057089c | बभूव तस्मिन्निहतेऽग्र्यवीरे; नरान्तके वालिसुतेन संख्ये |
4537 | 6057090a | अथाङ्गदो राममनः प्रहर्षणं; सुदुष्करं तं कृतवान्हि विक्रमम् |
4538 | 6057090c | विसिष्मिये सोऽप्यतिवीर्य विक्रमः; पुनश्च युद्धे स बभूव हर्षितः |
4539 | 6058001a | नरान्तकं हतं दृष्ट्वा चुक्रुशुर्नैरृतर्षभाः |
4540 | 6058001c | देवान्तकस्त्रिमूर्धा च पौलस्त्यश्च महोदरः |
4541 | 6058002a | आरूढो मेघसंकाशं वारणेन्द्रं महोदरः |
4542 | 6058002c | वालिपुत्रं महावीर्यमभिदुद्राव वीर्यवान् |
4543 | 6058003a | भ्रातृव्यसनसंतप्तस्तदा देवान्तको बली |
4544 | 6058003c | आदाय परिघं दीप्तमङ्गदं समभिद्रवत् |
4545 | 6058004a | रथमादित्यसंकाशं युक्तं परमवाजिभिः |
4546 | 6058004c | आस्थाय त्रिशिरा वीरो वालिपुत्रमथाभ्ययात् |
4547 | 6058005a | स त्रिभिर्देवदर्पघ्नैर्नैरृतेन्द्रैरभिद्रुतः |
4548 | 6058005c | वृक्षमुत्पाटयामास महाविटपमङ्गदः |
4549 | 6058006a | देवान्तकाय तं वीरश्चिक्षेप सहसाङ्गदः |
4550 | 6058006c | महावृक्षं महाशाखं शक्रो दीप्तमिवाशनिम् |
4551 | 6058007a | त्रिशिरास्तं प्रचिच्छेद शरैराशीविषोपमैः |
4552 | 6058007c | स वृक्षं कृत्तमालोक्य उत्पपात ततोऽङ्गदः |
4553 | 6058008a | स ववर्ष ततो वृक्षाञ्शिलाश्च कपिकुञ्जरः |
4554 | 6058008c | तान्प्रचिच्छेद संक्रुद्धस्त्रिशिरा निशितैः शरैः |
4555 | 6058009a | परिघाग्रेण तान्वृक्षान्बभञ्ज च सुरान्तकः |
4556 | 6058009c | त्रिशिराश्चाङ्गदं वीरमभिदुद्राव सायकैः |
4557 | 6058010a | गजेन समभिद्रुत्य वालिपुत्रं महोदरः |
4558 | 6058010c | जघानोरसि संक्रुद्धस्तोमरैर्वज्रसंनिभैः |
4559 | 6058011a | देवान्तकश्च संक्रुद्धः परिघेण तदाङ्गदम् |
4560 | 6058011c | उपगम्याभिहत्याशु व्यपचक्राम वेगवान् |
4561 | 6058012a | स त्रिभिर्नैरृतश्रेष्ठैर्युगपत्समभिद्रुतः |
4562 | 6058012c | न विव्यथे महातेजा वालिपुत्रः प्रतापवान् |
4563 | 6058013a | तलेन भृशमुत्पत्य जघानास्य महागजम् |
4564 | 6058013c | पेततुर्लोचने तस्य विननाद स वारणः |
4565 | 6058014a | विषाणं चास्य निष्कृष्य वालिपुत्रो महाबलः |
4566 | 6058014c | देवान्तकमभिद्रुत्य ताडयामास संयुगे |
4567 | 6058015a | स विह्वलितसर्वाङ्गो वातोद्धत इव द्रुमः |
4568 | 6058015c | लाक्षारससवर्णं च सुस्राव रुधिरं मुखात् |
4569 | 6058016a | अथाश्वास्य महातेजाः कृच्छ्राद्देवान्तको बली |
4570 | 6058016c | आविध्य परिघं घोरमाजघान तदाङ्गदम् |
4571 | 6058017a | परिघाभिहतश्चापि वानरेन्द्रात्मजस्तदा |
4572 | 6058017c | जानुभ्यां पतितो भूमौ पुनरेवोत्पपात ह |
4573 | 6058018a | समुत्पतन्तं त्रिशिरास्त्रिभिराशीविषोपमैः |
4574 | 6058018c | घोरैर्हरिपतेः पुत्रं ललाटेऽभिजघान ह |
4575 | 6058019a | ततोऽङ्गदं परिक्षिप्तं त्रिभिर्नैरृतपुंगवैः |
4576 | 6058019c | हनूमानपि विज्ञाय नीलश्चापि प्रतस्थतुः |
4577 | 6058020a | ततश्चिक्षेप शैलाग्रं नीलस्त्रिशिरसे तदा |
4578 | 6058020c | तद्रावणसुतो धीमान्बिभेद निशितैः शरैः |
4579 | 6058021a | तद्बाणशतनिर्भिन्नं विदारितशिलातलम् |
4580 | 6058021c | सविस्फुलिङ्गं सज्वालं निपपात गिरेः शिरः |
4581 | 6058022a | ततो जृम्भितमालोक्य हर्षाद्देवान्तकस्तदा |
4582 | 6058022c | परिघेणाभिदुद्राव मारुतात्मजमाहवे |
4583 | 6058023a | तमापतन्तमुत्पत्य हनूमान्मारुतात्मजः |
4584 | 6058023c | आजघान तदा मूर्ध्नि वज्रवेगेन मुष्टिना |
4585 | 6058024a | स मुष्टिनिष्पिष्टविकीर्णमूर्धा; निर्वान्तदन्ताक्षिविलम्बिजिह्वः |
4586 | 6058024c | देवान्तको राक्षसराजसूनु;र्गतासुरुर्व्यां सहसा पपात |
4587 | 6058025a | तस्मिन्हते राक्षसयोधमुख्ये; महाबले संयति देवशत्रौ |
4588 | 6058025c | क्रुद्धस्त्रिमूर्धा निशिताग्रमुग्रं; ववर्ष नीलोरसि बाणवर्षम् |
4589 | 6058026a | स तैः शरौघैरभिवर्ष्यमाणो; विभिन्नगात्रः कपिसैन्यपालः |
4590 | 6058026c | नीलो बभूवाथ विसृष्टगात्रो; विष्टम्भितस्तेन महाबलेन |
4591 | 6058027a | ततस्तु नीलः प्रतिलभ्य संज्ञां; शैलं समुत्पाट्य सवृक्षषण्डम् |
4592 | 6058027c | ततः समुत्पत्य भृशोग्रवेगो; महोदरं तेन जघान मूर्ध्नि |
4593 | 6058028a | ततः स शैलाभिनिपातभग्नो; महोदरस्तेन सह द्विपेन |
4594 | 6058028c | विपोथितो भूमितले गतासुः; पपात वर्जाभिहतो यथाद्रिः |
4595 | 6058029a | पितृव्यं निहतं दृष्ट्वा त्रिशिराश्चापमाददे |
4596 | 6058029c | हनूमन्तं च संक्रुद्धो विव्याध निशितैः शरैः |
4597 | 6058030a | हनूमांस्तु समुत्पत्य हयांस्त्रिशिरसस्तदा |
4598 | 6058030c | विददार नखैः क्रुद्धो गजेन्द्रं मृगराडिव |
4599 | 6058031a | अथ शक्तिं समादाय कालरात्रिमिवान्तकः |
4600 | 6058031c | चिक्षेपानिलपुत्राय त्रिशिरा रावणात्मजः |
4601 | 6058032a | दिवि क्षिप्तामिवोल्कां तां शक्तिं क्षिप्तामसंगताम् |
4602 | 6058032c | गृहीत्वा हरिशार्दूलो बभञ्ज च ननाद च |
4603 | 6058033a | तां दृष्ट्वा घोरसंकाशां शक्तिं भग्नां हनूमता |
4604 | 6058033c | प्रहृष्टा वानरगणा विनेदुर्जलदा इव |
4605 | 6058034a | ततः खड्गं समुद्यम्य त्रिशिरा राक्षसोत्तमः |
4606 | 6058034c | निचखान तदा रोषाद्वानरेन्द्रस्य वक्षसि |
4607 | 6058035a | खड्गप्रहाराभिहतो हनूमान्मारुतात्मजः |
4608 | 6058035c | आजघान त्रिमूर्धानं तलेनोरसि वीर्यवान् |
4609 | 6058036a | स तलभिहतस्तेन स्रस्तहस्ताम्बरो भुवि |
4610 | 6058036c | निपपात महातेजास्त्रिशिरास्त्यक्तचेतनः |
4611 | 6058037a | स तस्य पततः खड्गं समाच्छिद्य महाकपिः |
4612 | 6058037c | ननाद गिरिसंकाशस्त्रासयन्सर्वनैरृतान् |
4613 | 6058038a | अमृष्यमाणस्तं घोषमुत्पपात निशाचरः |
4614 | 6058038c | उत्पत्य च हनूमन्तं ताडयामास मुष्टिना |
4615 | 6058039a | तेन मुष्टिप्रहारेण संचुकोप महाकपिः |
4616 | 6058039c | कुपितश्च निजग्राह किरीटे राक्षसर्षभम् |
4617 | 6058040a | स तस्य शीर्षाण्यसिना शितेन; किरीटजुष्टानि सकुण्डलानि |
4618 | 6058040c | क्रुद्धः प्रचिच्छेद सुतोऽनिलस्य; त्वष्टुः सुतस्येव शिरांसि शक्रः |
4619 | 6058041a | तान्यायताक्षाण्यगसंनिभानि; प्रदीप्तवैश्वानरलोचनानि |
4620 | 6058041c | पेतुः शिरांसीन्द्ररिपोर्धरण्यां; ज्योतींषि मुक्तानि यथार्कमार्गात् |
4621 | 6058042a | तस्मिन्हते देवरिपौ त्रिशीर्षे; हनूमत शक्रपराक्रमेण |
4622 | 6058042c | नेदुः प्लवंगाः प्रचचाल भूमी; रक्षांस्यथो दुद्रुविरे समन्तात् |
4623 | 6058043a | हतं त्रिशिरसं दृष्ट्वा तथैव च महोदरम् |
4624 | 6058043c | हतौ प्रेक्ष्य दुराधर्षौ देवान्तकनरान्तकौ |
4625 | 6058044a | चुकोप परमामर्षी महापार्श्वो महाबलः |
4626 | 6058044c | जग्राहार्चिष्मतीं चापि गदां सर्वायसीं शुभाम् |
4627 | 6058045a | हेमपट्टपरिक्षिप्तां मांसशोणितलेपनाम् |
4628 | 6058045c | विराजमानां वपुषा शत्रुशोणितरञ्जिताम् |
4629 | 6058046a | तेजसा संप्रदीप्ताग्रां रक्तमाल्यविभूषिताम् |
4630 | 6058046c | ऐरावतमहापद्मसार्वभौम भयावहाम् |
4631 | 6058047a | गदामादाय संक्रुद्धो महापार्श्वो महाबलः |
4632 | 6058047c | हरीन्समभिदुद्राव युगान्ताग्निरिव ज्वलन् |
4633 | 6058048a | अथर्षयः समुत्पत्य वानरो रवणानुजम् |
4634 | 6058048c | महापार्श्वमुपागम्य तस्थौ तस्याग्रतो बली |
4635 | 6058049a | तं पुरस्तात्स्थितं दृष्ट्वा वानरं पर्वतोपमम् |
4636 | 6058049c | आजघानोरसि क्रुद्धो गदया वज्रकल्पया |
4637 | 6058050a | स तयाभिहतस्तेन गदया वानरर्षभः |
4638 | 6058050c | भिन्नवक्षाः समाधूतः सुस्राव रुधिरं बहु |
4639 | 6058051a | स संप्राप्य चिरात्संज्ञामृषभो वानरर्षभः |
4640 | 6058051c | क्रुद्धो विस्फुरमाणौष्ठो महापार्श्वमुदैक्षत |
4641 | 6058052a | तां गृहीत्वा गदां भीमामाविध्य च पुनः पुनः |
4642 | 6058052c | मत्तानीकं महापार्श्वं जघान रणमूर्धनि |
4643 | 6058053a | स स्वया गदया भिन्नो विकीर्णदशनेक्षणः |
4644 | 6058053c | निपपात महापार्श्वो वज्राहत इवाचलः |
4645 | 6058054a | तस्मिन्हते भ्रातरि रावणस्य; तन्नैरृतानां बलमर्णवाभम् |
4646 | 6058054c | त्यक्तायुधं केवलजीवितार्थं; दुद्राव भिन्नार्णवसंनिकाशम् |
4647 | 6059001a | स्वबलं व्यथितं दृष्ट्वा तुमुलं लोमहर्षणम् |
4648 | 6059001c | भ्रातॄंश्च निहतान्दृष्ट्वा शक्रतुल्यपराक्रमान् |
4649 | 6059002a | पितृव्यौ चापि संदृश्य समरे संनिषूदितौ |
4650 | 6059002c | महोदरमहापार्श्वौ भ्रातरौ राक्षसर्षभौ |
4651 | 6059003a | चुकोप च महातेजा ब्रह्मदत्तवरो युधि |
4652 | 6059003c | अतिकायोऽद्रिसंकाशो देवदानवदर्पहा |
4653 | 6059004a | स भास्करसहस्रस्य संघातमिव भास्वरम् |
4654 | 6059004c | रथमास्थाय शक्रारिरभिदुद्राव वानरान् |
4655 | 6059005a | स विस्फार्य महच्चापं किरीटी मृष्टकुण्डलः |
4656 | 6059005c | नाम विश्रावयामास ननाद च महास्वनम् |
4657 | 6059006a | तेन सिंहप्रणादेन नामविश्रावणेन च |
4658 | 6059006c | ज्याशब्देन च भीमेन त्रासयामास वानरान् |
4659 | 6059007a | ते तस्य रूपमालोक्य यथा विष्णोस्त्रिविक्रमे |
4660 | 6059007c | भयार्ता वानराः सर्वे विद्रवन्ति दिशो दश |
4661 | 6059008a | तेऽतिकायं समासाद्य वानरा मूढचेतसः |
4662 | 6059008c | शरण्यं शरणं जग्मुर्लक्ष्मणाग्रजमाहवे |
4663 | 6059009a | ततोऽतिकायं काकुत्स्थो रथस्थं पर्वतोपमम् |
4664 | 6059009c | ददर्श धन्विनं दूराद्गर्जन्तं कालमेघवत् |
4665 | 6059010a | स तं दृष्ट्वा महात्मानं राघवस्तु सुविस्मितः |
4666 | 6059010c | वानरान्सान्त्वयित्वा तु विभीषणमुवाच ह |
4667 | 6059011a | कोऽसौ पर्वतसंकाशो धनुष्मान्हरिलोचनः |
4668 | 6059011c | युक्ते हयसहस्रेण विशाले स्यन्दने स्थितः |
4669 | 6059012a | य एष निशितैः शूलैः सुतीक्ष्णैः प्रासतोमरैः |
4670 | 6059012c | अर्चिष्मद्भिर्वृतो भाति भूतैरिव महेश्वरः |
4671 | 6059013a | कालजिह्वाप्रकाशाभिर्य एषोऽभिविराजते |
4672 | 6059013c | आवृतो रथशक्तीभिर्विद्युद्भिरिव तोयदः |
4673 | 6059014a | धनूंसि चास्य सज्यानि हेमपृष्ठानि सर्वशः |
4674 | 6059014c | शोभयन्ति रथश्रेष्ठं शक्रपातमिवाम्बरम् |
4675 | 6059015a | क एष रक्षः शार्दूलो रणभूमिं विराजयन् |
4676 | 6059015c | अभ्येति रथिनां श्रेष्ठो रथेनादित्यतेजसा |
4677 | 6059016a | ध्वजशृङ्गप्रतिष्ठेन राहुणाभिविराजते |
4678 | 6059016c | सूर्यरश्मिप्रभैर्बाणैर्दिशो दश विराजयन् |
4679 | 6059017a | त्रिणतं मेघनिर्ह्रादं हेमपृष्ठमलंकृतम् |
4680 | 6059017c | शतक्रतुधनुःप्रख्यं धनुश्चास्य विराजते |
4681 | 6059018a | सध्वजः सपताकश्च सानुकर्षो महारथः |
4682 | 6059018c | चतुःसादिसमायुक्तो मेघस्तनितनिस्वनः |
4683 | 6059019a | विंशतिर्दश चाष्टौ च तूणीररथमास्थिताः |
4684 | 6059019c | कार्मुकाणि च भीमानि ज्याश्च काञ्चनपिङ्गलाः |
4685 | 6059020a | द्वौ च खड्गौ रथगतौ पार्श्वस्थौ पार्श्वशोभिनौ |
4686 | 6059020c | चतुर्हस्तत्सरुचितौ व्यक्तहस्तदशायतौ |
4687 | 6059021a | रक्तकण्ठगुणो धीरो महापर्वतसंनिभः |
4688 | 6059021c | कालः कालमहावक्त्रो मेघस्थ इव भास्करः |
4689 | 6059022a | काञ्चनाङ्गदनद्धाभ्यां भुजाभ्यामेष शोभते |
4690 | 6059022c | शृङ्गाभ्यामिव तुङ्गाभ्यां हिमवान्पर्वतोत्तमः |
4691 | 6059023a | कुण्डलाभ्यां तु यस्यैतद्भाति वक्त्रं शुभेक्षणम् |
4692 | 6059023c | पुनर्वस्वन्तरगतं पूर्णबिम्बमिवैन्दवम् |
4693 | 6059024a | आचक्ष्व मे महाबाहो त्वमेनं राक्षसोत्तमम् |
4694 | 6059024c | यं दृष्ट्वा वानराः सर्वे भयार्ता विद्रुता दिशः |
4695 | 6059025a | स पृष्ठो राजपुत्रेण रामेणामिततेजसा |
4696 | 6059025c | आचचक्षे महातेजा राघवाय विभीषणः |
4697 | 6059026a | दशग्रीवो महातेजा राजा वैश्रवणानुजः |
4698 | 6059026c | भीमकर्मा महोत्साहो रावणो राक्षसाधिपः |
4699 | 6059027a | तस्यासीद्वीर्यवान्पुत्रो रावणप्रतिमो रणे |
4700 | 6059027c | वृद्धसेवी श्रुतधरः सर्वास्त्रविदुषां वरः |
4701 | 6059028a | अश्वपृष्ठे रथे नागे खड्गे धनुषि कर्षणे |
4702 | 6059028c | भेदे सान्त्वे च दाने च नये मन्त्रे च संमतः |
4703 | 6059029a | यस्य बाहुं समाश्रित्य लङ्का भवति निर्भया |
4704 | 6059029c | तनयं धान्यमालिन्या अतिकायमिमं विदुः |
4705 | 6059030a | एतेनाराधितो ब्रह्मा तपसा भावितात्मना |
4706 | 6059030c | अस्त्राणि चाप्यवाप्तानि रिपवश्च पराजिताः |
4707 | 6059031a | सुरासुरैरवध्यत्वं दत्तमस्मै स्वयम्भुवा |
4708 | 6059031c | एतच्च कवचं दिव्यं रथश्चैषोऽर्कभास्करः |
4709 | 6059032a | एतेन शतशो देवा दानवाश्च पराजिताः |
4710 | 6059032c | रक्षितानि च रक्षामि यक्षाश्चापि निषूदिताः |
4711 | 6059033a | वज्रं विष्टम्भितं येन बाणैरिन्द्रस्य धीमतः |
4712 | 6059033c | पाशः सलिलराजस्य युद्धे प्रतिहतस्तथा |
4713 | 6059034a | एषोऽतिकायो बलवान्राक्षसानामथर्षभः |
4714 | 6059034c | रावणस्य सुतो धीमान्देवदनव दर्पहा |
4715 | 6059035a | तदस्मिन्क्रियतां यत्नः क्षिप्रं पुरुषपुंगव |
4716 | 6059035c | पुरा वानरसैन्यानि क्षयं नयति सायकैः |
4717 | 6059036a | ततोऽतिकायो बलवान्प्रविश्य हरिवाहिनीम् |
4718 | 6059036c | विस्फारयामास धनुर्ननाद च पुनः पुनः |
4719 | 6059037a | तं भीमवपुषं दृष्ट्वा रथस्थं रथिनां वरम् |
4720 | 6059037c | अभिपेतुर्महात्मानो ये प्रधानाः प्लवंगमाः |
4721 | 6059038a | कुमुदो द्विविदो मैन्दो नीलः शरभ एव च |
4722 | 6059038c | पादपैर्गिरिशृङ्गैश्च युगपत्समभिद्रवन् |
4723 | 6059039a | तेषां वृक्षांश्च शैलांश्च शरैः काञ्चनभूषणैः |
4724 | 6059039c | अतिकायो महातेजाश्चिच्छेदास्त्रविदां वरः |
4725 | 6059040a | तांश्चैव सरान्स हरीञ्शरैः सर्वायसैर्बली |
4726 | 6059040c | विव्याधाभिमुखः संख्ये भीमकायो निशाचरः |
4727 | 6059041a | तेऽर्दिता बाणबर्षेण भिन्नगात्राः प्लवंगमाः |
4728 | 6059041c | न शेकुरतिकायस्य प्रतिकर्तुं महारणे |
4729 | 6059042a | तत्सैन्यं हरिवीराणां त्रासयामास राक्षसः |
4730 | 6059042c | मृगयूथमिव क्रुद्धो हरिर्यौवनमास्थितः |
4731 | 6059043a | स राषसेन्द्रो हरिसैन्यमध्ये; नायुध्यमानं निजघान कंचित् |
4732 | 6059043c | उपेत्य रामं सधनुः कलापी; सगर्वितं वाक्यमिदं बभाषे |
4733 | 6059044a | रथे स्थितोऽहं शरचापपाणि;र्न प्राकृतं कंचन योधयामि |
4734 | 6059044c | यस्यास्ति शक्तिर्व्यवसाय युक्ता; ददातुं मे क्षिप्रमिहाद्य युद्धम् |
4735 | 6059045a | तत्तस्य वाक्यं ब्रुवतो निशम्य; चुकोप सौमित्रिरमित्रहन्ता |
4736 | 6059045c | अमृष्यमाणश्च समुत्पपात; जग्राह चापं च ततः स्मयित्वा |
4737 | 6059046a | क्रुद्धः सौमित्रिरुत्पत्य तूणादाक्षिप्य सायकम् |
4738 | 6059046c | पुरस्तादतिकायस्य विचकर्ष महद्धनुः |
4739 | 6059047a | पूरयन्स महीं शैलानाकाशं सागरं दिशः |
4740 | 6059047c | ज्याशब्दो लक्ष्मणस्योग्रस्त्रासयन्रजनीचरान् |
4741 | 6059048a | सौमित्रेश्चापनिर्घोषं श्रुत्वा प्रतिभयं तदा |
4742 | 6059048c | विसिष्मिये महातेजा राक्षसेन्द्रात्मजो बली |
4743 | 6059049a | अथातिकायः कुपितो दृष्ट्वा लक्ष्मणमुत्थितम् |
4744 | 6059049c | आदाय निशितं बाणमिदं वचनमब्रवीत् |
4745 | 6059050a | बालस्त्वमसि सौमित्रे विक्रमेष्वविचक्षणः |
4746 | 6059050c | गच्छ किं कालसदृशं मां योधयितुमिच्छसि |
4747 | 6059051a | न हि मद्बाहुसृष्टानामस्त्राणां हिमवानपि |
4748 | 6059051c | सोढुमुत्सहते वेगमन्तरिक्षमथो मही |
4749 | 6059052a | सुखप्रसुप्तं कालाग्निं प्रबोधयितुमिच्छसि |
4750 | 6059052c | न्यस्य चापं निवर्तस्व मा प्राणाञ्जहि मद्गतः |
4751 | 6059053a | अथ वा त्वं प्रतिष्टब्धो न निवर्तितुमिच्छसि |
4752 | 6059053c | तिष्ठ प्राणान्परित्यज्य गमिष्यसि यमक्षयम् |
4753 | 6059054a | पश्य मे निशितान्बाणानरिदर्पनिषूदनान् |
4754 | 6059054c | ईश्वरायुधसंकाशांस्तप्तकाञ्चनभूषणान् |
4755 | 6059055a | एष ते सर्पसंकाशो बाणः पास्यति शोणितम् |
4756 | 6059055c | मृगराज इव क्रुद्धो नागराजस्य शोणितम् |
4757 | 6059056a | श्रुत्वातिकायस्य वचः सरोषं; सगर्वितं संयति राजपुत्रः |
4758 | 6059056c | स संचुकोपातिबलो बृहच्छ्री;रुवाच वाक्यं च ततो महार्थम् |
4759 | 6059057a | न वाक्यमात्रेण भवान्प्रधानो; न कत्थनात्सत्पुरुषा भवन्ति |
4760 | 6059057c | मयि स्थिते धन्विनि बाणपाणौ; विदर्शयस्वात्मबलं दुरात्मन् |
4761 | 6059058a | कर्मणा सूचयात्मानं न विकत्थितुमर्हसि |
4762 | 6059058c | पौरुषेण तु यो युक्तः स तु शूर इति स्मृतः |
4763 | 6059059a | सर्वायुधसमायुक्तो धन्वी त्वं रथमास्थितः |
4764 | 6059059c | शरैर्वा यदि वाप्यस्त्रैर्दर्शयस्व पराक्रमम् |
4765 | 6059060a | ततः शिरस्ते निशितैः पातयिष्याम्यहं शरैः |
4766 | 6059060c | मारुतः कालसंपक्वं वृन्तात्तालफलं यथा |
4767 | 6059061a | अद्य ते मामका बाणास्तप्तकाञ्चनभूषणाः |
4768 | 6059061c | पास्यन्ति रुधिरं गात्राद्बाणशल्यान्तरोत्थितम् |
4769 | 6059062a | बालोऽयमिति विज्ञाय न मावज्ञातुमर्हसि |
4770 | 6059062c | बालो वा यदि वा वृद्धो मृत्युं जानीहि संयुगे |
4771 | 6059063a | लक्ष्मणस्य वचः श्रुत्वा हेतुमत्परमार्थवत् |
4772 | 6059063c | अतिकायः प्रचुक्रोध बाणं चोत्तममाददे |
4773 | 6059064a | ततो विद्याधरा भूता देवा दैत्या महर्षयः |
4774 | 6059064c | गुह्यकाश्च महात्मानस्तद्युद्धं ददृशुस्तदा |
4775 | 6059065a | ततोऽतिकायः कुपितश्चापमारोप्य सायकम् |
4776 | 6059065c | लक्ष्मणस्य प्रचिक्षेप संक्षिपन्निव चाम्बरम् |
4777 | 6059066a | तमापतन्तं निशितं शरमाशीविषोपमम् |
4778 | 6059066c | अर्धचन्द्रेण चिच्छेद लक्ष्मणः परवीरहा |
4779 | 6059067a | तं निकृत्तं शरं दृष्ट्वा कृत्तभोगमिवोरगम् |
4780 | 6059067c | अतिकायो भृशं क्रुद्धः पञ्चबाणान्समाददे |
4781 | 6059068a | ताञ्शरान्संप्रचिक्षेप लक्ष्मणाय निशाचरः |
4782 | 6059068c | तानप्राप्ताञ्शरैस्तीक्ष्णैश्चिच्छेद भरतानुजः |
4783 | 6059069a | स तांश्छित्त्वा शरैस्तीक्ष्णैर्लक्ष्मणः परवीरहा |
4784 | 6059069c | आददे निशितं बाणं ज्वलन्तमिव तेजसा |
4785 | 6059070a | तमादाय धनुः श्रेष्ठे योजयामास लक्ष्मणः |
4786 | 6059070c | विचकर्ष च वेगेन विससर्ज च सायकम् |
4787 | 6059071a | पूर्णायतविसृष्टेन शरेणानत पर्वणा |
4788 | 6059071c | ललाटे राक्षसश्रेष्ठमाजघान स वीर्यवान् |
4789 | 6059072a | स ललाटे शरो मग्नस्तस्य भीमस्य रक्षसः |
4790 | 6059072c | ददृशे शोणितेनाक्तः पन्नगेन्द्र इवाहवे |
4791 | 6059073a | राक्षसः प्रचकम्पे च लक्ष्मणेषु प्रकम्पितः |
4792 | 6059073c | रुद्रबाणहतं भीमं यथा त्रिपुरगोपुरम् |
4793 | 6059074a | चिन्तयामास चाश्वस्य विमृश्य च महाबलः |
4794 | 6059074c | साधु बाणनिपातेन श्वाघनीयोऽसि मे रिपुः |
4795 | 6059075a | विचार्यैवं विनम्यास्यं विनम्य च भुजावुभौ |
4796 | 6059075c | स रथोपस्थमास्थाय रथेन प्रचचार ह |
4797 | 6059076a | एकं त्रीन्पञ्च सप्तेति सायकान्राक्षसर्षभः |
4798 | 6059076c | आददे संदधे चापि विचकर्षोत्ससर्ज च |
4799 | 6059077a | ते बाणाः कालसंकाशा राक्षसेन्द्रधनुश्च्युताः |
4800 | 6059077c | हेमपुङ्खा रविप्रख्याश्चक्रुर्दीप्तमिवाम्बरम् |
4801 | 6059078a | ततस्तान्राक्षसोत्सृष्टाञ्शरौघान्रावणानुजः |
4802 | 6059078c | असंभ्रान्तः प्रचिच्छेद निशितैर्बहुभिः शरैः |
4803 | 6059079a | ताञ्शरान्युधि संप्रेक्ष्य निकृत्तान्रावणात्मजः |
4804 | 6059079c | चुकोप त्रिदशेन्द्रारिर्जग्राह निशितं शरम् |
4805 | 6059080a | स संधाय महातेजास्तं बाणं सहसोत्सृजत् |
4806 | 6059080c | ततः सौमित्रिमायान्तमाजघान स्तनान्तरे |
4807 | 6059081a | अतिकायेन सौमित्रिस्ताडितो युधि वक्षसि |
4808 | 6059081c | सुस्राव रुधिरं तीव्रं मदं मत्त इव द्विपः |
4809 | 6059082a | स चकार तदात्मानं विशल्यं सहसा विभुः |
4810 | 6059082c | जग्राह च शरं तीष्णमस्त्रेणापि समादधे |
4811 | 6059083a | आग्नेयेन तदास्त्रेण योजयामास सायकम् |
4812 | 6059083c | स जज्वाल तदा बाणो धनुश्चास्य महात्मनः |
4813 | 6059084a | अतिकायोऽतितेजस्वी सौरमस्त्रं समाददे |
4814 | 6059084c | तेन बाणं भुजंगाभं हेमपुङ्खमयोजयत् |
4815 | 6059085a | ततस्तं ज्वलितं घोरं लक्ष्मणः शरमाहितम् |
4816 | 6059085c | अतिकायाय चिक्षेप कालदण्डमिवान्तकः |
4817 | 6059086a | आग्नेयेनाभिसंयुक्तं दृष्ट्वा बाणं निशाचरः |
4818 | 6059086c | उत्ससर्ज तदा बाणं दीप्तं सूर्यास्त्रयोजितम् |
4819 | 6059087a | तावुभावम्बरे बाणावन्योन्यमभिजघ्नतुः |
4820 | 6059087c | तेजसा संप्रदीप्ताग्रौ क्रुद्धाविव भुजं गमौ |
4821 | 6059088a | तावन्योन्यं विनिर्दह्य पेततुर्धरणीतले |
4822 | 6059088c | निरर्चिषौ भस्मकृतौ न भ्राजेते शरोत्तमौ |
4823 | 6059089a | ततोऽतिकायः संक्रुद्धस्त्वस्त्रमैषीकमुत्सृजत् |
4824 | 6059089c | तत्प्रचिच्छेद सौमित्रिरस्त्रमैन्द्रेण वीर्यवान् |
4825 | 6059090a | ऐषीकं निहतं दृष्ट्वा कुमारो रावणात्मजः |
4826 | 6059090c | याम्येनास्त्रेण संक्रुद्धो योजयामास सायकम् |
4827 | 6059091a | ततस्तदस्त्रं चिक्षेप लक्ष्मणाय निशाचरः |
4828 | 6059091c | वायव्येन तदस्त्रं तु निजघान स लक्ष्मणः |
4829 | 6059092a | अथैनं शरधाराभिर्धाराभिरिव तोयदः |
4830 | 6059092c | अभ्यवर्षत संक्रुद्धो लक्ष्मणो रावणात्मजम् |
4831 | 6059093a | तेऽतिकायं समासाद्य कवचे वज्रभूषिते |
4832 | 6059093c | भग्नाग्रशल्याः सहसा पेतुर्बाणा महीतले |
4833 | 6059094a | तान्मोघानभिसंप्रेक्ष्य लक्ष्मणः परवीरहा |
4834 | 6059094c | अभ्यवर्षत बाणानां सहस्रेण महायशाः |
4835 | 6059095a | स वर्ष्यमाणो बाणौघैरतिकायो महाबलः |
4836 | 6059095c | अवध्यकवचः संख्ये राक्षसो नैव विव्यथे |
4837 | 6059096a | न शशाक रुजं कर्तुं युधि तस्य नरोत्तमः |
4838 | 6059096c | अथैनमभ्युपागम्य वायुर्वाक्यमुवाच ह |
4839 | 6059097a | ब्रह्मदत्तवरो ह्येष अवध्य कवचावृतः |
4840 | 6059097c | ब्राह्मेणास्त्रेण भिन्ध्येनमेष वध्यो हि नान्यथा |
4841 | 6059098a | ततः स वायोर्वचनं निशम्य; सौमित्रिरिन्द्रप्रतिमानवीर्यः |
4842 | 6059098c | समाददे बाणममोघवेगं; तद्ब्राह्ममस्त्रं सहसा नियोज्य |
4843 | 6059099a | तस्मिन्वरास्त्रे तु नियुज्यमाने; सौमित्रिणा बाणवरे शिताग्रे |
4844 | 6059099c | दिशः सचन्द्रार्कमहाग्रहाश्च; नभश्च तत्रास ररास चोर्वी |
4845 | 6059100a | तं ब्रह्मणोऽस्त्रेण नियुज्य चापे; शरं सुपुङ्खं यमदूतकल्पम् |
4846 | 6059100c | सौमित्रिरिन्द्रारिसुतस्य तस्य; ससर्ज बाणं युधि वज्रकल्पम् |
4847 | 6059101a | तं लक्ष्मणोत्सृष्टममोघवेगं; समापतन्तं ज्वलनप्रकाशम् |
4848 | 6059101c | सुवर्णवज्रोत्तमचित्रपुङ्खं; तदातिकायः समरे ददर्श |
4849 | 6059102a | तं प्रेक्षमाणः सहसातिकायो; जघान बाणैर्निशितैरनेकैः |
4850 | 6059102c | स सायकस्तस्य सुपर्णवेग;स्तदातिवेगेन जगाम पार्श्वम् |
4851 | 6059103a | तमागतं प्रेक्ष्य तदातिकायो; बाणं प्रदीप्तान्तककालकल्पम् |
4852 | 6059103c | जघान शक्त्यृष्टिगदाकुठारैः; शूलैर्हलैश्चाप्यविपन्नचेष्टः |
4853 | 6059104a | तान्यायुधान्यद्भुतविग्रहाणि; मोघानि कृत्वा स शरोऽग्निदीप्तः |
4854 | 6059104c | प्रसह्य तस्यैव किरीटजुष्टं; तदातिकायस्य शिरो जहार |
4855 | 6059105a | तच्छिरः सशिरस्त्राणं लक्ष्मणेषुप्रपीडितम् |
4856 | 6059105c | पपात सहसा भूमौ शृङ्गं हिमवतो यथा |
4857 | 6059106a | प्रहर्षयुक्ता बहवस्तु वानरा; प्रबुद्धपद्मप्रतिमाननास्तदा |
4858 | 6059106c | अपूजयँल्लक्ष्मणमिष्टभागिनं; हते रिपौ भीमबले दुरासदे |
4859 | 6060001a | ततो हतान्राक्षसपुंगवांस्ता;न्देवान्तकादित्रिशिरोऽतिकायान् |
4860 | 6060001c | रक्षोगणास्तत्र हतावशिष्टा;स्ते रावणाय त्वरितं शशंसुः |
4861 | 6060002a | ततो हतांस्तान्सहसा निशम्य; राजा मुमोहाश्रुपरिप्लुताक्षः |
4862 | 6060002c | पुत्रक्षयं भ्रातृवधं च घोरं; विचिन्त्य राजा विपुलं प्रदध्यौ |
4863 | 6060003a | ततस्तु राजानमुदीक्ष्य दीनं; शोकार्णवे संपरिपुप्लुवानम् |
4864 | 6060003c | अथर्षभो राक्षसराजसूनु;रथेन्द्रजिद्वाक्यमिदं बभाषे |
4865 | 6060004a | न तात मोहं प्रतिगन्तुमर्हसि; यत्रेन्द्रजिज्जीवति राक्षसेन्द्र |
4866 | 6060004c | नेन्द्रारिबाणाभिहतो हि कश्चि;त्प्राणान्समर्थः समरेऽभिधर्तुम् |
4867 | 6060005a | पश्याद्य रामं सहलक्ष्मणेन; मद्बाणनिर्भिन्नविकीर्णदेहम् |
4868 | 6060005c | गतायुषं भूमितले शयानं; शरैः शितैराचितसर्वगात्रम् |
4869 | 6060006a | इमां प्रतिज्ञां शृणु शक्रशत्रोः; सुनिश्चितां पौरुषदैवयुक्ताम् |
4870 | 6060006c | अद्यैव रामं सहलक्ष्मणेन; संतापयिष्यामि शरैरमोघैः |
4871 | 6060007a | अद्येन्द्रवैवस्वतविष्णुमित्र; साध्याश्विवैश्वानरचन्द्रसूर्याः |
4872 | 6060007c | द्रक्ष्यन्ति मे विक्रममप्रमेयं; विष्णोरिवोग्रं बलियज्ञवाटे |
4873 | 6060008a | स एवमुक्त्वा त्रिदशेन्द्रशत्रु;रापृच्छ्य राजानमदीनसत्त्वः |
4874 | 6060008c | समारुरोहानिलतुल्यवेगं; रथं खरश्रेष्ठसमाधियुक्तम् |
4875 | 6060009a | समास्थाय महातेजा रथं हरिरथोपमम् |
4876 | 6060009c | जगाम सहसा तत्र यत्र युद्धमरिंदम |
4877 | 6060010a | तं प्रस्थितं महात्मानमनुजग्मुर्महाबलाः |
4878 | 6060010c | संहर्षमाणा बहवो धनुःप्रवरपाणयः |
4879 | 6060011a | गजस्कन्धगताः केचित्केचित्परमवाजिभिः |
4880 | 6060011c | प्रासमुद्गरनिस्त्रिंश परश्वधगदाधराः |
4881 | 6060012a | स शङ्खनिनदैर्भीमैर्भेरीणां च महास्वनैः |
4882 | 6060012c | जगाम त्रिदशेन्द्रारिः स्तूयमानो निशाचरैः |
4883 | 6060013a | स शङ्खशशिवर्णेन छत्रेण रिपुसादनः |
4884 | 6060013c | रराज परिपूर्णेन नभश्चन्द्रमसा यथा |
4885 | 6060014a | अवीज्यत ततो वीरो हैमैर्हेमविभूषितैः |
4886 | 6060014c | चारुचामरमुख्यैश्च मुख्यः सर्वधनुष्मताम् |
4887 | 6060015a | ततस्त्विन्द्रजिता लङ्का सूर्यप्रतिमतेजसा |
4888 | 6060015c | रराजाप्रतिवीर्येण द्यौरिवार्केण भास्वता |
4889 | 6060016a | स तु दृष्ट्वा विनिर्यान्तं बलेन महता वृतम् |
4890 | 6060016c | राक्षसाधिपतिः श्रीमान्रावणः पुत्रमब्रवीत् |
4891 | 6060017a | त्वमप्रतिरथः पुत्र जितस्ते युधि वासवः |
4892 | 6060017c | किं पुनर्मानुषं धृष्यं न वधिष्यसि राघवम् |
4893 | 6060018a | तथोक्तो राक्षसेन्द्रेण प्रतिगृह्य महाशिषः |
4894 | 6060018c | रथेनाश्वयुजा वीरः शीघ्रं गत्वा निकुम्भिलाम् |
4895 | 6060019a | स संप्राप्य महातेजा युद्धभूमिमरिंदमः |
4896 | 6060019c | स्थापयामास रक्षांसि रथं प्रति समन्ततः |
4897 | 6060020a | ततस्तु हुतभोक्तारं हुतभुक्सदृशप्रभः |
4898 | 6060020c | जुहुवे राक्षसश्रेष्ठो मन्त्रवद्विधिवत्तदा |
4899 | 6060021a | स हविर्जालसंस्कारैर्माल्यगन्धपुरस्कृतैः |
4900 | 6060021c | जुहुवे पावकं तत्र राक्षसेन्द्रः प्रतापवान् |
4901 | 6060022a | शस्त्राणि शरपत्राणि समिधोऽथ विभीतकः |
4902 | 6060022c | लोहितानि च वासांसि स्रुवं कार्ष्णायसं तथा |
4903 | 6060023a | स तत्राग्निं समास्तीर्य शरपत्रैः सतोमरैः |
4904 | 6060023c | छागस्य सर्वकृष्णस्य गलं जग्राह जीवतः |
4905 | 6060024a | सकृदेव समिद्धस्य विधूमस्य महार्चिषः |
4906 | 6060024c | बभूवुस्तानि लिङ्गानि विजयं यान्यदर्शयन् |
4907 | 6060025a | प्रदक्षिणावर्तशिखस्तप्तकाञ्चनसंनिभः |
4908 | 6060025c | हविस्तत्प्रतिजग्राह पावकः स्वयमुत्थितः |
4909 | 6060026a | सोऽस्त्रमाहारयामास ब्राह्ममस्त्रविदां वरः |
4910 | 6060026c | धनुश्चात्मरथं चैव सर्वं तत्राभ्यमन्त्रयत् |
4911 | 6060027a | तस्मिन्नाहूयमानेऽस्त्रे हूयमाने च पावके |
4912 | 6060027c | सार्कग्रहेन्दु नक्षत्रं वितत्रास नभस्तलम् |
4913 | 6060028a | स पावकं पावकदीप्ततेजा; हुत्वा महेन्द्रप्रतिमप्रभावः |
4914 | 6060028c | सचापबाणासिरथाश्वसूतः; खेऽन्तर्दध आत्मानमचिन्त्यरूपः |
4915 | 6060029a | स सैन्यमुत्सृज्य समेत्य तूर्णं; महारणे वानरवाहिनीषु |
4916 | 6060029c | अदृश्यमानः शरजालमुग्रं; ववर्ष नीलाम्बुधरो यथाम्बु |
4917 | 6060030a | ते शक्रजिद्बाणविशीर्णदेहा; मायाहता विस्वरमुन्नदन्तः |
4918 | 6060030c | रणे निपेतुर्हरयोऽद्रिकल्पा; यथेन्द्रवज्राभिहता नगेन्द्राः |
4919 | 6060031a | ते केवलं संददृशुः शिताग्रा;न्बाणान्रणे वानरवाहिनीषु |
4920 | 6060031c | माया निगूढं च सुरेन्द्रशत्रुं; न चात्र तं राक्षसमभ्यपश्यन् |
4921 | 6060032a | ततः स रक्षोऽधिपतिर्महात्मा; सर्वा दिशो बाणगणैः शिताग्रैः |
4922 | 6060032c | प्रच्छादयामास रविप्रकाशै;र्विषादयामास च वानरेन्द्रान् |
4923 | 6060033a | स शूलनिस्त्रिंश परश्वधानि; व्याविध्य दीप्तानलसंनिभानि |
4924 | 6060033c | सविस्फुलिङ्गोज्ज्वलपावकानि; ववर्ष तीव्रं प्लवगेन्द्रसैन्ये |
4925 | 6060034a | ततो ज्वलनसंकाशैः शितैर्वानरयूथपाः |
4926 | 6060034c | ताडिताः शक्रजिद्बाणैः प्रफुल्ला इव किंशुकाः |
4927 | 6060035a | अन्योन्यमभिसर्पन्तो निनदन्तश्च विस्वरम् |
4928 | 6060035c | राक्षसेन्द्रास्त्रनिर्भिन्ना निपेतुर्वानरर्षभाः |
4929 | 6060036a | उदीक्षमाणा गगनं केचिन्नेत्रेषु ताडिताः |
4930 | 6060036c | शरैर्विविशुरन्योन्यं पेतुश्च जगतीतले |
4931 | 6060037a | हनूमन्तं च सुग्रीवमङ्गदं गन्धमादनम् |
4932 | 6060037c | जाम्बवन्तं सुषेणं च वेगदर्शिनमेव च |
4933 | 6060038a | मैन्दं च द्विविदं नीलं गवाक्षं गजगोमुखौ |
4934 | 6060038c | केसरिं हरिलोमानं विद्युद्दंष्ट्रं च वानरम् |
4935 | 6060039a | सूर्याननं ज्योतिमुखं तथा दधिमुखं हरिम् |
4936 | 6060039c | पावकाक्षं नलं चैव कुमुदं चैव वानरम् |
4937 | 6060040a | प्रासैः शूलैः शितैर्बाणैरिन्द्रजिन्मन्त्रसंहितैः |
4938 | 6060040c | विव्याध हरिशार्दूलान्सर्वांस्तान्राक्षसोत्तमः |
4939 | 6060041a | स वै गदाभिर्हरियूथमुख्या;न्निर्भिद्य बाणैस्तपनीयपुङ्खैः |
4940 | 6060041c | ववर्ष रामं शरवृष्टिजालैः; सलक्ष्मणं भास्कररश्मिकल्पैः |
4941 | 6060042a | स बाणवर्षैरभिवर्ष्यमाणो; धारानिपातानिव तान्विचिन्त्य |
4942 | 6060042c | समीक्षमाणः परमाद्भुतश्री; रामस्तदा लक्ष्मणमित्युवाच |
4943 | 6060043a | असौ पुनर्लक्ष्मण राक्षसेन्द्रो; ब्रह्मास्त्रमाश्रित्य सुरेन्द्रशत्रुः |
4944 | 6060043c | निपातयित्वा हरिसैन्यमुग्र;मस्माञ्शरैरर्दयति प्रसक्तम् |
4945 | 6060044a | स्वयम्भुवा दत्तवरो महात्मा; खमास्थितोऽन्तर्हितभीमकायः |
4946 | 6060044c | कथं नु शक्यो युधि नष्टदेहो; निहन्तुमद्येन्द्रजिदुद्यतास्त्रः |
4947 | 6060045a | मन्ये स्वयम्भूर्भगवानचिन्त्यो; यस्यैतदस्त्रं प्रभवश्च योऽस्य |
4948 | 6060045c | बाणावपातांस्त्वमिहाद्य धीम;न्मया सहाव्यग्रमनाः सहस्व |
4949 | 6060046a | प्रच्छादयत्येष हि राक्षसेन्द्रः; सर्वा दिशः सायकवृष्टिजालैः |
4950 | 6060046c | एतच्च सर्वं पतिताग्र्यवीरं; न भ्राजते वानरराजसैन्यम् |
4951 | 6060047a | आवां तु दृष्ट्वा पतितौ विसंज्ञौ; निवृत्तयुद्धौ हतरोषहर्षौ |
4952 | 6060047c | ध्रुवं प्रवेक्ष्यत्यमरारिवासं; असौ समादाय रणाग्रलक्ष्मीम् |
4953 | 6060048a | ततस्तु ताविन्द्रजिदस्त्रजालै;र्बभूवतुस्तत्र तदा विशस्तौ |
4954 | 6060048c | स चापि तौ तत्र विषादयित्वा; ननाद हर्षाद्युधि राक्षसेन्द्रः |
4955 | 6060049a | स तत्तदा वानरराजसैन्यं; रामं च संख्ये सहलक्ष्मणेन |
4956 | 6060049c | विषादयित्वा सहसा विवेश; पुरीं दशग्रीवभुजाभिगुप्ताम् |
4957 | 6061001a | तयोस्तदा सादितयो रणाग्रे; मुमोह सैन्यं हरियूथपानाम् |
4958 | 6061001c | सुग्रीवनीलाङ्गदजाम्बवन्तो; न चापि किंचित्प्रतिपेदिरे ते |
4959 | 6061002a | ततो विषण्णं समवेक्ष्य सैन्यं; विभीषणो बुद्धिमतां वरिष्ठः |
4960 | 6061002c | उवाच शाखामृगराजवीरा;नाश्वासयन्नप्रतिमैर्वचोभिः |
4961 | 6061003a | मा भैष्ट नास्त्यत्र विषादकालो; यदार्यपुत्राववशौ विषण्णौ |
4962 | 6061003c | स्वयम्भुवो वाक्यमथोद्वहन्तौ; यत्सादिताविन्द्रजिदस्त्रजालैः |
4963 | 6061004a | तस्मै तु दत्तं परमास्त्रमेत;त्स्वयम्भुवा ब्राह्मममोघवेगम् |
4964 | 6061004c | तन्मानयन्तौ यदि राजपुत्रौ; निपातितौ कोऽत्र विषादकालः |
4965 | 6061005a | ब्राह्ममस्त्रं तदा धीमान्मानयित्वा तु मारुतिः |
4966 | 6061005c | विभीषणवचः श्रुत्वा हनूमांस्तमथाब्रवीत् |
4967 | 6061006a | एतस्मिन्निहते सैन्ये वानराणां तरस्विनाम् |
4968 | 6061006c | यो यो धारयते प्राणांस्तं तमाश्वासयावहे |
4969 | 6061007a | तावुभौ युगपद्वीरौ हनूमद्राक्षसोत्तमौ |
4970 | 6061007c | उल्काहस्तौ तदा रात्रौ रणशीर्षे विचेरतुः |
4971 | 6061008a | छिन्नलाङ्गूलहस्तोरुपादाङ्गुलि शिरो धरैः |
4972 | 6061008c | स्रवद्भिः क्षतजं गात्रैः प्रस्रवद्भिः समन्ततः |
4973 | 6061009a | पतितैः पर्वताकारैर्वानरैरभिसंकुलाम् |
4974 | 6061009c | शस्त्रैश्च पतितैर्दीप्तैर्ददृशाते वसुंधराम् |
4975 | 6061010a | सुग्रीवमङ्गदं नीलं शरभं गन्धमादनम् |
4976 | 6061010c | जाम्बवन्तं सुषेणं च वेगदर्शनमाहुकम् |
4977 | 6061011a | मैन्दं नलं ज्योतिमुखं द्विविदं पनसं तथा |
4978 | 6061011c | विभीषणो हनूमांश्च ददृशाते हतान्रणे |
4979 | 6061012a | सप्तषष्टिर्हताः कोट्यो वानराणां तरस्विनाम् |
4980 | 6061012c | अह्नः पञ्चमशेषेण वल्लभेन स्वयम्भुवः |
4981 | 6061013a | सागरौघनिभं भीमं दृष्ट्वा बाणार्दितं बलम् |
4982 | 6061013c | मार्गते जाम्बवन्तं स्म हनूमान्सविभीषणः |
4983 | 6061014a | स्वभावजरया युक्तं वृद्धं शरशतैश्चितम् |
4984 | 6061014c | प्रजापतिसुतं वीरं शाम्यन्तमिव पावकम् |
4985 | 6061015a | दृष्ट्वा तमुपसंगम्य पौलस्त्यो वाक्यमब्रवीत् |
4986 | 6061015c | कच्चिदार्यशरैस्तीर्ष्णैर्न प्राणा ध्वंसितास्तव |
4987 | 6061016a | विभीषणवचः श्रुत्वा जाम्बवानृक्षपुंगवः |
4988 | 6061016c | कृच्छ्रादभ्युद्गिरन्वाक्यमिदं वचनमब्रवीत् |
4989 | 6061017a | नैरृतेन्द्रमहावीर्यस्वरेण त्वाभिलक्षये |
4990 | 6061017c | पीड्यमानः शितैर्बाणैर्न त्वां पश्यामि चक्षुषा |
4991 | 6061018a | अञ्जना सुप्रजा येन मातरिश्वा च नैरृत |
4992 | 6061018c | हनूमान्वानरश्रेष्ठः प्राणान्धारयते क्वचित् |
4993 | 6061019a | श्रुत्वा जाम्बवतो वाक्यमुवाचेदं विभीषणः |
4994 | 6061019c | आर्यपुत्रावतिक्रम्य कस्मात्पृच्छसि मारुतिम् |
4995 | 6061020a | नैव राजनि सुग्रीवे नाङ्गदे नापि राघवे |
4996 | 6061020c | आर्य संदर्शितः स्नेहो यथा वायुसुते परः |
4997 | 6061021a | विभीषणवचः श्रुत्वा जाम्बवान्वाक्यमब्रवीत् |
4998 | 6061021c | शृणु नैरृतशार्दूल यस्मात्पृच्छामि मारुतिम् |
4999 | 6061022a | तस्मिञ्जीवति वीरे तु हतमप्यहतं बलम् |
5000 | 6061022c | हनूमत्युज्झितप्राणे जीवन्तोऽपि वयं हताः |
5001 | 6061023a | ध्रियते मारुतिस्तात मारुतप्रतिमो यदि |
5002 | 6061023c | वैश्वानरसमो वीर्ये जीविताशा ततो भवेत् |
5003 | 6061024a | ततो वृद्धमुपागम्य नियमेनाभ्यवादयत् |
5004 | 6061024c | गृह्य जाम्बवतः पादौ हनूमान्मारुतात्मजः |
5005 | 6061025a | श्रुत्वा हनुमतो वाक्यं तथापि व्यथितेन्द्रियः |
5006 | 6061025c | पुनर्जातमिवात्मानं स मेने ऋक्षपुंगवः |
5007 | 6061026a | ततोऽब्रवीन्महातेजा हनूमन्तं स जाम्बवान् |
5008 | 6061026c | आगच्छ हरिशार्दूलवानरांस्त्रातुमर्हसि |
5009 | 6061027a | नान्यो विक्रमपर्याप्तस्त्वमेषां परमः सखा |
5010 | 6061027c | त्वत्पराक्रमकालोऽयं नान्यं पश्यामि कञ्चन |
5011 | 6061028a | ऋक्षवानरवीराणामनीकानि प्रहर्षय |
5012 | 6061028c | विशल्यौ कुरु चाप्येतौ सादितौ रामलक्ष्मणौ |
5013 | 6061029a | गत्वा परममध्वानमुपर्युपरि सागरम् |
5014 | 6061029c | हिमवन्तं नगश्रेष्ठं हनूमन्गन्तुमर्हसि |
5015 | 6061030a | ततः काञ्चनमत्युग्रमृषभं पर्वतोत्तमम् |
5016 | 6061030c | कैलासशिखरं चापि द्रक्ष्यस्यरिनिषूदन |
5017 | 6061031a | तयोः शिखरयोर्मध्ये प्रदीप्तमतुलप्रभम् |
5018 | 6061031c | सर्वौषधियुतं वीर द्रक्ष्यस्यौषधिपर्वतम् |
5019 | 6061032a | तस्य वानरशार्दूलचतस्रो मूर्ध्नि संभवाः |
5020 | 6061032c | द्रक्ष्यस्योषधयो दीप्ता दीपयन्त्यो दिशो दश |
5021 | 6061033a | मृतसंजीवनीं चैव विशल्यकरणीमपि |
5022 | 6061033c | सौवर्णकरणीं चैव संधानीं च महौषधीम् |
5023 | 6061034a | ताः सर्वा हनुमन्गृह्य क्षिप्रमागन्तुमर्हसि |
5024 | 6061034c | आश्वासय हरीन्प्राणैर्योज्य गन्धवहात्मजः |
5025 | 6061035a | श्रुत्वा जाम्बवतो वाक्यं हनूमान्हरिपुंगवः |
5026 | 6061035c | आपूर्यत बलोद्धर्षैस्तोयवेगैरिवार्णवः |
5027 | 6061036a | स पर्वततटाग्रस्थः पीडयन्पर्वतोत्तरम् |
5028 | 6061036c | हनूमान्दृश्यते वीरो द्वितीय इव पर्वतः |
5029 | 6061037a | हरिपादविनिर्भिन्नो निषसाद स पर्वतः |
5030 | 6061037c | न शशाक तदात्मानं सोढुं भृशनिपीडितः |
5031 | 6061038a | तस्य पेतुर्नगा भूमौ हरिवेगाच्च जज्वलुः |
5032 | 6061038c | शृङ्गाणि च व्यकीर्यन्त पीडितस्य हनूमता |
5033 | 6061039a | तस्मिन्संपीड्यमाने तु भग्नद्रुमशिलातले |
5034 | 6061039c | न शेकुर्वानराः स्थातुं घूर्णमाने नगोत्तमे |
5035 | 6061040a | स घूर्णितमहाद्वारा प्रभग्नगृहगोपुरा |
5036 | 6061040c | लङ्का त्रासाकुला रात्रौ प्रनृत्तेवाभवत्तदा |
5037 | 6061041a | पृथिवीधरसंकाशो निपीड्य धरणीधरम् |
5038 | 6061041c | पृथिवीं क्षोभयामास सार्णवां मारुतात्मजः |
5039 | 6061042a | पद्भ्यां तु शैलमापीड्य वडवामुखवन्मुखम् |
5040 | 6061042c | विवृत्योग्रं ननादोच्चैस्त्रासयन्निव राक्षसान् |
5041 | 6061043a | तस्य नानद्यमानस्य श्रुत्वा निनदमद्भुतम् |
5042 | 6061043c | लङ्कास्था राक्षसाः सर्वे न शेकुः स्पन्दितुं भयात् |
5043 | 6061044a | नमस्कृत्वाथ रामाय मारुतिर्भीमविक्रमः |
5044 | 6061044c | राघवार्थे परं कर्म समैहत परंतपः |
5045 | 6061045a | स पुच्छमुद्यम्य भुजंगकल्पं; विनम्य पृष्ठं श्रवणे निकुञ्च्य |
5046 | 6061045c | विवृत्य वक्त्रं वडवामुखाभ;मापुप्लुवे व्योम्नि स चण्डवेगः |
5047 | 6061046a | स वृक्षषण्डांस्तरसा जहार; शैलाञ्शिलाः प्राकृतवानरांश्च |
5048 | 6061046c | बाहूरुवेगोद्धतसंप्रणुन्ना;स्ते क्षीणवेगाः सलिले निपेतुः |
5049 | 6061047a | स तौ प्रसार्योरगभोगकल्पौ; भुजौ भुजंगारिनिकाशवीर्यः |
5050 | 6061047c | जगाम मेरुं नगराजमग्र्यं; दिशः प्रकर्षन्निव वायुसूनुः |
5051 | 6061048a | स सागरं घूर्णितवीचिमालं; तदा भृशं भ्रामितसर्वसत्त्वम् |
5052 | 6061048c | समीक्षमाणः सहसा जगाम; चक्रं यथा विष्णुकराग्रमुक्तम् |
5053 | 6061049a | स पर्वतान्वृक्षगणान्सरांसि; नदीस्तटाकानि पुरोत्तमानि |
5054 | 6061049c | स्फीताञ्जनांस्तानपि संप्रपश्य;ञ्जगाम वेगात्पितृतुल्यवेगः |
5055 | 6061050a | आदित्यपथमाश्रित्य जगाम स गतश्रमः |
5056 | 6061050c | स ददर्श हरिश्रेष्ठो हिमवन्तं नगोत्तमम् |
5057 | 6061051a | नानाप्रस्रवणोपेतं बहुकंदरनिर्झरम् |
5058 | 6061051c | श्वेताभ्रचयसंकाशैः शिखरैश्चारुदर्शनैः |
5059 | 6061052a | स तं समासाद्य महानगेन्द्र;मतिप्रवृद्धोत्तमघोरशृङ्गम् |
5060 | 6061052c | ददर्श पुण्यानि महाश्रमाणि; सुरर्षिसंघोत्तमसेवितानि |
5061 | 6061053a | स ब्रह्मकोशं रजतालयं च; शक्रालयं रुद्रशरप्रमोक्षम् |
5062 | 6061053c | हयाननं ब्रह्मशिरश्च दीप्तं; ददर्श वैवस्वत किंकरांश्च |
5063 | 6061054a | वज्रालयं वैश्वरणालयं च; सूर्यप्रभं सूर्यनिबन्धनं च |
5064 | 6061054c | ब्रह्मासनं शंकरकार्मुकं च; ददर्श नाभिं च वसुंधरायाः |
5065 | 6061055a | कैलासमग्र्यं हिमवच्छिलां च; तथर्षभं काञ्चनशैलमग्र्यम् |
5066 | 6061055c | स दीप्तसर्वौषधिसंप्रदीप्तं; ददर्श सर्वौषधिपर्वतेन्द्रम् |
5067 | 6061056a | स तं समीक्ष्यानलरश्मिदीप्तं; विसिष्मिये वासवदूतसूनुः |
5068 | 6061056c | आप्लुत्य तं चौषधिपर्वतेन्द्रं; तत्रौषधीनां विचयं चकार |
5069 | 6061057a | स योजनसहस्राणि समतीत्य महाकपिः |
5070 | 6061057c | दिव्यौषधिधरं शैलं व्यचरन्मारुतात्मजः |
5071 | 6061058a | महौषध्यस्तु ताः सर्वास्तस्मिन्पर्वतसत्तमे |
5072 | 6061058c | विज्ञायार्थिनमायान्तं ततो जग्मुरदर्शनम् |
5073 | 6061059a | स ता महात्मा हनुमानपश्यं;श्चुकोप कोपाच्च भृशं ननाद |
5074 | 6061059c | अमृष्यमाणोऽग्निनिकाशचक्षु;र्महीधरेन्द्रं तमुवाच वाक्यम् |
5075 | 6061060a | किमेतदेवं सुविनिश्चितं ते; यद्राघवे नासि कृतानुकम्पः |
5076 | 6061060c | पश्याद्य मद्बाहुबलाभिभूतो; विकीर्णमात्मानमथो नगेन्द्र |
5077 | 6061061a | स तस्य शृङ्गं सनगं सनागं; सकाञ्चनं धातुसहस्रजुष्टम् |
5078 | 6061061c | विकीर्णकूटं चलिताग्रसानुं; प्रगृह्य वेगात्सहसोन्ममाथ |
5079 | 6061062a | स तं समुत्पाट्य खमुत्पपात; वित्रास्य लोकान्ससुरान्सुरेन्द्रान् |
5080 | 6061062c | संस्तूयमानः खचरैरनेकै;र्जगाम वेगाद्गरुडोग्रवीर्यः |
5081 | 6061063a | स भास्कराध्वानमनुप्रपन्न;स्तद्भास्कराभं शिखरं प्रगृह्य |
5082 | 6061063c | बभौ तदा भास्करसंनिकाशो; रवेः समीपे प्रतिभास्कराभः |
5083 | 6061064a | स तेन शैलेन भृशं रराज; शैलोपमो गन्धवहात्मजस्तु |
5084 | 6061064c | सहस्रधारेण सपावकेन; चक्रेण खे विष्णुरिवोद्धृतेन |
5085 | 6061065a | तं वानराः प्रेक्ष्य तदा विनेदुः; स तानपि प्रेक्ष्य मुदा ननाद |
5086 | 6061065c | तेषां समुद्घुष्टरवं निशम्य; लङ्कालया भीमतरं विनेदुः |
5087 | 6061066a | ततो महात्मा निपपात तस्मि;ञ्शैलोत्तमे वानरसैन्यमध्ये |
5088 | 6061066c | हर्युत्तमेभ्यः शिरसाभिवाद्य; विभीषणं तत्र च सस्वजे सः |
5089 | 6061067a | तावप्युभौ मानुषराजपुत्रौ; तं गन्धमाघ्राय महौषधीनाम् |
5090 | 6061067c | बभूवतुस्तत्र तदा विशल्या;वुत्तस्थुरन्ये च हरिप्रवीराः |
5091 | 6061068a | ततो हरिर्गन्धवहात्मजस्तु; तमोषधीशैलमुदग्रवीर्यः |
5092 | 6061068c | निनाय वेगाद्धिमवन्तमेव; पुनश्च रामेण समाजगाम |
5093 | 6062001a | ततोऽब्रवीन्महातेजाः सुग्रीवो वानराधिपः |
5094 | 6062001c | अर्थ्यं विजापयंश्चापि हनूमन्तं महाबलम् |
5095 | 6062002a | यतो हतः कुम्भकर्णः कुमाराश्च निषूदिताः |
5096 | 6062002c | नेदानीमुपनिर्हारं रावणो दातुमर्हति |
5097 | 6062003a | ये ये महाबलाः सन्ति लघवश्च प्लवंगमाः |
5098 | 6062003c | लङ्कामभ्युत्पतन्त्वाशु गृह्योल्काः प्लवगर्षभाः |
5099 | 6062004a | ततोऽस्तं गत आदित्ये रौद्रे तस्मिन्निशामुखे |
5100 | 6062004c | लङ्कामभिमुखाः सोल्का जग्मुस्ते प्लवगर्षभाः |
5101 | 6062005a | उल्काहस्तैर्हरिगणैः सर्वतः समभिद्रुताः |
5102 | 6062005c | आरक्षस्था विरूपाक्षाः सहसा विप्रदुद्रुवुः |
5103 | 6062006a | गोपुराट्ट प्रतोलीषु चर्यासु विविधासु च |
5104 | 6062006c | प्रासादेषु च संहृष्टाः ससृजुस्ते हुताशनम् |
5105 | 6062007a | तेषां गृहसहस्राणि ददाह हुतभुक्तदा |
5106 | 6062007c | आवासान्राक्षसानां च सर्वेषां गृहमेधिनाम् |
5107 | 6062008a | हेमचित्रतनुत्राणां स्रग्दामाम्बरधारिणाम् |
5108 | 6062008c | सीधुपानचलाक्षाणां मदविह्वलगामिनाम् |
5109 | 6062009a | कान्तालम्बितवस्त्राणां शत्रुसंजातमन्युनाम् |
5110 | 6062009c | गदाशूलासि हस्तानां खादतां पिबतामपि |
5111 | 6062010a | शयनेषु महार्हेषु प्रसुप्तानां प्रियैः सह |
5112 | 6062010c | त्रस्तानां गच्छतां तूर्णं पुत्रानादाय सर्वतः |
5113 | 6062011a | तेषां गृहसहस्राणि तदा लङ्कानिवासिनाम् |
5114 | 6062011c | अदहत्पावकस्तत्र जज्वाल च पुनः पुनः |
5115 | 6062012a | सारवन्ति महार्हाणि गम्भीरगुणवन्ति च |
5116 | 6062012c | हेमचन्द्रार्धचन्द्राणि चन्द्रशालोन्नतानि च |
5117 | 6062013a | रत्नचित्रगवाक्षाणि साधिष्ठानानि सर्वशः |
5118 | 6062013c | मणिविद्रुमचित्राणि स्पृशन्तीव च भास्करम् |
5119 | 6062014a | क्रौञ्चबर्हिणवीणानां भूषणानां च निस्वनैः |
5120 | 6062014c | नादितान्यचलाभानि वेश्मान्यग्निर्ददाह सः |
5121 | 6062015a | ज्वलनेन परीतानि तोरणानि चकाशिरे |
5122 | 6062015c | विद्युद्भिरिव नद्धानि मेघजालानि घर्मगे |
5123 | 6062016a | विमानेषु प्रसुप्ताश्च दह्यमाना वराङ्गनाः |
5124 | 6062016c | त्यक्ताभरणसंयोगा हाहेत्युच्चैर्विचुक्रुशः |
5125 | 6062017a | तत्र चाग्निपरीतानि निपेतुर्भवनान्यपि |
5126 | 6062017c | वज्रिवज्रहतानीव शिखराणि महागिरेः |
5127 | 6062018a | तानि निर्दह्यमानानि दूरतः प्रचकाशिरे |
5128 | 6062018c | हिमवच्छिखराणीव दीप्तौषधिवनानि च |
5129 | 6062019a | हर्म्याग्रैर्दह्यमानैश्च ज्वालाप्रज्वलितैरपि |
5130 | 6062019c | रात्रौ सा दृश्यते लङ्का पुष्पितैरिव किंशुकैः |
5131 | 6062020a | हस्त्यध्यक्षैर्गजैर्मुक्तैर्मुक्तैश्च तुरगैरपि |
5132 | 6062020c | बभूव लङ्का लोकान्ते भ्रान्तग्राह इवार्णवः |
5133 | 6062021a | अश्वं मुक्तं गजो दृष्ट्वा कच्चिद्भीतोऽपसर्पति |
5134 | 6062021c | भीतो भीतं गजं दृष्ट्वा क्वचिदश्वो निवर्तते |
5135 | 6062022a | सा बभूव मुहूर्तेन हरिभिर्दीपिता पुरी |
5136 | 6062022c | लोकस्यास्य क्षये घोरे प्रदीप्तेव वसुंधरा |
5137 | 6062023a | नारी जनस्य धूमेन व्याप्तस्योच्चैर्विनेदुषः |
5138 | 6062023c | स्वनो ज्वलनतप्तस्य शुश्रुवे दशयोजनम् |
5139 | 6062024a | प्रदग्धकायानपरान्राक्षसान्निर्गतान्बहिः |
5140 | 6062024c | सहसाभ्युत्पतन्ति स्म हरयोऽथ युयुत्सवः |
5141 | 6062025a | उद्घुष्टं वानराणां च राक्षसानां च निस्वनः |
5142 | 6062025c | दिशो दश समुद्रं च पृथिवीं चान्वनादयत् |
5143 | 6062026a | विशल्यौ तु महात्मानौ तावुभौ रामलक्ष्मणौ |
5144 | 6062026c | असंभ्रान्तौ जगृहतुस्तावुभौ धनुषी वरे |
5145 | 6062027a | ततो विस्फारयाणस्य रामस्य धनुरुत्तमम् |
5146 | 6062027c | बभूव तुमुलः शब्दो राक्षसानां भयावहः |
5147 | 6062028a | अशोभत तदा रामो धनुर्विस्फारयन्महत् |
5148 | 6062028c | भगवानिव संक्रुद्धो भवो वेदमयं धनुः |
5149 | 6062029a | वानरोद्घुष्टघोषश्च राक्षसानां च निस्वनः |
5150 | 6062029c | ज्याशब्दश्चापि रामस्य त्रयं व्याप दिशो दश |
5151 | 6062030a | तस्य कार्मुकमुक्तैश्च शरैस्तत्पुरगोपुरम् |
5152 | 6062030c | कैलासशृङ्गप्रतिमं विकीर्णमपतद्भुवि |
5153 | 6062031a | ततो रामशरान्दृष्ट्वा विमानेषु गृहेषु च |
5154 | 6062031c | संनाहो राक्षसेन्द्राणां तुमुलः समपद्यत |
5155 | 6062032a | तेषां संनह्यमानानां सिंहनादं च कुर्वताम् |
5156 | 6062032c | शर्वरी राक्षसेन्द्राणां रौद्रीव समपद्यत |
5157 | 6062033a | आदिष्टा वानरेन्द्रास्ते सुग्रीवेण महात्मना |
5158 | 6062033c | आसन्ना द्वारमासाद्य युध्यध्वं प्लवगर्षभाः |
5159 | 6062034a | यश्च वो वितथं कुर्यात्तत्र तत्र व्यवस्थितः |
5160 | 6062034c | स हन्तव्योऽभिसंप्लुत्य राजशासनदूषकः |
5161 | 6062035a | तेषु वानरमुख्येषु दीप्तोल्कोज्ज्वलपाणिषु |
5162 | 6062035c | स्थितेषु द्वारमासाद्य रावणं मन्युराविशत् |
5163 | 6062036a | तस्य जृम्भितविक्षेपाद्व्यामिश्रा वै दिशो दश |
5164 | 6062036c | रूपवानिव रुद्रस्य मन्युर्गात्रेष्वदृश्यत |
5165 | 6062037a | स निकुम्भं च कुम्भं च कुम्भकर्णात्मजावुभौ |
5166 | 6062037c | प्रेषयामास संक्रुद्धो राक्षसैर्बहुभिः सह |
5167 | 6062038a | शशास चैव तान्सर्वान्राक्षसान्राक्षसेश्वरः |
5168 | 6062038c | राक्षसा गच्छतात्रैव सिंहनादं च नादयन् |
5169 | 6062039a | ततस्तु चोदितास्तेन राक्षसा ज्वलितायुधाः |
5170 | 6062039c | लङ्काया निर्ययुर्वीराः प्रणदन्तः पुनः पुनः |
5171 | 6062040a | भीमाश्वरथमातंगं नानापत्ति समाकुलम् |
5172 | 6062040c | दीप्तशूलगदाखड्गप्रासतोमरकार्मुकम् |
5173 | 6062041a | तद्राक्षसबलं घोरं भीमविक्रमपौरुषम् |
5174 | 6062041c | ददृशे ज्वलितप्रासं किङ्किणीशतनादितम् |
5175 | 6062042a | हेमजालाचितभुजं व्यावेष्टितपरश्वधम् |
5176 | 6062042c | व्याघूर्णितमहाशस्त्रं बाणसंसक्तकार्मुकम् |
5177 | 6062043a | गन्धमाल्यमधूत्सेकसंमोदित महानिलम् |
5178 | 6062043c | घोरं शूरजनाकीर्णं महाम्बुधरनिस्वनम् |
5179 | 6062044a | तं दृष्ट्वा बलमायान्तं राक्षसानां सुदारुणम् |
5180 | 6062044c | संचचाल प्लवंगानां बलमुच्चैर्ननाद च |
5181 | 6062045a | जवेनाप्लुत्य च पुनस्तद्राक्षसबलं महत् |
5182 | 6062045c | अभ्ययात्प्रत्यरिबलं पतंग इव पावकम् |
5183 | 6062046a | तेषां भुजपरामर्शव्यामृष्टपरिघाशनि |
5184 | 6062046c | राक्षसानां बलं श्रेष्ठं भूयस्तरमशोभत |
5185 | 6062047a | तथैवाप्यपरे तेषां कपीनामसिभिः शितैः |
5186 | 6062047c | प्रवीरानभितो जघ्नुर्घोररूपा निशाचराः |
5187 | 6062048a | घ्नन्तमन्यं जघानान्यः पातयन्तमपातयत् |
5188 | 6062048c | गर्हमाणं जगर्हान्ये दशन्तमपरेऽदशत् |
5189 | 6062049a | देहीत्यन्ये ददात्यन्यो ददामीत्यपरः पुनः |
5190 | 6062049c | किं क्लेशयसि तिष्ठेति तत्रान्योन्यं बभाषिरे |
5191 | 6062050a | समुद्यतमहाप्रासं मुष्टिशूलासिसंकुलम् |
5192 | 6062050c | प्रावर्तत महारौद्रं युद्धं वानररक्षसाम् |
5193 | 6062051a | वानरान्दश सप्तेति राक्षसा अभ्यपातयन् |
5194 | 6062051c | राक्षसान्दशसप्तेति वानरा जघ्नुराहवे |
5195 | 6062052a | विस्रस्तकेशरसनं विमुक्तकवचध्वजम् |
5196 | 6062052c | बलं राक्षसमालम्ब्य वानराः पर्यवारयन् |
5197 | 6063001a | प्रवृत्ते संकुले तस्मिन्घोरे वीरजनक्षये |
5198 | 6063001c | अङ्गदः कम्पनं वीरमाससाद रणोत्सुकः |
5199 | 6063002a | आहूय सोऽङ्गदं कोपात्ताडयामास वेगितः |
5200 | 6063002c | गदया कम्पनः पूर्वं स चचाल भृशाहतः |
5201 | 6063003a | स संज्ञां प्राप्य तेजस्वी चिक्षेप शिखरं गिरेः |
5202 | 6063003c | अर्दितश्च प्रहारेण कम्पनः पतितो भुवि |
5203 | 6063004a | हतप्रवीरा व्यथिता राक्षसेन्द्रचमूस्तदा |
5204 | 6063004c | जगामाभिमुखी सा तु कुम्भकर्णसुतो यतः |
5205 | 6063004e | आपतन्तीं च वेगेन कुम्भस्तां सान्त्वयच्चमूम् |
5206 | 6063005a | स धनुर्धन्विनां श्रेष्ठः प्रगृह्य सुसमाहितः |
5207 | 6063005c | मुमोचाशीविषप्रख्याञ्शरान्देहविदारणान् |
5208 | 6063006a | तस्य तच्छुशुभे भूयः सशरं धनुरुत्तमम् |
5209 | 6063006c | विद्युदैरावतार्चिष्मद्द्वितीयेन्द्रधनुर्यथा |
5210 | 6063007a | आकर्णकृष्टमुक्तेन जघान द्विविदं तदा |
5211 | 6063007c | तेन हाटकपुङ्खेन पत्रिणा पत्रवाससा |
5212 | 6063008a | सहसाभिहतस्तेन विप्रमुक्तपदः स्फुरन् |
5213 | 6063008c | निपपाताद्रिकूटाभो विह्वलः प्लवगोत्तमः |
5214 | 6063009a | मैन्दस्तु भ्रातरं दृष्ट्वा भग्नं तत्र महाहवे |
5215 | 6063009c | अभिदुद्राव वेगेन प्रगृह्य महतीं शिलाम् |
5216 | 6063010a | तां शिलां तु प्रचिक्षेप राक्षसाय महाबलः |
5217 | 6063010c | बिभेद तां शिलां कुम्भः प्रसन्नैः पञ्चभिः शरैः |
5218 | 6063011a | संधाय चान्यं सुमुखं शरमाशीविषोपमम् |
5219 | 6063011c | आजघान महातेजा वक्षसि द्विविदाग्रजम् |
5220 | 6063012a | स तु तेन प्रहारेण मैन्दो वानरयूथपः |
5221 | 6063012c | मर्मण्यभिहतस्तेन पपात भुवि मूर्छितः |
5222 | 6063013a | अङ्गदो मातुलौ दृष्ट्वा पतितौ तौ महाबलौ |
5223 | 6063013c | अभिदुद्राव वेगेन कुम्भमुद्यतकार्मुकम् |
5224 | 6063014a | तमापतन्तं विव्याध कुम्भः पञ्चभिरायसैः |
5225 | 6063014c | त्रिभिश्चान्यैः शितैर्बाणैर्मातंगमिव तोमरैः |
5226 | 6063015a | सोऽङ्गदं विविधैर्बाणैः कुम्भो विव्याध वीर्यवान् |
5227 | 6063015c | अकुण्ठधारैर्निशितैस्तीक्ष्णैः कनकभूषणैः |
5228 | 6063016a | अङ्गदः प्रतिविद्धाङ्गो वालिपुत्रो न कम्पते |
5229 | 6063016c | शिलापादपवर्षाणि तस्य मूर्ध्नि ववर्ष ह |
5230 | 6063017a | स प्रचिच्छेद तान्सर्वान्बिभेद च पुनः शिलाः |
5231 | 6063017c | कुम्भकर्णात्मजः श्रीमान्वालिपुत्रसमीरितान् |
5232 | 6063018a | आपतन्तं च संप्रेक्ष्य कुम्भो वानरयूथपम् |
5233 | 6063018c | भ्रुवोर्विव्याध बाणाभ्यामुल्काभ्यामिव कुञ्जरम् |
5234 | 6063019a | अङ्गदः पाणिना नेत्रे पिधाय रुधिरोक्षिते |
5235 | 6063019c | सालमासन्नमेकेन परिजग्राह पाणिना |
5236 | 6063020a | तमिन्द्रकेतुप्रतिमं वृक्षं मन्दरसंनिभम् |
5237 | 6063020c | समुत्सृजन्तं वेगेन पश्यतां सर्वरक्षसाम् |
5238 | 6063021a | स चिच्छेद शितैर्बाणैः सप्तभिः कायभेदनैः |
5239 | 6063021c | अङ्गदो विव्यथेऽभीक्ष्णं ससाद च मुमोह च |
5240 | 6063022a | अङ्गदं व्यथितं दृष्ट्वा सीदन्तमिव सागरे |
5241 | 6063022c | दुरासदं हरिश्रेष्ठा राघवाय न्यवेदयन् |
5242 | 6063023a | रामस्तु व्यथितं श्रुत्वा वालिपुत्रं महाहवे |
5243 | 6063023c | व्यादिदेश हरिश्रेष्ठाञ्जाम्बवत्प्रमुखांस्ततः |
5244 | 6063024a | ते तु वानरशार्दूलाः श्रुत्वा रामस्य शासनम् |
5245 | 6063024c | अभिपेतुः सुसंक्रुद्धाः कुम्भमुद्यतकार्मुकम् |
5246 | 6063025a | ततो द्रुमशिलाहस्ताः कोपसंरक्तलोचनाः |
5247 | 6063025c | रिरक्षिषन्तोऽभ्यपतन्नङ्गदं वानरर्षभाः |
5248 | 6063026a | जाम्बवांश्च सुषेणश्च वेगदर्शी च वानरः |
5249 | 6063026c | कुम्भकर्णात्मजं वीरं क्रुद्धाः समभिदुद्रुवुः |
5250 | 6063027a | समीक्ष्यातततस्तांस्तु वानरेन्द्रान्महाबलान् |
5251 | 6063027c | आववार शरौघेण नगेनेव जलाशयम् |
5252 | 6063028a | तस्य बाणचयं प्राप्य न शोकेरतिवर्तितुम् |
5253 | 6063028c | वानरेन्द्रा महात्मानो वेलामिव महोदधिः |
5254 | 6063029a | तांस्तु दृष्ट्वा हरिगणाञ्शरवृष्टिभिरर्दितान् |
5255 | 6063029c | अङ्गदं पृष्ठतः कृत्वा भ्रातृजं प्लवगेश्वरः |
5256 | 6063030a | अभिदुद्राव वेगेन सुग्रीवः कुम्भमाहवे |
5257 | 6063030c | शैलसानु चरं नागं वेगवानिव केसरी |
5258 | 6063031a | उत्पाट्य च महाशैलानश्वकर्णान्धवान्बहून् |
5259 | 6063031c | अन्यांश्च विविधान्वृक्षांश्चिक्षेप च महाबलः |
5260 | 6063032a | तां छादयन्तीमाकाशं वृक्षवृष्टिं दुरासदाम् |
5261 | 6063032c | कुम्भकर्णात्मजः श्रीमांश्चिच्छेद निशितैः शरैः |
5262 | 6063033a | अभिलक्ष्येण तीव्रेण कुम्भेन निशितैः शरैः |
5263 | 6063033c | आचितास्ते द्रुमा रेजुर्यथा घोराः शतघ्नयः |
5264 | 6063034a | द्रुमवर्षं तु तच्छिन्नं दृष्ट्वा कुम्भेन वीर्यवान् |
5265 | 6063034c | वानराधिपतिः श्रीमान्महासत्त्वो न विव्यथे |
5266 | 6063035a | निर्भिद्यमानः सहसा सहमानश्च ताञ्शरान् |
5267 | 6063035c | कुम्भस्य धनुराक्षिप्य बभञ्जेन्द्रधनुःप्रभम् |
5268 | 6063036a | अवप्लुत्य ततः शीघ्रं कृत्वा कर्म सुदुष्करम् |
5269 | 6063036c | अब्रवीत्कुपितः कुम्भं भग्नशृङ्गमिव द्विपम् |
5270 | 6063037a | निकुम्भाग्रज वीर्यं ते बाणवेगं तदद्भुतम् |
5271 | 6063037c | संनतिश्च प्रभावश्च तव वा रावणस्य वा |
5272 | 6063038a | प्रह्रादबलिवृत्रघ्नकुबेरवरुणोपम |
5273 | 6063038c | एकस्त्वमनुजातोऽसि पितरं बलवत्तरः |
5274 | 6063039a | त्वामेवैकं महाबाहुं शूलहस्तमरिंदमम् |
5275 | 6063039c | त्रिदशा नातिवर्तन्ते जितेन्द्रियमिवाधयः |
5276 | 6063040a | वरदानात्पितृव्यस्ते सहते देवदानवान् |
5277 | 6063040c | कुम्भकर्णस्तु वीर्येण सहते च सुरासुरान् |
5278 | 6063041a | धनुषीन्द्रजितस्तुल्यः प्रतापे रावणस्य च |
5279 | 6063041c | त्वमद्य रक्षसां लोके श्रेष्ठोऽसि बलवीर्यतः |
5280 | 6063042a | महाविमर्दं समरे मया सह तवाद्भुतम् |
5281 | 6063042c | अद्य भूतानि पश्यन्तु शक्रशम्बरयोरिव |
5282 | 6063043a | कृतमप्रतिमं कर्म दर्शितं चास्त्रकौशलम् |
5283 | 6063043c | पातिता हरिवीराश्च त्वयैते भीमविक्रमाः |
5284 | 6063044a | उपालम्भभयाच्चापि नासि वीर मया हतः |
5285 | 6063044c | कृतकर्मा परिश्रान्तो विश्रान्तः पश्य मे बलम् |
5286 | 6063045a | तेन सुग्रीववाक्येन सावमानेन मानितः |
5287 | 6063045c | अग्नेराज्यहुतस्येव तेजस्तस्याभ्यवर्धत |
5288 | 6063046a | ततः कुम्भः समुत्पत्य सुग्रीवमभिपद्य च |
5289 | 6063046c | आजघानोरसि क्रुद्धो वज्रवेगेन मुष्टिना |
5290 | 6063047a | तस्य चर्म च पुस्फोट संजज्ञे चास्य शोणितम् |
5291 | 6063047c | स च मुष्टिर्महावेगः प्रतिजघ्नेऽस्थिमण्डले |
5292 | 6063048a | तदा वेगेन तत्रासीत्तेजः प्रज्वालितं मुहुः |
5293 | 6063048c | वज्रनिष्पेषसंजातज्वाला मेरौ यथा गिरौ |
5294 | 6063049a | स तत्राभिहतस्तेन सुग्रीवो वानरर्षभः |
5295 | 6063049c | मुष्टिं संवर्तयामास वज्रकल्पं महाबलः |
5296 | 6063050a | अर्चिःसहस्रविकचं रविमण्डलसप्रभम् |
5297 | 6063050c | स मुष्टिं पातयामास कुम्भस्योरसि वीर्यवान् |
5298 | 6063051a | मुष्टिनाभिहतस्तेन निपपाताशु राक्षसः |
5299 | 6063051c | लोहिताङ्ग इवाकाशाद्दीप्तरश्मिर्यदृच्छया |
5300 | 6063052a | कुम्भस्य पततो रूपं भग्नस्योरसि मुष्टिना |
5301 | 6063052c | बभौ रुद्राभिपन्नस्य यथारूपं गवां पतेः |
5302 | 6063053a | तस्मिन्हते भीमपराक्रमेण; प्लवंगमानामृषभेण युद्धे |
5303 | 6063053c | मही सशैला सवना चचाल; भयं च रक्षांस्यधिकं विवेश |
5304 | 6064001a | निकुम्भो भ्रातरं दृष्ट्वा सुग्रीवेण निपातितम् |
5305 | 6064001c | प्रदहन्निव कोपेन वानरेन्द्रमवैक्षत |
5306 | 6064002a | ततः स्रग्दामसंनद्धं दत्तपञ्चाङ्गुलं शुभम् |
5307 | 6064002c | आददे परिघं वीरो नगेन्द्रशिखरोपमम् |
5308 | 6064003a | हेमपट्टपरिक्षिप्तं वज्रविद्रुमभूषितम् |
5309 | 6064003c | यमदण्डोपमं भीमं रक्षसां भयनाशनम् |
5310 | 6064004a | तमाविध्य महातेजाः शक्रध्वजसमं रणे |
5311 | 6064004c | विननाद विवृत्तास्यो निकुम्भो भीमविक्रमः |
5312 | 6064005a | उरोगतेन निष्केण भुजस्थैरङ्गदैरपि |
5313 | 6064005c | कुण्डलाभ्यां च मृष्टाभ्यां मालया च विचित्रया |
5314 | 6064006a | निकुम्भो भूषणैर्भाति तेन स्म परिघेण च |
5315 | 6064006c | यथेन्द्रधनुषा मेघः सविद्युत्स्तनयित्नुमान् |
5316 | 6064007a | परिघाग्रेण पुस्फोट वातग्रन्थिर्महात्मनः |
5317 | 6064007c | प्रजज्वाल सघोषश्च विधूम इव पावकः |
5318 | 6064008a | नगर्या विटपावत्या गन्धर्वभवनोत्तमैः |
5319 | 6064008c | सह चैवामरावत्या सर्वैश्च भवनैः सह |
5320 | 6064009a | सतारागणनक्षत्रं सचन्द्रं समहाग्रहम् |
5321 | 6064009c | निकुम्भपरिघाघूर्णं भ्रमतीव नभस्तलम् |
5322 | 6064010a | दुरासदश्च संजज्ञे परिघाभरणप्रभः |
5323 | 6064010c | क्रोधेन्धनो निकुम्भाग्निर्युगान्ताग्निरिवोत्थितः |
5324 | 6064011a | राक्षसा वानराश्चापि न शेकुः स्पन्दितुं भयात् |
5325 | 6064011c | हनूमंस्तु विवृत्योरस्तस्थौ प्रमुखतो बली |
5326 | 6064012a | परिघोपमबाहुस्तु परिघं भास्करप्रभम् |
5327 | 6064012c | बली बलवतस्तस्य पातयामास वक्षसि |
5328 | 6064013a | स्थिरे तस्योरसि व्यूढे परिघः शतधा कृतः |
5329 | 6064013c | विशीर्यमाणः सहसा उल्का शतमिवाम्बरे |
5330 | 6064014a | स तु तेन प्रहारेण चचाल च महाकपिः |
5331 | 6064014c | परिघेण समाधूतो यथा भूमिचलेऽचलः |
5332 | 6064015a | स तथाभिहतस्तेन हनूमान्प्लवगोत्तमः |
5333 | 6064015c | मुष्टिं संवर्तयामास बलेनातिमहाबलः |
5334 | 6064016a | तमुद्यम्य महातेजा निकुम्भोरसि वीर्यवान् |
5335 | 6064016c | अभिचिक्षेप वेगेन वेगवान्वायुविक्रमः |
5336 | 6064017a | ततः पुस्फोट चर्मास्य प्रसुस्राव च शोणितम् |
5337 | 6064017c | मुष्टिना तेन संजज्ञे ज्वाला विद्युदिवोत्थिता |
5338 | 6064018a | स तु तेन प्रहारेण निकुम्भो विचचाल ह |
5339 | 6064018c | स्वस्थश्चापि निजग्राह हनूमन्तं महाबलम् |
5340 | 6064019a | विचुक्रुशुस्तदा संख्ये भीमं लङ्कानिवासिनः |
5341 | 6064019c | निकुम्भेनोद्धृतं दृष्ट्वा हनूमन्तं महाबलम् |
5342 | 6064020a | स तथा ह्रियमाणोऽपि कुम्भकर्णात्मजेन हि |
5343 | 6064020c | आजघानानिलसुतो वज्रवेगेन मुष्टिना |
5344 | 6064021a | आत्मानं मोचयित्वाथ क्षितावभ्यवपद्यत |
5345 | 6064021c | हनूमानुन्ममथाशु निकुम्भं मारुतात्मजः |
5346 | 6064022a | निक्षिप्य परमायत्तो निकुम्भं निष्पिपेष च |
5347 | 6064022c | उत्पत्य चास्य वेगेन पपातोरसि वीर्यवान् |
5348 | 6064023a | परिगृह्य च बाहुभ्यां परिवृत्य शिरोधराम् |
5349 | 6064023c | उत्पाटयामास शिरो भैरवं नदतो महत् |
5350 | 6064024a | अथ विनदति सादिते निकुम्भे; पवनसुतेन रणे बभूव युद्धम् |
5351 | 6064024c | दशरथसुतराक्षसेन्द्रचम्वो;र्भृशतरमागतरोषयोः सुभीमम् |
5352 | 6065001a | निकुम्भं च हतं श्रुत्वा कुम्भं च विनिपातितम् |
5353 | 6065001c | रावणः परमामर्षी प्रजज्वालानलो यथा |
5354 | 6065002a | नैरृतः क्रोधशोकाभ्यां द्वाभ्यां तु परिमूर्छितः |
5355 | 6065002c | खरपुत्रं विशालाक्षं मकराक्षमचोदयत् |
5356 | 6065003a | गच्छ पुत्र मयाज्ञप्तो बलेनाभिसमन्वितः |
5357 | 6065003c | राघवं लक्ष्मणं चैव जहि तौ सवनौकसौ |
5358 | 6065004a | रावणस्य वचः श्रुत्वा शूरो मानी खरात्मजः |
5359 | 6065004c | बाढमित्यब्रवीद्धृष्टो मकराक्षो निशाचरः |
5360 | 6065005a | सोऽभिवाद्य दशग्रीवं कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् |
5361 | 6065005c | निर्जगाम गृहाच्छुभ्राद्रावणस्याज्ञया बली |
5362 | 6065006a | समीपस्थं बलाध्यक्षं खरपुत्रोऽब्रवीदिदम् |
5363 | 6065006c | रथमानीयतां शीघ्रं सैन्यं चानीयतां त्वरात् |
5364 | 6065007a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा बलाध्यक्षो निशाचरः |
5365 | 6065007c | स्यन्दनं च बलं चैव समीपं प्रत्यपादयत् |
5366 | 6065008a | प्रदक्षिणं रथं कृत्वा आरुरोह निशाचरः |
5367 | 6065008c | सूतं संचोदयामास शीघ्रं मे रथमावह |
5368 | 6065009a | अथ तान्राक्षसान्सर्वान्मकराक्षोऽब्रवीदिदम् |
5369 | 6065009c | यूयं सर्वे प्रयुध्यध्वं पुरस्तान्मम राक्षसाः |
5370 | 6065010a | अहं राक्षसराजेन रावणेन महात्मना |
5371 | 6065010c | आज्ञप्तः समरे हन्तुं तावुभौ रामलक्ष्मणौ |
5372 | 6065011a | अद्य रामं वधिष्यामि लक्ष्मणं च निशाचराः |
5373 | 6065011c | शाखामृगं च सुग्रीवं वानरांश्च शरोत्तमैः |
5374 | 6065012a | अद्य शूलनिपातैश्च वानराणां महाचमूम् |
5375 | 6065012c | प्रदहिष्यामि संप्राप्तां शुष्केन्धनमिवानलः |
5376 | 6065013a | मकराक्षस्य तच्छ्रुत्वा वचनं ते निशाचराः |
5377 | 6065013c | सर्वे नानायुधोपेता बलवन्तः समाहिताः |
5378 | 6065014a | ते कामरूपिणः शूरा दंष्ट्रिणः पिङ्गलेक्षणाः |
5379 | 6065014c | मातंगा इव नर्दन्तो ध्वस्तकेशा भयानकाः |
5380 | 6065015a | परिवार्य महाकाया महाकायं खरात्मजम् |
5381 | 6065015c | अभिजग्मुस्तदा हृष्टाश्चालयन्तो वसुंधराम् |
5382 | 6065016a | शङ्खभेरीसहस्राणामाहतानां समन्ततः |
5383 | 6065016c | क्ष्वेडितास्फोटितानां च ततः शब्दो महानभूत् |
5384 | 6065017a | प्रभ्रष्टोऽथ करात्तस्य प्रतोदः सारथेस्तदा |
5385 | 6065017c | पपात सहसा चैव ध्वजस्तस्य च रक्षसः |
5386 | 6065018a | तस्य ते रथसंयुक्ता हया विक्रमवर्जिताः |
5387 | 6065018c | चरणैराकुलैर्गत्वा दीनाः सास्रमुखा ययुः |
5388 | 6065019a | प्रवाति पवनस्तस्य सपांसुः खरदारुणः |
5389 | 6065019c | निर्याणे तस्य रौद्रस्य मकराक्षस्य दुर्मतेः |
5390 | 6065020a | तानि दृष्ट्वा निमित्तानि राक्षसा वीर्यवत्तमाः |
5391 | 6065020c | अचिन्त्यनिर्गताः सर्वे यत्र तौ रामलक्ष्मणौ |
5392 | 6065021a | घनगजमहिषाङ्गतुल्यवर्णाः; समरमुखेष्वसकृद्गदासिभिन्नाः |
5393 | 6065021c | अहमहमिति युद्धकौशलास्ते; रजनिचराः परिबभ्रमुर्नदन्तः |
5394 | 6066001a | निर्गतं मकराक्षं ते दृष्ट्वा वानरपुंगवाः |
5395 | 6066001c | आप्लुत्य सहसा सर्वे योद्धुकामा व्यवस्थिताः |
5396 | 6066002a | ततः प्रवृत्तं सुमहत्तद्युद्धं लोमहर्षणम् |
5397 | 6066002c | निशाचरैः प्लवंगानां देवानां दानवैरिव |
5398 | 6066003a | वृक्षशूलनिपातैश्च शिलापरिघपातनैः |
5399 | 6066003c | अन्योन्यं मर्दयन्ति स्म तदा कपिनिशाचराः |
5400 | 6066004a | शक्तिशूलगदाखड्गैस्तोमरैश्च निशाचराः |
5401 | 6066004c | पट्टसैर्भिन्दिपालैश्च बाणपातैः समन्ततः |
5402 | 6066005a | पाशमुद्गरदण्डैश्च निर्घातैश्चापरैस्तथा |
5403 | 6066005c | कदनं कपिसिंहानां चक्रुस्ते रजनीचराः |
5404 | 6066006a | बाणौघैरर्दिताश्चापि खरपुत्रेण वानराः |
5405 | 6066006c | संभ्रान्तमनसः सर्वे दुद्रुवुर्भयपीडिताः |
5406 | 6066007a | तान्दृष्ट्वा राक्षसाः सर्वे द्रवमाणान्वनौकसः |
5407 | 6066007c | नेदुस्ते सिंहवद्धृष्टा राक्षसा जितकाशिनः |
5408 | 6066008a | विद्रवत्सु तदा तेषु वानरेषु समन्ततः |
5409 | 6066008c | रामस्तान्वारयामास शरवर्षेण राक्षसान् |
5410 | 6066009a | वारितान्राक्षसान्दृष्ट्वा मकराक्षो निशाचरः |
5411 | 6066009c | क्रोधानलसमाविष्टो वचनं चेदमब्रवीत् |
5412 | 6066010a | तिष्ठ राम मया सार्धं द्वन्द्वयुद्धं ददामि ते |
5413 | 6066010c | त्याजयिष्यामि ते प्राणान्धनुर्मुक्तैः शितैः शरैः |
5414 | 6066011a | यत्तदा दण्डकारण्ये पितरं हतवान्मम |
5415 | 6066011c | मदग्रतः स्वकर्मस्थं स्मृत्वा रोषोऽभिवर्धते |
5416 | 6066012a | दह्यन्ते भृशमङ्गानि दुरात्मन्मम राघव |
5417 | 6066012c | यन्मयासि न दृष्टस्त्वं तस्मिन्काले महावने |
5418 | 6066013a | दिष्ट्यासि दर्शनं राम मम त्वं प्राप्तवानिह |
5419 | 6066013c | काङ्क्षितोऽसि क्षुधार्तस्य सिंहस्येवेतरो मृगः |
5420 | 6066014a | अद्य मद्बाणवेगेन प्रेतराड्विषयं गतः |
5421 | 6066014c | ये त्वया निहताः शूराः सह तैस्त्वं समेष्यसि |
5422 | 6066015a | बहुनात्र किमुक्तेन शृणु राम वचो मम |
5423 | 6066015c | पश्यन्तु सकला लोकास्त्वां मां चैव रणाजिरे |
5424 | 6066016a | अस्त्रैर्वा गदया वापि बाहुभ्यां वा महाहवे |
5425 | 6066016c | अभ्यस्तं येन वा राम तेन वा वर्ततां युधि |
5426 | 6066017a | मकराक्षवचः श्रुत्वा रामो दशरथात्मजः |
5427 | 6066017c | अब्रवीत्प्रहसन्वाक्यमुत्तरोत्तरवादिनम् |
5428 | 6066018a | चतुर्दशसहस्राणि रक्षसां त्वत्पिता च यः |
5429 | 6066018c | त्रिशिरा दूषणश्चापि दण्डके निहता मया |
5430 | 6066019a | स्वाशितास्तव मांसेन गृध्रगोमायुवायसाः |
5431 | 6066019c | भविष्यन्त्यद्य वै पाप तीक्ष्णतुण्डनखाङ्कुशाः |
5432 | 6066020a | एवमुक्तस्तु रामेण खरपुत्रो निशाचरः |
5433 | 6066020c | बाणौघानसृजत्तस्मै राघवाय रणाजिरे |
5434 | 6066021a | ताञ्शराञ्शरवर्षेण रामश्चिच्छेद नैकधा |
5435 | 6066021c | निपेतुर्भुवि ते छिन्ना रुक्मपुङ्खाः सहस्रशः |
5436 | 6066022a | तद्युद्धमभवत्तत्र समेत्यान्योन्यमोजसा |
5437 | 6066022c | खर राक्षसपुत्रस्य सूनोर्दशरथस्य च |
5438 | 6066023a | जीमूतयोरिवाकाशे शब्दो ज्यातलयोस्तदा |
5439 | 6066023c | धनुर्मुक्तः स्वनोत्कृष्टः श्रूयते च रणाजिरे |
5440 | 6066024a | देवदानवगन्धर्वाः किंनराश्च महोरगाः |
5441 | 6066024c | अन्तरिक्षगताः सर्वे द्रष्टुकामास्तदद्भुतम् |
5442 | 6066025a | विद्धमन्योन्यगात्रेषु द्विगुणं वर्धते बलम् |
5443 | 6066025c | कृतप्रतिकृतान्योन्यं कुर्वाते तौ रणाजिरे |
5444 | 6066026a | राममुक्तास्तु बाणौघान्राक्षसस्त्वच्छिनद्रणे |
5445 | 6066026c | रक्षोमुक्तांस्तु रामो वै नैकधा प्राच्छिनच्छरैः |
5446 | 6066027a | बाणौघवितताः सर्वा दिशश्च विदिशस्तथा |
5447 | 6066027c | संछन्ना वसुधा चैव समन्तान्न प्रकाशते |
5448 | 6066028a | ततः क्रुद्धो महाबाहुर्धनुश्चिच्छेद रक्षसः |
5449 | 6066028c | अष्टाभिरथ नाराचैः सूतं विव्याध राघवः |
5450 | 6066028e | भित्त्वा शरै रथं रामो रथाश्वान्समपातयत् |
5451 | 6066029a | विरथो वसुधां तिष्ठन्मकराक्षो निशाचरः |
5452 | 6066029c | अतिष्ठद्वसुधां रक्षः शूलं जग्राह पाणिना |
5453 | 6066029e | त्रासनं सर्वभूतानां युगान्ताग्निसमप्रभम् |
5454 | 6066030a | विभ्राम्य च महच्छूलं प्रज्वलन्तं निशाचरः |
5455 | 6066030c | स क्रोधात्प्राहिणोत्तस्मै राघवाय महाहवे |
5456 | 6066031a | तमापतन्तं ज्वलितं खरपुत्रकराच्च्युतम् |
5457 | 6066031c | बाणैस्तु त्रिभिराकाशे शूलं चिच्छेद राघवः |
5458 | 6066032a | सच्छिन्नो नैकधा शूलो दिव्यहाटकमण्डितः |
5459 | 6066032c | व्यशीर्यत महोक्लेव रामबाणार्दितो भुवि |
5460 | 6066033a | तच्छूलं निहतं दृष्ट्वा रामेणाद्भुतकर्मणा |
5461 | 6066033c | साधु साध्विति भूतानि व्याहरन्ति नभोगताः |
5462 | 6066034a | तद्दृष्ट्वा निहतं शूलं मकराक्षो निशाचरः |
5463 | 6066034c | मुष्टिमुद्यम्य काकुत्स्थं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् |
5464 | 6066035a | स तं दृष्ट्वा पतन्तं वै प्रहस्य रघुनन्दनः |
5465 | 6066035c | पावकास्त्रं ततो रामः संदधे स्वशरासने |
5466 | 6066036a | तेनास्त्रेण हतं रक्षः काकुत्स्थेन तदा रणे |
5467 | 6066036c | संछिन्नहृदयं तत्र पपात च ममार च |
5468 | 6066037a | दृष्ट्वा ते राक्षसाः सर्वे मकराक्षस्य पातनम् |
5469 | 6066037c | लङ्कामेव प्रधावन्त रामबालार्दितास्तदा |
5470 | 6066038a | दशरथनृपपुत्रबाणवेगै; रजनिचरं निहतं खरात्मजं तम् |
5471 | 6066038c | ददृशुरथ च देवताः प्रहृष्टा; गिरिमिव वज्रहतं यथा विशीर्णम् |
5472 | 6067001a | मकराक्षं हतं श्रुत्वा रावणः समितिंजयः |
5473 | 6067001c | आदिदेशाथ संक्रुद्धो रणायेन्द्रजितं सुतम् |
5474 | 6067002a | जहि वीर महावीर्यौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
5475 | 6067002c | अदृश्यो दृश्यमानो वा सर्वथा त्वं बलाधिकः |
5476 | 6067003a | त्वमप्रतिमकर्माणमिन्द्रं जयसि संयुगे |
5477 | 6067003c | किं पुनर्मानुषौ दृष्ट्वा न वधिष्यसि संयुगे |
5478 | 6067004a | तथोक्तो राक्षसेन्द्रेण प्रतिगृह्य पितुर्वचः |
5479 | 6067004c | यज्ञभूमौ स विधिवत्पावकं जुहुवे न्द्रजित् |
5480 | 6067005a | जुह्वतश्चापि तत्राग्निं रक्तोष्णीषधराः स्त्रियः |
5481 | 6067005c | आजग्मुस्तत्र संभ्रान्ता राक्षस्यो यत्र रावणिः |
5482 | 6067006a | शस्त्राणि शरपत्राणि समिधोऽथ विभीतकाः |
5483 | 6067006c | लोहितानि च वासांसि स्रुवं कार्ष्णायसं तथा |
5484 | 6067007a | सर्वतोऽग्निं समास्तीर्य शरपत्रैः समन्ततः |
5485 | 6067007c | छागस्य सर्वकृष्णस्य गलं जग्राह जीवतः |
5486 | 6067008a | चरुहोमसमिद्धस्य विधूमस्य महार्चिषः |
5487 | 6067008c | बभूवुस्तानि लिङ्गानि विजयं दर्शयन्ति च |
5488 | 6067009a | प्रदक्षिणावर्तशिखस्तप्तहाटकसंनिभः |
5489 | 6067009c | हविस्तत्प्रतिजग्राह पावकः स्वयमुत्थितः |
5490 | 6067010a | हुत्वाग्निं तर्पयित्वाथ देवदानवराक्षसान् |
5491 | 6067010c | आरुरोह रथश्रेष्ठमन्तर्धानगतं शुभम् |
5492 | 6067011a | स वाजिभिश्चतुर्भिस्तु बाणैश्च निशितैर्युतः |
5493 | 6067011c | आरोपितमहाचापः शुशुभे स्यन्दनोत्तमे |
5494 | 6067012a | जाज्वल्यमानो वपुषा तपनीयपरिच्छदः |
5495 | 6067012c | शरैश्चन्द्रार्धचन्द्रैश्च स रथः समलंकृतः |
5496 | 6067013a | जाम्बूनदमहाकम्बुर्दीप्तपावकसंनिभः |
5497 | 6067013c | बभूवेन्द्रजितः केतुर्वैदूर्यसमलंकृतः |
5498 | 6067014a | तेन चादित्यकल्पेन ब्रह्मास्त्रेण च पालितः |
5499 | 6067014c | स बभूव दुराधर्षो रावणिः सुमहाबलः |
5500 | 6067015a | सोऽभिनिर्याय नगरादिन्द्रजित्समितिंजयः |
5501 | 6067015c | हुत्वाग्निं राक्षसैर्मन्त्रैरन्तर्धानगतोऽब्रवीत् |
5502 | 6067016a | अद्य हत्वाहवे यौ तौ मिथ्या प्रव्रजितौ वने |
5503 | 6067016c | जयं पित्रे प्रदास्यामि रावणाय रणाधिकम् |
5504 | 6067017a | कृत्वा निर्वानरामुर्वीं हत्वा रामं सलक्ष्मणम् |
5505 | 6067017c | करिष्ये परमां प्रीतिमित्युक्त्वान्तरधीयत |
5506 | 6067018a | आपपाताथ संक्रुद्धो दशग्रीवेण चोदितः |
5507 | 6067018c | तीक्ष्णकार्मुकनाराचैस्तीक्ष्णस्त्विन्द्ररिपू रणे |
5508 | 6067019a | स ददर्श महावीर्यौ नागौ त्रिशिरसाविव |
5509 | 6067019c | सृजन्ताविषुजालानि वीरौ वानरमध्यगौ |
5510 | 6067020a | इमौ ताविति संचिन्त्य सज्यं कृत्वा च कार्मुकम् |
5511 | 6067020c | संततानेषुधाराभिः पर्जन्य इव वृष्टिमान् |
5512 | 6067021a | स तु वैहायसं प्राप्य सरथो रामलक्ष्मणौ |
5513 | 6067021c | अचक्षुर्विषये तिष्ठन्विव्याध निशितैः शरैः |
5514 | 6067022a | तौ तस्य शरवेगेन परीतौ रामलक्ष्मणौ |
5515 | 6067022c | धनुषी सशरे कृत्वा दिव्यमस्त्रं प्रचक्रतुः |
5516 | 6067023a | प्रच्छादयन्तौ गगनं शरजालैर्महाबलौ |
5517 | 6067023c | तमस्त्रैः सुरसंकाशौ नैव पस्पर्शतुः शरैः |
5518 | 6067024a | स हि धूमान्धकारं च चक्रे प्रच्छादयन्नभः |
5519 | 6067024c | दिशश्चान्तर्दधे श्रीमान्नीहारतमसावृतः |
5520 | 6067025a | नैव ज्यातलनिर्घोषो न च नेमिखुरस्वनः |
5521 | 6067025c | शुश्रुवे चरतस्तस्य न च रूपं प्रकाशते |
5522 | 6067026a | घनान्धकारे तिमिरे शरवर्षमिवाद्भुतम् |
5523 | 6067026c | स ववर्ष महाबाहुर्नाराचशरवृष्टिभिः |
5524 | 6067027a | स रामं सूर्यसंकाशैः शरैर्दत्तवरो भृशम् |
5525 | 6067027c | विव्याध समरे क्रुद्धः सर्वगात्रेषु रावणिः |
5526 | 6067028a | तौ हन्यमानौ नाराचैर्धाराभिरिव पर्वतौ |
5527 | 6067028c | हेमपुङ्खान्नरव्याघ्रौ तिग्मान्मुमुचतुः शरान् |
5528 | 6067029a | अन्तरिक्षं समासाद्य रावणिं कङ्कपत्रिणः |
5529 | 6067029c | निकृत्य पतगा भूमौ पेतुस्ते शोणितोक्षिताः |
5530 | 6067030a | अतिमात्रं शरौघेण पीड्यमानौ नरोत्तमौ |
5531 | 6067030c | तानिषून्पततो भल्लैरनेकैर्निचकर्ततुः |
5532 | 6067031a | यतो हि ददृशाते तौ शरान्निपतिताञ्शितान् |
5533 | 6067031c | ततस्ततो दाशरथी ससृजातेऽस्त्रमुत्तमम् |
5534 | 6067032a | रावणिस्तु दिशः सर्वा रथेनातिरथः पतन् |
5535 | 6067032c | विव्याध तौ दाशरथी लघ्वस्त्रो निशितैः शरैः |
5536 | 6067033a | तेनातिविद्धौ तौ वीरौ रुक्मपुङ्खैः सुसंहतैः |
5537 | 6067033c | बभूवतुर्दाशरथी पुष्पिताविव किंशुकौ |
5538 | 6067034a | नास्य वेद गतिं कश्चिन्न च रूपं धनुः शरान् |
5539 | 6067034c | न चान्यद्विदितं किंचित्सूर्यस्येवाभ्रसंप्लवे |
5540 | 6067035a | तेन विद्धाश्च हरयो निहताश्च गतासवः |
5541 | 6067035c | बभूवुः शतशस्तत्र पतिता धरणीतले |
5542 | 6067036a | लक्ष्मणस्तु सुसंक्रुद्धो भ्रातरं वाक्यमब्रवीत् |
5543 | 6067036c | ब्राह्ममस्त्रं प्रयोक्ष्यामि वधार्थं सर्वरक्षसाम् |
5544 | 6067037a | तमुवाच ततो रामो लक्ष्मणं शुभलक्षणम् |
5545 | 6067037c | नैकस्य हेतो रक्षांसि पृथिव्यां हन्तुमर्हसि |
5546 | 6067038a | अयुध्यमानं प्रच्छन्नं प्राञ्जलिं शरणागतम् |
5547 | 6067038c | पलायन्तं प्रमत्तं वा न त्वं हन्तुमिहार्हसि |
5548 | 6067039a | अस्यैव तु वधे यत्नं करिष्यावो महाबल |
5549 | 6067039c | आदेक्ष्यावो महावेगानस्त्रानाशीविषोपमान् |
5550 | 6067040a | तमेनं मायिनं क्षुद्रमन्तर्हितरथं बलात् |
5551 | 6067040c | राक्षसं निहनिष्यन्ति दृष्ट्वा वानरयूथपाः |
5552 | 6067041a | यद्येष भूमिं विशते दिवं वा; रसातलं वापि नभस्तलं वा |
5553 | 6067041c | एवं निगूढोऽपि ममास्त्रदग्धः; पतिष्यते भूमितले गतासुः |
5554 | 6067042a | इत्येवमुक्त्वा वचनं महात्मा; रघुप्रवीरः प्लवगर्षभैर्वृतः |
5555 | 6067042c | वधाय रौद्रस्य नृशंसकर्मण;स्तदा महात्मा त्वरितं निरीक्षते |
5556 | 6068001a | विज्ञाय तु मनस्तस्य राघवस्य महात्मनः |
5557 | 6068001c | संनिवृत्याहवात्तस्मात्प्रविवेश पुरं ततः |
5558 | 6068002a | सोऽनुस्मृत्य वधं तेषां राक्षसानां तरस्विनाम् |
5559 | 6068002c | क्रोधताम्रेक्षणः शूरो निर्जगाम महाद्युतिः |
5560 | 6068003a | स पश्चिमेन द्वारेण निर्ययौ राक्षसैर्वृतः |
5561 | 6068003c | इन्द्रजित्तु महावीर्यः पौलस्त्यो देवकण्टकः |
5562 | 6068004a | इन्द्रजित्तु ततो दृष्ट्वा भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
5563 | 6068004c | रणायाभ्युद्यतौ वीरौ मायां प्रादुष्करोत्तदा |
5564 | 6068005a | इन्द्रजित्तु रथे स्थाप्य सीतां मायामयीं तदा |
5565 | 6068005c | बलेन महतावृत्य तस्या वधमरोचयत् |
5566 | 6068006a | मोहनार्थं तु सर्वेषां बुद्धिं कृत्वा सुदुर्मतिः |
5567 | 6068006c | हन्तुं सीतां व्यवसितो वानराभिमुखो ययौ |
5568 | 6068007a | तं दृष्ट्वा त्वभिनिर्यान्तं नगर्याः काननौकसः |
5569 | 6068007c | उत्पेतुरभिसंक्रुद्धाः शिलाहस्ता युयुत्सवः |
5570 | 6068008a | हनूमान्पुरतस्तेषां जगाम कपिकुञ्जरः |
5571 | 6068008c | प्रगृह्य सुमहच्छृङ्गं पर्वतस्य दुरासदम् |
5572 | 6068009a | स ददर्श हतानन्दां सीतामिन्द्रजितो रथे |
5573 | 6068009c | एकवेणीधरां दीनामुपवासकृशाननाम् |
5574 | 6068010a | परिक्लिष्टैकवसनाममृजां राघवप्रियाम् |
5575 | 6068010c | रजोमलाभ्यामालिप्तैः सर्वगात्रैर्वरस्त्रियम् |
5576 | 6068011a | तां निरीक्ष्य मुहूर्तं तु मैथिलीमध्यवस्य च |
5577 | 6068011c | बाष्पपर्याकुलमुखो हनूमान्व्यथितोऽभवत् |
5578 | 6068012a | अब्रवीत्तां तु शोकार्तां निरानन्दां तपस्विनाम् |
5579 | 6068012c | दृष्ट्वा रथे स्तितां सीतां राक्षसेन्द्रसुताश्रिताम् |
5580 | 6068013a | किं समर्थितमस्येति चिन्तयन्स महाकपिः |
5581 | 6068013c | सह तैर्वानरश्रेष्ठैरभ्यधावत रावणिम् |
5582 | 6068014a | तद्वानरबलं दृष्ट्वा रावणिः क्रोधमूर्छितः |
5583 | 6068014c | कृत्वा विशोकं निस्त्रिंशं मूर्ध्नि सीतां परामृशत् |
5584 | 6068015a | तं स्त्रियं पश्यतां तेषां ताडयामास रावणिः |
5585 | 6068015c | क्रोशन्तीं राम रामेति मायया योजितां रथे |
5586 | 6068016a | गृहीतमूर्धजां दृष्ट्वा हनूमान्दैन्यमागतः |
5587 | 6068016c | दुःखजं वारिनेत्राभ्यामुत्सृजन्मारुतात्मजः |
5588 | 6068016e | अब्रवीत्परुषं वाक्यं क्रोधाद्रक्षोऽधिपात्मजम् |
5589 | 6068017a | दुरात्मन्नात्मनाशाय केशपक्षे परामृशः |
5590 | 6068017c | ब्रह्मर्षीणां कुले जातो राक्षसीं योनिमाश्रितः |
5591 | 6068017e | धिक्त्वां पापसमाचारं यस्य ते मतिरीदृशी |
5592 | 6068018a | नृशंसानार्य दुर्वृत्त क्षुद्र पापपराक्रम |
5593 | 6068018c | अनार्यस्येदृशं कर्म घृणा ते नास्ति निर्घृण |
5594 | 6068019a | च्युता गृहाच्च राज्याच्च रामहस्ताच्च मैथिली |
5595 | 6068019c | किं तवैषापराद्धा हि यदेनां हन्तुमिच्छसि |
5596 | 6068020a | सीतां च हत्वा न चिरं जीविष्यसि कथंचन |
5597 | 6068020c | वधार्हकर्मणानेन मम हस्तगतो ह्यसि |
5598 | 6068021a | ये च स्त्रीघातिनां लोका लोकवध्यैश्च कुत्सिताः |
5599 | 6068021c | इह जीवितमुत्सृज्य प्रेत्य तान्प्रतिलप्स्यसे |
5600 | 6068022a | इति ब्रुवाणो हनुमान्सायुधैर्हरिभिर्वृतः |
5601 | 6068022c | अभ्यधावत संक्रुद्धो राक्षसेन्द्रसुतं प्रति |
5602 | 6068023a | आपतन्तं महावीर्यं तदनीकं वनौकसाम् |
5603 | 6068023c | रक्षसां भीमवेगानामनीकेन न्यवारयत् |
5604 | 6068024a | स तां बाणसहस्रेण विक्षोभ्य हरिवाहिनीम् |
5605 | 6068024c | हरिश्रेष्ठं हनूमन्तमिन्द्रजित्प्रत्युवाच ह |
5606 | 6068025a | सुग्रीवस्त्वं च रामश्च यन्निमित्तमिहागताः |
5607 | 6068025c | तां हनिष्यामि वैदेहीमद्यैव तव पश्यतः |
5608 | 6068026a | इमां हत्वा ततो रामं लक्ष्मणं त्वां च वानर |
5609 | 6068026c | सुग्रीवं च वधिष्यामि तं चानार्यं विभीषणम् |
5610 | 6068027a | न हन्तव्याः स्त्रियश्चेति यद्ब्रवीषि प्लवंगम |
5611 | 6068027c | पीडा करममित्राणां यत्स्यात्कर्तव्यमेत तत् |
5612 | 6068028a | तमेवमुक्त्वा रुदतीं सीतां मायामयीं ततः |
5613 | 6068028c | शितधारेण खड्गेन निजघानेन्द्रजित्स्वयम् |
5614 | 6068029a | यज्ञोपवीतमार्गेण छिन्ना तेन तपस्विनी |
5615 | 6068029c | सा पृथिव्यां पृथुश्रोणी पपात प्रियदर्शना |
5616 | 6068030a | तामिन्द्रजित्स्त्रियं हत्वा हनूमन्तमुवाच ह |
5617 | 6068030c | मया रामस्य पश्येमां कोपेन च निषूदिताम् |
5618 | 6068031a | ततः खड्गेन महता हत्वा तामिन्द्रजित्स्वयम् |
5619 | 6068031c | हृष्टः स रथमास्थाय विननाद महास्वनम् |
5620 | 6068032a | वानराः शुश्रुवुः शब्दमदूरे प्रत्यवस्थिताः |
5621 | 6068032c | व्यादितास्यस्य नदतस्तद्दुर्गं संश्रितस्य तु |
5622 | 6068033a | तथा तु सीतां विनिहत्य दुर्मतिः; प्रहृष्टचेताः स बभूव रावणिः |
5623 | 6068033c | तं हृष्टरूपं समुदीक्ष्य वानरा; विषण्णरूपाः समभिप्रदुद्रुवुः |
5624 | 6069001a | श्रुत्वा तं भीमनिर्ह्रादं शक्राशनिसमस्वनम् |
5625 | 6069001c | वीक्षमाणा दिशः सर्वा दुद्रुवुर्वानरर्षभाः |
5626 | 6069002a | तानुवाच ततः सर्वान्हनूमान्मारुतात्मजः |
5627 | 6069002c | विषण्णवदनान्दीनांस्त्रस्तान्विद्रवतः पृथक् |
5628 | 6069003a | कस्माद्विषण्णवदना विद्रवध्वं प्लवंगमाः |
5629 | 6069003c | त्यक्तयुद्धसमुत्साहाः शूरत्वं क्व नु वो गतम् |
5630 | 6069004a | पृष्ठतोऽनुव्रजध्वं मामग्रतो यान्तमाहवे |
5631 | 6069004c | शूरैरभिजनोपेतैरयुक्तं हि निवर्तितुम् |
5632 | 6069005a | एवमुक्ताः सुसंक्रुद्धा वायुपुत्रेण धीमता |
5633 | 6069005c | शैलशृङ्गान्द्रुमांश्चैव जगृहुर्हृष्टमानसाः |
5634 | 6069006a | अभिपेतुश्च गर्जन्तो राक्षसान्वानरर्षभाः |
5635 | 6069006c | परिवार्य हनूमन्तमन्वयुश्च महाहवे |
5636 | 6069007a | स तैर्वानरमुख्यैस्तु हनूमान्सर्वतो वृतः |
5637 | 6069007c | हुताशन इवार्चिष्मानदहच्छत्रुवाहिनीम् |
5638 | 6069008a | स राक्षसानां कदनं चकार सुमहाकपिः |
5639 | 6069008c | वृतो वानरसैन्येन कालान्तकयमोपमः |
5640 | 6069009a | स तु शोकेन चाविष्टः क्रोधेन च महाकपिः |
5641 | 6069009c | हनूमान्रावणि रथे महतीं पातयच्छिलाम् |
5642 | 6069010a | तामापतन्तीं दृष्ट्वैव रथः सारथिना तदा |
5643 | 6069010c | विधेयाश्व समायुक्तः सुदूरमपवाहितः |
5644 | 6069011a | तमिन्द्रजितमप्राप्य रथथं सहसारथिम् |
5645 | 6069011c | विवेश धरणीं भित्त्वा सा शिलाव्यर्थमुद्यता |
5646 | 6069012a | पतितायां शिलायां तु रक्षसां व्यथिता चमूः |
5647 | 6069012c | तमभ्यधावञ्शतशो नदन्तः काननौकसः |
5648 | 6069013a | ते द्रुमांश्च महाकाया गिरिशृङ्गाणि चोद्यताः |
5649 | 6069013c | चिक्षिपुर्द्विषतां मध्ये वानरा भीमविक्रमाः |
5650 | 6069014a | वानरैर्तैर्महावीर्यैर्घोररूपा निशाचराः |
5651 | 6069014c | वीर्यादभिहता वृक्षैर्व्यवेष्टन्त रणक्षितौ |
5652 | 6069015a | स्वसैन्यमभिवीक्ष्याथ वानरार्दितमिन्द्रजित् |
5653 | 6069015c | प्रगृहीतायुधः क्रुद्धः परानभिमुखो ययौ |
5654 | 6069016a | स शरौघानवसृजन्स्वसैन्येनाभिसंवृतः |
5655 | 6069016c | जघान कपिशार्दूलान्सुबहून्दृष्टविक्रमः |
5656 | 6069017a | शूलैरशनिभिः खड्गैः पट्टसैः कूटमुद्गरैः |
5657 | 6069017c | ते चाप्यनुचरांस्तस्य वानरा जघ्नुराहवे |
5658 | 6069018a | सस्कन्धविटपैः सालैः शिलाभिश्च महाबलैः |
5659 | 6069018c | हनूमान्कदनं चक्रे रक्षसां भीमकर्मणाम् |
5660 | 6069019a | स निवार्य परानीकमब्रवीत्तान्वनौकसः |
5661 | 6069019c | हनूमान्संनिवर्तध्वं न नः साध्यमिदं बलम् |
5662 | 6069020a | त्यक्त्वा प्राणान्विचेष्टन्तो राम प्रियचिकीर्षवः |
5663 | 6069020c | यन्निमित्तं हि युध्यामो हता सा जनकात्मजा |
5664 | 6069021a | इममर्थं हि विज्ञाप्य रामं सुग्रीवमेव च |
5665 | 6069021c | तौ यत्प्रतिविधास्येते तत्करिष्यामहे वयम् |
5666 | 6069022a | इत्युक्त्वा वानरश्रेष्ठो वारयन्सर्ववानरान् |
5667 | 6069022c | शनैः शनैरसंत्रस्तः सबलः स न्यवर्तत |
5668 | 6069023a | स तु प्रेक्ष्य हनूमन्तं व्रजन्तं यत्र राघवः |
5669 | 6069023c | निकुम्भिलामधिष्ठाय पावकं जुहुवे न्द्रजित् |
5670 | 6069024a | यज्ञभूम्यां तु विधिवत्पावकस्तेन रक्षसा |
5671 | 6069024c | हूयमानः प्रजज्वाल होमशोणितभुक्तदा |
5672 | 6069025a | सोऽर्चिः पिनद्धो ददृशे होमशोणिततर्पितः |
5673 | 6069025c | संध्यागत इवादित्यः स तीव्राग्निः समुत्थितः |
5674 | 6069026a | अथेन्द्रजिद्राक्षसभूतये तु; जुहाव हव्यं विधिना विधानवत् |
5675 | 6069026c | दृष्ट्वा व्यतिष्ठन्त च राक्षसास्ते; महासमूहेषु नयानयज्ञाः |
5676 | 6070001a | राघवश्चापि विपुलं तं राक्षसवनौकसाम् |
5677 | 6070001c | श्रुत्वा संग्रामनिर्घोषं जाम्बवन्तमुवाच ह |
5678 | 6070002a | सौम्य नूनं हनुमता कृतं कर्म सुदुष्करम् |
5679 | 6070002c | श्रूयते हि यथा भीमः सुमहानायुधस्वनः |
5680 | 6070003a | तद्गच्छ कुरु साहाय्यं स्वबलेनाभिसंवृतः |
5681 | 6070003c | क्षिप्रमृष्कपते तस्य कपिश्रेष्ठस्य युध्यतः |
5682 | 6070004a | ऋक्षराजस्तथेत्युक्त्वा स्वेनानीकेन संवृतः |
5683 | 6070004c | आगच्छत्पश्चिमद्वारं हनूमान्यत्र वानरः |
5684 | 6070005a | अथायान्तं हनूमन्तं ददर्शर्क्षपतिः पथि |
5685 | 6070005c | वानरैः कृतसंग्रामैः श्वसद्भिरभिसंवृतम् |
5686 | 6070006a | दृष्ट्वा पथि हनूमांश्च तदृष्कबलमुद्यतम् |
5687 | 6070006c | नीलमेघनिभं भीमं संनिवार्य न्यवर्तत |
5688 | 6070007a | स तेन हरिसैन्येन संनिकर्षं महायशाः |
5689 | 6070007c | शीघ्रमागम्य रामाय दुःखितो वाक्यमब्रवीत् |
5690 | 6070008a | समरे युध्यमानानामस्माकं प्रेक्षतां च सः |
5691 | 6070008c | जघान रुदतीं सीतामिन्द्रजिद्रावणात्मजः |
5692 | 6070009a | उद्भ्रान्तचित्तस्तां दृष्ट्वा विषण्णोऽहमरिंदम |
5693 | 6070009c | तदहं भवतो वृत्तं विज्ञापयितुमागतः |
5694 | 6070010a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राघवः शोकमूर्छितः |
5695 | 6070010c | निपपात तदा भूमौ छिन्नमूल इव द्रुमः |
5696 | 6070011a | तं भूमौ देवसंकाशं पतितं दृश्य राघवम् |
5697 | 6070011c | अभिपेतुः समुत्पत्य सर्वतः कपिसत्तमाः |
5698 | 6070012a | असिञ्चन्सलिलैश्चैनं पद्मोत्पलसुगन्धिभिः |
5699 | 6070012c | प्रदहन्तमसह्यं च सहसाग्निमिवोत्थितम् |
5700 | 6070013a | तं लक्ष्मणोऽथ बाहुभ्यां परिष्वज्य सुदुःखितः |
5701 | 6070013c | उवाच राममस्वस्थं वाक्यं हेत्वर्थसंहितम् |
5702 | 6070014a | शुभे वर्त्मनि तिष्ठन्तं त्वामार्यविजितेन्द्रियम् |
5703 | 6070014c | अनर्थेभ्यो न शक्नोति त्रातुं धर्मो निरर्थकः |
5704 | 6070015a | भूतानां स्थावराणां च जङ्गमानां च दर्शनम् |
5705 | 6070015c | यथास्ति न तथा धर्मस्तेन नास्तीति मे मतिः |
5706 | 6070016a | यथैव स्थावरं व्यक्तं जङ्गमं च तथाविधम् |
5707 | 6070016c | नायमर्थस्तथा युक्तस्त्वद्विधो न विपद्यते |
5708 | 6070017a | यद्यधर्मो भवेद्भूतो रावणो नरकं व्रजेत् |
5709 | 6070017c | भवांश्च धर्मसंयुक्तो नैवं व्यसनमाप्नुयात् |
5710 | 6070018a | तस्य च व्यसनाभावाद्व्यसनं च गते त्वयि |
5711 | 6070018c | धर्मेणोपलभेद्धर्ममधर्मं चाप्यधर्मतः |
5712 | 6070019a | यदि धर्मेण युज्येरन्नाधर्मरुचयो जनाः |
5713 | 6070019c | धर्मेण चरतां धर्मस्तथा चैषां फलं भवेत् |
5714 | 6070020a | यस्मादर्था विवर्धन्ते येष्वधर्मः प्रतिष्ठितः |
5715 | 6070020c | क्लिश्यन्ते धर्मशीलाश्च तस्मादेतौ निरर्थकौ |
5716 | 6070021a | वध्यन्ते पापकर्माणो यद्यधर्मेण राघव |
5717 | 6070021c | वधकर्महतो धर्मः स हतः कं वधिष्यति |
5718 | 6070022a | अथ वा विहितेनायं हन्यते हन्ति वा परम् |
5719 | 6070022c | विधिरालिप्यते तेन न स पापेन कर्मणा |
5720 | 6070023a | अदृष्टप्रतिकारेण अव्यक्तेनासता सता |
5721 | 6070023c | कथं शक्यं परं प्राप्तुं धर्मेणारिविकर्शन |
5722 | 6070024a | यदि सत्स्यात्सतां मुख्य नासत्स्यात्तव किंचन |
5723 | 6070024c | त्वया यदीदृशं प्राप्तं तस्मात्सन्नोपपद्यते |
5724 | 6070025a | अथ वा दुर्बलः क्लीबो बलं धर्मोऽनुवर्तते |
5725 | 6070025c | दुर्बलो हृतमर्यादो न सेव्य इति मे मतिः |
5726 | 6070026a | बलस्य यदि चेद्धर्मो गुणभूतः पराक्रमे |
5727 | 6070026c | धर्ममुत्सृज्य वर्तस्व यथा धर्मे तथा बले |
5728 | 6070027a | अथ चेत्सत्यवचनं धर्मः किल परंतप |
5729 | 6070027c | अनृतस्त्वय्यकरुणः किं न बद्धस्त्वया पिता |
5730 | 6070028a | यदि धर्मो भवेद्भूत अधर्मो वा परंतप |
5731 | 6070028c | न स्म हत्वा मुनिं वज्री कुर्यादिज्यां शतक्रतुः |
5732 | 6070029a | अधर्मसंश्रितो धर्मो विनाशयति राघव |
5733 | 6070029c | सर्वमेतद्यथाकामं काकुत्स्थ कुरुते नरः |
5734 | 6070030a | मम चेदं मतं तात धर्मोऽयमिति राघव |
5735 | 6070030c | धर्ममूलं त्वया छिन्नं राज्यमुत्सृजता तदा |
5736 | 6070031a | अर्थेभ्यो हि विवृद्धेभ्यः संवृद्धेभ्यस्ततस्ततः |
5737 | 6070031c | क्रियाः सर्वाः प्रवर्तन्ते पर्वतेभ्य इवापगाः |
5738 | 6070032a | अर्थेन हि वियुक्तस्य पुरुषस्याल्पतेजसः |
5739 | 6070032c | व्युच्छिद्यन्ते क्रियाः सर्वा ग्रीष्मे कुसरितो यथा |
5740 | 6070033a | सोऽयमर्थं परित्यज्य सुखकामः सुखैधितः |
5741 | 6070033c | पापमारभते कर्तुं तथा दोषः प्रवर्तते |
5742 | 6070034a | यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवः |
5743 | 6070034c | यस्यार्थाः स पुमाँल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः |
5744 | 6070035a | यस्यार्थाः स च विक्रान्तो यस्यार्थाः स च बुद्धिमान् |
5745 | 6070035c | यस्यार्थाः स महाभागो यस्यार्थाः स महागुणः |
5746 | 6070036a | अर्थस्यैते परित्यागे दोषाः प्रव्याहृता मया |
5747 | 6070036c | राज्यमुत्सृजता वीर येन बुद्धिस्त्वया कृता |
5748 | 6070037a | यस्यार्था धर्मकामार्थास्तस्य सर्वं प्रदक्षिणम् |
5749 | 6070037c | अधनेनार्थकामेन नार्थः शक्यो विचिन्वता |
5750 | 6070038a | हर्षः कामश्च दर्पश्च धर्मः क्रोधः शमो दमः |
5751 | 6070038c | अर्थादेतानि सर्वाणि प्रवर्तन्ते नराधिप |
5752 | 6070039a | येषां नश्यत्ययं लोकश्चरतां धर्मचारिणाम् |
5753 | 6070039c | तेऽर्थास्त्वयि न दृश्यन्ते दुर्दिनेषु यथा ग्रहाः |
5754 | 6070040a | त्वयि प्रव्रजिते वीर गुरोश्च वचने स्थिते |
5755 | 6070040c | रक्षसापहृता भार्या प्राणैः प्रियतरा तव |
5756 | 6070041a | तदद्य विपुलं वीर दुःखमिन्द्रजिता कृतम् |
5757 | 6070041c | कर्मणा व्यपनेष्यामि तस्मादुत्तिष्ठ राघव |
5758 | 6070042a | अयमनघ तवोदितः प्रियार्थं; जनकसुता निधनं निरीक्ष्य रुष्टः |
5759 | 6070042c | सहयगजरथां सराक्षसेन्द्रां; भृशमिषुभिर्विनिपातयामि लङ्काम् |
5760 | 6071001a | राममाश्वासयाने तु लक्ष्मणे भ्रातृवत्सले |
5761 | 6071001c | निक्षिप्य गुल्मान्स्वस्थाने तत्रागच्छद्विभीषणः |
5762 | 6071002a | नानाप्रहरणैर्वीरैश्चतुर्भिः सचिवैर्वृतः |
5763 | 6071002c | नीलाञ्जनचयाकारैर्मातंगैरिव यूथपः |
5764 | 6071003a | सोऽभिगम्य महात्मानं राघवं शोकलालसं |
5765 | 6071003c | वानरांश्चैव ददृशे बाष्पपर्याकुलेक्षणान् |
5766 | 6071004a | राघवं च महात्मानमिक्ष्वाकुकुलनन्दनम् |
5767 | 6071004c | ददर्श मोहमापन्नं लक्ष्मणस्याङ्कमाश्रितम् |
5768 | 6071005a | व्रीडितं शोकसंतप्तं दृष्ट्वा रामं विभीषणः |
5769 | 6071005c | अन्तर्दुःखेन दीनात्मा किमेतदिति सोऽब्रवीत् |
5770 | 6071006a | विभीषण मुखं दृष्ट्वा सुग्रीवं तांश्च वानरान् |
5771 | 6071006c | उवाच लक्ष्मणो वाक्यमिदं बाष्पपरिप्लुतः |
5772 | 6071007a | हतामिन्द्रजिता सीतामिह श्रुत्वैव राघवः |
5773 | 6071007c | हनूमद्वचनात्सौम्य ततो मोहमुपागतः |
5774 | 6071008a | कथयन्तं तु सौमित्रिं संनिवार्य विभीषणः |
5775 | 6071008c | पुष्कलार्थमिदं वाक्यं विसंज्ञं राममब्रवीत् |
5776 | 6071009a | मनुजेन्द्रार्तरूपेण यदुक्तस्त्वं हनूमता |
5777 | 6071009c | तदयुक्तमहं मन्ये सागरस्येव शोषणम् |
5778 | 6071010a | अभिप्रायं तु जानामि रावणस्य दुरात्मनः |
5779 | 6071010c | सीतां प्रति महाबाहो न च घातं करिष्यति |
5780 | 6071011a | याच्यमानः सुबहुशो मया हितचिकीर्षुणा |
5781 | 6071011c | वैदेहीमुत्सृजस्वेति न च तत्कृतवान्वचः |
5782 | 6071012a | नैव साम्ना न भेदेन न दानेन कुतो युधा |
5783 | 6071012c | सा द्रष्टुमपि शक्येत नैव चान्येन केनचित् |
5784 | 6071013a | वानरान्मोहयित्वा तु प्रतियातः स राक्षसः |
5785 | 6071013c | चैत्यं निकुम्भिलां नाम यत्र होमं करिष्यति |
5786 | 6071014a | हुतवानुपयातो हि देवैरपि सवासवैः |
5787 | 6071014c | दुराधर्षो भवत्येष संग्रामे रावणात्मजः |
5788 | 6071015a | तेन मोहयता नूनमेषा माया प्रयोजिता |
5789 | 6071015c | विघ्नमन्विच्छता तात वानराणां पराक्रमे |
5790 | 6071015e | ससैन्यास्तत्र गच्छामो यावत्तन्न समाप्यते |
5791 | 6071016a | त्यजेमं नरशार्दूलमिथ्या संतापमागतम् |
5792 | 6071016c | सीदते हि बलं सर्वं दृष्ट्वा त्वां शोककर्शितम् |
5793 | 6071017a | इह त्वं स्वस्थ हृदयस्तिष्ठ सत्त्वसमुच्छ्रितः |
5794 | 6071017c | लक्ष्मणं प्रेषयास्माभिः सह सैन्यानुकर्षिभिः |
5795 | 6071018a | एष तं नरशार्दूलो रावणिं निशितैः शरैः |
5796 | 6071018c | त्याजयिष्यति तत्कर्म ततो वध्यो भविष्यति |
5797 | 6071019a | तस्यैते निशितास्तीक्ष्णाः पत्रिपत्राङ्गवाजिनः |
5798 | 6071019c | पतत्रिण इवासौम्याः शराः पास्यन्ति शोणितम् |
5799 | 6071020a | तत्संदिश महाबाहो लक्ष्मणं शुभलक्षणम् |
5800 | 6071020c | राक्षसस्य विनाशाय वज्रं वज्रधरो यथा |
5801 | 6071021a | मनुजवर न कालविप्रकर्षो; रिपुनिधनं प्रति यत्क्षमोऽद्य कर्तुम् |
5802 | 6071021c | त्वमतिसृज रिपोर्वधाय बाणी;मसुरपुरोन्मथने यथा महेन्द्रः |
5803 | 6071022a | समाप्तकर्मा हि स राक्षसेन्द्रो; भवत्यदृश्यः समरे सुरासुरैः |
5804 | 6071022c | युयुत्सता तेन समाप्तकर्मणा; भवेत्सुराणामपि संशयो महान् |
5805 | 6072001a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राघवः शोककर्शितः |
5806 | 6072001c | नोपधारयते व्यक्तं यदुक्तं तेन रक्षसा |
5807 | 6072002a | ततो धैर्यमवष्टभ्य रामः परपुरंजयः |
5808 | 6072002c | विभीषणमुपासीनमुवाच कपिसंनिधौ |
5809 | 6072003a | नैरृताधिपते वाक्यं यदुक्तं ते विभीषण |
5810 | 6072003c | भूयस्तच्छ्रोतुमिच्छामि ब्रूहि यत्ते विवक्षितम् |
5811 | 6072004a | राघवस्य वचः श्रुत्वा वाक्यं वाक्यविशारदः |
5812 | 6072004c | यत्तत्पुनरिदं वाक्यं बभाषे स विभीषणः |
5813 | 6072005a | यथाज्ञप्तं महाबाहो त्वया गुल्मनिवेशनम् |
5814 | 6072005c | तत्तथानुष्ठितं वीर त्वद्वाक्यसमनन्तरम् |
5815 | 6072006a | तान्यनीकानि सर्वाणि विभक्तानि समन्ततः |
5816 | 6072006c | विन्यस्ता यूथपाश्चैव यथान्यायं विभागशः |
5817 | 6072007a | भूयस्तु मम विजाप्यं तच्छृणुष्व महायशः |
5818 | 6072007c | त्वय्यकारणसंतप्ते संतप्तहृदया वयम् |
5819 | 6072008a | त्यज राजन्निमं शोकं मिथ्या संतापमागतम् |
5820 | 6072008c | तदियं त्यज्यतां चिन्ता शत्रुहर्षविवर्धनी |
5821 | 6072009a | उद्यमः क्रियतां वीर हर्षः समुपसेव्यताम् |
5822 | 6072009c | प्राप्तव्या यदि ते सीता हन्तव्यश्व्च निशाचराः |
5823 | 6072010a | रघुनन्दन वक्ष्यामि श्रूयतां मे हितं वचः |
5824 | 6072010c | साध्वयं यातु सौमित्रिर्बलेन महता वृतः |
5825 | 6072010e | निकुम्भिलायां संप्राप्य हन्तुं रावणिमाहवे |
5826 | 6072011a | धनुर्मण्डलनिर्मुक्तैराशीविषविषोपमैः |
5827 | 6072011c | शरैर्हन्तुं महेष्वासो रावणिं समितिंजयः |
5828 | 6072012a | तेन वीरेण तपसा वरदानात्स्वयम्भुतः |
5829 | 6072012c | अस्त्रं ब्रह्मशिरः प्राप्तं कामगाश्च तुरंगमाः |
5830 | 6072013a | निकुम्भिलामसंप्राप्तमहुताग्निं च यो रिपुः |
5831 | 6072013c | त्वामाततायिनं हन्यादिन्द्रशत्रो स ते वधः |
5832 | 6072013e | इत्येवं विहितो राजन्वधस्तस्यैव धीमतः |
5833 | 6072014a | वधायेन्द्रजितो राम तं दिशस्व महाबलम् |
5834 | 6072014c | हते तस्मिन्हतं विद्धि रावणं ससुहृज्जनम् |
5835 | 6072015a | विभीषणवचः श्रुत्व रामो वाक्यमथाब्रवीत् |
5836 | 6072015c | जानामि तस्य रौद्रस्य मायां सत्यपराक्रम |
5837 | 6072016a | स हि ब्रह्मास्त्रवित्प्राज्ञो महामायो महाबलः |
5838 | 6072016c | करोत्यसंज्ञान्संग्रामे देवान्सवरुणानपि |
5839 | 6072017a | तस्यान्तरिक्षे चरतो रथस्थस्य महायशः |
5840 | 6072017c | न गतिर्ज्ञायते वीरसूर्यस्येवाभ्रसंप्लवे |
5841 | 6072018a | राघवस्तु रिपोर्ज्ञात्वा मायावीर्यं दुरात्मनः |
5842 | 6072018c | लक्ष्मणं कीर्तिसंपन्नमिदं वचनमब्रवीत् |
5843 | 6072019a | यद्वानरेन्द्रस्य बलं तेन सर्वेण संवृतः |
5844 | 6072019c | हनूमत्प्रमुखैश्चैव यूथपैः सहलक्ष्मण |
5845 | 6072020a | जाम्बवेनर्क्षपतिना सह सैन्येन संवृतः |
5846 | 6072020c | जहि तं राक्षससुतं मायाबलविशारदम् |
5847 | 6072021a | अयं त्वां सचिवैः सार्धं महात्मा रजनीचरः |
5848 | 6072021c | अभिज्ञस्तस्य देशस्य पृष्ठतोऽनुगमिष्यति |
5849 | 6072022a | राघवस्य वचः श्रुत्वा लक्ष्मणः सविभीषणः |
5850 | 6072022c | जग्राह कार्मुकं श्रेष्ठमन्यद्भीमपराक्रमः |
5851 | 6072023a | संनद्धः कवची खड्गी स शरी हेमचापधृक् |
5852 | 6072023c | रामपादावुपस्पृश्य हृष्टः सौमित्रिरब्रवीत् |
5853 | 6072024a | अद्य मत्कार्मुकोन्मुखाः शरा निर्भिद्य रावणिम् |
5854 | 6072024c | लङ्कामभिपतिष्यन्ति हंसाः पुष्करिणीमिव |
5855 | 6072025a | अद्यैव तस्य रौद्रस्य शरीरं मामकाः शराः |
5856 | 6072025c | विधमिष्यन्ति हत्वा तं महाचापगुणच्युताः |
5857 | 6072026a | स एवमुक्त्वा द्युतिमान्वचनं भ्रातुरग्रतः |
5858 | 6072026c | स रावणिवधाकाङ्क्षी लक्ष्मणस्त्वरितो ययौ |
5859 | 6072027a | सोऽभिवाद्य गुरोः पादौ कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् |
5860 | 6072027c | निकुम्भिलामभिययौ चैत्यं रावणिपालितम् |
5861 | 6072028a | विभीषणेन सहितो राजपुत्रः प्रतापवान् |
5862 | 6072028c | कृतस्वस्त्ययनो भ्रात्रा लक्ष्मणस्त्वरितो ययौ |
5863 | 6072029a | वानराणां सहस्रैस्तु हनूमान्बहुभिर्वृतः |
5864 | 6072029c | विभीषणः सहामात्यस्तदा लक्ष्मणमन्वगात् |
5865 | 6072030a | महता हरिसैन्येन सवेगमभिसंवृतः |
5866 | 6072030c | ऋक्षराजबलं चैव ददर्श पथि विष्ठितम् |
5867 | 6072031a | स गत्वा दूरमध्वानं सौमित्रिर्मित्रनन्दनः |
5868 | 6072031c | राक्षसेन्द्रबलं दूरादपश्यद्व्यूहमास्थितम् |
5869 | 6072032a | स संप्राप्य धनुष्पाणिर्मायायोगमरिंदम |
5870 | 6072032c | तस्थौ ब्रह्मविधानेन विजेतुं रघुनन्दनः |
5871 | 6072033a | विविधममलशस्त्रभास्वरं त;द्ध्वजगहनं विपुलं महारथैश्च |
5872 | 6072033c | प्रतिभयतममप्रमेयवेगं; तिमिरमिव द्विषतां बलं विवेश |
5873 | 6073001a | अथ तस्यामवस्थायां लक्ष्मणं रावणानुजः |
5874 | 6073001c | परेषामहितं वाक्यमर्थसाधकमब्रवीत् |
5875 | 6073002a | अस्यानीकस्य महतो भेदने यतलक्ष्मण |
5876 | 6073002c | राक्षसेन्द्रसुतोऽप्यत्र भिन्ने दृश्यो भविष्यति |
5877 | 6073003a | स त्वमिन्द्राशनिप्रख्यैः शरैरवकिरन्परान् |
5878 | 6073003c | अभिद्रवाशु यावद्वै नैतत्कर्म समाप्यते |
5879 | 6073004a | जहि वीरदुरात्मानं मायापरमधार्मिकम् |
5880 | 6073004c | रावणिं क्रूरकर्माणं सर्वलोकभयावहम् |
5881 | 6073005a | विभीषणवचः श्रुत्वा लक्ष्मणः शुभलक्षणः |
5882 | 6073005c | ववर्ष शरवर्षाणि राक्षसेन्द्रसुतं प्रति |
5883 | 6073006a | ऋक्षाः शाखामृगाश्चैव द्रुमाद्रिवरयोधिनः |
5884 | 6073006c | अभ्यधावन्त सहितास्तदनीकमवस्थितम् |
5885 | 6073007a | राक्षसाश्च शितैर्बाणैरसिभिः शक्तितोमरैः |
5886 | 6073007c | उद्यतैः समवर्तन्त कपिसैन्यजिघांसवः |
5887 | 6073008a | स संप्रहारस्तुमुलः संजज्ञे कपिरक्षसाम् |
5888 | 6073008c | शब्देन महता लङ्कां नादयन्वै समन्ततः |
5889 | 6073009a | शस्त्रैर्बहुविधाकारैः शितैर्बाणैश्च पादपैः |
5890 | 6073009c | उद्यतैर्गिरिशृङ्गैश्च घोरैराकाशमावृतम् |
5891 | 6073010a | ते राक्षसा वानरेषु विकृताननबाहवः |
5892 | 6073010c | निवेशयन्तः शस्त्राणि चक्रुस्ते सुमहद्भयम् |
5893 | 6073011a | तथैव सकलैर्वृक्षैर्गिरिशृङ्गैश्च वानराः |
5894 | 6073011c | अभिजघ्नुर्निजघ्नुश्च समरे राक्षसर्षभान् |
5895 | 6073012a | ऋक्षवानरमुख्यैश्च महाकायैर्महाबलैः |
5896 | 6073012c | रक्षसां वध्यमानानां महद्भयमजायत |
5897 | 6073013a | स्वमनीकं विषण्णं तु श्रुत्वा शत्रुभिरर्दितम् |
5898 | 6073013c | उदतिष्ठत दुर्धर्षस्तत्कर्मण्यननुष्ठिते |
5899 | 6073014a | वृक्षान्धकारान्निष्क्रम्य जातक्रोधः स रावणिः |
5900 | 6073014c | आरुरोह रथं सज्जं पूर्वयुक्तं स राक्षसः |
5901 | 6073015a | स भीमकार्मुकशरः कृष्णाञ्जनचयोपमः |
5902 | 6073015c | रक्तास्यनयनः क्रूरो बभौ मृत्युरिवान्तकः |
5903 | 6073016a | दृष्ट्वैव तु रथस्थं तं पर्यवर्तत तद्बलम् |
5904 | 6073016c | रक्षसां भीमवेगानां लक्ष्मणेन युयुत्सताम् |
5905 | 6073017a | तस्मिन्काले तु हनुमानुद्यम्य सुदुरासदम् |
5906 | 6073017c | धरणीधरसंकाशी महावृक्षमरिंदमः |
5907 | 6073018a | स राक्षसानां तत्सैन्यं कालाग्निरिव निर्दहन् |
5908 | 6073018c | चकार बहुभिर्वृक्षैर्निःसंज्ञं युधि वानरः |
5909 | 6073019a | विध्वंसयन्तं तरसा दृष्ट्वैव पवनात्मजम् |
5910 | 6073019c | राक्षसानां सहस्राणि हनूमन्तमवाकिरन् |
5911 | 6073020a | शितशूलधराः शूलैरसिभिश्चासिपाणयः |
5912 | 6073020c | शक्तिभिः शक्तिहस्ताश्च पट्टसैः पट्टसायुधाः |
5913 | 6073021a | परिघैश्च गदाभिश्च कुन्तैश्च शुभदर्शनैः |
5914 | 6073021c | शतशश्च शतघ्नीभिरायसैरपि मुद्गरैः |
5915 | 6073022a | घोरैः परशुभिश्चैव भिण्डिपालैश्च राक्षसाः |
5916 | 6073022c | मुष्टिभिर्वज्रवेगैश्च तलैरशनिसंनिभैः |
5917 | 6073023a | अभिजघ्नुः समासाद्य समन्तात्पर्वतोपमम् |
5918 | 6073023c | तेषामपि च संक्रुद्धश्चकार कदनं महत् |
5919 | 6073024a | स ददर्श कपिश्रेष्ठमचलोपममिन्द्रजित् |
5920 | 6073024c | सूदयानममित्रघ्नममित्रान्पवनात्मजम् |
5921 | 6073025a | स सारथिमुवाचेदं याहि यत्रैष वानरः |
5922 | 6073025c | क्षयमेव हि नः कुर्याद्राक्षसानामुपेक्षितः |
5923 | 6073026a | इत्युक्तः सारथिस्तेन ययौ यत्र स मारुतिः |
5924 | 6073026c | वहन्परमदुर्धर्षं स्थितमिन्द्रजितं रथे |
5925 | 6073027a | सोऽभ्युपेत्य शरान्खड्गान्पट्टसासिपरश्वधान् |
5926 | 6073027c | अभ्यवर्षत दुर्धर्षः कपिमूर्ध्नि स राक्षसः |
5927 | 6073028a | तानि शस्त्राणि घोराणि प्रतिगृह्य स मारुतिः |
5928 | 6073028c | रोषेण महताविषो वाक्यं चेदमुवाच ह |
5929 | 6073029a | युध्यस्व यदि शूरोऽसि रावणात्मज दुर्मते |
5930 | 6073029c | वायुपुत्रं समासाद्य न जीवन्प्रतियास्यसि |
5931 | 6073030a | बाहुभ्यां संप्रयुध्यस्व यदि मे द्वन्द्वमाहवे |
5932 | 6073030c | वेगं सहस्व दुर्बुद्धे ततस्त्वं रक्षसां वरः |
5933 | 6073031a | हनूमन्तं जिघांसन्तं समुद्यतशरासनम् |
5934 | 6073031c | रावणात्मजमाचष्टे लक्ष्मणाय विभीषणः |
5935 | 6073032a | यस्तु वासवनिर्जेता रावणस्यात्मसंभवः |
5936 | 6073032c | स एष रथमास्थाय हनूमन्तं जिघांसति |
5937 | 6073033a | तमप्रतिमसंस्थानैः शरैः शत्रुविदारणैः |
5938 | 6073033c | जीवितान्तकरैर्घोरैः सौमित्रे रावणिं जहि |
5939 | 6073034a | इत्येवमुक्तस्तु तदा महात्मा; विभीषणेनारिविभीषणेन |
5940 | 6073034c | ददर्श तं पर्वतसंनिकाशं; रथस्थितं भीमबलं दुरासदम् |
5941 | 6074001a | एवमुक्त्वा तु सौमित्रिं जातहर्षो विभीषणः |
5942 | 6074001c | धनुष्पाणिनमादाय त्वरमाणो जगाम सः |
5943 | 6074002a | अविदूरं ततो गत्वा प्रविश्य च महद्वनम् |
5944 | 6074002c | दर्शयामास तत्कर्म लक्ष्मणाय विभीषणः |
5945 | 6074003a | नीलजीमूतसंकाशं न्यग्रोधं भीमदर्शनम् |
5946 | 6074003c | तेजस्वी रावणभ्राता लक्ष्मणाय न्यवेदयत् |
5947 | 6074004a | इहोपहारं भूतानां बलवान्रावणातजः |
5948 | 6074004c | उपहृत्य ततः पश्चात्संग्राममभिवर्तते |
5949 | 6074005a | अदृश्यः सर्वभूतानां ततो भवति राक्षसः |
5950 | 6074005c | निहन्ति समरे शत्रून्बध्नाति च शरोत्तमैः |
5951 | 6074006a | तमप्रविष्टं न्यग्रोधं बलिनं रावणात्मजम् |
5952 | 6074006c | विध्वंसय शरैस्तीक्ष्णैः सरथं साश्वसारथिम् |
5953 | 6074007a | तथेत्युक्त्वा महातेजाः सौमित्रिर्मित्रनन्दनः |
5954 | 6074007c | बभूवावस्थितस्तत्र चित्रं विस्फारयन्धनुः |
5955 | 6074008a | स रथेनाग्निवर्णेन बलवान्रावणात्मजः |
5956 | 6074008c | इन्द्रजित्कवची खड्गी सध्वजः प्रत्यदृश्यत |
5957 | 6074009a | तमुवाच महातेजाः पौलस्त्यमपराजितम् |
5958 | 6074009c | समाह्वये त्वां समरे सम्यग्युद्धं प्रयच्छ मे |
5959 | 6074010a | एवमुक्तो महातेजा मनस्वी रावणात्मजः |
5960 | 6074010c | अब्रवीत्परुषं वाक्यं तत्र दृष्ट्वा विभीषणम् |
5961 | 6074011a | इह त्वं जातसंवृद्धः साक्षाद्भ्राता पितुर्मम |
5962 | 6074011c | कथं द्रुह्यसि पुत्रस्य पितृव्यो मम राक्षस |
5963 | 6074012a | न ज्ञातित्वं न सौहार्दं न जातिस्तव दुर्मते |
5964 | 6074012c | प्रमाणं न च सोदर्यं न धर्मो धर्मदूषण |
5965 | 6074013a | शोच्यस्त्वमसि दुर्बुद्धे निन्दनीयश्च साधुभिः |
5966 | 6074013c | यस्त्वं स्वजनमुत्सृज्य परभृत्यत्वमागतः |
5967 | 6074014a | नैतच्छिथिलया बुद्ध्या त्वं वेत्सि महदन्तरम् |
5968 | 6074014c | क्व च स्वजनसंवासः क्व च नीचपराश्रयः |
5969 | 6074015a | गुणवान्वा परजनः स्वजनो निर्गुणोऽपि वा |
5970 | 6074015c | निर्गुणः स्वजनः श्रेयान्यः परः पर एव सः |
5971 | 6074016a | निरनुक्रोशता चेयं यादृशी ते निशाचर |
5972 | 6074016c | स्वजनेन त्वया शक्यं परुषं रावणानुज |
5973 | 6074017a | इत्युक्तो भ्रातृपुत्रेण प्रत्युवाच विभीषणः |
5974 | 6074017c | अजानन्निव मच्छीलं किं राक्षस विकत्थसे |
5975 | 6074018a | राक्षसेन्द्रसुतासाधो पारुष्यं त्यज गौरवात् |
5976 | 6074018c | कुले यद्यप्यहं जातो रक्षसां क्रूरकर्मणाम् |
5977 | 6074018e | गुणोऽयं प्रथमो नॄणां तन्मे शीलमराक्षसं |
5978 | 6074019a | न रमे दारुणेनाहं न चाधर्मेण वै रमे |
5979 | 6074019c | भ्रात्रा विषमशीलेन कथं भ्राता निरस्यते |
5980 | 6074020a | परस्वानां च हरणं परदाराभिमर्शनम् |
5981 | 6074020c | सुहृदामतिशङ्कां च त्रयो दोषाः क्षयावहाः |
5982 | 6074021a | महर्षीणां वधो घोरः सर्वदेवैश्च विग्रहः |
5983 | 6074021c | अभिमानश्च कोपश्च वैरित्वं प्रतिकूलता |
5984 | 6074022a | एते दोषा मम भ्रातुर्जीवितैश्वर्यनाशनाः |
5985 | 6074022c | गुणान्प्रच्छादयामासुः पर्वतानिव तोयदाः |
5986 | 6074023a | दोषैरेतैः परित्यक्तो मया भ्राता पिता तव |
5987 | 6074023c | नेयमस्ति पुरी लङ्का न च त्वं न च ते पिता |
5988 | 6074024a | अतिमानी च बालश्च दुर्विनीतश्च राक्षस |
5989 | 6074024c | बद्धस्त्वं कालपाशेन ब्रूहि मां यद्यदिच्छसि |
5990 | 6074025a | अद्य ते व्यसनं प्राप्तं किमिह त्वं तु वक्ष्यसि |
5991 | 6074025c | प्रवेष्टुं न त्वया शक्यो न्यग्रोधो राक्षसाधम |
5992 | 6074026a | धर्षयित्वा तु काकुत्स्थौ न शक्यं जीवितुं त्वया |
5993 | 6074026c | युध्यस्व नरदेवेन लक्ष्मणेन रणे सह |
5994 | 6074026e | हतस्त्वं देवता कार्यं करिष्यसि यमक्षये |
5995 | 6074027a | निदर्शयस्वात्मबलं समुद्यतं; कुरुष्व सर्वायुधसायकव्ययम् |
5996 | 6074027c | न लक्ष्मणस्यैत्य हि बाणगोचरं; त्वमद्य जीवन्सबलो गमिष्यसि |
5997 | 6075001a | विभीषण वचः श्रुत्वा रावणिः क्रोधमूर्छितः |
5998 | 6075001c | अब्रवीत्परुषं वाक्यं वेगेनाभ्युत्पपात ह |
5999 | 6075002a | उद्यतायुधनिस्त्रिंशो रथे तु समलंकृते |
6000 | 6075002c | कालाश्वयुक्ते महति स्थितः कालान्तकोपमः |
6001 | 6075003a | महाप्रमाणमुद्यम्य विपुलं वेगवद्दृढम् |
6002 | 6075003c | धनुर्भीमं परामृश्य शरांश्चामित्रनाशनान् |
6003 | 6075004a | उवाचैनं समारब्धः सौमित्रिं सविभीषणम् |
6004 | 6075004c | तांश्च वानरशार्दूलान्पश्यध्वं मे पराक्रमम् |
6005 | 6075005a | अद्य मत्कार्मुकोत्सृष्टं शरवर्षं दुरासदम् |
6006 | 6075005c | मुक्तं वर्षमिवाकाशे वारयिष्यथ संयुगे |
6007 | 6075006a | अद्य वो मामका बाणा महाकार्मुकनिःसृताः |
6008 | 6075006c | विधमिष्यन्ति गात्राणि तूलराशिमिवानलः |
6009 | 6075007a | तीक्ष्णसायकनिर्भिन्नाञ्शूलशक्त्यृष्टितोमरैः |
6010 | 6075007c | अद्य वो गमयिष्यामि सर्वानेव यमक्षयम् |
6011 | 6075008a | क्षिपतः शरवर्षाणि क्षिप्रहस्तस्य मे युधि |
6012 | 6075008c | जीमूतस्येव नदतः कः स्थास्यति ममाग्रतः |
6013 | 6075009a | तच्छ्रुत्वा राक्षसेन्द्रस्य गर्जितं लक्ष्मणस्तदा |
6014 | 6075009c | अभीतवदनः क्रुद्धो रावणिं वाक्यमब्रवीत् |
6015 | 6075010a | उक्तश्च दुर्गमः पारः कार्याणां राक्षस त्वया |
6016 | 6075010c | कार्याणां कर्मणा पारं यो गच्छति स बुद्धिमान् |
6017 | 6075011a | स त्वमर्थस्य हीनार्थो दुरवापस्य केनचित् |
6018 | 6075011c | वचो व्याहृत्य जानीषे कृतार्थोऽस्मीति दुर्मते |
6019 | 6075012a | अन्तर्धानगतेनाजौ यस्त्वयाचरितस्तदा |
6020 | 6075012c | तस्कराचरितो मार्गो नैष वीरनिषेवितः |
6021 | 6075013a | यथा बाणपथं प्राप्य स्थितोऽहं तव राक्षस |
6022 | 6075013c | दर्शयस्वाद्य तत्तेजो वाचा त्वं किं विकत्थसे |
6023 | 6075014a | एवमुक्तो धनुर्भीमं परामृश्य महाबलः |
6024 | 6075014c | ससर्जे निशितान्बाणानिन्द्रजित्समिजिंजय |
6025 | 6075015a | ते निसृष्टा महावेगाः शराः सर्पविषोपमाः |
6026 | 6075015c | संप्राप्य लक्ष्मणं पेतुः श्वसन्त इव पन्नगाः |
6027 | 6075016a | शरैरतिमहावेगैर्वेगवान्रावणात्मजः |
6028 | 6075016c | सौमित्रिमिन्द्रजिद्युद्धे विव्याध शुभलक्षणम् |
6029 | 6075017a | स शरैरतिविद्धाङ्गो रुधिरेण समुक्षितः |
6030 | 6075017c | शुशुभे लक्ष्मणः श्रीमान्विधूम इव पावकः |
6031 | 6075018a | इन्द्रजित्त्वात्मनः कर्म प्रसमीक्ष्याधिगम्य च |
6032 | 6075018c | विनद्य सुमहानादमिदं वचनमब्रवीत् |
6033 | 6075019a | पत्रिणः शितधारास्ते शरा मत्कार्मुकच्युताः |
6034 | 6075019c | आदास्यन्तेऽद्य सौमित्रे जीवितं जीवितान्तगाः |
6035 | 6075020a | अद्य गोमायुसंघाश्च श्येनसंघाश्च लक्ष्मण |
6036 | 6075020c | गृध्राश्च निपतन्तु त्वां गतासुं निहतं मया |
6037 | 6075021a | क्षत्रबन्धुः सदानार्यो रामः परमदुर्मतिः |
6038 | 6075021c | भक्तं भ्रातरमद्यैव त्वां द्रक्ष्यति मया हतम् |
6039 | 6075022a | विशस्तकवचं भूमौ व्यपविद्धशरासनम् |
6040 | 6075022c | हृतोत्तमाङ्गं सौमित्रे त्वामद्य निहतं मया |
6041 | 6075023a | इति ब्रुवाणं संरब्धं परुषं रावणात्मजम् |
6042 | 6075023c | हेतुमद्वाक्यमत्यर्थं लक्ष्मणः प्रत्युवाच ह |
6043 | 6075024a | अकृत्वा कत्थसे कर्म किमर्थमिह राक्षस |
6044 | 6075024c | कुरु तत्कर्म येनाहं श्रद्दध्यां तव कत्थनम् |
6045 | 6075025a | अनुक्त्वा परुषं वाक्यं किंचिदप्यनवक्षिपन् |
6046 | 6075025c | अविकत्थन्वधिष्यामि त्वां पश्य पुरुषादन |
6047 | 6075026a | इत्युक्त्वा पञ्चनाराचानाकर्णापूरिताञ्शरान् |
6048 | 6075026c | निचखान महावेगाँल्लक्ष्मणो राक्षसोरसि |
6049 | 6075027a | स शरैराहतस्तेन सरोषो रावणात्मजः |
6050 | 6075027c | सुप्रयुक्तैस्त्रिभिर्बाणैः प्रतिविव्याध लक्ष्मणम् |
6051 | 6075028a | स बभूव महाभीमो नरराक्षससिंहयोः |
6052 | 6075028c | विमर्दस्तुमुलो युद्धे परस्परवधैषिणोः |
6053 | 6075029a | उभौ हि बलसंपन्नावुभौ विक्रमशालिनौ |
6054 | 6075029c | उभावपि सुविक्रान्तौ सर्वशस्त्रास्त्रकोविदौ |
6055 | 6075030a | उभौ परमदुर्जेयावतुल्यबलतेजसौ |
6056 | 6075030c | युयुधाते महावीरौ ग्रहाविव नभो गतौ |
6057 | 6075031a | बलवृत्राविव हि तौ युधि वै दुष्प्रधर्षणौ |
6058 | 6075031c | युयुधाते महात्मानौ तदा केसरिणाविव |
6059 | 6075032a | बहूनवसृजन्तौ हि मार्गणौघानवस्थितौ |
6060 | 6075032c | नरराक्षससिंहौ तौ प्रहृष्टावभ्ययुध्यताम् |
6061 | 6075033a | सुसंप्रहृष्टौ नरराक्षसोत्तमौ; जयैषिणौ मार्गणचापधारिणौ |
6062 | 6075033c | परस्परं तौ प्रववर्षतुर्भृशं; शरौघवर्षेण बलाहकाविव |
6063 | 6076001a | ततः शरं दाशरथिः संधायामित्रकर्शनः |
6064 | 6076001c | ससर्ज राक्षसेन्द्राय क्रुद्धः सर्प इव श्वसन् |
6065 | 6076002a | तस्य ज्यातलनिर्घोषं स श्रुत्वा रावणात्मजः |
6066 | 6076002c | विवर्णवदनो भूत्वा लक्ष्मणं समुदैक्षत |
6067 | 6076003a | तं विषण्णमुखं दृष्ट्वा राक्षसं रावणात्मजम् |
6068 | 6076003c | सौमित्रिं युद्धसंसक्तं प्रत्युवाच विभीषणः |
6069 | 6076004a | निमित्तान्यनुपश्यामि यान्यस्मिन्रावणात्मजे |
6070 | 6076004c | त्वर तेन महाबाहो भग्न एष न संशयः |
6071 | 6076005a | ततः संधाय सौमित्रिः शरानग्निशिखोपमान् |
6072 | 6076005c | मुमोच निशितांस्तस्मै सर्वानिव विषोल्बणान् |
6073 | 6076006a | शक्राशनिसमस्पर्शैर्लक्ष्मणेनाहतः शरैः |
6074 | 6076006c | मुहूर्तमभवन्मूढः सर्वसंक्षुभितेन्द्रियः |
6075 | 6076007a | उपलभ्य मुहूर्तेन संज्ञां प्रत्यागतेन्द्रियः |
6076 | 6076007c | ददर्शावस्थितं वीरं वीरो दशरथात्मजम् |
6077 | 6076008a | सोऽभिचक्राम सौमित्रिं रोषात्संरक्तलोचनः |
6078 | 6076008c | अब्रवीच्चैनमासाद्य पुनः स परुषं वचः |
6079 | 6076009a | किं न स्मरसि तद्युद्धे प्रथमे मत्पराक्रमम् |
6080 | 6076009c | निबद्धस्त्वं सह भ्रात्रा यदा युधि विचेष्टसे |
6081 | 6076010a | युवा खलु महायुद्धे शक्राशनिसमैः शरैः |
6082 | 6076010c | शायिनौ प्रथमं भूमौ विसंज्ञौ सपुरःसरौ |
6083 | 6076011a | स्मृतिर्वा नास्ति ते मन्ये व्यक्तं वा यमसादनम् |
6084 | 6076011c | गन्तुमिच्छसि यस्मात्त्वं मां धर्षयितुमिच्छसि |
6085 | 6076012a | यदि ते प्रथमे युद्धे न दृष्टो मत्पराक्रमः |
6086 | 6076012c | अद्य त्वां दर्शयिष्यामि तिष्ठेदानीं व्यवस्थितः |
6087 | 6076013a | इत्युक्त्वा सप्तभिर्बाणैरभिविव्याध लक्ष्मणम् |
6088 | 6076013c | दशभिश्च हनूमन्तं तीक्ष्णधारैः शरोत्तमैः |
6089 | 6076014a | ततः शरशतेनैव सुप्रयुक्तेन वीर्यवान् |
6090 | 6076014c | क्रोधाद्द्विगुणसंरब्धो निर्बिभेद विभीषणम् |
6091 | 6076015a | तद्दृष्ट्वेन्द्रजितः कर्म कृतं रामानुजस्तदा |
6092 | 6076015c | अचिन्तयित्वा प्रहसन्नैतत्किंचिदिति ब्रुवन् |
6093 | 6076016a | मुमोच स शरान्घोरान्संगृह्य नरपुंगवः |
6094 | 6076016c | अभीतवदनः क्रुद्धो रावणिं लक्ष्मणो युधि |
6095 | 6076017a | नैवं रणगतः शूराः प्रहरन्ति निशाचर |
6096 | 6076017c | लघवश्चाल्पवीर्याश्च सुखा हीमे शरास्तव |
6097 | 6076018a | नैवं शूरास्तु युध्यन्ते समरे जयकाङ्क्षिणः |
6098 | 6076018c | इत्येवं तं ब्रुवाणस्तु शरवर्षैरवाकिरत् |
6099 | 6076019a | तस्य बाणैस्तु विध्वस्तं कवचं हेमभूषितम् |
6100 | 6076019c | व्यशीर्यत रथोपस्थे ताराजालमिवाम्बरात् |
6101 | 6076020a | विधूतवर्मा नाराचैर्बभूव स कृतव्रणः |
6102 | 6076020c | इन्द्रजित्समरे शूरः प्ररूढ इव सानुमान् |
6103 | 6076021a | अभीक्ष्णं निश्वसन्तौ हि युध्येतां तुमुलं युधि |
6104 | 6076021c | शरसंकृत्तसर्वाङ्गो सर्वतो रुधिरोक्षितौ |
6105 | 6076022a | अस्त्राण्यस्त्रविदां श्रेष्ठौ दर्शयन्तौ पुनः पुनः |
6106 | 6076022c | शरानुच्चावचाकारानन्तरिक्षे बबन्धतुः |
6107 | 6076023a | व्यपेतदोषमस्यन्तौ लघुचित्रं च सुष्ठु च |
6108 | 6076023c | उभौ तु तुमुलं घोरं चक्रतुर्नरराक्षसौ |
6109 | 6076024a | तयोः पृथक्पृथग्भीमः शुश्रुवे तलनिस्वनः |
6110 | 6076024c | सुघोरयोर्निष्टनतोर्गगने मेघयोरिव |
6111 | 6076025a | ते गात्रयोर्निपतिता रुक्मपुङ्खाः शरा युधि |
6112 | 6076025c | असृग्दिग्धा विनिष्पेतुर्विविशुर्धरणीतलम् |
6113 | 6076026a | अन्यैः सुनिशितैः शस्त्रैराकाशे संजघट्टिरे |
6114 | 6076026c | बभञ्जुश्चिच्छिदुश्चापि तयोर्बाणाः सहस्रशः |
6115 | 6076027a | स बभूव रणे घोरस्तयोर्बाणमयश्चयः |
6116 | 6076027c | अग्निभ्यामिव दीप्ताभ्यां सत्रे कुशमयश्चयः |
6117 | 6076028a | तयोः कृतव्रणौ देहौ शुशुभाते महात्मनोः |
6118 | 6076028c | सपुष्पाविव निष्पत्रौ वने शाल्मलिकुंशुकौ |
6119 | 6076029a | चक्रतुस्तुमुलं घोरं संनिपातं मुहुर्मुहुः |
6120 | 6076029c | इन्द्रजिल्लक्ष्मणश्चैव परस्परजयैषिणौ |
6121 | 6076030a | लक्ष्मणो रावणिं युद्धे रावणिश्चापि लक्ष्मणम् |
6122 | 6076030c | अन्योन्यं तावभिघ्नन्तौ न श्रमं प्रत्यपद्यताम् |
6123 | 6076031a | बाणजालैः शरीरस्थैरवगाढैस्तरस्विनौ |
6124 | 6076031c | शुशुभाते महावीरौ विरूढाविव पर्वतौ |
6125 | 6076032a | तयो रुधिरसिक्तानि संवृतानि शरैर्भृशम् |
6126 | 6076032c | बभ्राजुः सर्वगात्राणि ज्वलन्त इव पावकाः |
6127 | 6076033a | तयोरथ महान्कालो व्यतीयाद्युध्यमानयोः |
6128 | 6076033c | न च तौ युद्धवैमुख्यं श्रमं वाप्युपजग्मतुः |
6129 | 6076034a | अथ समरपरिश्रमं निहन्तुं; समरमुखेष्वजितस्य लक्ष्मणस्य |
6130 | 6076034c | प्रियहितमुपपादयन्महौजाः; समरमुपेत्य विभीषणोऽवतस्थे |
6131 | 6077001a | युध्यमानौ तु तौ दृष्ट्वा प्रसक्तौ नरराक्षसौ |
6132 | 6077001c | शूरः स रावणभ्राता तस्थौ संग्राममूर्धनि |
6133 | 6077002a | ततो विस्फारयामास महद्धनुरवस्थितः |
6134 | 6077002c | उत्ससर्ज च तीक्ष्णाग्रान्राक्षसेषु महाशरान् |
6135 | 6077003a | ते शराः शिखिसंकाशा निपतन्तः समाहिताः |
6136 | 6077003c | राक्षसान्दारयामासुर्वज्रा इव महागिरीन् |
6137 | 6077004a | विभीषणस्यानुचरास्तेऽपि शूलासिपट्टसैः |
6138 | 6077004c | चिच्छेदुः समरे वीरान्राक्षसान्राक्षसोत्तमाः |
6139 | 6077005a | राक्षसैस्तैः परिवृतः स तदा तु विभीषणः |
6140 | 6077005c | बभौ मध्ये प्रहृष्टानां कलभानामिव द्विपः |
6141 | 6077006a | ततः संचोदयानो वै हरीन्रक्षोरणप्रियान् |
6142 | 6077006c | उवाच वचनं काले कालज्ञो रक्षसां वरः |
6143 | 6077007a | एकोऽयं राक्षसेन्द्रस्य परायणमिव स्थितः |
6144 | 6077007c | एतच्छेषं बलं तस्य किं तिष्ठत हरीश्वराः |
6145 | 6077008a | अस्मिन्विनिहते पापे राक्षसे रणमूर्धनि |
6146 | 6077008c | रावणं वर्जयित्वा तु शेषमस्य बलं हतम् |
6147 | 6077009a | प्रहस्तो निहतो वीरो निकुम्भश्च महाबलः |
6148 | 6077009c | कुम्भकर्णश्च कुम्भश्च धूम्राक्षश्च निशाचरः |
6149 | 6077010a | अकम्पनः सुपार्श्वश्च चक्रमाली च राक्षसः |
6150 | 6077010c | कम्पनः सत्त्ववन्तश्च देवान्तकनरान्तकौ |
6151 | 6077011a | एतान्निहत्यातिबलान्बहून्राक्षससत्तमान् |
6152 | 6077011c | बाहुभ्यां सागरं तीर्त्वा लङ्घ्यतां गोष्पदं लघु |
6153 | 6077012a | एतावदिह शेषं वो जेतव्यमिह वानराः |
6154 | 6077012c | हताः सर्वे समागम्य राक्षसा बलदर्पिताः |
6155 | 6077013a | अयुक्तं निधनं कर्तुं पुत्रस्य जनितुर्मम |
6156 | 6077013c | घृणामपास्य रामार्थे निहन्यां भ्रातुरात्मजम् |
6157 | 6077014a | हन्तुकामस्य मे बाष्पं चक्शुश्चैव निरुध्यते |
6158 | 6077014c | तदेवैष महाबाहुर्लक्ष्मणः शमयिष्यति |
6159 | 6077014e | वानरा घ्नन्तुं संभूय भृत्यानस्य समीपगान् |
6160 | 6077015a | इति तेनातियशसा राक्षसेनाभिचोदिताः |
6161 | 6077015c | वानरेन्द्रा जहृषिरे लाङ्गलानि च विव्यधुः |
6162 | 6077016a | ततस्ते कपिशार्दूलाः क्ष्वेडन्तश्च मुहुर्मुहुः |
6163 | 6077016c | मुमुचुर्विविधान्नादान्मेघान्दृष्ट्वेव बर्हिणः |
6164 | 6077017a | जाम्बवानपि तैः सर्वैः स्वयूथैरभिसंवृतः |
6165 | 6077017c | अश्मभिस्ताडयामास नखैर्दन्तैश्च राक्षसान् |
6166 | 6077018a | निघ्नन्तमृक्षाधिपतिं राक्षसास्ते महाबलाः |
6167 | 6077018c | परिवव्रुर्भयं त्यक्त्वा तमनेकविधायुधाः |
6168 | 6077019a | शरैः परशुभिस्तीक्ष्णैः पट्टसैर्यष्टितोमरैः |
6169 | 6077019c | जाम्बवन्तं मृधे जघ्नुर्निघ्नन्तं राक्षसीं चमूम् |
6170 | 6077020a | स संप्रहारस्तुमुलः संजज्ञे कपिराक्षसाम् |
6171 | 6077020c | देवासुराणां क्रुद्धानां यथा भीमो महास्वनः |
6172 | 6077021a | हनूमानपि संक्रुद्धः सालमुत्पाट्य पर्वतात् |
6173 | 6077021c | रक्षसां कदनं चक्रे समासाद्य सहस्रशः |
6174 | 6077022a | स दत्त्वा तुमुलं युद्धं पितृव्यस्येन्द्रजिद्युधि |
6175 | 6077022c | लक्ष्मणं परवीरघ्नं पुनरेवाभ्यधावत |
6176 | 6077023a | तौ प्रयुद्धौ तदा वीरौ मृधे लक्ष्मणराक्षसौ |
6177 | 6077023c | शरौघानभिवर्षन्तौ जघ्नतुस्तौ परस्परम् |
6178 | 6077024a | अभीक्ष्णमन्तर्दधतुः शरजालैर्महाबलौ |
6179 | 6077024c | चन्द्रादित्याविवोष्णान्ते यथा मेघैस्तरस्विनौ |
6180 | 6077025a | न ह्यादानं न संधानं धनुषो वा परिग्रहः |
6181 | 6077025c | न विप्रमोक्षो बाणानां न विकर्षो न विग्रहः |
6182 | 6077026a | न मुष्टिप्रतिसंधानं न लक्ष्यप्रतिपादनम् |
6183 | 6077026c | अदृश्यत तयोस्तत्र युध्यतोः पाणिलाघवात् |
6184 | 6077027a | चापवेगप्रमुक्तैश्च बाणजालैः समन्ततः |
6185 | 6077027c | अन्तरिक्षेऽभिसंछन्ने न रूपाणि चकाशिरे |
6186 | 6077027e | तमसा पिहितं सर्वमासीद्भीमतरं महत् |
6187 | 6077028a | न तदानीं ववौ वायुर्न जज्वाल च पावकः |
6188 | 6077028c | स्वस्त्यस्तु लोकेभ्य इति जजल्पश्च महर्षयः |
6189 | 6077028e | संपेतुश्चात्र संप्राप्ता गन्धर्वाः सह चारणैः |
6190 | 6077029a | अथ राक्षससिंहस्य कृष्णान्कनकभूषणान् |
6191 | 6077029c | शरैश्चतुर्भिः सौमित्रिर्विव्याध चतुरो हयान् |
6192 | 6077030a | ततोऽपरेण भल्लेन सूतस्य विचरिष्यतः |
6193 | 6077030c | लाघवाद्राघवः श्रीमाञ्शिरः कायादपाहरत् |
6194 | 6077031a | निहतं सारथिं दृष्ट्वा समरे रावणात्मजः |
6195 | 6077031c | प्रजहौ समरोद्धर्षं विषण्णः स बभूव ह |
6196 | 6077032a | विषण्णवदनं दृष्ट्वा राक्षसं हरियूथपाः |
6197 | 6077032c | ततः परमसंहृष्टो लक्ष्मणं चाभ्यपूजयन् |
6198 | 6077033a | ततः प्रमाथी शरभो रभसो गन्धमादनः |
6199 | 6077033c | अमृष्यमाणाश्चत्वारश्चक्रुर्वेगं हरीश्वराः |
6200 | 6077034a | ते चास्य हयमुख्येषु तूर्णमुत्पत्य वानराः |
6201 | 6077034c | चतुर्षु सुमहावीर्या निपेतुर्भीमविक्रमाः |
6202 | 6077035a | तेषामधिष्ठितानां तैर्वानरैः पर्वतोपमैः |
6203 | 6077035c | मुखेभ्यो रुधिरं व्यक्तं हयानां समवर्तत |
6204 | 6077036a | ते निहत्य हयांस्तस्य प्रमथ्य च महारथम् |
6205 | 6077036c | पुनरुत्पत्य वेगेन तस्थुर्लक्ष्मणपार्श्वतः |
6206 | 6077037a | स हताश्वादवप्लुत्य रथान्मथितसारथेः |
6207 | 6077037c | शरवर्षेण सौमित्रिमभ्यधावत रावणिः |
6208 | 6077038a | ततो महेन्द्रप्रतिमंह्स लक्ष्मणः; पदातिनं तं निशितैः शरोत्तमैः |
6209 | 6077038c | सृजन्तमादौ निशिताञ्शरोत्तमा;न्भृशं तदा बाणगणैर्न्यवारयत् |
6210 | 6078001a | स हताश्वो महातेजा भूमौ तिष्ठन्निशाचरः |
6211 | 6078001c | इन्द्रजित्परमक्रुद्धः संप्रजज्वाल तेजसा |
6212 | 6078002a | तौ धन्विनौ जिघांसन्तावन्योन्यमिषुभिर्भृशम् |
6213 | 6078002c | विजयेनाभिनिष्क्रान्तौ वने गजवृषाविव |
6214 | 6078003a | निबर्हयन्तश्चान्योन्यं ते राक्षसवनौकसः |
6215 | 6078003c | भर्तारं न जहुर्युद्धे संपतन्तस्ततस्ततः |
6216 | 6078004a | स लक्ष्मणं समुद्दिश्य परं लाघवमास्थितः |
6217 | 6078004c | ववर्ष शरवर्षाणि वर्षाणीव पुरंदरः |
6218 | 6078005a | मुक्तमिन्द्रजिता तत्तु शरवर्षमरिंदमः |
6219 | 6078005c | अवारयदसंभ्रान्तो लक्ष्मणः सुदुरासदम् |
6220 | 6078006a | अभेद्यकचनं मत्वा लक्ष्मणं रावणात्मजः |
6221 | 6078006c | ललाटे लक्ष्मणं बाणैः सुपुङ्खैस्त्रिभिरिन्द्रजित् |
6222 | 6078006e | अविध्यत्परमक्रुद्धः शीघ्रमस्त्रं प्रदर्शयन् |
6223 | 6078007a | तैः पृषत्कैर्ललाटस्थैः शुशुभे रघुनन्दनः |
6224 | 6078007c | रणाग्रे समरश्लाघी त्रिशृङ्ग इव पर्वतः |
6225 | 6078008a | स तथाप्यर्दितो बाणै राक्षसेन महामृधे |
6226 | 6078008c | तमाशु प्रतिविव्याध लक्ष्मणः पनभिः शरैः |
6227 | 6078009a | लक्ष्मणेन्द्रजितौ वीरौ महाबलशरासनौ |
6228 | 6078009c | अन्योन्यं जघ्नतुर्बाणैर्विशिखैर्भीमविक्रमौ |
6229 | 6078010a | तौ परस्परमभ्येत्य सर्वगात्रेषु धन्विनौ |
6230 | 6078010c | घोरैर्विव्यधतुर्बाणैः कृतभावावुभौ जये |
6231 | 6078011a | तस्मै दृढतरं क्रुद्धो हताश्वाय विभीषणः |
6232 | 6078011c | वज्रस्पर्शसमान्पञ्च ससर्जोरसि मार्गणान् |
6233 | 6078012a | ते तस्य कायं निर्भिद्य रुक्मपुङ्खा निमित्तगाः |
6234 | 6078012c | बभूवुर्लोहितादिग्धा रक्ता इव महोरगाः |
6235 | 6078013a | स पितृव्यस्य संक्रुद्ध इन्द्रजिच्छरमाददे |
6236 | 6078013c | उत्तमं रक्षसां मध्ये यमदत्तं महाबलः |
6237 | 6078014a | तं समीक्ष्य महातेजा महेषुं तेन संहितम् |
6238 | 6078014c | लक्ष्मणोऽप्याददे बाणमन्यं भीमपराक्रमः |
6239 | 6078015a | कुबेरेण स्वयं स्वप्ने यद्दत्तममितात्मना |
6240 | 6078015c | दुर्जयं दुर्विषह्यं च सेन्द्रैरपि सुरासुरैः |
6241 | 6078016a | ताभ्यां तौ धनुषि श्रेष्ठे संहितौ सायकोत्तमौ |
6242 | 6078016c | विकृष्यमाणौ वीराभ्यां भृशं जज्वलतुः श्रिया |
6243 | 6078017a | तौ भासयन्तावाकाशं धनुर्भ्यां विशिखौ च्युतौ |
6244 | 6078017c | मुखेन मुखमाहत्य संनिपेततुरोजसा |
6245 | 6078018a | तौ महाग्रहसंकाशावन्योन्यं संनिपत्य च |
6246 | 6078018c | संग्रामे शतधा यातौ मेदिन्यां विनिपेततुः |
6247 | 6078019a | शरौ प्रतिहतौ दृष्ट्वा तावुभौ रणमूर्धनि |
6248 | 6078019c | व्रीडितो जातरोषौ च लक्ष्मणेन्द्रजितावुभौ |
6249 | 6078020a | सुसंरब्धस्तु सौमित्रिरस्त्रं वारुणमाददे |
6250 | 6078020c | रौद्रं महेद्रजिद्युद्धे व्यसृजद्युधि विष्ठितः |
6251 | 6078021a | तयोः सुतुमुलं युद्धं संबभूवाद्भुतोपमम् |
6252 | 6078021c | गगनस्थानि भूतानि लक्ष्मणं पर्यवारयन् |
6253 | 6078022a | भैरवाभिरुते भीमे युद्धे वानरराक्षसाम् |
6254 | 6078022c | भूतैर्बहुभिराकाशं विस्मितैरावृतं बभौ |
6255 | 6078023a | ऋषयः पितरो देवा गन्धर्वा गरुणोरगाः |
6256 | 6078023c | शतक्रतुं पुरस्कृत्य ररक्षुर्लक्ष्मणं रणे |
6257 | 6078024a | अथान्यं मार्गणश्रेष्ठं संदधे रावणानुजः |
6258 | 6078024c | हुताशनसमस्पर्शं रावणात्मजदारुणम् |
6259 | 6078025a | सुपत्रमनुवृत्ताङ्गं सुपर्वाणं सुसंस्थितम् |
6260 | 6078025c | सुवर्णविकृतं वीरः शरीरान्तकरं शरम् |
6261 | 6078026a | दुरावारं दुर्विषहं राक्षसानां भयावहम् |
6262 | 6078026c | आशीविषविषप्रख्यं देवसंघैः समर्चितम् |
6263 | 6078027a | येन शक्रो महातेजा दानवानजयत्प्रभुः |
6264 | 6078027c | पुरा देवासुरे युद्धे वीर्यवान्हरिवाहनः |
6265 | 6078028a | तदैन्द्रमस्त्रं सौमित्रिः संयुगेष्वपराजितम् |
6266 | 6078028c | शरश्रेष्ठं धनुः श्रेष्ठे नरश्रेष्ठोऽभिसंदधे |
6267 | 6078029a | संधायामित्रदलनं विचकर्ष शरासनम् |
6268 | 6078029c | सज्यमायम्य दुर्धर्शः कालो लोकक्षये यथा |
6269 | 6078030a | संधाय धनुषि श्रेष्ठे विकर्षन्निदमब्रवीत् |
6270 | 6078030c | लक्ष्मीवाँल्लक्ष्मणो वाक्यमर्थसाधकमात्मनः |
6271 | 6078031a | धर्मात्मा सत्यसंधश्च रामो दाशरथिर्यदि |
6272 | 6078031c | पौरुषे चाप्रतिद्वन्द्वस्तदेनं जहि रावणिम् |
6273 | 6078032a | इत्युक्त्वा बाणमाकर्णं विकृष्य तमजिह्मगम् |
6274 | 6078032c | लक्ष्मणः समरे वीरः ससर्जेन्द्रजितं प्रति |
6275 | 6078032e | ऐन्द्रास्त्रेण समायुज्य लक्ष्मणः परवीरहा |
6276 | 6078033a | तच्छिरः सशिरस्त्राणं श्रीमज्ज्वलितकुण्डलम् |
6277 | 6078033c | प्रमथ्येन्द्रजितः कायात्पपात धरणीतले |
6278 | 6078034a | तद्राक्षसतनूजस्य छिन्नस्कन्धं शिरो महत् |
6279 | 6078034c | तपनीयनिभं भूमौ ददृशे रुधिरोक्षितम् |
6280 | 6078035a | हतस्तु निपपाताशु धरण्यां रावणात्मजः |
6281 | 6078035c | कवची सशिरस्त्राणो विध्वस्तः सशरासनः |
6282 | 6078036a | चुक्रुशुस्ते ततः सर्वे वानराः सविभीषणाः |
6283 | 6078036c | हृष्यन्तो निहते तस्मिन्देवा वृत्रवधे यथा |
6284 | 6078037a | अथान्तरिक्षे भूतानामृषीणां च महात्मनाम् |
6285 | 6078037c | अभिजज्ञे च संनादो गन्धर्वाप्सरसामपि |
6286 | 6078038a | पतितं समभिज्ञाय राक्षसी सा महाचमूः |
6287 | 6078038c | वध्यमाना दिशो भेजे हरिभिर्जितकाशिभिः |
6288 | 6078039a | वनरैर्वध्यमानास्ते शस्त्राण्युत्सृज्य राक्षसाः |
6289 | 6078039c | लङ्कामभिमुखाः सर्वे नष्टसंज्ञाः प्रधाविताः |
6290 | 6078040a | दुद्रुवुर्बहुधा भीता राक्षसाः शतशो दिशः |
6291 | 6078040c | त्यक्त्वा प्रहरणान्सर्वे पट्टसासिपरश्वधान् |
6292 | 6078041a | केचिल्लङ्कां परित्रस्ताः प्रविष्टा वानरार्दिताः |
6293 | 6078041c | समुद्रे पतिताः केचित्केचित्पर्वतमाश्रिताः |
6294 | 6078042a | हतमिन्द्रजितं दृष्ट्वा शयानं समरक्षितौ |
6295 | 6078042c | राक्षसानां सहस्रेषु न कश्चित्प्रत्यदृश्यत |
6296 | 6078043a | यथास्तं गत आदित्ये नावतिष्ठन्ति रश्मयः |
6297 | 6078043c | तथा तस्मिन्निपतिते राक्षसास्ते गता दिशः |
6298 | 6078044a | शान्तरक्श्मिरिवादित्यो निर्वाण इव पावकः |
6299 | 6078044c | स बभूव महातेजा व्यपास्त गतजीवितः |
6300 | 6078045a | प्रशान्तपीडा बहुलो विनष्टारिः प्रहर्षवान् |
6301 | 6078045c | बभूव लोकः पतिते राक्षसेन्द्रसुते तदा |
6302 | 6078046a | हर्षं च शक्रो भगवान्सह सर्वैः सुरर्षभैः |
6303 | 6078046c | जगाम निहते तस्मिन्राक्षसे पापकर्मणि |
6304 | 6078047a | शुद्धा आपो नभश्चैव जहृषुर्दैत्यदानवाः |
6305 | 6078047c | आजग्मुः पतिते तस्मिन्सर्वलोकभयावहे |
6306 | 6078048a | ऊचुश्च सहिताः सर्वे देवगन्धर्वदानवाः |
6307 | 6078048c | विज्वराः शान्तकलुषा ब्राह्मणा विचरन्त्विति |
6308 | 6078049a | ततोऽभ्यनन्दन्संहृष्टाः समरे हरियूथपाः |
6309 | 6078049c | तमप्रतिबलं दृष्ट्वा हतं नैरृतपुंगवम् |
6310 | 6078050a | विभीषणो हनूमांश्च जाम्बवांश्चर्क्षयूथपः |
6311 | 6078050c | विजयेनाभिनन्दन्तस्तुष्टुवुश्चापि लक्ष्मणम् |
6312 | 6078051a | क्ष्वेडन्तश्च नदन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः |
6313 | 6078051c | लब्धलक्षा रघुसुतं परिवार्योपतस्थिरे |
6314 | 6078052a | लाङ्गूलानि प्रविध्यन्तः स्फोटयन्तश्च वानराः |
6315 | 6078052c | लक्ष्मणो जयतीत्येवं वाक्यं व्यश्रावयंस्तदा |
6316 | 6078053a | अन्योन्यं च समाश्लिष्य कपयो हृष्टमानसाः |
6317 | 6078053c | चक्रुरुच्चावचगुणा राघवाश्रयजाः कथाः |
6318 | 6078054a | तदसुकरमथाभिवीक्ष्य हृष्टाः; प्रियसुहृदो युधि लक्ष्मणस्य कर्म |
6319 | 6078054c | परममुपलभन्मनःप्रहर्षं; विनिहतमिन्द्ररिपुं निशम्य देवाः |
6320 | 6079001a | रुधिरक्लिन्नगात्रस्तु लक्ष्मणः शुभलक्षणः |
6321 | 6079001c | बभूव हृष्टस्तं हत्वा शक्रजेतारमाहवे |
6322 | 6079002a | ततः स जाम्बवन्तं च हनूमन्तं च वीर्यवान् |
6323 | 6079002c | संनिवर्त्य महातेजास्तांश्च सर्वान्वनौकसः |
6324 | 6079003a | आजगाम ततः शीघ्रं यत्र सुग्रीवराघवौ |
6325 | 6079003c | विभीषणमवष्टभ्य हनूमन्तं च लक्ष्मणः |
6326 | 6079004a | ततो राममभिक्रम्य सौमित्रिरभिवाद्य च |
6327 | 6079004c | तस्थौ भ्रातृसमीपस्थः शक्रस्येन्द्रानुजो यथा |
6328 | 6079004e | आचचक्षे तदा वीरो घोरमिन्द्रजितो वधम् |
6329 | 6079005a | रावणस्तु शिरश्छिन्नं लक्ष्मणेन महात्मना |
6330 | 6079005c | न्यवेदयत रामाय तदा हृष्टो विभीषणः |
6331 | 6079006a | उपवेश्य तमुत्सङ्गे परिष्वज्यावपीडितम् |
6332 | 6079006c | मूर्ध्नि चैनमुपाघ्राय भूयः संस्पृश्य च त्वरन् |
6333 | 6079006e | उवाच लक्ष्मणं वाक्यमाश्वास्य पुरुषर्षभः |
6334 | 6079007a | कृतं परमकल्याणं कर्म दुष्करकारिणा |
6335 | 6079007c | निरमित्रः कृतोऽस्म्यद्य निर्यास्यति हि रावणः |
6336 | 6079007e | बलव्यूहेन महता श्रुत्वा पुत्रं निपातितम् |
6337 | 6079008a | तं पुत्रवधसंतप्तं निर्यान्तं राक्षसाधिपम् |
6338 | 6079008c | बलेनावृत्य महता निहनिष्यामि दुर्जयम् |
6339 | 6079009a | त्वया लक्ष्मण नाथेन सीता च पृथिवी च मे |
6340 | 6079009c | न दुष्प्रापा हते त्वद्य शक्रजेतरि चाहवे |
6341 | 6079010a | स तं भ्रातरमाश्वास्य पारिष्वज्य च राघवः |
6342 | 6079010c | रामः सुषेणं मुदितः समाभाष्येदमब्रवीत् |
6343 | 6079011a | सशल्योऽयं महाप्राज्ञः सौमित्रिर्मित्रवत्सलः |
6344 | 6079011c | यथा भवति सुस्वस्थस्तथा त्वं समुपाचर |
6345 | 6079011e | विशल्यः क्रियतां क्षिप्रं सौमित्रिः सविभीषणः |
6346 | 6079012a | कृष वानरसैन्यानां शूराणां द्रुमयोधिनाम् |
6347 | 6079012c | ये चान्येऽत्र च युध्यन्तः सशल्या व्रणिनस्तथा |
6348 | 6079012e | तेऽपि सर्वे प्रयत्नेन क्रियन्तां सुखिनस्त्वया |
6349 | 6079013a | एवमुक्तः स रामेण महात्मा हरियूथपः |
6350 | 6079013c | लक्ष्मणाय ददौ नस्तः सुषेणः परमौषधम् |
6351 | 6079014a | स तस्य गन्धमाघ्राय विशल्यः समपद्यत |
6352 | 6079014c | तदा निर्वेदनश्चैव संरूढव्रण एव च |
6353 | 6079015a | विभीषण मुखानां च सुहृदां राघवाज्ञया |
6354 | 6079015c | सर्ववानरमुख्यानां चिकित्सां स तदाकरोत् |
6355 | 6079016a | ततः प्रकृतिमापन्नो हृतशल्यो गतव्यथः |
6356 | 6079016c | सौमित्रिर्मुदितस्तत्र क्षणेन विगतज्वरः |
6357 | 6079017a | तथैव रामः प्लवगाधिपस्तदा; विभीषणश्चर्क्षपतिश्च जाम्बवान् |
6358 | 6079017c | अवेक्ष्य सौमित्रिमरोगमुत्थितं; मुदा ससैन्यः सुचिरं जहर्षिरे |
6359 | 6079018a | अपूजयत्कर्म स लक्ष्मणस्य; सुदुष्करं दाशरथिर्महात्मा |
6360 | 6079018c | हृष्टा बभूवुर्युधि यूथपेन्द्रा; निशम्य तं शक्रजितं निपातितम् |
6361 | 6080001a | ततः पौलस्त्य सचिवाः श्रुत्वा चेन्द्रजितं हतम् |
6362 | 6080001c | आचचक्षुरभिज्ञाय दशग्रीवाय सव्यथाः |
6363 | 6080002a | युद्धे हतो महाराज लक्ष्मणेन तवात्मजः |
6364 | 6080002c | विभीषणसहायेन मिषतां नो महाद्युते |
6365 | 6080003a | शूरः शूरेण संगम्य संयुगेष्वपराजितः |
6366 | 6080003c | लक्ष्णनेन हतः शूरः पुत्रस्ते विबुधेन्द्रजित् |
6367 | 6080004a | स तं प्रतिभयं श्रुत्वा वधं पुत्रस्य दारुणम् |
6368 | 6080004c | घोरमिन्द्रजितः संख्ये कश्मलं प्राविशन्महत् |
6369 | 6080005a | उपलभ्य चिरात्संज्ञां राजा राक्षसपुंगवः |
6370 | 6080005c | पुत्रशोकार्दितो दीनो विललापाकुलेन्द्रियः |
6371 | 6080006a | हा राक्षसचमूमुख्य मम वत्स महारथ |
6372 | 6080006c | जित्वेन्द्रं कथमद्य त्वं लक्ष्मणस्य वशं गतः |
6373 | 6080007a | ननु त्वमिषुभिः क्रुद्धो भिन्द्याः कालान्तकावपि |
6374 | 6080007c | मन्दरस्यापि शृङ्गाणि किं पुनर्लक्ष्मणं रणे |
6375 | 6080008a | अद्य वैवस्वतो राजा भूयो बहुमतो मम |
6376 | 6080008c | येनाद्य त्वं महाबाहो संयुक्तः कालधर्मणा |
6377 | 6080009a | एष पन्थाः सुयोधानां सर्वामरगणेष्वपि |
6378 | 6080009c | यः कृते हन्यते भर्तुः स पुमान्स्वर्गमृच्छति |
6379 | 6080010a | अद्य देवगणाः सर्वे लोकपालास्तथर्षयः |
6380 | 6080010c | हतमिन्द्रजितं दृष्ट्वा सुखं स्वप्स्यन्ति निर्भयाः |
6381 | 6080011a | अद्य लोकास्त्रयः कृत्स्नाः पृथिवी च सकानना |
6382 | 6080011c | एकेनेन्द्रजिता हीना शूण्येव प्रतिभाति मे |
6383 | 6080012a | अद्य नैरृतकन्यायां श्रोष्याम्यन्तःपुरे रवम् |
6384 | 6080012c | करेणुसंघस्य यथा निनादं गिरिगह्वरे |
6385 | 6080013a | यौवराज्यं च लङ्कां च रक्षांसि च परंतप |
6386 | 6080013c | मातरं मां च भार्यां च क्व गतोऽसि विहाय नः |
6387 | 6080014a | मम नाम त्वया वीर गतस्य यमसादनम् |
6388 | 6080014c | प्रेतकार्याणि कार्याणि विपरीते हि वर्तसे |
6389 | 6080015a | स त्वं जीवति सुग्रीवे राघवे च सलक्ष्मणे |
6390 | 6080015c | मम शल्यमनुद्धृत्य क्व गतोऽसि विहाय नः |
6391 | 6080016a | एवमादिविलापार्तं रावणं राक्षसाधिपम् |
6392 | 6080016c | आविवेश महान्कोपः पुत्रव्यसनसंभवः |
6393 | 6080017a | घोरं प्रकृत्या रूपं तत्तस्य क्रोधाग्निमूर्छितम् |
6394 | 6080017c | बभूव रूपं रुद्रस्य क्रुद्धस्येव दुरासदम् |
6395 | 6080018a | तस्य क्रुद्धस्य नेत्राभ्यां प्रापतन्नस्रबिन्दवः |
6396 | 6080018c | दीप्ताभ्यामिव दीपाभ्यां सार्चिषः स्नेहबिन्दवः |
6397 | 6080019a | दन्तान्विदशतस्तस्य श्रूयते दशनस्वनः |
6398 | 6080019c | यन्त्रस्यावेष्ट्यमानस्य महतो दानवैरिव |
6399 | 6080020a | कालाग्निरिव संक्रुद्धो यां यां दिशमवैक्षत |
6400 | 6080020c | तस्यां तस्यां भयत्रस्ता राक्षसाः संनिलिल्यिरे |
6401 | 6080021a | तमन्तकमिव क्रुद्धं चराचरचिखादिषुम् |
6402 | 6080021c | वीक्षमाणं दिशः सर्वा राक्षसा नोपचक्रमुः |
6403 | 6080022a | ततः परमसंक्रुद्धो रावणो राक्षसाधिपः |
6404 | 6080022c | अब्रवीद्रक्षसां मध्ये संस्तम्भयिषुराहवे |
6405 | 6080023a | मया वर्षसहस्राणि चरित्वा दुश्चरं तपः |
6406 | 6080023c | तेषु तेष्ववकाशेषु स्वयम्भूः परितोषितः |
6407 | 6080024a | तस्यैव तपसो व्युष्ट्या प्रसादाच्च स्वयम्भुवः |
6408 | 6080024c | नासुरेभ्यो न देवेभ्यो भयं मम कदाचन |
6409 | 6080025a | कवचं ब्रह्मदत्तं मे यदादित्यसमप्रभम् |
6410 | 6080025c | देवासुरविमर्देषु न भिन्नं वज्रशक्तिभिः |
6411 | 6080026a | तेन मामद्य संयुक्तं रथस्थमिह संयुगे |
6412 | 6080026c | प्रतीयात्कोऽद्य मामाजौ साक्षादपि पुरंदरः |
6413 | 6080027a | यत्तदाभिप्रसन्नेन सशरं कार्मुकं महत् |
6414 | 6080027c | देवासुरविमर्देषु मम दत्तं स्वयम्भुवा |
6415 | 6080028a | अद्य तूर्यशतैर्भीमं धनुरुत्थाप्यतां महत् |
6416 | 6080028c | रामलक्ष्मणयोरेव वधाय परमाहवे |
6417 | 6080029a | स पुत्रवधसंतप्तः शूरः क्रोधवशं गतः |
6418 | 6080029c | समीक्ष्य रावणो बुद्ध्या सीतां हन्तुं व्यवस्यत |
6419 | 6080030a | प्रत्यवेक्ष्य तु ताम्राक्षः सुघोरो घोरदर्शनान् |
6420 | 6080030c | दीनो दीनस्वरान्सर्वांस्तानुवाच निशाचरान् |
6421 | 6080031a | मायया मम वत्सेन वञ्चनार्थं वनौकसाम् |
6422 | 6080031c | किंचिदेव हतं तत्र सीतेयमिति दर्शितम् |
6423 | 6080032a | तदिदं सत्यमेवाहं करिष्ये प्रियमात्मनः |
6424 | 6080032c | वैदेहीं नाशयिष्यामि क्षत्रबन्धुमनुव्रताम् |
6425 | 6080032e | इत्येवमुक्त्वा सचिवान्खड्गमाशु परामृशत् |
6426 | 6080033a | उद्धृत्य गुणसंपन्नं विमलाम्बरवर्चसं |
6427 | 6080033c | निष्पपात स वेगेन सभायाः सचिवैर्वृतः |
6428 | 6080034a | रावणः पुत्रशोकेन भृशमाकुलचेतनः |
6429 | 6080034c | संक्रुद्धः खड्गमादाय सहसा यत्र मैथिली |
6430 | 6080035a | व्रजन्तं राक्षसं प्रेक्ष्य सिंहनादं प्रचुक्रुशुः |
6431 | 6080035c | ऊचुश्चान्योन्यमाश्लिष्य संक्रुद्धं प्रेक्ष्य राक्षसाः |
6432 | 6080036a | अद्यैनं तावुभौ दृष्ट्वा भ्रातरौ प्रव्यथिष्यतः |
6433 | 6080036c | लोकपाला हि चत्वारः क्रुद्धेनानेन निर्जिताः |
6434 | 6080036e | बहवः शत्रवश्चान्ये संयुगेष्वभिपातिताः |
6435 | 6080037a | तेषां संजल्पमानानामशोकवनिकां गताम् |
6436 | 6080037c | अभिदुद्राव वैदेहीं रावणः क्रोधमूर्छितः |
6437 | 6080038a | वार्यमाणः सुसंक्रुद्धः सुहृद्भिर्हितबुद्धिभिः |
6438 | 6080038c | अभ्यधावत संक्रुद्धः खे ग्रहो रोहिणीमिव |
6439 | 6080039a | मैथिली रक्ष्यमाणा तु राक्षसीभिरनिन्दिता |
6440 | 6080039c | ददर्श राक्षसं क्रुद्धं निस्त्रिंशवरधारिणम् |
6441 | 6080040a | तं निशाम्य सनिस्त्रिंशं व्यथिता जनकात्मजा |
6442 | 6080040c | निवार्यमाणं बहुशः सुहृद्भिरनिवर्तिनम् |
6443 | 6080041a | यथायं मामभिक्रुद्धः समभिद्रवति स्वयम् |
6444 | 6080041c | वधिष्यति सनाथां मामनाथामिव दुर्मतिः |
6445 | 6080042a | बहुशश्चोदयामास भर्तारं मामनुव्रताम् |
6446 | 6080042c | भार्या भव रमस्येति प्रत्याख्यातोऽभवन्मया |
6447 | 6080043a | सोऽयं मामनुपस्थानाद्व्यक्तं नैराश्यमागतः |
6448 | 6080043c | क्रोधमोहसमाविष्टो निहन्तुं मां समुद्यतः |
6449 | 6080044a | अथ वा तौ नरव्याघ्रौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
6450 | 6080044c | मन्निमित्तमनार्येण समरेऽद्य निपातितौ |
6451 | 6080044e | अहो धिन्मन्निमित्तोऽयं विनाशो राजपुत्रयोः |
6452 | 6080045a | हनूमतो हि तद्वाक्यं न कृतं क्षुद्रया मया |
6453 | 6080045c | यद्यहं तस्य पृष्ठेन तदायासमनिन्दिता |
6454 | 6080045e | नाद्यैवमनुशोचेयं भर्तुरङ्कगता सती |
6455 | 6080046a | मन्ये तु हृदयं तस्याः कौसल्यायाः फलिष्यति |
6456 | 6080046c | एकपुत्रा यदा पुत्रं विनष्टं श्रोष्यते युधि |
6457 | 6080047a | सा हि जन्म च बाल्यं च यौवनं च महात्मनः |
6458 | 6080047c | धर्मकार्याणि रूपं च रुदती संस्रमिष्यति |
6459 | 6080048a | निराशा निहते पुत्रे दत्त्वा श्राद्धमचेतना |
6460 | 6080048c | अग्निमारोक्ष्यते नूनमपो वापि प्रवेक्ष्यति |
6461 | 6080049a | धिगस्तु कुब्जामसतीं मन्थरां पापनिश्चयाम् |
6462 | 6080049c | यन्निमित्तमिदं दुःखं कौसल्या प्रतिपत्स्यते |
6463 | 6080050a | इत्येवं मैथिलीं दृष्ट्वा विलपन्तीं तपस्विनीम् |
6464 | 6080050c | रोहिणीमिव चन्द्रेण विना ग्रहवशं गताम् |
6465 | 6080051a | सुपार्श्वो नाम मेधावी रावणं राक्षसेश्वरम् |
6466 | 6080051c | निवार्यमाणं सचिवैरिदं वचनमब्रवीत् |
6467 | 6080052a | कथं नाम दशग्रीव साक्षाद्वैश्रवणानुज |
6468 | 6080052c | हन्तुमिच्छसि वैदेहीं क्रोधाद्धर्ममपास्य हि |
6469 | 6080053a | वेद विद्याव्रत स्नातः स्वधर्मनिरतः सदा |
6470 | 6080053c | स्त्रियाः कस्माद्वधं वीर मन्यसे राक्षसेश्वर |
6471 | 6080054a | मैथिलीं रूपसंपन्नां प्रत्यवेक्षस्व पार्थिव |
6472 | 6080054c | त्वमेव तु सहास्माभी राघवे क्रोधमुत्सृज |
6473 | 6080055a | अभ्युत्थानं त्वमद्यैव कृष्णपक्षचतुर्दशीम् |
6474 | 6080055c | कृत्वा निर्याह्यमावास्यां विजयाय बलैर्वृतः |
6475 | 6080056a | शूरो धीमान्रथी खड्गी रथप्रवरमास्थितः |
6476 | 6080056c | हत्वा दाशरथिं रामं भवान्प्राप्स्यति मैथिलीम् |
6477 | 6080057a | स तद्दुरात्मा सुहृदा निवेदितं; वचः सुधर्म्यं प्रतिगृह्य रावणः |
6478 | 6080057c | गृहं जगामाथ ततश्च वीर्यवा;न्पुनः सभां च प्रययौ सुहृद्वृतः |
6479 | 6081001a | स प्रविश्य सभां राजा दीनः परमदुःखितः |
6480 | 6081001c | निषसादासने मुख्ये सिंहः क्रुद्ध इव श्वसन् |
6481 | 6081002a | अब्रवीच्च तदा सर्वान्बलमुख्यान्महाबलः |
6482 | 6081002c | रावणः प्राञ्जलीन्वाक्यं पुत्रव्यसनकर्शितः |
6483 | 6081003a | सर्वे भवन्तः सर्वेण हस्त्यश्वेन समावृताः |
6484 | 6081003c | निर्यान्तु रथसंघैश्च पादातैश्चोपशोभिताः |
6485 | 6081004a | एकं रामं परिक्षिप्य समरे हन्तुमर्हथ |
6486 | 6081004c | प्रहृष्टा शरवर्षेण प्रावृट्काल इवाम्बुदाः |
6487 | 6081005a | अथ वाहं शरैर्तीक्ष्णैर्भिन्नगात्रं महारणे |
6488 | 6081005c | भवद्भिः श्वो निहन्तास्मि रामं लोकस्य पश्यतः |
6489 | 6081006a | इत्येवं राक्षसेन्द्रस्य वाक्यमादाय राक्षसाः |
6490 | 6081006c | निर्ययुस्ते रथैः शीघ्रं नागानीकैश्च संवृताः |
6491 | 6081007a | स संग्रामो महाभीमः सूर्यस्योदयनं प्रति |
6492 | 6081007c | रक्षसां वानराणां च तुमुलः समपद्यत |
6493 | 6081008a | ते गदाभिर्विचित्राभिः प्रासैः खड्गैः परश्वधैः |
6494 | 6081008c | अन्योन्यं समरे जघ्नुस्तदा वानरराक्षसाः |
6495 | 6081009a | मातंगरथकूलस्य वाजिमत्स्या ध्वजद्रुमाः |
6496 | 6081009c | शरीरसंघाटवहाः प्रसस्रुः शोणितापगाः |
6497 | 6081010a | ध्वजवर्मरथानश्वान्नानाप्रहरणानि च |
6498 | 6081010c | आप्लुत्याप्लुत्य समरे वानरेन्द्रा बभञ्जिरे |
6499 | 6081011a | केशान्कर्णललाटांश्च नासिकाश्च प्लवंगमाः |
6500 | 6081011c | रक्षसां दशनैस्तीक्ष्णैर्नखैश्चापि व्यकर्तयन् |
6501 | 6081012a | एकैकं राक्षसं संख्ये शतं वानरपुंगवाः |
6502 | 6081012c | अभ्यधावन्त फलिनं वृक्षं शकुनयो यथा |
6503 | 6081013a | तथा गदाभिर्गुर्वीभिः प्रासैः खड्गैः परश्वधैः |
6504 | 6081013c | निर्जघ्नुर्वानरान्घोरान्राक्षसाः पर्वतोपमाः |
6505 | 6081014a | राक्षसैर्वध्यमानानां वानराणां महाचमूः |
6506 | 6081014c | शरण्यं शरणं याता रामं दशरथात्मजम् |
6507 | 6081015a | ततो रामो महातेजा धनुरादाय वीर्यवान् |
6508 | 6081015c | प्रविश्य राक्षसं सैन्यं शरवर्षं ववर्ष ह |
6509 | 6081016a | प्रविष्टं तु तदा रामं मेघाः सूर्यमिवाम्बरे |
6510 | 6081016c | नाभिजग्मुर्महाघोरं निर्दहन्तं शराग्निना |
6511 | 6081017a | कृतान्येव सुघोराणि रामेण रजनीचराः |
6512 | 6081017c | रणे रामस्य ददृशुः कर्माण्यसुकराणि च |
6513 | 6081018a | चालयन्तं महानीकं विधमन्तं महारथान् |
6514 | 6081018c | ददृशुस्ते न वै रामं वातं वनगतं यथा |
6515 | 6081019a | छिन्नं भिन्नं शरैर्दग्धं प्रभग्नं शस्त्रपीडितम् |
6516 | 6081019c | बलं रामेण ददृशुर्न रमं शीघ्रकारिणम् |
6517 | 6081020a | प्रहरन्तं शरीरेषु न ते पश्यन्ति राघवम् |
6518 | 6081020c | इन्द्रियार्थेषु तिष्ठन्तं भूतात्मानमिव प्रजाः |
6519 | 6081021a | एष हन्ति गजानीकमेष हन्ति महारथान् |
6520 | 6081021c | एष हन्ति शरैस्तीक्ष्णैः पदातीन्वाजिभिः सह |
6521 | 6081022a | इति ते राक्षसाः सर्वे रामस्य सदृशान्रणे |
6522 | 6081022c | अन्योन्यकुपिता जघ्नुः सादृश्याद्राघवस्य ते |
6523 | 6081023a | न ते ददृशिरे रामं दहन्तमरिवाहिनीम् |
6524 | 6081023c | मोहिताः परमास्त्रेण गान्धर्वेण महात्मना |
6525 | 6081024a | ते तु रामसहस्राणि रणे पश्यन्ति राक्षसाः |
6526 | 6081024c | पुनः पश्यन्ति काकुत्स्थमेकमेव महाहवे |
6527 | 6081025a | भ्रमन्तीं काञ्चनीं कोटिं कार्मुकस्य महात्मनः |
6528 | 6081025c | अलातचक्रप्रतिमां ददृशुस्ते न राघवम् |
6529 | 6081026a | शरीरनाभि सत्त्वार्चिः शरीरं नेमिकार्मुकम् |
6530 | 6081026c | ज्याघोषतलनिर्घोषं तेजोबुद्धिगुणप्रभम् |
6531 | 6081027a | दिव्यास्त्रगुणपर्यन्तं निघ्नन्तं युधि राक्षसान् |
6532 | 6081027c | ददृशू रामचक्रं तत्कालचक्रमिव प्रजाः |
6533 | 6081028a | अनीकं दशसाहस्रं रथानां वातरंहसाम् |
6534 | 6081028c | अष्टादशसहस्राणि कुञ्जराणां तरस्विनाम् |
6535 | 6081029a | चतुर्दशसहस्राणि सारोहाणां च वाजिनाम् |
6536 | 6081029c | पूर्णे शतसहस्रे द्वे राक्षसानां पदातिनाम् |
6537 | 6081030a | दिवसस्याष्टमे भागे शरैरग्निशिखोपमैः |
6538 | 6081030c | हतान्येकेन रामेण रक्षसां कामरूपिणाम् |
6539 | 6081031a | ते हताश्वा हतरथाः श्रान्ता विमथितध्वजाः |
6540 | 6081031c | अभिपेतुः पुरीं लङ्कां हतशेषा निशाचराः |
6541 | 6081032a | हतैर्गजपदात्यश्वैस्तद्बभूव रणाजिरम् |
6542 | 6081032c | आक्रीडभूमी रुद्रस्य क्रुद्धस्येव पिनाकिनः |
6543 | 6081033a | ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः |
6544 | 6081033c | साधु साध्विति रामस्य तत्कर्म समपूजयन् |
6545 | 6081034a | अब्रवीच्च तदा रामः सुग्रीवं प्रत्यनन्तरम् |
6546 | 6081034c | एतदस्त्रबलं दिव्यं मम वा त्र्यम्बकस्य वा |
6547 | 6081035a | निहत्य तां राक्षसवाहिनीं तु; रामस्तदा शक्रसमो महात्मा |
6548 | 6081035c | अस्त्रेषु शस्त्रेषु जितक्लमश्च; संस्तूयते देवगणैः प्रहृष्टैः |
6549 | 6082001a | तानि नागसहस्राणि सारोहाणां च वाजिनाम् |
6550 | 6082001c | रथानां चाग्निवर्णानां सध्वजानां सहस्रशः |
6551 | 6082002a | राक्षसानां सहस्राणि गदापरिघयोधिनाम् |
6552 | 6082002c | काञ्चनध्वजचित्राणां शूराणां कामरूपिणाम् |
6553 | 6082003a | निहतानि शरैस्तीक्ष्णैस्तप्तकाञ्चनभूषणैः |
6554 | 6082003c | रावणेन प्रयुक्तानि रामेणाक्लिष्टकर्मणा |
6555 | 6082004a | दृष्ट्वा श्रुत्वा च संभ्रान्ता हतशेषा निशाचराः |
6556 | 6082004c | राक्षस्यश्च समागम्य दीनाश्चिन्तापरिप्लुताः |
6557 | 6082005a | विधवा हतपुत्राश्च क्रोशन्त्यो हतबान्धवाः |
6558 | 6082005c | राक्षस्यः सह संगम्य दुःखार्ताः पर्यदेवयन् |
6559 | 6082006a | कथं शूर्पणखा वृद्धा कराला निर्णतोदरी |
6560 | 6082006c | आससाद वने रामं कन्दर्पमिव रूपिणम् |
6561 | 6082007a | सुकुमारं महासत्त्वं सर्वभूतहिते रतम् |
6562 | 6082007c | तं दृष्ट्वा लोकवध्या सा हीनरूपा प्रकामिता |
6563 | 6082008a | कथं सर्वगुणैर्हीना गुणवन्तं महौजसं |
6564 | 6082008c | सुमुखं दुर्मुखी रामं कामयामास राक्षसी |
6565 | 6082009a | जनस्यास्याल्पभाग्यत्वात्पलिनी श्वेतमूर्धजा |
6566 | 6082009c | अकार्यमपहास्यं च सर्वलोकविगर्हितम् |
6567 | 6082010a | राक्षसानां विनाशाय दूषणस्य खरस्य च |
6568 | 6082010c | चकाराप्रतिरूपा सा राघवस्य प्रधर्षणम् |
6569 | 6082011a | तन्निमित्तमिदं वैरं रावणेन कृतं महत् |
6570 | 6082011c | वधाय नीता सा सीता दशग्रीवेण रक्षसा |
6571 | 6082012a | न च सीतां दशग्रीवः प्राप्नोति जनकात्मजाम् |
6572 | 6082012c | बद्धं बलवता वैरमक्षयं राघवेण ह |
6573 | 6082013a | वैदेहीं प्रार्थयानं तं विराधं प्रेक्ष्य राक्षसं |
6574 | 6082013c | हतमेकेन रामेण पर्याप्तं तन्निदर्शनम् |
6575 | 6082014a | चतुर्दशसहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम् |
6576 | 6082014c | निहतानि जनस्थाने शरैरग्निशिखोपमैः |
6577 | 6082015a | खरश्च निहतः संख्ये दूषणस्त्रिशिरास्तथा |
6578 | 6082015c | शरैरादित्यसंकाशैः पर्याप्तं तन्निदर्शनम् |
6579 | 6082016a | हतो योजनबाहुश्च कबन्धो रुधिराशनः |
6580 | 6082016c | क्रोधार्तो विनदन्सोऽथ पर्याप्तं तन्निदर्शनम् |
6581 | 6082017a | जघान बलिनं रामः सहस्रनयनात्मजम् |
6582 | 6082017c | बालिनं मेघसंकाशं पर्याप्तं तन्निदर्शनम् |
6583 | 6082018a | ऋश्यमूके वसञ्शैले दीनो भग्नमनोरथः |
6584 | 6082018c | सुग्रीवः स्थापितो राज्ये पर्याप्तं तन्निदर्शनम् |
6585 | 6082019a | धर्मार्थसहितं वाक्यं सर्वेषां रक्षसां हितम् |
6586 | 6082019c | युक्तं विभीषणेनोक्तं मोहात्तस्य न रोचते |
6587 | 6082020a | विभीषणवचः कुर्याद्यदि स्म धनदानुजः |
6588 | 6082020c | श्मशानभूता दुःखार्ता नेयं लङ्का पुरी भवेत् |
6589 | 6082021a | कुम्भकर्णं हतं श्रुत्वा राघवेण महाबलम् |
6590 | 6082021c | प्रियं चेन्द्रजितं पुत्रं रावणो नावबुध्यते |
6591 | 6082022a | मम पुत्रो मम भ्राता मम भर्ता रणे हतः |
6592 | 6082022c | इत्येवं श्रूयते शब्दो राक्षसानां कुले कुले |
6593 | 6082023a | रथाश्चाश्वाश्च नागाश्च हताः शतसहस्रशः |
6594 | 6082023c | रणे रामेण शूरेण राक्षसाश्च पदातयः |
6595 | 6082024a | रुद्रो वा यदि वा विष्णुर्महेन्द्रो वा शतक्रतुः |
6596 | 6082024c | हन्ति नो रामरूपेण यदि वा स्वयमन्तकः |
6597 | 6082025a | हतप्रवीरा रामेण निराशा जीविते वयम् |
6598 | 6082025c | अपश्यन्त्यो भयस्यान्तमनाथा विलपामहे |
6599 | 6082026a | रामहस्ताद्दशग्रीवः शूरो दत्तवरो युधि |
6600 | 6082026c | इदं भयं महाघोरमुत्पन्नं नावबुध्यते |
6601 | 6082027a | न देवा न च गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः |
6602 | 6082027c | उपसृष्टं परित्रातुं शक्ता रामेण संयुगे |
6603 | 6082028a | उत्पाताश्चापि दृश्यन्ते रावणस्य रणे रणे |
6604 | 6082028c | कथयिष्यन्ति रामेण रावणस्य निबर्हणम् |
6605 | 6082029a | पितामहेन प्रीतेन देवदानवराक्षसैः |
6606 | 6082029c | रावणस्याभयं दत्तं मानुषेभ्यो न याचितम् |
6607 | 6082030a | तदिदं मानुषान्मन्ये प्राप्तं निःसंशयं भयम् |
6608 | 6082030c | जीवितान्तकरं घोरं रक्षसां रावणस्य च |
6609 | 6082031a | पीड्यमानास्तु बलिना वरदानेन रक्षसा |
6610 | 6082031c | दीप्तैस्तपोभिर्विबुधाः पितामहमपूजयन् |
6611 | 6082032a | देवतानां हितार्थाय महात्मा वै पितामहः |
6612 | 6082032c | उवाच देवताः सर्वा इदं तुष्टो महद्वचः |
6613 | 6082033a | अद्य प्रभृति लोकांस्त्रीन्सर्वे दानवराक्षसाः |
6614 | 6082033c | भयेन प्रावृता नित्यं विचरिष्यन्ति शाश्वतम् |
6615 | 6082034a | दैवतैस्तु समागम्य सर्वैश्चेन्द्रपुरोगमैः |
6616 | 6082034c | वृषध्वजस्त्रिपुरहा महादेवः प्रसादितः |
6617 | 6082035a | प्रसन्नस्तु महादेवो देवानेतद्वचोऽब्रवीत् |
6618 | 6082035c | उत्पत्स्यति हितार्थं वो नारी रक्षःक्षयावहा |
6619 | 6082036a | एषा देवैः प्रयुक्ता तु क्षुद्यथा दानवान्पुरा |
6620 | 6082036c | भक्षयिष्यति नः सीता राक्षसघ्नी सरावणान् |
6621 | 6082037a | रावणस्यापनीतेन दुर्विनीतस्य दुर्मतेः |
6622 | 6082037c | अयं निष्टानको घोरः शोकेन समभिप्लुतः |
6623 | 6082038a | तं न पश्यामहे लोके यो नः शरणदो भवेत् |
6624 | 6082038c | राघवेणोपसृष्टानां कालेनेव युगक्षये |
6625 | 6082039a | इतीव सर्वा रजनीचरस्त्रियः; परस्परं संपरिरभ्य बाहुभिः |
6626 | 6082039c | विषेदुरार्तातिभयाभिपीडिता; विनेदुरुच्चैश्च तदा सुदारुणम् |
6627 | 6083001a | आर्तानां राक्षसीनां तु लङ्कायां वै कुले कुले |
6628 | 6083001c | रावणः करुणं शब्दं शुश्राव परिवेदितम् |
6629 | 6083002a | स तु दीर्घं विनिश्वस्य मुहूर्तं ध्यानमास्थितः |
6630 | 6083002c | बभूव परमक्रुद्धो रावणो भीमदर्शनः |
6631 | 6083003a | संदश्य दशनैरोष्ठं क्रोधसंरक्तलोचनः |
6632 | 6083003c | राक्षसैरपि दुर्दर्शः कालाग्निरिव मूर्छितः |
6633 | 6083004a | उवाच च समीपस्थान्राक्षसान्राक्षसेश्वरः |
6634 | 6083004c | भयाव्यक्तकथांस्तत्र निर्दहन्निव चक्षुषा |
6635 | 6083005a | महोदरं महापार्श्वं विरूपाक्षं च राक्षसं |
6636 | 6083005c | शीघ्रं वदत सैन्यानि निर्यातेति ममाज्ञया |
6637 | 6083006a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राक्षसास्ते भयार्दिताः |
6638 | 6083006c | चोदयामासुरव्यग्रान्राक्षसांस्तान्नृपाज्ञया |
6639 | 6083007a | ते तु सर्वे तथेत्युक्त्वा राक्षसा घोरदर्शनाः |
6640 | 6083007c | कृतस्वस्त्ययनाः सर्वे रावणाभिमुखा ययुः |
6641 | 6083008a | प्रतिपूज्य यथान्यायं रावणं ते महारथाः |
6642 | 6083008c | तस्थुः प्राञ्जलयः सर्वे भर्तुर्विजयकाङ्क्षिणः |
6643 | 6083009a | अथोवाच प्रहस्यैतान्रावणः क्रोधमूर्छितः |
6644 | 6083009c | महोदरमहापार्श्वौ विरूपाक्षं च राक्षसं |
6645 | 6083010a | अद्य बाणैर्धनुर्मुक्तैर्युगान्तादित्यसंनिभैः |
6646 | 6083010c | राघवं लक्ष्मणं चैव नेष्यामि यमसाधनम् |
6647 | 6083011a | खरस्य कुम्भकर्णस्य प्रहस्तेन्द्रजितोस्तथा |
6648 | 6083011c | करिष्यामि प्रतीकारमद्य शत्रुवधादहम् |
6649 | 6083012a | नैवान्तरिक्षं न दिशो न नद्यो नापि सागरः |
6650 | 6083012c | प्रकाशत्वं गमिष्यन्ति मद्बाणजलदावृताः |
6651 | 6083013a | अद्य वानरयूथानां तानि यूथानि भागशः |
6652 | 6083013c | धनुःसमुद्रादुद्भूतैर्मथिष्यामि शरोर्मिभिः |
6653 | 6083014a | व्याकोशपद्मचक्राणि पद्मकेसरवर्चसाम् |
6654 | 6083014c | अद्य यूथतटाकानि गजवत्प्रमथाम्यहम् |
6655 | 6083015a | सशरैरद्य वदनैः संख्ये वानरयूथपाः |
6656 | 6083015c | मण्डयिष्यन्ति वसुधां सनालैरिव पङ्कलैः |
6657 | 6083016a | अद्य युद्धप्रचण्डानां हरीणां द्रुमयोधिनाम् |
6658 | 6083016c | मुक्तेनैकेषुणा युद्धे भेत्स्यामि च शतंशतम् |
6659 | 6083017a | हतो भर्ता हतो भ्राता यासां च तनया हताः |
6660 | 6083017c | वधेनाद्य रिपोस्तासां कर्मोम्यस्रप्रमार्जनम् |
6661 | 6083018a | अद्य मद्बाणनिर्भिन्नैः प्रकीर्णैर्गतचेतनैः |
6662 | 6083018c | करोमि वानरैर्युद्धे यत्नावेक्ष्यतलां महीम् |
6663 | 6083019a | अद्य गोमायवो गृध्रा ये च मांसाशिनोऽपरे |
6664 | 6083019c | सर्वांस्तांस्तर्पयिष्यामि शत्रुमांसैः शरार्दितैः |
6665 | 6083020a | कल्प्यतां मे रथशीघ्रं क्षिप्रमानीयतां धनुः |
6666 | 6083020c | अनुप्रयान्तु मां युद्धे येऽवशिष्टा निशाचराः |
6667 | 6083021a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा महापार्श्वोऽब्रवीद्वचः |
6668 | 6083021c | बलाध्यक्षान्स्थितांस्तत्र बलं संत्वर्यतामिति |
6669 | 6083022a | बलाध्यक्षास्तु संरब्धा राक्षसांस्तान्गृहाद्गृहात् |
6670 | 6083022c | चोदयन्तः परिययुर्लङ्कां लघुपराक्रमाः |
6671 | 6083023a | ततो मुहूर्तान्निष्पेतू राक्षसा भीमविक्रमाः |
6672 | 6083023c | नर्दन्तो भीमवदना नानाप्रहरणैर्भुजैः |
6673 | 6083024a | असिभिः पट्टसैः शूलैर्गलाभिर्मुसलैर्हलैः |
6674 | 6083024c | शक्तिभिस्तीक्ष्णधाराभिर्महद्भिः कूटमुद्गरैः |
6675 | 6083025a | यष्टिभिर्विमलैश्चक्रैर्निशितैश्च परश्वधैः |
6676 | 6083025c | भिण्डिपालैः शतघ्नीभिरन्यैश्चापि वरायुधैः |
6677 | 6083026a | अथानयन्बलाध्यक्षाश्चत्वारो रावणाज्ञया |
6678 | 6083026c | द्रुतं सूतसमायुक्तं युक्ताष्टतुरगं रथम् |
6679 | 6083027a | आरुरोह रथं दिव्यं दीप्यमानं स्वतेजसा |
6680 | 6083027c | रावणः सत्त्वगाम्भीर्याद्दारयन्निव मेदिनीम् |
6681 | 6083028a | रावणेनाभ्यनुज्ञातौ महापार्श्वमहोदरौ |
6682 | 6083028c | विरूपाक्षश्च दुर्धर्षो रथानारुरुहुस्तदा |
6683 | 6083029a | ते तु हृष्टा विनर्दन्तो भिन्दन्त इव मेदिनीम् |
6684 | 6083029c | नादं घोरं विमुञ्चन्तो निर्ययुर्जयकाङ्क्षिणः |
6685 | 6083030a | ततो युद्धाय तेजस्वी रक्षोगणबलैर्वृतः |
6686 | 6083030c | निर्ययावुद्यतधनुः कालान्तकयमोमपः |
6687 | 6083031a | ततः प्रजवनाश्वेन रथेन स महारथः |
6688 | 6083031c | द्वारेण निर्ययौ तेन यत्र तौ रामलक्ष्मणौ |
6689 | 6083032a | ततो नष्टप्रभः सूर्यो दिशश्च तिमिरावृताः |
6690 | 6083032c | द्विजाश्च नेदुर्घोराश्च संचचाल च मेदिनी |
6691 | 6083033a | ववर्ष रुधिरं देवश्चस्खलुश्च तुरंगमाः |
6692 | 6083033c | ध्वजाग्रे न्यपतद्गृध्रो विनेदुश्चाशिवं शिवाः |
6693 | 6083034a | नयनं चास्फुरद्वामं सव्यो बाहुरकम्पत |
6694 | 6083034c | विवर्णवदनश्चासीत्किंचिदभ्रश्यत स्वरः |
6695 | 6083035a | ततो निष्पततो युद्धे दशग्रीवस्य रक्षसः |
6696 | 6083035c | रणे निधनशंसीनि रूपाण्येतानि जज्ञिरे |
6697 | 6083036a | अन्तरिक्षात्पपातोल्का निर्घातसमनिस्वना |
6698 | 6083036c | विनेदुरशिवं गृध्रा वायसैरनुनादिताः |
6699 | 6083037a | एतानचिन्तयन्घोरानुत्पातान्समुपस्थितान् |
6700 | 6083037c | निर्ययौ रावणो मोहाद्वधार्थी कालचोदितः |
6701 | 6083038a | तेषां तु रथघोषेण राक्षसानां महात्मनाम् |
6702 | 6083038c | वानराणामपि चमूर्युद्धायैवाभ्यवर्तत |
6703 | 6083039a | तेषां सुतुमुलं युद्धं बभूव कपिरक्षसाम् |
6704 | 6083039c | अन्योन्यमाह्वयानानां क्रुद्धानां जयमिच्छताम् |
6705 | 6083040a | ततः क्रुद्धो दशग्रीवः शरैः काञ्चनभूषणैः |
6706 | 6083040c | वानराणामनीकेषु चकार कदनं महत् |
6707 | 6083041a | निकृत्तशिरसः केचिद्रावणेन वलीमुखाः |
6708 | 6083041c | निरुच्छ्वासा हताः केचित्केचित्पार्श्वेषु दारिताः |
6709 | 6083041e | केचिद्विभिन्नशिरसः केचिच्चक्षुर्विवर्जिताः |
6710 | 6083042a | दशाननः क्रोधविवृत्तनेत्रो; यतो यतोऽभ्येति रथेन संख्ये |
6711 | 6083042c | ततस्ततस्तस्य शरप्रवेगं; सोढुं न शेकुर्हरियूथपास्ते |
6712 | 6084001a | तथा तैः कृत्तगात्रैस्तु दशग्रीवेण मार्गणैः |
6713 | 6084001c | बभूव वसुधा तत्र प्रकीर्णा हरिभिर्वृता |
6714 | 6084002a | रावणस्याप्रसह्यं तं शरसंपातमेकतः |
6715 | 6084002c | न शेकुः सहितुं दीप्तं पतंगा इव पावकम् |
6716 | 6084003a | तेऽर्दिता निशितैर्बाणैः क्रोशन्तो विप्रदुद्रुवुः |
6717 | 6084003c | पावकार्चिःसमाविष्टा दह्यमाना यथा गजाः |
6718 | 6084004a | प्लवंगानामनीकानि महाभ्राणीव मारुतः |
6719 | 6084004c | स ययौ समरे तस्मिन्विधमन्रावणः शरैः |
6720 | 6084005a | कदनं तरसा कृत्वा राक्षसेन्द्रो वनौकसाम् |
6721 | 6084005c | आससाद ततो युद्धे राघवं त्वरितस्तदा |
6722 | 6084006a | सुग्रीवस्तान्कपीन्दृष्ट्वा भग्नान्विद्रवतो रणे |
6723 | 6084006c | गुल्मे सुषेणं निक्षिप्य चक्रे युद्धे द्रुतं मनः |
6724 | 6084007a | आत्मनः सदृशं वीरं स तं निक्षिप्य वानरम् |
6725 | 6084007c | सुग्रीवोऽभिमुखः शत्रुं प्रतस्थे पादपायुधः |
6726 | 6084008a | पार्श्वतः पृष्ठतश्चास्य सर्वे यूथाधिपाः स्वयम् |
6727 | 6084008c | अनुजह्रुर्महाशैलान्विविधांश्च महाद्रुमान् |
6728 | 6084009a | स नदन्युधि सुग्रीवः स्वरेण महता महान् |
6729 | 6084009c | पातयन्विविधांश्चान्याञ्जघानोत्तमराक्षसान् |
6730 | 6084010a | ममर्द च महाकायो राक्षसान्वानरेश्वरः |
6731 | 6084010c | युगान्तसमये वायुः प्रवृद्धानगमानिव |
6732 | 6084011a | राक्षसानामनीकेषु शैलवर्षं ववर्ष ह |
6733 | 6084011c | अश्मवर्षं यथा मेघः पक्षिसंघेषु कानने |
6734 | 6084012a | कपिराजविमुक्तैस्तैः शैलवर्षैस्तु राक्षसाः |
6735 | 6084012c | विकीर्णशिरसः पेतुर्निकृत्ता इव पर्वताः |
6736 | 6084013a | अथ संक्षीयमाणेषु राक्षसेषु समन्ततः |
6737 | 6084013c | सुग्रीवेण प्रभग्नेषु पतत्सु विनदत्सु च |
6738 | 6084014a | विरूपाक्षः स्वकं नाम धन्वी विश्राव्य राक्षसः |
6739 | 6084014c | रथादाप्लुत्य दुर्धर्षो गजस्कन्धमुपारुहत् |
6740 | 6084015a | स तं द्विरदमारुह्य विरूपाक्षो महारथः |
6741 | 6084015c | विनदन्भीमनिर्ह्रालं वानरानभ्यधावत |
6742 | 6084016a | सुग्रीवे स शरान्घोरान्विससर्ज चमूमुखे |
6743 | 6084016c | स्थापयामासा चोद्विग्नान्राक्षसान्संप्रहर्षयन् |
6744 | 6084017a | सोऽतिविद्धः शितैर्बाणैः कपीन्द्रस्तेन रक्षसा |
6745 | 6084017c | चुक्रोध च महाक्रोधो वधे चास्य मनो दधे |
6746 | 6084018a | ततः पादपमुद्धृत्य शूरः संप्रधने हरिः |
6747 | 6084018c | अभिपत्य जघानास्य प्रमुखे तं महागजम् |
6748 | 6084019a | स तु प्रहाराभिहतः सुग्रीवेण महागजः |
6749 | 6084019c | अपासर्पद्धनुर्मात्रं निषसाद ननाद च |
6750 | 6084020a | गजात्तु मथितात्तूर्णमपक्रम्य स वीर्यवान् |
6751 | 6084020c | राक्षसोऽभिमुखः शत्रुं प्रत्युद्गम्य ततः कपिम् |
6752 | 6084021a | आर्षभं चर्मखड्गं च प्रगृह्य लघुविक्रमः |
6753 | 6084021c | भर्त्सयन्निव सुग्रीवमाससाद व्यवस्थितम् |
6754 | 6084022a | स हि तस्याभिसंक्रुद्धः प्रगृह्य महतीं शिलाम् |
6755 | 6084022c | विरूपाक्षाय चिक्षेप सुग्रीवो जलदोपमाम् |
6756 | 6084023a | स तां शिलामापतन्तीं दृष्ट्वा राक्षसपुंगवः |
6757 | 6084023c | अपक्रम्य सुविक्रान्तः खड्गेन प्राहरत्तदा |
6758 | 6084024a | तेन खड्गेन संक्रुद्धः सुग्रीवस्य चमूमुखे |
6759 | 6084024c | कवचं पातयामास स खड्गाभिहतोऽपतत् |
6760 | 6084025a | स समुत्थाय पतितः कपिस्तस्य व्यसर्जयत् |
6761 | 6084025c | तलप्रहारमशनेः समानं भीमनिस्वनम् |
6762 | 6084026a | तलप्रहारं तद्रक्षः सुग्रीवेण समुद्यतम् |
6763 | 6084026c | नैपुण्यान्मोचयित्वैनं मुष्टिनोरस्यताडयत् |
6764 | 6084027a | ततस्तु संक्रुद्धतरः सुग्रीवो वानरेश्वरः |
6765 | 6084027c | मोक्षितं चात्मनो दृष्ट्वा प्रहारं तेन रक्षसा |
6766 | 6084028a | स ददर्शान्तरं तस्य विरूपाक्षस्य वानरः |
6767 | 6084028c | ततो न्यपातयत्क्रोधाच्छङ्खदेशे महातलम् |
6768 | 6084029a | महेन्द्राशनिकल्पेन तलेनाभिहतः क्षितौ |
6769 | 6084029c | पपात रुधिरक्लिन्नः शोणितं स समुद्वमन् |
6770 | 6084030a | विवृत्तनयनं क्रोधात्सफेनरुधिराप्लुतम् |
6771 | 6084030c | ददृशुस्ते विरूपाक्षं विरूपाक्षतरं कृतम् |
6772 | 6084031a | स्फुरन्तं परिवर्जन्तं पार्श्वेन रुधिरोक्षितम् |
6773 | 6084031c | करुणं च विनर्दान्तं ददृशुः कपयो रिपुम् |
6774 | 6084032a | तथा तु तौ संयति संप्रयुक्तौ; तरस्विनौ वानरराक्षसानाम् |
6775 | 6084032c | बलार्णवौ सस्वनतुः सभीमं; महार्णवौ द्वाविव भिन्नवेलौ |
6776 | 6084033a | विनाशितं प्रेक्ष्य विरूपनेत्रं; महाबलं तं हरिपार्थिवेन |
6777 | 6084033c | बलं समस्तं कपिराक्षसाना;मुन्मत्तगङ्गाप्रतिमं बभूव |
6778 | 6085001a | हन्यमाने बले तूर्णमन्योन्यं ते महामृधे |
6779 | 6085001c | सरसीव महाघर्मे सूपक्षीणे बभूवतुः |
6780 | 6085002a | स्वबलस्य विघातेन विरूपाक्षवधेन च |
6781 | 6085002c | बभूव द्विगुणं क्रुद्धो रावणो राक्षसाधिपः |
6782 | 6085003a | प्रक्षीणं तु बलं दृष्ट्वा वध्यमानं वलीमुखैः |
6783 | 6085003c | बभूवास्य व्यथा युद्धे प्रेक्ष्य दैवविपर्ययम् |
6784 | 6085004a | उवाच च समीपस्थं महोदरमरिंदमम् |
6785 | 6085004c | अस्मिन्काले महाबाहो जयाशा त्वयि मे स्थिता |
6786 | 6085005a | जहि शत्रुचमूं वीर दर्शयाद्य पराक्रमम् |
6787 | 6085005c | भर्तृपिण्डस्य कालोऽयं निर्वेष्टुं साधु युध्यताम् |
6788 | 6085006a | एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा राक्षसेन्द्रं महोदरः |
6789 | 6085006c | प्रविवेशारिसेनां स पतंग इव पावकम् |
6790 | 6085007a | ततः स कदनं चक्रे वानराणां महाबलः |
6791 | 6085007c | भर्तृवाक्येन तेजस्वी स्वेन वीर्येण चोदितः |
6792 | 6085008a | प्रभग्नां समरे दृष्ट्वा वानराणां महाचमूम् |
6793 | 6085008c | अभिदुद्राव सुग्रीवो महोदरमनन्तरम् |
6794 | 6085009a | प्रगृह्य विपुलां घोरां महीधरसमां शिलाम् |
6795 | 6085009c | चिक्षेप च महातेजास्तद्वधाय हरीश्वरः |
6796 | 6085010a | तामापतन्तीं सहसा शिलां दृष्ट्वा महोदरः |
6797 | 6085010c | असंभ्रान्तस्ततो बाणैर्निर्बिभेद दुरासदाम् |
6798 | 6085011a | रक्षसा तेन बाणौघैर्निकृत्ता सा सहस्रधा |
6799 | 6085011c | निपपात शिला भूमौ गृध्रचक्रमिवाकुलम् |
6800 | 6085012a | तां तु भिन्नां शिलां दृष्ट्वा सुग्रीवः क्रोधमूर्छितः |
6801 | 6085012c | सालमुत्पाट्य चिक्षेप रक्षसे रणमूर्धनि |
6802 | 6085012e | शरैश्च विददारैनं शूरः परपुरंजयः |
6803 | 6085013a | स ददर्श ततः क्रुद्धः परिघं पतितं भुवि |
6804 | 6085013c | आविध्य तु स तं दीप्तं परिघं तस्य दर्शयन् |
6805 | 6085013e | परिघाग्रेण वेगेन जघानास्य हयोत्तमान् |
6806 | 6085014a | तस्माद्धतहयाद्वीरः सोऽवप्लुत्य महारथात् |
6807 | 6085014c | गदां जग्राह संक्रुद्धो राक्षसोऽथ महोदरः |
6808 | 6085015a | गदापरिघहस्तौ तौ युधि वीरौ समीयतुः |
6809 | 6085015c | नर्दन्तौ गोवृषप्रख्यौ घनाविव सविद्युतौ |
6810 | 6085016a | आजघान गदां तस्य परिघेण हरीश्वरः |
6811 | 6085016c | पपात स गदोद्भिन्नः परिघस्तस्य भूतले |
6812 | 6085017a | ततो जग्राह तेजस्वी सुग्रीवो वसुधातलात् |
6813 | 6085017c | आयसं मुसलं घोरं सर्वतो हेमभूषितम् |
6814 | 6085018a | तं समुद्यम्य चिक्षेप सोऽप्यन्यां व्याक्षिपद्गदाम् |
6815 | 6085018c | भिन्नावन्योन्यमासाद्य पेततुर्धरणीतले |
6816 | 6085019a | ततो भग्नप्रहरणौ मुष्टिभ्यां तौ समीयतुः |
6817 | 6085019c | तेजोबलसमाविष्टौ दीप्ताविव हुताशनौ |
6818 | 6085020a | जघ्नतुस्तौ तदान्योन्यं नेदतुश्च पुनः पुनः |
6819 | 6085020c | तलैश्चान्योन्यमाहत्य पेततुर्धरणीतले |
6820 | 6085021a | उत्पेततुस्ततस्तूर्णं जघ्नतुश्च परस्परम् |
6821 | 6085021c | भुजैश्चिक्षेपतुर्वीरावन्योन्यमपराजितौ |
6822 | 6085022a | आजहार तदा खड्गमदूरपरिवर्तिनम् |
6823 | 6085022c | राक्षसश्चर्मणा सार्धं महावेगो महोदरः |
6824 | 6085023a | तथैव च महाखड्गं चर्मणा पतितं सह |
6825 | 6085023c | जग्राह वानरश्रेष्ठः सुग्रीवो वेगवत्तरः |
6826 | 6085024a | तौ तु रोषपरीताङ्गौ नर्दन्तावभ्यधावताम् |
6827 | 6085024c | उद्यतासी रणे हृष्टौ युधि शस्त्रविशारदौ |
6828 | 6085025a | दक्षिणं मण्डलं चोभौ तौ तूर्णं संपरीयतुः |
6829 | 6085025c | अन्योन्यमभिसंक्रुद्धौ जये प्रणिहितावुभौ |
6830 | 6085026a | स तु शूरो महावेगो वीर्यश्लाघी महोदरः |
6831 | 6085026c | महाचर्मणि तं खड्गं पातयामास दुर्मतिः |
6832 | 6085027a | लग्नमुत्कर्षतः खड्गं खड्गेन कपिकुञ्जरः |
6833 | 6085027c | जहार सशिरस्त्राणं कुण्डलोपहितं शिरः |
6834 | 6085028a | निकृत्तशिरसस्तस्य पतितस्य महीतले |
6835 | 6085028c | तद्बलं राक्षसेन्द्रस्य दृष्ट्वा तत्र न तिष्ठति |
6836 | 6085029a | हत्वा तं वानरैः सार्धं ननाद मुदितो हरिः |
6837 | 6085029c | चुक्रोध च दशग्रीवो बभौ हृष्टश्च राघवः |
6838 | 6086001a | महोदरे तु निहते महापार्श्वो महाबलः |
6839 | 6086001c | अङ्गदस्य चमूं भीमां क्षोभयामास सायकैः |
6840 | 6086002a | स वानराणां मुख्यानामुत्तमाङ्गानि सर्वशः |
6841 | 6086002c | पातयामास कायेभ्यः फलं वृन्तादिवानिलः |
6842 | 6086003a | केषांचिदिषुभिर्बाहून्स्कन्धांश्चिछेद राक्षसः |
6843 | 6086003c | वानराणां सुसंक्रुद्धः पार्श्वं केषां व्यदारयत् |
6844 | 6086004a | तेऽर्दिता बाणवर्षेण महापार्श्वेन वानराः |
6845 | 6086004c | विषादविमुखाः सर्वे बभूवुर्गतचेतसः |
6846 | 6086005a | निरीक्ष्य बलमुद्विग्नमङ्गदो राक्षसार्दितम् |
6847 | 6086005c | वेगं चक्रे महाबाहुः समुद्र इव पर्वणि |
6848 | 6086006a | आयसं परिघं गृह्य सूर्यरश्मिसमप्रभम् |
6849 | 6086006c | समरे वानरश्रेष्ठो महापार्श्वे न्यपातयत् |
6850 | 6086007a | स तु तेन प्रहारेण महापार्श्वो विचेतनः |
6851 | 6086007c | ससूतः स्यन्दनात्तस्माद्विसंज्ञः प्रापतद्भुवि |
6852 | 6086008a | सर्क्षराजस्तु तेजस्वी नीलाञ्जनचयोपमः |
6853 | 6086008c | निष्पत्य सुमहावीर्यः स्वाद्यूथान्मेघसंनिभात् |
6854 | 6086009a | प्रगृह्य गिरिशृङ्गाभां क्रुद्धः स विपुलां शिलाम् |
6855 | 6086009c | अश्वाञ्जघान तरसा स्यन्दनं च बभञ्ज तम् |
6856 | 6086010a | मुहूर्ताल्लब्धसंज्ञस्तु महापार्श्वो महाबलः |
6857 | 6086010c | अङ्गदं बहुभिर्बाणैर्भूयस्तं प्रत्यविध्यत |
6858 | 6086011a | जाम्बवन्तं त्रिभिर्बाणैराजघान स्तनान्तरे |
6859 | 6086011c | ऋक्षराजं गवाक्षं च जघान बहुभिः शरैः |
6860 | 6086012a | गवाक्षं जाम्बवन्तं च स दृष्ट्वा शरपीडितौ |
6861 | 6086012c | जग्राह परिघं घोरमङ्गदः क्रोधमूर्छितः |
6862 | 6086013a | तस्याङ्गदः प्रकुपितो राक्षसस्य तमायसं |
6863 | 6086013c | दूरस्थितस्य परिघं रविरश्मिसमप्रभम् |
6864 | 6086014a | द्वाभ्यां भुजाभ्यां संगृह्य भ्रामयित्वा च वेगवान् |
6865 | 6086014c | महापार्श्वाय चिक्षेप वधार्थं वालिनः सुतः |
6866 | 6086015a | स तु क्षिप्तो बलवता परिघस्तस्य रक्षसः |
6867 | 6086015c | धनुश्च सशरं हस्ताच्छिरस्त्रं चाप्यपातयत् |
6868 | 6086016a | तं समासाद्य वेगेन वालिपुत्रः प्रतापवान् |
6869 | 6086016c | तलेनाभ्यहनत्क्रुद्धः कर्णमूले सकुण्डले |
6870 | 6086017a | स तु क्रुद्धो महावेगो महापार्श्वो महाद्युतिः |
6871 | 6086017c | करेणैकेन जग्राह सुमहान्तं परश्वधम् |
6872 | 6086018a | तं तैलधौतं विमलं शैलसारमयं दृढम् |
6873 | 6086018c | राक्षसः परमक्रुद्धो वालिपुत्रे न्यपातयत् |
6874 | 6086019a | तेन वामांसफलके भृशं प्रत्यवपातितम् |
6875 | 6086019c | अङ्गदो मोक्षयामास सरोषः स परश्वधम् |
6876 | 6086020a | स वीरो वज्रसंकाशमङ्गदो मुष्टिमात्मनः |
6877 | 6086020c | संवर्तयन्सुसंक्रुद्धः पितुस्तुल्यपराक्रमः |
6878 | 6086021a | राक्षसस्य स्तनाभ्याशे मर्मज्ञो हृदयं प्रति |
6879 | 6086021c | इन्द्राशनिसमस्पर्शं स मुष्टिं विन्यपातयत् |
6880 | 6086022a | तेन तस्य निपातेन राक्षसस्य महामृधे |
6881 | 6086022c | पफाल हृदयं चाशु स पपात हतो भुवि |
6882 | 6086023a | तस्मिन्निपतिते भूमौ तत्सैन्यं संप्रचुक्षुभे |
6883 | 6086023c | अभवच्च महान्क्रोधः समरे रावणस्य तु |
6884 | 6087001a | महोदरमहापार्श्वौ हतौ दृष्ट्वा तु राक्षसौ |
6885 | 6087001c | तस्मिंश्च निहते वीरे विरूपाक्षे महाबले |
6886 | 6087002a | आविवेश महान्क्रोधो रावणं तु महामृधे |
6887 | 6087002c | सूतं संचोदयामास वाक्यं चेदमुवाच ह |
6888 | 6087003a | निहतानाममात्यानां रुद्धस्य नगरस्य च |
6889 | 6087003c | दुःखमेषोऽपनेष्यामि हत्वा तौ रामलक्ष्मणौ |
6890 | 6087004a | रामवृक्षं रणे हन्मि सीतापुष्पफलप्रदम् |
6891 | 6087004c | प्रशाखा यस्य सुग्रीवो जाम्बवान्कुमुदो नलः |
6892 | 6087005a | स दिशो दश घोषेण रथस्यातिरथो महान् |
6893 | 6087005c | नादयन्प्रययौ तूर्णं राघवं चाभ्यवर्तत |
6894 | 6087006a | पूरिता तेन शब्देन सनदीगिरिकानना |
6895 | 6087006c | संचचाल मही सर्वा सवराहमृगद्विपा |
6896 | 6087007a | तामसं सुमहाघोरं चकारास्त्रं सुदारुणम् |
6897 | 6087007c | निर्ददाह कपीन्सर्वांस्ते प्रपेतुः समन्ततः |
6898 | 6087008a | तान्यनीकान्यनेकानि रावणस्य शरोत्तमैः |
6899 | 6087008c | दृष्ट्वा भग्नानि शतशो राघवः पर्यवस्थितः |
6900 | 6087009a | स ददर्श ततो रामं तिष्ठन्तमपराजितम् |
6901 | 6087009c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा विष्णुना वासवं यथा |
6902 | 6087010a | आलिखन्तमिवाकाशमवष्टभ्य महद्धनुः |
6903 | 6087010c | पद्मपत्रविशालाक्षं दीर्घबाहुमरिंदमम् |
6904 | 6087011a | वानरांश्च रणे भग्नानापतन्तं च रावणम् |
6905 | 6087011c | समीक्ष्य राघवो हृष्टो मध्ये जग्राह कार्मुकम् |
6906 | 6087012a | विस्फारयितुमारेभे ततः स धनुरुत्तमम् |
6907 | 6087012c | महावेगं महानादं निर्भिन्दन्निव मेदिनीम् |
6908 | 6087013a | तयोः शरपथं प्राप्य रावणो राजपुत्रयोः |
6909 | 6087013c | स बभूव यथा राहुः समीपे शशिसूर्ययोः |
6910 | 6087014a | रावणस्य च बाणौघै रामविस्फरितेन च |
6911 | 6087014c | शब्देन राक्षसास्तेन पेतुश्च शतशस्तदा |
6912 | 6087015a | तमिच्छन्प्रथमं योद्धुं लक्ष्मणो निशितैः शरैः |
6913 | 6087015c | मुमोच धनुरायम्य शरानग्निशिखोपमान् |
6914 | 6087016a | तान्मुक्तमात्रानाकाशे लक्ष्मणेन धनुष्मता |
6915 | 6087016c | बाणान्बाणैर्महातेजा रावणः प्रत्यवारयत् |
6916 | 6087017a | एकमेकेन बाणेन त्रिभिस्त्रीन्दशभिर्दश |
6917 | 6087017c | लक्ष्मणस्य प्रचिच्छेद दर्शयन्पाणिलाघवम् |
6918 | 6087018a | अभ्यतिक्रम्य सौमित्रिं रावणः समितिंजयः |
6919 | 6087018c | आससाद ततो रामं स्थितं शैलमिवाचलम् |
6920 | 6087019a | स संख्ये राममासाद्य क्रोधसंरक्तलोचनः |
6921 | 6087019c | व्यसृजच्छरवर्षानि रावणो राघवोपरि |
6922 | 6087020a | शरधारास्ततो रामो रावणस्य धनुश्च्युताः |
6923 | 6087020c | दृष्ट्वैवापतिताः शीघ्रं भल्लाञ्जग्राह सत्वरम् |
6924 | 6087021a | ताञ्शरौघांस्ततो भल्लैस्तीक्ष्णैश्चिच्छेद राघवः |
6925 | 6087021c | दीप्यमानान्महावेगान्क्रुद्धानाशीविषानिव |
6926 | 6087022a | राघवो रावणं तूर्णं रावणो राघवं तथा |
6927 | 6087022c | अन्योन्यं विविधैस्तीक्ष्णैः शरैरभिववर्षतुः |
6928 | 6087023a | चेरतुश्च चिरं चित्रं मण्डलं सव्यदक्षिणम् |
6929 | 6087023c | बाणवेगान्समुदीक्ष्य समरेष्वपराजितौ |
6930 | 6087024a | तयोर्भूतानि वित्रेषुर्युगपत्संप्रयुध्यतोः |
6931 | 6087024c | रौद्रयोः सायकमुचोर्यमान्तकनिकाशयोः |
6932 | 6087025a | संततं विविधैर्बाणैर्बभूव गगनं तदा |
6933 | 6087025c | घनैरिवातपापाये विद्युन्मालासमाकुलैः |
6934 | 6087026a | गवाक्षितमिवाकाशं बभूव शूरवृष्टिभिः |
6935 | 6087026c | महावेगैः सुतीक्ष्णाग्रैर्गृध्रपत्रैः सुवाजितैः |
6936 | 6087027a | शरान्धकारं तौ भीमं चक्रतुः परमं तदा |
6937 | 6087027c | गतेऽस्तं तपने चापि महामेघाविवोत्थितौ |
6938 | 6087028a | बभूव तुमुलं युद्धमन्योन्यवधकाङ्क्षिणोः |
6939 | 6087028c | अनासाद्यमचिन्त्यं च वृत्रवासवयोरिव |
6940 | 6087029a | उभौ हि परमेष्वासावुभौ शस्त्रविशारदौ |
6941 | 6087029c | उभौ चास्त्रविदां मुख्यावुभौ युद्धे विचेरतुः |
6942 | 6087030a | उभौ हि येन व्रजतस्तेन तेन शरोर्मयः |
6943 | 6087030c | ऊर्मयो वायुना विद्धा जग्मुः सागरयोरिव |
6944 | 6087031a | ततः संसक्तहस्तस्तु रावणो लोकरावणः |
6945 | 6087031c | नाराचमालां रामस्य ललाटे प्रत्यमुञ्चत |
6946 | 6087032a | रौद्रचापप्रयुक्तां तां नीलोत्पलदलप्रभाम् |
6947 | 6087032c | शिरसा धारयन्रामो न व्यथां प्रत्यपद्यत |
6948 | 6087033a | अथ मन्त्रानपि जपन्रौद्रमस्त्रमुदीरयन् |
6949 | 6087033c | शरान्भूयः समादाय रामः क्रोधसमन्वितः |
6950 | 6087034a | मुमोच च महातेजाश्चापमायम्य वीर्यवान् |
6951 | 6087034c | ताञ्शरान्राक्षसेन्द्राय चिक्षेपाच्छिन्नसायकः |
6952 | 6087035a | ते महामेघसंकाशे कवचे पतिताः शराः |
6953 | 6087035c | अवध्ये राक्षसेन्द्रस्य न व्यथां जनयंस्तदा |
6954 | 6087036a | पुनरेवाथ तं रामो रथस्थं राक्षसाधिपम् |
6955 | 6087036c | ललाटे परमास्त्रेण सर्वास्त्रकुशलोऽभिनत् |
6956 | 6087037a | ते भित्त्वा बाणरूपाणि पञ्चशीर्षा इवोरगाः |
6957 | 6087037c | श्वसन्तो विविशुर्भूमिं रावणप्रतिकूलताः |
6958 | 6087038a | निहत्य राघवस्यास्त्रं रावणः क्रोधमूर्छितः |
6959 | 6087038c | आसुरं सुमहाघोरमन्यदस्त्रं समाददे |
6960 | 6087039a | सिंहव्याघ्रमुखांश्चान्यान्कङ्ककाकमुखानपि |
6961 | 6087039c | गृध्रश्येनमुखांश्चापि सृगालवदनांस्तथा |
6962 | 6087040a | ईहामृगमुखांश्चान्यान्व्यादितास्यान्भयावहान् |
6963 | 6087040c | पञ्चास्याँल्लेलिहानांश्च ससर्ज निशिताञ्शरान् |
6964 | 6087041a | शरान्खरमुखांश्चान्यान्वराहमुखसंस्थितान् |
6965 | 6087041c | श्वानकुक्कुटवक्त्रांश्च मकराशीविषाननान् |
6966 | 6087042a | एतांश्चान्यांश्च मायाभिः ससर्ज निशिताञ्शरान् |
6967 | 6087042c | रामं प्रति महातेजाः क्रुद्धः सर्प इव श्वसन् |
6968 | 6087043a | आसुरेण समाविष्टः सोऽस्त्रेण रघुनन्दनः |
6969 | 6087043c | ससर्जास्त्रं महोत्साहः पावकं पावकोपमः |
6970 | 6087044a | अग्निदीप्तमुखान्बाणांस्तथा सूर्यमुखानपि |
6971 | 6087044c | चन्द्रार्धचन्द्रवक्त्रांश्च धूमकेतुमुखानपि |
6972 | 6087045a | ग्रहनक्षत्रवर्णांश्च महोल्कामुखसंस्थितान् |
6973 | 6087045c | विद्युज्जिह्वोपमांश्चान्यान्ससर्ज निशिताञ्शरान् |
6974 | 6087046a | ते रावणशरा घोरा राघवास्त्रसमाहताः |
6975 | 6087046c | विलयं जग्मुराकाशे जग्मुश्चैव सहस्रशः |
6976 | 6087047a | तदस्त्रं निहतं दृष्ट्वा रामेणाक्लिष्टकर्मणा |
6977 | 6087047c | हृष्टा नेदुस्ततः सर्वे कपयः कामरूपिणः |
6978 | 6088001a | तस्मिन्प्रतिहतेऽस्त्रे तु रावणो राक्षसाधिपः |
6979 | 6088001c | क्रोधं च द्विगुणं चक्रे क्रोधाच्चास्त्रमनन्तरम् |
6980 | 6088002a | मयेन विहितं रौद्रमन्यदस्त्रं महाद्युतिः |
6981 | 6088002c | उत्स्रष्टुं रावणो घोरं राघवाय प्रचक्रमे |
6982 | 6088003a | ततः शूलानि निश्चेरुर्गदाश्च मुसलानि च |
6983 | 6088003c | कार्मुकाद्दीप्यमानानि वज्रसाराणि सर्वशः |
6984 | 6088004a | कूटमुद्गरपाशाश्च दीप्ताश्चाशनयस्तथा |
6985 | 6088004c | निष्पेतुर्विविधास्तीक्ष्णा वाता इव युगक्षये |
6986 | 6088005a | तदस्त्रं राघवः श्रीमानुत्तमास्त्रविदां वरः |
6987 | 6088005c | जघान परमास्त्रेण गन्धर्वेण महाद्युतिः |
6988 | 6088006a | तस्मिन्प्रतिहतेऽस्त्रे तु राघवेण महात्मना |
6989 | 6088006c | रावणः क्रोधताम्राक्षः सौरमस्त्रमुदीरयत् |
6990 | 6088007a | ततश्चक्राणि निष्पेतुर्भास्वराणि महान्ति च |
6991 | 6088007c | कार्मुकाद्भीमवेगस्य दशग्रीवस्य धीमतः |
6992 | 6088008a | तैरासीद्गगनं दीप्तं संपतद्भिरितस्ततः |
6993 | 6088008c | पतद्भिश्च दिशो दीप्तैश्चन्द्रसूर्यग्रहैरिव |
6994 | 6088009a | तानि चिच्छेद बाणौघैश्चक्राणि तु स राघवः |
6995 | 6088009c | आयुधानि विचित्राणि रावणस्य चमूमुखे |
6996 | 6088010a | तदस्त्रं तु हतं दृष्ट्वा रावणो राक्षसाधिपः |
6997 | 6088010c | विव्याध दशभिर्बाणै रामं सर्वेषु मर्मसु |
6998 | 6088011a | स विद्धो दशभिर्बाणैर्महाकार्मुकनिःसृतैः |
6999 | 6088011c | रावणेन महातेजा न प्राकम्पत राघवः |
7000 | 6088012a | ततो विव्याध गात्रेषु सर्वेषु समितिंजयः |
7001 | 6088012c | राघवस्तु सुसंक्रुद्धो रावणं बहुभिः शरैः |
7002 | 6088013a | एतस्मिन्नन्तरे क्रुद्धो राघवस्यानुजो बली |
7003 | 6088013c | लक्ष्मणः सायकान्सप्त जग्राह परवीरहा |
7004 | 6088014a | तैः सायकैर्महावेगै रावणस्य महाद्युतिः |
7005 | 6088014c | ध्वजं मनुष्यशीर्षं तु तस्य चिच्छेद नैकधा |
7006 | 6088015a | सारथेश्चापि बाणेन शिरो ज्वलितकुण्डलम् |
7007 | 6088015c | जहार लक्ष्मणः श्रीमान्नैरृतस्य महाबलः |
7008 | 6088016a | तस्य बाणैश्च चिच्छेद धनुर्गजकरोपमम् |
7009 | 6088016c | लक्ष्मणो राक्षसेन्द्रस्य पञ्चभिर्निशितैः शरैः |
7010 | 6088017a | नीलमेघनिभांश्चास्य सदश्वान्पर्वतोपमान् |
7011 | 6088017c | जघानाप्लुत्य गदया रावणस्य विभीषणः |
7012 | 6088018a | हताश्वाद्वेगवान्वेगादवप्लुत्य महारथात् |
7013 | 6088018c | क्रोधमाहारयत्तीव्रं भ्रातरं प्रति रावणः |
7014 | 6088019a | ततः शक्तिं महाशक्तिर्दीप्तां दीप्ताशनीमिव |
7015 | 6088019c | विभीषणाय चिक्षेप राक्षसेन्द्रः प्रतापवान् |
7016 | 6088020a | अप्राप्तामेव तां बाणैस्त्रिभिश्चिच्छेद लक्ष्मणः |
7017 | 6088020c | अथोदतिष्ठत्संनादो वानराणां तदा रणे |
7018 | 6088021a | सा पपात त्रिधा छिन्ना शक्तिः काञ्चनमालिनी |
7019 | 6088021c | सविस्फुलिङ्गा ज्वलिता महोल्केव दिवश्च्युता |
7020 | 6088022a | ततः संभाविततरां कालेनापि दुरासदाम् |
7021 | 6088022c | जग्राह विपुलां शक्तिं दीप्यमानां स्वतेजसा |
7022 | 6088023a | सा वेगिना बलवता रावणेन दुरात्मना |
7023 | 6088023c | जज्वाल सुमहाघोरा शक्राशनिसमप्रभा |
7024 | 6088024a | एतस्मिन्नन्तरे वीरो लक्ष्मणस्तं विभीषणम् |
7025 | 6088024c | प्राणसंशयमापन्नं तूर्णमेवाभ्यपद्यत |
7026 | 6088025a | तं विमोक्षयितुं वीरश्चापमायम्य लक्ष्मणः |
7027 | 6088025c | रावणं शक्तिहस्तं तं शरवर्षैरवाकिरत् |
7028 | 6088026a | कीर्यमाणः शरौघेण विसृष्टेन महात्मना |
7029 | 6088026c | न प्रहर्तुं मनश्चक्रे विमुखीकृतविक्रमः |
7030 | 6088027a | मोक्षितं भ्रातरं दृष्ट्वा लक्ष्मणेन स रावणः |
7031 | 6088027c | लक्ष्मणाभिमुखस्तिष्ठन्निदं वचनमब्रवीत् |
7032 | 6088028a | मोक्षितस्ते बलश्लाघिन्यस्मादेवं विभीषणः |
7033 | 6088028c | विमुच्य राक्षसं शक्तिस्त्वयीयं विनिपात्यते |
7034 | 6088029a | एषा ते हृदयं भित्त्वा शक्तिर्लोहितलक्षणा |
7035 | 6088029c | मद्बाहुपरिघोत्सृष्टा प्राणानादाय यास्यति |
7036 | 6088030a | इत्येवमुक्त्वा तां शक्तिमष्टघण्टां महास्वनाम् |
7037 | 6088030c | मयेन मायाविहिताममोघां शत्रुघातिनीम् |
7038 | 6088031a | लक्ष्मणाय समुद्दिश्य ज्वलन्तीमिव तेजसा |
7039 | 6088031c | रावणः परमक्रुद्धश्चिक्षेप च ननाद च |
7040 | 6088032a | सा क्षिप्ता भीमवेगेन शक्राशनिसमस्वना |
7041 | 6088032c | शक्तिरभ्यपतद्वेगाल्लक्ष्मणं रणमूर्धनि |
7042 | 6088033a | तामनुव्याहरच्छक्तिमापतन्तीं स राघवः |
7043 | 6088033c | स्वस्त्यस्तु लक्ष्मणायेति मोघा भव हतोद्यमा |
7044 | 6088034a | न्यपतत्सा महावेगा लक्ष्मणस्य महोरसि |
7045 | 6088034c | जिह्वेवोरगराजस्य दीप्यमाना महाद्युतिः |
7046 | 6088035a | ततो रावणवेगेन सुदूरमवगाढया |
7047 | 6088035c | शक्त्या निर्भिन्नहृदयः पपात भुवि लक्ष्मणः |
7048 | 6088036a | तदवस्थं समीपस्थो लक्ष्मणं प्रेक्ष्य राघवः |
7049 | 6088036c | भ्रातृस्नेहान्महातेजा विषण्णहृदयोऽभवत् |
7050 | 6088037a | स मुहूर्तमनुध्याय बाष्पव्याकुललोचनः |
7051 | 6088037c | बभूव संरब्धतरो युगान्त इव पावकः |
7052 | 6088038a | न विषादस्य कालोऽयमिति संचिन्त्य राघवः |
7053 | 6088038c | चक्रे सुतुमुलं युद्धं रावणस्य वधे धृतः |
7054 | 6088039a | स ददर्श ततो रामः शक्त्या भिन्नं महाहवे |
7055 | 6088039c | लक्ष्मणं रुधिरादिग्धं सपन्नगमिवाचलम् |
7056 | 6088040a | तामपि प्रहितां शक्तिं रावणेन बलीयसा |
7057 | 6088040c | यत्नतस्ते हरिश्रेष्ठा न शेकुरवमर्दितुम् |
7058 | 6088040e | अर्दिताश्चैव बाणौघैः क्षिप्रहस्तेन रक्षसा |
7059 | 6088041a | सौमित्रिं सा विनिर्भिद्य प्रविष्टा धरणीतलम् |
7060 | 6088041c | तां कराभ्यां परामृश्य रामः शक्तिं भयावहाम् |
7061 | 6088041e | बभञ्ज समरे क्रुद्धो बलवद्विचकर्ष च |
7062 | 6088042a | तस्य निष्कर्षतः शक्तिं रावणेन बलीयसा |
7063 | 6088042c | शराः सर्वेषु गात्रेषु पातिता मर्मभेदिनः |
7064 | 6088043a | अचिन्तयित्वा तान्बाणान्समाश्लिष्य च लक्ष्मणम् |
7065 | 6088043c | अब्रवीच्च हनूमन्तं सुग्रीवं चैव राघवः |
7066 | 6088043e | लक्ष्मणं परिवार्येह तिष्ठध्वं वानरोत्तमाः |
7067 | 6088044a | पराक्रमस्य कालोऽयं संप्राप्तो मे चिरेप्सितः |
7068 | 6088044c | पापात्मायं दशग्रीवो वध्यतां पापनिश्चयः |
7069 | 6088044e | काङ्क्षितः स्तोककस्येव घर्मान्ते मेघदर्शनम् |
7070 | 6088045a | अस्मिन्मुहूर्ते नचिरात्सत्यं प्रतिशृणोमि वः |
7071 | 6088045c | अरावणमरामं वा जगद्द्रक्ष्यथ वानराः |
7072 | 6088046a | राज्यनाशं वने वासं दण्डके परिधावनम् |
7073 | 6088046c | वैदेह्याश्च परामर्शं रक्षोभिश्च समागमम् |
7074 | 6088047a | प्राप्तं दुःखं महद्घोरं क्लेशं च निरयोपमम् |
7075 | 6088047c | अद्य सर्वमहं त्यक्ष्ये हत्वा तं रावणं रणे |
7076 | 6088048a | यदर्थं वानरं सैन्यं समानीतमिदं मया |
7077 | 6088048c | सुग्रीवश्च कृतो राज्ये निहत्वा वालिनं रणे |
7078 | 6088049a | यदर्थं सागरः क्रान्तः सेतुर्बद्धश्च सागरे |
7079 | 6088049c | सोऽयमद्य रणे पापश्चक्षुर्विषयमागतः |
7080 | 6088050a | चक्षुर्विषयमागम्य नायं जीवितुमर्हति |
7081 | 6088050c | दृष्टिं दृष्टिविषस्येव सर्पस्य मम रावणः |
7082 | 6088051a | स्वस्थाः पश्यत दुर्धर्षा युद्धं वानरपुंगवाः |
7083 | 6088051c | आसीनाः पर्वताग्रेषु ममेदं रावणस्य च |
7084 | 6088052a | अद्य रामस्य रामत्वं पश्यन्तु मम संयुगे |
7085 | 6088052c | त्रयो लोकाः सगन्धर्वाः सदेवाः सर्षिचारणाः |
7086 | 6088053a | अद्य कर्म करिष्यामि यल्लोकाः सचराचराः |
7087 | 6088053c | सदेवाः कथयिष्यन्ति यावद्भूमिर्धरिष्यति |
7088 | 6088054a | एवमुक्त्वा शितैर्बाणैस्तप्तकाञ्चनभूषणैः |
7089 | 6088054c | आजघान दशग्रीवं रणे रामः समाहितः |
7090 | 6088055a | अथ प्रदीप्तैर्नाराचैर्मुसलैश्चापि रावणः |
7091 | 6088055c | अभ्यवर्षत्तदा रामं धाराभिरिव तोयदः |
7092 | 6088056a | रामरावणमुक्तानामन्योन्यमभिनिघ्नताम् |
7093 | 6088056c | शराणां च शराणां च बभूव तुमुलः स्वनः |
7094 | 6088057a | ते भिन्नाश्च विकीर्णाश्च रामरावणयोः शराः |
7095 | 6088057c | अन्तरिक्षात्प्रदीप्ताग्रा निपेतुर्धरणीतले |
7096 | 6088058a | तयोर्ज्यातलनिर्घोषो रामरावणयोर्महान् |
7097 | 6088058c | त्रासनः सर्वबूतानां स बभूवाद्भुतोपमः |
7098 | 6088059a | स कीर्यमाणः शरजालवृष्टिभि;र्महात्मना दीप्तधनुष्मतार्दितः |
7099 | 6088059c | भयात्प्रदुद्राव समेत्य रावणो; यथानिलेनाभिहतो बलाहकः |
7100 | 6089001a | स दत्त्वा तुमुलं युद्धं रावणस्य दुरात्मनः |
7101 | 6089001c | विसृजन्नेव बाणौघान्सुषेणं वाक्यमब्रवीत् |
7102 | 6089002a | एष रावणवेगेन लक्ष्मणः पतितः क्षितौ |
7103 | 6089002c | सर्पवद्वेष्टते वीरो मम शोकमुदीरयन् |
7104 | 6089003a | शोणितार्द्रमिमं वीरं प्राणैरिष्टतरं मम |
7105 | 6089003c | पश्यतो मम का शक्तिर्योद्धुं पर्याकुलात्मनः |
7106 | 6089004a | अयं स समरश्लाघी भ्राता मे शुभलक्षणः |
7107 | 6089004c | यदि पञ्चत्वमापन्नः प्राणैर्मे किं सुखेन वा |
7108 | 6089005a | लज्जतीव हि मे वीर्यं भ्रश्यतीव कराद्धनुः |
7109 | 6089005c | सायका व्यवसीदन्ति दृष्टिर्बाष्पवशं गता |
7110 | 6089005e | चिन्ता मे वर्धते तीव्रा मुमूर्षा चोपजायते |
7111 | 6089006a | भ्रातरं निहतं दृष्ट्वा रावणेन दुरात्मना |
7112 | 6089006c | परं विषादमापन्नो विललापाकुलेन्द्रियः |
7113 | 6089007a | न हि युद्धेन मे कार्यं नैव प्राणैर्न सीतया |
7114 | 6089007c | भ्रातरं निहतं दृष्ट्वा लक्ष्मणं रणपांसुषु |
7115 | 6089008a | किं मे राज्येन किं प्राणैर्युद्धे कार्यं न विद्यते |
7116 | 6089008c | यत्रायं निहतः शेते रणमूर्धनि लक्ष्मणः |
7117 | 6089009a | राममाश्वासयन्वीरः सुषेणो वाक्यमब्रवीत् |
7118 | 6089009c | न मृतोऽयं महाबाहुर्लक्ष्मणो लक्ष्मिवर्धनः |
7119 | 6089010a | न चास्य विकृतं वक्त्रं नापि श्यामं न निष्प्रभम् |
7120 | 6089010c | सुप्रभं च प्रसन्नं च मुखमस्याभिलक्ष्यते |
7121 | 6089011a | पद्मरक्ततलौ हस्तौ सुप्रसन्ने च लोचने |
7122 | 6089011c | एवं न विद्यते रूपं गतासूनां विशां पते |
7123 | 6089011e | मां विषादं कृथा वीर सप्राणोऽयमरिंदम |
7124 | 6089012a | आख्यास्यते प्रसुप्तस्य स्रस्तगात्रस्य भूतले |
7125 | 6089012c | सोच्छ्वासं हृदयं वीर कम्पमानं मुहुर्मुहुः |
7126 | 6089013a | एवमुक्त्वा तु वाक्यज्ञः सुषेणो राघवं वचः |
7127 | 6089013c | समीपस्थमुवाचेदं हनूमन्तमभित्वरन् |
7128 | 6089014a | सौम्य शीघ्रमितो गत्वा शैलमोषधिपर्वतम् |
7129 | 6089014c | पूर्वं हि कथितो योऽसौ वीर जाम्बवता शुभः |
7130 | 6089015a | दक्षिणे शिखरे तस्य जातामोषधिमानय |
7131 | 6089015c | विशल्यकरणी नाम विशल्यकरणीं शुभाम् |
7132 | 6089016a | सौवर्णकरणीं चापि तथा संजीवनीमपि |
7133 | 6089016c | संधानकरणीं चापि गत्वा शीघ्रमिहानय |
7134 | 6089016e | संजीवनार्थं वीरस्य लक्ष्मणस्य महात्मनः |
7135 | 6089017a | इत्येवमुक्तो हनुमान्गत्वा चौषधिपर्वतम् |
7136 | 6089017c | चिन्तामभ्यगमच्छ्रीमानजानंस्ता महौषधीः |
7137 | 6089018a | तस्य बुद्धिः समुत्पन्ना मारुतेरमितौजसः |
7138 | 6089018c | इदमेव गमिष्यामि गृहीत्वा शिखरं गिरेः |
7139 | 6089019a | अगृह्य यदि गच्छामि विशल्यकरणीमहम् |
7140 | 6089019c | कालात्ययेन दोषः स्याद्वैक्लव्यं च महद्भवेत् |
7141 | 6089020a | इति संचिन्त्य हनुमान्गत्वा क्षिप्रं महाबलः |
7142 | 6089020c | उत्पपात गृहीत्वा तु हनूमाञ्शिखरं गिरेः |
7143 | 6089021a | ओषधीर्नावगछामि ता अहं हरिपुंगव |
7144 | 6089021c | तदिदं शिखरं कृत्स्नं गिरेस्तस्याहृतं मया |
7145 | 6089022a | एवं कथयमानं तं प्रशस्य पवनात्मजम् |
7146 | 6089022c | सुषेणो वानरश्रेष्ठो जग्राहोत्पाट्य चौषधीः |
7147 | 6089023a | ततः संक्षोदयित्वा तामोषधिं वानरोत्तमः |
7148 | 6089023c | लक्ष्मणस्य ददौ नस्तः सुषेणः सुमहाद्युतिः |
7149 | 6089024a | सशल्यः स समाघ्राय लक्ष्मणः परवीरहा |
7150 | 6089024c | विशल्यो विरुजः शीघ्रमुदतिष्ठन्महीतलात् |
7151 | 6089025a | समुत्थितं ते हरयो भूतलात्प्रेक्ष्य लक्ष्मणम् |
7152 | 6089025c | साधु साध्विति सुप्रीताः सुषेणं प्रत्यपूजयन् |
7153 | 6089026a | एह्येहीत्यब्रवीद्रामो लक्ष्मणं परवीरहा |
7154 | 6089026c | सस्वजे स्नेहगाढं च बाष्पपर्याकुलेक्षणः |
7155 | 6089027a | अब्रवीच्च परिष्वज्य सौमित्रिं राघवस्तदा |
7156 | 6089027c | दिष्ट्या त्वां वीर पश्यामि मरणात्पुनरागतम् |
7157 | 6089028a | न हि मे जीवितेनार्थः सीतया च जयेन वा |
7158 | 6089028c | को हि मे जीवितेनार्थस्त्वयि पञ्चत्वमागते |
7159 | 6089029a | इत्येवं वदतस्तस्य राघवस्य महात्मनः |
7160 | 6089029c | खिन्नः शिथिलया वाचा लक्ष्मणो वाक्यमब्रवीत् |
7161 | 6089030a | तां प्रतिज्ञां प्रतिज्ञाय पुरा सत्यपराक्रम |
7162 | 6089030c | लघुः कश्चिदिवासत्त्वो नैवं वक्तुमिहार्हसि |
7163 | 6089031a | न प्रतिज्ञां हि कुर्वन्ति वितथां साधवोऽनघ |
7164 | 6089031c | लक्षणं हि महत्त्वस्य प्रतिज्ञापरिपालनम् |
7165 | 6089032a | नैराश्यमुपगन्तुं ते तदलं मत्कृतेऽनघ |
7166 | 6089032c | वधेन रावणस्याद्य प्रतिज्ञामनुपालय |
7167 | 6089033a | न जीवन्यास्यते शत्रुस्तव बाणपथं गतः |
7168 | 6089033c | नर्दतस्तीक्ष्णदंष्ट्रस्य सिंहस्येव महागजः |
7169 | 6089034a | अहं तु वधमिच्छामि शीघ्रमस्य दुरात्मनः |
7170 | 6089034c | यावदस्तं न यात्येष कृतकर्मा दिवाकरः |
7171 | 6090001a | लक्ष्मणेन तु तद्वाक्यमुक्तं श्रुत्वा स राघवः |
7172 | 6090001c | रावणाय शरान्घोरान्विससर्ज चमूमुखे |
7173 | 6090002a | दशग्रीवो रथस्थस्तु रामं वज्रोपमैः शरैः |
7174 | 6090002c | आजघान महाघोरैर्धाराभिरिव तोयदः |
7175 | 6090003a | दीप्तपावकसंकाशैः शरैः काञ्चनभूषणैः |
7176 | 6090003c | निर्बिभेद रणे रामो दशग्रीवं समाहितः |
7177 | 6090004a | भूमिस्थितस्य रामस्य रथस्थस्य च रक्षसः |
7178 | 6090004c | न समं युद्धमित्याहुर्देवगन्धर्वदानवाः |
7179 | 6090005a | ततः काञ्चनचित्राङ्गः किंकिणीशतभूषितः |
7180 | 6090005c | तरुणादित्यसंकाशो वैदूर्यमयकूबरः |
7181 | 6090006a | सदश्वैः काञ्चनापीडैर्युक्तः श्वेतप्रकीर्णकैः |
7182 | 6090006c | हरिभिः सूर्यसंकाशैर्हेमजालविभूषितैः |
7183 | 6090007a | रुक्मवेणुध्वजः श्रीमान्देवराजरथो वरः |
7184 | 6090007c | अभ्यवर्तत काकुत्स्थमवतीर्य त्रिविष्टपात् |
7185 | 6090008a | अब्रवीच्च तदा रामं सप्रतोदो रथे स्थितः |
7186 | 6090008c | प्राञ्जलिर्मातलिर्वाक्यं सहस्राक्षस्य सारथिः |
7187 | 6090009a | सहस्राक्षेण काकुत्स्थ रथोऽयं विजयाय ते |
7188 | 6090009c | दत्तस्तव महासत्त्व श्रीमाञ्शत्रुनिबर्हणः |
7189 | 6090010a | इदमैन्द्रं महच्चापं कवचं चाग्निसंनिभम् |
7190 | 6090010c | शराश्चादित्यसंकाशाः शक्तिश्च विमला शिताः |
7191 | 6090011a | आरुह्येमं रथं वीर राक्षसं जहि रावणम् |
7192 | 6090011c | मया सारथिना राम महेन्द्र इव दानवान् |
7193 | 6090012a | इत्युक्तः स परिक्रम्य रथं तमभिवाद्य च |
7194 | 6090012c | आरुरोह तदा रामो लोकाँल्लक्ष्म्या विराजयन् |
7195 | 6090013a | तद्बभूवाद्भुतं युद्धं द्वैरथं लोमहर्षणम् |
7196 | 6090013c | रामस्य च महाबाहो रावणस्य च रक्षसः |
7197 | 6090014a | स गान्धर्वेण गान्धर्वं दैवं दैवेन राघवः |
7198 | 6090014c | अस्त्रं राक्षसराजस्य जघान परमास्त्रवित् |
7199 | 6090015a | अस्त्रं तु परमं घोरं राक्षसं राकसाधिपः |
7200 | 6090015c | ससर्ज परमक्रुद्धः पुनरेव निशाचरः |
7201 | 6090016a | ते रावणधनुर्मुक्ताः शराः काञ्चनभूषणाः |
7202 | 6090016c | अभ्यवर्तन्त काकुत्स्थं सर्पा भूत्वा महाविषाः |
7203 | 6090017a | ते दीप्तवदना दीप्तं वमन्तो ज्वलनं मुखैः |
7204 | 6090017c | राममेवाभ्यवर्तन्त व्यादितास्या भयानकाः |
7205 | 6090018a | तैर्वासुकिसमस्पर्शैर्दीप्तभोगैर्महाविषैः |
7206 | 6090018c | दिशश्च संतताः सर्वाः प्रदिशश्च समावृताः |
7207 | 6090019a | तान्दृष्ट्वा पन्नगान्रामः समापतत आहवे |
7208 | 6090019c | अस्त्रं गारुत्मतं घोरं प्रादुश्चक्रे भयावहम् |
7209 | 6090020a | ते राघवधनुर्मुक्ता रुक्मपुङ्खाः शिखिप्रभाः |
7210 | 6090020c | सुपर्णाः काञ्चना भूत्वा विचेरुः सर्पशत्रवः |
7211 | 6090021a | ते तान्सर्वाञ्शराञ्जघ्नुः सर्परूपान्महाजवान् |
7212 | 6090021c | सुपर्णरूपा रामस्य विशिखाः कामरूपिणः |
7213 | 6090022a | अस्त्रे प्रतिहते क्रुद्धो रावणो राक्षसाधिपः |
7214 | 6090022c | अभ्यवर्षत्तदा रामं घोराभिः शरवृष्टिभिः |
7215 | 6090023a | ततः शरसहस्रेण राममक्लिष्टकारिणम् |
7216 | 6090023c | अर्दयित्वा शरौघेण मातलिं प्रत्यविध्यत |
7217 | 6090024a | पातयित्वा रथोपस्थे रथात्केतुं च काञ्चनम् |
7218 | 6090024c | ऐन्द्रानभिजघानाश्वाञ्शरजालेन रावणः |
7219 | 6090025a | विषेदुर्देवगन्धर्वा दानवाश्चारणैः सह |
7220 | 6090025c | राममार्तं तदा दृष्ट्वा सिद्धाश्च परमर्षयः |
7221 | 6090026a | व्यथिता वानरेन्द्राश्च बभूवुः सविभीषणाः |
7222 | 6090026c | रामचन्द्रमसं दृष्ट्वा ग्रस्तं रावणराहुणा |
7223 | 6090027a | प्राजापत्यं च नक्षत्रं रोहिणीं शशिनः प्रियाम् |
7224 | 6090027c | समाक्रम्य बुधस्तस्थौ प्रजानामशुभावहः |
7225 | 6090028a | सधूमपरिवृत्तोर्मिः प्रज्वलन्निव सागरः |
7226 | 6090028c | उत्पपात तदा क्रुद्धः स्पृशन्निव दिवाकरम् |
7227 | 6090029a | शस्त्रवर्णः सुपरुषो मन्दरश्मिर्दिवाकरः |
7228 | 6090029c | अदृश्यत कबन्धाङ्गः संसक्तो धूमकेतुना |
7229 | 6090030a | कोसलानां च नक्षत्रं व्यक्तमिन्द्राग्निदैवतम् |
7230 | 6090030c | आक्रम्याङ्गारकस्तस्थौ विशाखामपि चाम्बरे |
7231 | 6090031a | दशास्यो विंशतिभुजः प्रगृहीतशरासनः |
7232 | 6090031c | अदृश्यत दशग्रीवो मैनाक इव पर्वतः |
7233 | 6090032a | निरस्यमानो रामस्तु दशग्रीवेण रक्षसा |
7234 | 6090032c | नाशकदभिसंधातुं सायकान्रणमूर्धनि |
7235 | 6090033a | स कृत्वा भ्रुकुटीं क्रुद्धः किंचित्संरक्तलोचनः |
7236 | 6090033c | जगाम सुमहाक्रोधं निर्दहन्निव चक्षुषा |
7237 | 6091001a | तस्य क्रुद्धस्य वदनं दृष्ट्वा रामस्य धीमतः |
7238 | 6091001c | सर्वभूतानि वित्रेषुः प्राकम्पत च मेदिनी |
7239 | 6091002a | सिंहशार्दूलवाञ्शैलः संचचालाचलद्रुमः |
7240 | 6091002c | बभूव चापि क्षुभितः समुद्रः सरितां पतिः |
7241 | 6091003a | खगाश्च खरनिर्घोषा गगने परुषस्वनाः |
7242 | 6091003c | औत्पातिका विनर्दन्तः समन्तात्परिचक्रमुः |
7243 | 6091004a | रामं दृष्ट्वा सुसंक्रुद्धमुत्पातांश्च सुदारुणान् |
7244 | 6091004c | वित्रेषुः सर्वभूतानि रावणस्याविशद्भयम् |
7245 | 6091005a | विमानस्थास्तदा देवा गन्धर्वाश्च महोरगाः |
7246 | 6091005c | ऋषिदानवदैत्याश्च गरुत्मन्तश्च खेचराः |
7247 | 6091006a | ददृशुस्ते तदा युद्धं लोकसंवर्तसंस्थितम् |
7248 | 6091006c | नानाप्रहरणैर्भीमैः शूरयोः संप्रयुध्यतोः |
7249 | 6091007a | ऊचुः सुरासुराः सर्वे तदा विग्रहमागताः |
7250 | 6091007c | प्रेक्षमाणा महायुद्धं वाक्यं भक्त्या प्रहृष्टवत् |
7251 | 6091008a | दशग्रीवं जयेत्याहुरसुराः समवस्थिताः |
7252 | 6091008c | देवा राममथोचुस्ते त्वं जयेति पुनः पुनः |
7253 | 6091009a | एतस्मिन्नन्तरे क्रोधाद्राघवस्य स रावणः |
7254 | 6091009c | प्रहर्तुकामो दुष्टात्मा स्पृशन्प्रहरणं महत् |
7255 | 6091010a | वज्रसारं महानादं सर्वशत्रुनिबर्हणम् |
7256 | 6091010c | शैलशृङ्गनिभैः कूटैश्चितं दृष्टिभयावहम् |
7257 | 6091011a | सधूममिव तीक्ष्णाग्रं युगान्ताग्निचयोपमम् |
7258 | 6091011c | अतिरौद्रमनासाद्यं कालेनापि दुरासदम् |
7259 | 6091012a | त्रासनं सर्वभूतानां दारणं भेदनं तथा |
7260 | 6091012c | प्रदीप्त इव रोषेण शूलं जग्राह रावणः |
7261 | 6091013a | तच्छूलं परमक्रुद्धो मध्ये जग्राह वीर्यवान् |
7262 | 6091013c | अनेकैः समरे शूरै राक्षसैः परिवारितः |
7263 | 6091014a | समुद्यम्य महाकायो ननाद युधि भैरवम् |
7264 | 6091014c | संरक्तनयनो रोषात्स्वसैन्यमभिहर्षयन् |
7265 | 6091015a | पृथिवीं चान्तरिक्षं च दिशश्च प्रदिशस्तथा |
7266 | 6091015c | प्राकम्पयत्तदा शब्दो राक्षसेन्द्रस्य दारुणः |
7267 | 6091016a | अतिनादस्य नादेन तेन तस्य दुरात्मनः |
7268 | 6091016c | सर्वभूतानि वित्रेषुः सागरश्च प्रचुक्षुभे |
7269 | 6091017a | स गृहीत्वा महावीर्यः शूलं तद्रावणो महत् |
7270 | 6091017c | विनद्य सुमहानादं रामं परुषमब्रवीत् |
7271 | 6091018a | शूलोऽयं वज्रसारस्ते राम रोषान्मयोद्यतः |
7272 | 6091018c | तव भ्रातृसहायस्य सद्यः प्राणान्हरिष्यति |
7273 | 6091019a | रक्षसामद्य शूराणां निहतानां चमूमुखे |
7274 | 6091019c | त्वां निहत्य रणश्लाघिन्करोमि तरसा समम् |
7275 | 6091020a | तिष्ठेदानीं निहन्मि त्वामेष शूलेन राघव |
7276 | 6091020c | एवमुक्त्वा स चिक्षेप तच्छूलं राक्षसाधिपः |
7277 | 6091021a | आपतन्तं शरौघेण वारयामास राघवः |
7278 | 6091021c | उत्पतन्तं युगान्ताग्निं जलौघैरिव वासवः |
7279 | 6091022a | निर्ददाह स तान्बाणान्रामकार्मुकनिःसृतान् |
7280 | 6091022c | रावणस्य महाशूलः पतंगानिव पावकः |
7281 | 6091023a | तान्दृष्ट्वा भस्मसाद्भूताञ्शूलसंस्पर्शचूर्णितान् |
7282 | 6091023c | सायकानन्तरिक्षस्थान्राघवः क्रोधमाहरत् |
7283 | 6091024a | स तां मातलिनानीतां शक्तिं वासवनिर्मिताम् |
7284 | 6091024c | जग्राह परमक्रुद्धो राघवो रघुनन्दनः |
7285 | 6091025a | सा तोलिता बलवता शक्तिर्घण्टाकृतस्वना |
7286 | 6091025c | नभः प्रज्वालयामास युगान्तोल्केव सप्रभा |
7287 | 6091026a | सा क्षिप्ता राक्षसेन्द्रस्य तस्मिञ्शूले पपात ह |
7288 | 6091026c | भिन्नः शक्त्या महाञ्शूलो निपपात गतद्युतिः |
7289 | 6091027a | निर्बिभेद ततो बाणैर्हयानस्य महाजवान् |
7290 | 6091027c | रामस्तीक्ष्णैर्महावेगैर्वज्रकल्पैः शितैः शरैः |
7291 | 6091028a | निर्बिभेदोरसि तदा रावणं निशितैः शरैः |
7292 | 6091028c | राघवः परमायत्तो ललाटे पत्रिभिस्त्रिभिः |
7293 | 6091029a | स शरैर्भिन्नसर्वाङ्गो गात्रप्रस्रुतशोणितः |
7294 | 6091029c | राक्षसेन्द्रः समूहस्थः फुल्लाशोक इवाबभौ |
7295 | 6091030a | स रामबाणैरतिविद्धगात्रो; निशाचरेन्द्रः क्षतजार्द्रगात्रः |
7296 | 6091030c | जगाम खेदं च समाजमध्ये; क्रोधं च चक्रे सुभृशं तदानीम् |
7297 | 6092001a | स तु तेन तदा क्रोधात्काकुत्स्थेनार्दितो रणे |
7298 | 6092001c | रावणः समरश्लाघी महाक्रोधमुपागमत् |
7299 | 6092002a | स दीप्तनयनो रोषाच्चापमायम्य वीर्यवान् |
7300 | 6092002c | अभ्यर्दयत्सुसंक्रुद्धो राघवं परमाहवे |
7301 | 6092003a | बाणधारासहस्रैस्तु स तोयद इवाम्बरात् |
7302 | 6092003c | राघवं रावणो बाणैस्तटाकमिव पूरयत् |
7303 | 6092004a | पूरितः शरजालेन धनुर्मुक्तेन संयुगे |
7304 | 6092004c | महागिरिरिवाकम्प्यः काकुस्थो न प्रकम्पते |
7305 | 6092005a | स शरैः शरजालानि वारयन्समरे स्थितः |
7306 | 6092005c | गभस्तीनिव सूर्यस्य प्रतिजग्राह वीर्यवान् |
7307 | 6092006a | ततः शरसहस्राणि क्षिप्रहस्तो निशाचरः |
7308 | 6092006c | निजघानोरसि क्रुद्धो राघवस्य महात्मनः |
7309 | 6092007a | स शोणितसमादिग्धः समरे लक्ष्मणाग्रजः |
7310 | 6092007c | दृष्टः फुल्ल इवारण्ये सुमहान्किंशुकद्रुमः |
7311 | 6092008a | शराभिघातसंरब्धः सोऽपि जग्राह सायकान् |
7312 | 6092008c | काकुत्स्थः सुमहातेजा युगान्तादित्यवर्चसः |
7313 | 6092009a | ततोऽन्योन्यं सुसंरब्धावुभौ तौ रामरावणौ |
7314 | 6092009c | शरान्धकारे समरे नोपालक्षयतां तदा |
7315 | 6092010a | ततः क्रोधसमाविष्टो रामो दशरथात्मजः |
7316 | 6092010c | उवाच रावणं वीरः प्रहस्य परुषं वचः |
7317 | 6092011a | मम भार्या जनस्थानादज्ञानाद्राक्षसाधम |
7318 | 6092011c | हृता ते विवशा यस्मात्तस्मात्त्वं नासि वीर्यवान् |
7319 | 6092012a | मया विरहितां दीनां वर्तमानां महावने |
7320 | 6092012c | वैदेहीं प्रसभं हृत्वा शूरोऽहमिति मन्यसे |
7321 | 6092013a | स्त्रीषु शूर विनाथासु परदाराभिमर्शके |
7322 | 6092013c | कृत्वा कापुरुषं कर्म शूरोऽहमिति मन्यसे |
7323 | 6092014a | भिन्नमर्याद निर्लज्ज चारित्रेष्वनवस्थित |
7324 | 6092014c | दर्पान्मृत्युमुपादाय शूरोऽहमिति मन्यसे |
7325 | 6092015a | शूरेण धनदभ्रात्रा बलैः समुदितेन च |
7326 | 6092015c | श्लाघनीयं यशस्यं च कृतं कर्म महत्त्वया |
7327 | 6092016a | उत्सेकेनाभिपन्नस्य गर्हितस्याहितस्य च |
7328 | 6092016c | कर्मणः प्राप्नुहीदानीं तस्याद्य सुमहत्फलम् |
7329 | 6092017a | शूरोऽहमिति चात्मानमवगच्छसि दुर्मते |
7330 | 6092017c | नैव लज्जास्ति ते सीतां चोरवद्व्यपकर्षतः |
7331 | 6092018a | यदि मत्संनिधौ सीता धर्षिता स्यात्त्वया बलात् |
7332 | 6092018c | भ्रातरं तु खरं पश्येस्तदा मत्सायकैर्हतः |
7333 | 6092019a | दिष्ट्यासि मम दुष्टात्मंश्चक्षुर्विषयमागतः |
7334 | 6092019c | अद्य त्वां सायकैस्तीक्ष्णैर्नयामि यमसादनम् |
7335 | 6092020a | अद्य ते मच्छरैश्छिन्नं शिरो ज्वलितकुण्डलम् |
7336 | 6092020c | क्रव्यादा व्यपकर्षन्तु विकीर्णं रणपांसुषु |
7337 | 6092021a | निपत्योरसि गृध्रास्ते क्षितौ क्षिप्तस्य रावण |
7338 | 6092021c | पिबन्तु रुधिरं तर्षाद्बाणशल्यान्तरोथितम् |
7339 | 6092022a | अद्य मद्बाणाभिन्नस्य गतासोः पतितस्य ते |
7340 | 6092022c | कर्षन्त्वन्त्राणि पतगा गरुत्मन्त इवोरगान् |
7341 | 6092023a | इत्येवं स वदन्वीरो रामः शत्रुनिबर्हणः |
7342 | 6092023c | राक्षसेन्द्रं समीपस्थं शरवर्षैरवाकिरत् |
7343 | 6092024a | बभूव द्विगुणं वीर्यं बलं हर्षश्च संयुगे |
7344 | 6092024c | रामस्यास्त्रबलं चैव शत्रोर्निधनकाङ्क्षिणः |
7345 | 6092025a | प्रादुर्बभूवुरस्त्राणि सर्वाणि विदितात्मनः |
7346 | 6092025c | प्रहर्षाच्च महातेजाः शीघ्रहस्ततरोऽभवत् |
7347 | 6092026a | शुभान्येतानि चिह्नानि विज्ञायात्मगतानि सः |
7348 | 6092026c | भूय एवार्दयद्रामो रावणं राक्षसान्तकृत् |
7349 | 6092027a | हरीणां चाश्मनिकरैः शरवर्षैश्च राघवात् |
7350 | 6092027c | हन्यमानो दशग्रीवो विघूर्णहृदयोऽभवत् |
7351 | 6092028a | यदा च शस्त्रं नारेभे न व्यकर्षच्छरासनम् |
7352 | 6092028c | नास्य प्रत्यकरोद्वीर्यं विक्लवेनान्तरात्मना |
7353 | 6092029a | क्षिप्ताश्चापि शरास्तेन शस्त्राणि विविधानि च |
7354 | 6092029c | न रणार्थाय वर्तन्ते मृत्युकालेऽभिवर्ततः |
7355 | 6092030a | सूतस्तु रथनेतास्य तदवस्थं निरीक्ष्य तम् |
7356 | 6092030c | शनैर्युद्धादसंभान्तो रथं तस्यापवाहयत् |
7357 | 6093001a | स तु मोहात्सुसंक्रुद्धः कृतान्तबलचोदितः |
7358 | 6093001c | क्रोधसंरक्तनयनो रावणो सूतमब्रवीत् |
7359 | 6093002a | हीनवीर्यमिवाशक्तं पौरुषेण विवर्जितम् |
7360 | 6093002c | भीरुं लघुमिवासत्त्वं विहीनमिव तेजसा |
7361 | 6093003a | विमुक्तमिव मायाभिरस्त्रैरिव बहिष्कृतम् |
7362 | 6093003c | मामवज्ञाय दुर्बुद्धे स्वया बुद्ध्या विचेष्टसे |
7363 | 6093004a | किमर्थं मामवज्ञाय मच्छन्दमनवेक्ष्य च |
7364 | 6093004c | त्वया शत्रुसमक्षं मे रथोऽयमपवाहितः |
7365 | 6093005a | त्वयाद्य हि ममानार्य चिरकालसमार्जितम् |
7366 | 6093005c | यशो वीर्यं च तेजश्च प्रत्ययश्च विनाशितः |
7367 | 6093006a | शत्रोः प्रख्यातवीर्यस्य रञ्जनीयस्य विक्रमैः |
7368 | 6093006c | पश्यतो युद्धलुब्धोऽहं कृतः कापुरुषस्त्वया |
7369 | 6093007a | यस्त्वं रथमिमं मोहान्न चोद्वहसि दुर्मते |
7370 | 6093007c | सत्योऽयं प्रतितर्को मे परेण त्वमुपस्कृतः |
7371 | 6093008a | न हीदं विद्यते कर्म सुहृदो हितकाङ्क्षिणः |
7372 | 6093008c | रिपूणां सदृशं चैतन्न त्वयैतत्स्वनुष्ठितम् |
7373 | 6093009a | निवर्तय रथं शीघ्रं यावन्नापैति मे रिपुः |
7374 | 6093009c | यदि वाप्युषितोऽसि त्वं स्मर्यन्ते यदि वा गुणाः |
7375 | 6093010a | एवं परुषमुक्तस्तु हितबुद्धिरबुद्धिना |
7376 | 6093010c | अब्रवीद्रावणं सूतो हितं सानुनयं वचः |
7377 | 6093011a | न भीतोऽस्मि न मूढोऽस्मि नोपजप्तोऽस्मि शत्रुभिः |
7378 | 6093011c | न प्रमत्तो न निःस्नेहो विस्मृता न च सत्क्रिया |
7379 | 6093012a | मया तु हितकामेन यशश्च परिरक्षता |
7380 | 6093012c | स्नेहप्रस्कन्नमनसा प्रियमित्यप्रियं कृतम् |
7381 | 6093013a | नास्मिन्नर्थे महाराज त्वं मां प्रियहिते रतम् |
7382 | 6093013c | कश्चिल्लघुरिवानार्यो दोषतो गन्तुमर्हसि |
7383 | 6093014a | श्रूयतामभिधास्यामि यन्निमित्तं मया रथः |
7384 | 6093014c | नदीवेग इवाम्भोभिः संयुगे विनिवर्तितः |
7385 | 6093015a | श्रमं तवावगच्छामि महता रणकर्मणा |
7386 | 6093015c | न हि ते वीर सौमुख्यं प्रहर्षं वोपधारये |
7387 | 6093016a | रथोद्वहनखिन्नाश्च त इमे रथवाजिनः |
7388 | 6093016c | दीना घर्मपरिश्रान्ता गावो वर्षहता इव |
7389 | 6093017a | निमित्तानि च भूयिष्ठं यानि प्रादुर्भवन्ति नः |
7390 | 6093017c | तेषु तेष्वभिपन्नेषु लक्षयाम्यप्रदक्षिणम् |
7391 | 6093018a | देशकालौ च विज्ञेयौ लक्षणानीङ्गितानि च |
7392 | 6093018c | दैन्यं हर्षश्च खेदश्च रथिनश्च बलाबलम् |
7393 | 6093019a | स्थलनिम्नानि भूमेश्च समानि विषमाणि च |
7394 | 6093019c | युद्धकालश्च विज्ञेयः परस्यान्तरदर्शनम् |
7395 | 6093020a | उपयानापयाने च स्थानं प्रत्यपसर्पणम् |
7396 | 6093020c | सर्वमेतद्रथस्थेन ज्ञेयं रथकुटुम्बिना |
7397 | 6093021a | तव विश्रामहेतोस्तु तथैषां रथवाजिनाम् |
7398 | 6093021c | रौद्रं वर्जयता खेदं क्षमं कृतमिदं मया |
7399 | 6093022a | न मया स्वेच्छया वीर रथोऽयमपवाहितः |
7400 | 6093022c | भर्तृस्नेहपरीतेन मयेदं यत्कृतं विभो |
7401 | 6093023a | आज्ञापय यथातत्त्वं वक्ष्यस्यरिनिषूदन |
7402 | 6093023c | तत्करिष्याम्यहं वीरं गतानृण्येन चेतसा |
7403 | 6093024a | संतुष्टस्तेन वाक्येन रावणस्तस्य सारथेः |
7404 | 6093024c | प्रशस्यैनं बहुविधं युद्धलुब्धोऽब्रवीदिदम् |
7405 | 6093025a | रथं शीघ्रमिमं सूत राघवाभिमुखं कुरु |
7406 | 6093025c | नाहत्वा समरे शत्रून्निवर्तिष्यति रावणः |
7407 | 6093026a | एवमुक्त्वा ततस्तुष्टो रावणो राक्षसेश्वरः |
7408 | 6093026c | ददौ तस्य शुभं ह्येकं हस्ताभरणमुत्तमम् |
7409 | 6093027a | ततो द्रुतं रावणवाक्यचोदितः; प्रचोदयामास हयान्स सारथिः |
7410 | 6093027c | स राक्षसेन्द्रस्य ततो महारथः; क्षणेन रामस्य रणाग्रतोऽभवत् |
7411 | 6094001a | तमापतन्तं सहसा स्वनवन्तं महाध्वजम् |
7412 | 6094001c | रथं राक्षसराजस्य नरराजो ददर्श ह |
7413 | 6094002a | कृष्णवाजिसमायुक्तं युक्तं रौद्रेण वर्चसा |
7414 | 6094002c | तडित्पताकागहनं दर्शितेन्द्रायुधायुधम् |
7415 | 6094002e | शरधारा विमुञ्चन्तं धारासारमिवान्बुदम् |
7416 | 6094003a | तं दृष्ट्वा मेघसंकाशमापतन्तं रथं रिपोः |
7417 | 6094003c | गिरेर्वज्राभिमृष्टस्य दीर्यतः सदृशस्वनम् |
7418 | 6094003e | उवाच मातलिं रामः सहस्राक्षस्य सारथिम् |
7419 | 6094004a | मातले पश्य संरब्धमापतन्तं रथं रिपोः |
7420 | 6094004c | यथापसव्यं पतता वेगेन महता पुनः |
7421 | 6094004e | समरे हन्तुमात्मानं तथानेन कृता मतिः |
7422 | 6094005a | तदप्रमादमातिष्ठ प्रत्युद्गच्छ रथं रिपोः |
7423 | 6094005c | विध्वंसयितुमिच्छामि वायुर्मेघमिवोत्थितम् |
7424 | 6094006a | अविक्लवमसंभ्रान्तमव्यग्रहृदयेक्षणम् |
7425 | 6094006c | रश्मिसंचारनियतं प्रचोदय रथं द्रुतम् |
7426 | 6094007a | कामं न त्वं समाधेयः पुरंदररथोचितः |
7427 | 6094007c | युयुत्सुरहमेकाग्रः स्मारये त्वां न शिक्षये |
7428 | 6094008a | परितुष्टः स रामस्य तेन वाक्येन मातलिः |
7429 | 6094008c | प्रचोदयामास रथं सुरसारथिसत्तमः |
7430 | 6094009a | अपसव्यं ततः कुर्वन्रावणस्य महारथम् |
7431 | 6094009c | चक्रोत्क्षिप्तेन रजसा रावणं व्यवधूनयत् |
7432 | 6094010a | ततः क्रुद्धो दशग्रीवस्ताम्रविस्फारितेक्षणः |
7433 | 6094010c | रथप्रतिमुखं रामं सायकैरवधूनयत् |
7434 | 6094011a | धर्षणामर्षितो रामो धैर्यं रोषेण लङ्घयन् |
7435 | 6094011c | जग्राह सुमहावेगमैन्द्रं युधि शरासनम् |
7436 | 6094011e | शरांश्च सुमहातेजाः सूर्यरश्मिसमप्रभान् |
7437 | 6094012a | तदुपोढं महद्युद्धमन्योन्यवधकाङ्क्षिणोः |
7438 | 6094012c | परस्पराभिमुखयोर्दृप्तयोरिव सिंहयोः |
7439 | 6094013a | ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः |
7440 | 6094013c | समीयुर्द्वैरथं द्रष्टुं रावणक्षयकाङ्क्षिणः |
7441 | 6094014a | समुत्पेतुरथोत्पाता दारुणा लोमहर्षणाः |
7442 | 6094014c | रावणस्य विनाशाय राघवस्य जयाय च |
7443 | 6094015a | ववर्ष रुधिरं देवो रावणस्य रथोपरि |
7444 | 6094015c | वाता मण्डलिनस्तीव्रा अपसव्यं प्रचक्रमुः |
7445 | 6094016a | महद्गृध्रकुलं चास्य भ्रममाणं नभस्तले |
7446 | 6094016c | येन येन रथो याति तेन तेन प्रधावति |
7447 | 6094017a | संध्यया चावृता लङ्का जपापुष्पनिकाशया |
7448 | 6094017c | दृश्यते संप्रदीतेव दिवसेऽपि वसुंधरा |
7449 | 6094018a | सनिर्घाता महोल्काश्च संप्रचेतुर्महास्वनाः |
7450 | 6094018c | विषादयन्त्यो रक्षांसि रावणस्य तदाहिताः |
7451 | 6094019a | रावणश्च यतस्तत्र प्रचचाल वसुंधरा |
7452 | 6094019c | रक्षसां च प्रहरतां गृहीता इव बाहवः |
7453 | 6094020a | ताम्राः पीताः सिताः श्वेताः पतिताः सूर्यरश्मयः |
7454 | 6094020c | दृश्यन्ते रावणस्याङ्गे पर्वतस्येव धातवः |
7455 | 6094021a | गृध्रैरनुगताश्चास्य वमन्त्यो ज्वलनं मुखैः |
7456 | 6094021c | प्रणेदुर्मुखमीक्षन्त्यः संरब्धमशिवं शिवाः |
7457 | 6094022a | प्रतिकूलं ववौ वायू रणे पांसून्समुत्किरन् |
7458 | 6094022c | तस्य राक्षसराजस्य कुर्वन्दृष्टिविलोपनम् |
7459 | 6094023a | निपेतुरिन्द्राशनयः सैन्ये चास्य समन्ततः |
7460 | 6094023c | दुर्विषह्य स्वना घोरा विना जलधरस्वनम् |
7461 | 6094024a | दिशश्च प्रदिशः सर्वा बभूवुस्तिमिरावृताः |
7462 | 6094024c | पांसुवर्षेण महता दुर्दर्शं च नभोऽभवत् |
7463 | 6094025a | कुर्वन्त्यः कलहं घोरं सारिकास्तद्रथं प्रति |
7464 | 6094025c | निपेतुः शतशस्तत्र दारुणा दारुणस्वनाः |
7465 | 6094026a | जघनेभ्यः स्फुलिङ्गांश्च नेत्रेभ्योऽश्रूणि संततम् |
7466 | 6094026c | मुमुचुस्तस्य तुरगास्तुल्यमग्निं च वारि च |
7467 | 6094027a | एवं प्रकारा बहवः समुत्पाता भयावहाः |
7468 | 6094027c | रावणस्य विनाशाय दारुणाः संप्रजज्ञिरे |
7469 | 6094028a | रामस्यापि निमित्तानि सौम्यानि च शिवानि च |
7470 | 6094028c | बभूवुर्जयशंसीनि प्रादुर्भूतानि सर्वशः |
7471 | 6094029a | ततो निरीक्ष्यात्मगतानि राघवो; रणे निमित्तानि निमित्तकोविदः |
7472 | 6094029c | जगाम हर्षं च परां च निर्वृतिं; चकार युद्धेऽभ्यधिकं च विक्रमम् |
7473 | 6095001a | ततः प्रवृत्तं सुक्रूरं रामरावणयोस्तदा |
7474 | 6095001c | सुमहद्द्वैरथं युद्धं सर्वलोकभयावहम् |
7475 | 6095002a | ततो राक्षससैन्यं च हरीणां च महद्बलम् |
7476 | 6095002c | प्रगृहीतप्रहरणं निश्चेष्टं समतिष्ठत |
7477 | 6095003a | संप्रयुद्धौ ततो दृष्ट्वा बलवन्नरराक्षसौ |
7478 | 6095003c | व्याक्षिप्तहृदयाः सर्वे परं विस्मयमागताः |
7479 | 6095004a | नानाप्रहरणैर्व्यग्रैर्भुजैर्विस्मितबुद्धयः |
7480 | 6095004c | तस्थुः प्रेक्ष्य च संग्रामं नाभिजघ्नुः परस्परम् |
7481 | 6095005a | रक्षसां रावणं चापि वानराणां च राघवम् |
7482 | 6095005c | पश्यतां विस्मिताक्षाणां सैन्यं चित्रमिवाबभौ |
7483 | 6095006a | तौ तु तत्र निमित्तानि दृष्ट्वा राघवरावणौ |
7484 | 6095006c | कृतबुद्धी स्थिरामर्षौ युयुधाते अभीतवत् |
7485 | 6095007a | जेतव्यमिति काकुत्स्थो मर्तव्यमिति रावणः |
7486 | 6095007c | धृतौ स्ववीर्यसर्वस्वं युद्धेऽदर्शयतां तदा |
7487 | 6095008a | ततः क्रोधाद्दशग्रीवः शरान्संधाय वीर्यवान् |
7488 | 6095008c | मुमोच ध्वजमुद्दिश्य राघवस्य रथे स्थितम् |
7489 | 6095009a | ते शरास्तमनासाद्य पुरंदररथध्वजम् |
7490 | 6095009c | रक्तशक्तिं परामृश्य निपेतुर्धरणीतले |
7491 | 6095010a | ततो रामोऽभिसंक्रुद्धश्चापमायम्य वीर्यवान् |
7492 | 6095010c | कृतप्रतिकृतं कर्तुं मनसा संप्रचक्रमे |
7493 | 6095011a | रावणध्वजमुद्दिश्य मुमोच निशितं शरम् |
7494 | 6095011c | महासर्पमिवासह्यं ज्वलन्तं स्वेन तेजसा |
7495 | 6095012a | जगाम स महीं भित्त्वा दशग्रीवध्वजं शरः |
7496 | 6095012c | स निकृत्तोऽपतद्भूमौ रावणस्य रथध्वजः |
7497 | 6095013a | ध्वजस्योन्मथनं दृष्ट्वा रावणः सुमहाबलः |
7498 | 6095013c | क्रोधजेनाग्निना संख्ये प्रदीप्त इव चाभवत् |
7499 | 6095014a | स रोषवशमापन्नः शरवर्षं महद्वमन् |
7500 | 6095014c | रामस्य तुरगान्दिव्याञ्शरैर्विव्याध रावणः |
7501 | 6095015a | ते विद्धा हरयस्तस्य नास्खलन्नापि बभ्रमुः |
7502 | 6095015c | बभूवुः स्वस्थहृदयाः पद्मनालैरिवाहताः |
7503 | 6095016a | तेषामसंभ्रमं दृष्ट्वा वाजिनां रावणस्तदा |
7504 | 6095016c | भूय एव सुसंक्रुद्धः शरवर्षं मुमोच ह |
7505 | 6095017a | गदाश्च परिघांश्चैव चक्राणि मुसलानि च |
7506 | 6095017c | गिरिशृङ्गाणि वृक्षांश्च तथा शूलपरश्वधान् |
7507 | 6095018a | मायाविहितमेतत्तु शस्त्रवर्षमपातयत् |
7508 | 6095018c | सहस्रशस्ततो बाणानश्रान्तहृदयोद्यमः |
7509 | 6095019a | तुमुलं त्रासजननं भीमं भीमप्रतिस्वनम् |
7510 | 6095019c | दुर्धर्षमभवद्युद्धे नैकशस्त्रमयं महत् |
7511 | 6095020a | विमुच्य राघवरथं समन्ताद्वानरे बले |
7512 | 6095020c | सायकैरन्तरिक्षं च चकाराशु निरन्तरम् |
7513 | 6095020e | मुमोच च दशग्रीवो निःसङ्गेनान्तरात्मना |
7514 | 6095021a | व्यायच्छमानं तं दृष्ट्वा तत्परं रावणं रणे |
7515 | 6095021c | प्रहसन्निव काकुत्स्थः संदधे सायकाञ्शितान् |
7516 | 6095022a | स मुमोच ततो बाणान्रणे शतसहस्रशः |
7517 | 6095022c | तान्दृष्ट्वा रावणश्चक्रे स्वशरैः खं निरन्तरम् |
7518 | 6095023a | ततस्ताभ्यां प्रयुक्तेन शरवर्षेण भास्वता |
7519 | 6095023c | शरबद्धमिवाभाति द्वितीयं भास्वदम्बरम् |
7520 | 6095024a | नानिमित्तोऽभवद्बाणो नातिभेत्ता न निष्फलः |
7521 | 6095024c | तथा विसृजतोर्बाणान्रामरावणयोर्मृधे |
7522 | 6095025a | प्रायुध्येतामविच्छिन्नमस्यन्तौ सव्यदक्षिणम् |
7523 | 6095025c | चक्रतुस्तौ शरौघैस्तु निरुच्छ्वासमिवाम्बरम् |
7524 | 6095026a | रावणस्य हयान्रामो हयान्रामस्य रावणः |
7525 | 6095026c | जघ्नतुस्तौ तदान्योन्यं कृतानुकृतकारिणौ |
7526 | 6096001a | तौ तथा युध्यमानौ तु समरे रामरावणौ |
7527 | 6096001c | ददृशुः सर्वभूतानि विस्मितेनान्तरात्मना |
7528 | 6096002a | अर्दयन्तौ तु समरे तयोस्तौ स्यन्दनोत्तमौ |
7529 | 6096002c | परस्परवधे युक्तौ घोररूपौ बभूवतुः |
7530 | 6096003a | मण्डलानि च वीथीश्च गतप्रत्यागतानि च |
7531 | 6096003c | दर्शयन्तौ बहुविधां सूतौ सारथ्यजां गतिम् |
7532 | 6096004a | अर्दयन्रावणं रामो राघवं चापि रावणः |
7533 | 6096004c | गतिवेगं समापन्नौ प्रवर्तन निवर्तने |
7534 | 6096005a | क्षिपतोः शरजालानि तयोस्तौ स्यन्दनोत्तमौ |
7535 | 6096005c | चेरतुः संयुगमहीं सासारौ जलदाविव |
7536 | 6096006a | दर्शयित्वा तदा तौ तु गतिं बहुविधां रणे |
7537 | 6096006c | परस्परस्याभिमुखौ पुनरेव च तस्थतुः |
7538 | 6096007a | धुरं धुरेण रथयोर्वक्त्रं वक्त्रेण वाजिनाम् |
7539 | 6096007c | पताकाश्च पताकाभिः समेयुः स्थितयोस्तदा |
7540 | 6096008a | रावणस्य ततो रामो धनुर्मुक्तैः शितैः शरैः |
7541 | 6096008c | चतुर्भिश्चतुरो दीप्तान्हयान्प्रत्यपसर्पयत् |
7542 | 6096009a | स क्रोधवशमापन्नो हयानामपसर्पणे |
7543 | 6096009c | मुमोच निशितान्बाणान्राघवाय निशाचरः |
7544 | 6096010a | सोऽतिविद्धो बलवता दशग्रीवेण राघवः |
7545 | 6096010c | जगाम न विकारं च न चापि व्यथितोऽभवत् |
7546 | 6096011a | चिक्षेप च पुनर्बाणान्वज्रपातसमस्वनान् |
7547 | 6096011c | सारथिं वज्रहस्तस्य समुद्दिश्य निशाचरः |
7548 | 6096012a | मातलेस्तु महावेगाः शरीरे पतिताः शराः |
7549 | 6096012c | न सूक्ष्ममपि संमोहं व्यथां वा प्रददुर्युधि |
7550 | 6096013a | तया धर्षणया क्रोद्धो मातलेर्न तथात्मनः |
7551 | 6096013c | चकार शरजालेन राघवो विमुखं रिपुम् |
7552 | 6096014a | विंशतिं त्रिंशतं षष्टिं शतशोऽथ सहस्रशः |
7553 | 6096014c | मुमोच राघवो वीरः सायकान्स्यन्दने रिपोः |
7554 | 6096015a | गदानां मुसलानां च परिघाणां च निस्वनैः |
7555 | 6096015c | शराणां पुङ्खवातैश्च क्षुभिताः सप्तसागराः |
7556 | 6096016a | क्षुब्धानां सागराणां च पातालतलवासिनः |
7557 | 6096016c | व्यथिताः पन्नगाः सर्वे दानवाश्च सहस्रशः |
7558 | 6096017a | चकम्पे मेदिनी कृत्स्ना सशैलवनकानना |
7559 | 6096017c | भास्करो निष्प्रभश्चाभून्न ववौ चापि मारुतः |
7560 | 6096018a | ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः |
7561 | 6096018c | चिन्तामापेदिरे सर्वे सकिंनरमहोरगाः |
7562 | 6096019a | स्वस्ति गोब्राह्मणेभ्योऽस्तु लोकास्तिष्ठन्तु शाश्वताः |
7563 | 6096019c | जयतां राघवः संख्ये रावणं राक्षसेश्वरम् |
7564 | 6096020a | ततः क्रुद्धो महाबाहू रघूणां कीर्तिवर्धनः |
7565 | 6096020c | संधाय धनुषा रामः क्षुरमाशीविषोपमम् |
7566 | 6096020e | रावणस्य शिरोऽच्छिन्दच्छ्रीमज्ज्वलितकुण्डलम् |
7567 | 6096021a | तच्छिरः पतितं भूमौ दृष्टं लोकैस्त्रिभिस्तदा |
7568 | 6096021c | तस्यैव सदृशं चान्यद्रावणस्योत्थितं शिरः |
7569 | 6096022a | तत्क्षिप्रं क्षिप्रहस्तेन रामेण क्षिप्रकारिणा |
7570 | 6096022c | द्वितीयं रावणशिरश्छिन्नं संयति सायकैः |
7571 | 6096023a | छिन्नमात्रं च तच्छीर्षं पुनरन्यत्स्म दृश्यते |
7572 | 6096023c | तदप्यशनिसंकाशैश्छिन्नं रामेण सायकैः |
7573 | 6096024a | एवमेव शतं छिन्नं शिरसां तुल्यवर्चसाम् |
7574 | 6096024c | न चैव रावणस्यान्तो दृश्यते जीवितक्षये |
7575 | 6096025a | ततः सर्वास्त्रविद्वीरः कौसल्यानन्दिवर्धनः |
7576 | 6096025c | मार्गणैर्बहुभिर्युक्तश्चिन्तयामास राघवः |
7577 | 6096026a | मारीचो निहतो यैस्तु खरो यैस्तु सुदूषणः |
7578 | 6096026c | क्रञ्चारण्ये विराधस्तु कबन्धो दण्डका वने |
7579 | 6096027a | त इमे सायकाः सर्वे युद्धे प्रत्ययिका मम |
7580 | 6096027c | किं नु तत्कारणं येन रावणे मन्दतेजसः |
7581 | 6096028a | इति चिन्तापरश्चासीदप्रमत्तश्च संयुगे |
7582 | 6096028c | ववर्ष शरवर्षाणि राघवो रावणोरसि |
7583 | 6096029a | रावणोऽपि ततः क्रुद्धो रथस्थो राक्षसेश्वरः |
7584 | 6096029c | गदामुसलवर्षेण रामं प्रत्यर्दयद्रणे |
7585 | 6096030a | देवदानवयक्षाणां पिशाचोरगरक्षसाम् |
7586 | 6096030c | पश्यतां तन्महद्युद्धं सर्वरात्रमवर्तत |
7587 | 6096031a | नैव रत्रिं न दिवसं न मुहूर्तं न चक्षणम् |
7588 | 6096031c | रामरावणयोर्युद्धं विराममुपगच्छति |
7589 | 6097001a | अथ संस्मारयामास राघवं मातलिस्तदा |
7590 | 6097001c | अजानन्निव किं वीर त्वमेनमनुवर्तसे |
7591 | 6097002a | विसृजास्मै वधाय त्वमस्त्रं पैतामहं प्रभो |
7592 | 6097002c | विनाशकालः कथितो यः सुरैः सोऽद्य वर्तते |
7593 | 6097003a | ततः संस्मारितो रामस्तेन वाक्येन मातलेः |
7594 | 6097003c | जग्राह स शरं दीप्तं निश्वसन्तमिवोरगम् |
7595 | 6097004a | यमस्मै प्रथमं प्रादादगस्त्यो भगवानृषिः |
7596 | 6097004c | ब्रह्मदत्तं महद्बाणममोघं युधि वीर्यवान् |
7597 | 6097005a | ब्रह्मणा निर्मितं पूर्वमिन्द्रार्थममितौजसा |
7598 | 6097005c | दत्तं सुरपतेः पूर्वं त्रिलोकजयकाङ्क्षिणः |
7599 | 6097006a | यस्य वाजेषु पवनः फले पावकभास्करौ |
7600 | 6097006c | शरीरमाकाशमयं गौरवे मेरुमन्दरौ |
7601 | 6097007a | जाज्वल्यमानं वपुषा सुपुङ्खं हेमभूषितम् |
7602 | 6097007c | तेजसा सर्वभूतानां कृतं भास्करवर्चसं |
7603 | 6097008a | सधूममिव कालाग्निं दीप्तमाशीविषं यथा |
7604 | 6097008c | रथनागाश्ववृन्दानां भेदनं क्षिप्रकारिणम् |
7605 | 6097009a | द्वाराणां परिघाणां च गिरीणामपि भेदनम् |
7606 | 6097009c | नानारुधिरसिक्ताङ्गं मेदोदिग्धं सुदारुणम् |
7607 | 6097010a | वज्रसारं महानादं नानासमितिदारुणम् |
7608 | 6097010c | सर्ववित्रासनं भीमं श्वसन्तमिव पन्नगम् |
7609 | 6097011a | कङ्कगृध्रबलानां च गोमायुगणरक्षसाम् |
7610 | 6097011c | नित्यं भक्षप्रदं युद्धे यमरूपं भयावहम् |
7611 | 6097012a | नन्दनं वानरेन्द्राणां रक्षसामवसादनम् |
7612 | 6097012c | वाजितं विविधैर्वाजैश्चारुचित्रैर्गरुत्मतः |
7613 | 6097013a | तमुत्तमेषुं लोकानामिक्ष्वाकुभयनाशनम् |
7614 | 6097013c | द्विषतां कीर्तिहरणं प्रहर्षकरमात्मनः |
7615 | 6097014a | अभिमन्त्र्य ततो रामस्तं महेषुं महाबलः |
7616 | 6097014c | वेदप्रोक्तेन विधिना संदधे कार्मुके बली |
7617 | 6097015a | स रावणाय संक्रुद्धो भृशमायम्य कार्मुकम् |
7618 | 6097015c | चिक्षेप परमायत्तस्तं शरं मर्मघातिनम् |
7619 | 6097016a | स वज्र इव दुर्धर्षो वज्रबाहुविसर्जितः |
7620 | 6097016c | कृतान्त इव चावार्यो न्यपतद्रावणोरसि |
7621 | 6097017a | स विसृष्टो महावेगः शरीरान्तकरः शरः |
7622 | 6097017c | बिभेद हृदयं तस्य रावणस्य दुरात्मनः |
7623 | 6097018a | रुधिराक्तः स वेगेन जीवितान्तकरः शरः |
7624 | 6097018c | रावणस्य हरन्प्राणान्विवेश धरणीतलम् |
7625 | 6097019a | स शरो रावणं हत्वा रुधिरार्द्रकृतच्छविः |
7626 | 6097019c | कृतकर्मा निभृतवत्स्वतूणीं पुनराविशत् |
7627 | 6097020a | तस्य हस्ताद्धतस्याशु कार्मुकं तत्ससायकम् |
7628 | 6097020c | निपपात सह प्राणैर्भ्रश्यमानस्य जीवितात् |
7629 | 6097021a | गतासुर्भीमवेगस्तु नैरृतेन्द्रो महाद्युतिः |
7630 | 6097021c | पपात स्यन्दनाद्भूमौ वृत्रो वज्रहतो यथा |
7631 | 6097022a | तं दृष्ट्वा पतितं भूमौ हतशेषा निशाचराः |
7632 | 6097022c | हतनाथा भयत्रस्ताः सर्वतः संप्रदुद्रुवुः |
7633 | 6097023a | नर्दन्तश्चाभिपेतुस्तान्वानरा द्रुमयोधिनः |
7634 | 6097023c | दशग्रीववधं दृष्ट्वा विजयं राघवस्य च |
7635 | 6097024a | अर्दिता वानरैर्हृष्टैर्लङ्कामभ्यपतन्भयात् |
7636 | 6097024c | हताश्रयत्वात्करुणैर्बाष्पप्रस्रवणैर्मुखैः |
7637 | 6097025a | ततो विनेदुः संहृष्टा वानरा जितकाशिनः |
7638 | 6097025c | वदन्तो राघवजयं रावणस्य च तं वधम् |
7639 | 6097026a | अथान्तरिक्षे व्यनदत्सौम्यस्त्रिदशदुन्दुभिः |
7640 | 6097026c | दिव्यगन्धवहस्तत्र मारुतः सुसुखो ववौ |
7641 | 6097027a | निपपातान्तरिक्षाच्च पुष्पवृष्टिस्तदा भुवि |
7642 | 6097027c | किरन्ती राघवरथं दुरवापा मनोहराः |
7643 | 6097028a | राघवस्तवसंयुक्ता गगने च विशुश्रुवे |
7644 | 6097028c | साधु साध्विति वागग्र्या देवतानां महात्मनाम् |
7645 | 6097029a | आविवेश महान्हर्षो देवानां चारणैः सह |
7646 | 6097029c | रावणे निहते रौद्रे सर्वलोकभयंकरे |
7647 | 6097030a | ततः सकामं सुग्रीवमङ्गदं च महाबलम् |
7648 | 6097030c | चकार राघवः प्रीतो हत्वा राक्षसपुंगवम् |
7649 | 6097031a | ततः प्रजग्मुः प्रशमं मरुद्गणा; दिशः प्रसेदुर्विमलं नभोऽभवत् |
7650 | 6097031c | मही चकम्पे न च मारुता ववुः; स्थिरप्रभश्चाप्यभवद्दिवाकरः |
7651 | 6097032a | ततस्तु सुग्रीवविभीषणादयः; सुहृद्विशेषाः सहलक्ष्मणास्तदा |
7652 | 6097032c | समेत्य हृष्टा विजयेन राघवं; रणेऽभिरामं विधिनाभ्यपूजयन् |
7653 | 6097033a | स तु निहतरिपुः स्थिरप्रतिज्ञः; स्वजनबलाभिवृतो रणे रराज |
7654 | 6097033c | रघुकुलनृपनन्दनो महौजा;स्त्रिदशगणैरभिसंवृतो यथेन्द्रः |
7655 | 6098001a | रावणं निहतं श्रुत्वा राघवेण महात्मना |
7656 | 6098001c | अन्तःपुराद्विनिष्पेतू राक्षस्यः शोककर्शिताः |
7657 | 6098002a | वार्यमाणाः सुबहुशो वृष्टन्त्यः क्षितिपांसुषु |
7658 | 6098002c | विमुक्तकेश्यो दुःखार्ता गावो वत्सहता यथा |
7659 | 6098003a | उत्तरेण विनिष्क्रम्य द्वारेण सह राक्षसैः |
7660 | 6098003c | प्रविश्यायोधनं घोरं विचिन्वन्त्यो हतं पतिम् |
7661 | 6098004a | आर्यपुत्रेति वादिन्यो हा नाथेति च सर्वशः |
7662 | 6098004c | परिपेतुः कबन्धाङ्कां महीं शोणितकर्दमाम् |
7663 | 6098005a | ता बाष्पपरिपूर्णाक्ष्यो भर्तृशोकपराजिताः |
7664 | 6098005c | करेण्व इव नर्दन्त्यो विनेदुर्हतयूथपाः |
7665 | 6098006a | ददृशुस्ता महाकायं महावीर्यं महाद्युतिम् |
7666 | 6098006c | रावणं निहतं भूमौ नीलाञ्जनचयोपमम् |
7667 | 6098007a | ताः पतिं सहसा दृष्ट्वा शयानं रणपांसुषु |
7668 | 6098007c | निपेतुस्तस्य गात्रेषु छिन्ना वनलता इव |
7669 | 6098008a | बहुमानात्परिष्वज्य काचिदेनं रुरोद ह |
7670 | 6098008c | चरणौ काचिदालिङ्ग्य काचित्कण्ठेऽवलम्ब्य च |
7671 | 6098009a | उद्धृत्य च भुजौ काचिद्भूमौ स्म परिवर्तते |
7672 | 6098009c | हतस्य वदनं दृष्ट्वा काचिन्मोहमुपागमत् |
7673 | 6098010a | काचिदङ्के शिरः कृत्वा रुरोद मुखमीक्षती |
7674 | 6098010c | स्नापयन्ती मुखं बाष्पैस्तुषारैरिव पङ्कजम् |
7675 | 6098011a | एवमार्ताः पतिं दृष्ट्वा रावणं निहतं भुवि |
7676 | 6098011c | चुक्रुशुर्बहुधा शोकाद्भूयस्ताः पर्यदेवयन् |
7677 | 6098012a | येन वित्रासितः शक्रो येन वित्रासितो यमः |
7678 | 6098012c | येन वैश्रवणो राजा पुष्पकेण वियोजितः |
7679 | 6098013a | गन्धर्वाणामृषीणां च सुराणां च महात्मनाम् |
7680 | 6098013c | भयं येन महद्दत्तं सोऽयं शेते रणे हतः |
7681 | 6098014a | असुरेभ्यः सुरेभ्यो वा पन्नगेभ्योऽपि वा तथा |
7682 | 6098014c | न भयं यो विजानाति तस्येदं मानुषाद्भयम् |
7683 | 6098015a | अवध्यो देवतानां यस्तथा दानवरक्षसाम् |
7684 | 6098015c | हतः सोऽयं रणे शेते मानुषेण पदातिना |
7685 | 6098016a | यो न शक्यः सुरैर्हन्तुं न यक्षैर्नासुरैस्तथा |
7686 | 6098016c | सोऽयं कश्चिदिवासत्त्वो मृत्युं मर्त्येन लम्भितः |
7687 | 6098017a | एवं वदन्त्यो बहुधा रुरुदुस्तस्य ताः स्त्रियः |
7688 | 6098017c | भूय एव च दुःखार्ता विलेपुश्च पुनः पुनः |
7689 | 6098018a | अशृण्वता तु सुहृदां सततं हितवादिनाम् |
7690 | 6098018c | एताः सममिदानीं ते वयमात्मा च पातिताः |
7691 | 6098019a | ब्रुवाणोऽपि हितं वाक्यमिष्टो भ्राता विभीषणः |
7692 | 6098019c | धृष्टं परुषितो मोहात्त्वयात्मवधकाङ्क्षिणा |
7693 | 6098020a | यदि निर्यातिता ते स्यात्सीता रामाय मैथिली |
7694 | 6098020c | न नः स्याद्व्यसनं घोरमिदं मूलहरं महत् |
7695 | 6098021a | वृत्तकामो भवेद्भ्राता रामो मित्रकुलं भवेत् |
7696 | 6098021c | वयं चाविधवाः सर्वाः सकामा न च शत्रवः |
7697 | 6098022a | त्वया पुनर्नृशंसेन सीतां संरुन्धता बलात् |
7698 | 6098022c | राक्षसा वयमात्मा च त्रयं तुलं निपातितम् |
7699 | 6098023a | न कामकारः कामं वा तव राक्षसपुंगव |
7700 | 6098023c | दैवं चेष्टयते सर्वं हतं दैवेन हन्यते |
7701 | 6098024a | वानराणां विनाशोऽयं राक्षसानां च ते रणे |
7702 | 6098024c | तव चैव महाबाहो दैवयोगादुपागतः |
7703 | 6098025a | नैवार्थेन न कामेन विक्रमेण न चाज्ञया |
7704 | 6098025c | शक्या दैवगतिर्लोके निवर्तयितुमुद्यता |
7705 | 6098026a | विलेपुरेवं दीनास्ता राक्षसाधिपयोषितः |
7706 | 6098026c | कुरर्य इव दुःखार्ता बाष्पपर्याकुलेक्षणाः |
7707 | 6099001a | तासां विलपमानानां तथा राक्षसयोषिताम् |
7708 | 6099001c | ज्येष्ठा पत्नी प्रिया दीना भर्तारं समुदैक्षत |
7709 | 6099002a | दशग्रीवं हतं दृष्ट्वा रामेणाचिन्त्यकर्मणा |
7710 | 6099002c | पतिं मन्दोदरी तत्र कृपणा पर्यदेवयत् |
7711 | 6099003a | ननु नाम महाबाहो तव वैश्रवणानुज |
7712 | 6099003c | क्रुद्धस्य प्रमुखे स्थातुं त्रस्यत्यपि पुरंदरः |
7713 | 6099004a | ऋषयश्च महीदेवा गन्धर्वाश्च यशस्विनः |
7714 | 6099004c | ननु नाम तवोद्वेगाच्चारणाश्च दिशो गताः |
7715 | 6099005a | स त्वं मानुषमात्रेण रामेण युधि निर्जितः |
7716 | 6099005c | न व्यपत्रपसे राजन्किमिदं राक्षसर्षभ |
7717 | 6099006a | कथं त्रैलोक्यमाक्रम्य श्रिया वीर्येण चान्वितम् |
7718 | 6099006c | अविषह्यं जघान त्वां मानुषो वनगोचरः |
7719 | 6099007a | मानुषाणामविषये चरतः कामरूपिणः |
7720 | 6099007c | विनाशस्तव रामेण संयुगे नोपपद्यते |
7721 | 6099008a | न चैतत्कर्म रामस्य श्रद्दधामि चमूमुखे |
7722 | 6099008c | सर्वतः समुपेतस्य तव तेनाभिमर्शनम् |
7723 | 6099009a | इन्द्रियाणि पुरा जित्वा जितं त्रिभुवणं त्वया |
7724 | 6099009c | स्मरद्भिरिव तद्वैरमिन्द्रियैरेव निर्जितः |
7725 | 6099010a | अथ वा रामरूपेण वासवः स्वयमागतः |
7726 | 6099010c | मायां तव विनाशाय विधायाप्रतितर्किताम् |
7727 | 6099011a | यदैव हि जनस्थाने राक्षसैर्बहुभिर्वृतः |
7728 | 6099011c | खरस्तव हतो भ्राता तदैवासौ न मानुषः |
7729 | 6099012a | यदैव नगरीं लङ्कां दुष्प्रवेषां सुरैरपि |
7730 | 6099012c | प्रविष्टो हनुमान्वीर्यात्तदैव व्यथिता वयम् |
7731 | 6099013a | क्रियतामविरोधश्च राघवेणेति यन्मया |
7732 | 6099013c | उच्यमानो न गृह्णासि तस्येयं व्युष्टिरागता |
7733 | 6099014a | अकस्माच्चाभिकामोऽसि सीतां राक्षसपुंगव |
7734 | 6099014c | ऐश्वर्यस्य विनाशाय देहस्य स्वजनस्य च |
7735 | 6099015a | अरुन्धत्या विशिष्टां तां रोहिण्याश्चापि दुर्मते |
7736 | 6099015c | सीतां धर्षयता मान्यां त्वया ह्यसदृशं कृतम् |
7737 | 6099016a | न कुलेन न रूपेण न दाक्षिण्येन मैथिली |
7738 | 6099016c | मयाधिका वा तुल्या वा त्वं तु मोहान्न बुध्यसे |
7739 | 6099017a | सर्वथा सर्वभूतानां नास्ति मृत्युरलक्षणः |
7740 | 6099017c | तव तावदयं मृत्युर्मैथिलीकृतलक्षणः |
7741 | 6099018a | मैथिली सह रामेण विशोका विहरिष्यति |
7742 | 6099018c | अल्पपुण्या त्वहं घोरे पतिता शोकसागरे |
7743 | 6099019a | कैलासे मन्दरे मेरौ तथा चैत्ररथे वने |
7744 | 6099019c | देवोद्यानेषु सर्वेषु विहृत्य सहिता त्वया |
7745 | 6099020a | विमानेनानुरूपेण या याम्यतुलया श्रिया |
7746 | 6099020c | पश्यन्ती विविधान्देशांस्तांस्तांश्चित्रस्रगम्बरा |
7747 | 6099020e | भ्रंशिता कामभोगेभ्यः सास्मि वीरवधात्तव |
7748 | 6099021a | सत्यवाक्स महाभागो देवरो मे यदब्रवीत् |
7749 | 6099021c | अयं राक्षसमुख्यानां विनाशः पर्युपस्थितः |
7750 | 6099022a | कामक्रोधसमुत्थेन व्यसनेन प्रसङ्गिना |
7751 | 6099022c | त्वया कृतमिदं सर्वमनाथं रक्षसां कुलम् |
7752 | 6099023a | न हि त्वं शोचितव्यो मे प्रख्यातबलपौरुषः |
7753 | 6099023c | स्त्रीस्वभावात्तु मे बुद्धिः कारुण्ये परिवर्तते |
7754 | 6099024a | सुकृतं दुष्कृतं च त्वं गृहीत्वा स्वां गतिं गतः |
7755 | 6099024c | आत्मानमनुशोचामि त्वद्वियोगेन दुःखिताम् |
7756 | 6099025a | नीलजीमूतसंकाशः पीताम्बरशुभाङ्गदः |
7757 | 6099025c | सर्वगात्राणि विक्षिप्य किं शेषे रुधिराप्लुतः |
7758 | 6099025e | प्रसुप्त इव शोकार्तां किं मां न प्रतिभाषसे |
7759 | 6099026a | महावीर्यस्य दक्षस्य संयुगेष्वपलायिनः |
7760 | 6099026c | यातुधानस्य दौहित्रीं किं त्वं मां नाभ्युदीक्षसे |
7761 | 6099027a | येन सूदयसे शत्रून्समरे सूर्यवर्चसा |
7762 | 6099027c | वज्रो वज्रधरस्येव सोऽयं ते सततार्चितः |
7763 | 6099028a | रणे शत्रुप्रहरणो हेमजालपरिष्कृतः |
7764 | 6099028c | परिघो व्यवकीर्णस्ते बाणैश्छिन्नः सहस्रधा |
7765 | 6099029a | धिगस्तु हृदयं यस्या ममेदं न सहस्रधा |
7766 | 6099029c | त्वयि पञ्चत्वमापन्ने फलते शोकपीडितम् |
7767 | 6099030a | एतस्मिन्नन्तरे रामो विभीषणमुवाच ह |
7768 | 6099030c | संस्कारः क्रियतां भ्रातुः स्त्रियश्चैता निवर्तय |
7769 | 6099031a | तं प्रश्रितस्ततो रामं श्रुतवाक्यो विभीषणः |
7770 | 6099031c | विमृश्य बुद्ध्या धर्मज्ञो धर्मार्थसहितं वचः |
7771 | 6099031e | रामस्यैवानुवृत्त्यर्थमुत्तरं प्रत्यभाषत |
7772 | 6099032a | त्यक्तधर्मव्रतं क्रूरं नृशंसमनृतं तथा |
7773 | 6099032c | नाहमर्होऽस्मि संस्कर्तुं परदाराभिमर्शकम् |
7774 | 6099033a | भ्रातृरूपो हि मे शत्रुरेष सर्वाहिते रतः |
7775 | 6099033c | रावणो नार्हते पूजां पूज्योऽपि गुरुगौरवात् |
7776 | 6099034a | नृशंस इति मां राम वक्ष्यन्ति मनुजा भुवि |
7777 | 6099034c | श्रुत्वा तस्य गुणान्सर्वे वक्ष्यन्ति सुकृतं पुनः |
7778 | 6099035a | तच्छ्रुत्वा परमप्रीतो रामो धर्मभृतां वरः |
7779 | 6099035c | विभीषणमुवाचेदं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम् |
7780 | 6099036a | तवापि मे प्रियं कार्यं त्वत्प्रभवाच्च मे जितम् |
7781 | 6099036c | अवश्यं तु क्षमं वाच्यो मया त्वं राक्षसेश्वर |
7782 | 6099037a | अधर्मानृतसंयुक्तः काममेष निशाचरः |
7783 | 6099037c | तेजस्वी बलवाञ्शूरः संग्रामेषु च नित्यशः |
7784 | 6099038a | शतक्रतुमुखैर्देवैः श्रूयते न पराजितः |
7785 | 6099038c | महात्मा बलसंपन्नो रावणो लोकरावणः |
7786 | 6099039a | मरणान्तानि वैराणि निर्वृत्तं नः प्रयोजनम् |
7787 | 6099039c | क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव |
7788 | 6099040a | त्वत्सकाशान्महाबाहो संस्कारं विधिपूर्वकम् |
7789 | 6099040c | क्षिप्रमर्हति धर्मज्ञ त्वं यशोभाग्भविष्यसि |
7790 | 6099041a | राघवस्य वचः श्रुत्वा त्वरमाणो विभीषणः |
7791 | 6099041c | संस्कारेणानुरूपेण योजयामास रावणम् |
7792 | 6099042a | स ददौ पावकं तस्य विधियुक्तं विभीषणः |
7793 | 6099042c | ताः स्त्रियोऽनुनयामास सान्त्वमुक्त्वा पुनः पुनः |
7794 | 6099043a | प्रविष्टासु च सर्वासु राक्षसीषु विभीषणः |
7795 | 6099043c | रामपार्श्वमुपागम्य तदातिष्ठद्विनीतवत् |
7796 | 6099044a | रामोऽपि सह सैन्येन ससुग्रीवः सलक्ष्मणः |
7797 | 6099044c | हर्षं लेभे रिपुं हत्वा यथा वृत्रं शतक्रतुः |
7798 | 6100001a | ते रावणवधं दृष्ट्वा देवगन्धर्वदानवाः |
7799 | 6100001c | जग्मुस्तैस्तैर्विमानैः स्वैः कथयन्तः शुभाः कथाः |
7800 | 6100002a | रावणस्य वधं घोरं राघवस्य पराक्रमम् |
7801 | 6100002c | सुयुद्धं वानराणां च सुग्रीवस्य च मन्त्रितम् |
7802 | 6100003a | अनुरागं च वीर्यं च सौमित्रेर्लक्ष्मणस्य च |
7803 | 6100003c | कथयन्तो महाभागा जग्मुर्हृष्टा यथागतम् |
7804 | 6100004a | राघवस्तु रथं दिव्यमिन्द्रदत्तं शिखिप्रभम् |
7805 | 6100004c | अनुज्ञाय महाभागो मातलिं प्रत्यपूजयत् |
7806 | 6100005a | राघवेणाभ्यनुज्ञातो मातलिः शक्रसारथिः |
7807 | 6100005c | दिव्यं तं रथमास्थाय दिवमेवारुरोह सः |
7808 | 6100006a | तस्मिंस्तु दिवमारूढे सुरसारथिसत्तमे |
7809 | 6100006c | राघवः परमप्रीतः सुग्रीवं परिषस्वजे |
7810 | 6100007a | परिष्वज्य च सुग्रीवं लक्ष्मणेनाभिवादितः |
7811 | 6100007c | पूज्यमानो हरिश्रेष्ठैराजगाम बलालयम् |
7812 | 6100008a | अब्रवीच्च तदा रामः समीपपरिवर्तिनम् |
7813 | 6100008c | सौमित्रिं सत्त्वसंपन्नं लक्ष्मणं दीप्ततेजसं |
7814 | 6100009a | विभीषणमिमं सौम्य लङ्कायामभिषेचय |
7815 | 6100009c | अनुरक्तं च भक्तं च मम चैवोपकारिणम् |
7816 | 6100010a | एष मे परमः कामो यदिमं रावणानुजम् |
7817 | 6100010c | लङ्कायां सौम्य पश्येयमभिषिक्तं विभीषणम् |
7818 | 6100011a | एवमुक्तस्तु सौमित्री राघवेण महात्मना |
7819 | 6100011c | तथेत्युक्त्वा तु संहृष्टः सौवर्णं घटमाददे |
7820 | 6100012a | घटेन तेन सौमित्रिरभ्यषिञ्चद्विभीषणम् |
7821 | 6100012c | लङ्कायां रक्षसां मध्ये राजानं रामशासनात् |
7822 | 6100013a | अभ्यषिञ्चत्स धर्मात्मा शुद्धात्मानं विभीषणम् |
7823 | 6100013c | तस्यामात्या जहृषिरे भक्ता ये चास्य राक्षसाः |
7824 | 6100014a | दृष्ट्वाभिषिक्तं लङ्कायां राक्षसेन्द्रं विभीषणम् |
7825 | 6100014c | राघवः परमां प्रीतिं जगाम सहलक्ष्मणः |
7826 | 6100015a | स तद्राज्यं महत्प्राप्य रामदत्तं विभीषणः |
7827 | 6100015c | प्रकृतीः सान्त्वयित्वा च ततो राममुपागमत् |
7828 | 6100016a | अक्षतान्मोदकाँल्लाजान्दिव्याः सुमनसस्तथा |
7829 | 6100016c | आजह्रुरथ संहृष्टाः पौरास्तस्मै निशाचराः |
7830 | 6100017a | स तान्गृहीत्वा दुर्धर्षो राघवाय न्यवेदयत् |
7831 | 6100017c | मङ्गल्यं मङ्गलं सर्वं लक्ष्मणाय च वीर्यवान् |
7832 | 6100018a | कृतकार्यं समृद्धार्थं दृष्ट्वा रामो विभीषणम् |
7833 | 6100018c | प्रतिजग्राह तत्सर्वं तस्यैव प्रियकाम्यया |
7834 | 6100019a | ततः शैलोपमं वीरं प्राञ्जलिं पार्श्वतः स्थितम् |
7835 | 6100019c | अब्रवीद्राघवो वाक्यं हनूमन्तं प्लवंगमम् |
7836 | 6100020a | अनुमान्य महाराजमिमं सौम्य विभीषणम् |
7837 | 6100020c | प्रविश्य रावणगृहं विनयेनोपसृत्य च |
7838 | 6100021a | वैदेह्या मां कुशलिनं ससुग्रीवं सलक्ष्मणम् |
7839 | 6100021c | आचक्ष्व जयतां श्रेष्ठ रावणं च मया हतम् |
7840 | 6100022a | प्रियमेतदुदाहृत्य मैथिल्यास्त्वं हरीश्वर |
7841 | 6100022c | प्रतिगृह्य च संदेशमुपावर्तितुमर्हसि |
7842 | 6101001a | इति प्रतिसमादिष्टो हनूमान्मारुतात्मजः |
7843 | 6101001c | प्रविवेश पुरीं लङ्कां पूज्यमानो निशाचरैः |
7844 | 6101002a | प्रविश्य तु महातेजा रावणस्य निवेशनम् |
7845 | 6101002c | ददर्श शशिना हीनां सातङ्कामिव रोहिणीम् |
7846 | 6101003a | निभृतः प्रणतः प्रह्वः सोऽभिगम्याभिवाद्य च |
7847 | 6101003c | रामस्य वचनं सर्वमाख्यातुमुपचक्रमे |
7848 | 6101004a | वैदेहि कुशली रामः ससुग्रीवः सलक्ष्मणः |
7849 | 6101004c | कुशलं चाह सिद्धार्थो हतशत्रुररिंदमः |
7850 | 6101005a | विभीषणसहायेन रामेण हरिभिः सह |
7851 | 6101005c | निहतो रावणो देवि लक्ष्मणस्य नयेन च |
7852 | 6101006a | पृष्ट्वा च कुशलं रामो वीरस्त्वां रघुनन्दनः |
7853 | 6101006c | अब्रवीत्परमप्रीतः कृतार्थेनान्तरात्मना |
7854 | 6101007a | प्रियमाख्यामि ते देवि त्वां तु भूयः सभाजये |
7855 | 6101007c | दिष्ट्या जीवसि धर्मज्ञे जयेन मम संयुगे |
7856 | 6101008a | लब्धो नो विजयः सीते स्वस्था भव गतव्यथा |
7857 | 6101008c | रावणः स हतः शत्रुर्लङ्का चेयं वशे स्थिता |
7858 | 6101009a | मया ह्यलब्धनिद्रेण धृतेन तव निर्जये |
7859 | 6101009c | प्रतिज्ञैषा विनिस्तीर्णा बद्ध्वा सेतुं महोदधौ |
7860 | 6101010a | संभ्रमश्च न कर्तव्यो वर्तन्त्या रावणालये |
7861 | 6101010c | विभीषणविधेयं हि लङ्कैश्वर्यमिदं कृतम् |
7862 | 6101011a | तदाश्वसिहि विश्वस्ता स्वगृहे परिवर्तसे |
7863 | 6101011c | अयं चाभ्येति संहृष्टस्त्वद्दर्शनसमुत्सुकः |
7864 | 6101012a | एवमुक्ता समुत्पत्य सीता शशिनिभानना |
7865 | 6101012c | प्रहर्षेणावरुद्धा सा व्याजहार न किंचन |
7866 | 6101013a | अब्रवीच्च हरिश्रेष्ठः सीतामप्रतिजल्पतीम् |
7867 | 6101013c | किं त्वं चिन्तयसे देवि किं च मां नाभिभाषसे |
7868 | 6101014a | एवमुक्ता हनुमता सीता धर्मे व्यवस्थिता |
7869 | 6101014c | अब्रवीत्परमप्रीता हर्षगद्गदया गिरा |
7870 | 6101015a | प्रियमेतदुपश्रुत्य भर्तुर्विजयसंश्रितम् |
7871 | 6101015c | प्रहर्षवशमापन्ना निर्वाक्यास्मि क्षणान्तरम् |
7872 | 6101016a | न हि पश्यामि सदृशं चिन्तयन्ती प्लवंगम |
7873 | 6101016c | मत्प्रियाख्यानकस्येह तव प्रत्यभिनन्दनम् |
7874 | 6101017a | न च पश्यामि तत्सौम्य पृथिव्यामपि वानर |
7875 | 6101017c | सदृशं मत्प्रियाख्याने तव दातुं भवेत्समम् |
7876 | 6101018a | हिरण्यं वा सुवर्णं वा रत्नानि विविधानि च |
7877 | 6101018c | राज्यं वा त्रिषु लोकेषु नैतदर्हति भाषितुम् |
7878 | 6101019a | एवमुक्तस्तु वैदेह्या प्रत्युवाच प्लवंगमः |
7879 | 6101019c | प्रगृहीताञ्जलिर्वाक्यं सीतायाः प्रमुखे स्थितः |
7880 | 6101020a | भर्तुः प्रियहिते युक्ते भर्तुर्विजयकाङ्क्षिणि |
7881 | 6101020c | स्निग्धमेवंविधं वाक्यं त्वमेवार्हसि भाषितुम् |
7882 | 6101021a | तवैतद्वचनं सौम्ये सारवत्स्निग्धमेव च |
7883 | 6101021c | रत्नौघाद्विविधाच्चापि देवराज्याद्विशिष्यते |
7884 | 6101022a | अर्थतश्च मया प्राप्ता देवराज्यादयो गुणाः |
7885 | 6101022c | हतशत्रुं विजयिनं रामं पश्यामि यत्स्थितम् |
7886 | 6101023a | इमास्तु खलु राक्षस्यो यदि त्वमनुमन्यसे |
7887 | 6101023c | हन्तुमिच्छाम्यहं सर्वा याभिस्त्वं तर्जिता पुरा |
7888 | 6101024a | क्लिश्यन्तीं पतिदेवां त्वामशोकवनिकां गताम् |
7889 | 6101024c | घोररूपसमाचाराः क्रूराः क्रूरतरेक्षणाः |
7890 | 6101025a | राक्षस्यो दारुणकथा वरमेतं प्रयच्छ मे |
7891 | 6101025c | इच्छामि विविधैर्घातैर्हन्तुमेताः सुदारुणाः |
7892 | 6101026a | मुष्टिभिः पाणिभिश्चैव चरणैश्चैव शोभने |
7893 | 6101026c | घोरैर्जानुप्रहारैश्च दशनानां च पातनैः |
7894 | 6101027a | भक्षणैः कर्णनासानां केशानां लुञ्चनैस्तथा |
7895 | 6101027c | भृशं शुष्कमुखीभिश्च दारुणैर्लङ्घनैर्हतैः |
7896 | 6101028a | एवंप्रकारैर्बहुभिर्विप्रकारैर्यशस्विनि |
7897 | 6101028c | हन्तुमिच्छाम्यहं देवि तवेमाः कृतकिल्बिषाः |
7898 | 6101029a | एवमुक्ता महुमता वैदेही जनकात्मजा |
7899 | 6101029c | उवाच धर्मसहितं हनूमन्तं यशस्विनी |
7900 | 6101030a | राजसंश्रयवश्यानां कुर्वतीनां पराज्ञया |
7901 | 6101030c | विधेयानां च दासीनां कः कुप्येद्वानरोत्तम |
7902 | 6101031a | भाग्यवैषम्ययोगेन पुरा दुश्चरितेन च |
7903 | 6101031c | मयैतत्प्राप्यते सर्वं स्वकृतं ह्युपभुज्यते |
7904 | 6101032a | प्राप्तव्यं तु दशायोगान्मयैतदिति निश्चितम् |
7905 | 6101032c | दासीनां रावणस्याहं मर्षयामीह दुर्बला |
7906 | 6101033a | आज्ञप्ता रावणेनैता राक्षस्यो मामतर्जयन् |
7907 | 6101033c | हते तस्मिन्न कुर्युर्हि तर्जनं वानरोत्तम |
7908 | 6101034a | अयं व्याघ्रसमीपे तु पुराणो धर्मसंहितः |
7909 | 6101034c | ऋक्षेण गीतः श्लोको मे तं निबोध प्लवंगम |
7910 | 6101035a | न परः पापमादत्ते परेषां पापकर्मणाम् |
7911 | 6101035c | समयो रक्षितव्यस्तु सन्तश्चारित्रभूषणाः |
7912 | 6101036a | पापानां वा शुभानां वा वधार्हाणां प्लवंगम |
7913 | 6101036c | कार्यं कारुण्यमार्येण न कश्चिन्नापराध्यति |
7914 | 6101037a | लोकहिंसाविहाराणां रक्षसां कामरूपिणम् |
7915 | 6101037c | कुर्वतामपि पापानि नैव कार्यमशोभनम् |
7916 | 6101038a | एवमुक्तस्तु हनुमान्सीतया वाक्यकोविदः |
7917 | 6101038c | प्रत्युवाच ततः सीतां रामपत्नीं यशस्विनीम् |
7918 | 6101039a | युक्ता रामस्य भवती धर्मपत्नी यशस्विनी |
7919 | 6101039c | प्रतिसंदिश मां देवि गमिष्ये यत्र राघवः |
7920 | 6101040a | एवमुक्ता हनुमता वैदेही जनकात्मजा |
7921 | 6101040c | अब्रवीद्द्रष्टुमिच्छामि भर्तारं वानरोत्तम |
7922 | 6101041a | तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा हनुमान्पवनात्मजः |
7923 | 6101041c | हर्षयन्मैथिलीं वाक्यमुवाचेदं महाद्युतिः |
7924 | 6101042a | पूर्णचन्द्राननं रामं द्रक्ष्यस्यार्ये सलक्ष्मणम् |
7925 | 6101042c | स्थिरमित्रं हतामित्रं शचीव त्रिदशेश्वरम् |
7926 | 6101043a | तामेवमुक्त्वा राजन्तीं सीतां साक्षादिव श्रियम् |
7927 | 6101043c | आजगाम महावेगो हनूमान्यत्र राघवः |
7928 | 6102001a | स उवाच महाप्रज्ञमभिगम्य प्लवंगमः |
7929 | 6102001c | रामं वचनमर्थज्ञो वरं सर्वधनुष्मताम् |
7930 | 6102002a | यन्निमित्तोऽयमारम्भः कर्मणां च फलोदयः |
7931 | 6102002c | तां देवीं शोकसंतप्तां मैथिलीं द्रष्टुमर्हसि |
7932 | 6102003a | सा हि शोकसमाविष्टा बाष्पपर्याकुलेक्षणा |
7933 | 6102003c | मैथिली विजयं श्रुत्वा तव हर्षमुपागमत् |
7934 | 6102004a | पूर्वकात्प्रत्ययाच्चाहमुक्तो विश्वस्तया तया |
7935 | 6102004c | भर्तारं द्रष्टुमिच्छामि कृतार्थं सहलक्ष्मणम् |
7936 | 6102005a | एवमुक्तो हनुमता रामो धर्मभृतां वरः |
7937 | 6102005c | अगच्छत्सहसा ध्यानमासीद्बाष्पपरिप्लुतः |
7938 | 6102006a | दीर्घमुष्णं च निश्वस्य मेदिनीमवलोकयन् |
7939 | 6102006c | उवाच मेघसंकाशं विभीषणमुपस्थितम् |
7940 | 6102007a | दिव्याङ्गरागां वैदेहीं दिव्याभरणभूषिताम् |
7941 | 6102007c | इह सीतां शिरःस्नातामुपस्थापय माचिरम् |
7942 | 6102008a | एवमुक्तस्तु रामेण त्वरमाणो विभीषणः |
7943 | 6102008c | प्रविश्यान्तःपुरं सीतां स्त्रीभिः स्वाभिरचोदयत् |
7944 | 6102009a | दिव्याङ्गरागा वैदेही दिव्याभरणभूषिता |
7945 | 6102009c | यानमारोह भद्रं ते भर्ता त्वां द्रष्टुमिच्छति |
7946 | 6102010a | एवमुक्ता तु वैदेही प्रत्युवाच विभीषणम् |
7947 | 6102010c | अस्नाता द्रष्टुमिच्छामि भर्तारं राक्षसाधिप |
7948 | 6102011a | तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा प्रत्युवाच विभीषणः |
7949 | 6102011c | यथाह रामो भर्ता ते तत्तथा कर्तुमर्हसि |
7950 | 6102012a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा मैथिली भर्तृदेवता |
7951 | 6102012c | भर्तृभक्तिव्रता साध्वी तथेति प्रत्यभाषत |
7952 | 6102013a | ततः सीतां शिरःस्नातां युवतीभिरलंकृताम् |
7953 | 6102013c | महार्हाभरणोपेतां महार्हाम्बरधारिणीम् |
7954 | 6102014a | आरोप्य शिबिकां दीप्तां परार्ध्याम्बरसंवृताम् |
7955 | 6102014c | रक्षोभिर्बहुभिर्गुप्तामाजहार विभीषणः |
7956 | 6102015a | सोऽभिगम्य महात्मानं ज्ञात्वाभिध्यानमास्थितम् |
7957 | 6102015c | प्रणतश्च प्रहृष्टश्च प्राप्तां सीतां न्यवेदयत् |
7958 | 6102016a | तामागतामुपश्रुत्य रक्षोगृहचिरोषिताम् |
7959 | 6102016c | हर्षो दैन्यं च रोषश्च त्रयं राघवमाविशत् |
7960 | 6102017a | ततः पार्श्वगतं दृष्ट्वा सविमर्शं विचारयन् |
7961 | 6102017c | विभीषणमिदं वाक्यमहृष्टो राघवोऽब्रवीत् |
7962 | 6102018a | राक्षसाधिपते सौम्य नित्यं मद्विजये रत |
7963 | 6102018c | वैदेही संनिकर्षं मे शीघ्रं समुपगच्छतु |
7964 | 6102019a | स तद्वचनमाज्ञाय राघवस्य विभीषणः |
7965 | 6102019c | तूर्णमुत्सारणे यत्नं कारयामास सर्वतः |
7966 | 6102020a | कञ्चुकोष्णीषिणस्तत्र वेत्रझर्झरपाणयः |
7967 | 6102020c | उत्सारयन्तः पुरुषाः समन्तात्परिचक्रमुः |
7968 | 6102021a | ऋक्षाणां वानराणां च राक्षसानां च सर्वतः |
7969 | 6102021c | वृन्दान्युत्सार्यमाणानि दूरमुत्ससृजुस्ततः |
7970 | 6102022a | तेषामुत्सार्यमाणानां सर्वेषां ध्वनिरुत्थितः |
7971 | 6102022c | वायुनोद्वर्तमानस्य सागरस्येव निस्वनः |
7972 | 6102023a | उत्सार्यमाणांस्तान्दृष्ट्वा समन्ताज्जातसंभ्रमान् |
7973 | 6102023c | दाक्षिण्यात्तदमर्षाच्च वारयामास राघवः |
7974 | 6102024a | संरब्धश्चाब्रवीद्रामश्चक्षुषा प्रदहन्निव |
7975 | 6102024c | विभीषणं महाप्राज्ञं सोपालम्भमिदं वचः |
7976 | 6102025a | किमर्थं मामनादृत्य कृश्यतेऽयं त्वया जनः |
7977 | 6102025c | निवर्तयैनमुद्योगं जनोऽयं स्वजनो मम |
7978 | 6102026a | न गृहाणि न वस्त्राणि न प्राकारास्तिरस्क्रियाः |
7979 | 6102026c | नेदृशा राजसत्कारा वृत्तमावरणं स्त्रियः |
7980 | 6102027a | व्यसनेषु न कृच्छ्रेषु न युद्धे न स्वयंवरे |
7981 | 6102027c | न क्रतौ नो विवाहे च दर्शनं दुष्यते स्त्रियः |
7982 | 6102028a | सैषा युद्धगता चैव कृच्छ्रे महति च स्थिता |
7983 | 6102028c | दर्शनेऽस्या न दोषः स्यान्मत्समीपे विशेषतः |
7984 | 6102029a | तदानय समीपं मे शीघ्रमेनां विभीषण |
7985 | 6102029c | सीता पश्यतु मामेषा सुहृद्गणवृतं स्थितम् |
7986 | 6102030a | एवमुक्तस्तु रामेण सविमर्शो विभीषणः |
7987 | 6102030c | रामस्योपानयत्सीतां संनिकर्षं विनीतवत् |
7988 | 6102031a | ततो लक्ष्मणसुग्रीवौ हनूमांश्च प्लवंगमः |
7989 | 6102031c | निशम्य वाक्यं रामस्य बभूवुर्व्यथिता भृशम् |
7990 | 6102032a | कलत्रनिरपेक्षैश्च इङ्गितैरस्य दारुणैः |
7991 | 6102032c | अप्रीतमिव सीतायां तर्कयन्ति स्म राघवम् |
7992 | 6102033a | लज्जया त्ववलीयन्ती स्वेषु गात्रेषु मैथिली |
7993 | 6102033c | विभीषणेनानुगता भर्तारं साभ्यवर्तत |
7994 | 6102034a | सा वस्त्रसंरुद्धमुखी लज्जया जनसंसदि |
7995 | 6102034c | रुरोदासाद्य भर्तारमार्यपुत्रेति भाषिणी |
7996 | 6102035a | विस्मयाच्च प्रहर्षाच्च स्नेहाच्च परिदेवता |
7997 | 6102035c | उदैक्षत मुखं भर्तुः सौम्यं सौम्यतरानना |
7998 | 6102036a | अथ समपनुदन्मनःक्लमं सा; सुचिरमदृष्टमुदीक्ष्य वै प्रियस्य |
7999 | 6102036c | वदनमुदितपूर्णचन्द्रकान्तं; विमलशशाङ्कनिभानना तदासीत् |
8000 | 6103001a | तां तु पार्श्वे स्थितां प्रह्वां रामः संप्रेक्ष्य मैथिलीम् |
8001 | 6103001c | हृदयान्तर्गतक्रोधो व्याहर्तुमुपचक्रमे |
8002 | 6103002a | एषासि निर्जिता भद्रे शत्रुं जित्वा मया रणे |
8003 | 6103002c | पौरुषाद्यदनुष्ठेयं तदेतदुपपादितम् |
8004 | 6103003a | गतोऽस्म्यन्तममर्षस्य धर्षणा संप्रमार्जिता |
8005 | 6103003c | अवमानश्च शत्रुश्च मया युगपदुद्धृतौ |
8006 | 6103004a | अद्य मे पौरुषं दृष्टमद्य मे सफलः श्रमः |
8007 | 6103004c | अद्य तीर्णप्रतिज्ञत्वात्प्रभवामीह चात्मनः |
8008 | 6103005a | या त्वं विरहिता नीता चलचित्तेन रक्षसा |
8009 | 6103005c | दैवसंपादितो दोषो मानुषेण मया जितः |
8010 | 6103006a | संप्राप्तमवमानं यस्तेजसा न प्रमार्जति |
8011 | 6103006c | कस्तस्य पुरुषार्थोऽस्ति पुरुषस्याल्पतेजसः |
8012 | 6103007a | लङ्घनं च समुद्रस्य लङ्कायाश्चावमर्दनम् |
8013 | 6103007c | सफलं तस्य तच्छ्लाघ्यमद्य कर्म हनूमतः |
8014 | 6103008a | युद्धे विक्रमतश्चैव हितं मन्त्रयतश्च मे |
8015 | 6103008c | सुग्रीवस्य ससैन्यस्य सफलोऽद्य परिश्रमः |
8016 | 6103009a | निर्गुणं भ्रातरं त्यक्त्वा यो मां स्वयमुपस्थितः |
8017 | 6103009c | विभीषणस्य भक्तस्य सफलोऽद्य परिश्रमः |
8018 | 6103010a | इत्येवं ब्रुवतस्तस्य सीता रामस्य तद्वचः |
8019 | 6103010c | मृगीवोत्फुल्लनयना बभूवाश्रुपरिप्लुता |
8020 | 6103011a | पश्यतस्तां तु रामस्य भूयः क्रोधोऽभ्यवर्तत |
8021 | 6103011c | प्रभूताज्यावसिक्तस्य पावकस्येव दीप्यतः |
8022 | 6103012a | स बद्ध्वा भ्रुकुटिं वक्त्रे तिर्यक्प्रेक्षितलोचनः |
8023 | 6103012c | अब्रवीत्परुषं सीतां मध्ये वानररक्षसाम् |
8024 | 6103013a | यत्कर्तव्यं मनुष्येण धर्षणां परिमार्जता |
8025 | 6103013c | तत्कृतं सकलं सीते शत्रुहस्तादमर्षणात् |
8026 | 6103014a | निर्जिता जीवलोकस्य तपसा भावितात्मना |
8027 | 6103014c | अगस्त्येन दुराधर्षा मुनिना दक्षिणेव दिक् |
8028 | 6103015a | विदितश्चास्तु भद्रं ते योऽयं रणपरिश्रमः |
8029 | 6103015c | स तीर्णः सुहृदां वीर्यान्न त्वदर्थं मया कृतः |
8030 | 6103016a | रक्षता तु मया वृत्तमपवादं च सर्वशः |
8031 | 6103016c | प्रख्यातस्यात्मवंशस्य न्यङ्गं च परिमार्जता |
8032 | 6103017a | प्राप्तचारित्रसंदेहा मम प्रतिमुखे स्थिता |
8033 | 6103017c | दीपो नेत्रातुरस्येव प्रतिकूलासि मे दृढम् |
8034 | 6103018a | तद्गच्छ ह्यभ्यनुज्ञाता यतेष्टं जनकात्मजे |
8035 | 6103018c | एता दश दिशो भद्रे कार्यमस्ति न मे त्वया |
8036 | 6103019a | कः पुमान्हि कुले जातः स्त्रियं परगृहोषिताम् |
8037 | 6103019c | तेजस्वि पुनरादद्यात्सुहृल्लेखेन चेतसा |
8038 | 6103020a | रावणाङ्कपरिभ्रष्टां दृष्टां दुष्टेन चक्षुषा |
8039 | 6103020c | कथं त्वां पुनरादद्यां कुलं व्यपदिशन्महत् |
8040 | 6103021a | तदर्थं निर्जिता मे त्वं यशः प्रत्याहृतं मया |
8041 | 6103021c | नास्ति मे त्वय्यभिष्वङ्गो यथेष्टं गम्यतामितः |
8042 | 6103022a | इति प्रव्याहृतं भद्रे मयैतत्कृतबुद्धिना |
8043 | 6103022c | लक्ष्मणे भरते वा त्वं कुरु बुद्धिं यथासुखम् |
8044 | 6103023a | सुग्रीवे वानरेन्द्रे वा राक्षसेन्द्रे विभीषणे |
8045 | 6103023c | निवेशय मनः सीते यथा वा सुखमात्मनः |
8046 | 6103024a | न हि त्वां रावणो दृष्ट्वा दिव्यरूपां मनोरमाम् |
8047 | 6103024c | मर्षयते चिरं सीते स्वगृहे परिवर्तिनीम् |
8048 | 6103025a | ततः प्रियार्हश्वरणा तदप्रियं; प्रियादुपश्रुत्य चिरस्य मैथिली |
8049 | 6103025c | मुमोच बाष्पं सुभृशं प्रवेपिता; गजेन्द्रहस्ताभिहतेव वल्लरी |
8050 | 6104001a | एवमुक्ता तु वैदेही परुषं लोमहर्षणम् |
8051 | 6104001c | राघवेण सरोषेण भृशं प्रव्यथिताभवत् |
8052 | 6104002a | सा तदश्रुतपूर्वं हि जने महति मैथिली |
8053 | 6104002c | श्रुत्वा भर्तृवचो रूक्षं लज्जया व्रीडिताभवत् |
8054 | 6104003a | प्रविशन्तीव गात्राणि स्वान्येव जनकात्मजा |
8055 | 6104003c | वाक्शल्यैस्तैः सशल्येव भृशमश्रूण्यवर्तयत् |
8056 | 6104004a | ततो बाष्पपरिक्लिष्टं प्रमार्जन्ती स्वमाननम् |
8057 | 6104004c | शनैर्गद्गदया वाचा भर्तारमिदमब्रवीत् |
8058 | 6104005a | किं मामसदृशं वाक्यमीदृशं श्रोत्रदारुणम् |
8059 | 6104005c | रूक्षं श्रावयसे वीर प्राकृतः प्राकृतामिव |
8060 | 6104006a | न तथास्मि महाबाहो यथा त्वमवगच्छसि |
8061 | 6104006c | प्रत्ययं गच्छ मे स्वेन चारित्रेणैव ते शपे |
8062 | 6104007a | पृथक्स्त्रीणां प्रचारेण जातिं त्वं परिशङ्कसे |
8063 | 6104007c | परित्यजेमां शङ्कां तु यदि तेऽहं परीक्षिता |
8064 | 6104008a | यद्यहं गात्रसंस्पर्शं गतास्मि विवशा प्रभो |
8065 | 6104008c | कामकारो न मे तत्र दैवं तत्रापराध्यति |
8066 | 6104009a | मदधीनं तु यत्तन्मे हृदयं त्वयि वर्तते |
8067 | 6104009c | पराधीनेषु गात्रेषु किं करिष्याम्यनीश्वरा |
8068 | 6104010a | सहसंवृद्धभावाच्च संसर्गेण च मानद |
8069 | 6104010c | यद्यहं ते न विज्ञाता हता तेनास्मि शाश्वतम् |
8070 | 6104011a | प्रेषितस्ते यदा वीरो हनूमानवलोककः |
8071 | 6104011c | लङ्कास्थाहं त्वया वीर किं तदा न विसर्जिता |
8072 | 6104012a | प्रत्यक्षं वानरेन्द्रस्य त्वद्वाक्यसमनन्तरम् |
8073 | 6104012c | त्वया संत्यक्तया वीर त्यक्तं स्याज्जीवितं मया |
8074 | 6104013a | न वृथा ते श्रमोऽयं स्यात्संशये न्यस्य जीवितम् |
8075 | 6104013c | सुहृज्जनपरिक्लेशो न चायं निष्फलस्तव |
8076 | 6104014a | त्वया तु नरशार्दूल क्रोधमेवानुवर्तता |
8077 | 6104014c | लघुनेव मनुष्येण स्त्रीत्वमेव पुरस्कृतम् |
8078 | 6104015a | अपदेशेन जनकान्नोत्पत्तिर्वसुधातलात् |
8079 | 6104015c | मम वृत्तं च वृत्तज्ञ बहु ते न पुरस्कृतम् |
8080 | 6104016a | न प्रमाणीकृतः पाणिर्बाल्ये बालेन पीडितः |
8081 | 6104016c | मम भक्तिश्च शीलं च सर्वं ते पृष्ठतः कृतम् |
8082 | 6104017a | एवं ब्रुवाणा रुदती बाष्पगद्गदभाषिणी |
8083 | 6104017c | अब्रवील्लक्ष्मणं सीता दीनं ध्यानपरं स्थितम् |
8084 | 6104018a | चितां मे कुरु सौमित्रे व्यसनस्यास्य भेषजम् |
8085 | 6104018c | मिथ्यापवादोपहता नाहं जीवितुमुत्सहे |
8086 | 6104019a | अप्रीतस्य गुणैर्भर्तुस्त्यक्तया जनसंसदि |
8087 | 6104019c | या क्षमा मे गतिर्गन्तुं प्रवेक्ष्ये हव्यवाहनम् |
8088 | 6104020a | एवमुक्तस्तु वैदेह्या लक्ष्मणः परवीरहा |
8089 | 6104020c | अमर्षवशमापन्नो राघवाननमैक्षत |
8090 | 6104021a | स विज्ञाय मनश्छन्दं रामस्याकारसूचितम् |
8091 | 6104021c | चितां चकार सौमित्रिर्मते रामस्य वीर्यवान् |
8092 | 6104022a | अधोमुखं ततो रामं शनैः कृत्वा प्रदक्षिणम् |
8093 | 6104022c | उपासर्पत वैदेही दीप्यमानं हुताशनम् |
8094 | 6104023a | प्रणम्य देवताभ्यश्च ब्राह्मणेभ्यश्च मैथिली |
8095 | 6104023c | बद्धाञ्जलिपुटा चेदमुवाचाग्निसमीपतः |
8096 | 6104024a | यथा मे हृदयं नित्यं नापसर्पति राघवात् |
8097 | 6104024c | तथा लोकस्य साक्षी मां सर्वतः पातु पावकः |
8098 | 6104025a | एवमुक्त्वा तु वैदेही परिक्रम्य हुताशनम् |
8099 | 6104025c | विवेश ज्वलनं दीप्तं निःसङ्गेनान्तरात्मना |
8100 | 6104026a | जनः स सुमहांस्तत्र बालवृद्धसमाकुलः |
8101 | 6104026c | ददर्श मैथिलीं तत्र प्रविशन्तीं हुताशनम् |
8102 | 6104027a | तस्यामग्निं विशन्त्यां तु हाहेति विपुलः स्वनः |
8103 | 6104027c | रक्षसां वानराणां च संबभूवाद्भुतोपमः |
8104 | 6105001a | ततो वैश्रवणो राजा यमश्चामित्रकर्शनः |
8105 | 6105001c | सहस्राक्षो महेन्द्रश्च वरुणश्च परंतपः |
8106 | 6105002a | षडर्धनयनः श्रीमान्महादेवो वृषध्वजः |
8107 | 6105002c | कर्ता सर्वस्य लोकस्य ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः |
8108 | 6105003a | एते सर्वे समागम्य विमानैः सूर्यसंनिभैः |
8109 | 6105003c | आगम्य नगरीं लङ्कामभिजग्मुश्च राघवम् |
8110 | 6105004a | ततः सहस्ताभरणान्प्रगृह्य विपुलान्भुजान् |
8111 | 6105004c | अब्रुवंस्त्रिदशश्रेष्ठाः प्राञ्जलिं राघवं स्थितम् |
8112 | 6105005a | कर्ता सर्वस्य लोकस्य श्रेष्ठो ज्ञानवतां वरः |
8113 | 6105005c | उपेक्षसे कथं सीतां पतन्तीं हव्यवाहने |
8114 | 6105005e | कथं देवगणश्रेष्ठमात्मानं नावबुध्यसे |
8115 | 6105006a | ऋतधामा वसुः पूर्वं वसूनां च प्रजापतिः |
8116 | 6105006c | त्वं त्रयाणां हि लोकानामादिकर्ता स्वयंप्रभुः |
8117 | 6105007a | रुद्राणामष्टमो रुद्रः साध्यानामपि पञ्चमः |
8118 | 6105007c | अश्विनौ चापि ते कर्णौ चन्द्रसूर्यौ च चक्षुषी |
8119 | 6105008a | अन्ते चादौ च लोकानां दृश्यसे त्वं परंतप |
8120 | 6105008c | उपेक्षसे च वैदेहीं मानुषः प्राकृतो यथा |
8121 | 6105009a | इत्युक्तो लोकपालैस्तैः स्वामी लोकस्य राघवः |
8122 | 6105009c | अब्रवीत्त्रिदशश्रेष्ठान्रामो धर्मभृतां वरः |
8123 | 6105010a | आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम् |
8124 | 6105010c | योऽहं यस्य यतश्चाहं भगवांस्तद्ब्रवीतु मे |
8125 | 6105011a | इति ब्रुवाणं काकुत्स्थं ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः |
8126 | 6105011c | अब्रवीच्छृणु मे राम सत्यं सत्यपराक्रम |
8127 | 6105012a | भवान्नारायणो देवः श्रीमांश्चक्रायुधो विभुः |
8128 | 6105012c | एकशृङ्गो वराहस्त्वं भूतभव्यसपत्नजित् |
8129 | 6105013a | अक्षरं ब्रह्मसत्यं च मध्ये चान्ते च राघव |
8130 | 6105013c | लोकानां त्वं परो धर्मो विष्वक्सेनश्चतुर्भुजः |
8131 | 6105014a | शार्ङ्गधन्वा हृषीकेशः पुरुषः पुरुषोत्तमः |
8132 | 6105014c | अजितः खड्गधृग्विष्णुः कृष्णश्चैव बृहद्बलः |
8133 | 6105015a | सेनानीर्ग्रामणीश्च त्वं बुद्धिः सत्त्वं क्षमा दमः |
8134 | 6105015c | प्रभवश्चाप्ययश्च त्वमुपेन्द्रो मधुसूदनः |
8135 | 6105016a | इन्द्रकर्मा महेन्द्रस्त्वं पद्मनाभो रणान्तकृत् |
8136 | 6105016c | शरण्यं शरणं च त्वामाहुर्दिव्या महर्षयः |
8137 | 6105017a | सहस्रशृङ्गो वेदात्मा शतजिह्वो महर्षभः |
8138 | 6105017c | त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमोंकारः परंतप |
8139 | 6105018a | प्रभवं निधनं वा ते न विदुः को भवानिति |
8140 | 6105018c | दृश्यसे सर्वभूतेषु ब्राह्मणेषु च गोषु च |
8141 | 6105019a | दिक्षु सर्वासु गगने पर्वतेषु वनेषु च |
8142 | 6105019c | सहस्रचरणः श्रीमाञ्शतशीर्षः सहस्रधृक् |
8143 | 6105020a | त्वं धारयसि भूतानि वसुधां च सपर्वताम् |
8144 | 6105020c | अन्ते पृथिव्याः सलिले दृश्यसे त्वं महोरगः |
8145 | 6105021a | त्रीँल्लोकान्धारयन्राम देवगन्धर्वदानवान् |
8146 | 6105021c | अहं ते हृदयं राम जिह्वा देवी सरस्वती |
8147 | 6105022a | देवा गात्रेषु लोमानि निर्मिता ब्रह्मणा प्रभो |
8148 | 6105022c | निमेषस्तेऽभवद्रात्रिरुन्मेषस्तेऽभवद्दिवा |
8149 | 6105023a | संस्कारास्तेऽभवन्वेदा न तदस्ति त्वया विना |
8150 | 6105023c | जगत्सर्वं शरीरं ते स्थैर्यं ते वसुधातलम् |
8151 | 6105024a | अग्निः कोपः प्रसादस्ते सोमः श्रीवत्सलक्षण |
8152 | 6105024c | त्वया लोकास्त्रयः क्रान्ताः पुराणे विक्रमैस्त्रिभिः |
8153 | 6105025a | महेन्द्रश्च कृतो राजा बलिं बद्ध्वा महासुरम् |
8154 | 6105025c | सीता लक्ष्मीर्भवान्विष्णुर्देवः कृष्णः प्रजापतिः |
8155 | 6105026a | वधार्थं रावणस्येह प्रविष्टो मानुषीं तनुम् |
8156 | 6105026c | तदिदं नः कृतं कार्यं त्वया धर्मभृतां वर |
8157 | 6105027a | निहतो रावणो राम प्रहृष्टो दिवमाक्रम |
8158 | 6105027c | अमोघं बलवीर्यं ते अमोघस्ते पराक्रमः |
8159 | 6105028a | अमोघास्ते भविष्यन्ति भक्तिमन्तश्च ये नराः |
8160 | 6105028c | ये त्वां देवं ध्रुवं भक्ताः पुराणं पुरुषोत्तमम् |
8161 | 6105029a | ये नराः कीर्तयिष्यन्ति नास्ति तेषां पराभवः |
8162 | 6106001a | एतच्छ्रुत्वा शुभं वाक्यं पितामहसमीरितम् |
8163 | 6106001c | अङ्केनादाय वैदेहीमुत्पपात विभावसुः |
8164 | 6106002a | तरुणादित्यसंकाशां तप्तकाञ्चनभूषणाम् |
8165 | 6106002c | रक्ताम्बरधरां बालां नीलकुञ्चितमूर्धजाम् |
8166 | 6106003a | अक्लिष्टमाल्याभरणां तथा रूपां मनस्विनीम् |
8167 | 6106003c | ददौ रामाय वैदेहीमङ्के कृत्वा विभावसुः |
8168 | 6106004a | अब्रवीच्च तदा रामं साक्षी लोकस्य पावकः |
8169 | 6106004c | एषा ते राम वैदेही पापमस्या न विद्यते |
8170 | 6106005a | नैव वाचा न मनसा नानुध्यानान्न चक्षुषा |
8171 | 6106005c | सुवृत्ता वृत्तशौण्डीरा न त्वामतिचचार ह |
8172 | 6106006a | रावणेनापनीतैषा वीर्योत्सिक्तेन रक्षसा |
8173 | 6106006c | त्वया विरहिता दीना विवशा निर्जनाद्वनात् |
8174 | 6106007a | रुद्धा चान्तःपुरे गुप्ता त्वक्चित्ता त्वत्परायणा |
8175 | 6106007c | रक्षिता राक्षसी संघैर्विकृतैर्घोरदर्शनैः |
8176 | 6106008a | प्रलोभ्यमाना विविधं भर्त्स्यमाना च मैथिली |
8177 | 6106008c | नाचिन्तयत तद्रक्षस्त्वद्गतेनान्तरात्मना |
8178 | 6106009a | विशुद्धभावां निष्पापां प्रतिगृह्णीष्व राघव |
8179 | 6106009c | न किंचिदभिधातव्यमहमाज्ञापयामि ते |
8180 | 6106010a | एवमुक्तो महातेजा धृतिमान्दृढविक्रमः |
8181 | 6106010c | अब्रवीत्त्रिदशश्रेष्ठं रामो धर्मभृतां वरः |
8182 | 6106011a | अवश्यं त्रिषु लोकेषु सीता पावनमर्हति |
8183 | 6106011c | दीर्घकालोषिता चेयं रावणान्तःपुरे शुभा |
8184 | 6106012a | बालिशः खलु कामात्मा रामो दशरथात्मजः |
8185 | 6106012c | इति वक्ष्यन्ति मां सन्तो जानकीमविशोध्य हि |
8186 | 6106013a | अनन्यहृदयां भक्तां मच्चित्तपरिरक्षणीम् |
8187 | 6106013c | अहमप्यवगच्छामि मैथिलीं जनकात्मजाम् |
8188 | 6106014a | प्रत्ययार्थं तु लोकानां त्रयाणां सत्यसंश्रयः |
8189 | 6106014c | उपेक्षे चापि वैदेहीं प्रविशन्तीं हुताशनम् |
8190 | 6106015a | इमामपि विशालाक्षीं रक्षितां स्वेन तेजसा |
8191 | 6106015c | रावणो नातिवर्तेत वेलामिव महोदधिः |
8192 | 6106016a | न हि शक्तः स दुष्टात्मा मनसापि हि मैथिलीम् |
8193 | 6106016c | प्रधर्षयितुमप्राप्तां दीप्तामग्निशिखामिव |
8194 | 6106017a | नेयमर्हति चैश्वर्यं रावणान्तःपुरे शुभा |
8195 | 6106017c | अनन्या हि मया सीतां भास्करेण प्रभा यथा |
8196 | 6106018a | विशुद्धा त्रिषु लोकेषु मैथिली जनकात्मजा |
8197 | 6106018c | न हि हातुमियं शक्या कीर्तिरात्मवता यथा |
8198 | 6106019a | अवश्यं च मया कार्यं सर्वेषां वो वचो हितम् |
8199 | 6106019c | स्निग्धानां लोकमान्यानामेवं च ब्रुवतां हितम् |
8200 | 6106020a | इतीदमुक्त्वा वचनं महाबलैः; प्रशस्यमानः स्वकृतेन कर्मणा |
8201 | 6106020c | समेत्य रामः प्रियया महाबलः; सुखं सुखार्होऽनुबभूव राघवः |
8202 | 6107001a | एतच्छ्रुत्वा शुभं वाक्यं राघवेण सुभाषितम् |
8203 | 6107001c | इदं शुभतरं वाक्यं व्याजहार महेश्वरः |
8204 | 6107002a | पुष्कराक्ष महाबाहो महावक्षः परंतप |
8205 | 6107002c | दिष्ट्या कृतमिदं कर्म त्वया शस्त्रभृतां वर |
8206 | 6107003a | दिष्ट्या सर्वस्य लोकस्य प्रवृद्धं दारुणं तमः |
8207 | 6107003c | अपावृत्तं त्वया संख्ये राम रावणजं भयम् |
8208 | 6107004a | आश्वास्य भरतं दीनं कौसल्यां च यशस्विनीम् |
8209 | 6107004c | कैकेयीं च सुमित्रां च दृष्ट्वा लक्ष्मणमातरम् |
8210 | 6107005a | प्राप्य राज्यमयोध्यायां नन्दयित्वा सुहृज्जनम् |
8211 | 6107005c | इक्ष्वाकूणां कुले वंशं स्थापयित्वा महाबल |
8212 | 6107006a | इष्ट्वा तुरगमेधेन प्राप्य चानुत्तमं यशः |
8213 | 6107006c | ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा त्रिदिवं गन्तुमर्हसि |
8214 | 6107007a | एष राजा विमानस्थः पिता दशरथस्तव |
8215 | 6107007c | काकुत्स्थ मानुषे लोके गुरुस्तव महायशाः |
8216 | 6107008a | इन्द्रलोकं गतः श्रीमांस्त्वया पुत्रेण तारितः |
8217 | 6107008c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा त्वमेनमभिवादय |
8218 | 6107009a | महादेववचः श्रुत्वा काकुत्स्थः सहलक्ष्मणः |
8219 | 6107009c | विमानशिखरस्थस्य प्रणाममकरोत्पितुः |
8220 | 6107010a | दीप्यमानं स्वयां लक्ष्म्या विरजोऽम्बरधारिणम् |
8221 | 6107010c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा ददर्श पितरं प्रभुः |
8222 | 6107011a | हर्षेण महताविष्टो विमानस्थो महीपतिः |
8223 | 6107011c | प्राणैः प्रियतरं दृष्ट्वा पुत्रं दशरथस्तदा |
8224 | 6107012a | आरोप्याङ्कं महाबाहुर्वरासनगतः प्रभुः |
8225 | 6107012c | बाहुभ्यां संपरिष्वज्य ततो वाक्यं समाददे |
8226 | 6107013a | न मे स्वर्गो बहुमतः संमानश्च सुरर्षिभिः |
8227 | 6107013c | त्वया राम विहीनस्य सत्यं प्रतिशृणोमि ते |
8228 | 6107014a | कैकेय्या यानि चोक्तानि वाक्यानि वदतां वर |
8229 | 6107014c | तव प्रव्राजनार्थानि स्थितानि हृदये मम |
8230 | 6107015a | त्वां तु दृष्ट्वा कुशलिनं परिष्वज्य सलक्ष्मणम् |
8231 | 6107015c | अद्य दुःखाद्विमुक्तोऽस्मि नीहारादिव भास्करः |
8232 | 6107016a | तारितोऽहं त्वया पुत्र सुपुत्रेण महात्मना |
8233 | 6107016c | अष्टावक्रेण धर्मात्मा तारितो ब्राह्मणो यथा |
8234 | 6107017a | इदानीं च विजानामि यथा सौम्य सुरेश्वरैः |
8235 | 6107017c | वधार्थं रावणस्येह विहितं पुरुषोत्तमम् |
8236 | 6107018a | सिद्धार्था खलु कौसल्या या त्वां राम गृहं गतम् |
8237 | 6107018c | वनान्निवृत्तं संहृष्टा द्रक्ष्यते शत्रुसूदन |
8238 | 6107019a | सिद्धार्थाः खलु ते राम नरा ये त्वां पुरीं गतम् |
8239 | 6107019c | जलार्द्रमभिषिक्तं च द्रक्ष्यन्ति वसुधाधिपम् |
8240 | 6107020a | अनुरक्तेन बलिना शुचिना धर्मचारिणा |
8241 | 6107020c | इच्छेयं त्वामहं द्रष्टुं भरतेन समागतम् |
8242 | 6107021a | चतुर्दशसमाः सौम्य वने निर्यापितास्त्वया |
8243 | 6107021c | वसता सीतया सार्धं लक्ष्मणेन च धीमता |
8244 | 6107022a | निवृत्तवनवासोऽसि प्रतिज्ञा सफला कृता |
8245 | 6107022c | रावणं च रणे हत्वा देवास्ते परितोषिताः |
8246 | 6107023a | कृतं कर्म यशः श्लाघ्यं प्राप्तं ते शत्रुसूदन |
8247 | 6107023c | भ्रातृभिः सह राज्यस्थो दीर्घमायुरवाप्नुहि |
8248 | 6107024a | इति ब्रुवाणं राजानं रामः प्राञ्जलिरब्रवीत् |
8249 | 6107024c | कुरु प्रसादं धर्मज्ञ कैकेय्या भरतस्य च |
8250 | 6107025a | सपुत्रां त्वां त्यजामीति यदुक्ता कैकयी त्वया |
8251 | 6107025c | स शापः कैकयीं घोरः सपुत्रां न स्पृशेत्प्रभो |
8252 | 6107026a | स तथेति महाराजो राममुक्त्वा कृताञ्जलिम् |
8253 | 6107026c | लक्ष्मणं च परिष्वज्य पुनर्वाक्यमुवाच ह |
8254 | 6107027a | रामं शुश्रूषता भक्त्या वैदेह्या सह सीतया |
8255 | 6107027c | कृता मम महाप्रीतिः प्राप्तं धर्मफलं च ते |
8256 | 6107028a | धर्मं प्राप्स्यसि धर्मज्ञ यशश्च विपुलं भुवि |
8257 | 6107028c | रामे प्रसन्ने स्वर्गं च महिमानं तथैव च |
8258 | 6107029a | रामं शुश्रूष भद्रं ते सुमित्रानन्दवर्धन |
8259 | 6107029c | रामः सर्वस्य लोकस्य शुभेष्वभिरतः सदा |
8260 | 6107030a | एते सेन्द्रास्त्रयो लोकाः सिद्धाश्च परमर्षयः |
8261 | 6107030c | अभिगम्य महात्मानमर्चन्ति पुरुषोत्तमम् |
8262 | 6107031a | एतत्तदुक्तमव्यक्तमक्षरं ब्रह्मनिर्मितम् |
8263 | 6107031c | देवानां हृदयं सौम्य गुह्यं रामः परंतपः |
8264 | 6107032a | अवाप्तं धर्मचरणं यशश्च विपुलं त्वया |
8265 | 6107032c | रामं शुश्रूषता भक्त्या वैदेह्या सह सीतया |
8266 | 6107033a | स तथोक्त्वा महाबाहुर्लक्ष्मणं प्राञ्जलिं स्थितम् |
8267 | 6107033c | उवाच राजा धर्मात्मा वैदेहीं वचनं शुभम् |
8268 | 6107034a | कर्तव्यो न तु वैदेहि मन्युस्त्यागमिमं प्रति |
8269 | 6107034c | रामेण त्वद्विशुद्ध्यर्थं कृतमेतद्धितैषिणा |
8270 | 6107035a | न त्वं सुभ्रु समाधेया पतिशुश्रूवणं प्रति |
8271 | 6107035c | अवश्यं तु मया वाच्यमेष ते दैवतं परम् |
8272 | 6107036a | इति प्रतिसमादिश्य पुत्रौ सीतां तथा स्नुषाम् |
8273 | 6107036c | इन्द्रलोकं विमानेन ययौ दशरथो ज्वलन् |
8274 | 6108001a | प्रतिप्रयाते काकुत्स्थे महेन्द्रः पाकशासनः |
8275 | 6108001c | अब्रवीत्परमप्रीतो राघवं प्राञ्जलिं स्थितम् |
8276 | 6108002a | अमोघं दर्शनं राम तवास्माकं परंतप |
8277 | 6108002c | प्रीतियुक्तोऽस्मि तेन त्वं ब्रूहि यन्मनसेच्छसि |
8278 | 6108003a | एवमुक्तस्तु काकुत्स्थः प्रत्युवाच कृताञ्जलिः |
8279 | 6108003c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया चापि भार्यया |
8280 | 6108004a | यदि प्रीतिः समुत्पन्ना मयि सर्वसुरेश्वर |
8281 | 6108004c | वक्ष्यामि कुरु मे सत्यं वचनं वदतां वर |
8282 | 6108005a | मम हेतोः पराक्रान्ता ये गता यमसादनम् |
8283 | 6108005c | ते सर्वे जीवितं प्राप्य समुत्तिष्ठन्तु वानराः |
8284 | 6108006a | मत्प्रियेष्वभिरक्ताश्च न मृत्युं गणयन्ति च |
8285 | 6108006c | त्वत्प्रसादात्समेयुस्ते वरमेतदहं वृणे |
8286 | 6108007a | नीरुजान्निर्व्रणांश्चैव संपन्नबलपौरुषान् |
8287 | 6108007c | गोलाङ्गूलांस्तथैवर्क्षान्द्रष्टुमिच्छामि मानद |
8288 | 6108008a | अकाले चापि मुख्यानि मूलानि च फलानि च |
8289 | 6108008c | नद्यश्च विमलास्तत्र तिष्ठेयुर्यत्र वानराः |
8290 | 6108009a | श्रुत्वा तु वचनं तस्य राघवस्य महात्मनः |
8291 | 6108009c | महेन्द्रः प्रत्युवाचेदं वचनं प्रीतिलक्षणम् |
8292 | 6108010a | महानयं वरस्तात त्वयोक्तो रघुनन्दन |
8293 | 6108010c | समुत्थास्यन्ति हरयः सुप्ता निद्राक्षये यथा |
8294 | 6108011a | सुहृद्भिर्बान्धवैश्चैव ज्ञातिभिः स्वजनेन च |
8295 | 6108011c | सर्व एव समेष्यन्ति संयुक्ताः परया मुदा |
8296 | 6108012a | अकाले पुष्पशबलाः फलवन्तश्च पादपाः |
8297 | 6108012c | भविष्यन्ति महेष्वास नद्यश्च सलिलायुताः |
8298 | 6108013a | सव्रणैः प्रथमं गात्रैः संवृतैर्निव्रणैः पुनः |
8299 | 6108013c | बभूवुर्वानराः सर्वे किमेतदिति विस्मितः |
8300 | 6108014a | काकुत्स्थं परिपूर्णार्थं दृष्ट्वा सर्वे सुरोत्तमाः |
8301 | 6108014c | ऊचुस्ते प्रथमं स्तुत्वा स्तवार्हं सहलक्ष्मणम् |
8302 | 6108015a | गच्छायोध्यामितो वीर विसर्जय च वानरान् |
8303 | 6108015c | मैथिलीं सान्त्वयस्वैनामनुरक्तां तपस्विनीम् |
8304 | 6108016a | भ्रातरं पश्य भरतं त्वच्छोकाद्व्रतचारिणम् |
8305 | 6108016c | अभिषेचय चात्मानं पौरान्गत्वा प्रहर्षय |
8306 | 6108017a | एवमुक्त्वा तमामन्त्र्य रामं सौमित्रिणा सह |
8307 | 6108017c | विमानैः सूर्यसंकाशैर्हृष्टा जग्मुः सुरा दिवम् |
8308 | 6108018a | अभिवाद्य च काकुत्स्थः सर्वांस्तांस्त्रिदशोत्तमान् |
8309 | 6108018c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा वासमाज्ञापयत्तदा |
8310 | 6108019a | ततस्तु सा लक्ष्मणरामपालिता; महाचमूर्हृष्टजना यशस्विनी |
8311 | 6108019c | श्रिया ज्वलन्ती विरराज सर्वतो; निशाप्रणीतेव हि शीतरश्मिना |
8312 | 6109001a | तां रात्रिमुषितं रामं सुखोत्थितमरिंदमम् |
8313 | 6109001c | अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं जयं पृष्ट्वा विभीषणः |
8314 | 6109002a | स्नानानि चाङ्गरागाणि वस्त्राण्याभरणानि च |
8315 | 6109002c | चन्दनानि च दिव्यानि माल्यानि विविधानि च |
8316 | 6109003a | अलंकारविदश्चेमा नार्यः पद्मनिभेक्षणाः |
8317 | 6109003c | उपस्थितास्त्वां विधिवत्स्नापयिष्यन्ति राघव |
8318 | 6109004a | एवमुक्तस्तु काकुत्स्थः प्रत्युवाच विभीषणम् |
8319 | 6109004c | हरीन्सुग्रीवमुख्यांस्त्वं स्नानेनोपनिमन्त्रय |
8320 | 6109005a | स तु ताम्यति धर्मात्मा ममहेतोः सुखोचितः |
8321 | 6109005c | सुकुमारो महाबाहुः कुमारः सत्यसंश्रवः |
8322 | 6109006a | तं विना कैकेयीपुत्रं भरतं धर्मचारिणम् |
8323 | 6109006c | न मे स्नानं बहुमतं वस्त्राण्याभरणानि च |
8324 | 6109007a | इत एव पथा क्षिप्रं प्रतिगच्छाम तां पुरीम् |
8325 | 6109007c | अयोध्यामायतो ह्येष पन्थाः परमदुर्गमः |
8326 | 6109008a | एवमुक्तस्तु काकुत्स्थं प्रत्युवाच विभीषणः |
8327 | 6109008c | अह्ना त्वां प्रापयिष्यामि तां पुरीं पार्थिवात्मज |
8328 | 6109009a | पुष्पकं नाम भद्रं ते विमानं सूर्यसंनिभम् |
8329 | 6109009c | मम भ्रातुः कुबेरस्य रावणेनाहृतं बलात् |
8330 | 6109010a | तदिदं मेघसंकाशं विमानमिह तिष्ठति |
8331 | 6109010c | तेन यास्यसि यानेन त्वमयोध्यां गजज्वरः |
8332 | 6109011a | अहं ते यद्यनुग्राह्यो यदि स्मरसि मे गुणान् |
8333 | 6109011c | वस तावदिह प्राज्ञ यद्यस्ति मयि सौहृदम् |
8334 | 6109012a | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा वैदेह्या चापि भार्यया |
8335 | 6109012c | अर्चितः सर्वकामैस्त्वं ततो राम गमिष्यसि |
8336 | 6109013a | प्रीतियुक्तस्तु मे राम ससैन्यः ससुहृद्गणः |
8337 | 6109013c | सत्क्रियां विहितां तावद्गृहाण त्वं मयोद्यताम् |
8338 | 6109014a | प्रणयाद्बहुमानाच्च सौहृदेन च राघव |
8339 | 6109014c | प्रसादयामि प्रेष्योऽहं न खल्वाज्ञापयामि ते |
8340 | 6109015a | एवमुक्तस्ततो रामः प्रत्युवाच विभीषणम् |
8341 | 6109015c | रक्षसां वानराणां च सर्वेषां चोपशृण्वताम् |
8342 | 6109016a | पूजितोऽहं त्वया वीर साचिव्येन परंतप |
8343 | 6109016c | सर्वात्मना च चेष्टिभिः सौहृदेनोत्तमेन च |
8344 | 6109017a | न खल्वेतन्न कुर्यां ते वचनं राक्षसेश्वर |
8345 | 6109017c | तं तु मे भ्रातरं द्रष्टुं भरतं त्वरते मनः |
8346 | 6109018a | मां निवर्तयितुं योऽसौ चित्रकूटमुपागतः |
8347 | 6109018c | शिरसा याचतो यस्य वचनं न कृतं मया |
8348 | 6109019a | कौसल्यां च सुमित्रां च कैकेयीं च यशस्विनीम् |
8349 | 6109019c | गुरूंश्च सुहृदश्चैव पौरांश्च तनयैः सह |
8350 | 6109020a | उपस्थापय मे क्षिप्रं विमानं राक्षसेश्वर |
8351 | 6109020c | कृतकार्यस्य मे वासः कथंचिदिह संमतः |
8352 | 6109021a | अनुजानीहि मां सौम्य पूजितोऽस्मि विभीषण |
8353 | 6109021c | मन्युर्न खलु कर्तव्यस्त्वरितस्त्वानुमानये |
8354 | 6109022a | ततः काञ्चनचित्राङ्गं वैदूर्यमणिवेदिकम् |
8355 | 6109022c | कूटागारैः परिक्षिप्तं सर्वतो रजतप्रभम् |
8356 | 6109023a | पाण्डुराभिः पताकाभिर्ध्वजैश्च समलंकृतम् |
8357 | 6109023c | शोभितं काञ्चनैर्हर्म्यैर्हेमपद्मविभूषितम् |
8358 | 6109024a | प्रकीर्णं किङ्किणीजालैर्मुक्तामणिगवाक्षितम् |
8359 | 6109024c | घण्टाजालैः परिक्षिप्तं सर्वतो मधुरस्वनम् |
8360 | 6109025a | तन्मेरुशिखराकारं निर्मितं विश्वकर्मणा |
8361 | 6109025c | बहुभिर्भूषितं हर्म्यैर्मुक्तारजतसंनिभौ |
8362 | 6109026a | तलैः स्फटिकचित्राङ्गैर्वैदूर्यैश्च वरासनैः |
8363 | 6109026c | महार्हास्तरणोपेतैरुपपन्नं महाधनैः |
8364 | 6109027a | उपस्थितमनाधृष्यं तद्विमानं मनोजवम् |
8365 | 6109027c | निवेदयित्वा रामाय तस्थौ तत्र विभीषणः |
8366 | 6110001a | उपस्थितं तु तं दृष्ट्वा पुष्पकं पुष्पभूषितम् |
8367 | 6110001c | अविदूरे स्थितं रामं प्रत्युवाच विभीषणः |
8368 | 6110002a | स तु बद्धाञ्जलिः प्रह्वो विनीतो राक्षसेश्वरः |
8369 | 6110002c | अब्रवीत्त्वरयोपेतः किं करोमीति राघवम् |
8370 | 6110003a | तमब्रवीन्महातेजा लक्ष्मणस्योपशृण्वतः |
8371 | 6110003c | विमृश्य राघवो वाक्यमिदं स्नेहपुरस्कृतम् |
8372 | 6110004a | कृतप्रयत्नकर्माणो विभीषण वनौकसः |
8373 | 6110004c | रत्नैरर्थैश्च विविभैर्भूषणैश्चाभिपूजय |
8374 | 6110005a | सहैभिरर्दिता लङ्का निर्जिता राक्षसेश्वर |
8375 | 6110005c | हृष्टैः प्राणभयं त्यक्त्वा संग्रामेष्वनिवर्तिभिः |
8376 | 6110006a | एवं संमानिताश्चेमे मानार्हा मानद त्वया |
8377 | 6110006c | भविष्यन्ति कृतज्ञेन निर्वृता हरियूथपाः |
8378 | 6110007a | त्यागिनं संग्रहीतारं सानुक्रोशं यशस्विनम् |
8379 | 6110007c | यतस्त्वामवगच्छन्ति ततः संबोधयामि ते |
8380 | 6110008a | एवमुक्तस्तु रामेण वानरांस्तान्विभीषणः |
8381 | 6110008c | रत्नार्थैः संविभागेन सर्वानेवान्वपूजयत् |
8382 | 6110009a | ततस्तान्पूजितान्दृष्ट्वा रत्नैरर्थैश्च यूथपान् |
8383 | 6110009c | आरुरोह ततो रामस्तद्विमानमनुत्तमम् |
8384 | 6110010a | अङ्केनादाय वैदेहीं लज्जमानां यशस्विनीम् |
8385 | 6110010c | लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा विक्रान्तेन धनुष्मता |
8386 | 6110011a | अब्रवीच्च विमानस्थः काकुत्स्थः सर्ववानरान् |
8387 | 6110011c | सुग्रीवं च महावीर्यं राक्षसं च विभीषणम् |
8388 | 6110012a | मित्रकार्यं कृतमिदं भवद्भिर्वानरोत्तमाः |
8389 | 6110012c | अनुज्ञाता मया सर्वे यथेष्टं प्रतिगच्छत |
8390 | 6110013a | यत्तु कार्यं वयस्येन सुहृदा वा परंतप |
8391 | 6110013c | कृतं सुग्रीव तत्सर्वं भवता धर्मभीरुणा |
8392 | 6110013e | किष्किन्धां प्रतियाह्याशु स्वसैन्येनाभिसंवृतः |
8393 | 6110014a | स्वराज्ये वस लङ्कायां मया दत्ते विभीषण |
8394 | 6110014c | न त्वां धर्षयितुं शक्ताः सेन्द्रा अपि दिवौकसः |
8395 | 6110015a | अयोध्यां प्रतियास्यामि राजधानीं पितुर्मम |
8396 | 6110015c | अभ्यनुज्ञातुमिच्छामि सर्वानामन्त्रयामि वः |
8397 | 6110016a | एवमुक्तास्तु रामेण वानरास्ते महाबलाः |
8398 | 6110016c | ऊचुः प्राञ्जलयो रामं राक्षसश्च विभीषणः |
8399 | 6110016e | अयोध्यां गन्तुमिच्छामः सर्वान्नयतु नो भवान् |
8400 | 6110017a | दृष्ट्वा त्वामभिषेकार्द्रं कौसल्यामभिवाद्य च |
8401 | 6110017c | अचिरेणागमिष्यामः स्वान्गृहान्नृपतेः सुत |
8402 | 6110018a | एवमुक्तस्तु धर्मात्मा वानरैः सविभीषणैः |
8403 | 6110018c | अब्रवीद्राघवः श्रीमान्ससुग्रीवविभीषणान् |
8404 | 6110019a | प्रियात्प्रियतरं लब्धं यदहं ससुहृज्जनः |
8405 | 6110019c | सर्वैर्भवद्भिः सहितः प्रीतिं लप्स्ये पुरीं गतः |
8406 | 6110020a | क्षिप्रमारोह सुग्रीव विमानं वानरैः सह |
8407 | 6110020c | त्वमध्यारोह सामात्यो राक्षसेन्द्रविभीषण |
8408 | 6110021a | ततस्तत्पुष्पकं दिव्यं सुग्रीवः सह सेनया |
8409 | 6110021c | अध्यारोहत्त्वरञ्शीघ्रं सामात्यश्च विभीषणः |
8410 | 6110022a | तेष्वारूढेषु सर्वेषु कौबेरं परमासनम् |
8411 | 6110022c | राघवेणाभ्यनुज्ञातमुत्पपात विहायसं |
8412 | 6110023a | ययौ तेन विमानेन हंसयुक्तेन भास्वता |
8413 | 6110023c | प्रहृष्टश्च प्रतीतश्च बभौ रामः कुबेरवत् |
8414 | 6111001a | अनुज्ञातं तु रामेण तद्विमानमनुत्तमम् |
8415 | 6111001c | उत्पपात महामेघः श्वसनेनोद्धतो यथा |
8416 | 6111002a | पातयित्वा ततश्चक्षुः सर्वतो रघुनन्दनः |
8417 | 6111002c | अब्रवीन्मैथिलीं सीतां रामः शशिनिभाननाम् |
8418 | 6111003a | कैलासशिखराकारे त्रिकूटशिखरे स्थिताम् |
8419 | 6111003c | लङ्कामीक्षस्व वैदेहि निर्मितां विश्वकर्मणा |
8420 | 6111004a | एतदायोधनं पश्य मांसशोणितकर्दमम् |
8421 | 6111004c | हरीणां राक्षसानां च सीते विशसनं महत् |
8422 | 6111005a | तवहेतोर्विशालाक्षि रावणो निहतो मया |
8423 | 6111005c | कुम्भकर्णोऽत्र निहतः प्रहस्तश्च निशाचरः |
8424 | 6111006a | लक्ष्मणेनेन्द्रजिच्चात्र रावणिर्निहतो रणे |
8425 | 6111006c | विरूपाक्षश्च दुष्प्रेक्ष्यो महापार्श्वमहोदरौ |
8426 | 6111007a | अकम्पनश्च निहतो बलिनोऽन्ये च राक्षसाः |
8427 | 6111007c | त्रिशिराश्चातिकायश्च देवान्तकनरान्तकौ |
8428 | 6111008a | अत्र मन्दोदरी नाम भार्या तं पर्यदेवयत् |
8429 | 6111008c | सपत्नीनां सहस्रेण सास्रेण परिवारिता |
8430 | 6111009a | एतत्तु दृश्यते तीर्थं समुद्रस्य वरानने |
8431 | 6111009c | यत्र सागरमुत्तीर्य तां रात्रिमुषिता वयम् |
8432 | 6111010a | एष सेतुर्मया बद्धः सागरे सलिलार्णवे |
8433 | 6111010c | तवहेतोर्विशालाक्षि नलसेतुः सुदुष्करः |
8434 | 6111011a | पश्य सागरमक्षोभ्यं वैदेहि वरुणालयम् |
8435 | 6111011c | अपारमभिगर्जन्तं शङ्खशुक्तिनिषेवितम् |
8436 | 6111012a | हिरण्यनाभं शैलेन्द्रं काञ्चनं पश्य मैथिलि |
8437 | 6111012c | विश्रमार्थं हनुमतो भित्त्वा सागरमुत्थितम् |
8438 | 6111013a | अत्र राक्षसराजोऽयमाजगाम विभीषणः |
8439 | 6111014a | एषा सा दृश्यते सीते किष्किन्धा चित्रकानना |
8440 | 6111014c | सुग्रीवस्य पुरी रम्या यत्र वाली मया हतः |
8441 | 6111015a | दृश्यतेऽसौ महान्सीते सविद्युदिव तोयदः |
8442 | 6111015c | ऋश्यमूको गिरिश्रेष्ठः काञ्चनैर्धातुभिर्वृतः |
8443 | 6111016a | अत्राहं वानरेन्द्रेण सुग्रीवेण समागतः |
8444 | 6111016c | समयश्च कृतः सीते वधार्थं वालिनो मया |
8445 | 6111017a | एषा सा दृश्यते पम्पा नलिनी चित्रकानना |
8446 | 6111017c | त्वया विहीनो यत्राहं विललाप सुदुःखितः |
8447 | 6111018a | अस्यास्तीरे मया दृष्टा शबरी धर्मचारिणी |
8448 | 6111018c | अत्र योजनबाहुश्च कबन्धो निहतो मया |
8449 | 6111019a | दृश्यतेऽसौ जनस्थाने सीते श्रीमान्वनस्पतिः |
8450 | 6111019c | यत्र युद्धं महद्वृत्तं तवहेतोर्विलासिनि |
8451 | 6111019e | रावणस्य नृशंसस्य जटायोश्च महात्मनः |
8452 | 6111020a | खरश्च निहतश्संख्ये दूषणश्च निपातितः |
8453 | 6111020c | त्रिशिराश्च महावीर्यो मया बाणैरजिह्मगैः |
8454 | 6111021a | पर्णशाला तथा चित्रा दृश्यते शुभदर्शना |
8455 | 6111021c | यत्र त्वं राक्षसेन्द्रेण रावणेन हृता बलात् |
8456 | 6111022a | एषा गोदावरी रम्या प्रसन्नसलिला शिवा |
8457 | 6111022c | अगस्त्यस्याश्रमो ह्येष दृश्यते पश्य मैथिलि |
8458 | 6111023a | वैदेहि दृश्यते चात्र शरभङ्गाश्रमो महान् |
8459 | 6111023c | उपयातः सहस्राक्षो यत्र शक्रः पुरंदरः |
8460 | 6111024a | एते ते तापसावासा दृश्यन्ते तनुमध्यमे |
8461 | 6111024c | अत्रिः कुलपतिर्यत्र सूर्यवैश्वानरप्रभः |
8462 | 6111024e | अत्र सीते त्वया दृष्टा तापसी धर्मचारिणी |
8463 | 6111025a | अस्मिन्देशे महाकायो विराधो निहतो मया |
8464 | 6111026a | असौ सुतनुशैलेन्द्रश्चित्रकूटः प्रकाशते |
8465 | 6111026c | यत्र मां कैकयीपुत्रः प्रसादयितुमागतः |
8466 | 6111027a | एषा सा यमुना दूराद्दृश्यते चित्रकानना |
8467 | 6111027c | भरद्वाजाश्रमो यत्र श्रीमानेष प्रकाशते |
8468 | 6111028a | एषा त्रिपथगा गङ्गा दृश्यते वरवर्णिनि |
8469 | 6111028c | शृङ्गवेरपुरं चैतद्गुहो यत्र समागतः |
8470 | 6111029a | एषा सा दृश्यतेऽयोध्या राजधानी पितुर्मम |
8471 | 6111029c | अयोध्यां कुरु वैदेहि प्रणामं पुनरागता |
8472 | 6111030a | ततस्ते वानराः सर्वे राक्षसश्च विभीषणः |
8473 | 6111030c | उत्पत्योत्पत्य ददृशुस्तां पुरीं शुभदर्शनाम् |
8474 | 6111031a | ततस्तु तां पाण्डुरहर्म्यमालिनीं; विशालकक्ष्यां गजवाजिसंकुलाम् |
8475 | 6111031c | पुरीमयोध्यां ददृशुः प्लवंगमाः; पुरीं महेन्द्रस्य यथामरावतीम् |
8476 | 6112001a | पूर्णे चतुर्दशे वर्षे पञ्चभ्यां लक्ष्मणाग्रजः |
8477 | 6112001c | भरद्वाजाश्रमं प्राप्य ववन्दे नियतो मुनिम् |
8478 | 6112002a | सोऽपृच्छदभिवाद्यैनं भरद्वाजं तपोधनम् |
8479 | 6112002c | शृणोषि कचिद्भगवन्सुभिक्षानामयं पुरे |
8480 | 6112002e | कच्चिच्च युक्तो भरतो जीवन्त्यपि च मातरः |
8481 | 6112003a | एवमुक्तस्तु रामेण भरद्वाजो महामुनिः |
8482 | 6112003c | प्रत्युवाच रघुश्रेष्ठं स्मितपूर्वं प्रहृष्टवत् |
8483 | 6112004a | पङ्कदिग्धस्तु भरतो जटिलस्त्वां प्रतीक्षते |
8484 | 6112004c | पादुके ते पुरस्कृत्य सर्वं च कुशलं गृहे |
8485 | 6112005a | त्वां पुरा चीरवसनं प्रविशन्तं महावनम् |
8486 | 6112005c | स्त्रीतृतीयं च्युतं राज्याद्धर्मकामं च केवलम् |
8487 | 6112006a | पदातिं त्यक्तसर्वस्वं पितुर्वचनकारिणम् |
8488 | 6112006c | स्वर्गभोगैः परित्यक्तं स्वर्गच्युतमिवामरम् |
8489 | 6112007a | दृष्ट्वा तु करुणा पूर्वं ममासीत्समितिंजय |
8490 | 6112007c | कैकेयीवचने युक्तं वन्यमूलफलाशनम् |
8491 | 6112008a | साम्प्रतं सुसमृद्धार्थं समित्रगणबान्धवम् |
8492 | 6112008c | समीक्ष्य विजितारिं त्वां मम प्रीतिरनुत्तमा |
8493 | 6112009a | सर्वं च सुखदुःखं ते विदितं मम राघव |
8494 | 6112009c | यत्त्वया विपुलं प्राप्तं जनस्थानवधादिकम् |
8495 | 6112010a | ब्राह्मणार्थे नियुक्तस्य रक्षतः सर्वतापसान् |
8496 | 6112010c | मारीचदर्शनं चैव सीतोन्मथनमेव च |
8497 | 6112011a | कबन्धदर्शनं चैव पम्पाभिगमनं तथा |
8498 | 6112011c | सुग्रीवेण च ते सख्यं यच्च वाली हतस्त्वया |
8499 | 6112012a | मार्गणं चैव वैदेह्याः कर्म वातात्मजस्य च |
8500 | 6112012c | विदितायां च वैदेह्यां नलसेतुर्यथा कृतः |
8501 | 6112012e | यथा च दीपिता लङ्का प्रहृष्टैर्हरियूथपैः |
8502 | 6112013a | सपुत्रबान्धवामात्यः सबलः सह वाहनः |
8503 | 6112013c | यथा च निहतः संख्ये रावणो देवकण्टकः |
8504 | 6112014a | समागमश्च त्रिदशैर्यथादत्तश्च ते वरः |
8505 | 6112014c | सर्वं ममैतद्विदितं तपसा धर्मवत्सल |
8506 | 6112015a | अहमप्यत्र ते दद्मि वरं शस्त्रभृतां वर |
8507 | 6112015c | अर्घ्यं प्रतिगृहाणेदमयोध्यां श्वो गमिष्यसि |
8508 | 6112016a | तस्य तच्छिरसा वाक्यं प्रतिगृह्य नृपात्मजः |
8509 | 6112016c | बाढमित्येव संहृष्टः श्रीमान्वरमयाचत |
8510 | 6112017a | अकालफलिनो वृक्षाः सर्वे चापि मधुस्रवाः |
8511 | 6112017c | भवन्तु मार्गे भगवन्नयोध्यां प्रति गच्छतः |
8512 | 6112018a | निष्फलाः फलिनश्चासन्विपुष्पाः पुष्पशालिनः |
8513 | 6112018c | शुष्काः समग्रपत्रास्ते नगाश्चैव मधुस्रवाः |
8514 | 6113001a | अयोध्यां तु समालोक्य चिन्तयामास राघवः |
8515 | 6113001c | चिन्तयित्वा ततो दृष्टिं वानरेषु न्यपातयत् |
8516 | 6113002a | प्रियकामः प्रियं रामस्ततस्त्वरितविक्रमम् |
8517 | 6113002c | उवाच धीमांस्तेजस्वी हनूमन्तं प्लवंगमम् |
8518 | 6113003a | अयोध्यां त्वरितो गच्छ क्षिप्रं त्वं प्लवगोत्तम |
8519 | 6113003c | जानीहि कच्चित्कुशली जनो नृपतिमन्दिरे |
8520 | 6113004a | शृङ्गवेरपुरं प्राप्य गुहं गहनगोचरम् |
8521 | 6113004c | निषादाधिपतिं ब्रूहि कुशलं वचनान्मम |
8522 | 6113005a | श्रुत्वा तु मां कुशलिनमरोगं विगतज्वरम् |
8523 | 6113005c | भविष्यति गुहः प्रीतः स ममात्मसमः सखा |
8524 | 6113006a | अयोध्यायाश्च ते मार्गं प्रवृत्तिं भरतस्य च |
8525 | 6113006c | निवेदयिष्यति प्रीतो निषादाधिपतिर्गुहः |
8526 | 6113007a | भरतस्तु त्वया वाच्यः कुशलं वचनान्मम |
8527 | 6113007c | सिद्धार्थं शंस मां तस्मै सभार्यं सहलक्ष्मणम् |
8528 | 6113008a | हरणं चापि वैदेह्या रावणेन बलीयसा |
8529 | 6113008c | सुग्रीवेण च संवादं वालिनश्च वधं रणे |
8530 | 6113009a | मैथिल्यन्वेषणं चैव यथा चाधिगता त्वया |
8531 | 6113009c | लङ्घयित्वा महातोयमापगापतिमव्ययम् |
8532 | 6113010a | उपयानं समुद्रस्य सागरस्य च दर्शनम् |
8533 | 6113010c | यथा च कारितः सेतू रावणश्च यथा हतः |
8534 | 6113011a | वरदानं महेन्द्रेण ब्रह्मणा वरुणेन च |
8535 | 6113011c | महादेवप्रसादाच्च पित्रा मम समागमम् |
8536 | 6113012a | जित्वा शत्रुगणान्रामः प्राप्य चानुत्तमं यशः |
8537 | 6113012c | उपयाति समृद्धार्थः सह मित्रैर्महाबलः |
8538 | 6113013a | एतच्छ्रुत्वा यमाकारं भजते भरतस्ततः |
8539 | 6113013c | स च ते वेदितव्यः स्यात्सर्वं यच्चापि मां प्रति |
8540 | 6113014a | ज्ञेयाः सर्वे च वृत्तान्ता भरतस्येङ्गितानि च |
8541 | 6113014c | तत्त्वेन मुखवर्णेन दृष्ट्या व्याभाषणेन च |
8542 | 6113015a | सर्वकामसमृद्धं हि हस्त्यश्वरथसंकुलम् |
8543 | 6113015c | पितृपैतामहं राज्यं कस्य नावर्तयेन्मनः |
8544 | 6113016a | संगत्या भरतः श्रीमान्राज्येनार्थी स्वयं भवेत् |
8545 | 6113016c | प्रशास्तु वसुधां सर्वामखिलां रघुनन्दनः |
8546 | 6113017a | तस्य बुद्धिं च विज्ञाय व्यवसायं च वानर |
8547 | 6113017c | यावन्न दूरं याताः स्मः क्षिप्रमागन्तुमर्हसि |
8548 | 6113018a | इति प्रतिसमादिष्टो हनूमान्मारुतात्मजः |
8549 | 6113018c | मानुषं धारयन्रूपमयोध्यां त्वरितो ययौ |
8550 | 6113019a | लङ्घयित्वा पितृपथं भुजगेन्द्रालयं शुभम् |
8551 | 6113019c | गङ्गायमुनयोर्भीमं संनिपातमतीत्य च |
8552 | 6113020a | शृङ्गवेरपुरं प्राप्य गुहमासाद्य वीर्यवान् |
8553 | 6113020c | स वाचा शुभया हृष्टो हनूमानिदमब्रवीत् |
8554 | 6113021a | सखा तु तव काकुत्स्थो रामः सत्यपराक्रमः |
8555 | 6113021c | ससीतः सह सौमित्रिः स त्वां कुशलमब्रवीत् |
8556 | 6113022a | पञ्चमीमद्य रजनीमुषित्वा वचनान्मुनेः |
8557 | 6113022c | भरद्वाजाभ्यनुज्ञातं द्रक्ष्यस्यद्यैव राघवम् |
8558 | 6113023a | एवमुक्त्वा महातेजाः संप्रहृष्टतनूरुहः |
8559 | 6113023c | उत्पपात महावेगो वेगवानविचारयन् |
8560 | 6113024a | सोऽपश्यद्रामतीर्थं च नदीं वालुकिनीं तथा |
8561 | 6113024c | गोमतीं तां च सोऽपश्यद्भीमं सालवनं तथा |
8562 | 6113025a | स गत्वा दूरमध्वानं त्वरितः कपिकुञ्जरः |
8563 | 6113025c | आससाद द्रुमान्फुल्लान्नन्दिग्रामसमीपजान् |
8564 | 6113026a | क्रोशमात्रे त्वयोध्यायाश्चीरकृष्णाजिनाम्बरम् |
8565 | 6113026c | ददर्श भरतं दीनं कृशमाश्रमवासिनम् |
8566 | 6113027a | जटिलं मलदिग्धाङ्गं भ्रातृव्यसनकर्शितम् |
8567 | 6113027c | फलमूलाशिनं दान्तं तापसं धर्मचारिणम् |
8568 | 6113028a | समुन्नतजटाभारं वल्कलाजिनवाससं |
8569 | 6113028c | नियतं भावितात्मानं ब्रह्मर्षिसमतेजसं |
8570 | 6113029a | पादुके ते पुरस्कृत्य शासन्तं वै वसुंधराम् |
8571 | 6113029c | चतुर्वर्ण्यस्य लोकस्य त्रातारं सर्वतो भयात् |
8572 | 6113030a | उपस्थितममात्यैश्च शुचिभिश्च पुरोहितैः |
8573 | 6113030c | बलमुख्यैश्च युक्तैश्च काषायाम्बरधारिभिः |
8574 | 6113031a | न हि ते राजपुत्रं तं चीरकृष्णाजिनाम्बरम् |
8575 | 6113031c | परिमोक्तुं व्यवस्यन्ति पौरा वै धर्मवत्सलाः |
8576 | 6113032a | तं धर्ममिव धर्मज्ञं देववन्तमिवापरम् |
8577 | 6113032c | उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यं हनूमान्मारुतात्मजः |
8578 | 6113033a | वसन्तं दण्डकारण्ये यं त्वं चीरजटाधरम् |
8579 | 6113033c | अनुशोचसि काकुत्स्थं स त्वा कुशलमब्रवीत् |
8580 | 6113034a | प्रियमाख्यामि ते देव शोकं त्यक्ष्यसि दारुणम् |
8581 | 6113034c | अस्मिन्मुहूर्ते भ्रात्रा त्वं रामेण सह संगतः |
8582 | 6113035a | निहत्य रावणं रामः प्रतिलभ्य च मैथिलीम् |
8583 | 6113035c | उपयाति समृद्धार्थः सह मित्रैर्महाबलैः |
8584 | 6113036a | लक्ष्मणश्च महातेजा वैदेही च यशस्विनी |
8585 | 6113036c | सीता समग्रा रामेण महेन्द्रेण शची यथा |
8586 | 6113037a | एवमुक्तो हनुमता भरतः कैकयीसुतः |
8587 | 6113037c | पपात सहसा हृष्टो हर्षान्मोहं जगाम ह |
8588 | 6113038a | ततो मुहूर्तादुत्थाय प्रत्याश्वस्य च राघवः |
8589 | 6113038c | हनूमन्तमुवाचेदं भरतः प्रियवादिनम् |
8590 | 6113039a | अशोकजैः प्रीतिमयैः कपिमालिङ्ग्य संभ्रमात् |
8591 | 6113039c | सिषेच भरतः श्रीमान्विपुलैरश्रुबिन्दुभिः |
8592 | 6113040a | देवो वा मानुषो वा त्वमनुक्रोशादिहागतः |
8593 | 6113040c | प्रियाख्यानस्य ते सौम्य ददामि ब्रुवतः प्रियम् |
8594 | 6113041a | गवां शतसहस्रं च ग्रामाणां च शतं परम् |
8595 | 6113041c | सकुण्डलाः शुभाचारा भार्याः कन्याश्च षोडश |
8596 | 6113042a | हेमवर्णाः सुनासोरूः शशिसौम्याननाः स्त्रियः |
8597 | 6113042c | सर्वाभरणसंपन्ना संपन्नाः कुलजातिभिः |
8598 | 6113043a | निशम्य रामागमनं नृपात्मजः; कपिप्रवीरस्य तदाद्भुतोपमम् |
8599 | 6113043c | प्रहर्षितो रामदिदृक्षयाभव;त्पुनश्च हर्षादिदमब्रवीद्वचः |
8600 | 6114001a | बहूनि नाम वर्षाणि गतस्य सुमहद्वनम् |
8601 | 6114001c | शृणोम्यहं प्रीतिकरं मम नाथस्य कीर्तनम् |
8602 | 6114002a | कल्याणी बत गाथेयं लौकिकी प्रतिभाति मे |
8603 | 6114002c | एति जीवन्तमानन्दो नरं वर्षशतादपि |
8604 | 6114003a | राघवस्य हरीणां च कथमासीत्समागमः |
8605 | 6114003c | कस्मिन्देशे किमाश्रित्य तत्त्वमाख्याहि पृच्छतः |
8606 | 6114004a | स पृष्टो राजपुत्रेण बृस्यां समुपवेशितः |
8607 | 6114004c | आचचक्षे ततः सर्वं रामस्य चरितं वने |
8608 | 6114005a | यथा प्रव्रजितो रामो मातुर्दत्ते वरे तव |
8609 | 6114005c | यथा च पुत्रशोकेन राजा दशरथो मृतः |
8610 | 6114006a | यथा दूतैस्त्वमानीतस्तूर्णं राजगृहात्प्रभो |
8611 | 6114006c | त्वयायोध्यां प्रविष्टेन यथा राज्यं न चेप्सितम् |
8612 | 6114007a | चित्रकूटं गिरिं गत्वा राज्येनामित्रकर्शनः |
8613 | 6114007c | निमन्त्रितस्त्वया भ्राता धर्ममाचरिता सताम् |
8614 | 6114008a | स्थितेन राज्ञो वचने यथा राज्यं विसर्जितम् |
8615 | 6114008c | आर्यस्य पादुके गृह्य यथासि पुनरागतः |
8616 | 6114009a | सर्वमेतन्महाबाहो यथावद्विदितं तव |
8617 | 6114009c | त्वयि प्रतिप्रयाते तु यद्वृत्तं तन्निबोध मे |
8618 | 6114010a | अपयाते त्वयि तदा समुद्भ्रान्तमृगद्विजम् |
8619 | 6114010c | प्रविवेशाथ विजनं सुमहद्दण्डकावनम् |
8620 | 6114011a | तेषां पुरस्ताद्बलवान्गच्छतां गहने वने |
8621 | 6114011c | विनदन्सुमहानादं विराधः प्रत्यदृश्यत |
8622 | 6114012a | तमुत्क्षिप्य महानादमूर्ध्वबाहुमधोमुखम् |
8623 | 6114012c | निखाते प्रक्षिपन्ति स्म नदन्तमिव कुञ्जरम् |
8624 | 6114013a | तत्कृत्वा दुष्करं कर्म भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ |
8625 | 6114013c | सायाह्ने शरभङ्गस्य रम्यमाश्रममीयतुः |
8626 | 6114014a | शरभङ्गे दिवं प्राप्ते रामः सत्यपराक्रमः |
8627 | 6114014c | अभिवाद्य मुनीन्सर्वाञ्जनस्थानमुपागमत् |
8628 | 6114015a | चतुर्दशसहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम् |
8629 | 6114015c | हतानि वसता तत्र राघवेण महात्मना |
8630 | 6114016a | ततः पश्चाच्छूर्पणखा रामपार्श्वमुपागता |
8631 | 6114016c | ततो रामेण संदिष्टो लक्ष्मणः सहसोत्थितः |
8632 | 6114017a | प्रगृह्य खड्गं चिच्छेद कर्णनासे महाबलः |
8633 | 6114017c | ततस्तेनार्दिता बाला रावणं समुपागता |
8634 | 6114018a | रावणानुचरो घोरो मारीचो नाम राक्षसः |
8635 | 6114018c | लोभयामास वैदेहीं भूत्वा रत्नमयो मृगः |
8636 | 6114019a | सा राममब्रवीद्दृष्ट्वा वैदेही गृह्यतामिति |
8637 | 6114019c | अहो मनोहरः कान्त आश्रमे नो भविष्यति |
8638 | 6114020a | ततो रामो धनुष्पाणिर्धावन्तमनुधावति |
8639 | 6114020c | स तं जघान धावन्तं शरेणानतपर्वणा |
8640 | 6114021a | अथ सौम्या दशग्रीवो मृगं याते तु राघवे |
8641 | 6114021c | लक्ष्मणे चापि निष्क्रान्ते प्रविवेशाश्रमं तदा |
8642 | 6114021e | जग्राह तरसा सीतां ग्रहः खे रोहिणीमिव |
8643 | 6114022a | त्रातुकामं ततो युद्धे हत्वा गृध्रं जटायुषम् |
8644 | 6114022c | प्रगृह्य सीतां सहसा जगामाशु स रावणः |
8645 | 6114023a | ततस्त्वद्भुतसंकाशाः स्थिताः पर्वतमूर्धनि |
8646 | 6114023c | सीतां गृहीत्वा गच्छन्तं वानराः पर्वतोपमाः |
8647 | 6114023e | ददृशुर्विस्मितास्तत्र रावणं राक्षसाधिपम् |
8648 | 6114024a | प्रविवेर्श तदा लङ्कां रावणो लोकरावणः |
8649 | 6114025a | तां सुवर्णपरिक्रान्ते शुभे महति वेश्मनि |
8650 | 6114025c | प्रवेश्य मैथिलीं वाक्यैः सान्त्वयामास रावणः |
8651 | 6114026a | निवर्तमानः काकुत्स्थो दृष्ट्वा गृध्रं प्रविव्यथे |
8652 | 6114027a | गृध्रं हतं तदा दग्ध्वा रामः प्रियसखं पितुः |
8653 | 6114027c | गोदावरीमनुचरन्वनोद्देशांश्च पुष्पितान् |
8654 | 6114027e | आसेदतुर्महारण्ये कबन्धं नाम राक्षसं |
8655 | 6114028a | ततः कबन्धवचनाद्रामः सत्यपराक्रमः |
8656 | 6114028c | ऋश्यमूकं गिरिं गत्वा सुग्रीवेण समागतः |
8657 | 6114029a | तयोः समागमः पूर्वं प्रीत्या हार्दो व्यजायत |
8658 | 6114029c | इतरेतर संवादात्प्रगाढः प्रणयस्तयोः |
8659 | 6114030a | रामः स्वबाहुवीर्येण स्वराज्यं प्रत्यपादयत् |
8660 | 6114030c | वालिनं समरे हत्वा महाकायं महाबलम् |
8661 | 6114031a | सुग्रीवः स्थापितो राज्ये सहितः सर्ववानरैः |
8662 | 6114031c | रामाय प्रतिजानीते राजपुत्र्यास्तु मार्गणम् |
8663 | 6114032a | आदिष्टा वानरेन्द्रेण सुग्रीवेण महात्मना |
8664 | 6114032c | दशकोट्यः प्लवंगानां सर्वाः प्रस्थापिता दिशः |
8665 | 6114033a | तेषां नो विप्रनष्टानां विन्ध्ये पर्वतसत्तमे |
8666 | 6114033c | भृशं शोकाभितप्तानां महान्कालोऽत्यवर्तत |
8667 | 6114034a | भ्राता तु गृध्रराजस्य संपातिर्नाम वीर्यवान् |
8668 | 6114034c | समाख्याति स्म वसतिं सीताया रावणालये |
8669 | 6114035a | सोऽहं दुःखपरीतानां दुःखं तज्ज्ञातिनां नुदन् |
8670 | 6114035c | आत्मवीर्यं समास्थाय योजनानां शतं प्लुतः |
8671 | 6114036a | तत्राहमेकामद्राक्षमशोकवनिकां गताम् |
8672 | 6114036c | कौशेयवस्त्रां मलिनां निरानन्दां दृढव्रताम् |
8673 | 6114037a | तया समेत्य विधिवत्पृष्ट्वा सर्वमनिन्दिताम् |
8674 | 6114037c | अभिज्ञानं मणिं लब्ध्वा चरितार्थोऽहमागतः |
8675 | 6114038a | मया च पुनरागम्य रामस्याक्लिष्टकर्मणः |
8676 | 6114038c | अभिज्ञानं मया दत्तमर्चिष्मान्स महामणिः |
8677 | 6114039a | श्रुत्वा तां मैथिलीं हृष्टस्त्वाशशंसे स जीवितम् |
8678 | 6114039c | जीवितान्तमनुप्राप्तः पीत्वामृतमिवातुरः |
8679 | 6114040a | उद्योजयिष्यन्नुद्योगं दध्रे लङ्कावधे मनः |
8680 | 6114040c | जिघांसुरिव लोकांस्ते सर्वाँल्लोकान्विभावसुः |
8681 | 6114041a | ततः समुद्रमासाद्य नलं सेतुमकारयत् |
8682 | 6114041c | अतरत्कपिवीराणां वाहिनी तेन सेतुना |
8683 | 6114042a | प्रहस्तमवधीन्नीलः कुम्भकर्णं तु राघवः |
8684 | 6114042c | लक्ष्मणो रावणसुतं स्वयं रामस्तु रावणम् |
8685 | 6114043a | स शक्रेण समागम्य यमेन वरुणेन च |
8686 | 6114043c | सुरर्षिभिश्च काकुत्स्थो वराँल्लेभे परंतपः |
8687 | 6114044a | स तु दत्तवरः प्रीत्या वानरैश्च समागतः |
8688 | 6114044c | पुष्पकेण विमानेन किष्किन्धामभ्युपागमत् |
8689 | 6114045a | तं गङ्गां पुनरासाद्य वसन्तं मुनिसंनिधौ |
8690 | 6114045c | अविघ्नं पुष्ययोगेन श्वो रामं द्रष्टुमर्हसि |
8691 | 6114046a | ततः स सत्यं हनुमद्वचो मह;न्निशम्य हृष्टो भरतः कृताञ्जलिः |
8692 | 6114046c | उवाच वाणीं मनसः प्रहर्षिणी; चिरस्य पूर्णः खलु मे मनोरथः |
8693 | 6115001a | श्रुत्वा तु परमानन्दं भरतः सत्यविक्रमः |
8694 | 6115001c | हृष्टमाज्ञापयामास शत्रुघ्नं परवीरहा |
8695 | 6115002a | दैवतानि च सर्वाणि चैत्यानि नगरस्य च |
8696 | 6115002c | सुगन्धमाल्यैर्वादित्रैरर्चन्तु शुचयो नराः |
8697 | 6115003a | राजदारास्तथामात्याः सैन्याः सेनागणाङ्गनाः |
8698 | 6115003c | अभिनिर्यान्तु रामस्य द्रष्टुं शशिनिभं मुखम् |
8699 | 6115004a | भरतस्य वचः श्रुत्वा शत्रुघ्नः परवीरहा |
8700 | 6115004c | विष्टीरनेकसाहस्रीश्चोदयामास वीर्यवान् |
8701 | 6115005a | समीकुरुत निम्नानि विषमाणि समानि च |
8702 | 6115005c | स्थानानि च निरस्यन्तां नन्दिग्रामादितः परम् |
8703 | 6115006a | सिञ्चन्तु पृथिवीं कृत्स्नां हिमशीतेन वारिणा |
8704 | 6115006c | ततोऽभ्यवकिरंस्त्वन्ये लाजैः पुष्पैश्च सर्वतः |
8705 | 6115007a | समुच्छ्रितपताकास्तु रथ्याः पुरवरोत्तमे |
8706 | 6115007c | शोभयन्तु च वेश्मानि सूर्यस्योदयनं प्रति |
8707 | 6115008a | स्रग्दाममुक्तपुष्पैश्च सुगन्धैः पञ्चवर्णकैः |
8708 | 6115008c | राजमार्गमसंबाधं किरन्तु शतशो नराः |
8709 | 6115009a | मत्तैर्नागसहस्रैश्च शातकुम्भविभूषितः |
8710 | 6115009c | अपरे हेमकक्ष्याभिः सगजाभिः करेणुभिः |
8711 | 6115009e | निर्ययुस्त्वरया युक्ता रथैश्च सुमहारथाः |
8712 | 6115010a | ततो यानान्युपारूढाः सर्वा दशरथस्त्रियः |
8713 | 6115010c | कौसल्यां प्रमुखे कृत्वा सुमित्रां चापि निर्ययुः |
8714 | 6115011a | अश्वानां खुरशब्देन रथनेमिस्वनेन च |
8715 | 6115011c | शङ्खदुन्दुभिनादेन संचचालेव मेदिनी |
8716 | 6115012a | कृत्स्नं च नगरं तत्तु नन्दिग्राममुपागमत् |
8717 | 6115012c | द्विजातिमुख्यैर्धर्मात्मा श्रेणीमुख्यैः सनैगमैः |
8718 | 6115013a | माल्यमोदक हस्तैश्च मन्त्रिभिर्भरतो वृतः |
8719 | 6115013c | शङ्खभेरीनिनादैश्च बन्दिभिश्चाभिवन्दितः |
8720 | 6115014a | आर्यपादौ गृहीत्वा तु शिरसा धर्मकोविदः |
8721 | 6115014c | पाण्डुरं छत्रमादाय शुक्लमाल्योपशोभितम् |
8722 | 6115015a | शुक्ले च वालव्यजने राजार्हे हेमभूषिते |
8723 | 6115015c | उपवासकृशो दीनश्चीरकृष्णाजिनाम्बरः |
8724 | 6115016a | भ्रातुरागमनं श्रुत्वा तत्पूर्वं हर्षमागतः |
8725 | 6115016c | प्रत्युद्ययौ तदा रामं महात्मा सचिवैः सह |
8726 | 6115017a | समीक्ष्य भरतो वाक्यमुवाच पवनात्मजम् |
8727 | 6115017c | कच्चिन्न खलु कापेयी सेव्यते चलचित्तता |
8728 | 6115017e | न हि पश्यामि काकुत्स्थं राममार्यं परंतपम् |
8729 | 6115018a | अथैवमुक्ते वचने हनूमानिदमब्रवीत् |
8730 | 6115018c | अर्थं विज्ञापयन्नेव भरतं सत्यविक्रमम् |
8731 | 6115019a | सदा फलान्कुसुमितान्वृक्षान्प्राप्य मधुस्रवान् |
8732 | 6115019c | भरद्वाजप्रसादेन मत्तभ्रमरनादितान् |
8733 | 6115020a | तस्य चैष वरो दत्तो वासवेन परंतप |
8734 | 6115020c | ससैन्यस्य तदातिथ्यं कृतं सर्वगुणान्वितम् |
8735 | 6115021a | निस्वनः श्रूयते भीमः प्रहृष्टानां वनौकसाम् |
8736 | 6115021c | मन्ये वानरसेना सा नदीं तरति गोमतीम् |
8737 | 6115022a | रजोवर्षं समुद्भूतं पश्य वालुकिनीं प्रति |
8738 | 6115022c | मन्ये सालवनं रम्यं लोलयन्ति प्लवंगमाः |
8739 | 6115023a | तदेतद्दृश्यते दूराद्विमलं चन्द्रसंनिभम् |
8740 | 6115023c | विमानं पुष्पकं दिव्यं मनसा ब्रह्मनिर्मितम् |
8741 | 6115024a | रावणं बान्धवैः सार्धं हत्वा लब्धं महात्मना |
8742 | 6115024c | धनदस्य प्रसादेन दिव्यमेतन्मनोजवम् |
8743 | 6115025a | एतस्मिन्भ्रातरौ वीरौ वैदेह्या सह राघवौ |
8744 | 6115025c | सुग्रीवश्च महातेजा राक्षसेन्द्रो विभीषणः |
8745 | 6115026a | ततो हर्षसमुद्भूतो निस्वनो दिवमस्पृशत् |
8746 | 6115026c | स्त्रीबालयुववृद्धानां रामोऽयमिति कीर्तितः |
8747 | 6115027a | रथकुञ्जरवाजिभ्यस्तेऽवतीर्य महीं गताः |
8748 | 6115027c | ददृशुस्तं विमानस्थं नराः सोममिवाम्बरे |
8749 | 6115028a | प्राञ्जलिर्भरतो भूत्वा प्रहृष्टो राघवोन्मुखः |
8750 | 6115028c | स्वागतेन यथार्थेन ततो राममपूजयत् |
8751 | 6115029a | मनसा ब्रह्मणा सृष्टे विमाने लक्ष्मणाग्रजः |
8752 | 6115029c | रराज पृथुदीर्घाक्षो वज्रपाणिरिवापरः |
8753 | 6115030a | ततो विमानाग्रगतं भरतो भ्रातरं तदा |
8754 | 6115030c | ववन्दे प्रणतो रामं मेरुस्थमिव भास्करम् |
8755 | 6115031a | आरोपितो विमानं तद्भरतः सत्यविक्रमः |
8756 | 6115031c | राममासाद्य मुदितः पुनरेवाभ्यवादयत् |
8757 | 6115032a | तं समुत्थाप्य काकुत्स्थश्चिरस्याक्षिपथं गतम् |
8758 | 6115032c | अङ्के भरतमारोप्य मुदितः परिषष्वजे |
8759 | 6115033a | ततो लक्ष्मणमासाद्य वैदेहीं च परंतपः |
8760 | 6115033c | अभ्यवादयत प्रीतो भरतो नाम चाब्रवीत् |
8761 | 6115034a | सुग्रीवं कैकयी पुत्रो जाम्बवन्तं तथाङ्गदम् |
8762 | 6115034c | मैन्दं च द्विविदं नीलमृषभं चैव सस्वजे |
8763 | 6115035a | ते कृत्वा मानुषं रूपं वानराः कामरूपिणः |
8764 | 6115035c | कुशलं पर्यपृष्हन्त प्रहृष्टा भरतं तदा |
8765 | 6115036a | विभीषणं च भरतः सान्त्वयन्वाक्यमब्रवीत् |
8766 | 6115036c | दिष्ट्या त्वया सहायेन कृतं कर्म सुदुष्करम् |
8767 | 6115037a | शत्रुघ्नश्च तदा राममभिवाद्य सलक्ष्मणम् |
8768 | 6115037c | सीतायाश्चरणौ पश्चाद्ववन्दे विनयान्वितः |
8769 | 6115038a | रामो मातरमासाद्य विषण्णं शोककर्शिताम् |
8770 | 6115038c | जग्राह प्रणतः पादौ मनो मातुः प्रसादयन् |
8771 | 6115039a | अभिवाद्य सुमित्रां च कैकेयीं च यशस्विनीम् |
8772 | 6115039c | स मातॄश्च तदा सर्वाः पुरोहितमुपागमत् |
8773 | 6115040a | स्वागतं ते महाबाहो कौसल्यानन्दवर्धन |
8774 | 6115040c | इति प्राञ्जलयः सर्वे नागरा राममब्रुवन् |
8775 | 6115041a | तन्यञ्जलिसहस्राणि प्रगृहीतानि नागरैः |
8776 | 6115041c | आकोशानीव पद्मानि ददर्श भरताग्रजः |
8777 | 6115042a | पादुके ते तु रामस्य गृहीत्वा भरतः स्वयम् |
8778 | 6115042c | चरणाभ्यां नरेन्द्रस्य योजयामास धर्मवित् |
8779 | 6115043a | अब्रवीच्च तदा रामं भरतः स कृताञ्जलिः |
8780 | 6115043c | एतत्ते रक्षितं राजन्राज्यं निर्यातितं मया |
8781 | 6115044a | अद्य जन्म कृतार्थं मे संवृत्तश्च मनोरथः |
8782 | 6115044c | यस्त्वां पश्यामि राजानमयोध्यां पुनरागतम् |
8783 | 6115045a | अवेक्षतां भवान्कोशं कोष्ठागारं पुरं बलम् |
8784 | 6115045c | भवतस्तेजसा सर्वं कृतं दशगुणं मया |
8785 | 6115046a | तथा ब्रुवाणं भरतं दृष्ट्वा तं भ्रातृवत्सलम् |
8786 | 6115046c | मुमुचुर्वानरा बाष्पं राक्षसश्च विभीषणः |
8787 | 6115047a | ततः प्रहर्षाद्भरतमङ्कमारोप्य राघवः |
8788 | 6115047c | ययौ तेन विमानेन ससैन्यो भरताश्रमम् |
8789 | 6115048a | भरताश्रममासाद्य ससैन्यो राघवस्तदा |
8790 | 6115048c | अवतीर्य विमानाग्रादवतस्थे महीतले |
8791 | 6115049a | अब्रवीच्च तदा रामस्तद्विमानमनुत्तमम् |
8792 | 6115049c | वह वैश्रवणं देवमनुजानामि गम्यताम् |
8793 | 6115050a | ततो रामाभ्यनुज्ञातं तद्विमानमनुत्तमम् |
8794 | 6115050c | उत्तरां दिशमुद्दिश्य जगाम धनदालयम् |
8795 | 6115051a | पुरोहितस्यात्मसमस्य राघवो; बृहस्पतेः शक्र इवामराधीअफ् |
8796 | 6115051c | निपीड्य पादौ पृथगासने शुभे; सहैव तेनोपविवेश वीर्यवान् |
8797 | 6116001a | शिरस्यञ्जलिमादाय कैकेयीनन्दिवर्धनः |
8798 | 6116001c | बभाषे भरतो ज्येष्ठं रामं सत्यपराक्रमम् |
8799 | 6116002a | पूजिता मामिका माता दत्तं राज्यमिदं मम |
8800 | 6116002c | तद्ददामि पुनस्तुभ्यं यथा त्वमददा मम |
8801 | 6116003a | धुरमेकाकिना न्यस्तामृषभेण बलीयसा |
8802 | 6116003c | किशोरवद्गुरुं भारं न वोढुमहमुत्सहे |
8803 | 6116004a | वारिवेगेन महता भिन्नः सेतुरिव क्षरन् |
8804 | 6116004c | दुर्बन्धनमिदं मन्ये राज्यच्छिद्रमसंवृतम् |
8805 | 6116005a | गतिं खर इवाश्वस्य हंसस्येव च वायसः |
8806 | 6116005c | नान्वेतुमुत्सहे देव तव मार्गमरिंदम |
8807 | 6116006a | यथा च रोपितो वृक्षो जातश्चान्तर्निवेशने |
8808 | 6116006c | महांश्च सुदुरारोहो महास्कन्धः प्रशाखवान् |
8809 | 6116007a | शीर्येत पुष्पितो भूत्वा न फलानि प्रदर्शयेत् |
8810 | 6116007c | तस्य नानुभवेदर्थं यस्य हेतोः स रोप्यते |
8811 | 6116008a | एषोपमा महाबाहो त्वमर्थं वेत्तुमर्हसि |
8812 | 6116008c | यद्यस्मान्मनुजेन्द्र त्वं भक्तान्भृत्यान्न शाधि हि |
8813 | 6116009a | जगदद्याभिषिक्तं त्वामनुपश्यतु सर्वतः |
8814 | 6116009c | प्रतपन्तमिवादित्यं मध्याह्ने दीप्ततेजसं |
8815 | 6116010a | तूर्यसंघातनिर्घोषैः काञ्चीनूपुरनिस्वनैः |
8816 | 6116010c | मधुरैर्गीतशब्दैश्च प्रतिबुध्यस्व शेष्व च |
8817 | 6116011a | यावदावर्तते चक्रं यावती च वसुंधरा |
8818 | 6116011c | तावत्त्वमिह सर्वस्य स्वामित्वमभिवर्तय |
8819 | 6116012a | भरतस्य वचः श्रुत्वा रामः परपुरंजयः |
8820 | 6116012c | तथेति प्रतिजग्राह निषसादासने शुभे |
8821 | 6116013a | ततः शत्रुघ्नवचनान्निपुणाः श्मश्रुवर्धकाः |
8822 | 6116013c | सुखहस्ताः सुशीघ्राश्च राघवं पर्युपासत |
8823 | 6116014a | पूर्वं तु भरते स्नाते लक्ष्मणे च महाबले |
8824 | 6116014c | सुग्रीवे वानरेन्द्रे च राक्षसेन्द्रे विभीषणे |
8825 | 6116015a | विशोधितजटः स्नातश्चित्रमाल्यानुलेपनः |
8826 | 6116015c | महार्हवसनोपेतस्तस्थौ तत्र श्रिया ज्वलन् |
8827 | 6116016a | प्रतिकर्म च रामस्य कारयामास वीर्यवान् |
8828 | 6116016c | लक्ष्मणस्य च लक्ष्मीवानिक्ष्वाकुकुलवर्धनः |
8829 | 6116017a | प्रतिकर्म च सीतायाः सर्वा दशरथस्त्रियः |
8830 | 6116017c | आत्मनैव तदा चक्रुर्मनस्विन्यो मनोहरम् |
8831 | 6116018a | ततो राघवपत्नीनां सर्वासामेव शोभनम् |
8832 | 6116018c | चकार यत्नात्कौसल्या प्रहृष्टा पुत्रवत्सला |
8833 | 6116019a | ततः शत्रुघ्नवचनात्सुमन्त्रो नाम सारथिः |
8834 | 6116019c | योजयित्वाभिचक्राम रथं सर्वाङ्गशोभनम् |
8835 | 6116020a | अर्कमण्डलसंकाशं दिव्यं दृष्ट्वा रथं स्थितम् |
8836 | 6116020c | आरुरोह महाबाहू रामः सत्यपराक्रमः |
8837 | 6116021a | अयोध्यायां तु सचिवा राज्ञो दशरथस्य ये |
8838 | 6116021c | पुरोहितं पुरस्कृत्य मन्त्रयामासुरर्थवत् |
8839 | 6116022a | मन्त्रयन्रामवृद्ध्यर्थं वृत्त्यर्थं नगरस्य च |
8840 | 6116022c | सर्वमेवाभिषेकार्थं जयार्हस्य महात्मनः |
8841 | 6116022e | कर्तुमर्हथ रामस्य यद्यन्मङ्गलपूर्वकम् |
8842 | 6116023a | इति ते मन्त्रिणः सर्वे संदिश्य तु पुरोहितम् |
8843 | 6116023c | नगरान्निर्ययुस्तूर्णं रामदर्शनबुद्धयः |
8844 | 6116024a | हरियुक्तं सहस्राक्षो रथमिन्द्र इवानघः |
8845 | 6116024c | प्रययौ रथमास्थाय रामो नगरमुत्तमम् |
8846 | 6116025a | जग्राह भरतो रश्मीञ्शत्रुघ्नश्छत्रमाददे |
8847 | 6116025c | लक्ष्मणो व्यजनं तस्य मूर्ध्नि संपर्यवीजयत् |
8848 | 6116026a | श्वेतं च वालव्यजनं सुग्रीवो वानरेश्वरः |
8849 | 6116026c | अपरं चन्द्रसंकाशं राक्षसेन्द्रो विभीषणः |
8850 | 6116027a | ऋषिसंघैर्तदाकाशे देवैश्च समरुद्गणैः |
8851 | 6116027c | स्तूयमानस्य रामस्य शुश्रुवे मधुरध्वनिः |
8852 | 6116028a | ततः शत्रुंजयं नाम कुञ्जरं पर्वतोपमम् |
8853 | 6116028c | आरुरोह महातेजाः सुग्रीवो वानरेश्वरः |
8854 | 6116029a | नवनागसहस्राणि ययुरास्थाय वानराः |
8855 | 6116029c | मानुषं विग्रहं कृत्वा सर्वाभरणभूषिताः |
8856 | 6116030a | शङ्खशब्दप्रणादैश्च दुन्दुभीनां च निस्वनैः |
8857 | 6116030c | प्रययू पुरुषव्याघ्रस्तां पुरीं हर्म्यमालिनीम् |
8858 | 6116031a | ददृशुस्ते समायान्तं राघवं सपुरःसरम् |
8859 | 6116031c | विराजमानं वपुषा रथेनातिरथं तदा |
8860 | 6116032a | ते वर्धयित्वा काकुत्स्थं रामेण प्रतिनन्दिताः |
8861 | 6116032c | अनुजग्मुर्महात्मानं भ्रातृभिः परिवारितम् |
8862 | 6116033a | अमात्यैर्ब्राह्मणैश्चैव तथा प्रकृतिभिर्वृतः |
8863 | 6116033c | श्रिया विरुरुचे रामो नक्षत्रैरिव चन्द्रमाः |
8864 | 6116034a | स पुरोगामिभिस्तूर्यैस्तालस्वस्तिकपाणिभिः |
8865 | 6116034c | प्रव्याहरद्भिर्मुदितैर्मङ्गलानि ययौ वृतः |
8866 | 6116035a | अक्षतं जातरूपं च गावः कन्यास्तथा द्विजाः |
8867 | 6116035c | नरा मोदकहस्ताश्च रामस्य पुरतो ययुः |
8868 | 6116036a | सख्यं च रामः सुग्रीवे प्रभावं चानिलात्मजे |
8869 | 6116036c | वानराणां च तत्कर्म व्याचचक्षेऽथ मन्त्रिणाम् |
8870 | 6116036e | श्रुत्वा च विस्मयं जग्मुरयोध्यापुरवासिनः |
8871 | 6116037a | द्युतिमानेतदाख्याय रामो वानरसंवृतः |
8872 | 6116037c | हृष्टपुष्टजनाकीर्णामयोध्यां प्रविवेश ह |
8873 | 6116038a | ततो ह्यभ्युच्छ्रयन्पौराः पताकास्ते गृहे गृहे |
8874 | 6116038c | ऐक्ष्वाकाध्युषितं रम्यमाससाद पितुर्गृहम् |
8875 | 6116039a | पितुर्भवनमासाद्य प्रविश्य च महात्मनः |
8876 | 6116039c | कौसल्यां च सुमित्रां च कैकेयीं चाभ्यवादयत् |
8877 | 6116040a | अथाब्रवीद्राजपुत्रो भरतं धर्मिणां वरम् |
8878 | 6116040c | अथोपहितया वाचा मधुरं रघुनन्दनः |
8879 | 6116041a | यच्च मद्भवनं श्रेष्ठं साशोकवनिकं महत् |
8880 | 6116041c | मुक्तावैदूर्यसंकीर्णं सुग्रीवस्य निवेदय |
8881 | 6116042a | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा भरतः सत्यविक्रमः |
8882 | 6116042c | पाणौ गृहीत्वा सुग्रीवं प्रविवेश तमालयम् |
8883 | 6116043a | ततस्तैलप्रदीपांश्च पर्यङ्कास्तरणानि च |
8884 | 6116043c | गृहीत्वा विविशुः क्षिप्रं शत्रुघ्नेन प्रचोदिताः |
8885 | 6116044a | उवाच च महातेजाः सुग्रीवं राघवानुजः |
8886 | 6116044c | अभिषेकाय रामस्य दूतानाज्ञापय प्रभो |
8887 | 6116045a | सौवर्णान्वानरेन्द्राणां चतुर्णां चतुरो घटान् |
8888 | 6116045c | ददौ क्षिप्रं स सुग्रीवः सर्वरत्नविभूषितान् |
8889 | 6116046a | यथा प्रत्यूषसमये चतुर्णां सागराम्भसाम् |
8890 | 6116046c | पूर्णैर्घटैः प्रतीक्षध्वं तथा कुरुत वानराः |
8891 | 6116047a | एवमुक्ता महात्मानो वानरा वारणोपमाः |
8892 | 6116047c | उत्पेतुर्गगनं शीघ्रं गरुडा इव शीघ्रगाः |
8893 | 6116048a | जाम्बवांश्च हनूमांश्च वेगदर्शी च वानरः |
8894 | 6116048c | ऋषभश्चैव कलशाञ्जलपूर्णानथानयन् |
8895 | 6116048e | नदीशतानां पञ्चानां जले कुम्भैरुपाहरन् |
8896 | 6116049a | पूर्वात्समुद्रात्कलशं जलपूर्णमथानयत् |
8897 | 6116049c | सुषेणः सत्त्वसंपन्नः सर्वरत्नविभूषितम् |
8898 | 6116050a | ऋषभो दक्षिणात्तूर्णं समुद्राज्जलमाहरत् |
8899 | 6116051a | रक्तचन्दनकर्पूरैः संवृतं काञ्चनं घटम् |
8900 | 6116051c | गवयः पश्चिमात्तोयमाजहार महार्णवात् |
8901 | 6116052a | रत्नकुम्भेन महता शीतं मारुतविक्रमः |
8902 | 6116052c | उत्तराच्च जलं शीघ्रं गरुडानिलविक्रमः |
8903 | 6116053a | अभिषेकाय रामस्य शत्रुघ्नः सचिवैः सह |
8904 | 6116053c | पुरोहिताय श्रेष्ठाय सुहृद्भ्यश्च न्यवेदयत् |
8905 | 6116054a | ततः स प्रयतो वृद्धो वसिष्ठो ब्राह्मणैः सह |
8906 | 6116054c | रामं रत्नमयो पीठे सहसीतं न्यवेशयत् |
8907 | 6116055a | वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिरथ काश्यपः |
8908 | 6116055c | कात्यायनः सुयज्ञश्च गौतमो विजयस्तथा |
8909 | 6116056a | अभ्यषिञ्चन्नरव्याघ्रं प्रसन्नेन सुगन्धिना |
8910 | 6116056c | सलिलेन सहस्राक्षं वसवो वासवं यथा |
8911 | 6116057a | ऋत्विग्भिर्ब्राह्मणैः पूर्वं कन्याभिर्मन्त्रिभिस्तथा |
8912 | 6116057c | योधैश्चैवाभ्यषिञ्चंस्ते संप्रहृष्टाः सनैगमैः |
8913 | 6116058a | सर्वौषधिरसैश्चापि दैवतैर्नभसि स्थितैः |
8914 | 6116058c | चतुर्हिर्लोकपालैश्च सर्वैर्देवैश्च संगतैः |
8915 | 6116059a | छत्रं तस्य च जग्राह शत्रुघ्नः पाण्डुरं शुभम् |
8916 | 6116059c | श्वेतं च वालव्यजनं सुग्रीवो वानरेश्वरः |
8917 | 6116059e | अपरं चन्द्रसंकाशं राक्षसेन्द्रो विभीषणः |
8918 | 6116060a | मालां ज्वलन्तीं वपुषा काञ्चनीं शतपुष्कराम् |
8919 | 6116060c | राघवाय ददौ वायुर्वासवेन प्रचोदितः |
8920 | 6116061a | सर्वरत्नसमायुक्तं मणिरत्नविभूषितम् |
8921 | 6116061c | मुक्ताहारं नरेन्द्राय ददौ शक्रप्रचोदितः |
8922 | 6116062a | प्रजगुर्देवगन्धर्वा ननृतुश्चाप्सरो गणाः |
8923 | 6116062c | अभिषेके तदर्हस्य तदा रामस्य धीमतः |
8924 | 6116063a | भूमिः सस्यवती चैव फलवन्तश्च पादपाः |
8925 | 6116063c | गन्धवन्ति च पुष्पाणि बभूवू राघवोत्सवे |
8926 | 6116064a | सहस्रशतमश्वानां धेनूनां च गवां तथा |
8927 | 6116064c | ददौ शतं वृषान्पूर्वं द्विजेभ्यो मनुजर्षभः |
8928 | 6116065a | त्रिंशत्कोटीर्हिरण्यस्य ब्राह्मणेभ्यो ददौ पुनः |
8929 | 6116065c | नानाभरणवस्त्राणि महार्हाणि च राघवः |
8930 | 6116066a | अर्करश्मिप्रतीकाशां काञ्चनीं मणिविग्रहाम् |
8931 | 6116066c | सुग्रीवाय स्रजं दिव्यां प्रायच्छन्मनुजर्षभः |
8932 | 6116067a | वैदूर्यमणिचित्रे च वज्ररत्नविभूषिते |
8933 | 6116067c | वालिपुत्राय धृतिमानङ्गदायाङ्गदे ददौ |
8934 | 6116068a | मणिप्रवरजुष्टं च मुक्ताहारमनुत्तमम् |
8935 | 6116068c | सीतायै प्रददौ रामश्चन्द्ररश्मिसमप्रभम् |
8936 | 6116069a | अरजे वाससी दिव्ये शुभान्याभरणानि च |
8937 | 6116069c | अवेक्षमाणा वैदेही प्रददौ वायुसूनवे |
8938 | 6116070a | अवमुच्यात्मनः कण्ठाद्धारं जनकनन्दिनी |
8939 | 6116070c | अवैक्षत हरीन्सर्वान्भर्तारं च मुहुर्मुहुः |
8940 | 6116071a | तामिङ्गितज्ञः संप्रेक्ष्य बभाषे जनकात्मजाम् |
8941 | 6116071c | प्रदेहि सुभगे हारं यस्य तुष्टासि भामिनि |
8942 | 6116072a | पौरुषं विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा |
8943 | 6116072c | ददौ सा वायुपुत्राय तं हारमसितेक्षणा |
8944 | 6116073a | हनूमांस्तेन हारेण शुशुभे वानरर्षभः |
8945 | 6116073c | चन्द्रांशुचयगौरेण श्वेताभ्रेण यथाचलः |
8946 | 6116074a | ततो द्विविद मैन्दाभ्यां नीलाय च परंतपः |
8947 | 6116074c | सर्वान्कामगुणान्वीक्ष्य प्रददौ वसुधाधिपः |
8948 | 6116075a | सर्ववानरवृद्धाश्च ये चान्ये वानरेश्वराः |
8949 | 6116075c | वासोभिर्भूषणैश्चैव यथार्हं प्रतिपूजिताः |
8950 | 6116076a | यथार्हं पूजिताः सर्वे कामै रत्नैश्च पुष्कलैर् |
8951 | 6116076c | प्रहृष्टमनसः सर्वे जग्मुरेव यथागतम् |
8952 | 6116077a | राघवः परमोदारः शशास परया मुदा |
8953 | 6116077c | उवाच लक्ष्मणं रामो धर्मज्ञं धर्मवत्सलः |
8954 | 6116078a | आतिष्ठ धर्मज्ञ मया सहेमां; गां पूर्वराजाध्युषितां बलेन |
8955 | 6116078c | तुल्यं मया त्वं पितृभिर्धृता या; तां यौवराज्ये धुरमुद्वहस्व |
8956 | 6116079a | सर्वात्मना पर्यनुनीयमानो; यदा न सौमित्रिरुपैति योगम् |
8957 | 6116079c | नियुज्यमानो भुवि यौवराज्ये; ततोऽभ्यषिञ्चद्भरतं महात्मा |
8958 | 6116080a | राघवश्चापि धर्मात्मा प्राप्य राज्यमनुत्तमम् |
8959 | 6116080c | ईजे बहुविधैर्यज्ञैः ससुहृद्भ्रातृबान्धवः |
8960 | 6116081a | पौण्डरीकाश्वमेधाभ्यां वाजपेयेन चासकृत् |
8961 | 6116081c | अन्यैश्च विविधैर्यज्ञैरयजत्पार्थिवर्षभः |
8962 | 6116082a | राज्यं दशसहस्राणि प्राप्य वर्षाणि राघवः |
8963 | 6116082c | शताश्वमेधानाजह्रे सदश्वान्भूरिदक्षिणान् |
8964 | 6116083a | आजानुलम्बिबाहुश्च महास्कन्धः प्रतापवान् |
8965 | 6116083c | लक्ष्मणानुचरो रामः पृथिवीमन्वपालयत् |
8966 | 6116084a | न पर्यदेवन्विधवा न च व्यालकृतं भयम् |
8967 | 6116084c | न व्याधिजं भयं वापि रामे राज्यं प्रशासति |
8968 | 6116085a | निर्दस्युरभवल्लोको नानर्थः कंचिदस्पृशत् |
8969 | 6116085c | न च स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते |
8970 | 6116086a | सर्वं मुदितमेवासीत्सर्वो धर्मपरोऽभवत् |
8971 | 6116086c | राममेवानुपश्यन्तो नाभ्यहिंसन्परस्परम् |
8972 | 6116087a | आसन्वर्षसहस्राणि तथा पुत्रसहस्रिणः |
8973 | 6116087c | निरामया विशोकाश्च रामे राज्यं प्रशासति |
8974 | 6116088a | नित्यपुष्पा नित्यफलास्तरवः स्कन्धविस्तृताः |
8975 | 6116088c | कालवर्षी च पर्जन्यः सुखस्पर्शश्च मारुतः |
8976 | 6116089a | स्वकर्मसु प्रवर्तन्ते तुष्ठाः स्वैरेव कर्मभिः |
8977 | 6116089c | आसन्प्रजा धर्मपरा रामे शासति नानृताः |
8978 | 6116090a | सर्वे लक्षणसंपन्नाः सर्वे धर्मपरायणाः |
8979 | 6116090c | दशवर्षसहस्राणि रामो राज्यमकारयत् |
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